Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita.
Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.
विश्वरूपदर्शन
संहारक काल
विश्व-पुरुष का दर्शन गीता के उन सुप्रसिद्ध प्रकरणों में से है जो अत्यंत ओजस्वी रूप में काव्यमय हैं, परन्तु गीता की विचारधारा में इसका स्थान पूर्ण रूप से प्रकट नहीं है । स्पष्ट ही यह एक काव्यात्मक तथा सत्योद्धासक प्रतीक के रूप में अभिप्रेत है और इसके आशय को ग्रहण कर सकने के पूर्व हमें देखना होगा कि इसका सूत्रपात कैसे तथा किस प्रयोजन से किया गया है, साथ ही यह भी जानना होगा कि अपने अर्थगर्भित रूपों में यह किस बात की ओर संकेत करता है । अगोचर भगवान् की जीवंत प्रतिमा तथा प्रत्यक्ष महिमा को, जगत् का संचालन करने-वाले परम आत्मा और शक्ति के साक्षात् विग्रह को देखने की इच्छा से अर्जुन ने ही इसके लिए प्रार्थना की है । उसने सत्ता के इस सर्वोच्च आध्यात्मिक रहस्य को श्रवण कर लिया है कि सब कुछ भगवान् से उत्पन्न हुआ है तथा सब कुछ भगवान् है और सभी चीजों में भगवान् निवास करते तथा गुप्त रूप से विद्यमान हैं और प्रत्येक सान्त दृश्यवस्तु में उन्हें प्रकट किया जा सकता है । वह भ्रम जो मनुष्य के मन तथा इन्द्रियों को इतनी दृढ़ता से अपने अधिकार में रखता है, अर्थात् यह धारणां कि वस्तुएँ ईश्वर से पृथक् अपने-आपमें या अपने लिए अस्तित्व रखती हैं, अथवा प्रकृति के अधीन रहनेवाली कोई भी वस्तु स्वयमेव प्रेरित तथा परिचालित हो सकती है, उससे दूर हो गयी है,--यही उसके संदेह एवं व्यामोह का तथा कर्म से इन्कार करने का कारण था । अब उसे पता लग गया है कि भूतों के जन्म और मरण का क्या अभिप्राय है । उसे मालूम हो गया है कि दिव्य चिन्मय आत्मा का अक्षय माहात्म्य ही इस सब दृश्य-प्रपंच का रहस्य है । यह सब कुछ वस्तुओं में विद्यमान इन महान् सनातन परमात्मा का योग है और सभी घटनाएँ उस योग का पीरणाम तथा प्राकटय हैं; समस्त प्रकृति निगूढ़ भगवान् से परिपूर्ण है और अपने अन्दर उसी को प्रकाशित करने का कठिन प्रयास कर रही है । परन्तु यदि सम्भव हो तो, वह इन परमेश्वर के साक्षात रूप तथा
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को ही देखा है और भगवान् के साथ केवल मानव प्राणी की तरह ही व्यवहार किया है । वह पार्थिव आवरण को भेदकर उन परमेश्वर तक नहीं पहुँचा है जिनका मानवता आधार और प्रतीक थी, और अब वह उन परमात्मा से प्रार्थना करता है कि मेरे दृष्टिशून्य प्रमाद तथा उपेक्षापूर्ण अज्ञान के लिए मुझे क्षमा कीजिये । ''आपको अपना केवल मानवीय सखा तथा साथी समझकर, 'हे कृष्ण, ये यादव, हे सखा' इस प्रकार संबोधित करते हुए, आपकी इस महिमा को न जानते हुए मैंने जोश में आकर, बिना सोचे-विचारे, उपेक्षापूर्ण प्रमाद या प्रणयके कारण जो कुछ कहा है उस सबके लिए, तथा शयन, आसन या भोजन के समय, अकेले या आपकी उपस्थिति में मैंने हँसी-मजाक में आपका जो निरादर किया है उसके लिए, हे अप्रमेय, मैं आपसे