श्रीअरविन्द के पत्र

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Sri Aurobindo

Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Letters On Yoga - Parts 2,3 Vol. 23 1776 pages 1970 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द के पत्र 578 pages 1972 Edition
Hindi Translation
Translator:   Chapsip Tripathi  PDF    LINK

विभाग तीन

 

आंतरिक और वैश्वचेतनाकी अनुभूतियां

 


आंतरिक और वैश्वचेतनाकी अनुभूतियां

 

         बाह्य चेतना और अन्तःपुरुषकी बीचके आवरणका भेदन योगकी निर्णायक गतियोंमेंसे है । क्योंकि, योगका अभिप्राय है भगवान्से मिलन, पर साथ ही इसका अभिप्राय है जागरण -- पहले अपनी अन्तरात्माके प्रति और फिर अपनी ऊर्ध्वस्थित आत्माके प्रति, अर्थात् अन्तर्मुख गति और ऊर्ध्वमुख गति । वास्तवमें अन्तःपुरुषकी जागने और सामने आ जानेपर ही तुम भगवान्से मिलन प्राप्त कर सकते हों । बाह्य भौतिक मनुष्य यंत्रात्मक व्यक्तित्वमात्र है, और अपने बल-बूतेपर वह मिलन प्राप्त नही कर सकता वह केवल कभी-कभार स्पर्श, धार्मिक अनुभव तथा अपूर्ण संदेश ही प्राप्त कर सकता है । और, ये भी बाह्य चेतनासे नही बल्कि हमारी आभ्यंतर सत्तासे प्राप्त होते हैं ।

 

       आवरणका भेदन दो प्रकारकी गतियोंसे होता है जो परस्पर-पूरक हैं । एकमें अन्तःपुरुष सामने आ जाता है और अपनी स्वाभाविक चेष्टाए बाह्य चेतनापर बल- पूर्वक लागू करता है । वैसे वे चेष्टाए बाह्य चेतनाके लिये असाधारण एवं अस्वाभाविक होती है । दूसरी गति है बाह्य चेतनासे. पीछेकी ओर हटना, भीतर आंतरिक स्तरोंमें जाना, अपनी अन्तरात्माके लोकमें प्रवेश करना और अपनी सत्ताके प्रच्छन्न भागोंमें जाग्रत होना । जब एक बार तुम ऐसी डुबकी लगा चुकाते हों तो तुमपर यौगिक एवं आध्यात्मिक जीवनकी मोहर लग. जाती है और जो मोहर तुमपर लगाई गई है उसे कोई भी वस्तु मिटा नही सकती ।

 

          यह अन्तर्मुख गति अनेक विभिन्न तरीकोंमें होती है और कभी कभी ऐसा जटिल अनुभव होता है जिसमें पूर्ण निमज्जन के सभी चिह्न एक साथ उपस्थित होते हैं । भीतर या गहरे तलमें जानेका भान तथा आंतरिक गहराइयोंके ओर गतिका असंभव होता है? प्रायः अंगोंकी निस्तब्धता, मधुर जडिमा और अकड़ाहट अनुभूत होती है । यह इस बातका चिह्न है कि ऊपरसे किसी शक्तिका दबाव पड़नेके कारण चेतना शरीरसे पीछे हटकर भीतर जा रही है । वह दबाव शरीरको अन्तर्जीवनके अचल आधारके रूपमें या एक प्रकारके दृढ-स्थिर स्वतःसिद्ध आसनके रूपमें स्थितिशील बना देता है । ऐसा अनुभव होता है कि तरंगें उठकर सिरकी ओर आरोहण कर रही है और इससे हम बाहरकी सुधबुध खोकर आंतरिक जागरण प्राप्त करते हैं । यह है आधर्य निम्र- तर चेतनाका ऊर्ध्वस्थित महत्तर चेतनासे मिलनेके लिख आरोहण । यह गति उस गति नसी है जिसपर तांत्रिक पद्धतिमें इतना अधिक बल दिया गया है, अर्थात् शरीरमें कुण्डलित तथा प्रसुप्त कुण्डलिनी शक्तिका जागरण और उसका मेरुदण्ड तथा चक्रों एवं ब्रह्मरध्रमेंसे होते हुए ऊपर भगवान्से मिलनेके लिये आरोहण । हमारे योगकी विशिष्ट विधि यह नही बल्कि संपूर्ण निम्रतर चेतनाका कभी तो धाराओं या तरंगोंके

 


रूपमें, कभी कम स्थूल गतिके रूपमें सहज ऊर्ध्व-प्रवाह और दूसरी तरफ भागवत चेतना एवं उसकी शक्तिका देहमें अवतरण है । इस अवतरणका अनुभव इस रूपमें होता है कि स्थिरता और शांतिका, बल और शक्तिका, प्रकाशका, हर्ष और आनन्दोद्रेकका, विशालता, स्वतंत्रता और ज्ञानका, भागवत सत्ता या उपस्थितिका - कभी तो इनमें- से केवल एक्का और कभी इनमेंसे कई एक्का या एक साथ सभीका अंतप्रवाह हो रहा है । आरोहण-गतिके नाना परिणाम होते हैं । यह चेतना को इस प्रकार मुक्त कर सकती है कि व्यक्ति अब अपनेको शरीरमें नहीं बल्कि उसके ऊपर अनुभव करे अथवा वह अपने-आपको विशालतामें इस प्रकार फैला हुआ अनुभव करे कि शरीर या तो लगभग अ-सत् रh जाय या व्यक्तिके विनिर्मुक्त विस्तारमें बिंदुमात्र । यह जीवको या जीवके किसी भागको शरीरसे बाहर निकल अन्यत्र विचरनेका सामर्थ्य प्रदान कर सकती है । इस विचरणमें जीव बहुधा किसी प्रकारकी आशिक समाधि किंवा पूर्ण समाधिमें रहता है । मत्वा इस आरोहणका यह परिणाम हो सकता है कि यह चेतना- को, जो अब शरीरसे और बाह्य प्रकृतिकी आदतोंसे पूर्ववत् बद्ध नहीं, इस प्रकारकी शक्ति दे कि वह भीतर जाय, आंतर मानसिक गहराइयों, आंतर प्राण, आंतर (सूक्ष्म) शरीर तथा अन्तरात्मामें प्रवेश करे, अपने अन्तर्तम हत्युरुष या अपने आंतर मनोमय, प्राणमय एव सूक्ष्म अन्नमय पुरुषसे सचेतन हो और यहांतक कि प्रकृतिके इन भागोंसे संबद्ध प्रदेशों, स्तरों एवं लोगोमे संचार और निवास करे। निम्रतर चेतनाका पुनः पुन और सतत आरोहण ही मन, प्राण एवं शरीरको अतिमानसिक स्तर पर्यन्त सभी उच्चतर स्तरोंका संस्पर्श पाने और उनकी ज्योति, शक्ति एवं प्रभावसे परिपूरित होनेके योग्य बनाता है । अथच भागवत चेतना एवं उसकी शक्तिका पुनःपुन. और सतत अवरोहण हीं संपूर्ण सत्ता तथा संपूर्ण प्रकृतिके रूपांतरका साधन है । जब एक बार यह अवरोहण स्वाभाविक बन जाता है, तब भागवत बल एवं माताकी शक्ति पहलेकी तरह केवल ऊपरसे या पर्देके पीछेसे नहीं बल्कि सचेतन रूपसे स्वयं आधारमें कार्य करने लगती है, वह इसकी कठिनाइयों तथा संभावनाओंके साथ निपटती और योग चलाती

 

        अंतमें सीमा पार करनेकी बात आती है । वह चेतनाका प्रसुप्त या लुप्त हों जाना नही है, क्योंकि चेतना तो वहां बराबर उपस्थित रहती है । हां, वह बाह्य और भौतिक सत्तासे सरक जाती है, बाह्य पदार्र्थोको लिये बन्द हों जाती है और सत्ताके आंतर चैत्य तथा प्राणमय भागके अन्दर पीछेकी ओर हट जाती है । वहां वह अनेक अनुभवों- भैंसे गुजरती है और इनमेंसे कुछ एक जागरित अवस्थामें भी प्राप्त हों सकते हैं और होने चाहियें । क्योंकि दोनों गतियों आवश्यक हैं, आंतर सत्ताका बाहर सामनेकी ओर आना और आंतर आत्मा तथा प्रकृतिसे सज्ञान होनेके लिये चेतनाका अन्दर जाना । पर अन्तर्मुखी गति तो और भी बहुतसे अनुभवोंके लिये आवश्यक है । कारण, बाह्य चेतना अन्त पुरुषको प्रकट करनेकी बहुत ही कम चेष्टा करती है, अन्तर्गति का फल यह होता हैं कि हम बाह्य इन्द्रिय-चेतना और अन्त पुरुषके बीचकी दीवार तोडकर या कम- से-कम उसमें एक द्वार खोलकर भीतर घुस सकते हैं और फिर आगे चलकर हम संभावना

 

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और अनुभूतिके तथा नए अस्तित्व एवं नए जीवनके अशेष अनन्त ऐश्वर्योंका सचेतन ज्ञान प्रान्त कर सकते हैं । वे ऐश्वर्य आज इस क्षुद्र, अत्यध एव सीमित स्थूल व्यक्तित्वके पर्देके पीछे अवरुद्ध पड़े हैं जिसे हम भ्रांतिवश अपना सर्वस्व समझते हैं । अंदर डुबकी लगाने और इस अन्तर्लोकसे जागरित अवस्थाकी ओर लौटनेके बीचके कालमें इसी गभीरतर, समग्रतर एवं समृद्धतर चेतनाका प्रारंभ और सतत विस्तार साधित होता

 

         साधकको समझ लेना होगा कि ये अनुभूतियां केवल कल्पनाएं या स्वत्व नही बल्कि यथार्थ घटनाएं हैं । क्योंकि जब कभी ये केवल गलत या भ्रामक या विरोधी ढंगकी रचनाएं होती हैं -- जैसा कि बहुधा होता है - तब भी रचनाओंके तीरपर इनकी अपनी विशेष शक्ति होती है और इन्हें समझ लेनेपर ही इनका निराकरण या विनाश किया जा सकता है । प्रत्येक आंतर अनुभव अपने हीं ढंगसे पूर्णतया वास्तविक होता है,--यद्यपि विभिन्न अनुभवोंके मूल्य अतीव भिन्न भिन्न होते है,--किंतु अन्त- रात्मा और आंतर स्तरोंके सत्यसे युक्त होनेक कारण वे वास्तविक होते हैं । यह समझना गलत है कि हम केवल शारीरिक तीरपर, बाह्य मन और प्राणके द्वारा ही, जीते हैं । चेतनाके अन्य स्तरोपर भी हम हर समय जी रहे और कार्य कर रहे हैं, वहां दूसरोंसे मिल रहे और उनपर प्रभाव डाल रहे हैं । वहां हम जो कार्य, अनुभव एवं विचार करते हैं, जो जो सामर्थ्य संचित करते तथा जो जो परिणाम तैयार करते हैं उनका हमारे बाह्य जीवनपर, हमारे बिना जाने ही, अपरिमेय प्रभाव एवं फल होता है । वह सारे- का सारा बाहर प्रकट नही होता । जो कुछ प्रकट होता भी हैं वह स्थूल सत्तामें अन्य रूप ग्रहण कर लेता है - यद्यपि कभी कभी पूर्ण सारूप्य होता है । किंतु यह स्वल्पांश भी हमारी बाह्य सत्ताका आधार होता है । भौतिक जीवनमें हम जो कुछ भी बनते, करते और भोगते हैं वह सब हुमारे भीतर पर्देके पीछे तैयार होता है । अतएव जीवनके रूपांतरको लक्ष्य माननेवाले योगके लिये यह अत्यत आवश्यक है कि वह इन स्तरोंके भीतर होनेवाली प्रत्येक घटनासे सचेतन हों, इनका स्वामी बने और उन गुह्य शक्तियोंको अनुभव करने, जानने तथा उनसे बरतनेके योग्य बने जो हमारा भविष्य और आंतर एवं बाह्य विकास या हास निर्धारित करती हैं ।

 

       यह अंतर्मुख गति भगवन्मिलनके अभिलाषियोंके लिये भी इतनी ही आवश्यक है क्योंकि ऐसे मिलनेके बिना उनका रूपांतरका ध्येय सिद्ध नही हो सकता । यदि तुम अपनी बाह्य आत्मासे बद्ध और स्थूल मन तथा उसकी तुच्छ चेष्टाओंमें ग्रस्त रहोगे तो तुम्हारी अभीप्सा फलवती नहीं हो पायेगी । बाह्य सत्ता आध्यात्मिक संवेगका स्रोत कदापि नहीं होती, वह तो केवल पर्देके पीछेसे प्राप्त आंतर प्रेरणाकी अनुगामिनी होती है । तुम्हारे अन्दर जो भक्त है, मिलन और आनन्दका अन्वेषक है, वह तो तुम्हारा आंतर हत्युरुष ही है । स्वयं अकेली बाह्य प्रकृतिके लिये जो असंभव है वह भी तब पूर्णतः संभव हो जाता है जब आवरण दूर होकर अन्तरात्मा सामने आ जाती है । क्योंकि ज्यों हीं यह दृढ़तापूर्वक आगे आ जाती है अथवा चेतनाको प्रबलतासे अपने अन्दर खींचती है त्यों ही शांति, हर्षातिरेक, स्वातैम्य एवं विशालताका उदय तथा प्रकाश

 

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और उच्चतर ज्ञानके प्रति उद्घाटन सहज-स्वाभाविक रूपसे और प्रायः तुरन्त ही होने लगता है ।

 

       एक बार किसी न किसी गतिसे आवरण दूर होते ही तुम्हें अनुभव होने लगता कि योगके लिये आवश्यक सभी प्रक्यिांएं और गतियां तुम्हारी पहुँचके भीतर हैं और वे वैसी कठिन या असंभव नहीं जैसी वे बाह्य मनको प्रतीत होती हैं । तुम्हारे अन्तरतम हृत्युरुषमें योगी एव भक्त पहलेसे ही विद्यमान है और यदि वह पूर्ण रूपेण प्रकट होकर नेतृत्व ग्रहण कर सके तो, तुम्हारे बाह्य जीवनका आध्यात्मिक परिवर्तन अनिवार्य एवं अटल हों जाता है । जो साधक प्रारंभमें ही सफलता लाभ करता है उसका यौगिक एवं आध्यात्मिक गभीर अन्तर्जीवन पहलेसे हीं अन्तरात्मा द्वारा गठित हुआ रहता है । वह केवल किसी ऐसी प्रबल बाह्य प्रकृतिके कारण हीं ढका होता है जिसकी ओर हमारा चितनात्मक मन और हमारे निम्रतर प्राणमय भाग शिक्षा तथा अतीत कर्मोंके द्वारा झुक जाते हैं । इस बहिर्मुख झुकावको ठीक करने और आवरण हटानेके लिये ही तो व्यक्तिको योगाभ्यास करनेकी आवश्यकता होती है । एक बार जब अन्तःपुरुष चाहे अन्दर जाने या बाहर आनेकी गतिसे प्रबलतापूर्वक व्यक्त हों जायगा तो वह अपने बालकों पुनः प्रतिष्ठित करके अपने पथको प्रशस्त कर लेगा और अन्तमें अपना राज्य अधिगत करके रहेगा । इस प्रकारका उपक्रम उस चीजका चिह्न है जो बादमें बहुत बड़े पैमाने- पर होनेवाली है ।

 

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       पहले पहल चैत्य सत्ताको पहचानना संभव नही होता । हमें करना यह चाहिये कि हम आंतरिक सत्ताके प्रति सचेतन बने जो बाह्य व्यक्तित्व और प्रकृतिसे भिन्न है अर्थात् एक ऐसी चेतना या पुरुष है जो शांत, स्थिर और प्रकृतिकी बाह्य क्रियाओंसे अलिप्त रहता है ।

 

       तुमने जिन अनुभूतियोंका वर्णन किया है वे चैत्य-भौतिक हैं । इनमेंसे एकमात्र महत्वपूर्ण अनुभूति है (चैतन्य) धाराका ऊपरकी ओर जाना जो मस्तकमें स्थित मान- सिक केन्द्र ( आंतरिक मन, संकल्प, दृष्टि) एवं ऊर्ध्वके उच्चतर केन्द्रको जोड़नेवाले मार्गके निर्माणके प्रयासका प्रारंभ है।

 

        केवल एक अटल साधनाके द्वारा ही व्यक्ति क्रमश: बाधाओंसे मुक्त हों सकता है । अंधकार और प्रकाशकी अवस्थाओंका बारी बारीसे आना स्वाभाविक और अनिवार्य

 

        तुम्हारी अनुभूतिमें प्रकाश शक्तिकी क्यिाका द्योतक है (संभवत: नीली आभा- वाला प्रकाश आध्यात्मिक मानस-शक्तिका निर्देश करता है) -शेष ऊच्चतर आध्या- त्मिक केन्द्र (सहस्रदल) को खोलनेकी क्रिया थी ।

 

*

 

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        यह बल्कि दुःखकी बात है कि भय भीतर घुस आया और उसने अंतर्मुखी क्रियाको नष्ट कर दिया - क्योंकि यह अतर्मुखी क्रिया साधनाके लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । तुम्हारे अन्दर चैत्य चेतनाका अधिक बार और अधिक संपूर्णताके साथ आना तथा सामान्य चेतनाका स्थान ग्रहण करना अबतक प्रगतिका सबसे अधिक आशाप्रद चिह्न रहा है -- किंतु अंतर्मुखी गतिकी यदि स्थापना हों जाय तो वह एक और भी बड़ी चीज होंगी; क्योंकि उसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि अन्दर अंतरात्मा मुक्त हों जायगा और आंतरिक सत्तामें तुम्हें एक आधार प्राप्त हों जायगा जिसमें कि तुम बाह्य चेतनाके किसी भी उतार-चढावको उसके अधीन हुए बिना देख सको और वह तुम्हारी आंतरिक स्थिति और स्वतंत्रतामें कोई हस्तक्षेप न करे । किंतु यह निश्चित है कि वह गति वापस आयेगी और अपने-आपको चरितार्थ करेगी । यह बहुत अच्छा है कि तुम्हारी पुकारपर सहायता आती है और तुम बंधनसे निकल जाते हों - यह चैत्य विकासका दूसरा चिह्न है ।

 

*

 

            तुम जो कहते हो वह तुम्हारे अन्दरकी वस्तु नही थी, किन्तु प्राण प्रकृतिकी वस्तु- ओंका प्रतीक थी । बिच्छू और साधारणतया सांप भी अनिष्टकारी शक्तियोंके प्रतीक है; पार्थिव प्राण-प्रकृति इन शक्तियोंसे भरी हुई है और इसीलिये मानवकी बाह्य प्रकृति- का शोधन भी इतना कठिन है और उसमें इतनी अधिक गलत क्रियाएं और घटनाएं होती है,--क्योंकि उसका प्राण इन सब पार्थिव गतियोंके प्रति सरलतासे खुल जाता है । इनसे मुक्त होनेके लिये, आंतरिक सत्ताको जाग्रत और विकसित होना होगा और बाह्य प्रकृतिके स्थानपर उसे अपनी प्रकृतिकों स्थापित करना होगा । कभी कभी सांप केवल शक्तियोंके द्योतक भी हों सकते हैं जो हानिकर नहीं होतीं; पर बहुधा इससे उलटा ही होता है । दूसरी ओर, जो मोर तुमने देखे वे विजयकी शक्तियां थे अर्थात् वे अंधकारकी शक्तियोंके ऊपर प्रकाशकी शक्तियोंकी विजयके प्रतीक थे ।

 

तुमने जो बाह्य सत्ताके विषयमें कहा है वह सही हे, उसे बदलना होगा और आंतरिक प्रकृतिकी वस्तुको प्रकट होना होगा । किंतु इसके लिये व्यक्तिको आंतरिक प्रकृतिके अनुभव होने चाहिये और इनके द्वारा आंतर प्रकृतिकी शक्ति तबतक बढ्ती जाती है जबतक वह बाह्य सत्ताको पूरी तरह प्रभावित करके अपने अधिकारमें न ले लें । इस आंतरिक चेतनाको विकसित किये बिना बाह्य चेतनाको पूरी तरहसे बदलना बहुत कठिन होगा । इसीलिये ये आंतरिक अनुभव आंतरिक चेतनाके विकासको तैयार करनेके लिये हों रहे है । हमारे अन्दर एक आंतर मन, आंतर प्राण और आंतर- भौतिक-चेतना है जो बाह्य चेतनाकी अपेक्षा अधिक आसानीसे ऊपरकी ऊच्चतर चेतनाको ग्रहण कर सकती है एवं चैत्य पुरुषके साथ अपनेकी सुसमंजस बना सकती है; यह कार्य हों जानेके बाद बाहरी प्रकृति हमें ऊपरी सतहकी किनारी भर प्रतीत हाता है, न कि अपना शुद्ध स्वरूप और अधिक सरलतासे पूरी तरह रूपांतरित हों जाती

 

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है!

