गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

राजगुह्य 

     यहाँतक जो सत्य क्रम से अधिकाधिक स्पष्ट रूप से प्रतिपादित हुआ और जिसके प्रतिपादन-क्रम के प्रत्येक सोपान के साथ संपूर्ण ज्ञान का एक-एक नवीन पहलू बराबर सामने आता गया और उसकी बुनियाद पर आध्यात्मिक अवस्था और कर्म की कोई-न-कोई विशेष बात प्रस्थापित हुई, उसी सत्य को अब एक ऐसे विषय की ओर फेरना है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है । इसलिए भगवान् आगे जो कुछ कहनेवाले हैं उसके निर्णायक स्वरूप की ओर, पहले ही, ध्यान दिला देते हैं जिसमें अर्जुन का मन सावधान हो और वह ध्यानपूर्वक सुने । क्योंकि भगवान् अब अर्जुन के अंतःकरण को 'समग्र' भगवान् के ज्ञान और दर्शन के सामने लाकर उसे ग्यारहवें अध्याय के उस विराट्  दर्शन के लिए प्रस्तुत करना चाहते हैं जिस दर्शन से ही कुरुक्षेत्र का यह योद्धा अपनी सत्ता, कर्म और उद्दिष्ट कार्य के उन प्रवर्त्तक और धारक को, मनुष्य और जगत् में निवास करनेवाले उन भगवान् को जान ले जो मनुष्य और जगत् में निवास करते हुए भी इनकी किसी चीज से सीमित या बद्ध नहीं हैं, क्योंकि सब कुछ उन्हींसे निकलता है, उन्हींकी अनन्त सत्ता में उसकी विस्तारित गतिविधि है, उन्हींके संकल्प के सहारे यह जारी है और स्थित है, यह जो कुछ है इसकी सार्थकता उन्हींके दिव्य आत्मज्ञान में है, वे ही सदा इसके मूल, इसके सार-तत्व और इसके पर्यवसान हैं । अर्जुन को यह जानना है कि वह उन्हीं एक भगवान् में रहता और उनकी जो शक्ति उसके अन्दर है उसीसे सब कुछ करता है, उसका सारा क्रियाकलाप भागवत कर्म का एक निमित्तमात्न है, उसकी अहमात्मक चेतना केवल एक आवरण है और उसके अज्ञान के निकट वह अंत:स्थित आत्मा का, परम पुरुष परमेश्वर के अमर स्फुलिंग और सनातन अंश का मिथ्या प्रतिभास मात्र है ।

 

      इस दर्शन का उद्देश्य यह है कि जो कुछ भी संशय उसके मन में बच रहा हो वह दूर हो जाय; वह उस कर्म के लिए सशक्त बन जाय जिससे वह हट गया है पर जिसे करने का उसे ऐसा आदेश प्राप्त हुआ है जिसे न वह बदल सकता है न उससे हट ही सकता है--हटना उस अंत:स्थित भगवत्संकल्प और भगवदादेश

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को ही अमान्य और अस्वीकार कर देना होगा जो उसकी वैयक्तिक चेतना में तो प्रकट हो ही चुका है पर अब शीघ्र ही महत्तर और वैश्व आदेश का रूप ग्रहण करनेवाला है । क्योंकि अब वह विश्वरूप उसे भगवान् का वह शरीर भासता है जिसके अन्दर कालात्मा निवास करते हैं और अपनी महान् और भयावनी वाणी से उसे संग्राम करने का भीषण कर्म सौंपते हैं । उससे कहा जाता है कि इसके द्वारा वह अपनी आत्मा को मुक्त कर ले और विश्व के इस रहस्याभिनय में अपना कर्तव्य पूरा करे-मुक्ति और कर्म दोनों एक ही व्यापार बन जायँ । जैसे-जैसे आत्मज्ञान तथा ईश्वर और प्रकृति के ज्ञान का प्रकाश उसके सामने लाया जा रहा है वैसे-वैसे उसकी बौद्धिक शंकाएँ दूर होती जा रही हैं । पर बौद्धिक समाधान ही पर्याप्त नहीं है; उसे अंतर्दृष्टि से देखना होगा और अपनी बाह्य अंध मानव-दृष्टि को प्रकाशित करना होगा, ताकि अपने संपूर्ण आधार की अनुकूलता के साथ, अपने सर्वांग की पूर्ण श्रद्धा के साथ, तथा अपनी आत्मा की आत्मा, और सारी सत्ता के स्वामी, जो जगत् की आत्मा और जगत् के सब भूतों के स्वामी हैं उनकी पूर्ण भक्ति के साथ वह कर्म कर सके ।

 

