Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
सांख्य, योग और वेदांत
गीता के प्रथम छ: अध्यायों का संपूर्ण लक्ष्य सांख्य और योग, इन दो मार्गों को, जिन्हें सामान्यत: एक-दूसरेसे भिन्न और विरोधी समझा जाता है, वेदांतिक सत्य के विशाल आयतन में समन्वित करना है । सांख्य से ही आरंभ किया गया है सांख्य को ही आधार बनाकर; पर आरंभ से ही उसमें, उत्तरोत्तर अधिक दृढ़ता से योग की भावनाएँ और पद्धतियाँ भरी गयी हैं और सांख्य को योग के ही भाव में एक नये रूप में ढाला गया है । सांख्य और योग में जो प्रकृत भेद उस समय की धर्म-बुद्धि में प्रतीत होता था वह प्रथमत : यह था कि सांख्य का साधन ज्ञान तथा बुद्धियोग द्वारा और योग का साधन कर्म तथा सक्रिय चेतना के रूपांतर के द्वारा होता है । दूसरा भेद--जो प्रथम भेद से आप ही निष्पन्न होता है--यह था कि, सांख्य पूर्ण निष्क्रियता और संन्यास की ओर ले जानेवाला माना जाता था जब कि योग में कामना का आंतरिक त्याग, आंतरिक तत्वों का पवित्रिकरण--जो कर्म की ओर और कर्मों को भगवत्-निमित्त कर देव-जीवन और मुक्ति१ की ओर ले जाता है--पर्याप्त माना जाता था । फिर भी दोनों का उद्देश्य एक ही था, अर्थात् जन्म और इस पार्थिव जीवन के परे जाना और मानव-आत्मा का परमात्मा के साथ एक हो जाना । सांख्य और योग के बीच गीता जो भेद बताती है, वह यही है ।
इन दो परस्पर-विरोधी सिद्धांतों का कोई समन्वय संभव भी है, यह समझना अर्जुन के लिये जो कठिन प्रतीत हुआ, इसीसे यह सूचित होता है कि उस समय के लोग इन दो पद्धतियों को साधारणतया कितना विभिन्न मानते थे । गुरु कर्म और बुद्धियोग का मिलाप कराते हुए अपना कथन आरंभ करते हैं । भगवान् कहते हैं, निरे कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग बहुत अधिक श्रेष्ठ है; बुद्धियोग के द्वारा, ज्ञान के द्वारा मनुष्य जब अपनी असंस्कृत प्राकृत मन-बुद्धि और उसकी कामनाओं से ऊपर उठकर सर्वकाम-रहित ब्राह्मी स्थिति की पवित्रता और समता को प्राप्त होता है तभी वह उन कर्मों को कर सकता है जो भगवत्स्वीकार्य हो सकते हैं
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फिर भी कर्म मुक्ति के साधन हैं, किन्तु वे ही कर्म जो इस प्रकार ज्ञान से विशुद्ध हुए हों । अर्जुन में उस समय की प्रचलित संस्कृति के विचार भरे हुए थे और इधर गुरु ने वैदांतिक सांख्य की जिन बातों पर जोर दिया अर्थात् इन्द्रियों पर विजय, मन से हटकर आत्मा में निवास, ब्राह्मी स्थिति में आरोहण, अपने निम्न व्यक्तित्व का निर्व्यक्तित्व के निर्वाण में लय--योग के मुख्य विचार अभी तक गौण और अप्रकट हैं--इनसे अर्जुन की बुद्धि चकरा गयी । उसने पूछा कि, ''यदि आपका यह मत है कि कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग ही श्रेष्ठ है तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों नियुक्त करते हैं ? आप अपनी व्यामिश्र बातों से मेरी बुद्धि को मोहित किये डालते हैं; निश्चित रूप से एक बात कहिये जिससे मैं श्रेय को प्राप्त कर सकूं ।''
इसके उत्तर में भगवान् यह बतलाते हैं कि सांख्य ज्ञान और संन्यास का मार्ग है और योग कर्म का; परन्तु योग के बिना अर्थात् जबतक समत्व-बुद्धि से, फलेच्छा-रहित होकर, इस बात को जानते हुए कि कर्म प्रकृति के द्वारा होता है आत्मा के द्वारा नहीं, जबतक कर्म यज्ञार्थ नहीं किया जाता तबतक सच्चे संन्यास का होना असंभव है; पर यह कहकर फिर तुरत ही भगवान् यह भी कहते हैं कि ज्ञान-यज्ञ ही सबसे श्रेष्ठ यज्ञ है, सब कर्म ज्ञान में ही परिसमाप्त होते हैं ज्ञान की अग्नि से सब कर्म दग्ध हो जाते हैं; इसलिए जो पुरुष अपनी आत्मा को पा लेता है उसके कर्म योग के द्वारा संन्यस्त होते हैं और उसे कर्म का बंधन नहीं होता । अर्जुन की बुद्धि फिर चकरा जाती है; क्योंकि निष्काम कर्म तो हुआ योग का सिद्धांत, और कर्म-संन्यास हुआ सांख्य का सिद्धांत, और दोनों ही सिद्धांत उसे एक साथ बताये जा रहे हैं मानो दोनों एक ही प्रक्रिया के दो भाग हों; पर इन दोनों में कोई मेल तो दीखता ही नहीं । कारण जिस तक का मेल पहले भगवान् गुरु बता चुके-अर्थात् बाह्य अकर्म में कर्म को होते हुए देखना और बाह्य कर्म में यथार्थ अकर्म को देखना, क्योंकि पुरुष अपने कर्ता होने का भ्रम त्याग चुका है और अपने कर्म यज्ञ के स्वामी के हाथों में सौंप चुका है--वह मेल अर्जुन की व्यावहारिक बुद्धि के लिये इतना बारीक, इतना सूक्ष्म है और यह ऐसी पहेली-दार भाषा में प्रकट किया गया है कि अर्जुन इसके आशय को नहीं ग्रहण कर सका या कम-से-कम इसके मर्म और इसकी वास्तविकता तक नहीं पहुँच सका । इसलिए वह फिर पूछता है कि, ''हे कृष्ण, आप मुझे कर्म का संन्यास बता रहे हैं और फिर कहते हैं कि योग कर, तों इनमें से कौन-सा मार्ग उत्तम है यह मुझे स्पष्ट रूप से निश्चित करके बताइये ।''१
