गीता-प्रबंध

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Essays On The Gita Vol. 13 576 pages 1970 Edition
English
 PDF    philosophy on-gita
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Essays on the philosophy and method of self-discipline presented in the Bhagavad Gita. These essays were first published in the monthly review Arya between 1916 and 1920 and revised in the 1920s by Sri Aurobindo for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo गीता-प्रबंध 629 pages 1984 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

यज्ञ-रहस्य 

     गीता की यज्ञसंबंधी परिकल्पना का वर्णन दो अलग-अलग स्थलों में हुआ है; एक तीसरे अध्याय में और दूसरा चौथे अध्याय में; पहला वर्णन ऐसा है कि यदि हम उसीको देखे तो ऐसा मालूम होगा कि गीता केवल आनुष्ठानिक यज्ञ की बात कह रही है; दूसरा वर्णन उसीको बहुत व्यापक दार्शनिक अर्थ का प्रतीक बनाता है और इस प्रकार उसका अभिप्राय ही एकदम बदलकर उसे आंतरिक और आध्यात्मिक सत्व के एक ऊँचे क्षेत्र में ला बैठाता है । ''पूर्वकाल में यज्ञ के साथ प्रजाओं की सृष्टि करके प्रजापति ने कहा, इससे तुम लोग वृद्धि-लाभ करो, यह तुम्हारी सब इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला हो । इससे तुम लोग देवताओं का पोषण करो और देवता तुम्हारा पालन-पोषण करें; परस्पर पालन-पोषण करते हुए तुम लोग परम श्रेय को प्राप्त होओगे । यज्ञ से पुष्ट होकर देवता तुम्हें इष्ट-भोग प्रदान करेंगे; जो उनके दिये हुए भोगों को भोगता है और उन्हें नहीं देता, वह चोर है । जो श्रेष्ठ पुरुष यज्ञ से बचे हुए अन्न का भक्षण करते हैं वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं; परन्तु वे पापी हैं और वे पाप ही भक्षण करते हैं जो अपने ही लिए रसोई बनाते हैं । अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं अन्न वर्षा से होता है, वर्षा यज्ञ से होती है, यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है; कर्म को यह समझो कि ब्रह्म से उत्पन्न होता है और ब्रह्म की उत्पत्ति अक्षर से है; इसलिए सर्वगत ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है । इहलोक में जो कोई इस प्रकार चलाये हुए चक्र के पीछे नहीं चलता, उसका जीवन पापमय है, वह इन्दियों में रमता है; हे पार्थ, वह व्यर्थ ही जीता है ।''  इस प्रकार यज्ञ की आवश्यकता बतला-कर--अवश्य ही हमें आगे चलकर यह देखना है कि यहाँ यज्ञ का जो वर्णन है जो प्रथम दृष्टि में कर्मकांड-संबंधी परंपरागत मान्यता और आनुष्ठानिक हवन करने की आवश्यकता का ही निर्देश करता हुआ प्रतीत होता है उसे हम लोग और किस व्यापक अर्थ में ग्रहण कर सकते हैं--श्रीकृष्ण आगे यह बतलाते हैं कि इन कर्मों की अपेक्षा उस आत्मा में स्थित पुरुष श्रेष्ठ है । ''जिस पुरुष की रति आत्मा में ही है, जो आत्मा से ही तृप्त है, आत्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिये ऐसा

१२० 


कोई कर्म नहीं जिसका करना आवश्यक हो । उसे न तो कृत कर्म से कुछ पाना है न अकृत कर्म से कुछ लेना है; उसे किसी इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए इन सब भूतों पर निर्भर नहीं करना है ।''

