Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म१
गीता व्यक्तिगत कामना की स्वच्छंदता के अनुसार और शास्त्र की विधि के अनुसार किये जानेवाले कर्मों में भेद कर चुकी है । शास्त्र शब्द से हमें जीवन-यात्रा की उस सर्वसम्मत विद्या एवं कला को समझना होगा जो मनुष्यजाति के सामूहिक जीवन का परिणाम है, जो उसकी संस्कृति, धर्म एवं विज्ञान है, जीवन के सर्वश्रेष्ठ विधान की विकसनशील उपलब्धि है,--पर मनुष्यजाति अभी भी अज्ञान में गति कर रही है और अधूरे प्रकाश में ही ज्ञान की ओर अग्रसर हो रही है । वैयक्तिक कामना का कर्म हमारी प्रकृति की असंस्कृत अवस्था से संबंध रखता है और वह अज्ञान या मिथ्या ज्ञान और अनियंत्रित या कुनियंत्नित राज-सिक अहंकार से प्रेरित होता है । शास्त्र के द्वारा नियंत्रित कर्म बौद्धिक, नैतिक, सौंदर्यात्मक, सामाजिक और धार्मिक संस्कृति का परिणाम होता है; वह एक प्रकार के यथायथ जीवन-यापन, सामंजस्य एवं यथार्थ व्यवस्था के लिए किये गये प्रयत्न का मूर्त रूप होता है । स्पष्ट ही वह मनुष्य के सात्त्विक अंश का एक प्रयास होता है जो राजसिक तथा तामसिक अहंकार को अतिक्रांत, संयत और नियंत्रित करने के लिए अथवा, जहाँ इसे स्वीकार करना आवश्यक होता है वहाँ, इसका परिचालन करने के लिए किया जाता है; वह प्रयास परिस्थितियों के अनुसार कम या अधिक वेग से प्रगति करता है । एक कदम और आगे बढ़ने के लिए वह एक साधन होता है, अतएव मनुष्यजाति को पहले इसमें से गुजरना होगा और अपनी व्यक्तिगत कामनाओं की प्रेरणा का अनुसरण करने के बजाय इस शास्त्र को अपने कर्म का विधान बनाना होगा । जहाँ कहीं मानवजाति ने किसी प्रकार के सुप्रतिष्ठित एवं विकसित समाज की स्थापना की है वहाँ उसने इस सामान्य विधान को सदा ही अंगीकार किया है । व्यवस्था के संबंध में उसकी एक धारणा है, उसका एक अपना विधान है, अपनी पूर्णता के संबंध में उसका एक आदर्श है जो उसकी कामनाओं के निर्देश या उसके अपरिपक्व आवेगों
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१. गीता अध्याय १७
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के स्थूल निर्देश से भिन्न है । इस महत्तर विधान को व्यक्ति साधारणत: अपने-से बाहर, जाति के अनुभव और ज्ञान के किसी न्यूनाधिक स्थिर सिद्धांत में उपलब्ध करता है; और उस सिद्धांत को वह स्वीकार कर लेता है, उसका मन तथा उसकी सत्ता के प्रमुख भाग उसे अपनी सहमति या अनुमति प्रदान करते हैं और अपने मन, संकल्प तथा कर्म में उस सिद्धांत को चरितार्थ करके वह उसे अपना बना लेने की चेष्टा करता है । उसकी सत्ता की इस सहमति को, विश्वास करने तथा उपलब्ध करने के लिए उसकी इस सचेतन स्वीकृति एवं संकल्प को हम, गीता के अनुसार, 'श्रद्धा' का नाम दे सकते हैं । जिस धर्म, दर्शन, नैतिक नियम, सामाजिक विचार, सांस्कृतिक विचार में मैं श्रद्धा रखता हूँ वह मुझे मेरी अपनी प्रकृति तथा इसके कर्मों के लिए एक विधान प्रदान करता है, सापेक्ष सदाचार का अथवा आपेक्षित या ऐकांतिक पूर्णता का एक विचार प्रदान करता है और मुझमें जितनी सच्चाई होती है, उस विधान में मेरी श्रद्धा जितनी पूर्ण होती है और उस श्रद्धाके अनुसार जीवन-यापन करने का मेरा संकल्प जितना तीव्र होता है, उतना ही मैं वही कुछ बन सकता हूँ जो कुछ बनने के लिए वह मुझसे कहता है, उतना ही मैं अपने-आपको उस सत्य विधान की प्रतिमूर्त्ति में या उस पूर्णता के आदर्श दृष्टांत के रूप में परिणत कर सकता हूँ ।
परंतु हम देखते हैं कि मनुष्य के अंदर एक अधिक स्वतंत्र प्रवृत्ति भी है जो उसकी कामनाओं के निर्देश से तथा धर्म, बद्धमूल कारण, शास्त्र के सुरक्षित नियामक विधि-विधान को स्वीकार करने के संकल्प से भिन्न है । यह भी देखा जाता है कि व्यक्ति तो कितनी ही बार और समाज अपने जीवन में किसी भी क्षण शास्त्र से मुंह मोड़ लेता है, उससे ऊब जाता है, अपने संकल्प और श्रद्धा-विश्वास के उस रूप को त्याग देता है और किसी अन्य विधान की खोज में निकल पड़ता है जिसे वह अब जीवन-यापन का यथार्थ विधान स्वीकार करने तथा सत्ता के एक अतिशय प्राणवन्त या उच्चतर सत्य के रूप में मानने की ओर अधिक झुका हुआ होता है । यह उस समय हो सकता है जब प्रचलित शास्त्र जीवंत वस्तु नहीं रहता और ह्रसित या रूढ़ होकर रीति-रिवाजों और लोकाचारों का ढेर बन जाता है । अथवा यह इसलिए हो सकता है कि शास्त्र अपेक्षित प्रगति के लिए अपर्याप्त प्रतीत होता है या वह उसके लिए पूर्ववत् उपयोगी नहीं प्रतीत होता; एक नया सत्य, जीवन-यापन का एक अधिक पूर्ण विधान अनिवार्य रूप से आवश्यक हो जाता है । यदि वह सत्य एवं विधान विद्यमान न हो तो जाति को अपने प्रयत्न से या किसी महान् एवं ज्ञानदीप्त व्यक्ति को, जो जाति की आशा-आकांक्षा का मूर्त्त प्रतिनिधि होता है, अपनी मनीषा से उसका आविष्कार करना होता है ।
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तब, वैदिक धर्म लोकाचार का रूप धारण कर लेता है और कोई बुद्ध अपने अष्टांग पथ के नये विधान और निर्वाण के लक्ष्य को लेकर आविर्भूत होते हैं; और यहाँ इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि उसे वे एक व्यक्तिगत आविष्कार के रूप में नहीं बल्कि आर्य जीवन के एक ऐसे सत्य विधान के रूप में प्रस्थापित करते हैं जिसे बुद्ध, ज्ञानदीप्त मन, प्रबुद्ध आत्मा सदैव पुन:-पुन: आविष्कृत करती है । परंतु व्यवहारतः इसका अर्थ यह हुआ कि एक ऐसा आदर्श है, एक ऐसा सनातन धर्म है जिसे धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र तथा मनुष्य की अन्य सब शक्तियाँ, जो सत्य और पूर्णता की प्राप्ति के लिए यत्नशील हैं, आंतर और बाह्य जीवन की विद्या और कला के नये सिद्धांतों का, एक नये शास्त्र का रूप देने के लिए सदैव प्रयास कर रही हैं । धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक सदाचार के संबंध में मूसा के द्वारा प्रवर्त्तित धर्म को संकीर्णता और अपूर्णता का दोषी ठहराया जाता है, और इसके अतिरिक्त अब वह केवल एक लोकाचार बन जाता है; उसके स्थान पर ईसा का धर्म प्रकट होता है और वह एक ही साथ उसका उच्छेद करने तथा उसे परिपूर्ण बनाने, उसके अपूर्ण रूप का उच्छेद करने तथा जीवन का जो दिव्य विधान उसका लक्ष्य था उसकी मूल भावना को एक गभीरतर तथा विशालतर ज्योति एवं शक्ति में परिपूर्ण बनाने का दावा करता है । और फिर मानव की खोज यहीं नहीं रुक जाती, बल्कि इन रचनाओं को भी त्याग देती है और किसी ऐसे अतीत सत्य की ओर लौट जाती है जिसे वह छोड़ चुकी थी अथवा वह इन सब विधानों को तोड़-फोड़कर किसी नये सत्य एवं शक्ति की ओर अग्रसर होती है, किंतु सदैव उसी वस्तु की, अपनी पूर्णता के विधान, यथायथ जीवन-यापन के नियम, अपनी पूर्ण, सर्वोच्च और मूलभूत सत्ता एवं प्रकृति की खोज में लगी रहती है ।
