Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
प्रकृति का नियतिवाद
कर्म और आत्मज्ञान की एकता सिद्ध होने पर हमारा निवास जब उच्चतर आत्मा में हो जाता है तो हम प्रकृति की निम्नस्तरीण कर्मपद्धति से ऊपर उठ जाते हैं । तब हम प्रकृति और उसके गुणों के गुलाम नहीं रहते, बल्कि उन ईश्वर के साथ एक हो जाते हैं जो हमारी प्रकृति के स्वामी हैं, तब हम प्रकृति का उपयोग अपने अन्दर की भगवदिच्छा को सिद्ध करने के लिए कर्मबंधन की अधीनता में पड़े बिना ही कर सकते हैं; क्योंकि हमारे अन्दर जो महत्तर आत्मा है वह यही है, वह प्रकृति के कर्मों का अधीश्वर है और प्रकृति की विक्षुव्ध प्रतिक्रियाओं का उसपर कोई असर नहीं होता । इसके विपरीत, प्रकृति में बद्ध अज्ञानी जीव अपने उसी अज्ञान के कारण उसके गुणों में बँधता है, क्योंकि वहाँ वह सानन्द अपने सत्य स्वरूप के साथ नहीं, प्रकृति के ऊपर अधिष्ठित जो भगवान् हैं उनके साथ नहीं, बल्कि मूर्खतावश और दुर्भाग्यवश अपनी अहंबुद्धि के साथ तदाकार हो जाता है । उसकी यह अहंबुद्धि कितना ही बड़ा स्वांग क्यों न रचे पर है प्रकृति के कार्य करने का एक छोटा सा अंग ही, एक मानसिक ग्रंथि मात्र, एक केन्द्र, जिसे पकड़कर प्रकृति की कर्मधाराओं का खेल चलता रहता है । इस ग्रंथि को तोड़ना, अपने कर्मों का केन्द्र और भोक्ता इस अहं को न बने रहने देना, बल्कि परम दिव्य महान् आत्मा से सब कुछ प्राप्त करना और सब कुछ उसी को निवेदन करना--यही प्रकृति के गुणों के चंचल विक्षोभ से ऊपर उठने का रास्ता है । कारण इस अवस्था का अर्थ है परम चेतना में--अहंबुद्धि जिसका अपकर्ष हैं--निवास करना, सम और एकीकृत दिव्य संकल्प एवं शक्ति के अन्दर रहकर कर्म करना, त्रिगुण के विषम खेल में नहीं, जो ऐक्यहीन खोज और प्रयास है, एक विक्षोभ है, निम्नतर माया है ।
कुछ लोगों ने उन श्लोकों का, जिनमें गीता ने अहमात्मक जीव के प्रकृतिवश होने पर जोर दिया है, ऐसा अर्थ लगाया है मानो वहां ऐसे निरंकुश यांत्निक नियति-वाद का निरूपण है जो इस जगत् में रहते किसी स्वाधीनता के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता । निश्चय ही उन श्लोकों की भाषा बहुत जोरदार है, और सुनिश्चित
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मालूम होती है । परन्तु अन्य स्थानों की तरह यहाँ भी, गीता के विचार को उसके समय रूप में ग्रहण करना चाहिए और किसी एक वाक्य को, अन्य वाक्यों के साथ के संबंध से सर्वथा अलग करके, सब कुछ नहीं मान लेना चाहिए । क्योंकि वास्तव में प्रत्येक सत्य, वह अपने-आपमें कितना ही दुरुस्त क्यों न हो, अन्य सत्यों से, जो उसे मर्यादित करते हुए भी परिपूर्ण करते हैं, अलग कर दिया जाय तो बुद्धि को फँसानेवाला जाल और मन को भरमानेवाला मत बन जाता है, क्योंकि यथार्थ में प्रत्येक सत्य संमिश्रित पट का एक तंतु है और कोई भी तंतु उस समग्र पट से अलग नहीं किया जा सकता । इसी तरह गीता में सब बातें एक--दूसरे से बुनी हुई हैं अतः उसकी हर बात को संपूर्ण कलेवर के साथ मिलाकर ही समझना चाहिए । स्वयं गीता ने 'अकृत्स्नवित्' अर्थात् सम्पूर्ण सत्य को न जाननेवाले और खण्ड सत्यों को माननेवाले तथा 'कृत्स्नवित् अर्थात् समग्र सत्य का समन्वयात्मक ज्ञान रखनेवाले योगी में भेद किया है । योगी से जिस शान्त और पूर्ण ज्ञान की स्थिति में आरोहण करने के लिए कहा जाता है उसके लिए पहली आवश्यकता यह है कि समस्त जीवन को धीरता से उसके समग्र रूप में देखा जाय तथा इसके परस्पर-विरोधी दीखनेवाले सत्यों के कारण चित्त में कोई भ्रान्ति न आने दी जाय । हमारी संमिश्र सत्ता के एक छोर पर प्रकृति के साथ जीव के सम्बन्ध का एक ऐसा पहलू है जिसमें जीव एक प्रकार से पूर्ण स्वतंत्र है; दूसरे छोर पर दूसरा पहलू है जिसमें एक प्रकार से प्रकृति का कठोर नियम है; इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता का एक आंशिक और दिखावटी, फलत: एक अवास्तविक आभास भी होता है जिसे जीव अपने विकसनशील मन के अन्दर इन दो विरोधी छोरों के विकृत प्रतिबिंब को ग्रहण करता है । हम स्वतंत्रता के इस आभास को ही न्यूनाधिक भूल के साथ, स्वाधीन इच्छा कहा करते हैं; परन्तु गीता पूर्ण मुक्ति और प्रभुत्व को छोड़कर और किसी चीज को स्वाधीनता या स्वतंत्रता नहीं मानती ।
