गीता-प्रबंध

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Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
English
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Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

यज्ञ के अधीश्वर

 

      आगे बढ़ने से पहले, जो कुछ कहा जा चुका है, उसके मूल सिद्धांतों का हम लोग सिंहावलोकन करते चलें । गीता का संपूर्ण कर्म-सिद्धांत उसकी यज्ञसंबंधी भावना पर अवलंबित है और ईश्वर, जगत् और कर्म के बीच सनातन संयोजक सत्य इसमें समाया हुआ है । मानव-मन साधारणतया जीवन के बहुमुखी सनातन सत्य की केवल आंशिक धारणाओं और दृष्टिकोणों को पकड़ पाता है और उन्हीं के आधार पर जीवन, सदाचार और धर्मसम्बन्धी नाना प्रकार के सिद्धांतों को गढ़  डालता है, तथा उनके इस या उस प्रकार या रूप पर जोर देने लगता है । लेकिन मन जब महान् प्रकाश के युग में अपने जगत्-ज्ञान के साथ भागवत ज्ञान और आत्मज्ञान के पूर्ण और समन्वयात्मक सम्बन्ध की ओर लौटता है तों उसे हमेशा किसी पूर्णता की ओर पुनर्जागृत होना चाहिए । गीता की शिक्षा वेदान्त के इस मूल सत्य पर आश्रित है कि सारी आत्मसत्ता एक ब्रह्मसत्ता ही है और सारी भूतसत्ता उसी ब्रह्म का चक्र है; एक ऐसी दिव्य संसृति है जिसकी प्रवृत्ति भगवान् से होती और भगवान् में ही जिसकी निवृत्ति होती है । सब प्रकृति का ही प्राकटय-कर्म है और प्रकृति भगवान् की वह शक्ति है जो अपने कर्मों के स्वामी और अपने रूपों के अंतर्यामी भागवत पुरुष की चेतना और इच्छा को ही कार्य में परिणत किया करती है । उसी अंतर्यामी की प्रसन्नता के लिये वह नामरूप की लीला में और प्राण तथा मन के कर्मों में अवतीर्ण होती है और फिर मन-बुद्धि और आत्म-ज्ञान के द्वारा वह उस आत्मा को सचेतन रूप से पुन : प्राप्त कर लेती है जो उसके अन्दर निवास करती है । पहले आत्मा, जो कुछ भी वह है तथा नामरूपात्मक विकास से उसका जो कुछ भी अभिप्राय है वह सब, प्रकृति में समा जाता है; इसके बाद आत्मा का विकास होता है, अर्थात् वह जो कुछ है, उसका जो अभिप्राय है, और जो छिपा हुआ है, पर नामरूपात्मक सृष्टि जिसकी सूचना करती है, वह सब प्रकट होता है । प्रकृति का यह चक्र कभी संभव न होता यदि पुरुष अपनी तीन शाश्वत अवस्थाओं को एक साथ धारण करके बनाये न रखता, क्योंकि प्रत्येक अवस्था इस कर्म की समग्रता के लिये आवश्यक