      अबतक जो कुछ कहा गया उससे ज्ञान की नींव डाली गयी या यूं कहें कि उसकी प्रथमावश्यक सामग्री या पाड़ उपस्थित की गयी, पर अब इमारत का पूरा ढाँचा, नक्शा उसकी खुली हुई दृष्टि के सामने रखा जानेवाला है । इसके आगे जो विवरण आयेगा उसका अपना बड़ा महत्व होगा, क्योंकि इससे ढाँचे के सब हिस्से अलग-अलग दिखाये जायँगे और यह बतलाया जायगा कि कौन-सी चीज क्या है; पर सारत:  जो भगवान् उससे बात कर रहे हैं उन्हींका समग्र ज्ञान उसके नेत्रों के सामने खोल दिया जायगा, ताकि उसके लिए साक्षास्कार करने के सिवा और कोई चारा ही न रहे । अबतक जो प्रतिपादन हुआ उससे उसे यह पता चला कि वह अपने उस अज्ञान और अहंभावप्रयुक्त कर्म के द्वारा अनिवार्य रूप से बँधा नहीं है, जिससे वह तबतक संतुष्ट था जबतक उससे प्राप्त होनेवाला आंशिक समाधान उसकी उस बुद्धि को संतुष्ट करने में अपर्याप्त न सिद्ध हुआ, जो जगत्कर्म के अंग-स्वरूप परस्पर-विरोधी दृश्यों के संघर्ष से घबरायी हुई थी, तथा उस हृदय को जो कर्मों की जटिलता से परेशान होकर यह अनुभव कर रहा था कि इससे बचने का उपाय तो केवल जीवन और कर्म का संन्यास ही है । उसे यह समझा दिया गया है कि कर्म और जीवनपद्धति के दो परस्परविरोधी मार्ग हैं, एक अहंभाव-युक्त अज्ञान-दशा का और दूसरा दिव्य पुरुष के निर्मल आत्मज्ञान का । वह चाहे तो वासना-कामना, काम-क्रोध के वश में होकर, निम्न प्रकृति के गुणों के द्वारा चालित 'अहं' रूप से, पाप-पुष्य और सुख-दु:खादि द्वन्द्वों के अधीन होकर, हार-

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जीत और सुफल-कुफल-रूप कर्मफलों का ही चिंतन करते हुए, संसार-चक्र में बँधे रहकर, मनुष्य के मन, चित्त, अहंकार और बुद्धि को अपने सतत परिवर्तन-शील और परस्परविरोधी रूपों और दृश्यों से चकरानेवाले कर्माकर्म और विकर्म के बड़े भारी जंजाल में पड़कर अपने कर्म कर सकता है । परन्तु अज्ञान के इन कर्मों से वह सर्वथा बँधा नहीं है; वह चाहे तो ज्ञानयुक्त कर्म कर सकता है । चाहे तो मनीषी, ज्ञानी और योगी होकर तथा पहले मोक्ष का साधक बनकर और पीछे मुक्त होकर कर्म कर सकता है । इस महती संभावना को समझ लेना और अपनी मन-बुद्धि को ज्ञान और आत्म-दर्शन में स्थित करना ही-जिससे कि वह सँभावना कार्यत: सिद्ध हो--दु:ख और घबराहट से तथा मानव-जीवन के गोरखधंधे से निकलने का रास्ता है ।

 

     हमारे अन्दर एक आत्मा है जो शान्त, कर्म से श्रेष्ठ और सम है । वह इस बाहरी गोरखधंधे से बँधी नहीं है, बल्कि इसको अध्यक्षरूप से धारण करनेवाली, इसका मूल और अंत:स्थित साक्षी है, पर है इससे अलिप्त । वह अनन्त है, सब कुछ उसके अन्दर है, सबकी एक अंतरात्मा है, प्रकृति के सारे कर्मको वह तटस्थ होकर देखती है और उसे प्रकृति के रूप में ही देखती है, अपने कर्म के रूप में नहीं । वह देखती है कि अहंकार, मन, बुद्धि, सब प्रकृति के यंत्न है और इन सबके कार्य प्रकृति की त्निगुण-वृत्तियों के बझे-उलझे हुए व्यापार से निर्धारित हुआ करते हैं । अज अविनाशी आत्मा इन सबसे मुक्त है । वह इनसे मुक्त है, क्योंकि वह जानती है कि प्रकृति और अहंकार तथा प्राणिमात्न का वैयक्तिक अस्तित्व ही संपूर्ण सत्ता नहीं है । कारण सत्ता केवल भूतभाव की निरंतर क्षरणशीलता का ही कोई शानदार या नि:सार आश्चर्यमय या शोकमय दृश्य नहीं है | और कोई वस्तु है जो सनातन है, अक्षर है, अविनाशी है, वह कालातीत सत्ता है जो प्रकृतिके विकारों से विकृत नहीं होती । वह इन सबका तटस्थ साक्षी है जो न विकार पैदा करता न विकृत होता है, जो न कर्म करता न कर्मका विषय बनता है, जो न पुण्यात्मा है न पापात्मा, प्रत्युत जो नित्य शुद्ध, पूर्ण, महान् और अक्षत है । अहंभावापन्न जीव को जो कुछ दु:ख देता या मोहित करता है उससे इसे न कोई दु:ख होता है न हर्ष, यह किसीका मित्र नहीं, किसीका शत्रु नहीं, प्रत्युत सबकी एक सम आत्मा है । मनुष्य को अभी इस आत्मा का बोध नहीं है क्योंकि वह अपने बहिर्मुख मनमें लिपटा है और अंतर्मुख होकर रहना नहीं सीखना चाहता या नहीं सीख पाया है; वह अपने-आपको अपने कर्म से अलिप्त नहीं रखता, उससे हटकर उसे प्रकृति का कर्म जानकर उसका साक्षी नहीं बनता । अहंकार ही बाधक है, भ्रांतिके चक्रका यही अवैध बंध-विधान है; इस अहंकार का जीव की आत्मा में लय हो जाना ही

