Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
निर्वाण और संसार में कर्म
ज्ञानमार्ग का अनुसरण करनेवाले संकीर्ण सिद्धान्त की तरह केवल अक्षर पुरुष के साथ एक हो जाना ही नहीं, अपितु समग्र सत्ता के योग द्वारा जीव का पुरुषोत्तम के साथ एक हो जाना गीता की संपूर्ण शिक्षा है । यही कारण है कि ज्ञान और कर्म का समन्वय साधने के पश्चात् गीता ने कर्म और ज्ञान से युक्त प्रेम और भक्ति की भावना का विकास करके बतलाया है कि जिस मार्ग के द्वारा उत्तम रहस्य तक पहुँचा जा सकता है उसकी सर्वोच्च भूमि यही है । यदि अक्षर पुरुष के साथ एक हो जाना ही एकमात्र रहस्य या परम रहस्य होता तो कर्म और ज्ञान से युक्त प्रेम और भक्ति का साधन सम्भव न होता, क्योंकि तब साधना में एक ऐसी अवस्था आजाती जब प्रेम और भक्ति के लिए हमारा आन्तरिक आधार कर्म के आन्तरिक आधार के समान चूर-चूर होकर ढह जाता । केवल अक्षर पुरुष के साथ सम्पूर्ण और अनन्य एकता का अर्थ होता है क्षर पुरुष के दृष्टिबिन्दु को सर्वथा नष्ट कर देना । यह, सामान्य और हीनतर कर्म में क्षर पुरुष की सत्ता के दृष्टिबिन्दु को नष्ट करना ही नहीं है, बल्कि स्वयं उसके मूल से, जो कुछ उसकी सत्ता को सम्भव बनाता है उस सबसे भी, इनकार करना है; यह केवल उसकी अज्ञानावस्था के कर्म से ही नहीं, प्रत्युत उसकी ज्ञानावस्था के कर्म से भी इनकार है । इसका अर्थ है मानवजीवन की और भगवान् की चेतना तथा कर्मण्यता में जो भेद है, जिसके कारण क्षर भाव की लीला सम्भव होती है, उसे नष्ट कर देना; क्योंकि तब क्षर पुरुष का कर्म केवल अज्ञान का खेल रह जायगा और उसके मूल में या उसके आधारस्वरूप कोई भागवत सद्वस्तु नहीं रहेगी । इसके विपरीत, योग के द्वारा पुरुषोत्तम के साथ एक होने का अर्थ होता है अपनी स्वतःस्थित सत्ता में उनके साथ एकत्व का ज्ञान और आस्वादन तथा अपनी क्रियाशील सत्ता में उनके साथ एक विशेष प्रकार के भेदभाव का ज्ञान और आस्वादन । दिव्य प्रेम की प्रेरक-शक्ति द्वारा परि-चालित और संसिद्ध दिव्य प्रकृति द्वारा अनुष्ठित दिव्य कर्मों की लीला में सक्रिय सत्ता और पुरुषोत्तम के बीच उपर्युक्त विशेष प्रकार के भेदभाव का बना रहना तथा आत्मा के अन्दर भगवान् की उपलब्धि के साथ-साथ जगत् में भगवान् का
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दर्शन, इन दो कारणों से ही मुक्त पुरुष के लिए कर्म और भक्ति करना सम्भव होता है, केवल सम्भव ही नहीं, बल्कि उसके सिद्ध स्वभाव के लिये अपरिहार्य होता है ।
परन्तु पुरुषोत्तम के साथ एकता स्थापित करने का सीधा रास्ता अक्षर ब्रह्म की सुदृढ़ अनुभूति में से होकर ही है, और इस बात पर गीता ने बहुत जोर दिया है और कहा है कि यह जीव की पहली आवश्यकता है,--और इसे प्राप्त कर लेने के बाद ही कर्म और भक्ति अपने परम दिव्यार्थ को प्राप्त होंगे--इसी कारण हम गीता के आशय को समझने में भूल कर जाते हैं । यदि हम केवल उन्हीं श्लोकों को देखें जिनमें इस आवश्यकता पर जोरदार आग्रह किया गया है और गीता की विचारधारा के पूर्वापर का पूर्ण विचार न करें तो अनायास ही इस निर्णय पर पहुँचेंगे कि गीता वास्तव में यह शिक्षा देती है कि कर्महीन लय ही जीव की परम गति है और कर्म अविचल अक्षर पुरुष में जाकर शान्त हो जाने का प्राथमिक साधन मात्र है । पाँचवें अध्याय के अन्त में और छठे अध्याय में सर्वत्र यही आग्रह अत्यंत प्रबल और व्यापक है । वहाँ एक ऐसे योग का वर्णन है जो पहली नजर में कर्म-मार्ग से विसंगत प्रतीत होता है और वहाँ योगी जिस पद को प्राप्त होता है उसे बार-बार 'निर्वाण' कहा गया है ।
इस पद का लक्षण है निर्वाण की परम शान्ति (शान्तिं निर्वाणपरमां ) और शायद इस बात को स्पष्ट करने के लिए कि यह निर्वाण बौद्धों का शून्य में निर्वाण नहीं है बल्कि आशिक सत्ता का पूर्ण सत्ता में वैदान्तिक लय है, गीता ने सदा 'ब्रह्म- निर्वाण' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है ब्रह्म में विलीन होना । और यहाँ 'ब्रह्म' शब्द से अवश्य ही अभिप्राय है अक्षर ब्रह्म का, कम-से-कम मुख्यत : उस अंत:स्थ कालातीत आत्मा का जो बाह्य प्रकृति में व्यापक होते हुए भी सक्रिय रूप से उसमे कोई भाग नहीं लेती । इसलिये हमें यह देखना होगा कि यहाँ गीता का आशय क्या है, विशेषकर यह कि यह शान्ति क्या पूर्ण नैष्कर्म्य की शान्ति ही है और क्या अक्षर