Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
मार्ग और भक्त
गीता के ग्यारहवें अध्याय में उसकी शिक्षा का मूल उद्देश्य सफल हो चका है और कुछ हद तक तो वह पूर्ण भी हो गया है । जगत् के लिए तथा उन परमात्मा के साथ एक होकर, जो इसमें और इसके सब प्राणियों में निवास करते हैं तथा जिनके अंदर इसका समस्त कार्य-व्यवहार चलता है, दिव्य कर्म करने का आदेश दिया जा चुका है और विभूति ने उसे स्वीकार भी कर लिया है । शिष्य को उसके सामान्य मानबोचित पुरातन भाव से, उसके अज्ञान के मापदंडों, प्रेरक-भावों, दृष्टिबिंदु तथा अहमात्मक चेतना से तथा उस सबसे दूर हटा लिया गया है जिसने उसके आध्यात्मिक संकट के समय अंतिम रूप से उसका साथ छोड़ दिया था । ठीक वही कार्य जिसे उस आधार पर उसने त्याग दिया था, वही घोर कर्म, वही भयानक संघर्ष अब एक नये आंतरिक आधार पर उसे स्वीकार तथा ग्रहण करा दिया गया है । एक समन्वय साधक महत्तर ज्ञान, एक दिव्यतर चेतना, एक उच्च निर्वैयक्तिक प्रेरक-भाव, आध्यात्मिक प्रकृति की मूल ज्योति से तथा उसकी प्रेरक शक्ति के द्वारा जगत् पर कार्य करती हुई भगवदिच्छा के साथ होनेवाले एकत्व का आध्यात्मिक मानदंड,--यही कर्मों का नया आंतरिक सिद्धांत है जिसे पुराने अज्ञान-युक्त कर्म का रूपांतर करना है । एक ऐसा ज्ञान जो भगवान् के साथ हमारे एकत्व को अपने अंदर समाविष्ट करता है और भगवान् की अनुभूति के द्वारा सब पदार्थों तथा जीवों के साथ सचेतन एकत्व प्राप्त करता है, एक ऐसी इच्छाशक्ति जो अहंकार से रहित हो तथा कर्मों के गुप्त स्वामी के आदेश के द्वारा तथा उनके यंत्न के रूप में ही कार्य करे, एक ऐसा दिव्य प्रेम जिसकी एकमात्र अभीप्सा भूत मात्र के परम आत्मा के साथ घनिष्ठ सान्निध्य प्राप्त करने की ही हो, परात्पर एवं विश्वगत आत्मा और प्रकृति के साथ तथा समस्त प्राणियों के साथ एक ऐसी आभ्यंतरिक और समय-बोधात्मक एकता जो इन तीन पूर्णता प्राप्त शक्तियों की एकता के द्वारा संसिद्ध और उपलब्ध हुई हो--यही है वह आधार जो मुक्त आत्मा को उसके कर्मों के लिए प्रदान किया गया है । क्योंकि, इसी आधार पर से उसकी अंतःस्थ आत्मा करणात्मक प्रकृति
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को सुरक्षापूर्वक कार्य करने दे सकती है; वह पतन के समस्त कारण से ऊपर उठ जाता है, अहंभाव और उसकी सीमाओं से मुक्त हो जाता है, पाप, अशुभ और उसके फल के समस्त भय से बच जाता है, बाह्य प्रकृति तथा सीमित कर्म के उस बंधन से, जो कि अज्ञान की ग्रंथि है, ऊँचा उठ जाता है । वह अब और अस्पष्ट आलोक या अंधकार में कार्य न करके ज्योति की शक्ति में कार्य कर सकता है, तथा एक दिव्य अनुमति उसके आचार-व्यवहार के प्रत्येक पग को सहारा देती है । आत्मा की स्वतंत्रता तथा प्रकृतिगत जीव की बद्धावस्था के बीच विरोध होने के कारण जो समस्या उठायी गयी थी वह आत्मा तथा प्रकृति के ज्योतिर्मय समन्वय के द्वारा हल कर दी गयी है । असल में उस विरोध का अस्तित्व अज्ञान-युक्त मन के लिए ही है; ज्ञानयुक्त आत्मा के लिए उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता ।
परंतु इस महान् आध्यात्मिक परिवर्तन के संपूर्ण अर्थ को प्रकाशित करने के लिए अभी कुछ और कहना बाकी है । बारहवाँ अध्याय इस शेष ज्ञान की और ले जाता है और उसके बाद के अंतिम छ: अध्याय इसे विकसित कर एक महान् और चरम सिद्धांत तक ले जाते हैं 1 यह बात जिसे कहना अभी बाकी है आध्यात्मिक मोक्ष के संबंध में प्रचलित वैदांतिक बिचार तथा उस विशालतर सर्वग्राही स्वतंत्रता के पारस्परिक भेद पर अवलंबित है जिसे गीता की शिक्षा आत्मा के सम्मुख खोल देती है । अब गीता सीधे उस भेद की ओर मुड़ती है । प्रचलित वैदांतिक मार्ग साधक को कठोर और एकांगी