क्षमा-याचना करता हूँ । आप इस संपूर्ण चराचर जगत् के पिता हैं; आप पूज्य हैं तथा सत्कार के परम पावन पाव हैं । हे अप्रतिम प्रभावशाली देव ! तीनों लोकों में आपके तुल्य कोई नहीं है, फिर आपसे महान् तो भला कोई हो ही कैसे सकता है ? अतएव हे स्तुत्य प्रभो, मैं आपके आगे शीश नवाता हूँ, साष्टांग प्रणाम करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करके प्रसन्न होइये । हे देव, आपको मेरी बातें उसी प्रकार सहन कर लेनी चाहियें जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की, मित्र अपने मित्र तथा सहचर की और प्रेमी अपने प्रिय की बातें सहता है । मैंने वह रूप देखा है जिसे पहले कभी किसीने नहीं देखा और इससे मैं आनंदित हो रहा हूँ, परन्तु मेरा मन भय से व्यथित हो रहा है । हे देव, मुझे वह अपना वही रूप दिखाइये । मैं आपको पहले की ही भांति मुकुटमंडित तथा गदाचक्रधारी देखना चाहता हूँ । हे सहस्रबाहो, हे विश्वभूर्ते अपना चतुर्भुज रूप धारण कीजिये । ''१
इन प्रथम उद्गारों से यह सुझाव सामने आता है कि इन भयावह रूपों के पीछे का गुप्त सत्य एक पुनः आश्वासन देनेवाला प्रोत्साहन और आनंद देनेवाला सत्य है । उसमें कोई ऐसी चीज है जिसके कारण जगत्का हृदय भगवान् के नाम तथा सामीप्य में हर्ष तथा आह्लाद अनुभव करता है । उस वस्तु की गभीर अनुभूति ही हमें काली की घोर आकृति में माँ की मुखछवि के दर्शन कराती है और यहांतक कि संहार के बीच में भी सर्वभूतसुहृत् की रक्षक बाहुओं, अनिष्ट के बीच भी एक शुद्ध निर्विकार दयालुता की उपस्थिति तथा मृत्यु के मध्य भी अमृतत्व के स्वामी का अनुभव कराती है । दिव्य कर्म के अधीश्वर के भय से राक्षस, अंधकार की भीषण दानवीय शक्तियाँ, ध्वस्त, पराजित एवं पराभूत होकर भाग खड़ी होती हैं । परंतु सिद्ध, अर्थात् पूर्णत्व और सिद्धिको प्राप्त किये हुए लोग जो अविनाशी परमे-
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श्वर के नामों को जानते तथा गाते हैं तथा उनकी सत्ता के सत्य में निवास करते हैं, उनके प्रत्येक रूप के सम्मुख शीश झुकाते हैं और जानते हैं कि प्रत्येक रूप किसकी प्रतिमा और प्रतीक है । जो नष्ट करने योग्य हैं, अशुभ, अज्ञान, निशाचर तथा राक्षसी शक्तियाँ, उन्हें छोड्कर और किसी भी चीज को वास्तव में डरने की आवश्यकता नहीं । उग्रदेव रुद्र की समस्त गतिविधि और कार्य-प्रवृत्ति का लक्ष्य संसिद्धि, दिव्य ज्योति और पूर्णता ही होता है ।
कारण, ये परमात्मा, ये भगवान् केवल बाह्य रूप में ही संहारक हैं, अर्थात् इन सब सांत रूपों को नष्ट करनेवाले काल हैं : पर अपने-आपमें वे अनंत हैं, वैश्व देवताओं के ईश हैं, जिनके अंदर जगत् तथा उसके समस्त कर्म सुरक्षित रूप से अधिष्ठित हैं, वे आदि तथा सदा उत्पत्ति करनेवाले स्रष्टा हैं, सृष्टिकारिणी शक्ति के उस रूप से अधिक महान् हैं जिसे ब्रह्मा कहते हैं और जिसे वे वस्तुओं के आकार के अंदर अपने त्रैत, अर्थात् स्थिति और संहार के संतुलन द्वारा