ब्रह्म में निर्वाण होने का अभिप्राय क्षर के सम्पूर्ण ज्ञान और चैतन्य का तथा क्षर में होनेवाले सम्पूर्ण कर्म का सर्वथा परिहार ही है ? हमें कुछ ऐसा अभ्यास पड़ा हुआ है कि हम निर्वाण तथा किसी प्रकार के जगत्-जीवन और कर्म को एक-दूसरेसे सर्वथा विसंगत मानते हैं और यहाँतक कह डालना चाहते हैं कि 'निर्वाण' शब्द का प्रयोग स्वयं ही इस प्रश्न का निर्णय और पूर्ण उत्तर है । परन्तु यदि हम बौद्ध मत का ही सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो हमें यह सन्देह होगा कि क्या यह विरोध बौद्धों के यहाँ भी यथार्थत: था; और यदि हम गीता को अच्छी तरह देखें तो यह देख पड़ेगा कि यह विरोध वेदान्त की परम शिक्षा के अन्दर नहीं है ।
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जो ब्रह्म की चेतना में ऊपर उठ चुका है ऐसे ब्रह्मवेत्ता 'बह्मविद् ब्रह्यणि स्थित:' की पूर्ण समता की चर्चा करने के बाद उसके परवर्ती नौ श्लोकों में गीता ने ब्रह्मयोग और ब्रह्मनिर्वाण-सम्बन्धी भावना को विस्तार के साथ कहा है । उसने अपना कथन यों आरम्भ किया है, ''जब बाह्य पदार्थों में जीव की कोई आसक्ति नहीं रह जाती तब उस मनुष्य को वह सुख मिलता है जो आत्मा में है; ऐसा व्यक्ति अक्षय सुख भोग करता है, क्योंकि उसकी आत्मा ब्रह्म के साथ योग द्वारा युक्त है ।''१ गीता कहती है कि अनासक्त होना अत्यावश्यक है, इसलिए कि काम-क्रोध-लोभ-मोह से छुटकारा मिले, इस छुटकारे के बिना सच्चे सुख का मिलना सम्भव नहीं है । यह सुख और यह समत्व, मनुष्य को शरीर में रहते हुए ही पूर्ण रूप से प्राप्त करने होंगे; निम्न विक्षुब्ध प्रकृति के जिस दासत्व के कारण वह यह समझता था कि पूर्ण मुक्ति शरीर को छोड़ने के बाद ही प्राप्त होगी, उस दासत्व का लेशमात्न भी उसके अन्दर नहीं रह जाना चाहिए; इसी जगत् में, इसी मानव-जीवन में अर्थात् देह त्याग करने से पहले ही 'प्राक् शरीर-विमोक्षणात्' पूर्ण आध्या-त्मिक स्वातंत्र्य लाभ करना और भोगना होगा । इसके आगे गीता कहती है कि जो ''अंत:सुख है, अंतराराम है और अंतर्ज्योति है वही योगी ब्रह्मभूत होकर ब्रह्म-निर्वाण को प्राप्त होता है ।''२ यहाँ निर्वाण का अर्थ स्पष्ट ही उस परम आत्म-स्वरूप में अहंकार का लोप होना है जो सदा देशकालातीत, कार्यकारणबंधनातीत तथा क्षरणशील जगत् के परिवर्तनों के अतीत है और जो सदा आत्मानन्दमय, आत्मप्रकाशमय और शान्तिमय है । वह योगी अब अहंकारस्वरूप नहीं रह जाता, वह छोटा-सा व्यक्तित्व नहीं रह जाता जो मन और शरीर से सीमित रहता है; वह ब्रह्म हो जाता है, उसकी चेतना शाश्वत पुरुष की उस अक्षर दिव्यता के साथ एक हो जाती है जो उसकी प्राकृत सत्ता में व्याप्त है ।
परन्तु क्या यह जगत्-चैतन्य से दूर, समाधि की किसी गभीर निद्रा में सो जाना है अथवा क्या यह प्राकृत सत्ता तथा व्यष्टि पुरुष के किसी ऐसे निरपेक्ष ब्रह्म में लय हो जाने या मोक्ष पाने की तैयारी है जो सर्वथा और सदा प्रकृति और उसके कर्मों से परे है ? क्या निर्वाण को प्राप्त होने के पहले विश्व-चैतन्य से अलग हो जाना आवश्यक है अथवा क्या निर्वाण, जैसा कि उस प्रकरण से मालूम होता है, एक ऐसी अवस्था है जो जगत्-चैतन्य के साथ-साथ रह सकती और अपने ही तरीके से उसका अपने अन्दर समावेश भी कर सकती है ? यह पिछले प्रकार की अवस्था ही स्पष्ट रूप से गीता को अभिप्रेत मालूम होती है, क्योंकि
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इसके बाद के ही श्लोक में गीता ने कहा है कि ''वे ॠषि ब्रह्मनिर्वाण लाभ करते हैं जिनके पाप के सब दाग धुल गये हैं और जिनकी संशय-ग्रंथि का छेदन हो चुका है, जो अपने-आपको वश में कर चुके हैं और सब भूतों के कल्याण में रत हैं ( सर्व- भूतहिते रता: ) ।''१ इसका तो प्रायः यही अभिप्राय मालूम होता है कि इस प्रकार का होना ही निर्वाण को प्राप्त होना है । परन्तु इसके बाद का श्लोक बिलकुल स्पष्ट और निश्चयात्मक है, ''यती, ( अर्थात् जो लोग योग और तप के द्वारा आत्मवशी होने का अभ्यास करते हैं ) जो काम और क्रोध से मुक्त हो चुके हैं और जिन्होंने आत्मवशित्व लाभ कर लिया है उनके लिये ब्रह्मनिर्वाण उनके चारों ओर ही रहता है, वह उन्हें घेरे हुए रहता है, वे उसीमें रहते हैं, क्योंकि उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त है ।''