गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

उपदेश का सारमर्म

 

हम जानते हैं कि गीता में गुरु भगवान् हैं और हम देखते है कि शिष्य मानव है; अब यह बाकी है कि हमें गीता की शिक्षा की स्पष्ट धारणा हो जाय । यह स्पष्ट धारणा ऐसी होनी चाहिये कि गीता की मुख्य शिक्षा, उसका सारमर्म हमारी समझ में आ जाय, क्योंकि गीता में बहुमूल्य और बहुमुखी विचार होने के कारण तथा इसमें आध्यात्मिक जीवन के नानाविध पहलुओं का समालिंगन होने और इसका प्रतिपादन वेगयुक्त चक्राकार गति से होने के कारण सहज ही ऐसा हो जाता है कि लोग इसकी शिक्षा का, अन्य सद्ग्रंथों की अपेक्षा भी अधिक मात्रा में, पक्षपातयुत बुद्धि से पैदा हुआ एकपक्षीय भ्रांत निरूपण करने लगते हैं । किसी तथ्य, शब्द या भावना को ग्रंथ के अभिप्रेत तात्पर्य से, जाने-बेजाने अलग करके उससे अपने किसी पूर्वगृहीत विचार या शिक्षा अथवा अपनी पसंद का कोई सिद्धान्त स्थापित करना भारतीय नैयायिकों की दृष्टि में हेत्वाभास का एक बड़ा ही सुगम प्रवंचक प्रकार है; और शायद यह प्रकार ऐसा है कि अत्यंत सावधान रहनेवाले दार्शनिक के लिए भी इससे बचना बड़ा कठिन होता है । कारण इस विषय में मनुष्य की बुद्धि अपना दोष आप ही ढूंढ निकालने की सावधानी सदा रख सकने में असमर्थ होती है; उसका स्वभाव ही किसी एकतरफा सिद्धान्त, विचार या तत्व को ग्रहण कर उसीका मंडन करने और उसीको संपूर्ण सत्य के पाने की कुंजी बना लेने का होता है और इस स्वभाव में अपने-आपको बढ़ाने की वृत्ति होती है जिसका कोई अंत नहीं है । अर्थात् मनुष्य-बुद्धि में यह स्वरूप गत और पालित-पोषित दोष है, अपने कार्य में इस दोष को ढूंढ निकालने से इसकी दृष्टि फिरी रहती हे । गीता के संबंध में इस प्रकार की गलती सहज रूप से होती है, क्योंकि इसके किसी भी एक पहलू को लेकर उसी पर खास जोर देकर अथवा इसके किसी खास जोरदार श्लोक को लेकर उसीको आगे बढ़ाकर अठारहों अध्यायों को पीछे धकेलकर या उन्हें गौण और सहायक रूप करार देकर गीता को अपने ही मत या सिद्धान्त का पोषक बना लेना आसान है ।

इस प्रकार कुछ लोगों का कहना है कि गीता में कर्म-योग का प्रतिपादन

 

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ही नहीं है, बल्कि वे इसकी शिक्षा को संसार और सब कर्मों के संन्यास के लिये तैयार करनेवाली एक साधना मानते हैं; नियत कर्मों को अथवा जो कोई कर्म सामने आ पड़े उसको उदासीन होकर करना ही साधन या साधना है; संसार और सब कर्मों का अंत में संन्यास ही एकमात्र साध्य है । गीता से ही जहाँ-तहाँ के श्लोक लेकर और गीता की विचार-पद्धति में जहाँ-तहाँ थोड़ी खींचतान करके इस बात को प्रमाणित करना सरल है और जब गीता में संन्यास शब्द के विशेष प्रयोग की ओर से हम आँखें फेर लेते हैं तब तो यह काम और भी आसान हो जाता है । परन्तु इस मत का आग्रह तब नहीं ठहर सकता जब कोई पक्षपात रहित होकर देखता है कि ग्रंथ में अंत तक बार-बार यही कहा जा रहा है कि अकर्म की अपेक्षा कर्म ही श्रेष्ठ है और कर्म की श्रेष्ठता इस बात में है कि इसमें वास्तविक रूप से समत्व के द्वारा कामना का आंतरिक त्याग करके कर्म परम- पुरुष को अर्पण करना होता है ।

