श्रीअरविन्द के पत्र

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Sri Aurobindo

Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Letters On Yoga - Parts 2,3 Vol. 23 1776 pages 1970 Edition
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 PDF     Integral Yoga
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Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द के पत्र 578 pages 1972 Edition
Hindi Translation
Translator:   Chapsip Tripathi  PDF    LINK

विभाग दो

 

अन्तर्दर्शन और प्रतीक


 

अन्तर्दर्शन और प्रतीक

 

 सभी सूक्ष्म दर्शनोंका एक-न-एक प्रकारका अर्थ होता है । सूक्ष्म दर्शनकी यह शक्ति योगके लिये बड़ी महत्त्वपूर्ण है और इसका त्याग नहीं करना चाहिये, यद्यपि यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु नही है -- क्योंकि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु है चेतनाका परिवर्तन । इस सूक्ष्म दर्शनकी तरह अन्य सभी शक्तियोंको बिना किसी आसक्तिके योगके अंग और सहायकके रूपमें विकसित करना चाहिये ।

 

*

 

          अन्तर्दर्शन कोई अनिवार्य वस्तु नहीं हैं - यदि दे ठीक ढंगके हों तो सहायक होते हैं, बस इतना ही ।

 

*

 

        जब अन्तर्दर्शन विशुद्ध और वाणिर्या यथार्थ हों तो उनका अपना स्थान अवश्य होता है । स्वभावत: ही वे साक्षात्कार न होकर योगके रास्तेपर एक पगमात्र होते हैं, और मनुष्यको उनमें बद्ध नहीं हो जाना चाहिये और उन सभीके मूल्यवान् नही समझना चाहिये ।

 

*

 

        तुमने जिन सूक्ष्म दर्शनोंका वर्णन किया है वे सब साधनाकी प्रारंभिक अवस्थामें प्राप्त होते हैं । इस अवस्थामें जो सब दृश्य ध्यानमें दिखायी देते हैं वे मानसिक स्तरकी रचनाएं होते हैं और उन्हें कोई सुनिश्चित अर्थ प्रदान करना सर्वदा संभव नही होता, क्योंकि वे साधकके व्यक्तिगत मनपर निर्भर करते हैं । उसके बादकी अवस्थामें जानेपर हीं सूक्ष्म दर्शनकी शक्ति साधनाके लिये महत्त्वपूर्ण होती है; परन्तु आरंभमें - जबतक कि चेतना अधिक विकसित नहीं हो जाती - साधकको वसा आगे बढ़ते जाना चाहिये, उसे ब्योरेकी बातोंको अत्यधिक महत्त्व नहीं देना चाहिये । योगके लिये सर्वदा एक- मात्र आवश्यक बात है चेतनाको भागवत ज्योति, सत्य और उपस्थितिकी ओर खोले रखना ।

 


          जैसी ज्योतियोंकी बात उसने अपने पत्रमें लिखी है वैसी ज्योतियोंको अकसर देखना साधारण तीरपर इस बातका चिह्न होता है कि द्रष्टा अपनी बाह्य उपरितलीय अथवा जाग्रत् चेतनासे सीमित नही है बल्कि जिस आंतरिक चेतनाके विषयमें अधिकांश लोग अनजान होते हैं और जो योगाभ्यास करनेपर उचलती है, उसकी अनुभूतियोंके अंदर पैठनेकी एक गुप्त क्षमता (जो प्रशिक्षण और अभ्यासके द्वारा पूर्ण बनायी जा सकती है) वह रखता है । यह उद्घाटन होनेपर साधक अनुभवके सूक्ष्म स्तरों तथा जड़-स्थूलसे भिन्न लोकके अतिरिक्त सत्ताके अन्य जगतोंके विषयमें अवगत होता है । आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करनेके लिये अंतरतम चेतनाकी ओर होनेवाले एक और उद्घाटनकी आवश्यकता होती है जिससे मनुष्य आत्मा और ब्रह्म, शाश्वत परमतत्व और भगवान्के विषयमें सचेतन होता है ।

 

*

 

         अन्तर्दर्शन आध्यात्मिक भूमिकासे नही आते -- परन्तु सूक्ष्म भौतिक, प्राणिक, मानसिक, चैत्य अथवा मनसे ऊपरकी भूमिकाओंसे आते हैं । आध्यात्मिक भूमिकासे आनेवाले अनुभव भगवान्से सम्बद्ध होते हैं, उदाहरणार्थ, सर्वव्यापी आत्माका अनुभव, सबमें विराजमान भगवानका अनुभव आदि आदि ।

 

*

 

          अंतर्दर्शन और अनुभव ( विशेषकर अनुभव) अपने-आपमे बिलकुल ठीक है, परंतु तुम प्रत्येक अंतर्दर्शनसे यह आशा नही कर सकते कि वह अपने समानांतर भौतिक तथ्यको भीं पैदा कर दे । कुछ करते हैं और अधिकांश नही । शेष पूर्णतया अतिभौतिक स्तरके होते हैं और उसीसे संबंधित सत्यों, संभावनाओं एव प्रवृत्तियोंका निर्देश करते हैं । ये कहातक जीवनको प्रभावित करेंगे अथवा उसमें चरितार्थ होंगे अथवा वे ऐसा करेंगे भी या नही यह सब दर्शन-विशेषकी प्रकृति, उसकी शक्ति तथा कभी-कभी योगीके संकल्प अथवा उसकी सर्जन-शक्तिपर निर्भर करता है ।

 

       लोग इन दर्शनोंका मान इसलिये करते है क्योंकि ये अन्य जगतोंसे एवं आंतरिक जगतोंसे और जो कुछ भी वहां है उससे संपर्क प्राप्त करनेकी एक कुंजी हैं यद्यपि इसके अतिरिक्त अन्य कुंजियां भी हैं । ये क्षेत्र हमारे वर्तमान भौतिक स्तरकी अपेक्षा अत्यधिक वैभवपूर्ण हैं । वहां व्यक्ति एक बृहत्तर तथा अधिक स्वतंत्र आत्मसत्तामें तथा एक अधिक नमनीय बृहत्तर संसारमें प्रवेश करता है । निश्चय ही इकले-दुकले अंतर्दर्शनोंसे केवल संपर्क ही प्राप्त होता है, वास्तविक प्रवेश नही, परंतु दर्शनकी शक्ति अन्य सूक्ष्म इन्द्रियों (स्पर्श, श्रवण आदि) की शक्तिके साथ विकसित होकर प्रवेश भी करा देती है । अत- र्दर्शनोंका प्रभाव केवल कल्पना का-सा नहीं होता (जैसा कि एक कवि अथवा कलाकार की कल्पनाका, यद्यपि वह काफी शक्तिशाली भी हो सकतीं है) । परंतु यदि उनका

 

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पूर्णतया निर्वाह हो सके तो वे सत्ताका, चेतना तथा उसके अनुभवोंकी राशिका और उसकी क्षमताका निरंतर विकास करते हैं ।

 

      लोग अंतर्दर्शनोंका मान एक महत्तर हेतुसे भी करते हैं । ये भगवान् तथा उसके रूपों और शक्तियोंका पहला संस्पर्श प्रदान करते हैं, ये भगवान्के साथ अंतर्भाषणका प्रारंभ होते हैं, उस पथ-निर्देशक वाणीका, हृदयमें उसकी उपस्थिति एवं उसके प्रति- बिंब और अन्य बहुत-सी वस्तुओंका, जिन्हें मनुष्य धर्म और योगद्वारा खोजता है, ये सूत्रपात करते हैं ।

 

      साथ ही अंतर्दर्शन इसलिये भी मूल्यवान् है क्योंकि बहुधा ये, जगतो तथा वैश्व चेतनाके स्तरोंको खोलनेके लिये भी पहली कुंजी होते हैं । यौगिक अनुभव बहुधा मस्तकमें एक तीसरे नेत्र ( भौंहोंके बीचमें स्थित अंतर्दर्शनके केंद्र) के खुलनेसे अथवा एक सूक्ष्म दृष्टिके आरंभ एवं विकाससे शुरू होते हैं । यह दृष्टि आरंभमें भले ही अवि- शेष लगे पर यही गहनतर अनुभवोंकी प्रवेशभूमिका बनती है । जब ऐसा न भी हों -क्योंकि व्यक्ति इसके बिना भी अनुभव प्राप्त कर सकता है -- तो यह दृष्टि बादमें अनुभवोंकी एक सशक्त सहायिकाके रूपमें प्रकट हों सकती है । यह उन निर्देशों एवं संकेतोंसे पूर्ण हो सकतीं है जो आत्म-ज्ञान तथा वस्तुओं एवं लोकोंकी ज्ञानमें सहायक हो सकते हैं । यह तथ्यशानयुक्त होकर पूर्वदर्शनों  तथा दूसरे अल्प महत्वके पर एक योगीके लिये अत्यत लाभ- दायक सूत्रोंके प्रकट होनेका कारण बन सकती है । संक्षेपमें अंतर्दर्शन पूर्णतया अनिवार्य न हाते हुए भी एक बहुत बड़ा साधन है ।

 

          किन्तु जैसा मैंने बताया है, अन्तर्दर्शन कई प्रकारके होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे स्वप्न कई प्रकारके होते हैं । इनको पहचाननेके लिये व्यक्तिको अपने अन्दर विवेक और मूलगंकनकी क्षमता उत्पन्न करनी पड़ती है और यह जानना और समझना पड़ता है कि वह इन शक्तियोंका उपयोग किस प्रकार करे । पर यह एक अत्यंत विस्तृत एवं गहन विषय है और यहां इसकी समीक्षाका अवसर नही ।

 

*

 

        अंतर्दर्शनका पथ रोककर उसने भूल की । अंतर्दर्शन और भ्रममूलक दर्शन  एक चीज नही है । देहबद्ध मनके परे स्थित चेतनाके उच्च- तर लोकोंमें यह अंतर्दृष्टि एक खुला दरवाजा है जो बृहत्तर सत्य और अनुभूतिको प्रवेश- का और हमारे मन पर प्रभाव डालेनेका अवकाश देता है । यही एकमात्र या सर्व- श्रेष्ठ दरवाजा हे ऐसी बात नहीं, परन्तु आधेकतरको नही तो बहुतसे लोगोंको यही सबसे ज्यादा शीघ्रतासे प्राप्त होता है और यह बहुत समर्थ सहायक हो सकता है । बुद्धिप्रधान व्यक्तियोंको यह उतनी आसानीसे नही मिलता, जितनी आसानीसे उन्हें मिलता है जिनकी प्राणशक्ति प्रबल है या जो भावप्रवण या कल्पनाप्रवण हैं । यह सही है कि मानव मनके अन्य प्रत्येक कार्यक्षेत्रकी भांति अंतर्दृष्टिका क्षेत्र भी एक मिश्र दुनिया

 

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है; उसमें सत्य है तो अर्ध-सत्य और असत्य भी कम नहीं है । यह भी सही है कि यदि अधीर और अविवेककी व्यक्ति उसमें प्रवेश करे तो उसे विभ्रम हों सकता है और भ्रामक प्रेरणाऐं, मिथ्या ध्वनियां आदि प्राप्त हों सकतीं है । ऐसी अवस्थामें उन लोंगोंसे जिन्हें आध्यात्मिक और आंतरात्मिक अनुभूति प्राप्त है निश्चित निर्देश लेना अधिक सुरक्षित है । इस क्षेत्रकी ओर स्थिरता और विवेकपूर्वक देखना चाहिये परंतु इसके द्वार बन्द कर देने और इसे तथा इसी श्रेणीके अन्य अतिभौतिक अनुभवोंका वर्जन करने- का अर्थ अपनेको सीमाबद्ध करना और आंतरिक विकासकी प्रक्रियाको रोक देना होगा ।

 

         कर्मयोगकी राह ही उसके स्वभावके अनुरूप मालूम होती है । इसलिये उसका गीताकी शिक्षाके अनुसार चलनेका प्रयत्न सही है । क्योंकि इस राहमें गीता ही उत्कृष्ट पथप्रदर्शक है । वैयक्तिक इच्छा और अहंकारकी गतियोंसे मुक्ति, जो सर्वोत्तम प्रकाश अपने पास है उसका निष्ठापूर्वक अनुगमन इस यात्राकी प्रारंभिक तैयारी है, और जहां- तक उसने इन दो बातोंको साधा है, वह सही मार्गपर है । परंतु अपने कार्यके लिये शक्ति और प्रकाशकी मांगको अहंकारमूलक चेष्टा नहीं मानना चाहिये, क्योंकि वे तो अपने आंतरिक विकासके लिये आवश्यक हैं ।

 

          निःसंदेह, अधिक विधिबद्ध और गभीरतर साधना अभीष्ट है, या, कम-से-कम सुस्थिर अभीप्सा तथा केंद्रीय उद्देश्य में ही निरंतर नियुक्त रहनेका प्रयत्न तो चाहिये ही । इतना हुआ तो बाहरकी वस्तुओं और कार्योमें व्यापृत रहनेपर भी सुप्रतिष्ठित तटस्थताकी प्राप्ति हों सकती है और बराबर पथका निर्देश मिलता रह सकता है । योगके इस मार्गमें,--मैं कर्म (या आध्यात्मिक कर्म) के पृथक् पथकी बात कह रहा हूँ - कर्मयोगमें सफलताका, सिद्धि या पूणताका आरंभ तो तब होता है जब साधक- को अपने कर्मजीवनके नियंताकी और उसके निदेशकी उज्ज्वल परिचिति होने लगे, और उसे यह अनुभूति हों कि काम तो भागवत शक्ति कर रहीं है; वह स्वयं तो यंत्रमंत्र है, दिव्य कर्ममें सहयोगी है ।

 

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          आध्यात्मिक वस्तुओंके विषयमें तुम्हारा दृष्टिबिंदु बहुत उपयोगितावादी है । साधनामें विकसित होनेवाली वस्तु यदि यथार्थ हो तो समग्र अनुभव और ज्ञानमें उसका अपना स्थान होता है । गुह्य जगतों और गुह्य शक्तियों तथा व्यापारोंके ज्ञानका भी अपना स्थान है । सूक्ष्मदर्शन और वाणिया गुह्य अनुभूतिके उस विशाल प्रदेशका एक छोटासा अंशमात्र हैं । जहांतक उपयोगिताका प्रश्न है, बुद्धि और विवेकवाले व्यक्तिके लिये अन्तर्दर्शन इत्यादि चीजोंके अनेक उपयोग हैं - किंतु जिन लोगोंके पास विवेक या बोधशक्ति नही होती उनके लिये यह बहुत कम उपयोगी हैं ।
 

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        मुझे मालूम नहीं कि क्रियात्मक साधनासे तुम्हारा क्या अभिप्राय है । यदि कोई व्यक्ति गुह्य क्षमता और गुह्य-अनुभव एवं ज्ञानको विकसित कर ले तो ये चीजों उसके लिये बहुत उपयोगी, परिणामत. व्यावहारिक हो सकती हैं । अपने आपमे वे आंतर चेतनाके उद्घाटनका एक अंश होती हैं तथा उसे और अधिक खोलनेमें सहायक भी -- यद्यपि वे उद्घाटनके लिये अनिवार्य नहीं है ।

 

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        प्रगतिसे तुम्हारा क्या आशय है? श्रीमाँने गुह्य लोकोंमें प्रवेश करने और वहां सीखने योग्य वस्तुओंको सीखनेमें अनेक वर्ष लगाये । इस सारे समय क्या वे प्रगति नही कर रहीं थी? माताजी जबतक समाधिमें होती हैं तो सदैव उन लोकोंकी वस्तु- ओंको देखती है । क्या उनकी इस क्षमताका कोई मूल्य नही? क्योंकि बहुतेरे लोग अपनी शक्तियोंका उपयोग करना नहीं जानते या उनका दुरुपयोग करते हैं अथवा उन्हें जरूरतसे ज्यादा महत्व देते हैं या उनके द्वारा अपने अहंकारको पुष्ट करते हैं तो क्या इसका यह परिणाम निकलता है कि स्वयं इन शक्तियोंका ही योगमें कोई उपयोग या मूल्य नहीं हे?