गीता की शिक्षा के पीछे जीव और प्रकृति के विषय में जो दो महान् सिद्धान्त हैं उन्हें सदा ध्यान में रखना चाहिए--एक है पुरुष--प्रकृतिविषयक सांख्य का सत्य जिसको गीता ने त्रिविध पुरुषरूपी वेदान्त-सत्य के द्वारा संशोधित और परिपूर्ण कर दिया है, दूसरा है द्विविध प्रकृति का, जिसका निम्नतर रूप है त्निगुणात्मिका माया और उच्चतर रूप है दिव्य प्रकृति, सच्ची अध्यात्म-प्रकृति । यही वह कुंजी है जो उन बातों का समन्वय और स्पष्टीकरण करती है, जिन्हें हम परस्पर विरुद्ध और विसंगत जानकर छोड़ देते । वास्तव में हमारे सचेतन जीवन के कई स्तर हैं, और एक स्तर पर जो बात व्यवहारत: सत्य मानी जाती है वह उससे ऊपर के स्तरपर जाते ही सत्य नहीं रह जाती, क्योंकि वहाँ उसका कुछ और ही
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रूप हो जाता है, क्योंकि वहाँ हम वस्तुओं को अलग-अलग नहीं बल्कि अधिकतर उनकी समग्रता में देखने लगते हैं । हाल के वैज्ञानिक आविष्कार ने दिखाया है कि मनुष्य, पशु, वृक्ष और खनिज धातुओं तक में प्राणमय प्रतिक्रियाएँ सार रूप से एक-सी होती हैं, इसलिए यदि इनमें से प्रत्येक में एक ही प्रकार की 'स्नायवीय चेतना' है ( अधिक उपयुक्त शब्द के अभाव में यही कहना होगा ) तो, इनके यांत्निक मनस्तत्व की आधारभूमि भी एक-सी होनी चाहिए । फिर भी इनमें से प्रत्येक यदि अपने-अपने अनुभवों का मनोमय विवरण दे सके तो एक ही प्रकार की प्रति-क्रियाओं और एक से प्रकृति-तत्वों के चार ऐसे विवरण प्राप्त होंगे जो एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न और बहुत हद तक एक-दूसरेसे उलटे होंगे, इसका कारण यह है कि जैसे-जैसे हम सचेतन सत्ता के ऊपर के स्तरों में उठते हैं वैसे-वैसे इनका अर्थ और मूल्य बदलता जाता है और वहाँ इन सबका विचार दूसरी ही दृष्टि से करना होता है । मानव-जीव के स्तरों की भी यही बात है । जिसे हम अपनी साधारण मनोवृत्ति के अनुसार स्वाधीन इच्छा कहते हैं, और एक हदतक यह कहना ठीक भी हो सकता है, वह उस योगी की दृष्टि में, जो ऊपर उठ चुका है और जिसके लिए हमारी रात तो दिन है और हमारा दिन रात, यह स्वाधीन इच्छा नहीं है बल्कि प्रकृति के गुणों की अधीनता है । वह भी उन्हीं तथ्यों को देखता है जिन्हें हम देखते हैं, किन्तु वह 'कृत्स्नवित्' (समग्र सत्य को जाननेवाले ) की उच्चतर दृष्टि से देखता है और हम देखते हैं 'अकृत्स्नवित्' की दृष्टि से, जो बहुत ही मर्यादित होती है, जो अज्ञान ही है । हम जिस स्वाधीनता पर गर्व करते हैं वह उसके लिए बंधन है ।
निम्न प्रकृति के जाल में पड़े हुए हम अज्ञानवश मान बैठते हैं कि हम स्वाधीन है, इस अज्ञान का खण्डन करने के लिए गीता ने बतलाया है कि अहमात्मक जीव इस स्तर पर पूरी तरह त्रिगुण के वश में होता है । ''जब कि सब काम सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा कराये जा रहे हैं, अहंकार-विमूढ़ आत्मा समझता है कि इन्हें करनेवाला तो 'मैं' हूँ । परन्तु जो गुणों और कर्मो के भेदों के सच्चे नियमों को जानता है वह देखता है कि प्रकृति के गुण परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया कर रहे हैं और इसलिए वह आसक्त होकर इनमें नहीं फँसता । जो इन गुणों के द्वारा विमूढ़ हो जाता है, जो अकृत्स्नवित् है उसकी मनोभावना को कृत्स्नवित् विचलित न करे । तू अपने सब कर्म मुझे समर्पित कर, निरीह, निर्मम और विगतज्वर होकर, युद्ध कर ।'' १ यहाँ चेतना के दो भिन्न स्तरों और कर्म के दो विभिन्न दृष्टिबिन्दुओं में स्पष्ट भेद किया गया है । एक स्तर वह है जहाँ जीव अपनी
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अहमात्मक प्रकृति के जाल मे जकड़ा है और प्रकृति से प्रेरित होकर कर्म करता है पर समझता है कि मैं अपनी स्वाधीन इच्छा से कर रहा हूँ । दूसरा स्तर वह है जिसमें जीव अहंकार के साथ तादात्म्य से मुक्त, प्रकृति से ऊपर उठा हुआ और उसके कर्मों का द्रष्टा, अनुमन्ता और नियंता है ।