इस खोज किंवा प्रयास का आरंभ करता है व्यक्ति जो प्रचलित विधान से अब और संतुष्ट नहीं होता, क्योंकि वह देखता है कि वह विधान उसकी अपनी सत्ता और जगत्-सत्ता के संबंध में उसकी अपनी धारणा एवं विशालतम या तीव्रतम अनुभूति से अब और मेल नहीं खाता और अतएव वह उसपर विश्वास तथा आचरण करने के लिए उसमें अपने संकल्प को पहले की तरह नियोजित नहीं कर सकता । वह उसकी जीवन-सत्ता की आंतरिक प्रणाली के अनुरूप नहीं होता, वह उसके लिए 'सत्' अर्थात् कोई ऐसी वस्तु नहीं होता जिसका वस्तुत: अस्तित्व है, न ही वह उसके लिए यथार्थ विधान, उच्चतम या श्रेष्ठ या वास्तविक कल्याण होता है; वह उसकी सत्ता या समस्त सत्ता का सत्य एवं विधान नहीं होता । शास्त्र व्यक्ति के लिए एक निर्वैयक्तिक वस्तु होता है, और वह उसे
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उसके करणों के संकुचित एवं वैयक्तिक विधान के ऊपर अपना प्रामाणिक विधान प्रदान करता है; पर इसके साथ ही वह समष्टि के लिए वैयक्तिक होता है और उसकी अनुभूति की, संस्कृति या प्रकृति की उपज-स्वरूप होता है । वह अपने समस्त रूप और भावना में आत्मा की परिपूर्णता का आदर्श विधान या हमारी प्रकृति के स्वामी का सनातन विधान नहीं होता, भले ही उसके अंदर उस अति महत्तर वस्तु के संकेत, उपक्रम, प्रकाशप्रद आभास कम या अधिक मात्रा में क्यों न विद्यमान हों । व्यक्ति समष्टि को अतिक्रम कर उससे आगे बढ़ा हुआ हो सकता है और एक महत्तर सत्य, एक प्रशस्ततर मार्ग, प्राण-पुरुष के एक गभीरतर उद्देश्य के लिए प्रस्तुत हो सकता है । उसके अंदर की जो प्रेरणा शास्त्र को छोड़कर चलती है वह सदा उच्चतर गति ही हो यह आवश्यक नहीं; वह उस अहंभावमय या राजसिक प्रकृति के विद्रोह का रूप भी ग्रहण कर सकती है जो स्व-परिपूर्णता एवं स्व-उपलब्धि की स्वतंत्रता की अवरोधक प्रतीत होनेवाली वस्तु के जुए से मुक्त होना चाहती है । परन्तु तब भी वह शास्त्र की किसी संकीर्णता या अपूर्णता के कारण अथवा जीवन के प्रचलित विधान के अवनत होकर केवल एक प्रतिबंधक या निर्जीव आचार बन जानेके कारण प्रायः उचित ही ठहरती है । और इस हद तक वह न्यायसंगत है, वह एक सत्य पर आश्रित है, उसके अस्तित्व का एक पर्याप्त और उचित कारण है: क्योंकि यद्यपि यह सच्चे पथ को नहीं पकड़ पाती तो भी राजसिक अहं की स्वतंत्र चेष्टा लोकाचार के निर्जीव और आग्रहपूर्ण तामसिक अनुसरण से अच्छी होती है, क्योंकि उसके अंदर स्वातंत्र्य और जीवन अधिक मात्रा में होता है । तामसिक प्रकृति की अपेक्षा राजसिक प्रकृति सदैव अधिक बलशाली तथा अधिक प्रबलतया अनुप्राणित होती है और उसके अंदर संभावनाएँ भी अपेक्षाकृत अधिक होती हैं । परंतु शास्त्र का परित्याग करने की यह प्रेरणा मूलत: सात्त्विक भी हो सकती है; यह उस विशालतर एवं महत्तर आदर्श की ओर झुकी हुई हो सकती है जो हमें अपनी सत्ता तथा विश्व-सत्ता के अद्यावधि उपलब्ध सत्य की अपेक्षा पूर्णतर एवं बृहत्तर सत्य के अधिक निकट ले जायगा और अतएव उस उच्चतम विधान के भी अधिक निकट ले जायगा जो दिव्य स्वातंत्र्य के साथ एकीभूत है । और क्रियात्मक दृष्टि से इस प्रकार की गति या प्रेरणा साधारणत: हमारी अपनी सत्ता के किसी विस्मृत सत्य को अधिकृत करने या अबतक अनुपलब्ध या अचरितार्थ सत्य की ओर अग्रसर होने का प्रयास होती है । यह अनियंत्रित प्रकृति को उच्छृंखल चेष्टा मात्र नहीं होती; यह आध्यात्मिक दृष्टि से समीचीन होती है और हमारी आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक । और चाहे शास्त्र अभी तक एक प्राणवंत वस्तु हो तथा औसत मनुष्य के लिए
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सर्वश्रेष्ठ विधान हो, फिर भी एक असाधारण मनुष्य, एक आध्यात्मिक मनुष्य एवं जिसकी अंत:सत्ता विकसित हो चुकी है वह उस आदर्श से बद्ध नहीं होता । उसे शास्त्र को रूढ़ सीमा-रेखा को पार करने का आह्वान प्राप्त होता है । क्योंकि यह तो सामान्य अपूर्ण मनुष्य के मार्ग-निर्देश, नियंत्रण एवं आपेक्षिक पूर्णत्व के लिए एक विधान होता है और उसे बढ़ना होता है एक अधिक पूर्ण पूर्णत्व की ओर : यह सुनिश्चित धर्मों का शास्त्र होता है और उसे आत्मा के स्वातंत्रय में निवास करना सीखना होता है ।
तब भला जो कर्म कामना के निर्देश तथा प्रचलित विधान दोनों से हटकर चलता है उसका सुरक्षित आधार क्या होगा ? कारण, कामना के नियम की एक अपनी प्रामाणिकता होती है जो हमारे लिए अब और वैसी सुरक्षित या संतोष-जनक नहीं रहती जैसी वह पशु के लिए है या जैसी वह आदिम मानवता के लिए रही होगी, परंतु फिर भी अपनी सीमा के भीतर यह हमारी प्रकृति के एक अति जीवंत भाग पर आधारित और उसके प्रबल संकेतों के द्वारा संपुष्ट होती है; इस धर्म किंवा शास्त्र के पीछे रहती है चिर-प्रचलित विधान की समग्र प्रामाणिकता, प्राचीन विधि-विधानों की सफलता और अतीत की सुरक्षित अनुभूति । परंतु इस नये प्रयास का स्वरूप होता है अज्ञात या ईषत्-ज्ञात को ओर शक्तिशाली अभियान, एक साहसिक विकास और एक नूतन विजय । तो फिर वह कौन-सा सूत्र है जिसका अनुसरण करना होगा, वह कौन-सा मार्गदर्शक प्रकाश है जिसपर यह प्रयास भरोसा रख सकता है या हमारी