 

        तुम्हारी बाह्य प्रकृतिमे अभी जो भी कठिनाइयां, हों, उनके कारण इस तथ्यमें कोई फर्क नही आता कि तुम्हारा अन्तर जाग गया है, श्रीमांकि शक्ति तुम्हारे अन्दर कार्य कर रही है और तुम उनके सच्चे पुत्र हों और तुम्हारे भाग्यमें यह लिखा है कि तुम पूरी तरह उनके पुत्र बन जाओगे । अपनी श्रद्धा और अपने विचारकों पूरी तरह उनपर एकाग्र करो और तुम सब कठिनाइयोंमेंसे सुरक्षित रूपसे पार हो जाओगे ।

 

*

 

            रूपांतर सतह पर ही हुआ है । व्यक्ति गहराइयोंमें जो कुछ पाता है उसे लेकर वह सतहको बदलनेके लिये ऊपर आता है । संभव है कि तुम्हें फिर अन्दर जानेकी जरूरत पड़े और तेजीसे लौटनेकी क्रियामें कठिनाई अनुभव हो । जब समग्र कात नमनीय हों जाती है तब तुम किसी भी आवश्यक गतिको अधिक तेजीसे करनेमें समर्थ होंगे ।

 

*

 

          निःसंदेह चेतनाकी एक स्थितिसे दूसरी स्थितिमें संक्रमण करनेमें समय लगता है । ज्यों-ज्यों तुम्हारी चेतना अपने ऊपर बाह्य वस्तुओंके दावेसे हाथ खिचती जायेगी और हृदय प्रदेशमें अधिक गहरे भीतर जायगी तथा प्रकाश एवं प्रेरणाके लिये चैत्यको सामने रखकर वहीसे सब कुछ देखने और अनुभव करने लगेगी त्यों त्यों अनुभवमें अधि- काधिक गहराई आती जायगी । इस क्रियाके साथ श्रद्धा भी बढ़ेगी - क्योंकि केवल बाह्य बुद्धि ही श्रद्धाके संबंधमें दुर्बल या अघूरी होती है, हृदयस्थ अंत:सत्तामे श्रद्धा सदा विद्यमान होती है ।

 

        तुमने अपने पत्रमें जो लिखा है बह विचारने और समझनेका सही तरीका है । मनकी मनमानी जो वस्तुओंको भगवान्के ढंगसे नही किंतु अपने ढगसे होते देखना चाहती थी, एक बड़ी बाधा श्री । उसके हट जानेपर रास्ता कम ऊबड-खाबड़ और कम कठिन हों जाना चाहिये ।

 

       बाह्य सत्तामें श्रद्धा, भगवान्के प्रति निष्ठा, आदरभाव, प्रेम, पूजाभाव, भक्ति और आराधना बढ़ सकती है, ये अपने आपमें बंडी बातें हैं,-यद्यपि ये चीजों भी वस्तुत: अन्दरसे आती है,--किन्तु साक्षात्कार तो केवल तभी होता है जब आंतरिक सत्ता अगोचर वस्तुओंके विषयमें अपने अन्तर्दर्शन और अनुभवके साथ जाग्रत होती है । तब तक, व्यक्ति भगवान्की सहायताके परिणामोंका अनुभव कर सकता है, और श्रद्धा

 

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होनेपर समझ सकता है कि यह सब भगवानका काम है, किन्तु मनुष्य केवल तभी कार्य करती हुई शक्तिको, भगवान्के सामीप्यको, उसके प्रत्यक्ष अन्त: संपर्कको स्पष्ट- रूपसे अनुभव कर सकता है ।

 

*

 

           निश्चल-नीरवताका अर्थ अनुभवोंका अभाव नही है । आंतरिक नीरवता और प्रशांतिमें ही सब कुछ अनुभव बिना किसी विक्षोभको उत्पन्न किये हों सकते हैं । तुम्हारे अन्दर जो प्रतिमूर्ततिया उठ रही हैं उनमें हस्तक्षेप करना बड़ी भूल होगी । वे मानसिक है या चैत्य इसका कोई महत्व नही । मनुष्यको केवल सच्चे चैत्य लोकोंका हीं नहीं किन्तु चेतनाके आंतर-मानसिक, आंतर प्राणिक और सूक्ष्म भौतिक लोकों अथवा भूमिकाओंका भी अनुभव होना चाहिये । प्रतिमूर्तियोंको आविर्भूत होना इस बातका सूचक है कि ये चीज़ें खुल रही हैं और उनके निरोधका अर्थ होगा चेतना और अनुभवके विस्तारको रोकना, जिनके बिना योग-साधना नही की जा सकती ।

 

*

 

          सब अनुभव निश्चल-नीरवताकी स्थितिमें ही आते है किन्तु प्रारंभमें सभी भीड़भाड़ करते हुए असंबद्ध रूपमें नहीं आते । पहले आंतर नीरवता और शांतिको प्रतिष्ठित करना होगा ।

 

*

 

         अपने अन्तिम (लम्बे) पत्रमें तुमने जिस कठिनाईका सकेत किया है वह इस बात- की सूचक है कि तुम आंतर सत्तामें प्रवेश करते हों और अनुभव प्राप्त करने लगते हो, परन्तु उन्हें व्यवस्थित करनेमें अथवा संबद्ध रूपमे समझनेमें तुम्हें कठिनाई होती है । यह कठिनाई इसलिये होती है कि आंतर मन अभी आंतरिक वस्तुओंपर कार्य करने और उन्हें देखनेके लिये पर्याप्त अभ्यस्त नहो हुआ है और इसलिये साधारण बाह्य मन बीचमें हस्तक्षेप करके उन्हें व्यवस्थित करनेकी चेष्टा करता है, परन्तु बाह्य नग आतरिक वस्तुओंके अर्थ समझनेमें असमर्थ है । जब बाह्य मनको बिलकुल बाहर छोड़ दिया जाता है तो अन्दरकी चीज़ें सजीव और स्पष्ट रूपसे दिखाई देने लगती है; परन्तु आंतरिक मनके सक्रिय न होनेपर, या तो उनकी संबद्धता दिखाई नही देती या चेतना निम्रतर प्राणकी भूमिकाके अव्यवस्थित अनुभवोंमें लटकती रहती है और उन्हें पार कर अधिक गहरे, अधिक संबद्ध और महत्वपूर्ण अनुभवोंतक नही पहुँच पाती । एक आंतरिक चेतनाके विकासकी आवश्यकता है -- उसके विकसित होनेपर सब बातें अधिक स्पष्ट और संबद्ध हों जायेंगी । यह विकास तब होगा जब तुम बिना विक्षुब्ध

 

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हुए शांत भावसे अभीप्सा करोगे आर आवश्यक क्यिा करनेके लिये श्रीमांकि शक्तिका आवाहन करते रहोगे ।

 

*

 

          तुम्हारी पुकार सदा ही श्रीमांके पास पहुँचेगी । यदि तुम शांत और आश्वस्त रहो तो तुम्हें समय आनेपर उत्तर भी मालूम हो जायगा । मन जितना अधिक अचंचल होगा यह बात तुम्हारे सामने उतनी ही अधिक स्पष्ट होती जायगी और तुम श्रीमांके कार्यको अनुभव करने लगोगे । समय समयपर तुम अपने अनुभवोंके विषयमें लिख सकते हों, जहां भी, आवश्यकता होगी, मैं उत्तर दूँगा ।

 

*

 

          संपर्कका आशय यही है और इसी प्रकार यह स्थापित होता है ।

 

       जहांतक इस बातका संबंध है कि यह सदा नही प्राप्त होता, इसका कारण यह है कि सत्ताके ऐसे अनेक भाग है जो अभी तक अचेतन हैं अथवा यह कि शायद अचेतनाकी अवस्थाएं बीचमें आ जाती है । उदाहरणके लिये, लोग एक दूसरेको पत्र लिखते हैं, परंतु वे इसके विषयमें बिलकुल अचेतन होते हैं कि ऐसा करते हुए वे परस्पर शक्तियोंका आदान-प्रदान कर रहे हैं । तुम इस संबंधमें इसलिये सचेतन हों गये हो कि योगके द्वारा तुम्हारी आंतरिक चेतता विकसित हों चुकी है - और. फिर भी ऐसे समय आ सकते हैं जब कि तुम केवल बाह्य ज्ञानके द्वारा ही लिखते हो, और तब तुम केवल शब्दों- के पीछे रहनेवाले अर्थको जाने बिना महज शब्दोंको हीं देखते हो । सों, आंतरिक चेतनाके विकासके परिणामस्वरूप तुम यह समझनेमें समर्थ होते हों कि संपर्क क्यों चीज है और सच्चे संपर्कको प्राप्त कर सकते हो । पर कभी कभी जब बाह्य चेतना आंतरिक चेतनाकी अपेक्षा अधिक बलवान् होती है, तब फिर तुम (तत्काल) संपर्क प्राप्त करनेमें समर्थ नही रह जाते ।

 

*

 

           यह बात नहीं कि तुमसे कोई वस्तु ले ली गई है किन्तु जैसे कि तुमने अन्तमें कहा है कि तुम्हें अपनी सत्ता दो भागोंमें बंटी दिखाई दी है । यह ऐसी वस्तु है जो साधना- की प्रगतिके साथ साथ होती है और होनी ही चाहिये जिससे व्यक्तिको अपने स्वरूप और सच्ची चेतनाका पूरी तरह ज्ञान हो सके । ये दो भाग हैं आंतरिक सत्ता और बाह्य सत्ता । बाह्य सत्ता ( मन, प्राण और शरीर) अचंचल रहनेमें समर्थ हो गई है और यह ध्यानमें ऐसी मुक्त, सुखमय, शून्य अचंचलावमें प्रवेश कर जाती है जो सच्ची चेतनाकी ओर पहला कदम है । आंतरिक सत्ता ( आंतरमन, प्राण, शरीर) खो नहीं

 

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गई है पर अन्दर चली गई है बाह्ररका भाग नही जानता कि कहां - किन्तु बहुत संभव है कि वह अन्दर जाकर चैत्यके साथ एक हो गई है । केवल एक वस्तु संभवत: चली गई प्रतीत होती है वह है पुरानी प्रकृतिकी आदतें जो इस अनुभवके मार्गमें बाधक थी ।

 

*

 

       एक आंतरिक सत्ता है और एक अंतरतम सत्ता जिसे हम चैत्य कहते हैं । जब हम ध्यान करते हैं तो हम आंतरिक सत्ताके अन्दर जानेकी चेष्टा करते हैं । ऐसा करने- पर हम भली भांति अनुभव करते हैं कि हम अन्दर चले गये हैं । ध्यानमें हम जिस वस्तुका साक्षात्कार कर सकते हैं वह एक ऐसी सामान्य चेतना भी बन सकती हे जिसमें हम निवास करते है । तब मनुष्यको वर्तमान सामान्य चेतना एक बिलकुल बाह्य और उपरि सतहकी वस्तु लगती है न कि अपना वास्तविक आत्मा ।

 

*

 

         तुम जो नवजीवनका अनुभव करते हो उसका कारण है तुम्हारे भीतर अन्त. । सत्ताका विकास; आंतरिक सत्ता ही सच्ची सत्ता है और उसके विकासके साथ साथ समग्र चेतना बदलने लगती हैं । यह अनुभव और लोंगोंके प्रति तुम्हारी नई वृत्ति, इस परिवर्तनके चिह्न है । आंतरिक वस्तुओंका दर्शन भी साधारणतया आंतरिक- सत्ता और चेतनाके इस विकासके साथ ही आता है, यही आंतरिक-दृष्टि अनेक साधकों- मे इस अवस्थाको प्राप्त करनेपर जागती है ।

 

         इस आंतरिक चेतनाका यह स्वभाव भी है कि जब यह सक्रिय होती है तब भी हमें कियाके पीछे रहनेवाली अथवा उसे धारण करनेवाली पूर्ण अचंचलता अथवा नीरवताका अनुभव होता है । मनुष्य जितना अधिक एकाग्रता करता है यह अचंचलता और नीरवता उतनी ही अधिक बढ्ती है । इसीलिये अन्दर सब तरहकी वस्तुओंके घटित होनेपर भी अन्तरमें सब कुछ शांत प्रतीत होता है ।

 

        यह भी बिलकुल सामान्य वस्तु है कि आंतर चेतनामें जो हो रहा है उसे इस समय अपनेको बाह्य भौतिक सत्तामें नही प्रकट करना चाहिये । यह पहले बाहर परिवर्तन उत्पन्न करती है किन्तु बाह्य उपकरणोंको बादमें ही अपने अधिकारमें लेती है ।

 

*

 

         यह बड़ा अच्छा लक्षण है कि जब विचार और विक्षुब्ध करनेवाली चेष्टा उत्पन्न होने लगती है तो आधारमें कोई वस्तु ऐसी होती है जो स्थिर और शांत रहती है - क्योंकि वह, अन्तरके अन्दरसे आनेवाले चैत्य उत्तरके समान यह बताती है कि आंतरि

 

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चेतना सत्ताके किसी अंगमें स्थिर हो गई है अथवा अपनेको स्थिर कर रही है । साधना- मे आंतरिक परिवर्तनकी यह सुपरिचित अवस्था है । बाह्य वस्तुओंपर आधार न रखनेवाले अन्दरसे उत्पन्न हुए स्वयंभू आनन्दका प्रकट होना भी उतना ही अच्छा है । यह तथ्य हैं कि यह आंतरिक प्रसन्नता और सुख कोई ऐसी चीज है जो एक साथ शांति और सुखसे परिपूर्ण हे -- यह प्राणके बाह्य आमोद-प्रमोद जैसी कोई उत्तेजना पूर्ण क्रिया नही है, यद्यपि यह ( आंतरिक प्रसन्नता एवं सुख) अधिक तीव्र और सघन हो सकता है । दूसरा अच्छा परिणाम है इस अनुभवका नष्ट हों जाना कि ' 'यह काम मेरा है' ' और बाह्य चेतना द्वारा इस कार्यको करनेवाली शक्ति आंतरिक सत्ताको काममें व्यस्त नही करती ।

 

     चैत्यपुरुषके आविर्भावके अथवा ऊर्ध्वस्थित आत्माकी उपलब्धिके साथ हमेशा ऐसा अनुभव होता ३ मानो जेलसे छुटकारा मिल गया हों । इसीलिये इसे मुक्ति नाम दिया गया है । यह शांतिमें, हर्षमे मुक्त होना है, यह अंतरात्माकी ऐसी मुक्ति है जो बाहरी अज्ञानमय जीवनके हज़ारों बन्धनो और दुश्चिन्ताओंसे बद्ध नही है ।

 

       तुमने अपने अन्तर्दर्शनमें जो मुख देखा था वह निःसंदेह माताजीका ही था पर अधिक संभव यह है कि वह उनके भौतिक नही पर अतिभौतिक आकारों और मुखोमेंसे कोई एक ही -- यह भी उस महान् ज्योतिके द्वारा सूचित होता है जिसने उस आकारमें- से उद्भूत होकर उसे अदृश्य बना दिया ।

 

*

 

       विचारका अभाव बिलकुल ठीक वस्तु है -- क्योंकि सच्ची आंतरिक चेतना ऐसी नीरव चेतना है जिसे वस्तुओंके विचारके द्वारा नही जानना पड़ता, पर जिसे भीतरसे ही सच्चा बोध, समझ और ज्ञान स्वयं स्फूर्त रूपमें हो जाता छए और जो उसके अनुसार बोलती या कार्य करती है । केवल बाह्य चेतनाको ही बाहरकी वस्तुओंपर आधार रखना और उनके विषयमें सोचना पड़ता हे क्योंकि उसे स्वयं सहज पथ-प्रदर्शन प्राप्त नहीं है । इस आंतर चेतनामें स्थिर हों जानेपर मनुष्य संकल्पके प्रयत्न द्वारा पुरानी क्रियाओंकी ओर वस्तुत. लौट सकता है, पर तब यह स्वाभाविक क्रिया नहीं रह जाती और, लम्बे समयतक जारी रखनेपर थकानेवाली बन जाती है । सपनोंकी बात दूसरी है । पुरानी राव अतीत वस्तुओंके विषयमें स्वप्न अवचेतनमेंसे उठते हैं जो पुराने संस्कारों और पुरानी चेष्टाओं और आदतोंको, जाग्रत चेतना द्वारा बहुत पहले छोड़ दिये जानेके बाद भी, अपने अन्दर बजिरूपमें धारण करता है । जाग्रत चेतना द्वारा छोड़ दिये जानेपर भी वे फिर स्वप्नोंमें उभर आते हैं; क्योंकि निद्रामें बाह्य भौतिक चेतना नीचे अवचेतनमें अथवा उसकी ओर चली जाती है और बहुतसे स्वप्न वहीसे ऊपर उठते हैं ।

 

       पूर्ण निश्चल-नीरवता वही है जिसमें सब अचंचल होता है और व्यक्ति साक्षीके रूपमें स्थित होता है जबकि चेतनामें कोई वस्तु सहज भावसे ऊच्चतर वस्तुओंक

 

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नीचे पुकार लाती हैं और वह तब प्राप्त होती है जब ऊच्चतर चेतनाकी पूर्ण शक्ति मन, प्राण और शरीरपर सक्रिय होतीं है ।

 

         अन्दरकी वस्तुएं सूक्ष्म दृष्टि द्वारा मूर्त्ति रूपमें अथवा उससे भी अधिक सूक्ष्म और शक्तिशाली दर्शनके तरीकेसे साररूपमें, बाह्य वस्तुओं जितनी ही स्पष्टतासे देखी जा सकती है; पर इन वस्तुओंको अपना पूर्ण बल और तीव्रता प्राप्त करनेके लिये विकसित होना होगा ।

 

II

 

           साधनाकी एक ऐसी अवस्था आती है जिसमें आंतरिक सत्ता जागने लगती है । इसके प्रथम परिणाम स्वरूप प्रायः जो अवस्था उत्पन्न होती है वह निम्रलिखित तत्वोंसे बनी होती है :

 

      1. एक प्रकारका साक्षी-भाव जिसमें आंतरिक चेतना सब घटनाओंको द्रष्टा या प्रेक्षकके रूपमें देखती है, वह वस्तुओंका निरीक्षण करती है पर उनमें सक्रिय रूपसे रुचि या आनन्द नही लेती ।

 

       2. उदासीन समताकी एक अवस्था जिसमें न मुख होता है न दुःख, होती है केवल एक अचंचलता ।

 

      3. जो कुछ हो रहा है उस सबसे पृथक् कोई ऐसी वस्तु होनेका बोध, जो उसका निरीक्षण करती है किन्तु उसका अंग नही होती ।

 

       4. वस्तुओं, लोगों, या घटनाओंके साथ आसक्तिका अभाव ।

 

         ऐसा प्रतीत होता है मानों यह अवस्था तुम्हारे अंदर आनेकी चेष्टा कर रही थी पर है यह भी अपूर्ण । उदाहरणके लिये, इस अवस्थामें ( 1) लोंगोंके साथ बातचीत करते समय किसी विरक्ति या अधीरता या क्रोधका नही, किन्तु केवल एक तटस्थता और आंतरिक शांति एवं नीरवताका भाव होना चाहिये । और ( 2) एकमात्र उदासीन अचंचल और तटस्थ वृत्ति ही नही किन्तु स्थिरता अनासक्ति और शांतिका दृढ भाव भी होना चाहिये । और फिर ( उ) इस अवस्थामें शरीरसे बाहर नहीं निकलना चाहिये जिससे ऐसा न हो कि तुम यह न जान पाओ कि क्या हो रहा है या तुम क्या कर रहे हों । उस समय ' 'मैं शरीर नही हूँ पर कोई अन्य वस्तु हूँ' ' यह भाव हों सकता है - यह ठीक भी है; किन्तु तुम्हारे अन्दर अथवा चारों ओर जो कुछ हों रहा है उस सबके विषयमें तुम्हें पूर्ण सचेतन भी रहना चाहिये ।

 

        इसके सिवाय, यह अवस्था पूर्ण हो जानेपर भी एक संक्रमणकी ही स्थिति होती है - इसका प्रयोजन स्वतन्त्रता और मुक्तिकी एक विशेष स्थितिको लाना है । परंतु उस शांतिमें भगवान्की उपस्थितिकी अनुभूतिका, तुम्हारे अन्दर होनेवाली श्रीमांकि शक्तिकी क्रियाका, हर्ष या आनन्दका बोध भी उत्पन्न होना चाहिये ।

