गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

समत्व

     ज्ञान, निष्कामता, नैर्व्यक्तिकता, समता, स्वत:स्थित आंतर शान्ति और आनन्द, प्रकृति के त्रिगुण के मायाजाल से छुटकारा या कम-से-कम उससे ऊपर उठे रहने की स्थिति, ये सब मुक्त पुरुष के लक्षण हैं और इसलिए इन सब लक्षणों को उसके समस्त कर्मों में वर्तमान रहना चाहिए । ये आत्मा की अविचल शान्ति के आधार हैं, वह शान्ति जिसको आत्मा संसार की समस्त क्रियाओं, आघातों और शक्ति-संघर्षों से घिरा हुआ होने पर भी अपने अन्दर बनाये रहती है । यह शान्ति समस्त क्षरभावों में वर्तमान ब्रह्म के सम अक्षर भाव को प्रति-भासित करती है और यह उस अविभाज्य और सम एकता की शान्ति है, जो संसार के समस्त बहुत्वों में सदा ओत-प्रोत रहती है । कारण जगत् के असंख्य भेदों और वैषम्यों के बीच समस्वरूप और सबको समरूप करनेवाली आत्मा ही वह एकता है; और आत्मा का यह समत्व ही एकमात्र वास्तविक समत्व है । जगत् के अन्य सब पदार्थों में केवल सादृश्य, समायोजन और संतुलन ही हो सकता है, किन्तु जगत् के बड़े-से-बड़े सादृश्यों में भी वैषम्य और असदृशता के भेद नजर आते हैं और जगत् में जो समायोजित संतुलन होता है वह विषम वजनों को मिलाकर तौल बराबर करने की प्रक्रिया से ही होता है ।

    इसीलिए गीता में कर्मयोग के जो तत्व बतलाये गये हैं उनमें समत्व को इतना अधिक महत्व दिया गया है; वह जगत् के साथ मुक्त आत्मा के मुक्त सम्बन्ध को जोड़नेवाली गाँठ है । आत्मज्ञान, निष्कामता, नैर्व्यक्तिकता, आनन्द, निस्तै-गुण्य, ये सब जब अंतर्मुख, अपने-आपमें लवलीन और निष्क्रिय हों तो इन्हें समत्व की कोई आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि वहाँ उन पदार्थों का भान ही नहीं जिनमें सम-विषम का द्वन्द्व उत्पन्न होता है । परन्तु ज्योंही आत्मा प्रकृतिकर्म के बहुत्वों, व्यक्तित्वों, विभेदों और विषमताओं का भान करके उनसे व्यवहार करने लगती है त्योंही उसे अपने मुक्त स्वरूप के इन अन्य लक्षणों को व्यवहार में लाने के लिए अपने अद्वितीय प्रकट चिह्न समत्व का आश्रय लेना पड़ता है । ज्ञान है एकमेवाद्वितीय के साथ एकता का बोध और इसे जगत् की नानाविध सत्ताओ

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और अस्तित्वों के साथ अपने सम्बन्ध में यह प्रकट करना होगा कि यह सबके साथ समान रूप से एक है । नैर्व्यक्तिकता है एक अक्षर आत्मा की संसार में अपने नानाविध व्यक्तित्वों की विभिन्नता से श्रेष्ठता और इसे जगत् के व्यक्तित्वों के साथ अपने व्यवहार में यह प्रकट करना होगा कि इसकी क्रिया सबके साथ समान रूप से और निष्पक्ष भाव से होती है, फिर विविध सम्बन्धों और परिस्थितियों के अंतर्गत होने के कारण इस क्रिया के बाह्य रूप चाहे अनेक प्रकार के क्यों न हों । इसीलिए श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि मेरा न कोई प्रिय है न द्वेष्य, मैं सबके लिए आत्मभाव में सम हूँ; फिर भी ईश्वर-प्रेमी मेरी कृपा को विशेष रूप से पाता है; क्योंकि उसने मेरे साथ विशेष सम्बन्ध स्थापित कर लिया है, और यद्यपि मैं सबका एक ही निष्पक्ष ईश्वर हूँ फिर भी मुझसे जो जैसे मिलता है उससे मैं वैसे ही मिलता हूँ । निष्कामता है जगत् के पृथक्-पृथक् काम्य विषयों के बंधनकारक आकर्षण से अनन्त आत्मा की श्रेष्ठता । और इसे जब उन विषयों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना हो तो वह निष्कामता इन विषयों के पाने पर सम निष्पक्ष उदासीनता के रूप में अथवा सबके लिए वैसे ही सम निष्पक्ष अनासक्त आनन्द और प्रेम के रूप में प्रकट होगी, क्योंकि ये आनन्द और प्रेम स्वतःसिद्ध होने के कारण विषयों के होने न होने पर निर्भर नहीं हैं बल्कि अपने स्वभाव में अविचल और अक्षर हैं । आत्मा-नन्द अपने अन्दर ही रहता है, और यदि इस आनन्द को जगत् के पदार्थों और प्राणियों से नाता जोड़ना हो तो वह इसी प्रकार अपनी मुक्त आत्मस्थिति को प्रकट कर सकता है । त्रैगुणातीत्य है चिर चंचल विषमस्वरूप प्रकृति के गुणकर्मों के प्रवाह से अविचल आत्मा की श्रेष्ठता, और यदि इसे प्रकृति की परस्पर-विरोधिनी और विषम क्रियाओं के साथ सम्बन्ध जोड़ना हो, यदि मुक्त आत्मा को अपने स्वभाव को कुछ भी कर्म करने देना हो तो उसे इस श्रेष्ठता को समस्त कर्मों, कर्म-फलों या घटनाओं के प्रति अपने निष्पक्ष समत्व के भाव के द्वारा ही प्रकट करना होगा ।