२ अर्थात् आत्मा का ज्ञान होना और आत्मवान् होना ही निर्वाण में रहना है । यह स्पष्ट ही निर्वाण की भावना का एक व्यापक रूप है । काम-क्रोधादि दोषों के दागों से सर्वथा मुक्त होना और यह मुक्ति जिस समत्व-बुद्धि के आत्मवशित्व पर अपना आधार रखती है उस आत्मवशित्व का होना, सब भूतों के प्रति समत्व का होना, सबके प्रति कल्याणकारी प्रेम का होना, अज्ञानजनित जो संशय और अंधकार, सर्वैक्यसाधक भगवान् से और हमारे अन्दर और सबके अन्दर जो 'एक' आत्मा है उसके ज्ञान से हमको अलग करके रखते हैं उनका सर्वथा नाश हो जाना, ये सब स्पष्ट ही निर्वाण की अवस्थाएँ हैं जो गीता के इन श्लोकों में बतलायी गयी हैं, इन्हीं से निर्वाण-पद सिद्ध होता है और ये ही उसके आध्यात्मिक तत्व हैं ।
इस प्रकार निर्वाण स्पष्ट ही जगत्-चैतन्य और संसार के कर्मों के साथ विसंगत नहीं है । क्योंकि जो ऋषि निर्वाण को प्राप्त हैं वे इस क्षर जगत् में भगवान् को प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और कर्मों के द्वारा उनके साथ अति निकट संबंध बनाये रखते हैं; वे सब भूतों के कल्याण में लगे रहते हैं (सर्वभूतहिते रता:) । क्षर पुरुष की अनुभूतियों को उन्होंने त्याग नहीं दिया है, बल्कि उन्हें दिव्य बना दिया है; गीता कहती है कि क्षर पुरुष ही 'सर्वभूतानि' है, और सब भूतों का कल्याण करना प्रकृति की क्षरता के अन्दर एक भागवत कर्म है । संसार में कर्म करना ब्राह्मी स्थिति से विसंगत नहीं है, बल्कि उस अवस्था की अपरिहार्य शर्त और बाह्य परिणाम है, क्योंकि जिस ब्रह्म में निर्वाण लाभ किया जाता है वह ब्रह्म, जिस आत्म-चैतन्य में हमारा पृथक् अहंभाव विलीन हो जाता है वह आत्म-चैतन्य केवल हमारे अन्दर ही नहीं है, बल्कि इन सब भूत प्राणियों में भी है । वह इन सब जगत्-प्रपंचों से
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केवल पृथक् और इनके ऊपर ही नहीं है, बल्कि इन सबमें व्याप्त है, इन्हें धारण किये हुए है और इनमें प्रसारित है । इसलिए ब्रह्मनिर्वाण--पद का अर्थ उसी सीमित पृथक्कारी चेतना का नाश या निर्वाण समझना होगा जो सारे भ्रम और भेदभाव का कारण है और जो जीवन के बाह्य स्तर पर त्रिगुणात्मिका निम्नतर माया की एक रचनामात्र है । और इस निर्वाण-पद में प्रवेश उस एकत्वसाधक परम सच्चैतन्य को प्राप्ति का रास्ता है जो समस्त सृष्टि का हृदय और आधार है, और जो उसका सर्वसमाहारक, सर्वसहायक, समग्र मूल सनातन परम सत्य है । जब हम निर्वाण लाभ करते और उसमें प्रवेश करते हैं तब निर्वाण केवल हमारे अन्दर ही नहीं रहता, बल्कि हमारे चारों ओर भी रहता है (अभितो वर्तते ), क्योंकि यह केवल वह ब्रह्म-चैतन्य नहीं है जो हमारे अन्दर गुप्त रूप से रहता है, बल्कि यह वह ब्रह्म-चैतन्य है जिसमें हम सब रहते हैं । यह वह आत्मा है जो हम अपने अंतःस्वरूप में हैं--हमारी व्यष्टि-सत्ता की परम आत्मा; पर साथ ही वह आत्मा भी जो हम बाह्य रूप में हैं, यह समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड की परम आत्मा है, सब भूतों की आत्मा है । इस आत्मा में रहते हुए हम सबके अन्दर रहते हैं, और अब केवल अपनी अहंभावापन्न पृथक् सत्ता में ही नहीं रहते; इस आत्मा के साथ एकत्व लाभ करने से जगत् में जो कुछ है उसके साथ निरन्तर एकत्व हमारी सत्ता का स्वभाव, हमारे क्रियाशील चैतन्य की मूल भूमिका और हमारे कर्मों का मूल प्रेरक-भाव बन जाता है ।
परन्तु इसके बाद ही फिर दो श्लोक ऐसे आते हैं जो इस निर्णय में बाधक से प्रतीत होते हैं । ''बाह्य स्पर्शों को अपने अन्दर से बाहर करके, भूमध्य में अपनी दृष्टि को स्थिर करके और नासाभ्यंतरचारी प्राण तथा अपान को सम करके इन्द्रिय, मन और बुद्धि को वश में रखनेवाला मोक्ष-परायण मुनि, जिसके काम, क्रोध, भय दूर हो गये हैं, सदा ही मुक्त रहता है ।''१ यहाँ इस योग-प्रणाली में एक दूसरी ही बात आती है जो कर्मयोग से भिन्न है और उस विशुद्ध ज्ञानयोग से भी भिन्न है जो विवेक और ध्यान से साधित होता है; इसके सब विशिष्ट लक्षण कायिक-मानसिक-तप:साध्य राजयोग के लक्षण हैं । यह 'चित्त- बूत्तिनिरोध' प्राणायाम, प्रत्याहार आदि का ही वर्णन है । ये सब मन:समाधि की ओर ले जानेवाली प्रक्रियाएँ हैं इन सबका लक्ष्य मोक्ष है और सामान्य व्यवहार की भाषा में मोक्ष कहते हैं, केवल पृथक्कारी अहं-चैतन्य के त्याग की नहीं, बल्कि संपूर्ण कर्म-चैतन्य के त्याग को, परब्रह्म में अपनी सत्ता के संपूर्ण अस्तित्व का लय कर देने को । तब क्या हम यह समझें कि गीता ने यहाँ इसका विधान इस अभिप्राय