 

        यदि तुम हृदयमें तथा सिरमें एकाग्रता कर सको तो ये वस्तुएं अधिक आसानीसे आ सकती हैं ।

 

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          सत्ताके विभक्त होनेका जो अनुभव तुम्हें हुआ है जिसमें सत्ता अन्दरसे खाली और उदासीन हो गई है - दुःखी नही पर तटस्थ और उदासीन -- वह एक ऐसा अनुभव है जिसमेंसे बहुतेरे लोग गुजरते हैं और जिसे संन्यासी लोग बहुत अधिक महत्व देते हैं । हमारे लिये तो यह अधिक विशाल और भावात्मक वस्तुके लिये एक मार्गमात्र है । इसमें पुराने तुच्छ मानव-भाव हट जाते हैं और एक प्रकारकी स्थिर उदासीन शून्यताका निर्माण किया जाता है जिससे उच्चतर प्रकृति अभिव्यक्त हो सके । इसे परिपूर्ण करके इसके स्थानपर एक ऐसी विशाल नीरवता और मुक्तिके भावको लाना होगा जिसमें श्रीमांकि चेतना ऊपरसे प्रवाहित हो सके ।

 

*

 

         वह अवस्था जिसमें सब व्यापार ऐसे उथले और शून्य हों जाते हैं कि उनका अन्तरात्माके साथ कोई संबंध नहीं रह जाता, एक ऐसी स्थिति है जो उपरि चेतनासे आंतरिक चेतनाकी ओर जाते हुए आती है । जब मनुष्य आंतरिक चेतनामें जाता है जों उसे उसका अनुभव एक स्थिर विशुद्ध सत्ताके रूपमें होता है जो गतिहीन परन्तु शाश्वत रूपसे प्रशांत और बाह्य प्रकृतिसे अविचल और पृथक् है । यह चेतना अपनेको क्रियाओंसे अनासक्त रखने और उनसे पृथक् रहनेके परिणाम स्वरूप प्राप्त होती है और यह साधनाकी बहुत महत्वपूर्ण क्रिया है । इसका पहला फल है पूर्ण अचंचलता परंतु बादमें जाकर वह अचंचलता (अपने आप बिना हटे) चैत्य एव अन्य ऐसी आत- रिक क्यिाओंसे परिपूर्ण होने लगती है जो बाह्य जीवन और प्रकृतिके पीछे सच्चे आत- रिक और आध्यात्मिक जीवनकी सृष्टि करती हैं । तब बाह्य जीवन और प्रकृतिको नियंत्रित करना और बदलना अधिक सरल हो जाता है ।

 

        इस समय तुम्हारी चेतनामें उतार-चढ़ाव आ रहे हैं क्योंकि यह आंतरिक अवस्था अभी पूरी तरह विकसित और प्रतिष्ठित नहीं हुई । ऐसा हों जानेपर भी बाह्य चेतना- मे उतार-चढ़ाव आते रहेंगे, परन्तु आंतर अचंचलता, शक्ति, प्रेम आदि उसमें सतत विद्यमान रहेंगे और आंतरिक सत्ता सतहपर होनेवाले उतार-चढावोंका स्वयं विचलित या विरुद्ध हुए बिना तबतक निरीक्षण करती रहेगी जबतक वे पूर्ण बाह्य परिवर्तन द्वारा हटा नही दिये जाते ।

 

          जहांतक 'क्ष' का प्रश्न है, उसके लिये यही सर्वोत्तम होगा कि वह इसे गुजर जाने दे और अन्दरसे स्थिर और अनासक्त रहे, व्यक्ति अपनेको सब संपर्कोंसे अलग नही रख सकता, उसे बस उनकी अभ्यस्त प्रतिक्रियाओंसे अधिकाधिक ऊंचे उठना होगा ।

 

*

 

            कामके समय होनेवाली अपनी स्थितिका जो तुमने वर्णन किया है उसका अर्थ यह है कि अन्तःसत्ता जाग्रत हो गई है और तुम्हारी चेतना अब दुहरी बन गई है । अंत:-

 

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सत्तामें ऐसा आंतरिक सुख, स्थिरता, शांति और ऐसी नीरवता होती है जिसमें विचारों- की कोई लहर नही होती, केवल अन्दर हीं अन्दर मौन नाम-जप ( अजपा-जप) चलता रहता है । इस स्थितिमें 'मन्त्र' का जप स्वतः होता रहता है - मंत्रके विषयमें ऐसा ही होना चाहिये कि यह एक ऐसी सचेतन किंतु सहज वस्तु बन जाय जो स्वयं चेतनाके मूलतत्वमें अपनेको दुहराता रहे और जिसमें मानसिक आयासकी ओर अधिक जरूरत न रहे । मनके ये सारे सदेह. तथा प्रश्न निरर्थक हैं । होना यह चाहिये कि यह आंतरिक चेतना वहां सदैव बनी रहे और किसी विक्षोभ द्वारा विक्षुब्ध न हों जाय तथा सतत नीरवता, आंतरिक सुख और शांति इत्यादिको कायम रखे, जब कि बाह्य चेतना उसके द्वारा कर्म इत्यादिके लिये आवश्यक या अधिक श्रेष्ठ वस्तु करवाये -- तुम्हें कुछ दिनों तक यह पिछला अन्उभव हुआ, मानों कोई तुमसे अविराम शक्तिके साथ कार्य करवाता रहा और तुम्हें जरा भी थकानका अनुभव नही हुआ ।

 

         यदि तुम यह अनुभव करते हों कि तुम अधिक शांत हों गये हो और समर्पणका भाव अधिक सघन हो गया है तो यह बुरी नही बल्कि एक अच्छी स्थिति है और यदि' इसके द्वारा मन प्रकाशकों ग्रहण करनेवाला एक शून्य कक्ष बन जाय तो और भी अधिक अच्छा । अनुभव ओर अवतरण तैयारीके लिये बहुत अच्छे हैं, परन्तु आवश्यक चीज है चेतनाका परिवर्तन -- यह इस बातका प्रमाण है कि अनुभवों और अवतरणोंका कोई प्रभाव हुआ है । शांतिके अवतरण भी अच्छी चीजे हैं, किन्तु मनकी निरन्तर बढ्ती हुई स्थिर शांति और नीरवता ओर भी अधिक मूल्यवान है । एकबार उनके आधारमें आ जानेपर दूसरी चीजे आ सकती हैं -- साधारणतया एक समयमें एक हीं, प्रकाश या बल और शक्ति या ज्ञान अथवा आनन्द । हमेशा तैयारीकी इन्ही अनुभूतियोंको प्राप्त करते रहना आवश्यक नही है - एक समय ऐसा आता है जब कि चेतना एक नया संतुलन और दूसरी स्थितिको ग्रहण करना प्रारंभ करती है ।

 

*

 

           इसका एकमात्र कारण यह है कि तुम प्राण और मनकी प्रवृत्तियों और संबंधोंमें पूरी तरह उलझे हुए हों । मनुष्यको, पहले पहल यदि सारे समय नही तो जब भी चाहे तब, मन और प्राणको अचंचल बनानेकी शक्ति प्राप्त करनी होगी -- क्योंकि मन और प्राण ही चैत्य सत्ता एवं आत्माको ढक देते हैं और इनमेंसे किसी एक तक पहुँचनेके लिये मनुष्यको उनपर ढेक आवरणमें होकर प्रवेश करना होगा, परन्तु यदि मन और प्राण हमेशा सक्रिय बने रहें और तुम उनकी क्रियाओंके साथ सदा एक बने रहो तो आवरण हमेशा बना रहेगा, यह भी संभव है कि अपनेको इन प्रवृत्तियोंमें अलग कर इन्हें इस रूपमें देखो मानों वे तुम्हारी अपनी क्रिया नहीं पर प्रकृतिकी वह यांत्रिक क्रिया है जिसे तुम एक तटस्थ साक्षीके रूपमें देखते हो । तब व्यक्ति एक ऐसी आंतरिक सत्ताके विषयमें सचेतन हों सकता है जो पृथक्, स्थिर और प्रकृतिमें आसक्त नही होती । यह आंतरिक मनोमय या प्राणमय पुरुष हो सकता है न कि चैत्य-पुरुष, किंतु आंतरि

 

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मनोमय और प्राणमय पुरुषकी चेतनाको प्राप्त करना सदा हीं चैत्य सत्ताके अनावरण- की ओर बढ़नेका एक कदम होता है ।

 

      हां, वाणीका पूर्ण संयम प्राप्त करना अधिक अच्छा होगा - भीतर जानेके लिये और सच्ची आंतरिक एवं यौगिक चेतनाके विकासके लिये यह एक महत्वपूर्ण कदम है ।

 

*

 

       आंतरिक सत्ता आंतर मन, आंतर प्राण और आंतर शरीरको बनी है, चैत्य अन्तर्तम सत्ता है जो अन्य सबको सहारा दती हे । साधारणतया यह पार्थक्य पहले पहल आंतरिक मनमें ही होता है और आंतरिक मनोमय पुरुष प्रकृतिकों अपनेसे पृथक् रूपमें देखते हुए निश्चल नीरव बना रहता है पर यह आंतर प्राण पुरुष आंतरिक अन्नमय पुरुष भी हों सकता है अथवा यह किसी नियत स्थानसे रहित केवल समग्र पुरुषचेतना भी हों सकती है जो संपूर्ण प्रकृतिसे पृथक् होती है । कभी कभी इसका अनुभव सिरके ऊपर होता है पर तब इसे साधारणतया आत्मा कहा जाता हे और उससे होनेवाला साक्षात्कार नीरव आत्माका साक्षात्कार होता है ।

 

*

 

     तुम जिस चेतनाके विषयमें कहते हों गीतामें उसे साक्षी पुरुष कहा गया हैं । पुरुष या मूल चेतना ही सच्ची सत्ता है या कमसे कम, किसी भी भूमिकामे प्रकट होने- पर वह उसका प्रतिनिधित्व करती है । पर मनुष्यकी सामान्य प्रकृतिमे वह अहंकारसे और प्रकृतिकी अज्ञानमयी क्रीडासे ढकी होती हैं और अज्ञानकी क्रीडाको सहारा देंने वाले अगोचर साक्षीके रूपमें पीछेकी ओर छिपी रहती है । जब यह चेतना प्रकट होती है तो तुम इसे पृष्ठ भागोंमें स्थित एक स्थिर और केंद्रीय चेतनाके रूपमें अनुभव करते हों, यह बाहरी क्रीडासे एकाकार नहीं होती जो क्रीड़ा स्वयं इसपर निर्भर करती है वह ऊपरसे ढकी हों सकती है, पर सदा वहां होती अवश्य है । पुरुषका बाहर प्रकट होना मुक्तिका श्रीगणेश है । पर यह धीरे-धीरे महेश्वर भी हों सकता है - धीरे धीरे क्योंकि अहंकारका पूराका पूरा स्वभाव और निम्नतर शक्तियोंकी क्रीड़ा इसकें विरोधमें खड़ी होती है । फिर भी वह आदेश दे सकता है कि किस उच्चतर क्रीडाको इस निम्रतर गतिका स्थान लेना है और उसके बाद यह परिवर्तनकी प्रक्रिया होती है और उच्चतर क्रिया आ जाती है, निम्रतर क्रिया बने रहने और उच्चतर क्रियाको धकेल देनेके लिये संघर्ष करती रहती है । तुम ठीक ही कहते हों कि भगवान्के प्रति आत्मदान इस सारी प्रकियाको सक्षिप्त कर देता है और अधिक प्रभावशाली होता है, किन्तु सामान्यतया इसे पुरानी आदतके कारण एक बारगी पूरी तरह संपन्न नहीं किया जा सकता और दोनों हीं पद्धतियां तबतक साथ साथ चलती रहती है जबतक पूर्ण

 

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समर्पण संभवन हो जाये ।

 

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         पुरुष अपने आपमें निर्व्यक्तिक है, पर प्रकृतिकी क्रियाओंके साथ अपनेको मिश्रित करके वह अपने लिये अहं और व्यक्तित्वकी एक परत चढ़ा लेता है । जब वह अपनी पृथक् प्रकृतिमें प्रकट होता है तब अनासक्त और साक्षी पुरुषके रूपमें दृष्टिगोचर होता

 

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         साक्षी सत्ता सर्वदा बिन्दु रूपमे ही नही रहती । यह एक ऐसी विस्तृत वस्तुका रूप ले लेती है जो शेष सारी गताको सहारा देती रहती है।

 

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         भीतर साक्षी चेतनाका भाव -- मैं यह नही समझता कि इसमें बाह्य चेतनाका बहिष्कार अनिवार्य रूपसे निहित है ही, यद्यपि व्यक्ति यह भी कर सकता है -- प्रगति- मे एक बहुत आवश्यक स्थिति है । यह भाव सामान्य प्रकृतिकी क्रियाओंमें उलझे बिना निम्र प्रकृतिसे मुक्त होनेमें सहायता देता है; यह अन्दर पूर्ण स्थिरता और शांतिकी स्थापनामें मदद करता है, क्योंकि उस अवस्थामें सत्ताका एक ऐसा अंश होता है जो अनासक्त रहता है और सतहकी हलचलोंको बिना विक्षुब्ध हुए देखता है, यह उच्च- चेतनाकी ओर आरोहणमें और उच्चतर चेतनाके अवतरणमें भी सहायता देता है, क्योंकि इस स्थिर, अनासक्त और मुक्त हुई आंतरिक सत्ताके द्वारा हीं आरोहण और अवरोहणकी क्रिया आसानीसे की जा सकती है । और साथ हीं, अन्य लोगोंमें हो रही प्रकृतिकी क्रियाओंपर वही साक्षी दृष्टि बनाये रखना, इन क्रियाओंको देखना, समझना पर उनसे किसी भी प्रकार विचलित न होना, सत्ताको मुक्त करने और विश्वमय बनानेकी दिशामें बहुत भारी सहायता है । संभवत: इसलिये मैं साधकमें इस कियाके होनेके विषयमें आपत्ति नहीं कर सकता ।

 

        समर्पणकी बात यह है कि वह साक्षी भावके साथ असंगत नहीं है । इसके विपरीत सामान्य प्रकृतिसे मुक्त करके यह भाव उच्चतर या दिव्य शक्तिके प्रति समर्पणको अधिक सरल बना देता है । बहुधा जब व्यक्तिने इस साक्षी भावको न अपनाया हों, किन्तु अपने अन्दर कार्य करनेके लिये शक्तिके आवाहनमें सफल हुआ हो तो शक्ति उसके अन्दर सर्वप्रथम जो कार्य करती है वह है साक्षी भावको स्थापित करना जिससे वह निम्रतर प्रकृतिकी क्रियाओंके अपेक्षाकृत कम हस्तक्षेप या मिलावटके साथ अपना कार्य कर सके ।

 

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        अब दूसरोंके साथ संपर्कसे बचनेका प्रश्न बाकी रहता है और उसमें थोडी कठि- नाई या अनिश्चितता है । तुम्हारी प्रकृतिके एक अंगमें अन्य लोगोंसे संबंध बांधने, दूसरोंपर कार्य करने और उनके साथ आदान प्रदान करनेकी ओर तीव्र झुकाव है, यहांतक कि यह आवश्यकता तुम्हें लगभग अनिवार्य लगती है । यह वस्तु आंतरिक एकलताकी ओर अभिमुख होने और संपर्क एवं कार्यकी दिशामें मुड़नेके बीचमें एक डांवांडोल स्थिति उत्पन्न करती है, यहां 'क्ष' के समान अन्य साधकोंमें भी वही दुहरी और उतारचढाववाली क्रिया देखनेमें आती है । ऐसे व्यक्तियोंमें मैं साधारणत: दोनोंमेंसे किसी एक प्रवृत्तिपर ही भार नही देता पर चेतनाको अपना संतुलन खोज लेने- के लिये छोड़ देता हूँ क्योंकि मैंने देखा है कि प्रकृतिके प्रधानत: चिन्तनशील न होनेपर एकातसेवनकी वृत्तिपर बहुत अधिक भार देना भलीभाँति सफल नही होता - निश्चय ही, यह बात तभीतक सत्य है जबतक साधक स्वयं उस प्रकारका दृढ और अटल निश्चय नही कर लेता । तुमने जो अनुभव किया उसका कारण यही हो सकता है । किन्तु साक्षीभाव और समर्पणके बीच कोई प्रश्न नहीं उठता, इसका कारण मैंने स्पष्ट कर दिया है - इनमेंसे एक भाव दूसरेकी भली प्रकार सहायता कर सकता है अथवा उसकी दिशामें प्रेरित कर सकता है क्योंकि हमारा योग ऐसा है जो इन दोनों वस्तुओंको साथमें जोड़े रहता हे और उन्हें सदा ही अलग अलग नहीं रखता ।

 

*

 

         उच्चतर चेतनासे अन्य वस्तुओंकी भांति निश्चल नीरवता भी सबसे पहले आंतरिक सत्तामें ही उतरती है । व्यक्ति स्थिर, नीरव, प्रकृतिकी क्रियाओंसे अछूती, ज्ञान और प्रकाशसे परिपूर्ण इस आंतर सत्ताके विषयमें सचेतन हो सकता है और उसके साथ ही दूसरी अल्पतर सत्ताके अर्थात् उपरितलके उस लघु व्यक्तित्वके विषयमें भी जो प्रकृतिकी क्रियाओंसे बना है अथवा उनके अधिकारमें है या अधिकारमें न होनेपर भी उनके आक्रमणके प्रति खुला है । यह एक ऐसी अवस्था है जिसका अनगिनत साधकों और योगियोंने अनुभव किया है । आंतर सत्ताका अर्थ है चैत्य आंतर मन, आंतर प्राण और आंतर शरीर । वर्तमान अवस्थामें इनमेंसे किसीका भी स्पर्श तक नही प्राप्त हो सकता, इसलिये इसमें शोधनकी क्रिया अनिवार्य रही है । यह आवश्यक नहीं कि सब लोग इन दो चेतनाओंके विभाजनका अनुभव करें ही, पर अधिकतर लोग करते हैं । जब यह अनुभव होता है तो क्यिाका निर्धारण करनेवाला संकल्प आंतर सत्तामें होता है बाह्यमें नही - इसलिये बाह्य सत्तापर प्राणिक क्रियाओं द्वारा होनेवाला आक्रमण इस क्रियाको चालू होनेके लिये किसी भी प्रकार बाध्य नही कर सकता । इसके विपरीत रूपांतरमें यह एक बहुत अनुकूल स्थिति है क्योंकि यह आंतर सत्ता स्वभाबको पूरी तरहसे बदलनेके लिये प्रकृतिकी क्यिासे प्रभावित हुए बिना उसका निरीक्षण करते हुए, जहां भी आवश्यक हो वहां परिवर्तनके लिये शक्तिका प्रयोग करते हुए और मशीन- की तरह समग्र सत्ताको ठीक स्थितिमें रखते हुए उच्चतर प्रकृतिकी संपूर्ण शक्तिको

 

५००


नीचे ला सकती है । यह बात तभी होती है जब कोई रूपांतरकी कामना करे । क्योंकि बहुतसे वैदाती इसे आवश्यक नहीं समझते - वे कहते हैं कि आंतर सत्ता मुक्त है, शेष तो केवल देह प्रधान मानवमें प्रकृतिकी बलवती प्रेरणाकी यंत्रवत् अविराम गति है और वह शरीरके साथ ही समाप्त हो जायगी जिससे व्यक्ति निर्वाणको प्राप्त कर सके ।

 

*

 

        अन्दरसे मुक्त और अलिप्त रहना और प्रकृतिको अपने ऊपर छोड़ देना - यह पुराना वैदांतिक विचार है, जब हम मरते हैं तब पुरुष स्वर्ग जायेगा और प्रकृति, शायद नरकमें जा गिरेगी । यह सिद्धांत अतिमात्र आत्म-वंचना और आत्म-रतिका उद्गम !

