Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
परम रहस्य की ओर१
भगवान् गुरु और जो कुछ कहना चाहते थे वह सब वे कह चुके हैं, वे अपने संदेश के सभी प्रधान तत्त्वों, सहायक निर्देशों और फलितार्थों का निरूपण कर चुके हैं, उसपर जो मुख्य-मुख्य संशय और प्रश्न उठ सकते हैं उनपर प्रकाश डाल चुके हैं, और अब अपनी एकमात्र अंतिम वाणी, अपने संदेश के हार्द, अपनी शिक्षा के असली सारतत्त्व को निर्णायक शब्दों और हृदयस्पर्शी सूत्र में प्रकट करने का काम ही उनके लिए शेष रह गया है । और हम देखते हैं कि वह निर्णायक चरम और सर्वोच्च वचन, इस विषय पर पहले जो कुछ कहा जा चुका है उसका सार मात्र नहीं है, प्रयोजनीय साधना का और इसके समस्त तप और पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप प्राप्त होनेवाली महत्तर अध्यात्म-चेतना का संक्षिप्त वर्णन मात्र नहीं है; वह तो मानों बड़े वेग के साथ और भी आगे बढ़ती है, प्रत्येक नियम-मर्यादा और विधि-विधान को तोड़ डालती है और अनंत अर्थ से गर्भित एक विशाल एवं असीम आध्यात्मिक सत्य का द्वार खोल देती है । और यह गीता की शिक्षा की गभीरता एवं व्यापकता का तथा उसकी भावना की महत्ता का चिह्न है | एक साधारण धार्मिक शिक्षा या दार्शनिक सिद्धान्त सत्य के कुछ एक महत् और प्राणवंत पहलुओं को अधिकृत करके तथा उन्हें मनुष्य के अंतर्जीवन का और उसके कर्म के विधान और स्वरूप का मार्गदर्शन करने के लिए एक उपयोगी मतवाद, उपदेश, पद्धति एवं साधना का रूप देकर ही भलीभांति संतुष्ट हो जाता है; वह इससे आगे नहीं जाता, वह अपनी पद्धति के घेरे के बाहर निकलने के लिए द्वार नहीं खोलता, किसी विस्तीर्णतम स्वतंत्रता और निर्बंध विशालता में हमें नहीं ले जाता । इस सीमाबंधन का भी कुछ उपयोग है और निश्चय ही कुछ समय के लिए यह अनिवार्य भी है । मनुष्य अपने मन और संकल्प के द्वारा परि-सीमित है, इसलिए उसे अपने विचार और कर्म का निर्वाचन करने के लिए एक नियम और विधान की, एक बंधी-बंधाई पद्धति और सुनिश्चित अभ्यासक्रम की आवश्यकता होती है; वह चाहता है एक ही अचूक और कटा-छंटा
_____________
मार्ग, १. गीता १८, ४६-५६
५५२
जो दोनों ओर से बाड़ से घिरा हुआ एवं सुनिर्दिष्ट हो और जिसपर पैर रखना सुरक्षित हो, वह चाहता है सीमित व्योम, परिरक्षित पड़ाव । केवल शक्ति-शाली और विरले व्यक्ति ही स्वतंत्रता के एक स्तर के द्वारा उसके दूसरे स्तर की ओर बढ़ सकते हैं । और फिर भी जिन रूपों और प्रणालियों में मन संतुष्ट रहता है और अपना सीमित सुख लाभ करता है उनसे अंतत: बाहर निकलने का कोई मार्ग मुक्त जीव के लिए होना ही चाहिए । अपने आरोहण की सीढ़ी को पार कर जाना, उसके ऊँचे-से-ऊँचे डण्डे पर भी रुक न जाना बल्कि मुक्त और व्यापक रूप से आत्मा की विशालता में विचरण करना ही वह मुक्ति है जो हमारी पूर्णता के लिए परमावश्यक है; आत्मा की परम स्वाधीनता ही हमारी सिद्ध अवस्था है जिसकी ओर गीता हमें इस प्रकार ले जाती है : वह आरोहण के एक स्थिर, निश्चित पर अत्यंत विस्तीर्ण मार्ग का, एक महान् धर्म का प्रतिपादन कर देती है, और फिर वह हमें जो कुछ प्रतिपादित कर चुकी है उस सबसे बाहर निकालकर, उसके परे, सब धर्मों के परे एक अनंतत: उन्मुक्त व्योम में ले जाती है और एक पूर्ण आध्यात्मिक स्वाधीनता पर प्रतिष्ठित परम सिद्धि की आशा हमारे सामने प्रकट कर देती है, उसके रहस्य में हमारा प्रवेश करा देती है, और वह रहस्य ही, 'गुह्यतमम्,' उसके परम वचन का सार है, वही गूढ़ तत्त्व और अंतरतम ज्ञान है ।
और सर्वप्रथम गीता अपने संदेश का स्वरूप पुन: प्रतिपादित करती है । पंद्रह श्लोकों की परिमित परिधि में वह संपूर्ण रूपरेखा और सारमर्म संक्षेप में वर्णित कर देती है, इन पंक्तियों की भावाभिव्यंजना और अर्थ संक्षिप्त एवं घनीभूत है, इनमें विषय का आभ्यंतरिक सार कुछ भी नहीं छूटा है और वह अत्यंत विशद यथार्थता तथा प्रांजलता से युक्त उक्तियों में व्यक्त किया गया है । और अतएव इनकी आलोचना बड़े ध्यान से करनी होगी, जो कुछ पहले कहा जा चुका है उस सबके प्रकाश में गहराई के साथ इनका अध्ययन करना होगा, क्योंकि यहाँ स्पष्ट उद्देश्य यह है कि जिसे स्वयं गीता अपनी शिक्षा का केंद्रीय भाव समझती है उसका निष्कर्ष दे दिया जाय । इस वर्णन का आरम्भ होता है ग्रंथ की विचार-धारा के मूल आरम्भ-बिन्दु से, मानव-कर्म की पहेली से, संसार के सारे कर्म करना जारी रखते हुए भी उच्चतम सत्ता और आत्मा में निवास करने की आपात-अलंव्य कठिनाई से । सबसे सुगम मार्ग यह है कि इस समस्या को असमाधेय कहकर तथा जीवन और कर्म को भ्रम मानकर या उन्हें सत्ता की एक निम्नतर गति कहकर छोड़ दिया जाय, ज्योंही हम इस जगज्जाल से निकलकर अध्यात्म-सत्ता के सत्य में उठ सकें त्योंही हमें इस भ्रम या निम्नगति का त्याग कर देना चाहिए । यह