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से किया है कि इसी लय को मुक्ति का चरम उपाय मानकर ग्रहण किया जाय या इस अभिप्राय से कि यह बहिर्मुख मन को वश में करने का केवल एक उपाय या शक्तिशाली साधन मात्र है ? क्या यही आखिरी बात, परम वचन या महावाक्य है ? हम इसे दोनों ही मान सकते हैं, एक विशेष उपाय, एक विशिष्ट साधन भी और अंतत: चरम गति का एक द्वार भी; अवश्य ही इस चरम गति का साधन लय हो जाना नहीं है, बल्कि विश्वातीत सत्ता में ऊपर उठ जाना है । क्योंकि यहाँ इस श्लोक में भी जो कुछ कहा गया है वह आखिरी बात नहीं है; महावाक्य, आखिरी बात, परम वचन तो इसके बाद के श्लोक में आता है जो इस अध्याय का अंतिम श्लोक है । वह श्लोक है-
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृद सर्व मूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।। गि० ५-२९
--अर्थात्, ''जब मनुष्य मुझे सब यज्ञों और तपों का भोक्ता, सब लोकों का महेश्वर, सब प्राणियों का सुहृद् जानता है तब वह शान्ति को प्राप्त होता है ।'' यहाँ कर्मयोग की शक्ति ही फिर से आ जाती है; यहाँ इस बात पर आग्रह किया गया है कि ब्रह्मनिर्वाण की शान्ति के लिए यह आवश्यक है कि जीव को सक्रिय ब्रह्म का, विराट् पुरुष का ज्ञान भी हो ।
यहाँ हम गीता के परम प्रतिपाद्य विषय, पुरुषोत्तम की भावना की ओर वापिस आते हैं । यूँ तो यह नाम गीता के उपसंहार के कुछ ही पहले आता है, तथापि गीता में आदि से अंत तक जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण ''अहं'', ''माम्'' इत्यादि पदों का प्रयोग करते हैं वहाँ-वहाँ उनका अभिप्राय उन्हीं भगवान् से है जो हमारी कालातीत अक्षर सत्ता में हमारे एकमेवाद्वितीय आत्मस्वरूप में हैं, जो जगत् में भी अवस्थित हैं, सब भूतों में, सब कर्मों में विद्यमान हैं, जो निश्चल-नीरवता और शान्ति के अधीश्वर हैं, जो शक्ति और कर्म के स्वामी हैं, जो इस महायुद्ध में पार्थसारथीरूप से अवतीर्ण हैं, जो परात्पर पुरुष हैं, परमात्मा हैं, सर्वमिदं हैं, प्रत्येक जीव के ईश्वर हैं । वे सब यज्ञों और तपो के भोक्ता हैं, इसलिए मुक्ति-कामी पुरुष सब कर्मों को यज्ञ और तपरूप से करे; वे सर्वलोकमहेश्वर हैं, और इस प्रकृति तथा सब प्राणियों में प्रकट हैं, इसलिए मुक्त पुरुष मुक्त होने पर भी, लोकसंग्रहार्थ कर्म करे, अर्थात् जगत् में लोगों का समुचित नियंत्रण करे और उन्हें सन्मार्ग दिखावे; 'वे सबके सुहृद् हैं' इसलिए वही मुनि है जिसने अपने अन्दर और अपने चारों ओर (अभित:) निर्वाण लाभ किया है, फिर भी वह सदा सब भूतों के कल्याण में रत रहता है-जैसे बौद्धों के महायान पंथ में भी निर्वाण का परम लक्षण जगत् के सब प्राणियों के प्रति करुणामय कर्म ही समझा जाता है । इसी
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लिए अपने कालातीत अक्षर आत्मस्वरूप में भगवान् के साथ एक होने पर भी वह मनुष्य से दिव्य प्रेम कर सकता है, क्योंकि उसके अन्दर प्रकृति की क्रीड़ा के संबंध भी समाविष्ट हैं, और साथ ही वह भगवान् की भक्ति भी कर सकता है ।
छठे अध्याय के आशय की तह में पहुँचने पर यह बात और भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि गीता के इन श्लोकों का यही तात्पर्य है । छठे अध्याय में पाँचवें अध्याय के इन्हीं अंतिम श्लोकों के भाव का विशदीकरण और पूर्ण विकास किया गया है--और इससे यह पता चलता है कि गीता इन श्लोकों को कितना महत्व देती है । इसलिए अब हम इसी छठे अध्याय के सार-मर्म का अति संक्षिप्त रूप से पर्यवेक्षण करेंगे । सबसे पहले भगवान् गुरु अपनी बार-बार दोहरायी गयी संन्यास के मूल तत्व की घोषणा पर जोर देते और उस बात को फिर से कहते हैं कि असली संन्यास आंतरिक है, बाह्य नहीं, '' जो कोई कर्मफल का आश्रय किये बिना कर्तव्य कर्म करता है वही संन्यासी है, वही योगी है, वह नहीं जो यज्ञ की अग्नि जलाता न हो और अक्रिय हो । जिसे लोग संन्यास कहते हैं उसे तू योग समझ; क्योंकि जिसने अपने मन के वासनामूलक संकल्पों का त्याग नहीं किया वह योगी नहीं हो सकता ।''१ कर्म करने होंगे, पर किस उद्देश्य से, किस क्रम से ? पहले योग-पर्वत की चढ़ाई चढ़ते हुए करने होंगे, क्योंकि वहाँ कर्म 'कारण' हैं । कारण किसके ? आत्मसंसिद्धि के, मुक्ति के, ब्रह्म-निर्वाण के; क्योंकि आंतरिक संन्यास के निरंतर अभ्यास के साथ कर्म करने से यह संसिद्धि, यह मुक्ति, वासनात्मक मन, अहंबुद्धि और निम्न प्रकृति पर यह विजय अनायास प्राप्त होती है ।