 

 

        निश्चय ही, तुम ऊपर-स्थित साक्षी पुरुषकी चेतनाको विकसित कर सकते हों, पर वह यदि केवल एक साक्षी हीं हों और निम्रतर प्रकृतिको अपने निजी पथपर ही चलने दिया जग्य तो फिर ऐसा कोई कारण नही रह जायगा जिससे कि ये अवस्थाएं कभी बन्द हों सकें । बहुतसे लोग इस भावको ग्रहण करते हैं - यह भाव ग्रहण करते हैं कि पुरुष पीछे हटकर अपनेको मुक्त कर ले, और प्रकृतिको जीवनका अंत हों जानेतक अपना निजी व्यापार ज्योत्यों चलाते रहने दिया जाय -- यह तो 'प्रारब्ध कर्म' है; जब शरीरपात हों जायगा तब प्रकृति भी रुक जायगी और पुरुष निराकार ब्रह्ममें समा जायगा! यह एक सुखदायी सिद्धांत है, पर इसके सत्यके विषयमें संदेह ही अधिक है । मैं नही समझता कि मुक्ति इतनी अधिक सरल और सहज वस्तु है । जो हों, हमारे योगका उद्देश्य जौ रूपांतर है वह इसके द्वारा कभी संपत्र नही होगा ।

 

       ऊपर-स्थित पुरुष केवल एक साक्षी ही नही है, बह अनुमति देनेवाला ( या रोक रखनेवाला) भी है; अगर वह प्रकृतिकी किसी क्रियाके लिये अनुमति देना लगातार अस्वीकार करता रहे, अपने-आपको अनासक्त बनाये रखे तोर यदि वह अपने पुराने वेगके कारण कुछ समयतक चलती भी रहे तो भी, कुछ समय बाद वह साधारणतया अपना अधिकार खो बैठती है, अधिकाधिक शक्तिहीन, कम आग्रहशील, कम ठोस हों जाती है और अन्तमें निष्प्राण हो जाती हैं । यदि तुम पुरुष-चेतनाको ग्रहण करो तो वह केवल साक्षी ही नही होनी चाहिये बल्कि अनुमता भी होनी चाहिये, उसे विक्षोभ उत्पन्न करनेवाली क्रियाओंकी स्वीकृति नहीं देनी चाहिये, केवल शांति, स्थिरता, पवित्रता तथा अन्य जो कुछ दिव्य प्रकृतिका अंग है उसे ही अनुमति देनी चाहिये । अनुमति अस्वीकार करनेकी इस बातका निश्चय ही यह अर्थ नही है कि निम्रतर प्रकृतिके साथ संघर्ष किया जाय; यह एक अचंचल, सुदृढ़, अनासक्त अस्वीकृत हो सकतीं है जो प्रकृति- के विरोधी कार्यको, कोई अर्थ या समर्थन दिये विना, कोई सहारा, कोई अनुमति दिये

 

५०१


बिना छोड़ दे ।

 

*

 

        जब कोई मनुष्य नैर्व्यक्तिक आत्माकी खोज करता है तब वह नैर्व्यक्तिक निष्क्रिय आत्माकी नीरवता और पवित्रता तथा अज्ञ प्रकृतिकी क्रियाशीलता इन दो विपरीत तत्त्वोंके बीच विचरण करता है । मनुष्य अज्ञानमयी प्रकृतिको छोड़कर अथवा उसे निश्चल-नीरव बनाकर उच्चतर आत्मामें चला जा सकता है । अथवा, मनुष्य उच्चतर आत्माकी शांति और स्वतन्त्रतामें निवास कर सकता तथा साक्षीरूपमें प्रकृतिके कार्यकार निरीक्षण कर सकता है । फिर मनुष्य प्रकृतिकी क्रियाके ऊपर, तपस्याके द्वारा, कुछ सात्विक नियंत्रण भी लागू कर सकता है; पर नैर्व्यक्तिक आत्मामें प्रकृतिकों बदलने या दिव्य बनानेकी कोई शक्ति नही है । वैसा करनेके लिये मनुष्यको नैव्यक्तिक आत्मा- के परे जाना पड़ता है ओर भगवान्की खोज करनी पड़ती है जो साकार और निराकार दोनों हैं तथा इन दोनों रूपोंसे परे है । फिर भी, तुम यदि नैर्व्यक्तिक आत्मामें निवास करनेका अभ्यास करो और एक प्रकारकी आध्यात्मिक नैर्व्यक्तिकता प्राप्त कर सको तो समता, शुद्धि, शांति अनासक्ति आदि गुण तुममें बढ़ जाते हैं, तुम एक प्रकारकी आत- रिक मुक्तिकी अवस्थामें वास करनेकी शक्ति प्राप्त कर लेते हो जो ऊपरी हलचल या मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृतिके संघर्षसे अछूती रहती है, और जब तुम्हें निर्व्यक्तिक परे जाना होता तथा विक्षुब्ध प्रकृतिको भी किसी दिव्य सत्तामें परिवर्तित करना होता है तब इस अवस्थासे तुम्हें बहुत बड़ी सहायता मिलती है ।

 

         अब भगवान्को अपने कर्म अर्पित करने तथा उससे उत्पन्न प्राणिक कठिनाईकी बातपर आवें : । उस कठिनाईसे बचना संभव नही है -- तुम्हें उसमेंसे गुजरना और उसे जीतना ही होगा । अभी तुम यह प्रयास कर रहे हो ओर परिवर्तनको रोकनेके लिये प्राण अपनी समस्त चंचल अपूर्णताओके साथ खड़ा हो रहा है । तरन्तु तीन बातें हैं जिन्हें तुम इस कठिनाईको हलका करने या घटानेके लिये कर सकते हो

 

      ( 1) इस प्राणिक-भौतिक स्तरसे अपनेको पृथक् कर लो -- इसे एक ऐसी चीजके रूपमें देखो जो तुम नहीं हो; इसे त्याग दो, इसकी मांगों और प्रेरणाओंको अपनी सम्मति देना अस्वीकार कर दो, पर करो खूब स्थिरताके साथ, उस साक्षी पुरुष- के रूपमें जिसकी असम्मति अंतमें अवश्य विजयी होती है । यदि तुमने अधिकाधिक नैर्व्यक्तिक आत्मामें निवास करना सीख लिया है तो ऐसा करना तुम्हारे लिये कठिन नहीं होना चाहिये ।

 

       ( 2) यदि तुम इस नैर्व्यक्तिक भावमें न होओ तब भी अपने मानसिक संकल्प और सम्मति या असम्मति देनेकी उसकी शक्तिका व्यवहार करो,--एक दुखपूर्ण संघर्षके साथ नही, बल्कि उसी रूपमें, शांतिके साथ, कामनाकी मांगोंको अस्वीकार करते हुए करो, जबतक कि समर्थन और सम्मतिके अभावके कारण ये मांगे वापस आनेकी अपनी शक्ति ही न खो दें और धीरे-धीरे क्षीण और बाह्य वस्तु न बन जायं ।

 

५०२


          ( उ) यदि तुम अपने ऊपर या अपने हृदयमें भगवान्को अनुभव करो तो स्वयं प्राणको बदलनेके लिये आवश्यक साहाथ्य, ज्योति और शक्ति प्रदान करनेके लिये वहांसे उन्हें पुकारों, तथा उसके साथ-हीं-साथ तबतक इस प्राणपर भी बार-बार दबाव डालते रहो जबतक कि वह स्वयं भी अपने परिवर्तनके लिये प्रार्थना करना न सीख जाय ।

 

           अतमें, जब तुम भएवानके निमित्त अपनी अभीप्साकी सच्चाई और आत्म- समर्पणके द्वारा अपने अन्दर चैत्य पुरुष (हृदयगुहामें स्थित पुरुष) को जाग्रत कर लोगे जिसमें कि वह आगे आ जाय, बराबर सामने बना रहे तथा मन, प्राण और भौतिक चेतनाकी सभी गतिविधियोंपर अपना प्रभाव डालता रहे, तव यह कठिनाई कम हों जायगी और अपनी सबसे कम मात्रामें ही रहेगी । परन्तु रूपांतरका काम उसके बाद भी करना होगा, उसके बाद वह कार्य उतना कठिन और दुःखदायी नही होगा ।

 

*

 

        स्पष्ट ही नहीं । साक्षि-भावका प्रयोजन यह नहीं है कि उसे अपने दोषोंके उत्तरदायित्वको स्वीकार करनेका और इसी कारण उन्हें सुधारनेसे इनकार करनेका सुविधाजनक साधन बनाया जाय । इसका अस्तित्व आत्मज्ञानके लिये और, हमारे योगमें, एक सुविधाजनक (पृथक् और अनासक्त, होनेके कारण प्रकृतिसे स्वतंत्र) एक ऐसे केन्द्रके रूपमें अभिप्रेत है जहांसे व्यक्ति गलत क्रियाओंको स्वीकृति देनेसे इनकार करके और उनके स्थानपर अन्दर या ऊपरसे सच्ची चेतनाके व्यापारोंको स्थापित करके उनपर अपना कार्य कर सकें ।

 

III

 

          व्यक्तिके योगमें एक बहुत गभीर कठिनाई है एक ऐसे केन्द्रीय संकल्पका अभाव जो प्रकृतिकी शक्तियोंकी लहरोंसे सदा ही ऊपर रहे और प्रकृतिपर अपने केन्द्रीय लक्ष्य एवं अभीप्साको आरोपित करते हुए सदा ही श्रीमांके साथ स्पर्शमें रहे । इसका कारण यह है कि तुमने अपनी केन्द्रीय सत्तामें जीना नही सीखा है; तुम अपनेपर आक्रमण करनेवाली शक्तिकी किसी भी प्रकारकी लहरके साथ दौड पड़नेके और तत्काल हीं उसके साथ तदाकार होनेके आदी रहे हों । यह एक ऐसी वस्तु है जिसे भूलना होगा; तुम्हें चैत्यके आधारपर स्थित अपनी केन्द्रीय सत्ताको खोजना और उसमें निवास करना होगा ।

 

*

 

           जबतक मन उछलकूद करता रहता है अथवा बाहरकी वस्तुकी ओर दौड़ता रहता है तबतक अन्तर्मुख, अन्तरमें समाहित और सचेतन होना संभव नही है ।

 

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        अपनी केन्द्रीय-चेतनाके विषयमें सचेतन होना और शक्तियोकी क्यिाको जानना आत्म-प्रमुत्चकी ओर पहला निश्चित कदम है ।

 

        इसके ( चेतनाके) दोनों ही अर्थ है । व्यक्तिको अपनी सारी अवस्थाओं, किया- ओ और उन्हें उत्पन्न करनेवाले कारणों और प्रभावोंके विषयमें सचेतन होना चाहिये एवं भगवान्के - उनकी स्मृति, उपस्थिति, शक्ति, शांति, प्रकाश, ज्ञान और प्रेम, आनन्द- के विषयमें भी सज्ञान होना चाहिये ।

 

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         अनासक्ति प्रभुत्वका प्रारंभ है, किन्तु पूर्ण प्रभुत्वके लिये सत्तामें कोई भी प्रतिक्रियाएं नहीं होनी चाहिये । अन्दर जब कोई वस्तु प्रतिक्यिाओंसे अविचल रहती है तो इसका अर्थ यह है कि आंतर सत्ता मुक्त और अपनी स्वामिनी हो गई है, परन्तु अभी समग्र प्रकृतिकी स्वामिनी नही । जब वह स्वामिनी हो जाती है तो वह किन्हीं अशुद्ध प्रतिक्रियाओंको अन्दर नहीं आने देती - यदि इनमेंसे कोई प्रतिक्रियाएं आती भी हैं तो उन्हें तुरन्त धकेलकर बाहर फेंक दिया जाता है और अन्तमें फिर उनमेंसे कोई भी नही आती ।

 

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       तुम्हें अपनेको अपने अन्दर अधिक दृढ़ताके साथ समेटना चाहिये । तुम यदि अपनेको निरन्तर बिखेरते रहो, अन्दरके घेरेसे बाहर निकलते रहो तो तुम सामान्य बाह्य प्रकृतिकी क्षुद्रतामें और उन प्रभावोंके आधीन जिनके प्रति. वह खुली हुई है, विचरते रहोगे । अन्तरमें निवास करना सदा ही अंतरसे अर्थात् श्रीमांके साथ लगातार संबंध- मे रहते हुए कार्य करना सीखो । पहले पहल इसे नित्यप्रति और पूर्ण रूपसे करना कठिन हो सकता है पर यदि हम लगे रहें तो इसे संपादित किया जा सकता है - और इसी किमतपर, ऐसा करना सीख फरा ही, हम इस योगमें सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं ।

 

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        अवश्य ही तुमने किसी कारणवश अपनेको बहुत अधिक बहिर्मुख कर लिया है । एकमात्र आंतर चेतनामें निवास करते हुए और वहींसे सब कुछ करते हुए सच्ची चैत्य स्थिति कायम रखी जा सकती है । अन्यथा यह अन्दर चली जाती है और बाह्य चेतना उसे ढंक देती है । वह खो नहीं जाती, पर छीप जाती है - इसे फिरसे पानेके लिये हमें अन्तर्मुख होना होगा ।

 

 

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       प्राणकी भूतकालीन आदत कारण हीं तुम्हें बारंबार सत्ताके बाहरी हिस्सोंमें जाना पड़ता है; तुम्हें अडिग रहना चाहिये और इससे उलटी अपनी सच्ची सत्तारूप आंतर सत्तामें निवास करनेकी और वहींसे प्रत्येक वस्तुका अवलोकन करनेकी आदत डालनी चाहिये । इसीमेंसे तुम वस्तुओंके एवं स्वयं अपने और अपनी प्रवृत्तिके संबंध- मे सच्चा विचार, सच्ची दृष्टि और सच्ची समझ प्राप्त करते हों ।

 

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          हां, जय व्यक्ति सही चेतनामें निवास करता है, तब ठीक क्रिया ही होती है, सच्चा सुख प्राप्त होता है, प्रत्येक वस्तु सत्यके साथ सुसंगत होती है ।

 

          गलत चेतना होनेपर, मांग, असंतोष, संदेह, सब प्रकारका विसंवादी उत्पन्न होता है ।

 

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          भेद तव उत्पन्न होता है जय कोई वस्तु आन्तर मनसे और केवल बाहरी मस्तिष्कसे की जाती है । तुम जो अनुभव कर रहे हो तो बह है आन्तर मनका कार्य- को अपने हाथमें लेना - तब यह चेतनाका अंग बन जाता है और तुम्हें वस्तुओंका वास्तविक बोध प्राप्त हो जाता है - बाह्य मनका कार्य हमेशा कठिन और उथला होता है ।

यह प्रत्यक्ष हैं कि तुम्हारे अन्दर आंतर सत्ता अधिकाधिक आगे आ रही है । ज्यों ज्यों यह आगे आयेगी त्यों त्यों कठिनाइयां उत्तरोत्तर बाहर धकेल दी जायेंगी और चेतना शांति और शक्तिको पहले इसके अधिक विस्तृत भागमें और बादमें सारी- की सारी सत्तामें कायम कर देगी ।

 

        हां, यह सब ठीक है । प्रधानत: बाह्य पद्धतिपर भरोसा रखनेसे बहुत अच्छी सफलता नहीं मिलती । केवल आंतर संतुलन प्राप्त करनेपर ही बाह्य किया वस्तुत: असर कारक होती है और तव यह क्यिा स्वयं ही संपन्न हो जाती है ।

 

*

 

          यह अच्छा है । सच्ची वस्तुपर अर्थात् आंतर सत्ता और आंतर जीवनमें अपनी एकाग्रता लगाये रहो । ये सब बाह्य वस्तुएं कम महत्वकी हैं और आंतर जीवनके भली प्रकार प्रतिष्ठित होनेपर ही उन अवरोध करनेवाली कठिनाइयोंका सच्चा समाधान प्राप्त

 

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हो सकता है । तुमने इस बातको अन्तर्मुख होनेपर कितनी ही बार देखा है । बाह्य वस्तुओंके विषयमें मानसिक रूपसे अत्यधिक व्यस्त रहना मनको बहुमुखता बनाये रखता हे । अंतरमें निवास करनेपर तुम धीमाको अपनइ पास पाओगे ओर उनकी इच्छा और क्रियाका साक्षात् अनुभव कर सकोगे ।

 

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          कठिनाई यह है कि तुम ऐसी वस्तुओंको बहुत महत्व देते हों जिनका बहुत कम मूल्य है । तुम इस प्रकार व्यवहार कर रहे हों मानों मेज़ मिलना या न मिलना कोई अत्यधिक महत्वकी बात है और इस मामलेके सही या गलत होनेके विषयमें तुम अपने- को चिंतित और उत्तेजित कर लेते हो जिनसे तुम अपने मनकी संपूर्ण शांतिको गड़बड़ा देते हो और अपनेको सच्ची स्थितिसे गिरा देते हो । ये बातें तुच्छ हैं और सापेक्ष महत्व ही रखती है -- तुम्हें नई मेज़ मिल सकती है या नही भी, इन दोनोंमें किसीका भी कोई बहुत बड़ा महत्व नहीं हैं और तुम्हारे अन्दर भगवान्के उद्देश्यकी दृष्टिसे, इससे कोई फर्क नही पड़ता, एक ही वस्तु अर्थात् हिथरता, शांति और दिव्य शक्तिके अवतरण- को बढ़ाना, समता एवं आंतरिक प्रकाश एवं चेतनामें उन्नत होना महत्वपूर्ण है ! बाह्य वस्तुओंको अत्यन्त शांतावसे करना चाहिये, आवश्यक कार्योंको करते रहना चाहिये पर किसी वस्तुके विषयमें अपनेको विक्षुब्ध या उत्तेजित नही करना चाहिये । केवल इसी तरह तुम स्थिरता और तेजीसे आगे बढ़ सकते हो । जब तुम अपने आसपास श्रीमांकि शक्तिका, अपने चारों ओर बहुत ही निकट, शांतिका अनुभव करते हों तो वह एक महत्वपूर्ण वस्तु है - बाहरकी इन छोटी छोटी बातोंको सैकडो विभित्र तरीकोंसे निबटाया जा सकता हैं, वस्तुत: इसका कोई महत्व नही ।

 

IV

 

      'क्ष' संबंधी स्वप्न अवश्य हीं अवचेतन प्राणमेंसे पुरानी क्रियाके बचे खुचे अंशों- की सफाईकी प्रक्रियाके सतत जारी रहनेका सूचक था ।

 

           जिस अनुभव अर्थात् निस्तब्धता मन और प्राणकी शून्यता तथा विचारों और अन्य क्यिाओंके बन्द होनेका तुम वर्णन करते हों वह समाधिकी उस स्थितिका प्रारंभ था जिसमें चेतना अन्दरकी ओर एक गहरी निस्तब्धता और निश्चल-नीरवतामे चली जाती है । यह अवस्था आंतर अनुभूति, साक्षात्कार और वस्तुओंके अगोचर सत्यके दर्शन- के लिये अनुकूल है, यद्यपि इन्हें कोई शक्ति जाग्रत अवस्थामें भी प्राप्त कर सकता है । यह निद्रा नही बल्कि एक ऐसी अवस्था है जिसमे व्यक्ति अपनेको पहलेकी तरह बाहर नही पर अन्दर अनुभव करता है ।

 

        तुमने अपने हृदयमें जो हीरा देखा वह श्रीमांकि चेतनाके प्रकाशकी एक रचना था - क्योंकि श्रीमांका प्रकाश सफेद और बहुत अधिक तीद होनेपर हीरे जैसा चम-

 

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कीला होता है । प्रकाश. तुम्हारे हृदयमें श्रीमांकि उपस्थितिका सूचक है और तुमने उसे हीं एक बार देखा और क्षणभर अनुभव किया ।

 

       पुस्तक या समाचार पत्र पढनेकी अक्षमताका प्रायः तब अनुभव होता है जब चेतना मे अंतर्मुखी होनेकी वृत्ति हौदा हो रही होती हैं ।

 

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         तुम्हें जो अनुभव हुआ है वह अवश्य ही चेतनाका अन्तर्मुख होना है जिसे साधारण- तया ' 'समाधि' ' कहा जाता है । तथापि इसका सबसे अधिक महत्वपूर्ण अंग है मन और प्राणकी वह नीरवता जो शरीरकी ओर भी पूरी तरह फैली हुई है । इस नीरवता और शांतिको समा लेनेकी क्षमता प्राप्त करना साधनाका सबसे अधिक महत्वपूर्ण कदम है । यह अनुभव सबसे पहले ध्यानके अन्दर आता है और चेतनाको अन्दरकी ओर समाधिमे फेंक देता है, परन्तु आगे जाकर इसे जाग्रत अवस्थामें भी लाना होगा और संपूर्ण जीवन और कार्यके स्थायी आधारके रूपमें अपनेको प्रतिष्ठित करना होगा । आत्माके साक्षात्कार और प्रकृतिके आध्यात्मिक रूपांतरकी यही शर्त है ।

 

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     1 - नहीं, यह निद्रा नही थी । तुम अन्दर आंतरिक चेतनामें चले गये थे; इस आंतर चेतनामें हम अन्दरसे जाग्रत होते हैं, बाहरसे नही, केवल आंतरिक वस्तुओंसे ही सचेतन होते हैं बाह्य वस्तुओंसे नही । तुम्हारा बाह्य मन जिस कार्यको करने अर्थात् चंचलता उत्पन्न करनेवाले विचारों और सुझावोंपर क्रिया करके उन्हें ठीक करनेकी, चेष्टा कर रहा था, उसी कार्यमें तुम्हारी आंतरिक चेतना भी व्यस्त थी, यह कार्य बाह्य मनकी अपेक्षा आंतरिक चेतना द्वारा बहुत ही अधिक सरलतासे किया जा सकता