ज्ञान के द्वार से ले चलता था । योग, अर्थात् वह एकत्व जिसे वह आध्यात्मिक मुक्ति का साधन तथा तन्मयकारी सारतत्व मानता था, शुद्ध ज्ञान का योग था और वह एक परम अक्षर, एक कूटस्थ अनिर्देश्य सत्ता के साथ निस्तब्ध एकत्व था--वह सत्ता है अव्यक्त ब्रह्म, अनंत, शांत, अगोचर एवं दूरस्थ, इस समस्त संबंधमय विश्व से बहुत ही ऊपर अवस्थित । गीतोक्त मार्ग में ज्ञान एक अनिवार्य आधार है सही, पर केवल सर्वांगीण ज्ञान ही । निर्वेयक्तिक सर्वांगीण कर्म सर्वप्रथम अनिवार्य साधन हैं; परंतु गभीर और विशाल प्रेम तथा आराधना, जिनके प्रति संबंधातीत अव्यक्त, विविक्त और अचल ब्रह्म कोई प्रत्युत्तर नहीं दे सकता,--क्योंकि ये चीजें संबंध तथा घनिष्ठ वैयक्तिक सामीप्य की माँ करती हैं,--मोक्ष, आध्यात्मिक पूर्णत्व एवं अमर आनंद के लिए प्रबलतम और उच्चतम शक्ति हैं । जिन परमेश्वर के साथ मानव की आत्मा को यह घनिष्ठ एकत्व प्राप्त करना है वे अपनी सर्वोच्च भूमिका में निश्चय ही एक अचिंत्य परात्पर हैं, परब्रह्मन् हैं, अर्थात् इतने महान् हैं कि उनकी कोई भी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती; पर साथ ही वे सब
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वस्तुओं के जीवंत परम आत्मा भी हैं । वे महेश्वर हैं, कर्मों के तथा विश्व-प्रकृति के प्रभु हैं । वे प्राणिमात्र के मन, देह और आत्मा से परे भी हैं और साथ ही उनकी आत्मा के रूप में उनके अंदर बसे हुए भी हैं । वे पुरुषोत्तम, परमेश्वर और परमात्मा हैं और इन सब समान रूपों में एक ही अभिन्न और सनातन देवाधिदेव हैं । इस सर्वांगीण समन्वयकारी ज्ञान के प्रति जागरण ही आत्मा की पूर्ण मुक्ति तथा प्रकृति की कल्पनातीत पूर्णता का विशाल द्वार है । अपने सभी रूपों की एकता से समन्वित इन परमेश्वर की ओर ही हमें अपने सब कर्म-कलाप, उपासना और ज्ञान को एक अखंड अंतर्यज्ञ के रूप में मोड़ना होगा । इन परम आत्मा, पुरुषोत्तम में ही, जो विश्व से अतीत हैं पर साथ ही इसकी धारक आत्मा, अंतर्वासी और स्वामी भी हैं, जैसा कि कुरुक्षेत्र के विराट्-रूप-दर्शन में ओजस्वी ढंग से निरूपित किया गया है, मुक्त आत्मा को तब प्रवेश करना होगा जब वह एक बार उनकी सत्ता के सभी तत्वों और शक्तियों समेत उनका साक्षात्कार और ज्ञान प्राप्त कर ले तथा उनके बहुविध एकत्व को हृदयंगम करने और उसका रसास्वादन करने में समर्थ हो जाय, 'ज्ञातुं द्रष्टुं तत्त्वेन प्रवेष्टुं च ।'
गीता का मोक्ष एकमेव के भीतर होनेवाले लय में आत्मा की वैयक्तिक सत्ता का आत्म-विस्मृतिपूर्ण विलोप नहीं है, 'सायुज्य मुक्ति' नहीं है; वह एक साथ ही सब प्रकार का मिलन है । उसमें परम देवाधिदेव के साथ सत्ता के मुलतत्त्व, चेतना की घनिष्ठता और आनंद की अभिन्नता में पूर्ण एकीभाव किंवा 'सायुज्य' है ,--क्योंकि इस योग का एक लक्ष्य ब्रह्म बनना है, 'ब्रह्मभूत' । उसमें पुरुषोत्तम की सर्वोच्च सत्ता में नित्य आनंदमय निवास, 'सालोक्य' है,--क्योंकि यह कहा गया है कि ''तू मुझमें निवास करेगा,'' 'निवसिष्यसि मय्येव' । उसमें एकीकारक सान्निध्य की स्थिति में शाश्वत प्रेम और भक्ति है, मुक्त आत्मा का उसके दिव्य प्रेमी तथा उसकी असीमताओं को परिव्याप्त करनेवाली आत्मा के द्वारा आलिंगन, 'सामीप्य' है । उसमें आत्मा की मुक्त प्रकृति का दिव्य प्रकृति के साथ तादात्म्य, अर्थात् 'सादृश्य मुक्ति' है--क्योंकि मुक्त आत्मा की पूर्णता है भगवान् के समान ही बन जाना, 'मद्भावमागत:', और अपनी सत्ता के विधान एवं अपने कर्म तथा प्रकृति के नियम में उनके साथ एक हो जाना, 'साधर्म्यमागतः' । पुराणपंथी ज्ञानयोग का लक्ष्य एकमेव अनंत सत् में अगाध लय अर्थात् 'सायुज्य' है; वह केवल उसीको संपूर्ण मोक्ष समझता है । भक्तियोग नित्य निवास या सामीप्य, 'सालोक्य, सामीप्य', को ही महत्तर मोक्ष के रूप में देखता है । कर्मयोग सत्ता तथा प्रकृति की शक्ति में, स्वभाव एवं स्वधर्म में एकत्व, 'सादृश्य' की ओर ले जाता है : पर गीता अपनी