      ये दो विभिन्न आदर्श हैं दोनों मानो अपने मूलगत परस्पर-पार्थक्य और विरोध को लिये हुए खड़े हैं । एक है वैदिक आदर्श और दूसरा है वेदांतिक आदर्श; एक है यज्ञ के द्वारा और मनुष्यों तथा देवताओं के परस्पर-अवलंबन के द्वारा इहलोक में ऐहिक भोग और परलोक में परम श्रेय की प्राप्ति का सक्रिय आदर्श, और उसीके सामने दूसरा है उस मुक्त पुरुष का कठोरतर आदर्श जो आत्मा के स्वातंत्र में स्थित है और इसलिये जिसे भोग से या कर्म से अथवा मानव-जगत् से या दिव्य जगत् से कुछ भी मतलब नहीं, जो परम आत्मा की शांति में निवास करता और ब्रह्म के प्रशांत आनन्द मे रमण करता है । इसके आगे के श्लोक इन दो चरम पंथों के बीच समन्वय साधन करने के लिये जमीन तैयार करते हैं; इस समन्वय का रहस्य यह है कि उच्चतर सत्य की ओर झुकने के साथ ही जिस वृत्ति का ग्रहण इष्ट है वह अकर्म नहीं, बल्कि निष्काम कर्म है जो उस सत्य की उपलब्धि के पहले और पीछे भी वांछनीय है । मुक्त पुरुष को कर्म से कुछ लेना नहीं है, पर अकर्म से भी उसे कोई लाभ नहीं उठाना है; उसे कर्म और अकर्म में से किसी एक को अपने ही लाभ या हानि की दृष्टि से पसन्द नहीं करना है ।  '' इसलिये अनासक्त होकर सतत कर्तव्य कर्म करो (संसार के लिए, लोक-संग्रह के लिए, जैसा कि आगे उसी सिलसिले में स्पष्ट किया गया है ); क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से पुरुष परम को प्राप्त होता है । कर्म के द्वारा ही जनक आदि ने सिद्धि लाभ की ।''   यह सच है कि कर्म और यज्ञ परम श्रेय के साधक हैं, ''श्रेय: परमवाप्स्यथ''; परन्तु कर्म तीन प्रकार के होते हैं; एक वह जो यज्ञ के बिना वैयक्तिक सुख-भोग के लिए किया जाता है, ऐसा कर्म सर्वथा स्वार्थ और अहंकार से भरा होता है और जीवन के वास्तविक धर्म, ध्येय और उपयोग से वंचित रहता है, ''मोधं पार्थ स जीवति''; दूसरा वह कर्म जो होता तो है कामना से ही पर यज्ञ के साथ, और इसका भोग केवल यज्ञ के फल-स्वरूप ही होता है, इसलिए उस हद तक यह कर्म निर्मल और पवित्र है; तीसरा वह कर्म जिसमें कोई कामना या आसक्ति नहीं होती । इसी अंतिम कर्म से जीव परम को प्राप्त होता है, ''रमाप्नोति पुरुष:''

     यज्ञ, कर्म और ब्रह्म, इन शब्दों से जो अर्थ हम ग्रहण करें, उसी पर इस शिक्षा का संपूर्ण अर्थ और अभिप्राय निर्भर है । यदि यज्ञ का अर्थ केवल वैदिक यज्ञ ही हो, यदि जिस कर्म से इसका जन्म होता है वह

१२१ 


वैदिक कर्मविधि ही हो और यदि वह ब्रह्म जिससे समस्त कर्मों का उद्धव होता है वह वेदों की शब्दराशिरूप शब्दब्रह्म ही हो तो वेदवादियो के सिद्धान्त की सब बातें स्वीकृत हो जाती हैं और कुछ बाकी नहीं रहता । आनुष्ठानिक यज्ञ संतति, संपत्ति और भोग की प्राप्ति का सम्यक् साधन है इस यज्ञ का विधिपूर्वक संपादन करने से आदित्य-लोक से वृष्टि होती है और सुख-समृद्धि तथा वंश-विस्तार का होना निश्चित हो जाता है; मानव-जीवन देवताओं और मनुष्यों के बीच आदान-प्रदान का चिरंतन व्यापार है जिसमें मनुष्य देवताओं के दिये हुए भोग्य विषयों में से यज्ञाहुति के द्वारा देवताओं को अंश प्रदान करते हैं और इसके बदले देवता उन्हें संपन्न, सुरक्षित और संवर्द्धित करते हैं । इसलिए समस्त मानव-कर्मों को आनुष्ठानिक यज्ञों और विधिवत् पूजनों के साथ करना होगा और उन्हें धर्म-संस्कार मानना होगा; जो कर्म इस प्रकार देवताओं को अर्पित नहीं किया जाता, वह अभिशप्त होता है; पहले आनुष्ठानिक यज्ञ किये बिना और देवताओं को चढ़ाये बिना जो भोग भोगा जाता है वह पाप होता है । मोक्ष भी, परम श्रेय भी, आनुष्ठानिक यज्ञ से प्राप्त होता है । इसे कभी नहीं छोड़ना चाहिये । मुमुक्षु को भी आनुष्ठानिक यज्ञ करते रहना चाहिए, यद्यपि वह हो आसक्ति-रहित; आनुष्ठानिक यज्ञों और शास्त्रोक्त कर्मों को नि:संग होकर करने से ही जनक जैसों को आत्मसिद्धि और मुक्ति प्राप्त हुई ।