हम जीव को प्रकृति के अधीन कहते हैं, पर गीता, इसके विपरीत, पुरुष और प्रकृति के लक्षणों का विश्लेषण करते हुए बतलाती है कि प्रकृति कार्यकरी शक्ति है और पुरुष सदा ही ईश्वर है । यहाँ गीता ने बतलाया है कि यह पुरुष अहंकार से विमूढ़ हो जाता है, परन्तु वेदान्तियों का सदात्मा ब्रह्म, नित्यमुक्त, शुद्ध, बुद्ध है । तब यह जीव क्या है जो प्रकृति से विमूढ़ होता है, उसके अधीन रहता है ? इसका उत्तर यह है कि यहाँ हम वस्तुओं के सम्बन्ध में अपनी निम्नतर या मानसिक दृष्टि की व्यावहारिक भाषा में बात कर रहे हैं, प्रतीयमान आत्मा या पुरुष की बात कर रहे हैं, सदात्मा या वास्तविक पुरुष की नहीं । अहंकार ही वस्तुत: प्रकृति के अधीन होता है, और यह अपरिहार्य है, क्योंकि वह प्रकृति का ही अंग है, उसके कलपुर्जों की एक क्रिया है; परन्तु जब मनश्चेतना का आत्म-बोध अहंकार के साथ तादात्म्य कर लेता है तो वह निम्नतर आत्मा के, एक अहमा- त्मक स्वके आभास की सृष्टि करता है । और इसी प्रकार जिसे हम सामान्यत: जीव या आत्मा कहते हैं वह हमारे अन्दर रहनेवाला कामनामय पुरुष है जो प्रकृति के कार्यों पर पुरुषचैतन्य का प्रतिबिम्ब है । यथार्थ में यह स्वयं त्रिगुण का एक कर्म है और इसलिए प्रकृति का ही अंग है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हमारे दो पुरुष हैं, एक प्रतीयमान पुरुष या कामनामय पुरुष जो गुणों के परिवर्तन के साथ बदलता है और सर्वथा उन गुणों से ही बना हुआ और उन्हीं के द्वारा नियंत्रित है, और दूसरा नित्यमुक्त सनातन पुरुष जो प्रकृति और उसके गुणों से कभी बद्ध नहीं होता । हमारी दो आत्माएँ हैं, एक प्रातिभासिक आत्मा है जो केवल अहंकार है अर्थात् हमारे अन्दर वह मनोगत केन्द्र जो प्रकृति की इस परिवर्तनशील क्रिया को, इस परिवर्तनशील व्यक्तित्व को अपने ऊपर ओढ़ लेता है और कहता है कि, ''मैं यह व्यक्ति हूँ, मैं इन सब कर्मों का कर्ता प्राकृत पुरुष हूँ'' ,-- -परन्तु प्राकृत पुरुष जो कुछ है वह केवल प्रकृति है, त्रिगुण का एक समुच्चय मात्र--और दूसरा सदात्मा है जो वास्तव में प्रकृति का भर्ता, भोक्ता, ईश्वर है; वह प्रकृति में रूपान्वित है पर स्वयं परिवर्तनशील प्राकृत व्यक्ति नहीं है । अतः मुक्त होने का मार्ग इस कामनामय पुरुष की कामनाओं तथा अहंकार के मिथ्या-आत्मबोध से मुक्त होना ही है, इसलिए भगवान् गुरु पुकारकर
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कहते है कि, ''कामना और अहंता से मुक्त होकर विगतज्वर होकर युद्ध कर--निराशीर्निर्ममो भूत्वा ।''१
हमारी सत्ता के विषय में यह मत सांख्य के उस विश्लेषण से शुरू होता है, जिसमें हमारे स्वभाव के द्विविध तत्व पुरुष और प्रकृति बताये गये हैं । पुरुष अकर्ता है, प्रकृति कर्त्नी है । पुरुष वह सत्ता है जो चैतन्य के प्रकाश से भरपूर है, प्रकृति जड़ है और अपने सब कर्म चिन्मय साक्षी पुरुष में प्रतिभासित करती है । प्रकृति के ये कर्म उसके गुणों की विषमता के द्वारा होते हैं और सदा एक-दूसरेसे टकराते, एक-दूसरेमें मिलते और एक-दूसरेमें परिवर्तित होते रहते हैं । और प्रकृति की अहं-बुद्धि का कर्म पुरुष को इन कर्मों के साथ एकात्म करके आत्मा की प्रशान्त सनातन सत्ता में कर्ता, विकारी, क्षणस्थायी व्यष्टि-पुरुष के होने की प्रतीति उत्पन्न करता है । अशुद्ध प्राकृत चेतना विशुद्ध आत्मचैतन्य को मेघाच्छादित कर देती है, मन अहंकार और व्यक्तित्व में 'पुरुष' को भूल जाता है । हम अपनी विवेक-बुद्धि को इन्द्रियाश्रित मन और उसकी बहिर्मुख क्रियाओं तथा प्राण और शरीर की कामनाओं के साथ बह जाने देते है । जबतक पुरुष इस प्रकार की क्रिया को अनुमति देता है तबतक अहंकार और कामना तथा अज्ञान ही हमारी प्राकृत सत्ता का नियंत्रण करते रहते हैं ।
परन्तु यदि इतनी ही बात होती तो इसकी यही दवा है कि हम अनुमति देना बन्द कर दें और इस तरह अपनी सारी प्रकृति को त्रिगुण की निश्चल साम्यावस्था में जा गिरने दें या गिरने के लिये बाधित करें और इस प्रकार सब कर्म समाप्त हो जायं | परन्तु ठीक यही वह दवा है जिसका प्रयोग करने के लिए गीता हमें निरुत्साहित करती है, क्योंकि यद्यपि यह दवा तो है, पर है ऐसी जो रोग के साथ रोगी का भी खातमा कर देती है । विशेषकर यदि यह सत्य अज्ञानियों पर लाद दिया जाय तो वे तामसिक अकर्मण्यता की ही शरण लेंगे, उनका 'बुद्धिभेद, होगा--उनकी बुद्धि में एक मिथ्या भेद, एक झूठा विरोध उत्पन्न होगा; उनके सक्रिय स्वभाव और बुद्धि एक-दूसरेके विरोधी हो जायेंगे और फलस्वरूप व्यर्थ का विक्षोभ और संकर पैदा हो जायगा, मिथ्या और आत्म-प्रतारक कर्म होने लगेंगे ( मिथ्या-चार: ), या फिर तामसिक जड़ता छा जायगी, कर्मों का अंत हो जायगा, जीवन और कर्म के पीछे जो संकल्प है वह क्षीण हो जायगा और इसलिए इस सत्य के द्वारा उन्हें मुक्ति तो नहीं मिलेगी, मिलेगी केवल गुणों में सबसे निकृष्ट तमोगुण की अधीनता । अथवा ये लोग कुछ न समझेंगे और इस उच्च शिक्षा में ही दोष निकालेंगे, इसके विरुद्ध अपने वर्तमान मानसिक अनुभव के पक्ष को तथा स्वतंत्र इच्छासम्बन्धी