फिर कुछ लोग कहते हैं कि गीता का संपूर्ण अभिप्राय भक्ति-तत्व का प्रतिपादन है । ये लोग गीता के अद्वैत तत्वों की, और इसमें सबके एक आत्मा ब्रह्म में शांत भाव से निवास करने की स्थिति को जो ऊँचा स्थान दिया गया है उसकी, अवहेलना करते है । इसमें संदेह नहीं कि गीता में भक्ति पर बड़ा जोर दिया गया है, बारंबार इस बात को दुहराया गया है कि भगवान् ही ईश्वर और पुरुष हैं, और फिर गीता ने पुरुषोत्तम सिद्धान्त स्थापित कर यह स्पष्ट कर दिया है कि भगवान् पुरुषोत्तम हैं, उत्तम पुरुष हैं अर्थात् क्षर पुरुष के परे और अक्षर पुरुष से भी श्रेष्ठ हैं और वही हैं जिन्हें जगत् के सम्बन्ध से हम ईश्वर कहते हैं, गीता की ये सब बातें बड़े मार्के की हैं, मानो उसकी जान हैं । तथापि ये ईश्वर वह आत्मा हैं, जिनमें संपूर्ण ज्ञान की परिपूर्ति होती है, ये ही यज्ञ के प्रभु हैं, सब कर्म हमें इन्हीं के पास ले जाते हैं और ये ही प्रेममय स्वामी हैं जिनमें भक्त हृदय प्रवेश करता है । गीता इन तीनों में संतुलन रखती है । कहीं ज्ञान पर जोर देती है, कहीं कर्म पर और कहीं भक्ति पर, परन्तु यह जोर उसके तात्कालिक विचार-प्रसंग से सम्बन्ध रखता है, इस मतलब से नहीं कि इनमें से कोई किसी से सर्वथा श्रेष्ठ या कनिष्ठ है । जिन भगवान् में ये तीनों मिलकर एक हो जाते हैं वे ही परम पुरुष हैं पुरुषोत्तम हैं ।

परन्तु आजकल अर्थात् जबसे आधुनिकों ने गीता को मानना और उसपर कुछ विचार करना आरम्भ किया है तबसे लोगों का झुकाव गीता के ज्ञानतत्व और भक्तितत्व को गौण मानकर, उसके कर्म-विषयक लगातार आग्रह का लाभ उठाकर उसे एक कर्मयोग-शास्त्र कर्म-मार्ग में ले जानेवाला प्रकाश, कर्म-विषयक

 

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सिद्धान्त ही मानने की ओर दिखायी देता है । इसमें संदेह नहीं कि गीता कर्म-योग-शास्त्र है, पर उन कर्मों का जो ज्ञान में अर्थात् आध्यात्मिक सिद्धि में और शांति में परिसमाप्त होते हैं, उन कर्मों का जो भक्ति-प्रेरित हैं, अर्थात् यह वह ज्ञानयुक्त सचेतन शरणागति है जिसमें भक्त कर्मी अपने-आपको पहले भगवान् के हाथों में सौंप देता है और फिर भगवान् की सत्ता में प्रवेश करता है, यह उन कर्मों का शास्त्र हर्गिज नहीं है जिन्हें आधुनिक मन कर्म मान बैठा है, उन कर्मों का बिलकुल नहीं जो अहंकार और परोपकार के भाव से किये जाते हैं या जो वैयक्तिक, सामाजिक और भूतदया के विचारों, सिद्धान्तों और आदर्शों से प्रेरित होते है । फिर भी गीता के आधुनिक टीकाकार यही दिखाना चाहते हैं कि गीता में कर्म का आधुनिक आदर्श ग्रहण किया गया है । कितने ही अधिकारी पुरुषों द्वारा लगातार यह कहा जाता है कि भारतीय विचार और आध्यात्मिकता की जो सामान्य प्रवृत्ति है कि मनुष्य को वैरागी और शान्तिकामी निवृत्तिमार्गी बना दे, उसका गीता विरोध करती है, यह स्पष्ट शब्दों में कर्म के मानव सिद्धान्त का, अर्थात् सामाजिक कर्तव्यों को निःस्वार्थ भाव से करने के आदर्श का, इतना ही नहीं, बल्कि समाजसेवा के सर्वथा आधुनिक आदर्श का भी प्रतिपादन करती है । इन सब बातों का उत्तर मेरे पास इतना ही है कि गीता में, स्पष्ट ही, और केवल इसका ऊपरी अर्थ ग्रहण करते हुए भी, इस तरह की कोई बात नहीं है, यह केवल आधुनिकों की समझ का फेर है, कुछ-का-कुछ समझ लेना है, यह एक प्राचीन ग्रंथ को अर्वाचीन बुद्धि से समझने का फल है, सर्वथा पुरातन, प्राच्य और भारतीय शिक्षा को वर्तमान यूरोपीय या यूरोपीयकृत बुद्धि से जानने की व्यर्थ चेष्टा है । गीता जिस कर्म का प्रतिपादन करती है वह मानव-कर्म नहीं बल्कि दिव्य कर्म है, सामाजिक कर्तव्यों का पालन नहीं बल्कि कर्तव्य और आचरण के अन्य सब पैमानों को त्यागकर अपने स्वभाव के द्वारा कर्म करनेवाले भागवत संकल्प का निरहंकार निर्मम आचरण है, समाजसेवा नहीं, बल्कि श्रेष्ठ, भगवत्-अधिकृत महापुरुषों का कर्म है जो नाहंकृत भाव से संसार के लिये उन भगवान् की प्रीतिपूजा के तौर पर यज्ञ-रूप से किया जाता है जो मनुष्य और प्रकृति के पीछे सदा विद्यमान हैं ।