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है । पुरुष का क्षररूप में अपने-आपको प्रकट करना अपरिहार्य है, और हम देखते हैं कि क्षर-रूप में पुरुष परिच्छिन्न है, अनेक है, अर्वभूतानि' है । अब हम उसे अनन्त वैचित्र्य और नानाविध संबंधों से युक्त असंख्य प्राणियों के परिच्छिन्न व्यक्तित्व के रूप में देखते हैं, फिर हमें वह इन सब प्राणियों के पीछे होनेवाली देवताओं की क्रियाओं के मूलतत्व और उनकी शक्ति के रूप में दिखायी देता है--अर्थात् भगवान् की उन विश्वशक्तियों और गुणों के रूप में जिनके द्वारा जगत्-जीवन संचालित होता है और जहाँ हमें वह एक सत्ता अपने विविध विश्वरूपों में दिखायी देती है, अथवा हो सकता है कि एक ही परम पुरुष की विभूति के ये विविध आत्म-आविर्भाव हों । फिर, इन सब रूपों और सत्ताओं के पीछे और इनके अन्दर हमें यह भी प्रतीति होती है कि एक गूढ़, अक्षर, अनन्त, देश-कालातीत, नैर्व्यक्तिक, अव्यय सत् विद्यमान है, जो सारे अस्तित्व का एक अखंड आत्मभाव है, जिसमें सृष्टि के सब बहुभाव यथार्थ में एक हो जाते हैं । अतएव उस एक पुरुष-भाव में लौट आने पर व्यष्टिगत पुरुष का सक्रिय सांत व्यक्तित्व यह देखता है कि इस अखंड अनंत से जो कुछ नि:सृत होता और उसके द्वारा जो कुछ धारित होता है वह उसके अक्षर और अलिप्त ऐक्यकी शांति और समस्थिति में तथा विश्वव्यापकता की प्रशांत विशालता में मुक्त हो सकता है । अथवा चाहे तो इसमें जाकर वह व्यष्टिसत्ता से भी छुटकारा पा सकता है । परन्तु सबसे परम गुह्य 'उत्तमं रहस्यं' है पुरुषोत्तमतत्व । पुरुषोत्तम परब्रह्म परमेश्वर हैं, जो अनन्त और सांत दोनों अवस्थाओं को अपने अन्दर धारण किये हुए हैं और जिनमें व्यक्ति और निर्व्यक्ति, एक ब्रह्म और अनेक भूत, आत्मसत्ता और भूत-भाव, संसार-कर्म और विश्वातीत शान्ति, प्रवृत्ति और निवृत्ति, ये सब-के-सब मिलकर एकत्व को प्राप्त होते हैं, एक साथ और अलग-अलग भी धारण किये जाते हैं । परमेश्वर के अन्दर ही सब वस्तुओं का गुह्य सत्य और निरपेक्ष समन्वय होता है ।

     कर्मों का सारा सत्य सत्ता के सत्य पर ही निर्भर होता है । सारा सक्रिय जीवन अपने अंतरतम सत्स्वरूप में प्रकृति का पुरुष के प्रति कर्म-यज्ञ के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता । यह प्रकृति का अपने अन्दर रहनेवाले सांत बहुपुरुष की कामना को उस एक परम और अनन्त पुरुष के चरणों में भेंट चढ़ाना है । जीवन एक यज्ञवेदी है जिसपर प्रकृति अपने सब कर्मों और कर्मफलों को लाती और उन्हें भगवान् के उस रूप के सामने रखती है जिस रूप तक उसकी चेतना उस समय पहुँच पायी हो । इस यज्ञ से उसी फल की कामना की जाती है जिसे शरीर-मन-प्राण में रहनेवाला जीव अपना तात्कालिक या परम श्रेय मानना हो ।

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प्रकृतिस्थ पुरुष अपनी चेतना और आत्मसत्ता के जिस स्तर तक. पहुँचता है उसी के अनुसार उस ईश्वर का वह स्वरूप होता है जिसे वह पूजता है, आनन्द का वह स्वरूप होता है जिसे वह ढूंढ़ता है और वह आशा होती है जिसके लिये वह यज्ञ करता है । प्रकृतिगत क्षर पुरुष की प्रवृत्ति में सारा व्यवहार पारस्परिक आदान-प्रदान है । क्योंकि सारा जीवन एक है और इसके विभाजन स्वभावत: परस्पर अवलंबन के किसी ऐसे विधान पर स्थापित हो सकते है जिसमें प्रत्येक विभाग दूसरेके सहारे बढ़ता और सबके सहारे जीता हो । जहाँ यज्ञ में स्वेच्छा से आहुति नहीं दी जाती वहाँ प्रकृति जबरदस्ती वसूल करती है और इस प्रकार अपने जीवन-विधान की रक्षा करती है । पारस्परिक आदान-प्रदान जीवन का नियम है जिसके बिना वह एक क्षण के लिये भी नहीं टिक सकता और यह तथ्य संसार पर उस भगवान् के सर्जनशील संकल्प की छाप है जिसने संसार को अपनी सत्ता में अभिव्यक्त किया है । और यह इस बात का प्रमाण है कि यज्ञ के साथ, यज्ञ को सदा के लिये प्रजाओं का साथी बनाकर प्रजापति ने सृष्टि की थी । यज्ञ का यह विश्वव्यापक विधान इस बात का सुस्पष्ट चिह्न है कि यह संसार ईश्वर का है और ईश्वर का ही इसपर अधिकार है । जीवन उसी का राज्य और अर्चना-मंदिर है, किसी स्वतंत्न अहंकार की आत्मतुष्टि का साधन-क्षेत्न नहीं । अहंकार की पुष्टि हम लोगौं के स्थूल और असंस्कृत जीवन का आरम्भमात्र है, जीवन का परम हेतु तो भगवान् की प्राप्ति, अनन्त देवेश की पूजा और खोज है, इसका साधन निरंतर बढ़ते रहनेवाला वह यज्ञ है जिसकी परिपूर्ण ता पूर्ण आत्मज्ञान पर प्रतिष्ठित पूर्ण आत्मदान में होती है । जीवन में जो अनुभव प्राप्त होते हैं उनका हेतु अंत में भगवान् की ओर ले जाना ही है ।