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उदार समग्रता में इन सबको समा लेती है और सभी को एक महत्तम एवं समृद्धतम दिव्य स्वतंत्रता तथा पूर्णता में एकीभूत कर देती है ।
इस भेद के विषय में अर्जुन से ही प्रश्न करवाया जाता है । यह स्मरण' रखना होगा कि निर्गुण अक्षर पुरुष तथा उन परमात्मा के बीच विभेद जो एक साथ निर्वैयक्तिक सत् भी हैं और दिव्य व्यक्ति भी और इन दोनों से अधिक भी बहुत कुछ है'--यह महत्वपूर्ण विभेद, जो पीछे के अध्यायों में तथा उस दिव्य ''अहम्' ' में सूचित किया गया है जिसका श्रीकृष्ण 'अहम्', 'माम् शब्दों द्वारा बारम्बार उल्लेख कर चुके हैं, अभी तक सर्वथा स्पष्ट और सुनिश्चित रूप में नहीं बतलाया गया है । हम इसे सर्वत्र पहलेसे ही देखते आये हैं ताकि हम गीता के संदेश का संपूर्ण मर्म आरम्भ से ही समझते चले और इस महत्तर सत्य के प्रकाश में नयी दृष्टि से देखी और खोजी हुई उसी जमीन पर हमें फिरसे न चलना पडे, जैसा कि हमें अन्यथा करना ही पड़ता । अर्जुन को सबसे पहले यह आदेश दिया गया है कि वह अपने पृथक् व्यक्तित्व को एकमेव सनातन और अक्षर आत्मा की शांत निर्वैयक्तिकता में निमज्जित कर दे; यह एक ऐसी शिक्षा थी जो उसकी पहलेकी धारणाओं से भलीभाँति मेल खाती थी और जिससे उसके मन में कोई कठिनाई नहीं पैदा हुई । परन्तु अब उसे इन महत्तम परात्पर एवं विशालतम विराट् परमेश्वर के विश्वरूप का साक्षात्कार कराया गया है और आदेश दिया गया है कि वह ज्ञान, कर्म और भक्ति के द्वारा उनके साथ एकत्व प्राप्त करने का यत्न करे । इसलिए एक संदेह को दूर करने के लिए, जो कि अन्यथा पैदा हो सकता था, वह पूछता है कि इन दोनों में से अच्छा क्या है, ''जो भक्त इस प्रकार सतत योगरत रहकर तुझे खोजते हैं, 'त्वाम्' और फिर जो अव्यक्त अक्षर को खोजते हैं इनमें से कौन अधिक महान योगवित् है?''१ यह उस भेद की याद दिलाता है जो आरम्भ में ''आत्मा में और फिर मुझ में'', 'आत्मनि अथो मयि' आदि वाक्यांशों से किया गया है : अर्जुन उस भेद को 'त्वाम्, अक्षरम् अव्यक्तम्' इन शब्दों के द्वारा पैने रूप में उपस्थित करता है । वह सार-रूप में कहता है कि आप सर्वभूतों के परम मूल और उद्गम हैं, सब वस्तुओं के भीतर विराजमान उपस्थिति हैं, अपने रूपों के द्वारा विश्व में परिव्याप्त शक्ति हैं, एक ऐसे 'व्यक्ति' है जो अपनी विभूतियों में, प्राणियों में, तथा प्रकृति में अभिव्यक्त हैं और अपने महान् विश्व-योग के द्वारा जगत् में तथा हमारे हृदयों में सर्वकर्म-महेश्वर के रूप में विराजमान हैं । इस रूप में मुझे अपनी सारी सत्ता तथा चेतना में, अपने विचारों, भावों और कार्यों मै आपको जानना, पूजना तथा आपके साथ योगयुक्त 'सततयुक्त' होना है । पर
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तब इन अक्षर का क्या करना होगा जो कभी व्यक्त नहीं होते, कभी कोई रूप नहीं धारण करते, कर्ममात्र से पीछे हटकर तथा उससे पृथक् होकर अवस्थित हैं, जगत् के साथ अथवा इसकी किसी भी वस्तु के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं स्थापित करते, नित्यमेव शांत, एक, निर्गुण और अचल हैं ? सभी प्रचलित विचारों के अनुसार यह नित्य आत्मा महत्तर तत्व है और अभिव्यक्तिगत परमेश्वर अवर रूप हैं : 'अव्यक्त' ही नित्य आत्मा हैं, 'व्यक्त' नहीं । तब भला जो योग अभिव्यक्ति को स्वीकार करता है, अर्थात् एक हीनतर वस्तु को अंगीकार करता है वह वैसा करता हुआ भी एक अधिक महान् योग-ज्ञान कैसे हो सकता है ?
