Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
सांख्य और योग
गुरु अर्जुन की कठिनाइयों का पहला उत्तर संक्षेप में दे चुके, अब वे दूसरे उत्तर की ओर मुड़ते हैं और उनके मुँह से एक आध्यात्मिक समाधान करनेवाले जो पहले शब्द निकलते है उनमें तुरन्त वे यह बताते हैं कि सांख्य और योग में एक भेद है, जिसको जान लेना गीता को समझने के लिये अत्यंत आवश्यक है । भगवान् कहते हैं कि ''यह बुद्धि ( अर्थात् वस्तुओं और संकल्प का बुद्धिगत ज्ञान) तुझे सांख्य में बता दी, अब इसे योग में सुन, इस बुद्धि से यदि तू योग में स्थित रहे, तो हे पार्थ, तू कर्मबंधन को छुड़ा सकेगा ।'' जिन शब्दों से गीता इस भेद को सूचित करती है उनका यह शब्दश : अनुवाद है ।
गीता मूलत : वेदांत-ग्रंथ है । वेदांत के जो तीन सर्वमान्य प्रमाणग्रंथ हैं उनमें एक गीता है । श्रुति में अवश्य ही इसकी गणना नहीं की जाती, क्योंकि इसकी प्रतिपादनशैली बहुत कुछ बौद्धिक, तार्किक और दार्शनिक है, फिर भी इसका आधार परम सत्य ही है, लेकिन यह वह श्रुति, वह मंत्रदर्शन नहीं है जो ज्ञान की उच्च भूमिका में द्रष्टा को स्वत : प्राप्त होता है । तथापि इसका इतना अधिक आदर है कि यह ग्रंथ लगभग तेरहवीं उपनिषद् ही माना जाता है । परन्तु इसके वैदांतिक विचार आरम्भ से अंत तक सांख्य और योग के विचार से अच्छी तरह रंगे हुए हैं और इस रंग के कारण इसके दर्शन पर एक विलक्षण समन्वय की छाप आ गयी है । वास्तव में यह मूलत : योग की क्रियात्मक पद्धति का उपदेश है, और जो तात्विक विचार इसमें आये हैं वे इसके योगकी व्यावहारिक व्याख्या करने के लिए ही लिये गये हैं । यह केवल वेदांत-ज्ञान का ही निरूपण नहीं, बल्कि कर्म को ज्ञान और भक्तिकी नींव पर खड़ा करती और फिर कर्मको उसकी परिणति ज्ञान तक उठाकर उसे भक्ति से अनुप्राणित करती है जो कर्म का हृदय और उसके भाव का सारतत्व है । फिर, गीता का योग विश्लेषणात्मक सांख्यदर्शन पर स्थापित है, सांख्य को वह अपना आरम्भस्थल बनाता है और उसकी पद्धति और उसके मत में सांख्य को बराबर ही एक बड़ा स्थान प्राप्त है, तथापि गीता का यह योग सांख्य के बहुत आगे जाता है, यहांतक कि सांख्य की कुछ विशिष्ट बातों को अस्वी-
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कार करके यह एक ऐसा उपाय बताता है जिससे सांख्य के विश्लेषणात्मक कनिष्ठ ज्ञान के साथ उच्चतर समन्वयात्मक और वैदांतिक सत्य का सम्मिलन साधित होता है ।
तब फिर, गीता के ये सांख्य और योग क्या हैं ? ये अवश्य ही वे दर्शन नहीं हैं जो हमें यथाक्रम ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका और पतंजलि के योगसूत्रों के रूप में प्राप्त हैं । यह सांख्यकारिका का सांख्य नहीं है--सांख्य शब्द से जो साधारण धारणा होती है, कम-से-कम वह नहीं है; क्योंकि गीता कहीं एक क्षण के लिये भी जीवन के मूल सत्य-रूप से बहु पुरुषों का होना स्वीकार नहीं करती, बल्कि सांख्य-परंपरा जिसका जोरदार शब्दों में इनकार करती है उसी ''एक'' को गीता दृढ़ता के साथ आत्मा और पुरुष, फिर उसी ''एक'' को परमेश्वर, ईश्वर या पुरुषोत्तम तथा जगत् का आदि कारण घोषित करती है । सांख्य-परंपरा, आधुनिक परिभाषा में कहना हो तो, अनीश्वरवादी है; पर गीता के सांख्य में जगत्-कारण-रूप से ईश्वरवाद, बहुदेववाद और अद्वैतवाद, इन सभी सिद्धांतों का स्वीकार और सूक्ष्म समन्वय है ।
न गीता का योग पतंजलि का योगदर्शन ही है । पतंजलि का योगदर्शन राजयोग की केवल एक आत्मनिष्ठ प्रणाली है, एक आंतरिक अनुशासन है, एक नपी-तुली पद्धति है, एक बंधा हुआ कठोर साधनसूत्र है जिसमें उत्तरोत्तर चढ़ता हुआ एक कठोर शास्त्रीय साधनक्रम है, जिसके द्वारा मन को निस्तब्ध करके समाधि में पहुँचाया जाता है जिससे हमारे आत्म-अतिक्रमण के ऐहिक और पार-लौकिक, दोनों फल प्राप्त हों; ऐहिक, जीवन के ज्ञान और बल के अति विस्तार- द्वारा और पारलौकिक, भगवान् के साथ एकता द्वारा । परन्तु गीता का योग एक उदार, लचीली और बहुमुखी पद्धति है, जिसमें अनेक प्रकार के तत्वों का समावेश है, और ये सभी तत्व एक प्रकार के स्वाभाविक और सजीव सात्म्यकरण द्वारा गीता में समन्वित किये गये हैं; राजयोग तो इन तत्वों में से केवल एक तत्व है और वह भी कोई अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं । गीता के योग में कोई नियमबद्ध और शास्त्रीय श्रेणीविभाग का विधान नहीं है, यह योग तो स्वाभाविक आत्म-विकास की प्रक्रिया है । गीता चाहती है कि अन्दर की संतुलित अवस्था द्वारा और कर्म के कुछ सिद्धांतों के अवलंबन द्वारा जीव का पुनरुद्धार करे, निम्न प्रकृति से दिव्य प्रकृति में कोई परिवर्तन, आरोहण या नवजन्म लाये । इसी तरह इसका समाधि का विचार भी साधारणतया जो समाधि समझी जाती है उससे सर्वथा भिन्न है । पतंजलि योग में कर्म को एक प्रारम्भिक महत्ता देते हैं जिसकी आवश्यकता केवल नैतिक शुद्धि और धार्मिक एकाग्रता के लिये है, पर गीता कर्म
