Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
त्रैगुणातीत्य१
गीता के तेरहवें अध्याय के श्लोकों में कुछ एक निश्चयात्मक विशेषणों के द्वारा सरसरी तौर पर पुरुष और प्रकृति के बीच जो भेद किये गये हैं, इनकी पृथक्-पृथक् शक्ति और व्यापार के जो कुछ एक संक्षिप्त पर अर्थगर्भित लक्षण दिये गये हैं वे, और विशेषकर यह भेद कि देहधारी जीवात्मा प्रकृति के गुणों या अवस्थाओं का उपभोग करने के कारण उसके कर्म के अधीन रहता है और परमात्मा गुणों का उपभोग करता हुआ भी उनके वश में नहीं होता, क्योंकि अपने-आप वह उनसे परे है--ये सब ही वे आधार हैं जिनपर गीता का साधर्म्य का यह सारा विचार प्रतिष्ठित है कि मुक्त जीव अपनी सत्ता के सचेतन धर्म में परमात्मा के साथ एकीभूत हो जाता है । उस मुक्ति एवं एकत्व को, उस दिव्य प्रकृति-लाभ किंवा साधर्म्य को वह आध्यात्मिक स्वातंत्र का वास्तविक सार तथा अमरत्व का संपूर्ण मर्म बताती है । 'साधर्म्य' को यह जो सर्वोपरि महत्त्व दिया गया है यही गीता की शिक्षा की प्रधान बात है ।
प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षा में यह कभी नहीं माना गया कि अमरता केवल शरीर की मृत्यु के बाद व्यक्ति को सत्ता का बचे रहना ही है : इस अर्थ में तो सभी जीव अमर हैं और केवल उनके रूप ही नष्ट होते हैं । जो जीव मोक्ष नहीं प्राप्त कर पाते वे पुनरावर्ती यग-युगांतरों में जीवन-यापन करते हैं; सब भूत व्यक्त लोकों के प्रलय के समय ब्रह्म के अंदर निवर्तित या निगूढ़ रूप में अवस्थित रहते हैं और नए युगचक्र के आविर्भाव के समय पुन: उत्पन्न होते हैं । प्रलय, अर्थात् एक युगचक्र का अंत, सत्ता के वैश्व रूप का तथा उस चक्र के आवर्तों में घूमनेवाले सभी व्यष्टि-रूपों का अस्थायी विघटन होता है, परन्तु वह केवल एक अल्पकालीन विराम, एक शांत अंतराल होता है जिसके बाद नव-सर्जन पुनर्घटन तथा पुनर्निर्माण का प्रवाह उमड़ पड़ता है जिसमें वे रूप पुनः प्रकट होते तथा अपनी प्रगति के लिए पुन: वेग प्राप्त करते हैं । हमारी दैहिक मृत्यु भी एक प्रकार का प्रलय है,--गीता अभी हाल में ही इस शब्द का प्रयोग इस मृत्यु के
___________
१. गीता. अध्याय १४
४३९
अर्थ में करेगी, 'प्रलयं याति देहभूत', ''देह धारण करनेवाला जीव प्रलय को प्राप्त होता है" , अर्थात् वह जड़ प्रकृति के उस रूप के विघटन को प्राप्त होता है जिसके साथ उसने अपने अज्ञान के कारण अपनी सत्ता को तदाकार कर रखा था और जो अब पाँच भौतिक तत्त्वों में विलीन हो जाता है । परन्तु स्वयं जीव स्थिर बना रहता है और कुछ अंतराल के बाद उन तत्वों से बने एक नए शरीर में सृष्टि-चक्र के अंदर उसी प्रकार फिर से जन्मों का आवर्त आरंभ करता है जिस प्रकार विराम और विश्राम के काल के पश्चात् विश्व-पुरुष युग-चक्रों का अपना अनंत आवर्त फिर से आरंभ करते हैं । काल के चक्रों के भीतर इस प्रकार की अमरता सब देहधारी आत्माओं का एक सर्वसामान्य धर्म है ।
अधिक गंभीर अर्थ में अमर होना मृत्यु के बाद के इस अस्तित्व तथा इस अनवरत पुनरावर्तन से भिन्न कोई और ही वस्तु है । अमरता वह परा-स्थिति है जिसमें आत्मा को यह ज्ञान होता है कि वह जन्म और मृत्यु से परे है, अपनी अभिव्यक्ति की प्रकृति से परिसीमित नहीं है, अनंत एवं अविनाशी है, निर्विकार रूप से सनातन है,-अमर है, क्योंकि जन्म न लेने के कारण वह कभी मरती भी नहीं । पुरुषोत्तम भगवान्, जो परमेश्वर और परब्रह्म हैं, इस अमर सनातनता से नित्य युक्त हैं और कोई देह ग्रहण करने या वैश्व रूपों एवं शक्तियों को सतत धारण करने से प्रभावित नहीं होते, क्योंकि वे सदा इस आत्म-ज्ञान में प्रतिष्ठित रहते हैं । उनकी निज प्रकृति ही है अपनी सनातनता से नित्य सचेतन रहना; उनकी जो आत्म-संवित् है उसका कोई आदि नहीं, अंत नहीं । वे यहाँ घट- धटवासी हैं, पर प्रत्येक घट में वे अजन्मा के रूप में ही विद्यमान हैं, इस प्राकटय के द्वारा वे अपनी चेतना में परिच्छिन्न नहीं होते, जिस भौतिक प्रकृति को वे धारण करते हैं उससे तद्रूप नहीं हो जाते; क्योंकि वह तो उनकी सत्ता के लीलामय जगद्-व्यापार की एक गौण घटना मात्न है । पुरुषोत्तम की इस नित्य-सचेतन सनातन सत्ता में निवास करना ही मुक्ति एवं अमरता है ।१ परन्तु यहाँ इस
______________
१. ध्यान में रहे कि गीता में कहीं भी इस बात का कोई संकेत नहीं है कि व्यष्टिभूत आध्यात्मिक सत्ता का अव्यक्त, अनिर्देश्य, या परब्रह्य में, 'अव्यक्तम् अनिर्देश्यम्' में लय होना ही अमरता का सच्चा अर्थ या उसकी सच्ची स्थिति है या योग का वास्तविक लक्ष्य है । बल्कि आये चलकर वह कहती है कि अमरता ईश्वर के अंदर उनके परम धाम में निवास करना है, 'मयि निवसिष्यसि, परं धाम' , और यहां वह कहती है कि अमरता साधर्म्य या परा सिद्धि है, 'साधर्म्यमू, परा सिद्धिम्' , अर्थात् अमरता का अभिप्राय है अपनी सत्ता और प्रकृति क धर्म में पुरुषोत्तम के समान धर्मवाला होना, किंतु फिर भी अस्तित्व में बने रहना तथा बिश्व-प्रबाह से सचेतन होते हुए भी उससे ऊपर उठे रहना, जैसे सब मुनि अभी भी रहते हैं, 'मुनय: सर्वे'. वे सृष्टिकाल में जन्म के अधीन नहीं होते, युगचक्रों के प्रलय के काल में व्यथित नहीं होते ।