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भगवान् इसका जो उत्तर देते हैं वह महत्वपूर्ण है, क्योंकि उससे योग और सांख्य का भेद एकदम स्पष्ट हो जाता है और इनके समन्वय का एक संकेत मिल जाता है, यद्यपि उसमें समन्वयसंबंधी पूर्ण विचारधारा अभी नहीं बतायी गयी है । वह उत्तर है, ''संन्यास और कर्मयोग दोनों ही जीव को मुक्त करनेवाले हैं, पर इन दोनों में कर्मयोग संन्यास की अपेक्षा श्रेष्ठ है । उसीको नित्य संन्यासी जानना चाहिये जो ( कर्म करते हुए भी ) न द्वेष करता है न आकांक्षा ही; क्योंकि निर्द्वन्द्व होने से वह अनायास और सुखपूर्वक बंधन से मुक्त होता है । सांख्य और योग को अल्पबुद्धि लोग ही एक-दूसरेसे पृथक् बतलाया करते हैं, ज्ञानी नहीं; यदि कोई मनुष्य संपूर्ण रूप से किसी एक में ही लगे तो वह दोनों का फल पा जाता है,''१ क्योंकि अपनी संपूर्णता में ये दोनों ही एक-दूसरेको धारण किये हुए हैं । ''सांख्य द्वारा जो अवस्था प्राप्त होती है योगी भी वहीं पहुंचते हैं; सांख्य और योग दोनों को जो एक देखता है, वही देखता है । पर योग के बिना संन्यास कठिन है; जो मुनि योग करता है वह शीघ्र ब्रह्म को प्राप्त होता है; उसकी आत्मा सारी सृष्टि की आत्मा हो जाती है, ''सर्वभूतात्मभूतात्मां", और कर्म करते हुए भी वह उनमें लिप्त नहीं होता ।''२ वह जानता है कर्म उसके नहीं हैं, बल्कि प्रकृति के हैं और इसी ज्ञान के द्वारा वह मुक्त है; वह कर्मसंन्यास कर चुका है, वह कोई कर्म नहीं करता, यद्यपि उसके द्वारा कर्म होते हैं; वह आत्मा हो जाता है, ''अह्मभूत'' हो जाता है, वह देखता है कि इस सृष्टि के समस्त प्राणी उसी एक स्वत:सिद्ध सत्ता के व्यक्त रूप, ''भूतानि,'' हैं और वह स्वयं अनेक व्यक्त रूपों में से एक है, वह देखता है कि इनके समस्त कर्म केवल विश्व-प्रकृति का विकासमात्र हैं जो उनके व्यष्टिगत स्वभाव के अन्दर से कार्य कर रही है और वह देखता है कि उसके अपने कर्म भी इसी विश्व-क्रिया का ही एक अंशमात्र हैं । गीता की संपूर्ण शिक्षा यही नहीं है; क्योंकि यहाँतक केवल अविकार्य आत्मा या पुरुष, अर्थात् अक्षर ब्रह्म का और उस प्रकृति का ही वर्णन है जो विश्वसर्जन का कारण है, अभी तक ईश्वर की, पुरुषोत्तम की बात साफ तौर पर नहीं कही गयी है; यहाँतक कर्म और ज्ञान का ही समन्वय साधित हुआ है, किन्तु अभी तक, कुछ संकेतमात्र किये जाने पर भी, भक्ति का वह परम तत्त्व नहीं विवृत किया गया जो आगे चलकर इतना महत्वपूर्ण हो जाता है; यहाँतक केवल एक अकर्ता पुरुष और अपरा प्रकृति की ही बात कही गयी है, अभी तक तिविध पुरुष और द्विविध प्रकृति का स्पष्टीकरण नहीं किया गया है । ईश्वर की बात
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आयी तो जरूर हे, पर ईश्वर का आत्मा और प्रकृति के साथ क्या संबंध है यह निश्चित रूप से निद्दिॅष्ट नहीं हुआ । प्रथम छ : अध्यायों में जो समन्वय साधित हुआ है वह उतना ही है जितना कि आगे बताये गये अति महत्वपूर्ण सत्यों को व्याख्या के बिना हो सकता है और जब इन सत्यों का प्रवेश होगा तो इससे पूर्व-साधित समन्वय का परिहार तो नहीं होगा, बल्कि वह बहुत कुछ विस्तृत और परिवर्तित हो जायगा ।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि पुरुष की निष्ठा दो प्रकार की होती है जिससे वह ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त होता हे; ''सांख्यों की ज्ञानयोग के द्वारा और योगियों की कर्मयोग के द्वारा ।''