पर जब कोई चोटी पर पहुँच जाता है तब ? तब कर्म कारण नहीं रह जाते, कर्म के द्वारा प्राप्त आत्मवशित्व और आत्मवत्ता की शान्ति कारण बन जाती है । लेकिन कारण किस चीज का ? आत्मस्वरूप में, ब्रह्म-चैतन्य में स्थित बने रहने और उस पूर्ण समत्व को बनाये रखने का कारण बनती है जिसमें स्थित होकर मुक्त पुरुष दिव्य कर्म करता है । क्योंकि ''जब कोई इन्द्रियों के अर्थों में और कर्मों में आसक्त नहीं होता और मन के सब वासनात्मक संकल्पों को त्याग चुकता है तो उसे योग-शिखर पर आरूढ़ कहते हैं ।''२ हम यह जान चुके हैं कि, मुक्त पुरुष के सब कर्म इसी भाव के साथ होते हैं; वह कामनारहित, आसक्ति-रहित होकर कर्म करता है, उसमें कोई अहंभावापन्न व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती, वासना का जनक मनोगत स्वार्थ नहीं होता । उसकी निम्नतर आत्मा उसके
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वश में होती है, वह उस परा शान्ति को पहुँचा हुआ होता है जहाँ उसकी परम आत्मा उसके सामने प्रकट रहती है--वह परम आत्मा जो सदा अपनी ही सत्ता में ' समाहित' है, समाधिस्थ है; केवल अपनी चेतना की अंतर्मुखीन अवस्था में ही नहीं, बल्कि सदा ही, मन की जाग्रत् अवस्था में भी, जब वासना और अशान्ति के कारण मौजूद हो तब भी, शीतोष्ण, सुख-दुःख तथा मानापमानादि द्वन्द्वों के प्रत्यक्ष प्रसंगों में भी, ''शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा भानापमानपोः''१ समाहित रहती है । यह उच्चतर आत्मा कूटस्थ अक्षर पुरुष है जो प्राकृत पुरुष के सब प्रकार के परिवर्तनों और विक्षोभों के ऊपर रहती है; और योगी उसके साथ योगयुक्त तब कहा जाता है जब वह भी उसके समान कूटस्थ हो, जब वह सब प्रकार के बाह्य दृश्यों और परिवर्तनों के ऊपर उठ जाय, जब वह आत्मज्ञान से परितृप्त हो और जब वह सब पदार्थों, घटनाओं और व्यक्तियों के प्रति समचित्त हो जाय ।
परन्तु इस योग को प्राप्त करना सुगम बात नहीं है, जैसा कि अर्जुन वास्तव में आगे चलकर सूचित करता है, क्योंकि यह चंचल मन सदा ही बाह्य पदार्थों के आक्रमणों के कारण इस उच्च अवस्था से खिंच आता और फिर से शोक, आवेश और वैषम्य के जोरदार कब्जे में जा गिरता है । इसीलिए, मालूम होता है कि, गीता में ज्ञान और कर्म को अपनी साधारण पद्धति के साथ-साथ राजयोग की विशिष्ट ध्यान-प्रक्रिया भी बतायी गयी है जो एक शक्तिशाली अभ्यास है, मन और उसकी सब वृत्तियों के पूर्ण निरोध का एक बलवान् साधन है । इस प्रक्रिया में बतलाया गया है कि, योगी आत्मा से युक्त रहने का सतत अभ्यास करे, ताकि अभ्यास करते-करते यह अवस्था उसकी साधारण चेतना बन जाय । उसे काम-क्रोधादि सब विकारों को मन से निकालकर सबसे अलग किसी एकांत स्थान में जाकर बैठ जाना होगा और अपनी समग्र सत्ता और चेतना पर आत्मवशित्व लाना होगा--''वह सूचि देश में अपना स्थिर आसन लगावे, आसन न बहुत ऊंचा हो न बहुत नीचा, वह कुशा का हो, उसपर मृग-चर्म और मृग-चर्म के ऊपर वस्त्र बिछा हो और ऐसे आसन पर बैठकर मन को एकाग्र तथा मन और इन्द्रियों की सब वृत्तियों को वश में कर आत्मविशुद्धि के लिये योगाभ्यास करे ।''२ वह ऐसा आसन जमावे कि उसका शरीर अचल और सीधा तना रहे जैसा कि राजयोग के अभ्यास में बताया गया है; उसकी दृष्टि एकाग्र हो जाय और भ्रूमध्य में स्थिर रहे, ''दिशाओं की ओर दृष्टि न जाय ।''३ मन को स्थिर और निर्भय रखे और
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ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करे; इस प्रकार संयत समग्र चित्तवृत्ति को भगवान् में ऐसे लगावे कि चैतन्य की निम्नतर क्रिया उच्चतर शान्ति में निमज्जित हो जाय । क्योंकि इस साधना का लक्ष्य निर्वाण की नीरव निश्चल शान्ति को प्राप्त होना है । ''इस प्रकार नियत मानस होकर सतत योग में लगा हुआ योगी निर्वाण की उस परम शान्ति को प्राप्त होता है जिसकी नींव मेरे अन्दर है (शान्तिं निर्वाण-परमां मत्संस्थामषिगच्छति ) ।''१