इस प्रश्न का श्रीकृष्ण बलपूर्ण तथा निश्चयात्मक शब्दों में उत्तर देते हैं । ''जो मुझमें मन लगाकर, नित्ययुक्त होकर परम श्रद्धा के साथ मुझे खोजते हैं उन्हें मैं सर्वाधिक पूर्ण रूप से योगयुक्त मानता हूँ ।''१ परम श्रद्धा वह है जो सबके अन्दर ईश्वर को देखती है और उस श्रद्धा के नेत्र के लिए अभिव्यक्ति तथा अनभिव्यक्ति एक ही परमेश्वर हैं । पूर्ण मिलन या योगयुक्त भाव वह है जो प्रत्येक क्षण में, प्रत्येक कार्य में तथा संपूर्ण प्रकृति के साथ भगवान् से मिलता है । परन्तु परमेश्वर कहते हैं कि जो एक दुष्कर आरोहण के द्वारा अनिर्देश्य अव्यक्त अक्षर की ही खोज करते हैं वे भी मुझे ही प्राप्त करते हैं । क्योंकि, वे अपने लक्ष्य में भ्रांत नहीं हैं, किन्तु वे एक अधिक कठिन तथा कम पूर्ण और कम सिद्ध मार्ग का अनुसरण करते हैं । उस मार्ग के सरलतम रूप में, उन्हें अव्यक्त कूटस्थ तक पहुँचने के लिए यहाँ विद्यमान व्यक्त अक्षर के द्वारा ही आरोहण करना होता है । यह व्यक्त अक्षर मेरी ही अपनी सर्वव्यापक निर्वैयक्तिकता और नीरवता है; यह बृहत्, अचिंत्य, ध्रुव, अचल, सर्वव्यापक 'अक्षर' पुरुष व्यक्तित्व के व्यापार को धारण करता है पर उसमें भाग नहीं लेता । यह मन की पकड़ में नहीं आता; इसे केवल निश्चल आध्यात्मिक निर्वैयक्तिकता और नीरवता के द्वारा ही उपलब्ध किया जा सकता है और जो लोग केवल इसी का अनुसंधान करते हैं उन्हें मन तथा इद्रियों के व्यापार को पूर्ण रूप से नियंत्रित करना और यहाँतक कि उसे सर्वात्मना अपने अन्दर समेट लेना होता है । परन्तु फिर भी अपनी बुद्धि की समता के कारण सब पदार्थों में एक ही आत्मा को देखने तथा सर्वभूतों के हित में निरत नीरव चित्त की शांत दयालुता के कारण वे भी सब पदार्थों तथा प्राणियों में मुझसे ही मिलते हैं । जो लोग सर्वभावेन भगवान् के साथ युक्त होते हैं, और जगत् के पदार्थों के अचिंत्य जीवंत स्रोत में, 'दिव्यं पुरुष-
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मचिन्त्यरूप् में व्यापक और पूर्ण रूप से प्रवेश करते हैं, उनके समान ही, इस कठिनतर ऐकांतिक एकत्व के द्वारा संबंधातीत अव्यक्त कूटस्थ की ओर आरोहण करनेवाले ये जिज्ञासु भी अंत में उसी सनातन को प्राप्त करते हैं । परन्तु यह कम सीधा तथा अधिक दुर्गम मार्ग है; यह अध्यात्मभावित मानव प्रकृति की पूर्ण और स्वाभाविक गति नहीं है ।
और यह नहीं समझ लेना चाहिए कि क्योंकि यह अधिक दुर्गम है, इसलिए यह एक उच्चतर एवं अधिक फलप्रद पद्धति है । गीता का सुगमतर मार्ग उसी चरम मोक्ष की ओर अधिक तेजी से, अधिक स्वाभाविक और सर्वसुलभ रूप से ले जाता है । क्योंकि, उसका दिव्य 'पुरुष' को स्वीकार करना देहधारी प्रकृति की मानसिक तथा ऐन्द्रियक सीमाओं के प्रति किसी प्रकार की आसक्ति को नहीं सूचित करता । इसके विपरीत, वह आवागमन के प्राकृत बंधन से शीघ्र ही और प्रभावशाली रूप में मुक्त कर देता है । ऐकांतिक ज्ञानमार्ग का योगी अपनी प्रकृति की बहुविध माँगों के साथ एक दुःखदायी संघर्ष को अपने ऊपर लाद लेता है; यहाँतक कि वह उन्हें उनकी उच्चतम तृप्ति प्रदान करने से भी इन्कार करता है और अपनी आत्मा के ऊर्ध्वमुख संवेगों को भी उखाड़ फेंकता है जब कभी वे संबंधों को अपने अंतर्गत रखते हैं अथवा निषेधकारी 'केवल' से कुछ नीचे य जाते हैं । दूसरी ओर, गीता का जीवंत मार्ग हमारी संपूर्ण सत्ता की अत्यंत बलवती ऊर्ध्वमुख प्रवृत्ति को ढूंढ़ निकालता है और उसे ईश्वर की ओर मोड़कर ज्ञान, संकल्प, भाव और पूर्णत्व की सहज प्रेरणा को आरोही मोक्ष के इतने सारे सशक्त पंखों की न्याई प्रयुक्त करता है । अपने अनिर्देश्य एकत्व से युक्त अव्यक्त ब्रह्य एक ऐसी सत्ता है जिसतक देहधारी आत्माएँ केवल पहुँच ही सकती हैं, और सो भी बड़ी कठिनाई के साथ और सभी अवदमित अंगों के