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अपने अज्ञानमय विचार को ला खड़ा करेंगे । फलत : अहंकार और काम के मोह तथा कष्टजाल में पड़े हुए ये लोग अपने पक्ष की यौक्तिकता के सत्याभास में इतने अधिक फँस जायेंगे कि ये अज्ञान का और भी जोरदार और हठी समर्थन करने लगेंगे और अपनी मुक्ति का अवसर खो देंगे ।
वास्तव में ये उच्चतर सत्य चेतना और सत्ता के उच्चतर और विशालतर स्तर पर ही सहायक हो सकते हैं, क्योंकि ये वहीं अनुभवगम्य और जीवनसाध्य हो सकते हैं । ऊपर के इन सत्यों को नीचे से देखना, इन्हें गलत देखना, गलत समझना और शायद इनका दुरुपयोग करना है । यह एक उच्चतर सत्य है कि शुभ और अशुभ का भेद अहंभावापन्न मानव-जीवन के लिए--और यह मानवजीवन, पशुभाव और दिव्य भाव के बीच की संक्रमण अवस्था है--एक व्यावहारिक तथ्य और प्रामाणिक धर्म है, पर इससे ऊपर की भूमिका में हम शुभ-अशुभ के ऊपर उठ जाते हैं और इन द्वन्द्वों की पहुँच के परे हो जाते हैं जैसे ईश्वर सदा इसके ऊपर रहता है । परन्तु यह सत्य निम्न चेतना में व्यावहारिक रूप से मान्य नहीं है, उस भूमिका से ऊपर उठे बिना ही जो अपरिपक्व मन इस सत्य को पकड़ने जायगा वह इस सत्य को अपनी आसुरी प्रवृत्तियों को प्रश्रय देने के लिए, शुभ और अशुभ के भेद को सर्वथा अस्वीकार करने के लिए और भोगविलास के द्वारा विनाश के गहरे दलदल में जा गिरने के लिए सुविधाजनक एक बहाना बना लेगा--''सर्वज्ञान-विमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस: ।''१ यह बात प्रकृति के नियतिवाद के सत्य पर लागू होती है । लोग इसे भी गलत देखेंगे और इसका दुरुपयोग करेंगे जैसे वे लोग करते हैं जो कहते हैं कि मनुष्य वैसा ही है जैसा उसकी प्रकृति ने उसे बना रखा है, प्रकृति उसे जो कुछ करने के लिए विवश करती है उसके सिवाय वह और कुछ कर ही नहीं सकता । एक अर्थ में यह बात सही है, पर उस अर्थ में नहीं जिसमें कही जाती है; इस अर्थ में नहीं कि अहमात्मक जीव जो कुछ करता है उसकी जिम्मेदारी उसपर न हो और वह उसके फल से बच जाय; क्योंकि अहमात्मक जीव का अपना संकल्प है, उसकी अपनी कामना है, और जबतक वह अपने संकल्प और कामना के अनुसार कर्म करता है, चाहे उसकी प्रकृति वैसी ही क्यों न हो, उसे अपने कर्म की प्रतिक्रियाओं को भोगना ही पड़ेगा । वह उस जाल में, यों कहिये उस फंदे में जा फँसा है जो भले ही उसकी वर्तमान अनुभूति को, उसके मर्यादित आत्मज्ञान को दुर्बोध, युक्तिविरुद्ध, अनुचित और भयंकर मालूम हो, पर है यह फंदा उसकी अपनी ही पसन्द का, यह जाल उसका अपना ही बुना हुआ है ।
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गीता यह कहती अवश्य है कि ''सब भूतप्राणी अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं, निग्रह करने से क्या होगा''१ और यदि हम अकेले इसी वचन को ले लें तो ऐसा दिखायी देगा मानों प्रकृति की सर्वशक्तिमत्ता का पुरुष पर असम्भव रूप से सम्पूर्ण आधिपत्य है । ''ज्ञानवान् पुरुष भी अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करता है ।''२ और इसी की बुनियाद पर गीता का यह आदेश है कि सचाईके साथ अपने कर्मों के अन्दर अपने स्वधर्म का पालन करो, ''अपना धर्म चाहे दोषयुक्त हो पर वह दूसरे के सुसंपादित धर्म से अच्छा है; स्वधर्म में मर जाना भला है, दूसरे के धर्म का पालन भयावह है ।''३ इस स्वधर्म का वास्तविक अर्थ जानने के लिए हमें तबतक ठहरना होगा जबतक गीता के पिछले अध्यायों में किए गए पुरुष, प्रकृति और .