 

     2. जहांतक करने योग्य आवश्यक कार्यका प्रश्न है, वे तुम्हारे अपने मानसिक प्रयासकी अपेक्षा अवतरित होती हुई (ठोस शक्तिको लाती हुई) शक्ति कौर शांतिके द्वारा बहुत आसानीसे किये जा सकते हैं ।

 

*

 

           इसका कोई कारण नही कि तुम्हारे अन्दर निद्राके समय ज्वलन्त अभीप्सा न हों, बशर्ते कि तुम नीदमें सचेतन रहो । वास्तवमें तुम जिस अवस्थाकर वर्णन करते हों वह निद्रा नहीं थी - बात केवल इतनी थी कि चेतना (अन्दर) एक प्रकारकी अंतर्मुखी अवस्था (एक प्रकारकी अर्द्धसमाधि) मे भीतर जानेका यत्न कर रहीं थी जब कि बाह्य मन निरन्तर उसमेंसे बाहर निकलता रहता था । यदि तुम इस अंतर्मुखी अवस्थामे

 

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प्रवेश करो तो तुम्हें जो प्राप्त होता है वह स्वप्न नहीं किंतु आध्यात्मिक अनुभूतियां अथवा सूक्ष्मदर्शन या चेतनाके अन्य अतिभौतिक स्तरोंके अनुभव हैं । तुम्हारी ज्वलंत अभीप्सा ठीक ऐसी ही आध्यात्मिक अनुभूति थी ।

 

*

 

       तुम्हारे अनुभवोंके संबंधमें

 

     1. ध्यान करते समय तुम्हें जो निद्राका अनुभव हुआ वह निद्रा नही परन्तु चेतना- की अंतर्मुखी अवस्था थीं । जब यह अवस्था बहुत गहरी नहीं होती तो मनुष्य ऐसे विभिन्न दृश्यों, आवाज़ों इत्यादिके विषयमें सचेतन हो सकता है जिनका संबंध भौतिक भूमिकासे नहीं किंतु चेतनाकी आंतरिक भूमिकासे होता है - उनका महत्व या सत्य (इस भूमिका पर निर्भर करता हे जिसपर व्यक्ति पहुँचता है । सतहपर आनेवाली इन वस्तुओंका कोई महत्व नही और व्यक्ति जब तक अधिक गहराईमें न पहुँच जाय तब तक उसे उनमें- से गुजर भर जाना होगा।

 

    2. भय, क्रोध, अवसाद, आदि जो भाव नाम जप करते समय ऊपर आ जाया करते थे ३ उस प्रकृतिके प्राणिक प्रतिरोधसे (यह प्रतिरोध हरेकमे पाया जाता है) उत्पन्न होते थे । यह प्रकृति इन्हें प्राणिक भागपर उसे बदलनेके लिये डाले गये उस दबावके कारण ऊपरकी ओर फेंकती थी जो साधनामें स्वभावत: ही आया करता एवं । ये प्रतिरोध ऊपर आते हैं और फिर व्यक्तिके सच्चा भाव ग्रहण करनेपर देर या सबेरमें दूर हो जाते हैं । व्यक्तिको एकाग्रता और साधनामें दृढ़तापूर्वक लगे रहकर तबतक उनका निरीक्षण करना और अपनेको उनसे पृथक् रखना होता है जबतक प्राण शांत और निर्मल न हो जाय ।

 

     3. जिन (चन्द्र, आकाश, आदि) वस्तुओंको तुमने देखा उनका कारण है अंतर्दर्शनका उद्घाटन, यह साधारणतया तब होता है जय एकाग्रता उस आंतर चेतनाको खोलना शुरू करती है जिसका यह सूक्ष्म दर्शन एक अंग है । आंतर सत्ताके विकासमें सूक्ष्मदर्शनकी इस क्षमताका अपना महत्व है, और इसे अनुत्साहित नहीं करना चाहिये, यद्यपि आरंभिक अवस्थामें देखी गई चीजोंको बहुत अधिक महत्व नहीं प्रदान करना चाहिये।

 

      4. तो भी कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो बढ़ते हुए आध्यात्मिक अनुभवके अंग है, जैसे कि वह सूर्य जिसका तुमने सिरके ऊपर दर्शन किया और सुनहरे प्रकाशका पिण्ड भी -खां।इ[ ये आंतरिक उद्घाटनके चिह्न हैं और प्रतीकात्मक हैं । दोनों ही दिव्य सत्य एवं प्रकाशके तथा उनके प्रभावकी एक हीं कियाके प्रतीक हैं ।

 

     5. तथापि सबसे अधिक महत्वपूर्ण अनुभव उस शांति और अचंचलताका है जो सम्यक् एकाग्रतासे आती है । इसे हीं मन, प्राण और शरीरमें ?? और स्थिर होना होगा - क्योंकि ये शांति और अचंचलता ही साधनाके लिये दृढ आधारका निर्माण करती हैं ।

 

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            ये सारे विचार और प्रभाव वस्तुत: बाहरसे, वैश्व-प्रकृतिमेंसे आते हैं-वे हमारे अन्दर कुछ रचनाएं बनाते हैं अथवा व्यष्टिगत सत्तासे अभ्यस्त उत्तर पाते है । अस्वी- कार कर दिये जानेपर वै बाह्य प्रकृतिमें वापिस चले जाते हैं और यदि कोई सचेतन हो जाय तो वह उन्हें बाहरसे आते हुए और अन्दर फिरसे स्थान पानेकी या पुराने उत्तरको फिरसे उकसानेकी चेष्टा करते हुए अनुभव कर सकता हैं । व्यक्तिको दृढ़तापूर्वक उनका तबतक अस्वीकार करना होगा जबतक और अधिक जवाबकी संभावना न रहे । यदि कोई ऐसी आंतरिक शांति, विशुद्धि और नीरवता स्थापित की जा सके जिससे ये वस्तु उसे छूनेमें समर्थ हुए बिना ही पीछे हट जाये तो इसका वेग बढ़ सकता है ।.

 

         2. जो लोग योग करते हैं प्रारंभमें उन सभीके सामने यह बाधा समान रूपसे आती है । निद्रा वृत्ति इन दो तरीकोंसे क्रमश: दूर हों जाती है : (अ) अभीप्साकी अग्निको तीब्र बनानेके द्वारा (ब) निद्राके स्वयं ऐसी स्वप्न-समाधि बननेके द्वारा जिसमें व्यक्ति उन आंतर अनुभवोंके विषयमें सचेतन होता है जो स्वप्त नही होते ( अर्थात् जाग्रत चेतना थोडे समयके लिये खो जाती है पर उसका स्थान निद्रा नहीं परन्तु एक ऐसी आंतरिक सचेतन स्थिति ले लेती है जिसमें व्यक्ति अतिभौतिक या मानसिक या प्राणिक सत्तामें विचरण करता है) ।

 

      3. निद्रामें आनेवाली अचेतनाके विषयमें यह सर्वथा सामान्य अवस्था है । निद्रामें सचेतनता केवल जाग्रत स्थितिमें सच्ची चेतनाके विकासके द्वारा ही क्रमश: स्थापित की जा सकती है ।

 

       4. हत्पद्य ओर हृदयकेन्द्र एक ही हैं ।

 

       5. वह मूर्त रूपकमाला जिसका तुम प्रयोग करते हों, अवतरणके लानेमें सहायता दे सकतीं है ।

 

*

 

       जहांतक इस स्वप्नका प्रश्न है, यह स्वप्त नहीं था पर सचेतन स्वप्तावस्थामें ' 'स्वप्त समाधि' ' मे आंतर सत्ताका एक अनुभव था । सुन्न हो जाना और चेतनाको लगभग खेनों जैसा अनुभव, दोनों सदा ही उस शक्तिके दबाव या अवतरणके कारण होते हैं जिसका शरीर आदी नहीं होता पर जिसे वह प्रबलरूपसे अनुभव करता है । जिसपर सीधा दबाव पडू रहा था वह भौतिक शरीर नहीं था, किंतु वह सूक्ष्म शरीर था जिसमें आंतर सत्ता अधिक अन्तरंग रूपमें निवास करती है और जिसमें यह निद्रा या समाधिमें अथवा मृत्युके समय बाहर जाती है । परन्तु भौतिक शरीर इन सजीव अनुभवोंमें ऐसा अनुभव करता है मानों यह अनुभव वह स्वयं कर रहा हो; इसमें सुन्न होना दबावका प्रभाव था । समग्र शरीरपर दबावका अर्थ होगा समग्र आंतर चेतनापर दबाव, शायद किसी ऐसे लोटे या बड़े परिवर्तनके लिये जो इसे ज्ञान या अनुभवके लिये अधिक तैयार कर देगा; तीसरी या चौथी पसली ऐसे प्रदेशको सूचित करती है जिसका संबंध प्राण-प्रकृतिके, प्राण-शक्तिके प्रदेशके साथ ,है, वहां परिवर्तन करनेके लिये थोड़ा

 

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दबाव पड़ रहा है ।

 

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        इस प्रश्नकी आवश्यकता नही है । इस स्थितिमें तुम्हें केवल अनुभवोंका निरीक्षण और उनके तात्पर्यका अवलोकन करना चाहिये । अनुभवोंके केवल प्राणिक क्षेत्रमें होनेपर ही संभवत: उनमेंसे कुछ अनुभव मिथ्या रचनाएं हों सकते हैं । जिनके विषयमें तुम लिखते हों वे खुलती हुई यौगिक चेतनाके सामान्य अनुभव मात्र है और तुम्हें उन्हें सीधे-सरल रूपसे समझना होगा ।

 

        इस अनुभवमें तुच्छ उपरितलीय प्राण टूटकर उस कच्चे या आंतरिकप्राणके विस्तारमें फेल गया है जो तुरन्त उच्चतर चेतना, उसकी शक्ति, प्रकाश और ने आनन्द- की ओर उद्घाटित हों सकता है । इसी प्रकार तुच्छ भौतिक मन और इन्द्रियमी टूटने लगे हैं और आंतरभौतिक चेतनामें विस्तृत होने लगे हैं । आंतरिक भूमिकाएं नित्य ही विस्तृत होती हैं और वैश्व-भूमिकाकी ओर खुली होती हैं, बाह्य उपरितलीय भाग अपने अन्दर बन्द होते हैं एवं संकीर्ण और अज्ञानयुक्त व्यापारोंसे भरे होते हैं ।

 

*

 

         तुम्हारे अनुभवोंकी बीच बीचमें अन्तराल युक्त सुखाल जिस सतत विकासको प्रदर्शित करती हे उसके कारण बहुत रोचक लगती है. । ये दो नये महत्वपूर्ण तत्व अनुभवके पहले तत्वमें और जुड गये हैं । पहला है पेटके गढेसे - अर्थात् नाभिके ऊपरसे, स्वयं यह क्रिया ठीक नाभिमेंसे, उसके नीचेके भागमेंसे भी, प्रारंभ होती हे -- चेतनाके ऊपर धंस आनेका स्थान सुनिश्चित हो जाना । नाभिकेन्द्र ( नाभिपद्य) केन्द्रित हुई प्राणिक चेतनाका प्रधान पीठस्थान (सक्रिय केन्द्र) है जिसका विस्तार हदयके ( भाव- मय) स्तरसे लेकर नाभिके नीचेके केन्द्रतक (निम्रतर प्राण, संवेदनामय कामना- केन्द्रतक) है । ये तीनों प्राणिक सत्ताके प्रदेश हैं । इसलिये यह स्पष्ट है कि तुम्हारी आंतर प्राणिक सत्ताको ही यह अनुभव हुआ, और बहुत करके इस समय समग ( अथवा अधिकांश) प्राणिक सत्ता जाग्रत थीं और इसमे हिस्सा ले रही थी इसीलिये उसमें इतनी तीव्रता और उत्कटता थी । स्वयं अनुभव मूलत. आन्तरात्मिक था, परन्तु प्रकट होते समय उसे तीब्र भावप्रधान प्राणिक रूप दे दिया गया । इसे पूरा करनेके लिये, मैं इसमे और बढ़ा सकता हूँ कि चैत्यका केन्द्र हदयके पीछे है और विशुद्ध आवेगोंके द्वारा ही चैत्य बाहर आनेका मार्ग बहुत आसानीसे प्राप्त कर सकता है । हदयसे ऊपरका सबकुछ मनोमय-प्राणिक प्रदेशसे जुड़ा हुआ है और उससे ऊपर मन अपने तीन केन्द्रोंके साथ स्थित है । एक तो है कण्ठमें (बाहर जानेवाला या बहिर्मुख करनेवाला मन), दूसरा आंखोंके बीचमें या बल्कि माथेके मध्यमें (सूक्ष्मदर्शन और संकल्पका केन्द्र) और तीसरा उससे ऊपर, मस्तिष्कके साथ संपर्क करनेवाला वह केन्द्र जो सहस्रदलपद्य कहलाता हैं, ओर जिसमे ऊपरकी महत्तर मानसिक भूमिकाओंके साथ ( आलोकित

 

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मन, संबोधि और अधिमानसके साथ) संबंध बांधनेवाली सर्वोच्च विचार और बुद्धि क्रेंद्रित हैं ।

 

          दूसरी नवीन महत्वपूर्ण विशेषता है आंतर मनकी आत्माभिव्यक्ति; क्योंकि तुम्हारा आंतर मन ही प्राणिक सत्ताके चैत्य अनुभवकी निगरानी, निरीक्षण और समीक्षा कर रहा था । अपनी सत्तामें यह स्पष्ट विभाजन तुम्हें आश्चर्यजनक लगा, परन्तु एक बार यह पूरी तरह जान लेनेपर कि सत्ताके विभिन्न भागोंका इस प्रकार विभक्त हो सकना बिलकुल सामान्य बात है तो फिर यह तुम्हें विचित्र नही लगेगा । उपरि- तलीय प्रकृतिमें, मन, चैत्य, प्राण, भौतिक भाग सब खिचड़ी हों गये हैं । और हमारी प्रकृतिकी गठनको तथा इन भागोके पारस्परिक एव अन्त क्रियाको खोजनेके लिये अंत: निरीक्षण आत्मविश्लेषण ओर सूक्ष्म अवलोकनकी एवं विचार-सूत्र, भाव और प्रवृत्तिके सुलझानेकी तीव्र शक्तिकी आवश्यकता है । परन्तु जब व्यक्ति तुम्हारी तरह अन्दर जाना है तो हम सतहपर हीं इस सारी क्रियाके उद्गमको पा लेते हैं और यह देखते हैं कि उसमें हमारी सत्ताके अंग बिलकुल पृथक् और एक दूसरेसे स्पष्टतया भिन्न हैं । हम उन्हें अन्दर वस्तुत. पृथक् सत्ताओंके रूपमें अनुभव करते है और जैसे किसी समूहबद्ध काममें दो व्यक्ति कर सकते हैं वैसे हीं वे भी एक दूसरेका अवलोकन, आलों- चना, सहायता या विरोध और दमन करते देखे जाते हैं, यह ऐसा है मानो हम समूह- सत्ता हैं, समूहके प्रत्येक सदस्यका अपना अलग स्थान और कार्य हैं, और सब उस केंद्रीय सत्ताके द्वारा संचालित होते है जो कभी तो अन्य सत्ताओंसे ऊपर स्थित होकर सामने आ जाती है और कभी परदेके पूछिए चली जाती है । तुम्हारी मानसिक सत्ता प्राणका निरीक्षण कर रहीं थीं और उसकी उग्रताके विषयमें बिलकुल निश्चलन नही थी, क्योंकि मानसिक सत्ताका स्वाभाविक आधार है स्थिरता, चिंतनशीलता, संयम, नियंत्रण और समता, जबकि प्राणकी स्वाभाविक वृत्ति है सक्रियता, भावावेग, संवेदन और क्यिासे ऊर्जाको झोंक देना ।. इसलिये सब कुछ पूरी तरह स्वाभाविक और व्यव- स्थित था ।

 

*

 

        तुम्हारे अनुभवकी व्याख्या सीधीसी है । निम्रतर (प्राणिक और भौतिक) सत्ता चिंतनशील मन और उच्चतर प्राणसे उस प्रभाव (पीले मानसिक प्रकाश) को प्राप्त कर रही थी जो पुरानी अभ्यस्त निम्रतर प्राणकी प्रतिक्रियाओंको उसमेंसे साफ कर रहा था. साधनामें बहुधा मनुष्य आन्तरिक सत्ताको बाह्य सत्ताके साथ अथवा मन या उच्चतर प्राणको निम्नतर मन या प्राणके साथ बातचीत करते हुए अनुभव करता है जिससे कि वह उसे आलोकपूर्ण कर सके ।

 

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      महत्वपूर्ण अनुभव है हृदयमें श्वेत किरणका आना - श्वेत प्रकाश और प्रकाश द्वारा हदयका आलोकित होना इस साधनामें एक महान् शक्तिसंपन्न वस्तु है । जिन अन्त: स्कुरणाओंके विषयमें वह कहती है वे उसमें विकसित होती हुई आंतर चेतनाके चिह्न है - उस चेतनाके जो योगके लिये आवश्यक है ।

 

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       जिन तीन अनुभवोंका तुमने वर्णन किया है वे सबके सब तुम्हारे आध्यात्मिक जीवनकी एक ही गति या एक ही अवस्थासे सबद रखते हैं । वे तुम्हारे अन्तःपुरुष सज्ञान होनेके लिये चेतनाकी प्रारंभिक गतियां हैं । जैसा कि अधिकतर मनुष्योंमें होता है, यह अन्तःपुरुष तुममें बाह्य जागरित पुरुषके पीछे छिपा था । हम कह सकते हैं कि हममें दो पुरुष हैं, एक तो उपरितलपर, हमारा साधारण बाह्य मन, प्राण और शरीर-चेतना, दूसरा पर्देके पीछे, आंतर भन, आंतर प्राण और आंतर शारीरिक चेतना जो एक अन्य या आंतर पुरुष हैं । यह आंतर पुरुष एक बार जागरित होकर यथाक्रम हमारी सच्ची वास्तविक सनातन आत्माकी ओर सूलता है । एक तो यह खुलता है भीतर, अन्तरात्माकी ओर जिसे इस योगकी भाषामें चैत्य पुरुष कहते हैं और जो हमारे क्रमिक जन्मोंका आधार है तथा प्रत्येक जन्ममें नया मन, प्राण एवं शरीर ग्रहण करती है । दूसरे, यह खुलता है ऊपरकी ओर,-अज आत्मा या आत्मतत्वकी ओर । उसकी सचेतन प्राप्तिसे हम परिवर्तनशील व्यक्तित्वका अतिक्रम कर अपनी प्रकृतिपर पूर्ण प्रभुत्व एवं स्यातंम्य अधिगत कर लेते हैं ।

 

         तुमने जो पहले पहल सात्त्विक गुणोंका विकास तथा अन्तरीय ध्यानात्मक शमकी प्रतिष्ठा की सो बिलकुल ठीक ही किया । इस प्रारंभिक आत्मानुशासनको पूरा करने अथवा शुरू करनेसे भी पहले आयासपूर्ण ध्यानसे या कतिपय उत्कट-प्रयत्नशाली विधियोंसे अंतःपुरुषके किवाड़ खोलना अथवा आंतर और बाह्य आत्माके बीचकी कुछ एक दीवारें तोड़ गिराना भी संभव है । किंतु ऐसा करना सदा बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होता, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप साधनामें ऐसी अवस्थाएं आ सकती हैं जो अत्यंत कलुषित, अस्तव्यस्त और वृथा संकटपूर्ण होती हैं । तुम अधिक धीर पथ अपना करके ऐसी अवस्थामें पहुँच गये हो जिसमें अन्तःपुरुषकी द्वार लगभग स्वयमेव खुलने लग पड़े हैं । अब दोनों प्रक्रियाएं साध साथ चल सकती हैं । किंतु यह आवश्यक हैं कि तुम सात्त्विक अचंचलता, धीरता तथा जागरूकता बनाये रखो,-किसी चीजके लिये जल्दी मत मचाओ, किसी चीजके लिये जबर्दस्ती न करो, जो मध्यवर्ती अवस्था इस समय प्रारंभ हो रही है उसके किसी प्रबल प्रलोभन या पुकारके कारण मार्गसे विचलित न होओ जब तक तुम्हें यह निश्चय ही न हो जाय कि यह सही पुकार हैं । कारण, आत- रिक स्तरोंकी शक्तियोंसे ऐसे अनेक प्रबल आकर्षण प्राप्त होते हैं जिनका अनुसरण करना निरापद नहीं होता ।

 

         तुम्हारे प्रथम अनुभवका अभिप्राय है आंतर मनोमय पुरुषकी ओर उद्घाटन !