दूसरे शब्दों में कहें तो, गीता नीतिशास्त्र या आचारशास्त्र का ग्रंथ नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक जीवन का ग्रंथ है । आधुनिकों की बुद्धि वर्तमान समय में यूरोपीय बुद्धि है जो अपने मूल सूत्र-स्वरूप यूनानी-रूमी संस्कृति की परमोच्च अवस्था के दार्शनिक आदर्शवाद का ही नहीं, बल्कि मध्यकालीन युग के ईसाई भक्तिवाद का भी परित्याग करके ऐसी बन गयी है । दार्शनिक आदर्शवाद

 

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और भक्तिवाद के स्थान पर इसने व्यावहारिक आदर्शवाद और समाजसेवा, देशसेवा और मानवसेवा का भाव ला बैठाया है । ईश्वर से इसने छुटकारा पा लिया है अथवा यह कहिये कि ईश्वर को केवल रविवार की छुट्टी के लिये रख छोड़ा है और ईश्वर के स्थान पर देवरूप से मनुष्य को और प्रत्यक्ष पूज्य प्रतिमा रूप से समाज को प्रतिष्ठित किया है । अपनी सर्वोत्तम अवस्था में यह व्यवहार्य, नैतिक और सामाजिक है, इसमें कर्म निष्ठा है, परोपकार की और मनुष्य-जाति को सुखी करने की अभिलाषा है । ये सब बातें बहुत अच्छी हैं, आजकल इनकी खास आवश्यकता भी है, और ये भगवत्संकल्प का ही एक अंश हैं, क्योंकि यदि ये भगवत्संकल्प के अंग न होतीं तो मनुष्य-जाति में इन्हें इतनी प्रधानता प्राप्त न होती । और, इसका कोई कारण नहीं है कि जिस मनुष्य ने भागवत स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो, जो ब्राह्मी-स्थिति की चिन्मय अवस्था में तथा भागवत सत्ता में रहता हो, उसके कर्म में ये सब बातें न हो, बल्कि यदि यही युगधर्म हो, ये ही काल-विशेष की सबसे उत्कृष्ट ध्येय वस्तुएँ हों, और उस समय इनसे बड़ी और कोई चीज न हो, कोई महत् आमूल परिवर्तन न होना हो तो ये सब बातें उसके कर्म में अवश्य रहेंगी । कारण, जैसा कि भगवान् अपने शिष्य से कहते हैं, वह पुरुष श्रेष्ठ है और उसे ऐसा आचरण करके दिखाना है जो दूसरों के लिये प्रमाण स्वरूप हो, और सचमुच अर्जुन से जो बात कही जा रही है वह यही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट आदर्श और तत्कालीन संस्कृति के अनुसार आचरण करे, पर ज्ञानयुक्त होकर करे, उस वस्तु को जानकर करे जो इन सबके पीछे है, सामान्य मनुष्यों की तरह नहीं जो केवल बाह्य धर्म और विधि का ही अनुसरण करते हैं ।

परन्तु विचारणीय बात यह है कि आधुनिकों की बुद्धि ने अपनी व्यावहारिक प्रेरक शक्ति में से जिन दो चीजों को अर्थात् ईश्वर या सनातन ब्रह्म को और आध्यात्मिकता या परमात्म-स्थिति को निकाल बाहर कर दिया है वे ही गीता की सर्वोत्कृष्ट भावनाएँ हैं । आधुनिकों की बुद्धि मानवता के दायरे के अन्दर ही रहती है और गीता कहती है कि भगवान् में रहो; इसका जीना केवल इसके प्राण, हृदय और बुद्धि में है और गीता कहती है कि आत्मा में जिओ; इसकी शिक्षा है क्षर पुरुष में, सर्वाणि भूतानि में रहने की और गीता की शिक्षा है अक्षर और परम पुरुष में भी रहने की; इसका कहना है सदा बदलनेवाले काल-प्रवाह के साथ बहे चलो और गीता का आदेश है सनातन में निवास करो । गीता की इन उच्चतर बातों की ओर यदि आजकल कुछ-कुछ ख्याल दौड़ने भी लगा है तो वह केवल इसलिए कि मनुष्य और मनुष्य-समाज की इनसे कुछ सेवा करायी

 

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जाय । परन्तु भगवान् और आध्यात्मिक जीवन ऐसी चीजें हैं जो अपनी सत्ता से हैं, किसी के पुछल्ले नहीं । और, व्यवहार में हमारे अन्दर जो कुछ निम्न है उसको उच्च के लिये जीना सीखना होगा, ताकि हममें जो उच्च है वह भी निम्न के लिये सचेतन रूप से विद्यमान रहे ताकि वह उसको अपनी उच्च भूमिका के अधिकाधिक समीप ले आवे ।