गुणों के विस्तृत विवेचन तक न पहुँच जायँ, किन्तु निश्चय ही इसका यह अर्थ तो नहीं है कि जिसे हम प्रकृति कहते हैं उसकी जो कोई भी प्रेरणा हो, चाहे वह अशुभ ही क्यों न हो, उसका पालन करना होगा । कारण इन दो श्लोकों के बीच में गीता ने यह आदेश भी तो दिया है कि, ''प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के अंदर रागद्वेष छिपे हुए हैं; उनके वश में न आना, क्योंकि ये आत्मा के रास्ते में लुटेरे हैं ।''४ और इसके बाद ही जब अर्जुन यह प्रश्न करता है कि प्रकृति का अनुसरण करने में जब कोई दोष नहीं है तो अपने अन्दर की उस चीज को क्या कहें जो मनुष्य से, उसकी इच्छा और प्रयत्न के विरुद्ध, मानो बरबस पाप कराती है, तब भगवान् गुरु उत्तर देते हैं कि कामना और उसका साथी क्रोध-द्वितीय गुण, रजोगुण की सन्तान--ऐसा कराते हैं; और यह कामना आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु हैं; और यह कामना आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु है, इसे मार ही डालना होगा । गीता कहती है, पापकर्म का त्याग मुक्ति की पहली शर्त है और सर्वत्न गीता का यह आदेश है कि आत्मवशी और आत्मसंयमी बनो तथा मन, इन्द्रिय और सम्पूर्ण निम्न सत्ता को अपने वश में रखो ।
इसलिए अब हमें यह भेद जान लेना होगा कि प्रकृति में वह कौन सी चीज है जो उसका असली स्वरूप, उसका अपना और अनिवार्य कार्य है जिसका दमन या निग्रह करना बिलकुल हितकारी नहीं और फिर वह कौन सी चीज है जो असली नहीं गौण है, जो प्रकृति का विक्षेप, विभ्रम और विकार है जिसे हमें अपने वश में करना होगा । निग्रह और संयम में भी भेद है । निग्रह प्रकृति पर अपनी इच्छा का तीक्ष्ण बल-प्रयोग है जिससे आगे चलकर जीव की स्वाभाविक शक्तियाँ अवसाद को प्राप्त होती हैं ( आत्मानमवसादयेत् ); और संयम उच्चतर आत्मा का निम्न-तर आत्मा को संयमित करना है जिससे जीव की स्वाभाविक शक्तियों को अपना
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स्वभावनियत कर्म और उसे करने का परम कौशल प्राप्त होता है ( योग: कर्मसु कौशलम् ) । छठे अध्याय के उपोद्घात में संयम का यह स्वरूप बहुत ही स्पष्ट रूप में बताया गया है । ''आत्मा से आत्मा का उद्धार करे, आत्मा को (भोगविलास या निग्रह के द्वारा ) अवसन्न होकर नीचे न गिरने दे; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु । उस मनुष्य की आत्मा उसका मित्र है जिसकी ( उच्चतर ) आत्मा के द्वारा (निम्नतर ) आत्मा को जीत लिया गया है; परन्तु जिस मनुष्य ने अपनी (उच्चतर ) आत्मा पर अधिकार नहीं किया है उसकी ( निम्नतर ) आत्मा उसके लिये शत्रु जैसी है और वह शत्रुवत् आचरण करती है ।''१ जब कोई अपनी आत्मा को जीत लेता है और पूर्ण आत्मजय और आत्मवत्ता की अविचल स्थिति को प्राप्त होता है तब उसकी परम आत्मा उसकी बाह्य सचेतन मानव-सत्ता में भी स्थिर-प्रतिष्ठित अर्थात् 'समाहित' हो जाती है । दूसरे शब्दों में निम्नतर आत्मा को उच्चतर आत्मा से, प्राकृत आत्मा को आध्यात्मिक आत्मा से वश में करना ही मनुष्य की सिद्धि और मुक्ति का मार्ग है ।
यहाँ प्रकृति के नियतिवाद की मर्यादा बाँध दी गयी है, उसके क्षेत्र और अर्थ का सीमांकन किया गया है । यदि हम प्रकृति के सोपान में नीचे से ऊपर तक गुणों की क्रिया का निरीक्षण करें तो अधीनता से प्रभुत्व तक के संक्रमण को अच्छी तरह समझ सकेंगे । सबसे नीचे वे जीव हैं जिनमें तमोगुण का तत्व मुख्य है, ये वे प्राणी हैं जो अभी आत्मचैतन्य के प्रकाश तक नहीं पहुँचे और जो पूरी तरह प्रकृति के प्रवाह के द्वारा ही चालित होते हैं । परमाणु के अन्दर भी एक इच्छाशक्ति है, पर यह स्पष्ट ही देख पड़ता है कि यह स्वाधीन इच्छाशक्ति नहीं है, क्योंकि यह इच्छाशक्ति यंत्रवत् है और परमाणु इसपर स्वत्व नहीं रखता, बल्कि खुद ही उसके अधिकार में होता है । बुद्धि, जो प्रकृति के अन्दर बोध और संकल्प का तत्व है वह यहाँ वास्तव में स्पष्ट रूप से, जैसा कि सांख्य ने बताया है, जड़ है, यह अभी यांत्रिक, बल्कि अचेतन तत्व है, और इसमें सचेतन आत्मा के प्रकाश ने अभी तक ऊपरितल पर आने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है । परमाणु अपने बुद्धितत्व से सचेतन नहीं है, वह उस तमोगुण के कब्जे में है जिसने रजोगुण को पकड़ रखा है, सत्वगुण को अपने अन्दर छिपा रखा है और स्वयं अपने प्रभुत्व का महान् उत्सव मनाता है । जीवके इस रूपको प्रकृति अद्भुत शक्तिके साथ कार्य करने के लिए विवश तो करती है, पर स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं करने देती, उसे जड़ यंत्रवत् चलाती रहती है ( यंत्रारुढ़ानि मायया ) । इससे ऊपर के स्तर