 

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भ्रूमध्य -प्रदेश आंतर मन, दृष्टि और संकल्पका केंद्र है और तुमने जो नीले रंगका प्रकाश देखा वह उच्चतर मानसिक स्तरका प्रकाश था; अथवा यों कह सकते हैं कि वह उस आध्यात्मिक मनका प्रकाश था जो साधारण मानवीय मानसिक बुद्धिसे परे हे । इस उच्चतर मनकी और उद्घाटनके साथ ही बहुधा साधारण मानसिक बिचारकी निस्तब्धता भी प्राप्त होती है । हमारे विचार वास्तवमें हमारे भीतर स्वतंत्र रूपसे हमारी इस मन-नामक छोटीसी संकीर्ण चिंतनशील मशीनमें पैदा नहीं होते । असलमें वे हमारे पास विशाल मानसिक व्योम या आकाशसे मानस-तरंगों या मानस-शक्तिकी तरंगोंके रूपमें आते हैं । वे तरंगें कोई भाव धारण किये होती हैं जो हमारे व्यक्तिगत मनमें आकर रूप ग्रहण कर लेता है । अथवा वे विचार ऐसी तैयार विचार-रचनाओंके रूपमें आते हैं जिन्हें हम अंगीकार कर लेते हैं और फिर अपनी मानने लगते हैं । हमारे बाह्य मनको प्रकृतिकी इस प्रक्रियाका कुछ पता नहीं होता; परंतु आंतर मनके जाग जानेपर हम इससे अभिज्ञ हों सकते हैं । तुमने जो देखा वह यहीं कि विचारोंके सतत आक्रमणका प्रभाव क्षीण हों रहा है तथा वें पीछे हट रहे है और विचार-रचनाएं मनोमय विश्व प्रकृतिके विस्तृत प्रदेशके क्षितिजसे दूर भाग रही हैं । तुमने यह क्षितिज कही अपने अन्दर ही अनुभव किया किंतु स्पष्ट ही यह उस विस्तीर्णपर आत्मप्रदेशमें था जिसे तुमने उसके अधिक सीमित भ्रूमध्य-प्रदेश भरमें भोग सत्संबंधी स्थूल स्थान की अपेक्षा अधिक बड़ा अनुभव किया । वस्तुत: आंतर मनके प्रदेशोंके भी क्षितिज होते हैं पर वे प्रदेश उन ज्ञितिजोंसे परे -- अनन्त दूरी तक - फैल होते हैं । आंतर मन अतिविशाल वस्तु है । वह अपनेको अनन्तके भीतर प्रसारित करता और अंतमें विश्वव्यापी परम मनकी अनंतताके साथ अपने आपको एकाकार कर लेता है । जब हम बाह्य स्थूल मनकी तंग चौहद्दीसे बाहर निकलते हैं तो हम भीतर देखने तथा इस प्रकारकी विशालता अनुभव करने लगते हैं और अंतमें मानस आकाशकी ऐसी विश्वमयता एवं अनंतता भी । बिचार मानस-सत्ताका सार नहीं, बल्कि मानसिक प्रकृतिकी क्रियामात्र है । यदि वह क्रिया बन्द हो जाय तो जो कुछ उसके स्थानपर प्रकट होता है और विचार-निर्मुक्त सत्ताके रूपमें प्रतीत होता है वह रिक्तता या शून्य नही होता वरन् एक अत्यंत वास्तबिक एवं सारभूत तत्त्व होता है । हम कह सकते हैं कि वह मूर्त्ति पदार्थ होता है -- वह होता है मनोमय पुरुष जो अपने आपको व्यापक रूपसे विस्तृत करता है और आप ही अपनी प्रशांत या सक्यि सत्ताका क्षेत्र हों सकता है एवं उस क्षेत्र तथा उसके कार्यका साक्षी, ज्ञाता और स्वामी भी । अवश्य ही कुछ लोग इसे पहले पहल शून्य के रूपमें अनुभव करते हैं, पर वह इस कारण कि उनका निरीक्षण अनभ्यस्त और अक्षम होता हे और क्रियाका विलोप उनमें रिक्तताकी भान पैदा करता है । रिक्तता वहां होती अवश्य है, पर वह साधारण क्यिाओंकी रिक्ततता होतीं है, न कि सत्ताका अत्यंताभाव ।

 

         विचारोंके दूर हटनेके अनुभवका बार बार होना, विचारोत्पादिका यांत्रिक प्रक्यिाका बन्द हो जाना और इसके स्थानपर मनके अपने आकाशका प्रतिष्ठित होना -यह सब सामान्य नियमके अनुसार है तथा ऐसा है जैसा होना चाहिये । क्योंकि

 

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इस निश्चलनीरवताको या कम-से-कम एतदर्थ क्षमताको तबतक बढ़ते जाना होगा जबतक व्यक्ति इसे स्वेच्छानुसार प्राप्त करनेमे समर्थ न हों जाय या? इससे भी बढ़कर, जब तक वह इसे सहज स्वयं-स्थायिताकी अवस्थामें प्रतिष्ठित न कर ले । कारण, यह आवश्यक है कि मनकी साधाराग यंत्रसम क्रिया शांत हों जाय ताकि उच्चतर भन आविर्भूत एवं अवतरित हो सके और क्रमश: वर्तमान अपूर्ण मनका स्थान लेकर इसकी क्रियाओंको अपनी परिपूर्णतर गतियोंमें रूपांतरित कर सकें । यह जो कठिनाई है कि जब तुम काम कर रहे होते हो तब निश्चलनीरवता आ उपस्थित होती है यह प्रारंभ- मे ही है । बादमें इस निश्चलनीरवताके अधिक दृढ हो जानेपर व्यक्तिको अनुभव होता है कि वह जीवनके समस्त कार्य सर्वव्यापिनी साक्षात् निश्चलनीरवतामें ही या कमसे कम उसे आधार और पीठिका बनाकर जारी रख सकता है । निश्चल- नीरवता पीछे रहती है और आवश्यक कार्य उपरितलपर चलता रहता है अथवा निश्चल- नीरवता हमारी विशाल आत्मा होती है और इसीमें कही एक ओर सक्रिय शक्ति निश्चल- नीरवतामें बाधा डाले बिना विश्व प्रकृतिके कार्य करती है । अतएव जब तक अनुभव उपस्थित रहे तबतक कर्म स्थगित रखना बिलकुल ठीक है । इस अंतरीय निश्चल- नीरव चेतनाका विकास काफी महत्त्वपूर्ण है, यहांतक कि यह अल्पकालीन कर्म-निरोध या निवृत्तिको उचित ठहरा सकता है ।

 

       इसके विपरीत, अन्य दो अनुभवोंकी बात इससे भिन्न है । ऐसा कभी नही होने देना चाहिये कि स्वम्नानुभव जागरितावस्थापर अधिकार करके चेतनाको भीतरकी ओर खींच । इसे अपनी क्रिया .निद्राके समयतक ही सीमित रखनी चाहिये । इसी प्रकार आंतर पुरुष और बाहरी ' 'मै' ' के बीचकी दीवार तोड़ गिरानेके लिये कोई धका- पेल या जोर-जबरदस्ती नही करनी चाहिये - एकीकरणको विकासशील आंतर किया द्वारा अपने स्वाभाविक समयमें होने देना चाहिये । इसके कारणकी व्याख्यामें मैं दूसरे पत्रमें करूँगा ।

 

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         तुम्हारा दूसरा अनुभव निद्रामें अन्तःपुरुषके जागरणकी प्रारभिक गति है । साधारणतया जब कोई सोता है तो एक जटिल घटना घटित होती है । जागरित चेतना तब वहां नर्हो रहती, क्योंकि सब कुछ भीतर उन अतर्लोकोंमें लौट गया होता हैं जिनसे हम जागरित अवस्थामें सचेतन नही रहते, यद्यपि उनका अस्तित्व तो तब भी होता हैं । कारण, उस समय जाग्रत मन उन सबको पर्देकी आडूमें छिपा देता है, बहुत कुछ वैसे ही जैसे रविरश्मियोका पर्दा अपनी आडमे विद्यमान बृहत् नक्षत्रलोकोंको हमसे छिपाये रखता है । फलत: तब उपरितलीय आत्मा तथा बाह्य जगतके सिवा और कुछ भी नहीं. रहता । निद्राका अभिप्राय है अन्दरकी ओर जाना जिसमे उपरितलीय आत्मा और बाह्य जगत् हमारे इन्द्रियानुभव तथा दृष्टिशक्तिसे ओझल हो जाते हैं । परन्तु माधारण निद्रामें हमें आभ्यंतर जगतोंका ज्ञान नही होता; हमें अपनी सत्ता गहरी

 

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अवचेतनामें डूबी प्रतीत होती है । इस अवचेतनाके उपरितलपर एक धुँधली सतह तैरती रहती है । हमें ऐसा प्रतीत होता है कि स्वप्न हमें इसी सतहमें आते हैं, किंतु असलमें वे वहां केवल अंकित ही होते हैं । जब हम बहुत गाड़ी नीदमें चले जाते हैं, तब हमें एक इस प्रकारकी नींद आती है जो हमें निःस्व निद्रा प्रतीत होती है । परंतु वास्तवमें स्वप्न आ तो रहे होते हैं पर वे इतने गहरे तलमें होते हैं कि अंईकेत करनेवाली सतहपर पहुँच ही नही पाते अथवा वे भूल जाते हैं । जाग्रत चेतनाकी अवस्था तक हमारे पहुँचते पहुँचते उनके आ चुके होनेकी स्मृति भी सारी-की-सारी मिट जाती है । साधारण स्वप्न अधिकांशत: बे-सिर-पैरके होते हैं या, कमसे कम, वे प्रतीत ऐसे ही होते हैं, क्योंकि अवचेतन सत्ता इनकी रचना उन गहरे जमे संस्कारोसे करती है जो हमारे व्यतीत वाद्ययंत्र जीवनसे इसपर पड़ते हैं । यह रचना वह ऐसे मनमौजी ढंगसे करती है कि जाग्रत मनकी स्मृतिके स्वप्नके अर्थका कुछ भी अता-पता आसानी- सै नहीं मिलता । अथवा ये स्वप्न निद्राके पर्देके पीछे होनेवाले अनुभवोंके आशिक अंकन होते हैं और सों भी अधिकतर विरूप । निश्चय ही ये दोनों चीज़ें परस्पर अत्यधिक मिल-जुल जाती हैं । वास्तवमें निद्राके समय हमारी चेतनाका एक बड़ा भाग इस अवचेतन अवस्थामें निमज्जित नही होता । यह पर्देको पारकर सत्ताके उन अन्य स्तरोंमें चला जाता है जो हमारे आंतरिक स्तरोंसे संबद्ध हैं, अर्थात् अतिभौतिक  सत्ताके उन स्तरों, और विस्तीर्णतर प्राण, मन या चैत्य के उन लोकोंमें जो पर्देके पीछे हैं और जिनके प्रभाव हमें बिना पता चले ही हमतक पहुँचते हैं । कभी कभी हम इन लोकोंसे स्वप्न प्राप्त करते हैं, एक ऐसी चीज प्राप्त करते हैं जो स्वप्नसे अधिक कुछ होती है,-एक ऐसा स्तन्य अनुभव जो उन लोकोंमें हमारे साथ या हमारे चारों ओर होनेवाली घटनाका साक्षात् या प्रतीका- त्मक अंकन  होता है । जैसे जैसे अंतश्चेतना साधना द्वारा बढ्ती हैं वसा वैसे इन स्वप्त अनुभवोंकी संख्या, स्पष्टता, संगति एवं यथार्थतामें वृद्धि होती जाती है । अनुभव तथा चेतनाके कुछ विकासके बाद, यदि हग निरीक्षण करें तो हम उनको तथा अपने अंतर्जीवनके लिये उनके महत्त्वको समझने लग सकते हैं । यहा तक कि हम अभ्याससे इतने सचेतन बन सकते हैं कि अपनी अनेक स्तरोंमेंसे होकर जानेकी क्रियाको, जो साधारणतया हमारी सजगता और स्मृतिसे छिपी रहती 'बे, तथा जागरित अवस्थामें वापिस आनेकी प्रक्रियाको भी जान सकें । इस आंतरिक सजगताकी विशेष ऊंची अवस्थामें इस प्रकारकी निद्रा, अनुभवोंकी निद्रा, साधारण अवचेतन तंद्राका स्थान ले सकती है ।

 

        इस प्रकार -- साधारणरीत्यनुसार निद्राके पर्देके पीछे नही, बल्कि स्वत. निद्रामें ही -- जो तत्त्व विकसित होता है वह निःसंदेह आतर पुरुष या चैतन्य, या अन्तरात्माका हीं कोई अंश होता है । जिस अवस्थाका तुमने वर्णन किया है उसमें अंतः पुरुष अभी निद्रा और स्वप्नसे सज्ञान होकर उनका निरीक्षण कर रहा है - किंतु अभी तक इससे अधिक कुछ नही - यदि तुम्हारे स्वप्नोंके स्वरूपमें कोई और ऐसी चीज नही जो तुम्हारी स्मृति से छूट गई हों । परंतु यह अंतः पुरुष इतना काफी जागरित

 

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है कि उपरितलीय चेतना इस अवस्थाको स्मरण रख सकती है, अर्थात् इसका वृत्तांत प्राप्त करके, निद्रासे जागरित अवस्थाकी ओर लौटती हुई भी, उसे स्थिर रख सकती है, चाहे साधारणतया इस लौटनेकी क्रियामें स्वप्त घटनाओंके अंकनके कुछ एक अंशों- के सिवा शेष सब विस्मृतिके गर्भमे विलीन हो जाते हैं । तुम्हारा यह अनुभव ठीक है कि जाग्रत चेतना और निद्रामें जागरित रहनेवाली चेतना एक ही नहीं हैं - ये सत्ता- के भिन्न-भिन्न भाग हैं ।

 

       जब आंतरिक निद्रा-चेतनाका यह विकास आरंभ होता है तब चाहे नींदकी जरूरत या थकावट न भी हो तो भी भीतर जाकर बिकाससाधनमें लगे रहनेका आर्क्षण प्रायः ही होता है । एक और कारण भी इस आकर्षणका साथ देता है । साधारणतया अन्तःपुरुषका प्राणमय भाग ही निद्रामें सर्वप्रथम जागता है और साधारण स्वप्नोंके विपरीत प्रारंभिक स्वाप्त अनुभव प्रायः अधिकांशमें प्राणमय स्तरके होते हैं । प्राणमय स्तरका अभिप्राय हे अतिभौतिक जीवनका लोक जो विविधता तथा रोचकतासे पूर्ण एक और प्रकाशमय या अन्धकारमय, मनोहर या भयंकर और प्रायः अतीव आकर्षक, अनेक प्रदेशोंसे युक्त है । इन प्रदेशोमें हम अपनी प्रकृतिके प्रच्छन्न भागोंका और साथ ही पर्देके पीछे हमारे साथ घटनेवाली घटनाओंका एवं हमारी प्रकृतिके अंगोंके विकाससे संबद्ध बातोंका बहुत कुछ ज्ञान भी प्राप्त कर सकते हैं । सुतरां, हमारे अन्दरका प्राणमय पुरुष अनुभवके इस क्षेत्रके प्रति अत्यधिक आकृष्ट हों सकता है, उसकी ऐसी इच्छा हों सकती है कि वह इसमें अधिक निवास करे और बाह्य जीवनमें कम । इसी आकर्षण- के कारण किसी रोचक और मोहक वस्तुकी ओर लौट जानेकी कामना होती है और फिर इसके लिये हम सो जाना चाहते हैं । किंतु निश्चय ही जागरित अवस्थामें इस कामनाको उत्साहित नहीं करना चाहिये, इसे निद्राके उन नियत घंटोंके लिये रख छोड़ना चाहिये जिनमें यह अपना स्वाभाविक क्षेत्र प्राप्त करती है । अन्यथा एक प्रकारका असंतुलन पैदा हों सकता है, अतिभौतिक लोकोंके दृश्येंमें अपेक्षाकृत अधिक तथा अतीव अधिक निवास करनेकी प्रवृत्ति और बाह्य वास्तविकताओंपर अधिकारकी कमी पैदा हों सकती है । आंतर विश्वप्रकृतिके इन क्षेत्रोंका ज्ञान और इनके संबंधमें हमारी चेतनाका विस्तार अतीव वांछनीय है, पर इसे इसके अपने स्थान और सीमाओं- मे ही मर्यादित रखना होगा ।

 

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 अपने पिछले पत्रमें मैंने तुम्हारे तीसरे अनुभवकी व्याख्या स्थगित रखी थी । तुमने जिस चीजका संस्पर्श अनुभव किया हैं वह आत्मा ही है,-आत्मा अर्थात् अन्त:- पुरुष या आंतर मनोमय, प्राणमय एवं अन्नमय पुरुषको धारण करनेवाला चैत्य पुरुष जिसका वर्णम मैं पहले कर चुका हूँ । परन्तु यह ऊर्ध्वस्थित अज आत्मा या उपनिषदुक्त आत्मा नहीं है,-क्योंकि उसका अनुभव तो भिन्न प्रकारसे, अर्थात् चिन्तनात्मक मनकी निश्चलनीरवता द्वारा होता है । पूर्ण आत्मज्ञानके प्रत्येक जिज्ञासुके जीवनमें एक

 

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ऐसी घड़ी अवश्य आती है जब वह अपनेको इस प्रकार एक ही समय दो लोकों, दो चेतनताओं या एक ही सत्ताके दो भागोंमें रहता हुआ अनुभव करता है । इस समय वह बाह्य चेतना, बाह्य सत्तामें रहता है और भीतर अन्तरात्माको देखता है । परन्तु उसे अधिकाधिक अन्दरकी ओर जाना होगा, ताकि यह अवस्था पलट जाय और वह भीतर इस नई आंतरिक चेतना एवं आंतरिक आत्मामें निवास करने लगे तथा बाह्य चेतनाको इस रूपमे अनुभव करे कि यह उपरितलकी कोई चीज है जो स्थूल जगत्में आंतर पुरुष- के आत्मप्रकाशके लिये साधनभूत व्यक्तित्वके तीरपर गठित है । तदनंतर भीतरसे एक प्रमा शक्ति बाह्य व्यक्तित्वको सचेतन तथा सुनम्य यंत्र बनानेके लिये इसपर प्रभाव डालती है ताकि अतमें आंतर और बाह्य घुल-मिलकर एक हों जाय । जिस दीवारका तुम्हें अनुभव होता है वह निश्चय ही अहंकी दीवार है । इसका आधार है -- बाह्य व्यक्तित्व एवं उसर्को चेष्टाओंके साथ अपने आपको आग्रहपूर्वक एकाकार करना और अपनेको वही कुछ समझना । यह एकाकारता ही विस्तार, आत्मज्ञान तथा आध्यात्मिक स्वातन्त्रयमें बाधा डालती है, यही उन बाधाओं और बंधनोंकी आधार-शिला है जिनके कारण बाह्य सत्ता दुःख भोगती है । तथापि दीवार को समयसे पूर्व कदापि नही ढाहना चाहिये क्योंकि संभवतः उसका परिणाम होगा -- दो पृथक् लोकोंकी गतियों द्वारा किसी एक भाग ( आंतर या बाह्य) का ऐसे समयमें विदारण या अस्तव्यस्तीकरण या उसपर आक्रमण जब कि वे लोक समस्वर होनेके लिये अभी तैयार नही हुए । करा व्यक्तिको सत्ताके इन दो भागोंका इस रूपमें ज्ञान हो जाय कि ये दोनों एक साथ विद्यमान हैं उसके बाद भी थोड़े समयके लिये कुछ पार्थक्य आवश्यक होता है । योगशक्तिको अवकाश देना होगा ताकि वह आवश्यक सुव्यवस्थाएं और उद्घाटन संपन्न करके सत्ता- को अन्दरकी ओर ले जाय और फिर इस अंतर्मुख स्थितिसे बाह्य प्रकृतिपर प्रभाव डाल सके ।

 