५५३
संन्यासी का समाधान है, पर इसे समाधान कहा जा सकता है या नहीं यह संदेहास्पद है; कुछ भी हो यह उक्त समस्या से छुटकारा पाने. का एक निश्चित और प्रभावशाली मार्ग है, उच्चतम और निदिध्यासनपूर्ण कोटि की प्राचीन भारतीय विचारधारा ने ज्योंही अपने प्रथम विशाल और मुक्त समन्वय को छोड़कर तीव्र रूप से किसी अन्य दिशा में मुड़ना शुरू किया त्योंही वह इसी मार्ग की ओर नित अधिकाधिक प्रबलता के साथ बढ़ती चली गयी । तंन्त्र की भांति गीता भी--और कुछ पहलुओं में परवर्ती धर्म भी--प्राचीन संतुलन को सुरक्षित रखने का यत्न करती है: वह मूल समन्वय के सारतत्त्व और आधार की रक्षा करती है, परन्तु उसका रूप एक विकासशील आध्यात्मिक अनुभूति के प्रकाश में परिवर्तित और नवीकृत कर दिया गया है । मनुष्य के पूर्ण सक्रिय जीवन को उच्चतम सत्ता और आत्मा में होनेवाले अंतर्जीवन के साथ समन्वित करने की कठिन समस्या को यह शिक्षा यों ही नहीं टाल देती; यह इसका जो वास्तविक समाधान मानती है उसे प्रस्तुत करती है । यह इस बात से बिलकुल इन्कार नहीं करती कि जीवन का संन्यास अपने निज उद्देश्य के लिए एक अमोघ साधन है, पर यह देखती है कि संन्यास समस्या की ग्रंथि को खोलने के बजाय उसे काट डालता है और अतएव यह उसे एक हीन विधि समझती है और अपने पथ को उत्कृष्टतर मानती है । ये दोनों ही मार्ग हमें मनुष्य की निम्न अज्ञानमय सामान्य प्रकृति से उबारकर शुद्ध अध्यात्म-चेतना की ओर ले जाते हैं और इतने अंश में इन दोनों को युक्तिसंगत और यहाँतक कि सारत: एक ही मानना होगा : परन्तु जहाँ एक रुक जाता है और पीछे हट आता है, वहाँ दूसरा एक स्थिर-सूक्ष्म दृष्टि तथा उच्च साहस के साथ आगे बढ़ता है, अविज्ञात प्रदेशों का द्वार खोल देता है, मनुष्य को परमेश्वर के अन्दर पूर्ण बनाता है और आत्मा के अन्दर जीव तथा प्रकृति का ऐक्य एवं साम- जस्य साधित करता है ।
और इसलिए इनमें से पहले पाँच श्लोकों में गीता अपना कथन ऐसी भाषा में प्रस्तुत करती है कि वह आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार के संन्यास के मार्गों पर घट सकता है और फिर भी वह उसे ऐसी शैली में उपस्थित करती है कि उसमें से गीता के द्वारा समर्थित पद्धति का अर्थ और भाव निकालने के लिए हमें केवल उन दोनों मार्गों के कुछ सामान्य शब्दों को एक गभीरतर तथा अधिक अंतरीय अर्थ देना पड़ता है । मानव-कर्म की कठिनाई यह है कि मनुष्य की अंतरात्मा और प्रकृति, सांघातिक रूप से, अनेक प्रकार के बंधनों के अधीन प्रतीत होती है । वे बंधन हैं-अज्ञान की कारा, अहंकार का पाश, वासनाओं की शृंखला, तत्तत् क्षण के जीवन का आघातकारी आग्रह और अंधकारावृत एवं परिसीमित
५५४
चक्र जिससे बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं । कर्म के इस चक्र में बंधे हुए जीव को कोई स्वाधीनता नहीं है, अपनी आत्मा को, जीवन के सच्चे मूल्य-महत्त्व और जगत् के अर्थ को खोजने के लिए उसके पास न अवकाश है न आत्म-ज्ञान का प्रकाश । अपने सक्रिय व्यक्तित्व और गतिशक्तिमय प्रकृति से उसे अपनी सत्ता के सम्बन्ध में जो संकेत प्राप्त हो सकते हैं वे उसे नि:संदेह उपलब्ध हैं, परन्तु वहाँ वह पूर्णता के जो आदर्श मान स्थापित कर सकता है वे इतने अधिक कालावच्छिन्न, सीमाबद्ध और सापेक्ष हैं कि वे उसकी अपनी पहेली का संतोष-जनक समाधान नहीं हो सकते । अपनी क्रियाशील प्रकृति की सर्वग्रासी पुकार में तल्लीन रहता हुआ और उसके द्वारा निरंतर बलपूर्वक बहिर्मुख किया जाता हुआ वह अपनी वास्तविक आत्मा तथा आध्यात्मिक जीवन को फिर से कैसे प्राप्त करे ? संन्यासी का त्याग-मार्ग और गीता का मार्ग दोनों इस बात में एकमत हैं कि उसे सबसे पहले इस तल्लीनता का परित्याग करना होगा, बाह्य वस्तुओं के बहिर्मुख आमंत्रण को अपनेसे दूर हटाना होगा और शान्त आत्मा को चिर-चंचल प्रकृति से पृथक् कर लेना होगा; उसे निश्चल आत्मा और नीरवता-गत जीवन के साथ अपने-आपको एकाकार करना होगा । उसे आंतरिक 'नैष्कर्म्य' प्राप्त करना होगा । अतएव इस उद्धारक, आभ्यंतरिक निष्क्रियता को ही यहाँ गीता अपने योग का प्रथम उद्देश्य, उसकी पहली आवश्यक सिद्धि बताती है । ''सभी वस्तुओं में आसक्तिरहित बुद्धि रखते हुए, आत्मा को जीतकर और कामनाशून्य होकर मनुष्य संन्यास के द्वारा नैष्कर्म्य की परम सिद्धि प्राप्त करता है ।''
संन्यास, आत्मजय से लब्ध शान्ति, आध्यात्मिक निष्कर्मता और कामना से मुक्ति का यह आदर्श समस्त प्राचीन ज्ञान में सामान्य रूप से पाया जाता है । गीता हमें अतुलनीय पूर्णता और स्पष्टता के साथ इसका मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान करती है । वह आत्मज्ञान के अन्वेषक सभी साधकों के इस सर्वसामान्य अनुभव को अपना आधार बनाती है कि हमारे अन्दर दो विभिन्न प्रकृतियाँ और मानों दो विभिन्न आत्माएँ हैं । एक तो तमसाच्छन्न मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृति की निम्नतर सत्ता है जो अपनी चेतना के मूल उपादान तक में और विशेषकर अपने जड़-तत्त्व-रूपी आधार में अज्ञान और जड़ता के अधीन है, प्राण-शक्ति के कारण क्रियाशील और प्राणवंत अवश्य है पर अपने कार्य में स्वाभाविक आत्म-स्वामित्व और आत्म-ज्ञान से रहित है, मन में कुछ ज्ञान और सामंजस्य प्राप्त तो करती है पर करती है केवल कठिन प्रयास और अपनी अक्षमताओं के साथ निरन्तर संघर्ष के द्वारा । और, दूसरे हमारी अध्यात्म-सत्ता की एक
५५५
उच्चतर प्रकृति और आत्मा भी है जो आत्मवशी और स्वयं-प्रकाश है, पर हमारे साधारण मन में हमारे लिए अनुभवगम्य नहीं है । समय-समय पर हमें अपने अन्दर विद्यमान इस महत्तर वस्तु की झांकियाँ तो मिलती हैं, पर हम सचेतन रूप से उसके अन्दर अवस्थित नहीं हैं; हम उसकी ज्योति, शान्ति और असीम गरिमा में निवास नहीं करते । इन दो अत्यंत भिन्न वस्तुओं में से पहली गीता की त्निगुणात्मिका प्रकृति है । वह अपने-आपको अहंभाव के केंद्र से ही देखती है, उसका कर्म-सुत्र है अहं से उत्पन्न कामना और अहं की ग्रंथि है मन, इंद्रिय और प्राणिक कामना के विषयों के प्रति आसक्ति । इन सब चीजों का अवश्यं- भावी और सतत परिणाम होता है बंधन, निम्नतर नियंत्रण के प्रति स्थायी अधीनता, आत्म-प्रभुत्व और आत्म-ज्ञान का अभाव । दूसरी महत्तर शक्ति और उपस्थिति के बारे में हमें यह ज्ञान प्राप्त होता है कि वह अहं से अपरिच्छिन्न शुद्ध आत्मा की प्रकृति और सत्ता है, उस आत्मा को भारतीय दर्शन में निर्गुण सत्ता एवं निर्व्यक्तिक ब्रह्म कहा गया है । उसका मूलतत्व है अनंत एवं निर्व्यक्तिक सत्ता जो सबमें एक और अभिन्न है: और क्योंकि यह निर्व्यक्तिक सत्ता अहंभाव, परिच्छेदक गुण, कामना, आवश्यकता या प्रेरणा से रहित है, यह अचल और अक्षर है; नित्य निर्विकार रहती हुई यह विश्व के कर्म को देखती तथा उसे आश्रय एवं अनुमति मात्र देती है पर उसमें न तो भाग लेती है न उसका आरम्भ ही करती है । जीव जब अपनेको सक्रिय प्रकृति में बाहर की ओर झोंकता है तो वह गीता का क्षर, सचल या परिवर्तनशील पुरुष होता है; वही जीव जब पुन: शुद्ध, नीरव आत्मा और मूल अध्यात्मसत्ता में समाह्रत हो जाता है तो वह गीता का अक्षर, अचल या अपरिवर्तनशील पुरुष होता है ।
अतएव, स्पष्ट ही, सक्रिय प्रकृति के निबिड़ बंधन से बाहर निकलने तथा फिर से आध्यात्मिक स्वातंत्र्य लाभ करने का सीधा और सरलतम मार्ग यह है कि जो कुछ भी अज्ञान की क्रियाशक्ति से सम्बन्ध रखता है उस सबको पूर्ण रूप से निकाल फेंका जाय और अंतरात्मा को शुद्ध अध्यात्मसत्ता में रूपांतरित किया जाय । इसी को ब्रह्म बनना, 'ब्रह्मभूय' कहा जाता है । इसका अर्थ है निम्न-तर मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ता का परित्याग करना और शुद्ध अध्यात्म-सत्ता को ग्रहण करना । यह कार्य बुद्धि एवं संकल्प शक्ति के द्वारा सर्वोत्तम रीति से संपन्न किया जा सकता है; यह बुद्धि ही हमारा वर्तमान उच्चतम तत्त्व है । इसे निम्न सत्ता की चीजों से और प्रथमत: तथा प्रधानत: अपनी कामना-रूपी शक्तिशाली ग्रंथि से, मन और इन्द्रियाँ जिन विषयों के पीछे दौड़ती हैं उनके प्रति हमारी आसक्ति से दूर हटना होगा । मनुष्य को सभी वस्तुओं में अनासक्त
५५६
बुद्धिवाला बनना होगा, 'असक्तबुद्धि: सर्वत्र' । तब अपनी नीरवता में प्रतिष्ठित जीव से समस्त कामना दूर हो जायगी; वह सब लालसाओं से मुक्त, 'विगत-स्पृह' हो जायगा । यह अवस्था अपने संग निम्नतर स्व की अधीनता और उच्चतर स्व की उपलब्धि को ले आती है अथवा उन्हें संभव बना देती है, वह उपलब्धि पूर्ण आत्म-प्रभुत्व पर निर्भर करती है, अपनी परिवर्तनशील प्रकृति पर आमूल विजय और आधिपत्य के द्वारा, 'जितात्मा' बनने के द्वारा, उपलब्ध होती है । और इस सबका अर्थ है वस्तुओं की कामना का पूर्ण, आंतरिक त्याग, 'संन्यास' । संन्यास इस पूर्णता का पथ है और जो आदमी इस प्रकार भीतर से सब कुछ त्याग चुका है उसे गीता ने सच्चा संन्यासी कहा है । परन्तु क्योंकि यह शब्द प्रायः बाह्य त्याग को भी द्योतित करता है अथवा यहाँतक कि कभी-कभी केवल उसी को सूचित करता है, अतएव भगवान् गुरु आंतरिक विरति से बाह्य विरति का भेद करने के लिए एक अन्य शब्द, 'त्याग' का प्रयोग करते हैं और कहते हैं कि त्याग संन्यास से श्रेष्ठ है । संन्यास-मार्ग क्रियाशील प्रकृति से अपनी निवृत्ति में बहुत ही आगे बढ़ जाता है । वह संन्यास से संन्यास की खातिर प्रेम करता है और जीवन तथा कर्म के बाह्य त्याग और आत्मा तथा प्रकृति की पूर्ण निस्तब्धता पर आग्रह करता है । इसपर गीता कहती है कि जबतक हम शरीर में बास करते हैं तबतक पूर्ण रूप से ऐसा करना संभव नहीं । जहाँतक ऐसा करना संभव हो वहाँतक ऐसा किया जा सकता है, परन्तु कर्मों को इस प्रकार कठोरतापूर्वक कम कर देना अनिवार्य नहीं : यहाँतक कि वास्तव में या कम-से-कम सामान्यत: यह उचित नहीं । एकमात्न आवश्यक वस्तु है पूर्ण आंतरिक निष्क्रियता और यही है गीता के नैष्कर्म्य का संपूर्ण आशय ।
यदि हम यह पूछें कि जब हमारा लक्ष्य शुद्ध आत्मा बनना है और शुद्ध आत्मा को निष्क्रय, 'अकर्ता' कहा गया है तब-भला इस प्रकार कुछ कर्मो को क्यों बचाये रखा जाय, क्रियाशील तत्त्व के प्रति यह आसक्ति क्यों रखी जाय, तो इसका उत्तर यह है कि ऐसी निष्क्रियता और आत्मा का प्रकृति से विच्छेद हमारी आध्यात्मिक मुक्ति का संपूर्ण सत्य नहीं हैं । आत्मा और प्रकृति अंततोगत्वा एक ही वस्तु हैं; समग्र और पूर्ण आध्यात्मिकता हमें आत्मा और प्रकृति में विद्यमान समस्त भगवान् से एक कर देती है । वास्तव में यह ब्रह्म बनना, आत्मा के अन्दर शाश्वत शान्ति धारण करना, 'ब्रह्मभूय,' ही हमारा संपूर्ण लक्ष्य नहीं है, यह तो केवल एक और भी महत्तर तथा अधिक अद्भुत भगवद्भाव, 'मद्भाव' के लिए एक आवश्यक, विशाल आधार है । और वह महत्तम अध्यात्म-सिद्धि लाभ करने के लिए हमें नि:संदेह आत्मा में अचल और अपने आधार के सभी अंगों
५५७
में नीरव होना होगा, पर साथ ही शक्ति एवं प्रकृति में, आत्मा की सच्ची और उच्च शक्ति में स्थित होकर कर्म भी करना होगा । और यदि हम यह प्रश्न करें कि जो दो चीजें विरोधी प्रतीत होती हैं उनका एक साथ रहना कैसे संभव हो सकता है तो इसका उत्तर यह है कि पूर्ण अध्यात्म-सत्ता का वास्तविक स्वभाव ही यही है; उसमें सदा ही अनंत की यह उभयविध स्थिति बनी रहती है । निर्व्यक्ति आत्मा शान्त है; हमें भी अन्दर से शान्त, निर्व्यक्तिक, आत्मसमाहित होना होगा । निर्व्यक्तिक आत्मा समस्त कर्मों को इस रूप में देखती है कि वे उसके द्वारा नहीं बल्कि प्रकृति के द्वारा किये जाते हैं; वह उसके गुणों और शक्तियों की समस्त क्रिया को शुद्ध समता के साथ देखती है : उसी प्रकार, आत्मा में निर्व्यक्तिक बने हुए जीव को हमारे सब कर्मों को इस रूप में देखना होगा कि वे स्वयं उसके द्वारा नही बल्कि प्रकृति के गुणों के द्वारा किये जाते हैं; उसे सभी वस्तुओं में, 'सर्वत्र,' समचित्त होना होगा । और साथ ही, इसलिए कि हम यहाँ रुक न जायँ और अंतत: हम आगे बढ़े तथा केवल आभ्यंतरिक निश्चल-नीरवता का नियम ही नहीं बल्कि अपने कर्मों का आध्यात्मिक विधान और निर्देशन भी प्राप्त करें, हमसे यह कहा गया है कि हम अपनी बुद्धि और संकल्पशक्ति पर यज्ञ का भाव आरोपित करें जिससे हमारा समस्त कर्म अन्दर से बदलकर प्रकृति के प्रभु के प्रति, जिस पुरुष की वह एक आत्म-शक्ति, 'स्वा प्रकृति:' है उसके प्रति, परम आत्मा के प्रति एक भेंट का रूप धारण कर ले । यहाँतक कि अन्त में हमें सब कुछ उनके हाथों में सौंप देना होगा, कर्म के समस्त व्यक्तिगत आरंभों, 'सर्वा-रम्भा,' को त्याग देना होगा, अपनी प्राकृत सत्ता को उनके कर्मों और उनके उद्देश्य के एक यंत्न के रूप में ही धारण करना होगा । इन चीजों की व्याख्या पहले पूरे विस्तार से की जा चुकी है और गीता यहाँ इनपर बल नहीं देती, बल्कि संन्यास और नैष्कर्म्य इन सामान्य शब्दों को बिना और किन्हीं अधिक विशेषणों के साधारण रूप में ही प्रयुक्त करती है ।
जब एक बार हमने यह मान लिया कि शुद्ध, निर्व्यक्तिक आत्मा में निवास करने के लिए पूर्णतम आभ्यंतरिक निस्तब्धता एक आवश्यक साधन है तो इसके बाद यह प्रश्न उठता है कि क्रियात्मक रूप में निस्तब्धता से यह परिणाम कैसे उत्पन्न होता है । ''किस प्रकार यह सिद्धि लाभ करके मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त करता है, यह बात, हे कौन्तेय, तू मुझसे सुन,--यह ज्ञान की परा निष्ठा है ।'' यहाँ जिस ज्ञान से अभिप्राय है वह है सांख्यों का योग--गीता के द्वारा स्वीकृत शुद्ध ज्ञान-योग, 'ज्ञानयोगेन साङविचानाम्', जहाँतक कि यह योग उसके अपने योग के साथ एकीभूत है जिसमें योगियों का कर्ममार्ग भी सम्मिलित है, 'कर्मयोगेन
५५८
योगिनाम् । परन्तु यहाँ कर्मों की समस्त चर्चा अभी स्थगित रखी हुई है, क्योंकि यहां ब्रह्म का सर्वप्रथम अभिप्राय है नीरव, निर्व्यक्तिक एवं अक्षर सत्ता । नि:-संदेह, उपनिषदों और गीता दोनों के मत से ब्रह्म वह सभी कुछ है जो कुछ कि यहाँ है, जो कुछ कि यहाँ जीवंत और गतिशील है; वह केवल निर्गुण, अनंत या अचिंत्य और अव्यवहार्य परतत्त्व, 'अचिन्त्यमव्यवहार्यम्,' ही नहीं है । उपनिषद् कहती है कि यह सब ब्रह्म है, गीता कहती है कि यह सब वासुदेव है,-- यहाँ चर या अचर जो कुछ भी है वह सब ही परम ब्रह्म है और उनके हाथ, पैर, आँखें, सिर और मुख हमारे चारों ओर विद्यमान हैं । परन्तु फिर भी इन 'सर्व' के दो रूप हैं--इनकी एक अक्षर, नित्य सत्ता है जो जगत् को धारण करती है और, साथ ही, इनकी एक सक्रिय-शक्तिमय सत्ता भी है जो विश्व-गति में सर्वत्र विचरण करती है । जब हम आत्मा की निर्व्यक्तिकता में अपने सीमित अहं--व्यक्तित्व को खो देते हैं केवल तभी हम वह शान्त और मुक्त एकत्व प्राप्त करते हैं जिसके द्वारा हम भगवान् के विश्व-व्यापार में उनकी विश्वशक्ति के साथ सच्चा ऐक्य लाभ कर सकते हैं । निर्व्यक्तिकता सीमा और विभाजन का निषेध है, और निर्व्यक्तिकता की उपासना वास्तविक सत्ता की स्वाभाविक अवस्था है, शुद्ध ज्ञान का एक अपरिहार्य आरम्भिक सोपान है और अतएव सच्चे कर्म का पहला आवश्यक साधन है । यह अत्यंत स्पष्ट है कि अपने अहं के संकीर्ण व्यक्तित्व पर आग्रह करके हम सबके साथ एकात्मा नहीं हो सकते और न हम विश्वपुरुष और उसके विशाल आत्म-ज्ञान, नानामुखी संकल्प और व्यापक जगदुद्देश्य के साथ ही एकमय हो सकते हैं; क्योंकि अहंमय व्यक्तित्व हमें दूसरों से अलग कर देता है और हमारे दृष्टिकोण तथा कर्म-संकल्प में हमें बद्ध तथा स्वकेंद्रित बना देता है । व्यक्तित्व में कैद करते हुए हम दूसरों के दृष्टिबिन्दु, भाव और संकल्प के साथ अपनी सहानुभूति या किसी प्रकार के सापेक्ष सामंजस्य के द्वारा केवल एक सीमित एकत्व ही प्राप्त कर सकते हैं । सबके साथ और भगवान् तथा उनके विश्वगत संकल्प के साथ एक होने के लिए हमें पहले निर्व्यक्तिक बनना होगा और अपने अहं तथा उसके दावों से और अपने-आप, जगत् तथा दूसरों को देखने के अहमात्मक ढंग से मुक्त होना होगा । और यदि हमारी सत्ता में स्थूल व्यक्तित्व या अहं से भिन्न कोई और वस्तु न हो, सर्व भूतों के साथ एकीभूत कोई निर्व्यक्तिक आत्मा न हो, तो हम निर्व्यक्तिक और अहं-मुक्त नहीं हो सकते । अतएव अहं को खोकर यही निर्व्यक्तिक आत्मा बन जाना, अपनी चेतना में यही निर्गुण ब्रह्म बन जाना ही इस योग की पहली क्रिया है ।
तो भला यह कैसे किया जाय ? गीता कहती है कि सर्वप्रथम बुद्धियोग के
५५९
द्वारा अपनी विशुद्ध बुद्धि को अपने अन्दर के शुद्ध अध्यात्म-तत्त्व के साथ योग-युक्त करके, 'बुद्धया विशुद्धया युक्त:,' यह कार्य संपन्न करना होगा । बहिर्मुखी और अधोमुखी दृष्टि से विमुख होकर अंतर्मुखी और ऊर्ध्वमुखी दृष्टि की ओर बुद्धि का यह आध्यात्मिक झुकाव ज्ञानयोग का सार है । विशुद्ध बुद्धि को संपूर्ण सत्ता का नियमन करना होगा, 'आत्मानं नियम्य'; उसे हमें एक धीर-स्थिर संकल्प के द्वारा, 'धृत्या' जो अपनी एकाग्रता में, पूर्ण रूप से, शुद्ध आत्मा की निर्व्यक्तिकता की ओर मुड़ा रहता है, निम्न प्रकृति की बहिर्मुखी कामनाओं के प्रति आसक्ति से परे हटाना होगा । इंद्रियों को अपने विषयों का त्याग करना होगा, मन को इन विषयों के द्वारा जनित राग-द्वेष अपने अन्दर से निकाल फेंकना होगा,--क्योंकि निर्व्यक्तिक आत्मा के अन्दर कोई कामनाएँ और जुगुप्साएं नहीं हैं; ये तो वस्तुओं के स्पर्शों के प्रति हमारे व्यक्तित्व की प्राणिक प्रतिक्रियाएं हैं, और इन स्पर्शों के प्रति मन और इन्द्रियों का अनुरूप प्रत्युत्तर ही इनका आश्रय और आधार है । मन, वाणी और शरीर पर, यहाँतक कि प्राण और शरीर की प्रतिक्रियाओं पर, भूख, सर्दी-गर्मी और शारीरिक सुख-दु:ख पर पूर्ण नियंत्रण अधिगत करना होगा; हमारी संपूर्ण सत्ता को तटस्थ, इन द्वंद्वों से अप्रभावित, समस्त बाह्य स्पर्शों तथा उनकी आन्तरिक प्रतिक्रियाओं एवं प्रत्युत्तरों के प्रति सम बनना होगा । यह अत्यंत सीधी और शक्तिशाली पद्धति है, योग का सरल और तीव्र पथ है । कामना और आसक्ति से पूर्ण विरति, 'वैराग्य,' परमावश्यक है; साधक से यह मांग की जाती है कि वह निर्व्यक्तिक निर्जनता का दृढ़ रूप से अवलम्बन करे और ध्यान के द्वारा अंतरतम आत्मा के साथ शाश्वत मिलन लाभ करे । और फिर भी इस कठोर साधना का उद्देश्य विश्व-कर्म में भाग लेने के कष्ट से पराङ्मुख रहनेवाले मुनि और मनीषी के किसी परम अहमात्मक एकांतवास और शान्ति में आत्म-केंद्रित हो जाना नहीं है; इसका उद्देश्य है समस्त अहं से मुक्त होना । सबसे पहले मनुष्य को राजसिक प्रकार के अहंभाव, अहंकारमय बल और उग्रता, दम्भ, काम, क्रोध, स्वामित्व की भावना और प्रेरणा, षड्रिपुओं के आवेग और प्राण की उग्र विषय-लालसा का नितांत वर्जन करना होगा । परन्तु बाद में सब प्रकार के, यहाँतक कि अत्यंत सात्त्विक कोटि के अहंभाव का भी परित्याग करना होगा; क्योंकि हमारा उद्देश्य है अंत:पुरुष, मन और प्राण को अंत में समस्त बंधनकारक अहंता और ममता से मुक्त, 'निर्मम' कर देना । इसके लिए जो विधि हमारे सामने रखी गयी है वह है अहं और उसकी सब प्रकार की मांगों का उन्मूलन । क्योंकि शुद्ध निर्व्यक्तिक आत्मा, जो अविचल रहता हुआ इस विश्व को धारण करता है, अहंभाव से रहित है और वह
५६०
किसी वस्तु या व्यक्ति से कोई मांग नहीं करता; वह शान्त है, तेजोमय रूप में निर्विकार है और सभी वस्तुओं तथा व्यक्तियों को आत्म-ज्ञान एवं विश्व-ज्ञान की सम और निष्पक्ष दृष्टि से शांत भाव के साथ देखता है । अतएव स्पष्टत: ही आंतरिक तौर पर इसी प्रकार की या इससे अभिन्न निर्व्यक्तिकता में रहती हुई ही हमारी अंतःस्थ आत्मा वस्तुओं के घेरे से छूटकर इन अक्षर ब्रह्म के साथ, जौ विश्व के रूपों और परिवर्तनों को देखते और जानते तो हैं पर उनसे प्रभावित नहीं होते, उत्तम रूप से एकत्व लाभ करने के योग्य बन सकती है ।
निर्व्यक्तिकता की यह सर्वप्रथम साधना, जिसका गीता ने उपदेश दिया है, स्पष्टत: ही अपने साथ एक प्रकार की पूर्णतम आंतरिक निष्क्रियता लाती है और अपने अंतरतम अंश में तथा अपने साधनाभ्यास के सूत्रों में यह संन्यास की प्रणाली के ही समान है । फिर भी एक ऐसा स्थल आता है जहाँ क्रियाशील प्रकृति और बाह्य जगत् के दावों से पीछे हटने की इसकी प्रवृत्ति रुक जाती है और आंतरिक निष्क्रियता पर एक रोकथाम लगा दी जाती है जिससे यह गहरी होकर कर्म-निषेध और भौतिक निवृत्ति का रूप धारण न कर ले । इंद्रियों के द्वारा अपने विषयों का वर्जन, 'विषयांस्त्यक्त्वा', ' त्याग'-रूप ही होना चाहिए; वह इंद्रियों के विषयों के प्रति समस्त आसक्ति, 'रस', का परित्याग होना चाहिए, न कि इंद्रियों की स्वभावगत आवश्यक क्रिया का निराकरण । मनुष्य को अपने चारों ओर की वस्तुओं के बीच विचरना होगा और इंद्रिय-क्षेत्न के विषयों पर इंद्रियों के शुद्ध, यथार्थ और तीव्र, सहज और निरपेक्ष व्यापार के साथ क्रिया करनी होगी जिससे कि इद्रियाँ दिव्य कर्म में आत्मा के उपयोग में ही आवें, 'केवलैरि-न्द्रियैश्चरन्,' कामना की पूर्ति के काम में कदापि नहीं । वैराग्य अवश्य होना चाहिए, पर जीवन से विरक्ति या जगत्कर्म के प्रति अरुचि के सामान्य अर्थ में नहीं, वरन् राग और साथ ही तद्विपरीत द्वेष के त्याग के अर्थ में । मन और प्राण की समस्त रुचि का और साथ ही उनकी सब प्रकार की अरुचि का भी परित्याग करना होगा । किंतु गीता हमसे इस चीज की माँग निर्वाण के लिए नहीं, बल्कि इसलिए करती है कि एक पूर्ण सामर्थ्यप्रद समता प्रतिष्ठित हो जाय जिसमें आत्मा वस्तुओं के संबंध में सर्वांगीण और व्यापक दिव्य दृष्टि को तथा प्रकृति के बीच सर्वांगीण दिव्य कर्म को एक निर्बाध और अपरिमेय स्वीकृति दे सके । ध्यान का अविरत अवलंबन, 'ध्यानयोगपरो नित्यम्,' एक सुदृढ़ साधन है जिसके द्वारा मनुष्य की अंतरात्मा अपनी शक्तिमय और नीरवतामय सत्ता का साक्षात्कार कर सकती है । तथापि शुद्ध ध्यान के जीवन के लिए क्रियाशील जीवन का त्याग बिलकुल नहीं करना होगा; परमेश्वर के प्रति एक यज्ञ के
५६१
रूप में कर्म तो सदा ही करना होगा । संन्यास-मार्ग में निवृत्ति की यह साधना व्यक्ति को सनातन के अंदर मग्न होकर निज सत्ता का लय कर देने के लिए तैयार करती है, और जागतिक कर्म और जीवन का त्याग इस प्रक्रिया का एक अनिवार्य सोपान है । परंतु गीता के त्याग-मार्ग में यह वस्तुत: हमारे संपूर्ण जीवन और सत्ता को तथा समस्त कर्म को भगवान् की प्रशांत और अपरिमेय सत्ता, चेतना और संकल्प-शक्ति के साथ पूर्ण एकत्व में परिणत करने के लिए एक भूमिका है, और यह निम्नतर अहं से परमोच्च आध्यात्मिक प्रकृति, 'पराप्रकृति' की अकथ पूर्णता की ओर जीव की विशाल और समग्र ऊर्ध्वगति का मंगलाचरण करती है तथा उसे संभव बनाती है ।
गीता की विचारधारा के इस निर्णायक मोड़ की ओर अगले दो श्लोकों में संकेत किया गया है, उनमें से पहले का विचारक्रम विशेष रूप से अर्थगर्भित है, ''जब कोई व्यक्ति ब्रह्म बन जाता है, जब वह न शोक करता है और न कामना, जब वह सब भूतों के प्रति सम हो जाता है, तब वह मुझमें परा प्रीति और भक्ति प्राप्त करता है ।''१ परंतु ज्ञान के संकीर्ण मार्ग में भक्ति, सगुण ब्रह्म के प्रति भक्ति, केवल एक अवर एवं प्रारंभिक साधना ही हो सकती है; परिणति किंवा पराकाष्ठा तो है निर्गुण ब्रह्म के साथ होनेवाले निर्विशेष एकत्व में व्यक्तित्व का लय जिसमें भक्ति का कोई स्थान हो ही नहीं सकता; क्योंकि वहाँ न कोई उपास्य होता है न कोई उपासक; आत्मा के साथ जीव के निश्चल-नीरव तादात्म्य में और सभी कुछ विलीन हो जाता है । गीता में हमें एक ऐसा तत्त्व प्रदान किया गया है जो निर्व्यक्तिक ब्रह्म से भी ऊँचा है,--यहाँ है एक परम आत्मा जो परम ईश्वर है, यहाँ हैं परम पुरुष और उनकी परमा प्रकृति, यहाँ हैं पुरुषोत्तम जो सव्यक्तिक और निर्व्यक्तिक से परे हैं और अपने सनातन शिखरों पर इन दोनों में सामंजस्य साधित करते हैं । अहं-व्यक्तित्व यहाँ भी निर्व्यक्तिक की नीरवता में विलीन हो जाता हैं पर साथ ही पृष्ठभूमि में इस नीरवता के रहते हुए भी एक परम आत्मा का, निर्व्यक्तिक से भी महत्तर आत्मा का कर्म बना ही रहता है । अहं और त्निगुण की निम्नतर अंध और पंगु क्रिया अब और वहाँ नहीं रहती, बल्कि उसके स्थान पर प्रतिष्ठित होती है एक अनंत आध्यात्मिक शक्ति की, एक मुक्त अपरिमेय शक्ति की विशाल आत्म-निर्धारक गति । समस्त प्रकृति एकमेव भगवान् की शक्ति बन जाती है और समस्त कर्म एक माध्यम एवं यंत्र-स्वरूप व्यक्ति के द्वारा किया जानेवाला उन्हीं का कर्म बन जाता है । अहं के स्थान पर सच्चा आध्यात्मिक व्यष्टि सचेतन और व्यक्त रूप में
________
१. अ० १८, श्लोकं ५४
५६२
सामने आ जाता है, वह अपने वास्तविक स्वरूप की स्वतंत्रता में, अपनी दिव्य स्थिति की शक्ति में, भगवान् के साथ के अपने शाश्वत संबंध की गरिमा-महिमा और श्री-सुषमा में प्रकट हो जाता है, वह परमेश्वर का अविनाशी अंश है, परा-प्रकृति की अक्षय शक्ति है, 'ममैवांश: सनातन: पराप्रकृति र्जीवभूता ।' मनुष्य की अंतरात्मा तब एक परम आध्यात्मिक निर्व्यक्तिकता में अपनेको पुरुषोत्तम के साथ एक अनुभव करती है और अपने विश्वभावापन्न व्यक्तित्व में वह अपनेको परमात्मा की एक व्यक्त शक्ति अनुभव करती है । उसका ज्ञान उनके ज्ञान का ही एक आलोक होता है; उसका संकल्प उनके संकल्प की ही एक शक्ति होता है; विश्व की सभी सत्ताओं के साथ उसकी एकता उनके नित्य एकत्व की ही क्रीड़ा होती है । इस युगल अनुभूति में ही, सत्ता के अनिर्वचनीय सत्य के दो पक्षों के इस मिलन में ही जिनमें से किसी एक या दोनों के द्वारा मनुष्य अपनी सत्ता के पास पहुँच सकता तथा उसमें प्रवेश पा सकता है, मुक्त पुरुष को निवास करना तथा कर्म और अनुभव करना होगा और इसी में उसे सबके साथ तथा अपनी आत्मा के आंतर और बाह्य व्यापारों के साथ अपने संबंध निर्धारित करने होंगे, या यूं कहें कि अपनी परमोच्च सत्ता की महत्तम शक्ति के द्वारा उसे अपने लिए उन संबंधों का निर्धारण कराना होगा । और, उस एकीकारक अनुभूति में भी उपासना, प्रीति और भक्ति केवल संभव ही नहीं होतीं, अपितु वे उस उच्चतम अनुभव का एक विस्तृत, अपरिहार्य और सर्वोपरि अंश होती हैं । 'एक' नित्य ही 'बहु' बनता है, 'बहु' अपने प्रतीयमान भेद में भी नित्य 'एक' ही है, परम देव जगत् के इस गूढ़ तत्त्व और रहस्य को हमारे अंदर प्रकट करते हैं, न वे अपने बहुत्व से छिन्न-भिन्न होते हैं और न ही अपने एकत्व से सीमाबद्ध हैं,--यही है सर्वांगीण ज्ञान, यही है समन्वयसाधक अनुभव जो मनुष्य को मुक्त कर्म के, 'मुक्तश्य कर्म,' के योग्य बनाता है ।
गीता कहती है कि यह ज्ञान परा-भक्ति से प्राप्त होता है । जब मन वस्तुओं के संबंध में एक अतिमानसिक और उच्च आध्यात्मिक दृष्टि के द्वारा अपनेको अतिक्रम कर जाता है और साथ ही जब हृदय भी प्रेम और भक्ति के हमारे अज्ञतर मानसिक रूपों से परे विशालतम ज्ञान से प्रकाशमान, शांत और गंभीर प्रेम की ओर उठ जाता है, भगवान् में परम आनंद, अपार भक्ति, अविचल हर्षातिरेक एवं आध्यात्मिक आनंद में उन्नीत हो जाता है तभी उक्त ज्ञान की उपलब्धि होती है । जब जीव अपना भेदमूलक व्यक्तित्व खो चुकता है, जब वह ब्रह्म बन जाता है तभी वह सच्चे पुरुष में निवास कर सकता है, पुरुषोत्तम के प्रति परम शानोद्धासक भक्ति लाभ कर सकता है और अपनी गंभीर भक्ति
५६३
तथा अपने हृद्गत ज्ञान की शक्ति के द्वारा उसे पूर्ण रूप से जान सकता है, 'भक्त्या मामभिजानन्ति ।' यही समग्र ज्ञान है जिसमें हृदय की अगाध दृष्टि मन की चरम अनुभूति को पूर्ण बनाती है, 'समग्रं मां ज्ञात्वा ।' गीता कहती है, ''मैं जो कुछ और जितना कुछ भी हूँ उसे वह जान लेता है, मेरी सत्ता के संपूर्ण सत्य और तत्त्व में वह मुझे जान लेता है''१, 'यावान् यश्चास्मि तत्त्वतः ।' यह समय ज्ञान व्यक्ति में विद्यमान भगवान् का ज्ञान है; यह मनुष्य के हृदय में गुप्त रूप से विराजमान ईश्वर की पूर्ण अनुभूति है, वे ईश्वर अब उसकी सत्ता के परम आत्मा के रूप में प्रकाशित हुए हैं, उसकी समस्त प्रदीप्त चेतना के सूर्य, उसके संपूर्ण कर्मों के प्रभु और शक्तिप्रदाता, उसकी अंतरात्मा के समस्त प्रेम और आनंद के दिव्य स्रोत, उसकी पूजा और आराधना के पात्र एक दिव्य प्रेमी और प्रियतम के रूप में प्रकट हुए हैं । यह विश्व-व्याप्त भगवान् का भी ज्ञान है, उन सनातन का ज्ञान है जिनसे सब कुछ उत्पन्न होता है, जिनमें सब कुछ निवास करता और अपना अस्तित्व धारण करता है, जगत् के आत्मा और परम सत्ता का ज्ञान है, उन वासुदेव का ज्ञान है जो, यहाँ जो कुछ भी है वह सब बने हुए हैं, उन जगदीश्वर का ज्ञान है जो प्रकृति के कर्मों की अध्यक्षता करते हैं । यह उन भागवत पुरुष का ज्ञान है जो अपनी विश्वातीत नित्य-सत्ता में ज्योतिर्मय हैं, जिनकी सत्ता का रूप मन के विचार की पकड़ से तो छूट जाता है, पर उसकी नीरवता के लिए अगोचर नहीं है, यह निरपेक्ष आत्मा, परब्रह्म, परम पुरुष, परमेश्वर के रूप में उनका एक समग्र जीवंत अनुभव है : क्योंकि इसके साथ ही वह आपात-अवर्णनीय निरपेक्ष सत्ता अपनी उस उच्चतम भूमिका में भी जागतिक कर्म का उद्गमभूत आत्मा तथा इन सब सत्ताओं का ईश्वर है । इस प्रकार मुक्त पुरुषों की अंतरात्मा समन्वयकारी ज्ञान के द्वारा पुरुषोत्तम में प्रवेश करती है और विश्वातीत, व्यक्ति-गत तथा विश्वगत भगवान् के पूर्ण, स्वतःस्फूर्त आनंद के द्वारा वह उनके अंतस्तल में स्थान पा लेती है, 'मां विशते तदनन्तरम् ।' वह पुरुष अपने आत्म-ज्ञान और आत्मानुभव में अपनी सत्ता, चेतना और इच्छाशक्ति में, अपने जगत्-ज्ञान और जगत्य्रेरणा में उनके साथ एक हो जाता है, विश्व में और विश्व के सब प्राणियों के साथ अपने एकत्व में वह उनके साथ एक हो जाता है और साथ ही जगत् और व्यक्ति से परे शाश्वत अनंत की परात्परता में भी, 'शाश्वतं पदमव्ययम्,' वह उनके साथ एक हो जाता है । परम ज्ञान की सारभूत परम भक्ति की चरम परिणति यही है ।
और तब यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार अविरत और अविच्छिन्न
___________
१. १८, ६५
५६४
कर्म, जीवन के कार्य-कलाप के किसी भी भाग को कम किये बिना या छोड़े बिना सब प्रकार का कर्म न केवल परम आध्यात्मिक अनुभव के साथ सर्वथा संगत ही हो सकता है, अपितु वह इस सर्वोच्च आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त करने का उतना ही शक्तिशाली साधन हो सकता है जितना भक्ति या ज्ञान । इस विषय में गीता का जो कथन है उससे अधिक स्पष्ट कथन कोई हो ही नहीं सकता । ''और सदा मेरे अंदर निवास करते हुए समस्त कर्म करने से भी वह मेरी कृपा से शाश्वत और अव्यय पद लाभ करता है ।''१ इस मोक्षप्रद कर्म का स्वरूप उन कर्मों के जैसा होता है जो हमारे अंदर तथा सृष्टि के अंदर विद्यमान भगवान् के साथ हमारी इच्छाशक्ति के और हमारी प्रकृति के सभी क्रियाशील अंगों के प्रगाढ़ मिलन में संपन्न किये जाते हैं । पहले-पहल यह यज्ञ के रूप में किया जाता है, पर अभी तक हमारा भाव यह होता है कि हम ही कर्ता हैं । आगे चलकर यह इस भाव के बिना और इस अनुभूति के साथ किया जाता है कि प्रकृति ही एकमात्र कर्ती है । अंत में यह इस ज्ञान के साथ किया जाता है कि वह प्रकृति भगवान् की परमा शक्ति है, यह व्यक्ति को केवल एक प्रणालिका एवं यंत्न समझकर अपने सकल कर्म भगवान् के प्रति संन्यस्त और समर्पित करते हुए किया जाता है । हमारे कर्म तब सीधे अंतरस्थ आत्मा और भगवान् से प्रादुर्भूत होते हैं, अविभाज्य विश्व-कर्म का एक अंग होते हैं, हमारे द्वारा नहीं, बल्कि एक वृहत् परात्पर शक्ति के द्वारा प्रवर्तित और संपादित होते हैं । तब जो कुछ भी हम करते हैं वह सब सर्वभूतों के हृदय में आसीन प्रभु के लिए, व्यक्ति में अवस्थित परमेश्वर के लिए और हमारे अंदर उनके संकल्प की सिद्धि के लिए, जगत् में विद्यमान भगवान् के लिए, सर्वभूतों के कल्याण के लिए, जगत्-कर्म और जगदुद्देश्य की परिपुर्त्ति के लिए, या एक शब्द में, पुरुषोत्तम के लिए किया जाता है और वास्तव में वह सब अपनी विश्व-शक्ति के द्वारा वे स्वयं ही करते हैं । इन दिव्य कर्मों का बाह्य रूप-स्वरूप कुछ भी क्यों न हो फिर भी ये हमें बाँध नहीं सकते, वरंच, ये इस निम्नतर त्निगणमयी प्रकृति से परम, दिव्य एवं आध्यात्मिक प्रकृति की पूर्णता की ओर उठने का एक शक्तिशाली उपाय हैं । इन मिश्रित और संकीर्ण धर्मों से मुक्त होकर हम उस अमृत धर्म में पहुँच जाते हैं जो हमपर तब प्रकट होता है जब हम अपने समस्त चैतन्य और कर्म में अपने-को पुरुषोत्तम के साथ एकमय कर लेते हैं । यहाँ हम जो एकत्व लाभ करते हैं वह वहाँ काल से परे अमृतत्व में उठ जाने की शक्ति अपने संग ले आता है । वहाँ हम उनके नित्य परात्पर पद में निवास करते हैं ।
१. अ. १८, श्लोक ५६
५६५
इस प्रकार यदि इन आठ श्लोकों को श्रीगुरु के द्वारा पहले प्रदान किये हुए ज्ञान के प्रकाश में ध्यान से पढ़ा जाय तो ये गीता के संपूर्ण योग का समस्त मूल विचार, समग्र केंद्रीय पद्धति और निखिल सार-तत्त्व संक्षेप के साथ, पर व्यापक रूप में प्रस्तुत करते हैं ।
५६६
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.