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को योग का विशेष लक्षण तक मानती है । पतंजलि कर्म को प्रारम्भिक साधन-मात्र मानते हैं और गीता में कर्म चिरंतन आधारभूत है । राजयोग में सिद्धि के मिलते ही कर्म को हटा देना पड़ता है या यह कहिये कि योगसाधन के लिये उसकी आवश्यकता नहीं रहती और गीता में कर्म सर्वोच्च अवस्था में पहुँचने का जहाँ साधन है वहाँ आत्मा के पूर्ण मोक्ष लाभ कर चुकने के बाद भी बना रहता है ।
यहाँ इतना कह देना इसलिए आवश्यक है कि उन परिचित शब्दों के प्रयोग से कोई भ्रम उत्पन्न न हो जो यहाँ अपने परिचित और रूढ़ अर्थ की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं । फिर भी सांख्य और योग दर्शनों में जो कुछ सार-तत्व है अर्थात् जो कुछ व्यापक, उदार और सर्वमान्य सत्य है वह गीता में स्वीकृत है, लेकिन गीता इन परस्पर-विरोधी दर्शनों के समान केवल उन्हीं सत्यों से बँधी नहीं है । गीता का सांख्य उदार और वेदांतमान्य सांख्य है, यह वह सांख्य है जिसके प्रथम सिद्धांत और तत्व उपनिषदों के वैदांतिक समन्वय में पाये जाते हैं और जिसका वर्णन बाद के विकास में अर्थात् पुराणों में भी आया है । गीता का योग वह आत्मनिष्ठ साधना और आंतरिक परिवर्तन है जो आत्मा को ढूँढ निकालने या भगवान् से एकता लाभ करने के लिये आवश्यक है और राजयोग इसका एक विशिष्ट प्रयोगमात्र है । गीता का आग्रह है कि सांख्य और योग परस्पर भिन्न, विसंगत और विरोधी शास्त्र नहीं हैं, बल्कि दोनों का सिद्धांत और उद्देश्य एक है, भेद केवल उनकी प्रक्यिा और मार्गारंभ में है । सांख्य भी योग है पर यह केवल ज्ञानमार्ग से आगे बढ़ता है, अर्थात् इसका आरम्भ हमारी सत्ता के तत्वों के बौद्धिक विवेक और विश्लेषण द्वारा होता है और अंत में यह सत्य का दर्शन कर उसपर अधिकार प्राप्त करके अपने लक्ष्य तक पहुँचता है । दूसरी ओर, योग कर्ममार्ग से अग्रसर होता है; इसका प्रथम सिद्धान्त है कर्मयोग; परन्तु गीता की संपूर्ण शिक्षा से तथा कर्म शब्द की जो परिभाषा पीछे की गयी है उससे स्पष्ट है कि कर्म शब्द का प्रयोग गीता में बहुत व्यापक अर्थ में किया गया है और योग शब्द से गीता का अभिप्राय है एक ऐसा नि:स्वार्थ समर्पण जिसमें हमारी समस्त आतरिक और बाह्य कर्मष्यताओं को यज्ञ-रूप से कर्म के ईश्वर को, उस सनातन परब्रह्म को भेंट कर देना होता है जो जीवकी समस्त ऊर्जा और तपस्या के स्वामी हैं । यह योग उस सत्य की साधना है जिसका दर्शन ज्ञान से होता है, इस साधना की प्रेरक-शक्ति है एक प्रकाशमान भक्ति का भाव, एक शांत या उग्र आत्मसमर्पण का भाव उस परमात्मा के प्रति जिन्हें ज्ञान पुरुषोत्तम के रूप में देखता है ।
पर सांख्य के सत्य क्या हैं ? सांख्य-दर्शन का यह नाम उसकी विश्लेषण-पद्धति के कारण पड़ा है; सांख्य में हमारी सत्ता के तत्वों का विश्लेषण, संख्या-
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करण, विभाजन और विवेचन है, जिनके संघात या संघात के फल को ही मनुष्य की साधारण बुद्धि देख पाती है । सांख्य-दर्शन ने समन्वय-साधन की कोई चेष्टा नहीं की । इस दर्शन का मूलभूत सिद्धांत यथार्थ में द्वैत है, वह आपेक्षिक द्वैत नहीं जो वेदांत का मत है, बल्कि यह वह द्वैत है जो सर्वथा निरपेक्ष और निराला है । इस सिद्धांत के अनुसार जगत्कारणस्वरूप कोई एक ही सत्ता नहीं है, बल्कि दो मूलतत्व हैं जिनका संयोग ही इस जगत् का कारण है--एक है पुरुष जो अकर्ता है और दूसरी है प्रकृति जो कर्त्रि है । पुरुष आत्मा है, साधारण और प्रचलित अर्थ में नहीं, बल्कि उस सचेतन सत्ता के अर्थ में जो अचल, अक्षर और स्वयं- प्रकाश है । प्रकृति है ऊर्जा और उसकी प्रक्रिया । पुरुष स्वयं कुछ नहीं करता, पर वह ऊर्जा और उसकी प्रक्रियाओं को आभासित करता है; प्रकृति जड़ है पर पुरुष में आभासित होकर वह अपने कर्म में चैतन्य का रूप धारण कर लेती है और इस प्रकार सृष्टि, स्थिति और संहार अर्थात् जन्म, जीवन और मरण, चेतना और अवचेतना, इन्द्रियगम्य और बुद्धिगम्य ज्ञान तथा अज्ञान, कर्म और अकर्म, सुख और दु:ख, ये सब घटनाएँ उत्पन्न होती हैं और पुरुष प्रकृति के प्रभाव में आकर इन सबको अपने ऊपर आरोपित कर लेता है । वास्तव में ये उसके अंग नहीं हैं बल्कि प्रकृति की क्रिया और उसकी गति के अंग हैं ।