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मुक्ति का आद्य साधन है । बुद्धि और अहंकार मात्र ही बने रहना छोड़कर आत्मा हो जाना ही मुक्ति के इस संदेशका आद्य वचन है ।

 

     इसलिए अर्जुनको यह आदेश हुआ कि वह पहले अपने कर्मों की सारी फलेच्छा त्याग दे और जो कुछ कर्तव्य कर्म है उसे ही निष्काम और निरपेक्ष भाव से करे--फल इस विश्व के सारे कर्मकलाप के स्वामी के लिए छोड़ दे । वह स्वयं तो स्वामी ही नहीं, उसके वैयक्तिक अहंकार की तृप्ति के लिए प्रकृति का यह विविध संचालन नहीं हो रहा है, न उसकी इच्छाओं और पसंदों को पूरा करने के लिए ही विश्वजीवन चल रहा है, न बौद्धिक मत, निर्णय और मानोंका समर्थन करने के लिए ही यह विश्वमानस कर्म कर रहा है और न उसकी जरासी बुद्धिके इजलासमें विश्वमानस को अपने विश्वब्रह्माण्डव्यापी उद्देश्यों या अपनी जागतिक कर्मपद्धतियों और हेतुओं को पेश करना है । ऐसे दावे तो उन अज्ञानी जीवों के ही हो सकते हैं जो अपने व्यष्टिभाव में रहते हैं और उसीके अकिंचित् और अत्यंत संकुचित मान से ही सबबातें देखा करते हैं । सबसे पहले उसे जगत् पर उसकी जो अहंकारमय मांग है उससे पीछे हटना होगा और यह मानकर कि करोड़ों प्राणियों में से यह एक मैं भी हूँ, कर्म करके उस फल के लिए अपने प्रयत्न और श्रम का हिस्सा अदा करना होगा जो उसके द्वारा नहीं बल्कि विश्वव्यापी कर्म और हेतु से निर्धारित हुआ । फिर इसके बाद उसे अपने कर्तापन का भी ख्याल छोड़ देना होगा और व्यष्टिभाव से सर्वथा मुक्त होकर यह देखना होगा कि विश्वबुद्धि, विश्वसंकल्प, विश्वमानस, विश्वजीवन ही उसके अन्दर और सबके अन्दर कर्म कर रहा है । प्रकृति ही वैश्व कर्त्री है, उसके कर्म प्रकृति के कर्म हैं ठीक वैसे ही जैसे कि उसके अन्दर प्रकृति के कर्मफल उस महान् फल के अंशमात्र है जिसकी ओर वह शक्ति, जो उससे (व्यष्टिपुरुषसे ) महान् है, विश्वकर्म को ले जाती है । यदि वह इन दो बातों को अध्यात्मत: साध ले तो उसके कर्मों का बंधन उससे बहुत दूर छूट जायगा, क्योंकि इस बंधन की ग्रंथि तो उसकी अहंकारमय वासना और उस वासना के कर्म में है । तब काम-क्रोध, पाप और वैयक्तिक सुख-दु:ख उसकी अंतरात्मा से झड़ जायेंगे और वह आत्मा शुद्ध, महान्, प्रशान्त और सब प्राणियों और पदार्थों के लिए सम होकर अन्दर रहेगी । अन्त:करण में कर्म की कोई प्रतिक्रिया न होगी और उसका कोई दाग या निशान उसकी आत्मा की विशुद्धता और शान्ति पर न रहेगा । उसे अंत:सुख, विश्रांति, स्वच्छंदता और मुक्त अलिप्त आत्मसत्ताका अखण्ड आनन्द प्राप्त होगा । फिर उसके अन्दर या बाहर कहीं वह पुराना क्षुद्र व्यष्टिभाव नहीं रह जायगा, क्योंकि वह अपने-आपको सचेतन रूप से सबके साथ एकात्म अनुभव करेगा और उसकी बाह्य प्रकृति भी उसकी अनुभूति में विश्वगत बुद्धि, विश्वगत जीवन और