४४०
महत्तर आध्यात्मिक अमरत्व तक पहुँचने के लिए देहधारी जीव को अपरा प्रकृति के नियम के अनुसार निवास करना छोड़ देना होगा; उसे भगवान् की परम जीवन-धारा का विधान अपनाना होगा, जो वस्तुत: उसकी अपनी सनातन सारभूत सत्ता का वास्तविक विधान है । अपनी गुप्त मूल सत्ता के समान ही अपने भूतभाव के आध्यात्मिक विकास में भी उसे भगवान् के समान धर्मवाला बनना होगा ।
और यह महान् कार्य, मानव-प्रकृति से दैवी प्रकृति में यह आरोहण हम ईश्वरोन्मुख ज्ञान, संकल्प और उपासनारूपी पुरुषार्थ के द्वारा ही संपन्न कर सकते हैं । कारण, परम देव के द्वारा अपने सनातन अंश के रूप में भेजा हुआ जीव विश्व-प्रकृति के व्यापारों में उनका अमर प्रतिनिधि होता हुआ भी उन व्यापारों के स्वरूप के कारण अपनी बाह्य चेतना में अपने-आपको प्रकृति की सीमाकारी अवस्थाओं के साथ तथा उन मन, प्राण और शरीर के साथ तदाकार करने के लिए विवश हो जाता है 'अवशं प्रकृतेर्वशात्' जो अपने आंतर आध्यात्मिक सत्स्वरूप और अपने अंतर्निहित परमेश्वर को भूले हुए हैं । अपने सत्स्वरूप का ज्ञान तथा जीव और प्रकृति के प्रतीयमान संबंधों से इतर उनके वास्तविक संबंधों का ज्ञान फिर से प्राप्त करना, ईश्वर को, अपने-आप तथा जगत् को अब और भौतिक या बहिर्मुख अनुभव के द्वारा नहीं वरन् आध्यात्मिक अनुभव के द्वारा जानना, इंद्रिय-मानस तथा बहिर्मुखी बुद्धि के भ्रामक एवं प्रातिभासिक बोधों के द्वारा नहीं, वरन् आभ्यंतरिक आत्म-चैतन्य के गभीरतम सत्य के द्वारा जानना इस सिद्धि का अनिवार्य साधन है । आत्म-ज्ञान एवं ईश्वर-ज्ञान के बिना तथा अपनी प्राकृतिक सत्ता के संबंध में आध्यात्मिक भाव धारण किये बिना सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती, और इसी कारण प्राचीन मनीषियों ने ज्ञान के द्वारा मुक्ति के प्राप्त होने पर इतना अधिक बल दिया था,--ज्ञान का मतलब यहाँ वस्तुओं का बौद्धिक बोध नहीं, वरन् मनोमय प्राणी, मनुष्य का महत्तर अध्यात्म-चेतना में विकसित होना है । आत्म-सिद्धि के बिना, अर्थात् आत्मा के दिव्य प्रकृति में विकसित हुए बिना उसको मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती; न्यायकारी ईश्वर अपने मन की मौज या अपनी कृपा की किसी मनमानी सनक के द्वारा इसे हमारे लिए साधित नहीं कर देंगे । दिव्य कर्म मुक्ति की प्राप्ति कराने में सक्षम हैं क्योंकि वे हमें हमारी अपनी सत्ता के अंतरस्थ प्रभु के साथ बढ़ते हुए एकत्व के द्वारा इस सिद्धि की ओर तथा आत्मा, प्रकृति और ईश्वर के ज्ञान की ओर ले जाते हैं । दिव्य प्रेम भी सक्षम है, क्योंकि उसके द्वारा हम अपनी भक्ति के एकमात्र परम भाजन के साथ उत्तरोत्तर साधर्म्य लाभ करते हैं और उन 'परम' के प्रत्युत्तरशील
४४१
प्रेम का आवाहन करते हैं ताकि वह प्रेम हमें उनके ज्ञान की ज्योति से तथा उनकी सनातन आत्मा की उन्नायक शक्ति एवं पवित्रता से परिप्लावित कर दे । अतएव, गीता कहती है कि यह परम तथा सर्वोत्तम ज्ञान है, क्योंकि यह परा-सिद्धि तथा अध्यात्म-स्थिति की ओर ले जाता है, 'परां सिद्धिम्', और जीव को भगवान् के साथ सादृश्य, 'साधर्म्य', प्राप्त कराता है । यह वह नित्य ज्ञान है, महान् आध्यात्मिक अनुभव है जिसके द्वारा सब मुनियों ने वह परमोच्च पूर्णता प्राप्त की तथा सत्ता के विधान में पुरुषोत्तम के साथ सारूप्य लाभ किया और जिसके द्वारा वे सदा के लिए उनकी नित्यता में निवास करते हैं, सृष्टि में जन्म नहीं लेते, विश्व-प्रलय की व्यथा से उद्विग्न नहीं होते । इस प्रकार यह सिद्धि, यह 'साधर्म्य' अमृतत्व का मार्ग है तथा एक अनिवार्य अवस्था है जिसके बिना जीव सचेतन रूप से सनातन में निवास नहीं कर सकता ।