 

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          यह (गुह्य शक्तिका विकास) स्वयं चेतनाके विकासकी प्रगतिका सूचक है यद्यपि यह संभव है कि उसमें प्रकृतिको आध्यात्मिक बनानेकी कोई क्षमता न हों ।

 

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           जिन लोगोमे गुह्य-शक्ति होतीं है उनमें सदा ही उसे बहुत बड़ा महत्व देनेकी प्रवृति होती है ।

 

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        वे (र०म०) अपने शिष्योंको (गुह्य शक्तिके साथ किसी प्रकारका संबंध रखनेसे) अनुत्साहित करते थे क्योंकि उनका लक्ष्य था आंतर आत्माका साक्षात्कार और संबोधि- की उपलब्धि - दूसरे शब्दोंमें आध्यात्मिक मनकी पूर्णता -- सूक्ष्म दर्शन और अंतर्ध्वनिया आंतर गुह्य इन्द्रियसे संबंध रखती हैं, इसलिये वे चाहते थे कि शिष्यगण इसपर बल न दें । मैं भी कुछ लोगोंको अंतर्दर्शन और वाणियोंके साथ किसी प्रकारका संबंध रखनेसे निरुत्साहित करता हूँ क्योंकि मैं देखता हूँ कि दे मिथ्या दर्शन और मिथ्या वाणियोंके कारण भटक रहे हैं । इसका अर्थ यह नही कि सूक्ष्म दर्शनों और वाणियों-

 

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का कोई महत्व नही ।

 

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           अन्तर्दर्शन सब स्तरोंसे आते हैं और सब तरहके होते हैं और उनके. मूल्य भी विभिन्न प्रकारके होते हैं । कुछ दर्शन अतीव मूल्यवान् और महत्वपूर्ण होते हैं, अन्य मन या प्राणकी लीलारूप होते हैं और केवल अपने विशेष प्रयोजनके लिये ही उपयुक्त होते हैं, अन्य कुछ मन और प्राणस्तरके सर्जन होते हैं । इनमेंसे कुछमें सत्य हो सकता है, जब कि अन्य मिथ्या और पथभ्रष्ट करनेवाले होते हैं अथवा उस भूमिकाकी अपनी एकप्रकारकी कारीगरीके नमूने होते हैं । प्रारंभिक योग-चेतनाके, अर्थात् आंतरमन, आंतरप्राण, आंतरभौतिक चेतनाके विकासके लिये या विश्वके गुह्य-ज्ञानके लिख उनका पर्याप्त महत्व हों सकता है । यथार्थ अंतर्दर्शन आध्यात्मिक उन्नतिमें मदद दे सकते हैं, मेरा मतलब उन अन्तर्दर्शनोंसे है जो आन्तरिक सत्य वस्तुओंको दिखलाते हैं : उदाहरणार्थ एक आंतरिक 'यथार्थ' अंतर्दर्शनमें ब्यक्तिका कृष्णसे मिलन हो सकता है, वह उनसे बातचीत कर सकता है एव उनकी आवज सुन सकता है ठीक उतने ही वास्तविक रूपमें जैसे बाह्य जगतमें किसीसे मिलन होता है । केवल उनकी मूर्तिका देखना वही बात नही हे, ठीक वैसे ही जैसे कि दीवारपर लगे उनके चित्रको देखना उनसे प्रत्यक्ष मिलन नही है । परन्तु दीवारपर लगे चित्रका आध्यात्मिक जीवनके लिये अनुपयोगी होना जरूरी नही है । मनुष्य केवल यही कह सकता है कि भगवान्की दी हुई इस देनेके साथ ओर इसके द्वारा दिखाई देनेवाली वस्तुओंके साथ व्यक्तिको बहुत अधिक आसक्त नही हों जाना चाहिये, किंतु इसे तुच्छ भी नही मानना चाहिये । इसका भी मूल्य है और कभी-कभी यह आध्यात्मिक रूपमे उपयोगी वस्तु होती है । किंतु स्वभावतया यह चरम वस्तु नही है -- चरम वस्तु है साक्षात्कार, भगवान्से संबंध, मिलन, भक्ति, प्रकृतिका परिवर्तन इत्यादि ।

 

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          ये प्रकाश और अन्तर्दर्शन भ्रांतियां नही हैं । ये उस आंतरिक दृष्टिके खुलनेके द्योतक हैं जिसका केन्द्र माथेमें भौंहोंके बीचमें है । सबसे पहले बहुधा ज्योतियां दिखती हैं । ज्योतियां सत्ताके विभिन्न स्तरोंसे संबंध रखनेवाली सूक्ष्मशक्तियोंकी क्रिया या गतिको सूचित करती हैं -- शक्तिका स्वरूप प्रकाशके रंग और उसको विशेष आभा- पर आधार रखता है । सूर्य आंतरिक या उच्च सत्यका प्रतीक या बल है; ध्यानमें इसे देखना एक अच्छा लक्षण है । समुद्र भी प्राय. प्रतीकात्मक होता है जो साधारणत: प्राणिक-प्रकृति, कभी-कभी गतिशील चेतनाके विस्तारका निर्देश करता है । दृष्टिके उन्मीलनको अवश्य विकसित होने देना चाहिये, किंतु व्यक्तिगत अंतर्दर्शनोंको तबतक बहुत महत्व नही देना चाहिये जबतक वे स्पष्ट ही प्रतीकात्मक या अर्थपूर्ण न हों अथवा

 

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साधनामें आनेवाली वस्तुओंपर प्रकाश न डालते हों ।

 

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          अन्तर्दर्शन और वाणियोंका उद्देश्य श्रद्धा पैदा करना नही, वे केवल तभी प्रभा- वोत्पादक होते हैं जब मनुष्यमें पहलेसे ही श्रद्धा हों ।

 

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           नही, न यह दृष्टिभ्रम था न ही मतिभ्रम या दैव-योग अथवा स्वतः सूचना और न ही कोई भारीभरकम निस्सार शब्दाडम्बर जिसके द्वारा भौतिक विज्ञान उन वस्तु- ओंकी जैसे-तैसे व्याख्या करनेकी या बल्कि उनसे बचनेकी चेष्टा करता है जिनकी व्याख्या वैज्ञानिक रूपसे नही हों सकती । इन मामलोंमें वैज्ञानिक सदैव वही कुछ कर रहा है जिसके लिये वह प्राकृत जनकों प्राय. दोष देता रहता है । सामान्य व्यक्ति जिन वस्तुओंके विषयमें गभीर रूपसे अनभिज्ञ होता है उनके संबंधमें बिना किसी खोज या परीक्षणके, बिना किसी निर्णीत ज्ञानके -- केवल अपने मनमें उत्पन्न एक सिद्धांत या ' 'प्रथम' ' विचारकों विकसित करके और उसे उस व्याख्यासे परेके व्यापार पर लेबलके रूपमे चिपका कर नियम निधर्ग्रित करता है ।

 

        जैसा मैंने कहा कि बाह्य व्यापारोंसे भिन्न संवेदनका वहन करनेवाले व्यापारोंकी. एक पूरीकी पूरी शृंखला या अनेक असीम शृंंखलायें हैं जिनके विषयमें हम या तो समाधि- मे या निद्रामें अथवा उस अंतर्मुखी अवस्थामें जिसे हम भूलसे निद्रा कहते हैं या केवल और सहज जाग्रत स्थितिमें सचेतन हों सकते हैं - नवीन प्रचलित अमरीकी मुहावरे- का प्रयोग करे तो जिन्हें हम देख सकते हैं, सुन सकते है, अनुभव कर सकते हैं, सूंघा सकते हैं, स्पर्श कर सकते हैं, और जिनके साथ मानसिक रूपसे संपर्कमें आसकते हैं । अति- भौतिक वस्तुओंके आंतरिक सवेदनकी या उन्हें, ऐसा बाह्य रूप प्रदान करनेकी क्षमता या देन ! वे आंख, कान और स्पर्शेन्द्रियके लिये भौतिक पदाथोके समान हीं देखने सुनने और स्पर्शके योग्य हों जाये -- कोई मानसिक तरंग या असामान्य वस्तु नही है, यह एक विश्वव्यापी क्षमता है जो मनुष्य मात्रामें विद्यमान है, पर अधिकतर लोगोमे सोई पडी है, कुछमें बहुत कम या बीच-बीचमें सक्रिय, किन्हीमें ऐसी मानों अकस्मात घटनेवाली और बिरले ही लोगोंमें बार-बार या सामान्य रूपसे सक्रिय होती है । पर जैसे कोई भी व्यक्ति थोड़े प्रशिक्षणके बाद विज्ञान सीख सकता है और ऐसी बातें कर सकता हैं जो उसके पुरखोंको चमत्कार लग सकती है, लगभग इसी प्रकार कोई भी व्यक्ति यदि चाहे तो थोडी एकाग्रता और प्रशिक्षण द्वारा अतिभौतिक दर्शनकी शक्तिको विकसित कर सकता है । जब कोई व्यक्ति योग प्रारंभ करता है तो यह शक्ति निरपवाद रूपसे तो नही किंतु प्रायः - क्योंकि कुछ लोगोंको इसकी प्राप्ति कठिन लगती है है - प्रसुप्त पडी हुई शक्तियोंमें सर्वप्रथम बाहर आकर अपनेको बहुधा साधकके

 

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किसी यत्न, इरादे या पूर्वज्ञानके बिना अभिव्यक्त करती हैं । खुली आंखोंकी अपेक्षा बन्द आंखोंसे इनका अनुभव अधिक सरलतासे होता है पर दोनों हीं प्रकारसे होता अवश्य है । बाह्यरूपसे इसके उद्घाटनका प्रथम लक्षण बहुधा 'चिनगारियों' या छोटे चमकीले बिन्दुओं, आकार इत्यादिके दर्शनके रूपमें होता है जैसा कि इसके साथ तुम्हारे प्रथम परिचयमें हुआ, दूसरा लक्षण जो बहुधा आसानीसे होता है जैसे गोल चमकीले पदार्थों- का दीखना जैसे तारा; रंगोंका देखना तीसरा प्रारंभिक अनुभव है -- परंतु वे हमेशा इसी कर्मसे नहीं आते । भारतमें योगीजन इस शक्तिको उन्नत करनेके लिये बहुधा 'त्राटक' की,-एक ही बिनु या पदार्थपर खासकर चमकीले पदार्थपर दृष्टिको एकाग्र करनेकी - पद्धतिका प्रयोग करते थे । तुम्हारा तारेको स्थिर दृष्टिसे देखना निश्चय ही त्राटकका ही अभ्यास है और उसका वही सामान्य प्रभाव हुआ जो कोई भी भारतीय योगी तुम्हें बताता । सबके लिये यह कल्पना या भ्रांति नही है; यह गुह्य विज्ञानका एक अंग हैं जिसका अभ्यास ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक युगोंसे सब देशोंमें बराबर किया जाता रहा है और इसके परिणाम हमेशा केवल स्वयं सूचक और भ्रमात्मक नही पर यदि किसीको इसकी चावी मिल सके तो ये सच्चे और प्रमाणयोग्य माने गायें हैं । तुम्हारा संदेहवाद भूत, वर्तमान और भावीकी इन चीजोंमें गोता लगानेवाले '' आधुनिक' ' मानवके लिये स्वभाविक हो सकता है -- स्वाभाविकपर न्यायोचित नहीं क्योंकि वह बहुत स्पष्ट रूपसे निरीक्षित सत्योंके साथ संगत नहीं होता; पर एकबार यह समझ जानेपर सर्वप्रथम तुम्हें इस निर्जीव मिथ्या विज्ञानको पीछेकी ओर फेंक देना चाहिये, अतिभौतिक वस्तुओंकी भौतिक व्याख्या करनेके इस व्यर्थके प्रयाससे चिपटे नहीं रहना चाहिये एवं इस एकमात्र बुद्धिसंगत पथको ग्रहण करना चाहिये । शक्तिको विकसित करो, अधिकाधिक अनुभव प्राप्त करो, उस चेतनाको उन्नत करो जिसके द्वारा वे वस्तुएं प्राप्त होती हैं; जैसे-जस चेतना उन्नत होगी वैसे-वैसे तुम इसे समझने लगोगे, इसके मर्मका अन्तर्बोध उपलब्ध करोगे । अथवा यदि तुम इनके शास्त्रको ही समझना चाहो तो गुह्य शास्त्रको सीखो और उसका प्रयोग करो, एकमात्र वही अतिभौतिक वस्तुओंसे व्यवहार कर सकता है । और जहांतक उन वस्तुओंका संबंध है जो तुम्हें दिखाई दी थीं, वे विलक्षण घटना मात्र न थीं, न कोई प्रतीकात्मक रंग ही, पर वे पर्याप्त महत्व- पूर्ण वस्तुएं थीं ।

 

          आंतरिक इन्द्रियकी इस शक्तिका और उन वस्तुओंका विकास करो जो उसके साथ आती हैं । साधनाके ये प्रारंभिक दर्शन तो बाहरी अचलमात्र हैं -- उसके पीछे अनुभवके एक ऐसे पुरेके पूरे जगत हैं जो पार्थिव चेतना और अनादि-अनन्तके बीच- के खाली स्थानको (जिसे तुम्हारा रसैल आंतरिक शून्य कहता है) भर देते हैं ।

 

*

 

          वस्तुओंका एक भौतिक पक्ष है और एक गुह्य अतिभौतिक पक्ष भी - यह आवश्यक नहीं कि एक पक्ष दूसरे पक्षके मार्गमें बाधक बने ही । सभी भौतिक वस्तुएं

 

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अतिभौतिक वस्तुओंकी व्यंजना है । भौतिक उपकरणों और प्रक्रियाओंसे युक्त शरीर की सत्ता, जैसे कि १९ वों शताब्दीमें भूलसे कल्पना कर लिंग गई थी, उस अंतरात्माके अस्तित्वको असत्य सिद्ध नही करती जो उस शरीरके द्वारा सीमित किये जानेपर भी उसका उपयोग करता है । प्रकृतिके नियम भगवान्के अस्तित्वका खंडन नही करते । स्थूल जगत्के तथ्यात्मक सत्य जिसके साथ हमारे उपकरण मेल रखते हैं, उन कम भौतिक जगतोंके अस्तित्वको अप्रमाणित नही करते जिनका प्रत्यक्ष हमें कुछ सूक्ष्मतर उपकरण हीं करा सकते हैं ।

 

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         वह उपस्थिति स्थूल प्रकारकी हैं या कोई आध्यात्मिक तथ्य है? और क्या तुम्हारी भौतिक इनइद्रय आध्यात्मिक वस्तुओंको - आध्यात्मिक उपस्थितिके अस्थूल रूपकों देखने या अनुभव करनेमे अभ्यस्त या समर्थ है? ब्रह्मको सर्वत्र देखना तबतक संभव नही है जबतक हम अन्तदृर्ष्टिको विकसित न कर लें - इसके लिये तुम्हें एकाग्रताका अभ्यास करना होगा । अन्न रूपोंको देखना वस्तुत: बहुत कम लोगोंके लिये संभव है क्योंकि यह देन उन्हें प्रकृतिसे प्राप्त होती हो किन्तु अधिकांश लोग सूक्ष्मदृष्टिका विकास किये बिना ऐसा नही कर सकते । भगवान्के दर्शनके लिये कोई कष्ट उठाये बिना उनकी उपस्थितिके प्रकट होनेकी आशा करना निरर्थक है, तुम्हें इसके लिये एकाग्र होना होगा ।

 

*

 

           इसका अभिप्राय केवल इतना है कि तुम्हारे अन्दर भगवान्की उपस्थितिके विषयमें एक आंतरिक भाव है । किन्तु क्या वस्तुओंके विषयमें आंतरिक भाव अनिवार्य रूपसे एक व्यर्थके कल्पना ही होनी चाहिये? यदि यही बात हों, तो योगसाधना करना सम्भव ही न हो । मनुष्यको यह बात एक स्वयंसिद्ध सत्यके रूपमें माननी होगी कि आंतरिक वस्तुएं उतनी हीं यथार्थ हों सकती है जितनी बाह्य वस्तुएं । निःसंदेह, मानसिक रचनाएं जैसी वस्तुएं हो सकती हैं और होती भी हैं -- परन्तु, पहले पहल तो मानसिक रचनाएं ठोस परिणामोंको उत्पन्न करनेवाली और बहुत बलशाली होती हैं या हों सकतीं है, दूसरे, व्यक्ति जो देखता या सुनता है वह मानसिक रचना है या एक यथार्थ आत्मनिष्ठ पदार्थ इसका निर्णय केवल तभी हो सकता है जब इन भीतरी वस्तुओंके संबंधमें मनुष्यको पर्याप्त अनुभव हो ।

 

        व्यक्तिगत अंतर्दर्शन उतने हीं सत्य हो सकते हैं, जितने बाह्य दृश्य । अंतर केवल यहीं है, कि एक स्थूल जगत्में वास्तविक पदार्थोंके होते हैं, जब कि दूसरे अन्य स्तरोंके -सूक्ष्म-भौतिक स्तरतकके -- वास्तविक पदार्थोंके होते हैं । वैसे प्रतीकात्मक अंतर्दर्शन भी सत्य होते है, क्योंकि वे वास्तविकताओंके प्रतीक होते हैं । स्वप्नों भी सूक्ष्म-जगत्में एक वास्तविकता होती है । अंतर्दर्शन तभी मिथ्या होते हैं जब वे काल्पनिक मानसिक रचनाएमात्र होते हैं और किसी ऐसे तथ्यके द्योतक नही होते, जो सत्य है अथवा सत्य होनेवाला है ।

 

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         अंतर्दर्शनकी यह शक्ति कभी कभी बिना विकसित करनेके किसी परिश्रमके जन्म- से तथा स्वाभाविक रूपमे प्राप्त होती हैं । कभी-कभी यह अपने-आप जाग्रत होकर प्रचुर हो जाती है, अथवा विकसित होनेके लिये थोड़े ही अभ्यासकी अपेक्षा रखती है । यह जरूरी तीरपर आध्यात्मिक उपलब्धिका लक्षण नहीं है, किंतु बहुधा जब योगके अभ्याससे कोई अंतरमें प्रवेश करने अथवा आंतरिक जीवन व्यतीत करने लगता है, तब न्यूनाधिक मात्रामें सूक्ष्म अंतर्दर्शनकी शक्ति जाग्रत होती है । किंतु यह बहुधा सुगमतासे घटित नही होता, विशेषतया यदि व्यक्ति अधिक बुद्धिसे या बाह्य प्राणगत चेतनामें रहनेका अभ्यासी रहा हों ।

 

       मेरा अनुमान है कि जिसके विषयमें तुम सोच रहे हों, वह दर्शन है -- भक्तके आगे देवताका आत्म-प्रकटन । किंतु वह भिन्न होता है । वह है उनकी -- स्थायी अथवा अस्थायी -- सत्ताका अनावृत हो जाना । वह अंतर्दर्शनके रूपमें घटित हों सकता है, अथवा उनकी उपस्थितिके निकट अनुभवके रूपमें । जो उनके दर्शन अथवा उनसे बहुधा या सतत संलापसे भी अधिक आत्मीय होता है । सत्ताके अपनी अंतरात्मा- मे गहरे पैठने तथा चेतनाके विकाससे, अथवा भक्तिकी प्रगाढताके बढ़नेसे यह होता है । निरंतर बढ्ती और सर्वग्राही बनती हुई भक्तिके दबावसे जब बाह्य चेतनाकी पपड़ी काफी फट जाती है, तब संस्पर्श प्राप्त होता है ।

 

*

 

          उसे भौंहोंके बीचमें जो सूक्ष्म दर्शन हुए हैं वे कल्पनाएं नहीं हैं -- वे कल्पना तभी हो सकते यदि उनके संबंधमें उसने पहले विचार किया होता और उसके विचारोंने आकार ग्रहण किया होता, किंतु क्योंकि वे उसके विचारोंसे स्वतंत्र रूपमे आये इसलिये वे नेत्रेन्द्रियकी कल्पना नहीं बल्कि सूक्ष्मदर्शन हैं । यह शक्ति योगमें एक उपयोगी वस्तु है और इसे उन्नत होने देना चाहिये, इसे अनुत्साहित नही करना चाहिये । मुझे मालूम नही कि इनमें उसे श्रद्धा न होनेका आशय क्या है । वह इस समय जिन चीजों- को देख रहा है वे संभवत: सूक्ष्म दृश्यों और वस्तुओंके प्रतिरूप मात्र हैं, परन्तु, उन्नत होनेपर यह क्षमता वस्तुओंके सत्योंको या इस अन्य लोकोंकी यथार्थताको या भूत, वर्त्तमान या भावीके चित्रोंको बतानेवाली प्रतीकात्मक, प्रतिनिधि या यथार्थ दर्शनकी शक्ति बन सकतीं है ।

 

         यदि एकाग्रता स्वभावत. भौंहोंके बीचमें केन्द्रित हो जो अंतर्मन और उसके विचार, संकल्प और दृष्टिका केन्द्र है, तो इसमें कोई हानि नहीं।

 

यदि बह अब यहां आये तो इससे उसे कोई लाभ नही होगा । उसे पहले प्रकृतिके शोधन और उसे तैयार करनेकी प्रक्यिामेंसे और कम-से-कम उस निश्चयात्मक यौगिक चेतनाके प्रारंभिक विकासमेंसे गुजरना होगा जिसके बिना उसका यहां आना निरर्थक होगा ।