रंग-बिरंगी सृष्टि के एक पक्ष के रूप में हमारे सामने प्रकाशित करते हैं । वास्तविक दिव्य सृष्टि तो नित्य है; यह वे 'अनंत' ही हैं जो सांत वस्तुओं में नित्य रूप से अभिव्यक्त हैं, वे परमात्मा ही हैं जो अपने-आपको आत्माओं की अगणित अनंतता में, उनके कार्यों की चमत्कृति तथा उनके आकारों की सुषमा में सदा ही छिपाते तथा प्रकट करते रहते हैं । वे सनातन अक्षर हैं; सत् और असत् तथा व्यक्त और अव्यक्त का, उन बस्तुओं का जो थीं और अब नहीं प्रतीत होतीं, जो हैं और जिनका नष्ट होना दैव-निर्दिष्ट प्रतीत होता है, जो होंगी और फिर नष्ट हो जायंगी उन सबका द्वंद्वात्मक रूप वे ही हैं । परंतु इन सबसे परे वे जो कुछ हैं वह 'तत् ' या 'परम' हैं जो सब परिवर्तनशील वस्तुओं को उस काल की, जिसके लिए सब कुछ सदैव वर्तमान है, अखंड नित्यता में धारण करते हैं । वे अपने अक्षर आत्मा को उस कालतीत नित्यता में धारण करते हैं जिनके काल और सृष्टि नित्य-विस्तारशील रूप है ।
यह है उनका वह सत्य जिसमें सब कुछ समन्वित हो जाता है; सभी एक-कालीन तथा अन्योन्याश्रित सत्य सुसमंजस रूपमें इस एक वास्तविक सत्य से उद्भूत होते है और सब मिलकर इस एकके ही बराबर होते हैं । यह उस परम आत्मा का सत्य है जिसकी परा प्रकृति से यह जगत् निर्गत हुआ है जो कि उस अनंत का ही एक हीनतर रूप है; यह उन पुराण पुरुष का सत्य है जो कालके सुदीर्घ विवर्तनों की सदा ही अध्यक्षता करते है, उन आद्य देवाधिदेव का सत्य है जिनकी देवता, मनुष्य और सब सजीव प्राणी संतानें, शक्तियाँ तथा आत्माएँ हैं जिनका अस्तित्व उनकी सत्ता की वास्तविकता के कारण आध्यात्मिक रूप में उचित ठहरता है; यह उन ज्ञाता का सत्य है जो मनुष्य के अन्दर अपना, जगत् तथा ईश्वर का ज्ञान विकसित
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करते है'; ' यह समस्त ज्ञान के उन एकमात्र विषय का सत्य है जो मनुष्य के हृदय, मन और आत्मा के सम्मुख अपने-आपको प्रकाशित करते हैं जिससे हमारे ज्ञानका प्रत्येक नया प्रकट होनेवाला रूप उन्हींका आशिक प्राकटप होता है और वह उनके उस सर्वोच्च प्राकटय तक ले जाता है जिसके द्वारा उनका अंतरंग, गभीर तथा सर्वांगीण दर्शन एवं उपलब्धि होती है । यह उन उच्च तथा परम अक्षर पुरुष का सत्य है जो इस विश्व में विद्यमान सभी सत्ताओं को उत्पन्न तथा धारण करते है और पुनः अपने अंदर समा लेते हैं । उन्हींने अपनी सत्ताके अंदर अपनी सर्वसमर्थ शक्ति के द्वारा, अपनी अंतहीन सर्जन की अद्भुत आत्म-परिकल्पना, शक्ति एवं आनंद के द्वारा इस विश्व को विस्तारित किया है । सब कुछ उनके स्थूल-भौतिक तथा आध्यात्मिक रूपों की अनंतता ही है । लघुतम से लेकर महत्तम तक सब-के-सब देवता वे स्वयं ही हैं, वे प्राणिमात्र के पिता हैं तथा सब उनकी संतति एवं प्रजा हैं । वे उन ब्रह्माके भी मूल हैं जो जीवों की इन विभिन्न जातियों के दिव्य स्रष्टाओं के प्रथम पिता, प्रजापति के पिता हैं । इस सत्य पर वारंवार आग्रह किया गया है । पुन: यह