यदि मनुष्य की अंतरात्मा अपने गुप्त सारतत्त्व में भगवान् के साथ अविनाशी रूप से एक न होती तथा उनकी दिव्यता का ही अंश न होती तो वह उनके साथ साधर्म्य लाभ न कर सकती : यदि वह केवल मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक प्रकृति का जीव ही होती तो वह न तो अमर होती और न कभी हो ही सकती । भूतमात्र भगवत्सत्ता की ही अभिव्यक्ति है और हमारे अंदर जो सत्ता है वह सनातन आत्मा की ही अंश-आत्मा है । इसमें संदेह नहीं कि हम निम्नतर जड़ प्रकृति मे आये हुए हैं और उसके प्रभाव के अधीन हैं, पर यहाँ हम आये हैं उस परम आध्यात्मिक प्रकृति से ही : यह अधस्तन अपूर्ण स्थिति हमारी प्रतीयमान सत्ता है, पर वह है हमारी पारमार्थिक सत्ता । वे सनातन इस समस्त जगद्वयापार को अपनी ही आत्म-सृष्टि के रूप में प्रकट करते हैं । वे एक साथ इस विश्व के पिता और माता हैं; अनंत विज्ञान-तत्व, महत् ब्रह्म ही वह योनि है जिसमें वे अपने आत्म-सृजन का बीज डालते हैं । अधि-आत्मा ( Over-Soul ) के रूप में वे बीज डालते हैं, जगज्जननी, प्रकृति-आत्मा ( Nature--Soul ), अपनी ही चेतना-ज्योतिः-परिपूर्ण चित्-शक्ति के रूप में वे अपने असीम पर आत्म-परिसीमक विज्ञान से ओत-प्रोत अपनी इस अनंत उपादान-सत्ता के अंदर उस बीज को ग्रहण करते हैं । इस आत्म-सर्जनकारी 'महत्' के गर्भ में वे उस दिव्य बीज को ग्रहण करते हैं और फिर वहाँ आदि भावमय सृजन-क्रिया से उत्पन्न हुए सत्ता के मानसिक या भौतिक आकार के रूप में उसे विकसित करते हैं । जो कुछ भी हम यहाँ देखते हैं वह सब उस सर्जन-क्रिया से ही उद्भूत होता है; पर जो कुछ यहां उत्पन्न होता है वह उन अजन्मा तथा अनंत का केवल एक सांत भाव और रूप है । परम आत्मा अनाद्यनंत है और अपनी समस्त अभिव्यक्ति से ऊपर है : प्रकृति,
४४२
आत्मा के अंदर अनाद्यनंत होती हुई, अंतहीन सृजन और समाप्तिरहित प्रलय के द्वारा युग-युगांतर के लयताल के साथ-साथ नित्य ही आगे बढ़ती रहती है; प्रकृति के अंदर इस या उस रूप को धारण करनेवाला जीव भी प्रकृति के समान ही अनादि है, 'अनादी उभावपि' । प्रकृति के बीच रहता हुआ भी वह कल्प-कल्पांतर के अंतहीन चक्र का अनुसरण करता है, जिन सनातन से वह इन युगचक्रों के अंदर प्रादुर्भूत होता है उनके अंदर वह जन्म-मरण की अवस्थाओं से सदा के लिए ऊपर उठा हुआ है, और यहाँ अपनी बाह्य चेतना में भी वह उस स्वभावसिद्ध तथा शाश्वत परात्परता से सज्ञान हो सकता है ।
तो फिर वह कौन-सी चीज है जो भेद उत्पन्न करती है, वह कौन-सी चीज है जो जीव को जन्म, मृत्यु और बंधन की प्रतीति कराती है,--क्योंकि यह तो स्पष्ट है कि यह एक प्रतीति मात्र है । यह चेतना की एक गौण क्रिया या अवस्था है, यह इस प्रकार की निम्नतर प्रेरणा की सीमाबद्ध क्रियाओं में प्रकृति के गुणों के साथ तथा मन-प्राण-शरीर की इस आत्म-परायण अहंबद्ध कर्मग्रंथि के साथ हमारी आत्म-विस्मृतिपूर्ण तदात्मता है । यदि हमें निम्नतर क्रिया की विमोहक शक्ति से परे हटकर अपनी पूर्ण-सचेतन सत्ता में पुन: प्रवेश करना है और आत्मा की मुक्त प्रकृति तथा उसकी नित्य अमरता को धारण करना है तो प्रकृति के गुणों से ऊपर उठना 'त्रैगुण्यातीत' होना परमावश्यक है । यही वह साधर्म्य की अवस्था है जिसकी व्याख्या करने की ओर गीता अब अग्रसर होती है । इसकी ओर संकेत तो वह पिछले अध्याय में भी कर चुकी है और कुछ बल के साथ इसका प्रतिपादन भी कर आयी है; किन्तु अब उसे अधिक सुनिश्चित शब्दों में यह बतलाना है कि ये गुण क्या हैं, जीव को ये किस प्रकार बाँधते तथा आध्यात्मिक स्वातंत्र्य से दूर रखते हैं और प्रकृति के गुणों से ऊपर उठने का क्या अभिप्राय है ?
प्रकृति के सभी गुण अपने सार-रूप में गुणात्मक ( Qualitative) हैं और इसी कारण वे उसके गुण कहलाते हैं । जगद्-विषयक किसी भी आध्यात्मिक परिकल्पना में ऐसा होना आवश्यक ही है; काया, आत्मा और जड़तत्त्व को जोड़नेवाला माध्यम चैत्य या आत्म-शक्ति को ही होना चाहिए तथा प्रारंभिक क्रिया मानस-चित्तात्मक ( Psychological) एवं गुणात्मक होनी चाहिए, न कि भौतिक और परिमाणात्मक; क्योंकि गुण विश्व-शक्ति के समस्त व्यापार में अभौतिक एवं अधिक आध्यात्मिक तत्त्व हैं उसकी आद्य गतिशक्ति हैं । भौतिक विज्ञान की प्रधानता ने हमें प्रकृतिसंबंधी एक और ही दृष्टिकोण का अभ्यस्त बना दिया है, क्योंकि वहाँ जो सबसे पहली चीज हमें प्रभावित करती है वह है-- उसकी क्रियाओं के परिमाणात्मक रूप का महत्व तथा आकारों के निर्माण के
४४३
लिए परिमाणात्मक संयोगों एवं विन्यासों पर उसकी निर्भरता । परन्तु वहाँ भी इस खोजने कि 'वास्तव में जड़-तत्त्व ऊर्जा की ही एक सत्ता या क्रिया है न कि ऊर्जा स्वत:स्थित जड़-तत्त्व का कोई प्रेरक-बल अथवा जड़-तत्त्व के अंदर से क्रिया करनेवाली कोई अंतर्निहित शक्ति है' विश्व-प्रकृति-संबंधी प्राचीनतर विचार को किसी-न-किसी रूप में पुनरुज्जीवित कर दिया है । प्राचीन भारतीय मनीषियों के विश्लेषण में प्रकृति की परिमाणात्मक क्रिया, 'मात्रा' के लिए स्थान अवश्य था; पर उसमें यह माना जाता था कि यह प्रकृति की स्थूल-नियमा-नुसार कार्य-निष्पादन करनेवाली एक बाह्यतर क्रिया का विशेष धर्म है जब कि आभ्यंतरिक भाव-रूप (ideative) कार्य-निष्पादन-शक्ति, जो वस्तुओं की व्यवस्था उनकी सत्ता एवं शक्ति के धर्म, अर्थात् 'गुण' एवं 'स्वभाव' के अनुसार करती है, प्रथम निर्धारक शक्ति है और समस्त बाह्य परिमाणात्मक व्यवस्थाओं का आधार है । पर स्थूल