इसलिए आजकल की मनोवृत्ति के विचार से गीता का अर्थ करना और गीता से जबर्दस्ती यह शिक्षा दिलाना कि निःस्वार्थ होकर कर्त्तव्य का पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वसंपूर्ण धर्म है, बिलकुल गलत रास्ता है । जिस प्रसंग से गीतोपदेश हुआ है उसका किंचिन्मात्र विचार करने से ही यह स्पष्ट हो जायेगा कि गीता का यह अभिप्राय हो ही नहीं सकता । कारण, जिस प्रसंग से गीता का आविर्भाव हुआ है और जिस कारण से शिष्य को गुरु की शरण लेनी पड़ी उसका सारा मर्म तो कर्त्तव्य की परस्पर-संबद्ध विविध भावनाओं का बेतरह उलझा हुआ वह संघर्ष है जो मानव-बुद्धि के द्वारा खड़ी की गयी सारी उपयोगी, बौद्धिक और नैतिक इमारत को ढा देता है । मनुष्य-जीवन में किसी-न-किसी प्रकार का संघर्ष तो प्राय: उत्पन्न हुआ ही करता है, जैसे कभी गार्हस्थ्य-धर्म के साथ देश-धर्म या देश की पुकार का, कभी देश के दावे के साथ मानव-जाति की भलाई का या किसी बृहत्तर धार्मिक या नैतिक सिद्धांत का । एक आंतरिक परिस्थिति भी खड़ी हो सकती है, जैसी कि गौतम बुद्ध के जीवन में हुई थी; इस परिस्थिति के आने पर अंत:स्थित भगवान् के आदेश का पालन करने के लिए सभी कर्त्तव्यों को त्याग देना, कुचल डालना और एक ओर फेंक देना पड़ता है । मैं नहीं समझता कि इस प्रकार की आंतरिक परिस्थिति का समाधान गीता कभी यों कर सकती है कि वह बुद्ध को फिर से अपनी पत्नी और पिता के पास भेज दे और उन्हें शाक्य राज्य की बागडोर हाथ में लेने के लिये कहे । न यह परमहंस रामकृष्ण से ही कह सकती है कि तुम किसी पाठशाला में जाकर पंडित होकर रहो और छोटे-छोटे बच्चों को निष्काम होकर पाठ पढ़ाया करो, न विवेकानन्द को ही मजबूर कर सकती है कि तुम जाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करो और इसके लिये वीतराग होकर वकालत या ड़ाक्टरी या अखबार-नवीसी का धंधा अपनाओ । गीता निःस्वार्थ कर्त्तव्य-पालन की शिक्षा नहीं देती, बल्कि दिव्य जीवन बिताने की शिक्षा देती है, सब धर्मों का परित्याग सिखाती है, ''सर्वधर्मान् परित्यज्य," एक परमात्मा का ही आश्रय ग्रहण करने को कहती है; और बुद्ध, रामकृष्ण या विवेकानन्द का भागवत कर्म गीता की इस शिक्षा के सर्वथा अनुकूल था । इतना ही नहीं, गीता कर्म को अकर्म से श्रेष्ठ बतलाते

 

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हुए भी कर्म-संन्यास का निषेध नहीं करती, बल्कि इसे भी भगवत्प्राप्ति के साधनों मैं से एक साधन स्वीकार करती है । यदि कर्म और जीवन और सब कर्त्तव्यों का त्याग करने से ही उसकी प्राप्ति होती हो और इस त्याग के लिए प्रबल आंतरिक पुकार हो तो सब कर्मों का स्वाहा करना ही होगा, इसमें किसी का कोई वश नहीं चल सकता । भगवान् की पुकार अलंघ्य है, दूसरे कोई भी विचार उसके सामने नहीं ठहर सकते ।

परन्तु यहाँ एक और कठिनाई यह है कि जो कर्म अर्जुन को करना है वह ऐसा कर्म है जिससे उसकी नैतिक बुद्धि पीछे हटती है । आप कहते हैं कि युद्ध करना उसका धर्म है, पर वह धर्म ही तो इस समय उसकी बुद्धि में भयंकर पाप हो गया है । तुम्हें निःस्वार्थ भाव से और विकार-रहित होकर कर्त्तव्य-पालन करना चाहिये, ऐसा कहने से उसकी क्या सहायता हो सकती है या उसकी कठिनाई कैसे हल हो सकती है? वह यह जानना चाहेगा कि उसका कर्त्तव्य क्या है अथवा यह कि अपने गोतियों, जाति-भाइयों और देशवासियों का संहार करना और रक्त बहाना भला उसका कर्त्तव्य कैसे हो सकता है? उससे कहा जा रहा है कि न्याय, धर्म, सत्य तुम्हारे पक्ष में हैं पर इससे उसको संतोष नहीं होता, संतोष हो ही नहीं सकता; कारण उसका कहना यही है कि हमारा पक्ष न्याय का है सही, पर उसके लिये राष्ट्र का भविष्य बिगाड़नेवाला निर्दय रक्तपात करना न्याय नहीं है । तो क्या अर्जुन से यह कहना होगा कि तुम्हें इन सब बातों से क्या मतलब, तुम सैनिक होसैनिक का काम करो, लड़ो-कटो, मरो-मारो, चाहे पाप हो या पुण्य, इसका कुछ भी फल हो, उसका विचार न करो, निर्विकार भाव से अपना कर्म किये जाओ? परन्तु यह सीख किसी राज्य की ओर से हो सकती है, राजनीतिज्ञ, वकील, नैतिक धर्माधर्मविचारक ऐसा कह सकते हैं, पर कोई महान् धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथ, जिसका उद्देश्य जीवन और कर्म के प्रश्न को जड़मूल से हल करना हो, ऐसी शिक्षा नहीं दे सकता । और, यदि नैतिक और अध्यात्म-बिषयक ऐसे मार्मिक प्रश्न के विषय में गीता को यही बात कहनी हो तो इसे संसार के महान् धर्मग्रंथों की सूची से अलग ही करना होगा और फिर यदि इसे कहीं रखना ही हो तो राजनीतिशास्त्र और आचारशास्त्र के किसी पुस्तकालय में रख सकते हैं ।