सत्ता के अंदर इसका दृढ़ आधार क्या हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि वह सूत्र और आधार हमें मनुष्य की श्रद्धा में मिलेगा; श्रद्धा का मतलब है--जिसे मनुष्य अपनी तथा जगत् की सत्ता के सत्य के रूप में देखता या समझता है उसपर विश्वास करने तथा उसके अनुसार जीवन यापन करने का संकल्प । दूसरे शब्दों में इस प्रयास का अर्थ है--मनुष्य का अपने सत्य स्वरूप, अपने जीवन-विधान, अपनी पूर्णता और सिद्धि के पथ की उपलब्धि के लिए अपनी निज सत्ता के प्रति या फिर अपनी सत्ता या विश्व-सत्ता के अंदर विद्यमान किसी शक्तिशाली एवं अवश्यमान्य वस्तुके प्रति पुकार करना । और सब कुछ निर्भर करता है उसकी श्रद्धा के स्वरूप के ऊपर, अपने अंदर या जिस विश्वात्मा का वह एक अंश या प्राकट्य है, उसके अन्दर विद्यमान जिस वस्तुके प्रति वह अपनी श्रद्धा अर्पित करता है उसके ऊपर और इसके द्वारा वह अपनी वास्तविक आत्मा तथा विश्व की आत्मा या उसकी वास्तविक सत्ता के कितना निकट पहुँचता है इस बात के ऊपर । यदि वह तामसिक, मूढ़ एवं मोहाच्छन्न है, यदि उसकी श्रद्धा अज्ञानयुक्त तथा संकल्प अक्षम है तो वह किसी भी वास्तविक
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वस्तु तक नहीं पहुँच पायगा तथा अपनी निम्न प्रकृति में जा. गिरेगा । यदि वह मिथ्या राजसिक प्रकाशों के प्रलोभन में पड़ गया तो वह अपने स्वेच्छाचारी संकल्प के द्वारा ऐसे उपमार्गों में भटक सकता है जो उसे दलदल या कगार की ओर ले जा सकते हैं । हर हालत में उसके उद्धार का एकमात्र सुयोग इस बात में है कि उसके अंदर सत्त्वगुण फिर से प्रबलता प्राप्त कर ले और वह उसके करणों पर एक नयी ज्ञानदीप्त नियम-व्यवस्था लागू करे जो उसे उसके स्वच्छंद संकल्प की प्रचंड भ्रांति या उसके तमसाच्छन्न अज्ञान की जड़ भ्रांति से मुक्त कर देगी । इसके विपरीत, यदि उसकी प्रकृति सात्त्विक है और यदि उसे आगे बढ़ने के लिए सात्त्विक श्रद्धा एवं निर्देश प्राप्त है तो एक अद्यावधि-अनुपलब्ध उच्चतर आदर्श-विधान उसे दृष्टिगोचर हो जायगा जो उसे किन्हीं विरल प्रसंगों में सात्विक प्रकाश से भी ऊपर सत्ता और जीवन की उच्चतम दिव्य ज्योति एवं दिव्य प्रणाली की ओर कुछ दूर तो ले ही जा सकता है । क्योंकि यदि उसके अंदर सात्त्विक प्रकाश इतना प्रबल हो कि वह उसे अपनी चरम सीमा तक ले जाय तो वह उस सीमा से आगे बढ़कर भागवत, विश्वातीत एवं निरपेक्ष सत्ता की किसी प्रथम रश्मि में प्रवेश के लिए मार्ग बनाने में समर्थ होगा । आत्म-अनुसंधान के सभी प्रयत्नों में ये संभावनाएँ विद्यमान हैं; ये इस आध्यात्मिक अभियान की शर्तें हैं ।
अब हमें यह देखना है कि गीता अध्यात्म-शिक्षा और आत्म-साधना की अपनी सरणि के अनुसार इस प्रश्न का कैसा समाधान करती है । क्योंकि अर्जुन तुरंत ही एक ऐसा इंगितपूर्ण प्रश्न करता है जिससे यह समस्या या इसका एक पक्ष उपस्थित होता है । वह पूछता है कि जब आदमी श्रद्धापूर्वक परमेश्वर या देवताओं का यजन करते हैं पर शास्त्रविधि का परित्याग कर देते हैं तो वह कौन-सी 'निष्ठा' है, उनके अंदर भक्ति का वह कौन-सा एकनिष्ठ संकल्प है जो उनमें यह श्रद्धा उत्पन्न करता है और उन्हें इस प्रकार के कर्म में प्रवृत्त करता है ? वह सात्त्विक है या राजसिक या तामसिक ? वह हमारी प्रकृति के किस स्तर से संबंध रखता है ? गीता का उत्तर पहले इस सिद्धांत का प्रतिपादन करता है कि प्रकृति की सभी चीजों की भांति हमारी श्रद्धा भी त्रिविध होती है और वह हमारी प्रकृति के प्रधान गुण के अनुसार विभिन्न प्रकार की होती है । प्रत्येक मनुष्य को श्रद्धा वही रूप-रंग और गुण धारण कर लेती है, जो उसे उसकी सत्ता के उपादान, उसके मूल स्वभाव, उसकी सत्ता की नैसर्गिक शक्ति के द्वारा प्रदान किया जाता है, सत्त्वा- नुरूपा सर्वस्व श्रद्धा ।' और इसके बाद एक अद्भुत पंक्ति आती है जिसमें गीता हमें बताती है कि यह पुरुष, मनुष्य के अंदर विद्यमान यह जीव मानों श्रद्धा का बना हुआ है, श्रद्धा का मतलब है कुछ बनने का संकल्प, अपने-आपपर तथा जगत्-
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की सत्ता पर विश्वास । उसके अंदर का वहू संकल्प, वह श्रद्धा या मज्जागत विश्वास कोई भी क्यों न हो, वह वही है और वही वह है, 'श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छूद्ध: स एव स: ।' यदि हम इस अर्थगर्भित सूक्ति पर कुछ सूक्ष्मता से विचार करें तो हमें पता चलेगा कि इस एक ही पंक्ति के अंदर गिने-चुने बलपूर्ण शब्दों में आधुनिक प्रयोगवाद ( Pragmatism) के सिद्धांत की प्राय: सारी ही परिकल्पना अंतर्निहित है । क्योंकि यदि मनुष्य या उसकी अंतरात्मा अपनी अंतरस्थ श्रद्धा से बनी हुई है (श्रद्धा यहाँ अपने उपर्युक्त गभीरतर अर्थ में अभिप्रेत है ), तो इसका यह मतलब हुआ कि वह जिस सत्य के दर्शन करता है और जिसे वह जीवन में उतारना चाहता है, उसके लिए वही अपनी सत्ता का, अपने निज स्वरूप का सत्य है; उस सत्य की सृष्टि उसीने की है या कर रहा है और उसके लिए उसके सिवा और कोई सत्य वास्तविक नहीं हो सकता । यह सत्य उसके आंतर और बाह्य कर्म का तथ्य है, उसकी संभूति का, अंतरात्मा की क्रियाशक्ति का तथ्य है, उसके अंदर जो वस्तु नित्य-अपरिवर्तनीय है उसका तथ्य नहीं । वह आज जो कुछ भी है वह उसकी अपनी प्रकृति के किसी अतीत संकल्प के द्वारा ही गठित हुआ है । इस समय उसके अंदर कुछ जानने, विश्वास करने तथा अपनी बुद्धि और प्राणशक्ति में वही कुछ बन उठने का जो संकल्प है वह उसके अतीत संकल्प को संपुष्ट करता तथा चालू रखता है । उसकी मूल सत्ता तक में यह जो संकल्प और श्रद्धा क्रियाशील है वह कोई भी नया रूप क्यों न ग्रहण करे, वह भविष्य में उसी नये रूप में परिणत होता जायगा । हम मन और प्राण के अपने निज कर्म में सत्ता के एक अपने ही सत्य की सृष्टि करते हैं, यह इस बात को कहने का एक दूसरा ढंग है कि हम आप ही अपने स्वरूप की सृष्टि करते हैं, हम आप ही अपने निर्माता हैं ।