जगत् के मूल में यह बात दृष्टिगोचर नहीं होती । इसका कारण केवल यही है कि यहाँ आधारभूत भाव-रूप आत्म-सत्ता, 'महत् ब्रह्म,' जड़तत्त्व तथा जड़प्राकृतिक शक्ति की गति के द्वारा आवृत्त एवं आच्छादित है । यदि कोई ऐसी श्रेष्ठतर शक्ति न हो जो वैविध्यकारक गुण से युक्त हो तथा जिसके ये भौतिक विन्यास केवल सुविधाजनक यांत्रिक साधन ही हों, तो इस स्थूल जगत् में भी जो तत्व वैसे एक-दूसरेके समान हैं उनके विभिन्न संयोगों तथा मात्रा-परिमाणों के नानाविध अद्भुत परिणामों की कोई भी व्याख्या करना संभव नहीं । अथवा, क्या हम एकदम ही यूं न कहें कि विश्व-ऊर्जा की एक निगूढ़ भाव-रूप क्षमता है, अर्थात् 'विज्ञान' है,--भले ही हम स्वयं उस ऊर्जा तथा उसके भावरूप करण, 'बुद्धि' को उनकी अपनी प्रकृति में यांत्रिक मानें,--जो इन बाह्य विन्यासों को गाणितिक परिमाणों को स्थिर करती तथा कार्यफलों को निश्चित करती है : आत्मा के अंदर विद्यमान यह सर्वसमर्थ विज्ञान ही इन साधनों का उद्भावन और उपयोग करता है । प्राणिक और मानसिक सत्ता में तो गुण तुरन्त और स्पष्टत: ही एक प्रधान शक्ति के रूप में दिखायी देता है, वहाँ ऊर्जा को मात्रा केवल एक गौण तथ्य है । परन्तु वास्तव में मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक सत्ताएँ-तीनों ही गुण की सीमाओं के अधीन हैं, तीनों ही उसके निर्धारणों के द्वारा नियंत्रित होती हैं, यद्यपि जैसे-जैसे हम सत्ता की शृंखला में नीचे उतरते हैं वैसे-वैसे यह सत्य उत्तरोत्तर धूमिल होता दिखता है । केवल आत्म-सत्ता ही, जो अपनी भावरूप सत्ता एवं भावरूप शक्ति, अर्थात् 'महत्' और 'विज्ञान' के सामर्थ्य के द्वारा इन अवस्थाओं को स्थिर करती है, इस प्रकार से निर्धारित नहीं होती, गुण वा मात्रा की किन्हीं भी सीमाओं के वशीभूत नहीं होती, क्योंकि
४४४
उसकी अपरिमेय एवं अनिर्धार्य असीमता इन गुणों से श्रेष्ठतर है जिन्हें वह अपनी सृष्टि के लिए विकसित और प्रयुक्त करती है ।
परन्तु उधर, प्रकृति का संपूर्ण गुणात्मक व्यापार, जो अपनी सूक्ष्मता तथा विविधता में अनंतत: जटिल है, गुण की इन तीन सर्वसाधारण अवस्थाओं, सत्त्व, रज, तम के साँचे में ढला हुआ रूप दृष्टिगोचर होता है, ये तीन गुण सर्वत्र उप-स्थित हैं, परस्पर-ओतप्रोत तथा प्राय: अविच्छेद्य ही हैं । इनका वर्णन गीता में मनुष्य की चेतना पर होनेवाली इनकी क्रिया के ही द्वारा किया गया है अथवा, प्रसंगवश, आहार आदि चीजों में होनेवाली इनकी मनोवैज्ञानिक क्रिया का भी इस आधार पर प्रतिपादन किया गया है कि ये मनुष्यों के मन या प्राण पर क्या प्रभाव डालते हैं । यदि हम इनकी अधिक व्यापक परिभाषा का अनुसंधान करें, तो संभवत:हमें भारतीय धर्म के उस प्रतीकात्मक विचार में इसकी एक झाँकी मिलेगी जो कहता है कि इनमें से एक-एक गुण यथाक्रम विश्व की देवतात्नयी के एक-एक देव का गुण है, सत्त्व स्थितिकर्ता विष्णु का, रज सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का, तमस् संहारकर्ता रुद्र का । इस त्रिविध गुणारोप की युक्तियुक्त व्याख्या के लिए इस विचार .के मूल पर दृष्टिपात करते हुए हम विश्व-ऊर्जा की गति की परिभाषा में इन तीन गुणों या अवस्थाओं का लक्षण इस रूप में कर सकते हैं कि ये प्रकृति की संतुलन, प्रवृत्ति और जड़ता की तीन सहचारी और अविच्छेद्य शक्तियाँ हैं । किन्तु यह तो ऊर्जा के बाह्य व्यापार की परिभाषा में इनका प्रतीयमान रूपमात्र हुआ । पर यदि हम चेतना और शक्ति को 'एक सत्' के ऐसे युग्म रूप मानें जो सत्ता के सत्तत्व में सदैव एक साथ रहते हैं तो बात बिलकुल और ही दिखायी देगी, भले ही जड़-प्रकृति के प्रारंभिक बाह्य प्रपंच में चेतना का प्रकाश निर्ज्ञान एवं अनुज्ज्वल ऊर्जा के विराट् व्यापार में तिरोहित होता प्रतीत हो और, उधर, आध्यात्मिक निश्चलता के विपरीत छोर पर शक्ति का व्यापार निरीक्षण करनेवाली या साक्षिभूत चेतना की निस्तब्धता में विलीन होता दीख पड़े । ये दो अवस्थाएँ आपातत:-पृथग्भूत पुरुष और प्रकृति के दो छोर हैं, किन्तु इनमें से प्रत्येक अपने चरम बिंदु पर अपने सनातन सहचर को विनष्ट नहीं करता, बल्कि अधिक-से-अधिक, उसे अपनी सत्ता की विशिष्ट धारा की गहराइयों में छिपा भर देता है । सुतरां, क्योकि निश्चेतन दीखनेवाली शक्ति में भी चेतना सदा उपस्थित रहती है, हमें इन तीन गुणों की उस अनुरूप चेतनागत ऊर्जा का पता लगाना होगा जो इनके अधिक बाह्य कार्य-व्यापार को अनुप्राणित करती है । अपने चेतनागत रूप की दृष्टि से इन तीन गुणों की परिभाषा यूं की जा सकती है कि तमस् प्रकृति की निर्ज्ञान की शक्ति है, रजस् उसकी कामना और प्रेरणा से
४४५
आलोकित क्रियाशील अन्वेषी अज्ञान की शक्ति है, सत्त्व उसके अधिकृत और समन्वित करनेवाले ज्ञान की शक्ति है ।