     परन्तु व्यष्टिभूत जीव का जीवन अज्ञान के साथ शुरू होता है और बहुत काल-तक अज्ञान में ही रहता है । अपने-आपपर ही दृष्टि रहने के कारण वह भगवान् को नहीं, बल्कि अहंकार को ही जीवन का मूल कारण और एकमात्र अर्थ समझता है । वह अपने कर्मों का कर्ता अपने-आपको ही जानता है और यह नहीं देख पाता कि जगत् के सारे कर्म जिनमें उसके अपने आंतर और बाह्य सब कर्म ही शामिल हैं, एक ही विश्व-प्रकृति द्वारा होनेवाले कर्म हैं, और कुछ भी नहीं । वह अपने-आपको ही सब कर्मों का भोक्ता समझता है और यह कल्पना करता है कि सब कुछ उसके भोगके लिए है और इसलिए यही चाहता है कि प्रकृति उसकी व्यष्टिगत इच्छाओं को माने और तृप्त करे; उसे यह नहीं सूझता कि उसकी इच्छाओं को तृप्त करने से प्रकृति का कुछ भी वास्ता नहीं है, उसकी इच्छाओं को जानने की उसे परवा भी नहीं, प्रकृति एक उच्चतर संकल्प की आज्ञा का पालन करती है और उस देव

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को तृप्त करना चाहती है जो उससे, उसके कर्मों और उसकी सृष्टियों से अतीत है । मनुष्य की परिसीमित सत्ता, उसकी इच्छा और उसकी इच्छा की तृप्ति उसकी अपनी नहीं, बल्कि प्रकृति की है और प्रकृति इन सब चीजों को प्रतिक्षण उन भगवान् को यज्ञ-रूप से अर्पण किया करती है जिनके हेतु को सिद्ध करने के लिए वह इन सब चीजों को अज्ञात, अप्रकट साधनमात्न बनाया करती है । इस अज्ञान के कारण ही, जिसकी मुहर-छाप अहंकार है, जीव यज्ञ के विधान की उपेक्षा करता है और संसार में सब कुछ अपने लिए ही बटोरना चाहता है और केवल उतना ही देता है जितना प्रकृति अपनी भीतरी और बाहरी दबाव से दिलवाती है । यथार्थ में वह उससे अधिक कुछ नहीं ले सकता, जितना प्रकृति उसे लेने देती है, जितना प्रकृति में स्थित ईश्वरी शक्तियाँ उसकी कामना पूरी करने के लिए देती हैं । यज्ञमय संसार में अहंकारविमूढ़ जीव मानो ऐसा है जैसे कोई चोर या लुटेरा हो जो इन दैवी शक्तियों का दिया हुआ सब कुछ लेता तो है, पर बदले में कुछ देने की नीयत नहीं रखता । वह जीवन के वास्तविक अभिप्राय से वंचित रह जाता है और चूंकि वह अपने जीवन तथा कर्मो का उपयोग यज्ञ के द्वारा अपनी सत्ता को उदार, विशाल और उन्नत बनाने में नहीं करता, इसलिए वह व्यर्थ ही जीता है ।