परंतु यह अत्यंत स्पष्ट है कि यह सत्य का केवल एक पक्ष है, और सभी एक-पक्षीय स्थापनाएँ विचारक के लिए संदेह का विषय होती हैं । हमारा अपना व्यक्तित्व जो कुछ है या जिस भी चीज की यह सृष्टि करता है, सत्य केवल वही नहीं है; वह सब तो केवल हमारी संभूति का सत्य है, एक अत्यंत विस्तृत आयतन-वाली गति मे एक विशिष्ट बिंदु या रेखा है । हमारे व्यक्तित्व के परे, सर्वप्रथम एक विश्वव्यापी सत्ता तथा एक विश्वव्यापी संभूति है, जिसकी एक क्षुद्र गति मात्र है हमारी सत्ता और संभूति; और उसके भी परे है सनातन सत् जिसमें से यह समस्त संभूति या भूतभाव उत्पन्न होता है और जो इसकी संभाव्य शक्तियों, इसके उपादानों, मूल प्रेरक भावों और चरम उद्देश्यों का स्रोत है । नि:संदेह, हम यह कह सकते हैं कि समस्त संभूति विश्व-चेतना की एक क्रिया मात्र है, माया है, संभूत होने के संकल्प के द्वारा सृष्ट हुई हैं और इसके अतिरिक्त यदि कोई और
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सद्धस्तु है तो वह है केवल एक शुद्ध सनातन सत्ता जो चेतना से परे है, निराकार, अनिरुक्त एवं अनिर्वचनीय । मायावादी का अद्वैत जिस दृष्टिकोण को अपनाता है वह वस्तुत: यही है; व्यावहारिक सत्य, तथा सृष्टिकरी माया के दूसरी ओर विद्यमान निर्विशेष, अनिर्वचनीय, केवल, निरपेक्ष सत्ता के बीच वह जो भेद करता है उसका आशय भी यही है । उसके मन के निकट व्यावहारिक सत्य भ्रमात्मक है, या कम-से-कम यह केवल अस्थायी तथा आशिक रूप में सत्य है जब कि आधुनिक प्रयोगवाद इसे वास्तविक सत्य मानता है या कम-से-कम वह इसे एकमात्र स्वीकार्य सत्य मानता है क्योंकि केवल यही एक ऐसा सत्य है जिसे हम व्यवहार में ला सकते तथा जान सकते हैं । परंतु गीता के लिए निरपेक्ष ब्रह्म भी परम पुरुष है, और पुरुष सदैव चिन्मय आत्मा है, यद्यपि उसकी सर्वोच्च चेतना, या यूं कहें कि उसकी अतिचेतना,--और इसी प्रकार हम कह सकते हैं कि उसकी निश्चेतना नामक निम्नतम चेतना,-- हमारी उस मानसिक चेतना से अत्यंत भिन्न वस्तु है जिसे हम ऐकांतिक रूप से चेतना का नाम देने के अभ्यस्त हैं । उस उच्चतम अतिचेतना में अमरत्व का एक सर्वोच्च सत्य और धर्म है, सत्ता की एक महत्तम दिव्य सरणि है जो कि सनातन और अनंत सत्ता की एक धारा है । जीवन की वह सनातन सरणि और सत्ता का वह दिव्य भाव पुरुषोत्तम की नित्य सत्ता में पहले से ही विद्यमान है, परंतु अब हम उसे योग के द्वारा यहाँ अपनी संभूति में भी सृष्ट करने का यत्न कर रहे हैं; हम भगवान् बनने का यत्न कर रहे हैं जैसे वे हैं वैसे ही बनने के लिए, 'मद्भाव' के लिए यत्न कर रहे हैं । यह भी श्रद्धा पर निर्भर है । अपनी सचेतन मूल-सत्ता की एक क्रिया तथा उसके सत्य में विश्वास के द्वारा, उसे जीवन में चरितार्थ करने या वही बन जाने के अंतरतम संकल्प के द्वारा ही हम उसे प्राप्त करते हैं; पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह हमसे परे पहले से ही विद्यमान नहीं है । जबतक हम उसे देख नहीं लेते तथा अपने-आपको नये सिरे से उसके रूपमें गढ़ नहीं लेते तबतक वह हमारे बाह्य मनके लिए भले ही अस्तित्व न रखे, तो भी सनातन के अंदर विद्यमान है ही और हम यहाँतक कह सकते हैं कि हमारी अपनी निगूढ़ आत्मा में भी वह पहले से ही विद्यमान है, क्योंकि हममें भी, हमारी गहराइयों में भी पुरुषोत्तम सदा-सर्वदा विद्यमान हैं । हमारा उसमें विकसित होना, हमारा उसे सृष्ट करना हमारे अंदर उनका तथा उसका अभिव्यक्त होना ही है । समस्त सृष्टि सनातन के चिन्मय सत्तत्व से प्रादुर्भूत होती है; अतएव वास्तव में यह उनकी एक अभिव्यक्ति है तथा मूल सर्जनकारी चैतन्य, चित्-शक्ति में विद्यमान एक श्रद्धा, स्वीकृति एवं संभूत होने के एक संकल्प के द्वारा ही उद्भूत होती है ।
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परंतु इस समय हमारा मतलब इस दार्शनिक प्रश्न से नहीं बल्कि इस बात से है कि हमारी सत्ता के इस संकल्प या श्रद्धा का दिव्य प्रकृति की पूर्णता मे विकसित होने की हमारी संभावना के साथ क्या संबंध है । कुछ भी क्यों न हो, यह शक्ति, यह श्रद्धा ही हमारा आधार है । जब हम अपनी कामनाओं के अनुसार जीवन यापन करते हैं, उन्हीं के अनुसार होते और कर्म करते हैं तो वह हमारी श्रद्धा की ही आग्रहपूर्ण क्रिया होती है और वह श्रद्धा अधिकांशमें हमारी प्राणिक और भौतिक, तामसिक और राजसिक प्रकृति से संबंध रखती है । और जब हम शास्त्र के अनुसार अस्तित्व रखने, जीवन यापन करने और कर्म करने की चेष्टा करते हैं तो हम जिस श्रद्धा की आग्रहपूर्ण क्रिया के द्वारा अग्रसर होते हैं वह (यदि वह गतानुगतिक विश्वास मात्न न हो ) उस सात्त्विक प्रवृत्ति से संबंध रखती है जो हमारे राजसिक और तामसिक करणों पर अपनेको लादने के लिए निरंतर प्रयास कर रही है । जब हम इन दोनों चीजों को छोड़ देते हैं और किसी आदर्श के अनुसार या सत्य की किसी अनूठी परिकल्पना के अनुसार रहने, जीवन यापन करने और कर्म करने का यत्न करते है जिसे स्वयं हमने ही आविष्कृत किया है या जिसे हमने व्यक्तिगत रूप से स्वीकार किया है, तो यह भी श्रद्धा की एक आग्रहपूर्ण क्रिया है; इस प्रकार की श्रद्धा हमारे प्रत्येक विचार, संकल्प, भाव और कर्म पर निरंतर नियंत्रण रखनेवाले इन तीन गुणों में से किसी एक के अधीन हो सकती है । और फिर, जब हम दिव्य प्रकृति के अनुसार रहने-सहने, जीने और कर्म करने का यत्न करते हैं, तब भी हमें श्रद्धा की आग्रहपूर्ण क्रिया के द्वारा ही बढ़ना होता है; गीता के अनुसार यह श्रद्धा उस सात्त्विक प्रकृति की श्रद्धा होनी चाहिये जो अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच चुकी हो तथा अपनी कटी-छंटी सीमाओं को पार करने की तैयारी कर रही हो । परंतु इन सब चीजों में तथा इनमें से प्रत्येक में प्रकृति की कोई गति या अवस्थान्तर अंतर्निहित है, ये सब किसी आंतर या बाह्य दोनों क्रियाओं को मानकर चलती हैं । तो फिर इस क्रिया का स्वरूप क्या होगा ? गीता कहती है कि हमारे 'कर्तव्य कर्म' के तीन मुख्य अंग हैं यज्ञ, दान और तप । क्योंकि जब अर्जुन पूछता है कि बाह्य और आंतर त्याग में, 'संन्यास' और 'त्याग' में क्या भेद है तब श्रीकृष्ण आग्रह करते हैं कि वे तीन कर्म कभी नहीं छोड़ने चाहिए, ये तो बराबर करने ही चाहिए, क्योंकि ये हमारे लिए 'कर्त्तव्य कर्म' हैं और ये ज्ञानी लोगों को पवित्र करते हैं । दूसरे शब्दों में ये कर्म हमारी पूर्णता के साधन हैं । पर साथ ही यह बात भी ठीक है कि अज्ञानी जन इन्हें अज्ञानपूर्वक या अपूर्ण ज्ञान के साथ भी कर सकते हैं । समस्त गतिमय क्रिया को मूलत: इन तीन अंगों में विश्लेषित किया जा सकता है । क्योंकि प्रकृति की समस्त गतिमय क्रिया, समस्त