निश्चय ही गीता में, उपनिषदों की तरह उस समता का उपदेश है जो पुण्य और पाप से ऊपर, अच्छे और बुरे के परे है, पर वह समता केवल ब्राह्मी चेतना का एक अंग है और उसका उपदेश उसीके लिये है जो उस मार्ग पर हो और उस परम धर्म को चरितार्थ करने के लिये काफी आगे बढ़ चुका हो । यह मनुष्य

 

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के सामान्य जीवन के लिए अच्छे और बुरे से उदासीन होने का उपदेश नहीं देती, जहाँ इस प्रकार की शिक्षा का बहुत ही हानिकारक परिणाम हो सकता है । वैसे जीवन के लिये तो गीता का निर्देश है कि बुरे कर्म करनेवाले कभी ईश्वर को नहीं पा सकते । इसलिए यदि अर्जुन केवल मनुष्य-जीवन के सामान्य धर्म को ही सर्वोत्तम प्रकार से चरितार्थ करना चाहता हो तो जिस चीज को वह पाप समझता है, नरक की वस्तु समझता है उसीको नि:स्वार्थ होकर करने से उसका कुछ भी भला न होगा, चाहे एक सैनिक के नाते वह पाप उसका कर्त्तव्य ही क्यों न हो । उसकी विवेक-बुद्धि जिस काम से घृणा कर रही है उससे उसे हटना ही होगा, चाहे उससे हजार कर्त्तव्य-कर्म धूल में मिल जायँ ।

हमें याद रखना चाहिये कि कर्त्तव्य वह भावना है जो व्यवहार में सामाजिक धारणाओं पर निर्भर है, इस सामान्य अर्थ से हम इस शब्द को और अधिक व्यापक करके यह कह सकते हैं कि अमुक कर्म हमारा अपने प्रति कर्तव्य है अथवा इस व्याप्ति से भी आगे बढ़कर यह कह सकते हैं कि सर्वस्व का त्याग करना बुद्ध का कर्तव्य था या यह भी कह सकते हैं कि गुहा में स्थिर होकर बैठना यती का कर्तव्य है ! पर यह सब, स्पष्ट ही, शब्दों का खेल है । कर्तव्य आपेक्षिक शब्द है और दूसरों के साथ अपने संबंध पर इसका अर्थ निर्भर है । पिता के नाते पिता का यह कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों का लालन-पालन करे और उन्हें सुशिक्षित करे; वकील का यह कर्तव्य है कि वह अपने मुवक्किल की पैरवी करने में पूरी कोशिश करे चाहे उसे यह ज्ञात भी हो कि मुवक्किल कसूरवार है और उसने जो जवाब दिया है वह झूठा है; सिपाही का यह कर्तव्य है कि वह लड़े, हुकुम पाते ही गोली मार दे चाहे उसका सामना करनेवाला उसका नाती-गोती या देश-भाई ही क्यों न हो; जज का यह कर्तव्य है कि वह अपराधी को जेल भेजे और खूनी को सूली पर चढ़वा दे । जबतक मनुष्य इन पदों पर रहना स्वीकार करता है तबतक उसका कर्तव्य स्पष्ट है, और जब इस कर्त्तव्य में उसकी मर्यादा और समता का सवाल न उठता हो तब भी उसके लिये अपने कर्त्तव्य का पालन करना एक व्यावहारिक बात हो जाती है और उसको अपने इस कर्तव्य का पालन करते हुए निरपेक्ष धार्मिक और नैतिक विधान का उल्लंघन करना पड़ता है । परन्तु यदि आंतरिक दृष्टि ही बदल जाय, यदि वकील की आँख खुल जाय और वह यह देखने लगे कि झूठ सदा पाप ही है, यदि जज को यह विश्वास हो जाय कि किसी मनुष्य को फाँसी की सजा देना मानवता की दृष्टि से पाप करना है, समर भूमि में सिपाही का ही चित्त यदि आधुनिक युद्ध-विरोधियों का-सा हो जाय या टालस्टाय के समान उसके चित्त में यह आ जाय कि किसी भी मनुष्य की जान

 

