Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
परम रहस्य१
इस प्रकार दिव्य गुरु ने शिष्य के संमुख उसके कर्म और संग्राम के क्षेत्र में शिक्षा और योग का सार प्रकट कर दिया है और अब वे इसे उसके कर्म पर लागू करने की ओर अग्रसर होते हैं, पर एक ऐसे ढंग से जिससे यह हमारे सभी कर्मों पर लागु किया जा सकता है । एक चरम दृष्टांत से संबद्ध होने और कुरुक्षेत्र के नायक से कहे जाने के कारण ये शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ रखते हैं और जो लोग भी साधारण मन से ऊपर उठने तथा उच्चतम आध्यात्मिक चेतना में निवास और कर्म करने के लिए तैयार हैं उन सभी के लिए ये एक सार्वभौम नियम हैं । अहं और व्यक्तिगत मन के घेरे को तोड़कर उससे बाहर निकल जाना और प्रत्येक चीज को आत्मा और मूल सत्ता की विशालता में देखना, परमेश्वर को जानना और उनके समग्र सत्य में तथा सभी रूपों में उनकी पूजा करना, प्रकृति और जगत्-सत्ता के परात्पर आत्मा को अपना सर्वस्व समर्पित कर देना, भगवच्चेतना को अधिकृत करना तथा उसके द्वारा अधिकृत होना, प्रेम, आनंद, संकल्प और ज्ञान की विश्व-व्यापकता में उन एकमेवाद्वितीय के साथ एकमय होना, उनके अंदर सभी जीवों के साथ तादात्म्य प्राप्त करना, जहाँ सब कुछ भगवान् ही हैं ऐसे जगत् की दिव्य आधारशिला पर तथा मुक्त आत्मा की दिव्य स्थिति में आराधना और यज्ञ के रूप में कर्म करना--यही है गीता के योग का तात्पर्य । यह है हमारी सत्ता के दृश्यमान सत्य से उसके परम आध्यात्मिक और वास्तविक सत्य में संक्रमण । और, भेदात्मक चेतना की अनेक सीमाओं को दूर कर और विषय-वासना, चंचलता एवं अज्ञान के प्रति, न्यूनतर प्रकाश और ज्ञान तथा पाप और पुण्य के प्रति, निम्नतर द्वन्द्वात्मक विधान और आदर्शके प्रति मन की आसक्ति का परित्याग करके ही मनुष्य उस सत्य में प्रवेश कर सकता है । अतएव, श्रीगुरु कहते हैं ''अपने-आपको सर्वात्मना मेरे प्रति अर्पित करके, अपने सचेतन मन में अपने सभी कर्म मुझपर उत्सर्ग करके, संकल्प और बुद्धि के योग का आश्रय लेकर, अपने हृदय और चेतना में सदा मेरे साथ एक होकर रह । यदि तू सदा-
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सर्वदा मच्चिद रहेगा तो मेरी कृपा से सब कठिन और संकटपूर्ण मार्गों को सुरक्षित रूप से पार कर जायेगा; पर यदि तू अहंकारवश नहीं सुनेगा तो तू विनष्ट हो जायेगा । तू जो अपने अहंकार का आश्रय लेकर यूं सोचता है कि 'मैं नहीं करूँगा', तेरा यह निश्चय मिथ्या है; प्रकृति तुझे तेरे कर्म में नियुक्त करेगी । जो तू मोहवश नहीं करना चाहता, वही तू अपने स्वभावज कर्म से बँधा हुआ अवश होकर करेगा । हे अर्जुन, ईश्वर सर्वभूतों के हृद्देश में अवस्थित हैं और उन सबको निरंतर अपनी माया के द्वारा यंत्रारूढ़ की भाँति घुमा रहे हैं । तू सर्वभाव से उन्हीं की शरण ले, उनके प्रसाद से तू परा-शांति और शाश्वत पद लाभ करेगा ।''१
ये वे पंक्तियाँ हैं जिनके अंदर इस योग का अंतरतम हार्द निहित है और जो हमें इसके सर्वोच्च अनुभव तक ले जाती हैं और इनको हमें इनकी अत्यंत अंतरंग भावना में और उस उच्च कोटि के अनुभव की संपूर्ण विशालता में हृदयंगम करना होगा । ये शब्द ईश्वर और मनुष्य के बीच हो सकनेवाले अधिक-से-अधिक पूर्ण, घनिष्ठ और जीवंत संबंध को व्यक्त करते हैं; जिन विश्वातीत और विश्वगत भगवान् से मनुष्य उत्पन्न होता है और जिनमें वह वास करता है उनके प्रति उसके अनन्य आराधन, अपनी संपूर्ण सत्ता के ऊर्ध्वमुख समर्पण और निःशेष एवं पूर्ण आत्मदान से जो अंतरीय धार्मिक भाव फूटता है उसकी घनीभूत शक्ति से ये शब्द ओत-प्रोत हैं । गीता ने भक्ति, ईश्वर-प्रेम और 'परम' की उपासना को श्रेष्ठतम कर्म की अंतरतम भावना और प्रेरणा के रूप में तथा श्रेष्ठतम ज्ञान के मुकुट और सारमर्म के रूप में जो उच्च और स्थायी स्थान दिया है उसके साथ यह प्रबल धार्मिक भाव पूर्ण रूप से संगत है । यहाँ जो शब्द प्रयुक्त किये गये हैं वे और जिस आध्यात्मिक भावावेग से वे अनुप्राणित हैं वह परमेश्वर के वैयक्तिक सत्य एवं सान्निध्य को संभवनीय प्रबलतम प्रमुखता और सर्वाधिक महत्ता प्रदान करते प्रतीत होते हैं । दार्शनिक की अमूर्त कैवल्यात्मक सत्ता के प्रति, सब संबंधों का परित्याग करनेवाली किसी उदासीन निर्व्यक्तिक उपस्थिति या अनिर्वचनीय नीरवता के प्रति अपने सब कर्मों का इस प्रकार का पूर्ण समर्पण नहीं किया जा सकता और अपनी सचेतन सत्ता के सभी भागों में उसके साथ एकत्व की ऐसी घनिष्ठता और अंतरंगता को अपनी पूर्णता का अनिवार्य नियम और विधान नहीं बनाया जा सकता, न ही उससे इस दिव्य सहायता, रक्षा और मुक्तिप्रदान का प्रतिज्ञापूर्ण आश्वासन प्राप्त हो सकता है । हमारे कर्मों का प्रभु, हमारी अंतरात्मा का सखा और प्रेमी, हमारे जीवन की अंतरंग आत्मा,
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हमारी समस्त वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक सत्ता और प्रकृति का अंतर्वासी और ऊर्ध्ववासी अधीश्वर ही हमें यह अंतरंग और प्रेरणाप्रद संदेश दे सकता है । तथापि यह वह सामान्य संबंध नहीं है जो धर्मों के द्वारा सात्त्विक या अन्य प्रकार के अहं- मानस में रहनेवाले मनुष्य के तथा इष्टदेव के किसी वैयक्तिक रूप एवं पक्ष के बीच स्थापित किया जाता है, इष्टदेव का यह रूप भी उस मन के द्वारा ही गढ़ा जाता है अथवा यह उसके सीमित आदर्श, अभीप्सा या कामना को पूर्ण करने के लिए उसके सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है । सामान्य मानसिक मनुष्य की धार्मिक भक्ति का साधारण आशय एवं वास्तविक स्वरूप यही होता है; परंतु यहाँ एक अधिक व्यापक वस्तु विद्यमान है जो मन और उसकी सीमाओं एवं उसके धर्मों को अतिक्रम कर जाती है । मन से अधिक गंभीर कोई सत्ता ही समर्पण करती है और इष्टदेव से अधिक महान् कोई सत्ता ही उस समर्पण को ग्रहण करती है ।
यहाँ जो समर्पण करता है वह है जीव, मनुष्य की मूल अंतरात्मा, उसकी आदि, केंद्रीय और आध्यात्मिक सत्ता, व्यष्टि-पुरुष । यह वह जीव है जो सीमाकारी और अज्ञानयुक्त अहंभावना से विमुक्त है, जो अपनेको पृथक् व्यक्तित्व के रूप में नहीं, बल्कि भगवान् के सनातन अंश, उनकी शक्ति तथा जीव-संभूति के रूप में जानता है, जो अज्ञान के विलुप्त होने के कारण मुक्त एवं उन्नीत है और सनातन की प्रकृति के साथ एकीभूत अपनी सच्ची और पराप्रकृति की ज्योति और मुक्ति में प्रतिष्ठित है । हमारे अंदर की यह केंद्रीय अध्यात्मसत्ता ही इस प्रकार हमारे जीवन के उद्गम और आधार तथा उसके नियामक आत्मा और शक्ति के साथ आनंद और मिलन का पूर्ण एवं घनिष्ठत: वास्तविक संबंध स्थापित करती है । और, जो हमारे समर्पण को ग्रहण करता है वह कोई सीमित देवता नहीं, वरन् पुरुषोत्तम है, एकमेव सनातन परमेश्वर है, जो कुछ भी यहाँ है उस सबका तथा समस्त प्रकृति का एकमेव परम आत्मा, जगत् की आदि और परात्पर अध्यात्म-सत्ता है । हमारे निर्मुक्त ज्ञान के अनुभव के प्रति उसका प्रथम, स्पष्ट, आध्यात्मिक आत्म-प्राकटय एक अक्षर निर्व्यक्तिक स्वयंभू सत्ता के रूप में ही होता है, वही सत्ता उसकी उपस्थिति का प्रथम चिह्न, उसके सार-तत्त्व का प्रथम स्पर्श और छाप होती है । एक विश्वव्यापी और विश्वातीत अनंत 'व्यक्ति' या पुरुष उसकी वास्तविक सत्ता का गुप्त और गहन रहस्य है, वह किसी मानसिक रूप में चिंत्य नहीं है, 'अचिंत्य-रूप,' किंतु जब हमारी चेतना की शक्तियां-भावावेग, संकल्प और ज्ञान-अपने-आपको, अपने अंध और क्षुद्र रूपों को अतिक्रम कर ज्योतिर्मय, आध्यात्मिक और अपरिमेय अति-
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मानसिक आनंद, शक्ति और विज्ञान में उन्नीत हो जाती हैं तब उनके लिए वह रहस्य अत्यंत निकट एवं प्रत्यक्ष हो जाता है । जो अनिर्वचनीय ब्रह्म है और साथ ही सुहृद्, ईश्वर, प्रकाशदाता और प्रेमी भी है वही इस पूर्णतम भक्ति और शरणागति का-इस अत्यंत घनिष्ठ आंतरिक संभूति और समर्पण का पात्र है । यह मिलन, यह संबंध एक ऐसी चीज है जो सीमाकारी मन के रूपों और नियमों से ऊपर उठी हुई है, इन सब निम्न धर्मों की पहुँच से बहुत ही ऊपर है; यह हमारी आत्मा और अध्यात्म-सत्ता का सत्य है । और फिर भी या वास्तव में इसी कारण, क्योंकि यह हमारी आत्मा और अध्यात्म-सत्ता का सत्य है, जिस परमात्मा से सब कुछ उत्पन्न होता है, जिसके द्वारा और जिसके विकारों एवं आभासों के रूप में सब कुछ अस्तित्व रखता है तथा आयास और प्रयास करता है उसके साथ इसके एकत्व का सत्य है, अत: यह उस सबका निषेध नहीं, बल्कि परिपूर्ति है जिसकी ओर मन और प्राण संकेत करते हैं और जिसे वे अपने गुप्त और असंसिद्ध अर्थ के रूप में अपने अंदर धारण करते हैं । इस प्रकार, यहाँ हम जो कुछ भी हैं उस सबके निर्वाण, विवर्जन तथा निराकरण के द्वारा नहीं, बल्कि अज्ञान और अहंभाव के निर्वाण, विवर्जन तथा निराकरण के द्वारा और उसके फलस्वरूप हमारे ज्ञान, संकल्प और हृद्गत अभीप्सा की अकथ परिपूर्ण ता के द्धारा, भगवान् एवं सनातन के अंदर उदात्त और असीम रूप से उन सबके निवास के द्वारा, 'निवसिष्यसि मय्येव,' हमारी समस्त चेतना के एक महत्तर आंतरिक स्थिति में रूपांतर और प्रतिष्ठापन के द्वारा ही यह परम सिद्धि और आध्यात्मिक मुक्ति प्राप्त होती है ।
इस आध्यात्मिक समस्या का निगूढ़ तत्व, इस रूपांतर का स्वरूप, जिसका सच्चा बोध प्राप्त करना मनुष्य के सामान्य मन के लिए इतना कठिन है, पूर्ण रूप से, अहं के जीवन और मुक्त जीव के जीवन के बीच आत्यंतिक भेद पर अवलंबित है; कारण, अहं का जीवन होता है निम्नतर प्रकृति मे तथा अज्ञानमय, और मुक्त जीव का होता है अपनी सच्ची आध्यात्मिक प्रकृति में तथा विशाल एवं ज्योतिर्मय । इनमें से पहले प्रकार के जीवन का पूर्ण रूप से त्याग करना तथा दूसरे में आमूलचूल संक्रमण करना आवश्यक है । गीता यहाँ यथासंभव पूरे बल के साथ इसी भेद का निरूपण करती है । एक ओर तो है चेतना की यह तुच्छ, त्रस्त, दंभपूर्ण, अहंमय अवस्था, 'अहंकृत भाव,' इस क्षुद्र, असहाय, भेद- मूलक व्यक्तित्व की पंगुकारी संकीर्णता जिसके दृष्टिकोण के अनुसार ही हम साधारणत: विचार कर्म और अनुभव करते हैं तथा जीवन के स्पर्शों का प्रत्युत्तर देते हैं । दूसरी ओर हैं अमर पूर्णता, आनंद और ज्ञान के वृहत् आध्यात्मिक
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विस्तार जिनके अंदर हम भागवत पुरुष के साथ मिलन के द्वारा ही प्रवेश पाते हैं, तब हम पहले की तरह अहंप्रकृति के अंधकार में उनका एक प्रच्छन्न रूप नहीं रहते, बल्कि शाश्वत ज्योति के अंदर उनका आविर्भाव एवं प्राकट्य बन जाते हैं । गीता के 'सततं मच्चित्तः' इन शब्दों में इसी मिलन की पूर्णता की ओर इंगित किया गया है । अहं का जीवन जगत् के गोचर मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्य की एक कल्पना पर प्रतिष्ठित है, व्यष्टिगत जीव और विश्व-प्रकृति के व्यावहारिक संबंधों की ग्रंथि पर, वस्तुओं की एक बौद्धिक, भाविक और संवेदना-त्मक व्याख्या पर आधारित है; हमारे अंदर की क्षुद्र और संकीर्ण 'मैं ' उस व्याख्या को विश्व के विराट् कर्म के बीच अपने सीमित, पृथक् व्यक्तित्व की भावनाओ और कामनाओं की रक्षा और तृप्ति करने के लिए प्रयुक्त करती है । हमारे सभी धर्म, हमारे सब साधारण मानदंड जिनके द्वारा हम वस्तुओं के संबंध में अपनी दृष्टि, अपना ज्ञान और कर्म निर्धारित करते हैं, इस संकुचित और सीमा-जनक आधार को ही लेकर चलते हैं, और चाहे हम अपने अहं-केंद्र के चारों ओर विस्तृत से विस्तृत वृत्त बनाते हुए ही इनका अनुसरण क्यों न करें, फिर भी ये हमें इस क्षुद्र चक्र से बाहर नहीं ले जा सकते । यह एक ऐसा चक्र है जिसमें जीव एक संतुष्ट या संघर्षरत कैदी है, जिसमें वह सदा के लिए प्रकृति की मिश्रित प्रेरणाओं के अधीन है ।
कारण, इस चक्र में पुरुष अपने-आपको आवृत रखता है, अपनी दिव्य और अमर सत्ता को अज्ञान में आच्छादित कर देता है और एक आग्रहपूर्ण सीमाबद्ध-कारी प्रकृति के धर्म के अधीन हो जाता है । यह धर्म तीन गुणों का दुर्लध्य नियम है । यह एक त्रिविध सोपान है; यह ऊपर, दिव्य ज्योति की ओर लड़खड़ाता हुआ आरोहण करता है पर वहाँतक पहुँच नहीं सकता । इसके निचले सोपान पर है जड़ता का धर्म: तामसिक मनुष्य एक प्रथानुयायी यांत्रिक कर्म में अपनी भौतिक, अर्द्ध-बौद्धिक, प्राणमय और संवेदनात्मक प्रकृति के निर्देशों तथा आवेगों का और उसके इच्छा-चक्र का निष्क्रय रूप से अनुसरण करता है । नीचे के सोपान पर आता है प्रवृत्तिमय धर्म; प्राणप्रधान, गतिशक्तिमय, क्रियाशील राजसिक मनुष्य अपने-आपको अपने जगत् और परिपार्श्व पर लादने का यत्न करता है, परन्तु वह केवल अपनी विक्षुब्ध लालसाओं, कामनाओं और अहंताओं का क्षतिकारक बोझ और अत्याचारपूर्ण प्रभुत्व तथा अपनी चिर-चंचल स्वेच्छा का भार और अपनी राजसिक प्रकृति का आधिपत्य ही बढ़ाता है । सबसे ऊपर के सोपान पर एक सामंजस्यपूर्ण नियामक धर्म जीवन पर दबाव डालता है; सात्विक मनुष्य अपने तर्कप्रधान ज्ञान, प्रबुद्ध उपयोगिता या रूढ़िभूत पुण्य के
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सीमाबद्ध वैयक्तिक प्रतिमानों, अपने धर्मों, दर्शनशास्त्रों और नैतिक सूत्रों, मानसिक प्रणालियों और रचनाओं, विचार और आचार के बंधे-बंधाए मार्गों का निर्माण और अनुसरण करने का यत्न करता है जो जीवन के समग्र उद्देश्य के साथ मेल नहीं खाते और जो विशालतर जगदुद्देश्य की गतिधारा में निरन्तर छिन्न-भिन्न हो रहे हैं । गुणों के क्षेत्र में सात्त्विक मनुष्य का धर्म सबसे उच्च है; पर वह भी एक संकीर्ण दृष्टि और लघु आदर्श है । उसके अपूर्ण संकेत एक तुच्छ एवं सापेक्ष पूर्णता की ओर ही ले जाते हैं; प्रकाशयुक्त वैयक्तिक अहं के लिए अस्थायी रूप में संतोषजनक होता हुआ भी वह न तो आत्मा के समग्र सत्य पर प्रतिष्ठित है और न ही प्रकृति के समग्र सत्य पर ।
सच पूछो तो मनुष्य का यथार्थ जीवन किसी समय भी इनमें से केवल एक ही चीज नहीं होता, न वह प्रकृति के केवल प्रथम, स्थूल धर्म का यांत्निक गतानु-गतिक अनुसरण होता है न प्रवृत्तिमय कर्मशील सत्ता का संघर्ष और नहीं चिन्मय ज्योति और बुद्धि का तथा शुभ और ज्ञान का विजयशील आविर्भाव । मनुष्य के जीवन में इन सब धर्मों का मिश्रण पाया जाता है; हमारी बुद्धि और इच्छा-शक्ति इनसे एक कम या अधिक मनमाना विधान बना लेती हैं । जिसे यथा-संभव उत्तम रीति से चरितार्थ करना होता है, पर जो वास्तव मे विश्व-प्रकृति की अन्य अति प्रबल वस्तुओं के साथ समझौता किये बिना कभी भी चरितार्थ नहीं किया जा सकता । हमारे आलोकित संकल्प और बुद्धि के सात्त्विक आदर्श या तो अपने-आपमें समझौते होते हैं, अधिक-से-अधिक कुछ एक प्रगतिशील समझौते होते हैं, एक सतत अपूर्णता एवं परिवर्तन-धारा के अधीन होते हैं, या फिर, यदि वे अपने स्वरूप में अपरिवर्तनीय हों भी तो भी उनका अनुसरण पूर्णता के एक आदर्श के रूप में ही किया जा सकता है जो व्यवहार में अधिकांशतः उपेक्षित ही रहता है या जो केवल एक आशिक प्रभाव के रूप में ही सफल हो पाता है । और यदि कभी हम यह सोचते हैं कि हमने उन्हें पूर्णत: चरितार्थ कर लिया है, तो इसका कारण यह होता है कि हम अपने अन्दर की उन अन्य शक्तियों और प्रेरणाओं के अवचेतन या अर्द्ध-चेतन मिश्रण की अवहेलना करते हैं जो साधारणतः हमारे आदर्शों के समान या उनसे भी अधिक हमारे कर्म की वास्तविक शक्तियाँ होती हैं । यह आत्म-अज्ञान ही मानवीय बुद्धि और धर्माभिमान की समस्त नि:सारता का मूल कारण है; मनुष्य के साधु-स्वभाव के शुभ्र, निष्कलंक बाह्य रूप के पीछे यह एक गुप्त काली रेखा है और यह अकेली ही ज्ञान तथा पुण्य के मिथ्या अहंकारों को संभव बनाती है । उत्तम-से-उत्तम मानवीय ज्ञान भी अधूरा ज्ञान होता है और उच्च-से-उच्च मानवीय पुण्य भी एक मिश्रित कोटि की वस्तु होता
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है और जब वह आदर्शत: अत्यंत सच्चे रूप में पूर्णता से युक्त होता है तब भी व्यवहार में पर्याप्त आपेक्षिक ही होता है । निरपेक्ष सात्त्विक आदर्श आचार-व्यव-हार में जीवनयापन के एक व्यापक विधान के रूप में प्रधानता नहीं प्राप्त कर सकते; वैयक्तिक अभीप्सा और आचरण को उत्कृष्ट और उन्नत करनेवाली एक शक्ति के रूप में उनकी अनिवार्यता के होते हुए भी, उनके प्रति निष्ठा जीवन को कुछ संशोधित तो करती हे पर उसे पूर्ण रूप से परिवर्तित नहीं कर सकती, और उनकी पूर्ण चरितार्थता हमारे केवल भविष्य के एक स्वप्न के रूप में ही प्रतिबिम्बित होती है अथवा उसकी कल्पना स्वर्गिक प्रकृति के एक ऐसे जगत् के रूप में हमारे सामने आती है जो हमारे पार्थिव जीवन की मिश्रित प्रवृत्ति से मुक्त है । इससे भिन्न कुछ हो भी नहीं सकता क्योंकि न तो इस जगत् की प्रकृति और न मनुष्य की प्रकृति कोई ऐसी अखंड वस्तु है जो केवल सत्त्व के शुद्ध उपादान से ही बनी हो और न वह ऐसी हो ही सकती है ।
अपनी संभावनाओं को इस सीमा से, धर्मों के इस अस्तव्यस्त मिश्रण से बाहर निकलने का जो सर्वप्रथम द्वार हमें दिखायी देता है वह है निर्व्यक्तिकता की ओर एक प्रकार की उच्च प्रवृत्ति, जो बृहत्, विश्वव्यापी, शांत, मुक्त, सत्य और शुद्ध सत्ता इस समय अहं के परिसीमक मन के कारण छूपी हुई है उसकी ओर अंतर्मुख गति । कठिनाई यह है कि जहाँ अपनी सत्ता की शान्ति और नीरवता के क्षेत्नों में हम इस निर्व्यक्तिकता के अन्दर प्रत्यक्ष मुक्ति अनुभव कर सकते हैं, वहाँ निर्व्यक्तिक कर्म की अवस्था उपलब्ध करना किसी प्रकार भी इतना सहज नहीं । जबतक हम अभी अपने साधारण मन में ही वास करते हैं तबतक यदि हम निर्व्यक्तिक सत्य का अनुसरण करें या अपने आचार-व्यवहार में निर्व्यक्तिक संकल्प का अनुसरण करें तो वह हमारे इस मन के स्वाभाविक एवं अपरिहार्य धर्म--हमारे व्यक्तित्व के धर्म, हमारी प्राणिक प्रकृति के सूक्ष्म आवेग और अहंता के रंग के द्वारा कलुषित ही हो जाता है । निर्व्यक्तिक सत्य का अनुसरण इन प्रभावों के द्वारा एक संदेहातीत आवरण में परिणत हो जाता है जिसकी ओट में हमारी बौद्धिक अभिरुचियाँ आश्रय प्राप्त करती हैं, और फिर वे हमारे मन की संकीर्णकारी आग्रह-शीलता के द्वारा संपुष्ट होती रहती हैं । निःस्वार्थ एवं निर्व्यक्तिक कर्म का अनुसरण हमारे वैयक्तिक संकल्प के स्वार्थपूर्ण चुनावों और अंध स्वेच्छाचारी आग्रहों के लिए एक महत्तर प्रामाणिकता एवं प्रत्यक्ष उच्च अनुमति का रूप धारण कर लेता है । दूसरी ओर, ऐसा प्रतीत होगा कि पूर्ण निर्व्यक्तिकता हमें एक उतनी ही पूर्ण निष्क्रियता के लिए बाधित करती है, और इसका अर्थ यह हुआ कि समस्त कर्म ही अहं और त्रिगुण की मशीनरी के साथ बंधा हुआ
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है और जीवन तथा इसके कर्मों से पीठ फेरना ही इस चक्र से, बाहर निकलने का एकमात्र पथ है । तो भी यह निर्व्यक्तिक नीरवता ही इस विषय में अंतिम ज्ञान-वाक्य नहीं है, क्योंकि जिस आत्म-उपलब्धि का द्वार हमारे प्रयास के लिए खुला हुआ है उसका एकमात्र मार्ग और मुकुट यही नहीं है और न यह उसका समस्त मार्ग और चरम मुकुट ही है । एक और महत्तर, पूर्णतर एवं प्रत्यक्षतर आध्यात्मिक अनुभूति भी है जिसमें हमारे अहंमूलक व्यक्तित्व का क्षेत्र और हमारे मन की सीमाओं का चक्र महत्तम आत्मा और अध्यात्म-सत्ता की निर्बाध अनंतता में विलीन हो जाते हैं और फिर भी जीवन तथा इसके कर्म केवल स्वीकार्य और संभवनीय ही नहीं रहते बल्कि वे अपनी विस्तीर्गतम आध्यात्मिक पूर्णता को पहुँच जाते तथा उसमें प्रसारित हो जाते हैं और एक अति महान्, ऊर्ध्वमुखी सार्थकता प्राप्त कर लेते हैं ।
पूर्ण निर्व्यक्तिकता तथा हमारी प्रकृति की गति-शक्तिमय संभावनाओं के बीच की खाई को पाटने के लिए जो प्रयास किये गए हैं उनमें विभिन्न स्तर देखने में आते हैं । महायान की विचारधारा और साधना ने इस कठिन सामंजस्य तक पहुँचने के लिए दो प्रकार से यत्न किया, प्रथम तो एक गंभीर निष्कामता और मानसिक तथा प्राणिक आसक्ति एवं संस्कारों से एक विशाल विलयकारी मुक्ति के अनुभव के द्वारा और दूसरे, विधेयात्मक दृष्टि से, एक सार्वजनीन परार्थ-भावना, जगत् और इसके जीवों के लिए एक अपार करुणा के द्वारा जो मानों निर्वाण की उच्च स्थिति को जीवन और कर्म में उंडेलने एवं प्रवाहित करनेवाली बन गयी । एक अन्य आध्यात्मिक अनुभव का भी गूढ़ आशय इसी प्रकार का सामंजस्य साधित करना था, वह अनुभव विश्व की सार्थकता के सम्बन्ध में अधिक सचेतन था, वह अधिक गंभीर, प्रेरणाप्रद, कर्म के पक्ष में समृद्ध रूप से व्यापक, गीता की विचारधारा का कुछ और अधिक निकटवर्त्ती था : वह अनुभव हमें ताओ मत के विचारकों की उक्तियों में उपलब्ध होता है अथवा कम-से-कम हम उसे उनकी उक्तियों के पीछे पढ़ सकते हैं । वहाँ एक निर्व्यक्तिक, अनिर्वचनीय सनातन का वर्णन किया हुआ प्रतीत होता है जो विश्व की आत्मा और साथ ही उसका एक और अभिन्न प्राण है : वह सभी वस्तुओं को समभाव से धारण करता तथा उनमें प्रवाहित होता है, 'समं ब्रह्य'; वह एक ऐसा 'एकमेवाद्वितीय' है जो कि कुछ नहीं है, असत् है; क्योंकि, जो कुछ भी हम यहाँ देखते हैं उस सबसे वह भिन्न है और फिर भी वह इन सब भूतों की समष्टि है । वह अंध व्यक्तित्व जो इस अनंत पर फेन की भांति उठता है, वह परिवर्तनशील अहं, जो अपनी आसक्ति और वितृष्णा, राग और द्वेष तथा स्थिर मानसिक भेद-ज्ञानों से युक्त
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है, एक शक्तिशाली रूप है जो उस एकमात्र सद्वस्तु, ताओ, परम 'सर्व' और 'असत्' को हमसे छुपा देता है तथा हमारे सामने विकृत रूप में उपस्थित करता है । उसका संस्पर्श हम तभी प्राप्त कर सकते हैं यदि हम व्यक्तित्व तथा इसके क्षुद्र रूपों एवं रचनाओं को एक अगोचर, विश्वव्याप्त और सनातन उपस्थिति में विलीन कर दें; एक बार यह कार्य सिद्ध हो जाने पर हम उसमें एक वास्तविक जीवन यापन करते हैं और एक अन्य महत्तर चेतना प्राप्त कर लेते हैं जिसके द्वारा हम सब वस्तुओं के भीतर प्रवेश कर सकते हैं और साथ ही हम स्वयं भी सब सनातन प्रभावों की ओर खुल जाते हैं । यहाँ भी गीता की भांति, सनातन के प्रति पूर्ण उद्घाटन और आत्मसमर्पण ही उच्चतम पथ प्रतीत हो सकता है । एक ताओ-पन्धी विचारक कहता है, ''तुम्हारा शरीर तुम्हारा अपना नहीं है, यह भगवान् का ही एक प्रतिनिधिभूत विग्रह है : तुम्हारा प्राण तुम्हारा अपना नहीं है, यह भगवान् की ही एक प्रतिनिधिभूत समस्वरता है : तुम्हारा व्यक्तित्व तुम्हारा अपना नहीं है, यह भगवान् की ही एक प्रतिनिधिभूत अनुकूलन-शक्ति है ।'' और यहाँ भी एक विशाल पूर्णता तथा मुक्त कर्म अंतरात्मा के समर्पण का शक्तिशाली परिणाम हैं । अहंमय व्यक्तित्व के कर्म विश्व-प्रकृति की प्रवृत्ति के विरुद्ध एक भेदमूलक अभियान होते हैं । इस मिथ्या गति के स्थान पर विश्व-व्यापिनी सनातनी शक्ति के अधीन एक ज्ञानपूर्ण एवं शान्त निष्क्रियता को प्रतिष्ठित करना होगा, ऐसी निष्क्रियता को जो हमें अनंत कर्मधारा के प्रति अनुकूलनक्षम बना देती है, उसके सत्य के साथ समस्वर, आत्मा के निर्माणकारी प्राण के प्रति नमनीय बना देती है । जिस व्यक्ति में ऐसी समस्वरता हो वह अंदर से निश्चल तथा नीरवता में निमग्न हो सकता है, परन्तु उसकी आत्मा छद्मरूपों से मुक्त दिखायी देगी, भागवत प्रभाव उसके अन्दर कार्य कर रहा होगा और जब वह शान्ति तथा आभ्यंतरिक नैष्कर्म्य में निवास करता होगा तब भी वह एक अदम्य शक्ति के साथ कार्य करेगा और कोटि-कोटि वस्तुएँ और व्यक्ति उसके प्रभाव तले एकत्र हो जायेंगे तथा उसके द्वारा परिचालित होंगे । परमात्मा की निर्व्यक्तिक शक्ति उसके कर्मों को अपने हाथ में ले लेती है,--वे तब अहंकार के द्वारा विकृत हुई क्रियाएं नहीं रहते,--और साथ ही वह शक्ति जगत् तथा इसके लोगों को एकत्र धारित रखने तथा नियंत्रित करने के लिए, 'लोक-संग्रहाथार्य, प्रभुत्वशाली रूप से उसके द्वारा क्रिया करती है ।
गीता ने जिस आरम्भिक निर्व्यक्तिक कर्म की शिक्षा दी है उसके तथा इन अनुभवों के बीच भेद नहीं के बराबर है । गीता भी हमसे यही कहती है कि कामना, आसक्ति और अहंकार का त्याग करना होगा, निम्न प्रकृति को पार
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करना तथा अपने व्यक्तित्व और उसकी तुच्छ रचनाओं को तोड़ डालना होगा । वह भी हमसे यही कहती है कि आत्मा और ब्रह्म में निवास करना होगा, सबके अन्दर आत्मा और ब्रह्म को देखना होगा तथा सबको आत्मा और ब्रह्म के अन्दर एवं आत्मा और ब्रह्म के रूप में देखना होगा । ताओ-पन्थी विचारक के समान ही वह हमसे अपने प्राकृत व्यक्तित्व तथा इसके कर्मों को आत्मा, परम पुरुष, सनातन एवं ब्रह्म के अन्दर संन्यस्त करने की मांग करती है, 'आत्मनि संन्यस्य ब्रह्मणि ।' और इस समानता का कारण यह है कि बाह्य, ऊर्जस्वी, क्रियाशील जीवन के साथ सुसमन्वित शांतिमय, आभ्यंतरिक विशालता और नीरवता के विषय में मनुष्य का संभवनीय उच्चतम तथा स्वतंत्रतम अनुभव सदा यही होता है, एक ही अविनाशी शक्ति तथा एकमात्र सनातन सत्ता के निर्व्यक्तिक, अनंत सत्य और नि:सीम कर्म में ये दोनों एक साथ रहते हैं या परस्पर घुलमिलकर एक हो जाते है । परन्तु गीता यहाँ एक और अत्यंत अर्थपूर्ण पदावलि 'आत्मनि अथो मयि' को जोड़ देती है जिससे सब बात ही बदल जाती है । गीता की मांग है कि सब वस्तुओं को आत्मा के अन्दर और फिर ''मेरे'' अर्थात् ईश्वर के अन्दर देखो, समस्त कर्म आत्मा, अध्यात्म-सत्ता एवं ब्रह्म के प्रति और फिर वहाँसे परम पुरुष, पुरुषोत्तम के प्रति उत्सर्ग कर दो । यहाँ आध्यात्मिक अनुभव की एक और भी महत्तर एवं गभीरतर गहनता है, मानवजीवन के अर्थ का एक विशालतर रूपांतर है, समुद्र की ओर नदी के लौटने का एक गुह्यतर एवं प्रगाढ़-तर हृदयावेग है, व्यक्तिगत कर्म-कलाप तथा वैश्व कर्म का शाश्वत कर्मी के हाथों में पुन: सौंप देना है । शुद्ध निर्व्यक्तिकता पर जो बल दिया जाता है उसमें हमारे लिए यह कठिनाई आती और त्रुटि प्रतीत होती है कि वह आतंरिक पुरुष किंवा आध्यात्मिक व्यष्टि को, हमारी अंतरतम सत्ता के इस अटल चमत्कार को अनंत के अन्दर एक अस्थायी, भ्रमात्मक एवं परिवर्तनशील रचना में परिणत कर देता है । केवल वह 'अनंत' ही सत् है और वह एक क्षणिक खेल को छोड़कर और कभी जीव की अंतरात्मा को ओर कोई वास्तविक ध्यान नहीं देता । यदि मनुष्य की अंतरात्मा भी नित्य-परिवर्तनशील शरीर की भांति अनंत के अन्दर एक नश्वर दृग्विषय से अधिक कुछ न हो तो उसके तथा सनातन के बीच कोई वास्तविक एवं स्थायी सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता ।
यह सत्य है कि अहं तथा उसका सीमाबद्ध व्यक्तित्व प्रकृति की एक ऐसी ही अस्थायी एवं परिवर्तनशील रचना है और अतएव इस रचना को तोड़कर हमें अपने-आपको सर्व एवं अनंत के साथ एकात्म अनुभव करना होगा । परन्तु अहं वास्तविक पुरुष नहीं है; जब यह विलीन हो जाता है, तब भी आध्यात्मिक
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व्यष्टि बचा रहता है, तब भी सनातन जीव बना ही रहता है । अहं का सीमा-बंधन विलुप्त हो जाता है और जीव एकमेव के साथ गभीर एकत्व में निवास करता है और सभी वस्तुओं के साथ अपनी विश्वगत एकता अनुभव करता है । और फिर भी हमारी अपनी अंतरात्मा ही इस विस्तार एवं एकत्व का रसास्वादन करती है । विश्व-कर्म जब सबके अन्दर अवस्थित एक और अभिन्न शक्ति का कर्म प्रतीत होता है, जब वह ईश्वर का ही एक उपक्रम एवं व्यापार अनुभूत होता है, तब भी वह मनुष्यों की विभिन्न आत्माओं में, 'अंश: सनातन:,' विभिन्न रूप ग्रहण करता है, उनकी प्रकृति में विभिन्न दिशा का अनुसरण करता है । अध्यात्म-ज्ञान को ज्योति, नानारूप विश्व-शक्ति, सत्ता का शाश्वत आनंद हमारे अन्दर तथा हमारे चारों ओर उमड़ पड़ते हैं और अंतरात्मा के अन्दर घनीभूत होकर हरएक आत्मा से चारों ओर के जगत् पर इस प्रकार प्रवाहित होते हैं मानों वे एक जीवंत अध्यात्म-चेतना के एक ऐसे केंद्र से प्रवाहित हो रहे हों जिसकी परिधि अनंत में खो गयी है । इसके अतिरिक्त, आध्यात्मिक व्यक्ति का अस्तित्व दिव्य जीवन के एक छोटे से विश्व के रूप में बना ही रहता है; वह स्वतंत्र भी होता है और साथ ही दिव्य आत्म-अभिव्यक्ति के जिस अनंत विश्व का एक क्षुद्र अंश ही हम अपने चारों ओर देख पाते हैं उस संपूर्ण विश्व से अविच्छेद्य भी । वह परात्पर का एक अंश है, वह सर्जनक्षम है, वह अपने चारों ओर अपना ही एक जगत् रच लेता है जब कि वह इस विश्व-चेतना को भी जिसमें अन्य सब हैं, सुरक्षित रखता है । यदि यह आक्षेप किया जाय कि यह तो एक भ्रम है और जब वह विश्वातीत परब्रह्म में लौट जायेगा तो यह भ्रम अवश्य दूर हो जायेगा, तो आखिर इस विषय में कोई बिल्कुल निश्चित बात नहीं कही जा सकती । कारण, तब भी मनुष्य की अंतरात्मा ही इस मुक्ति का उपभोग करती है, जैसे कि वह पहले दिव्य कर्म और अभिव्यक्ति का एक जीवंत आध्यात्मिक केंद्र थी; केवल इतनी ही बात नहीं है कि व्यक्तित्व का मायामय आवरण अनंत के अन्दर भंग हो जाता है बल्कि इसके अतिरिक्त और कुछ भी है । हमारी सत्ता का यह रहस्य इस बात को द्योतित करता है कि जो कुछ हम हैं वह एकमेव का केवल अस्थायी नाम-रूप ही नहीं है, अपितु हम कह सकते हैं कि वह एकमेवाद्वितीय भागवत सत्ता को एक अंशभूत सत्ता और चेतना है । अहं तो हमारी आध्यात्मिक व्यष्टिसत्ता का अज्ञान के अन्दर एक भ्रामक प्रतिबिम्ब तथा प्रक्षेपमात्न है, पर हमारी उस व्यष्टिसत्ता के अन्दर एक ऐसा सत्य निहित है या वह स्वयं एक ऐसा सत्य है जो अज्ञान के परे भी स्थिर रूप से बना रहता है; हमारी सत्ता का एक ऐसा अंश भी है जो नित्य ही पुरुषोत्तम की परा प्रकृति में निवास करता है, 'निवसिष्यसि
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मयि ।' गीता की शिक्षा की गंभीर व्यापकता यही है कि जहाँ यह विश्व-भावा-पन्न निर्व्यक्तिकता के उस सत्य को स्वीकार करती है जिसमें हम अहं के निर्वाण, 'ब्रह्म-निर्वाण' के द्वारा प्रवेश करते हैं,--निश्चय ही इसके बिना मोक्षप्राप्ति संभव नहीं या कम-से-कम कोई चरम मुक्ति संभव नही,--वहाँ यह सर्वोच्च अनुभव के अंग के रूप में हमारे व्यक्तित्व के स्थायी आध्यात्मिक सत्य को भी स्वीकार करती है । हमारे अन्दर की यह प्राकृत सत्ता नहीं बल्कि वह दिव्य और केंद्रीय सत्ता ही सनातन जीव है । ईश्वर एवं वासुदेव ही, जो कि सब कुछ हैं, हमारे मन, प्राण और शरीर को निम्न प्रकृति के उपभोग के लिए ग्रहण करते हैं; परा प्रकृति, परम पुरुष की आधा आध्यात्मिक प्रकृति ही विश्व को एकत्र धारण किए हुए है और इसके अन्दर जीव के रूप में आविर्भूत होती है । सो यह जीव पुरुषोत्तम की मूल दिव्य अध्यात्म-सत्ता का एक अंश है, जीवंत सनातन की एक जीवंत शक्ति है । वह केवल निम्न प्रकृति का एक अस्थायी रूप नहीं है, बल्कि अपनी परा प्रकृति में अवस्थित परमदेव का एक सनातन अंश है, भागवत सत्ता की एक शाश्वत चिन्मय रश्मि है और उतना ही चिरस्थायी है जितनी कि वह दैवी परा प्रकृति । अतएव हमारी मुक्त चेतना की उच्चतम पूर्णता और उच्चतम स्थिति का एक पक्ष होना चाहिए परम आध्यात्मिक प्रकृति में जीव का वास्तविक पद ग्रहण करना, वहाँ परम पुरुष की महिमा में निवास करना और शाश्वत आध्यात्मिक एकत्व का आनंद प्राप्त करना ।
हमारी सत्ता के इस रहस्य का अनिवार्य अर्थ यह है कि पुरुषोत्तम की सत्ता का भी एक ऐसा ही परम रहस्य है, 'रहस्यमुत्तमम् ।' 'केवल, ब्रह्म की ऐकांतिक निर्व्यक्तिकता परमोच्च ण्स्य नहीं है । परमोच्च रहस्य है यह महाश्चर्य कि परम पुरुष और प्रतीयमान बृहत् निर्व्यक्तिक सत्ता--ये दोनों एक ही है, सब वस्तुओं का एक अक्षर विश्वातीत आत्मा और वे परम पुरुष जो यहाँ अपने-आपको सृष्टि के ठेठ मूल में एक अनंत और बहुविध व्यक्तित्व के रूप में प्रकट करते हैं यत्न-तत्न-सर्वत्न कार्य कर रहे हैं,--वह आत्मा और पुरुष हमारे चरम, अंतरंग-तम और गभीरतम अनुभव के प्रति एक नि:सीम सत्-स्वरूप पुरुष के रूप में प्रकाशित होते हैं जो हमें स्वीकार करते तथा अपनी ओर ले जाते हैं, निराकार सत्ता के शून्य में नहीं .बल्कि अपने समग्र सत्स्वरूप में ले जाते हैं और ले भी जाते हैं अत्यंत प्रत्यक्ष, गंभीर तथा अद्भुत रूप से और अपनी तथा हमारी चिन्मय सत्ता के सभी भावों के साथ । यह उच्चतम अनुभूति और यह अत्यंत व्यापक दृष्टि हमारी प्रकृति के भागों, हमारे ज्ञान, संकल्प, हृद्गत प्रेम और उपासना की एक गभीर, मर्मस्पर्शी और अनंत सार्थकता प्रकट कर देती हैं, यदि हम केवल
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निर्व्यक्तिक पर ही बल दें तो वह सार्थकता नष्ट या न्यून हो जाती है, क्योंकि जो प्रवृत्तियाँ और शक्तियाँ हमारी गभीरतम प्रकृति का अंश हैं, जो तेज और संवेग हमारे आत्मानुभव के अंतरतम मूल तंतुओं से संबद्ध हैं उनकी गभीर-तम परिपूर्ति को वह निर्व्यक्तिकता पर दिया जानेवाला बल दबा देता है या बहुत ही शून्य कर देता है या फिर वह उसे संपन्न ही नहीं होने देता । केवल ज्ञान का तप ही हमारी सहायता नहीं कर सकता; ज्ञान के द्वारा आलोकित और उन्नीत हृद्गत प्रेम और अभीप्सा के लिए भी स्थान है और अनंत स्थान है, पर वह ज्ञान होता है अधिक गुह्य रूप से विशद, अधिक महान् एवं शांत आवेग से पूर्ण । अपने हृदय-चैतन्य, मनश्चैतन्य, समग्र चैतन्य के सतत एकीभूत सान्निध्य के द्वारा ही, 'सततं मच्चित्त:,' हम सनातन के साथ अपने एकत्व का विशालतम, गभीरतम एवं पूर्णतम अनुभव प्राप्त करते हैं । यहाँ यह उपदेश दिया गया है कि समस्त सत्ता में अंतरंगतम एकत्व ही, जो विश्वभाव के बीच भी, परात्परता के शिखरपर भी दिव्य आवेग के साथ प्रगाढ़ रूप से व्यक्तिगत होता है, मानवात्मा के लिए परम देव की प्राप्ति का पथ है और साथ ही जिस पूर्णता एवं दिव्य चेतना की ओर उसकी प्रकृति उसे आत्मा के रूप में पुकारती है उसे उपलब्ध करने का भी यही मार्ग है । बुद्धि और संकल्प को हमारी संपूर्ण सत्ता, सब भागों सहित, ईश्वर की ओर, उस समस्त सत्ता के भागवत आत्मा एवं प्रभु की ओर फेर देनी होगी, 'बुद्धियोगमुपाश्रित्य।' हृदय को अन्य समस्त आवेग को उनके साथ एकत्व के आनन्द में परिणत करना होगा, सर्वभूतों में अवस्थित उनके प्रति प्रेम में परिणत करना होगा । इंद्रियों को अध्यात्मभावित होकर सर्वत्र उन्हीं को देखना, सुनना और अनुभव करना होगा । जीवन को पूर्ण रूप से जीव के अन्दर उन्हीं का जीवन बनना होगा । समस्त कर्मों को संकल्प, ज्ञान, कर्मेंद्रियों, ज्ञानेंद्रियों, प्राणिक भागों तथा देह में विद्यमान उनकी अनन्य शक्ति एवं अनन्य प्रेरणा से ही उद्भूत होना होगा । यह मार्ग गंभीर रूप से निर्वैयक्तिक है क्योंकि इसमें विश्वभाव तथा विश्वातीत भाव में पुन: प्रतिष्ठित आत्मा के लिए अहं की पृथक्ता मिटा दी जाती है । और फिर भी यह घनिष्ठ रूप से व्यक्तिगत है क्योंकि यह अंतर्निवास तथा एकत्व के लोकोत्तर आवेश एवं शक्ति की ओर उड़ान लेता है । मानसिक तर्क की कठोर मांग के अनुसार आत्मनिर्वाण का स्वरूप निर्विशेष लय ही हो सकता है, किन्तु वह लय परम रहस्य का, 'रहस्यमुत्तमम्' का अंतिम वचन नहीं है ।
अपने भगवन्नियोजित कर्म में प्रवृत्त होने से अर्जुन ने जो इन्कार किया था उसका मूल था उसके अंदर का अहंकार | सात्त्विक, राजसिक और तामसिक
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अहं के विचार और प्रवृत्तियां, पाप और उसके व्यक्तिगत परिणामों से प्राणिक प्रकृति का भय, वैयक्तिक दु:ख-ताप से हृदय की पराङ्मुखता, पाप और पुण्य की आत्मप्रवचनामय सत्याभासी पुकारों के द्वारा अहंमूलक आवेगों का समर्थन करने के लिए तिमिराच्छन्न बुद्धि की चेष्टा भगवान् की कार्यशैलियों से हमारी प्रकृति की अज्ञ जुगुप्सा क्योंकि वे मनुष्य की शैलियों से भिन्न प्रतीत होती हैं और उसके स्नायविक तथा आवेशप्रधान अंगों पर एवं उसकी बुद्धि पर भीषण और अप्रिय चीजों को लादती हैं--इन सबका मिश्रण, विशृंखलता और विषम भ्रांति उस अहंकार के पीछे थी । अब जब कि एक उच्चतर सत्य, कर्म की एक मह- त्तर प्रणाली और भावना उसके समक्ष प्रकट की जा चुकी हैं, फिर भी यदि वह अपने अहंभाव पर दृढ़ रहकर कर्म न करने के व्यर्थ और असंभव निश्चय पर डटा रहे, तो इसके आध्यात्मिक परिणाम पहले की अपेक्षा भी अनतगुना अनिष्टकारी होंगे । कारण, यह एक मिथ्या निश्चय है, एक व्यर्थ पराङ्मुखता है, क्योंकि यह केवल एक अस्थायी दुर्बलता से, उसके अंतरतम स्वभाव की शक्ति के विधान से एक प्रबल पर अस्थायी रूप में विचलित होने से उत्पन्न हुआ है जो कि उसकी प्रकृति का सच्चा संकल्प और पथ नहीं है । यदि वह अब अपने शस्त्रा-स्त्र फेंक दे तो भी जब वह देखेगा कि युद्ध और संहार उसके बिना भी चल ही रहे हैं, उसकी पराङमुखता के फलस्वरूप उन सब चीजों की, जिनके लिए उसने जीवन बिताया है, पराजय हो रही है, जिस ध्येय की सेवा के लिए उसका जन्म हुआ था वह अपने नायक की अनुपस्थिति या अकर्मण्यता के कारण दुर्बल और पथभ्रांत हो रहा है, स्वार्थपरायण अधर्म और अन्याय के समर्थकों की विद्वेषपूर्ण और विवेकहीन शक्ति के द्वारा पराजित और उत्पीड़ित हो रहा है तो उसे अपनी प्रकृति ही पुनः शस्त्र उठाने के लिए विवश कर देगी । और रणभूमि में इस प्रकार वापिस आने से कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होगा । अहंमय मन की धारणाओं और भावनाओं के संक्षोभ ने ही उसे इन्कार के लिए प्रेरित किया था; अहंमय मन की विशिष्ट धारणाओं और भावनाओं की पुन: प्रतिष्ठा के द्वारा कार्य करती हुई उसकी प्रकृति ही उसे अपने इन्कार को रद्द करने के लिए विवश करेगी । परन्तु चाहे किसी भी तरह क्यों न हो, इस प्रकार निरंतर अहं के वश में रहने का अर्थ होगा और भी बुरा और भी घातक अध्यात्म-निषेध, 'विनष्टि'; क्योंकि यह, निम्न प्रकृति के अज्ञान में उसने अपनी सत्ता के जिस सत्य का अनुसरण किया है उसकी अपेक्षा महत्तर सत्य से एक निश्चित पतन होगा । एक उच्चतर चेतना में, एक नयी आत्म-उपलब्धि में उसे प्रवेश प्राप्त हो गया है, अहंप्रेरित कर्म के स्थान पर दिव्य कर्म करने की संभावना उसे दिखायी गयी है, निरे बौद्धिक,
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भावप्रधान, ऐन्द्रिय और प्राणिक जीवन के स्थान पर एक दिव्य आध्यात्मिक जीवन के द्वार उसके सामने खोल दिए गये हैं । उसे आह्वान प्राप्त हुआ है कि वह अब और एक प्रबल अंध यंत्न न रहकर सचेतन पुरुष बने, भगवान् की एक ज्ञानदीप्त शक्ति एवं आधार बन जाय ।
कारण, हमारे अन्दर यह संभावना निहित है : हमारी मानवता के उच्चतम शिखर पर भी हमारे लिए इस पूर्णता और परात्परता का द्वार खुला हुआ है । मनुष्य का साधारण मन तथा प्राण उसके अन्दर छूपी हुई किसी वस्तु का एक अर्द्ध-आलोकित एवं अधिकांशतः अज्ञानयुक्त विकास और आंशिक एवं अपूर्ण अभिव्यक्ति हैं । वहाँ एक देवता विद्यमान हैं जो उससे छुपे हुए हैं, उसकी चेतना के पीछे भीतर की ओर अवस्थित हैं, एक ऐसी क्रिया के घने आवरण के पीछे निश्चल भाव से विराजमान हैं जो पूर्ण रूप से उसकी अपनी ही नहीं है और जिसका रहस्य भी उसे आयत्त नहीं हुआ है । वह अपनेको इस जगत् में विचार, संकल्प, अनुभव और कर्म करते हुए पाता है और सहज-प्रवृत्तिवश या बुद्धि से सोच-विचारकर यह समझ लेता है कि वह एक पृथक् स्वयं-स्थित जीव है जो विचार, संकल्प, अनुभव और कर्म करने में स्वतंत्र है, अथवा कम-से-कम वह इसी भाव से अपने जीवन का परिचालन करता है । वह अपने पाप, प्रमाद और दु:ख का भार वहन करता है और अपने ज्ञान तथा पुण्य का दायित्व एवं श्रेय अपने ऊपर लेता है; वह अपने सात्त्विक, राजसिक या तामसिक अहं को तृप्त करने के अधिकार का दम भरता है और अभिमानपूर्वक इस बात का दावा करता है कि वह अपनी ही शक्ति से अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है तथा जगत् को अपने काम में लगा सकता है । अपने विषय में उसकी यह जो धारणा है उसी के द्वारा प्रकृति उसके अन्दर कार्य करती है, और वह उसकी अपनी परिकल्पना के अनुसार ही उसके साथ व्यवहार करती है, परन्तु हर समय अपनी अंत :स्थ महत्तर आत्मा के संकल्प को ही पूर्ण करती है । मनुष्य की इस अहं-दृष्टि में जो भूल है वह उसकी अन्य अधिकतर भूलों के समान ही सत्य की एक विकृति है, एक ऐसी विकृति है जो ऐसे मूल्य-मानों की एक संपूर्ण प्रणाली ही रच डालती हे जो भ्रांत और फिर भी प्रभावशाली होते हैं । जो कुछ उसकी आत्मा के विषय में सत्य है उसे वह अहं-व्यक्तित्व का गुण मानता है और उसका मिथ्या प्रयोग करता है, उसे मिथ्या रूप दे देता है और उससे अनेक अज्ञानयुक्त निष्कर्षों पर पहूँचता है । अज्ञान उसकी स्थूल चेतना की इस मूल त्रुटि में निहित है कि उसका जो बाह्य यांत्रिक भाग प्रकृति का एक सुविधाजनक साधन है केवल उसी के साथ वह अपनेको एकाकार समझता है और अपनी अंतरात्मा के केवल उतने ही अंश को
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'अपना-आप' समझता है जितना कि इन बाह्य क्रियाओं को प्रतिबिंबित करता है तथा इनमें प्रतिबिंबित होता है । उसके अन्दर की जो महत्तर, आभ्यंतरिक अध्यात्मसत्ता उसके समस्त मन, प्राण और सृजन एवं कर्म को एक अनुपलब्ध सिद्धि की आशा और एक गुप्त सार्थकता प्रदान करती है उसे वह नहीं देख पाता । यहाँ विश्व-प्रकृति जगत् के अधीश्वर परमात्मा की शक्ति का अनुसरण करती है, प्रत्येक प्राणी को उसकी अपनी प्रकृति के नियम, 'स्वभाव' के अनुसार गठित करती है तथा उसका कर्म निर्धारित करती है, मनुष्यमात्र को भी उसकी जाति की प्रकृति के सामान्य नियम के अनुसार, अर्थात् प्राण और देह में आबद्ध और अज्ञानग्रस्त मनोमय प्राणी के नियम के अनुसार गठित करती है और उसका कर्म निर्धारित करती है, प्रत्येक मनुष्य को भी उसके अपने विशिष्ट वर्ण के धर्म तथा अपने मूल स्वभाव के विभेदों के अनुसार गठित करती तथा उसके व्यक्तिगत कर्म का निर्धारण करती है । यही विश्व-प्रकृति शरीर के यांत्रिक व्यापारों और हमारे प्राण तथा स्नायविक भागों की स्वाभाविक क्रियाओं का गठन और संचालन करती है; और यहाँ उसके प्रति हमारी अधीनता अत्यंत ही स्पष्ट है । वह हमारे इंद्रिय-मानस और संकल्प-शक्ति एवं बुद्धि की क्रिया का भी गठन कर इसका संचालन करती है, आज की वस्तुस्थिति में कदाचित् इनकी क्रिया भी कुछ कम यांत्रिक नहीं है । अन्तर इतना ही है कि जहाँ पशु में मन की क्रियाएँ पूर्ण रूप से प्रकृति का यंत्रवत् अनुसरण करती हैं, वहाँ मनुष्य की विशेषता यह है कि वह अपने आधार में एक ऐसा सचेतन विकास संपन्न करता है जिसमें अंतरात्मा अधिक सक्रिय रूप से भाग लेती है, और इससे उसके बाह्य मन को एक प्रकार की स्वाधीनता का तथा उसकी करणात्मक प्रकृति पर बढ़ते हुए प्रभुत्व का भान होता है; वह भान उसके लिए उपयोगी और अपरिहार्य होता है, किन्तु होता है अधिकांश में भ्रामक । और उसके विशेष रूप से भ्रामक होने का कारण यह है कि वह उसे अपने बंधन के कठोर तथ्य के प्रति अंध बना देता है और स्वाधीन होने का उसका मिथ्या विचार उसे सच्चा स्वातंत्र्य एवं प्रभुत्व नहीं प्राप्त करने देता । कारण, जबतक मनुष्य अपनी अंतरस्थित भागवत सत्ता से सचेतन नहीं हो जाता और अहं से भिन्न अपनी वास्तविक आत्मा एवं अध्यात्म-सत्ता को अधिकृत नहीं कर लेता, 'आत्मवान्' नही हो जाता, तबतक उसका स्वातंत्र तथा अपनी प्रकृति पर प्रभुत्व कदाचित् यथार्थ ही नहीं होते और वे पूर्ण तो हो ही नहीं सकते । उस भागवत सत्ता को ही प्रकृति मन, प्राण और शरीर में प्रकट करने का प्रयास कर रही है; वही प्रकृति पर सत्ता और कर्म के इस या उस धर्म, 'स्वभाव' को लादती है; वही हमारे अंदर के चैत्य पुरुष की बाह्य नियति और विकास का गठन करती
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है । इसलिए जब मनुष्य अपनी वास्तविक आत्मा एवं अध्यात्म-सत्ता को अधिकृत कर लेगा केवल तभी उसकी प्रकृति भगवान् का एक सचेतन यंत्न और प्रदीप्त शक्ति बन सकेगी ।
कारण, जब हम अपनी सत्ता की इस अंतरतम आत्मा में प्रवेश करते हैं, तो हमें पता चलता है कि हमारे अन्दर तथा सबके अन्दर एक ही आत्मा और परमेश्वर हैं, समस्त प्रकृति उन परमेश्वर का ही कार्य करती तथा उन्हें व्यक्त करती है और हम स्वयं इसी आत्मा की आत्मा तथा इसी सत्ता की सत्ता हैं, हमारा शरीर उन परमेश्वर की ही एक प्रतिनिधिस्वरूप प्रतिमा है, हमारा जीवन उनके जीवन-छंद की एक गति है, हमारा मन उनके चैतन्य का एक कोश है, हमारी इंद्रियाँ उनके करण हैं, हमारे भावावेग और संवेदन उनकी सत्ता के आनंद का अन्वेषण हैं, हमारे कर्म उनके उद्देश्य का एक साधन हैं जबतक हम अज्ञानी होते हैं तब-तक हमारी स्वाधीनता केवल एक छाया, संकेत या आभास होती है, किन्तु जब हम उन्हें तथा अपने-आपको जान लेते हैं तब वह उनके अमर स्वातंत्र की एक लंबी तान और शक्तिशाली यंत्न होती है । हमारे सभी प्रभुत्व उनकी कार्यरत शक्ति की प्रतिच्छाया हैं, हमारा सर्वश्रेष्ठ ज्ञान उनके ज्ञान का एक आंशिक आलोक है, हमारी आत्मा का सर्वोच्च एवं अत्यंत शक्तिशाली संकल्प इस सर्वभूतस्थ आत्मा, विश्व के अधीश्वर और परमात्मा के संकल्प का एक प्रलंबित अंश और प्रतिनिधि है । प्राणिमात्र के हृदय में अवस्थित ईश्वर ही हमें हमारी अज्ञानावस्था के समस्त आंतर और बाह्य कर्म में निम्न प्रकृति की इस माया के पहिये पर यंत्रारूढ़ की भांति घुमाते आ रहे हैं । और चाहे हमारा जीवन अज्ञान में तमसाच्छन्न हो या ज्ञान में प्रकाशमान, वह हमारे अन्दर तथा जगत् के अन्दर अवस्थित उन ईश्वर के लिए ही है । इस ज्ञान और इस सत्य में सचेतन तथा संपूर्ण रूप से निवास करने का अर्थ है अहं से मुक्त होना तथा माया के घेरे को तोड़कर उससे बाहर निकलना । अन्य सब उच्चतम धर्म इस धर्म के लिए एक तैयारी मात्र है, और समस्त योग केवल एक साधन है जिसके द्वारा हम अपनी सत्ता के अधीश्वर और परम पुरुष एवं आत्मा के साथ पहले किसी-न-किसी प्रकार का मिलन और अंत में, पूर्ण ज्योति प्राप्त होने पर, सर्वांगीण मिलन लाभ कर सकते हैं । सबसे महान् योगमार्ग है--अपनी प्रकृति की सब कठिनाइयों और परेशानियों से छुटकारा पाने के लिए संपूर्ण प्रकृति के इन अंतर्वासी ईश्वर की शरण लेना, अपनी संपूर्ण सत्ता के साथ, प्राण, शरीर, इंद्रिय, मन, हृदय और बुद्धि के साथ, उसी के प्रति अर्पित अपने संपूर्ण ज्ञान, संकल्प और कर्म के साथ, 'सर्व-भावेन', अपनी सचेतन सत्ता और यंत्रात्मक प्रकृति के सभी भावों के साथ उन्हीं
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अंतर्वासी ईश्वर की ओर मुड़ना । और जब हम सदा-सर्वदा तथा पूर्ण रूप से ऐसा कर सकेंगे, तब भागवत ज्योति, प्रीति और शक्ति हमें अपने अधिकार में कर लेंगी, हमारी सत्ता और हमारे करणों दोनों को परिपूरित कर देंगी और हमारे अंत:पुरुष तथा जीवन को घेरनेवाले समस्त संदेहों, कठिनाइयों, द्विविधाओं और विपदाओं में से हमें सुरक्षित ले चलेगी, हमें परा शांति और हमारे अमृत एवं शाश्वत पद की आध्यात्मिक स्वतंत्रता की ओर ले जायंगी, 'परां शान्तिम्, स्थानं शाश्वतम् ।'
कारण, समस्त धर्मों का और अपने योग के गहनतम सार का प्रतिपादन करने के बाद, यह बताने के बाद कि आध्यात्मिक ज्ञान के रूपांतरकारी प्रकाश के द्वारा मानव-मन के समक्ष प्रकाशित सभी प्राथमिक रहस्यों के परे, 'गुह्यात', यह एक और भी गभीर एवं गुह्यतर सत्य है, 'गुह्यतरम्', गीता एकदम ही यह कहती है कि अभी भी एक परम वचन, 'परमं वच:', है जो उसे कहना है, और अभी भी एक सर्वाधिक गुह्य सत्य है, 'सर्वगुह्मतमम्' । यह रहस्यों का रहस्य दिव्य गुरु अर्जुन को उसके सर्वोच्च श्रेय के रूप में बतलायेंगे क्योंकि वह उनकी चुनी हुई और प्रिय आत्मा है, उनका 'इष्ट' है । कारण, स्पष्ट ही, जैसा कि उपनिषदों ने पहले ही घोषित किया था, अपने वास्तविक स्वरूप की, 'तनुं स्वाम्', अभिव्यक्ति के लिए परमात्मा के द्वारा चुना हुआ कोई विरला जीव ही इस रहस्य में प्रवेश पा सकता है, क्योंकि केवल वही हृदय, मन और प्राण में परमेश्वर के इतना काफी निकट होता है कि वह अपनी सारी सत्ता में उन्हें सच्चे रूप में प्रत्युत्तर दे सकता है तथा उन्हें अपने जीवन में मूर्तिमंत कर सकता है । गीता का अंतिम उपसंहार-रूप परम वचन, जो उच्चतम रहस्य को प्रकट करता है, दो संक्षिप्त, सुस्पष्ट और सरल श्लोकों में कहा गया है और इन्हें बिना इनकी और व्याख्या या विस्तार किये यों ही छोड़ दिया गया है ताकि ये मन के अन्दर गहरे जाकर आत्मानुभूति में अपना पूर्ण अर्थ प्रकाशित करें । कारण स्वयं ये शब्द ऊपर से इतने साधारण एवं सीधे-सादे लगने पर भी जिस अमित अर्थना-गौरव से नित्यपूर्ण हैं वह इस निरन्तर विस्तृत होनेवाली आन्तरिक अनुभूति के द्वारा ही स्पष्ट हो सकता है । और जब ये शब्द उच्चारित होते हैं तो हमें अनुभव होता है कि इसी चीज के लिए शिष्य की आत्मा को हर क्षण तैयार किया जा रहा था और शेष सब तो केवल एक ज्ञानोद्वोधक और सामर्थ्यप्रद साधना एवं शिक्षा थी । यह रहस्यों का रहस्य, ईश्वर का यह सर्वोच्च स्पष्टतम संदेश इस प्रकार है, ''मुझ में मन लगा, मेरा प्रेमी और मेरा भक्त बन, मेरा भजन कर, मुझे नमस्कार कर, तू मुझे निश्चय ही प्राप्त करेगा, तेरे प्रति मेरी यह प्रतिज्ञा और प्रति-
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श्रुति है, क्योंकि तू मेरा प्रिय है । सभी धर्मों को तजकर केवल मेरी ही शरण ले । मैं तुझे समस्त पाप और बुराई से मुक्त करूँगा, शोक मत कर |''१
गीता सर्वत्र जिन चीजों पर जोर देती आ रही है वे ये हैं--योग की एक महान् और सुनिर्मित साधन-प्रणाली, एक विशाल और विशद दार्शनिक मत, स्वभाव और स्वधर्म, जीवन का सात्त्विक विधान जो मनुष्य को एक उन्नायक आत्म-अतिक्रमण के द्वारा अपने घेरे से बाहर निकालकर एक अत्यंत सुविशाल, यहाँतक कि इस उच्चतम गुण की सीमा के भी परे उन्नीत, अजरामर अस्तित्व के मुक्त आध्यात्मिक धर्म की ओर ले जाता है, पूर्णता प्राप्त करने के अनेक नियम, साधन और अनिवार्य विधि-विधान, और इन सबपर जोर दे चुकने के बाद अब गीता एकाएक अपनी रचना को तोड़कर उससे बाहर निकलती प्रतीत होती है और मानवात्मा से कहती है, ''सब धर्मों का परित्याग कर दे, अपने-आपको केवल भगवान् के प्रति, अपने ऊपर, चारों ओर और अन्दर रहनेवाले परमेश्वर के प्रति अर्पण कर दे : तुझे केवल यही करने की जरूरत है, यह सत्यतम और महत्तम पथ है, यही वास्तविक मुक्ति है ।'' कुरुक्षेत्र के दिव्य सारथि और दिव्य उपदेष्टा के रूप में सर्वलोक-महेश्वर ने मनुष्य के समक्ष यह प्रकाशित कर दिया है कि ईश्वर, पुरुष और आत्मा के महान् सत्य क्या हैं, इस जटिल जगत् की प्रकृति क्या है, परमात्मा के साथ मनुष्य के मन, प्राण, हृदय और इंद्रियों का क्या संबंध है और वह विजयशील साधन कौन-सा है जिसके द्वारा वह अपने ही आध्यात्मिक साधनाभ्यास और पुरुषार्थ के बल पर मर्त्यता से अमरता में और अपने सीमाबद्ध मानसिक जीवन से अपने असीम आध्यात्मिक जीवन में उठ सकता है । और अब मनुष्य तथा सभी वस्तुओं के अन्दर विद्यमान आत्मा और भगवान् के रूप में बोलते हुए वे उससे कहते हैं, ''यदि तू मेरे प्रति पूर्ण समर्पण कर सके, अपने अन्दर तथा सब भूतों के अन्दर अवस्थित आत्मा और परमेश्वर पर ही निर्भर रह सके और एकमात्र उन्हीं के मार्गदर्शन पर भरोसा रख सके, तो अत में इस सब वैयक्तिक पुरुषार्थ और आत्म-साधना की जरूरत नहीं रहेगी, नियम-धर्म के समस्त अनुसरण एवं सीमाबंधन को अंतत: बाधक और भारस्वरूप समझकर त्यागा जा सकता है | अपना मन पूर्ण रूप से मेरी ओर फेर दे और इसे मेरे तथा मेरी उपस्थिति के विचार से भर दे । संपूर्ण रूप से मुझ में चित्त लगा; अपने प्रत्येक कर्म को, वह चाहे कोई भी क्यों न हो, मेरे प्रति यज्ञ और भेंट के रूप में परिणत कर । ऐसा कर लेने पर, अपने जीवन, अंतरात्मा और कर्म का मुझे मेरी अपनी इच्छानुसार प्रयोग करने दे; अपने मन, हृदय, जीवन
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१. १८, ६५
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और कर्म-कलाप के साथ होनेवाले मेरे व्यवहारों से दुःखित या विभ्रांत मत हो और न इसलिए ही उद्विग्न हो कि ये उन नियमों और धर्मों का पालन नहीं करते प्रतीत होते जिन्हें मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि और इच्छाशक्ति के मार्गदर्शन के लिए अपने ऊपर लादता है । मेरी कार्य-शैलियाँ उस पूर्ण ज्ञान, शक्ति एवं प्रेम की कार्य-शैलियाँ हैं जो सभी वस्तुओं को जानता है और सर्वांगपूर्ण चरम परिणाम को लक्ष्य में रखकर अपनी सब गतियों को ऐक्यबद्ध करता है; क्योंकि वह एक समग्र पूर्णता के अनेक सूत्रों को परिष्कृत और संग्रथित कर रहा है । मैं यहाँ युद्ध के रथ में तेरे साथ अवस्थित हूँ, तेरे अंदर और बाहर जगत् के अधीश्वर के रूप में प्रकटित हूँ, और मैं यह अमोघ आश्वासन एवं अटल प्रतिज्ञा फिर से दुहराता हूँ कि मैं तुझे समस्त दु:ख और पाप से उबारकर इनके परे अपनी ओर ले चलूँगा । चाहे कोई भी कठिनाइयाँ और द्विविधाएँ क्यों न उत्पन्न हों, इस बात पर विश्वास रख कि मैं तुझे विश्व-सत्ता के अंदर पूर्ण जीवन की ओर तथा विश्वातीत आत्मा के अंदर अमर स्थिति की ओर ले चल रहा हूँ ।''
जिस गुह्य तत्त्व को, 'गुह्यम्', समस्त गभीर अध्यात्मज्ञान हमारे समक्ष प्रकाशित करता है, जो विविध शिक्षाओं में प्रतिफलित दीख पड़ता है तथा आत्मा की अनुभूति के द्वारा समर्थित होता है वह, गीता की दृष्टि में, हमारे अंदर प्रच्छन्न अध्यात्म-सत्ता का रहस्य है, मन और बाह्य प्रकृति उस सत्ता की अभिव्यक्तियाँ या रूप मात्र हैं । वह गुह्य तत्त्व पुरुष और प्रकृति के नित्य संबंधों का रहस्य है, जो अंतर्यामी ईश्वर समस्त जगत् के प्रभु हैं और अपने रूपों तथा क्रियाओं के अंदर हमसे छुपे हुए हैं, उनका रहस्यमय तत्त्व है । वेदांत, सांख्य और योग ने इन्हीं सत्यों की कई प्रकार से शिक्षा दी है और गीता के शुरू के अध्यायों में भी इन्हींका समन्वय किया गया है । अपने सब प्रतीयमान भेदों के होते हुए भी ये एक ही सत्य हैं और योग के सब विभिन्न मार्ग आध्यात्मिक साधना के विविध साधन हैं जिनके द्वारा हमारा चंचल मन तथा अंध प्राण शांत होते हैं तथा इन बहुरूप एकमेव की ओर मुड़ जाते हैं और आत्मा एवं ईश्वर का निगूढ़ सत्य हमारे लिए इतना वास्तविक एवं अंतरंग हो जाता है कि या तो हम उसमें सचेतन रूप से जीवन यापन कर सकते एवं निवास कर सकते हैं अथवा हम अपनी पृथक् सत्ता को सनातन में खो दे सकते हैं और तब हम पहले की तरह मानसिक अज्ञान के जरा भी वशीभूत नहीं रहते ।
इससे भी अधिक गुह्य तत्त्व, 'गुह्यतरम्', जिसका गीता ने विकास किया है, भागवत पुरुषोत्तम का गभीर सामंजस्य-साधक सत्य है, वे पुरुषोत्तम एक ही साथ आत्मा भी हैं और पुरुष भी, परब्रह्म भी हैं और अद्वितीय, अंतरतम, रहस्यमय,
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अनिर्वचनीय परमेश्वर भी । यह गुह्यतर तत्त्व हमारे चिंतन को चरम ज्ञान के लिए एक ऐसा विशालतर आधार प्रदान करता है जिसके द्वारा वह अधिक गभीर बोध प्राप्त कर सकता है, और साथ ही हमारी आध्यात्मिक अनुभूति को यह एक ऐसा महत्तर योग प्रदान करता है जो अधिक पूर्ण रूप से समन्वयकारी तथा व्यापक है । यह गभीरतर रहस्य परा आध्यात्मिक प्रकृति और जीव के निगूढ़ तत्त्व पर प्रतिष्ठित है, जीव उस शाश्वत तथा इस व्यक्त प्रकृति में भगवान् का सनातन अंश है और अपनी अक्षर स्वप्रतिष्ठ सत्ता में उनके साथ आत्मत: और मूलत: एक है । आध्यात्मिक अनुभूति परात्पर तत्त्व और इहलोक के बीच जो आरंभिक भेद करती है, यह गभीरतर ज्ञान उस भेद से परे है । क्योंकि, जगतों के परे जो परात्पर है वह साथ-ही-साथ वासुदेव भी है जिसने सब लोकों की सभी वस्तुओं का रूप धारण कर रखा है; वह प्रत्येक प्राणी के हृद्देश में अवस्थित ईश्वर तथा सर्वभूतों का आत्मा है और अपनी प्रकृति में उसने जो कोई भी चीज प्रकट की है उसका उद्गम एवं दिव्य अर्थ है । वह अपनी विभूतियों में प्रकट हुआ है, वह काल-पुरुष है जिसकी प्रेरणा के वश जगत् का सब व्यापार चल रहा है, वह समस्त ज्ञान का सूर्य, जीव का प्रेमी और प्रियतम, समस्त कर्म और यज्ञ का स्वामी है । इस गभीरतर, सत्यतर, गुह्यतर रहस्य की ओर अंतरतम उद्घाटन का फल होता है गीता का समग्र ज्ञान, समग्र कर्म और समय भक्ति का योग । यह एक ही साथ आध्यात्मिक विश्वमयता और मुक्त तथा पूर्णताप्राप्त आध्यात्मिक व्यष्टिभाव का अनुभव है, यह परमेश्वर के साथ पूर्ण रूप से एक होने का अनुभव है और साथ ही उन्हें जीव की अमरता का आधार तथा जगत् और देह में हमारे मुक्त कर्म का आश्रय एवं शक्ति जानते हुए उनके अंदर पूर्ण रूप से निवास करने का अनुभव भी है ।
और अब आता है परम वचन तथा सबसे गुह्य तत्त्व, 'गुह्यतमम्', वह यह है कि परमात्मा एवं भगवान् सब धर्मों से मुक्त 'अनंत' हैं और यद्यपि वे स्थिर नियमों के अनुसार जगत् का परिचालन करते है और मनुष्य को उसके अज्ञान और ज्ञान, पाप और पुण्य, सत् और असत्, राग और द्वेष और उदासीनता, सुख और दुःख, हर्ष और शोक के धर्मों के द्वारा तथा इन द्वंद्वों के परित्याग के द्वारा, उसके भौतिक और प्राणिक, बौद्धिक, भाविक, नैतिक और आध्यात्मिक रूपों, नियमों एवं आदर्शों के द्वारा ले चलते हैं, तथापि परमात्मा किंवा भगवान् इन सब चीजों से परे हैं और यदि हम भी धर्मों के समस्त अवलंबन को त्याग सकें, इन मुक्त और सनातन परमात्मा के प्रति अपनेको समर्पित कर सके और अपने-आपको केवल इनकी ओर पूर्ण तथा अनन्य भाव से खुला रखने का ही ध्यान रखते
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हुए, अपने अंतःस्थ भगवान् की ज्योति, शक्ति और आनंद पर भरोसा रख सकें और भय तथा शोक न करते हुए, केवल उन्हींका मार्ग-दर्शन स्वीकार कर सकें, तो यह सत्यतम और महत्तम मुक्ति है और इससे हमें अपनी सत्ता एवं प्रकृति की चरम और अटल पूर्णता प्राप्त होती है । यह है वह मार्ग जो भगवान् के चुने पुत्रों के लिए प्रदर्शित किया गया है,--केवल उन लोगों के लिए जिनमें भगवान् अधिकतम आनंद लेते हैं, क्योंकि वे लोग उनके निकटतम हैं एवं उनके साथ एकत्व लाभ करने के लिए सर्वाधिक योग्य हैं और, प्रकृति की उच्चतम शक्ति एवं क्रिया के साथ स्वतंत्रतापूर्वक सहमत तथा सुसंगत होते हुए, उन्हींकी भाँति आत्म-चैतन्य के अंदर विश्वमय और अध्यात्मसत्ता के अंदर विश्वातीत बनने में सर्वाधिक समर्थ हैं ।
कारण, आध्यात्मिक विकास में एक ऐसा समय आता है जब हमें यह पता चल जाता है कि हमारा समस्त पुरुषार्थ और कर्म हमारे अंदर और हमारे चारों ओर विद्यमान एक महत्तर उपस्थिति के शांत और गुप्त आग्रह के प्रति हमारी मानसिक और प्राणिक प्रतिक्रियाएँ मात्र हैं । हमें दृढ़ विश्वास हो जाता है कि हमारा समस्त योग, अभीप्सा और प्रयास असली वस्तु के अपूर्ण या संकीर्ण रूप हैं, क्योंकि ये मन के संस्कारों, दावों, पूर्वनिर्णयों, पक्षपातों, विशालतर सत्य के मिथ्या या अपूर्ण रूपांतरों के द्वारा विकृत या कम-से-कम सीमाबद्ध हैं । हमारे विचार, अनुभव और प्रयास महत्तम चीजों के मानसिक प्रतिरूप मात्र हैं । यदि हम केवल अपने-आपको एक चरम-परम शक्ति एवं प्रज्ञा के हाथों में यंत्न के रूप में निष्क्रय रूप से समर्पित कर सकें, तो ये विचार, अनुभव और प्रयास हमारे अंदर अवस्थित उस शक्ति के ही द्वारा अधिक पूर्ण, प्रत्यक्ष, स्वतंत्र और विशाल रूप से, विश्वगत और सनातन संकल्प के साथ अधिक सुसंगत रूप में संपादित हो सकते हैं । वह शक्ति हमसे पृथक् नहीं है; वह हमारी अपनी ही आत्मा है जो अन्य सबकी आत्मा के साथ एकीभूत है और साथ ही विश्वातीत सत्ता और अंतर्यामी पुरुष भी है । हमारा जीवन, हमारा कर्म इस महत्तम सत्ता में ऊपर उठकर मानसिक पार्थक्य में व्यक्तिगत रूप से हमारा अपना नही रहेगा, जैसा कि अब हमें यह प्रतीत होता है । तब वह एक अनंतता एवं अंतरंग अनिर्वचनीय उपस्थिति का एक विशाल व्यापार होगा; तब वह हमारे अंदर इस गभीर विश्वगत आत्मा एवं इस विश्वातीत पुरुष का एक सतत स्वयं-स्फूर्त रूपायण एवं प्राकटय होगा । गीता कहती है कि इस प्राकटय को पूर्ण रूप से साधित करने के लिए हमें निःशेष भाव से समर्पण करना होगा; हमारे योग, हमारे जीवन, हमारी अंतःसत्ता की अवस्था को पहले से ही इस या उस
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धर्म या किसी भी धर्म पर मन के आग्रह के द्वारा निर्धारित नहीं होना होगा, बल्कि इस जीवंत 'अनंत' के द्वारा स्वच्छंद रूप से निर्धारित होना .होगा । तब योग के दिव्य ईश्वर, 'योगेश्वर: कृष्ण:,' हमारे योग को स्वयं अपने हाथों में लेंगे और हमें हमारी उच्चतम संभव पूर्णता तक ऊपर उठा ले जायेंगे, और वह पूर्णता किसी बाह्य या मानसिक आदर्श या अवरोधक नियम की पूर्णता नहीं होगी, बल्कि वह होगी विशाल और व्यापक तथा मन के लिए अपरिमेय । वह एक ऐसी पूर्णता होगी जो सर्वदर्शी प्रज्ञा के द्वारा पहले तो निःसंदेह हमारे मानव-स्वभाव के समग्र सत्य के अनुसार विकसित होगी, किंतु बाद में उस महत्तर वस्तु के समग्र सत्य के अनुसार विकसित होगी जिसकी ओर हमारा स्वभाव उन्मुक्त हो जायगा; वह महत्तर वस्तु है--असीम, अविनाशी, मुक्त और सर्वरूपांतर-कारी आत्मा एवं शक्ति, दिव्य और अनंत प्रकृति की ज्योति और दीप्ति ।
सब कुछ उस रूपांतर के उपादान के रूप में समर्पित कर देना होगा । एक सर्वज्ञ चेतना हमारे ज्ञान और अज्ञान, हमारे सत्य और भ्रांति को अपने हाथ में लेकर उनके न्यूनतापूर्ण रूपों का परित्याग कर देगी, 'सर्वधर्मान् परित्यज्य,' और उन सबको अपनी अनंत ज्योति में रूपांतरित कर देगी । एक सर्वसमर्थ शक्ति हमारे पुण्य और पाप, न्याय और अन्याय, शक्ति और दुर्बलता को अपने हाथ में लेकर उनके उलझे हुए रूपों का परित्याग कर देगी, 'सर्वधर्मान् परित्यज्य,' और उन सबको अपनी विश्वातीत पवित्रता, विश्वजनीन शुभ और अमोघ शक्ति में रूपांतरित कर देगी । एक अनिर्वचनीय आनंद हमारे क्षुद्र हर्ष और शोक, हमारे संघर्षशील सुख और दु:ख को अपने हाथ में लेकर उनके विरोध-वैषम्य एवं अपूर्ण गतिच्छंद का परित्याग कर देगा, 'सर्वधर्मान् परित्यज्य,' और उन सब-को अपने विश्वातीत एवं विश्वगत अकल्पनीय आनंद में रूपांतरित कर देगा । समस्त योग जो कुछ कर सकते हैं वह सब और उससे भी अधिक किया जायगा; परंतु कोई मानव गुरु, संत या ज्ञानी हमें जो दृष्टि-संपन्न पद्धति, जो ज्ञान एवं सत्य प्रदान कर सकता है उसकी अपेक्षा एक महत्तर दृष्टिसंपन्न पद्धति, महत्तर ज्ञान एवं सत्य के अनुसार वह सब संपन्न किया जायगा । जिस आभ्यंतरिक अध्यात्म-स्थिति की ओर यह परम योग हमें ले जायेगा वह इस संसार की सभी चीजों से ऊपर होगी और फिर भी इस और अन्य लोकों की सभी वस्तुओं को अपने अंदर समाविष्ट करेगी पर उन सबका आध्यात्मिक रूपान्तर कर देगी, उनसे सीमित एवं बद्ध न रहकर, 'सर्वधर्मान् परित्यज्य ।' भगवान् की अनंत सत्ता, चैतन्य एवं आनंद अपनी शांत निश्चल-नीरवता तथा उज्जवल, नि:सीम क्रिया के साथ वहाँ उपस्थित होगा, वह उस स्थिति का तात्त्विक, आधारभूत और विश्वगत
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उपादान, साँचा एवं स्वरूप होगा । तब, अनंतता के उस साँचे में इस प्रकार प्रकट हुए भगवान् पहले की तरह अपनी योगमाया के द्वारा आवृत होकर नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष रूप से निवास करेंगे और जब-जब तथा जिस प्रकार वे चाहेंगे तब-तब तथा उस प्रकार वे हमारे अंदर अनंत के चाहे कोई भी आकार गठित कर लेंगे और अपने आत्म-परिपूर्त्तिकारी संकल्प एवं अमर आनंद के अनुसार ज्ञान, विचार, प्रेम, आध्यात्मिक आनंद, शक्ति और कर्म के ज्योतिर्मय रूपों का निर्माण कर लेंगे । वहाँ मुक्त जीव तथा अविकृत प्रकृति पर कोई भी बंधनकारी प्रभाव नहीं पड़ेगा, वे इस या उस निम्नतर धर्म के अंदर सदा के लिए बंधनग्रस्त नहीं हो जायँगे । क्योंकि, परमात्मा की शक्ति ही दिव्य स्वातंत्र्य के साथ, 'सर्वधर्मान् परित्यज्य', समस्त कर्म संपन्न करेगी । विश्वातीत आत्मा में, 'परम धाम' में अविचल निवास ही इस आध्यात्मिक स्थिति का आधार एवं आश्वासन होगा । विश्वसत्ता और सर्वभूतों के साथ एक घनिष्ठ बोधपूर्ण एकता ही, जो भेदमूलक मन के दोष और दु:ख-ताप से मुक्त पर सच्चे भेदों की ओर ज्ञानपूर्वक ध्यान देने-वाली होगी, इस स्थिति की नियामक शक्ति होगी । अखंड आनंद, भगवान् के साथ तथा वे जो कुछ भी हैं उस सबके साथ यहाँ सनातन जीव का एकत्व एवं सामंजस्य ही इस सर्वांगीण मुक्ति का फल होगा । हमारे मानवजीवन की चकरानेवाली समस्याएँ, अर्जुन की समस्या जिनका एक उत्कट दृष्टांत है, अज्ञान के अंदर हमारे भेद-जनक व्यक्तित्व के द्वारा उत्पन्न होती हैं । यह योग परमेश्वर तथा जगत्-जीवन के साथ मानवात्मा का यथार्थ संबंध स्थापित करता है, हमारे कर्म को भगवान् का कर्म, उसे गठित एवं परिचालित करनेवाले ज्ञान एवं संकल्प को भगवान् का ज्ञान एवं संकल्प तथा हमारे जीवन को दिव्य आत्म-अभिव्यक्ति का एक गतिच्छंद बना देता है, अतएव, यह उन समस्याओं का पूर्ण रूप से निरा-करण करने का वास्तविक मार्ग है |
संपूर्ण योग का विशद प्रतिपादन कर दिया गया है, शिक्षा का परम वचन सुना दिया गया है और चुनी हुई मानवात्मा अर्जुन एक बार पुन:, अपने अहंमय मन के साथ नहीं, वरन् इस महत्तम आत्म-ज्ञान के साथ, दिव्य कर्म में प्रवृत्त हो गया है । भगवान् की विभूति अर्जुन मानवजीवन के बीच दिव्य जीवन के लिए तैयार हो गया है, उसकी चेतन आत्मा मुक्त जीव के कर्मों, 'मुक्तस्य कर्म' के लिए प्रस्तुत हो गयी है । मन का मोह नष्ट हो चुका है; हमारे जीवन के भ्रांतिजनक दृश्यों एवं रूपों के कारण इतने काल तक जीव से उसका अपना जो स्वरूप एवं सत्य छुपा हुआ था उसकी स्मृति उसे पुन: प्राप्त हो गयी है तथा उसकी सामान्य चेतना का अंग बन गयी है; समस्त भ्रम-संशय दूर हो गया है, वह
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आदेश के पालन में प्रवृत्त हो सकता है और हमारी सत्ता के स्वामी, काल और विश्व में अभिव्यक्त विश्व-पुरुष एवं परमेश्वर उसे अपने लिए तथा जगत् के लिए जिस भी कर्म में नियुक्त करें, जो भी काम सौंपे उसे निष्ठापूर्वक संपन्न कर सकता है ।
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