प्रकृति की गुणात्मक तीन अवस्थाएँ समस्त जागतिक सत्ता में एक-दूसरी-के साथ अविच्छेद्य रूप से गूँथी हुई है । तमस्, जड़ता का तत्त्व, निष्क्रय और जड़ निर्ज्ञान है जो सभी आघातों और संपर्कों को सहन करता जाता है और उनके प्रति बिजयशील प्रतिक्रिया करने के लिए कोई यत्न नहीं करता । वह अकेला अपने-आप शक्ति के संपूर्ण व्यापार के विघटन की ओर तथा उपादान के आमूल विलय की ओर ही ले जायगा । परन्तु वह रजस् की प्रवृत्तिमय शक्ति के द्वारा परिचालित होता है और यहाँतक कि जड़प्रकृति के निर्ज्ञान में भी सामंजस्य, संतुलन एवं ज्ञान के अनुपलब्ध पर सहजात रक्षाकारी तत्त्व का संपर्क एवं आलिंगन प्राप्त करता है । जड़प्राकृतिक शक्ति अपनी मूल क्रिया में तामसिक, जड़, निर्ज्ञान एवं यांत्रिक प्रतीत होती है और अपनी गति में विघटनकारी । परन्तु यह मूक राजसिक प्रवृत्ति की उस विराट् शक्ति और प्रवर्तना के द्वारा नियंत्रित होती है जो इसे इसकी विलय एवं विघटन की क्रिया में भी तथा उस क्रिया के द्वारा भी निर्माण और सृजन करने के लिए प्रचालित करती है; साथ ही यह अपनी निश्चेतन प्रतीत होनेवाली शक्ति में उस सात्त्विक बुद्धि-तत्त्व के द्वारा भी नियंत्रित होती है जो इन दो विरोधी प्रवृत्तियों पर सदा ही सामंजस्य एवं रक्षाकारी व्यवस्था आरोपित करता रहता है । रजस्, जो प्रकृति में सर्जनोन्मुख प्रयत्न, गति और प्रेरणा का तत्त्व प्रवृति है-जड़-प्रकृति में यह इस रूप में ही दिखायी देता है-प्राण के प्रधान स्वभाव में स्पष्टतर रूप से प्रयास, कामना और कर्म का सचेतन या अर्द्ध-सचेतन आवेग प्रतीत होता है,-क्योंकि ऐसा आवेग समस्त प्राणिक सत्ता का स्वभाव है । अकेला अपनी निज प्रकृति में रहता हुआ यह एक ऐसे दृढ़मूल पर सदा-परिवर्तनशील एवं अस्थिर जीवन, कर्म और सर्जन की ओर ले जायगा जिसका कोई निश्चित परिणाम नहीं होगा । परंतु इसका अज्ञ कर्म एक ओर तो मृत्यु, ह्रास और जड़ता से युक्त तमोगुण की विघ-टन-शक्ति के सम्मुख उपस्थित होता है और अपने व्यापार के दूसरी ओर यह उस सत्त्व-गुण के द्वारा व्यवस्थित, सुसमन्वित और धारित रहता है जो जीवन के निम्नतर रूपों में तो अवचेतन है, पर मन का उदय होने पर उत्तरोत्तर चेतन होता जाता है और पूर्ण-विकसित मनुष्य, मनोमय प्राणी के भीतर संकल्प और तर्कणा का रूप धारण करनेवाली समुन्नत बुद्धि के प्रयास में अत्यंत सचेतन होता है । सत्त्व, बोधात्मक ज्ञान तथा सामंजस्यकारी सात्म्य, मर्यादा और संतुलन का तत्त्व, जो अकेले अपने-आपमें स्थिर और ज्योतिर्मय समस्वरताओ के किसी स्थायी
४४६
सामंजस्य को ओर ही ले जायगा, इस विश्व की गतियों में शाश्वत कर्म-प्रवृत्ति के चंचल द्वन्द्व और क्रिया का अनुसरण करने के लिए प्रेरित होता है तथा जड़ता और निर्ज्ञान की शक्तियों के द्वारा निरंतर अभिभूत या प्रतिहत होता रहता है । प्रकृति के त्रिगुण की मिश्रित तथा परस्पर-व्याहत क्रीड़ा के द्वारा शासित होनेवाले जगत् का प्रतीयमान रूप यही है ।
विश्व-ऊर्जा के इस सामान्य विश्लेषण को गीता मनुष्य की मनोवैज्ञानिक प्रकृति पर लागू करती है यह दर्शाने के लिए कि मानव की प्रकृति-बद्धता तथा अध्यात्म-स्वातंत्र की उपलब्धि का इससे क्या संबंध है । वह हमें बताती है कि सत्त्वगुण अपनी पवित्रता के कारण प्रकाश और ज्ञान का मूल है और उस पवित्रता के बल पर वह प्रकृति के अंदर कोई व्याधि या विकार या दुःख-कष्ट नहीं पैदा होने देता । जब शरीर में सब द्वारों के भीतर ज्योति की, बोध, अनु-भूति और ज्ञान के प्रकाश की बाढ़ आ जाय, मानों एक बंद घर के दरवाजे और खिड़कियाँ धूप की ओर खुल गयी हों,--जब बुद्धि सजग और प्रबुद्ध हो जाय, इंद्रियां तीव्र हो उठें, संपूर्ण मन तृप्त और प्रकाशपूर्ण हो जाय, प्राण-सत्ता शांत और स्थिर होकर प्रकाशयुक्त निर्वृति और प्रसाद से परिपूरित हो उठे, तब मनुष्य को समझना चाहिए कि उसकी प्रकृति के अंदर सत्त्वगुण का उदय और अत्यधिक विकास हो गया है । क्योंकि ज्ञान, सामंजस्य, पूर्ण निवृत्ति, सुख और प्रसाद सत्व के विशिष्ट परिणाम हैं । सात्त्विक सुख केवल उस संतोष का ही नाम नहीं है जो परितृप्त संकल्प और बुद्धि के आभ्यंतरिक प्रसाद के द्वारा प्राप्त होता है, बल्कि आत्मा को आत्म-ज्योति के भीतर अपनी उपलब्धि के द्वारा जो आनंद एवं परितृप्ति प्राप्त होती है, अथवा पारिपार्श्विक प्रकृति तथा उसके द्वारा प्रदत्त भोग्य और संवेद्य विषयों के साथ द्रष्टा आत्मा के सामंजस्य या उपयुक्त एवं सत्य सुसंगति के द्वारा जो आनंद एवं परितृप्ति उत्पन्न होती है, वह सब ही सात्त्विक सुख है ।