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में उद्भिद् कोटि है, उसमें रजोगुण बाहर निकल पड़ा है, उसके साथ उसकी जीवन-शक्ति है, उसकी स्नायवीय प्रतिक्रियाओं की क्षमता है और ये प्रतिक्रियाएं वे ही है जो हमारे अन्दर सुख-दुःख के रूप में प्रकट होती हैं; पर अभी तक सत्वगुण बिलकुल दबा हुआ है, उसने अभी बाहर निकलकर सचेतन बुद्धि के प्रकाश को नहीं जगाया है, अब भी यह सब जड़, अवचेतन या अर्द्धचेतन ही है जिसमें रज की अपेक्षा तमकी प्रबलता है और रज, तम दोनों मिलकर सत्य को कैद किए हुए हैं ।
इससे ऊपर के स्तर में, अर्थात् पशुकोटि में, है तो तमकी ही प्रबलता और इसे भी हम ''तामस सर्ग'' के अंतर्गत रख सकते हैं, फिर भी यहाँ तमोगुण के विरुद्ध रजोगुण का पहले की अपेक्षा अधिक जोर है और इसलिए यहां कुछ उन्नत प्रकार की जीवन-शक्ति, इच्छा, उमंग, प्राणावेग और सुख-दुःख भी होते हैं; सत्व-गुण यहाँ प्रकट तो हो रहा है पर अभी तक निम्न क्रिया के अधीन है, फिर भी उसने पशु-योनि में सचेतन मन के प्रथम प्रकाश, यांत्रिक अहंबोध, सचेतन स्मृति, एक प्रकार की चिन्तनशक्ति, विशेषत: पशुसुलभ सहजप्रेरणा और सहजस्फुरणा के चमत्कार का योगदान दिया है । परन्तु यहाँतक भी बुद्धि ने चेतना का पूर्ण विकास नहीं किया है; अतएव पशुओं को उनके कर्मों का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता । परमाणु को उसकी अंध गति के लिए, आग को जलाने और खाक कर देने के लिए या आंधी-तूफान को बरबादी के लिए जितना दोष दिया जा सकता है शेर को उससे अधिक दोष प्राणियों को मारने और खाने के लिए नहीं दिया जा सकता । यदि शेर प्रश्न का जवाब दे सकता तो मनुष्य की तरह यही कहता कि मैं जो कुछ करता हूँ अपनी स्वाधीन इच्छा से करता हूँ; वह कर्तापन का भाव रखना चाहता और कहता, ''मैं मारता हूँ, मैं खाता हूँ ।'' पर हम स्पष्ट देख सकते हैं कि मारने-खाने की क्रिया करनेवाला शेर नहीं बल्कि उसके अन्दर की प्रकृति है, जो मारती और खाती है; और यदि कभी शेर मारने और खाने से चूकता है तो इसका कारण परितृप्ति, डर या आलस्य होता है जो प्रकृति के ही एक और गुण का कर्म है जिसे तमोगुण कहते हैं । जैसे पशु के अन्दर की प्रकृति ने ही मारने की क्रिया की, वैसे ही स्वयं प्रकृति ने मारने से रुकने की क्रिया भी की । उसके अन्दर आत्मा किसी भी रूप में हो पर है स्वयं प्रकृति के कर्म का केवल निष्क्रय अनुमंता ही, वह प्रकृति के कामक्रोध के वेग और कर्म में उतना ही निष्क्रय है जितना उसके आलस्य या अकर्म में । परमाणु के समान ही पशु भी अपनी प्रकृति की यांत्रिकता के अनुसार चलता है, और किसी तरह नहीं, ''सदृशं चेष्ट ते स्वस्या: प्रकृतें:" जैसे कोई ''माया के द्वारा यंत्न पर चढ़ाया हुआ हो (यंत्रारुढ़ो मायया ) ।''
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खैर, कम-से-कम मनुष्य में तो अन्य प्रकार की क्रिया है, उसमें स्वतंत्र आत्मा, स्वाधीन इच्छा, दायित्वबोध है, वह वास्तविक कर्ता है जो प्रकृति से भिन्न और माया की यांत्निकता से भिन्न है ? ऐसा मालूम तो होता है, क्योंकि मनुष्य में सचेतन बुद्धि है और इस बुद्धि में साक्षी पुरुष का प्रकाश भरपूर है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह पुरुष उस बुद्धि के द्वारा देखता, समझता, स्वीकार या अस्वीकार करता, अनुमति देता या निषेध करता है; और ऐसा लगता है कि आखिर मनुष्य-कोटि में आकर पुरुष अपनी प्रकृति का प्रभु बनना आरम्भ कर देता है । मनुष्य शेर, आग या आंधी-तूफान के जैसा नहीं है । वह खून करके यह सफाई नहीं दे सकता कि, ''मैं अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म कर रहा हूँ'', और वह ऐसा कर भी नहीं सकता, क्योंकि उसका स्वभाव और स्वधर्म वह नहीं है जो शेर, आग या आंधी-तूफान का है । उसमें सचेतन बुद्धि है और उसे सब कामों के लिए सचेतन बुद्धि की सलाह लेनी होगी । यदि वह ऐसा नहीं करता और अपने आवेशों