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विश्वगत इच्छाका एक अभिन्न अंश हो जायगी । उसकी पृथग्भुत अहंभावापन्न वैयक्तिक सत्ता निर्व्यक्तिक ब्रह्मसत्ता में मिलकर लीन हो जायगी; उसकी पृथग्भूत अहंभावापन्न प्रकृति विश्वप्रकृति के अखिल कर्म के साथ एक हो जायगी ।

 

     परन्तु इस प्रकार की मुक्ति साथ-साथ रहनेवाली, पर अभी तक यहाँ जिनकी संगति साधित नहीं हुई ऐसी, दो अनुभूतियों पर निर्भर है--विशद आत्मदर्शन और विशद प्रकृति-दर्शन । यह वह वैज्ञानिक और बौद्धिक उपरामता नहीं है जो उस जड़वादी दार्शनिक के लिए भी सर्वथा संभव है जिसके सामने किसी-न-किसी प्रकार से केवल प्रकृति का स्वरूप भासित हो गया है तथा जिसे अपनी आत्मा और आत्मसत्ता की कोई प्रतीति नहीं हुई, न यह उस बाह्य शून्यवादी साधु की ही बौद्धिक तटस्थता है जो अपनी बुद्धि के प्रकाशपूर्ण उपयोग के द्वारा अपने अहंकार के उन रूपों से छुटकारा पा जाता है जो अधिक सीमित करनेवाले और उपाधि करनेवाले होते हैं । यह उससे महान्, उससे अधिक जीवंत, अधिक पूर्ण आध्यात्मिक तटस्थता है जो उस परम वस्तु के दर्शन से प्राप्त होती है जो प्रकृति से बृहत्तर और मन-बुद्धि से महत्तर है । परन्तु यह उपरति भी मुक्ति और आत्मसाक्षात्कार की एक प्रारंभिक गुह्यावस्था है, भागवत रहस्य का पूरा सूत्र नहीं । क्योंकि, इतने से ही प्रकृति का सारा रहस्य नहीं खुल जाता और सत्ता का कर्म करनेवाला प्रकृतिरूप अंश आत्मस्वरूप और तटस्थ आत्मसत्ता से अलग रह जाता है । भागवत तटस्थता तो वह चीज होनी चाहिए जो प्रकृति में भागवत कर्म की नींव हो, जो अहंभाव से कर्म करने की पहले की अवस्था का स्थान ले ले; भागवत शान्ति भी वह शान्ति होनी चाहिए जो भागवत कर्म और शक्तिप्रवाह का आश्रय बने । यह महत् सत्य गीता के वक्ता भगवान् श्रीगुरु बराबर ही अपने सामने रखे हुए थे और इसीलिए वे परमेश्वर के प्रीत्यर्थ यज्ञरूप कर्म करने और परमेश्वर को अपने सब कर्मों का स्वामी मानने की बात पर तथा अवतार-तत्व और दिव्य जन्म के सिद्धान्त पर इतना जोर दे रहे थे, पर अभी तक इसे जिस पराशान्तिरूपा मुक्ति का होना सबसे पहले आवश्यक है उसके एक गौण भाग के तौर पर ही कहते आये हैं । केवल उन्हीं सत्यों का यहाँ तक पूर्ण प्रतिपादन किया गया और उनका पूर्ण प्रभाव और आशय प्रकट किया गया जो ब्राह्मी शान्ति, उदासीनता, समता और एकता अर्थात् अक्षर ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करने और उसकी अभिव्यक्ति में साधक हैं । दूसरे महान् और आवश्यक ज्ञेय और उसी सत्य के पूरक भाग पर अभी तक पूरा प्रकाश नहीं डाला गया है, समय-समय पर उसका संकेतमात्न किया गया है, पर पूर्ण प्रतिपादन नहीं । अब आगे के अध्यायों में उसीको बड़ी शीघ्रता के साथ प्रकट किया जा रहा है ।

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      भगबदवतार जगद्गुरु श्रीकृष्ण, जो इस जगत्कर्म में मानव .जीव के सारथी हैं, अपने रहस्य को, प्रकृति के गूढ़तम रहस्य को खोलने की भूमिका ही यहाँतक बाँधते चले आये हैं । इस भूमिका में उन्होंने एक तार बराबर बजता हुआ रखा है जिसका स्वर उनके समग्र स्वरूप के महान् चरम समन्वय की सूचना और पूर्वाभास बराबर देता रहा है । वह स्वर इस बात की झंकार है कि एक परम पुरुष परमेश्वर हैं जो मनुष्य और प्रकृति के अन्दर निवास करते हैं पर प्रकृति और मनुष्य से महान् हैं, आत्मा के निर्व्यक्तिक भाव की साधना से ही उनकी उपलब्धि होती है पर यह निर्व्यक्तिक भाव ही उनकी संपूर्ण सत्ता नहीं है । बार-बार बड़े आग्रह के साथ आनेवाली उस बात का आशय अब यहाँ आकर खुलता है । ये ही विश्वात्मा और मनुष्य और प्रकृति में निवास करनेवाले वह एकमेव परमेश्वर हैं जो रथ पर आरूढ़ जगद्गुरु की वाणी के द्वारा यह बताने की भूमिका बाँध रहे थे कि मैं ही सबका जागरित द्रष्टा और सब कर्मों का कर्ता हूँ । वे यही बतला रहे थे कि, ''मैं जो तेरे अन्दर हूँ, जो मानवशरीर में यहाँ हूँ, जिसके लिए यह सब कुछ है और जिसके लिए यह सारा कर्म और प्रयास हो रहा है, वही मैं एक ही साथ स्वयंभू आत्मा और इस अखिल विश्वकर्म का अंत:स्थित गूढ़ तत्व हूँ । यह ''अहम्'' (मैं ) वह महान् अहम् है जिसका विशालतम मानव व्यक्तित्व केवल एक अंश और खण्डमात्र आविर्भाव है, स्वयं प्रकृति उसकी एक कनिष्ठ कर्म-प्रणाली है । जीव का स्वामी, अखिल विश्वकर्म का प्रभु मैं ही एकमात्र ज्योति, एकमात्र शक्ति और एकमात्र सत्ता हूँ । तेरे अन्दर निवास करनेवाला यह परमेश्वर जगद्गुरु है, ज्ञान की उस निर्मल ज्योति को प्रकट करनेवाला सूर्य है जिस ज्योति के प्रकाश में तू अपनी अक्षर आत्मा और क्षर प्रकृति के बीच का भेद स्वानुभव से जान लेता है । पर इस प्रकाश के भी परे उसके मूल की ओर देख; तब तू उस परम पुरुष को जान लेगा जिसे प्राप्त होकर अपने व्यष्टिभाव और प्रकृति का सारा आध्यात्मिक रहस्य तेरे सामने खुल जायगा । तब सब भूतों में उसी एक आत्मा को देख, ताकि सबके अन्दर तू मुझे देख सके; सब भूतों को एक ही आत्मा एवं आत्मसत्ता के अन्दर देख; क्योंकि सबको मेरे अन्दर देखने का यही एक रास्ता है; सबके अन्दर एक ब्रह्म को जान जिसमें तू उस ईश्वर को देख सके जो परब्रह्म है । अपने-आपको-अपनी आत्मा को जान ले, अपनी आत्मा बन जा ताकि तू मेरे साथ युक्त हो सके और देख सके कि यह कालातीत आत्मा मेरी निर्मल ज्योति या पारदर्शक परदा है । मैं परमेश्वर ही आत्मा और ब्रह्म का आधारस्वरूप परम सत्य हूँ ।''  

 

     अर्जुन को यह देखना है कि वे ही एक परमेश्वर केवल आत्मा और ब्रह्म का ही नहीं, बल्कि प्रकृति और उसके अपने व्यष्टिगत जीव-भाव का मूलभूत परतर

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सत्य हैं, व्यष्टि-समष्टि दोनों का एक साथ ही गूढ़ रहस्य हैं । वही भागवत संकल्प-शक्ति प्रकृति में सर्वत्र व्यापक है और प्रकृति के जो कर्म जीव के द्वारा होते हैं उनसे वह महान् है, मनुष्य और प्रकृति के कर्म और उनके फल उसीके अधीन हैं । इसलिए अर्जुन को यज्ञ के लिए कर्म करना चाहिए, क्योंकि उसके कर्मों का तथा सभी कर्मों का वही आधारभूत सत्य है । प्रकृति कर्मकर्त्नी है, अहंकार नहीं; पर प्रकृति उन पुरुष की केवल एक शक्ति है जो उसके सब कर्मों, शक्तियों और विश्व-यज्ञ के सब कालों के अधिपति हैं । इस प्रकार अर्जुन के सब कर्म उन परम पुरुष के हैं, इसलिए उसे चाहिए कि वह अपने सब कर्म अपने और जगत् के अंतःस्थित भगवान् को समर्पित करे जिनके द्वारा ये सब कर्म भागवत रहस्यमय प्रकृति के अन्दर हुआ करते हैं । जीव के दिव्य जन्म की, अहंकार और शरीर की मर्त्यता से निकल सनातनी ब्राह्मी स्थिति मे आ जाने की यह द्विविध अवस्था है--पहले अपने कालातीत अक्षर आत्मस्वरूप के ज्ञान की प्राप्ति है और फिर उस ज्ञान के द्वारा कालातीत परमेश्वर से योगयुक्त होना है, साथ ही उन परमेश्वर को जानना है जो इस विश्व की पहेली के पीछे छिपे हैं, जो सब भूतों और उनकी क्रियाओं में स्थित हैं । केवल इसी रूप से हम अपनी समस्त प्रकृति और सत्ता समर्पित कर उन एक परमेश्वर के साथ, जो दिक्काल के अन्दर यह सब कुछ बने हैं, जीते-जागते योग से युक्त होने की अभीप्सा कर सकते हैं । संपूर्ण मोक्ष प्रदान करनेवाले योग की पद्धति में यहीं भक्ति का स्थान आता है । यह उस वस्तु की उपासना और उसकी ओर अपना हृदय लगाना है जो अक्षर ब्रह्म या क्षर प्रकृति से महान् है । संपूर्ण ज्ञान यहाँ पूजा-अर्चा बन जाता है और सारे कर्म भी पूजा-अर्चा ही बन जाते हैं । इस पूजामें प्रकृतिके कर्म और आत्मा की मुक्त स्थिति एक होकर परमेश्वर की ओर उठने की शक्ति बन जाते हैं । परामुक्ति अर्थात् इस निम्न प्रकृति से निकलकर उस परब्रह्म-भाव को प्राप्त होना जीव का निर्वाण (जीवज्योति का बुझ जाना ) नहीं है--केवल उसके अहंकार का बुझ जाना है--बल्कि हमारे ज्ञान-कर्म-भक्तियुत संपूर्ण जीव-भाव का इस विश्व के अन्दर बँधकर नहीं, किन्तु इस बंधन से निकलकर अपनी विश्वातीत सत्तामें स्थित होना है, जीव की यह परिपूर्णता है, नाश नहीं ।

 

     अर्जुन की बुद्धि को यह ज्ञान अच्छी तरह स्पष्ट कर देने के लिए भगवान् सर्वप्रथम दो अवशिष्ट शंकाओं का समाधान कर देते हैं--एक शंका है निर्व्यक्तिक ब्रह्म और मानव जीव के बीच की असंगति के संबंध में और दूसरी पुरुष और प्रकृति के बीच की असंगति के संबंध में । ये दो असंगतियाँ जबतक बनी हैं तबतक प्रकृति और मनुष्य में स्थित परमेश्वर की सत्ता छिपी ही रह जाती है और बुद्धि विसंगत और अविश्वसनीय प्रतीत होती है । प्रकृति को त्रिगुण का अचेतन

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बंधनमात्र कहा गया है और जीव को उस बंधन में बँधा हुआ एक अहंभावापन्न प्राणी । परन्तु प्रकृति और पुरुष की यही सारी मीमांसा हो तो वे दोनों न तो दिव्य हैं न हो सकते हैं । उस हालत में प्रकृति, जो अज्ञ और जड़ है, ईश्वर की कोई शक्ति नहीं हो सकती; क्योंकि जो ईश्वरीय शक्ति अपनी क्रिया में स्वच्छन्द होगी, उसका मूल आध्यात्मिक होगा और उसकी महत्ता भी आध्यात्मिक ही होगी । इसी प्रकार, जीव भी जो प्रकृति में बँधा, अहंकारयुक्त और केवल मनोमय, प्राणमय और अन्नमय है, भगवान् का अंश नहीं हो सकता न स्वयंकोईअप्राकृत पुरुष ही; क्योंकि ऐसा ईश्वर-अंशभूत जीवात्मा होना उसका तभी बन सकता है जब वह स्वयं भगवत्स्वभाववाला हो, मुक्त, आत्म-स्वरूप, स्वत:प्रवृत्त और प्रवर्धमान, स्वत:सिद्ध, मन-प्राण-शरीर से ऊर्ध्व में स्थित हो । इन असंगतियों से उत्पन्न होनेवाली दोनों कठिनाइयों और आवरणों को सत्य की एक प्रकाशमय किरण ने हटा दिया है । जड़ प्रकृति केवल एक अपर सत्य है, अपरा प्रकृति के कार्य की एक पद्धतिमात्न है । इससे श्रेष्ठ एक और प्रकृति है और वह आध्यात्मिक है और वही हमारे वैयक्तिक आत्मस्वरूप का स्वभाव है, हमारा वास्तविक व्यक्तित्व है । भगवान् एक ही साथ अव्यक्त ब्रह्म और व्यक्त होनेवाले पुरुष है । उनका अव्यक्त स्वरूप हमारी बौद्धिक अनुभूति में एक कालातीत सत्ता, चेतना और आनन्दभाव है; उनका व्यक्त रूप सत्ता की सचेतन शक्ति ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का एक चिन्मय केन्द्र और आत्माविर्भाव के नानात्व के आनन्द का एक प्रतीक है । हम अपनी सत्ता के स्थितिशील वास्तविक स्वरूप में वही एक अव्यक्त ब्रह्म हैं, हममें से हर कोई अपने वैयक्तिक आत्मभाव से उसी एक मूल शक्ति का नानात्व है । फिर भी जो भेद और तारतम्य सर्वत्र देख पड़ता है वह केवल आत्मा के आविर्भाव के लिए है; इस अव्यक्त रूप के पीछे जाकर कोई देखे तो यही रूप अनन्त बह्मस्वरूप, परम पुरुष, परमात्मा भी है । यही वह महान् अहम्-'सोऽम्'(मैं वह हूँ ) है जिसमें से सारे व्यष्टि-जीवभाव और स्वभाव निकलते और एक निर्व्यक्तिक समष्टि-जगत् के रूप में अपनेको नाना भाव से प्रकट करते हैं । "सर्व खल्विदं बह्य"  यही उपनिषदें कहती हैं; क्योंकि ब्रह्म एकमेव आत्मा है जो अपने-आपको क्रम से चैतन्य के चार पदों पर प्रतिष्ठित देखता है । सनातन पुरुष वासुदेव ही सब कुछ हैं, यही गीता का कथन है । वे ही ब्रह्म हैं और वे ही सचेतन रूप से अपनी परा आत्म-प्रकृति से सबके आश्रय बनते और सबको उत्पन्न करते हैं, स्वयं ही सचेतन रूप से बुद्धि, मन, प्राथ, इन्द्रिय और इस सारे बाह्य स्थूल जगत्वाली प्रकृति की सब चीजें बनते हैं । सनातन पुरुष की उस परो आत्मप्रकृति में, अपने सनातन नानात्व में, सचेतन शक्ति के

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विविध केन्द्रों से अपने आत्मदर्शन में वे ही जीव हैं । ईश्वर, प्रकृति और जीव एक सद्वस्तु के तीन नाम हैं और ये तीनों एक ही सत्ता हैं ।

 

    यह सत्ता, यह सदात्मा किस प्रकार विश्वरूप में आविर्भूत होती है ? पहले, अक्षर कालातीत उस आत्मा या ब्रह्म के रूप से जो सर्वत्र अवस्थित है और सबको आश्रय देती है, जो अपनी सनातनी सत्ता से सत्तावान् है, संभूति नहीं । इसके उपरांत, इसी सत्ता पर आश्रित, स्वयं सृष्ट होने की एक ऐसी मूलगत शक्ति या अध्यात्म तत्व है जिसे स्वभाव कहते हैं, जिसके द्वारा यह सदात्मा आत्मदृष्टि से अपने अन्दर देखकर यह सब जो उसकी अपनी सत्ता के अन्दर छिपा या समाविष्ट रहता है उसे अपने संकल्प में ले आता और प्रकट करता है, उसे उस सुप्तावस्था से निकालकर उत्पन्न करता है । वह अध्यात्म-तत्व या स्वभाव-शक्ति आत्मा के अन्दर इस प्रकार जो कुछ संकल्पित होता है उसे अखिल विश्व-कर्म के रूप में बाहर छोड़ती है । सारी सृष्टि यही क्रिया है, स्वभाव की यही प्रवृत्ति है, यही तो कर्म है । परन्तु वह यहाँ बुद्धि, मन, प्राण, इन्द्रिय और स्थुल प्राकृत विषयों की क्षर प्रकृति के रूप में विकसित हुई है जो निरपेक्ष प्रकाश से विच्छिन्न होकर अज्ञान से सीमित है । वहाँ अपने मूल रूप में इसकी सारी क्रियाएँ प्रकृति में स्थित जीवात्मा की, प्रकृति में गुप्त रूप से स्थित परमात्मा के लिए यज्ञस्वरूप होती हैं । इस तरह परमेश्वर सब प्राणियों के अन्दर उनके यज्ञ के भोक्ता स्वामी के रूप में निवास करते हैं, उन्हींकी सत्ता और शक्ति से उसका नियमन और उन्हींके आत्मज्ञान और आत्मानन्द से उसका ग्रहण होता है । इसको जानना ही जगत् को वास्तविक रूप से जानना, जगद्व्यापक जगदीश्वर के दर्शन करना और अज्ञान से निकलने का द्वार ढूँढ़ लेना है । क्योंकि यह ज्ञान, अपने सब कर्म और अपनी सारी चेतना सर्वभूतों में स्थित भगवान् को समर्पित कर देने से, मनुष्य के लिये अमोघ होकर उसे अपनी आत्मसत्ता में फिर से लौट आने और उस आत्मसत्ता के द्वारा इस क्षर प्रकृति के ऊर्ध्व में स्थित जो विश्व से परे ज्योतिर्मय सनातन सत्तत्व है उसे प्राप्त होने में समर्थ बना देता है ।

 

    यही आत्मसत्ता का रहस्य है और अब गीता इसे प्रचुर फलवत्ता के साथ हमारे आंतरिक जीवन और बाह्य कर्म के लिए प्रयुक्त करना च है । गीता अब जो बात कहनेवाली है वह गुह्यतम रहस्य है ।  यह समग्र भगवान्, ''समग्रं माम्'' का वह ज्ञान है जिसे अर्जुन को प्रदान करने की प्रतिज्ञा उसके प्रभु ने की है, वह मूल स्वरूप ज्ञान अपने सब तत्वों में अपने पूर्ण ज्ञान के साथ है जिसे जान लेने पर जानने के लिये और कुछ नहीं रह जाता । अज्ञान की वह ग्रंथि जिसने