     समत्व ही मुमुक्षु का लक्षण और कसौटी है । जहाँ कहीं जीव में विषमता है वहाँ प्रकृति के गुणों की विषम क्रीड़ा प्रत्यक्ष है, वहाँ कामना का वेग है, व्यक्ति-गत इच्छा, भाव या कर्म का खेल है, सुख-दुःख की द्वन्द्वात्मक गति है या वह उद्विग्न या उद्वेगजनक आनन्द है जो सच्चा आध्यात्मिक आनन्द नहीं, बल्कि एक प्रकार की मानसिक तृप्ति है जिसके साथ अनिवार्य रूप से मानसिक अतृप्ति का प्रतिक्षेप या प्रतिरूप भी लगा रहता है । जीव में जहाँ कहीं विषमता है वहाँ ज्ञान से स्खलन है, सर्वसमाहारक और सर्वसमन्वयकारक ब्रह्मैक्य में और सचराचर जगत् के एकत्व में सुप्रतिष्ठ रहने का अभाव है । इस समत्व के द्वारा ही कर्मयोगी को कर्म करते समय भी यह ज्ञान रहता है कि वह मुक्त है ।

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     गीता ने जिस समत्व का विधान किया है उसका स्वरूप है आध्यात्मिक, वह अपने स्वभाव और व्यापकता में उच्च और विश्वव्यापी है और यही इस विषय में गीता के उपदेश की विशेषता है । नहीं तो समत्व का उपदेश मात्र देकर यह कहना कि 'यह मन, अनुभव और स्वभाव की एक अत्यंत वांछनीय अवस्था है जिसमें पहुँचकर हम मानव-दुर्बलता के ऊपर उठ जाते हैं,' गीता की अनूठी विशेषता नहीं है । ऐसा समत्व तो दार्शनिक आदर्श और साधु-महात्माओं के स्वभाव के तौर पर सदा ही सराहा गया है । गीता इस दार्शनिक आदर्श को स्वीकार अवश्य करती है पर उसे बहुत दूर ऐसे उच्च प्रदेशों में ले जाती है जहाँ हम अपने-आपको अधिक विशाल और विशुद्ध वातावरण में सांस लेते हुए पाते हैं । आत्मा की सुख-दुख-उपेक्षी स्टोइक स्थिति और दार्शनिक का सन्तुलन गीतोक्त समत्व की पहली और दूसरी पैड़ियाँ हैं जिनसे प्राणावेग के भंवरजाल और कामनाओं के मंथन से ऊपर उठकर देवताओं की नहीं प्रत्युत भगवान् की परम आत्म-वशित्वपूर्ण शान्ति और आनन्द तक पहुँचा जा सकता है । स्टोइक संप्रदायवालों की समता की धुरी है सदाचार और यह तापस सहिष्णुता के द्वारा प्राप्त आत्म-प्रभुत्व पर प्रतिष्ठित है; इससे अधिक सुख-साध्य और शान्त स्वरूप है दार्शनिकों की समता का, ये लोग ज्ञान के द्वारा, अनासक्ति के द्वारा और हमारे प्राकृत स्वभावसुलभ विक्षोभों से ऊपर उठी हुई उच्च बौद्धिक उदासीनता के द्वारा आत्म-वशित्व प्राप्त करना अधिक पसन्द करते हैं, इसीको गीता ने कहा है उदासीनवदासीन: ।'   एक धार्मिक या ईसाई ढंग की समता भी है जिसका स्वरूप है भगवदिच्छा के सामने सदा नत होकर, घुटने टेककर झुके रहना या साष्टांग प्रणिपात के द्वारा भगवान् की इच्छा को सिर माथे चढ़ाना |  दिव्य शान्ति के ये तीन साधन-सोपान हैं- वीरोचित सहनशीलता, विवेकपूर्ण विरक्ति और धर्मनिष्ठ समर्पण या तितिक्षा, उदासीनता और नति । गीता अपने समन्वय के उदार ढंग में इन सभी का समावेश कर लेती है और अपनी आत्मा की ऊर्ध्व गति में उन्हें सन्निविष्ट कर लेती है । वह इन तीनों की जड़ को अधिक गहराई में जमाती, प्रत्येक का लक्ष्य अधिक व्यापक बनाती और प्रत्येक में सर्वव्यापक और सर्वातीत परम अर्थ भर देती है । कारण गीता इनमें से प्रत्येक को इनका आध्यात्मिक मूल्य और इनकी आध्यात्मिक सत्ता की शक्ति देती है, जो चरित्नबलसाधन के आयास, बुद्धि की कठिन समस्थिति और भावावेगों के झोंके से परे की चीज है ।

     सामान्य मानव को प्राकृत जीवन के चिर-अभ्यस्त विक्षोभों से एक तरह का सुख मिलता है; और चूंकि उसे उनमें सुख मिलता है और इस सुख से सुखी होकर वह निम्न प्रकृति की अशांत क्रीड़ा को अपनी अनुमति देता है इसलिए त्निगुणा-