१ यहाँ सांख्य का ज्ञानयोग से और योग का कर्ममार्ग से जो तादात्म्य बताया गया है वह ध्यान देने योग्य है, क्योंकि इससे पता चलता है कि उन दिनों आज की वेदान्त से प्रभावित पद्धति से बिलकुल भिन्न विचार-पद्धति प्रचलित थी । भारतीय चिन्तन पर महान् वैदान्तिक विकास के फल-स्वरूप-स्पष्टत : यह गीता की रचना के बाद की बात है--मोक्ष के व्यावहारिक साधन के रूप में अन्य वैदिक दर्शनों का चलन नहीं रहा । गीता की भाषा को न्याय-संगत ठहराने के लिए हमें यह मानना पड़ेगा कि उस काल में जो लोग ज्ञान-मार्ग का अनुसरण करते थे वे आम तौर पर सांख्य-पद्धति२ को ही अपनाते थे । पीछे जब बौद्ध-धर्म का प्रचार हुआ तब सांख्यों का ज्ञानमार्ग बौद्ध-सिद्धांतों से बहुत कुछ आच्छन्न हो गया होगा । सांख्यों के समान ही अनीश्वरवादी और अद्वैत-विरोधी बौद्ध-मत में भी विश्व-ऊर्जा के कार्यों की अनित्यता पर बहुत जोर दिया गया है । बौद्ध-सिद्धांत विश्व-ऊर्जा को प्रकृति न कहकर कर्म कहता है, क्योंकि बौद्धों ने न तो वेदांत-प्रतिपाध्य ब्रह्म को ही स्वीकार किया न सांख्यों के अकर्ता पुरुष को, और इसलिये विवेक-बुद्धि के द्वारा कर्म की इस अनित्यता को जान लेना ही उनके यहाँ मोक्ष का साधन था । जब बौद्ध-धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया उठी तब वह पुराने सांख्य संस्कार लेकर नहीं उठी, बल्कि उसने शंकर द्वारा प्रतिपादित वे दांत का रूप धारण किया । शंकर ने बौद्धों की अनित्यता के स्थान में उसी कोटि के वैदांतिक मायावाद की स्थापना की, और बौद्धों के असत्, अनिर्वचनीय निर्वाण और, अभावात्मक 'केवल' के स्थान में उसके विरुद्ध पर उसी तरह के अवर्णनीय सत्, ब्रह्म, उस अनिर्वचनीय भावात्मक 'केवल' की स्थापना की जिसमें नामरूप और कर्म का सर्वथा अभाव होता है, क्योंकि उसमें ये नामरूप
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२. पुराणों और तंत्रों में सांख्ये के विचार मरे पड़े हैं, अवश्य ही उनपर वेदांत के विचार की छाप है और उनके साथ अन्य विचार भी मिले हुए हैं |
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कभी थे ही नहीं, उनके मत से ये मात्र मन के भ्रम हैं । आज जब ज्ञानमार्ग का नाम लिया जाता है तब हम साधारणतया शंकर की उस पद्धति की बात सोचते हैं जो उनके दर्शन को इन्हीं धारणाओं पर अवलंबित है, अर्थात् जीवन का त्याग करना होगा, क्योंकि वह माया है, भ्रम है । परन्तु गीता के समय में माया वेदांत-दर्शन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण शब्द नहीं बना था, न इस शब्द का इतने स्पष्ट रूप से वह अर्थ ही किया गया था जो शंकर ने इतनी साफ और जोरदार भाषा में किया; क्योंकि गीता में माया की चर्चा बहुत कम है, उसमें अधिकतर प्रकृति की ही चर्चा है, और माया शब्द का जहाँ प्रयोग हुआ है वहाँ प्रकृति के ही अर्थ में, वह भी प्रकृति की निम्न कक्षा सूचित करने के लिए हुआ है; माया कहा गया है त्रिगुणात्मिका, अपरा प्रकृति को--''त्रैगुण्यमयी माया ।'' गीता में विश्व का निमित्त-कारण प्रकृति है, भरमानेवाली माया नहीं ।
अध्यात्मशास्त्र के सिद्धांतों में चाहे जो सूक्ष्म विशिष्टताएँ हों, तो भी गीता में दिये हुए सांख्य और योग का जो व्यावहारिक भेद है वह वही है जो आजकल वेदांत के ज्ञानयोग और कर्मयोग में माना जाता है, और इन दोनों के फलों में जो विभिन्नता है वह भी वैसी ही है । सांख्य ने वेदांत के ज्ञानमार्ग की ही तरह बुद्धि से आरंभ किया और विचार द्वारा उसने पुरुष के सच्चे स्वभाव का विवेक किया और यह बताया कि आसक्ति और तादात्म्य के द्वारा प्रकृति अपने कर्मों को पुरुष पर आरोपित करती है, ठीक उसी तरह वैदांतिक पद्धति इसी साधन द्वारा आत्मा के सच्चे स्वभाव के भेद तक पहुँची है और उसने बताया है कि आत्मा पर जगत् का आभास मन के भ्रम के कारण पड़ता है और इसीसे अहंभावयुत तादात्म्य और आसक्ति पैदा होती है । वैदांतिक पद्धति के अनुसार आत्मा जब अपने नित्य सनातन ब्रह्म-स्वरूप में लौट आती है तो उसके लिये माया की सत्ता नहीं रहती और विश्व-क्रिया तिरोहित हो जाती है; सांख्य-प्रणाली के अनुसार जीव जब अपनी सत्य सनातन निष्क्रिय पुरुष-अवस्था में लौट आता है तब गुणों का कर्म बंद हो जाता है और विश्व-क्रिया समाप्त हो जाती है । माया-वादियों का ब्रह्म शांत, अक्षर और अकर्ता है, सांख्यों का पुरुष भी ऐसा ही है; इसलिए दोनों के लिये जीवन और कर्मों का संन्यास मोक्ष का आवश्यक साधन है । परन्तु गीता के योग में वैदांतिक कर्मयोग के समान ही, कर्म केवल आधार को तैयार करने का साधन नहीं है, बल्कि यह मोक्ष का स्वत:सिद्ध साधन माना गया है; और इसी सिद्धांत की सत्यता को गीता बराबर बड़े जोरदार आग्रह के साथ हृदय में जमा देना चाहती है; दुर्भाग्यवश यह आग्रह