प्रकृति र्त्रिगुणात्मिका है; सत्व ज्ञान का बीज है, यह ऊर्जा के कर्मों की स्थिति रखता है; रज शक्ति और कर्म का बीज है, यह शक्ति की क्रियाओं की सृष्टि करता है; तमस् जड़त्व और अज्ञान का बीज है, यह सत्व और रजका अपलाप है; जो कुछ वे सृष्टि करते तथा जिसकी वे स्थिति रखते हैं उसका यह संहार करता है । प्रकृति के ये तीन गुण जब साम्यावस्था में रहते हैं तब सब कुछ जहाँ-का-तहाँ पड़ा रहता है, कोई गति, कर्म या सृष्टि नहीं होती । इसलिए चिन्मय आत्मा की अक्षर ज्योतिर्मय सत्ता में आभासित या प्रतिबिंबित होनेवाली भी कोई वस्तु नहीं होती । पर जब यह साम्यावस्था विक्षुब्ध हो जाती है तब तीनों गुण परस्पर विषम हो उठते हैं और वे एक-दूसरेसे संघर्ष करते और एक-दूसरेपर अपना प्रभाव जमाने का प्रयत्न करते हैं, और उसी से विश्व को प्रकटाने-वाला यह सृष्टि, स्थिति और संहार का विरामरहित व्यापार आरम्भ होता है । यह कर्म तबतक होता रहता है जबतक पुरुष अपने अन्दर इस वैषम्यको, जो उसके सनातन स्वभाव को ढक देता और उसपर प्रकृति के स्वभाव को आरोपित करता है, प्रतिभासित होने देता है । पर जब पुरुष अपनी इस अनुमति को हटा लेता है तब तीनों गुण फिर साम्यावस्था को प्राप्त हो जाते हैं और पुरुष अपने सनातन अविकार्य अचल स्वरूप में लौट आता है, वह विश्व-प्रपंच से मुक्त हो जाता
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है । ऐसा लगता है कि अपने अन्दर प्रकृति को आभासित होने देना और यह अनुमति देना या लौटा लेना ही पुरुष की एकमात्र शक्ति है । प्रकृति को अपने अन्दर आभासित देखने के नाते पुरुष गीता की भाषा में साक्षी और अनुमति देने के नाते अनुमंता है, पर सांख्य के अनुसार वह कर्त्तारूप से ईश्वर नहीं है । उसका अनुमति देना भी निष्क्रय है और उस अनुमति को लौटा लेना एक दूसरे प्रकार की निष्क्रियता है । कर्ममात्र ही, चाहे वह आत्मनिष्ठ हो या वस्तुनिष्ठ, आत्मा का स्वधर्म नहीं, उसमें न कोई सकर्मक संकल्प है न कोई सकर्मक बुद्धि । इसलिए पुरुष अकेला ही इस जगत् का कारण नहीं हो सकता, और कोई दूसरा कारण भी है इसको स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है | केवल पुरुष ही अपने चिन्मय ज्ञान, संकल्प और आनंद के स्वभाव से जगत् का कारण नहीं है, बल्कि पुरुष और प्रकृति दोनों की द्विविध सत्ता ही जगत् का कारण है, एक है निष्क्रिय चैतन्य और दूसरी है गतिशील ऊर्जा । जगत् के अस्तित्व के विषय में सांख्य की व्याख्या उक्त प्रकार की है ।
परन्तु तब ये सचेतन बुद्धि और सचेतन संकल्प कहांसे आते हैं जिन्हें हम अपनी सत्ता का इतना बड़ा अंग अनुभव करते हैं और जिन्हें हम सामान्यत : और सहज ज्ञान से ही प्रकृति की कोई चीज न मानकर पुरुष की ही मानते हैं ? सांख्य के अनुसार बुद्धि और संकल्प सर्वथा प्रकृति की यांत्रिक ऊर्जा के अंग हैं पुरुष के गुणधर्म नहीं; ये दोनों ही बुद्धि-तत्व हैं जो जगत् के चौबीस तत्वों में से एक तत्व है । इस सृष्टि के विकास के मूल में प्रकृति अपने तीनों गुणों सहित सब पदार्थों की मूल वस्तु के रूप में अव्यक्त अचेतन अवस्था में रहती है । फिर उसमें से क्रमश : ऊर्जा या जड़तत्व,--क्योंकि सांख्य-दर्शन में ऊर्जा और महाभूत एक ही चीज हैं--के पाँच मूल तत्व प्रकट होते हैं । इनको प्राचीन शास्त्रों में पंचमहाभूत कहा है, ये हैं आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी; पर यह याद रहे कि आधुनिक सायंस की दृष्टि में ये मूलतत्व नहीं हैं, बल्कि ये जड़-प्राकृतिक शक्ति की ऐसी अति सूक्ष्म अवस्थाएँ हैं जिनका विशुद्ध स्वरूप इस स्थूल जगत् में कही भी प्राप्य नहीं । सब पदार्थ इन्हीं पांच सूक्ष्म तत्वों के संघात से उत्पन्न होते हैं । फिर इन पंचमहाभूतों में से, प्रत्येक से एक-एक तन्मात्रा उत्पन्न होती है । ये पंचतन्मात्राएँ हैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध । इन्हीं के द्वारा ज्ञानेंद्रियों को विषयों का ज्ञान होता है । इस प्रकार मूल प्रकृति से उत्पन्न इन पंचमहाभूतों और उनकी इन पंचतन्मात्राओं से, जिनके द्वारा स्थूल का बोध होता है, उसका विकास होता है जिसे आधुनिक भाषा में विश्व-सत्ता का वस्तुनिष्ठ पक्ष कहते हैं ।