 

*

 

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         तुम्हारे अन्दर जो वस्तु विकसित हुई है वह है सच्चे अन्तर्दर्शनकी शक्ति - इस शक्तिके द्वारा तुम्हें अन्दर प्रवेश करके भगवानका स्पर्श पानेमें सहायता प्राप्त होगी । तुम्हें महज इसे विकसित होने देना होगा । तुम्हें अपने अन्दर अन्य दो वस्तुओंको भी विकसित होने देना होगा -- अपने कर्मोके पीछे भगवान्की उपस्थिति, शक्ति और अन्तःप्रेरणा अनुभव, एवं मेरे और माताजीके साथ आंतरिक संपर्क । श्रद्धा और सचाईके साथ अभीप्सा करो और ये सब चीजे तुम्हें प्राप्त होंगी । मैं तुम्हें कोई अन्य अधिक सुनिश्चित निर्देश नही देना चाहता जबतक मैं यह न देख लूं कि यहां रहते हुए तुम्हें क्या अनुभव होता है, यद्यपि मार्ग सबका समान हे किन्तु उसपर चलनेका सबका अपना-अपना तरीका है ।

 

II

 

        जब तुम प्रकाश्शो देखते हो तो इसे अन्तर्दर्शन कहते हैं । जब तुम प्रकाशकों अपने अन्दर प्रवेश करता हुआ अनुभव करते हों तो यह अनुभव होता है, जब प्रकाश तुम्हारे अन्दर आकर स्थिर हों जाता है और अपने साथ आलोक और ज्ञानको लाता है तो यह साक्षात्कार कहलाता है । परंतु सामान्यतया अन्तर्दर्शन अनुभव भी कहलाते

 

*

 

         सूक्ष्मदर्शन प्रायः साक्षात्कारसे पहले आते हैं, एक तरहसे उसे तैयार करते हैं ।

 

*

 

            उच्चतर भूमिकाओंका अन्तर्दर्शन या वे क्या हैं इस बातका ख्याल रूपांतरसे बहुत पहले ही प्राप्त हों सकता है । यदि यह संभव न होता तो रूपांतर कैसे हो सकता? निम्रतर प्रकृति अपने आप नहीं बदल सकती, वह उच्चतर लोकोंमें संबद्ध उच्चतर चेतनाके बढ़ते हुए अन्तर्दर्शन, प्रत्यक्षबोध एवं अवतरणसे बदलती हैं । अभीप्सा द्वारा एवं बदते हुए उद्घाटन द्वारा ही ये अन्तर्दर्शन और प्रत्यक्षबोध आना शुरू होते हैं - उपलब्धि बादमें आती है ।

 

*

 

          हां, यह (उच्चतर चेतना) शांति, विशालता, वैश्व-चेतना, भगवानका साक्षात्कार, वैश्व-शक्तियों और अन्य वस्तुओंके बोधकों लाकर - परदेको भेद विना अन्तर्दर्शनके द्वारा ही मानसिक स्तरपर अवतरित हो सकती हैं । परन्तु साधारण-

 

४३५


तया अधिकतर लोगोंको अन्तर्दर्शन पहले होता है ।

 

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         मैंने मनमें भगवान्के साक्षात्कारकी बात कही थी । पर पूर्ण साक्षात्कार प्राप्त करना हो तो आवरणका भेदन अनिवार्य है ।

 

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         कभी-कभी अन्तर्दर्शन अनुभवके साथ ही आता है और ऐसा लगता है मानों कह उसका आखों देखा या उससे जुड़ा हुआ कोई रूप हों, पर अनुभव स्वयं एक भिन्न वस्तु है ।

 

*

 

          इससे यह र्पारेणाम नही निकलता । गहराईमें जाकर कोई अन्तर्दर्शन प्राप्त कर सकता है, हो सकता है किसी औरको अधिक गहरी चेतनामें जानेपर भी अन्तर्दर्शन न हों इत्यादि इत्यादि । परिणाम प्रकृतिके अनुसार भिन्न भिन्न होता है ।

 

III

 

        आंतरिक दर्शन यथार्थ दृश्यके समान ही सजीव तथा सदा हीं सुस्पष्ट होता है एवं उसमें एक सच्चाई होती है । मानसिक दर्शनमें मन प्रतिमूर्तियोंको उपजाता है । और वे अंशत: सच्ची तथा अंशत: संभावनाओंका खेल होती हैं । अथवा एक मानसिक दर्शन प्राणिक दर्शनके समान महज एक सुझाव हो सकता है, अर्थात् मानसिक और प्राणिक स्तरकी किसी संभावनाका निर्माण, जो साधकके सामने इस आशासे आता है कि उसे स्वीकार कर लिया जाय और प्रत्यक्ष होनेमें उसे सहायता प्राप्त हो ।

 

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         मानसिक अन्तर्दर्शनोंका प्रयोजन है मनमें उन वस्तुओंके प्रभावको लाना जिनके वे प्रतिरूप होते हैं ।

 

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         वैश्व अन्तर्दर्शनका अर्थ है वैश्वाक्योओंको देखना - अवश्य ही इसका चैत्यसे

 

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किसी प्रकारका कोई संबंध नहीं है । यह वैश्वमन, वैश्वप्राण, वैश्वशरीरमें या और कहीं भी हों सकता है ।

 

        चैत्य अन्तर्दर्शनसे यहां तुम्हारा क्या मतलब है? अन्तर्दृष्टिका अर्थ है बाह्य दृष्टिके विपरीत अर्थात् ऊपरी मनकी सहायतासे बाहरी रूपमें ऊपरी आंखोंके द्वारा देखनेकी शक्तिके विपरीत अंतरकी दृष्टिसे देखना । इस योगकी भाषामें चैत्यका अर्थ महज अन्तरात्मा, चैत्यपुरुष होता है - किसी प्रेतके दिखाई देनेपर सामान्य भाषामें उसे ' 'चैत्य दर्शन ' कहा जाता है, पर हम वैसा नहीं कहते । हम तो अन्तर्दृष्टि या सूक्ष्मदृष्टिकी बात कहते हैं न कि चैत्य दर्शन की ।

 

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         समाधिमें होनेवाला अन्तर्दर्शन जाग्रत स्थितिके दर्शनसे कम महत्वपूर्ण नहीं है । भेद केवल ग्रहण करनेवाले व्यक्तिकी चेतनाकी स्थितिमें होता है । पहलेमें, जाग्रत चेतना सूक्ष्मदर्शनमें भाग लेती है, दूसरेमें, आंतर अनुभूतिकी अधिक सुविधा और अवकाशके लिये उसे बाहर निकाल दिया जाता है । पर दोनोंको देखती अन्तर्दृष्टि ही है ।

 

*

 

        अन्तर्दृष्टि पदार्र्थोको देख सकती है, परन्तु बह उसके स्थानपर उनके द्वारा कार्य करने वाली शक्तियोंके स्पन्दनको अधिक देख सकती है ।

 

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        सूक्ष्म दर्शन सब तरहके होते हैं - कुछ दर्शन, जो वस्तु होना चाहती है या होनेका यत्न कर रहीं १, उसके संकेत मात्र होते है, कुछ वस्तुके समीप जानेका अथवा उसका दिशामें गतिका निर्देश करते हैं, कुछ इस बातका संकेत करते हैं कि वस्तु हो रही

 

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        अन्तर्दर्शनमें देखे प्रतिरूपोंको विकसित करनेके लिये हमें कुछ नहीं करना चाहिये । दर्शनका अभ्यास बढ़नेके साथ-साथ वे स्वयं विकसित होते हैं - उनमें जो अस्पष्ट होता है वह स्पष्ट हों जाता है और जो अपूर्ण होता है पूर्ण बन जाता है । सर्व-सामान्य रूपमें यह कोई नहीं कह सकता कि वे वास्तविक या अवास्तविक हैं । कुछ मनकी रचनाएं होते हैं, कुछ ऐसे प्रतिरूप होते हैं जो स्वयं आंखोंके सामने आ जाते हैं, कुछ

 

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यथार्थ वस्तुओंके प्रतिरूप भी होते हैं जो अपनेको सीधे दृष्टिके सामने रख देते हैं - कुछ अन्य प्रतिरूप मात्र ही नहीं बल्कि सच्चे चित्र होते हैं।

 

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        यह प्रदेश (जिसका केन्द्र भौंहोंके बीचमें है) आंतरिक विचार, संकल्प, और दिव्य दर्शनका प्रदेश है - मोटर कार चेतनाके इस भागमें तीव्र प्रगतिकी द्योतक है । मोटर कार एक- प्रतीकात्मक मूर्ति है, ये म्र्त्तियां किसी भौतिक वस्तुका निर्देश नहीं करतीं ।

 

        ये वस्तुएं आंतरमन या आंतरप्राणमें घटित होती हैं और इनके पीछे एक सत्य होता है पर मनमें दे जिस रूपमें आती हैं वह रूप अपूर्ण हो सकता है - अर्थात् उसका कोई ऐसा अर्थ हों सकता है जो शब्दोंमें पूरी तरह प्रकट न होता हों ।

 

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         ये मानस-प्रतिमायें नहीं हैं । एक ऐसी अन्तर्दृष्टि है जो साधना-कालमें खुलती है और उसके सामने सभी तरहके चित्र उभरते या गुजरते हैं । उनका आगमन तुम्हारे बिचार या संकल्प पर आधार नहीं रखता; वह यथार्थ और स्वतः प्रेरित होता है । तुम्हारी भौतिक आंखें जिस प्रकार जगतके पदार्थोको देखती हैं ठीक इसी प्रकार आंतरिक नेत्र अन्य जगतोंसे संबंध रखनेवाली वस्तुओ और प्रतिरूपोंको एवं इस भौतिक जगतके पदार्थोंके सूक्ष्म प्रतिरूपोंको भी देखते हैं ।

 

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         अन्दरकी चीजों बाहरकी चीजोंके समानही स्पष्ट रूपमें देखी जा सकतीं हैं, या तो सूक्ष्म दृष्टि द्वारा एक; प्रातेमूर्तिके ',रूपमें या एक ढंगकी और भी अधिक सूक्ष्म एवं शक्तिशाली दृष्टिके द्वारा अपने सार-रूपमें; पर इन सब वस्तुओंकी पूर्ण शक्ति और तीव्रताको प्राप्त करनेके लिये इन सबको विकसित होना होगा ।

 

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          सूक्ष्म प्रतिमाएं सब लोकोंकी और सब पदार्थोकी प्रतिमाएं हों सकतीं हैं ।

 

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         ऐसी प्रत्येक वस्तु जो भौतिक नहीं होती, आंतर दृष्टि द्वारा देखी जा सकती है ।

 

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          रंगोंका देखना उस अन्तर्दर्शनका एक प्रारंभ है जिसे ' 'सूक्ष्म दृष्टि' ' कहते हैं । आगे जाकर, इस दृष्टिके खुल जानेपर व्यक्ति आकारों, दृश्यों या व्यक्तियोंको देखने लगता है । यह अच्छा ही हुआ कि दर्शनका श्रीगणेश श्रीमांकि प्रतिमासे हुआ ।

 

*

 

         आंतरिक दृष्टिके खुलनेपर जगत् के भूत या वर्तमान कालकी सभी वस्तुएं उसके सामने उपस्थित हों सकती हैं, यहां तक कि वह दृष्टि भविष्यत् कालकी भि वस्तुओंके प्रति खुल सकती है - इसलिये भूतकालीन आकारों और वस्तुओंको इस रूपमें देखना कोई असम्भव बात नही है ।

 

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         ध्यान करनेकी चेष्टा करनेपर व्यक्तिके सामने प्रारंभमें, सर्व प्रथम बाधा निद्रा- के रूपमें आती है । उस बाधाको लांघ जानेपर एक ऐसी अवस्था आती है जिसमे तुम बन्द आंखोंसे भी सब प्रकारके पदार्थो, लोगों और दृश्योंके देखने लगते हों । यह कोई खराब वस्तु नही है, यह एक अच्छा लक्षण है और इसका अर्थ है कि तुम योगमें उन्नति कर रहे हों । हमारे अन्दर बाह्य पदार्थोको देखनेवाली बाह्य भौतिक दृष्टिके अतिरिक्त एक आंतरिक दृष्टि भी है जो हमारे लिये अबतक अनदेखी और अनजानी वस्तुओंको, दूरस्थ, दूसरे देशकाल या अन्य लोकोंसे संबंध रखने वाली वस्तुओंको देख सकती है । यह आंतरिक दृष्टि ही तुम्हारे भीतर खुल रहीं है । श्रीमीकी शक्तिकी क्रिया हीं तुम्हारे अन्दर इसे खोल रही है, और तुम्हें इसे रोकनेकी चेष्टा नहीं करनी चाहिये । नित्य श्रीमांका स्मरण करो, उन्हें पुकारो और अन्तरमें उनकी उपस्थिति एवं र्शाक्तेकी कियाके लिये अभीप्सा करो, किंतु इसके लिये तुम्हें उनकी क्रियासे भविष्य- मे तुम्हारे अन्दर होनेवाली इस या अन्य प्रगतियोंको रोकनेकी आवश्यकता नहीं । तुम्हें केवल कामना, अहंकार, चंचलता और अन्य अशुद्ध क्रियाओंका ही त्याग करना होगा ।

 

*

 

          दीपककी ज्वाला या किसी चमकते बिन्दुको टकटकी लगाकर देखना एक ऐसा परंपरागत साधन है जिसका प्रयोग योगियोंने ध्यानको एकाग्र करने या आंतर चेतना या दृष्टिको जाग्रत करनेके लिये किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि तुमने एकटक देखने- के द्वारा हल्की ( गहरी नही) समाधिको ही प्राप्त किया है, जो वस्तुत: उसके प्रारंभिक परिणामोंमेसे केवल एक है और जिसके द्वारा तुमने संभवत. प्राणिक भूमिकापर वस्तु- ओंको देखना शुरू किया है । तुमने जो '' भयानक चीजों' ' देखी हैं वे क्या हैं, मैं नहीं जानता,

 

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पर इस भूमिकापर पहलेपहल देखनेवाली बहुतसी वस्तुओंका स्वरूप ऐसा ही भयंकर हुाएता ३, विशेषत: ऐसे साधनों द्वारा उसकी ड्यौढ़ीको पार करते समय तुम्हें इन साधनों को काममें लानेकी जरूरत नहीं, क्योंकि वे बिलकुल अनुपयोगी हैं और इसके सिवाय वे तुम्हें ऐसी निष्क्रिय एकाग्रताकी ओर लें जा सकते हैं जिसमें व्यक्ति उस तरहकी सभी वस्तुओंके प्रति खुल जाता है और सही वस्तुओंका चुनाव नहीं कर सकता ।

 

*

 

            मैं तुम्हारे पत्रसे ठीक तरह नही समझ पाया कि तुम्हारे सामने चित्रपटकी तरह गुजरनेवाले इन दृश्यों और पदार्थोंका क्या स्वरूप है । यदि ये वस्तुएं अन्तर्दृष्टि द्वारा देखी गई हों तो उन्हें दूर भगानेकी जरूरत नही - मनुष्यको उन्हें केवल गुजर जाने देना चाहिये । जब कोई साधना करता है तो उसमें भीतरी मन जाग जाता है और इस जगत्की और अन्य जगतोंकी वस्तु और प्रतिमूर्त्तियोको अन्तर्दृष्टि द्वारा देखता है दृष्टिका इस शक्तिका अपना उपयोग है, यद्यपि व्यक्तिको उससे आसक्त नही होना चाहिये; मनको शांत रखते हुए व्यक्तिको उन्हें चले जाने देना चाहिये, न उनपर ध्यान जमाना चाहिये न उन्हें खदेड़ना ही चाहिये । वे हैं बाह्य मनके विचार जिन्हें हमें अस्वीकार करना चाहिये तथा ऐसे सुझाव और भाव जो अन्तत: साधनाको अस्त- व्यस्त करके ही रहते हैं । साथ ही सभी तरहके ऐसे अनेक विचार भी है जिनका साधना- से कोई सरोकार नही पर जिन्हें मन स्वभाववश या यन्त्रवत् अन्दर आने देनेका आदी होता है,-जब व्यक्ति निश्चल होनेकी चेष्टा करता है तो कभी-कभी ये उभर आते हैं । उनपर ध्यान न देकर उन्हें गुजर जाने देना चाहिये जबतक कि वे बन्द न हो जायें और मन शांत न हो जाय, उनसे संघर्ष करने और उन्हें रोकनेसे कोई लाभ नहीं, उन्हें केवल स्थिर होकर अस्वीकार करना चाहिये । दूसरी ओर यदि श्रीमांके दिव्य प्रेम और उल्लासके, सत्यके प्रत्यक्ष बोध इत्यादि जैसे विचार अन्दरसे, चैत्यसे उठे तो उन्हें अवश्य स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि वे चैत्यको सक्यि होनेमें मदद देते हैं ।

 

*

 

        प्राणिक स्तरके स्वप्त या सूक्ष्म दर्शन साधारणतया इनमेंसे किसी एक प्रकारके होते हैं:-

       1. प्रतीकात्मक प्राणिक सूक्ष्मदर्शन,

       2. प्राणिक स्तरकी वास्तविक घटनाएं;

      3. प्राणिक मनकी रचनाएं जो या तो स्वप्त लेनेवालेकी या किसी अन्यकी जिसके साथ निद्रामें उसका संपर्क हुआ हो अथवा उस लोककी शक्ति और सत्ताओंकी होती है । इस प्रकारके अनुभव पर बहुत भरोसा नही किया जा सकता, यहांतक कि इनमेंसे पहलेका भी केवल सापेक्ष या सांकेतिक ही मूल्य होता है, जब कि दूसरा और

 

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तीसरा बहुधा सर्वथा पथभ्रष्ट करनेवाले होते हैं ।

 

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        ये प्राणिक जगत् और प्राणिक स्तरोंके सूक्ष्मदर्शन हैं और व्यक्ति वहां सैकड़ों दर्शनोंको देखता है ।.. .चेतनाके सभी भाग ऐसे क्षेत्रोंके समान है जिनमें वैश्व प्रकृतिकी चेतनाके उन्हीं स्तरोंकी नाना शक्तियां प्रवेश कर रही हैं या गुजर रही हैं । सर्वोत्तम बात यह होगी कि किसी भी रूपमें उनसे प्रभावित हुए बिना उनका अवलोकन किया जाय और उन्हें बहुत अधिक महत्व न दिया जाय - क्योंकि ये छोटे-मोटे अनुभव हैं और ब्यक्तिका अपना ध्यान प्रधान अनुभवोंका आवाहन करनेकी ओर एकाग्र होना चाहिये ।

 

*

 