दुहराया गया है कि वे सर्व हैं, प्रत्येक वस्तु है 'सर्व:' । वे अनंत 'विराट' सत् हैं और यहां विद्यमान प्रत्येक व्यक्ति तथा प्रत्येक वस्तु हैं, वे एकमात्र शक्ति तथा सत्ता हैं जो हममें से प्रत्येक के अंदर निहित है, वे अनंत चित्-तपस् हैं जो इन अनेकानेक सत्ताओं में अपने-आपको प्रकट करते हैं, गति और क्रिया के वे अपरि-मेय संकल्प एवं महान् शक्ति हैं जो अपने-आपमें से ही काल के समस्त प्रवाहों तथा प्रकृतिगत आत्मा की सभी घटनाओं को निर्मित करते हैं ।
और फिर, इस सत्य पर किये गये इस आग्रह से, स्वभावत: ही, गीता की विचारधारा मनुष्य के अंदर विद्यमान इस एक महान् देव की उपस्थिति के विषय की ओर मुड़ जाती है । यहाँ विश्वरूप-दर्शन करनेवाले की आत्मा तीन क्रमिक सुझावों से प्रभावित होती है । सर्वप्रथम, उसके चित्त में यह विश्वास जम जाता है कि 'मनु' के इस पुत्र की देह में जो भूतल पर एक नश्वर प्राणी की तरह उसके समीप विचरण करता था, उसके पास बैठता, एक ही पलंग पर उसके साथ लेटता, उसके साथ प्रीतिभोज करता था, हंसी-ठट्ठे तथा असावधानतापूर्ण संभाषण का जो पात्र था और युद्ध, मंत्नणा तथा साधारण कार्यों का अभिनेता था, मरणधर्मा मनुष्य की इस तनु में बराबर ही कोई ऐसी चीज थी जो महान्, निगूढ़ तथा अत्यंत मार्मिक थी, उसके अंदर थे परमेश्वर, अवतार, विराट् शक्ति, एकमेव सद्वस्तु, परमोच्च परात्पर पुरुष । इस गुह्य देवत्व के प्रति, जिसमें मनुष्य तथा उसकी जाति के सुदीर्घ विकास का समस्त मर्म लिपटा पड़ा है और जिससे संपूर्ण जगत्-सत्ता अपना अकथनीय महिमा से युक्त आभ्यंतरिक अर्थ प्राप्त करती है, वह अंध
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ही रहा था । केवल अब ही वह वैयक्तिक ढांचे में विद्यमान विश्वात्मा को, मानवता के रूप में मूर्तिमंत भगवान् को तथा प्रकृति के इस प्रतीक में परात्पर अंतर्वासी को देखता है । केवल अब ही उसने इन सब प्रतीयमान पदार्थों की इस अतिगुरु, अनंत, अपरिमेय वास्तव सत्ता के, इस असीम विश्वरूप के दर्शन किये हैं जो प्रत्येक व्यष्टिगत रूप से इतना परे हैं और फिर भी प्रत्येक व्यष्टिभूत पदार्थ जिनका निवास-धाम है । क्योंकि, वह महान् वास्तव सत्ता सम तथा अनंत है और व्यष्टि तथा विश्व दोनों में वह वही एक है । पहले-पहल उसे अपनी अंधता, इन भगवान् को केवल बाह्य मनुष्य समझते हुए उसी रूप में इनके साथ व्यवहार करना, इनके साथ होनेवाले केवल मानसिक तथा भौतिक संबंध को ही देखना वहाँ उपस्थित महामहिम देव के प्रति एक पाप प्रतीत होता है । कारण, वह पुरुष जिसे वह कृष्ण, यादव, सखा कहकर पुकारता था ये अपरिमेय-महिमामय, ये अप्रतिम-प्रभावशाली, सबमें अवस्थित एकमेव परमात्मा ही थे जिनकी ये सब प्रजाएँ हैं । इन्हींको, आवरणकारी बाह्य मानवता को नहीं, 'अवजानन्ति मानुषीं तनुमाश्रितम्' उसे संभ्रम, समर्पण तथा सम्मान के साथ देखना चाहिये था |