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प्रवृत्ति के अंदर एक ऐच्छिक या अनैच्छिक तपस्या अंतर्भूत रहती है, हमारी शक्तियों या क्षमताओं की या किसी एक क्षमता की तेजस्विता और एकाग्रता रहती है जो हमें कुछ उपलब्ध या अर्जित करने या कुछ बनने में सहायता देती है, वही तप या तपस् है । समस्त क्रिया में, जो कुछ हम हैं या जो कुछ हमारे पास है उसका दान अर्थात् एक प्रकार का व्यय अंतर्निहित रहता है जो उस उपलब्धि का, उस अर्जन या संभूति का मूल्य होता है, वही दान है । समस्त क्रिया में आधिभौतिक शक्तियों या विश्वशक्तियो के प्रति या हमारे कर्मों के परम प्रभु के प्रति एक यज्ञ भी अंतर्गत होता है । प्रश्न यह है कि क्या हम ये कार्य अचेतन एवं निष्क्रिय रूप से करते हैं अथवा अधिक-से-अधिक एक बुद्धिहीन, अज्ञ, अर्धचेतन संकल्प के साथ, या एक ऐसी शक्ति के साथ जो अज्ञानयुक्त या विकृत रूप से चेतन होती है या एक ऐसे संकल्प के साथ जो विज्ञ रूप से चेतन तथा ज्ञान पर सुप्रतिष्ठित होता है, दूसरे शब्दों में, प्रश्न यह है कि क्या हमारा यज्ञ, दान और तप तामसिक प्रकृति के हैं या राजसिक या सात्विक प्रकृति के ।
कारण, यहां की सभी वस्तुएँ, भौतिक वस्तुओं समेत, इन्हीं तीन प्रकार की हैं । उदाहरणार्थ, गीता हमें बताती है कि हमारा भोजन अपने गुण के अनुसार तथा शरीर पर होनेवाले अपने प्रभाव के अनुसार सात्त्विक, राजसिक या तामसिक होता है । हमारी मानसिक और स्थूल देह में जो सात्त्विक प्रकृति होती है वह स्वभावत: ही उन चीजों की ओर मुड़ती है जो आयु, सत्त्व और बल की वृद्धि करती है, मानसिक, प्राणिक और शारीरिक बल को एक साथ बढ़ाती हैं तथा. मन, प्राण और शरीर के सुख, संतोष और प्रसन्नता की वृद्धि करती हैं, जो रसपूर्ण, स्निग्ध, स्थिर और ह्र्ध होती हैं । राजसिक प्रकृति स्वभावत: ही ऐसा आहार पसंद करती है जो अतीव खट्टा, कडुआ, गर्म, तीखा, चरपरा, रूखा, तेज और जलानेवाला होता है; ऐसे खाद्य पदार्थ पसंद करती है जो मन और देह के अस्वास्थ्य तथा दु:ख और शोक को बढ़ाते हैं । तामसिक प्रकृति ठंडे, अपवित्न, बासी, गले-सड़े या नि:स्वाद भोजन में विकृत रस लेती है, अथवा यहाँतक कि पशुओं के समान दूसरों के उच्छिष्ट किये हुए पदार्थों को भी ग्रहण करती है । इन तीन गुणों की क्रिया सर्वव्यापी है । दूसरे छोर पर ये गुण मन और आत्मा की चीजों पर, भी, यज्ञ, दान और तपस्या पर भी इसी प्रकार लागू होते हैं : प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रतीकवाद ने इन तीन चीजों के जिन रूपों की परिकल्पना की थी उन्हीं प्रचलित रूपों के अनुसार गीता इनमें से प्रत्येक के तीन प्रकार के विभाग करती है । परंतु, स्वयं गीता यज्ञ के विचार को जो अत्यंत व्यापक अर्थ प्रदान करती है उसे स्मरण रखते हुए, हम सहज ही इन संकेतों के स्थूल अर्थ को विस्तृत करके
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इनका एक उदारतर मर्म प्रकाशित कर सकते हैं । इस प्रयोजन के लिए इन्हें उलटे क्रम में अर्थात् तम, रज, सत्त्व के क्रम में लेना सुविधाजनक होगा, क्योंकि हम इस विषय पर विचार कर रहे हैं कि किस प्रकार हम अपनी निम्न प्रकृति से बाहर निकलकर एक विशेष प्रकार की सात्त्विक परिणति तथा आत्म-अतिक्रमण में से होते हुए त्निगुण के परे दिव्य प्रकृति और कर्म में आरोहण करते हैं ।
जो कर्म बिना श्रद्धा के किया जाता है, अर्थात् इस प्रकार किया जाता है कि उसमें हमारा कोई पूर्ण सचेतन विचार, स्वीकृति एवं संकल्प नहीं होता और फिर भी प्रकृति जिसे हमसे बरबस करवाती है वह तामसिक यज्ञ है । वह यंत्रवत् किया जाता है, क्योंकि जीवनधारण के लिए उसे करना आवश्यक होता है, क्योंकि वह हमारे सामने आ उपस्थित होता है, और क्योंकि दूसरे लोग उसे करते हैं, अथवा वह इनसे भी बड़ी किसी और ऐसी कठिनाई से बचने के लिए किया जाता है जो उसे न करने से पैदा हो सकती है, या फिर वह किसी अन्य ही तामसिक हेतु से किया जाता है और यदि हमारे अंदर इस प्रकार का स्वभाव परिपूर्ण रूप से हो तो यह भी संभव है कि हम वह कार्य असावधानतापूर्वक, उदासीन भाव से तथा गलत ढंग से करें । वह विधि के अनुसार अर्थात् शास्त्र के यथार्थ विधान के अनुसार नहीं किया जायगा, उसकी क्रिया-प्रक्रिया उस यथायथ विधिके अनुसार परिचालित नहीं होगी जो जीवन की कला और विधान के द्वारा तथा करणीयि कर्म के सच्चे विज्ञान के द्वारा निर्धारित है । उस यज्ञ में हव्य-दान नहीं किया जायगा,-- और भारतीय कर्मकांड में यह क्रिया एक साहाय्पप्रद दान का प्रतीक है, यह दान-तत्त्व वास्तविक यज्ञ कहानेवाले प्रत्येक कर्म के अंदर निहित है, दूसरों को दिया जानेवाला यह दान एक अनिवार्य वस्तु है, यह दूसरों की एवं जगत् की फलप्रद सहायता है जिसके बिना हमारा कर्म एक सर्वथा स्वार्थपूर्ण वस्तु बन जाता है और वह एकसूत्रता तथा आदान-प्रदान के सच्चे विश्व-विधान का उल्लंघन करने-वाला होता है । वह कर्म उस दक्षिणा के बिना संपन्न किया जायगा जो कि यज्ञीय कर्म के पुरोहितों को देने योग्य एक अत्यावश्यक दान या आत्मदान है, भले ही वह अपने कर्म के किसी बाह्य मार्गदर्शक एवं सहायक को दिया जाय या अपने अंदर विद्यमान प्रच्छन्न या व्यक्त भगवान् को । वह बिना मंन्त्र के अर्थात् बिना समर्पणात्मक विचार के किया जायगा । मंन्त्र हमारे उस संकल्प तथा ज्ञान की पावन देह है जो हमारे यज्ञ के उपास्य देवों की ओर ऊपर उठे होते हैं । तामसिक मनुष्य अपना यज्ञ देवताओं को नहीं, बल्कि निम्न आधिभौतिक शक्तियों को या पर्दे के पीछे अवस्थित उन स्थूलतर प्रेतात्माओं को अर्पित करता है जो