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बौद्धमत१ की प्रचण्ड लहर के सामने ने ठहर सका, और पीछे संन्यास-संप्रदाय के मायावाद की तीव्रता में तथा संसारत्यागी संतों और भक्तों की उमंग में, इसका लोप हो गया और अब हाल में ही भारतवासियों की बुद्धि पर इसका वास्तविक और हितकर प्रभाव फिर से पड़ने लगा है । संन्यास तो अपरिहार्य रूप से आवश्यक है, पर सच्चा संन्यास कामना और अहंकार का आंतरिक त्याग है; इस आन्तरिक त्याग के बिना कर्मों का बाह्य भौतिक त्याग मिथ्या और व्यर्थ है । आंतरिक त्याग हो तो बाह्य त्याग की आवश्यकता भी जाती रहती है, यद्यपि उसकी कोई मनाही भी नहीं है । ज्ञान मुख्य है, मुक्ति के लिये इससे बड़ी और कोई शक्ति नहीं है; पर ज्ञान-सहित कर्म की भी आवश्यकता है; ज्ञान और कर्म के एकत्व से जीव पूर्णतया ब्राह्मी स्थिति में रहता है, केवल विश्राम में और निष्क्रिय शांति की अवस्था में ही नहीं, बल्कि कर्म के भीषण घात-प्रतिघात में भी । भक्ति की बड़ी महिमा है, पर भक्ति-सहित कर्म का माहात्म्य भी कम नहीं; ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों के संयोग से जीव ईश्वर के परम पद को प्राप्त होता है और वहाँ उन पुरुषोत्तम में निवास करता है जो शाश्वत आध्यात्मिक शांति और शाश्वत विश्व-कर्मण्यता दोनों के स्वामी हैं । यही गीता का समन्वय है ।
परन्तु सांख्य के ज्ञानमार्ग में और योग के कर्ममार्ग में जो भेद है उसके अतिरिक्त स्वयं वेदांत में भी वैसा ही एक दूसरा विरोध था और गीता को उसका भी विचार करना पड़ा, जिससे कि आर्य आध्यात्मिक संस्कृति की इस विशाल नवीन व्याख्या में उनकी त्रुटियों को दूर करके उनका मेल मिला दिया जाय । यह भेद था कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड के बीच, उस मूल विचार के बीच जिसका पर्यवसान वेदवाद या पूर्वमीमांसा दर्शन में और ब्रह्मवाद या उत्तरमीमांसा दर्शन में हुआ ।२ यह भेद उन दो संप्रदायों के बीच था जिनमें से एक तो वैदिक मंत्रों
१. पर साथ ही बौद्धों क महायान संप्रदाय पर गीता का बहुत बड़ा प्रभाव देख पड़ता है और बौद्धों के धर्मशास्त्रों में गीता के कुछ श्लोक अक्षरश: उद्धृत हुए पाये जाते हैं । इससे यह मालूम होता है कि बौद्धमत जो पहले नैष्कम्यॅप्रवण और संबुद्ध यतियों का ही मार्ग था, पीछे बहुत स्व गीता के प्रभाव से ही ध्यानपरायण भक्ति का और करुणात्मक कर्म का धर्म बन गया और समझ एशिया महाद्वीप की संस्कृति पर उसका बहुत बड़ा प्रभाव पढ़ा ।
२. मोक्ष-संबंधो जैमिनीय सिद्धांत यह है कि वह शाश्वत ब्रह्मलोक ही मोक्ष है जिसमें भ्रमह को जाननेवाले जीव को दिव्य देह और दिव्य भोग प्राप्त होते हैं । गीता के मत में भ्रम्ह्लोक मोक्ष नहीं है; मोक्ष के लिए जीव को इसके भी परे विश्वातीत पद लाम करना होता है ।
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और वैदिक यज्ञों की परंपरा में ही वास करता था और दूसरा इनको नीचे दरजे का ज्ञान बताकर इनकी उपेक्षा करता था और उपनिषदों से निकले उत्कृष्ट आध्यात्मिक ज्ञान पर जोर देता था । वेदवादियों की कर्मप्रधान बुद्धि में ऋषियों का आर्य धर्म यही था कि वैदिक यज्ञों को विधिपूर्वक संपन्न करके तथा पवित्र वैदिक मंत्रों का विशुद्ध प्रयोग करके इस लोक में संपत्ति, संतति, विजय, हर प्रकार का सौभाग्य आदि मनुष्य की काम्य वस्तुओं को प्राप्त किया जाय और परलोक में अमरत्व का आनन्द लाभ किया जाय । ब्रह्मवादियों के आदर्श के हिसाब से यह केवल प्राथमिक साधन था, उनके अनुसार मनुष्य का सच्चा पुरुषार्थ तो ब्रह्म के ज्ञान की ओर मुड़ने से आरंभ होता है और ब्रह्म के ज्ञान से ही उसे उस अकथनीय आध्यात्मिक आनन्द का सच्चा अमर-पद प्राप्त होगा जो इस जगत् के क्षुद्र सुखों से और किसी भी छोटे-मोटे परलोक से बहुत दूर है । वेद का वास्तविक मूल और अभिप्राय जो कुछ भी रहा हो, पर यह भेद गीता के काल के बहुत पहले से स्थापित हो चुका था और इसलिए गीता को इसकी मीमांसा करनी पड़ी ।