       स्पष्ट है कि गीता का यह अभिप्राय नहीं हो सकता; क्योंकि यह बाकी ग्रंथ के विरुद्ध होगा । यज्ञ शब्द की जो उद्बोधक व्याख्या चौथे अध्याय में की गयी है उसके बिना भी जो कुछ यहाँ कहा गया है उसीमें यज्ञ शब्द की व्यापकता का संकेत मिलता है । यहां कहा गया है कि यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है, कर्म ब्रह्म से, ब्रह्म अक्षर से; इसलिए सर्वगत ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है । यहाँपर ''इसलिए'' शब्द का पूर्वापर संबंध और ''ब्रह्म'' शब्द की पुनरुक्ति का विशेष अर्थ है; इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस ब्रह्म से सब कर्म उत्पन्न होते हैं उस ब्रह्म को हमें प्रचलित वेदवादियों के शब्दब्रह्म के अर्थ में नहीं, बल्कि वेद का रूपकात्मक अर्थ करके सर्जनकारी शब्द को सर्वगत ब्रह्म के साथ, शाश्वत पुरुष के साथ, सब भूतों में जो एक आत्मा है उसके साथ तथा समस्त भूतों की क्रियाओं के अन्दर प्रतिष्ठित जो ब्रह्म है उसके साथ, एक समझना होगा । वेद है भगवद्विषयक ज्ञान--आगे चलकर एक अध्याय में श्रीकृष्ण कहेंगे कि मैं वह हूँ जो सब वेदों का वेद्य अर्थात् ज्ञातव्य तत्व है, ''वेदेषु वेध: " पर उनके विषय का यह ज्ञान प्रकृति के द्वारा होनेवाले विगुणात्मक कर्मों के अन्दर उनकी जो सत्ता है उसीका ज्ञान है, ''त्रैगुष्य-

१२२ 


विषया वेदा:'' । ऐसा कहा जा सकता है कि, प्रकृतिगत कर्मों में स्थित यह ब्रह्म या भगवत्तत्व, उस अक्षर ब्रह्म या पुरुष से उत्पन्न हुआ है जो निस्त्रैगुण्य है, प्रकृति के सब गुणों और गुण-कर्मों के ऊपर है । ब्रह्म एक है, पर उसकी आत्म-अभि- व्यक्ति के दो पहलू हैं;  एक है अक्षर पुरुष आत्मा और दूसरा सब भूतों में कर्मों का स्रष्टा और प्रवर्तक ''सर्वभूतानि''; पदार्थमात्न की अचल सर्वस्थित आत्मा और पदार्थमात्न में होनेवाली चलत्-क्रिया का आध्यात्मिक तत्व; आत्मस्थित निष्क्रिय पुरुष और प्रकृतिस्थ सक्रिय पुरुष; ये ही ब्रह्म के दो भाव हैं, अक्षर और क्षर । इन दोनों ही भावों में पुरुषोत्तम अपने-आपको विश्व में अभिव्यक्त करते हैं; गुणों के परे जो अक्षर भाव है वही उनकी शान्ति की, आत्मवत्ता की और समता की स्थिति है, उसीको ''सम ब्रह्य'' कहते हैं;  उसीसे प्रकृति के गुणों में और विश्व के सब कर्मों में उनका प्राकटय होता है; प्रकृति में स्थित इन पुरुष से, इन सगुण ब्रह्म से ही मनुष्य में और सब भूतों में कर्म की उत्पत्ति होती है; इस कर्म से ही यज्ञतत्व पैदा होता है । देवताओं और मनुष्यों के बीच द्रव्यों का आदान-प्रदान भी इसी तत्व पर चलता है, जैसा कि वर्षा और उससे होनेवाले अन्न का इसी क्रिया पर निर्भर करना और उनसे फिर प्राणियों का उत्पन्न होना दृष्टांत-स्वरूप बताया गया है । प्रकृति का सारा कर्म ही, अपने वास्तविक रूप में यज्ञ है और समस्त कर्म, यज्ञ और तप के भोक्ता सर्वभूत-महेश्वर श्रीभगवान् हैं ''भोक्तारं यज्ञतषसां सर्वभूतमहेश्वरम्'' । और, इन भगवान् को जो सर्वगत हैं तथा यज्ञ में नित्य प्रतिष्ठित हैं ''सर्वगतं नित्यं पज्ञे प्रतिष्ठितं'', जानना ही सच्चा वैदिक ज्ञान है ।