अनवरत दमन तथा पीड़न और प्रकृति के उग्र कष्ट-क्लेश के द्वारा ही, 'दु:खमवाप्यते, क्लेशोऽधिक-तरस्तेषाम् ।' वह अनिर्देश्य एकत्व अपनी ओर आरोहण करनेवाले सभी लोगों को स्वीकार करता है, पर आरोहण करनेवाले को न तो किसी प्रकार की संबंधात्मक महायता प्रदान करता है और न उसे पैर जमाने की जगह ही देता है । सब कुछ कठोर तपस्या और कठिन तथा असहाय वैयक्तिक पुरुषार्थ के द्वारा ही करना होता है । पर जो गीतोक्त मार्ग के अनुसार पुरुषोत्तम की खोज करते हैं उनका प्रयास कितने भिन्न प्रकार का है ! जब वे एक ऐसे योग के द्वारा पुरुषोत्तम का ध्यान करते हैं जो वासुदेव के सिवा और किसी को नहीं देखता, क्योंकि वह सबको उन्हींके रूप में देखता है, तो वे प्रत्येक स्थल पर, प्रत्येक क्षण, सदा-सर्वदा अपने अगणित रूपों तथा आकृतियों के साथ उनसे मिलते हैं,
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उनके अंदर के ज्ञानदीप को ऊपर उठाते हैं तथा उसकी दिव्य सुखद ज्योति से संपूर्ण सत्ता को परिप्लावित कर देते हैं । उससे आलोकित होकर वे प्रत्येक रूप तथा आकार में परमात्मा को निहारते हैं, समस्त प्रकृति के द्वारा प्रकृति के प्रभु को प्राप्त करते हैं और इसके साथ ही साथ सब भूतों के द्वारा भूतमात्र की अंतरात्मा को, 'अपने-आप'के द्वारा उस सबकी, जो कुछ कि वे हैं, आत्मा को प्राप्त करते है; तुरंत ही वे सैकड़ों खुलते हुए मार्गों को एक साथ पार करते हुए उसमें प्रवेश करते हैं जिससे प्रत्येक वस्तु का उद्धव होता है । इसके विपरीत, कठिन संबंधशून्य निस्तब्धता की पद्धति कर्ममात्र से परे हटने का यत्न करती है यद्यपि देहधारी प्राणियों के लिए ऐसा करना असंभव है । पर यहां सब कार्य कर्म के परम प्रभु के प्रति उत्सर्ग कर दिये जाते हैं और वे प्रभु परम संकल्प-शक्ति के रूप में हमारे यजन-संकल्प से मिलते हैं, उसका भार उससे लेकर हमारी अंतःस्थ दिव्य प्रकृति के कार्यों का दायित्व अपने ऊपर ले लेते हैं । इसी प्रकार जब मनुष्य तथा प्राणिमात्न के प्रेमी और सखा का भक्त प्रेम के उदात्त आवेगों में अपनी चेतना के संपूर्ण अंतस्तल और. आनंद की समस्त उत्कंठा को उन परमात्मा की ओर लगा देता है तब वे शीघ्र ही रक्षक और उद्धारक के रूप में उसके सम्मुख उपस्थित होते हैं और उसके मन, तन और हृदय का सुखद आलिंगन करके उसे इस मृत्युसमाकुल संसार-सागर की लहरों से उबार लेते है और सनातन के सुरक्षित वक्षस्थल में ऊपर उठा ले जाते हैं ।
सो, सबसे अधिक द्रुत, विशाल और महान् मार्ग यही है । परमेश्वर मानव-आत्मा से कहते हैं, अपना संपूर्ण मन मुझमें लगा दे, अपनी समस्त बुद्धि मुझमें निवेशित कर दे : मैं उन्हें दिव्य प्रेम, संकल्प और ज्ञान की स्वर्गीय ज्योति से परिप्लुत करके अपनी ही ओर, जहाँसे ये सब चीजें प्रवाहित होती हैं, ऊपर उठा ले जाऊँगा । इस मर्त्य जीवन से ऊपर तू मेरे अंदर ही निवास करेगा, इस विषय में संशय मत कर । सीमा में बाँधनेवाली पार्थिव प्रकृति की शृंखला शाश्वत प्रेम, संकल्प और ज्ञान की स्पृहा, शक्ति और ज्योति के द्वारा ऊपर उठी हुई अक्षर आत्मा को जकड़कर नहीं रख सकती । इसमें संदेह नहीं कि इस मार्ग में भी कठिनाइयाँ हैं; क्योंकि यहाँ भी अपने प्रचंड या स्थूल अधोमुख आकर्षण से युक्त निम्नतर प्रकृति का अस्तित्व है जो आरोहण की गति का प्रतिरोध करती है, उसके साथ संघर्ष करती है और उन्नयन तथा उर्ध्वमुख हर्षोल्लास के पंखों को अवरुद्ध कर देती है । आरंभ में महान् चमत्कारक घड़ियों में या शांत और भव्य अवधियों में दिव्य चेतना के प्राप्त हो जाने पर भी, उसे न तो तुरत पूर्ण रूप से धारण किया जा सकता है और न इच्छानुसार उसका पुनः आह्वान