कर्म और ज्ञान का समन्वय करते हुए भगवान् ने जो पहली बात कही, उसमें उन्होंने वेदवाद की जोरदार, प्राय: भयानक शब्दों में निन्दा और भर्त्सना की है । उन्होंने कहा, ''यह पुष्पिता या लच्छेदार भाषा वे बोलते हैं जिनकी बुद्धि ठिकाने नहीं, जो वेदवाद में ही रत हैं, जिनका मत यह है कि इसके सिवाय और कुछ है ही नहीं, जो कामात्मा हैं, स्वर्ग के अभिलाषी हैं, यह (वाणी) जन्मकर्म के फल देनेवाली, विविध-विधिसंकुल कर्मों का विधान करनेवाली और भोग तथा ऐश्वर्य की ओर ले जानेवाली है ।''१ गीता स्वयं वेद पर आक्रमण करती-सी प्रतीत होती है, जिसका यद्यपि भारतीय समाज के व्यवहार में इस समय लोप ही हो गया है, तो भी भारतीय समाज की भावना में वेद अब भी समस्त भारतीय दर्शन-शास्त्रों और धर्मो का अतींद्रिय, अनुल्लंघनीय, अत्यंत पवित्र और स्वतःसिद्ध प्रमाण और मूल है । गीता कहती है कि, ''त्रिगुणात्मक कर्म ही वेदों का विषय है; पर हे अर्जुन, तू इस त्रिगुण से मुक्त हो जा ।''२ सब वेद उस मनुष्य के लिये निष्प्रयोजन बताये गये हैं जो ज्ञानी हैं । यहाँ वेदों में, ''सर्वेषु वेदेषु'', उपनिषदों का भी समावेश माना जा सकता है और शायद है भी, क्योंकि आगे चलकर वेद और उपनिषद्, दोनों के वाचक सामान्य श्रुति शब्द का ही प्रयोग हुआ है । ''चारों ओर जहाँ जल ही जल हो वहाँ किसी कुएँ का जितना प्रयोजन हो सकता है उतना ही प्रयोजन समस्त वेदों का उस ब्राह्मण के लिये है जो ज्ञानी
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है ।''१ यही नहीं, बल्कि शास्त्र-वचन बाधक भी होते हैं, क्योंकि शास्त्र के शब्द--शायद परस्पर-विरोधी वचनों और उनके विविध और एक दूसरे के विरुद्ध अर्थों के कारण-बुद्धि को भरमानेवाले होते हैं, जो अन्दर की ज्योति से ही निश्चितमति और एकाग्र हो सकती है । भगवान् कहते हैं, ''जब तेरी बुद्धि मोह के घिराव को पार कर जायगी तब तू अबतक सुने हुए और आगे सुने जानेवाले शास्त्र-वचनों से उदासीन हो जायगा, 'तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्यश्रुतस्य च' । ''जब तेरी बुद्धि जो श्रुति से भरमायी हुई है, ''श्रुतिविप्रतिपन्ना'', समाधि में निश्चल और स्थिर होगी, तब तू योग को प्राप्त होगा ।''२ यह सब परंपरागत धार्मिक भावनाओं के लिये इतना अप्रिय है कि अपनी सुविधा देखनेवाले और अवसर से लाभ उठानेवाले मानव-कौशल का गीता के कुछ श्लोकों के अर्थ को तोड़-मरोड़-कर उनका कुछ और अर्थ करने की कोशिश करना स्वाभाविक ही था, किन्तु इन श्लोकों के अर्थ स्पष्ट हैं और अथ से इति तक सुसंबद्ध हैं । शास्त्र-वचन-संबंधी यह भाव आगे चलकर एक और श्लोक में मंडित और सुनिर्दिष्ट हुआ है जहाँ यह कहा गया है कि ज्ञानी का ज्ञान 'शब्द' ब्रह्म को अर्थात् वेद और उपनिषद् को पार कर जाता है, ''शब्दब्रह्मातिवर्तते'' ।
अस्तु, इस विषय को हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए, क्योंकि यह तो निश्चित ही है कि गीता जैसे समन्वय-साधक और उदार शास्त्र में आर्य-संस्कृति के इन महत्वपूर्ण अंगों का विचार केवल इन्हें अस्वीकार करने या इनका खंडन करने की दृष्टि से नहीं किया गया है । गीता को कर्म के द्वारा मुक्ति का प्रतिपादन करनेवाले योगमार्ग के साथ ज्ञान के द्वारा मुक्ति का प्रतिपादन करने-वाले सांख्य-मार्ग का समन्वय साधना है, ज्ञान को कर्म में मिलाकर एक कर देना है । इसके साथ-ही-साथ पुरुष और प्रकृति के सिद्धांत को, जो सौख्य और योग में एक ही सरीखा है, प्रचलित वेदांत के उस ब्रह्मवाद के साथ समन्वित करना है जिसमें उपनिषदों के पुरुष, देव, ईश्वर सब एक अक्षर ब्रह्म की सर्वग्राही भावना में समा जाते हैं, और फिर गीता को ईश्वर, परमेश्वरसंबंधी योग-भावना को उसपर पड़े हुए ब्रह्मवाद के आच्छादन से बाहर निकालकर उसके असली स्वरूप में दिखाना है, और यह वैदांतिक ब्रह्मवाद को अस्वीकार करके नहीं, बल्कि उसको समन्वित करके करना है । गीता को उसमें अपना वह जगमगाता हुआ विचार भी जोड़ना है जो उसके समन्वय-साधन की पराकाष्ठा है अर्थात् पुरुषोत्तम का सिद्धांत और पुरुष के त्रिविध होने का सिद्धांत जो उपनिषदों में बीज-रूप से तो है पर उसका कोई स्पष्ट, सुनिश्चित, निर्विवाद प्रमाण उपनिषदों के मंत्रों में