      परन्तु इन्हीं भगवान् को हम देवताओं के रूप से अर्थात् प्रकृतिस्थ परमेश्वर की शक्तियों के रूप से कर्म की कनिष्ठ कोटि में तथा इन शक्तियों और मानव-जीव के बीच होनेवाले सनातन परस्पर व्यवहार में भी जान सकते हैं । यह

__________

१. कर्म, ब्रह्य, अक्षर इन शब्दों का यही वास्तविक अर्थ है, यह बात आठवें अध्याय के उपक्रम से भी स्पष्ट होती है जहां अक्षर ( ब्रह्म ), स्वभाव, कर्म, क्षरमाव, पुरुष, अधि-यज्ञ इन विश्व-तत्वों का विवरण है । अक्षर अचल अविनाशी आत्मा है; स्वभाव आत्म-तत्व है, वह अध्यात्मतत्व जो पुरुष की मूल प्रकृति, स्वयंभू-स्वयं होने की प्रकृति है और अक्षर ब्रह्म से ही इसकी प्रवृत्ति है; कर्म की प्रवृत्ति उसी से होती है, यह कर्म सर्जन-कर्म अर्थात् विसर्ग है जिससे प्रकृति के सब भूतों और भूतों के आंतर और बाह्य रूप निर्मित होते हैं; कर्म का फल, इस प्रकार, ह सारा क्षर भाव है जो स्वभाव से ही निकलकर प्रकृति के इन नानात्व को प्राप्त हुआ है; पुरुष आत्मा, जीव-भूत प्रकृति में भगवत्तत्व है, अधिदैवत है जिसकी उपस्थिति से ही कर्म की क्रिया  अन्तःस्थित भगवान् के प्रति यज्ञ-स्वरूप होती है; अधियज्ञ ये हो गूढ़ाशय-स्थित भगवान् है जो यज्ञको ग्रहण करते हैं ।

१२३ 


व्यवहार परस्पर आदान-प्रदान परस्पर साहाय्या-संवर्द्धन और परस्पर के कार्यों का उन्नयन-रूप ऐसा व्यवहार है जिसमें मनुष्य उत्तरोत्तर परम श्रेय की प्राप्ति का अधिकाधिक पात्र होता है । वह इस व्यवहार के द्वारा यह जानने लगता है कि उसका जीवन प्रकृतिस्थ परमेश्वर के कर्म का एक अंशमात्र है, कोई ऐसा जीवन नहीं है जिसको वह अपने लिए ही धारण करे या बितावे । वह प्राप्त होनेवाले सुख और कामनाओं की पूर्ति को यज्ञ का फल और भगवान् के कार्य में लगे हुए देवताओं की देन जानता है । और, वह पापमय अहंकारपूर्ण स्वार्थ-परता के मिथ्या और दुष्ट भाव से प्रेरित होकर उन भोगों का पीछा करना छोड़ देता है और यह नहीं समझता कि ये भोग ऐसा श्रेय हैं जिसे उसे अपने बल के आधार पर जीवन से छीन लेना है और इसके लिए न तो प्रतिदान देना है न कृतज्ञ होना है । यह भाव ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों वह अपनी इच्छाओं को अपने अधीन करता है, जीवन और कर्मों का सारतत्व यज्ञ को ही जानकर उससे संतुष्ट होता और यज्ञावशेष को पाकर ही परितृप्त होता है, बाकी जो कुछ है उसे अपने जीवन और जगत्-जीवन के बीच परस्पर होनेवाले महान् और परम हितकर आदान-प्रदान पर स्वच्छंद रूप से न्योछावर कर देता है । जो कर्म के इस विधान के विरुद्ध चलता है और अपने ही वैयक्तिक पृथक् स्वार्थ की सिद्धि के लिए कर्म करता और फल भोगता है वह व्यर्थ ही जीता है; वह जीवन के वास्तविक अर्थ और उद्देश्य और उपयोग तथा जीव की ऊर्ध्वगति से वंचित रहता है; वह उस मार्ग पर नहीं है जो परम श्रेय की ओर ले जाता है । परन्तु परम श्रेय को प्राप्ति तब होती है जब यज्ञ देवताओं के लिए नहीं, बल्कि उन सर्वगत परमेश्वर के लिए किया जाता है जो यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं, देवता जिनके कनिष्ठ रूप और शक्तियाँ हैं, और जब यजमान अपने काम-भोगपरायण अधमात्मा को किनारे कर अपने व्यष्टिगत कर्तृत्वभाव को सब कर्मों की यथार्थ कर्त्री प्रकृति को तथा अपने भोग के भाव को प्रकृति के सब कर्मों के यथार्थ भोक्ता परमेश्वर, परमात्मा, जगदात्मा को, अर्पण कर देता है । वह उसी परम आत्मस्थिति में, अपने किसी व्यष्टिगत भोग में नहीं, अपना ऐकांतिक संतोष, परम तृप्ति और विशुद्ध आनन्द प्राप्त करता है; उसे अब कर्म या अकर्म से कोई लाभ नहीं, वह किसी पदार्थ के लिए न देवताओं का आश्रित है न मनुष्यों का, वह किसी से किसी अर्थ की अभिलाषा नहीं करता; क्योंकि वह स्वात्मानन्द से पूर्ण परितृप्त है; परन्तु फिर भी वह केवल भगवान् के लिए, आसक्ति या कामना से रहित होकर यज्ञरूप से कर्म करता है । इस प्रकार वह समत्व को प्राप्त होता और प्रकृति के त्रिगुण से मुक्त निस्तैगुष्य हो जाता है । जब वह प्रकृति की कर्मधारा