     जब व्यष्टिभूत जीव अपने सब व्यवहारों में दूसरों में स्थित आत्मा के महत्व को उतना ही अनुभव करने और मानने लगता है जितना कि वह् अपने अहंकार की ताकत और आवश्यकताओं को मानता है, जब वह अपने सब कार्यों के पीछे विश्वप्रकृति को अनुभव करने लगता और विश्वदेवताओं के रूप में उस अखण्ड अनन्त एक की झलक पाता है, तब वह अहंजन्य अपनी सीमा को पार करने और अपने आत्मस्वरूप को पा लेने के रास्ते पर आ जाता है । वह एक ऐसे धर्म को, एक ऐसे विधान को जानने लगता है जो उसकी कामनाओं के विधान से भिन्न होता है, उसकी कामनाओंको उस विधानके ही अधिकाधिक अधीन और अनुगत होना चाहिए । अबतक जहाँ उसकी सत्ता में केवल अहंकार ही अहंकार दिखायी देता था, वहाँ अब समझ और नैतिकता विकसित हो जाती है । वह अपने अहंकार की माँग की अपेक्षा दूसरों की आत्माओं की माँग को अधिक महत्व देने लगता है; वह अहंकार और परोपकार के बीच के संघर्ष को स्वीकार करता और अपनी परोपकारवृत्ति को बढ़ाकर अपनी चेतना और सत्ता का विस्तार करता है । वह प्रकृति और प्रकृति में स्थित दैवी शक्तियों को अनुभव करने लगता और यह मानता है कि मुझे इनका यजन-पूजन करना चाहिए, इनकी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं के द्वारा और इन्हीं की उपस्थिति और महत्ता को अपने विचार,

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संकल्प और प्राण में संवर्धित करने से मैं अपनी शक्ति, ज्ञान और सत्कर्म को तथा इनसे प्राप्त होनेवाली तुष्टि-पुष्टि को बढ़ा सकता हूँ । इस प्रकार वह जीवन-विषयक अपने जड़प्राकृतिक और अहमात्मक भाव में धार्मिक और अतिभौतिक भाव को जोड़ देता और सांत से होकर अनन्त में ऊपर उठ जाने के लिए_ तैयारी करता है ।

       परन्तु यह केवल एक बीचकी और बहुत दिनों तक रहनेवाली अवस्था है । यह अवस्था अभी भी काम ना के विधान और उसके अहंकार की आवश्यकता और धारणा की प्रधानता के तथा उसकी सत्ता और कर्मों पर उसकी प्रकृति के नियंत्रण के अधीन है, यद्यपि यह कामना संयत और नियंत्रित है, यह अहंकार परिमार्जित है और यह प्रकृति के सत्वगुण के द्वारा अधिकाधिक मात्रा में सूक्ष्मीभूत  .और प्रकाशमान है । पर यह सब क्षर, सांत व्यष्टि बुद्धि के क्षेत्र में, अवश्य ही उसके बहुत अधिक व्यापक क्षेत्र में, होता है । वास्तविक आत्मज्ञान और फलत : सच्चा कर्ममार्ग इसके परे है; क्योंकि ज्ञानयुक्त होकर किया जानेवाला यज्ञ ही सबसे श्रेष्ठ है और वही आदर्श कर्म को लाता है । यह अवस्था तभी आ सकती है जब मनुष्य यह अनुभव करे कि मेरे अन्दर और दूसरों के अन्दर जो आत्मा है, वह एक ही सत्ता है और यह आत्मा अहंकार से ऊँची चीज है, यह अनन्त है, नैर्व्यक्तिक है, विश्वव्यापी सत् है जिसमें सब प्राणी चलते-फिरते और जीते-जागते हैं, जब वह यह अनुभव करता है कि समस्त विश्व-देवता, जिनके लिए वह इन सब यज्ञों को करता है, एक ही अनन्त परमेश्वर के विभिन्न रूप हैं और जब वह उस एक परमेश्वर-सम्बन्धी अपनी मर्यादित और मर्यादित करनेवाली धारणाओं का परित्याग करके उन्हें एक अनिर्वचनीय परमदेव जानता है जो एक ही साथ सांत और अनन्त है, जो एक पुरुष है और साथ ही अनेक भी, जो प्रकृति के परे होकर भी प्रकृति के द्वारा अपने-आपको प्रकट करता है, जो त्रिगुण के बंधनों के परे होकर भी अपने अनन्त गुणों के द्वारा अपनी सत्ता की शक्ति को नामरूपान्वित किया करता है । वही पुरुषोत्तम हैं जिन्हें यज्ञमात्र समर्पित करना होता है, किसी क्षणिक वैयक्तिक कर्मफल के लिए नहीं, बल्कि भगवान् को प्राप्त करने के लिए ताकि भगवान् के साथ समस्वरता और एकता में रहा जा सके ।

      दूसरे शब्दों में, मनुष्य की मुक्ति और सिद्धि का मार्ग उत्तरोत्तर बढ़नेवाली नैर्व्यक्तिकता के द्वारा ही मिलता है । मनुष्य का यह पुरातन और सतत अनुभव है । वह नैर्व्यक्तिक और अनन्त पुरुष की ओर--जो विशुद्ध, ऊर्ध्व और सब वस्तुओं में और सत्ताओं में एक और सम है, जो प्रकृति में नैर्व्यक्तिक और अनन्त है, जो जीवन में नैर्व्यक्तिक और अनन्त है, जो उसकी अंतरंगता में नैर्व्य-