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ही किया जा सकता है; व्यक्तिगत चेतना को दृढ़तापूर्वक भगवान् पर एकाग्र रख सकना प्राय: ही असाध्य प्रतीत होता है; ऐसी निशाएँ आती हैं जब कि व्यक्ति दीर्घकाल तक प्रकाश से निर्वासित रहता है, विद्रोह, संदेह या विफलता की घड़ियाँ अथवा अवसर आते हैं । परंतु फिर भी योगाभ्यास से तथा अनुभव की सतत पुनरावृत्ति के द्वारा वह उच्चतम आत्मा हमारी सत्ता पर हावी होती जाती है और हमारी प्रकृति को स्थिर रूप से अपने अधिकार में कर लेती है । क्या यह भी मन की बहिर्मुख प्रवृत्ति के बल और आग्रह के कारण अत्यंत कठिन प्रतीत होता है ? यदि ऐसा हो तो इसका एक सरल उपाय है, सब कार्यों को कर्म के स्वामी के लिए करना, जिससे मन की प्रत्येक बहिर्मुख प्रवृत्ति हमारी सत्ता के आंतर आध्यात्मिक सत्य से संबद्ध हो जाय और यहाँतक कि उसे अपनी क्रिया-शीलता के समय भी नित्य सद्वस्तु की ओर पुन: आहूत करके अपने उद्गम के साथ संबद्ध किया जासके । तब, पुरुषोत्तम की उपस्थिति प्रकृतिगत मनुष्य के अंदर संवर्धित होती जायगी जबतक कि वह उससे परिपूरित होकर एक देवता और आत्मा ही नहीं बन जाता; संपूर्ण जीवन ईश्वर के अनवरत स्मरण का रूप धारण कर लेगा और पूर्णता भी वर्धित होगी और उसके साथ ही मानव आत्मा की संपूर्ण सत्ता का परम सत्ता के साथ एकत्व भी ।
परंतु हो सकता है कि ईश्वर का यह अविच्छिन्न स्मरण तथा अपने कार्यों को उनकी ओर ऊपर उठा ले जाना भी सीमित मन की सामर्थ्य से परे की वस्तु प्रतीत हो, क्योंकि मन अपनी आत्म-विस्मृति की अवस्था में कार्य तथा उसके बाह्य उद्देश्य की ओर मुड़ जाता है और तब उसे भीतर देखना तथा हमारी प्रत्येक चेष्टा को आत्मा की दिव्य वेदी पर उत्सर्ग करना स्मरण नहीं रहता । ऐसी दशा में उपाय यह है कि कर्म में निम्नतर 'स्व' को संयमित करके फल की कामना के बिना कर्म किये जायें । समस्त फल का त्याग करना होगा, उसे कर्म का संचालन करनेवाली शक्ति पर उत्सर्ग कर देना होगा और फिर भी, वह शक्ति हमारी प्रवृत्ति पर जिस कार्य को आरोपित करे उसे करना ही होगा । क्योंकि, इस साधन के द्वारा बाधा निरंतर घटती जाती है और आसानी से दूर हो जाती है, मन को ईश्वर का स्मरण करने तथा भगवच्चेतना के स्वातंत्त्र्य पर अपनेको एकाग्र करने का अवकाश प्राप्त हो जाता है । यहाँ गीता क्षमताओं की एक चढ़ती हुई शृंखला का प्रतिपादन करती है और निष्काम कर्मों के इस योग को सर्वोच्च महत्त्व प्रदान करती है । अभ्यास, अर्थात् किसी पद्धति का निरंतर अनुसरण करना, बारंबार प्रयत्न करना तथा अनुभव प्राप्त करना एक महान् और शक्ति-शाली साधन है; पर इससे भी श्रेष्ठ है ज्ञान अर्थात् विचार को वस्तुओं के पीछे
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निहित सत्य की ओर सफल तथा प्रकाशमय रूप में मोड़ना । इस विचारात्मक ज्ञान से भी बढ़कर है सत्य का शांत ध्यान जिससे कि अंत में जाकर चेतना उसमें निवास करने लगे और उससे सदा एकमय रहे । परंतु उससे भी अधिक प्रभाव-शाली है अपने कर्मों के फल का त्याग क्योंकि वह विक्षोभ के सभी कारणों को तुरंत नष्ट कर डालता है और स्वभावत: ही एक आंतरिक शांति एवं स्थिरता को लाता तथा सुरक्षित रखता है, और शांति एवं स्थिरता ही वह आधार हैं जिस-पर अन्य सब कुछ पूर्णत्व लाभ करता है और शांत आत्मा के द्वारा अधिकृत हो कर सुरक्षित हो जाता है । तब चेतना निवृत्ति लाभ कर सकती है, अपने-आपको आनंदपूर्वक भगवान् में समाहित करके निर्विघ्न रूप से पूर्णता की ओर उठ सकती है । और, तभी ज्ञान, संकल्प और भक्ति अपने शिखरों को ठोस शांति की दृढ़ भूमि से नित्यता के व्योम में उठा ले जा सकते हैं ।