१२४ 


में कर्म करता है तब भी उसकी आत्मा प्रकृति की अस्थिरता में नहीं, बल्कि अक्षर ब्रह्य की शांति में स्थित होती है । इस प्रकार यज्ञ परमपद की प्राप्ति में उसका साधन-मार्ग होता है ।

     इसके आगे जो कुछ कहा गया है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यज्ञ-संबंधी इस प्रकरण का यही अभिप्राय है अर्थात् कर्म का ध्येय लोक-संग्रह होना चाहिए, कर्म करनेवाली केवल प्रकृति ही है और भागवत पुरुष उन सब कर्मों का समान भर्ता है, तथा सब कर्म करते समय ही इस भागवत पुरुष को अर्पण करने होंगे--अंतःकरण से सब कर्मों का त्याग और फिर भी कर्मेन्द्रियों द्वारा उनका आचरण, यही यज्ञ की परिसमाप्ति है--तथा यह जो कहा गया कि सम और निष्काम बूद्धि से इस प्रकार जो कर्ममय यज्ञ किया जाता है उसका फल कर्मों के बंधनों से मुक्त होना है, ये सभी बातें इसी अभिप्राय को व्यक्त करनेवाली हैं । जो व्यक्ति जो कुछ मिल जाय उसीसे संतुष्ट और सफलता और असफलता में सम रहता है वह कर्म करके भी उसमें नहीं बँधता । जब कोई मुक्त अनासक्त पुरुष यज्ञार्थ कर्म करता है तो उसके समस्त कर्मों का लय हो जाता है, ''समग्रं प्रविलीयतें'', अर्थात् वह कर्म उसकी मुक्त, शुद्ध, सिद्ध, सम आत्मा पर अपना कोई बंधनकारक परिणाम या संस्कार नहीं छोड़ता । हमें इस प्रसंग को फिर से देखना होगा । इन श्लोकों के बाद ही गीता ने यज्ञ के अर्थ की विशद व्याख्या की है और वहाँ जिस भाषा का प्रयोग किया गया है उससे इस विषय में कोई संदेह नहीं रह जाता कि यहाँ यज्ञसंबंधी वर्णन रूपकात्मक है और इस शिक्षा के द्वारा जिस यज्ञ को करने के लिए कहा गया है वह यज्ञ आंतरिक है । प्राचीन वैदिक पद्धति में सदा ही दो तरह का अर्थ रहा है, एक भौतिक और दूसरा मनोवैज्ञानिक, एक बाह्य और दूसरा रूपकात्मक, एक यज्ञ का बाह्य अनुष्ठान और दूसरा उसकी सब विधियों का आंतरिक आशय । परन्तु प्राचीन वैदिक योगियों की गूढ़ रहस्यमय रूपकात्मक भाषा को जो सर्वथा यथावत, अद्भुत, कवित्वमय और मनोवैज्ञानिक थी, इस समय तक लोग भूल चुके थे, इसलिए गीता में उसीके स्थान पर वेदांत और पश्चात्-कालीन योग के भाव को लेकर व्यापक, सर्वसामान्य और दार्शनिक भाषा का प्रयोग किया गया है । यज्ञ की अग्नि भौतिक अग्नि नहीं है, प्रत्युत ब्रह्माग्नि अथवा ब्रह्म की ओर जानेवाली ऊर्जा, आभ्यंतर अग्नि, यज्ञपुरोहित-स्वरूप अंत:शक्ति है जिसमें आहुति दी जाती है । अग्नि है आत्म-संयम या विशुद्ध इन्द्रिय-क्रिया अथवा राजयोग और हठयोग में समान रूप से प्रयुक्त प्राणायाम-साधन की प्राणशक्ति, अथवा अग्नि है आत्म-ज्ञानाग्नि, आत्मार्पणरूप यज्ञ की अग्निशिखा । यहाँ बताया गया है कि यज्ञ शिष्ट ( यज्ञ से बचा हुआ भाग )