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क्तिक और अनन्त है--जितना अधिक खुलता है उतना ही अहंकार तथा सांत के दायरे से कम बंधता है, और उतना ही अधिक विशालता, शान्ति और निर्मल आनन्द का अनुभव करता है, जो आमोद, सुख और चैन उसे सान्त से ही मिल जाता है या उसका अहंकार अपने ही अधिकार से प्राप्त कर सकता है, वह क्षणिक, क्षुद्र और अरक्षित होता है । अहंभाव में और उसकी संकुचित धारणाओं, शक्तियों और सुखों में ही डूबे रहना इस संसार को सदा के लिये 'अनित्यं असुखं' बना लेना है; सान्त जीवन सदा ही व्यर्थता के भाव से व्यथित रहता है और इसका मूल कारण यह है कि सांतता जीवन का समय या उच्चतम सत्य नहीं है; जीवन तबतक पूर्णतया यथार्थ नहीं होता जबतक वह अनन्त की भावना की ओर नहीं खुलता । यही कारण है कि गीता ने अपनी कर्मयोग की शिक्षा के आरम्भ में ही ब्राह्मी स्थिति पर, नैर्व्यक्तिक जीवन पर इतना जोर दिया है, जो प्राचीन मुनियों की साधना का महान् लक्ष्य था । क्योंकि जिस नैर्व्यक्तिक अनन्त एक में विश्व की चिरंतन, परिवर्तनशील, नानाविध कर्मण्यताओं को स्थायित्व, संरक्षण और शान्ति प्राप्त होती है वह अचल अविनाशी आत्मा, अक्षर, ब्रह्म ही है, जो उन सबके ऊपर है । यदि इस बात को हम समझ लें तो यह भी समझ लेंगे कि अपनी चेतना और आत्मस्थिति  को सीमाबद्ध व्यष्टिगत भाव से निकालकर इस अनंत नैर्व्यक्तिक ब्रह्म में ऊपर ले जाना सबसे पहली आध्यात्मिक आवश्यकता है । इस एक आत्मा के अन्दर सब सत्ताओं को अनुभव करनी ही वह ज्ञान है जो जीव को अहंभावजनित अज्ञान और उसके कर्मों तथा कर्मफलों से ऊपर उठा देता है; इस ज्ञान में रहना ही शान्ति लाभ करना और दृढ़  आध्यात्मिक नींव की प्रतिष्ठा करना है ।

       इस महान् रूपान्तर का मार्ग द्विविध है; एक है ज्ञानमार्ग और दूसरा कर्म- मार्ग । गीता इन दोनों का सुदृढ़ समन्वय करती है । ज्ञानमार्ग है बुद्धि को मन और इन्द्रियों के व्यापार में रत होनेवाली निम्न वृत्ति से फेरना और उसे एक आत्मा, पुरुष या ब्रह्म की ओर ऊर्ध्वमुखी कर देना, उसे सदा एक पुरुष की एक ही भावना में रखना और मन की अनेक शाखा-प्रशाखाओंवाली धरणाओं और कामनाओं के नानाविध प्रवाहों से बाहर निकालना । यदि इतना ही लिया जाय तो ऐसा लगेगा कि यह पूर्ण कर्मसंन्यास, निश्चल निश्चेष्टता और प्रकृति-पुरुष के विच्छेद का मार्ग है । परन्तु यथार्थ में इस प्रकार का निरपेक्ष कर्मसंन्यास, निश्चेष्टता और प्रकृति-पुरुष-विच्छेद संभव नहीं है । पुरुष और प्रकृति सत्ता के युगल तत्व हैं जो एक-दूसरेसे अलग नहीं किये जा सकते, और जबतक हम प्रकृति में निवास करते हैं तबतक प्रकृति में हमारा कर्म भी होता ही रहेगा, चाहे

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अज्ञानी जिस प्रकार कर्म करता है उससे ज्ञानी का कर्म अपने प्रकार और अर्थ में भिन्न ही क्यों न हो । संन्यास तो करना ही होगा, पर वास्तविक संन्यास कर्म से भागना नहीं, बल्कि अहंकार और कामना का वध करना है और इसका मार्ग है कर्म करते हुए भी कर्मफल की आसक्ति का त्याग और प्रकृति को कर्म की कर्ती जानकर उसे अपने कर्म करने देना तथा साक्षी और भर्तारूप से पुरुष के अन्दर वास करके प्रकृति के कर्मों को देखना और संभालना पर उन कर्मों या उनके फलों से आसक्त न होना, इससे अहंकार अर्थात् सीमाबद्ध विक्षुब्ध व्यष्टिभाव शान्त होता और एक नैर्व्यक्तिक आत्मा के चैतन्य में निमज्जित हो जाता है । हमारी दृष्टि के आगे प्रकृति के कर्म जीते-जागते, चलते-फिरते और कर्मरत दिखायी देने-वाले इन सब भूत प्राणियों के द्वारा सर्वथा प्रकृति की ही प्रेरणा से उस एक अनन्त आत्मसत्ता में होते रहते हैं; हमारा अपना सान्त जीवन भी इन्हीं भूतसत्ताओं में से एक है, ऐसा देख पड़ता और अनुभव होता है । इसके द्वारा होनेवाले कर्म उस सदात्मा के कर्म नहीं लगते जो सदा निश्चल-नीरव नैर्व्यक्तिक एकत्व है, बल्कि ऐसे दिखायी देते और अनुभूत होते हैं कि वे प्रकृति के ही हैं । पहले अहंकार यह दावा करता था कि ये उसके कर्म हैं और इसलिए इन कर्मों को हम अपने कर्म समझते थे; पर अब अहंकार तो मर गया इसलिए कर्म भी हमारे नहीं रहे बल्कि प्रकृति के हो गये । अहंकार का वध करके हमने अपनी सत्ता और चेतना में नैर्व्यक्तित्व को सिद्ध किया; और कामना का संन्यास करके अपनी प्रकृति के कर्मों में नैर्व्यक्तित्व लाभ किया । अब हम मुक्त हैं केवल अकर्म में ही नहीं बल्कि कर्म में भी, हमारी मुक्ति शरीर और मन की निश्चलता और शून्यता पर निर्भर नहीं है, न कर्म करते ही हम अपनी मुक्ति से च्युत होते हैं । स्वाभाविक कर्म के पूर्ण प्रवाह में भी हमारी नैर्व्यक्तिक आत्मा स्थिर, शांत और मुक्त रहती है ।

      इस पूर्ण नैर्व्यक्तिकता से प्राप्त होनेवाली मुक्ति सच्ची, पूरी और अनिवार्य होती है; परन्तु क्या यही सब कुछ है, क्या यही इस विषय की अंतिम इति है ? हम कह चुके हैं कि सारा जीवन, सारे जगत् का अस्तित्व एक यज्ञ है जो प्रकृति उस पुरुष के प्रीत्यर्थ किया करती है जो प्रकृति के अन्दर सबका एक गूढांतरात्मा है, जिसके अन्दर प्रकृति के सब कर्म होते हैं; परन्तु यज्ञ के इस वास्तविक स्वरूप को हमारा अहंकार, हमारी कामना, हमारा सीमित सक्रिय बहुभावापन्न व्यक्तित्व छिपा देता है । अब हम अहंकार, कामना और सीमित व्यक्तित्व से ऊपर उठ चुके हैं और इस अवस्था का संशोधन करनेवाली जो नैर्व्यक्तिकता है उससे हमने नैर्व्यक्तिक ब्रह्म को पा लिया है; हमने अपनी सत्ता को उस आत्मा

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और पुरुष में मिला दिया है जिसमें सबका अस्तित्व है । कर्मों का यज्ञ जारी है, पर इसके करनेवाले अब हम नहीं, बल्कि प्रकृति है जो हमारी अनन्त सत्ता में उसके सान्त भाग अर्थात् मन-बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर के द्वारा कर्म करती है । परन्तु तब इस यज्ञ को किसके अर्पण किया जाता है और किस उद्देश्य से ? क्योंकि नैर्व्यक्तिक ब्रह्म में कोई कर्तृत्व नहीं, कोई कामना-वासना नहीं, कोई प्राप्तव्य नहीं; प्राणियों के इस जगत् में किसी चीज पर उसकी निर्भरता नहीं; वह अपने लिए, अपने ही आत्मानन्द में अपनी ही अक्षर अविनाशी अव्यय सत्ता में रहता है । इस नैर्व्यक्तिक आत्मस्थिति और आत्मरति तक पहुँचने के लिए साधन के तौर पर निष्काम कर्म आवश्यक हो सकता है, पर इस अवस्था में पहुँचने पर कर्म का ध्येय पूरा हो जाता है; फिर यज्ञ की क्या आवश्यकता ? कर्म तब भी हो सकते हैं, क्योंकि प्रकृति मौजूद है और उसके कर्म हो रहे ह; परन्तु फिर इन कर्मों का ध्येय कुछ नहीं रहता । अर्थात् मुक्ति के बाद हमारे कर्म करते रहने का एकमात्र कारण केवल अभावात्मक है; यह हमारी सत्ता के सान्त भागों, मन, प्राण और शरीर पर प्रकृति की जबरदस्ती है । परन्तु यदि यही सब कुछ हो तो पहली बात यह है कि कर्मों की संख्या घटाकर कम-से-कम की जा सकती है, उतने ही काम किये जायं जितने प्रकृति हमारे शरीर से जबरदस्ती कराती है; दूसरी बात यह है कि कर्मों को चाहे कम-से-कम न भी किया जाय--क्योंकि कर्म का कुछ महत्व नहीं है न अकर्म ही ध्येय है--तो भी कर्म के स्वरूप का कोई महत्व नहीं है । अर्जुन ज्ञान प्राप्त करके अपने पुराने क्षत्नियस्वभाव के अनुसार कुरुक्षेत्न की लडाई लड़ सकता है अथवा उसे छोड्कर अपनी नवीन निवृत्तिमूलक प्रेरणा के अनुसार संन्यासी का जीवन अपना सकता है । इन दोनों में से वह कुछ भी करे, उसका महत्व नहीं, बल्कि यह कहा जा सकता है कि युद्ध की अपेक्षा संन्यासी का जीवन ही अधिक अच्छा है, क्योंकि इससे उसके पूर्व कर्मों की प्रवृत्ति के कारण मन पर प्रकृति की जिन प्रेरणाओं का दखल जमा हुआ है वे शीघ्र क्षीण हो जायँगी और वह शरीर छूटने पर निर्विघ्न रूप से अनंत नैर्व्यक्तिक ब्रह्म में चला जायगा, उसे इस 'अनित्यं असुखं लोकम्' के दु:खमय प्रमादमय जीवन में लौटने की कोई आवश्यकता न रहेगी ।

      यदि यही होता तो गीता का कोई मतलब ही न रह जाता; क्योंकि इस बात से गीता का प्रथम और प्रधान उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है । परन्तु गीता इस बात पर जोर देती है कि कर्म का स्वरूप भी महत्वपूर्ण है और कर्म को जारी रखने के लिये एक निश्चयात्मक आदेश है और सर्वथा अभावात्मक और यांत्रिक कारण यानी प्रकृति की उद्देश्यहीन जबरदस्ती ही काफी नहीं है । अहंकार