परंतु उसके मनमें दूसरा सुझाव यह आता है कि मानवीय अभिव्यक्ति तथा मानवीय संबंध के रूप में जो कुछ मूर्त्तिमंत था वह भी एक सत्य वस्तु है जो विराट्f-पुरुषदर्शन के अति महान् स्वरूप के संग रहती है तथा उसे हमारे मनके लिए कुछ खर्व कर देती है । विश्वातीत तथा वैश्व रूपोंका भी साक्षात्कार करना होगा, क्योंकि ऐसे साक्षात्कार के बिना मानवता की सीमाओं को पार नहीं किया जा सकता । उस एकीकारक एकत्व में सब कुछको समाविष्ट करना होगा । परंतु केवल अपने-आपमें वह एकत्व विश्वातीत आत्मा और अपरा प्रकृति के अंदर बंधी और घिरी हुई इस अंतरात्मा के बीच बड़ी भारी खाई खोद देगा । अपनी अन्यून प्रभा से युक्त अनंत उपस्थिति सीमित, व्यष्टिरूप तथा प्रकृतिगत मनुष्य की पृथक्त्वमूलक क्षुद्रता के लिए अतीव अभिभूतकारी होगी । एक जोड़नेवाली कड़ी की जरूरत है जिसके द्वारा वह इन विराट् परमेश्वर को अपनी वैयक्तिक एवं प्राकृतिक सत्ता में, अपने समीप स्थित देख सके, केवल इस रूप में नहीं कि उसकी संपूर्ण सत्ता को अपनी विश्वव्यापी अपरिमेय शक्ति के द्वारा नियंत्रित करने के लिए वे सर्वशक्तिमान् रूप में उपस्थित हैं, बल्कि घनिष्ठ वैयक्तिक संबंध के द्वारा उसे आश्रय देने तथा एकत्व की ओर उठा ले जाने के लिए मानव-रूप में भी मूर्तिमंत है । जिस उपासना के द्वारा सांत प्राणी अनंत के सामने नमन करता है वह उस समय अपना समस्त माधुर्य प्राप्त कर लेती है तथा सख्य और एकत्व के घनिष्ठतम सत्य के निकट पहुँच जाती है जब वह गभीर होकर उस अधिक
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घनिष्ठ उपासना का रूप धारण कर लेती है जो ईश्वर के पितृभाव एवं सख्य-भावमें तथा परमात्मा और हमारी मानव आत्मा एवं प्रकृति के बीच होनेवाले आकर्षक प्रेम के भाव मे निवास करती है । क्योंकि, भगवान् मानव-आत्मा और देह में वास करते हैं; वे मानव-मन तथा आकार को अपने चारों ओर विरचित करते तथा वस्त्र की न्याइँ धारण करते हैं । वे उन मानवीय संबंधों को ग्रहण करते हैं जिन्हें आत्मा मर्त्य शरीर में स्थापित करती है और वे संबंध ईश्वर में अपना निजी पूर्णतम अर्थ एवं महत्तम अनुभूति और चरितार्थता प्राप्त करते हैं । यह वैष्णव भक्ति है जिसका बीच यहाँ गीता के शब्दों में निहित है पर जिसने आगे चलकर अधिक गभीर, उल्लासमय और अर्थपूर्ण विस्तार प्राप्त कर लिया है ।
इस दूसरे सुझाव से तुरंत ही एक तीसरा सुझाव उत्पन्न होता है । विश्वातीत और विश्वव्यापी पुरुष का रूप मुक्त आत्मा की सामर्थ्य के लिए एक महान्, उत्साहप्रद तथा शक्तिदायक रूप है, शक्ति का स्रोत है, सम तथा उदात्त करनेवाला और सबका औचित्य सिद्ध करनेवाला दिव्य दर्शन है; परंतु सामान्य मनुष्य के लिए यह अभिभूतकारी, त्रासदायक तथा ग्रहण्यातीत है । और फिर आश्वासन देनेवाला सत्य, ज्ञात हो जाने पर भी, सर्वसंहारक कालके भीषण तथा शक्तिशाली रूप के और अगम्य संकल्प तथा विशाल अप्रमेय गहन क्रिया के पीछे, कठिनाई से ही समझ में आता है । किन्तु दिव्य नारायण का एक मध्यस्थता करनेवाला कृपालु रूप भी है, उन नारायण का जो मनुष्य