१२५ 


जो भक्षण किया जाता है वही अमृत है; हम देखते हैं कि यहाँ भी कुछ--कुछ वेदों की रूपकात्मक भाषा है, जिसमें सोमरस को अमृत का भौतिक प्रतीक कहा जाता था--अमृत स्वयं वह दिव्य और अमरत्व देनेवाला आनन्द है जो यज्ञ से प्राप्त होता, देवताओं को चढ़ाया जाता और मनुष्यों द्वारा पान किया जाता है । इस यज्ञ में मनुष्य के ( भौतिक या मनोवैज्ञानिक किसी भी शक्ति का कोई भी कर्म हव्य है जो उसके ) द्वारा शारीरिक अथवा मानसिक क्रिया के रूप में देवताओं के लिए, अथवा देवाधिदेव के लिए, आत्मा के लिए अथवा विश्वसंचालक शक्तियों के लिए, अपनी ही उच्चतर सत्ता के लिए अथवा मानव-जाति और सर्वभूतों की अंतरात्मा के लिए उत्सर्ग की गयी हर क्रिया हव्य है ।

     यज्ञ का यह विस्तृत विवरण ही यज्ञ की एक ऐसी विशाल और व्यापक व्याख्या देता हुआ चलता है जिसमें यह स्पष्ट रूप से घोषणा की गयी है कि यज्ञ की क्रिया, यज्ञ की अग्नि, यज्ञ की हवि, यज्ञ का होता और यज्ञ का भोक्ता, यज्ञ का ध्येय और यज्ञ का उद्देश्य, सब कुछ ब्रह्म ही है ।

 

ब्रह्मार्पणं ब्रह्य हविब्रॅह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्यकर्मसमाधिना ।।

 

     अर्पण ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, ब्रह्म के द्वारा ब्रह्माग्नि में ही अर्पित है, ब्रह्मकर्म में समाधि के द्वारा ब्रह्म ही वह है जिसे पाना है । तो यह वही ज्ञान है जिससे युक्त होकर मुक्त पुरुष को यज्ञकर्म करना होता है ।. ''सोऽहं'', ''सर्व खल्बिदं ब्रह्य, ब्रह्म एव पुरुष:''  प्राचीन काल में इन महान् वेदांत-वाक्यों में इसी ज्ञान की घोषणा हुई थी । यह समग्र एकत्व का ज्ञान है; यह वह एक है जो कर्ता, कर्म और कर्मोद्देश्य के रूप से तथा ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के रूप से प्रकट है । जिस विश्वशक्ति में कर्म की आहुति दी जाती है वह स्वयं भगवान् हैं; आहुति की उत्सर्ग की हुई शक्ति भगवान् हैं; जिस वस्तु की आहुति दी जाती है वह भगवान् का ही कोई रूप है, होता भी मनुष्य के अन्दर स्वयं भगवान् ही है;  क्रिया, कर्म, यज्ञ सब गतिशील कर्मशील भगवान् ही हैं; यज्ञ के द्वारा गन्तव्य स्थान भी भगवान् ही हैं । जिस मनुष्य को यह ज्ञान है और जो इसी ज्ञान में रहता और कर्म करता है उसके लिए कोई कर्म बंधन नहीं बन सकता, उसका कोई कर्म वैयक्तिक और अहंकार-प्रयुक्त नहीं होता । दिव्य पुरुष ही अपनी दिव्य प्रकृति के द्वारा अपनी सत्ता में कर्म करता है, वह अपनी आत्म-चेतन विश्व-शक्ति की अग्नि में प्रत्येक पदार्थ की आहुति देता है और इस भगवत्-परिचालित गति और कर्म का लक्ष्य है जीव का, भगवान् के साथ एक होकर, भगवान् की स्थिति और चेतना के ज्ञान को प्राप्त करना और उनपर स्वत्व रखना । इस तत्व

 