        क्योंकि तुम अपना व्यान बिजलीके प्रकाशकी ओर एकाग्र कर रहे थे इसलिये तुमने जिस देवताको देखा वह ' 'वैद्युत-अग्नि' ' रहा होगा । उसके अनेक मुख होनेका कोई कारण नहीं है - अनेक सिरों या अनेक भुजाओंवाली आकृतिया साधारणत: प्राण स्तरकी होती हैं - और हो सकता है कि वह अपने प्राणिक रूपमें अभिव्यक्त न हुआ हों । जहांतक रंगोंका प्रश्न है, रंग शक्तियोंके प्रतीक हैं और अग्निका रंग शुद्ध लाल होना जरूरी नहीं -- अग्नि-तत्व सभी रंगोंको व्यक्त कर सकता है और शुद्ध श्वेत अग्निमें सब रंग समाविष्ट होते हैं ।

 

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        अधिमानस भूमिका पर रहनेवाले देवताओंके अनेक सिर और भुजाएं नही होतीं -यह प्राणिक प्रतीक है, ऐसा होना अन्य स्तरोंमें आवश्यक नहीं है । संभव है यह आकार सूक्ष्म भौतिक स्तरसे संबद्ध रहा हो ।

 

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         जिस लोकको तुम देख रहे हो बह एक ऐसे सूक्ष्म भौतिक स्तरमें अवस्थित है जहां लोग अपने विचारके अनुसार देवोंको और उनकी प्रतिमूर्त्तियोंफो देखते हैं ।

 

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       यह प्राणिक भूमिका है - संभवत: प्राणिक-भौतिक । अधिकतर उसी भूमि-

 

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कामें प्राणलोककी सत्ताएं पशुओंके सिर और मुखके साथ प्रकट होती है । कुत्तेके मुखवाली मानव आकृतिका अर्थ है एक बहुत अधिक घटिया और स्थूल यौन-शक्ति । निश्चय ही, ऐसी सब शक्तियोंको रूपांतरित किया जा सकता है और उनकी यौन-वृत्ति समाप्त की जा सकती हैं -- ठीक जैसे ब्रह्मचर्यके द्वारा रेतस्को ओजसमें बदल दिया जा सकता है उसी प्रकार उन्हें किसी प्रकारकी स्थूल शक्तिमें बदला जा सकता है ।

 

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         प्रतीकात्मक सूक्ष्मदर्शन आंतरदृष्टि और प्रकृतिके सामने, (चाहे बाह्य मन न समझता हों पर आंतरमन उनके प्रभावको ग्रहण कर सकता हे) अपने आकार-प्रकार: द्वारा सकेत की गई वस्तु को प्रस्तुत करनेवाला एक प्रतिनिधि दर्शन मात्र है या कोई सक्रिय दर्शन यह सूक्ष्म दर्शनके स्वरूप पर आधार रखता है । उदाहरणके लिये सूर्य- का प्रतीक सामान्यत. सक्रिय होता है । और फिर सक्रिय प्रतीकोमें भी कुछ केवल प्रति- रूपित वस्तुके प्रभावको प्रकट कर सकते हैं, कुछ इस बातको सूचित करते हैं कि क्या काम हों रहा है या अभी पूरा नही हुआ, और कुछ चेतनाके संपर्कमें आनेवाले रचनात्मक अनुभव होते हे, कृरछ किसी बातकी भविष्यवाणीके रूपमे आते हैं कि यह घटना हों सकती है या होगी अथवा जल्दी ही होनेवाली है । अन्य कुछ ऐसे भी होते हैं जो केवल प्रतीक नही होते पर किसी प्रतीकात्मक आक़ुतिमें सूक्ष्म-दृष्टि द्वारा देखी गई तत्कालीन वास्तविकताओंको प्रस्तुत करते है ।

 

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          अंतर्दर्शनमें रग जब निश्चित आकार ग्रहण करने लगते हैं, तब यह चेतनामें रूप-निर्माणके किसी गतिशील कार्यका लक्षण होता है । उदाहरणके लिये, वर्ग बताता है कि सत्ताके किसी क्षेत्रमें किसी प्रकारकी सृष्टि चल रही है । वर्ग बताता हैं कि सृष्टि अप्रने-आपमे संमृर्ण होगी, जब कि आयत आशिक अथवा प्रारंभिक सृष्टिका द्योतक होता है । रगकी तरगोका अर्थ होता हे शक्तिका प्रबल प्रवाह तथा तारा, इस प्रसगमे, उस नूतन अस्तित्वके आगमनकी सूचना देता है, जो रूप ग्रहण करनेवाला है । नीला रग यहां अवश्य ही श्रीकृष्णका प्रकाश होना चाहिये । अतएव वह कृष्ण-चेतनासे प्रेरित सृष्टि है । अतरके अस्तित्वमे, चेतनाके पीछे जो कुछ हो रहा है, उसके ये सब प्रतीक है, और उसके परिणाम समय समयपर तुम्हारे मृदुलतर होने अथवा उन्मुख होनेकइाए अवस्थामें, भक्ति, हर्ष, शांति, आनंद आदि भावमें, बाह्य अथवा ऊपरी चेतना पर उछल आते है । उन्मुखता जब पूर्ण हो जाती है, तब पीछे होनेवाली क्रियाकी प्रत्यक्षतर चेतनाकी संभावना हा सकतीं है, यहांतक कि अतमें वही पीछे नही रहती बिलकुल प्रकृतिके सामने हीं आ जाती है ।

 

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         जब तुम एक वर्ग ( चौकोर आकृति) देखते हो तो वह पूर्ण सृष्टिका प्रतीक होता है, जब तुम एक भैसेके अपने ऊपर टूटते हुए और असफल होते हुए देखते हो तथा यह अनुभव करते हों कि तुम एक बहुत बड़े खतरेसे बच गये हो तो वह किसी चीजकी प्रति- लिपि होता है । वास्तवमें कुछ घटित हुआ जिसकी नकल तुम्हारे मनने भैसेके असफल आक्रमणके रूपमें उतारी -- वह आक्रमण किसी विरोधी शक्तिका रहा होगा जिसका प्रतिरूप भैंसा था ।

 

*

 

        जो वस्तु बन्द आंखोंसे दीख सकतीं है वह खुली आंखोंसे भी देखी जा सकती है; इसके लिये इतना पर्याप्त है कि आंतरदृष्टि सूक्ष्म भौतिक चेतनातक अपना विस्तार करे ।

 

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          ( 1) यह अंतर्दर्शन भौतिक आंखोंसे देखा गया था, परंतु इसे देखा था सूक्ष्म भौतिक चेतनाने; दूसरे शब्दोंमें, यहां एक चेतनाने अपनेको दूसरी चेतनापर आरोपित किया था । विकासकी एक विशेष अवस्थाके बाद, सामान्य भौतिक-चेतनामें निवास करनेकी क्षमताके साथ ही उसमें एक अन्य सूक्ष्मतर इंद्रियको और जोड़ देनेसे, सूक्ष्म- दर्शन एव अनुभव बिलकुल सामान्य हो जाता है । इसे प्राप्त करनेके लिये थोड़ीसी एकाग्रता ही पर्याप्त होतीं हैं, अथवा बिना एकाग्रताके भी स्वत ही ऐसा होता है ।

 

         क्योंकि फूल एक सूक्ष्म भौतिक पदार्थ था, इस शब्दके सामान्य अर्थके अनुसार पूर्णरूपसे स्थूल पदार्थ नन्हों  यद्यपि अपने स्तरमें वह बिलकुल ठोस और स्थूल था, भ्रम नही) इसलिये कैमरेके द्वारा वह देखा नही जा सकता था, उन असामान्य दखल देनेवाली वस्तुओकी बात दूसरी है जिनमेंसे किसीके द्वारा भी सूक्ष्मरूपको भौतिक फलकपर फेंक दिया जाता है ।

 

        अंधेरे कमरेमें उसका अनुभव हों सकता हैं, यद्यपि इतनी सरलतासे नही, परन्तु तब उसकी आकृति इतनी सजीव न होती -- जबतक तुम सूक्ष्म भौतिक स्तरके प्रकाश जैसी किसी वस्तुसे आच्छादित कर इसे अपना स्वाभाविक माध्यम प्रदान नहीं करते । बन्द आंखोंसे देखनेपर यह सूक्ष्म-भौतिक रूप नही रहता किन्तु प्राणमन या किसी अन्य स्तरकी वस्तु या रचना बन जाता है -- वस्तुत ऐसा तबतक होता है जबतक आंतरिक चेतना इतनी उन्नत न हो जाय कि अपनेको भौतिक स्तरोंपर प्रक्षिप्त कर सके, परन्तु ऐसा बहुत कम होता है और अधिकतर दृष्टांतोंमें बद्रुत देरमें विकसित होता

 

         ( 2) साधारणत: पदार्थ लुप्त नहीं होता, केवल चेतना बदलती है । एक अतिच्छत्र क्षमता या प्रशिक्षणके अभावके कारण मनुष्य सूक्ष्म-भौतिक दृष्टिको कायम नही रख

 

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सकता, वस्तुत: वही पदाथोंको देख रही थी । यह सूक्ष्म भौतिक दृष्टि हालकी निद्रा और जागृतिके बीचके कालमें सर्वाधिक सुगमतासे प्राप्त होती है - या तो जब व्यक्ति नींदसे जागता है या जब वह सोनेकी तैयारी करता है । किन्तु मनुष्य बिलकुल जाग्रत अवस्थामें भौई इसे प्राप्त करनेके लिये अपनेको प्रशिक्षित कर सकता है ।

 

       प्रारंभमें जब व्यक्ति इसे देखना शुरू करता है तो प्रायः साधारण रूपसे ऐसा होता है कि अनिर्धारित और यथार्थ आकार तो देरतक स्थिर रहते हैं जब कि सफल, पूर्ण खोर ब्यौरे एवं रूपरेखामें सुनिश्चित आकार सर्वथा क्षणिक होते हैं और पलभरमें ही मिट जाते हैं । सूक्ष्मदृष्टिके अच्छी तरह विकसित हो जानेपर ही सुनिश्चित और पूर्ण-दर्शन देरतक टिकते हैं । यह इस असामान्य चेतनाकी और इस उदाहरणमें क्षण- भरके लिये अध्यारोपित दो चेतनाओंको एक साथ बनाये रखनेकी कठिनाईका ही परिणाम है ।

 

     ( उ). प्रत्येक स्तरमें सब प्रकारके अनुभव होते हैं - प्रतीकात्मरूप, सांकेतिक आकृतियां, विचारोंके आकार, कामनाकी या संकल्पकी रचनाएं, सभी तरहके निर्माण, उस स्तरसे सम्बद्ध वास्तविक और स्थायी एव बनावटी और भ्रामक वस्तुएं । इस अस्तव्यस्तताका सम्बन्ध उस चेतनासे है जो अन्य लोकोंके संगठनको अपने सीमित और अपूर्ण ढंगसे देखती है, स्वयं घटनाओंके साथ इसका संबंध नहीं है । प्रत्येक स्तर एक लोक या लोकपुंज अथवा लोकमाला होता है, हरेक अपने ही ढंगसे व्यवस्थित होता है परन्तु होता है व्यवस्थित हीं अस्तव्यस्त नहीं; हां, इतना अवश्य है कि सूक्ष्मतर भूमिकाएं, अपने संगठनमें स्थूल भूमिकाकी अपेक्षा अधिक नमनीय और कम कठोर रूपसे संगठित होती हैं ।

 

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         गुह्य-दर्शनकी शक्ति प्रत्येक मनुष्यमें विद्यमान है, वह अधिकांशमें प्रच्छन्न होती है, बहुधा ऊपरी सतहके समीप होती है, कभी-कभी पर विरल लोगोंमें एकदम ऊपरी तलपर होती है । यदि कोई त्राटकका अभ्यास करे तो, देरसे हो या जल्द, उसका प्रकट होना बहुत कुछ सुनिश्चित है,-यद्यपि किसी-किसीको थोडी कठिनाई होती है और उन्हें इसे प्राप्त करनेमें थोड़ा समय लगता है । जिन लोगोंमें यह शक्ति तुरत प्रकट हो जाती है उनमें गुह्य दर्शनकी यह शक्ति ब्लरी सतहके पास सर्वदा हीं विद्यमान होती है और पहला सीधा दबाव पड़ते हीं उभड़ आती है ।

 

       तुमने जो वृक्षोंसे निकलती हुई किरणें देखी, वे बराबर हीं वहां होती हैं, केवल साधारण स्थूल दृष्टिसे वै छिपी होती हैं । मैनई कहा था कि एक साथ नीला और सुन- हला रंग कृष्ण और दुर्गा - महाकालीकी सम्मिलित उपस्थितिको सूचित करते हैं : परन्तु सुनहला और पीला रंग अलग अर्थ रखते हैं । शक्तियोंके संकेतके अन्दर पीला रंग चिंतनशील मन अर्थात् बुद्धिको सूचित करता है, और गुलाबी रंग (यहां हलके सिंदूर वर्णमें परिवर्त्तित) चैत्य रंग है; मिश्रण संभवत: मनके अन्दर चैत्यको

 

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सूचित करता था ।

 

      इन सब बातोंका अर्थ करते समय तुम्हें यह अवश्य याद रखना चाहिये कि किसी विशिष्ट प्रसंगमें रंग वस्तुओंके जिस कर्मको सूचित करते हैं उस कर्मके ऊपर ही सब कुछ निर्भर करता है । अर्थोंका एक क्रम ऐसा है जिसमें वे (रंग) विभिन्न मनोवैज्ञानिक शक्तियोंको सूचित करते हैं, जैसे, श्रद्धा, प्रेम, संरक्षण इत्यादि । अर्थोका एक दूसरा क्रम है जिसमे वे दिव्य सत्ताओंके, जैसे कृष्ण, महाकाली, राधा या अन्यान्य अलौकिक सत्ताओंके प्रभामंडल या कार्यावलीको सूचित करते हैं, फिर एक और क्रम है जिसमें वे वस्तुओं या जीवत व्यक्तियोंके चारों ओर विद्यमान प्रभामंडलको सूचित करते हैं - और यहीपर संभावनाओंकी तालिका शेष नहीं हों जाती । प्रत्येक प्रसंगमें यथार्थ आशय समझनेके लिये एक प्रकारके विशेष ज्ञान, अनुभव तथा वर्द्धमान अंतर्ज्ञानकी आवश्यकता होती है । निरीक्षण करना और ठीक-ठीक वर्णन करना भी बहुत आवश्यक होता है; क्योंकि बहुत बार लोग कहते पीला हैं और उनका मतलब होता है सुनहला अथवा कहते सुनहला हैं और उनका मतलब होता है पीला; इसके अलावा, एक हीं रंगके विभिन्न आभाके भी अलग-अलग अर्थ होनेकी संभावना है । फिर, यदि तुम कोई रंग किसी व्यक्तिके समीप या इर्द-गिर्द देखो अथवा किसी पुरुष या स्त्रीकी ओर ताकते समय देखो तो वह निश्चित रूपसे उस व्यक्तिके प्रभामंडलको ही सूचित नहीं करता, वह उसके पास या उसके इर्द-गिर्दकी कोई दूसरी वस्तु भी हो सकता हैं । किसी- किसी प्रसंगमें यह भी संभव है कि उसका उस व्यक्ति या वस्तुके साथ कोई भी संबंध न हों जिसकी ओर कि तुम ताकते हो; वह व्यक्ति या वस्तु उस समय महज एक पृष्ठ- भूमि अथवा एकाग्रताके लिये एक बिंदुका काम करती हो जैसे कि तुम किसी दीवालपर या किसी उज्ज्वल वस्तुपर दृष्टि जमानेपर रंग देखते हो ।

 

*

 

       शरीरके (कमसे कम अपने शरीरके) अन्दरके अंगोंको देखना एक यौगिक- शक्ति है जिसे राजयोगी और हठयोगी विकसित करते हैं - मैं समझता हूँ कि इसे दूसरोंके शरीरतक भी विस्तृत किया जा सकता है । एक सूक्ष्म गन्धोंको ग्रहण करने- वाली इन्द्रिय भी है और मैंने देखा है कि कभी कभी कोई गंध देर तक स्थित रहती है ।

 

IV

 

        घटे-घडियालोके शब्द और प्रकाशों एव रंगोंको देखना आंतरिक चेतनाके खुलनेके चिह्न हैं जिसके साथ ही भौतिक स्तरसे भिन्न अन्य स्तरोंमें दृश्यों और शब्दों- को देखने और सुननेकी शक्ति भी खुल जाती है । इनमेंसे घंटे-घड़ियाल, झींगुरों इत्यादि- के शब्द जैसी कुछ वस्तुए भी उद्घाटनमें सहायता देती प्रतीत होती हैं 1 उपनिषद् उनके विषयमें ' 'ब्रह्मव्यक्तिकराणि योगे' ' ( अर्थात् ये योगमें ब्रह्मको अभिव्यक्त करने-

 

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वाली हैं), ऐसा कहती हैं ।

 

       ज्योतियां शक्तियोकी प्रतिनिधि हैं - अथवा कभी कभी आकारयुक्त प्रकाश, जैसा कि तुमने देखा है, अतिभौतिक स्तरोंकी सत्ताका प्रकाश हों सकता है ।

 

*

 

       जिन शब्दों या आवाजोंको तुम सुनते हो वे उन दृश्यवस्तुओं (व्यक्तियों, पदार्थों) जैसे हैं जिन्हें तुम सामान्यत: देखते हों । जैसे भौतिक दृष्टिसे भिन्न एक आंतरिक दृष्टि है, वैसे ही बाह्य श्रवणसे भिन्न एक आंतरिक श्रवणशक्ति भी है, और वह अन्य लोकोंकी, ओर अन्य कालों एवं देशोंकी या अतिभौतिक सत्ताओंसे आनेवाली आवाजो, ध्वनियों और शब्दोको भी सुन सकती है । पर इस विषयमें तुम्हें सावधान रहना चाहिये । यदि परस्पर विरोधी आवाज तुम्हें यह बितानेका यत्न करे कि तुम्हें क्या करना चाहिये या क्या नही, तो तुम्हें सुनना या उत्तर देना नहीं चाहिये । केवल मैं और श्रीमां ही तुम्हें किसी बातको करने या न करनेके विषयमें बता सकते हैं या तुम्हें मार्गदर्शन या सलाह दे सकते हैं ।

 

*

 

         जब आंतरिक इन्द्रियां या उनमेसे कोई एक खुलती है तो मनुष्य स्वतः अन्य लोकों- से संबंध रखनेवाली वस्तुओंको देखता या सुनता है । अन्य लोकोंके विषयमें व्यक्ति क्या सुनता या देखता है यह आंतरिक इन्द्रियकी विकासपर निर्भर करता है । यह इस बातपर निर्भर करता है कि जो शब्द तुम सुनते हो वे साधनासे ही संबंध रखनेवाले सांकेतिक शब्द मात्र हैं या केवल सामान्य प्रकारके. शब्द ।