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अनायास नहीं मिल सकता, बल्कि यह सिद्धांत पहली नजर में तो श्रुति के उस मंत्र के विरुद्ध प्रतीत होता है जिसमें पुरुष दो माने गये है । इसके अतिरिक्त, कर्म और ज्ञान का समन्वय साधते समय गीता को केवल योग और सांख्य के विरोध की ही संगति नहीं बिठानी है, बल्कि स्वयं वेदांत के अन्दर भी कर्म और ज्ञान में जो विरोध है--जो सांख्य और योग के विरोध जैसा ही नहीं है, क्योंकि वेदांत में इन दो शब्दों के फलितार्थ सांख्य के फलितार्थ से अलग हैं और इसलिये इनका विरोध भी सांख्य के विरोध से भिन्न है--उसका भी ध्यान रखना है । इसलिए चलते-चलते यहाँपर ऐसा कहा जा सकता है कि, वेद और उपनिषदों के मंत्र ही जिनके आधार हैं ऐसे इन नानाविध दार्शनिक संप्रदायों में जब इतना विरोध है तब गीता का यह कहना कि श्रुति बुद्धि को घबरा और चकरा देती है, उसे कई दिशाओं में घुमा देती है, ''श्रुतिविप्रतिपन्ना'', कोई आश्चर्य की बात नहीं । आज भी भारत के पंडितों और दार्शनिकों के बीच इन प्राचीन वचनों के अर्थों के संबंध में कितने बड़े-बड़े शास्त्रार्थ और झगड़े हो जाते है और कितने विभिन्न सिद्धांत स्थापित किये जाते हैं । इनसे बुद्धि विरक्त और उदासीन होकर, ''गन्तासि निवेंदं'', नवीन और प्राचीन शास्त्र-वचनों को, ''श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च'', सुनने से इनकार करके स्वयं ही गूढ़तर, आंतर और प्रत्यक्ष अनुभव के सहारे सत्य का अन्वेषण करने के लिये अपने अन्दर प्रवेश कर सकती है ।
गीता के प्रथम छ: अध्यायों में कर्म और ज्ञान के समन्वय की, सांख्य, योग और वेदांत के समन्वय की एक विशाल नींव डाली गयी है । पर आरंभ में ही गीता देखती है कि वेदांतियों की भाषा में कर्म शब्द का एक खास अर्थ है; वहाँ कर्म का अभिप्राय है वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों से, अथवा अधिक-से-अधिक इन श्रौत कर्मों के साथ-साथ उन गृह्यसूत्रों के अनुसार जीवनचर्या से जिनमें ये आचार-अनुष्ठान ही जीवन के महत्वपूर्ण अंग और धर्म के प्राण माने गये हैं । इन्हीं धार्मिक कर्मों को, इन्हीं याग-यज्ञों को जो बड़ी 'विधि' से किये जाते हैं और जिनकी क्रियाएँ एकदम बँधी हुई और जटिल है ''क्रियाविशेषबहुलां'', वेदांती कर्म कहते हैं । पर योग में कर्म का बहुत व्यापक अर्थ है । इसी व्यापक अर्थ पर गीता का आग्रह है; जब हम आध्यात्मिक कर्म की बात कहते हैं तब हमारे ध्यान में यह बात आ जानी चाहिये कि इस शब्द के अन्दर सभी कर्मों, ''सर्वकर्माणि'', का समावेश है । साथ ही गीता यज्ञ की भावना का, बौद्धमत की तरह, निषेध भी नहीं करती, गीता उसे समुन्नत और व्यापक बनाती है । वस्तुत : गीता का कहना यह है कि यज्ञ केवल जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग ही नहीं है, बल्कि संपूर्ण जीवन और समस्त कर्म यज्ञ ही होने चाहियें, अवश्य ही अज्ञानी लोग उच्चतर
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ज्ञान के बिना ही और महामूढू तो ''अविधिपूर्वक'' भी, यज्ञ करते हैं । यज्ञ के बिना जीवन की स्थिति ही संभव नहीं है; प्रजापति ने प्रजाओं का 'सह यज्ञा :' यानी यज्ञ के साथ निर्माण किया है । पर वेदवादियों के यज्ञ काममूलक हैं, वैषयिक भोगों के लिये हैं; उनका यह काम कर्मों के फल के लिये उत्सुक है, स्वर्ग का विशाल भोग चाहता है, उसीको अमृतत्व और परम मुक्तिधाम जानता है । गीता अपनी साधन-प्रणाली में इसका समावेश नहीं कर सकती; क्योंकि गीता आरंभ से ही कहती है कि वासना का त्याग करो, इसे आत्मा का शत्रु जानकर त्यागो और नष्ट करो । वैदिक याग-यज्ञों की सार्थकता को भी गीता अस्वीकार नहीं करती; गीता उहें स्वीकार करती है और कहती है कि इन साधनों के द्वारा इस लोक में भोग और ऐश्वर्य और परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है । भगवान् गुरु कहते हैं कि वह ''मैं'' ही हूँ जो इन यज्ञों को ग्रहण करता है, जिसके प्रीत्यर्थ ये यज्ञ किये जाते हैं और जो देवताओं के रूप में इनके फल प्रदान करता है, क्योंकि इसी भाव से लोग मेरे पास आना पसंद करते हैं । पर यह सच्चा पथ नहीं है, न स्वर्ग का सुखभोग ही वह मोक्ष और पूर्णत्व है जिसे मनुष्य को प्राप्त करना है । अज्ञानी ही देवताओं को भजते हैं, वे यह नहीं जानते कि इन सब देव-रूपों में अज्ञात रूप से वे किसको भज रहे हैं, क्योंकि चाहे अज्ञान की अवस्था में ही क्यों न हो, पर वे भजते हैं उसी ''एक'' को, उसी ईश्वर को, उसी एकमात्र देव को और यह वही है जो इनका हव्य ग्रहण करता है । इसी ईश्वर के प्रति यज्ञ को, जीवन की