निर्वाण की यह परम शान्ति तब प्राप्त होती है जब चित्त पूर्णतया संयत और कामनामुक्त होकर आत्मा में स्थित रहता है, जब वह निर्वात स्थान में स्थित दीपशिखा के समान अचल होकर अपने चंचल कर्म करना बन्द कर देता है, अपनी बहिर्मुख वृत्तियों से अन्दर खिंचा हुआ रहता है और जब मन के निश्चल-नीरव हो जाने के कारण अन्तर में आत्मा का दर्शन होने लगता है, मन में आत्मा का विकृत भान नहीं, बल्कि आत्मा में ही आत्मा का साक्षात्कार होता है, मन के द्वारा अयथार्थ या आशिक रूप में नहीं, अहंकार में से प्रतिभात होनेवाले रूप में नहीं, बल्कि स्वप्रकाश रूप में । तब जीव तृप्त होता और अपने वास्तविक परम सुख को अनुभव करता है, वह अशान्त सुख नहीं जो मन और इन्द्रियों को प्राप्त है, बल्कि वह आंतरिक और प्रशान्त आनन्द जिसमें मन का कोई विक्षोभ नहीं, जिसमें स्थित होने पर पुरुष अपनी सत्ता के आध्यात्मिक सत्य से कभी व्युत नहीं होता । मानसिक दुःख का अति प्रचण्ड आक्रमण भी उसे विचलित नहीं कर सकता--क्योंकि मानसिक दुःख हमारे पास बाहर से आता है, वह बाह्य स्पर्शों की प्रीतीक्रियाओं का ही फल होता है--यह उन लोगों का आतरिक स्वत:,- सिद्ध आनन्द है जो बाह्य स्पर्शो की चंचल मानसिक प्रतिक्रियाओं के दासत्व को अब और स्वीकार नहीं करते । यह दु:ख के साथ संबंध विच्छेद करना है, मन का उसे तलाक देना है (दु:खसंयोगवियोगम्) । इसी अविच्छेद्य आध्यात्मिक आनन्द की सुदृढ़ प्राप्ति का नाम योग, अर्थात् भगवान् से ऐक्य है; यही लाभों में सबसे बड़ा लाभ है, यह वह धन है जिसके सामने अन्य सब संपत्तियों का कोई मूल्य नहीं रह जाता । इसलिए पूर्ण निश्चय के साथ, कठिनाई या विफलता जिस उत्साह हीनता को लाते हैं उसके अधीन हुए बिना, इस योग को तबतक किये जाना चाहिए जबतक मुक्ति न मिले, ब्रह्मनिर्वाण का आनन्द सदा के लिए प्राप्त न हो जाय ।
यहाँ मुख्यतया भावनामय मन, काममूलक मन और इन्द्रियों के निरोध पर ही जोर है, क्योंकि ये बाह्य स्पशों को ग्रहण करते और हमारी अभ्यस्त भावावेगमय
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प्रतिक्यिाओं के द्वारा उनका प्रत्युत्तर देते हैं; परन्तु इसके साथ ही मानसिक विचार को भी स्वत:सिद्ध आत्मसत्ता की शान्ति में ले जाकर निश्चेष्ट करना होगा । पहले सब कामनाओं को, जो कामनामूलक संकल्प से उठती हैं, एकदम त्याग देना होगा और मन के द्वारा इन्द्रियों को इतना वश में करना होगा कि वे अपनी हमेशा की अव्यवस्थित और चंचल आदत के कारण चारों ओर दौड़ती न फिरें; परन्तु इसके बाद मन को ही बुद्धि से पकड़कर अंतर्मुख करना होगा । निश्चल बुद्धि के द्वारा मानस कर्म करना धीरे-धीरे बन्द कर देना होगा और मन को आत्मा में स्थित करके किसी बारे में कुछ भी न सोचना होगा । जब-जब चंचल अस्थिर मन निकल भागे तब-तब उसका नियमन करके उसे पकड़कर आत्मा के अधीन लाना होगा । जब मन पूर्ण रूप से शान्त हो जाय तो योगी को ब्रह्मभूत आत्मा का उच्चतम, निष्कलंक, निर्विकार परमानन्द प्राप्त होता है । '''इस प्रकार आवेगों और आवेशों के कलंक से छूटकर और सतत योग में लगे रहकर योगी अनायास और सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्शरूप आत्यंतिक आनन्द को प्राप्त होता है ।'' १
फिर भी, जबतक यह शरीर है तबतक इस अवस्था का फल निर्वाण नहीं है, क्योंकि निर्वाण संसार में कर्म करने की हरएक संभावना को, संसार के प्राणियों के साथ हरएक संबंध को दूर कर देता है । प्रथम दृष्टि में यही जान पड़ता है कि यह स्थिति निर्वाण ही होनी चाहिए । क्योंकि जब सब वासनाएँ और सब विकार बन्द हो गये, जब मन को विचार करने की इजाजत नहीं रही, जब इसी मौन और ऐकांतिक योग का अभ्यास ही नियम हो गया, तब कर्म करना, बाह्य संस्पर्शोंवाले इस जगत् और अनित्य संसार से किसी प्रकार का संबंध रखना संभव ही कहाँ ? निःसंदेह योगी फिर भी कुछ काल तक इस शरीर में रहेगा, पर अब तो गिरिगुहा, जंगल या पर्वत-शिखर पर ही उसके रहने की जगह होगी और सतत बाह्य चेतनाशून्य समाधि ही उसकी एकमात्र सुखस्थिति और जीवनचर्या होगी । परन्तु पहली बात तो यह है कि गीता यह नहीं कहती कि इस ऐकांतिक योग का अभ्यास करते हुए अन्य सब कर्मों का त्याग कर देना होगा । गीता कहती है कि यह योग उस मनुष्य के लिए नहीं है जो आहार, विहार, निद्रा और कर्म छोड़ दे, न उसके लिए है जो इन सब चीजों में बेहद रमा करे; बल्कि निद्रा, जागरण, आहार, विहार और कर्म-प्रयास सब 'युक्त' होना चाहिये । प्राय : इसका अर्थ यह लगाया जाता है कि यह सब परिमित, नियमित और उपयुक्त मात्रा में होना चाहिए, इसका यह आशय हो भी सकता है । परन्तु जो भी हो,