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उसके कार्यों के द्वारा अपना भोग-साधन करते हैं तथा उसके जीवन को अपने अंधकार के द्वारा आच्छन्न कर देते हैं ।
राजसिक मनुष्य अपना यज्ञ निम्न कोटि के देवताओं या विकृत शक्तियों, यक्षों, ऐश्वर्य के रक्षकों, या आसुरी एवं राक्षसी शक्तियों के उद्देश्य से करता है । उसका यज्ञ बाहर से शास्त्र के अनुसार अनुष्ठित हो सकता है, पर उस यज्ञ का प्रेरक भाव होता है दम्भ, मद या अपने कर्म के फल की प्रबल तृष्णा, अपने कर्मों के पुरस्कार के लिए प्रचंड माँग । अतएव जो भी कर्म उग्र या अहंमय व्यक्तिगत कामना से या वैयक्तिक उद्देश्यों के हित अपनेको जगत् पर थोपने में लगे हुए दंभपूर्ण संकल्प से उद्भूत हो वह राजसिक प्रकृति का है, भले ही वह प्रकाश के चिह्नों से अपनेको आवृत क्यों न किये हो, भले ही बाहरी तौर से वह यज्ञ के रूप में क्यों न किया जाय । यद्यपि देखने में वह परमेश्वर या देवताओं को अर्पित किया जाता है, तथापि मूलत: वह आसुरी कर्म ही होता है । हमारे कर्मों का मूल्य केवल उनकी प्रतीयमान बाह्य दिशा से ही निर्धारित नहीं होता, न वह उन देवताओं के द्वारा निर्धारित होता है जिनके नाम की दुहाई देकर हम अपने कर्मों का अनुमोदन कर सकते हैं और न ही उस सच्चे बौद्धिक विश्वास के द्वारा जो उनके अनुष्ठान में हमारा समर्थन करता प्रतीत होता है, बल्कि वह निर्धारित होता है आंतरिक वृत्ति के द्वारा, आंतरिक प्रेरणा और दिशा के द्वारा । जहाँ कहीं हमारे कर्मों में अहंभाव की प्रधानता होती है, वहाँ हमारा कर्म राजसिक यज्ञ बन जाता है । इसके विपरीत, सच्चे सात्त्विक यज्ञ के तीन विशेष लक्षण हैं जो उसके विशिष्ट स्वरूप की मौन मुद्रा होते हैं । सर्वप्रथम, वह एक कार्य-साधक सत्य के द्वारा प्रेरित होता है, वह विधि के अनुसार अर्थात् हमारे कर्मों की समुचित नीति और यथायथ नियम-पद्धति के अनुसार, उनके यथार्थ लयताल एवं विधान तथा उनकी सच्ची प्रणाली एवं उनके धर्म के अनुसार संपन्न किया जाता है । इसका मतलब यह है कि हमारी बुद्धि और प्रदीप्त संकल्प उनकी क्रिया-प्रक्रिया तथा उनके उद्देश्य का निर्देशन और निर्धारण करते हैं । दूसरे, वह एक ऐसे मन के द्वारा किया जाता है जो सच्चे यज्ञ के रूप में करने योग्य कर्म के विचार पर स्थिर और एकाग्र होता है, वह यज्ञ हमारे जीवन के परिचालक दिव्य विधान के द्वारा हमपर लादा जाता है और इसीलिए उसका अनुष्ठान एक उच्च आंतरिक बाध्यता या अपरिहार्य सत्य के अनुसार तथा वैयक्तिक फल की कामना के बिना किया जाता है,--उस कर्म का प्रेरक भाव तथा उसके अंदर उँडेली गयी शक्ति का स्वभाव जितना ही अधिक निर्वैयक्तिक होता है, वह कर्म उतना ही अधिक सात्त्विक प्रकृति का होता है । और उसका अंतिम लक्षण
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यह है कि वह निःशेष रूप से देवताओं को अर्पित किया जाता है; वह उन दिव्य शक्तियों के द्वारा स्वीकार्य होता है जो सत्ता के स्वामी के छद्मरूप तथा व्यक्तित्व हैं और अतएव, उन्हीं के द्वारा जगत्-प्रभु इस जगत् का परिचालन करते हैं ।
सुतरां, गीता जिस आदर्श की तथा जिस प्रकार के कर्म को माँग करती है, यह सात्त्विक यज्ञ उसके अत्यंत निकट है और यह उसकी ओर सीधे ही ले जाता है; पर यह चरम और परम आदर्श नहीं है, यह अभी उन सिद्ध पुरुष का कर्म नहीं है जो दिव्य प्रकृति में निवास करते हैं । कारण, यह एक सुनियत धर्म के रूप में संपन्न किया जाता है, साथ ही यह देवताओं के प्रति, हमारे अंदर या विश्व के अंदर अभिव्यक्त भगवान् की किसी आंशिक शक्ति या रूप के प्रति यज्ञ या सेवा के रूप में अर्पित किया जाता है । नि :स्वार्थ धार्मिक विश्वास के साथ अनुष्ठित कर्म या स्वार्थ-रहित भाव से मानवजाति के लिए अनुष्ठित कर्म अथवा न्याय या सत्य के प्रति निष्ठा से प्रेरित होकर निर्वैयक्तिक भाव से अनुष्ठित कर्म सात्त्विक प्रकृति का होता है, और इस प्रकार का कर्म हमारी पूर्णता के लिए आवश्यक है; क्योंकि यह हमारे विचार, संकल्प तथा प्राकृत उपादान को शुद्ध करता है । परंतु सात्त्विक कर्म की जिस सर्वोच्च परिणति तक हमें पहुँचना है वह और भी वृहत्तर तथा मुक्ततर कोटि की है; वह एक उच्च कोटि का चरम यज्ञ है जिसे हम पुरुषोत्तम को उपलब्ध करने की अभीप्सा के साथ या सत् मात्र में वासुदेव के दर्शन करते हुए परम और समग्र भगवान् के प्रति निवेदित करते हैं; वह एक ऐसा कर्म है जो निर्वैयक्तिक एवं विश्वगत भाव से, जगत् के मंगल के लिए तथा विश्व में भगवत्संकल्प को परिपूर्त्ति के निमित्त किया जाता है । वह परिणति फिर अपनेसे भी परे, अमृत धर्म की ओर ले जाती है । क्योंकि तभी वह मुक्ति प्राप्त होती है जिसमें न तो कोई वैयक्तिक कर्म है, न धर्म का सात्त्विक नियम और न शास्त्र की मर्यादा । वहाँ स्वयं निम्न बुद्धि और संकल्प भी अतिक्रांत हो जाते हैं और उनकी जगह एक उच्चतर प्रज्ञा हमारे कर्म को प्रेरित और परिचालित करती है तथा हमें अधिकारपूर्ण उसके लक्ष्य की ओर ले चलती है । तब वैयक्तिक फल का कोई प्रश्न ही नहीं रहता; क्योंकि जो संकल्प कर्म करता है वह हमारा अपना नहीं, बल्कि एक परमोच्च संकल्प होता है, हमारी अंतरात्मा तो उसका एक यंत्न मात्र होती है । वहाँ न कोई स्वार्थपरता होती है न नि:स्वार्थता; क्योंकि जीव, भगवान् का शाश्वत अंश, अपनी सत्ता की सर्वोच्च आत्मा के साथ युक्त हो चुका होता है, और उस आत्मा तथा परम सत्ता में वह तथा सभी एक हैं । तब वैयक्तिक कर्म का अस्तित्व नहीं रहता, क्योंकि सभी कर्म अपने कर्मों के प्रभु के प्रति उत्सर्ग कर दिये जाते हैं और तब वही हमारी