के इतने निकट तथा उसके अंदर विद्यमान ईश्वर हैं, युद्ध और यात्रा के सारथि हैं, सहायक-शक्ति-स्वरूप चार भुजाओं से युक्त हैं, परमेश्वर के मानव-भावापन्न प्रतीक हैं, सहस्रबाहु विराट् पुरुष नहीं । इस मध्यस्थताकारी रूप को ही हमें नित्य-निरंतर अपने अवलंब के रूप मे अपने सम्मुख रखना होगा । क्योंकि, भगवान् का यह नारायण-रूप आश्वासनदायी सत्य का प्रतीक है । यह उस बृहत् आध्यात्मिक हर्ष को घनिष्ठ, प्रत्यक्ष, जीवंत और गोचर बना देता है जिसमें मनुष्य की आभ्यंतरिक आत्मा और उसके जीवन के लिए वैश्व व्यापार, अपनी समस्त विशाल चक्राकार गति, ह्रास तथा विकास के पीछे, सर्वोच्च रूपसे, पर्यवसित होते हैं और जो उनकी अत्यद्भुत मंमलमय परिणति है । इस मानवभावापन्न देहधारी आत्मा के लिए उनकी परिणति यहाँ मिलन, घनिष्ठता, मनुष्य और ईश्वर के सतत सख्य का रूप धारण कर लेती है, अर्थात् मनुष्य जगत् में ईश्वर के लिए जीवन यापन करता है और ईश्वर उसके भीतर निवास करते हैं तथा इस दुर्बोध्य जगत्-प्रक्रिया को उसके अंतर्निहित अपने निजी दिव्य उद्देश्यों के लिए
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उपयोग में लाते हैं । इस परिणति से परे सनातनके किये हुए चरम रूपांतरों के साथ एक और भी आश्चर्यमय एकत्व तथा उनमें अंतर्निवास है ।
अर्जुन की प्रार्थना के उत्तर में परमेश्वर अपना सामान्य नारायण-रूप, 'स्वकं रूपम्' प्रसाद प्रेम, माधुर्य और सौंदर्य से संपन्न अभीष्ट रूप पुनः धारण करते हैं, परंतु, उससे पहले वे उस दूसरे शक्तिशाली रूप की, जिसे वे छिपानेवाले ही हैं, अमित महिमा उद्घोषित करते हैं । वे उसे बताते हैं कि ''यह रूप जो तू अब देख रहा है मेरा परम रूप है, तेजोमय, आद्य विश्वरूप है जिसे मनुष्यों में तेरे सिवा और किसी ने अभीतक नहीं देखा । अपने आत्म-योग से मैंने तुझे यह दिखाया है । क्योंकि, यह मेरी वास्तविक आत्मा एवं अध्यात्मसत्ता का रूप है, यह जागतिक सत्ता के रूप में मूर्त्तिमंत साक्षात् पुरुषोत्तम ही हैं । मेरे साथ पूर्ण रूप से योगयुक्त आत्मा इसे स्नायविक अंगों के किसी प्रकारके कंपन या मनके किसी भी भ्रम एवं व्यामोह के बिना देखती है, क्योंकि वह इसकी बाह्य आकृति में विद्यमान भीषण तथा अभि-भूतकारी तत्व को ही नहीं बल्कि इसके उच्च तथा आवश्यक अर्थ को भी देखती है । और तुझे भी इसे उसी प्रकार बिना भय के, बिना मन के मूढ़भाव तथा इंद्रिय आदि अवयवों के अवसाद के देखना चाहिए, पर, क्योंकि तेरी निम्नतर प्रकृति इसे उस उच्च साहस तथा शांति के साथ देखने के लिए अभी तैयार नहीं है, मैं तेरे लिए अपना वह नारायण-रूप पुनः धारण करूँगा जिसमें मानव मन सुहृद्भूत परमेश्वर की शांति, साहाय्य और आनंद को अमिश्रित तथा अपनी मानवता के अनुकूल मृदुल रूप में देखता है । यह महत्तर रूप'' --और ये शब्द इस रूप के अंतर्धान होने के बाद पुन: दुहराये गये हैं--''केवल विरली उच्चतम आत्माओं के लिए ही है । स्वयं देवता भी नित्यप्रति इस रूप के दर्शन की आकांक्षा किया करते हैं । इसे मनुष्य वेद, तप, दान या यज्ञ के बल पर नहीं देख सकता, बल्कि इसे वह सब वस्तुओं में केवल मुझे ही देखने, पूजने और प्रेम करनेवाली भक्ति के द्वारा देख एवं जान सकता है तथा इसके भीतर प्रवेश पा सकता है ।''१