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किसी भी हालत में लेना वैसा ही घृणित काम है जैसा कि मनुष्य का मांस भक्षण करना, तब क्या होगा? ऐसे प्रसंग में अपने अंतःकरण का धर्म ही, जो सब आपेक्षिक धर्मों से ऊपर है, माना जायेगा, यह बात बिलकुल साफ है; और यह धर्म कर्तव्य-विषयक सामाजिक संबंध या भावना पर निर्भर नहीं, बल्कि मनुष्य की, नैतिक मनुष्य की जागी हुई अंत:प्रतीति पर निर्भर है ।

संसार में वस्तुत: दो प्रकार के आचार-धर्म हैं, दोनों ही अपने-अपने स्थान पर आवश्यक और समुचित हैं, एक वह आचार-धर्म है जो मुख्यत: बाह्य अवस्था पर निर्भर है और दूसरा वह है जो बाह्य पद-मर्यादा से सर्वथा स्वतंत्र और अपने ही सदसद्विवेक और विचार पर निर्भर करता है । गीता की शिक्षा यह नहीं है कि श्रेष्ठ भूमिका के आचार-धर्म को कनिष्ठ भूमिका के आचार-धर्म के अधीन कर दो, गीता यह नहीं कहती कि अपनी जागृत नैतिक चेतना को मारकर उसे सामाजिक मर्यादा पर निर्भर धर्म की वेदी पर बलि चढ़ा दो । गीता हमें ऊपर उठने के लिये कहती है, नीचे गिरने के लिये नहीं; दो क्षेत्रों के संघर्ष से, गीता हमें ऊपर चढ़ने का, उस परा स्थिति को प्राप्त करने का आदेश देती है जो केवल व्यावहारिक एवं केवल नैतिक चैतन्य से ऊपर है, जो ब्राह्मी स्थिति है । समाज- धर्म के स्थान में गीता यहाँ भगवान् के प्रति अपने कर्तव्य की भावना को प्रतिष्ठित करती है । यहाँ बाह्य कर्म के अधीन होकर रहने की अवस्था दूर हो जाती है और इसके स्थान पर कर्म की गहन गति से मुक्त पुरुष का अपने कर्म को स्वतः निर्धारित करने का सिद्धांत स्थापित हो जाता है । और, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे, यही ब्राह्मी चेतना, कर्म से पुरुष की मुक्ति और अंतःस्थित तथा उर्ध्वस्थित परमेश्वर के द्वारा स्वभाव में कर्मों का निर्धारणयही कर्म के विषय में गीता की शिक्षा का मर्म है ।

गीता को समझना, और गीता जैसे किसी भी महान् ग्रंथ को समझना तभी सम्भव है जब उसका आदि से अंत तक और एक विकासात्मक शास्त्र के हिसाब से अध्ययन किया जाय । परन्तु आधुनिक टीकाकारों ने, बंकिमचंद्र चटर्जी जैसे उच्च कोटि के लेखक से आरंभ कर, जिन्होंने पहले-पहल गीता को आधुनिक अर्थ में कर्तव्य का प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र बताया, सभी टीकाकारों ने गीता के पहले तीन-चार अध्यायों पर ही प्रायः सारा जोर दिया है, और उनमें भी समत्व की भावना और "कर्तव्य कर्म" पर, और "कर्तव्य" से इनका अभिप्राय वही है जो आधुनिक दृष्टि में गृहीत है; ''कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" (कर्म में ही तेरा अधिकार है, कर्मफल में जरा भी नहीं )इसी वचन को ये लोग गीता का महावाक्य कहकर आम तौर पर उद्धृत करते हैं और बाकी के

 

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अध्याय और उनमें भरा हुआ उच्च तत्वज्ञान इनकी दृष्टि में गौण है; हाँ, ग्यारहवें अध्याय के विश्वरूप-दर्शन की मान्यता इनके यहां अवश्य है । आधुनिक मन-बुद्धि के लिये यह बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि तात्विक गूढ़ बातों और अतिदूरवर्ती आध्यात्मिक अनुसंधान की चेष्टाओं से यह बुद्धि घबरायी हुई है या अभी कलतक घबराती रही है और अर्जुन के समान कर्म का ही कोई काम में लाने योग्य विधान, कोई धर्म ढूंढ रही है । पर गीता जैसे ग्रंथ के निरूपण का यह गलत रास्ता है ।