        इसका अर्थ यह नही कि व्यक्ति चेतनाको यथाशीघ्र सत्ताके आंतरिक जगत्में निवास करने और वहांसे सब कुछ नयी दृष्टिसे देखनेके लिये भीतर जानेका अवसर ही न दे । यह अन्तर्मुख गति तो अत्यंत वांछनीय एवं आवश्यक है और वैसे ही दृष्टि- का यह परिवर्तन भी । मेरा आशय इतना ही है कि यह सब बिना जल्दी मचाये सहज गतिसे करना चाहिये । भीतर जानेकी गति शीघ्र ही प्रारंभ हों सकती है, किंतु उसके बाद भी अहंभावकी दीवारका कुछ भाग विद्यमान रहेगा हीं और इसे स्थिरता एवं धैर्यपूर्वक भूमिसात् करना होगा, यहांतक कि इसका एक भी पत्थर गड़ा न रहने पाय । मेरी जो यह चेतावनी है कि निद्रा - लोकको जागरित अवस्थापर बलपूर्वक आक्रमण और अधिकार नही करने देना चाहिये उसका तात्पर्य बस यहीं है, और सजग एकाग्रता या साधारण जाग्रत चेतनामें होनेवाली अन्तर्मुख गतिसे उसका कुछ संबंध नहीं । जाग्रत गति हमें अन्ततः अन्तरात्मामें ले जाती हैं और अन्तरात्माके द्वारा अतिभौतिक लोकों- से हमारा संबंध बढ़ता है और साथ हीं उनके विषयमें हमारा ज्ञान भी । किंतु इस संबंध और ज्ञानके कारण हमें उनमें अतिमात्र व्यस्त या उनकी सत्ताओं तथा शक्तियों- के अधीन हों जानेकी आवश्यकता नही और न ही हमें इस प्रकार व्यस्त या अधीन

 

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होना चाहिये । निद्रामें हम सचमुच ही इन लोकोंमें प्रवेश करते हैं और यदि निद्रा- चेतनाका आकर्षण अतीव महान् हों तथा जाग्रत चेतनापर बलपूर्वक अधिकार कर लें तो इस अतिमात्र व्यस्तता और प्रभावपरवशताका भय है ।

 

          यह सर्वथा सत्य है कि आंतरिक पवित्रता और सचाई, जिसमें व्यक्ति केवल उच्चतर पुकारसे हीं प्रेरित होता है, मध्यवर्ती अवस्थाके प्रलोभनोंसे बचनेके लिये ब्यक्तिका सर्वोत्तम रक्षासाधन है । यह व्यक्तिको सदा सही मार्गपर चलाता है और पथभ्रष्ट होनेसे बचाता रहता है । अन्ततोगत्वा चैत्य पुरुष पूरी तरह जागकर सामने आ जाता नै और, जब एक बार ऐसा हो जाता है तब आगे कोई भय नही रहता । यदि इस पवित्रता और सचाईके साथ-साथ मनमें विवेक-शक्ति और स्पष्टता भी हों तो वह प्रांरभिक अवस्थाओंमें सुरक्षाको और भी बढ़ाती है । प्रलोभन या आकर्षण क्या क्या रूप धारण कर सकता है इसका पूरे विस्तारसे या ठीक ठीक वर्णन करना, मेरे विचारमें, न तो आवश्यक है और न ही मुझे ऐसा करना चाहिये । इन शक्तियोंकी ओर ध्यान देकर, जिसकी शायद कोई जरूरत भी नही होती, इन्हें जगाया ही न जाय तो अधिक अच्छा होगा । मैं नहीं समझता कि तुम किसी बहुत बड़े भय संकुल आकर्षण- के कारण पथसे व्युत हो सकते हों । जहां तक मध्यवर्ती अवस्थाकी छोटी-मोटी कठिनाइयोंका प्रश्न है वे भयानक नही होतीं और जैसे जैसे व्यक्ति चेतनाके विकास, विवेक और असंदिग्ध अनुभवके सहारे अग्रसर होता है वैसे वैसे वे आसानीसे दूर की जा सकती !

 

          जैसा मैं कह चुका हूँ, आंतरिक आकर्षण अर्थात् भीतर जानेके लिये आकर्षण अवांछनीय नही है और इसका प्रतिरोध करनेकी आवश्यकता नही । एक विशेष अवस्थामें यह अपने साथ अनेकानेक दिव्यदर्शन भी ला सकता है, क्योंकि तब एक ऐसी अंतर्दृष्टि विकसित हों जाती है जो सत्ताके सभी स्तरोंकी वस्तुओंका साक्षात्कार करती है । यदु आकर्षण एक अमुल्य शक्ति है जो साधनामें सहायक है; इसे दबाना नही चाहिये । परंतु अन्त:स्थ परम आत्मा और भगवान्के साक्षात्काररूपी मुख्य लक्ष्यको सदा समक्ष रखते हुए व्यक्तिको आसक्तिके बिना अवलोकन एवं निरीक्षण करना चाहिये । इन चीजोंको केवल ऐसा समझना चाहिये कि ये चेतनाकी वृद्धि मे प्रासंगिक और सहायक हैं, ऐसा नही कि ये अपने-आपमें अपनी ही खातिर अनुसरणीय लक्ष्य ३ । अपिच, व्यक्तिको एक ऐसे विवेकशील मनकी भी आवश्यकता है जो प्रत्येक वस्तुको उसके अपने अपने स्थानपर सन्निविष्ट कर उसका क्षेत्र तथा स्वभाव समझनेके लिये प्रतीक्षा कर सके । ऐसे भी कुछ लोग होते हैं जो इन सहायक अनुभवोंके लिये इतने उत्सुक हों जाते है कि वे सद्वस्तुके विभिन्न क्षेत्रोंके वास्तविक तारतम्य और सीमाका समस्त विवेक भी खेने लगते हैं । इन अनुभवोंमें जो कुछ भी घटित होता है वह सबका सब सत्य नही समझ लेना चाहिये । व्यक्तिको विवेक करनेकी आवश्यकता होती है, यह देखना होता है कि कौनसी चीज मानसिक आकृति या आंतरिक रचना है और कौन- सी चीज सत्य है, कौनसी चीज ऐसी है जो विस्तीर्णतर मनोमय और प्राणमय स्तरों- से प्राप्त निर्देशमात्र है अथवा किस चीजका केवल वहीं वास्तविक अस्तित्व है और किस

 

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चीजका आंतरिक साधना या बाह्य जीवनमें सहायता या पथप्रदर्शनके लिये महत्त्व

 

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       'क्ष' के अनुभव ऐसे हैं जो साधारणत: बाह्य चेतनासे अनुभवकी आंतरिक भूमिकामें पीछे हटनेके साथ आया करते हैं । प्रथम अनुभवमें शरीरके ठंडा हों जानेका वेदन -- '' के अनुभवोंमें शरीरके निश्चेष्ट और अकड़ जानेकी तरह -- उन चिह्नोंमेंसे एक है इसीलिये चेतना बाह्य अथवा अन्नमय कोषसे पीछे हटकर भीतरकी ओर जा रही है । स्फटिकीकरण एक ऐसा रूप था जिसमें उसने उस आंतर चेतनाके संगठनका अनुभव किया जो ऊपरसे आनेवाली वस्तुको दृढ़ता और साथ ही स्वतंत्रता पूर्वक ग्रहण कर सकती थी । स्फटिक संगठित रचनाके साथ साथ उस स्थायी पार- दर्शिताको भी सूचित करते है जिसमें उच्चतर भूमिकाओंसे अवतरित होते हुए बृहत्तर सूक्ष्मदर्शन और अनुभव स्पष्ट रूपसे प्रतिबिम्बित हो सकें ।

 

         जहांतक दूसरे अनुभवका प्रश्न है, उसने जाग्रत चेतनाका जो परित्याग किया उसका प्रत्यक्ष हीं यह परिणाम हुआ कि उसने उसे एक ऐसी आंतरिक चेतनामें फेंक दिया जिसमें वह अतिभौतिक भूमिकाओंके संपर्कमें आने लगा । लाल रंगके समुद्र और तारोंका क्या आशय है यह तो लाल रंगके स्वरूपपर निर्भर करता है । यदि यह किरमिजी रंगका था तो उसने जो कुछ देखा वह भौतिक चेतना और भौतिक जीवनका समुद्र था जैसा कि वह आंतर प्रतीकात्मक सूक्ष्मदृष्टिके सामने प्रस्तुत हुआ है, यदि यह जामनी-लाल था तो यह प्राणिक चेतना और प्राणिक जीवन शक्तिका सागर था । यदि उसने श्रीमांके सामीप्यके भावको रोक न दिया होता तो शायद और भी अच्छा होता - बल्कि हों सके तो उसे इस सामीप्यको अपने साथ आंतर भूमिकाओंमें भी ले जाना चाहिये, तब उसे भयका कोई अवकाश न रहता ।

 

        जो भी हों, यदि वह आंतर चेतनामें जाना और आंतर भूमिकाओंमें विचरना चाहता हो - जिसका होना अवश्यंभावी है यदि वह अपने ध्यानमें जाग्रत चेतनासे आंखें मंच लें - तो उसे भयको त्याग देना होगा । बहुत संभवत: वह गीताके निर्देश- का अनुसरण करके दिव्य चेतनाकी नीरवता या उसका स्पर्श पानेकी आशा करता था । किन्तु दिव्य चेतनाकी नीरवता या उसका स्पर्श भीमाकी उपस्थिति और ऊपर- के स्तरसे चेतनाके अवतरणके द्वारा (पूर्वोक्त विधिके समान हीं) और कुछ लोगोंको तो उससे भी अधिक आसानीसे जाग्रत अवस्थाके ध्यानमें हीं प्राप्त हो सकता है । तथापि अंतर्मुख किया संभवत: अनिवार्य है और उसे समझनेका एव, झिझके या भयभीत हुए बिना जाग्रत ( अवस्था) के ध्यानमें श्रीमांके लिये जो श्रद्धा और विश्वास था उसी- के साथ इसके पास जानेका उसे यत्न करना चाहिये । निःसंदेह, उसके अन्उभव आंतर (प्राणिक) स्तरके हैं; मुझे '' के लिये पहले ही किये जा चुके स्पष्टीकरणको दुहरानेकी आवश्यकता नही ।

 

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        पुनश्च :-महादेवकी मूर्तिके संबंघमें हुए स्वप्नका यह अर्थ हो सकता है कि (निःसंदेह, इस जगत् से भिन्न) कोई व्यक्ति इसे पथभ्रष्ट करना चाहता था और उसके मनमें जिस बृहत्तर जीवन्त सत्यको बह खोज रहा था उसके साय भूत कालके किसी अधिक संकीर्ण परम्परागत रूपको उलझा देना चाहता था ।

 

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     जिन चीजोंका तुम अनुभव कर रहे हो उनका कारण यह तथ्य है कि चेतना अन्दर चली जगती है, इसलिये भौतिक वस्तुएं ऐसी लगती हैं मानों वे दूरीपर स्थित हों । यही प्रतीति तब हो सकती है जव कोई चेतनाके अन्य स्तरमें जाकर वहांसे भौतिक पदार्र्थोको देखता है । पर बहुत करके यह घटना तुम्हारे साथ पहलीबार हुई है । बिल- कुल अंदर जानेगर स्थूल चीज़ें अदृश्य हो जाती हैं,--उनके साथ कोई संबंध कायम करने- पर, वे दूर हो जाती हैं । किंतु यह अस्थायी परिवर्तन है । आगे जाकर तुम दोनों चेतनाओंको एक साथ धारण कर सकोगे - अपने एक अंगमें तो तुम चैत्य पुरुष और प्रकृतिके सारे अनुभव और क्यिाओंके साथ अपने चैत्यमें रहोगे और तो भी इसके साथ ही तुम्हारा उपरितलीय आत्मा स्थूल वस्तुओंके विषयमें बाह्य क्रियाके पीछे चैत्यके आश्रय और प्रभावके साय ही पूर्ण जाग्रत और सक्यि रहेगा ।

 

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         स्पष्ट ही तुम भ्रातिका जगत्में नहीं पर सूक्ष्म जगत्में विचरण कर रहे हो; यह वस्तुओंकी भिन्न प्रकारकी व्यवस्थासे प्रत्यक्ष है पर ऐसे ब्यौरे जैसे कि तीसरी भुजा और पुस्तक-पर्णी जो हटाई जानेपर भी बही स्थित है, यह बताते हैं कि यह ऐसा सूक्ष्म जगत् है जो स्थूल भौतिक प्रदेशके निकट है; या तो यह सूक्ष्म भौतिक जगत् है या अति स्थूल प्राणिक क्षेत्र । सब मूल्य क्षेत्रोंमें स्थूलको थोड़ा परिवर्तित करके फिरसे आकार दिया जाता है, जैसे जैसे व्यक्ति और अधिक आगे जाता है यह परिवर्तन अधिकाधिक मुक्त और नमनीय होता जाता है । ऐसे ब्यौरे जैसे कि लंगड़ापन आदि इसी बातको बताते हैं,-कि उसपर अब भी स्थूलकी पकड़ है । स्थूल जगत्में इधर उधर विचरण करना संभव है, पर वह भी साधारणतया रूपकों अधिक बलशाली स्थूल आकार देनेके लिये केवल अन्य स्थूल सत्ताओंके वातावरणसे पोषण प्राप्त करनेके द्वारा ही किया जा सकता है - जब यह होता है तो व्यक्ति उनमें तिचरता है और उन्हें और आसपास- की चीजको ठीक उसी रूपमें देखता है जैसी कि उस समय वे स्थूल जगत्में होती हैं और व्यक्ति ब्योरेकी यथार्थताकी जांच कर सकता है यदि शरीरमें लौटनेके तुरंत बाद (जो सामान्यतया इसमें लौटनेकी संपूर्ण प्रक्रियाके विषयमें स्पष्ट ज्ञान होनेपर ही किया जाता है) उसी दृश्यको स्थूल शरीरमें भी फिरसे आरपार देख सके । किंतु ऐसा बहुत कम हीं होता है; इसके विपरीत सूक्ष्म विचरण एक ऐसी घटना है जो प्रायः होतीं है,

 

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केवल इतना है कि जब वह भौतिक जगतके बहुत निकट होती है तो सब बहुत अधिक स्थूल और ठोस प्रतीत होता है और सूक्ष्म घटनाओंके साथ स्थूल आदतों और स्थूल मानसिक-क्रियाओंका साहचर्य अधिक निकट होता है ।

 

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        यह चेतनाका आशिक बहर्गमन था, चेतनाका एक भाग बाहर निकल कर उस दृश्य एवं परिवेशमें चला गया जिसका तुमने वर्णन किया है जब कि शेष भाग शरीरमें ही रहा और वह सामान्य परिवेशसे और, संपर्क अथवा अप्रत्यक्ष भाग लेनेके द्वारा दूसरा अंश जो अनुभव कर रहा था उससे भी अभिज्ञ था । यह बिलकुल संभव है और इसके लिये किसी प्रकारकी समाधि या बाह्य चेतनाको खो देना आवश्यक नही है । जहांतक इस प्रकारके अनुभवके कारणका प्रश्न है, यह ब्यक्तिकी अपनी साधारण मान- सिक या अन्य रुचियोंपर जरा भी निर्भर नहीं करता; यह एक प्रकारके आकर्षणसे या किसी ऐसे व्यक्तिके स्पर्श द्वारा आता है जो उस घटना स्थलपर होता है और जो सहानुभूतिकी, किसी प्रकारके सहारे या सहायताकी आवश्यकताका अनुभव करता है, एक ऐसे तीव्र आवश्यकताका जो एक पुकारका रूप धारण कर लेती हैं; प्रायः बहुत करके यह कोई बिलकुल अज्ञात व्यक्ति होता है और यह बात बस उस ब्यक्तिपर निर्भर करती है जिसे हमारी पुकार स्पर्श करती है क्योंकि वह उस समय उद्घाटित होता है और स्पन्दनको ग्रहण करता है एवं उसमें उसका उत्तर देनेकी क्षमता भी होती है । इसमें साधारणतया पुकार करनेवाले पुरुषकी चेतनाके साथ हमारी चेतनाका एक प्रकारका तादात्म्य होता है जिसके कारण वह दूसरे व्यक्तिके परिवेश और उसके द्वारा होनेवाली घटनाओंको भी देख सकता है । इन अनुभवोंसे स्थूल सत्ता घबरा जाती है । इसपर हमें विजय प्राप्त करनी होगी; ज्योंही आंतर मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक चेतना मोटे भौतिक- आवरणके पीछेकी वस्तुओंके प्रति उद्घाटित होती है त्योंही सभी तरहके ऐसे अनुभव प्रकट हो सकते हैं जो स्थूल मनको विलक्षण लगें और इन वस्तुओंसे डरने और अधीर होनेकी उसकी प्रवृत्तिको हटना ही होगा । इसे (स्थूल चेतनाको) भयानक वस्तुओंका भी बिना किसी भयके मुकाबला करनेमें समर्थ होना होगा ।

 

        जहांतक आंखोंका प्रश्न है, उस अनुभवको एक विशेष पकडू प्राप्त हो गई थी और यह आशा नही थी कि यह एकबारगी बिलकुल हट जायगा । ये वस्तुएं चिपटे रहनेकी चेष्टा करती हैं; पर अस्वीकृतिके दृढ और अटल रहनेपर कुछ समय बाद मन्द पडू जाती है या नष्ट हों जाती हैं । आनन्दकी तीव्रताका कम हों जाना इस बातका पूर्व चिह्न है कि अस्वीकृतिका अपना प्रभाव हों रहा है । तुम्हें केवल डटे रहना चाहिये और कुछ समयके बाद प्राणिक चेतना मुत्त हो जायगी ।

 

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        तुम जिस स्थानपर गये थे वह स्थूल जगत् जितना ही यथार्थ और वास्तविक जगत् है - और उसकी घटनाओंका कभी कभी इस जगत् पर भारी प्रभाव पड़ता है । कितने अज्ञानी शिष्य हों तुम सब । अत्यधिक आधुनिकता और युरोपीयपनकी हद हीं हों गई ।

 

        ये वस्तुएं प्राणिक भूमिका पर होनेवाले सम्मिलन हैं, परन्तु बहुधा जो घटना होती है उसके प्रतिलेखमें कुछ ऐसे विवरण घुस आते है जो अवचेतनकी देन होते है । बाकी सब ठीक लगता दु । माथेपर अंकित लिपिका निःसंदेह यह अर्थ है कि कोई वस्तु तुम्हग्रे अंदर प्राणिक स्तरमें स्थिर हों गई है और वह आगे चलकर स्थूल चेतनामें आकर रहेगी ।

 

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       भौतिक रूपसे तुम अत्यन्त यथार्थवादी हो । इसके सिवाय तुम गुह्य वस्तुओंके विषयमें बिलकुल अज्ञान हों । प्राण वह भाग है जिसे पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक कभी कभी प्रच्छन्न सत्ता कहते हैं और प्रच्छन्न सत्ता, जैसा कि प्रत्येकको जानना चाहिये, ऐसे कार्य कर सकतीं है जिसे स्थूल सत्ता नही कर सकतीं -- उदाहरणके लिये जिस प्रश्नको हल करनेमे भौतिक सत्ता वृथा हीं अनेक दिन लगा चुकी होतीं है उसे कुछ हीं मिनिटोंमें हल करना आदि आदि ।

 

        दोनों स्तरोपर वस्तुओंके होनेका क्या लाभ ' यह निष्प्रयोजन और बेकार होगा । प्राणिक स्तर एक ऐसा स्तर है जहां वें कार्य किये जा सकते है जो इस समय एक या अन्य कारणवश भौतिक स्तरपर नही किये जा सकते ।

 

        निःसंदेह प्राणमें सैकड़ों प्रकारकी नानाविध वस्तुएं हैं क्योंकि चेतनाका यह प्रदेश स्थूल चेतनाकी अपेक्षा कही अधिक समृद्ध और नमनीय प्रदेश है, और उन सब वस्तुओकी प्रामाणिकता और महत्ता समान नही होती । मैं ऊपरकी उन्हीं वस्तुओंके विषय- मे कह रहा हूँ जो प्रामाणिक हैं । प्रसंगवश, इस प्राणिक भूमिकाके बिना कोई कला, कविता या साहित्यका कोई अस्तित्व न होता -- ये चीजों यहा अभिव्यक्त हों सकनेके पहले प्राणमें होकर आती हैं ।

 

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        तुम जो विभिन्न प्राणिक लोकोंकी बात करते हो वह निः सदेह रोचक है और उसमें कोई सत्य है, परन्तु तुम्हें याद रखना चाहिये कि ये लोक जो सच्चे या दिव्य प्राणक लोकोंसे भिन्न है, सम्मोहन और भ्रांतियोंसे भरे होते हैं और सौंदर्यके ऐसे आभासोंको प्रस्तुत करते हैं जो पथभ्रष्ट करने या नष्ट करनेके लिये ही प्रलोभित करते हैं । वे 'राक्षसीमाया' के लोक हैं और उनके स्वर्ग उनके नरकोंसे भी अधिक खतरनाक होते हैं । हमें उन्हें जानना चाहिये एव आवश्यकता पडनेपर उनकी शक्तियोंका सामना