तब भला इस रूप की वह अनुपम विशेषता क्या है जिसके कारण यह ज्ञान का विषय बनने से इतना ऊपर उठा हुआ है कि मानव-ज्ञान का संपूर्ण सामान्य प्रयास और यहांतक कि उसके आध्यात्मिक पुरुषार्थ का अंतरतम तप भी बिना सहायता के, इसके दर्शन उपलब्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं ? वह यह है कि अन्य साधनों से मनुष्य एकमेव सत् के इस या उस ऐकांतिक रूप को ही, उस 'एकं सत्' के व्यक्तिगत, विश्वगत या विश्व-व्यावर्तक रूपों को ही जान सकता है, पर भगवान् के समस्त रूपों के इस महत्तम समन्वयकारी एकत्व को नहीं
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जान सकता जिसमें एक ही साथ और एक ही दर्शन में सब कुछ अभिव्यक्त, अति- क्रांत और संसिद्ध रहता है । क्योंकि यहाँ विश्वातीत, विश्वव्यापी और व्यक्तिगत ईश्वर, आत्मा और प्रकृति, अनंत और सांत, देश, काल और कालातीतता, सत्ता और संभूति, जो कुछ भी हम परमेश्वर के बारे में सोचने का यत्न कर सकते हैं तथा जो कुछ उनके बारे में जानते हैं वह सब, फिर चाहे वह निरपेक्ष सत्ता के विषय में हो या व्यक्त सत्ता के, एक अनिर्वचनीय एकत्व में अद्भुत ढंग से प्रकाशित हो जाता है । ये दर्शन केवल अनन्य भक्ति एवं प्रेम तथा उस घनिष्ठ एकता के द्वारा प्राप्त हो सकते हैं जो कर्म और ज्ञान की पूर्णता का सर्वोच्च शिखर होती है । उस समय पुरुषोत्तम के इस परमोच्च रूप को जानना तथा देखना और इसमें प्रवेश करना तथा इसके साथ एकमय होना संभव होता है, और गीता अपने योग का यही लक्ष्य हमारे सामने प्रस्तुत करती है । एक परम चैतन्य है जिसके द्वारा परात्पर की महिमा में प्रवेश करना तथा उनके अंदर अक्षर आत्मा और समस्त क्षर भावको धारण करना संभव है,--सबके साथ एकीभूत और फिर भी सबसे ऊपर होना, जगत् को अतिक्रांत कर जाना और फिर भी विश्वगत ईश्वर तथा विश्वातीत ईश्वर दोनों की संपूर्ण प्रकृति का एक साथ आलिंगन करना संभव है । निश्चय ही अपने मन और शरीर की कारा में बद्ध सीमित मनुष्य के लिए ऐसा करना कठिन है : किंतु, भगवान् कहते हैं, ''मेरे कर्मोंको करनेवाला बन, मुझे परम पुरुष तथा परम विषय स्वीकार कर, मेरा भक्त बन, आसक्ति से मुक्त और सर्वभूतों के प्रति निर्वैर हो जा; क्योंकि ऐसा मनूष्य ही मुझे प्राप्त करता है ।''१ दूसरे शब्दों में, निम्न प्रकृति से ऊपर उठना, प्राणिमात्र से एकता, विश्वव्यापी ईश्वर तथा परात्पर भाव के साथ एकत्व, कर्मों में हमारी इच्छा का भगवान् की इच्छा के साथ एकत्व, एकमेव के लिए तथा सर्वगत ईश्वर के लिए परम प्रेम,--यही उस चरम-परम आध्यात्मिक स्व-अतिक्रमण तथा उस अकल्पनीय रूपांतर का मार्ग है ।
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