गीता जिस समता का उपदेश देती है वह उदासीनता नहीं हैगीता के उपदेश की आधारशिला जब रखी जा चुकी और उसपर उपदेश का प्रधान मंदिर जब निर्मित हो चुका, तब अर्जुन को जो महान् आदेश दिया गया है कि, ''उठ, शत्रुओं का संहार कर और समृद्ध राज्य का भोग कर", उसमें कोरे परोपकार-वाद की या किसी विशुद्ध विकार-रहित सर्वत्याग के भाव की ध्वनि तक नहीं है; गीता की समता एक आंतरिक संतुलन और विशालता की स्थिति है, जो आध्यात्मिक मुक्ति की आधारशिला है । इस संतुलन के साथ और इस प्रकार की मुक्ति की अवस्था में हमें उस कर्म का सम्यक् आचरण करने का आदेश मिलता है जो ''कार्य कर्म" है''कार्य कर्म समाचर", गीता की यह शब्द-योजना अत्यंत व्यापक है, इसमें "सर्वकर्माणि", सब कर्मों का समावेश है, यद्यपि सामाजिक कर्तव्य या नैतिक कर्तव्य भी इसमें आ जाते हैं, पर इतने से ही इसकी इति नहीं होती, "कार्य कर्म" इन सबका समावेश करता हुआ भी इन सबका अतिक्रम करके बहुत दूर तक विस्तृत होता है । वह "कार्य कर्म" क्या है, यह किसी व्यक्ति को अपनी पसंद से निश्चित नहीं होता; और न कर्म में अधिकार और कर्मफल का त्याग ही गीता का महावाक्य है, बल्कि यह एक प्राथमिक उपदेश है जो योगपर्वत पर चढ़ना आरंभ करनेवाले शिष्य की प्राथमिक अवस्था पर लागू होता है । आगे चलकर इससे बड़ा उपदेश प्राप्त होता है । क्योंकि बाद में गीता बड़े जोर के साथ बतलाती है कि मनुष्य कर्म का कर्ता नहीं है; कर्त्री प्रकृति है, त्रिगुणमयी शक्ति ही उसके द्वारा कर्म करती है और शिष्य को यह साफ-साफ देख लेना सीखना होगा कि कर्म का कर्ता वह नहीं है । इसलिए "कर्मण्येवाधिकार:'' की भावना तभी तक के लिये है जबतक हम इस भ्रम में हैं कि हम कर्ता हैं; ज्योंही हमें अपनी चेतना के अन्दर यह अनुभव होता है कि हम अपने कर्मों के कर्ता नहीं हैं, त्योंही कर्मफलाधिकार के समान ही कर्माधिकार भी मन-बुद्धि से तिरोहित हो जाता है । तब कर्म-विषयक सारे अहंकार, लाधिकार के संबंध में कहिये या कर्माधिकार के संबंध में, समाप्त हो जाते हैं ।

 

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    परन्तु प्रकृति का नियतिवाद भी गीता का अंतिम वचन नहीं है । मन, हृदय और बुद्धि के साथ भगवत्-चैतन्य में प्रवेश करने और उसमें रहने के लिये बुद्धि की समता और फल का त्याग, केवल साधन हैं और गीता ने इस बात को स्पष्ट रूप से कहा है कि इनसे तबतक काम लेना होगा जबतक साधक इस योग्य नहीं हो जाता कि वह इस भगवच्चैतन्य में रह सके या कम-से-कम अभ्यास के द्वारा इस उच्चतर अवस्था को अपनेमें क्रमश: विकसित न कर ले । अच्छा तो यह भगवान् कौन हैं जिनके बारे में श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह मैं ही हूँ ? ये पुरुषोत्तम हैं, जो अकर्ता पुरुष के परे हैं, जो कर्त्री प्रकृति के परे हैं, जो एक के आधार हैं और दूसरे के स्वामी, ये वे प्रभु हैं जिनका यह सारा प्राकटग्र है, जो हमारी वर्तमान मायावशता की अवस्था में भी अपने जीवों के हृदय में विराज रहे हैं और जो प्रकृति के कर्मों के नियामक हैं, ये वे हैं जिनके द्वारा कुरुक्षेत्र  की समर- भूमि की सेनाएँ जीवित होती हुई भी मारी जा चुकी हैं और जो अर्जुन को इस भीषण संहारकर्म का केवल यन्त्र या निमित्तमात्र बनाये हुए हैं । प्रकृति उनकी केवल कार्यकारिणी शक्ति है । साधक को इस प्रकृति-शक्ति और उसके त्रिविध गुणों से ऊपर उठना होगा, उसको त्रिगुणातीत होना होगा । उसे अपने कर्म प्रकृति को नहीं समर्पित करने होंगे, जिनपर अब उसका कुछ भी दावा या अधिकार नहीं है, बल्कि उसे अपने कर्म उन परम पुरुष की सत्ता में समर्पित करने होंगे । अपना मन, अपनी बुद्धि, अपना हृदय, अपना संकल्प उन्हीं में रखकर, आत्म-ज्ञान के साथ, भगवद्-ज्ञान के साथ, जगत्-संबंधी ज्ञान के साथ, पूर्ण समता, अनन्य भक्ति और पूर्ण आत्म-दान के साथ उसे अपने कर्म उन प्रभु के भेंट-स्वरूप करने होंगे जो सारे तपों और समस्त यज्ञों के स्वामी हैं । उनके संकल्प के साथ अपने संकल्प का तादात्म्य कर लेना होगा, उनकी चेतना से सचेतन होना होगा और उन्हीं को अपने कर्म का निर्णय और आरंभ करने देना होगा । भगवान् गुरु अपने शिष्य की शंकाओं का जो समाधान करते हैं वह यही है ।

     गीता का परम वचन, गीता का महावाक्य क्या है सो ढूंढकर नहीं निकालना है; गीता स्वयं ही अपने अंतिम श्लोकों में उस महान् संगीत का परम स्वर घोषित करती है :-

 

तमेव शरणं गच्छ सर्वभायेन भारत ।

तत्प्रसादात्परां शातिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ।।

इति ते ज्ञानमाखातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।...