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गीता अ० ६,   श्लोक १-३

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अबतक उसकी मानव-बुद्धि को मोहित कर रखा था और जिससे उसका मन अपने भगवन्नियत कर्म से फिर गया था, अब ज्ञान-विज्ञान से छिन्न-भिन्न हो जायगी । यह सब ज्ञानों,  का ज्ञान, सब गुह्यों का गुह्य, राजविद्या, राजगुह्य है । यह वह पवित्र परम प्रकाश है जो प्रत्यक्ष आत्मानुभव से जाना जा सकता है और कोई भी इस सत्य को अपने अन्दर देख सकता है: यही यथार्थ और वास्तविक ज्ञान है, सच्ची आत्मविद्या है । इसका साधन, इसे ग्रहण करने, देख लेने और सच्चाई से पालन करने का प्रयास करने से, सहज ही बनता है ।

 

    पर इसके लिए श्रद्धा की आवश्यकता है; यदि श्रद्धा न हो, यदि उस तार्किक बुद्धि का ही भरोसा हो जो बाह्य विषयों के भरोसे चलती है और ईर्ष्या के साथ अन्तर्दृष्ट ज्ञान पर इस कारण संदेह करती है कि वह बाह्य प्रकृति के भेदों और अपूर्णताओं के साथ मेल नहीं खाता और बुद्धि के परे की चीज मालूम होता तथा कोई ऐसी बात बतलाता जान पड़ता है जो हमें हमारी वर्तमान अवस्था की मूलभूत खास बातों का ही जैसे दु:, क्लेश, पाप, दोष, प्रमाद और स्खलन अर्थात् संपूर्ण अशुभ का ही हमसे अतिक्रम कराती है--यदि वैसी बुद्धि का ही भरोसा है--तों उस महत्तर ज्ञान से युक्त जीवन की कोई संभावना नहीं है । यदि उस महत्तर सत्य और विधान पर जीव की श्रद्धा न जमे तो उसे मृत्यु, प्रमाद और अशुभ के अधीन रहकर सामान्य मर्त्य जीवन जीने के लिए लौट आना पड़ेगा; उन परमेश्वर के स्वरूप में वह विकसित नहीं हो सकता जिनकी सत्ता को ही वह अमान्य करता है । क्योंकि यह एक ऐसा सत्य है जो जीवन में लाना पड़ता है, जो जीव के बढ़ते हुए आत्मप्रकाश में जीकर जानना पड़ता है, मन-बुद्धि के अंधकार में तर्क से टटोलकर नहीं जाना जाता । उसीके रूप में विकसित होना होता है, वही हो जाना होता है--उसकी सत्यता परखने का एकमात्र यही मार्ग है । निम्नगतिक जीवभाव को पार करके ही कोई वास्तविक भगवदीय दिव्यात्मा बनकर वास्तविक आत्मसत्ता को सत्य आचरण में ला सकता है । जितने भी सत्याभास इस एक सत्य के विरोध में खड़े किये जा सकते हैं वे सब निम्न प्रकृति के रूप हैं । निम्न प्रकृति के इस अशुभ से मुक्त होना उस परतर ज्ञान को ग्रहण करने से ही बन सकता है जिसमें यह सत्याभास, यह अशुभ अपने स्वरूप का अंतत: मिथ्या होना जान लेता है, यह स्पष्ट देख पड़ता है कि यह हमारे अंधकार की सृष्टि थी । पर इस प्रकार दिव्य परा आत्मप्रकृति के मुक्त भाव की ओर विकसित होने के लिए यह आवश्यक है कि हमें यह विश्वास हो जाय कि हमारी इस वर्तमान सीमित प्रकृति में भगवान् गुप्त रूप से निवास करते हैं और भगवान् को हम वरण कर लें । जिस कारण से यह योग संभावित और सुखसाध्य होता

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है वह कारण यही है कि इसका साधन करने में हम अपनी संपूर्ण प्रकृति का व्यापार उन्हीं अंतस्थ भगवान् के हाथों में सौंप देते हैं । भगवान् हमारी सत्ता अपनी सत्ता में मिलाकर और अपने ज्ञान और शक्ति को, 'ज्ञानदीपेन भास्वता' उसमें भरकर सहज, अचूक रीति से हमारे अन्दर क्रम से हमारा दिव्य जन्म कराते हैं; हमारी तमसाच्छन्न अज्ञानमयी प्रकृति को अपने हाथों में ले लेते और अपने प्रकाश और व्यापक भाव में रूपान्तरित कर देते हैं । हम जो कुछ पूर्ण विश्वास के साथ और अहंकार-रहित होकर मान लेते और उनके द्वारा प्रेरित होकर होना चाहते हैं, उसे अंतस्थ भगवान् निश्चय ही सिद्ध कर देते हैं । परन्तु पहले अहंभावापन्न मन-बुद्धि और प्राण को अर्थात् इस समय हम जो कुछ हैं या भासित होते हैं उसे इस दिव्यता-लाभ के लिए हमारे अन्दर जो अंतस्तम गुप्त भगवत्स्वरूप है, उसकी शरण लेनी होगी ।

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