और फिर, गीता हमें बताती है कि रजस् का सारतत्व है रुचि और लालसा के द्वारा उत्पन्न आकर्षण । रजस् भोग्य पदार्थों के प्रति जीव की आसक्ति की संतान है; हमारी प्रकृति के अंदर अप्राप्त सुख की जो तृष्णा है उसीसे इसकी उत्पत्ति होती है । इसलिए यह चांचल्य एवं ताप से और काम, क्रोध तथा लोभ से भरा हुआ है, लालसामय प्रेरणाओं को मूर्त्ति है, और जब यह मध्यवर्ती गुण बढ़ता है तो यह सब हमारे अंदर उत्कर्ष को पहुँच जाता है । यह कामनामय शक्ति है जो समस्त साधारण व्यक्तिगत कर्मारंभ को तथा हमारी प्रकृति के अंदर विद्यमान उत्तेजना, उत्कंठा और प्रवर्तना की उस सब गति को प्रचालित करती है जो क्रिया और कर्मका, प्रवृत्ति का आवेग है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि
४४७
प्रकृति के गुणों में रजस् एक गतिशील शक्ति है । इसका फल है कर्म की तृष्णा, पर इसके साथ ही दुःख, वेदना और सब प्रकार के कष्ट भी; क्योंकि इसे अपने भोग्य विषय की यथार्थ रूप में प्राप्ति नहीं होती-वस्तुत: कामना का अर्थ ही है प्राप्ति का अभाव-और यहांतक कि इसका प्राप्त वस्तु का सुख भी विक्षुब्ध एवं अस्थिर होता है क्योंकि इसे स्पष्ट ज्ञान नहीं है और यह प्राप्त करने का तरीका ही नहीं जानता और न यह सामंजस्य तथा यथायथ उपभोगका रहस्य ही जान सकता है । प्राण की समस्त अज्ञानयुक्त और आवेगमय लिप्सा प्रकृति के रजोगुण से संबंध रखती है ।
अंत में, तमस् जड़ता और अज्ञान से उत्पन्न होता है और इसका फल भी है जड़ता और अज्ञान । तमोगुण का अंधकार ही ज्ञान को आच्छादित करता और समस्त भ्रम और व्यामोह की सृष्टि करता है । अतएव यह सत्व के ठीक विपरीत है, क्योंकि सत्त्व का सार है प्रकाश और तमस् का सार है अप्रकाश, निर्ज्ञान । परंतु तमस् जैसे भ्रांति, असावधानता, गलत समझना, या कुछ न समझ पाना--इस प्रकार की अक्षमता और प्रमाद को लाता है वैसे ही यह कर्मसंबंधी अक्षमता और प्रमाद को भी जन्म देता है । आलस्य, शिथिलता और निद्रा इस गुण से संबंध रखते हैं । इसलिए यह रजस् के भी विपरीत है; क्योंकि रजस् का सौर है गति, प्रेरणा और क्रियाशीलता, प्रवृत्ति, पर तमस् का सार है जड़ता, अप्रवृत्ति । तमस् निर्ज्ञान की जड़ता भी है और अकर्म की भी, यह दोहरा अभाव है ।
प्रकृति के ये तीन गुण सभी मनुष्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान और क्रियाशील हैं और किसी को भी इनसे सर्वथा रहित या तीनों में से किसी एक से विमुक्त नहीं कहा जा सकता; कोई भी व्यक्ति अन्य गुणों के बिना केवल एक ही गुण के सांचे में ढला हुआ नहीं है । सभी लोगों के अंदर कामना और कर्म का राजसिक आवेग किसी-न-किसी मात्रा में विद्यमान है और साथ ही प्रकाश एवं सुखका सात्विक वरदान, कुछ संतुलन, अपने-आप, अपनी परिस्थितियों तथा अपने विषयों के प्रति मन का कुछ सामंजस्य भी सबको प्राप्त है, और तामसिक अशक्तता, अज्ञान या निश्चेतना का हिस्सा भी सबको मिला हुआ है । परंतु ये गुण अपनी शक्ति की परिमाणात्मक क्रिया में या अपने तत्त्वों के संयोग में किसी भी मनुष्य के अंदर स्थिर रूप में विद्यमान नहीं हैं; क्योंकि ये परिवर्तनशील हैं तथा निरंतर ही पारस्परिक संघात, स्थान-परिवर्तन तथा: क्रिया-प्रतिक्रिया की अवस्था में रहते हैं । कभी तो एक नेतृत्व करता है और कभी दूसरा प्रबल हो जाता तथा प्रधानता प्राप्त कर लेता है, और प्रत्येक हमें अपनी विशिष्ट क्रिया तथा उसके परिणामों
४४८
के अधीन कर देता है । जब इनमें से कोई एक या दूसरा किसी मनुष्य के अंदर व्यापक तथा साधारण रूप से प्रमुखता प्राप्त कर ले केवल तभी यह कहा जा सकता है कि उस मनुष्य की प्रकृति सात्त्विक या राजसिक या तामसिक है; पर यह तो केवल एक सामान्य लक्षण हो सकता है, ऐकांतिक या चरम लक्षण नहीं । ये तीन गुण त्निविध शक्ति हैं और अपनी क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वारा ये प्राकृत मनुष्य के चरित्र एवं स्वभाव का निर्धारण करते हैं तथा उस स्वभाव के और उसकी विविध चेष्टाओं के द्वारा मनुष्य के कार्यों का भी निर्धारण करते हैं । पर साथ ही यह त्निविध शक्ति बंधन की त्निविध रज्जु भी है । गीता कहती है कि ''प्रकृति से उत्पन्न ये तीन गुण देह के अंदर निवास करनेवाले अव्यय देही को देह में बांध देते हैं ।'' एक विशेष अर्थ में तो हम यह तुरंत ही देख सकते हैं कि गुणों की क्रिया का अनुसरण करने से यह बंधन अवश्यमेव उत्पन्न होगा; क्योंकि ये सब अपने स्वरूप और क्रिया की सीमा के द्वारा आबद्ध हैं तथा बंधन की सृष्टि करते हैं । तमस् अपने दोनों पहलुओं में एक प्रकार की अक्षमता है और इसलिए वह अत्यंत स्पष्ट रूप में हमें सीमा के अंदर बांध देता है । राजसिक कामना कर्म की प्रवर्तिका के रूप में एक अधिक भावात्मक शक्ति है, किंतु फिर भी हम यह भलीभाँति देख सकते हैं कि मनुष्य को अपने अधिकार में करके उसे पूर्ण रूप से सीमाबद्ध और आसक्त रखने के कारण यह सदा बंधनरूप ही होती है । परंतु भला सत्व जो ज्ञान और सुख की शक्ति है, बंधनकारक कैसे हो जाता है ? यह बंधनकारक इस कारण हो जाता है कि यह मानसिक प्रकृति का, सीमाबद्ध और सीमाकारी ज्ञान का तथा एक ऐसे सुख का तत्त्व है जो इस या उस लक्ष्य का ठीक प्रकार से अनुगमन करने या उसे प्राप्त करने पर निर्भर करता है अथवा यह मन की किन्हीं विशेष अवस्थाओं तथा एक ऐसे मानसिक प्रकाश पर अवलंबित रहता है जो केवल एक कम या अधिक धुंधला आलोक ही हो सकता है । इसका सुख केवल क्षणिक तीव्रता या मर्यादित शांति ही हो सकता है । हमारी अध्यात्म-सत्ता का अनंत अध्यात्मज्ञान और निर्बंध स्वयं-स्थित आनंद तो एक और ही वस्तु है ।