१२६ 


को जानना, इसी एकत्व-साधक चेतना में रहना और कर्म करना ही मुक्त होना है ।

       किन्तु सभी योगी इस ज्ञान तक नहीं पहुँचते । '' कुछ योगी दैव यज्ञ ( देवताओं के प्रीत्यर्थ किये जानेवाले यज्ञ ) करते हैं; कुछ और यज्ञ को यज्ञ के द्वारा ही ब्रह्माग्नि में हवन करते है ।''   दैव यज्ञ करनेवाले भरा वान् की कल्पना, उनके रूपों और शक्तियों में करते हैं और विविध साधनों या धर्मो के द्वारा, अर्थात् कर्मसंबंधी सुनिश्चित विधि-विधान, आत्म-संयम और उत्सृष्ट कर्म के द्वारा उन्हे ढूँढ़ते है; और जो ब्रह्माग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ का हवन करनेवाले ज्ञानी हैं उनके लिये, यज्ञ का भाव है कि जो कुछ कर्म करें उसे सीधा भगवान् को अर्पण करना, अपनी सारी वृत्तियों और इन्द्रिय-व्यापारों को एकीभुत भागवत चैतन्य और शक्ति में निक्षिप्त कर देना ही एकमात्र साधन है, एकमात्र धर्म है । यज्ञ के साधन विविध हैं, हव्य भी नानाविध हैं । एक आत्म-नियंत्रण और आत्म-संयमरूप आंतरिक यज्ञ है जिससे उच्चतर आत्मवशित्व और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है । ''कुछ अपनी इन्द्रियों को संयमाग्नि में हवन करते हैं, कुछ दूसरे इन्द्रियाग्नि में विषयों का हवन करते हैं, कुछ समस्त इन्द्रियकर्मों और प्राण-कर्मों का ज्ञानदीप्त आत्मसंयमयोगरूपी अग्नि में हवन करते हैं ।''  तात्पर्य, एक साधना यह है कि इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण तो किया जाता है, पर उस इन्द्रिय-व्यापार से मन को कोई क्षोभ नहीं होने दिया जाता, मन पर उसका कोई असर नहीं पड़ने दिया जाता, इन्द्रियाँ स्वय ही विशुद्ध यज्ञाग्नि बन जाती हैं 1 फिर यह भी एक साधना है जिसमें इन्द्रियों को इतना स्तब्ध कर दिया जाता है कि अंतरात्मा अपने विशुद्ध, स्थिर और शांत रूप में मनःक्रिया  के परदे के भीतर से निकलकर प्रकट हो जाता है । एक साधना यह है जिससे, आत्मस्वरूप का बोध होने पर, सब इन्द्रियकर्म और प्राणकर्म उस एक स्थिर प्रशांत आत्मा में ही ले लिये जाते हैं । सिद्धि का साधक योगी इस प्रकार जो यज्ञ करता है उसमें दी जानेवाली आहुति द्रव्यमय हो सकती है, जैसे भक्त लोग अपने इष्ट देव को पूजा चढ़ाते हैं; अथवा यह यज्ञ तपोयज्ञ भी हो सकता है, अर्थात् आत्म-संयम का वह तप जो किसी महत्तर उद्देश्य की सिद्धि के लिए किया जाय; अथवा राजयोगियों और हठयोगियों के प्राणायाम जैसा कोई योग भी हो सकता है । अथवा अन्य किसी भी प्रकार का योग-यज्ञ हो सकता है । इन सबका फल साधक के आधार की शुद्धि है; सब यज्ञ परम की प्राप्ति के साधन हैं ।

      इन विविध साधनों में मुख्य बात, जिसके होने से ही ये सब साधन बनते हैं, यह है कि निम्न प्रकृति की क्रियाओं को अपने अधीन करके, कामना के प्रभुत्व को

 