और प्राणावेगों के अनुसार अंधा होकर कर्म करता है तो उसका धर्म 'सु-अनुष्ठित' नहीं है, उसका आचरण उसके मनुष्यत्व के अनुकूल नहीं, बल्कि पशु जैसा है । यह सही है कि रजोगुण अथवा तमोगुण उसकी बुद्धि को अपने कच्चे में कर लेता है और उससे, उसके द्वारा होनेवाले प्रत्येक कर्म के करने या किसी भी कर्म के न करने का समर्थन करा लेता है; परन्तु यहाँ भी, कर्म करने के पहले या पीछे बुद्धि से समर्थन कराना या कम-से-कम उससे पूछ लेना पड़ता है । इसके अतिरिक्त मनुष्य के अन्दर सत्वगुण जागृत है और यह केवल बुद्धि और बुद्धिमत्तापूर्ण संकल्प के रूप में ही काम नहीं करता, बल्कि प्रकाश सत्यज्ञान और उस ज्ञान के अनुसार सत्य-कर्म के अन्वेषण के रूप में, तथा दूसरों के जीवन और दावों को सहानुभूति-पूर्ण रीति से अनुभव करने और अपने निजी स्वभाव के उच्चतर धर्म को (जिसकी सृष्टि यह सत्वगुण ही करता है ) जानने व मानकर चलने के प्रयास के रूप में तथा पुण्य, ज्ञान और सहानुभूति जिस महत्तर शान्ति और सुख को लाते हैं उसके बोध के रूप में भी, काम करता है । मनुष्य थोड़ा-बहुत यह जानता ही है कि उसे अपनी राजसिक और तामसिक प्रकृति पर अपनी सात्विक प्रकृति के द्वारा शासन करना है, और यही उसकी सामान्य मनुष्यता की सिद्धि का मार्ग है ।
परन्तु क्या प्रधानत: सात्विक स्वभाव की अवस्था स्वाधीनता है और क्या मनुष्य की ऐसी इच्छा स्वाधीन इच्छा है ? गीता इस बात को उस चैतन्य की दृष्टि से अस्वीकार करती है, क्योंकि सच्ची स्वाधीनता तो उच्चतर चैतन्य में ही है । बुद्धि, अब भी, प्रकृति का ही उपकरण है और इसका जो कर्म होता है, वह चाहे अत्यंत सात्विक हो, पर होता है प्रकृति के द्वारा ही और पुरुष भी माया
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के द्वारा ही यंत्नारूढुबत् चालित होता है । बहरहाल, हमारी इस तथाकथित स्वाधीन इच्छा का नव-दशमांश स्पष्ट ही मिथ्या कल्पना है; यह इच्छा किसी नियत काल में अपनी निजी स्वत:सिद्ध क्रिया के द्वारा उत्पन्न और निर्द्धारित नहीं होती, बल्कि इसकी उत्पत्ति और इसका निर्द्धारण हमारे भूतकाल के द्वारा, वंशानु-क्रम, शिक्षा-दीक्षा और परिस्थिति के द्वारा तथा हमारे पीछे जो दारुण जटिल चीज लगी है, जिसे हम कर्म कहते हैं, उसके द्वारा होता है । यह कर्म क्या है ? यह हमपर और जगत् पर अतीत काल में प्रकृति की जो क्रिया हो चुकी है उसका समूह है जो हर व्यक्ति के अन्दर केन्द्रीभूत होता रहता है, और वह व्यक्ति जो कुछ है तथा किसी विशिष्ट काल में उस व्यक्ति की जो इच्छा होगी और, जहाँतक विश्लेषण द्वारा देखा जा सकता है वहाँतक, उस विशिष्ट काल में उसकी क्रिया तक जो होगी, इसका निर्द्धारण भी यही कर्म करता है । प्रकृति की इस क्रिया के साथ अहंकार शामिल हो जाता और कहता है कि 'मैने किया', 'मैं इच्छा कर रहा हूँ', 'मैं दुःख भोग रहा हूँ', किन्तु यदि वह अपने-आपको देखे और यह जाने कि वह कैसे बना है तो उसे, मनुष्य-शरीर में भी पशु-शरीर की तरह, यही कहना पड़ेगा कि प्रकृति ने मेरे अन्दर यह काम किया, प्रकृति मेरे अन्दर यह इच्छा कर रही है और यदि इस प्रकृति को वह 'अपनी प्रकृति' कहे तो इसका अर्थ है वह प्रकृति जो उस व्यष्टिप्राणी में यह रूप धारण किये हुए है । जीवन के इस पहलू का बड़ा तीव्र अनुभव होने से ही बौद्धों को यह कहना पड़ा कि सब कुछ कर्म ही है और जीवन में कोई आत्मसत्ता नहीं है, आत्मा की भावना तो अहंबुद्धि का केवल एक भ्रम है । अहंकार जब यह सोचता है कि ''मैं इस पुण्य कर्म को चुनता और इसका संकल्प करता हूँ, उस पाप कर्म का नहीं'', तब वह इसके सिवाय और कुछ नहीं करता कि सत्वगुण की किसी प्रधान लहर या सुसंगठित धारा के साथ, जिसके द्वारा प्रकृति बुद्धि को अपना उपकरण बनाकर किसी एक प्रकार के कर्म से किसी दूसरे प्रकार के कर्म को चुनना अधिक पसन्द करती है, अपने-आपको शामिल कर लेता है, जैसे कि किसी घूमते हुए पहिये पर बैठी हुई वह मक्खी जो यह समझती है कि मै ही घूम रही हूँ या किसी कल-पुरजे का एक दाँत या एक हिस्सा जो यदि उसे होश होता तो यही समझता कि मैं ही तो घूम रहा हूँ । सांख्य सिद्धांत के अनुसार प्रकृति हमारे अन्दर अकर्ता साक्षी पुरुष की प्रसन्नता के लिए स्वयं गठित होती और इच्छा करती है ।
परन्तु इस आत्यंतिक वर्णन में यदि कोई हेरफेर करना आवश्यक हो, और हम आगे चलकर देखेंगे कि इसका किस अर्थ में हेरफेर करना है, तो भी हमारी इच्छा की स्वाधीनता ( यदि हम उसे स्वाधीनता कहना ही पसन्द करें ) बहुत सापेक्ष
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और अल्प है, क्योंकि इसके साथ बहुत से नियामक तत्व मिले हुए हैं । इसकी प्रबलतम शक्ति को भी प्रभुता नहीं कह सकते । इसपर यह भरोसा नहीं किया जा सकता कि यह प्रत्येक घटना के तीव्र वेग को या किसी दूसरे स्वभाव को--जो उसे दबा देता या किसी प्रकार बदल देता अथवा उसमें मिल जाता है, और कुछ नहीं तो कम-से-कम छिपे-छिपे ही उसे धोखा देता या ठग लेता है--रोक सकेगी । अत्यंत सात्विक बुद्धि भी राजस या तामस गुणों से इतनी दब जाती या उनमें मिल जाती या उनके द्वारा ठगी जाती है कि उसमें सत्व का अंश थोड़ा-सा ही रह जाता है और इसीसे एक ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है जिसमें मनुष्य अपने-आपको जबरदस्त धोखा दे बैठता है, इच्छा न होते हुए भी और सर्वथा निर्दोष रहते हुए भी कुछ-का-कुछ मान बैठता है और अपने-आपसे चीजों को छिपाने लगता है, जिस बात को मनोविज्ञानवेत्ता की निर्मम दृष्टि मनुष्य के अच्छे-से-अच्छे काम में भी ढूंढ़ निकालती है । जब हम सोचते हैं कि हम सर्वथा स्वच्छन्दतापूर्वक काम कर रहे हैं तब यथार्थ में हमारे काम के पीछे ऐसी शक्तियाँ छिपी होती हैं, जिन्हें हम अत्यंत सावधानी से आत्म-निरीक्षण करते हुए भी नहीं देख पाते; जब हम सोचते हैं कि हम अहंकार से मुक्त हैं, उस समय भी वहाँ-जैसे असाधु के मन में, वैसे ही साधु के मन में,--अहंकार छिपा रहता है । जब हमारी आँखें अपने कर्मों और उनके मूल स्रोतों को देखने के लिए वास्तविक रूप से खुलती हैं, तब हमें गीता के इन शब्दों को दुहराना पड़ता है कि, ''गुणा गणेषु वर्तन्ते'', प्रकृति के गुण ही गुणों में बरत रहे हैं ।
इसलिए सत्वगुण का बहुत अधिक प्राधान्य भी स्वतंत्रता नहीं है । सत्व भी, जैसा कि गीता ने कहा है, अन्य गुणों के समान ही बंधनकारक है और यह भी अन्य गुणों की तरह कामना और अहंकार द्वारा ही बाँधा करता है; अवश्य ही यह कामना महत्तर और यह अहंकार विशुद्धतर होता है, परन्तु जबतक ये दोनों किसी भी रूप में जीव को बाँधे हुए रहते हैं, तबतक स्वतंत्रता नहीं है । पुण्यात्मा और ज्ञानी पुरुष का अहंकार पुण्य और ज्ञान का अहंकार होता है और वह इसी सात्विक अहंकार की तृप्ति चाहता है, वह अपने लिए ही पुण्य और ज्ञान की इच्छा करता है । सच्ची स्वाधीनता तो तभी होती है जब हम अहंकार की तृप्ति करना बन्द कर दें, जब हम अहंकार के आसन से, हममें जो परिच्छिन्न ''मैं'' है उसके आसन से चिंतन और संकल्प करना बन्द कर दें । दूसरे शब्दों में, स्वतंत्रता का, उच्चतम आत्मवशित्व का आरंभ तब होता है जब हम अपने इस प्राकृत जीवभाव के ऊपर उस परम आत्मा को देखें और पकड़े रहें जिसके और हमारे बीच में यह अहंकार एक बाधक आवरण और आँखों के आगे अँधेरा करने-
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वाली छाया है । और, यह तभी हो सकता है जब हम उस एक आत्मा को अपने अन्दर देखें जो प्रकृति के ऊपर अधिष्ठित है और अपने व्यष्टिभूत जीव को सत्ता और चेतना को उस परम आत्मा की सत्ता और चेतना के साथ एक कर लें तथा अपनी व्यक्तिगत कार्यकरी प्रकृति को उस अद्वितीय परम संकल्प-शक्ति का एक यंत्न बना लें जिसकी इच्छा ही एकमात्र स्वाधीन इच्छा है । इसके लिये हमें त्रिगुण से ऊपर उठना होगा, त्रिगुणातीत होना होगा; क्योंकि यह आत्मा सत्वगुण के भी परे है । वहाँतक की चढ़ाई सत्वगुण से होकर ही पूरी करनी होगी, पर हम उसके निकट तभी पहुँचेंगे जब सत्वगुण को पार कर जायँगे; हम अहंकार में से ही उसकी ओर जायँगे, पर उसके पास पहुँचेंगे तभी जब अहंकार को छोड़ देंगे । इच्छाओं में सबसे ऊंची, सबसे वेगवती, सबसे प्रबल और सबसे अधिक उल्लासमय इच्छा ही हमें उसकी ओर ले जायगी, पर उसमें हमारा स्थिर निश्चित वास तभी होगा जब सारी इच्छाएँ हममें से झड़कर गिर जायेंगी । एक अवस्था वह आयेगी जब हमें मुक्ति की इच्छा से भी मुक्त होना होगा ।
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