परंतु तब यह प्रश्न उठता है कि कैसे हमारी असीम एवं अविनाशी आत्मा, प्रकृति के अंदर जकड़ी हुई होने पर भी, इस प्रकार अपने-आपको उसकी निम्न-तर क्रिया में आबद्ध कर लेती है तथा इस बंधन के अधीन हो जाती है', और कैसे यह, उस परम आत्मा के समान जिसका कि यह अंश है, अपने क्रियाशील क्रम-विकास के स्वरचित सीमाबंधन का उपभोग करती हुई भी अपनी अनंत सत्ता में स्वतंत्र नहीं है ? गीता कहती है कि इसका कारण हैं गुणों तथा उनकी क्रियाओं
४४९
के फल-परिणाम के प्रति हमारी आसक्ति । वह कहती है कि सत्त्व सुख में आसक्त करता है, रज कर्म में आसक्त करता है और तम ज्ञान को आवृत करके भूल-भ्रांति एवं अकर्मरूपी प्रमाद में आसक्त कर देता है । अथवा, ''सत्त्व ज्ञान तथा सुख के प्रति आसक्ति के द्वारा बांधता है, रज देहधारी आत्मा को कर्मासक्ति के द्वारा बांधता है और तम प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है ।''१ दूसरे शब्दों में, जीव गुणों तथा उनके परिणामों के उपभोग के प्रति आसक्ति के द्वारा अपनी चेतना को प्रकृति में मन-प्राण-शरीर के निम्नतर एवं बाह्य व्यापार पर केंद्रित करता है, इन वस्तुओं के दृश्य रूप के अंदर अपनेको कैद कर देता है और (अपनी स्थूल सत्ता के ) पीछे की ओर आत्मा के अंदर अवस्थित अपनी महत्तर चेतना को भूल जाता है, मोक्षसाधक 'पुरुष' की स्वतंत्र शक्ति एवं क्षेत्र से अनभिज्ञ रहता है । अतः यह स्पष्ट है कि मुक्ति और पूर्णता लाभ करने के लिए हमें इन चीजों से पीछे हटना होगा, गुणों से विलग होकर उनके ऊपर उठना होगा और प्रकृति के ऊपर अधिष्ठित उस मुक्त अध्यात्म-चेतना की शक्ति को पुन: प्राप्त करना होगा ।
परंतु इसका अर्थ तो समस्त कर्म का निरोध करना प्रतीत होगा, क्योंकि समस्त प्राकृत कर्म गुणों के द्वारा संपन्न होता है, अर्थात् प्रकृति ही गुणों के द्वारा समस्त कार्य करती है । जीव अपने-आप कर्म नहीं कर सकता, वह तो प्रकृति तथा उसके गुणों के द्वारा ही कर्म कर सकता है । परंतु गीता, गुणों के बंधन से मुक्ति की मांग करती हुई भी, कर्म की आवश्यकता पर बार-बार बल देती है | यही फलत्याग पर उसके आग्रह का महत्व प्रकट होता है; क्योंकि फलों की कामना ही जीव के बंधन का अत्यंत सबल कारण है और इसका त्याग करके जीव कर्म में बंधनमुक्त हो सकता है । तामसिक कर्म का परिणाम होता है अज्ञान राजसिक कार्यों का परिणाम होता है दुःख,-प्रतिक्रिया, निराशा, असंतुष्टि या नश्वरता का दु:ख, और अतएव ऐसे कर्म के फलों के प्रति आसक्ति में कुछ लाभ नहीं क्योंकि इन फलों के साथ ये अनिष्ट सहचारी परिणाम जुड़े ही रहते हैं । उधर, ठीक प्रकार से किये गये कर्मों का फल शुद्ध और सात्त्विक होता है, उनका आंतरिक परिणाम होता है ज्ञान और सुख । परंतु इन सुखमय फलों के प्रति होनेवाली आसक्ति को भी पूर्ण रूप से त्यागना होगा, प्रथम तो इसे इस कारण त्यागना होगा कि मन के अन्दर ये फल सीमाबद्ध तथा सीमाकारी रूप हैं और दूसरे इस कारण कि इनका स्थायित्व सदैव अनिश्चित है क्योंकि सत्त्व निरंतर रज और तम के द्वारा जकड़ा और घिरा रहता है तथा ये उसे किसी भी क्षण अभि-
_____________
१. १४,६ -८
४५०
भृत कर सकते हैं । परन्तु, यदि कोई फल की सब प्रकार की आसक्ति से मुक्त भी हो, तो स्वयं कर्म के प्रति आसक्ति फिर भी रह सकती है और वह आसक्ति या तो स्वयं कर्मके प्रति--अर्थात् मूल राजसिक बंधन-रूप--हो सकती है, या प्रकृति की प्रेरणा के प्रति हमारी जड़ एवं शिथिल अधीनता के कारण, वह तामसिक हो सकती है, अथवा वह क्रियमाण कर्म के प्रलोभक औचित्य की खातिर भी हो सकती है जो कि पुण्यात्मा या ज्ञानवान् मनुष्य को वश में करनेवाला सात्त्विक आसक्ति-जनक कारण है । और स्पष्ट ही इसका उपाय हमें गीता के उस दूसरे उपदेश में मिलता है जिसमें कहा गया है कि हमें स्वयं कर्म को भी कर्मों के ईश्वर के प्रति उत्सर्ग करके उनके संकल्प का निष्काम और समचित्त उपकरण मात्र बनना होगा । यह देखना कि प्रकृति के गुण ही हमारे कार्यों के एकमात्र कर्त्ता और कारण हैं तथा जो भगवान् गूणातीत परम सत्ता हैं उन्हें जानना और उनकी ओर मुड़ना ही निम्नतर प्रकृति के ऊपर उठने का साधन है । केवल इस उपाय से ही हम भागवत गति और स्थिति, 'मद्भाव', उपलब्ध कर सकते हैं । इस मद्भाव् के द्वारा मुक्त जीव जन्म और मृत्यु से तथा इनके सहचारी क्षय, वार्द्धक्य और दुःख-तापकी अधीनता से छूटकर अंततः अमृतत्व तथा सभी नित्य वस्तुओं का आस्वादन करेगा ।