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वच: ।.......

 

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मन्मना भव मद्धक्तो मधाजी मां नमस्कुरु ।

मामेवैश्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।|

सर्वधर्मान्परित्यज्य। मामेकं शरण व्रज ।

अहं त्यां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ।।

 

   ''अपने हृदेशस्थित भगवान् की, सर्वभाव से, शरण ले; उन्हीं के प्रसाद से तू पराशांति और शाश्वत पद को लाभ करेगा । मैंने तुझे गुह्य से भी गुह्यतर ज्ञान बताया है । अब उस गुह्यतम ज्ञान को, उस परम वचन को सुन जो मैं अब बतलाता हूँ  । मेरे मनवाला हो जा, मेरा भक्त बन, मेरे लिए यज्ञ कर, और मेरा नमन-पूजन कर; तू निश्चय ही मेरे पास आयेगा, क्योंकि तू मेरा प्रिय है । सब धर्मो का परित्याग करके मुझ एक की शरण ले । मैं तुझे सब पापों से मुक्त करूँगा; शोक मत कर । ''

   गीता का प्रतिपादन अपने-आपको तीन सोपानों में बांट लेता है, जिनपर चढ़कर कर्म मानव-स्तर से न्यर उठकर दिव्य स्तर में पहुँच जाता है और वह उच्चतर धर्म की मुक्तावस्था के लिए नीचे के धर्म-बंधनों को नीचे ही छोड जाता है । पहले सोपान में मनुष्य कामना का त्याग कर, पूर्ण समता के साथ अपने को कर्ता समझता हुआ यज्ञ-रूप से कर्म करेगा, यह यज्ञ वह उन भगवान् के लिए करेगा जो परम हैं और एकमात्र आत्मा हैं यद्यपि अभी तक उसने इनको स्वयं अपनी सत्ता में अनुभव नहीं किया है । यह आरंभिक सोपान है । दूसरा सोपान है केवल फलेच्छा का त्याग नहीं, बल्कि कर्ता होने के भाव का भी त्याग और यह अनुभूति कि आत्मा सम, अकर्ता, अक्षर तत्व है और सब कर्म विश्व-शक्ति के, प्रकृति के हैं जो विषम, कर्त्रीर और क्षर शक्ति है । अंतिम सोपान है परम आत्मा को वह परम-पुरुष जान लेना जो प्रकृति के नियामक हैं, प्रकृतिगत जीव उन्हीं की आंशिक अभिव्यक्ति है, वे ही अपनी पूर्ण परात्पर स्थिति मै रहते हुए प्रकृति के द्वारा सारे कर्म कराते हैं । प्रेम, भजन, पूजन और कर्मों  का यजन सब उन्हीं को अर्पित करना होगा; अपनी सारी सत्ता उन्हीं को समर्पित करनी होगी और अपनी सारी चेतना को ऊपर उठाकर इस भागवत चैतन्य में निवास करना होगा जिसमें मानव-जीव भगवान् की प्रकृति और कर्मों से परे जो दिव्य परात्परता है उसमें भागी हो सके और पूर्ण आध्यात्मिक मुक्ति की अवस्था में रहते हुए कर्म कर सके ।

   प्रथम सोपान है कर्मयोग, भगवत्प्रीति के लिए निष्काम कर्मों का यज्ञ; और यहाँ गीता का जोर कर्म पर है । द्वितीय सोपान है ज्ञानयोग, आत्म-उपलब्धि,

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आत्मा और जगत् के सत्स्वरूप का ज्ञान; यहाँ उसका ज्ञान पर जोर है, पर साथ-साथ निष्काम कर्म भी चलता रहता है, यहाँ कर्ममार्ग ज्ञानमार्ग के साथ एक हो जाता है पर उसमें घुल-मिलकर अपना अस्तित्व नहीं खोता । तृतीय सोपान है भक्तियोग, परमात्मा की भगवान् के रूप में उपासना और खोज; यहाँ भक्ति पर जोर है, पर ज्ञान भी गौण नहीं है, वह केवल उन्नत हो जाता है, उसमें एक जान आ जाती है और वह कृतार्थ हो जाता है, और फिर भी कर्मों का यज्ञ जारी रहता है; द्विविध मार्ग यहाँ ज्ञान, कर्म और भक्ति का त्रिविध मार्ग हो जाता है । और, यज्ञ का फल, एकमात्र फल जो साधक के सामने ध्येय- रूप से अभी तक रखा हुआ है, प्राप्त हो जाता है, अर्थात् भगवान् के साथ योग  और परा भागवती प्रकृति के साथ एकत्व प्राप्त हो जाता है ।

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