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को जीत लेने के बाद भी यज्ञ के भोक्ता भगवान् तो रहते ही है ( भोक्तारं यज्ञतपसां ) इसलिए यज्ञ का उद्देश्य फिर भी रहता है । नैर्व्यक्तिक ब्रह्म ही अंतिम वचन या हमारी सत्ता का सर्वोत्तम रहस्य नहीं है; क्योंकि नैर्व्यक्तिक और सव्यक्तिक, सांत और अनंत उसी भगवत्सत्ता के दो विपरीत पर सहवर्त्ती पहलू हैं जो इन भेदों से सीमित नहीं है और एक साथ दोनों है  । परमेश्वर एक, चिर-अव्यक्त अनंत हैं और वे अपने-आपको सांत में अभिव्यक्त करने के लिए सदा स्वत:प्रेरित है; वे वह महान् नैर्व्यक्तिक पुरुष हैं जिनके सब व्यक्तित्व आंशिक रूप हैं; वे वह भगवान् हैं जो मानव-प्राणी में अपने-आपको प्रकट करते हैं, वे प्रभु हैं जो मनुष्य के हृद्देश में निवास करते हैं । ज्ञान हमें उन्हीं के एक नैर्व्यक्तिक ब्रह्म में सब प्राणियों को देखने की शिक्षा देता है, क्योंकि इस तरह हम पृथग्भूत अहंभाव से मुक्त होते है और तब मुक्तिदायक नैर्व्यक्तिकत्व के द्वारा उनको इन प्रभु के अन्दर देखते हैं, 'आत्मनि अथो मयि,'  'आत्मा के अन्दर और तब मेरे अन्दर' । हमारा अहंकार, हमारे बंधनकारक व्यष्टिभाव ही उन प्रभु को पहचानने का रास्ता रोके रहते हैं जो सबके अन्दर हैं और सब जिनके अन्दर हैं; क्योंकि व्यष्टिभाव के अधीन होने के कारण हम उनके ऐसे खण्ड-खण्ड स्वरूपों को देख पाते हैं जिन्हें वस्तुओं के सांत रूप देखने दें । हमें उनके पास अपने निम्न व्यष्टि-भाव के द्वारा नहीं, बल्कि अपनी सत्ता के उच्च, अनन्त और नैर्व्यक्तिक अंश के द्वारा पहुँचना होगा; और वह हम आत्मा बनकर ही, जो सबके अन्दर एक है और जिसकी सत्ता में सारा जगत् अवस्थित है, उन प्रभु को पा सकते हैं । यह अनन्त जो सब सांत रूपों को विलग नहीं करता, बल्कि उन्हें अपनेमें समाए हुए है, यह नैर्व्यक्तिक जो समस्त व्यष्टित्वों और व्यक्तित्वों का त्याग नहीं करता, बल्कि उन्हें अपने अन्दर लिये हुए है, यह अक्षर जो प्रकृति की सारी हलचल से अलग नहीं है, बल्कि उसका पोषण करता है, उसमें व्याप्त है और उसे धारण किये हुए है, यही वह स्वच्छ दर्पण है जिसमे भगवान् अपनी सत्ता को प्रकट करेंगे । इसलिए पहले नैर्व्यक्तिक ब्रह्म की प्राप्ति करनी होगी; विश्वदेवताओं के द्वारा, सांत के विभिन्न अंगों के द्वारा ही भगवान् का पूर्ण ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता । पर जैसी कि एक धारणा है कि शांत, अचल, नैर्व्यक्तिक ब्रह्म अपने-आपमें बन्द है और जिनका वह पोषण और धारण करता है तथा जिनमें व्याप्त रहता है उनसे उसका कोई वास्ता नहीं है, उनसे सर्वथा अलग है,--ऐसे नैर्व्यक्तिक ब्रह्म की नीरव अचलता भी भगवान् का सर्वप्रकाशक और पूर्णसंतोषप्रद सत्य नहीं है । उसके लिए हमें इस नैर्व्यक्तिक ब्रह्म की अचल शान्ति को प्राप्त होकर उन पुरुषोत्तम को देखना होगा जो अपनी भागवत महिमा के अन्दर अक्षर और क्षर दोनोंको

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धारण किये हुए हैं । अचलता में वे स्थित हैं, पर विश्वप्रकृति की सारी प्रवृत्ति और कर्म में वे अपने-आपको अभिव्यक्त करते हैं । मुक्त होने के बाद भी प्रकृति में होनेवाले कर्मों के द्वारा उनका यजन बराबर होता रहता है ।

       इसलिए भगवात् पुरुषोत्तम के साथ जीती-जागती और स्वत:परिपूरक एकता ही योग का वास्तविक लक्ष्य है, केवल अक्षर ब्रह्म में अपने-आपको मिटा देनेवाला लय नहीं । अपने सारे जीवन को उन्हींमें ऊपर उठाना, उन्हींमें निवास करना, उनके साथ एक हो जाना, उनकी चेतना के साथ अपनी चेतना को एक कर देना, अपनी खण्ड प्रकृति को उनकी पूर्ण प्रकृति का प्रतिबिंब बना देना, अपने विचार और इन्द्रियों को संपूर्ण रूप से भागवत ज्ञान के द्वारा अनुप्राणित करना, अपने संकल्प और कर्म को सर्वथा और निर्दोष रूप से भागवत संकल्प के द्वारा प्रवृत्त करना, उन्हींके प्रेमानन्द में अपनी कामना-वासना को खो देना-यही मनुष्य की पूर्णता है, इसीको गीता ने गुह्यतम रहस्य कहा है । मनुष्य-जीवन का यही वास्तविक लक्ष्य है, यही उसके जीवन की चरितार्थता है और यही हमारे प्रगतिशील कर्म-यज्ञ की सबसे ऊँची सीढ़ी है । कारण वे ही अंत तक कर्मो के

प्रभु और यज्ञ की अंतरात्मा बने रहते हैं ।

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