सारी शक्तियों और कर्मों के उस सच्चे यज्ञ को, भक्तिभाव के साथ, निष्काम होकर, उसीके लिये और लोक-कल्याण के लिये अर्पण करना होगा । चूंकि वेदवाद इस सत्य को ढाँक देता है और अपने विधि-विधानों की गाँठ लगाकर मनुष्य को त्रिगुण के कर्म मैं बाँध डालता है, इसलिए वेदवाद की तीव्र भर्त्सना करनी पड़ी और उसे इतने रूखेपन के साथ एक किनारे रख देना पड़ा; पर उसकी केन्द्रिक भावना नष्ट नहीं की गयी है; उसे रूपांतरित और समुन्नत किया गया है, उसे सच्चे आध्यात्मिक अनुभव के और मोक्ष-साधन-मार्ग के एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग में परिणत कर दिया गया है ।
ज्ञान के संबंध में वेदांत का जो सिद्धांत है उसमें ठीक ऐसी ही कठिनाइयाँ उपस्थित नहीं होतीं । गीता इस सिद्धांत को तुरत और पूरे तौर पर अपनाती है और पहले छ : अध्यायों में सर्वत्र सांख्यों के अचल, अक्षर, किन्तु बहुपुरुष के स्थान पर वेदातियों के अक्षर, एकमेवाद्वितीय, विश्वव्यापक ब्रह्म को धीरे से लाकर बैठा देती है । इन अध्यायों में सर्वत्र, निष्काम कर्म को ज्ञान का परमावश्यक अंग बतलाते हुए भी, ज्ञान और ब्रह्मानुभूति को मोक्ष का सर्वप्रधान और अनिवार्य
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साधन माना है । अक्षर निर्व्यक्तिक ब्रह्म की अनंत समता में अहंकार का निर्वाण मोक्ष-साधन के लिये आवश्यक है, इस सिद्धांत को भी गीता उतना ही मान देती है; इस तरह से अहंकार का यह निर्वाण और सांख्यों के अकर्ता अक्षर पुरुष का प्रकृति के कर्मों की उपाधि से निकलकर अपने स्वरूप में लौट आना, इन दोनों बातों को गीता करीब-करीब एक कर देती है; गीता ने वेदांत और सांख्य, दोनों की भाषाओं को मिलाकर एक कर दिया है, जैसा कि कतिपय उपनिषदों१ में भी पहले किया गया था । फिर भी वेदातियों के सिद्धांत में एक त्रुटि है जिसे दूर करना जरूरी है । शायद हम ऐसा अनुमान लगा सकते हैं कि इस समय तक वेदांत ने उन परवर्ती आस्तिक प्रवृत्तियों को पुनर्विकसित नहीं किया था जो उपनिषदों में तो तत्वरूप से पहले से उपस्थित थीं; लेकिन वहाँ उनका महत्व इतना नहीं है जितना बाद के वैदांतिक वैष्णव दर्शन-शास्त्रों में पाया जाता है, जहाँ यह प्रवृत्ति केवल बहुत प्रधान ही नहीं, सर्वोपरि है । हम यह मान सकते है कि कट्टर वेदांत कम-से-कम अपनी प्रधान प्रवृत्तियों में, आधार में विश्व-बह्मवादी और शिखर पर अद्वैतवादी था ।२ यह एकमेवाद्वितीय ब्रह्म का प्रतिपादक है, विष्णु, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की इसमें ब्रह्म के ही नामरूप होने के नाते मान्यता है । परन्तु एकमेव परब्रह्म को ईश्वर, पुरुष, देवरूप से मानने की भावना इसमें अपने उच्च स्थान से नीचे गिर गयी है ।३ ईश्वर, पुरुष, देव--ये शब्द उपनिषदों में ब्रह्म के विशेषण रूप से प्रायः प्रयुक्त हुए हैं और वहाँ इनका प्रयोग ठीक भी है, किन्तु वहाँ इनका आशय सांख्य और ईश्वरवाद-विषयक धारणा की अपेक्षा अधिक व्यापक है । विशुद्ध तार्किक ब्रह्मवाद में इन नामों का प्रयोग ब्रह्मभाव के गौण या कनिष्ठ पहलुओं के लिये ही हुआ है । गीता इन नामों की तथा इनसे सूचित होनेवाले भावों की मूलगत समता को ही पुन: स्थापित करके चुप नहीं होती, बल्कि एक कदम और आगे बढ़ना चाहती है । ब्रह्म का जो परम भाव है उसीको, उसके कनिष्ठ भाव को नहीं, पुरुष-रूप में और अपरा प्रकृति को उसीकी माया के रूप में दिखाकर उसे वेदांत और सांख्य का पूर्ण
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१. विशेषकर श्वेताश्वतरोपनिषद् में |
२. विश्वभ्रमहवादियों का मूल सूत्र यह है कि ब्रह्म और विश्व एक ही हैं, अद्वैतबादी उसमें यह जोड़ देते है कि केवल भ्रमह का ही अस्तित्व है और यह विश्व केवल मिथ्या आभास है, या एक वास्तविक पर आंशिक अभिव्यक्ति है ।
३. यह कुछ संदेहजनक है, पर कम-से-कम यह तो कहा जा सकता है कि इस तरह की एक प्रबल विचारधारा थी और उसीको परिसमाप्ति आचार्य शंकर के सिद्धांत में हुई है ।