 

 *

 

         यह आवाजोंको प्रकृति पर आधार रखता है । कुछका संबंध (साधनासे) होता है, और दूसरे महज अन्य स्तरोंके शब्द होते हैं ।

 

*

 

       वे (साधनासे संबद्ध सूक्ष्म शब्द) इस बातके सूचक हैं कि किसी वस्तुको तैयार करनेके लिये किया जारी है -- पर क्योंकि वह एक सर्वसामान्य वस्तु है इसलिये स्वयं शब्दोंके आधारपर यह नहीं कहा जा सकता कि वह तैयारी क्या है ।

 

 

*

 

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       आंतरिक आवाज केवल' एक आवाज है - यह निर्देश दे सकती है, पर शक्ति नही । आवाज बोलती है, कार्य नही करती । किसी पुस्तकको पढ्नेमें और आंतरिक निर्देश ग्रहण करनेमे बहुत अधिक अन्तर है ।

 

*

 

       यह (सूक्ष्म गंध और स्वाद) गुह्य ज्ञान और शक्तियोंका उद्घाटन नही, किन्तु केवल आंतरिक चेतनाका उन्मीलन हैं ।

 

 *

 

         (व्यक्तिके शरीरमेंसे आनेवाली) इस (सूक्ष्म) गंधक कारण ब्यक्तिकी कोई प्राणिक-भौतिक वस्तु होती है । यह हों सकता है कि वह वस्तु सब समय उभरी न रहे । जब वह उभरी होती है, तो गंध आती है ।

 

          .. -यह वस्तु विभिन्न व्यक्तियोंमें विभित्र प्रकारकी हों सकती है और इस संबंधमें कोई नियम नही बनाया जा सकता कि वह अमुक अमुक है । सबसे अधिक घिनौनी गंध यौन-वृत्तिकी होती है ।

 

V

 

          प्रतीक, मेरी समझमें, एक स्तरका एक रूप है, जो दूसरे स्तरके किसी सत्यको दर्शाता है । उदाहरणार्थ, झंडा राष्ट्रका प्रतीक है । किंतु साधारणतया, सभी रूप प्रतीक होते हैं । हमारा यह शरीर हमारी यथार्थ सत्ताका प्रतीक है, और प्रत्येक पदार्थ किसी उच्चतर सत्यका प्रतीक होता है । हां, प्रतीक बेशक विभिन्न प्रकारके होते है ।

 

         ( 1) रूढ़ प्रतीक वे जो वैदिक ऋषियोंने अपने आसपासके पदार्थोसे गढ़ थे । गाय प्रकाशका अर्थ देती थी, क्योंकि एक ही शब्द 'गों' रश्मि और गाय -- दोनों- का द्योतक था, और क्योंकि गाय उनकी अमूल्यतम संपत्ति थी, जो उनका भरण-पोषण करती थी और जिसके चुराये अथवा छिपाये जानेका सदैव भय रहता था । किन्तु इस प्रकारका प्रतीक पके बार सृष्ट हुआ नहीं कि जीवन्त हों उठता है । ऋषियोंने उसमें प्राण फूँकें और वह उनकी उपलब्धिका एक अंग बन गया । वह उनके अंतर्दर्शनमे आध्यात्मिक प्रकाशकी मूर्त्तिका रूपमें प्रकट हुआ । अश्व भी उनके प्रिय प्रतीकोमें था -- और उससे अधिक सुगमतासे अनेक प्रयोग हो सकते थे -- क्योंकि उसके बल और शक्ति स्पष्ट थे ।

 

          ( 2) जिन्हें हम जीवन-प्रतीक कह सकते हैं, जो कृत्रिमतया नही चुने जाते अथवा जो जानबूझकर मन द्वारा गाढ़े-समझे नही जाते, वरन् जो दैनन्दिन जीवनसे अथवा

 

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उन परिस्थितियोंसे स्याभाविकतया विकसित होते हैं, जो हमारे जीवनके साधारण मार्गको प्रभावित करती हैं । प्राचीनोंके लिये पर्वत योगमार्गका प्रतीक था - स्तरके ऊपर स्तर, शिखरके ऊपर शिखर । यात्रा भी, जिसमें नदियोंको पार करना होता है, पशु और मानव, दोनों प्रकारके छिपे हुए शत्रुओंका सामना करना होता है, इसी प्रकार- का भाव व्यक्त करती थी । आजकल, मैं समझता हूँ, हम लोग योगकी मोटरकी सवारी या रेलयात्रासे समता करेंगे ।

 

        ( 3) वे प्रतीक जिनमें एक अपना सहज औचित्य होता है । आकाश अथवा आकाशरूपी देश नि:सीम, परिव्याप्त सनातन ब्रह्मका प्रतीक है । किसी भी जातिमें वह यही अर्थ व्यक्त करेगा । इसी प्रकार सूर्य अखिल विश्वमें अतिमानसिक प्रकाशका, दिव्य विज्ञानका अर्थ व्यक्त करता है ।

 

        ( 4) मानसिक प्रतीक, जिनके उदाहरण हैं अक अथवा वर्ण । ये भी एक बार मान्य हुए नद्रुाई कि काम करने लगते है, और उपयोगी हों सकते हैं । उदाहरणार्थ, ज्यामितिकी आकृतियोंके विभिन्न अर्थ लगाये गये हैं । मेरे अनुभवमें वर्ग अतिमानस- का प्रतीक है । मैं कह नही सकता, ऐसा क्यों होने लगा । संभव है, मेरे मनमें आनेसे पहले किसी व्यक्ति अथवा किसी शक्तिने उसका निर्माण किया हो । त्रिकोणके भी विभिन्न अर्थ बताये जाते हैं । एक अवस्थामें वह निम्र तीन स्तरोंका प्रतीकत्व कर सकता है, दूसरी अवस्थामें वह उच्चतर तीन स्तरोंका प्रतीक होता है; इस प्रकार दोनों एक ही चिह्न मे सम्मिलित किये जा सकते हैं । प्राचीन लोग अंकोंके विषयमें भी इसी प्रकार बिचार करनेमें सुख मानते थे, किंतु उनकी प्रणालियां बहुधा मानसिक होती थीं । यह निःसंदेह सत्य है, कि अतिमानसिक सत्ताओंका -- जिन्हें हम कर्म, चैत्य विकास आदि जैसे मानसिक सूत्रोंमें रूपांतरित कर लेते हैं -- अस्तित्व है । किंतु वे, एक प्रकारसे, नि:सीमसत्ताए हैं, जो इन प्रतीक-रूपों द्वारा सीमित नही की जा सकतीं, यद्यपि कुछ कुछ व्यक्त की जा सकती है । अन्य प्रतीकों द्वारा भी वे उतनी ही अच्छी तरह व्यक्त की जा सकतीं है, और एक ही प्रतीक विभिन्न कई भावोंको भी व्यक्त कर सकता है ।

 

*

 

         ये सब विचार किसी न किसी रूपमें भूतकालमें विद्यमान थे । ईसासे पाच शताब्दि पहले पाईथागोरसकी शिक्षामें संख्याओंका महत्व शिक्षाका एक प्रमुख तत्व था ।

 

*

 

        अग्नि, ज्योतियां, सूर्य, चन्द्र ये सब सामान्य प्रतीक हैं और अधिकांश लोग इन्हें साधनाके समय देखते हैं । ये आंतरिक शक्तियोकी गति या क्रियाको सूचित करते

 

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हैं । सूर्यका अर्थ है आंतरिक सत्य ।

 

*

 

        व्यक्ति ज्योतियोंको कभी पुँजोंके रूपमें और कभी आकारोंके रूपमें देखता है - और सूर्य, चन्द्र, तारा या अग्निके आकार अत्यन्त सर्वसामान्य आकार है ।

 

*

 

       साधनाकी रश्क विशेष स्थितिमें जब अन्दर शक्तियोंकी क्यिा चल रही होतीं हैं तो हमेशा ही प्रकाश, वर्ण, फूल दीखते हैं । निःसंदेह प्रकाश चेतनाके आलोकित होनेको सूचित करता है, और रंग मानसिक (पीला), भौतिक और प्राणिक शक्तियोंकी लीलाको, किन्तु उन शक्तियोंको जो सत्ताके इन भागोंको आलोकित करनेमें मदद देती है । फूल साधारणतया चैत्य क्रियाके द्योतक हैं ।

 

        ज्योतियोंको देखनेके लिये मनका निश्चल होना आवश्यक नहीं है - यह केवल सूक्ष्म दृष्टिके उस केन्द्रके उद्घाटनपर निर्भर करता है जो माथेपर भौंहोंके बीचमें स्थित है । बहुत लोग साधना शुरू करते ही इसे प्राप्त कर लेते हैं । जिन लोगोंमें यह उद्घाटन एक सहज शक्तिके रूपमें कुछ हदतक विकसित होता है वे बिना साधनाके प्रयत्न और एकाग्रता द्वारा भी इसे विकसित कर सकते हैं । मनकी अचंचलता अन्य बातोंके लिये जरूरी है, जैसे कि श्रीमांके सामीप्यका अनुभव इत्यादि ।

 

*

 

          प्रकाशकों देखनेके लिये मनका एकाग्र होना सदा आवश्यक नहीं -- चेतनामें किसी स्थानपर उद्घाटन हो जाय यही पर्याप्त है ।

 

*

 

 बाहर प्रकाशके अनुभव होनेका अर्थ है प्रकाश द्वारा द्योतित शक्तिका ( सुनहरा प्रकाश सत्यका प्रकाश है, नीला उच्चतर भूमिकाकी किसी आध्यात्मिक शक्तिका) स्पर्श या प्रभाव जब कि अन्दर प्रकाशके अनुभवका अर्थ है कि वह स्वयं प्रकृतिमें प्रविष्ट या प्रतिष्ठित हो गया है अथवा बार बार सक्यि होने लगा है । ऊपर प्रकाशके अनुभबका अर्थ है शक्ति मनपर अवतरित हों रही है, चारों ओर प्रकाश होनेका अर्थ है चारों ओर

 

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छाया हुआ एक सामान्य प्रभाव

 

*

 

         दीप्तिका आशय है एक संयत परन्तु समृद्ध प्रकाश अथवा एक प्रकारका ज्योतिर्मय ढंगका ऊष्मायुक्त उल्लास ।

 

*

 

         प्रकाश प्रायः अग्रभागमें आंतर दृष्टि, मन और संकल्पके उस केंद्रके सामने दिखता है जो ललाटमें भौंहोंके बीचमें स्थित है । सूर्यका अर्थ है दिव्य सत्यका मूर्त्ति प्रकाश, तारोंका प्रकाश सामान्य चेतनापर छाई हुई शक्तिके रूपमें कार्य करनेवाला वही प्रकाश है जो चेतना अज्ञान-रात्रिके रूपमें दिखती है । पुकार इस प्रकाशकों अंतरिक सत्तामें प्रवाह रूपमें खींच लाई ।

 

*

 

            सूर्य सत्यके घनीभूत प्रकाशका प्रतीक है ।

 

*

 

         सूर्य ऊपरसे आनेवाला सत्य है, अन्ततोगत्वा वह अतिमानस-सत्य है ।

 

*

 

         अतिमानस मन बिलकुल नही, यह कोई भिन्न वस्तु हे । सूर्य, किसी भी भूमिका- मे, सीधे प्रत्यक्ष बोधसे प्रान्त सत्यका द्योतक है । यह अतिमानसका प्रतीक है, किन्तु सत्य नीचेकी अन्य भूमिकाओं तक भी अवतरित हों सकता है और तब वह फिर अति- मानसिक नही रहता किन्तु अन्य भूमिकाओंका सारतत्वके अनुसार थोड़ा बहुत बदल जाता है -- फिर भी वह सत्यका सीधा प्रकाश तो होता ही है ।

 

*

 

        विभिन्न भूमिकाओंमें विभिन्न सूर्य होते हैं और प्रत्येकका अपना रंग होता है । किन्तु ऊपर भी उसी रंगके सूर्य हैं, केवल उनका रंग अधिक चमकीला होता है, ये सामान्य सूर्य अपना प्रकाश और शक्ति उन्हींसे प्राप्त करते हैं ।
 

*

 

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          लाल सूर्य सच्ची. आलोकित भौतिक-चेतनाका प्रतीक है । वह चेतना उस अंधकारमय और अज्ञानपूर्ण भौतिक चेतनाका स्थान लेगी जिसमे मनुष्य आज निवास करते हैं । लाल रग भौतिक तत्वका रग है; लाल हीरा है भौतिक स्तरमें श्रीमांकि चेतनाकी उपस्थिति ।

 

*

 

         चन्द्रमा आध्यात्मिकताका, कभी कभी आध्यात्मिक आनन्दका भी द्योतक होता

 

*

 

         सूक्ष्मदर्शनमें एक प्रतीकके रूपमें चन्द साधारणतया मनोगत आध्यात्मिकताको या केवल, आध्यात्मिक चेतनाको सूचित करता है । यह आध्यात्मिक आनन्दके प्रवाह- का भी द्योतक हों सकता है (प्राचीन परम्पराके अनुसार चन्द्रमामें अमृत ( आनन्द) का निवास है) ।

 

*

 

             यह (चन्द्रमा द्वारा प्रतिरूपित आध्यात्मिक मन) ऐसा मन है जो आत्मिक सत्योंके संपर्कमें रहता है और उन्हें प्रतिबिंबित करता है । सूर्य सत्यका आलोक है, चन्द्र केवल उस सत्यके आलोकको प्रतिबिंबित करता है -- दोनोंमें यह भेद है ।

 

*

 

          सुनहरे प्रकाशका अर्थ है उच्चतर सत्यका प्रकाश -- चन्द्र आध्यात्मिकताका प्रतीक है । सुनहरे चन्द्रका अर्थ हे उच्चतर सत्यके प्रकाशसे परिपूर्ण आध्यात्मिकताकी शक्ति ।

 

*

 

         तारेका अर्थ होता है सर्जन या निर्माण अथवा सर्जन या निर्माण करनेका आश्वासन गा सामर्थ्य ।

 

*

 

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             तारा हमेशा भावी प्रकाशके आगमनकी आशंका सूचक है; प्रकाशका अवतरण होनेपर तारा बदल कर सूर्य बन जाता है ।

 

*

 

        तारे अज्ञानमय मानसिक चेतनामें प्रकाश बिन्दुओंके द्योतक हैं ।

        चन्द्र - आध्यात्मिक प्रकाश ।

        सूर्य न् उच्चतर सत्य-ज्योति ।

 

*

 

        एक सुनिर्मित और आलोकित विचार प्रकाशके स्कूलिंगके रूपमें दृष्टिगोचर हो सकता है ।

 

*

 

       प्रकाशकी चिनगारियां अथवा प्रकाशकी गतियों चेतनामें या उसके चारों ओर शक्तियोंकी लीलाकी द्योतक हैं ।

 

*

 

         अग्नि शक्तिशाली क्रियाको सूचित करती है ।

 

         रंग और प्रकाश हमेशा एक दूसरेके आसपास रहते हैं -- रंग अधिक सांकेतिक होता है और प्रकाश अधिक गतिशील । रंग उत्तप्त होकर प्रकाश बन जाता है ।

 

        स्वर्ण अत्यधिक सघन होनेपर अतिमानसिक लोककी किसी चीजको सूचित करता है या फिर ऐसे अधिमानससत्य अथवा सबोधिजन्य सत्यको सूचिक करता है, जो अन्ततः अतिमानसिक सत्चेतनासे उत्पन्न होता है ।

 

*

 

       रंगोंके ठीक-ठीक आध्यात्मिक अर्थका जहांतक संबंध है, उसका ठीक-ठीक वर्णन करना सर्वदा आसान नहीं होता, क्योंकि यह विषय उतना सुनिश्चित और नियम- बद्ध नही है, बल्कि थोड़ा जटिल है, रंगके स्थान, मिश्रण, गुण और आभाके अनुसार

 

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तथा शक्तियोंकी क्रीडाके अनुसार अर्थ बदल जाता है । उदाहरणार्थ, बहुतसे गुह्यवादी यह मानते हैं कि एक प्रकारका पीला रग बुद्धिको सूचित करता है और बहुधा उसका वह अर्थ होता भी है, पर जब वह रंग प्राणगत शक्तियोंकी किसी कडिके बीच प्रकट होता है तब सर्वदा उसका वैसा अर्थ नही किया जा सकता - वैसा करनेपर वह एक अत्यधिक कठोर नियम बन जायगा । यहां हम अधिक-से-अधिक यह कह सकते हैं कि नीले रंगका (प्रत्येक नीले रंगका नही, बल्कि जो नीला रंग दिखा था उसका) अर्थ था सत्यके प्रति प्रत्युत्तर; हरे रंग -- अथवा इस विशिष्ट हरे रग -- का संबंध जीवनी-शक्तिके साथ और शक्तियोंके - बहुधा भावप्रधान प्राणशक्तिके एक उदार निःसरण या क्रियाके साथ होता है और संभवत: इसी चीजको वह यहां सूचित करता

 

*

 

           सत्ताओंके अलग रंग नहीं होते । मनका अपना लाक्षणिक रंग है पीला; चैत्य- का गुलाबी या हल्का गुलाबी; प्राणका बैगनी, पर ये रंग मन, चैत्य और प्राणकी प्रमुख शक्तियोंके अनुरूप होते हैं - स्वयं सत्ताओंके रंग नही होते । अन्य रंग भी अपनी अपनी लीला कर सकते हैं, उदाहरणके लिये प्राणमें हरा और गहरा लाल इसी प्रकार बैगनी भी, उधर विरोधी प्राणिक शक्तियोंके भी दूसरे रंग होते हैं ।

 

*

 

          ध्यानमें मनुष्य जिन ज्योतियोंको देखता है वे विभिन्न शक्तियोंकी ज्योतियां होती है और बहुधा उच्चतर चेतनासे नीचे आनेवाली ज्योतियां होती हैं ।

 

          बैंगनी ज्योति भागवत करुणा (कृपा-शक्ति) की ज्योति है -- श्वेत ज्योति श्रीमाताजी (भागवत चेतना) की ज्योति हैं जिसमें अन्य सभी ज्योतियां निहित हैं और जिसमेंसे प्रकट हो सकती हैं ।

 

         धूम्रवर्ण प्राणशक्तिको रंग है । ' 'लाल' ' निर्भर करता हैं रंगके प्रकारपर, क्यों- कि लाल रंग कई प्रकारका होता है -- यह रंग भौतिक चेतनाका रंग हो सकता है ।

 

 *

 

         ये चार ज्योतियां सत्यकी ज्योतियां थी,--सफेद थी दिव्य सत्यकी विशुद्धि और शक्ति, हरी उसकी कार्य करनेकी गतिशील ऊर्जा, नीली दिव्य सत्यकी आध्यात्मिक चेतना, और सुनहरी उसका ज्ञान ।

 

         तीर अपने लक्ष्यकी ओर जानेवाली शक्तिका प्रतीक है ।

         नीला रग उच्चतर मन है ।

 

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        तुमने जो घटे-घडियालकी आवाज सुनी वह साधारणत: साधनामें उत्रतिका, भावी उत्रतिका चिह्न है ।

 

      सांपकी आकृति शक्तिकी प्रतीक है और सफेद-नीला प्रकाश उच्चतर मनमे श्रीमांकि चेतनाका प्रकाश हो सकता है, अथवा यदि ये दोनों रंग पृथक् पृथक् न हों परन्तु सफेदी लिये हुए नीला रग हो तो यह श्रीअरविन्दका प्रकाश है । प्रकाश शक्तिकी ऐसी अभिव्यक्ति है, जिसमें शक्तिका स्वरूप प्रकाशके रंग द्वारा सूचित होता है ।

 

*

 

         नीला रंग आध्यात्मिक भूमिकाओंका सामान्य रंग है, चांदनी आध्यात्मिक मनका और उसके प्रकाशका संकेत करती हैं ।

 

*

 

         ज्योतियां किन्हीं शक्तियोंकी क्रियाको सूचित करती हैं, साधारणतया वे प्रकाश- के रंगों द्वारा द्योतित होती हैं । श्वेत-नीला प्रकाश श्रीअरविन्दका या कभी कभी श्रीकृष्णका प्रकाश माना जाता है ।

 

*

 

        नीले प्रकाशका अर्थ रंगके सही स्वरूप, उसकी अपनी विशेष आभा और प्रकृति पर आधार रखता है । चांदनी जैसा सफेद-नीला प्रकाश श्रीकृष्णके या श्रीअरविन्दके प्रकाशके रूपमें प्रसिद्ध है - हल्का नीला प्रायः आलोकित मनका प्रकाश होता है -- दूसरा अधिक गहरा नीला उच्चतर मनका प्रकाश है; एक अरि, जामनी सा प्रकाश प्राणकी शक्तिका प्रकाश है ।

 

*

 

         फीका सफेद आभाववाला नीला प्रकाश ''श्रीअरविन्दका प्रकाश'' हे - श्रीमांके सफेद प्रकाशने नीले प्रकाशकों थोड़ा हल्का कर दिया है ।

 

 *

 

          हल्का नीला प्रकाश मेरा है, श्वेत प्रकाश श्रीमांका है । तुमने अपने सिरके ऊपर जिस जगत्को देखा था वह आलोकित मनका जगत् था, चेतनाका यह स्तर मानव बुद्धिसे बहुत अधिक ऊंचा है । दिव्य प्रकाश और शक्ति मानद चेतनामें संक्रांत होनेक

 

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लिये इसी स्तरपर अवतरित होते हैं और वहीसे कार्य करके वे मानद चेतनाके और भौतिक प्रकृतिके भी, रूपांतरकी तैयारी करते हैं ।

 

 *

 

        यदि नीली ज्योतियोंकी आभाएं भिन्न भिन्न हों तो इसका अर्थ हो सकता है अधि- शीर्ष भूमिकाएं, अधिमानस, संबोधि, आलोकित मन, ऊच्चतर मन ।

 

*

 

           कृष्णके प्रकाश भिन्न भिन्न प्रकारके होते हैं -- हीरे जैसा फीका नीला, लवेन्डर जैसा नीला, गहरा नीला इत्यादि । यह प्रकाश उस भूमिकापर निर्भर करता है जिस पर प्रकट होता है ।

 

            एक और नीला रग है जो उच्चतर मनका है, अधिक गहरे नीले रंगका संबंध मनसे,-मनके भीतर कृष्णके प्रकाशसे है ।..

            सभी नीले रंग कृष्णके प्रकाश नही होते ।.

            हीरे जैसा नीला प्रकाश, अधिमानसमे - लवेन्डर जैसा नीला संबोधि मनमें कृष्णका प्रकाश है ।

            नीला रंग राधाका भी है ।

 

*

 

            धवल प्रकाश दिव्य चेतनाको सूचित करता है ।

 *

 

          उन सबका सदा एक ही अर्थ होता है । श्वेत प्रकाश उस विशुद्ध सचेतन शक्ति- का प्रकाश है जिसमेंसे बाकी सब वस्तुएं उत्पन्न होती हैं । सुनहरा प्रकाश ऊच्चतर स्तरोपर स्थित दिव्य सत्यका प्रकाश है ।

 

*

 

         सफेद प्रकाश शोधनकी शक्तिका निर्देश करता है ।

 

*

 

४५५


          हीरे श्रीमांके सघनतम प्रकाशके सूचक हों सकते हैं, क्योंकि वह प्रकाश हीरेकासा सफेद प्रकाश होता है ।

 

*

 

       सूर्यका प्रकाश स्वयं सत्यका प्रकाश है - चाहे यह सत्यकी कोई भी शक्ति हों - जब कि अन्य ज्योतियां सत्यसे उत्पन्न होती हैं ।

 

*

 

          सूर्यका प्रकाश सीधा सत्यका प्रकाश हैं; वह जब प्राणमें मिल जाता है तब मिश्रित रंगका हो जाता है - यहां वह सुनहरा और हरा है - ठीक ऐसे ही जैसे कि भौतिक स्तरपर वह सुनहरा लाल या मनमें सुनहरा पीला बन जाता है ।

 

*

 

         सुनहरा प्रकाश दिव्य सत्यका वह प्रकाश है जो अतिमानसिक सूर्यके प्रकाशसे आता है और जिस सत्तामेंसे होकर गुजरता है उसके अनुसार बदलता जाता है, और इस प्रकार अतिमानससे लेकर ऊच्चतर मन तककी शुंखलाओंका निर्माण करता है ।

 

*

 

         सुनहरा प्रकाश है किंचित् परिवर्तित (अधिमानसीकृत) अतिमानसका प्रकाश, अर्थात् अतिमानसका वह प्रकाश जो अधिमानस, संबोधि इत्यादिमेंसे गुजरता है और इनमेंसे प्रत्येक स्तरमें सत्यका प्रकाश बन जाता है । जब वह सुनहरा लाल होता है तो इसका अर्थ वही किंचित् परिवर्तित अतिमानस-भौतिक प्रकाश,-भौतिक स्तरमें दिव्य सत्यका प्रकाश होता हैं ।

 

*

 

          सुनहरे प्रकाशका अर्थ सदैव सत्यका प्रकाश होता है - परंतु सत्यका स्वरूप, जिस स्तरसे वह संबंध रखता है उसके अनुसार बदलता रहता है । प्रकाश हैं चेतना, सत्य और ज्ञानका प्रकाश -- सूर्य प्रकाशका संकेन्द्रण या उसका उद्गगम हैं !

 

*

 

४५६


            यह फिर दिव्यसत्यके प्रकाशसे आलोकित मनके किसी उच्चतर स्तरमें चेतना- का आरोहण है । पीला है मनका प्रकाश जो व्यक्तिके ऊपर चढ़नेके साथ उत्तरोत्तर चमकीला होता जाता है और अन्तमें वह दिव्यसत्यके सुनहरे प्रकाशके साथ मिल जाता हैं !

 

*

 

           आध्यात्मिक शक्ति स्वभावत: शरीरकी अपेक्षा अपने स्तरमें अधिक स्वतंत्र होती है । यहां सुनहरा रंग महाकालीकी शक्तिका द्योतक है जो शरीरमें कार्य करने वाली सबसे अधिक सबल शक्ति है ।

 

*

 

           यह अभी स्पष्ट नहीं हुआ । सुनहरा लाल रंग अतिमानसिक-भौतिक प्रकाशका रंग है - इसलिये संभव है कि यह पीला-लाल रंग अधिमानसके किसी स्तरको सूचित करता हो जिसका उसके साथ एक निकटतर विशेष संबंध है । सुनहरे लाल प्रकाशमें रूपांतरकी प्रबल शक्ति है ।

 

*

 

           प्रसंगवश नारंगी या लाल-सुनहरा प्रकाश भौतिक स्तरमें अतिमानसका प्रकाश माना जाता है ।

 

*

 

           नारंगी प्रकाश भौतिक चेतना और सत्तामें प्रकट हुआ सच्चा प्रकाश है ।

 

*

 

          गहरा लाल प्रकाश वह प्रकाश है जो नीचे भौतिक सत्तामें उसके परिवर्तनके लिये उतरता है । उसका संबंध सूर्यके प्रकाश और सुनहरे प्रकाशके साथ होता है ।

 

 *

 

         गहरा लाल उस शक्तिका प्रकाश है जो भौतिक सत्ताके रूपांतरके लिये २४ (नवम्बर १९३३) त पहले अवतरित हुई थी ।

 

*

 

४५७


गहरा लाल दिव्य प्रेम है - गुलाबी चैत्य प्रेम है ।

 

 *

 

         यह विविध शक्तियोंका और आध्यात्मिक चेतनाकी शांति, प्रकाश और विशालताका उद्घाटन प्रतीत होता है । रक्त आभाववाला पुरुष सच्ची भौतिकसत्ताकी शक्ति हो सकता है -- क्योंकि लाल भौतिक सत्ताका रंग है ।

 

*

 

          नारंगी रंग गुह्य ज्ञान या गुह्य अनुभूतिका रंग है ।

 

*

 

        पीला चिन्तनशील मन है । उनकी आभाएं मानसिक प्रकाशकी विभिन्न तीव्र- ताओंको सूचित करती हैं ।

 

*

 

        चैत्य प्रकाशका रग उसके द्वारा प्रकट होनेवाली वस्तुओंके अनुरूप होता है - उदाहरणार्थ चैत्य प्रेम गुलाबी या पाटल होता है, चैत्य पवित्रता श्वेत होती है, इत्यादि ।

 

*

 

         लालिमायुक्त गुलाबी रंगका गुलाब ८ चैत्य प्रेम या समर्पण ।

         सफेद गुलाब - शुद्ध आध्यात्मिक समर्पण ।

 

*

 

         गुलाबी प्रकाश प्रेमका प्रकाश है -- इसलिये बहुत संभव है कि तुमने चैत्य लोकोंमें अथवा कम-से-कम उनमेंसे किसी एक लोकमें प्रवेश किया हो ।

 

       जहां तक दूसरे पत्रमें वणिंत अनुभवोंका संबंध है, वे तटस्थ शांतिके उन लोकों- भैंसे आनेजानेका मार्ग प्रतीत होते हैं जो मनके लिये अंधकारमय हैं और पूर्ण ज्योतिके मार्गमें बाधक हैं ।

 

*

 

४५८


       बैगनी प्रकाश भागवत कृपा और करुणाका प्रकाश है ।

 

*

 

         ' 'बैगनी' ' शुभेच्छा या करुणाका रग हैं, पर अधिक विशुद्ध रूपमें भागवत कृपाका भी - जो इस अन्तर्दर्शनमें आध्यात्मिक चेतनाके शिखरोंसे नीचे पृथ्वीपर प्रवाहित होता हुआ प्रदर्शित हुआ है । मैं समझता हूँ कि हिरण्मय पात्र सत्य-चेतना है ।

 

*

 

          बैगनी भागवत करुणाके प्रकाशका, इसी प्रकार कृष्णकी कृपाका भी रग हैं । यह कृष्णके संरक्षणकी भी प्रभा है । नीला उसका अपना विशेष और महत्वपूर्ण रंग है -- उसके प्रकट होनेपर उसके आभा-मंडलका यह रंग होता है -- इसीलिये वह ' 'नील कृष्ण' ' कहलाता है । इस विशेषणका यह अर्थ नहीं है कि उसका भौतिक देह नीला या काला था ।

 

*

 

          जमानी रंग प्राणिक शक्तिका रंग है -- किरमिजी साधारणत: भौतिक शक्ति का ।

 

*

 

          किरमिजी रंग प्राण और शरीरमें प्रेमका प्रकाश है ।

 

*

 

      (जामनी और किरमिजी) दोनों प्राणके प्रकाश हैं, किन्तु ऊपर दिखाई देनेपर वे उन मूल शक्तियोंको सूचित करते हैं जिनमेंसे प्राणिक शक्तियां उद्भूत हुई हैं ।

 

*

 

         हरा प्रकाश, प्रकरणके अनुसार, विविध वस्तुओंका प्रतीक हों सकता है -- भावप्रधान प्राणमें यह भावमय उदारताके विशिष्ट रूपका रंग है, असली प्राणमें एक ऐसी गतिविधिका जिसके पीछे प्राणिक वैभव या प्राणिक उदारता होती है - प्राण- मय-भौतिकस्तरमें इसका अर्थ स्वास्थ्य-शक्ति होता है ।

 

*

 

४५९


        हा, हरा प्रकाश है प्राणकी शक्ति, उस भावप्रधान प्राणकी क्रियाशील शक्ति जिसमें शोधन, सामंजस्य या रोग-निवारणकी शक्ति है ।

 

*

 

        हरा रंग कर्म और क्रियाकी प्राणिक ऊर्जा है ।

 

VIII

 

        आकाश मानसिक चेतना ( या चैत्य) का प्रतीक है अथवा मनसे ऊपर स्थित अन्य चेतनाओंका -- उदाहरणके लिये, उच्चतर मन, संबोधि, अधिमानस, इत्यादि- का । महाव्योम (प्रइफ़ं०ऽ) के रूपमें आकाश असीमका भी द्योतक है ।

 

*

 

         उच्चतर चेतना अपने किसी भी स्तरपर साधारणतया आकाश या महाव्योम   ' रूपमें दिखाई (देती है, परन्तु प्राणके द्वारा अनुभव होनेपर इसका बहुधा समुद्रके रूपमें बोध होता है ।

 

*

 

         वेदमें सत्, चित्, आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण, और अन्न (जडतत्व) इन सात भूमिकाओंका वर्णन किया गया है -- परन्तु इस योगमें व्यक्ति चेतनाकी ऐसी अनेक भूमिकाएं देखता है जो आकाशों या फिर समुद्रोंके रूपमें दिखाई देती हैं ।

 

*

 

      नीला आकाश उस उच्चतर मनका आकाश है जो मानवमन और अतिमानस- के बीचकी भूमिकाओंसे सर्वाधिक निकट है । चन्द्र यहां मानसिक भूमिकाओंकी आध्यात्मिकताका प्रतीक है । उच्चतर मनका लोक सीधे शरीरचेतनासे जुड़े हुए लोकोंसे ऊपर स्थित है ।

 

*

 

        आकाश सर्वदा कोई मानसिक स्तर होता है । तारे प्रकाशके प्रारंभ या आश्वासनोंके सूचक हैं - विभिन्न प्रकाश चेतनाकी विभिन्न शक्तियोंके द्योतक है;

 

४६०


सुनहरा = सत्य, नीला = उच्चतर आध्यात्मिकता  मन, बैगनी ८ सहानुभूति, एकता या वैश्वकरुणा ।

 

*

 

        पहला सागर सामान्य चेतना है, दूसरा सागर वह उच्चतर चेतना है जिसके ऊपर सत्यका सूर्य विराजमान है । पर्वत है उच्चतर चेतनाके आरोहण करनेवाले स्तरोंका प्रतिनिधि । रेल-यात्रा एक चेतनासे दूसरी चेतनामें प्रयाणका पथ है ।

 

*

 

       समुद्रपर यदि सूर्य चमकता हो तो वह सत्य द्वारा प्रकाशित चेतनाका स्तर है । किरणोंमें प्रवेश करनेका अर्थ पहलेकी तरह उनसे प्रकाशित होना मात्र नही है परन्तु अपनी सचेतन सत्तामें सत्यका अंग बनने लगना है ।

 

*

 

        नीला सागर प्रायः उच्चतर मनमें एक और अखण्ड आध्यात्मिक चेतनाका प्रतीक

 

*

 

         उषाका अर्थ नित्य ही किसी प्रकारका उद्घाटन होता है अर्थात् एक ऐसी वस्तु- का आगमन जो यहां इस समय पूरी तरह विद्यमान नही है।

 

*

 

       जैसे प्रकाश सत्य और ज्ञानका प्रतीक है ठीक उसी प्रकार रात्रि उस अज्ञान या अविद्याकी प्रतीक है जिसमें मानव निवास करते हैं ।

 

 *

 

        पर्वत उस देहबद्ध चेतनाका प्रतीक है जिसका आधार पृथ्वी है किन्तु जो भग- वान्को ओर ऊपर उठ रही है ।

 

*

 

४६१


         पर्वत सदैव सत्ताकी आरोहणशील पहाड़ीका द्योतक है जिसके शिखरोंपर चढ़कर हमें भगवान्को प्राप्त करना है ।

 

*

 

        पर्वत ऊपर चढ़ते हुए स्तरोवाली चेतनाका अति सामान्य प्रतीक है । शिखरसे गिरनेवाला पानीका प्रवाह किसी उच्चतर चेतनासे आनेवाले प्रवाहको सूचित करता

 

*

 

        तुम्हें जो बर्फका अन्तर्दर्शन हुआ है वह संभवत: बर्फीली जमीन जैसी विशुद्धि, निश्चल-नीरवता और शांतिसे युक्त अवस्थावाली चेतनाका प्रतीक है; उसमें उन पुराने मनोमय और प्राणमय जीवनके स्थानपर जो बर्फका सफेदीसे ढंका हुआ है, एक नया जीवन (चैत्य, आध्यात्मिक, जैसा कि पुष्पों द्वारा प्रकट हों रहा है) उत्पन्न हों रहा है ।

 

*

 

       नदी चेतनाकी किसी गतिकी द्योतक है ।

 

*

 

      जल चेतनाकी एक अवस्था या भूमिकाका प्रतीक है ।

 

*

 

      जब जल (चेतनाकी भूमिकाका) प्रतीक होता है तो वह पानीका एक बड़ा विस्तार होता हैं -- किंतु नदी या तालाब इतने विस्तृत नही होते कि वे किसी भूमि- काकी प्रतीक बन सके ।

 

*

 

     कभी कभी चेतनाका एक भाग तालाब, झील या समुद्रके रूपमें दिखाई देता है । मछली अवश्य हीं प्राणिक मन है ।

 

*

 

४६२


झील एक ऐसी सत्ता है जो अपनी व्यक्तिगत चेतनामें सीमित है, समुद्र भी वही सत्ता है किन्तु एक ऐसी विश्वमय चेतनासे युक्त है जो विश्व और उसकी शक्तियोंको अपने अन्दर धारण कर सकती है -- पहली (व्यक्तिगत) चेतना दूसरी (वैश्व) चेतनामें विलीन हो जाती है । नौका तुम्हारे अन्दर मांके चेतनाकी एक ऐसी रचना है जिसके द्वारा तुम इस समुद्रमें यात्रा करनेकी तैयारी कर रहे हों ।

 

 *

 

         वर्षा भगवान्की उस कृपा अथवा उच्चतर चेतनाके अवतरणकी प्रतीक है जो वैभव अर्थात् आध्यात्मिक समृद्धिकी उद्गम है ।

 

*

 

         इन्द्रधनुष शांति और मुक्तिका चिह्न है ।

 

 *

 

      बादल अन्धकारके प्रतीक हैं ।

 

*

 

      पातालका अर्थ केवल पृथ्वीके नीचे स्थित अवचेतना ही है -- क्योंकि पृथ्वी सचेतन भौतिकलोक है ।

 

*

 

       जंगल प्राण-प्रकृतिका कोई असंस्कृत भाग होना चाहिये और सर्प उनमेसे निकलती हुई कोई गलत ढंगकी शक्ति ।

 

*

 

      वृक्ष अवचेतन प्राणका प्रतीक है ।

 

 *

 

     पक्षी अन्तरात्माका एक अति सामान्य प्रतीक है और वृक्ष विश्वकी स्थिर प्रति

 

४६३


मूर्ति अर्थात् जीवन वृक्ष है ।

 

*

 

         अश्वत्थ साधारणत: वैश्व अभिव्यक्तिका प्रतीक है ।

 

*

 

        फूल चेतनाके खिलनेके द्योतक होते हैं कभी कभी वे विशेष रूपसे चैत्य या चैत्यभावापत्र प्राणमय, मनोमय और देह चेतनाका संकेत करते हैं ।

 

 *

 

         साधारणतया जब चैत्य सक्रिय होता है तभी फूलोंका दर्शन प्रचुरतासे होता

 

*

 

       लाल फूल अपनी आभाके अनुरूप साधारणतया भौतिक सत्तामें या प्राणके किसी भागमें चेतनाके उद्घाटनको सूचित करते हैं ।

 

*

 

       'शाश्वत स्मित' ( नामके फूल) का अर्थ है परम-आत्माका स्वयंभू हर्ष और प्रसन्नता ।

 

*

 

       साधनामें प्राणिक अन्तरंगता ( नामके फूल) का साधारणत: अर्थ होगा प्राणमय भूमिकापर भगवान्के साथ आंतरिक घनिष्ठता ।

 

*

 

        फल साधनाके परिणामके द्योतक हैं ।

 

*

 

४६४


         गुह्य प्रतीकवादमें गाय राकाश अथवा चेतनाकी द्योतक है - सफेद गाय विशुद्ध या आध्यात्मिक चेतनाको - श्वेत प्रकाशकों सूचित करती है।

 

*

 

         यह बिलकुल स्पष्ट है, यह वैदिक रूपक है । वेदमें गायका अर्थ है दिव्य प्रकाश - सफेद गाय है प्रकाशयुक्त शुद्ध चेतना । दूध है भागवत चेतनासे उतरता हुआ ज्ञान और बल ।

 

*

 

          सामान्यत: गायका अर्थ उच्चतर चेतना है । (लाल) बछड़ा शायद भौतिक चेतनाके और (सफेद) उच्चतर चेतनाके सत्यको सूचित करता हैं।

 

*

 

         गायोंका दर्शन तुम्हें अवश्य ही चैत्यलोकमें हुआ होगा । इसका भी एक प्रतीकात्मक अर्थ है । सूर्य भागवत सत्यका प्रतीक है, गायें इसकी शक्तियां, हैं, सूर्यकी किरणें सत्य ज्ञान, सत्य वेदन और सत्य अनुभवका मूल स्रोत हैं ।

 

          जिस अवतरणका तुम्हें अनुभव हुआ है वह अवश्य ही प्रकाशके किसी गहरे स्तरमें, संभवत: चैत्य प्रकृतिमें हुआ होगा ।

 

*

 

       दूध हमेशा उच्चतर चेतनाकी धाराका प्रतीक होता है ।

 

*

 

      घोड़ा है शक्ति, साधारणतया जीवन-शक्ति, परन्तु क्रियाशील और गतिशील होनेपर इसका अर्थ मानसिक-शक्ति या तपत् भी हो सकता है ।

 

*

 

      काले घोडेके अर्थ है एक ऐसा घोड़ा जिसके गुण -- अर्थात् बह अच्छा है या बुरा, जीतेगा या हारेगा -- ज्ञात नही है -- वह रा_क अस्पष्ट और अज्ञात तत्व है ।

 

*

 

४६५


          १ मईके अति संक्षिप्त पत्रमें लिखे तुम्हारे दो स्वप्नोंका जहांतक संबंध है, उसमें घोडोंसे संबंध रखनेबाला पहला स्वप्न उतना स्पष्ट नहीं है जितना कि सफेद बछड़ेसे संबंध रखनेवाला दूसरा स्वप्त । परन्तु घोड़ा सदा ही शक्तिका प्रतीक होता है; इसलिये यहां यह अवश्य ही एक ऐसी शक्ति रही होगी जिसे तुम पकड़नेकी और अपना बनानेकी चेष्टा कर रहे थे जब कि कभी कभी वह तुम्हारे साथ ऊपर आनेका, शायद तुम्हारा उपयोग करनेका यत्न कर रही थी । प्राणिक स्तरपर ऐसा ही होता है जहां ये अनिश्चित गतियों निवास करती हैं । ऊंची वेदी स्पष्ट ही उस उच्चतर चेतनाका स्तर था जिसने इस चंचल गतिको शांत कर दिया और इसके शांत और स्पष्ट होनेके साथ हीं शक्तिके नियंत्रणको अधिक संभव बना दिया ।

 

      सफेद बछड़ा शुद्ध और स्वच्छ चेतनाका चिह्न है -- क्योंकि गाय या बछड़ा चेतनामें प्रकाशका प्रतीक है, इसलिये यह कोई चैत्य या आध्यात्मिक वस्तु है जिसे तुमने स्वाभाविक, आत्मीय और अविच्छेद्य अनुभव किया ।

 

*

 

       घोड़ा है प्रगतिके लिये कार्य करनेवाली शक्ति । पूरी रफ्तारसे चलती हुई रेलगाडीका अर्थ है तीव्र प्रगति ।

 

*

 

       गधा शरीरमें तमs और अवरोधका प्रतीक है । घोड़ा शक्ति या बलका प्रतीक है । पानीकी सुरंग अवश्य ही कोई प्राणिक-भौतिक वस्तु है, और महराब है निकलनेका रास्ता, जिसके द्वारा यदि गधा उसे पार कर सके या बल्कि खींचकर पार कराया जा सके तो वह धोंडा बन जाता है । दूसरे शब्दोंमें भौतिक सत्ताके तमs और अवरोध तब प्रगतिके बल और शक्तिमें बदल जायेंगे ।

 

*

 

         हाथी है बल - कभी कभी बुद्धिसे आलोकित बल ।

 

*

 

         सिंहका अर्थ है प्राणिक शक्ति, बल, साहस - यह प्रकाशसे पूर्ण और आष्यात्मिक चेतनासे आलोकित बल ।

 

*

 

४६६


            सिंह शक्ति और साहस, और सामर्थ्य एव बलका प्रतीक है । निम्रतर प्राण सिंहकी तरह नही होता ।

 

*

 

            यह सब बाघकी वृत्तिपर आधार रखता है । यदि यह भयंकर और वैरपूर्ण हों तो यह विरोधी शक्तिका रूप हो सकता है, अन्यथा यह केवल प्राण-प्रकृतिका ऐसा बल हैं जो मैत्रीपूर्ण हो सकता है ।

 

 *

 

        वृषभ सामर्थ्य और शक्तिका प्रतीक है । यह वेदमें देवताओंकी प्रतिमूर्त्तिका और प्रकृतिमे पौरुषका भी द्योतक है । और फिर वृषभ शिवका वाहन है । यह इन प्रतीकोंमेंसे किसी एक्का स्वप्न या अनुभव हो सकता है, परन्तु यहां वह बहुत संभवत. स्वप्न है ।

 

*

 

          यह (सूवर) है राजसिक सामर्थ्य और प्रचंडता । तथापि यह बहुत कुछ प्रकरण पर निर्भर करता है,--इन आकारोंके और अर्थ भी हो सकते हैं ।

 

*

 

         हां, भैंसे अविचारी और अंधकारमय प्राणिक शक्तियोंके द्योतक हैं ।

 

*

 

       भैंसा प्रायः स्वभावकी तामसिक उग्रताके भावको सूचित करता है - यहां यह बंधा हुआ मालूम होता है - अर्थात् नियंत्रित पर निष्कासित नही । परन्तु, यदि बह प्रतीकात्मक हो तो भी यह स्पष्ट नहीं कि यह किस वस्तुका निर्देश करता है ।

 

*

 

        सूक्ष्मदर्शनमे बकरा प्राय. कामुकताका प्रतीक होता है ।

 

*

 

४६७


कुत्ता स्वामिभक्तिसे भरे अनुराग और आज्ञांकारिताका प्रतीक है ।

 

 *

 

        कुत्ता साधारणतया विश्वास पात्रताको सूचित करता है और क्योंकि यह पीला है इसलिये यह भगवान्के प्रति मनोगत निष्ठा होगी - किन्तु दूसरे चितकबरे कुत्ते- की व्याख्या करना कठिन है - यह कोई प्राणकी वस्तु है, परन्तु काली चित्तियोंका अर्थ स्पष्ट नहीं है ।

 

*

 

         हिरन शायद आध्यात्मिक उन्नतिके वेगका प्रतीक है ।

 

*

 

        हनुमान- पूर्ण भक्ति ।

        हिरन अ आध्यात्मिक पथमें हुत गति ।

 

*

 

        मेंढक ड़ ।विनम्र उपयोगिता ।

 

*

 

       मछली है हमेशा सब प्रकारकी रचनाएं करनेवाला चंचल प्राणिक मन ।

 

*

 

        (मक्सियां) क्षुद्रतर प्राणकी कोई छोटी-सी वस्तु है । '

 

*

 

        यहां प्रत्यक्ष ही (दीमकों) निम्रप्राण या भौतिक सत्तामें क्षुद्र परन्तु विनाशक शक्तियोंकी प्रतीक होनी चाहिये ।

 

*

 

४६८


        उपनिषदोंमें ब्रह्मके लिये मकड़ीका रूपक प्रयुक्त किया गया है जो जगत्को अपने अन्दरसे बाहर निकालता है, उसमें निवास करता है और उसे अपने अन्दर लीन कर लेता है 1 परन्तु प्रतीक तुम्हारे लिये क्या अर्थ रखता है यही महत्वकी वस्तु है । तुम्हारे लिये इसका अर्थ सफलता या सफल रचनाएं हों सकता है ।

.

*

 

            सर्प सदैव किसी न किसी प्रकारकी ऊर्जाका द्योतक है - बहुत करके बुरी, किन्तु यह किसी प्रकाशमयी या दिव्य शक्तिका भी द्योतक हो सकता है । इस अनुभवमें यह किसी शक्तिका भौतिक स्तरसे ऊपरकी ओर आरोहण है । अन्य ब्यौरे स्पष्ट नही हैं ।

 

*

 

         सांप एक शक्तिका प्रतीक है, बहुधा बह प्राण लोककी किसी विरोधी या अशुभ शक्तिको सूचित करता है ।

 

        समुद्र चेतनाके किसी स्तरका निर्देश करता है ।

 

       सफेद प्रकाश उस विशुद्ध दिव्य शक्तिकी अभिव्यक्ति है जो अतिमानसिक लोककी ओर ले जानेवाले सत्य लोकोमेंसे किसी एकसे अवतरित होती है ।

 

*

 

        फनका फैलना सर्प द्वारा लक्षित होनेवाली ऊजाकी विजयी या सफल कियाका द्योतक है ।

 

*

 

       सिरके ऊपर फन फैलाये हुए सांप साधारणत: भावी सिद्धिको सूचित करता है ।

 

*

 

       नाग प्रकृतिमें ऊर्जाका प्रतीक है - उठा हुआ फन और प्रकाश प्रकट हुई ऊर्जा - की दीप्ति और र्विएजयी. स्थिढ़िके द्योतक हैं ।
 

*

 

४६९


      तुम्हारी अभीप्साके प्रत्युत्तरमें ही महाकालीकी शक्ति अवतरित हुई -- सांप है ऊपरकी एक ऐसी ऊर्जा जो प्राणमें किया कर रही है और नीचेसे ऊपर उठनेवाली कुंडलिनी शक्तिको प्रत्युत्तर दे रहीं है । श्वेत अग्नि अभीप्साकी अग्नि है, लाल अग्नि त्याग और तपस्याकी, नीली अग्नि उस आध्यात्मिकता एवं आध्यात्मिक ज्ञानकी अग्नि है जो अज्ञानको शुद्ध-पवित्र करके दूर कर देता है ।

 

*

 

          सांप ऊर्जाका प्रतीक है -- विशेषकर कुंडलिनी शक्तिका जो दिव्य शक्तिके रूपमें निम्रतम ( भौतिक) केन्द्र मूलाधारमें कुंडली मारकर सोई पडी है और जब उठती है तब मेरुदण्डमेंसे होती हुई ऊपर उच्चचेतनाके साथ जा मिलती है । ऊर्जाएं सब तरहकी होती है और सांप असंस्कृत प्राण-प्रकृतिकी अशुभ शक्तियोंको भी सूचित कर सकते हैं -- परन्तु यहा ऐसी बात नही है ।

 

*

 

          कमल है प्रकाशके प्रति केंद्रोंके खुलनेका प्रतीक । हंस व्यक्तिगत अन्तरात्माका, केंद्रीय सत्ताका, उस दिव्य अंशका भारतीय प्रतीक है जो भगवान्की ओर उन्मुख है, उसमेंस अवतरित होता है और उसीकी ओर आरोहण करता है ।

 

           परस्पर गुँथे हुए दो सांप मेरुदण्डकी ऐसी दो प्रणालियां हैं जिनमें होकर शक्ति ऊपर और नीचे गति करती है ।

 

*

 

            छह फनवाले सांप कुण्डलिनी शक्ति है, निम्रतम भौतिक केन्द्रमें सोई हुई वह दिव्य शक्ति है जो, योगमें, जाग्रत होनेपर, प्रकाश-मार्गसे खुलते हुए केन्द्रोंमें होती हुई उच्चतम केन्द्रमें स्थित भगवान्से मिलनेके लिये आरोहण करती है और इस प्रकार आत्मा और स्थूलतत्वको जोड़ती हुई व्यक्त और अव्यक्तको संयुक्त करती है ।

 

*

 

           1. साधारणतया नारायण विष्णुका एक नाम माना जाता है -- वैष्णवोंके लिये वह परमपुरुष है जैसे कि शैवोके लिये शिव । दोनों भगवान्के वैश्व व्यक्तित्व हैं और बह्माके समान दोनोंका उत्पत्ति-स्थान अधिमानस है, यद्यपि मानसिक, प्राणिक और सूक्ष्म भौतिक भूमिकाओंमें वे मानवचेतनाके सामने भिन्न भिन्न रूप धारण करते है ।

 

४७०


         2. लक्ष्मी सामान्यत: सुनहरी होती है, श्वेत नहीं, सरस्वती श्वेत होती है ।

 

         3. सांप महज ऊर्जा या बलका प्रतीक है । तुम्हारी सूक्ष्म दर्शनमें नारायण स्पष्ट ही विष्णु हैं जैसा कि लक्ष्मी और अनेक फनवाले सांपकी उपस्थितिसे सूचित होता है ।

 

        4. इस रूपकमें जो एक सामान्य पौराणिक रूपक है, विष्णु या नारायण देश- काल रूपी समुद्रका स्वामी है - उस सृष्टि तत्वका पालक है जिसे वह अपने अन्दर, दो सृष्टियोंके बीचके अन्तरालोंमें बीज रूपसे धारण किये रहता हे । उस बीजमेंसे उसकी नाभिसे (नाभि है प्राण एवं जीवन तत्त्वका केन्द्रीय पीठस्थान) सृष्टिकर्ता ब्रह्मा उस कमल (विश्वचेतना) भैंसे उद्भूत होते हैं जो उस नाभिसे विष्णुकी युगांत निद्रासे जागनेपर उत्पन्न होता है । अनन्त नामका सांप है असीमकी देशकालमें वैश्व अभिव्यक्तिकी ऊर्जा ।

 

*

 

        अनन्त नाग असीम दिक्कालमें निःसीम ऊर्जा है जो विश्वको थामे रखती है ।

 

*

 

         अपने ध्यानमें तुमने जो सर्प देखा है उसके विषयमें - सर्प सदैव प्रकृतिकी ऊर्जा- ओंके द्योतक होते हैं और बहुधा प्राण जगत्की बुरी ऊर्जाओंके; पर वे विष्णुके शेषनागकी तरह ज्योतिर्मय अथवा दिव्य शक्तियोंके भी द्योतक हो सकते हैं । तुमने जिस सांपको देखा है बह प्रत्यक्ष ही - इनमेंसे पिछले प्रकारकी - ज्योतिर्मय दिव्य शक्ति थीं और इसलिये भयका कोई कारण नही है, यह एक अच्छा चिह्न है ।

 

*

 

        कमलका फूल खुली हुई चेतनाको सूचित करता है ।

 

*

 

         लाल कमल है पृथ्वीपर भगवान्की उपस्थिति; सूर्य दिव्य सत्य है । यह पृथ्वी पर भगवान्के एक ऐसे आविर्भावका द्योतक है जो पार्थिव चेतनाको सत्यकी ओर उठा लें जाता है ।

 

*

 

४७१


          श्वेत कमल श्रीमांकि चेतनाका प्रतीक है - यह व्यक्तिगत चेतनाके किसी अंगको नहीं प्रकट करता ।

 

*

 

         मैं समझता हूं कि तुम्हारी अनुभूतिमें कमलोंके खिलनेका अर्थ है उस सच्ची प्राणिक और भौतिक चेतनाका खुलना जिसमें आध्यात्मिक सत्ता (हंस) उद्घाटन- के सभी परिणामों सहित अभिव्यक्त हों सकती है ।

 

*

 

       हंस उच्चतर भूमिका पर स्थित अन्तरात्माका प्रतीक है । .

 

*

 

      हंस मुक्त अन्तरात्मा है, कमल या तो भागवत-प्रेमके रंगमें रंगी चेतना है या पृथ्वीपर भगवान्की उपस्थितिका प्रतीक है ।

 

*

 

       हंस पुरुषका प्रतीक है - बह जैसे जैसे ऊंचा उठता हैं वैसे वैसे अपनी अ पवित्र- ता फिरसे प्राप्त करता जाता है और अन्तमें सर्वोच्च सत्यमें पहुंचकर ज्योतिर्मय हो जाता है ।

 

*

 

           बत्तक अन्तरात्माका प्रतीक है; उसका रुपहला रंग आध्यात्मिक चेतना है; सुनहरे पंख भागवत सत्यकी शक्ति ।

 

*

 

           बत्तक साधारणतया अन्तरात्मा या आन्तरिक सत्ताका प्रतीक है - तुमने जिन्हें देखा था वे शायद मानसिक, चैत्य, प्राणिक और भौतिक, ये चार सत्ताएं थी ।

 

*

 

४७२


                ( कलहंस और राजहंस) दोनों मानवमें स्थित 'पुरुषों' के प्रतीक है - परन्तु कलहंस या सामान्य हंस साधारणतया ' 'मनोमय पुरुष' ' को सूचित करता है ।

 

*

 

           पक्षी व्यष्टिगत अन्तरात्माका प्रतीक है ।

 

 *

 

           पक्षी स्वयं अन्तरात्माका प्रतीक न होनेपर सामान्यतया आत्मिक शक्तिका प्रतीक होता है,-यहांपर वह श्वेत-नीली ज्योति अर्थात् श्रीअरविन्दकी ज्योतिकी (अन्तरात्मामें जाग्रत) शक्ति है ।

 

*

 

           पक्षी प्रायः या तो मानसिक शक्तियोंके या आंतरात्मिक शक्तियोंके द्योतक होते ??

 

*

 

          पंडुकका अर्थ है शांति । रंग प्राणको सूचित करते हैं - हरा होगा प्राणमें आत्म- समर्पणका, नीला प्राणमें उच्चतर चेतनाका । तो यह शांति होनी चाहिये जो ऊपरसे प्राणपर अपना प्रभाव डाल रही है ।

 

*

 

            सफेद कबूतर निश्चय हीं शांति है ।

 

*

 

            मोर विजय-सूचक पक्षी है ।

 

*

 

          मयूर आध्यात्मिक विजयका प्रतीक है ।

 

*

 

४७३


         योगमें मोरका अर्थ है विजय अर्थात् भगवान्की विजय । स्वच्छ आकाश शायद सत्ताके मलिनता रहित मनोमय भागका द्योतक है ।

 

*

 

          राधाके साथ कृष्ण भागवत प्रेमका प्रतीक है । बसी है भागवत प्रेमकी पुकार; मोर है विजय ।

 

*

 

         सारस सुखका संदेशवाहक है ।

 

*

 

        शुतुरमुर्गका अर्थ गतिकी तीव्रता हो सकता है ।

 

*

 

           इस प्रकारका बच्चेका स्वप्त -- विशेषकर एक नवजात शिशुका स्वप्त -- सामान्यतया यह सूचित करता है कि बाह्य प्रकृतिमें अन्तरात्मा या चैत्य पुरुषका जन्म (या जागरण) हो गया है ।

 

*

 

          यह तथ्य नही है कि चैत्य सत्ता सदा शिशुरूपमें ही प्रकट होती है -- यह कभी कभी प्रतीकात्मक रूपमें नवजात शिशुके रूपमें भी दिखाई देती हे; अनेक लोग इसे विभिन्न आयुवाले बच्चेके रूपमें देखते हैं - यह एक बहुधा होनेवाला अति सामान्य अनुभव है; यह विशेषतया भावप्रधान प्रकृतिवालोंको ही नहीं होता । इसके अनेक अर्थ हैं जैसे कि चेतनाका सच्ची चैत्य प्रकृतिमें नवजन्म, इस नवीन सत्ताका अभी अपरिपक्व विकास, श्रीमांपर शिशुका विश्वास, भरोसा और आधार ।

 

*

 

          साधारण तीरपर बच्चा चैत्य पुरुषका द्योतक होता है - वह नवजात इस अर्थमें है कि वह अन्तमें बाहरी सतहपर आ जाता है । कपडेके रंगका अर्थ यह होगा कि वह (आंतरिक और बाह्य अथवा दोनों प्रकारके) स्वास्थ्य तथा आध्यात्मिक ऐश्वर्यके साथ आता है ।

 

*

 

४७४


        शिशु (जब उसका अर्थ चैत्य पुरुष नही होता तब) सामान्यतया चेतनाके किसी भागमें किसी नवजात वस्तुका प्रतीक होता हे । लाल रंग अपनी आभाके अनुसार बहुत सी भिन्न वस्तुओंको सूचित करता है ।

 

*

 

         मैं समझता हूँ कि सुनहरा शिशु है सत्यमय पुरुष जो आध्यात्मिकताके रूपहले प्रकाशका अनुसरण करता है । जब वह अवचेतनके अंधकारमय जलोंमें छलांग मारता है, तो वह अपने अन्दरसे आध्यात्मिक प्रकाशकों और दिव्यऊर्जाकी सप्तविध धाराओंको मुक्त करता है और, अपनेको अवचेतनकी कालिखसे छुड़ाकर, परमदेव ( श्रीमां) के प्रति उड़ान भरनेकी तैयारी करता है ।

 

*

 

          बसी पुकारकी प्रतीक है -- साधारणतया आध्यात्मिक पुकारकी ।

 

*

 

           बंसी है भगवान्की पुकार ।

 

*

 

          शंख आध्यात्मिक पुकारका प्रतीक है ।

 

*

 

           शंख साक्षात्कारके लिये पुकार है ।

 

*

 

           शंख शायद विजयK? घोषणा है ।

 

*

 

          यह (मोती) उस ' 'बिन्दु' ' का द्योतक हो सकता है जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म वस्तुओंमें भी स्थित असीमका प्रतीक है अर्थात् एक ऐसा बिन्दु जो व्यष्टिगत होनेपर भी विश्व-

 

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मय है ।

 

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        ( वीणा:) सामंजस्य ।

 

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       मुकुट पूर्ण चरितार्थताका सूचक है ।

 

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        मुकुट उच्चतर चेतनाकी अचल अवस्थाको सूचित करता है, चक्र उसकी गति- शील क्यिाको । लाल प्रकाश है भौतिक सत्ताको बदलनेके लिये भेजी गई शक्ति ।

 

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         पुस्तक किसी प्रकारके ज्ञानकी द्योतक है ।

 

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        साधारणतया कान अन्त: प्रेरित ज्ञानका या अन्त: प्रेरित अभिव्यक्तिके स्थान- को सूचित करते हैं - लाल और सुनहरे रंगका अर्थ है परस्पर संयुक्त सत्य और वल ।

 

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          भवन बरजना प्रतीक है ।

 

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         पिरामिड सामान्यतया अभीप्साका प्रतीक है - लाल आभावाला शायद इसलिये है कि वह अभीप्सा भौतिक सत्तामें है ।

 

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         स्फिक्स उस अनन्त खोजका प्रतीक है जिसका उत्तर गुह्मज्ञान द्वारा ही प्राप्त

 

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हो सकता है ।

 

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     जूस (सलीब) परात्पर, वैश्व और व्यष्टिगत - त्रिविध सत्ताओंका चिह्न है ।

 

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       जूस त्रिविध भगवान् (परात्पर, विश्वगत और व्यष्टिगत लोकों) को सूचित करता है; ढालका अर्थ है संरक्षण ।

 

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       हां, चक्राकार गति और चक्र नित्य ही क्रियारत ऊर्जाके, साधारणतया सर्जन- शील कियाके चिह्न होते हैं ।

 

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         (सुदर्शन) चक्र श्रीकृष्णकी शक्तिकी कियाका द्योतक है ।

 

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         घूमते हुए चक्रका अर्थ है प्रकृतिपर क्यिा करती हुई कोई शक्ति । श्वेत-नीला प्रकाश कृष्णके प्रकाशके रूपमें प्रसिद्ध है, श्रीअरविन्दके प्रकाशके रूपमें भी । श्वेत श्रीमांका है । शायद यहां दोनोंका संमिश्रण है ।

 

*

 

         चक्र शक्तिकी कियाका चिह्न है (प्रतीकके स्वरूप द्वारा बे कोई भी शक्ति सूचित हो उसकी कियाका) और क्योंकि बह ऊपरकी ओर उमड़ रही थी इसलिये बह अभीप्सा- की ऐसी अग्नि होनी चाहिये जो प्राण ( अर्थात् नाभि केन्द्र) ३ ऊपर उच्चतर चेतनाकी ओर उठ रही है ।

 

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        बाण अपने लक्ष्यपर पहुँचनेके लिये फैंकी गई शक्तिका प्रतीक है ।

 

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             धूपबत्ती आत्म-निवेदनकी प्रतीक है ।

 

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         तमाखूका संबंध तमस् से है और धूपबत्तियोंका आराधनासे ।

 

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        यात्राका रूपक सदा ही जीवनमें गतिका अथवा साधना में प्रगतिका निर्देश करता है ।

 

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       नावमें या अन्य किसी वाहनमें यात्रा करना योगमें सदैव गतिका -- प्राय. विकास या उत्रतिका द्योतक होता हैं ।

 

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         घोड़े पर या किसी वाहनमें यात्रा करना, प्रतीकात्मक होनेपर, जीवन, कर्म या साधनामें प्रगति या गतिको सूचित करता है ।

 

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       गाड़ी, रेलगाड़ी, मोटर, जहाज, नाव, हवाई जहाज इत्यादिमें यात्रा साधनामें गतिका निर्देश करती है । सफेद घोड़ा सात्विक मन हों सकता है एव लाल घोड़ा ऊर्जा प्रदान करनेवाला प्राणिक रजs तथा दोनों प्रगतिके लिये संयुक्त हों गायें हैं ।

 

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         वायुयान, जलयान और वाष्पयान (रेलगाड़ी) नित्य ही तीव्र प्रगति या अग्र- गतिको सूचित करते हैं ।

 

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         रेलकी पटरी तीव्र प्रगतिका प्रतीक है ।

 

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       तुम्हें जब यह लगता है कि तुम उड़रहे हो तो यह उड़ान सदा हीं प्राण जगत्में सूक्ष्मशरीर-स्थित प्राणिक सत्ता ही भर रहीं होतीं है ।

 

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        मांसका टुकड़ा भौतिक सत्तामें किसी ऐसी चंचल वस्तुका सूचक हैं जो अपनी चंचलता और अतिशय उत्तेजनशीलताके कारण आनन्दके पूर्ण प्रवाहमें बाधा डालती है । यह स्वप्नों सक्रिय हुआ था और चैत्य दबावके द्वारा बाह्रा निकाल दिया गया था

 

*

 

          हां, लुटेरे वेदके पणियोकी तरह ऐसी प्राणिक सत्ताएं हैं जो शुभ अवस्थाको चुपचाप हर ले जाती हैं अथवा साधनाकी उपलब्धियोको चुरा ले जाती है ।

 

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           जबतक कोई स्पष्ट सुराग न मिले तबतक प्राणिक स्वप्नकी व्याख्या नही की जा सकतीं । चाची या मा सामान्यतया भौतिक प्रकृतिकों सूचित करती है, बन्द कमरा भौतिक प्रकृतिका एक ऐसा भाग होगा जो प्रकाशके प्रति नही खुला, चिमगादडका अर्थ होगा अन्धकारकी शक्तियां अर्थात् वे अज्ञानकी क्रियाएं जो प्रकाशहीन प्रकृतिके अधकारमेंसे शरण लेती है ।

 

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           स्वप्नके प्रतीकात्मक होनेपर दांतोंके गिरनेका प्रतीकात्मक अर्थ यह है कि भौतिक मनसे संबंध रखनेवाली पुरानी या बद्धभूल आदतें लुंज हो गई हैं ।

 

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           सूक्ष्मदर्शन या स्वप्न-अनुभवमें मृत्युका बोध तब आता है जब सत्तामें किसी वस्तुको निश्चल-नीरव बनाकर पूरा निष्क्रिय बना देना होता है और उसका प्रकृतिके

 

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एक अंगके रूपमें कोई अस्तित्व नही रह जाता, हो सकता है कि यह अंग बहुत छोटा हों, किन्तु क्योंकि प्रंक्यिाका समय चेतना उसपर अपनी क्यिा करनेके लिये उसमें एकाग्र और उसके साथ तदाकार हो जाती है इसलिये ऐसा बोध होता है कि ' 'मैं मर गया' ' । जब तुमने यह कहा कि ' 'मैं मर गया अब मुझे उठकर जाने दो' ' तो इसका केवल यही अर्थ था कि ' 'काम हो गया और प्रक्यिा पूरी हुई । अब मुझे इस अंगके साथ अपना तादात्म्य करनेकी आवश्यकता नही रहीं' ' । इस अनुभवमें इस बातका कोई संकेत नही कि इस अनुभवमेंसे होकर गुजरनेवाली वस्तु क्या थी ।

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          जलनेकी कियाके प्रतीक द्वारा साधारणतया भौतिक शोधनकी क्यिा ही सूचित होती है ।

 

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        तुम्हें जो सूक्ष्मदर्शन हुआ है वह सामान्य व्यापारों (बादलों) से आच्छादित बाह्य भौतिक चेतनाका प्रतीक था, किन्तु फिर उसके साथ ही आध्यात्मिकता (चन्द्रमा) सामान्य मानव अज्ञानके पीछे रहकर अपने प्रकाशको चारों ओर फैला रही थी । कुत्ता स्थूलसत्तामें (अर्थात् उस अंगमें जो विश्वासपात्र और आज्ञापालक है) किसी ऐसी वस्तुका सूचक है जो भावी प्रकाशकी विश्वास पूर्वक प्रतीक्षा कर रही हैं ।

 

       जिस अग्निका तुमने अनुभव किया वह विशुद्धिकरणकी अग्नि थी और उसमें गर्मीका अनुभव इसलिये हुआ कि यह किसी प्रतिरोधको जला रही थी; -उसके जल जानेके बाद वहां शीतलता, शांति और निस्तब्धता फैल गई । इस अनुभवमें '' सत्ताकी आवाज़ें, ध्वनियां और प्रभाव प्राणमें उस गुह्य इन्द्रियकी अव्यवस्थित प्रवृत्तिका संकेत करते हैं जो भौतिक स्तरसे भिन्न भूमिकाओंकी वस्तुओंको सुनती है । ऐसी घटना होनेपर सत्तामें एक शांत अस्वीकृतिका भाव रखना चाहिये तो वह चली जायेगी । कुछ लोग इसमें  लेने लगते हैं और बहुत परेशान हो जाते हैं क्योंकि उन्हें ऐसी आवाजोंको सुनने और ऐसी वस्तुओंको देखने तथा अनुभव करनेकी आदत पडू जाती है जो केवल आशिक रूपसे या कभी कभी सच्ची भी होती है पर ऐसी बहुत वस्तु- ओंसे मिश्रित होती है जो मिथ्या और भ्रामक होती हैं । यह अच्छा है कि तुम्हारी प्राणसत्तामें कोई ऐसी वस्तु है जो इसे स्वीकार नहीं करती ।

 

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         अलग अलग प्रतिमूत्तियां आंतरिक अनुभवके अति सामान्य फ्तीक हैं, पर दे यहां बड़े उलझे रूपमें परस्पर संमिश्रित हो गये हैं । अग्नि निःसंदेह वह चैत्य अग्नि

 

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है जो प्रच्छन्न चैत्य स्रोतमेंसे भभक उठती है । पक्षी अन्तरात्मा हैं और बह फूल है प्रेम और समर्पणका प्रतीक गुलाब । चन्द्रमा आध्यात्मिकताका प्रतीक है और क्योंकि तारा उसके भीतर स्थित है इसलिये उसका यों वर्णन किया गया है कि बह आंतरिक अंधकारकी ग्रंथियोंको भेद रहा है और चारों ओर घिरे हुए बादलों जैसी प्राणिक घास फूसको उखाड़ रहा है । अंतर्दर्शनमें नाव भी एक सामान्य प्रतीक है । हाथी उस आध्यात्मिक सामर्थ्यका सूचक है जो विघ्रोंको हटाता है एवं घोड़ा तपस्याकी बह शक्ति है जो तेजीसे दौड़ाकर आध्यात्मिक साक्षात्कारके शिखरोतक जा पहुँचती है । सूर्य उच्चतर सत्यका द्योतक है । कमल आंतरिक चेतनाका निर्देश करता है ।

 

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       यह स्वप्न स्पष्ट ही उस कठिनाईका निर्देश देता है जो तुम अनुभव कर रहे हो । समुद्र प्राण प्रकृतिका एक ऐसा सागर है जिसकी वाQ साधनाके पथपर तुम्हारा पीछा कर रही है (कामनाएं है सागरका पानी) । श्रीमां तुम्हारे हृदयमें हैं पर प्रसुप्त रूपमें अर्थात् उनकी शक्ति तुम्हारी आंतरिक चेतनामें जाग्रत नहीं हुई है क्योंकि वे त्वचाकी बारीक झिल्ली (भौतिक प्रकृतिके तमम्) से घिरी हुई हैं । यही वह वस्तु है (यह अब उतनी मोटी नही रही है परन्तु अब भी भीमाको तुमसे छिपा रख सकती है) जिसे दूर होना होगा, जिससे वे जाग सकें । यह तो संकल्प और प्रयत्नमें अडिग रहनेका प्रश्न है -- अन्दरसे जवाब आयेगा ही, हृदयमें श्रीमीकी जागरण होगा ही ।

 

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         बहुत संभव है कि यह (अनुभव) आध्यात्मिक जीवनकी तीन अवस्थाओं या प्रगतियों या भूमिकाओंका प्रतीक हों । तारेका अर्थ है सृष्टि, त्रिकोण है त्रिविध तत्व । वृक्ष नवीन सृष्टिमें जीवनका प्रतीक है । हरा रंग भावमय प्राणका सूचक है, चन्द्रमा अध्यात्मभावापत्र भावप्रधान जीबनको संचालित करता है, नीला उच्चतर मनका रंग है, चन्द्रमा अध्यात्मभावापत्र उच्चतर मानसिक जीवनपर शासन करता है; सुनहरा रग भागवत सत्यका रंग है वह चाहे सबोधिमय हो या अधिमानसिक -- चन्द्रमा यहां आध्यात्मिकतापत्र सत्यजीवन है । क्योंकि स्तम्भ स्फटिकके रंगका है इसलिये संभव है कि त्रिकोण सच्चिदानन्द तत्वका द्योतक हो । तितलिया और पक्षी, निःसंदेह, प्राण शक्तियां और आंतरात्मिक शक्तियां, बल या सत्ताएं हैं । उनके बाद ही अतिमानस पूरी तरह शासन कर सकता है या फिर यह उन तीन अवस्थाओंको सूचित करता है जो अतिमानसकी ओर ले जाने वाले तीन सोपानोंके रूपमें अस्तित्व रखती है ।

 

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