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त्मिका प्रकृति की यह क्रीड़ा सदा चलती रहती हैकारण प्रकृति जो कुछ करती है वह अपने प्रेमी और भोक्ता पुरुष के सुख के लिए और उसी की अनुमति से करती है । परन्तु इस सत्य को हम नहीं पहचान पाते, क्योंकि जब प्रतिकूल विक्षोभ का प्रत्यक्ष आघात होता है, शोक, क्लेश, असुविधा, दुर्भाग्य, विफलता, पराजय, निन्दा, अपमान के आघात से मन पीछे की ओर हटता है, और इसके विपरीत जब अनुकूल और सुखद उत्तेजना होती है जैसे हर्ष, सुख,? हर प्रकार की तुष्टि, समृद्धि, सफलता, जय, गौरव, प्रशंसा आदि, तो मन उन्हें गले लगाने के लिए उछल पड़ता है; पर इससे इस सत्य में कोई अन्तर नहीं पड़ता कि जीव जीवन में सुख लेता है और यह सुख मन के द्वन्द्वों के पीछे सदा वर्तमान रहता है । योद्धा को अपने घावों से शारीरिक सुख नहीं मिलता न पराजित होने पर उसे मानसिक संतोष ही होता है; फिर भी युद्ध के देवत्व में उसे पूरा आनन्द मिलता है, जो युद्ध उसके लिये जहाँ एक ओर पराजय और जखम लाता है वहाँ दूसरी ओर विजय भी दिलाता है । वह पराजय और जखम की संभावना को और विजय की आशा को युद्ध के ताने-बाने के तौर पर स्वीकार करता है और उसमें रहने का आनन्द खोजता है । युद्ध के जखम की स्मृति भी उसे हर्ष और गौरव देती है, पूरा हर्ष और गौरव तो तब होता है जब जखम की पीड़ा का अन्त हो जाता है । परन्तु प्राय: पीड़ा के रहते हुए भी ये उपस्थित रहते हैं और पीड़ा वास्तव में इनका पोषण करती है । हार में भी अधिक बलवान् शत्रु का अदम्य प्रतिकार करने के कारण उसे हर्ष और गर्व होता है, अथवा यदि वह हीन कोटि का योद्धा हो तो उसे द्वेष और प्रतिशोध की भावनाओं से भी एक प्रकार का गर्ह्य और क्रूर सुख मिलता है । इसी प्रकार आत्मा भी हमारे जीवन की प्राकृत क्रीड़ा का आनन्द लेती रहती है ।

     मन जीवन के प्रतिकूल आघातों से कष्ट और अरुचि के द्वारा पीछे हटता हैयह आत्म-रक्षा-साधन में प्रकृति की युक्ति है जिसे जुगुप्सा कहते हैं, इसीके कारण हमारे स्नायु और शरीर के अतिकोमल अंग सहसा अपने ध्वंस का आलिंगन करने के लिए दौड़ नहीं पड़ते । जीवन के अनुकूल स्पर्शों से मन को हर्ष होता है, यह प्रकृति का राजस भोग देकर प्रलोभन देना है, जिससे जीव की शक्ति जड़ता और अकर्मण्यता की तामसी प्रवृत्तियों को जीत सके और वह कर्म, कामना, संघर्ष और सफलता के लिए पूर्ण रूप से लग जाय और मन को इनके साथ आसक्त करके प्रकृति अपना प्रयोजन सिद्ध कर सके । हमारी गूढ़  आत्मा इस द्वन्द्व और संघर्ष में एक प्रकार का सुख अनुभव करती है, यह सुख उसे विषाद और दु:ख में भी मिलता है | अतीत विपद् को याद करने और पीछे फिरकर देखने में तो उसे पूरा सुख मिलता ही है, पर जिस समय विपद् सिर पर हो उस समय भी वह आत्मा

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परदे के पीछे सुख लेती रहती है और प्रायः दु:खी मन के स्तर पर आकर भी उसके आवेश में सहारा देती है । परन्तु जो चीज आत्मा को सचमुच आकर्षित करती है वह इस संसार का नानाविध द्वन्द्वों से भरा हुआ वह पदार्थ है जिसे हम जीवन कहते हैं, जो संघर्ष और कामना के विक्षोभ से, आकर्षण और विकर्षण से, लाभ और हानि से, हर प्रकार के वैचित्र्य से भरा है । हमारे राजसिक कामनामय पुरुष को एकरस सुख, संघर्षरहित सफलता और आवरणरहित हर्ष कुछ काल बाद अबसादकर, नीरस, और अतृप्तिकर-सा लगने लगता है; प्रकाश का पूरा सुख भोगने के लिए इसे अंधकार की पृष्ठभूमि चाहिए; क्योंकि वह जो सुख चाहता और भोगता है वह ठीक उसी स्वभाव का, तत्वत: सापेक्ष होता है जो अपने विपरीत तत्व की प्रतीति और अनुभूति पर निर्भर है । हमारे मन को जीवन से जो सुख मिलता है, उसका रहस्य यही है कि हमारी आत्मा जगत् के द्वन्द्वों में रस लेती है ।

     यदि इस मन से इन सब विक्षोभों से ऊपर उठने और उस विशुद्ध आनन्दमय पुरुष के अमिश्र सुख को प्राप्त करने के लिए कहा जाय जो सदा गुप्त रूप से इस द्वन्द्वमय जीवन में बल देता और स्थायित्व बनाये रखता है, तो वह तुरन्त इस आवाहन से घबराकर पीछे हट जायगा । वह ऐसे अस्तित्व पर विश्वास ही नहीं करता, वह मानता है कि यदि यह अस्तित्व है भी तो वह जीवन तो नहीं हो सकता, जगत् में चारों ओर जो वैचित्र्यमय जीवन देख पड़ता है जिसमें रहकर आनन्द लेने का उसे अभ्यास है वैसा जीवन तो नहीं हो सकता, वह कोई बेस्वाद और नीरस चीज होगी । अथवा वह समझता है कि यह पप्रयत्न उसके लिये अत्यंत कठिन होगा, वह ऊपर उठने के प्रयास से कतराता है, यद्यपि वास्तविकता यह है कि कामनामय पुरुष सुखस्वप्नों को चरितार्थ करने के लिए जितना प्रयत्न करता है उसकी अपेक्षा आध्यात्मिक परिवर्तन अधिक कठिन नहीं है और कामनामय पुरुष अपने अनित्य सुखों और कामनाओं के लिए जो महान् संघर्ष और उत्कट प्रयास करता है उससे अधिक संघर्ष और प्रयास की इसमें आवश्यकता नहीं होती । मन की अनिच्छा का असली कारण यह है कि उससे अपने निजी वातावरण से ऊपर उठने और जीवन की एक अधिक असाधारण और अधिक विशुद्ध वायु का सेवन करने के लिए कहा जाता है, जहाँके आनन्द और शक्ति को वह अनुभव नहीं कर सकता, और उनकी वास्तविकता पर भी मुश्किल से विश्वास करता है । इस निम्नतर पंकिल प्रकृति के सुख ही उसके परिचित हैं और इन्हीं को वह आसानी से भोग सकता है । निम्न प्रकृति के सुखों का भोग भी अपने-आपमें दोषपूर्ण और निरर्थक नहीं है; प्रत्युत अन्नमय पुरुष जिस तामस अज्ञान और जड़त्व

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के अत्यंत अधीन होता है उससे ऊपर उठकर मानव-प्रकृति के ऊर्ध्वमुखीन विकास के साधन की यही शर्त है; परम आत्मज्ञान, शक्ति और आनन्द की ओर मनुष्य का जो क्रमबद्ध आरोहण है उसकी यह राजसिक अवस्था है । परन्तु यदि हम सदा इसी भूमिका पर बने रहें जिसे गीता ने मध्यमा गति कहा है तो हमारा आरोहण पूरा नहीं होता, आत्म-विकास अधूरा रह जाता है । जीव की सिद्धि का रास्ता सात्विक सत्ता और स्वभाव के भीतर से होकर वहाँ पहुँचता है जो त्रिगुणातीत है ।

       जो क्रिया हमें निम्न प्रकृति के विक्षोभों से बाहर निकाल सकेगी वह अवश्य ही हमारे मन, चित्त और हमारी आत्मा में समत्व की ओर गति होगी । परन्तु यह बात ध्यान में रहे कि यद्यपि अंत में हमें निम्न प्रकृति के तीनों गुणों के परे पहुँचना है फिर भी हमें आरंभिक अवस्था में इन तीनों में से किसी एक गुण का आश्रय लेकर ही आगे बढ़ना होगा । समत्व का यह आरंभ सात्विक हो सकता है अथवा राजस या तामस, क्योंकि मानव-स्वभाव में तामसी समता भी सम्भव है । यह समता सर्वथा तामसी भी हो सकती है, अर्थात् प्राणवृत्ति अहदी बन गयी हो, जीवन के आघातों का प्रत्युत्तर जड़ता के कारण बन्द हो गया हो तथा एक प्रकार की मन्द संज्ञाहीनता के कारण जीवन के सुखों के प्रति अनिच्छा हो गयी हो । अथवा सुखों का बहुत अधिक भोग करते-करते भावावेग और काम अघा गये हों, या फिर जीवन की यंत्रणा सहते-सहते जीवन से एक प्रकार की निराशा या घृणा या ग्लानि पैदा हो गयी हो, जगत् से जी ऊब गया हो, वह भयावह त्रास-रूप हो उठा हो, उससे अरुचि हो गयी हो और ये सब कारण मिलकर तामसिक समता को ले आये हों; पर इस अवस्था में वह मिश्रित राजस- तामस होती है, यद्यपि उसमें तमोगुण की प्रधानता होती है । अथवा तामसी समता सत्वगुण की ओर झुकते हुए इस मानसिक बोध का सहारा ले सकती है कि जीवन की कामनाओं की कभी तृप्ति नहीं हो सकती, जीव में इतनी शक्ति नहीं कि जीवन को अपने वश में करे, यह सब केवल दुःखमय और अनित्य प्रयास है, इस जीवन में कोई वास्तविक सत्य नहीं, कोई स्वस्ति नहीं, कोई प्रकाश नहीं, कोई सुख नहीं । यह समता का सात्विक-तामस सिद्धांत है, इसमें इतनी समता नहीं है-यद्यपि यह सिद्धांत समता की ओर ले जानेवाला हो सकता है--जितनी कि उदासीनता या समान रूप से अस्वीकृति । वस्तुत : तामसी समता प्रकृति के जुगुप्सा-तत्व का फैलाव है । किसी विशेष कष्ट या यंत्रणा से जी हटता है, वही फैलकर प्रकृति के समस्त जीवन को दु:खमय और यंत्रणामय मानने लगता है और यह समझने लगता है कि यह सारा जीवन दु:ख और आत्म-यंत्रणा

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की ओर प्रवाहित हो रहा है, जीव जिस आनन्द की इच्छा. करता है उसकी ओर नहीं ।

     केवल तामसिक समता में वास्तविक मुक्ति नहीं है; किन्तु जैसा कि भारतीय यतियों ने किया, इसको यदि प्रकृति के परे अक्षर ब्रह्म की महत्तर स्थिति, सत्यतर शक्ति और उच्चतर आनन्द के अनुभव द्वारा सात्विक बनाया जा सके तो आरंभ करने के लिए तामसिक समता भी एक शक्तिशाली साधन हो सकती है । पर इस प्रकार की गति स्वभावत: संन्यास, अर्थात् जीवन और कर्मों के त्याग की ओर ले जाती है न कि कामना के आन्तर त्याग के साथ प्रकृति के जगत् की चिरकर्मण्यता के एकत्व की ओर, जो गीता का प्रतिपाद्य विषय है । फिर भी, गीता इस प्रवृत्ति को स्वीकार करती है, वह जन्म, रोग, मृत्यु, बुढ़ापा, दुःख आदि जागतिक जीवन के दोषों पर आधारित पीछे हटने की वृत्ति को भी--जहाँसे बुद्ध का ऐतिहासिक त्याग आरंभ हुआ था--स्थान देती है । जो लोग जरा और मरण से छुटकारा पाने के लिए तामसिक वैराग्य से भी आत्मसंयम करते हैं ( जरामरणमोक्षाय मामश्रित्य यतन्ति ये ) १  उनकी साधना को भी गीता स्वीकार करती है । किन्तु इस साधना से यदि कोई लाभ होना है तो इसके साथ एक उच्चतर अवस्था की सात्विक अनुभूति होनी चाहिये और भगवान् में ही आनन्द और भगवान का ही आश्रय लेना चाहिये ( मामाश्रित्य ) । तब जीव अपनी इस जुगुप्सा के द्वारा एक उच्चतर स्थिति को प्राप्त होता है, त्रिगुण से ऊपर उठ जाता है और जन्म, मृत्यु, जरा और दुःख से मुक्त होकर आत्मसत्ता का अमृतत्व भोगता है  (जन्ममृत्युजरादु: खैर्वि मुक्तोऽमृतमश्नुते) ।   जीवन के दु:ख और प्रयास को स्वीकार करने की तामसिक अनिच्छा अपने-आपमें एक प्रकार की दुर्बलता और अधोगति है और इसमें यह खतरा भी समाया हुआ है कि इसके द्वारा सबको समान भाव से वैराग्य और संसार से घृणा का उपदेश दिया जा सकता है, जिससे अनधिकारी जीवोंपर तामसिक दुर्बलता और संकुचन की मुहर लग जाती है, उनका बुद्धिभेद होता है (बुद्धिभेदम् जनयेत् ), उनकी सतत अभीप्सा, जीवन में विश्वास और पुरुषार्थ की शक्ति--जिसकी मानव-जीव को अपने उपयोगी और आवश्यक राजस प्रयास के लिए आवश्यकता है, ताकि वह अपनी परिस्थिति को वश में कर सके--किसी उच्चतर लक्ष्य, महत्तर प्रयास और बलवत्तर विजय की ओर खुले बिना ( क्योंकि ऐसी क्षमता उसमें अभी नहीं आयी है ) ही क्षीण हो जाती है । परन्तु अधिकारी जीवों में तामसी विरक्ति उनकी राजसिक आसक्ति तथा निम्नतर जीवन में तल्लीनता को नष्ट करके--जों उनके सत्वगुण के जागरण में बाधक

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. ७-२६      २. १४-२०  

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होकर उनकी उच्चतर सम्भावना को रोकती है--उपयोगी आध्यात्मिक हेतु सिद्ध कर सकती है । तब इस प्रकार अपनी बनायी हुई शून्यावस्था में आश्रय ढूँढ़ते हुए वे भगवान् की इस पुकार को सुन पाते हैं कि ''हे जीव ! तू जो अपने-आपको इस अनित्य असुखी जगत् में पाता है, मेरी ओर मुंह कर और मुझ में आनन्द ले ( अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्य माम् ) ।''

      फिर भी इस क्रिया में समता केवल इतनी है कि यह, जगत् जिन-जिन चीजों से बना है उन सभी से समान भाव से भागती है और जगत् के प्रति उपेक्षा और अलगाव का भाव पैदा करती है, इससे वह शक्ति नहीं मिलती जिसके द्वारा हम जगत् के सुखद या दुःखद सब स्पर्शों को समभाव से, बिना किसी राग-द्वेष के ग्रहण कर सकें, जो गीता की साधना का एक आवश्यक तत्व है  । इसलिए यदि हम तामसिक निवृत्ति से ही आरंभ करें--यद्यपि यह बिलकुल आवश्यक नहीं है--तो भी इसका उपयोग किसी महान् प्रयास में प्रवृत्त होने के लिए एक आरंभिक प्रेरणा के तौर पर ही किया जा सकता है, किसी स्थायी नैराश्य के तौर पर नहीं । साधना तो यथार्थ में तब आरंभ होती है जब हम पहले जिन चीजों से भागना चाहते थे उन्हें अपने काबू में करने का प्रयत्न करें । यहाँ एक प्रकार की राजसिक समता की संभावना होती है, जिसका निम्नतम रूप है आत्मवशित्व और आत्मसंयम प्राप्त करने में, प्राणावेग तथा दुर्बलता से ऊपर उठने में बलवान्-स्वभाव का गर्व । किन्तु स्टोइक आदर्श इसीको पकड़कर जीव को निम्न प्रकृति की समस्त दुर्बलताओं की अधीनता से सर्वथा मुक्त कर देने का प्रधान साधन बनाता है । जिस प्रकार तामसिक निवृत्ति प्रकृति के जुगुप्सा तत्व का, अर्थात् दु:ख से आत्मसंरक्षण का फैलाव है उसी प्रकार ऊर्ध्वमुखी राजसिक प्रवृत्ति संघर्ष और प्रयास को स्वीकार करनेवाले तथा प्रभुत्व और विजय प्राप्त करने के लिए जीवन की अंतर्निहित प्रेरणा को स्वीकार करनेवाले प्रकृति के दूसरे तत्व का फैलाव है; पर यह प्रवृत्ति युद्ध को उस क्षेत्र की ओर मोड़ देती है जो पूर्ण विजय लाभ का एकमात्र क्षेत्र है । कुछ छितरे हुए बाह्य उद्देश्यों और क्षणिक सफलताओं के लिए लड़ने-झगड़ने के बजाय यह साधना साधक को आध्यात्मिक युद्ध के द्वारा और आतंरिक विजय के द्वारा प्रकृति और स्वयं जगत् को ही विजित करने के रास्ते पर ले आती है । तामसिक निवृत्ति जगत् के सुख और दु:ख, दोनों से किनारा काटती तथा उनसे भागना चाहती है और राजसिक साधना उन्हें सहने, उन्हें काबू में करने और उनसे ऊपर उठने का रास्ता निकालती है । स्टोइक आत्मनियंत्रण कामना और प्राणावेग को अपने योद्धाभाव में समालिंगित करता

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१. २-, ५

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है और उन्हें अपनी भुजाओं के बीच चूर-चूर कर देता है जैसे महाभारत में धृतराष्ट्र ने भीम की लौह प्रतिमा को चूर-चूर कर डाला था । यह संयम का मार्ग सुखद और दुःखद सभी चीजों के धक्कों को सहता, प्रकृति के भौतिक और मानसिक असर के कारणों को बरदाश्त करता और उनके परिणामों को चकनाचूर कर डालता है । इसकी पूर्णता तब समझनी चाहिए जब जीव बिना दुःखी या आकर्षित हुए, बिना उत्तेजित या व्याकुल हुए सब स्पर्शों को सह सके । इस साधना का हेतु मनुष्य को अपनी प्रकृति का विजेता और राजा बनाना है ।

     गीता अर्जुन के क्षात्र स्वभाव का आवाहन करके इसी वीरोचित साधना से अपना उपदेश आरंभ करती है । गीता अर्जुन का आवाहन करती है कि तुम इस महाशत्रु कामना पर टूट पड़ो और इसे मार डालो । गीता ने समत्व का जो पहला वर्णन किया है वह स्टोइक दार्शनिक के वर्णन के जैसा ही है । ''दुःखों के बीच जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुखों के बीच जिसे उनकी इच्छा नहीं होती, राग, भय, क्रोध जिससे निकल गये वही स्थितधी मुनि है । जो, चाहे उसे शुभ प्राप्त हो या अशुभ, सभी विषयों में स्नेहशून्य रहता है, न उनका हर्षपूर्ण स्वागत करता न उनसे द्वेष करता है उसीकी बुद्धि ज्ञान में स्थित है |'' गीताने एक स्थूल दृष्टांत देकर समझाया है कि यदि मनुष्य आहार न करे तो यह इन्द्रिय-विषय उसपर असर न करेगा, पर इन्द्रिय में 'रस' तो रहेगा ही; आत्मा की परम स्थिति तो तब प्राप्त होती है जब इन्द्रिय से विषय ग्रहण करते हुए भी वह इन्द्रिय- भोग की लालसा से मुक्त रह सके, विषयों के मोह को छोड़ सके और आस्वादन के सुख का त्याग कर सके । राग-द्वेष से मुक्त, आत्मवशीकृत ज्ञानेंद्रियों के द्वारा विषयों के ऊपर विचरण करते हुए (विषयान् इन्द्रियैश्चरन् ) ही मनुष्य आत्मा और स्वभाव की उदार और मधूर पवित्रता को प्राप्त कर सकता है, जिसमें काम, क्रोध और शोक-मोह के लिए कोई स्थान नहीं है । सब कामनाएँ आत्मा में वैसे ही प्रवेश करेंगी जैसे नदी-नद समुद्र में, और तब भी आत्मा को अचल और परिपूरित परन्तु अक्षुब्ध रहना होगा, इस प्रकार अंत में सब कामनाओं का त्याग किया जा सकता है । इस बात पर बार-बार जोर दिया गया है कि काम-क्रोधमय मोह से छुटकारा पाना मुक्त-पद लाभ करने के लिए अत्यंत आवश्यक है और इसलिए हमें इनके धक्कों को सहना सीखना पड़ेगा और यह कार्य इन धक्कों के कारणों का सामना किये बिना नहीं हो सकता । ''जो इस शरीर में काम-क्रोध से उत्पन्न होनेवाले वेग को सह सकता है वही योगी है, वही सुखी है ।''   तितिक्षा,

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१. ५-२३

२. २-१४, १५

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अर्थात् सहने का संकल्प और शक्ति इसका साधन है । ''शीत और उष्ण, सुख और दुःख देनेवाले मात्नास्पर्श अनित्य हैं और आते-जाते रहते हैं इन्हें सहना सीख । जिस पुरुष को ये व्यथित या दुःखी नहीं करते, सुख-दु :ख में जो सम और धीर रहता है वही अपने-आपको अमृतत्व के लिए उपयुक्त बना लेता है ।''   जिसकी आत्मा समत्व को प्राप्त हो गयी है उसे दु:ख सहना होता है, पर वह दु:ख से घृणा नहीं करता, उसे सुख ग्रहण करना होता है, पर वह सुख से हर्षित नहीं होता । शारीरिक यंत्रणाओं को भी सहिष्णुता के द्वारा जीतना होता है और यह भी स्टोइक साधना का एक अंग है । जरा, मृत्यु, दुःख, यंत्रणा से भागने की जरूरत नहीं है, प्रत्युत इन्हें स्वीकार करके उदासीनता से परास्त करना है । प्रकृति के निम्नस्तरीण छद्मरूपों से भीत होकर भागना नहीं, बल्कि ऐसी प्रकृति का सामना करके उसे जीतना ही पुरुषसिंह ( पुरुषर्षभ ) की तेजस्विनी प्रकृति का सच्चा सहज भाव है । ऐसे पुरुष से विवश होकर प्रकृति अपना छद्मवेश उतार फेंकती है और उसे असली आत्मस्वरूप दिखा देती है, जिस स्वरूप में वह प्रकृति का दास नहीं, बल्कि उसका स्वराट्, सम्राट् है ।

      परन्तु गीता इस स्टोइक साधना को, इस वीरधर्म को उसी शर्त पर स्वीकार करती है जिस शर्त पर वह तामसिक निवृत्ति को स्वीकार करती है, अर्थात् इसके ऊपर ज्ञान की सात्विक दृष्टि, इसके मूल में आत्मसाक्षात्कार का लक्ष्य और इसकी चाल में दिव्य स्वभाव की ओर ऊर्ध्वगति होनी चाहिए । जिस स्टोइक साधना के द्वारा मानव-स्वभाव के सामान्य स्नेहभाव कुचल डाले जाते हैं वह जीवन के प्रति तामसिक क्लांति, निष्फल नैराश्य और ऊसर जड़त्व की अपेक्षा तो कम खतरनाक है, क्योंकि यह जीव के पौरुष और आत्म-वशित्व को बढ़ानेवाली है, फिर भी यह अमिश्र शुभ नहीं है, क्योंकि इससे सच्ची आध्यात्मिक मुक्ति नहीं मिलती, बल्कि इससे हृदयहीनता और निष्ठुर ऐकांतिकता आ सकती है । गीता की साधना में स्टोइक समता का जो समर्थन मिलता है वह इसीलिए है कि यह साधना क्षर मानव-प्राणी को मुक्त अक्षर पुरुष का साक्षात्कार करने में (परं दृष्ट्वा ) और इस नवीन आत्मचेतना को प्राप्त करने में ( एषा ब्राह्यी स्थिति: ) साथ और सहायता दे सकती है । '' बुद्धि के भी परे जो परमात्मा हैं उनको बुद्धि के द्वारा जानकर आत्मा को आत्म-शक्ति से स्थिर और निश्चल करो और इस दुर्द्धर्ष कामना को मार डालो ।''  

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१. गीता का कथन है, 'धीरस्तत्र न मुह्यति' अर्थात् धीर वुद्धिमान् पुरुष उनसे घबराता नहीं । परन्तु फिर भी इन्हें जो स्वीकार करता है वह इन्हें जीतने के लिये ही करता है-'जरा मरणमोक्षाय । '

२.   ३-४ ३

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तामसिक विरक्ति और युद्ध करने और विजय लाभ करनेवाली राजसिक प्रवृत्ति दोनों ही अच्छी हो सकती हैं यदि उनका लक्ष्य सत्वगुण के द्वारा आत्म-ज्ञान को प्राप्त करना हो, क्योंकि निवृत्ति और संघर्षात्मक प्रवृत्ति दोनों की सार्थकता उसी में है ।

      विशुद्ध दार्शनिक, मनीषी, जन्म-ज्ञानी पुरुष अपने आचारविचार के लिए सत्वगुण को केवल अपना परम औचित्य नहीं मानता बल्कि आत्म-वशित्व के साधन में आरम्भ से उसी से काम लेता है । वह आरम्भ ही सात्विक समता से करता है । वह भी जड़प्राकृतिक और बाह्य जगत् की क्षणभंगुरता को देखता-समझता है और यह जानता है कि यह जगत् हमारी कामनाओं को पूरा नहीं कर सकता न यह हमें सच्चा सुख ही दे सकता है; परन्तु इससे उसमें शोक, भय या नैराश्य नहीं उत्पन्न होता । वह स्थिर शान्त बुद्धि से सब कुछ देख लेता और बिना किसी द्वेष या घबराहट के अपना मार्ग निश्चित कर लेता है । ' 'विषयेंद्रिय-संयोग से उत्पन्न होनेवाले ये भोग ही दु :ख के कारण हैं इनका आदि है, अंत है; इसलिए ज्ञानी, जाग्रत् बुद्धिवाला पुरुष ( बुध ) इनमें रमण नहीं करता ।''१  ''उसकी आत्मा इन बाह्य स्पर्शों में आसक्त नहीं होती, वह अपना सुख अपने ही अन्दर पाता है ।''   वह देख पाता है कि हम ही अपने शत्रु हैं और हम ही अपने मित्र, इसलिए वह सदा सावधान रहता है और अपने-आपको कामक्रोध के हवाले नहीं करता ( नात्मानमवसादयेत्), बल्कि अपनी अंत:शक्ति का प्रयोग कर अपने-आपको इनके कैदखाने से एकदम छुड़ा लेता है ( उद्धरेतदात्मनात्मानं ); क्योंकि जिसने अपनी निम्न प्रकृति को जीत लिया है वह अपने उच्चतर स्वभाव को अपने सर्वोत्तम सत्ता और साथी के रूप में पाता है । वह ज्ञान से तृप्त हो जाता है, अपनी इन्द्रियों का स्वामी हो जाता है, सात्विक समत्व के द्वारा योगी हो जाता है--क्योंकि समत्व ही तो योग है (समत्वं योग उच्यते ) ,--उसकी दृष्टि में मिट्टी, पत्थर और सोना सब बराबर है; सरदी-गरमी में, सुख-दु:ख में, मान-अपमान में वह एक-सा शान्त और सम रहता है । शत्रु, मित्र, तटस्थ और उदासीन सबके लिये वह आत्मभाव में सम होता है, क्योंकि वह देखता है कि ये सब संबंध अनित्य हैं और जीवन की सदा बदलनेवाली परिस्थिति से उत्पन्न होते हैं । विद्या, शुचिता और सदाचार की बुनियाद पर किये जानेवाले श्रेष्ठ-कनिष्ठ के भेद भी उसे नहीं भरमा सकते । वह साधु-असाधु, सदाचारपूत, विद्वान्, सुसंस्कृत ब्राह्मण और पतित चांडाल, अर्थात्, मनुष्यमात्र के लिए, सम, आत्मभावयुत होता है ।

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१.   ५-२२

२. - ५-२१

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गीता में सात्विक समता का जो वर्णन है वह यही है और ज्ञानी मुनि की जिस शांत बौद्धिक समता से यह जगत् परिचित है, उसका सार इसमें अच्छी तरह आ गया है ।

     तब इस समता में और गीता जिस उदारतर समता का उपदेश देती है उसमें क्या भेद है ? वह भेद यह है कि दार्शनिकों की समता का आधार है बौद्धिक विवेक और गीता की समता का आधार है आध्यात्मिक वैदांतिक अद्वैत ज्ञान । दार्शनिक अपनी विवेकवती बुद्धि के बल से अपने समत्व को बनाये रहते हैं परन्तु यह अपने-आप एक संदिग्ध नींव है । क्योंकि, यद्यपि सतत सावधान रहकर और मन को अभ्यस्त करके वे अपने-आपपर एक तरह का काबू रखते हैं, पर वास्तव में वे अपनी निम्न प्रकृति से मुक्त नहीं होते, और यह प्रकृति कई तरह से अपनी सत्ता दिखाती रहती है और अपने त्यागे जाने और निगृहीत किये जाने का किसी भी समय भयानक प्रतिशोध ले सकती है । कारण निम्न प्रकृतिका खेल सदा ही त्रिगुणात्मक है और रजोगुण तथा तमोगुण सात्विक मनुष्य पर हमला करने के लिए सदा घात लगाये रहते हैं ।   ''सिद्धि के साधन में यत्नशील बुद्धिमान् पुरुष के मन को भी हठी इन्द्रियाँ जबरदस्ती खींच ले जाती हैं ।''   निम्न प्रकृति से पूर्ण संरक्षण तो किसी सत्वगुण से भी बड़ी चीज का, विवेक-बुद्धि से भी बड़ी चीज का, अर्थात्--आत्मा का--दार्शनिकों के बुद्धि-पुरुष का नहीं बल्कि दिव्य ज्ञानी की त्रिगुणातीत आध्यात्मिक आत्मा का--आश्रय लेने से ही प्राप्त होता है । इन सबकी परिपूर्ति उसी आध्यात्मिक परा प्रकृति में जन्म लेकर करनी होगी ।

      दार्शनिकों को समता स्टोइक के जैसी, जगत् से भागनेवाले यतीवैरागी--संन्यासियों की-सी होती है, जो मनुष्यों से अलग, उनसे बिलकुल दूर एक आंतरिक, निर्जन स्वातंत्रय है; पर जिस मनुष्य का दिव्य जन्म हुआ है उसने भगवान् को केवल अपने ही अन्दर नहीं, बल्कि सभी जीवों में उपलब्ध किया है । उसने सबके साथ अपनी एकता का अनुभव किया है इसलिए उसकी समता सबके साथ सहानुभूति और एकता से परिपूर्ण होती है । वह सबको अपने जैसा देखता है और अपने अकेलेकी मुक्ति का इच्छुक नहीं होता । वह दूसरों के सुख-दु:खो का बोझ तक अपने ऊपर उठा लेता है और स्वयं न उससे प्रभावित होता है न उसके अधीन । गीता ने बार-बार इस बात को दुहराया है कि सिद्ध ज्ञानी सदा अपने उदार समत्व में स्थिर रहता हुआ सब जीवों के कल्याण-साधन में लगा रहता है,  ''सर्वभूतहिते रता:'' । सिद्ध योगी आध्यात्मिक एकांत के किसी भव्य अट्टा-लिका पर आत्मा के ध्यान में मग्न होकर नहीं बैठा रहता, बल्कि जगत् के कल्याण के लिए, जगन्निवास भगवान् के लिए बहुविध विश्वव्यापी कर्मों का कर्ता होता है ।

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१. २-६०

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क्योंकि वह प्रेमी और उपासक भक्त है, ज्ञानी है और योगी. भी--ऐसा प्रेमी जो भगवान् से वे जहाँ मिल जायँ प्रेम करता है और भगवान् उसे हर जगह मिलते हैं; और जिससे वह प्यार करता है उसकी सेवा करने से विमुख नहीं होता । जो कर्म उसके द्वारा होता है वह उसे भगवान् के साथ एकत्व के आनन्द से अलग नहीं करता, क्योंकि उसके सारे कर्म उसके अन्दर स्थित उन्हीं एकसे निकलते और सबके अन्दर रहनेवाले उन्हीं एककी ओर प्रवाहित होते हैं । गीता का समत्व उदार समन्वयात्मक  समत्व है, जो सबको भागवत सत्ता और भागवत प्रकृति की पूर्णता में ऊँचा उठा देता है ।

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