परंतु अर्जुन पूछता है कि ऐसे मनुष्य के लक्षण क्या होते हैं उसका आचार-व्यवहार कैसा होता है तथा कैसे वह कर्म में रत भी त्निगुणातीत कहलाता है ? श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसका लक्षण होता हैं वह समत्व जिसकी मैंने बारंबार चर्चा की है; उसका लक्षण यह है कि अपने अंदर में वह सुख और दुःख को एक समान समझता है, सोने, मिट्टी और पत्थर को समान मूल्य की चीजें समझता है और उसके लिए प्रिय-अप्रिय, निंदा-स्तुति, मान-अपमान, मित्रपक्ष और शत्रुपक्ष--सब एक बराबर. होते हैं । वह एक ज्ञानमय, अविचल, निर्विकार, आभ्यंतरिक शांति और स्थिरता में दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित रहता है । वह किसी भी कर्म का आरंभ नहीं करता, बल्कि सब कर्मों को प्रकृति के गुणों के द्वारा किये जाने के लिए छोड़ देता है । सत्व, रज या तम उसके बाह्य मन तथा शारीरिक चेष्टाओं में उभर सकता या दब सकता है और उसके परिणामस्वरूप प्रकाश एवं कर्म-प्रवृत्ति पैदा हो सकती है अथवा अकर्मण्यता उत्पन्न हो सकती है और मन तथा प्राण तमसाच्छन्न हो सकते हैं; किंतु जब एक उभरता या दूसरा दबता है तो वह हर्षित नहीं होता; दूसरी. ओर, वह इन सब चीजों की प्रवृत्ति या निवृत्ति से कतराता या भागता भी नहीं । वह अपनेको गुणों की प्रकृति से भिन्न किसी अन्य तत्त्व की चिन्मय ज्योति में प्रतिष्ठित कर चुका होता है और वह महत्तर चेतना उसके अंदर इन शक्तियों से ऊपर
४५१
तथा इनकी गतियों से अचलायमान अवस्था में स्थिर रूप से अवस्थित रहती है जैसे कि जो मनुष्य अंतरिक्ष में अधिक ऊँचाई पर चला जाता है उसके लिये बादलों के ऊपर सूर्य सदा ही विद्यमान रहता है । उस ऊँचाई से वह देखता है कि गुण ही सब कर्म कर रहे हैं और उनकी जो विक्षुब्धता तथा स्थिरता हैं वे उसका अपना आत्म-स्वरूप नहीं बल्कि प्रकृति की एक गति मात्र हैं; उसकी आत्मा तो ऊर्ध्व में अविचल है और उसकी अध्यात्मसत्ता अस्थिर वस्तुओं की चंचल परिवर्तन-शीलता में भाग नहीं लेती । यह ब्राह्मी स्थिति की निर्व्यक्तिकता है; क्योंकि वह उच्चतर तत्त्व, वह महत्तर विशाल उच्चस्थ चैतन्य अर्थात् वह कूटस्थ ही अक्षर ब्रह्म है ।
परंतु फिर भी यहाँ स्पष्ट रूप से एक द्वैत स्थिति है, सत्ता दो विपरीत भागों में अक्षर और क्षर में खंडित है, अक्षर पुरुष या ब्रह्म में मुक्त हुई आत्मा अमुक्त क्षर प्रकृति के व्यापार का निरीक्षण करती है । क्या कोई इससे महान् स्थिति नहीं है, पूर्णतर पूर्णता का कोई तत्त्व नहीं है, अथवा क्या यह विभाजन ही देह में प्राप्य उच्चतम चेतना है, और क्या इस क्षर प्रकृति का तथा प्रकृति के अंदर देह-धारण से उत्पन्न गुणों का त्याग और ब्रह्म की निर्व्यक्तिकता तथा नित्य शांति में लय ही योग का लक्ष्य है ? क्या व्यष्टि-पुरुष का यह लय ही परम मोक्ष है ? ऐसा प्रत्तीत होता है कि कोई और वस्तु भी है; क्योंकि गीता उपसंहार के रूप में कहती है--सदा इसी एक अंतिम स्वर को पुनः-पुन: गुँजाती है कि ''जो मनुष्य अविचल प्रेम एवं भक्ति के साथ ''मेरा'' भजन करता है और ''मुझे'' प्राप्त करने के लिए यत्न करता है वह भी तीन गुणों को पार कर जाता है, वह भी ब्रह्मभाव प्राप्त करने के लिए तैयार है ।'' ''मेरा'' और ''मुझे'' शब्दों द्वारा सूचित यह ''मैं'' पुरुषोत्तम है जो शांत ब्रह्म, अमृतत्व, अक्षय अध्यात्म-जीवन, शाश्वत धर्म तथा परम आनंद का आधार है । इस प्रकार, एक ऐसी स्थिति भी है जो अक्षर की शांति से अधिक महान् है क्योंकि वह गुणों के परस्पर-विरोध का अविचलित रूप में निरीक्षण करती है । ब्रह्म की अक्षरता के ऊपर एक उच्चतम आध्यात्मिक अनुभूति और 'प्रतिष्ठा' ( सबका आश्रयभूत तत्त्व ) है, कर्मविषयक राजसिक प्रेरणा, 'प्रवृत्ति', से अधिक महान् एक शाश्वत धर्म है, राजसिक दु:खके स्पर्श से परे तथा सात्त्विक सुख से अतीत एक चरम-परम आनन्द है, और ये चीजें पुरुषोत्तम की सत्ता और शक्ति में निवास करने से ही प्राप्त एवं अधिकृत की जा सकती हैं । पर, क्योंकि इसकी प्राप्ति भक्तिके द्वारा होती है, इसकी स्थिति होगी वह दिव्य आनंद जिसमें निरतिशय प्रेम१ का मिलन तथा उपलब्धिमय
१. निरतिशयप्रेमास्पदत्वमानन्दतत्त्वम् ।
४५२
एकत्व अनुभूत होता है और यही भक्ति का सर्वोच्च शिखर है । और उस आनंद में, उस अकथ एकत्व में उठ जाना ही आध्यात्मिक पूर्णता की पराकाष्ठा तथा अभुतत्वदायक नित्य धर्म की परिपूर्ति होगी ।
४५३
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.