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दिव्यीकृत प्रकृति के द्वारा कर्म करते हैं । वहाँ कोई यज्ञ भी नहीं होता,--हां, हम यह अवश्य कह सकते हैं कि यज्ञ के अधीश्वर जीव में विद्यमान अपनी शक्ति के कर्मों को अपनी ही विश्वरूपमय सत्ता के प्रति अर्पित कर रहे होते हैं । यज्ञरूप कर्म के द्वारा आत्म-अतिक्रमण की जो परमोच्च स्थिति प्राप्त होती है वह यही है, जो जीव दैवी प्रकृति में अपना पूर्ण चैतन्य लाभ कर लेता है उसकी सिद्ध अवस्था यही है ।
तामसिक तपस्या वह है जो एक अज्ञानाच्छन्न और भ्रांत विचार के वश, एक दृढ़ और अटल भ्रांति से युक्त विचार के वश की जाती है, जो किसी पोषित असत्य के प्रति अज्ञ श्रद्धा के द्वारा समर्थित होती है, जो किसी सच्चे या महान् लक्ष्य से कुछ भी संबंध न रखनेवाले एक संकीर्ण, जघन्य और अहंकारमय उद्देश्य के हित बलात् प्रयास करते हुए तथा अपनेको कष्ट पहुँचाते हुए या फिर अपनी सारी शक्ति दूसरों का अनिष्ट करने के संकल्प में लगाते हुए की जाती है । जो चीज इस प्रकार के शक्ति-प्रयोग को तामसिक बनाती है वह कोई जड़ता का तत्त्व नही, क्योंकि जड़ता तपस्या से विजातीय वस्तु है, बल्कि इसे तामसिक बनानेवाली चीजें हैं मन और प्रकृति का अंधकार, अनुष्ठान की एक जघन्य क्षुद्रता तथा कुरूपता अथवा लक्ष्य या प्रेरक भाव में एक पाशविक प्रवृत्ति या वासना । राजसिक तपस्या उन अनुष्ठानों को कहते हैं जो मनुष्यों से मान और पूजा प्राप्त करने के निमित्त, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, बाह्य यश और महत्ता के लिए या अहमात्मक संकल्प एवं अभिमान के अनेकानेक हेतुओं में से किसी अन्य हेतु से किये जाते हैं । इस प्रकार का तप विशेष-विशेष क्षणिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है जो जीव के ऊर्ध्वमुख विकास और पूर्णता में कुछ भी योगदान नहीं करते; यह एक ऐसी वस्तु है जो किसी निर्दिष्ट एवं सहायक नीति से रहित है, एक ऐसी शक्ति है जो परिवर्तनशील एवं नश्वर निमित्त के साथ बँधी हुई है और स्वयं भी उसी प्रकार की है । अथवा, यद्यपि इसमें कोई अधिक आभ्यंतरिक तथा श्रेष्ठ उद्देश्य दिखायी दे भी, यद्यपि इसमें श्रद्धा और संकल्प उच्चतर कोटि के हों भी, तथापि यदि किसी प्रकार का दंभ या अहंकार या कोई अत्यंत तीव्र एवं प्रबल 'काम' या राग इसमें प्रविष्ट हो जाय, अथवा यदि यह किसी ऐसे उग्र, विधिहीन या घोर कर्म में प्रवृत्त करे जो शास्त्र के विरुद्ध हो, जीवन और कर्म-कलाप के यथायथ नियम के विपरीत हो, अपनेको तथा दूसरों को कष्ट देनेवाला हो, या यदि यह आत्म-पीड़न के ढंग का तथा मन; प्राण और शरीर को क्लेश पहुँचानेवाला हो या हमारे आंतरिक सूक्ष्म शरीर में अवस्थित भगवान् को उत्पीड़ित करनेवाला हो तब भी यह अज्ञानपूर्ण, आसुरी, राजसिक या राजस-तामसिक तपस्या है ।
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सात्त्विक तपस्या वह है जो उच्चतम आलोकित श्रद्धा के साथ, गंभीरता के साथ अंगीकृत कर्तव्य के रूप में या किसी नैतिक या आध्यात्मिक या अन्य उच्चतर हेतु से तया कर्म के किसी बाह्य या संकीर्ण एवं व्यक्तिगत फल की कामना के बिना की जाती है । वह आत्म-अनुशासन के ढंग की होती है और आत्म-संयम तथा प्रकृति के सामंजस्य-साधन की मांग करती है । गीता ने तीन प्रकार के सात्त्विक तप का निरूपण किया है । पहला है शारीरिक तप, बाह्य कर्म का तप; इस श्रेणी के अंतर्गत, विशेष रूप से, इन चीजों का उल्लेख किया गया है--पूजनीयों की पूजा और मान; शरीर, कर्म और जीवन की शुद्धि, सरल व्यवहार, ब्रह्मचर्य, दूसरों की हिंसा और अपकार का परित्याग, 'अहिंसा' । दूसरा है वाणी का तप, और उसके अंतर्गत हैं-स्वाध्याय, सत्य, प्रिय और हितकर वचन, दूसरों के अंदर भय, दुःख और उद्वेग उत्पन्न करनेवाले वचनों का सतर्कतापूर्वक परित्याग । अंतिम है मानसिक तथा नैतिक पूर्णता का तप, और उसका अर्थ है संपूर्ण स्वभाव की शुद्धि, सौम्यता, मन:प्रसाद, आत्म-विनिग्रह और मौन । इसमें वे सभी चीजें समाविष्ट हो जाती हैं जो राजसिक एवं अहमात्मक प्रकृति को शांत या अनुशासित करती हैं और वे सब भी जो इसके स्थान पर शुभ और पुण्य के प्रसन्न और शांत तत्त्व की प्रतिष्ठा करती हैं । यह सात्त्विक धर्म का तप है जिसे प्राचीन भारतीय संस्कृति की विधि-व्यवस्था में इतना अधिक समादृत किया गया है । इसकी महत्तर परिणति होगी--बुद्धि और संकल्प की उच्च पवित्रता, आत्मा की समता, गभीर शांति और स्थिरता, व्यापक सहानुभूति तथा एकत्व-साधना, मन, प्राण और शरीर के अंदर अंतःपुरुष के दिव्य प्रसाद की प्रतिच्छाया । उस उच्च शिखर पर नैतिक आदर्श एवं स्वभाव आध्यात्मिक आदर्श और स्वभाव में परिणत हो जाता है । और यह परिणति भी अपनेको अतिक्रम कर सकती है, यह भी एक उच्चतर और मुक्ततर ज्योति में उन्नीत की जा सकती है तथा परा प्रकृति की सुप्रतिष्ठित दैवी शक्ति में परिणत हो सकती है । और तब जो कुछ शेष रहेगा वह होगा आत्मा का परिपूत तप, सत्ता के सभी अंगों में एक उच्चतम संकल्प एवं ज्योतिर्मय शक्ति, जो विशाल और ठोस शांति तथा गभीर एवं विशुद्ध आध्यात्मिक आनंद में कार्य करेगी । तब फिर तप की और आवश्यकता नहीं रहेगी, कोई तपस्या नहीं रहेगी, क्योंकि सब कुछ सहज-स्वाभाविक रूप से दिव्य होगा, सब कुछ वह तपस् ही होगा । वहाँ नीचे की शक्ति की कोई पृथक् प्रचेष्टा नहीं रहेगी, क्योंकि प्रकृति की शक्ति पुरुषोत्तम के परात्पर संकल्प में अपना सच्चा उद्गम और आधार प्राप्त कर चुकी होगी । तब, इस उच्च स्रोत से प्रवर्तित होने के कारण, इस शक्ति की क्रियाएँ निम्नतर स्तरों पर भी एक सहजात पूर्ण
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संकल्प से तथा एक अंतर्निहित पूर्ण मार्गनिर्देशक के द्वारा स्वाभाविक एवं स्वतः-स्फूर्त रूपमें निःसृत होंगी । वर्तमान धर्मों में से किसी का भी बंधन नहीं रहेगा; क्योंकि वहाँ होगा एक मुक्त कर्म जो राजसिक और तामसिक प्रकृति से बहुत ऊपर तो होगा ही पर साथ ही कर्म के सात्त्विक नियम की अति-सतर्क और संकीर्ण सीमाओं से भी बहुत परे होगा ।