तेरह तत्व और हैं जिनसे विश्व-ऊर्जा का आत्मनिष्ठ पक्ष निर्मित होता है-
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बुद्धि या महत्, अहंकार, मन और उसकी दस इन्द्रियां ( पांच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ ) । मन मूल इन्द्रिय है, यह बाह्य पदार्थों का अनुभव करता और उनपर प्रतिक्रिया करता है; क्योंकि इसमें अंतर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों क्रियाएँ साथ-साथ होती रहती हैं; इन्द्रियानुभव के द्वारा यह उन अर्थों को ग्रहण करता है जिन्हें गीता में ''बाह्य स्पर्श'' कहा गया है और उनके द्वारा जगत् को जानता और सक्रिय प्राणशक्ति द्वारा उसपर प्रतिक्रिया करता है । परन्तु पाँच ज्ञानेद्रियों की सहायता से, शब्द स्पर्श रूप रस और गंध जिनके विषय हैं यह अपनी ग्रहण करने की अति सामान्य क्रियाओं को विशेष रूप से चलाता है; इसी प्रकार पाँच कर्मेन्द्रियों की सहायता से वाणी, गति, वस्तुओं के ग्रहण, विसर्जन और प्रजनन के द्वारा यह प्रतिक्रिया करनेवाली कतिपय प्राणी की आवश्यक क्रियाओं को विशेष रूप से चलाता है । बुद्धि जो विवेक-तत्व है, वह एक ही साथ बोध और संकल्प दोनों है, यह प्रकृति की वह शक्ति है जो विवेक के द्वारा पदार्थों को उनके गुण-धर्मानुसार पृथक् करती और उनमें संगति बैठाती है । अहंकार बुद्धि का अहं- पद-वाच्य वह तत्व है जिससे पुरुष प्रकृति और उसकी क्रियाओं के साथ तादात्म्य को प्राप्त होता है । परन्तु ये आत्मनिष्ठ करण उतने ही यांत्रिक हैं, अचेतन प्रकृति के उतने ही अंश हैं जितने कि उसके वस्तुनिष्ठ करण । यदि हमारी समझ में यह बात न आती हो कि कैसे बुद्धि और मन जड़ प्रकृति के अंश हैं या स्वयं जड़ हैं तो हमें इतना ही याद रखना चाहिये कि आधुनिक सायंस को भी यही सिद्धांत ग्रहण करना पड़ा है । परमाणु की अचेतन क्रिया में भी एक शक्ति होती है जिसे अचेतन संकल्प ही कह सकते हैं, प्रकृति के सब कर्मों में यही व्यापक संकल्प अचेतन रूप से बुद्धि का काम करता है । हम लोग जिसे मानसिक बुद्धि कहते हैं वह तत्वतः ठीक वही चीज है जो इस जड़-प्राकृतिक विश्व के सब कर्मों में अवचेतन रूप से विवेक करने और संगति मिलाने का काम किया करती है, और आधुनिक सायंस यह दिखलाने का यत्न करती है कि मनुष्य के अन्दर जो सचेतन मन है वह भी अचेतन प्रकृति के जड़ कर्म का ही परिणाम और प्रतिलिपि है । परन्तु आधुनिक विज्ञान जिस विषय को अँधेरे में छोड़ देता है अर्थात् किस प्रकार जड़ और अचेतन सचेतन का रूप धारण करता है, उसे सांख्यशास्त्र समझा देता है । सांख्य के अनुसार इसका कारण है प्रकृति का पुरुष में प्रति-भासित होना; पुरुष के चैतन्य का प्रकाश जड़ प्रकृति के कर्मों पर आरोपित होता है और पुरुष साक्षी-रूप से प्रकृति को देखता और अपने-आपको भूलता हुआ प्रकृति द्वारा प्रेरित भाव से विमोहित होकर यह समझता है कि मैं ही सोचता, अनुभव करता और संकल्प करता हूँ, मैं ही सब कामों का कर्ता हूँ, जब कि यथार्थ
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में ये सब कर्म प्रकृति और उसके तीन गुणों द्वारा हो रहे हैं, उसके द्वारा जरा भी नहीं । इस मोह को दूर करना प्रकृति और उसके कर्मों से आत्मा के मुक्त होने का प्रथम सोपान है ।
अवश्य ही हमारे इस जगत् में बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें सांख्यशास्त्र निरूपित नहीं करता और करता भी है तो पूर्ण समाधानकारक रीति से नहीं, परन्तु यदि हम जो कुछ चाहते हैं वह इतना ही है कि हम केवल यौक्तिक व्याख्या द्वारा यह समझ लें कि इस विश्व की प्रक्रियाएँ तत्वत: क्या हैं जिसमें हम उस लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकें जो सभी प्राचीन दर्शनों का लक्ष्य है, अर्थात् विश्व-प्रकृति के जंजाल से आत्मा की मुक्ति, तब तो सांख्य का जगत्-निरूपण और मुक्ति का मार्ग उतना ही उत्तम और प्रभावकारी है जितना कि कोई अन्य मार्ग । यहाँ जो बात पहले समझ में नहीं आती वह यह है कि सांख्य प्रकृति को एक, और पुरुष को अनेक मानकर अपने द्वैत सिद्धांत में बहुत्व की स्थापना किसलिए करता है । ऐसा मालूम होता है कि एक ही प्रकृति और एक ही पुरुष को मानने से भी विश्व की सृष्टि और उसके प्रसरण की व्याख्या की जा सकती थी । परन्तु पदार्थों