गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

समत्व और ज्ञान

 

     गीता की शिक्षा के इस पहले भाग में योग और ज्ञान, जीव के वे दो पंख हैं जिनके सहारे वह ऊपर उठता है । योग से अभिप्रेत है निष्काम होकर, समस्त पदार्थों और मनुष्यों के प्रति आत्म-समत्व रखकर, पुरुषोत्तम के लिए यज्ञरूप से किये गये दिव्य कर्मों के द्वारा भगवान् से एकता, और ज्ञान से अभिप्रेत है वह ज्ञान जिसपर यह निष्कामता, यह समता, यह यज्ञ-शक्ति प्रतिष्ठित है । दोनों पंख निश्चय ही उड़ान में एक-दूसरेकी सहायता करते है;   दोनों एक साथ क्रिया करते रहते हैं, फिर भी इस क्रिया में बारी-बारी से एक-दूसरेकी सहायता करने का सूक्ष्म क्रम रहता है, जैसे मनुष्य की दोनों आँखे बारी-बारी से देखती हैं इसीलिए एक साथ देख पाती हैं, इसी प्रकार योग और ज्ञान अपने सारतत्व के परस्पर आदान-प्रदान के द्वारा एक-दूसरेको संवर्द्धित करते रहते हैं । ज्यों-ज्यों कर्म अधिकाधिक निष्काम, समबुद्धियुक्त और यज्ञभावापन्न होता जाता है, त्यों-त्यों जीव अपने कर्म की निष्काम और यज्ञात्मक समता में अधिकाधिक दृढ़ होता जाता है । इसलिए गीता ने कहा कि किसी द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है ।  ''चाहे तू पाप-कर्मियों में सबसे बड़ा पाप-कर्मी भी क्यों न हो, ज्ञान की नौका में बैठकर पाप के कुटिल समुद्र को पार कर जायगा ।... इस जगत् में ज्ञान के समान पवित्र और कुछ भी नहीं है ।''  ज्ञान से कामना और उसकी सबसे पहली संतान पाप का ध्वंस होता है । मुक्त पुरुष कर्मों को यज्ञरूप से कर सकता है, क्योंकि मन, हृदय और आत्मा के आत्मज्ञान में दृढ़प्रतिष्ठ होने  के कारण वह आसक्ति से मुक्त होता है ( गतसंगस्य... ज्ञानवस्थितचेतस : ) । उसके सारे कर्म होने के साथ ही सर्वथा लय को प्राप्त हो जाते हैं, कहा जा सकता है कि वे ब्रह्म की सत्ता में विलीन हो जाते हैं (प्रविलीयते) । बाह्यत:  जो कर्ता देख पड़ता है उसकी अंतरात्मा पर उन कर्मों का कोई प्रतिगामी परिणाम नहीं होता । स्वयं भगवान् ही उस कर्म को अपनी प्रकृति के द्वारा करते हैं,  वे मानव-उपकरण के अपने नहीं रह जाते । स्वयं कर्म ब्रह्म सत्ता के स्वभाव और स्वरूप की एक शक्ति बन जाता है । 

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. ४--

२०९ 


            ''सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते''    गीता के इस वचन का यही अभिप्राय है--सारा कर्म ज्ञान में अपनी पूर्णता, परिणति और परिसमाप्ति को प्राप्त होता है । ''प्रज्वलित अग्नि जिस तरह ईंधन को जलाकर राख कर देती है, उसी तरह ज्ञान की अग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है ।''    इसका यह अभिप्राय हर्गिज नहीं कि जब पूर्ण ज्ञान होता है तब कर्म बन्द हो जाते हैं । इसका वास्तविक अभिप्राय गीता के इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि-

''योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसशयम् ।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्यन्ति धनंजय ।।''

 

         --अर्थात् जिसने ज्ञान के द्वारा अपने सब संशय को काट डाला और योग के द्वारा कर्मों का संन्यास किया वह आत्मवान् पुरुष अपने कर्मों से नहीं बंधता, फिर गीता का यह वचन कि, ''सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते''   इसी अभिप्राय को व्यक्त करता है--जिसकी आत्मा सब भूतों की आत्मा हो गयी है वह कर्म करता है पर अपने कर्मों में लिप्त नहीं होता, उनमें फंसता नहीं, वह उनसे आत्मा को बंधन में डालनेवाली कोई प्रतिक्रिया ग्रहण नहीं करता । इसीलिए तो गीताने कहा है कि कर्मों के भौतिक संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है, कारण जहाँ संन्यास देहधारियों के लिए कठिन है--क्योंकि जबतक देह है तबतक उन्हें कर्म  करना ही पड़ेगा--वहाँ कर्मयोग अभीष्टसिद्धि के लिए सर्वथा पर्याप्त है और यह जीव को ब्रह्म के पास शीघ्रता और सरलता से ले जाता है । पहले कहा जा चुका है कि कर्मयोग, संपूर्ण कर्म का भगवान् को अर्पण करना है, जिसकी परिसमाप्ति ब्रह्म के प्रति कर्मों के ऐसे अर्पण में होती है जो आंतरिक होता है, बाह्य नहीं, जो आध्यात्मिक होता है, भौतिक नहीं ( ब्रह्यण्याधाय..... मयि संन्यस्य ) । कर्मों का जब इस प्रकार ब्रह्म में आधान हो जाता है तब उपकरण में से कर्ता का भाव जाता रहता है; वह कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता; क्योंकि उसने केवल कर्मफलों का ही अर्पण नहीं किया है, बल्कि स्वयं कर्म और उसकी प्रक्रिया भी भगवान् को दे दी है । तब, भगवान् उसके कर्मों के भार को अपने ऊपर ले लेते हैं; भगवान् स्वयं कर्ता, कर्म और फल बन जाते हैं ।

      गीता जिस ज्ञान की बात कहती है वह मन की बौद्धिक क्रिया नहीं है, गीता का ज्ञान है सत्यस्वरूप दिव्य सूर्य के प्रकाश के उद्भासन के द्वारा सत्ता की उच्चतम

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१. ४-३३

२. ४-३७

३. ४-४१

४. ५-७

२१० 


अवस्था में संवर्द्धन । यह सत्य, यह सूर्य वही है जो हमारे अज्ञान-अंधकार के भीतर छिपा हुआ है और जिसके बारे में ऋग्वेद कहताहै, 'तत्सत्यं सूर्य तमसि क्षियन्तम् ।'  अक्षर ब्रह्म इस द्वन्द्वमय विक्षुब्ध निम्न प्रकृति के ऊपर आत्मा के व्योम में विराजमान है, निम्न प्रकृति के पाप-पुण्य उसे स्पर्श नहीं करते, वह हमारे धर्म-अधर्म की भावना को स्वीकार नहीं करता, इनके सुख और दुःख उसे स्पर्श नहीं करते, वह हमारी सफलता की खुशी और विफलता के शोक के प्रति उदासीन रहता है, वह सबका स्वामी है, प्रभु है, विभु है, स्थिर, समर्थ और शुद्ध है, सबके प्रति सम है । वह प्रकृति का मूल है, हमारे कर्मों का प्रत्यक्ष कर्ता नहीं बल्कि प्रकृति और उसके कर्मों का साक्षी है, वह हमपर कर्ता होने का भ्रम आरोपित नहीं करता, क्योंकि यह भ्रम तो निम्न प्रकृति के अज्ञान का परिणाम है । परन्तु हम इस मुक्ति, प्रभुता और विशुद्धता को नहीं देख पाते; क्योंकि हम प्राकृतिक अज्ञान के कारण विमूढ़ हुए रहते हैं और यह अज्ञान हमारे अन्दर कूटस्थ ब्रह्म के सनातन आत्मज्ञान को हमसे छिपाये रहता है । पर जो इस ज्ञान का लगातार अनुसंधान करते हैं उन्हें इसकी प्राप्ति होती है और यह ज्ञान उनके प्राकृतिक अज्ञान को दूर कर देता है; यह बहुत काल से छिपे हुए सूर्य की तरह उद्भासित होता है और हमारी दृष्टि के सामने उस परम आत्मसत्ता को प्रकाशित कर देता है जो इस निम्न जीवन के द्वन्द्व के परे है ( आदित्यवत् प्रकाशयति तत्परम् ) । दीर्घ एकनिष्ठ साधना से, अपनी समग्र सचेतन सत्ता को उसी आत्मतत्व की ओर लगाने से, उसी को अपना एकमात्र लक्ष्य बनाने से, उसी को अपनी विवेक-बुद्धि का विषय बनाने से और इस प्रकार उसको न केवल अपने अन्दर बल्कि अखिल जगत् में देखने से, हम उसके साथ एक-बुद्धि और एक-आत्मा हो जाते है (तद्बुद्धय: तदात्मान: ), हमारी अध:सत्ता के कल्मष ज्ञान के जल से  धुल जाते हैं, ''ज्ञाननिर्वृतकल्मषा: ।''

      गीता कहती है कि इसका फल सब पदार्थों और सब प्राणियों के प्रति पूर्ण समत्व की सिद्धि है;  और ऐसा समत्व सिद्ध होने पर ही हम अपने कर्मों का 'ब्रह्म में' पूर्ण रूप से 'आधान'  कर सकते हैं । कारण ब्रह्म सम है (समं ब्रह्म) और जब यह पूर्ण समता हममें आ जाती है (साम्ये स्थितं मन: ) तभी हम ''विद्याविनय-संपन्न ब्राह्मण, गौ, हाथी, श्वान और चाण्डाल को समदृष्टि से देखते हुए'' 

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१. ऋग्वेद में सत्यस्रोत की इन धाराओं का बर्णन है |  ये सिद्ध ज्ञान की धाराएं हैं, दिव्य सूर्यालोक से परिपूर्ण हैं,-'तस्य धारा: आपो विचैतस:, स्वर्वतीराप: ।'  यहां इनका प्रयोग आलङ्कारिक अर्थ में हुआ है, वहां ( वेदों में ) प्रत्यक्ष प्रतोक के रूप में ।

२. ५-१८

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सबको एक ब्रह्म ही जानते हुए और उस एकत्व में स्थित रहते हुए ब्रह्म के समान ही अपने कर्मों के प्रवाह को, आसक्ति, पाप या बंधन के भय से सर्वथा मुक्त होकर, प्रकृति से निकलता हुआ देख सकते हैं । तब पाप और कलंक नहीं लग सकते; क्योंकि हमने उस सृष्टि को जीत लिया है ( तैर्जित: सर्ग: ) जो कामना और उसके कर्मों और उनकी प्रतिक्रियाओं से भरी हुई है और जो अज्ञान की है और चूंकि अब हम दिव्य परा प्रकृति मे रहने लगते हैं, इसलिए हमारे कर्म प्रमादरहित, दोष-रहित होते हैं, क्योंकि प्रमाद और दोष तो अज्ञानजनित विषमताओं की उपज हैं । सम ब्रह्म में कोई दोष नहीं ( निर्दोषं हि समं ब्रह्म ); वह शुभ-अशुभ की द्वन्द्वमय भ्रान्ति के परे है, और ब्रह्म में निवास करते हुए हम भी शुभ-अशुभ से ऊपर उठ जाते हैं; और हम उस विशुद्ध स्थिति में रहते हुए निर्दोष रूप से, प्राणिमात्न का समान रूप से हित साधने के एकमात्न हे तु से कर्म करते हैं, ''क्षीण- कल्मषा: सर्षभूतहिते रता: ।''   हमारी अज्ञानावस्था में भी हमारे कर्मों के मूल हमारे हृद्देशस्थित ईश्वर ही हैं, पर उनकी यह क्रिया उनकी माया के द्वारा, हमारी निम्न प्रकृति के अहंकार के द्वारा होती है, और यह निम्न प्रकृति ही हमारे कर्मों के जटिल जाल को बुनकर तैयार करती है और बाद में इस जाल के फैलाव की जो प्रतिक्रियाएँ होती हैं उनको हमारे अहंकार पर ला पटकती है, जिसका आंतरिक असर पाप-पुण्य के रूप में और बाह्य असर सुख-दु:ख और सौभाग्य-दुर्भाग्य के रूप में होता है, और यही है कर्म की जबरदस्त सांकल । जब ज्ञान के द्वारा हम इससे मुक्त होते हैं तब भगवान्, जो अब हृदय में छिपे हुए नहीं बल्कि हमारे परम आत्मा के रूप में प्रकट हो गये हैं, हमारे कर्मों को अपने हाथों में ले लेते और जगत् के उद्धार-कार्य में हमारा निर्दोष यंत्रवत् ( निमित्तमात्रम् ) उपयोग करते हैं । ज्ञान और समत्व में ऐसी ही घनिष्ठ एकता है, यहाँ बुद्धि के क्षेत्र में, ज्ञान स्वभाव के समत्व के रूप में प्रतिबिम्बित होता है और ऊपर, चेतना के उच्चतर क्षेत्र में, ज्ञान सत्ता का प्रकाश हो जाता है और समत्व प्रकृति का उपादान ।

          'ज्ञान' शब्द भारतीय दर्शनशास्त्रों और योगशास्त्रों में सर्वत्र इसी परम आत्मज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होता है । ज्ञान वह ज्योति है जिसके द्वारा हम अपनी सत्य सत्ता में संवर्द्धित होते हैं, वह चीज नहीं जिससे हमारी जानकारी बढ़ती और हमारी बौद्धिक संपत्ति संचित होती है;  यह भौतिक विज्ञान या मनोवैज्ञानिक अथवा दार्शनिक या नैतिक या रससम्बन्धी अथवा जागतिक और व्यावहारिक ज्ञान नहीं है । ये सब भी निस्संदेह हमारी उन्नति में मदद करते हैं, पर ये हमारी संभूति के विकास में सहायक होते हैं, हमारी आंतरिक सत्ता के विकास में नहीं । यौगिक ज्ञान में इनका समावेश तब किया जा सकता है जब हम इनसे परमात्मा,

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आत्मा, भगवान् को जानने में मदद लें | भौतिक विज्ञान  को हम यौगिक ज्ञान तब बना सकते हैं जब हम उसकी प्रक्रियाओं और घटनाओं के पर्दे को भेद कर उस एकमात्र सद्वस्तु को देख लें जिससे सब बातें स्पष्ट हो जाती हैं, मनोवैज्ञानिक विद्या को यौगिक ज्ञान तब बनाया जा सकता है जब हम उससे अपने-आपको जानने और निम्न-उच्च का विवेक करने का काम ले सकें जिससे कि निम्न अवस्था को छोड़ हम उच्च अवस्था में संवर्द्धित हो सकें दार्शनिक विद्या को हम यौगिक ज्ञान तब बना सकते हैं जब हम इससे पाप और पुण्य के भेद को जान जायँ, पाप को दूर कर और पुण्य से ऊपर उठकर दिव्य प्रकृति की निर्मलता में पहुँच जायँ;   रसविद्या को हम यौगिक ज्ञान तब बना सकते हैं जब हम इसके द्वारा भगवान् के सौंदर्य को पा लें; जागतिक और व्यावहारिक विद्या को हम यौगिक तब बना सकते हैं जब हम उसके भीतर से यह देख पावें कि ईश्वर अपनी सृष्टि के साथ कैसा व्यवहार करते हैं और फिर उस ज्ञान का उपयोग मनुष्य मे रहनेवाले भागवान् की सेवा के लिए करें । परन्तु तब भी ये विद्याएँ सच्चे ज्ञान की सहायक भर होती हैं;  वास्तविक ज्ञान तो वही है जो मन के लिए अगोचर है, मन जिसका आभासमात्न पाता है । सच्चा ज्ञान तो आत्मा में ही होता है ।

      यह ज्ञान कैसे प्राप्त होता है इसका वर्णन करते हुए गीता कहती है कि पहले इस ज्ञान की तत्वदर्शी ज्ञानियों से दीक्षा लेनी होती है, उनसे नहीं जो तत्वज्ञान को केवल बुद्धि से जानते हैबल्कि उन ज्ञानियों से जिन्होंने इसके मूल सत्य को प्रत्यक्ष देखा है ( ज्ञानिन: तत्वदर्शिन: );  परन्तु वास्तविक ज्ञान तो हमें अपने अन्दर से मिलता है,   ''योग के द्वारा संसिद्धि को प्राप्त मनुष्य उसको अपने-आप ही यथासमय अपनी आत्मा में पाता है,''  अर्थात् यह ज्ञान उस मनुष्य में संवर्द्धित होता रहता है और ज्यों-जयों वह मनुष्य निष्कामता, समता और भगवद्भक्ति में बढ़ता जाता है त्यों-त्यों ज्ञान में भी बढ़ता जाता है । परन्तु यह बात केवल परम ज्ञान के सम्बन्ध में ही पूर्ण रूप से कही जा सकती है, नहीं तो जो ज्ञान मनुष्य अपनी बुद्धि से बटोरता है उसे तो वह इन्द्रियों और तर्कशक्ति के द्वारा परिश्रम करके बाहर से ही इकट्ठा करता है । स्वत:स्थित, सहजस्फुरित, स्वानुभूत, स्वप्रकाश परम ज्ञान की प्राप्ति के लिए हमें संयतेंद्रिय होना होता है, जिससे हम उनके मोहपाश में न बंध सकें, बल्कि हमारा मन और इन्द्रियाँ उस परम ज्ञान के निर्मल दर्पण बन जायें; हमें उस परम सद्वस्तु के सत्य में, जिसमें सब कुछ स्थित है, अपनी समग्र सचेतन सत्ता को प्रतिष्ठित करना होगा ( तत्पर: ), ताकि वह अपनी ज्योतिर्मय आत्म-सत्ता को हममें प्रकट कर सके ।

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१. ४-३८

२१३ 


     अन्त में इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमारे अन्दर ऐसी श्रद्धा होनी चाहिए जिसे कोई भी बौद्धिक संदेह विचलित न कर सके ( श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् ),  ''जिस अज्ञानी में श्रद्धा नहीं है, जो संशयात्मा है वह नाश को प्राप्त होता है; संशयात्मा के लिए न तो यह लोक है न परलोक, और न  सुख ।''  वास्तव में यह बिलकुल सच है कि श्रद्धा-विश्वास के बिना इस जगत् में या परलोक की प्राप्ति में कोई भी निश्चित स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती;  और जब कोई मनुष्य किसी सुनिश्चित आधार और वास्तविक सहारे को पकड़ पाता है तभी किसी परिमाण में लौकिक या पारलौकिक सफलता, संतोष और सुख को प्राप्त कर सकता है;  जो मन केवल संशयग्रस्त है वह अपने-आपको शून्य में खो देता है । परन्तु फिर भी निम्नतर ज्ञान में संदेह और अविश्वास होने का एक तात्कालिक उपयोग है;  किन्तु उच्चतर ज्ञान में ये रास्ते के रोड़े हैं, क्योंकि वहाँका सारा रहस्य बौद्धिक भूमिका की तरह सत्य और भ्रान्ति का सन्तुलन करना नहीं है, वहाँ तो स्वत:प्रकाशमान सत्य की सतत-प्रगतिशील अनुभूति होती रहती है और इसलिए संदेह और अविश्वास का कोई स्थान नहीं है । बौद्धिक ज्ञान में सदा ही असत्य अथवा अपूर्णत्व का मिश्रण रहता है जिसे हटाने के लिये स्वयं सत्य की संशयात्मक छानबीन करनी पड़ती है; परन्तु उच्चतर ज्ञान में असत्य नहीं घुस सकता और इस या उस मत पर आग्रह करके बुद्धि जो भ्रम के आती है वह केवल तर्क के द्वारा दूर नहीं होता, पर वहाँकी अनुभूति में लगे रहने से वह अपने-आप दूर हो जाता है । जो ज्ञान प्राप्त हो चुका है उसमें जो कुछ अपूर्णता रह गयी हो उसे अवश्य दूर करना होगा, किन्तु यह काम जो कुछ अनुभूति हो चुकी है उसके मूलपर संदेह करने से नहीं बल्कि अपने जीवन को आत्मा की अधिक गहराई, ऊँचाई और विशालता में ले जाकर अबतककी प्राप्त अनुभूति से आगे की और भी पूर्णतर अनुभूति की ओर बढ़ने के द्वारा होगा । और जो कुछ अभी अनुभूत नहीं हैं उसके लिये श्रद्धा के हथियार से भूमि तैयार करनी होगी, यहाँ तर्क और शंका का काम नहीं;  क्योंकि यह वह सत्य है जिसे बुद्धि नहीं दे सकती, तार्किक और यौक्तिक मन जिन विचारों में उलझा रहता है यह बहुधा उनसे विपरीत होता है । इस सत्य को प्रमाणों के द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती, इसको अपने आन्तरिक जीवन में उतारना होता है, यह वह महत्तर सद्वस्तु है जिसमें हमें संवर्द्धित होना है । फिर भी यह सत्य अपने-आपमें स्थित है और यदि हम अपने अज्ञान के इन्द्रजाल में न फँसे होते तो यह स्वयंसिद्ध होता । जो संशय और मोह हमें इस सत्य को स्वीकार करने और इसका अनुसरण करने से रोकते हैं वे अज्ञान से,

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१.  ४-४०

२१४


इन्द्रियविमोहित और मतवादविमूढ़ मन और हृदय से उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इनकी स्थिति निम्न और बाह्य सत्य में है और इसलिए उच्चतर सद्वस्तु के विषय में इन्हें संशय होता है ( अज्ञानसंभूतं हृत्स्थं संशयं ) । गीता कहती है कि जिनके सत्य को जानने से सब कुछ जाना जाता है ( यस्मिन् विज्ञाते सर्व विज्ञातम् ) उन परमात्मा के साथ एकत्व में निवास कर, सतत योगस्थ होकर, अनुभवगम्य ज्ञान के द्वारा, इस संशय को ज्ञान की तलवार से काट डालना होगा ।

      हमें वहाँ जो उच्चतर ज्ञान प्राप्त होता है वह ब्रह्मवित् पुरुष के लिए पदार्थ-मात्र को देखने की वह स्थायी दृष्टि है जो उसे ब्रह्म में निर्वाध रूप से स्थित होने पर प्राप्त होती है ( ब्रह्यविद् ब्रह्यणि स्थित: ) । यह सबका बहिष्कार कर केवल ब्रह्म का दर्शन, था चेतना या ज्ञान नहीं है, बल्कि सब कुछ को ब्रह्म में और आत्मवत् देखना है । यहाँ कहा गया है कि जिस ज्ञान के द्वारा हम लोग उस स्थिति में पहुँचते हैं जहाँसे फिर इस मानसिक प्रकृति के मोहजाल में लौटना नहीं होता, वही वह ज्ञान है  ''जिससे तू सर्वभूतों को अशेष रूप से आत्मा के अन्दर और फिर मेरे अन्दर देखेगा ।''  इसी बात को गीता ने अन्यत्र और भी अधिक विस्तृत रूप से इस प्रकार कहा है कि, ''सर्वत्र समदर्शी पुरुष सब भूतों में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में सब भूतों को देखता है । जो कोई मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मेरे अन्दर देखता है वह कभी मुझे नहीं खोता न मैं ही उसे खोता हूँ । जो एकत्व को प्राप्त योगी सब भूतों में स्थित मुझको भजता है वह चाहे जैसे रहे या करे पर मेरे ही अन्दर रहता और कर्म करता है । हे अर्जुन ! जो कोई सुख में, दुःख में, सर्वत्र, सबको अपनी ही तरह समान रूप से देखता है उसी को मैं परम योगी मानता हूँ । ''   यही उपनिषद् का पुरातन वैदांतिक ज्ञान है जिसे गीता सतत हम लोगों के सामने रखती है; परन्तु वेदान्त-ज्ञान के जो निरूपण पीछे हुए उनकी अपेक्षा गीता की श्रेष्ठता इस विषय में यही है कि गीता ने इस ज्ञान को दिव्य जीवन का एक महान् व्यवहार-शास्त्र बना दिया है । इस एकत्व-ज्ञान और कर्मयोग के परस्पर-सम्बन्ध के विषय में गीता का विशेष आग्रह है और इसीलिए जगत् में मुक्त कर्म के आधार के रूप में एकत्व के ज्ञान पर जोर दिया गया है । जहाँ-जहाँ गीता ज्ञान की बात कहती है वहीं-वहीं तुरत समता की बात भी कहती है, जो ज्ञानका फल है जहाँ-जहाँ वह समता की बात कहती है वहीं-वहीं ज्ञान को बात भी कहती है जो समता का आधार है । गीता जिस समता का उपदेश देती है उसका आरम्भ और अन्त जीव की स्थितिशील अवस्था में ही नहीं होता,--यह अवस्था तो केवल आत्म-मुक्ति के लिये ही उपयोगी है-गीता की 

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१. ४-३५   २. ६,२६-३२

२१५ 


समता सदा कर्मों की आधारभूमि है । मुक्त पुरुष में ब्रह्म की शान्ति नींव है और मुक्त प्रकृति में ईश्वर का विशाल, स्वतंत्र, सम और जगद्व्यापी कर्म उस शक्ति को संचारित करता है जो इस शान्ति से निःसृत होती है, और इन दोनों का एकीकरण दिव्य कर्म और दिव्य ज्ञान का समन्वय है ।

      गीता की ये बातें अन्य दार्शनिक, नैतिक या धार्मिक जीवन-सम्बन्धी शास्त्रों में भी हैं, किन्तु हम तुरत देख सकते हैं कि गीता में इनका अर्थ कितना गभीर और व्यापक है । हम कह चुके हैं कि तितिक्षा, दार्शनिक उदासीनता और नति तीन प्रकार की समता की नींव हैं; परन्तु गीता में जो ज्ञान का सत्य है वह इन तीनों को केवल एक साथ इकट्ठा ही नहीं करता, बल्कि इन्हें अत्यंत गभीर, अपूर्व एवं उदार सार्थक्य प्रदान करता है । स्टोइक ज्ञान जीव में धैर्य के द्वारा आत्मसंयम से आता है; वह अपनी प्रकृति से युद्ध करके समता लाभ करता है, जिसको वह प्राकृत विद्रोहों के सम्बन्ध में सतत सावधान रहकर और उन विद्रोहों को दबाकर बनाये रखता है । इससे एक महान् शान्ति मिलती है, एक तापस सुख मिलता है; परन्तु यह वह परम आनन्द नहीं है जो मुक्त पुरुष को, किसी नियम के अधीन रहने से नहीं, बल्कि अपनी दिव्य सत्ता की विशुद्ध, सहज-स्वाभाविक सिद्धस्थिति में रहने से प्राप्त होता है, यहाँ वह ''चाहे जिस तरह रहे, चाहे जो करे भगवान् में ही रहता और कर्म करता है ।'' कारण यहाँ जो सिद्ध-स्थिति प्राप्त होती है वह केवल प्राप्त ही नहीं होती, स्वाधिकार से सदा अधिकृत भी रहती है, इसकी रक्षा के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, क्योंकि वह जीव का स्वभाव बन जाती है । गीता निम्न प्रकृति के साथ हमारे युद्ध में सहनशक्ति और धैर्य को प्राथमिक साधन के तौर पर स्वीकार करती है; परन्तु जहाँ अपने पुरुषार्थ से एक प्रकार वशित्व प्राप्त होता है वहाँ इस वशित्व की मुक्तावस्था भगव-त्सायुज्य से ही अर्थात् व्यष्टिपुरुष के उन 'एक' अद्वितीय भगवान् में निमज्जित या स्थित होने से और अपनी इच्छा को भगवान् की इच्छा में खो देने से ही प्राप्त होती है । प्रकृति और उसके कर्मों के एक अधीश्वर हैं जो प्रकृति में रहते हुए भी उसके ऊपर हैं, वे ही हमारी सर्वोत्तम सत्ता और हमारी विश्वव्यापी आत्मा हैं; उनके साथ एक हो जाना अपने-आपको दिव्य बनाना है । भगवान् के साथ एकत्व लाभ करके हम परम स्वातंत्रय और परम प्रभुत्व में प्रवेश पाते हैं । स्टोइक तितिक्षा-धर्म का आदर्श वह मुनि है जो आत्मवशी है, अपना राजा अपने-आप है, क्योंकि वह आत्म-अनुशासन के द्वारा बाह्य परिस्थितियों को अपने वश में कर लेता है । यह आदर्श बाह्यत:  वेदान्त के 'स्वरातट्' और ' सम्राट्' से मिलता-जुलता है, पर

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१.    ६-३१

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है उससे निम्नतर स्तर का । स्टोइक साम्राज्य को रक्षा अपने-आपपर और अपनी परिस्थिति पर एक प्रकार का बल प्रयोग करके ही की जाती है; परन्तु योगी का पूर्ण मुक्त साम्राज्य दिव्य प्रकृति की सनातन स्वराट्-सत्ता से स्वभावत: सिद्ध है, यह जीव का ईश्वर की अबाध विश्व-सत्ता के साथ योग है । योगी जिस यत्नात्मक प्रकृति के द्वारा कर्म करता है उससे ऊपर उठकर अंत में बिना किसी बलात्कार के सहज ही अपनी उस ऊर्ध्व-सत्ता और श्रेष्ठता में ही निवास करता है । जगत् के सब पदार्थ उसके वश में होते हैं क्योंकि वह सब पदार्थों के साथ एकात्म हो जाता है । रोमन प्रथा का१  उदाहरण लें तो स्टोइक स्वाधीनता लिबर्टस की स्वाधीनता है जो मुक्त किये जाने के बाद भी उस शक्ति के अधीन रहता है जिसका वह गुलाम था । उसे प्रकृति से पुरस्कारस्वरूप मुक्ति मिली है । गीता की मुक्ति मुक्त पुरुष की सच्ची मुक्ति है, वह निम्न प्रकृति से निकलकर परा प्रकृति में जन्म लेने से प्राप्त मुक्ति है और वह अपनी दिव्यता में स्वत:स्थित रहती है । ऐसा मुक्त पुरुष जो कुछ करता है, चाहे जिस तरह से रहता है, रहता है भगवान् में ही; वह घर का लाडला लाल है, 'बालवत्है जिससे कोई भूल नहीं होती, जिसका कभी पतन नहीं होता, क्योंकि वह उन परम सिद्ध से, उन सर्वानन्द-भय सर्वसौंदर्यमय से भरा रहता है, वह जो कुछ करता है वह भी उन्हीं से परिपूर्ण होता है । जिस 'राज्यं समृद्ध' का वह् उपभोग करता है वह वही मधुर सुखमय राज्य है जिसके विषय में युनानी तत्ववेत्ता ने सारगर्भित शब्दों में कहा है ''वह शिशु-राज्य है ।''

     दार्शनिकों का ज्ञान ऐहिक जीवन के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है यानी जगत् के सब बाह्य पदार्थों की क्षणभंगुरता, जगत् के सारे भेद-प्रभेदों की निरर्थकता और आन्तरिक स्थिरता, शान्ति, ज्योति और आत्म-निर्भरता की श्रेष्ठता का ज्ञान है । यह दार्शनिक उदासीनता से प्राप्त एक प्रकार की समता है, जिससे एक बड़ी स्थिरता तो प्राप्त होती है, पर वह महान् आत्मानन्द नहीं मिलता; यह संसार से अलग रहकर मिलनेवाली मुक्तावस्था है । यह ज्ञान किसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हुए अपनी महिमा में स्थित ल्यूक्रेशियन पुरुष का, नीचे उस संसार समुद्र की--जिसमें से वह स्वयं निकल आया है--उद्दाम तरंगों से इधर-उधर झोंका खानेवाले दुखी प्राणियों को दूर से देखना है, है यह भी संसार से अलग रहना और अन्त में संसार के लिए व्यर्थ ही । उदासीनतारूपी दार्शनिक प्रेरक-भाव को गीता

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१. रोमन समाज में जो क्रीतदास होते थे उनमें से किसी-किसीको उत्तम सेवा कार्य के पुरस्कार-स्वरूप मुक्त कर दिया जाता था, पर इस मुक्ति के बाद भी वह उस सत्ता के अधीन ही होता था जिसने उसको एक दिन गुलाम बना रखा था; इसे लिवर्टस कहते थे ।

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एक प्रारम्भिक साधन के तौर पर स्वीकार करती है; परन्तु उदासीनता का गीता में जो अंतिम रूप है--उसके लिए यदि इस अपर्याप्त शब्द का किसी तरह से व्यवहार किया भी जाय तो--उसमे दार्शनिक अलगावका भाव नहीं है । वह 'उदासीनवत्' आसीन होना है सही, पर वैसे ही जैसे भगवान् ऊर्ध्व में आसीन हैं, जिन्हें इस जगत् में किसी चीज की जरूरत नहीं, फिर भी जो सतत कर्म करते और सर्वत्र वर्तमान रहकर प्राणियों के प्रयत्न के आश्रय, सहायक और परिचालक होते हैं । यह समता सब प्राणियों के साथ एकत्व पर प्रतिष्ठित है । दार्शनिक समता में जो कमी है वह इससे पूरी होती है; क्योंकि इसकी आत्मा शान्ति की आत्मा है और प्रेम की आत्मा भी । इस समता में भगवान् के अन्दर बिना अपवाद सबके दर्शन होते हैं । यह सब प्राणियों के साथ एकात्मभूत हो जाना है और इसलिए इसमें सबके साथ परम सहानुभूति रहती है । इस सर्वव्यापक, संपूर्ण आत्मगत सहानुभूति और आध्यात्मिक एकता में सबका 'अशेषेणं' ( बिना अपवाद ) समावेश होता है, जो कुछ अच्छा है, सुन्दर है केवल उसी के साथ नहीं बल्कि इसके अन्दर सब कुछ आ जाता है, फिर चाहे वह कितना ही नीच, पतित, पापी या घृणित प्रतीत होता हो । केवल द्वेष, क्रोध या अनुदारता के लिए ही नहीं, बल्कि अलगाव, घृणा या अपनी श्रेष्ठतारूपी किसी प्रकार के क्षुद्र गर्व के लिए भी इसमें कोई स्थान नहीं है । इस समता में भासमान, बाह्य मनुष्य के संघर्षरत मन की अज्ञानता के प्रति एक दिव्य करुणा होगी, उसपर समस्त प्रकाश और शक्ति और सुख की वर्षा करने के लिए एक दिव्य संकल्प होगा सही, पर उसके अन्दर की आत्मा के प्रति इनसे भी कोई बड़ी चीज होगी, उसके प्रति होंगे श्रद्धा और प्रेम । क्योंकि सबके भीतर से, जैसे साधुमहात्माओ के अन्दर से वैसे ही चोर, वेश्या और चाण्डाल के अन्दर से भी वे ही प्रियतम ताका करते और पुकार कर कहते हैं  ''यह मैं हूँ ।''    ''सब भूतों में जो मुझको प्यार करता है''--दिव्य सार्वत्रिक प्रेम की परम प्रगाढ़ता और गाम्भीर्य को देनेवाली इससे अधिक शक्तिशाली वाणी का प्रयोग संसार के और किस दर्शनशास्त्र या धर्म में हुआ है ?

      नति एक प्रकार की धार्मिक समता का आधार है, यह भगवान् की इच्छा के अधीन होना है, विपरीत अवस्थाओं को धैर्य के साथ सहन करना है, सब कुछ चुपचाप बरदाश्त करना है । गीता में यह नति तत्व एक अधिक विशाल रूप धारण करता है और वहाँ इसका स्वरूप है समग्र सत्ता का भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण । यह केवल निष्क्यि अधीनता नहीं है, बल्कि सक्रिय आत्म-दान है, यह समस्त वस्तुओं में विद्यमान भगवान् की इच्छा को देखना और स्वीकार करना भर नहीं है बल्कि अपनी निजी इच्छा को कर्मों के प्रभु, भगवान् को दे देना है, ताकि

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साधक उनका उपकरण बन सके और वह भी भगवान् का एक सेवक बनने की भावना से नहीं, बल्कि अंत में कम-से-कम इस भावना से कि वह अपनी चेतना और अपने कर्म, दोनों का ही उनमें संपूर्ण संन्यास कर दे, ताकि उसकी सत्ता भगवान् की सत्ता के साथ एक हो जाय और उसकी नैर्व्यक्तिक प्रकृति यंवमात्न रह जाय और कुछ नहीं । वह हर फल को चाहे अच्छा हो था बुरा, प्रिय हो या अप्रिय, शुभ हो या अशुभ, यह जानकर स्वीकार करता है कि वह कर्मों के प्रभु भगवान् का है और अंत में यह अवस्था हो जाती है कि शोक और दुःख केवल सहन ही नहीं किये जाते, बल्कि उन्हें निर्वासित कर दिया जाता है और चित्त के अन्दर पूर्ण समता प्रतिष्ठित हो जाती है । उपकरण में तब वैयक्तिक इच्छा या संकल्प का आरोप नहीं होता; यह देख पड़ता हैं कि जो कुछ हो रहा है वह सब विराट् पुरुष की सर्वज्ञ पूर्वदृष्टि और उनकी सर्वसमर्थ अमोघ शक्ति में पहले ही क्रियान्वित हो चुका है और मनुष्यों का अहंकार भगवान् के संकल्प के कार्यों को बदल नहीं सकता । इसलिए अंतिम रुख वही होगा जो अर्जुन को आगे चल-कर बताया गया है,   ''सब कुछ मेरे द्वारा मेरी दिव्य इच्छा और पूर्वज्ञान में पहले ही किया जा चुका है, तू, हे अर्जुन, केवल निमित्त बन जा ( निमित्तमात्रं भव सख्यसाचिन् ) ।'' इस रुख का अंतिम परिणाम यह होगा कि वैयक्तिक संकल्प भगवान् के संकल्प के साथ पूर्ण रूप से एक हो जायगा, जीव के अन्दर ज्ञान की वृद्धि होने लगेगी और उसकी प्रकृति, जो उपकरणमात्न है, सर्वथा निर्दोष होकर भागवत शक्ति और ज्ञान के अनुकूल बन जायगी । परात्पर पुरुष, विराट् पुरुष और व्यष्टि पुरुष की इस परम एकता की संतुलित अवस्था में अंतःकरण के अन्दर आत्म-समर्पण से प्राप्त पूर्ण और निरपेक्ष समता रहेगी, मन भागवत प्रकाश और शक्ति का निष्क्यि स्रोतमार्ग हो जायगा और हमारी सक्रिय सत्ता जगत् में दिव्य ज्योति और शक्ति के कार्य के लिए एक बलशाली अमोघ यंत्र हो जायगी ।

     इस अवस्था में हमारे अन्दर दूसरों के व्यवहार के प्रति भी समता रहेगी । उनके किसी व्यवहार से इस आंतरिक एकत्व, प्रेम और सहानुभूति में कोई अन्तर न पड़ेगा, क्योंकि सबमें जो एक आत्मा है, समस्त प्राणियों में जो भगवान् हैं उनका प्रत्यक्ष अनुभव होने से ही ये भाव उदित हुए हैं । परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि दूसरे लोग चाहे जैसा व्यवहार करें, उन्हें और उनके व्यवहारों को नत होकर सह या मान लिया जायगा, स्वयं निष्क्रिय रह जायगा और उनका कोई प्रतिरोध न होगा; यह नहीं हो सकता, क्योंकि जगदीश्वर के जागतिक संकल्प का उपकरण होकर सतत उनकी आज्ञा का पालन करने का यही तो

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१.  ११-३३

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अभिप्राय है कि जगत् में विरोधी शक्तियों का जो संघर्ष चल रहा है उसमें उन वैयक्तिक कामनाओं से युद्ध करना होगा जो अहंकार की तुष्टि में प्रवृत्त हैं । इसी लिअर्जुन को प्रतिरोध करने, लड़ने और जीतने का आदेश दिया गया है; पर साथ-साथ यह भी आदेश है कि लड़ना होगा द्वेष-रहित होकर, व्यक्तिगत काम-क्रोध को छोड्कर, शत्रुता का परित्याग करके, क्योंकि मुक्त पुरुष में ये मनोविकार नहीं होते । निरहंकार होकर लोक-संग्रह के लिए कर्म करना, लोगों को भगवन्मार्ग पर कायम रखने और चलाने के लिए कर्म करना वह धर्म है जो भगवान् के साथ, विश्व-पुरुष के साथ अपनी अंतरात्मा की एकता से स्वभावत: उत्पन्न होता है, क्योंकि विश्व के अखिल कर्म का संपूर्ण अभिप्राय और लक्ष्य यही है । इस कर्म का सब जीवों के साथ, यहाँतक कि हमारे विरोधी और शत्रु बनकर आनेवालों के साथ भी हमारी एकता का इससे कोई विरोध नहीं है । कारण भगवान् का जो लक्ष्य है वही उनका भी लक्ष्य है, क्योंकि वही सबका छिपा हुआ लक्ष्य है, उन जीवों का भी जिनके बहिर्मुख मन अज्ञान और अहंकार के मारे इस पथ से च्युत होकर भटका करते हैं और अपनी अंतःप्रेरणा का प्रतिरोध किया करते हैं । उनका विरोध करना और उन्हें हराना ही उनकी सबसे बड़ी बाहरी सेवा है । इस दृष्टि के द्वारा गीता उस अपूर्ण सिद्धांत का निराकरण कर देती है जो समता की एक ऐसी शिक्षा से उत्पन्न हो सकता था जिसमें अव्यावहारिक रूप से समस्त संबंधों की अवहेलना की जाती है और जो उस दुर्बलकारी प्रेम की शिक्षा से उत्पन्न हो सकता था जिसके मूल में ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है । परन्तु, वह असली तत्व को अक्षुण्ण रखती है । वह अंतरात्मा के लिए सबके साथ एकत्व है, हृदय के लिए अचल विश्व-प्रेम, सहानुभूति और करुणा; परन्तु हाथों के लिए नैर्व्यक्तिक रूप से हित-साधन करने का स्वातंत्रय--ऐसा हित-साधन नहीं जो भगवान् की योजना का कोई विचार न करे या उसके विरुद्ध जाकर इस या उस व्यक्ति के सुख-साधन में लग जाय, बल्कि ऐसा हित-साधन जो सृष्टि के हेतु का सहायक हो, जिससे मनुष्यों को अधिकाधिक सुख और श्रेय प्राप्त हो, सब भूतों का संपूर्ण  कल्याण हो ।

      भगवान् के साथ एकत्व, सब प्राणियों के साथ एकत्व, सर्वत्र सनातन भाग-वत एकता का अनुभव और इसी एकता की ओर मनुष्यों को आगे बढ़ा ले जाना,  यही वह जीवन-विषयक धर्म है जो गीता की शिक्षा से उद्भूत होता है । इससे अधिक महान्, अधिक व्यापकअधिक गभीर और कोई धर्म नहीं हो सकता । स्वयं मुक्त होकर इस एकत्व में रहना और मानव-जाति को इसी रास्ते पर आगे बढ़ने में मदद देना तथा अपने सब कर्मों को भगवान के लिए करते हुए (कृत्स्नकर्मकृत)

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और मनुष्यों को जिसका जो कर्तव्य कर्म है उसे हर्ष और उत्साह के साथ करने में बढ़ावा देना ( जोषयेत् सर्वकर्माणि ), इससे अधिक महान् और उदार दिव्यकर्मविधान नहीं हो सकता । यह मुक्त स्थिति और यह एकत्व हमारी मानव-प्रकृति का गुप्त लक्ष्य है और यही मानव-जाति के जीवन में अंतर्निहित चरम इच्छा है । इसी की ओर मनुष्यजातिको उस सुख की प्राप्ति के लिए मुड़ना होगा जिसे वह अभीतक नहीं खोज पायी । पर यह तब होगा जब मनुष्यों की आँखें खुलेंगी और वे अपनी इन आँखों और अपने इन हृदयों को ऊपर उठाकर अपनेमें, अपने चारों ओर, सब भूतों में ( सर्वेषु भूतेषु ) और 'सर्वत्र, भगवान् को देखने लगेंगे और यह जान लेंगे कि हम सब भगवान् में ही रहते हैं और हमारी यह भेदजनक निम्न प्रकृति केवल एक कैदखाने की दीवार है जिसे तोड़ डालना होगा, या फिर यह बच्चों के पढ़ने की एक पाठशाला है जिसकी पढ़ाई ख़तम करके आगे बढ़ना होगा जिससे हम प्रकृति में प्रौढ़ और आत्मा में मुक्त हो जायँ । ऊर्ध्वस्थित भगवान् के साथ, मनुष्य में और जगत् में स्थित भगवान् के साथ एकात्मभाव को प्राप्त होना ही मुक्ति का अभिप्राय और संसिद्धि का रहस्य है ।

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