तब भला, जिस भक्त ने इस मार्ग का अनुसरण किया है और सनातन की उपासना की ओर मुड़ा है, उसकी दिव्य प्रकृति क्या होगी, उसकी चेतना और सत्ता की महत्तर स्थिति क्या होगी ? गीता कई-एक श्लोकों में बदल-बदलकर अनेक प्रकार से अपनी पहली आग्रहपूर्ण माँग को, समता, निष्कामता और आत्मा के स्वातंत्त्र्य की माँग को गुंजारित करती है । इसे तो आधार के रूप में सदा ही रहना होगा,--और इसीलिए इसपर आरंभ में इतना अधिक बल दिया गया था । और, उस समता में भक्ति, अर्थात् पुरुषोत्तम से प्रेम और उनकी आराधना के द्वारा आत्मा को किसी महत्तम एवं उच्चतम पूर्णता की ओर उठाना होगा जिसका यह स्थिर समता विशाल आधार होगी । इस आधारभूत सम चेतना के कई सूत्र यहाँ बताये गये हैं । सर्वप्रथम, अहंभाव का, अहंता और ममता का अभाव, 'निर्ममो निरहंकार: ।' पुरुषोत्तम का भक्त वह है जिसका ऐसा विशाल मन और हृदय है जिसने अहं की सब तंग दीवारों को तोड़ डाला है । सार्वभौम प्रेम उसके हृदय में निवास करता है, उसके अंतर से एक विश्व-व्यापी करुणा का समुद्र चतुर्दिक् उमड़ा पड़ता है । वह सर्वभूतों के प्रति मैत्नी और करुणा का भाव धारण करेगा तथा किसी भी प्राणी से घृणा नहीं करेगा; .क्योंकि वह धैर्यवान्, चिर-सहिष्णु, तितिक्षु और क्षमा का निर्झर होता है । निष्काम संतोष, सुख-दु:ख तथा हर्ष-शोक के प्रति शांत समता, दृढ़ आत्म-संयम, योगी का अचल-अटल संकल्प एवं दृढ़ निश्चय और संपूर्ण मन-बुद्धि को ईश्वर के प्रति, उसकी चेतना और ज्ञान. के स्वामी के प्रति अर्पित करनेवाला प्रेम और भक्ति--ये सब उसकी संपदाएँ होती हैं । अथवा, सरल शब्दों में कहें तो, वह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो क्षुब्ध एवं उत्तेजित निम्न प्रकृति मे तथा उसकी
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हर्ष, भय, चिता, क्रोध और कामना-रूपी लहरों से मुक्त होगा, एक स्थिर आत्मा होगा जिसके द्वारा जगत् व्यथित या उद्विग्न नहीं होगा और न वह स्वयं ही जगत् के द्वारा व्यथित या उद्विग्न होगा, वह एक शांतिमय आत्मा होगा जिसके साथ सब शांतिमयता को प्राप्त करेंगे ।
या फिर वह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो समस्त कामना और कर्म को अपनी सत्ता के स्वामी के प्रति उत्सर्ग कर चुका होगा, जो पवित्र और शांत, तथा जो कुछ भी हो जाय उसके प्रति उदासीन होगा, किसी भी परिणाम या घटना से व्यथित या दुःखित न होगा, जो आंतर या बाह्य किसी भी कार्य के समस्त अहंकार-मय, वैयक्तिक और मानसिक उपक्रम और आरंभ को अपनेसे परे फेंक चुका होगा, जो दिव्य संकल्प एवं दिव्य ज्ञान को अपने निजी निश्चयों, पसंदगियों और कामनाओं के द्वारा पथच्युत हुए बिना अपने अंदर से प्रवाहित होने देगा, और फिर भी ठीक इसी कारण अपनी प्रकृति के समस्त कर्म में तीव्र और दक्ष होगा, क्योंकि परम संकल्प के साथ यह अविकल एकत्व, यह शुद्ध यंत्र-भाव महत्तम कर्म-कुशलता की शर्त है । और, फिर, वह एक ऐसा व्यक्ति होगा जो न तो प्रिय वस्तु की आकांक्षा करेगा तथा उसके स्पर्श से पुलकित होगा और न ही अप्रिय वस्तु से घृणा करेगा तथा उसके बोझ से दु:खित होगा । वह शुभ और अशुभ घटनाओं के भेद को मिटा चुका है, क्योंकि उसकी भक्ति सभी वस्तुओं को अपने सनातन प्रेमी और प्रभु के हाथों से प्राप्त अच्छी वस्तुएँ समझती हुई समान भाव से उनका स्वागत करती है । ईश्वर का प्रिय ईश्वर-प्रेमी विशाल समत्व से युक्त आत्मा होता है जो मित्र और शत्रु के प्रति सम दृष्टि रखता है, मान-अपमान, सुख-दु:ख, निंदा-स्तुति, हर्ष-शोक एवं शीत-उष्ण तथा उन सब चीजों के प्रति सम होता है जो सामान्य प्रकृति को विरोधी भावों से व्यथित करती हैं । वह किसी भी व्यक्ति या वस्तु, स्थान या घर के प्रति आसक्ति नहीं रखेगा; चाहे किन्हीं भी परिस्थितियों से, ऐसे किसी भी संबंध से जो कि मनुष्य उसके साथ स्थापित करें, किसी भी स्थिति या भाग्य से वह संतुष्ट और तृप्त रहेगा । उसका मन सभी विषयों में स्थिर भाव धारण करेगा, क्योंकि वह (मन ) नित्य-निरंतर उच्चतम आत्मा में अवस्थित तथा सदैव अपने प्रेम और आराधन के एक अनन्य दिव्य पात्र में समाहित रहेगा । समता, निष्कामता, निम्नतर अहंमय प्रकृति तथा उसके दावों से मुक्ति सदा ही वह एकमात्र पूर्ण आधार हैं जिसकी गीता महान् मोक्ष के लिए माँग करती है । वह अपनी प्रथम आधारभूत शिक्षा तथा मूल स्पृहणीय वस्तु पर, सभी वस्तुओं में एक ही आत्मा को देखनेवाली शांत ज्ञानमय आत्मा पर, ज्ञान के परिणाम-स्वरूप प्राप्त होनेवाली शांत निरहंकार