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समन्वय साधना है और उसीको ईश्वर-रूप मे दिखाकर वेदांत और सांख्य का योग के साथ संपूर्ण समन्वय सिद्ध करना है । यही नहीं, बल्कि गीता ईश्वर अर्थात् पुरुषोत्तम को अचल, अक्षर ब्रह्म से भी उत्तम दिखाने जा रही है और इस क्रम में निर्व्यक्तिक ब्रह्म में अहंकार के निर्वाण की जो बात आरंभ में आयी है वह पुरुषोत्तम के साथ एकता प्राप्त करने के साधन का केवल एक महान् प्राथमिक और आवश्यक सोपान-मात्र है । कारण पुरुषोत्तम ही परब्रह्म हैं । इसलिए गीता वेदों और उपनिषदों के सर्वोत्तम अधिकारी व्याख्याताओं द्वारा उपदिष्ट शिक्षा का साहस के साथ अतिक्रमण करके इन ग्रंथों के संबंध में स्वयं अपनी एक शिक्षा को, जिसको गीता ने इन्हीं ग्रंथों से निकाला है, निश्चित रूप से घोषित करती है; तब हो सकता है कि इन ग्रंथों का वेदांती लोग साधारणतया जो अर्थ करते हैं उसकी चहारदीवारी के अन्दर गीता के इस अर्थ को शायद न बैठाया जा सके ।१ वस्तुत : शास्त्रीय वाक्यों की ऐसी स्वतंत्र और समन्वयकारी व्याख्या के बिना तत्कालीन नानाविध संप्रदायों में जो मतभेद था और वैदिक व्याख्याओं की जो उस समय प्रचलित पद्धतियाँ थीं, उन सबका एक विशाल समन्वय साधना असंभव ही होता ।
गीता के पिछले अध्यायों में वेदों और उपनिषदों की बड़ी प्रशंसा है । वहाँ कहा गया है कि वे ईश्वर-प्रणीत शास्त्र हैं , शब्दब्रह्म हैं | स्वयं भगवान् ही वेदों के जाननेवाले और वेदांत के प्रणेता हैं, ''वेदविद् वेदान्तकृत'' । सब वे दों के वे ही एकमात्र ज्ञातव्य विषय हैं ''सर्वे वेदै : अहमेव वेद्यः'', इस भाषा का फलितार्थ यह होता है कि वेद शब्द का अर्थ है ज्ञान का ग्रंथ और इन ग्रंथों के नाम इनके उपयुक्त ही हैं । स्वयं पुरुषोत्तम ही अक्षर और क्षर पुरुष से भी ऊपर उनकी जो परमावस्था है उसमें से इस जगत् में और वेद में प्रसारित हुए हैं । फिर भी शास्त्रों के शब्द बंधनकारक और भरमानेवाले होते हैं, जैसा कि ईसाई-धर्म के प्रचारक ने अपने शिष्यों से कहा था, शब्द मारते हैं और भाव तारते हैं । शास्त्रों की भी एक हद है और इस हद को पार कर जाने के बाद उनकी कोई उपयोगिता नहीं रहती । ज्ञान का वास्तविक मूल हैं हृदय में विराजमान ईश्वर; गीता कहती है कि ''मैं (ईश्वर)) प्रत्येक मनुष्य के हृदय में स्थित हूँ और मुझसे ही ज्ञान
१. वस्तुत: पुरुषोत्तम का सिद्धांत उपनिपदों में आ चुका है, अदश्य ही गीता की तरह नहीं, बल्कि कुछ बिखरे हुए ढंग से । पर गीता के समान ही उपनिषदों में भी जहाँ-तहाँ ब्रह्म या परम पुरुष का इस प्रकार वर्णन आता है कि उसमें सगुण भ्रमह और निर्गुण दोनों का समावेश है, वह 'निर्गुणोगुणी' है 1 यह नहीं कि वह इनमें से एक चीज तो हो पर दूसरी न हो, जो हमारी बुद्धि को उसके विपरीत प्रतीत होती है ।
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निःसृत होता है ।'', शास्त्र उस आंतर वेद के, उस स्वयंप्रकाश सद्वस्तु के केवल वाङ्मय रूप हैं, ये शब्द-ब्रह्म हैं । वेद कहते हैं, मंत्र हृदय से निकला है, उस गुह्य स्थान से जो सत्य का धाम है, ''सदनात् ऋतस्य गुहायां'' । वेदों का यह मूल ही उनका प्रामाण्य है; फिर भी वह अनंत सत्य अपने शब्द की अपेक्षा कहीं अधिक महान् है । किसी भी सद्ग्रंथ के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि जो कुछ है बस यही है, इसके सिवाय और कोई सत्य ग्राह्य नहीं हो सकता, जैसा कि वेदों के विषय में वेदवादी कहते थे, ''नान्यदस्तीतिवादिन:'' । यह बात बड़ी रक्षा करनेवाली है, और संसार के सभी सद्ग्रंथों के विषय में कही जा सकती है । बाइबल, कुरान, चीन के धर्मग्रंथ, वेद, उपनिषद्, पुराण, तंत्र, शास्त्र और स्वयं गीता आदि सभी सद्ग्रंथ, जो आज हैं या कभी रहे हों, उन सबमें जो सत्य है उसे तथा जितने तत्ववेत्ता, साधु-संत, ईश्वरदूत और अवतारों की वाणियाँ हैं उन सबको एकत्र कर लें तो भी आप यह न कह सकेंगे कि जो कुछ है बस यही है, इसके अलावा कुछ है ही नहीं या जिस सत्य को आपकी बुद्धि इनके अन्दर नहीं देख पाती वह सत्य ही नहीं, क्योंकि वह इनके अन्दर नहीं है । यह तो सांप्रदायिकों की संकीर्ण बुद्धि हुई या फिर सब धर्मो से अच्छी-अच्छी बात चुननेवाले धार्मिक मनुष्य की मिश्रित बुद्धि हुई, स्वतंत्र और प्रकाशमान मन का और ईश्वरानुभवप्राप्त जीव का अव्याहत सत्यान्वेषण नहीं । भूत हो या अश्रुत, वह सदा सत्य ही है जिसको मनुष्य अपने हृदय की ज्योतिर्मय गभीर गुहा में देखता या अखिल ज्ञान के स्वामी सनातन वेदविद् सर्वज्ञ परमेश्वर से अपने हृद्देश में श्रवण करता है ।
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