१२७ 


घटाकर उसके स्थान पर किसी महती शक्ति को प्रतिष्ठित करके अहमात्मक भोग को त्यागकर उस दिव्य आनन्द का आस्वादन किया जाय जो यज्ञ से, आत्मोत्सर्ग से, आत्म-प्रभुत्व से, अपने निम्न आवेगों को किसी महत्तर ध्येय पर न्योछावर करने से प्राप्त होता है । ''जो यज्ञावशिष्ट अमृत भोग करते हैं वे ही सनातन ब्रह्म को लाभ करते हैं, '' यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्'' । यज्ञ ही विश्व का विधान है, यज्ञ के बिना कुछ भी हासिल नहीं हो सकता, न इस लोक में प्रभुत्व प्राप्त हो सकता है, न परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति ही हो सकती है--'जो यज्ञ नहीं करता उसके लिये यह लोक भी नहीं है, परलोक की तो बात ही क्या, ''नायं लोकोऽस्ति अयज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम'' ?   इसलिए ये सब यज्ञ और अन्य अनेक प्रकार के यज्ञ ब्रह्म के मुख में विस्तृत हुए हैं--उस अग्नि के मुख में जो सब हव्यों को ग्रहण करता है । ये सब कर्म में प्रतिष्ठित उसी एक महान् सत् के साधन और रूप हैं,  जिन साधनों के द्वारा मानव-जीव का कर्म उसी तत् को समर्पित होता है । मानव-जीव का बाह्य जीवन भी उसी तत् का एक अंश है और उसकी अंतरतम सत्ता उसके साथ एक है । ये सब साधन या यज्ञ 'कर्मज' हैं, सब भगवान् की उसी एक विशाल शक्ति से निकले, उसी एक शक्ति द्वारा निद्दिॅष्ट हुए हैं जो विश्वकर्म में अपने-आपको अभिव्यक्त करती और इस विश्व के समस्त कर्म को उसी एक परमात्मा परमेश्वर का क्रमश: बढ़ता हुआ नैवेद्य बनाती है जिसकी चरम अवस्था, मानव-प्राणी के लिए आत्म-ज्ञान की या भागवत चेतना की या ब्राह्मी चेतना की प्राप्ति है । '' ऐसा जानकर तू मुक्त होगा--एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।''

      परन्तु यज्ञ के इन विभिन्न रूपों में उतरती-चढ़ती श्रेणियाँ हैं, जिनमें सबसे नीची श्रेणी है द्रव्यमय यज्ञ और सबसे ऊँची श्रेणी है ज्ञानमय यज्ञ । ज्ञान वह चीज है जिसमें यह सारा कर्म परिसमाप्त होता है । ज्ञान से यहाँ किसी निम्न कोटि का ज्ञान अभिप्रेत नहीं है, बल्कि यहाँ अभिप्रेत है परम ज्ञान, आत्म-ज्ञान, भगवत्-ज्ञान, वह ज्ञान जिसे हम उन्हीं लोगों से प्राप्त कर सकते है जो सृष्टि के मूल-तत्व को जानते हैं । यह वह ज्ञान है जिसके प्राप्त होने पर मनुष्य मन के अज्ञानमय मोह में तथा केवल इन्द्रिय-ज्ञान की और वासनाओं और तृणाओं की निम्नतर क्रियाओं में फिर नहीं फँसता । यह वह ज्ञान है जिसमें सब कुछ परिसमाप्त होता है । उसके प्राप्त होने पर ''तू सब भूतों को अशेषत: आत्मा के अन्दर और तब मेरे अन्दर देखेगा ।''  ! क्योंकि आत्मा वही एक, अक्षर, सर्व-गत, सर्वाधार, स्वत:सिद्ध सद्वस्तु या ब्रह्म है जो हमारे मनोमय पुरुष के पीछे छिपा हुआ है और जिसमें चेतना अहंभाव से मुक्त होने पर विशालता को

१२८ 


प्राप्त होती है और तब हम जीवों को उसी एक सत् के अन्दर भूतरूप में देख पाते हैं ।

       परन्तु यह आत्मतत्व या अक्षर ब्रह्म हमारी वास्तविक अंतश्चेतना के सामने उन परम पुरुष के रूप में भी प्रकट होता है जो हमारी सत्ता के उद्गम-स्थान हैं और क्षर या अक्षर जिनका प्राकटय है । वे ही हैं ईश्वर, भगवान्, पुरुषोत्तम । उन्हीं को हम हरएक चीज यज्ञरूप से समर्पित करते हैं उन्हीं के हाथों में हम अपने सब कर्म सौंप देते हैं; उन्हीं की सत्ता में हम जीते और चलते-फिरते हैं; अपने स्वभाव में उनके साथ एक होकर और उनके अन्दर जो सृष्टि है उसके साथ एक होकर, हम उनके साथ और प्राणिमात्र के साथ एक जीव, सत्ता की एक शक्ति हो जाते हैं; हम अपनी आत्म-सत्ता को उनकी परम सत्ता के साथ तद्रूप और एक कर लेते हैं । कामवर्जित यज्ञार्थ कर्मों के करने से हमें ज्ञान होता है और आत्मा अपने-आपको पा लेती है; आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान में स्थित होकर कर्म करने से हम मुक्त हो जाते और भागवत सत्ता की एकता, शान्ति और आनन्द में प्रवेश करते हैं ।

 

१२९









Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates