गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

स्वभाव और स्वधर्म

 

तब, इस त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति से त्रिगुणातीत दिव्य परा प्रकृति की ओर जीव के मोक्षजनक विकास के द्वारा ही हम, सर्वोत्तम रूप से, आध्यात्मिक मुक्ति और पूर्णता लाभ कर सकते हैं । और जब उच्चतम सत्त्वगुण विकसित होते-होते अपनी प्रधानता के उस शिखर पर पहुँच जाय जहाँ यह (सत्त्व ) स्वयं भी अतिक्रांत हो जाता है, अपनी सीमाओं के परे आरोहण कर चिन्मय आत्मा की उस परम स्वतंत्रता, परिपूर्ण ज्योति तथा प्रशांत शक्ति में जा पहुँचता है जिसमें परस्पर-विरोधी गुणों के द्वारा किसी भी प्रकार का निर्धारण नहीं होता, तभी यह विकास भी सर्वश्रेष्ठ रूप में संपन्न हो सकता है । बंधनमुक्त बुद्धि में हम अपनी जिन आंतरिक संभावनाओं की सृष्टि कर सकते हैं उनकी उच्चतम मानसिक परिकल्पना के अनुसार हमारे वर्तमान स्वरूप का नव-निर्माण करनेवाला एक सर्वोच्च सात्विक श्रद्धा-विश्वास एवं उद्देश्य ही उक्त त्निगुण-अतिक्रमण के द्वारा परिवर्तित होकर हमारी अपनी वास्तविक सत्ता के अंतर्दर्शन में, आध्यात्मिक आत्म-ज्ञान में परिणत हो जाता है । धर्म का उच्चतम आदर्श या प्रतिमान, अपनी प्राकृत सत्ता के यथार्थ विधान का अनुसरण एक मुक्त सुनिश्चित स्वयं-स्थित पूर्णता में रूपांतरित हो जाता है जिसमें आदर्शों के सभी सहारों को अतिक्रम कर लिया जाता है और अमर आत्मा एवं अध्यात्म-सत्ता का स्वतः- स्फूर्त धर्म हमारी सत्ता के करणों और अंगों के निम्नतर नियम को पदच्युत कर देता है । सात्त्विक मन और संकल्प एक और अभिन्न सत्ताके उस आध्यात्मिक ज्ञान एवं कर्मशक्ति में परिणत हो जाते हैं जिसमें संपूर्ण प्रकृति अपना छद्मरूप उतार फेंकती है और अपने अंतरस्थ परमेश्वर की स्वतंत्र आत्म-अभिव्यक्ति बन जाती है । सात्त्विक कर्ता अपने उद्गम के साथ संयुक्त, पुरुषोत्तम के साथ एकीभूत जीव बन जाता है; वह तब और कर्म का वैयक्तिक कर्त्ता नहीं रहता वरन् विश्वातीत एवं विश्वगत परमात्मा के कर्मों का आध्यात्मिक यंत्न बन जाता है । उसकी प्रकृतिगत सत्ता रूपांतरित और ज्ञानदीप्त होकर विश्वगत एवं निर्वैयक्तिक कर्म

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१. गीता १८, ४०-४८

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का यंत्र, दिव्य धनुर्धर का धनुष बनी रहती है । जो पहले सात्त्विक कर्म था वह अब पूर्णताप्राप्त प्रकृति की एक मुक्त क्रिया बन जाती है जिसमें अब पहले की तरह कोई व्यक्तिगत अपूर्णता नहीं रहती, इस या उस गुण के प्रति कोई आसक्ति, पाप और पूण्य, स्व और पर का कोई बंधन, या परम आध्यात्मिक आत्म-निर्धारण को छोड़कर और कोई निर्धारण नहीं रहता । ईश्वरान्वेषी एवं आध्यात्मिक ज्ञान के द्वारा उन अनन्य दिव्य कर्मी भगवान् की ओर ऊँचे उठा ले जाये गये कर्मों की चरम परिणति यही है ।

 

परंतु अभी एक प्रासंगिक प्रश्न शेष है जो प्राचीन संस्कृति में अत्यधिक महत्त्व रखता था और जो, उस प्राचीन मत को अगर छोड़ भी दिया जाय तो भी, सर्व-साधारण दृष्टि से काफी अधिक महत्त्वपूर्ण है । हम देख आये हैं कि गीता इस विषय पर सरसरी तौर पर पहले भी दो-एक शब्द कह चुकी है और अब यहाँ इसकी चर्चा का उपयुक्त प्रसंग आया है । सामान्य स्तर पर समस्त कर्म त्रिगुण के द्वारा निर्धारित होता है; जो कर्म हमें करना ही चाहिये वह, 'कर्तव्यं कर्म', तीन प्रकार का है--दान, तप और यज्ञ, और इन तीन में से कोई भी या ये सभी किसी गुण का स्वभाव धारण कर सकते हैं । अतएव हमें इन चीजों को इनके सामर्थ्यानुसार उच्चतम सात्त्विक शिखर तक ऊँचा उठाते हुए ही आगे बढ़ना होगा और फिर उस शिखर से और भी परे उस विशालता की ओर जाना होगा जिसमें सभी कर्म एक मुक्त आत्म-दान, दिव्य तप की एक शक्ति, आध्यात्मिक जीवन का एक नित्य यज्ञ बन जाते हैं । परंतु यह एक सर्वसामान्य नियम है और इन सब विवेचनों के द्वारा सर्वथा व्यापक सिद्धांतों की ही व्याख्या की गयी है, ये सब कर्मों और सब मनुष्यों पर समान रूप से, बिना किसी भेदभाव के लागू होते हैं, आध्यात्मिक विकास के द्वारा अंत में सभी इस प्रबल अनुशासन, इस विशाल पूर्णता, इस उच्चतम आध्यात्मिक अवस्था तक पहुँच सकते हैं । परंतु जहाँ मन और कर्म का सर्वसाधारण नियम सभी मनुष्यों के लिए एक-सा है, वहाँ हम यह भी देखते हैं कि वैविध्य का भी एक शाश्वत नियम है और प्रत्येक व्यक्ति मानवीय आत्मा, मन, संकल्प-शक्ति और प्राण के सार्वभौम नियमों के अनुसार ही नहीं अपितु अपनी प्रकृति के अनुसार भी कर्म करता है; प्रत्येक मनुष्य अपनी परि-स्थितियों, क्षमताओं, प्रवृत्ति, चारित्रय एवं शक्ति-सामर्थ्य के नियम के अनुसार विभिन्न कर्तव्यों को पूर्ण करता या विभिन्न दिशा का अनुसरण करता है । अध्यात्म- साधना में इस वैविध्य को, प्रकृति के इस व्यक्तिगत नियम को क्या स्थान देना चाहिए ?

 

गीता ने इस बात पर कुछ बल दिया है, यहाँतक कि इसे एक बड़ा भारी

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प्रारंभिक महत्त्व भी दिया है । अपने उपक्रम में ही उसने कहा कि है क्षत्निय का स्वभाव, विधान और कर्तव्य ही अर्जुन के कर्म का निज विधान है, उसका 'स्वधर्म'  है, इसके आगे उसने स्पष्ट एवं बलपूर्ण शब्दों में इस बात का प्रतिपादन किया है कि अपने स्वभाव, अपनी सत्ता के विधान एवं कर्तव्य का पालन और अनुसरण अवश्य करना चाहिए,--वह सदोष होता हुआ भी दूसरे की प्रकृति के स्वनुष्ठित विधान से कहीं अधिक श्रेयस्कर है । परधर्म में विजय-लाभ की अपेक्षा स्वधर्म में मृत्यु मनुष्य के लिए कहीं अधिक अच्छी है । परधर्म का अनुसरण अंतरात्मा के लिए भयावह  है, हम कह सकते हैं कि यह उसके विकास की स्वाभाविक प्रणाली के विरुद्ध होता है, एक ऐसी वस्तु होता है जो उसपर यांत्रिक रूप में लादी जाती है और इसीलिये जो बाहर से आयात एवं कृत्रिम तथा आत्मा के सच्चे स्वरूप की ओर हमारे विकास के लिये विनाशकारी होती है । जो कुछ सत्ता के अंदर से उद्भूत होता है वही यथार्थ और स्वास्थ्यकर वस्तु है, यथायथ प्रवृत्ति है,  न कि वह जो बाहर से उसपर लादा जाता है अथवा प्राण की चालनाओं या मन की भ्रांति के द्वारा उसपर थोपा जाता है । प्राचीन भारत की सामाजिक संस्कृति के 'चातुर्वर्ण्य' के कर्म में बाह्य रूप से इस स्वधर्म के चार सामान्य विभाग निरूपित किये गये हैं । गीता कहती है कि यह वर्णव्यवस्था भागवत विधान के अनुरूप है, ''इसकी सृष्टि गुणों और कर्मों के विभाग के अनुसार मैंने ही की थी"- - जगत् के प्रभु ने ही आदिकाल से इसकी सृष्टि कर रखी है । दूसरे शब्दों में, सक्रिय प्रकृति की चार सुस्पष्ट श्रेणियाँ हैं, अथवा प्रकृतिगत जीव के चार मूल रूप या 'स्वभाव' हैं, और प्रत्येक मनुष्य का कर्म एवं उपयुक्त कार्य उसके विशिष्ट स्वभाव के अनुरूप होता है । तदनंतर अंतिम रूप से, सूक्ष्मतर ब्योरों के साथ इसकी व्याख्या की गयी है । गीता कहती है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्म उनकी अपनी-अपनी आभ्यंतरिक प्रकृति, उनके आध्यात्मिक चारित्र्य एवं मूल स्वरूप, 'स्वभाव' से उत्पन्न गुणों के अनुसार पृथक्-पृथक् विभक्त हैं । शम, दम, तप, शौच, सहिष्णुता, ऋजुता, ज्ञान-विज्ञान, आस्तिकता (आध्यात्मिक सत्य की स्वीकृति ) ब्राह्मण के स्वभावज कर्म हैं । शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में अपराङ्मुखता, दान, ईश्वरभाव (शासक एवं नेताका स्वभाव ) क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं । कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य जिसमें शिल्पी और कारीगर के व्यवसाय भी सम्मिलित हैं, वैश्य के स्वभावजात कर्म हैं । सब प्रकार का सेवा-

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१. २, ३१ -स्वधर्ममपि चावेक्ष्य ।

२. ३, ३५

३. ४, १३

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रूपी कर्म शुद्र के स्वाभाविक कर्म के अंतर्गत है । इसके आगे गीता कहती है कि जो मनुष्य जीवन में अपने स्वाभाविक कर्म में निरत रहता है वह आध्यात्मिक सिद्धि लाभ करता है, पर निःसंदेह वह स्वयं उस कर्म ही के द्वारा सिद्धि नहीं प्राप्त करता बल्कि केवल तभी प्राप्त करता है यदि वह उसे यथार्थ ज्ञान एवं यथार्थ उद्देश्य के साथ संपन्न करे, यदि वह उसे इस सृष्टि की परम आत्मा की पूजा का रूप दे सके तथा जिन विश्वेश्वर से कर्म की समस्त प्रेरणा उद्भूत होती है उनके प्रति उसे सच्चाई के साथ अर्पित कर सके । समस्त प्रयास, समस्त कार्य-व्यापार, वह चाहे कुछ भी क्यों न हो, कर्मों के इस समर्पण के द्वारा उत्सर्गपूत किया जा सकता है, वह हमारे जीवन को हमारे अंदर और बाहर अवस्थित परमेश्वर के प्रति आत्म-दानमें परिणत कर सकता है और स्वयं भी अध्यात्म-सिद्धि के साधन में परिणत हो जाता है । परंतु जो कर्म मनुष्य का अपना स्वाभाविक कर्म नहीं होता, वह चाहे अच्छी तरह से ही क्यों न संपन्न किया जाय, बाह्य एवं यांत्रिक कसौटी से जाँचने पर वह बाहर से श्रेष्ठतर ही क्यों न दीख पड़े अथवा जीवन में अपेक्षाकृत अधिक सफलता की ओर ही क्यों न ले जाय, फिर भी आभ्यंतरिक विकास के साधन के रूप में वह निकृष्ट कोटि का ही होता है, और इसका कारण ठीक यही है कि उसका उद्देश्य बाह्य होता है तथा उसकी प्रेरणा यांत्रिक । अपना स्वभावज कर्म किसी अन्य दृष्टिबिंदु से दोषपूर्ण ही क्यों न दिखायी दे फिर भी वह अधिक अच्छा है । जमनुष्य कर्म की सच्ची भावना के साथ तथा अपनी निज प्रकृति के विधान  ( स्वधर्म ) के अनुकूल कर्म करता है तो उसे कोई पाप या कलंक नहीं लगता । त्रिगुण के क्षेत्न में समस्त कर्म ही त्रुटिपूर्ण होता है, समस्त मानव-कर्म ही दोष, त्रुटि या न्यूनता से ग्रस्त होता है; पर इसके कारण अपने निज कर्म तथा स्वाभाविक कार्य का परित्याग कर देना हमारे लिए उचित नहीं । कर्म होना चाहिए यथायथ रूप से नियमित कर्म, 'नियतं कर्म', पर आभ्यंतरिक दृष्टि से अपना निज कर्म, अपने अंदर से विकसित, अपनी सत्ता के सत्य के साथ सुसंगत, स्वभाव के द्वारा नियत, 'स्वभावनियतं कर्म'

 

यहाँ गीता का ठीक आशय क्या है ? आइये, पहले हम इसका बाह्यतर अर्थ देखें और इसपर विचार करें कि गीता ने जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है उसे जाति और युग के विचारों ने क्या पुट दिया था--उसपर सांस्कृतिक परिवेष का क्या रंग चढ़ा हुआ है और उसका प्राचीन अर्थ क्या है । ये श्लोक तथा इसी विषय पर गीता ने पहले जो वचन कहे हैं वे जाति-भेद-विषयक आधुनिक शास्त्रार्थों मे प्रमाणरूपेण उद्धृत किये जाते रहे हैं, कुछ लोगों ने तो इनकी इस प्रकार की व्याख्या की है कि ये वर्तमान प्रथा का समर्थन करते हैं, दूसरों ने इनका

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प्रयोग जाति-भेद के आनुवंशिक आधार का खंडन करने के. लिए किया है । पर वास्तव में गीता के श्लोकों का प्रचलित जाति-भेद के साथ कोई संबंध नहीं, क्योंकि यह चतुर्वर्ण के, अर्थात् आर्यजाति के चार सुनिर्दिष्ट वर्गों के प्राचीन सामाजिक आदर्श से अत्यंत भिन्न वस्तु है, और यह गीता के वर्णन के साथ किसी प्रकार भी मेल नहीं खाता । कृषि, गोपालन और प्रत्येक प्रकार के व्यापार को यहाँ वैश्य के कर्म बताया गया है; किंतु बाद की जाति-भेद-प्रथा में उन लोगों में से, जो व्यापार तथा पशु-पालन का कार्य करते थे, बहुतों को, शिल्पियों तथा छोटे-मोटे कारीगरों एवं अन्य कइयों को व्यवहारतः शूद्र-वर्ग में सम्मिलित किया गया है,-सो भी वहाँ जहाँ उन्हें चतुर्वर्ण के घेरे से बिलकुल बाहर ही नहीं कर दिया गया है,--और कुछ एक अपवादों को छोड़कर केवल वणिक-श्रेणी को ही वैश्य के रूप में परिगणित किया गया है, सो भी सर्वत्र नहीं । कृषि, शामन-कर्म और सेवा--इन धंधों को आज ब्राह्मण से लेकर शूद्र पर्यंत सभी वर्णों ने अपना लिया है । और, जहाँ कर्तव्य कर्म के आर्थिक विभागों में इतना अधिक घोटाला कर दिया गया है कि उनमें सुधार की कोई संभावना नहीं दीखती, वहाँ गुण के अनुसार कर्म का विधान परवर्ती जाति-भेद-प्रथा में और भी कम स्थान रखता है । उसमें तो सब कुछ एक कठोर आचार ही है जिसका वैयक्तिक प्रकृति की आवश्यकता से कुछ भी संबंध नहीं । उधर यदि हम इस विवाद के उस धार्मिक पहलू को लें जिसे जाति-भेद के समर्थकों ने प्रस्थापित किया है तो हम, निश्चय ही, गीता के शब्दों के साथ ऐसा कोई मूर्खतापूर्ण विचार नहीं जोड़ सकते कि मनुष्य की प्रकृति का धर्म यह है कि वह अपनी वैयक्तिक प्रवृत्ति एवं क्षमताओं का विचार किये बिना अपने माता-पिता या निकट या सुदूर पूर्व-पुरुषों के पेशे को ही अपनाये, ग्वाले का पुत्र ग्वाला ही बने और डाक्टर का पुत्र डाक्टर, चमारों की संतति कालचक्र के आवर्तन पर्यंत जूता ही बनाती रहे; फिर इस विचार को तो गीता पर और भी कम थोपा जा सकता है कि ऐसा करने से, व्यक्तिगत पुकार एवं व्यक्तिगत गुणों का ख्याल किये बिना दूसरे की प्रकृति के धर्म को इस प्रकार विवेक-रहित होकर यंत्रवत् दोहराते रहने से मनुष्य अपनी पूर्णता की ओर सहज ही अग्रसर होता है तथा आध्यात्मिक स्वातंत्र प्राप्त करना है । गीता के शब्द तो चतुर्वर्ण की प्राचीन व्यवस्था के उस रूप की ओर संकेत करते हैं जो अपनी आदर्श शुद्धावस्था में विद्यमान था या विद्यमान समझा जाता था, कई लोगों का कथन है कि (और यह कथन कुछ विवादग्रस्त है ) यह व्यवस्था एक आदर्श या एक साधारण नियम के अतिरिक्त और कुछ कभी भी नहीं रही तथा व्यवहार में इसका अनुसरण न्यूनाधिक शिथिलता के साथ ही

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किया जाता था,--हमें उसी प्रचलित व्यवस्था को दृष्टि में रखकर इसपर विचार करना चाहिए । यहाँ भी, इसका ठीक-ठीक बाह्य अर्थ समझने में अत्यधिक कठिनाई अनुभव होती है ।

 

प्राचीन चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था के तीन पहलू थे, सामाजिक एवं आर्थिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक । अपने आर्थिक पहलू की दृष्टि से यह समष्टि के अंदर सामाजिक मनुष्य के चार कर्तव्य स्वीकार करती थी, धार्मिक एवं बौद्धिक, राजनीतिक, आर्थिक और सेवात्मक । इस प्रकार चार प्रकार के कर्म हैं, धार्मिक पौरोहित्य, साहित्य, शिक्षा और ज्ञान का कर्म; शासन, राजनीति, प्रशासन और युद्ध का कर्म; उत्पादन, धनोपार्जन और विनिमय का कर्म; वैतनिक श्रम और सेवा का कर्म । चार सुस्पष्ट वर्गों के बीच इन चार कार्यों के वितरण के ऊपर समाज की संपूर्ण व्यवस्था को प्रतिष्ठित और सुस्थिर करने का यत्न किया गया । यह व्यवस्था भारत की कोई निराली विशेषता नहीं थी, बल्कि कुछ एक भेदों के साथ यह अन्य प्राचीन या मध्ययुगीन समाजों में भी सामाजिक विकास की एक अवस्था का प्रधान अंग थी । ये चार कर्म सभी सामान्य समाजों के जीवन में आजतक भी अनुस्यूत हैं, पर वे स्पष्ट विभाग अब कहीं नहीं दिखायी देते । पुरानी व्यवस्था सर्वत्र भंग हो गयी और उसके स्थान पर एक अधिक अस्थिर व्यवस्था या, जैसा कि हम भारत में देखते हैं, एक अस्त-व्यस्त एवं जटिल सामाजिक रूढ़ि एवं आर्थिक गतिहीनता का जन्म हुआ जो ह्रास को प्राप्त होकर जाति-संकर में परिणत हो गयी । इस आर्थिक कर्म-विभाग के साथ एक सांस्कृतिक विचार भी जुड़ा हुआ था जो प्रत्येक श्रेणी को उसका धार्मिक आचार, उसका मान-मर्यादा का नियम, नैतिक विधान, उपयुक्त शिक्षा और प्रशिक्षण, चारित्रिक विशेषता, कौटुम्बिक आदर्श एवं मर्यादा प्रदान करता था । जीवन के तथ्य सदा इस विचार के अनुरूप ही नहीं होते थे,--मानसिक आदर्श और प्राणिक एवं भौतिक व्यवहार के बीच एक विशेष खाई सदा ही देखने में आती है,--परंतु यथासंभव एक वास्तविक संगति बनाये रखने के लिए अनवरत और कठोर प्रयत्न किया जाता था । इस प्रयत्न का महत्त्व, और भूतकाल में सामाजिक मनुष्य के प्रशिक्षण के लिए इसने जिस सांस्कृतिक आदर्श एवं वातावरण की सृष्टि की उसका महत्त्व जितना भी बखाना जाय, थोड़ा है; परंतु आज एक ऐतिहासिक, भूतकालिक एवं विकासात्मक अर्थ से अधिक इसका कुछ महत्त्व नहीं । अंतिम बात यह है कि जहाँ कहीं यह वर्ण-प्रथा विद्यमान थी, वहाँ इसे कम या अधिक, एक धार्मिक समर्थन प्राप्त था (पूर्व में अधिक और यूरोप में बहुत कम ) और भारत में तो इसकी एक गंभीरतर

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आध्यात्मिक उपयोगिता एवं अर्थवत्ता भी स्वीकार की जाती थी । यह आध्यात्मिक अर्थ ही गीता की शिक्षा का वास्तविक सार है ।

 

गीता की रचना के समय यह प्रथा विद्यमान थी और इसका आदर्श भारतीय मन पर अधिकार किये हुए था । गीता ने उस आदर्श एवं प्रथा तथा उसकी धार्मिक मान्यता दोनों को स्वीकार किया । श्रीकृष्ण कहते हैं, ''मैंने ही गुण-कर्म-विभाग के अनुसार चातुर्वर्ण्य की सृष्टि की है ।''  केवल इसी उक्ति के बल पर पूर्ण रूप से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि गीता इस प्रथा को सनातन एवं सार्वभौम सामाजिक व्यवस्था मानती थी । अन्य प्राचीन शास्त्र इसे स्वीकार नहीं करते थे; वरंच, वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि आदिकाल में इसका अस्तित्व नहीं था तथा विकास के परवर्ती युग में इसका अंत हो जायगा । तथापि इस उक्ति से हम इतना तो समझ सकते हैं कि सामाजिक मनुष्य का चतुर्विध कर्तव्य प्रत्येक समाज की आभ्यंतरिक और आर्थिक आवश्यकताओं में सामान्य रूप से अंतर्निहित माना जाता था और अतएव इसे मानव के समष्टिगत एवं व्यष्टिगत जीवन में व्यक्त होनेवाले परमात्मा का विधान समझा जाता था । गीता की यह पंक्ति वास्तव में वैदिक पुरुष-सूक्त के सुप्रसिद्ध प्रतीक का एक बौद्धिक रूपांतर है । तब भला इन चतुर्विध कार्यों का स्वाभाविक आधार एव व्यावहारिक रूप क्या होना चाहिए ? प्राचीन समय में आनुवंशिकता का सिद्धांत ही व्यावहारिक आधार बन गया था । इसमें संदेह नहीं कि आरंभ में मनुष्य का सामाजिक कार्य और पद परिस्थिति, अवसर, जन्म और सामर्थ्य के द्वारा ही निर्धारित होते थे जैसा कि स्वतंत्रतर तथा अपेक्षाकृत अव्यवस्थित समाजों में आज भी देखने में आता है । परंतु क्योंकि श्रेणियों का एक अधिक स्थिर निर्धारण आरंभ हो गया, व्यवहार में उसकी पद-मर्यादा मुख्यत: या केवल जन्म के द्वारा निर्धारित होने लगी और परवर्ती जाति-प्रथा में जन्म ही पद-मर्यादा का एकमात्र नियामक बन गया । ब्राह्मण का पुत्र पद में सदा ब्राह्मण ही होता है, चाहे उसके अंदर ब्राह्मण के विशिष्ट गुणों या स्वभाव का कुछ भी अंश न हो, बौद्धिक शिक्षण या आध्यात्मिक अनुभव अथवा धार्मिक योग्यता या ज्ञान तनिक भी न हो, अपने वर्ण के यथार्थ कर्तव्य के साथ किसी प्रकार का भी संबंध न हो, उसके कर्म तथा स्वभाव में ब्राह्मणत्व का नाम-निशान भी न हो ।

 

यह विकास अवश्यंभावी था, क्योंकि बाह्य चिह्न ही एकमात्र ऐसे चिह्न होते हैं जिनका निर्णय सहज रूप से तथा सुविधापूर्वक किया जा सकता है और एक अधिकाधिक यांत्रीकृत, जटिल और लोकाचारात्मक समाज-व्यवस्था में

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१. ४, १३

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जन्म-ग्रहण ही वर्ण-निर्धारण का एक अत्यंत सहज और सुविधाजनक लक्षण था । वंश-परंपरानुसार मान लिये गये गुण तथा व्यक्ति के वास्तविक सहजात स्वभाव और सामर्थ्य में जो विरोध-वैषम्य हो सकता था उसे कुछ काल तक तो शिक्षा और अनुशीलन के द्वारा दूर या कम किया जाता रहा; किंतु अंत में इस प्रयत्न को स्थिर रूप से जारी नहीं रखा जा सका और वंशानुगत प्रथा ही सर्वतंत्र स्वतंत्र नियम बन गयी । प्राचीन स्मृतिकारों ने जहाँ वशानुक्रमिक प्रथा को स्वीकार किया वहाँ इस बात पर भी आग्रह किया कि गुण, चारित्रय और सामर्थ्य ही एकमात्र सबल और वास्तविक आधार हैं और इनके बिना वंशानुगत सामाजिक पद-मर्यादा एक अध्यात्महीन असत्य बन जाती है, क्योंकि वह अपना सच्चा अर्थ खो बैठती है । गीता भी सदा की भाँति आभ्यंतरिक अर्थ को ही अपनी विचार-धारा का आधार बनाती है । निःसंदेह, एक श्लोक में वह मनुष्य के साथ ही उत्पन्न हुए कर्म की, 'सहजं कर्म' की बात कहती है; परंतु अपने-आपमें इसका अर्थ आनुवंशिक आधार नहीं होता । पुनर्जन्म के जिस भारतीय सिद्धांत को गीता स्वीकार करती है उसके अनुसार मनुष्य की जन्मजात प्रकृति और जीवन-धारा मूलत: उसके अपने अतीत जीवनों के द्वारा ही निर्धारित होती हैं, उसके अपने अतीत कर्मों तथा मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास के द्वारा पूर्वजन्म-साधित आत्म-विकास ही होती हैं और वे केवल उसके वंश, माता-पिता और शारीरिक जन्म के स्थूल तत्त्व पर ही अवलंबित नहीं हो सकतीं; यह तो केवल एक गौण महत्व की वस्तु ही हो सकता है, शायद एक प्रभावपूर्ण लक्षण भी, पर प्रधान तत्त्व नहीं हो सकता । 'सहज' शब्द का अर्थ है वह चीज जो हमारे साथ ही उत्पन्न हुई हो, वह सभी कुछ जो स्वाभाविक, सहजात और अंतर्निहित हो; अन्य सब स्थलों में इसके पर्याय के रूप में ' स्वभावज' शब्द का प्रयोग किया गया है । मनुष्य का काम-धंधा या कर्तव्य उसके गुणों के द्वारा निर्धारित होता है,  'कर्म' मात्र 'गुण' के द्वारा निर्धारित होता है; उसका कर्तव्य कर्म उसके स्वभाव से ही उत्पन्न एक कर्म होता है, 'स्वभावजं कर्म' ; और उसके स्वभाव के द्वारा ही नियंत्रित होता है, 'स्वभाव-नियतं कर्म' । कर्म, कर्तव्य एवं कार्य-व्यापार में प्रकट होनेवाले आभ्यंतरिक गुण और भाव पर यह जो बल दिया गया है वही गीता के कर्मसंबंधी विचार का संपूर्ण आशय है ।

 

गीता ने स्वधर्म के अनुसरण का जो आध्यात्मिक अर्थ और प्रभाव प्रति-पादित किया है उसका मूल इसीमें निहित है कि

उसने कर्म के बाह्य रूप पर नहीं, बल्कि आंतरिक सत्य पर बल दिया है । इस प्रकरण का वस्तुत: महत्त्वपूर्ण अर्थ यही है । बाह्य समाज-व्यवस्था के साथ इसके संबंध को अत्यधिक महत्त्व

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दे दिया गया है, मानों गीता का उद्देश्य इसीकी खातिर इसका समर्थन करना या धार्मिक-दार्शनिक सिद्धांत के द्वारा इसे युक्तियुक्त सिद्ध करना हो । सत्य यह है कि वह बाह्य नियम पर बहुत कम तथा उस आंतरिक विधान पर बहुत अधिक बल देती है जिसे वर्ण-व्यवस्था ने एक नियत बाह्य रूप में कार्यान्वित करने का यत्न किया था । इस प्रकरण में इस विधान के समष्टिगत एवं आर्थिक या अन्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व पर नहीं, बल्कि वैयक्तिक एवं आध्यात्मिक मूल्य पर ही गीता की विचार-दृष्टि जमी हुई है । गीता यज्ञ का वैदिक सिद्धांत स्वीकार करती थी, परंतु उसने इसे एक गंभीर दिशा, एक आभ्यंतरिक, आत्मगत एवं विश्वगत अर्थ, एक आध्यात्मिक भाव एवं लक्ष्य प्रदान किया था जो इसके सभी मूल्यों को बदल डालता है ।

 

यहाँ भी वह मनुष्यों के चातुर्वर्ण्य का सिद्धांत स्वीकार करती है और उसी प्रकार से स्वीकार करती है, परंतु इसे एक गंभीर दिशा, एक आभ्यंतरिक, आत्म-गत एवं विश्वगत अर्थ, एक आध्यात्मिक भाव एवं लक्ष्य प्रदान कर देती है । और, उसके ऐसा करने से ही इस सिद्धांत के मूलभूत विचार के मूल्य में परिवर्तन हो जाता है और वह एक ऐसा स्थायी एवं जीवंत सत्य बन जाता है जो किसी विशिष्ट सामाजिक प्रणाली एवं व्यवस्था की अस्थायिता से नहीं बँधा होता । आर्यों की जो समाज-व्यवस्था अब विलुप्त हो चुकी है या म्रियमाण अवस्था में है उसे युक्तियुक्त सिद्ध करना गीता का उद्देश्य नही,--यदि यही सब कुछ होता तो स्वभाव और स्वधर्म के उसके सिद्धांत में कोई नित्य सत्य निहित ही न होता, न उसका कोई स्थायी मूल्य ही होता,--गीता का लक्ष्य है मनुष्य की आंतरिक सत्ता के साथ उसके बाह्य जीवन का संबंध दर्शाना, उसकी अंतरात्मा से तथा उसकी प्रकृति के आभ्यंतरिक विधान से उसके कर्म का विकास दर्शाना । और सचमुच हम देखते हैं कि स्वयं गीता ही अपने इस आशय को अत्यंत स्पष्ट रूप में द्योतित कर देती है जब कि वह ब्राह्मण और क्षत्रिय के कर्म का वर्णन बाह्य कार्य-व्यापार की, शिक्षा, पौरोहित्य एवं शास्त्रालोचन या राज्य-कार्य, युद्ध एवं राज-नीति की परिभाषा में नहीं, बल्कि पूर्ण रूप से, आभ्यंतरिक स्वभाव की परिभाषा में करती है । उसकी भाषा हमारे कानों को कुछ विचित्र-सी ही प्रतीत होती है । शम, दम, तप, शुचिता, सहिष्णुता, ऋजुता, ज्ञान, आस्तिकता (आध्यात्मिक सत्य का अंगीकार और अनुशीलन ) को साधारणत: मनुष्य का कर्तव्य, कर्म या जीवन-व्यवसाय नहीं कहा जायगा । तथापि गीता का कथन और तात्पर्य ठीक यही है,--वह कहती है कि ये चीजें, इनका विकास, आचार-व्यवहार में इनकी अभिव्यक्ति, सात्विक प्रकृति के धर्म को बाह्य रूप में ढालने की इनकी

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शक्ति ब्राह्मण का वास्तविक कर्म हैं; शिक्षा, धार्मिक पौरोहित्य तथा अन्य बाह्य कर्तव्य इस कर्म का एक अत्यंत उपयुक्त क्षेत्र मात्र हैं, इस अंतर्विकास का एक अनुकूल साधन, इसकी समुचित आत्म-अभिव्यक्ति, सुस्थिर आदर्श में और चारित्रय की बाह्य सुदृढ़ता में अपनेको प्रतिष्ठित करने की पद्धति हैं । युद्ध, शासन-कार्य, राजनीति, नेतृत्व और प्रभुत्व क्षत्रिय के लिए उसी प्रकार का क्षेत्र एवं साधन हैं; परंतु उसका वास्तविक कर्म है राजोचित या वीरोचित सक्रिय युद्ध-भावना के धर्म का विकास, व्यवहार में उसकी अभिव्यक्ति, बाह्य रूप में तथा ऊर्जस्वी गतिच्छंद में उसे सशक्त रूप में ढालना । वैश्य और शूद्र का कर्म बाह्य कर्तव्य की परिभाषा में व्यक्त किया गया है, और इस विपरीत प्रवृत्ति का कुछ अर्थ हो सकता है । क्योंकि, उत्पादन और धनोपार्जन में प्रवृत्त या श्रम और सेवा के घेरे में आबद्ध प्रकृति, व्यापारिक और दासोचित मनोवृत्ति साधारणत: बहिर्मुखी होती है, अपने कर्म की चरित्र-गठन करने की शक्ति की अपेक्षा उसके बाह्य मूल्य-महत्त्व में ही अधिक ग्रस्त रहती है, और यह स्वभाव प्रकृति के सात्त्विक या आध्यात्मिक कर्म के लिए इतना अनुकूल नहीं । यह भी एक कारण है जिससे कि एक व्यावसायिक एवं औद्योगिक युग या कर्म और श्रम के विचार में व्यस्त समाज अपने चारों ओर एक ऐसा वातावरण बना लेता है जो आध्यात्मिक जीवन की अपेक्षा भौतिक जीवन के अधिक अनुकूल होता है, ऊर्ध्वगामी मन और आत्मा की सूक्ष्मतर पूर्णता की अपेक्षा प्राण की क्षमता के लिए अधिक उपयुक्त होता है । तथापि, इस प्रकार की प्रकृति और इसके कार्यों का भी अपना आंतरिक अर्थ एवं आध्यात्मिक मूल्य है और इन्हें पूर्णता का पोषक बल एवं साधन बनाया जा सकता है जैसा कि एक अन्य स्थल पर कहा जा चुका है, आध्यात्मिकता, नैतिक पवित्रता और ज्ञान के आदर्श से संपन्न ब्राह्मण और महत्ता, वीरता एवं चारित्रिक उच्चता के आदर्श से युक्त क्षत्रिय ही नहीं, बल्कि अर्थाभिलाषी वैश्य, श्रमपाश में बद्ध शूद्र, संकीर्ण, सीमाबद्ध एवं पराधीन जीवन की भागिनी स्त्री और पाप के गर्भ से उत्पन्न शूद्र, 'पापनोय:', तक भी इस मार्ग से तुरंत उच्चतम आंतरिक महत्ता एवं आध्यात्मिक स्वाधीनता की ओर उठ सकते हैं, सिद्धि की ओर, मानव-सत्ता के दिव्य तत्त्व की मुक्ति एवं परिपूर्णता की ओर आरोहण कर सकते हैं ।

 

इस प्रकरण पर प्रथम दृष्टिपात करते ही तीन मंतव्य हमारे सामने स्वयमेव उपस्थित होते है और यहाँ गीता ने जो कुछ भी कहा है उस सबमें उन तीनों को अंतर्निहित समझा जा सकता है । प्रथम, समस्त कर्म अंदर से ही निर्धारित होना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य के अंदर कोई अपना निज तत्व होता है,

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अपनी प्रकृति का कोई विशिष्ट धर्म एवं सहजात शक्ति होती है । वह उसकी आत्मा की कार्यसाधक शक्ति होती है, वह उसकी प्रकृतिगत अंतरात्मा के क्रियाशील रूप का सृजन करती है और उसे कर्म के द्वारा व्यक्त करना और पूर्ण बनाना, शक्ति-सामर्थ्य, आचार-व्यवहार और जीवन में उसे प्रभावोत्पादक बनाना ही उसका कार्य है, उसका सच्चा कर्म है: वह उसे आंतर और बाह्य जीवन के यापन का ठीक मार्ग बताती है तथा उसके और आगे के विकास के लिए यथार्थ प्रारंभ-स्थल होती है । दूसरे, मोटे तौर पर मनुष्य की प्रकृति चार श्रेणियों में विभक्त है, इनमें से प्रत्येक का अपना विशिष्ट कर्तव्य, कर्म और स्वभाव का अपना आदर्श नियम है और यह श्रेणी मनुष्य के अपने विशिष्ट क्षेत्र को द्योतित करती है और इसीको उसके बाह्य सामाजिक जीवन में उसकी यथार्थ कार्यपरिधि का निर्धारण करना चाहिए । अंत में मनुष्य चाहे जो भी कर्म करे, यदि वह उसे अपनी सत्ता के धर्म, अपनी प्रकृति के सत्य के अनुसार संपन्न करे तो उसे परमेश्वर की ओर फेरा जा सकता है तथा आध्यात्मिक मुक्ति एवं सिद्धि का प्रभावपूर्ण साधन बनाया जा सकता है । इन मंतव्यों में से पहला और अंतिम सुस्पष्ट रूप से सत्यपूर्ण एवं न्यायसंगत विचार है । नि:संदेह मनुष्य के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन-यापन का सामान्य ढंग इन सिद्धांतों के विरुद्ध प्रतीत होता है; क्योंकि निश्चय ही हमारे ऊपर बाह्य आवश्यकता, नियम और विधान का भयानक बोझ है, और आत्म-अभिव्यक्ति के लिए, जीवन में अपने सच्चे व्यक्तित्व, अपनी सच्ची आत्मा, अपने अंतरतम विशिष्ट स्वधर्म के विकास के लिए हमारी जो माँग है उसमें पारिपार्श्विक प्रभाव पद-पद पर हस्तक्षेप करते हैं, व्याघात पहुँचाते हैं, उसे बलपूर्वक पदच्युत कर देते हैं किंवा बहुत ही तुच्छ अवसर और क्षेत्र प्रदान करते हैं । मालूम होता है कि जीवन, राष्ट्र, समाज, परिवार और हमारे चारों ओर की सभी शक्तियों ने हमारी आत्मा पर अपना जुआ लादने के लिए, अपने साँचों में हमें जबर्दस्ती ढालने के लिए, हमपर अपना यांत्रिक स्वार्थ और स्थूल तात्कालिक सुख-साधन थोपने के लिए षड्यंत्र कर रखा है । हम मशीन के पुर्जे बन जाते है; हम सच्चे अर्थों में मनुष्य, 'पुरुष', आत्मा और मन नहीं हैं, आत्मा की ऐसी मुक्त संतति, ऐसे अमृत पुत्र नहीं हैं जो अपनी सत्ता की उच्चतम स्वभावगत पूर्णता का विकास करने और उसे जाति की सेवा का साधन बनाने में समर्थ हों और न हमें सच्चे अर्थों में ऐसे बनने के लिए अवसर ही दिया जाता है । ऐसा प्रतीत होगा कि हम वही नहीं होते जो कुछ कि हम अपनेको बनाते हैं, बल्कि वह होते हैं जो कुछ कि हमें बनाया जाता है । परंतु जितना ही अधिक हम ज्ञान में अग्रसर होंगे, उतना ही अधिक गीता के नियम

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का सत्य हमपर अवश्यमेव प्रकट होगा । बालक की शिक्षा ऐसी होनी चाहि जिससे कि उसकी प्रकृति के अंदर जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ, अत्यंत शक्तिशाली, अत्यंत आभ्यंतरिक और प्राणवंत है वह सब बाहर प्रकट हो जाय; मनुष्य के कर्म और विकास को जिस साँचे में ढलना चाहिए वह उसके स्वभावगत गुण और सामर्थ्य का ही साँचा है । नयी चीजें उसे अवश्य प्राप्त करनी होंगी, पर उन्हें वह, उत्तम रीति से तथा अत्यंत सजीव रूप में, अपने विकसित आदर्श तथा सहजात शक्ति के आधार पर ही प्राप्त कर सकेगा । और, इसी प्रकार मनुष्य के कर्तव्य कर्म उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति,  देन और क्षमताओं के द्वारा ही निर्धारित होने चाहिएँ । जो व्यक्ति इस प्रकार स्वतंन्त्र रूप से विकसित होगा वह एक जीवंत आत्मा और मन होगा और उसके अंदर जाति की सेवा के लिए कहीं अधिक महान् शक्ति होगी । और, अब हम अधिक स्पष्ट रूप में यह देख सकते हैं कि यह नियम केवल व्यक्ति के संबंध में ही नहीं, बल्कि समाज, राष्ट्र सामुदायिक आत्मा एवं समष्टिगत मानव के संबंध में भी सत्य है । चार वर्णों तथा उनके कार्यों का दूसरा मंतव्य अधिक विवादग्रस्त है । यह कहा जा सकता है कि यह अत्यंत सीधा-सादा और निश्चयात्मक है, जीवन की जटिलता और मानव-प्रकृति की नमनशीलता को यह पर्याप्त रूप से विचार में नहीं लाता, और सिद्धांत या उसकी अंतर्निहित विशेषताऐं कुछ भी क्यों न हों, उसका बाह्य सामाजिक प्रयोग यांत्रिक आचार के ठीक उसी अत्याचार की ओर ले जायगा जो स्वधर्म के समस्त विधान के सर्वथा विरुद्ध है । परंतु ऊपरी तह के नीचे इसका एक गभीरतर अर्थ भी है जो इसे एक कम संदिग्ध मूल्य प्रदान करता है |  और, चाहे हम इसे अस्वीकार भी कर दें, फिर भी तीसरा मंतव्य अपने व्यापक अर्थ को लिए हुए अटल रहेगा । जीवन में मनुष्य का कर्म एवं कर्तव्य कोई भी क्यों न हो, यदि वह कर्म अंदर से निर्धारित हो अथवा यदि मनुष्य को ऐसा अवसर प्रदान किया जाय जिससे वह उस कर्म को अपनी प्रकृति की आत्म-अभिव्यक्ति बना सके तो वह उसे विकास तथा महत्तर आंतरिक पूर्णता का साधन बना सकता है । और, उसका स्वाभाविक कर्म कोई भी क्यों न हो, यदि वह उसे यथायथ भावना के साथ संपन्न करे, आदर्श मन के द्वारा उसे आलोकित करे, यदि वह उसकी क्रिया को अपने अंतरस्थ भगवान् के उपयोग में लगा दे, विश्व में अभिव्यक्त परमात्मा की उसके द्वारा सेवा करे अथवा मानवता में भगवान् के जो उद्देश्य हैं उनके लिए उसे एक चेतन उपकरण बना दे तो वह उसे सर्वोच्च आध्यात्मिक पूर्णता और स्वतंत्रता के साधन के रूप में परिणत कर सकता है ।

 

परंतु यदि गीता की इस शिक्षा को हम स्वत -संपूर्ण अर्थ रखनेवाले एक

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स्वतंत्र उद्धरण के रूप में न लें, जैसा कि बहुधा किया जाता है, बल्कि सारे ग्रंथ में और विशेषकर अंतिम बारह अध्यायों में वह जो कुछ कहती आ रही है उस सबके साथ संगति बिठाते हुए इसे देखें जैसा कि हमें करना ही चाहिए, तो हमें पता लगेगा कि इसका अर्थ और भी गंभीर है । जीवन और कर्मों के विषय में गीता का दर्शन यह है कि सब कुछ भागवत सत्ता से, विश्वातीत और विश्वगत परमात्मा से उद्भूत होता है । सभी कुछ भगवान् की, वासुदेव की प्रच्छन्न अभिव्यक्ति है, 'यत : प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्' । हृदय में तथा जगत् में जो अविनाशी विद्यमान हैं उन्हें प्रकट करना, जगदात्मा के साथ एकत्व में निवास करना, चैतन्य, ज्ञान, संकल्प, प्रेम एवं अध्यात्म-आनंद में परमोच्च भगवान् के साथ एकत्व में उठ जाना, उच्चतम आध्यात्मिक प्रकृति में निवास करना जिसमें व्यक्तिगत एवं प्रकृतिगत सत्ता अपूर्णता एवं अविद्या से मुक्त हो जाय और दैवी शक्ति के कर्मों के लिए एक सचेतन यंत्र बन जाय-यही है वह पूर्णता जिसे मानवता अधिगत कर सकती है और यही है अमृतत्व और स्वातंत्र्य की प्राप्ति के लिए अनिवार्य अवस्था । परंतु जब वास्तव में हम प्राकृत अज्ञान से धिरे हुए हैं, हमारी अंतरात्मा अहं की कारा में कैद है, परिस्थितियों से अभिभूत एवं आक्रांत है, उन्हींके द्वारा ठोक-पीटकर गठित की जाती है, प्रकृति की यांत्रिक क्रिया के द्वारा शासित एवं परिचालित होती है, हमारी अपनी निगूढ़ अध्यात्म-शक्ति की वास्तविक सत्ता पर हमारा जो आधार है उससे विच्छिन्न है, तब इस अवस्था की प्राप्ति कैसे संभव है ? इसका उत्तर यह है कि यह सब प्राकृत क्रिया आज एक आवृत और प्रतिकूल व्यापार में कितनी ही समाच्छन्न क्यों न हो फिर भी इसमें अपनी विकसनशील स्वतंत्रता और पूर्णता का तत्त्व निहित है । एक देवाधिदेव प्रत्येक मनुष्य के हृदय में विराजमान हैं और वे प्रकृति के इस रहस्यमय व्यापार के स्वामी हैं । और, यद्यपि विश्व की यह परम आत्मा, यह सर्वमय  'एक', हमें मायाशक्ति के द्वारा यंत्नारूढु की भाँति संसार-चक्र पर घुमाता हुआ प्रतीत होता है, किसी कौशलपूर्ण यांत्रिक नियम के द्वारा हमें हमारे अज्ञान में उसी प्रकार गढ़ता दिखायी देता है जैसे कुम्हार एक घड़े को गढ़ता है किंवा जैसे जुलाहा कपड़ा बुनता है, फिर भी यह आत्मा हमारी अपनी ही परमतम आत्मा है, हमारी सत्ता का जो वास्तविक तत्त्व, हमारी सत्ता का जो सत्य, हमारे पाशव, मानवीय और दिव्य जीवन में, जो कुछ हम थे, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हम होंगे उस सबमें हमारे अंदर विकसित हो रहा है, नित नये एवं अधिक उपयुक्त रूप ग्रहण कर रहा है उसके अनुसार,--उस अंतरीय आत्मिक सत्य के अनुसार हमारी यह अंतरस्थ आत्मा अपनी सर्वज्ञानमय सर्वशक्तिमत्ता में हमें उत्तरोत्तर

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गठित करती है, जब हमारी आँख खुलेगी तब हमें इस सत्य का पता लग जायगा । अहं की यह मशीनरी, त्रिगुण, मन, देह, प्राण, भावावेग, कामना, संघर्ष, विचार, अभीप्सा और प्रयास की यह उलझी हुई जटिलता, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, प्रयास और सिद्धि-असिद्धि, जीव और परिस्थिति, स्व और पर की यह परस्पर-ग्रथित क्रिया-प्रतिक्रिया तो मेरे अंदर की एक उच्चतर अध्यात्म-शक्ति का केवल एक बाह्य अपूर्ण रूप है; अपनी आत्मा में मैं निगूढ़ रूप से जो दिव्य और महान् सत्ता हूँ तथा अपनी प्रकृति में मैं प्रकट रूप से जो दिव्य और महान् सत्ता बनूंगा उसीकी आत्म-अभिव्यक्ति को उत्तरोत्तर साधित करने के लिए वह अध्यात्म-शक्ति अपने सभी उतार-चढ़ावों के बीच निरंतर यत्न करती है । इस क्रिया की अपनी सफलता का तत्त्व इसके अपने ही अंदर निहित है और वह है स्वभाव और स्वधर्म का तत्त्व ।

 

जीव अपनी आत्माभिव्यक्ति में पुरुषोत्तम का एक अंश है । प्रकृति के अंदर वह परमात्मा की शक्ति का प्रतिनिधि है, अपने व्यक्तित्व में वह वही शक्ति है; वह विश्वात्मा की संभाव्य-शक्तियों को व्यष्टि-सत्ता में प्रकट करता है । यह जीव अपने-आपमें आत्मा ही है, प्राकृत अहं नहीं; अहं का रूप नहीं, बल्कि आत्मा ही हमारा सत्य स्वरूप एवं आभ्यंतरिक आत्म-तत्त्व है । हम जो कुछ हैं और जो कुछ बन सकते हैं उसकी सच्ची शक्ति उस उच्चतर अध्यात्म-शक्ति में ही है, त्रिगुण की यांत्रिक माया उसकी गतियों का अंतरतम एवं मूलभूत सत्य नहीं है; वह तो केवल एक वर्तमान कार्यकरी शक्ति है, निम्न स्तर का एक सुविधाजनक यंत्र है, बाह्य व्यवहार एवं अभ्यास की एक व्यवस्था है । आध्यात्मिक प्रकृति, जिसने विश्व में इस बहुविध व्यक्तित्व का रूप धारण किया है, 'पराप्रकृतिर्जीवभूता', हमारी सत्ता का आधारभूत उपादान है : शेष सब आत्मा की किसी उच्चतम गुप्त क्रिया से उत्पन्न एक निम्नतर सृष्टि एवं बाह्य रचना है । प्रकृति के अंदर हममें से प्रत्येक के लिए अपनी संभूति का एक विधान और संकल्प विद्यमान है; प्रत्येक जीव आत्म-चेतना की एक शक्ति है जो अपने अंदर भगवान् के स्वरूप की एक धारणा बना लेती है और उसके द्वारा अपने कर्म एवं विकास, अपनी विकसनशील आत्म-उपलब्धि, अपनी सतत और परिवर्तनशील आत्म-अभिव्यक्ति, अपनी बाह्यत: अनिश्चित पर गुहत: अवश्यंभावी पूर्णता-मुखी प्रगति का मार्गदर्शन करती है । वही हमारा स्व-भाव, हमारी अपनी वास्तविक प्रकृति है; वह हमारी सत्ता का सत्य है जो आज जगत् में हमारे नानाविध भूतभाव में केवल एक अनवरत आशिक अभिव्यक्ति लाभ कर रहा है । इस स्वभाव के द्वारा निर्धारित कर्म-विधान ही हमारे आत्म-संघटन, कर्तव्य और क्रिया-कलाप का यथायथ विधान है, हमारा स्वधर्म है ।

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यह विधान समस्त सृष्टि में पाया जाता है, सर्वत्र एक ही शक्ति, एक ही सार्वजनीन विश्व-प्रकृति कार्य कर रही है, पर हरएक स्तर रूप, शक्ति, जाति, उपजाति एवं व्यष्टिभूत प्राणी में वह एक प्रधान भाव का तथा सतत और जटिल परिवर्तन के कुछ एक गौण भावों एवं सूत्रों का अनुसरण करती है, ये भाव और सूत्र प्रत्येक के स्थायी धर्म तथा अस्थायी धर्मों दोनों के आधार हैं । ये उसके लिए संभूति में उसकी सत्ता का विधान निश्चित करते हैं,  उसके जन्म, स्थिति और परिवर्तन का मार्ग, उसकी स्वरक्षा और स्व-वृद्धि की शक्ति, उसकी स्थिर और विकासोन्मुख आत्म-अभिव्यक्ति और आत्म-उपलब्धि की दिशाएँ, विश्व में होनेवाली परमात्मा की शेष संपूर्ण अभिव्यक्ति के साथ उसके संबंधों के नियम निर्धारित करते हैं । अपनी सत्ता के धर्म का, 'स्वधर्म' का, अनुसरण करना, अपनी सत्ता के अंदर निहित भाव का, 'स्वभाव' का विकास करना उसकी सुरक्षा की भित्ति है, उसकी यथार्थ सरणि और पद्धति है । यह अंत में जीव को किसी वर्तमान रूप-रचना में आबद्ध नहीं कर देता, वरंच, विकास की इस पद्धति से वह नये अनुभवों को अपने निज धर्म एवं विधान के अंदर आत्मसात् करते हुए अपने-आपको अत्यंत सुनिश्चित रूप से समृद्ध करता है और अपने समय पर वह अत्यंत शक्तिशाली रूप में विकसित हो सकता है तथा अपने वर्तमान साँचों को तोड़कर उसके परे एक उच्चतर आत्म-अभिव्यक्ति तक पहुँच सकता है । अपने धर्म एवं विधान की रक्षा करने में असमर्थ होने का, जिससे परिस्थिति को अपने अनुकूल तथा अपनी प्रकृति के लिए उपयोगी बनाया जा सके ऐसे किसी ढंग से अपने-आपको अपनी परिस्थिति के अनुकूल बनाने में असफल होने का अर्थ है अपने-आपको खो देना, अपनी सत्ता के अधिकार से वंचित होना, अपनी आत्मा के पथ से च्युत होना, 'विनष्टि,' असत्य और मृत्यु, क्षय और विध्वंस की वेदना । प्रायः ही इस अंधकार और विलोप के पश्चात् आत्मा को पुन: उपलब्ध करने की कष्ट-पूर्ण साधना की आवश्यकता होती है, यह हमारी वास्तविक प्रगति में बाधा डालनेवाले असन्मार्ग का व्यर्थ चक्र है । यह विधान किसी-न-किसी रूप में संपूर्ण प्रकृति में पाया जाता है; सायंस ने सार्वभौमता के नियम और वैविध्य के नियम की जो क्रियाएँ हमारे सामने प्रकाशित की हैं उन सबके मूल में यह विधान काम कर रहा है । मनुष्य के जीवन में, उसकी सहस्रों मानवीय देहों में होनेवाले अनेकानेक जीवनों में यही विधान देखने में आता है । यहाँ इसकी एक बाह्य क्रिया भी है और इसका एक आभ्यंतर आध्यात्मिक सत्य भी है, और जब हम उस अंतरीय अध्यात्म-सत्य को उपलब्ध कर अपना समस्त कर्म आत्मा की शक्तियों से उद्धासित कर लेते हैं केवल तभी वह बाह्य क्रिया अपना पूर्ण एवं

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वास्तविक अर्थ प्राप्त कर सकती है । आत्म-ज्ञान में हमारी प्रगति के अनुपात में ही यह महान् और स्पृहणीय रूपांतर बल और वेग के साथ संपन्न किया जा सकता है ।

 

और सर्वप्रथम हमें यह देखना होगा कि उच्चतम आध्यात्मिक प्रकृति में स्वभाव का एक अर्थ है और त्रिगुण की निम्न प्रकृति में उसका एक बिलकुल दूसरा ही रूप और अर्थ हो जाता है । वहाँ भी यह क्रिया तो करता है, पर अपने स्वरूप पर इसका पूर्ण अधिकार नहीं होता, मानों यह अधूरे प्रकाश में या सर्वथा अंधकार में अपने राच्चे धर्म की खोज कर रहा हो, यह अनेक निम्नतर और मिथ्या रूपों, अंतहीन त्रुटियों, विकृतियों, आत्म-हानियों, आत्म-लाभों, आदर्श और नियम की खोजों के द्वारा अपने पथ पर बढ़ता चला जाता है और अंत में आत्म-उपलब्धि एवं पूर्णता तक जा पहुँचता है । हमारी प्रकृति यहाँ ज्ञान और अज्ञान, सत्य और असत्य, सफलता और विफलता, सत् और असत्, लाभ और हानि, पाप और पुण्य का मिश्रित ताना-बाना है । इन सब चीजों में से गुजरता हुआ जो आत्म-अभिव्यक्ति और आत्म-उपलब्धि को खोज करता रहता है वह सदा स्वभाव ही होता है, 'स्वभावस्तु प्रवर्तते'; यह एक ऐसा सत्य है जिससे हमें सार्वभौम उदारता और समदर्शिता का पाठ सीखना चाहिए, क्योंकि हम सभी इस एक ही कठिनाई और संघर्ष में ग्रस्त हैं । ये क्रियाएँ जीव की नहीं बल्कि प्रकृति की हैं । पुरुषोत्तम इस अज्ञान से सीमाबद्ध नहीं हैं; वे ऊपर से इसका नियमन करते हैं और जीव को उसके परिवर्तनों में से मार्ग दिखाते हैं । शुद्ध निर्विकार आत्मा को ये क्रियाएँ छू तक नहीं पातीं; वह अपनी अगोचर शाश्वत स्थिति के द्वारा इस क्षर प्रकृति को इसके उतार-चढ़ावों में साक्षि-भाव से देखती और आश्रय देती है । व्यक्ति की वास्तविक आत्मा, हमारे अंदर की केंद्रीय सत्ता, इन चीजों से उच्चतर है, फिर भी प्रकृति के अंदर अपने बाह्य क्रमविकास में वह इन्हें अंगीकार करती है । और जब हम इस वास्तविक आत्मा, अपने-आपको धारण करनेवाली अपरिवर्तनशील विश्वगत आत्मा, प्रकृति के संपूर्ण व्यापार का अधिशासन और परिचालन करनेवाले अपने अंतरस्थ पुरुषोत्तम या परमेश्वर को प्राप्त कर लेते है, तो हम अपने जीवन-विधान के स्वधर्म के समस्त आध्यात्मिक मर्म का पता पा लेते है । क्योंकि तब जो जगदीश्वर अपने अनंत गुणों में, सर्व भूतों में अपने को सदैव प्रकट करते रहते हैं उन्हें हम जान जाते हैं । हम भगवान् की चतुर्विध उपस्थिति से सज्ञान हो जाते हैं, वह चतुर्विध उपस्थिति है आत्म-ज्ञान और विश्व-ज्ञान की सत्ता, बल और शक्ति की सत्ता जो अपनी शक्तियों की खोज करती, उन्हें प्राप्त करती और प्रयोग में लाती है, पारस्परिकता और सृष्टि की तथा

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जीव-जीव के बीच संबंध एवं आदान-प्रदान की सत्ता अर्थात् कर्ममय पुरुष जो विश्व में श्रम करता है और प्रत्येक में सबकी सेवा करता है और प्रत्येक के श्रम को अन्य सबकी सेवा में प्रयुक्त करता है । हमारे अंदर भगवान् की जो व्यष्टि-शक्ति विद्यमान है उससे भी हम सचेतन हो उठते हैं, यह वही शक्ति है जो इन चतुर्विध शक्तियों को सीधे ही प्रयोग में लाती है, हमारी आत्म-अभिव्यक्ति की सरणि का निर्देश करती है, हमारे दिव्य कर्म और पद का निर्धारण करती है और इस सबके द्वारा वह हमें बहुविधता में भगवान् के विश्वात्मभाव की ओर उठा ले चलती है जबतक कि हम इसके द्वारा उनके साथ तथा इस सृष्टि में वे जो कुछ हैं उस सबके साथ अपना आध्यात्मिक एकत्व उपलब्ध नहीं कर लेते ।

 

जीवन में मनुष्यों के चतुर्वर्ण का बाह्य विचार दिव्य क्रिया के इस सत्य के बाह्यतर व्यापार से ही सम्बन्ध रखता है; वह त्रिगुण के व्यापार में इसकी क्रिया के एक पहलू तक ही सीमित है । यह सच है कि इस जन्म में लोग अधिकतर चार श्रेणियों में से किसी एक के अंतर्गत होते है--ज्ञानी मनुष्य, बलशाली मनुष्य, उत्पादनशील प्राणिक मनुष्य और स्थूल श्रम एवं सेवा में परायण मनुष्य । ये आधारभूत विभाग नहीं बल्कि हमारे मनुष्यत्व में आत्म-विकास की अवस्थाएँ हैं । मनुष्य  अज्ञान और जड़ता का पर्याप्त बोझ लेकर अपनी जीवनयात्ना शुरू करता है; उसकी पहली अवस्था उस स्थूल श्रम की होती है जो शरीर की आवश्यकताओं, प्राण की प्रेरणा एवं विश्वप्रकृति के अलंध्य नियम के द्वारा और, आवश्यकता की एक विशेष सीमा के परे, समाज के द्वारा उसपर थोपी गयी किसी-न-किसी प्रकार की प्रत्यक्ष या परोक्ष बाध्यता के द्वारा उसके पाशविक तमस्  पर लादा जाता है, और जो लोग अभी इस तमस्  के द्वारा शासित होते हैं वे शूद्र होते हैं, समाज के दास होते हैं जो उसे अपना श्रम दान करते हैं तथा उसके जीवन की बहुविध क्रीड़ा में वे अधिक उन्नत मनुष्यों की तुलना में और कुछ भी योगदान नहीं कर सकते अथवा यदि कर भी सकते हैं तो बहुत ही कम । कार्य-प्रवृत्ति के द्वारा मनुष्य अपने अन्दर रजोगुण का विकास करता है और हमें एक दूसरी श्रेणी के मनुष्य की प्राप्ति होती है जो उपयोगी सृजन, उत्पादन, संग्रह, उपार्जन, स्वत्व और उपभोग की सतत प्रेरणा से प्रचालित होता है, वह मध्यवर्गीय आर्थिक और प्राण-प्रधान मनुष्य, वैश्य, होता है । हमारी एक ही सार्वभौम प्रकृति के राजसिक या प्रवृत्तिमय गुण का और ऊँचा उत्कर्ष होने पर एक क्रियाशील मानव हमारे देखने में आता है जिसमें एक प्रबलतर संकल्पशक्ति एवं अधिक साहसपूर्ण महत्त्वाकांक्षाएँ होती हैं, कर्म करने, युद्ध करने, अपने संकल्प को क्रियान्वित करने और, अपने सबलतम रूप में, नेतृत्व करने, आदेश देने, शासन करने,

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जन-समुदायों को अपने पथ पर चलाने की एक सहज प्रवृत्ति होती है, वह योद्धा, नेता, शासक, सरदार, राजा होता है, वह क्षत्निय होता है । और जहाँ सात्त्विक मन प्रबल होता है वहाँ हमें ब्राह्मण की प्राप्ति होती है जिसकी प्रवृत्ति ज्ञान की ओर होती है, वह जीवन मे विचार, चिंतन, सत्य की खोज और एक ज्ञानपूर्ण या अधिक-से-अधिक एक आध्यात्मिक शासन लाता है और उसके द्वारा वह अपनी जीवन-सम्बन्धी धारणा और पद्धति को आलोकित करता है ।

 

मानव-प्रकृति में इन चारों व्यक्तित्वों का कुछ-न-कुछ अंश सदा ही होता है, चाहे वह विकसित हो या अविकसित, व्यापक हो या संकुचित, दबा हुआ हो या ऊपरी सतह की ओर उठ रहा हो, परन्तु अधिकतर मनुष्यों में इनमें से कोई एक या दूसरा प्रबल होने की प्रवृत्ति रखता है और कभी-कभी तो वह प्रकृति में कर्म के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने हाथ में लेता प्रतीत होता है । प्रत्येक समाज में चारों ही श्रेणियाँ होनी चाहिए,--भले ही हम एक ऐसा निरा उत्पादनशील और व्यावसायिक समाज क्यों न बना सकते हों जिसके लिए आधुनिक युग ने प्रयत्न किया है, या उसी प्रयोजन के लिए श्रमिकों का, निम्नतम श्रेणी के लोगों का एक ऐसा शूद्र-समाज क्यों न बना सकते हों जैसा कि अत्यंत अर्वाचीन मन को आकृष्ट करता है और जिसका आज यूरोप के एक भाग में प्रयोग किया जा रहा है तथा अन्य भागों में समर्थन । फिर भी कुछ ऐसे विचारक तो रहेंगे ही जो सम्पूर्ण विषय का विधान, सत्य और मार्गदर्शक नियम ढूंढ़ने के लिए प्रेरित होंगे, उद्योग-व्यवसाय के कुछ ऐसे अध्यक्ष और नायक भी रहेंगे जो इस समस्त उत्पादक कर्म के बहाने साहस, युद्ध, नेतृत्व और प्रभुत्व की अपनी मांग को तृप्त करेंगे, बहुत से विशिष्ट निरे उत्पादनशील और धनोपार्जक मनुष्य तथा कुछ ऐसे औसत मजदूर भी रहेंगे ही जो थोड़े से श्रम और उसके पुरस्कार से संतुष्ट होंगे । परन्तु ये सर्वथा बाह्य चीजें हैं, और यदि यही सब कुछ हो तो, मानवजाति की इस आर्थिक श्रेणी-व्यवस्था का कोई आध्यात्मिक अर्थ नहीं होगा । अथवा, जैसा कि कभी भारतवर्ष में माना जाता था, इसका अर्थ अधिक-से-अधिक यह होगा कि हमें अपने जन्मों में विकास की इन अवस्थाओं में से गुजरना होगा; क्योंकि हमें बाध्य होकर तामसिक, राजस-तामसिक, राजसिक या राजस-सात्त्विक प्रकृति से उत्तरोत्तर सात्त्विक प्रकृति की ओर अग्रसर होना होगा, एक आंतरिक ब्राह्मणत्व, 'ब्राह्मष्य'  की ओर आरोहण करना और उसी में दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित होना होगा और फिर उस आधार से मोक्ष के लिए यत्न करना होगा । परन्तु ऐसी दशा में, गीता के इस कथन के लिए कि शूद्र या चंडाल भी अपने जीवन को परमेश्वर की ओर मोड़कर सीधे आध्यात्मिक स्वातंत्र्य

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और पूर्णत्व की ओर आरोहण कर सकता है, कोई युक्तिसंगत स्थान नहीं रहेगा ।

 

मूलभूत सत्य यह बाह्य वस्तु नहीं है, बल्कि वह हमारी क्रियाशील अंत:- सत्ता की शक्ति है, आध्यात्मिक प्रकृति की चतुर्विध सक्रिय शक्ति का सत्य है । अपनी आध्यात्मिक प्रकृति में प्रत्येक जीव के ये चार पक्ष होते हैं--वह एक ज्ञानमय, बल-शक्तिमय, अन्योन्यभावमय एवं आदान-प्रदानात्मक और कर्ममय एवं सेवात्मक सत्ता होता है, परन्तु कर्म में तथा अभिव्यक्तिकारक सत्ता में कोई एक या दूसरा पक्ष प्रधान होता है और वह देहधारी प्रकृति के साथ जीव के व्यवहारों को अपना पुट दे देता है; वह अन्य शक्तियों का नेतृत्व करता तथा उनपर अपनी छाप लगा देता है और कर्म, प्रवृत्ति और अनुभूति की प्रधान धारा के निमित्त उनका प्रयोग करता है । तब स्वभाव सामाजिक वर्ण-विभाग में प्रतिपादित कर्तव्य-भेद के अनुसार स्थूल और कठोर रूप में नहीं बल्कि सूक्ष्म और सहजनम्य रूप में इस धारा के धर्म का अनुसरण करता है और इसका विकास करते हुए अन्य तीन शक्तियों का भी विकास करता है । इस प्रकार यदि कर्म और सेवा की प्रेरणा का ठीक ढंग से अनुसरण किया जाय तो उससे ज्ञान का विकास होता है, शक्ति की वृद्धि होती है, अन्योन्यभाव की घनिष्ठता था समतोलता का और म सम्बन्ध की कुशलता एवं सुश्रुंखला का अभ्यास बढ़ता है । चतुर्विध देवत्व के प्रत्येक पक्ष का अपना प्रधान स्वाभाविक तत्त्व अन्य तीनों के द्वारा प्रसारित और समृद्ध होता है और इस प्रकार वह पक्ष अपनी समग्र पूर्णता की ओर प्रगति करता है । यह प्रगति त्निगुण के नियम के अनुसार होती है । ज्ञानमय सत्ता के धर्म का अनुसरण करने का एक तामसिक और राजसिक ढंग भी हो सकता है, शक्ति के धर्म का अनुसरण करने का एक क्रूर तामसिक तथा उच्च सात्त्विक ढंग भी संभव है, कर्म और सेवा के धर्म के पालन का एक शक्तिपूर्ण राजसिक या सुन्दर एवं उदात्त सात्त्विक ढंग भी हो सकता है । आभ्यंतरिक व्यक्तिगत स्वधर्म के तथा जीवन-पथ पर वह हमें जिन कर्मों की ओर ले जाता है उनके सात्त्विक रूप तक पहुँचना पूर्णता प्राप्त करने की पहली शर्त है । और यह ध्यान देते की बात है कि आंतरिक स्वधर्म कर्म, पेशे या कर्तव्य के किसी बाह्य सामाजिक या अन्य रूप से नहीं बंधा होता । उदाहरणार्थ, हमारी कर्ममय सत्ता जो सेवा करने से ही तृप्त होती है या हमारे अन्दर का यह कर्ममय तत्व ज्ञानान्वेषण के जीवन, संघर्ष-प्रधान और शक्तिमय जीवन या पारस्परिक सम्बन्ध, उत्पादन और आदान-प्रदान के जीवन को अपनी श्रम और सेवा की दैवी प्रेरणा की तृप्ति का साधन बना सकता है ।

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और अन्त में, इस चतुर्विध कर्म का दिव्यतम रूप और इसकी अत्यंत क्रिया-शील आत्म-शक्ति प्राप्त करना सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धि की तीव्रतम और विशालतम वास्तविकता का सुविस्तृत द्वार है । ऐसा हम तभी कर सकते हैं यदि हम स्वधर्म की क्रिया को अन्तर्वासी देवता विश्वगत परमात्मा और परात्पर पुरषोत्तम की पूजा में परिणत कर दें और, अन्त में, सम्पूर्ण कर्म ही उनके हाथों में सौंप दें, 'मयि संन्यस्य कर्माणि' । तब जिस प्रकार हम तीन गुणों के सीमा-बंधन से परे चले जाते हैं उसी प्रकार हम चातुर्वर्ण्य-विभाग से तथा सभी विशिष्ट धर्मों की सीमा से भी परे चले जाते हैं 'सर्वषर्मान् परित्यज्य' । विश्व-पुरुष व्यक्ति को विश्वगत स्वभाव में उठा ले जाता है, हमारे अन्दर की चतुर्विध प्राकृत सत्ता को पूर्ण बनाता और एक करता है और जीव के अन्दर विराजमान परमेश्वर के दिव्य संकल्प तथा उपलब्ध शक्ति के अनुसार अपने आत्म-निर्धारित कर्मों को संपन्न करता है ।

 

गीता का उपदेश यह है कि हमें अपने कर्म से, 'स्वकर्मणा,' भगवान् को पूजा करनी चाहिए; हमें अपनी सत्ता और प्रकृति के स्वधर्म के द्वारा निर्धारित कर्मों को भगवान् की भेंट चढ़ाना चाहिए । क्योंकि, सृष्टि की समस्त गति तथा कर्म की समस्त प्रवृत्ति भगवान् से ही उत्पन्न होती है और उन्हींने यह संपूर्ण जगत् विस्तारित किया है और लोकसंग्रह के लिए, लोकों को संगठित रखने के लिए, वे स्वभाव के द्वारा समस्त कर्म का परिचालन और गठन करते हैं । अपने आन्तर और बाह्य कर्मों से उनकी पूजा करने, अपने संपूर्ण जीवन को परमोच्च देव के प्रति एक कर्म-यज्ञ बना देने का अर्थ है अपने समस्त संकल्प, सत्ता और प्रकृति में उनके साथ एक होने के लिए अपने-आपको तैयार करना । हमारा कर्म हमारे अंतर-स्थित सत्य के अनुसार होना चाहिए; उसे अपनेको बाह्य एवं कृत्रिम मानदंडों के अनुकूल नहीं बनाना चाहिए: उसे अंतरात्मा तथा उसकी सहजात शक्तियों की एक जीवंत और सच्ची अभिव्यक्ति होना होगा । क्योंकि, अपनी वर्तमान प्रकृति में इस अंतरात्मा के जीवन्त अंतरतम सत्य का अनुसरण करने से, अंततः, अद्यावधि-अतिचेतन परम प्रकृति के अन्दर अंतरात्मा के अमर सत्य पर पहुँचने में हमें सहायता प्राप्त होगी । वहाँ हम परमेश्वर, अपनी सच्ची आत्मा और सर्वभूतों के साथ एकत्व में निवास कर सकते हैं और सिद्धि लाभ कर अमर धर्म के स्वातंत्र्य  में दिव्य कर्म के निर्दोष यंत्न बन सकते हैं ।

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