के मूल तत्वों के निरीक्षण की कठोर विश्लेषण-पद्धति के फलस्वरूप पुरुष-बहुत्व के सिद्धांत का प्रतिपादन करना सांख्य के लिये अनिवार्य था । पहली बात यह है कि हम इस संसार में अनेक सचेतन प्राणियों को देखते हैं और इनमें से प्रत्येक इस जगत् को अपने ही ढंग से देखता है, और इसकी आंतरिक और बाह्य वस्तुओं को अपने ही ढंग से अनुभव करता है । यद्यपि अनुभव करनेवाली तथा प्रतिक्रिया करनेवाली क्रियाएँ एक ही हैं फिर भी प्रत्येक प्राणी इसके साथ पृथक्-पृथक् रूप से व्यवहार करता है । पुरुष यदि एक ही होता तो यह केन्द्रीय स्वातंत्र्य और पार्थक्य न होता, सभी प्राणी जगत् को एक-सा अनुभव करते और देखते, एक ही रूप में पदार्थों को ग्रहण करते और सबका व्यवहार उनके साथ एक-सा ही होता । चूँकि प्रकृति एक है, इसलिए सब प्राणी उसी एक जगत् को देखते हैं; और चूंकि उसके तत्व हर जगह एक ही हैं इसलिए जिन सर्वसाधारण तत्वों के कारण आंतरिक और बाह्य अनुभूतियाँ होती हैं वे भी सबके लिए एक-सी हैं; परन्तु इन प्राणियों की दृष्टि, विचार और रुख में तथा इनके कर्म, अनुभव और अनुभव से भागने की वृत्ति में जो असंख्य भेद हैं--अवश्य ही ये भेद प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया के नहीं, बल्कि साक्षी चेतना के हैं--इस विषय की इसके सिवाय और कोई व्याख्या नहीं हो सकती कि बहुत-से साक्षी हैं, अनेक पुरुष हैं । हम कह सकते हैं कि पृथक्त्व धर्मवाला अहंकार ही कारण है, यही इस विषय का पर्याप्त उत्तर है । पर अहंकार तो प्रकृति का एक तत्व है जो सबके लिये समान है, उसमें भेद होना
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जरूरी नहीं है । वह स्वयं तो केवल इतना ही करता है कि पुरुष को प्रकृति के साथ तादात्म्य कर लेने में प्रवृत्त करे, और यदि एक ही पुरुष होता तो सब जीव एक होते, अपनी अहंभावमय चेतना में जुटे हुए और एक-से होते । उनके रूपों में और उनके प्राकृतिक अंगों के संघातों के ब्योरे में चाहे कितना भी भेद होता तो भी जीव पर पड़नेवाले जगत्-दृश्य का असर भिन्न-भिन्न प्रकार का न होता और सबकी अनुभूति भिन्न-भिन्न प्रकार की न होती । प्रकृति में होनेवाले परिवर्तनों से एक साक्षी या एक पुरुष में यह केन्द्रिक भेद, यह दृष्टयंतर और अथ से इति पर्यन्त अनुभूति का यह पार्थक्य न होना चाहिये था । इसलिए वेदांत के पुरातन ज्ञान से निकली हुई, पर पीछे उससे विच्छिन्न, सांख्य की पद्धति में बहु पुरुष का सिद्धांत एक न्याय-संगत आवश्यकता थी । विश्व और उसकी प्रक्रिया को एक पुरुष और एक प्रकृति का व्यापार कहकर समझाया जा सकता है, किन्तु इससे विश्व में सचेतन जीवों की बहुलता का समाधान नहीं होता ।
फिर इतनी ही बड़ी एक और कठिनाई है । अन्य दर्शनों की तरह सांख्य ने भी अपना लक्ष्य ''मोक्ष'' ही रखा है । हम कह आये हैं कि यह मोक्ष, पुरुष द्वारा प्रकृति के कर्मों से अपनी अनुमति हटा लेने से प्राप्त होता है, क्योंकि प्रकृति के ये कर्म उसीको आनन्द देने के लिये हैं । परन्तु, वास्तव में, यह कहने का एक ढंग है । पुरुष अकर्ता है और अनुमति देने या हटा लेने की जो क्रिया है वह यथार्थ में पुरुष की नहीं हो सकती, बल्कि यह अवश्य ही, स्वयं प्रकृति में होनेवाली एक गति है । विचार करने से मालूम होगा कि यह भी बुद्धितत्व में---विवेकशील संकल्प में--होनेवाली एक क्रिया है, उसकी एक प्रतिक्षेपक या प्रत्यावर्तनकारी गतिमात्र है । बुद्धि ही मन के द्वारा होनेवाली विषय-प्रतीति से अपना संबंध जोड़ती रही है; बुद्धि ही विश्व-प्रकृति के द्वारा होनेवाले कर्मों का व्यतिरेक और अन्वय करती और अहंकार की सहायता से प्रकृति के विचार, अनुभव और कर्म के साथ द्रष्टा पुरुष का तादात्म्य-साधन करती रही है । यही बुद्धि फिर विवेक द्वारा इस कटु और विघटनात्मक अनुभूति को प्राप्त होती है कि प्रकृति के साथ पुरुष का तादात्म्य केवल भ्रम है; अंत में इसको यह विवेक होता है कि पुरुष प्रकृति से अलग है और यह सारा विश्वप्रपंच प्रकृति के गुणों की साम्यावस्था का दिक्षोभमात्र है । तब बुद्धि, जो एक ही साथ बुद्धि और संकल्प-शक्ति भी है, इस मिथ्यात्व से तुरंत हट जाती है जिसका वह अबतक पोषण करती रही है, और पुरुष बंधन-मुक्त हो जाता है और विश्वप्रपंच में रमनेवाले मन का संग नहीं करता । इसका अंतिम फल यह होता है कि प्रकृति की पुरुष में प्रतिभासित होने की शक्ति नष्ट हो जाती है । क्योंकि अहंकार का प्रभाव अब नष्ट हो
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गया है और बुद्धि-संकल्प के उदासीन हो जाने के कारण प्रकृति की अनुमति का साधन नहीं रहता : तब अवश्य ही उसके गुण आप ही साम्यावस्था को प्राप्त होंगे, विश्व-प्रपंच बंद हो जायगा और पुरुष को अपनी अचल शांति में लौट जाना होगा । परन्तु यदि पुरुष एक ही होता तो बुद्धि-संकल्प के भ्रम से निवृत्त होते ही सारा विश्व-प्रपंच ही बन्द हो जाता । पर हम देखते हैं कि ऐसा नहीं होता । असंख्य प्राणियों में से कुछ ही मोक्ष को प्राप्त होते या मोक्ष-मार्ग के अनुगामी होते है ; शेष सब प्राणी जहाँ-के-तहाँ रहते हैं और विश्व-प्रकृति की जो क्रीड़ा उनके साथ हो रही है उसमें इस क्षिप्र त्याग से उस प्रकृति को रंचमात्र भी असुविधा नहीं होती जब कि उसका सारा कारबार ही इस कार्य से बन्द हो जाना चाहिये था । इसकी व्याख्या के लिये यही कहा जा सकता है कि पुरुष अनेक हैं और वे सब-के-सब स्वतंत्र हैं । वैदांतिक अद्वैतवाद की दृष्टि के अनुसार यदि इसकी कोई न्याय-संगत व्याख्या हो सकती है तो वह मायावाद है । पर मायावाद को मान लेने पर यह सारा प्रपंच एक स्वप्नमात्र हो जाता है, तब बंधन और मुक्ति दोनों ही अविद्या की अवस्थाएँ, माया की व्यावहारिक भ्रातिमात्र हो जाती हैं; वास्तव में न कोई बद्ध है, न कोई मुक्त । सांख्य जो अधिक यथार्थवादी है, सृष्टि-विषयक इस मायिक भावना को स्वीकार नहीं करता कि यह सब दृष्टि-भ्रम है । इसलिए वह वेदांत के इस समाधान को ग्रहण नहीं कर सकता । इस प्रकार यहाँ भी सांख्यों की जगत्-विश्लेषण-पद्धति से प्राप्त निष्कर्षों को ग्रहण करते हुए बहु पुरुष का सिद्धांत ही अपरिहार्य रूप से मानना पड़ता है ।
गीता सांख्य के इस विश्लेषण को ग्रहण करके अपना उपदेश आरंभ करती है और जहाँ वह योग का निरूपण करती है वहाँ भी पहले तो ऐसा दिखायी देता है मानो वह सांख्य के इस विचार को प्रायः पूर्णतया स्वीकार करती है । वह प्रकृति, उसके तीन गुणों और चौबीस तत्वों को स्वीकार करती है; प्रकृति द्वारा समस्त कर्मों का होना और पुरुष का अकर्ता होना भी गीता को स्वीकार है; विश्व में अनेक सचेतन प्राणियों का होना भी उसे स्वीकार है; अहंकार का तथा बुद्धि की भेदभाव करनेवाली क्रिया का लय और प्रकृति के गुण-कर्म का अतिक्रमण ही मोक्ष का साधन है, इसको भी गीता स्वीकार करती है । आरंभ से ही अर्जुन से जिस योग की साधना करने को कहा जा रहा है, वह है बुद्धियोग । परन्तु एक महत्वपूर्ण व्यत्यय या भेद है । यहाँ पुरुष एक है, अनेक नहीं । गीता का मुक्त, अशरीरी, अचल, सनातन, अक्षर पुरुष केवल एक बात को छोड़कर और सब बातों में वेदांत की भाषा में सांख्यों का ही सनातन, अकर्ता, अचल, अक्षर पुरुष है । पर बहुत बड़ा भेद यही है कि यह पुरुष एक है, बहु नहीं ।
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इससे वह बड़ी कठिनाई उपस्थित होती है जिसको सांख्य का बहुपुरुषवाद टाल जाता है, और फिर किसी सर्वथा नये समाधान की आवश्यकता खड़ी हो जाती है । गीता यह समाधान, अपने वैदांतिक सांख्य में वैदांतिक योग के सिद्धांतों और तत्वों को लाकर करती है ।
जो पहला नया महत्वपूर्ण सिद्धांत यहाँ प्राप्त होता है वह स्वयं पुरुष के संबंध में है । प्रकृति कर्म का संचालन करती है पुरुष के आनन्द के लिये । पर यह आनन्द कैसे साधित होता है ? सांख्यों के विश्लेषण में इस आनन्द के साधन में शांत साक्षी की निष्क्रिय अनुमतिमात्र ही कारण है; निष्क्रिय रहकर साक्षी पुरुष बुद्धि और अहंकार के कार्य में अनुमंता होता है और निष्क्रिय रहकर ही वह उस बुद्धि के अहंकार से अलग हट जाने में अनुमति देता है । पुरुष द्रष्टा है, अनुमति का मूल कारण है, आभास के द्वारा प्रकृति के कर्म को धारण करनेवाला है,--इस प्रकार साक्षी, अनुमंता और भर्ता है, इसके सिवाय और कुछ नहीं । परन्तु गीतोक्त पुरुष प्रकृति का प्रभु भी है, वह ईश्वर है । जहाँ सकल्पात्मक बुद्धि का संचालन प्रकृति के हाथ में है, वहाँ सचेतन पुरुष ही सक्रिय रूप से इसका प्रवर्तन करता और इसे शक्ति देता है; वही तो प्रकृति का प्रभु है । जहाँ 'संकल्पात्मक' बुद्धि के कार्य प्रकृति के हैं, वहाँ पुरुष ही सक्रिय रूप से इस बुद्धि को आधार और प्रकाश प्रदान करता है । वह केवल साक्षी ही नहीं, बल्कि ज्ञाता और ईश्वर भी है, ज्ञान और संकल्प का स्वामी भी है । प्रकृति की कर्म में प्रवृत्ति का वही परम कारण है । सांख्यों की विश्लेषणात्मक विवेचन-पद्धति में पुरुष और प्रकृति विश्व के दो कारण हैं; और इस समन्वयात्मक सांख्य में पुरुष, अपनी प्रकृति के द्वारा, विश्व का एकमात्र कारण है । हम तुरन्त देख सकते हैं कि सांख्य-परंपरा की जकड़ी हुई कट्टर-पंथी विश्लेषण-प्रणाली से हम कितनी दूर निकल आये ।
परन्तु गीता आरंभ से जिस एक, अद्विनीय पुरुष की बात कह रही है जो अक्षर, अचल और नित्य मुक्त है, उसका क्या हुआ ? वह अव्यय, अविकार्य, अज, अव्यक्त ब्रह्म है, फिर भी उसीके द्वारा यह सारा विश्व प्रसारित है । इसलिए ऐसा मालूम होगा कि ईश्वरतत्व उसकी सत्ता में है; एक ओर यदि वह अचल है तो दूसरी ओर समस्त कर्मों और गतियों का कारण और प्रभु भी है । पर कैसे ? और विश्व में जो अनेक सचेतन प्राणी हैं, कैसे हैं ? ये तो ईश नहीं, अनीश ही प्रतीत होते हैं, क्योंकि ये त्रिगुण
के कर्म और अहंकारजन्य भ्रमके वशीभूत हैं और यदि ये सब एक ही आत्मा हैं, जैसा कि गीताका आशय मालूम होता है, तो यह प्रकृति में लीनता, वश्यता और भ्रांति कहाँसे उत्पन्न हुई, अथवा इसका सिवाय
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यह कहने के कि पुरुष सर्वथा निष्क्रिय है, दूसरा क्या समाधान है ? और, फिर पुरुष का यह बहुत्व कहाँसे आया ? अथवा यह क्या बात है कि जहाँ उस एक, अद्वितीय पुरुष की किसी एक शरीर और मन में तो मुक्ति होती है, वहीं अन्य शरीरों और मनों में वह बंधन के भ्रम में बना रहता है ? ये शंकाएँ हैं जिनका समाधान करना ही होगा, इन्हें योंही नहीं टाला जा सकता ।
गीता के बाद के अध्यायों में इन सब शंकाओं का, प्रकृति और पुरुष के विश्लेषण द्वारा समाधान किया गया है । इस विश्लेषण में कुछ ऐसे नवीन तत्वों का आविष्कार किया गया है जो सांख्य-परंपरा के लिये तो पराये हैं, पर वैदांतिक योग के लिये उपयुक्त हैं । यहाँ तीन पुरुष या एक पुरुष के तीन पाद कहे गये हैं । उपनिषदों में सांख्य सिद्धांतों का विवेचन करते हुए कभी-कभी दो ही पुरुषों का वर्णन देख पड़ता है । एक मंत्र में यह वर्णन है कि एक अजा है जिसके तीन वर्ण है यह प्रकृति के सनातन स्त्री-तत्व का वर्णन है जो अपने तीनों गुणों के साथ सतत सृष्टि-कर्म कर रही है; और दो अज हैं, दो पुरुष हैं जिनमें से एक प्रकृति से लिपटा हुआ है और उसे भोगता है, दूसरा उसे त्याग देता है, क्योंकि वह उसके सब भोग भोग चुका है । दूसरे मंत्र में यह वर्णन है कि एक वृक्ष पर दो पक्षी हैं, दोनों एक-दूसरेके सदा से सयुज सखा हैं; एक उस वृक्ष के फल खाता है (अर्थात् प्रकृतिस्थ पुरुष प्रकृति के विश्व-प्रपंच को भोगता है ), दूसरा नहीं खाता, पर अपने सखा को देखता रहता है-यह निश्चल और नीरव साक्षी पुरुष है जो भोग से निवृत्त है; जब पहला दूसरेको देखता और यह जानता है कि सारी महिमा उसी की है तब वह दु:ख से मुक्त हो जाता है । दोनों मन्त्रों में विभिन्न दृष्टि से वर्णन किया गया है, पर आशय दोनों का एक है । उन दो पक्षियों में से एक सदा निश्चल-नीरव मुक्त पुरुष है जिसके द्वारा यह विश्व प्रसारित है और जो अपने द्वारा प्रसारित इस विश्व को देखता है, पर इससे निर्लिप्त रहता है; दूसरा प्रकृतिस्थ पुरुष है । प्रथम मंत्र यह बतलाता है कि दोनों पुरुष एक ही हैं, उसी एक चिद्रूप पुरुष की बद्ध और मुक्त इन दो अवस्थाओं को प्रतिभासित करते हैं; क्योंकि जो दूसरा अज है वह प्रकृति में उतरकर उसके भोगों को भोगकर उनसे निवृत्त हुआ है । दूसरा मंत्र यह बात बतलाता है, जो हमको पहले मंत्र से नहीं मिलती, कि पुरुष अपनी एकत्व की परमावस्था में सदा ही मुक्त, अकर्ता और अनासक्त है और केवल अपनी निम्न सत्ता में स्थित होकर प्रकृति द्वारा सृष्ट प्राणियों के बहुत्व में उतर आता है और फिर किसी व्यक्तिभूत प्राणी के द्वारा वापस लौटकर प्रकृति से निवृत्त हो जाता और अपनी उच्चतर अवस्था में आ जाता है । एक ही सचेतन आत्मा की द्विविध अवस्था
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का यह सिद्धांत एक रास्ता तो खोल देता है, पर एक के अनेक होने की प्रक्रिया अब भी उलझी हुई है ।
इन दो पुरुषों में, गीता उपनिषदों१ के अन्य वचनों का आशय विशद करते हुए एक और पुरुष मिलाती है, जिसकी महिमा यह सारी सृष्टि है । इस प्रकार तीन पुरुष हुए क्षर, अक्षर और उत्तम । क्षर क्षरणशील विकार्य प्रकृति है, स्वभाव है; यह है जीव की बहुविध संभूति; यहाँपर जो पुरुष है वह भागवत सत्ता की बहुत्वावस्था है, यही बहुपुरुष है, यह पुरुष प्रकृति से स्वतंत्र नहीं है, बल्कि यह 'प्रकृतिस्थ पुरुष' है । अक्षर, कूटस्थ, अविकार्य पुरुष निश्चल-नीरव और निष्क्रिय आत्मा है, यह भागवत सत्ता की एकत्वावस्था है, यहाँ पुरुष प्रकृति का साक्षी है, पर प्रकृति के कार्यों में लीन नहीं; यह प्रकृति और उसके कर्मों से मुक्त, अकर्ता पुरुष है । उत्तम पुरुष परमेश्वर, परब्रम्ह, परमात्मा है, जिसमें अक्षर का एकत्व और क्षर का बहुत्व, दोनों ही अवस्थाएँ सन्निविष्ट हैं । वह अपनी प्रकृति की विशाल गतिशीलता और कर्म के द्वारा, अपनी कर्ती शक्ति, अपने संकल्प और सामर्थ्य के द्वारा जगत् में अपने-आपको व्यक्त करता है और अपनी महत्तर निस्तब्धता और अचलता के द्वारा उससे अलग रहता है; फिर भी वह अपने पुरुषोत्तम-रूप में, प्रकृति से अलगाव और प्रकृति से आसक्ति इन दोनों अवस्थाओं के ही परे है । पुरुषोत्तम की यह भावना यद्यपि उपनिषदों में सर्वत्र ही अभिप्रेत है, तथापि इसको स्पष्ट और विनिश्चित रूप से गीता ने ही सामने रखा है और भारतीय धार्मिक चेतना के पिछले संस्कारों पर इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है । अद्वैतवाद की सूत्रबद्ध परिभाषाओं का अतिक्रम कर जाने का दावा करनेवाले उच्चतम भक्तियोग का आधार यही पुरुषोत्तम-भाव है और भक्ति-प्रधान पुराणों के पीछे भी यही भाव है ।
गीता सांख्यशात्र के प्रकृति-विश्लेषण के चौखटे के अन्दर भी बँधी नहीं रहती; क्योंकि इस विश्लेषण के अनुसार प्रकृति में केवल अहंकार को स्थान मिलता है, बहु-पुरुष को नहीं-वहाँ पुरुष प्रकृति का कोई अंश नहीं, बल्कि प्रकृति से पृथक् है । इसके विपरीत गीता का सिद्धांत यह है कि परमेश्वर ही अपने स्वभाव से जीव बनता है । यह कैसे संभव है जब विश्व-प्रकृति के चौबीस तत्व हैं, चौबीस छोड़कर कोई पच्चीसवाँ तत्व नहीं ? गीता के भगवान् गुरु कहते हैं कि हाँ, त्रिगुणात्मिका प्रकृति के बाह्य कर्म का यही सही विवरण है और इस विवरण में पुरुष और प्रकृति का जैसा संबंध बताया गया है, वह भी बिलकुल
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१. पुरुष:...... -अक्षरात्......परत: पर:--यधपि अक्षर पुरुष परम है, पर उससे भी परे एक परम पुरुष है, उपनिषदें ऐसा कहती हैं ।
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सही है और प्रवृत्ति या निवृत्ति के साधन में इसका बहुत बडी व्यावहारिक उपयोग भी है; परन्तु यह त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति है जो जड़ और बाह्य है, इसके परे एक परा प्रकृति है जो चित्स्वरूपा और भागवत-भावरूपा है और यही परा प्रकृति जीव बनी है । अपरा प्रकृति में प्रत्येक जीव अहंकार के रूप में भासित होता है, परा प्रकृति में प्रत्येक जीव व्यष्टिरूप पुरुष है, अर्थात् बहुत्व उस एक का ही आध्यात्मिक स्वभाव है । यह व्यष्टि-पुरुष, भगवान् कहते हैं कि, स्वयं मैं हूँ, इस सृष्टि में मेरा ही आशिक प्राकटय है, यह मेरा ही अंश है, ' 'ममैवांश:'', और इसमें मेरी सब शक्तियाँ मौजूद हैं; यह साक्षी है, अनुमंता है, भर्ता है, ज्ञाता है, ईश्वर है । यह अपरा प्रकृति में उतर आता है और यह समझता है कि मैं कर्म से बँधा हूँ, इसलिये कि निम्न सत्ता को भोग सके; यह इससे निवृत्त होकर यह जान सकता है कि मैं कर्म के बंधन से सर्वथा विनिर्मुक्त अकर्ता पुरुष हूँ । यह त्रिगुण से ऊपर उठकर और कर्म-बंधन से मुक्त होकर भी कर्म कर सकता है, जैसे भगवान् कहते हैं कि मैं करता हूँ, और पुरुषोत्तम की भक्ति पाकर और उनसे युक्त होकर उनकी दिव्य प्रकृति का पूर्ण आनन्द ले सकता है ।
गीता का विश्लेषण ऐसा है जो बाह्य सृष्टि-क्रम से ही बद्ध न होकर परा प्रकृति के 'उत्तम रहस्य' तक में प्रविष्ट है । उसी उत्तम रहस्य के आधार पर गीता वेदांत, सांख्य और योग का समन्वय, ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय स्थापित करती है । केवल सांख्य-शास्त्र के द्वारा कर्म और भक्ति का समन्वय परस्पर-विरोधी होने से असंभावित है । केवल अद्वैत सिद्धांत के आधार पर योग के अंगरूप से कर्मों का सदा आचरण और पूर्ण ज्ञान, मुक्ति और सायुज्य के बाद भी भक्ति में रमण असंभव है या कम-सें-कम युक्ति-विरुद्ध और निष्प्रयोजन है । गीता का सांख्य-ज्ञान इन सब बाधाओं को दूर करता है और गीता का योगशास्त्र इन सबपर विजय लाभ करता है ।
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