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समता, उस समता में कर्मों के प्रभु के प्रति अर्पित निष्काम कर्म, महत्तर अंतर्वासी आत्मा के हाथों में मनुष्य की संपूर्ण मानसिक प्रकृति के समर्पण पर अंततक बारंबार बल देती है । और, इस समता का मुकुट है वह प्रेम जो ज्ञान पर प्रतिष्टित होता है, यंत्र-भाव से किये जानेवाले कर्म में परिसमाप्त तथा सब वस्तुओं और प्राणियों के प्रति विस्तारित होता है, अर्थात् जो विश्व के स्रष्टा और महेश्वर दिव्य आत्मा, 'सुहृदं सर्वभूतानां सर्वलोकमहेश्वरम्' १ के लिए व्यापक, अनन्य तथा सर्वधारक प्रेम होता है ।
यह है वह आधार, अवस्था एवं साधन जिसके द्वारा हमें परमोच्च आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करनी है और भगवान् कहते हैं कि जो लोग किसी भी प्रकार इससे युक्त हैं वे सभी मेरे प्रिय हैं, 'भक्तिमान् मे प्रिय: ।' परंतु मेरी अत्यंत प्रिय आत्माएँ, 'अतीव मे प्रिया:' परमेश्वर की अत्यंत निकटवर्ती वे आत्माएँ हैं जिनका ईश्वर-प्रेम उस और भी विशालतर तथा महत्तम पूर्णता के द्वारा पराकाष्ठा को प्राप्त हुआ है जिसका पथ एवं पद्धति मैंने तुझे अभी बतायी है । ये ही वे भक्त हैं जो पुरुषोत्तम को अपना एकमात्र परम लक्ष्य बनाते हैं और इस शिक्षा में वर्णित अमरत्वसाधक धर्म का अनुसरण पूर्ण श्रद्धा के साथ तथा यथोक्त रीति के अनुसार करते हैं । गीता की भाषा में 'धर्म' का अर्थ है सत्ता तथा उसके कर्मों का स्वाभाविक विधान तथा आंतरिक प्रकृति से निःसृत और उसके द्वारा निर्द्धारित कर्म, 'स्वभावनियतं कर्म ।' मन, प्राण और शरीर की निम्नतर अज्ञ चेतना में अनेक धर्म, अनेक नियम, अनेक मानदंड तथा विधान हैं, क्योंकि मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक प्रकृति के अनेक विभिन्न निर्धारण तथा प्रकार हैं । अमर धर्म एक ही है; वह सर्वोच्च आध्यात्मिक दिव्य चेतना तथा उसकी शक्तियों का, 'परा प्रकृति:' का, धर्म है । वह त्निगुण से परे है, और उसतक पहुँचने के लिए इन सब निम्नतर धर्मों का परित्याग करना होगा, 'सर्वधर्मान् परित्यज्य ।' उनके स्थान पर सनातन की अखंड, मोक्षप्रद एकीकारक चेतना तथा शक्ति को ही हमें अपने कर्म का अनंत उद्गम, उसका साँचा, निर्धारक तथा आदर्श बनाना होगा । अपने निम्नतर वैयक्तिक अहंभाव से उपर उठना, निर्विकार सनातन सर्वव्यापी अक्षर पुरुष को निर्वैयक्तिक और सम-स्थिरता में प्रवेश करना और फिर उस स्थिरता से, अपनी समस्त सत्ता और प्रकृति के पूर्ण आत्मसमर्पण के द्वारा, उस पूर्ण स्थिरता के लिए अभीप्सा करना जो अक्षर से इतर और उच्चतर है-यह इस योग को पहली आवश्यकता है । इस अभीप्सा के बल पर मनुष्य अमर धर्म को ओर उठ सकता है । वहाँ, परमतम 'उत्तम पुरुष' के साथ सत्ता चेतना
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१. ५, २६
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और दिव्य आनंद में एक होकर, उनकी परमोच्च क्रियाशील प्रकृति-शक्ति, 'स्वा प्रकृति:', के साथ एक होकर मुक्त आत्मा उच्चतम अमरत्व तथा पूर्ण स्वातंत्र्य की वास्तविक शक्ति के साथ अनंत ज्ञान प्राप्त कर सकती है, असीम प्रेम तथा निभ्रांत कार्य कर सकती है । शेष गीता इस अमर धर्म पर अधिक पूर्ण प्रकाश डालने के लिए ही लिखी गयी है ।
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