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जब योग प्राप्त हो चुका हो तब इन सबको एक दूसरे ही अर्थ में 'युक्त' होना चाहिए, उस अर्थ में जो इस शब्द का साधारण अर्थ है और जिस अर्थ में यह शब्द गीता के अन्य सब स्थानों में व्यवहृत हुआ है । खाते-पीते, सोते-जागते और कर्म करते, अर्थात् सब अवस्थाओं में योगी तब भगवान् के साथ 'युक्त' रहेगा और वह जो कुछ करेगा, भगवान् को ही अपनी आत्मा और 'सर्वमिदं' तथा अपने जीवन और कर्म का आश्रय तथा आधार जानकर करेगा । वासना-कामना, अहंकार, व्यक्तिगत संकल्प और मन के विचार केवल निम्न प्रकृति में ही कर्म के प्रेरक होते हैं; परन्तु जब अहंकार नष्ट हो जाता है और योगी ब्रह्म हो जाता है, जब वह परात्पर चैतन्य और विश्व-चैतन्य में ही रहता और स्वयं वही बन जाता है, तब कर्म उसी में से स्वतः निकलता है, उसी में से वह ज्योतिर्मय ज्ञान निकलता है, जो मन के विचार से ऊपर की चीज है, उसी में से वह शक्ति निकलती है, जो व्यक्तिगत संकल्प से विलक्षण और बहुत अधिक बलवती है और जो उसके लिये कर्म करती और उसके फल को लाती है; फिर व्यक्तिगत कर्म नहीं रह जाता, सब कर्म ब्रह्म में ले लिया जाता और भगवान् के द्वारा धारण किया जाता है ( मयि संन्यस्य कर्माणि ) ।
कारण इस आत्म-साक्षात्कार और पृथक्कारी अहंभावापन्न मन और उसके विचार अनुभव और कर्म के प्रेरक भाव का ब्राह्मी चेतना में निर्वाण करने से योग का जो फल१ प्राप्त होता है, उसका जो वर्णन गीता ने किया है उसमें विश्व-चैतन्य का समावेश है, यद्यपि यहाँ उसे एक नवीन ज्ञानालोक में उठा लिया गया है । ''जिस पुरुष की आत्मा योगयुक्त है वह आत्मा को सब भूतों में देखता और सब भूतों को आत्मा में देखता है, वह सर्वत्र समदर्शी होता है ।'' २ वह जो कुछ देखता है वह उसके लिये आत्मा है, सब कुछ उसकी आत्मा है, सब भगवान् है । परन्तु यदि वह क्षर की क्षरता में रहे तो क्या यह खतरा नहीं है कि वह इस कठिन योग के समस्त फलों को खो दे, आत्मा को खो दे और फिर से मन के अन्दर जा गिरे, भगवान् उसको खो दें और वह जगत् का हो जाय, वह भगवान् को खो दे और उनकी जगह फिर से अहंकार को तथा निम्न प्रकृति को पावे ? गीता उत्तर देती है कि नहीं, ''जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मेरे अन्दर देखता है वह मेरे लिये नहीं खोता और न मैं उसके लिए खो जाता हूँ ।''३ क्योंकि निर्वाण की यह परम शान्ति यद्यपि अक्षर से प्राप्त होती है, पर है पुरुषोत्तम की सत्ता
१. योगक्षेमं बहाम्यहम् |
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पर ही प्रतिष्ठित (मत्संस्थाम् ) और यह सत्ता व्यापक है; भगवान्, ब्रह्म, प्राणियों के इस जगत् में भी परिव्याप्त हैं और यद्यपि वे इस जगत् के अतीत हैं, किन्तु वे अपनी अतीतावस्था से बँधे नहीं हैं । मनुष्य को सब कुछ भगवद्रूप देखना होगा और इसी साक्षात्कार में निवास करना होगा और इसी भाव के साथ कर्म करना होगा; यही योग का परम फल है ।
पर कर्म क्यों करें ? क्या यह अधिक निरापद नहीं है कि हम स्वयं एकान्त में बैठकर इच्छा हो तो जगत् की ओर एक निगाह देख लें, उसे ब्रह्म में, भगवान् में देखें पर उसमें कोई भाग न लें, उसमें चलें-फिरें नहीं, उसमें रहें नहीं, उसमें कर्म न करें और साधारणतया अपनी आंतरिक समाधि में ही रहें ? इस उच्चतम आध्यात्मिक अवस्था का क्या यही धर्म, यही विधान, यही नियम नहीं होना चाहिए ? गीता फिर कहती है कि नहीं, मुक्त योगी के लिए एकमात्र धर्म, एकमात्र विधान, एकमात्र नियम तो बस यही है कि वह भगवान् में रहे, भगवान् से प्रेम करे और सब प्राणियों के साथ एक हो जाय; उसका जो स्वातंन्त्र्य है वह निरपेक्ष है, किसी दूसरे पर आश्रित नही,, वह स्वत:सिद्ध है, किसी आचार, धर्म या मर्यादा से बँधा नाहीं । योग की किसी साधना से अब उसका प्रयोजन नहीं, क्योंकि अब वह सतत योग में प्रतिष्ठित है । भगवान् कहते हैं, ''जो योगी एकत्व में स्थित है और सब भूतों में मुझको भजता है, वह चाहे जैसे और सब प्रकार से रहता और कर्म करता हुआ भी मुझमें ही रहता और कर्म करता है ।''