तपस्या की भांति समस्त दान भी अज्ञ तामसिक, बाह्याडंबरपूर्ण राजसिक या निःस्वार्थ और ज्ञानदीप्त सात्त्विक प्रकृति का होता है । तामसिक दान समुचित देश, काल और पात्र का विचार किये बिना अज्ञानपूर्वक दिया जाता है; वह एक मूर्खतापूर्ण, विवेकहीन और वस्तुत: स्वार्थपूर्ण क्रिया होती है, वह एक अनुदार तथा निकृष्ट त्याग होता है, एक ऐसा दान होता है जो बिना सहानुभूति या सच्ची उदारता के और लेनेवाले की भावनाओं का ध्यान रखे बिना ही दिया जाता है तथा जो उसके द्वारा स्वीकार करते समय भी अवज्ञा की दृष्टि से देखा जाता है । राजसिक कोटि का दान वह है जो अनुताप के साथ, अनिच्छा-पूर्वक या अपने ऊपर जोर-जबर्दस्ती करके या किसी व्यक्तिगत एवं अहंभावमय उद्देश्य से अथवा किसी भी दिशा से किसी प्रकार के प्रत्युपकार की आशा से या लेनेवाले की ओर से अपने-आपको एक तुल्य या महत्तर प्रतिफल मिलने की आशा से किया जाता है । सात्त्विक प्रकार का दान वह है जो यथायथ बुद्धि, सदिच्छा तथा सहानुभूति के साथ, समुचित देश-काल को देखकर एक ऐसे सत्पात्र को अर्पित किया जाता है जो दान के योग्य होता है या जिसके लिये दान वस्तुत: उपकारी हो सकता है । ऐसा दान-कार्य दान तथा उपकार के लिए ही किया जाता है, उप-कृतके द्वारा पहले किये गये या आगे किये जानेवाले अपने उपकार को दृष्टि में रखकर नहीं, किसी व्यक्तिगत उद्देश्य से नहीं । सात्त्विक प्रकार के दान की पराकाष्ठा कर्म के अंदर दूसरों के प्रति, जगत् तथा परमेश्वर के प्रति एक व्यापक आत्मदान एवं आत्म-समर्पण के तत्त्व को क्रमश: अधिकाधिक ले आयगी; गीता में जिस कर्मयज्ञ का विधान किया गया है वह इस प्रकार का उच्च उत्सर्ग ही है । दिव्य प्रकृति में ऊर्ध्यतम स्थिति आत्म-दान की महत्तम परिपूर्णता होगी जो जीवन के विशालतम अर्थ पर आधारित होगी । इस संपूर्ण नानारूप विश्व की उत्पत्ति और अनवरत स्थिति का मूल यह है कि परमेश्वर अपने-आप तथा अपनी शक्तियों का दान करते हैं तथा इन सब भूतभावों के अंदर अपनी सत्ता और आत्मा को मुक्त-हस्त हो प्रवाहित करते हैं; वेद में कहा है कि विश्व-सत्ता पुरुष का यज्ञ है । सिद्ध जीव का भी समस्त कर्म होगा-अपना तथा अपनी शक्तियों का इसी प्रकार अखंड रूप से दिव्य दान करना, भगवान् के अंदर तथा
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उनके प्रभाव और प्रेरणा के द्वारा उसने जो ज्ञान, ज्योति, बल, प्रेम, हर्ष साहाय्य-प्रद शक्ति उपलब्ध की है उसे अपने चारों ओर सबके ऊपर, उनकी ग्रहण-सामर्थ्य के अनुसार उंडेल देना, अथवा इस समस्त जगत् तथा इसके प्राणियों पर प्रवाहित कर देना । अपनी सत्ता के स्वामी के प्रति जीव के समग्र आत्मदान का संपूर्ण परिणाम यही होगा ।
जिस चर्चा के साथ गीता इस अध्याय का उपसंहार करती है वह प्रथम दृष्टि में दुर्बोध प्रतीत होती है । वह कहती है ओम्, तत्, सत्-यह सूत्र उन ब्रह्म की त्रिविध परिभाषा है जिन्होंने पुराकाल में ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों की सृष्टि की थी और इसी सूत्र में उनका समस्त हार्द निहित है । 'तत्' निरपेक्ष सत्ता का द्योतक है । 'सत्' परम और विश्वमय सत्ता के मूलतत्त्व का द्योतक है । 'ओम्' त्रिविध ब्रह्म का, बहिर्मुख, अन्तर्मुख या सूक्ष्म तथा अतिचेतन कारण-पुरुषका प्रतीक है । अ, उ, म्-प्रत्येक अक्षर इन तीनमें से एक-एक को आरोहण-क्रम में द्योतित करता है और अपने समूचे रूप में यह पद उस तुरीय अवस्था का बोधक है जो निरपेक्ष सत्ता की ओर उठ जाती है । ओम् श्रीगणेश करने का पद है जो समस्त यज्ञ, समस्त दान, समस्त तप के आरंभ में मंगलाचरण तथा अनुमति के रूपमें उच्चारित किया जाता है; यह इस बात को स्मरण कराता है कि हमें अपने कर्म को अपनी अंत:सत्ता में त्निविध भगवान् का प्रकाश करनेवाला बनाना होगा और उसे अपनी भावना तथा लक्ष्य में भगवान् की ओर ही फेरना होगा । मुमुक्षुजन इन कर्मों को फल की कामना के बिना और केवल अपनी प्रकृति के पीछे अवस्थित निरपेक्ष भगवान् की परिकल्पना, अनुभृति और उनके आनंद के साथ ही संपन्न करते हैं । अपने कर्मों की इस पवित्रता एवं निर्वैयक्तिकता के द्वारा, इस उच्च निष्कामता, इस बृहत् अहंशून्यता तथा आध्यात्मिक समृद्धि के द्वारा वे इन भगवान् की ही खोज करते हैं । सत् का अर्थ शुभ भी है और वस्तु-सत्ता भी । ये दोनों चीजें, शुभ का तत्व और वस्तु-सत्ता का तत्व इन तीनों प्रकार के कर्मों के पीछे अवश्य होने चाहियें । सभी शुभ कर्म सत् हैं, क्योंकि वे जीव को हमारी सत्ता के उच्चतर सत्स्वरूप के लिए तैयार करते हैं; यज्ञ, दान और तप में दृढ़ निहठा, और उस प्रधान लक्ष्य को दृष्टि में रखकर यज्ञ, दान और तप के रूप में किये गये समस्त कर्म सत् हैं, क्योंकि वे हमारी आत्मा के उच्चतम सत्य के लिये आधार निर्मित करते हैं । और क्योंकि श्रद्धा हमारी सत्ता का केंद्रीय तत्त्व है, इनमें से कोई चीज यदि बिना श्रद्धा के की जाय तो वह मिथ्या होती है, इहलोक में या परतर लोकों में उसका कोई सत्य अर्थ या सत्य सार नहीं होता, इह-जीवन में या मर्त्य जीवन के पश्चात् हमारी चिन्मय आत्मा के महत्तर लोकों में टिके रहने या
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सूजन करने के लिए उसमें कोई सत्य या शक्ति नहीं होती । अंतरात्मा की श्रद्धा,--कोरा बौद्धिक विश्वास नहीं बल्कि जानने, देखने, विश्वास करने तथा अपनी दृष्टि और ज्ञान के अनुसार कर्म करने तथा अपनेको गढ़ने के लिए अंतरात्मा का एकाग्र संकल्प ही अपनी शक्ति के द्वारा हमारे विकास की संभावनाओं का मान निर्धारित करता है, और जब यह श्रद्धा एवं संकल्प,--हमारी संपूर्ण बाह्यान्तर सत्ता, प्रकृति और कर्म सहित,--उस सबकी ओर मुड़ जायगा जो उच्चतम, दिव्यतम, सत्यतम और शाश्वत है, तो यही हमें परम सिद्धि की प्राप्ति में भी समर्थ बना देगा ।
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