१ संसार-प्रेम तब आध्यात्मिक प्रेम में परिवर्तित होकर इन्द्रियानुभव से आत्मानुभव हो जाता है और वह ईश्वर-प्रेम की नींव पर प्रतिष्ठित रहता है और तब उस प्रेम में कोई भय, कोई दोष नहीं होता । निम्न प्रकृति से पीछे हटने के लिए संसार से भय और जुगुप्सा प्राय : आवश्यक हो सकते हैं, क्योंकि वास्तव में यह हमारा अपने अहंकार से भीत और जुगुप्सित होना है और अपनेको जगत् में प्रतिबिंबित करना है । परन्तु ईश्वर को जगत् में देखना निर्भय होना है, यह सब कुछ का ईश्वर की सत्ता में आलिंगन करना है; सब कुछ भगवद्रुप देखने का अर्थ है किसी पदार्थ को नापसन्द न करना या किसी से भी घृणा न करना, बल्कि जगत् में भगवान् से और भगवान् में जगत् से प्रेम करना ।
परन्तु कम-से-कम निम्न प्रकृति के उन विषयों का तो परिहार करना ओर उनसे डरना ही होगा जिनसे ऊपर उठने के लिए योगी ने इतनी कड़ी साधना की थी ? नहीं, यह भी नहीं; आत्मदर्शन की समता में सब कुछ का आलिंगन किया जाता है । भगवान् कहते हैं, '' हे अर्जुन, जो कोई सब कुछ को आत्मा की
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तरह समभाव से देखता है चाहे वह दु:ख हो या सुख, उसे मैं परम योगी मानता हूँ ।''१ और, इससे यह अभिप्रेत नहीं है कि स्वयं योगी, दूसरों के दुःख में ही क्यों न हो, अपने दु:खरहित आत्मानन्द से गिर जायगा और फिर से सांसारिक दु:ख अनुभव करेगा, बल्कि यह कि दूसरों में उन द्वन्द्वों के खेल को देखकर, जिन्हें छोड्कर वह स्वयं ऊपर उठ चुका है, वह सब कुछ आत्मवत् और सबमें अपनी आत्मा को, सबमें ईश्वर को देखेगा और इन चीजों के बाह्य रूपों में क्षुब्ध या मुख न होकर केवल करुणा से उनकी मदद करने, उनका दुःख दूर करने, सब प्राणियों के कल्याण में अपने-आपको लगाने में, लोगों को आध्यात्मिक आनन्द की ओर ले जाने में, जगत् को भगवान् की ओर अग्रसर करने के काम में प्रवृत्त होकर जितने दिन उसे इस जगत् में रहना है उतने दिन अपने जीवन को दिव्य जीवन बनाकर रहेगा । जो भगवत्प्रेमी ऐसा कर सकता है, इस प्रकार सब कुछ का भगवान् के अन्दर आलिंगन कर सकता है, निम्न प्रकृति और त्निगुणात्मिका माया के सब कर्मों की ओर स्थिर होकर देख सकता और बिना क्षुब्ध हुए तथा आध्यात्मिक ऐक्य की ऊँचाई से मुग्ध या व्युत हुए बिना, भगवान् की अपनी दृष्टि की विशालता मे स्वतंत्र भाव से रहते हुए, भागवत प्रकृति की शक्ति से मधुर, महान् और प्रकाशमय होकर उन कर्मों के अन्दर और उन कर्मों पर क्रिया कर सकता है, उसको नि:संकोच परम योगी कहा जा सकता है । यथार्थ में उसीने सृष्टि को जीता है ( (जित: सर्ग: ) ।
गीता ने जैसे सर्वत्र वैसे ही यहाँ भी भक्ति को योग की पराकाष्ठा कहा है, ''सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:|''२ गीता की शिक्षा का यही संपूर्ण सार-सर्वस्व कहा जा सकता है--जो सबमें स्थित भगवान् से प्रेम करता है और जिसकी आत्मा भगवदैक्यभाव में प्रतिष्ठित है, वह चाहे कैसे भी रहता और कर्म करता हो, भगवान् में ही रहता और कर्म करता है । और, जब अर्जुन ने प्रश्न किया कि ऐसा कठिन काम, योग, मनुष्य के चंचल मन के लिए कैसे संभव हो सकता है तब भगवान् गुरु उसी बात पर विशेष जोर देने के लिए उसीका प्रसंग फिर से चलाते हैं और अंत में यही कहते हैं, ''योगी तपस्वी से श्रेष्ठ है, ज्ञानी से श्रेष्ठ है, कर्मी से श्रेष्ठ है; इसलिए हे अर्जुन, तू योगी बन ।''३ योगी वह है जो कर्म से, ज्ञान से, तप से अथवा चाहे जिस तरह से हो केवल आत्मज्ञान के लिए आत्मज्ञान, केवल शक्ति के लिये शक्ति या केवल किसी चीज के लिए कोई चीज नहीं चाहता, बल्कि केवल भगवान् के साथ ऐक्य ही ढूंढ़ता और पाता है; उसी
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ऐक्य में सब कुछ आ जाता है तथा सब कुछ अपने रूप से ऊपर उठकर परम भागवत अर्थ को प्राप्त हो जाता है । परन्तु योगियों में भी भक्त ही सबसे श्रेष्ठ होता है । ''सब योगियों में वह योगी जो अपनी अंतरात्मा को मुझे सौंप देता और श्रद्धा तथा प्रीति से मेरा भजन करता है, उसे मैं अपने साथ योग में सबसे अधिक युक्त समझता हूँ |''१ गीता के प्रथम षट्क का यही अंतिम वचन है और इसीमें बाकी जो कुछ अभी नहीं कहा गया है और जो कहीं भी पूर्णतया नहीं कहा गया है उसका बीज मौजूद है । वह सदा कुछ-कुछ रहस्यमय और गुह्य ही रहता है--परम आध्यात्मिक रहस्य, भागवत रहस्य ।
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