 

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करना चाहिये पर उन्हें स्वीकार नही करना चाहिये; हमें केवल अतिमानससे ही सरोकार है और प्राणसे केवल तभी जब यह अतिमानसिक हो जाय और जबतक ऐसा न हो जाय तबतक हमें सदा ही अन्य स्थानसे आनेवाले प्रलोभनोंसे अपनी रक्षा करनेमे तत्पर रहना होगा । मैं समझता हूँ तुम जिन लोकोंके सबन्धमे कहते हो वे ऐसे लोक हैं जिनमे विशेष आकर्षण है और जिनमे कवियों, कल्पनाशील लोगों और कुछ कला- कारोंके लिये विशेष आकर्षण  विशेष सकट भी होता है । इनमें विशेष रूपसे उस सौन्दर्यभावापत्र प्राणिक संवेदनशीलता या भावुकता यहांतक कि रसात्मकता पर भी भार दिया जाता है जिसके द्वारा वे सत्ताको प्रभावित करते हैं और वह उन वस्तु- ओंमेंसे एक है जिनका सर्वोच्च कविता, कला या कल्पनाशील सर्जन तक उन्नत हों सकनेसे पहले शोधन कर लेना आवश्यक होता है ।

 

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          जब प्राणिक सत्ता बाहर निकल जाती है तो यह प्राणके स्तरपर और प्राणिक चेतनामें विचरण करती है और, स्थूल दृश्यों और पदार्थोंके विषयमें मचेनन होनेपर भी उन्हें स्थूल दृष्टि द्वारा नही जानती । यह केवल उसीके लिये संभव है जिसने प्राणिक शरीरमें विचरण करते हुए भी, अन्दर स्थूल वस्तुओंके स्पर्शके आने, उन्हें ठीक ठीक रूपमे देखने और अनुभव करने, यहांतक कि उनपर क्रिया करने और उन्हें भौतिक रूपसे परिचालित करनेकी क्षमताओंको सधा लिया । किंतु वह सामान्य साधक जिसे इन वस्तुओंका ज्ञान, व्यवस्थित अनुभव या दशिक्षण प्राप्त नही है, ऐसा नही कर सकता । उसे यह समझना होगा कि प्राण जगत् स्थूल जगतसे भिन्न है और यह भी कि उस जगत्में होनेवाली घटनाएं स्थूल नही होती, यद्यपि, यदि वे ठीक प्रकार- की हों और उन्हें सही ढगसे समझा और प्रयोगमें लाया जाय, तो उनका पार्थिव जीवनके लिये कोई अर्थ और मूल्य हों सकता है । पर प्राणचेतना मिथ्या रचनाओंसे और बहुत उलझनोंसे, भी भरी हुई है तथा विना ज्ञानके और बिना सीधे संरक्षण या पथ प्रदर्शनके उनमें विचरण करना निरापद नही होता ।

 

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           तुम शरीरको अरक्षित छोड़कर उससे बाह्रा निकल गये होंगे और उसपर आक्रमण हुआ जिससे तुम शरीरमें आनेके बाद ही अपना पिंड छुडा सकें । कानोंसे लेकर नीचे गर्दनतक सिरका यह भाग स्थूल मनका स्थान है - स्थूल मनका या बाह्य रूप देंने- वाले मनका केंद्र गलेमें है जो पीठमें मेरुदण्डसे जा मिलता हे । यह आक्रमण स्थूल मनपर हुआ था ।

 

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       तुम्हारे पत्रमें उल्लिखित तुम्हारी तीन अनुभूतियोंका यह अर्थ था कि तुम अपने प्राणिक शरीरको लेकर प्राण लोकोंमें जाते रहे हों और उन लोकोंकी सत्ता और रचना- ओंके संपर्कमें आते रहे हों । तुमने जो मन्दिरका बूढ़ा आदमी और लड़कियां देखी वे प्राण लोककी विरोधी सत्ताएं है ।

 

       जबतक मनुष्यको भौतिक रूपमें किसी ऐसे ब्यक्तिका संरक्षण न प्राप्त हो जिसे प्राण लोकका ज्ञान हों और उसपर अधिकार प्राप्त हों, तबतक इस मार्गमें न जाना ही अधिक अच्छा है । क्योंकि वहां कोई ऐसा व्यक्ति नही है जो तुम्हारे लिये यह काम कर सके इसलिये तुम्हें इस क्रियासे पीछे हट जाना चाहिये । हृदय और मनमें पूर्ण समर्पण, स्थिरता, शांति, प्रकाश, चैतन्य और सामर्थ्यके लिये अभीप्सा करो । जब इस प्रकार मानसिक और आंतरात्मिक सत्ता उद्घाटित, आलोकित और समर्पित हो जाय तब प्राण उद्घाटित होकर उसी आलोकको ग्रहण कर सकता है । तबतक प्राणिक लोकमें असामयिक अभियान करनेकी सलाह नही दी जा सकती ।

 

        यदि यह क्रिया न रोकी जा सके तो निम्र निर्देशोंका पालन करो.

 

    1 किसी भी भयको कभी भी अपने अन्दर न आने दो । इस जगत्में तुम जिससे भी मीलों या जिन्हें भी देखी उन सबका अनासक्त भावसे और साहस पूर्वक सामना करो ।

 

    2. निद्रा या ध्यानसे पहले हमारे संरक्षणको प्राप्त करनेके लिये प्रार्थना करो । जब भी तुमपर आक्रमण हों या तुम्हें प्रलोभन दिया जाय तब हमारे नामका जाप करो । 3. मंदिरके बूढ़े व्यक्तिके लिये किसी प्रकारकी सहानुभूति रखते हुए इस जगत्में आसक्त न हों जाओ । न ही ऐसे सुझावोंको स्वीकार करो कि वह तुम्हारा आध्यात्मिक गुरु था । यह बात स्पष्ट ही मिथ्या थी क्योंकि तुम हमारे सिवाय अन्य किसीको गुरुके रूपमें स्वीकार नही कर सकते । इस सहानुभूति और सुझावकी स्वीकृतिके कारण हीं वह तुम्हारे अन्दर प्रवेश करके उस पीडाको उत्पन्न कर सका जिसका तुमने अनुभव किया ।

 

     4. एकमात्र ऊपरके प्रकाश, शक्ति इत्यादिके सिवाय अन्य किसी विजातीय व्यक्तित्वको अपने अन्दर मत घुसने दो ।

 

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         ऐसा लगता है कि यह शरीरसे बाहर निकलनेकी क्रिया है जिसमें वह अपने प्राणिक शरीरको लेकर बाहर जाती है । जब व्यक्ति सचेतन होकर अपनी इच्छासे ऐसा करता है, तो सब ठीक चलता है पर अचेतन होकर किया गया इस प्रकारका बहिर्गमन हमेशा निरापद नही होता । महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इसका उसपर क्या प्रभाव पड़ा । यदि यह उसमेंसे बलवान् और ताज़ी होकर या बिलकुल सामान्य अवस्था- मे लौट आती है तो फिर कष्ट या चिन्ताकी बात नही, यदि वह उसमेंसे थककर या खिन्न होकर बाहर आती हो तो इसका अर्थ है कि कुछ ऐसी शक्तियां हैं जो उसके प्राणिक

 

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आवरणको क्षति पहुँचाकर उसे प्राण जगत्में खींच ले जाती हैं और ऐसा नहीं चलने देना चाहिये ।

 

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       'क्ष' के अनुभवोंमें एक लेखका शीर्षक है ' 'सतहकी चेतना' ' । उसमें जिसका उल्लेख है वह है स्नायविक या भौतिक-प्राणिक आवरण । सम्मोहनके माध्यम इसी वस्तुको देखते हैं और इस अल्पाधिक सीमातक बाह्यरूप प्रदान करके वे अपने चमत्कार प्रस्तुत करते हैं । ' क्ष' को इसके संबंधमें कैसे मालूम हुआ ' क्या यह अंतर्बोध द्वारा । सूक्ष्म दर्शनसे या व्यक्तिगत अनुभवके कारण हुआ? यदि इनमेंसे पिछला कारण हों, तो उसे सावधान करो कि वह इस प्राणिक आवरणको बाह्यरूप न दें, क्योंकि इन वस्तु- ओंसे परिचित और उस समय शारीरिक रूपसे उपस्थित व्यक्ति द्वारा दिये गायें पर्याप्त संरक्षणके बिना ऐसा करनेसे स्नायविक सत्ता और शरीरपर गभीर चैत्य संकट आ सकते हैं, वे क्षत-विक्षत भी हों सकते हैं या इससे भी बड़े दुष्परिणाम आ सकते हैं ।

 

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        ऐसे अनुभवोंकी कोई उपयोगिता नही है, वे प्राणिक भूमिकापर तबतक हों सकते हैं जबतक व्यक्तिको अनुभवोंके प्राणिक प्रदेशमेंसे गुजरना अभी भी आवश्यक हों, किंतु लक्ष्य तो इससे भी आगे जानेका और एक विशुद्ध आंतरात्मिक एवं आध्यात्मिक अनुभवमँ निवास करनेका होना चाहिये । अपनी सत्तामें अन्य लोगोंके बलात प्रवेशकों होने देना या उसे बुल लानेका अर्थ है हमेशा ही मध्यवर्ती क्षेत्रकी उलझनोंमें फंस रहना । मनुष्यको अपने व्यक्तिगत आधारमें केवल भगवान्को हीं बुलाना चाहिये -- जिसका मतलब यह नही कि व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत सत्ताको खो दे और भगवान् बनानेका विचार करने लगे, क्योंकि इस बातसे बचना चाहिये । अहंकारको जीतना होगा, पर केंद्रित व्यक्तिगत सत्ताको (जो अहंकार नहीं पर व्यक्तिगत् पुरुष, अन्तरात्मा, भगवानका अंश है) भागवत-शक्तिका माध्यम और यन्त्र बनाकर रहना होगा । जहांतक अन्य लोगों, साधकों आदिका प्रश्न है, व्यक्ति उन्हें अपनी वैश्वावापन्न चेतनामे अनुभव कर सकता है, उनके व्यापारोंके संबंधमें जान सकता हे, सर्वमय भगवान्में उनके साथ सामजस्य पूर्वक रह सकता हे, किंतु उसे उनकी उपस्थितिको अपने व्यक्तिगत आधारमें नही आने देना चाहिये या न बुलाना ही चाहिये । बहुधा यह उन प्राणिक शक्तियों अथवा उपस्थितियोंको चेतनापर आक्रमण करनेके लिये प्रेरित करता है जो इस प्रकार अन्दर प्रवेश करने दी गई सत्ताओंके रूपोंको धारण कर लेती है -- और यह बात अत्यंत अवांछनीय है । साधकको अपनी आधारभूत चेतनाको नीरव, स्थिर, विशुद्ध और शांत बनाना होगा और जिस वस्तुको उसे अन्दर आने देना या रोकना है उसपर संपूर्ण नियंत्रण बनाये रखना या प्राप्त करना होगा - अन्यथा, यदि वह यह नियंत्रण न

 

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रखे तो वह अस्तव्यस्त और अव्यवस्थित अनुभवोंका क्षेत्र बनानेका अथवा सब प्रकारकी मानसिक और प्राणिक सत्ताओं और शक्तियोंका खिलौना बनानेका खतरा मोल लेगा । व्यक्तिको अपने (आधिपत्य या प्रभावके) सिवाय अन्य केवल एक दी आधिपत्य या प्रभावको, अर्थात् आधारपर दिन शक्तिके शासनको ही स्वीकार करना चाहिये ।

 

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           अनुभवोंके संबंधमें तुम्हारे मित्रने जो विवरण दिया है उसके अर्थ एव महत्व- के विषयमें मुझे बहुत विश्वास नही । 'दुहरी' आवाज एक ऐसी घटना है जो प्रायः घटती रहती है; बहुधा यह तब होता है जब व्यक्तिको एक मन्त्रका जाप करते हुए इतना लम्बा समय बीत गया हों कि अन्तरमें कोई वाणी या चेतना उसे स्वत. ही दुहराने लगे -- व्यक्ति इसी ढंगसे प्रार्थनाको भी अपने अन्तरमें आत्मसात् कर सकता है । ऐसा साधारणतया आंतर चेतनाके जाग्रत होनेपर या चेतनाके अपनी बहिर्मुख स्थितिसे अन्दर अधिक गहराईमें जानेपर ही होता है । उसके मामलेमें यह इस तथ्य द्वारा पुष्ट होता है कि वह अपनेको समाधिके अधबीच पहुँचा हुआ अनुभव करता है, उसे लगता है कि शरीर पिघल गया है, एवं पुस्तकके भार अनुभव नहीं होता इत्यादि, ये सब इस बातके सुपरिचित लक्षण है कि, आंतर चेतनाने जाग्रत होकर बाह्य चेतनाका विस्तृत रूपसे स्थान ले लिया है । उसकी इस नई अवस्थाके नैतिक प्रभाव भी आंतर चेतनाके अर्थात् चैत्य या शायद चैत्य-मानसिक चेतनाके जागरणको सूचित करते हैं । किंतु दूसरी ओर वह इस अन्य वाणीको मानो अपनेसे बाहरकी वस्तु अनुभव करता है और सत्ताको अपनेसे भिन्न किसी दूसरी सत्ताके अर्थात् कमरेमें एक अन्य अदृश्य उप- स्थितिके रूपमे मानता प्रतीत होता है । आंतरसंत्ताका प्राय. इस रूपमे अनुभव होता है मानों वह सामान्य सत्तासे पृथक् या भिन्न कोई अन्य सत्ता है, पर साधारणतया वाणी कही बाहर स्थित नही अनुभूत होती । इसलिये यह संभव हैं कि अन्तर्मुख स्थितिमें वह अन्य भूमिका या जगतके संपर्कमें आता हों और वहांकी किसी ऐसी सत्ताको. अपनी ओर आकृष्ट करता हों जो उसकी साधनामें हिस्सा लेना और उसे नियंत्रित करना चाहती है । इनमेंसे अन्तिम स्थिति बहुत निरापद नहीं होती क्योंकि ज्ञात तथ्योंके आधारपर यह कहना कठिन हे कि यह किस प्रकारकी सत्ता है और भगवान्, गुरु या अपने चैत्य पुरुषसे भिन्न किसी सत्ताको अपने आंतर विकासके संचालनको सौंपना गंभीर खतरा पैदा कर सकता है । हालमें तो मैं बस यही कह सकता है।

 

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         तुम्हारे वर्णनसे यह स्पष्ट है कि कोई प्राणिक शक्ति शरीरपर बलात अधिकार करनेका प्रयास कर रहीं है । इस प्रकारके नियंत्रणके अभाव या विजातीय प्रभावके अनधिकार हस्ताक्षेपके लिये अनुमति देनेसे अधिक खतरनाक कोई बात नही हो सकती ।

 

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तुम्हारी वर्तमान अज्ञानावस्थामें जब कि प्राणसत्ता पर्याप्त उद्घाटित नही हुई, चैत्य सत्ता पर्याप्त जाग्रत नही हुई, ऐसे समय कोई विरोधी शक्ति आसानीसे घुसपैठ कर सकती है और दिव्य शक्तिका स्वांग भर सकती है । याद रखो कि किसी भी व्यक्तित्व या शक्ति- को अपने ऊपर अधिकार करनेकी अनुमति नही देनी चाहिये । भगवान्की शक्ति इस ढंगसे काम नही करती, वह पहले शोधनके लिये, चेतनाको विशाल और आलोक- मय बनानेके लिये, इस प्रकाश और सत्यके प्रति खोलनेके लिये, हृदय और चैत्य सत्ताको जाग्रत करनेके लिये कार्य करती है । बादमें जाकर ही वह विशुद्ध और सचेतन समर्पण द्वारा क्रमश: और शांतिसे अधिकार ग्रहण करती है ।

 

          तुम्हें यह भी समझे रखना होगा कि एकमात्र एक ही शक्ति कार्य कर रही है और न तुम्हारा, न उसका और न किसी अन्य ब्यक्तिका ही कोई महत्व है । प्रत्येक व्यक्ति अपने अन्तरको उस शक्तिके क्रियाकलापके प्रति खोल दे और साधकोंका एक ऐसा संघ बनानेका प्रयास न किया जाय जिसमें कोई एक व्यक्ति नेतृत्व करे या एकमेव शक्ति और साधकोंके बीचमें मध्यस्थका काम करे ।

 

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       तुम जिन अन्य परिस्थितियोंका उल्लेख करते हों वे सब सामान्य हैं और समग्र यन्त्ररूप सत्ताको अधिकृत करनेवाले आनन्दके आक्रमणके एक घटना विशेष है जब कि निश्चल-नीरव आंतर सत्ता अन्दर उससे इसी तरह पृथक् रहती जैसे वह साधारणतया वाहरसे आनेवाली सब वस्तुओंसे पृथक् रहती है । यहां जो वस्तु स्पष्ट नहीं है वह है उर्पास्थति । इसमें कोई ऐसी वस्तु नही है जो सूचित करे कि यह (उपस्थिति) क्या और किस प्रकारकी है । यदि यह प्राणिक हर्षको उत्पन्न करने- वाली कोई अवांछनीय प्राणिक उपस्थिति हों तो साधारणतया इसमे कोई ऐसे प्राणिक व्यापार होंगे जिनके द्वारा तुम उनके मूल ढूँढू निकालनेमें समर्थ होगे, पर ये घटनाएं यहां स्पष्ट नही हैं । इन परिस्थितियोंमें एक ही मार्ग है कि तुम जो भी घटे उसके, द्वारा सत्ताकी दखल किये जानेको स्वीकार किये बिना अनुभवका निरीक्षण भर करो, उसे केवल एक ऐसे अनुभवके रूपमे ग्रहण करो जिसपर अन्त. सत्ता साक्षीके रूपमें दृष्टिपात करती है जबतक परदेके पीछे छिपा विषय स्पष्ट न हों जाय ।

 

       पुनश्च: - इसकी अनेक व्याख्याएं हो सकती हैं किंतु मैं उनका उल्लेख नहीं करता क्योंकि वह मानसिक सुझावको अन्दर लाकर तथा अनुभवके विशुद्ध निरीक्षणको प्रभावित करके उसमें हस्तक्षेप कर सकता है ।

 

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     मैंने तुम्हारा पत्र पढा है और श्रीमांको भी बढ़कर सुनाया है । अनुभवके संबंध- मे मेरा निष्कर्ष वही है जो उनका है - मैंने अपना निर्णय अबतक रोक रखा था ।

 

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        हम मानते हैं कि तुम्हारे लिये यह अधिक समझदारीकी बात होगी कि तुम भविष्यमें इस विषयमें सतर्क रहो । पहली बात तो यह है कि वह बुद्ध नहीं हो सकता --बुद्धिकी उपस्थिति शांति लाती है पर वह इस तरहका आनन्द कदापि नही दे सकतीं । दूसरे, तुम्हारी पुरानी व्यक्तिगत भावना पर आधारित यह सुझाव तुमपर इसलिये फेंका गया प्रतीत होता है कि तुम किसी शक्तिका प्रभुत्व स्वीकार कर लो जिस प्रभुत्व- को तुमपर बलात थोपनेके लिये यह अनुभव एक( साधन मात्र हैं । और फिर तुम्हें जो लगता है कि यह आनन्द तुम्हारी सहन शक्तिके लिये असह्य है, अनुभव प्राप्तिके लिये अनुकूल लक्षण नहीं है, तुम कल्पना करते हो कि अनुकूल होनेकी वृत्तिके अभावके कारण तुम्हें ऐसा लगता है किन्तु यह अधिक संभव है कि यह कोई विजातीय वस्तु हो जो उस प्राण द्वारा तुमपर फैंकी गई है जिसके साथ तुम्हारी अन्दरकी चैत्य सत्ता आत्मीयता नही अनुभव करती । अन्तमें, यहांपर योग करते समय ऐसे ' 'किसी भी' ' प्रभावको अपने अन्दर आने देना निरापद नही है जो हमारा या इस साधनाकी क्रियाका अंग न हों । यदि यह घटित हों तो कुछ भी हो सकता है और हम इसके विरुद्ध तुम्हारा रक्षण नही कर सकेंगे क्योंकि तुम संरक्षणके घेरेमेंसे बाहर निकल गये होते हो । अब तक तुम विकासके बहुत ठोस मार्गपर अग्रसर हों रहे थे; इस प्रकार राह भटक जाना जो कि प्राणिक स्तरपर हुआ प्रतीत होता है, एक गंभीर बाधा सिद्ध हों सकता हैं । आखों या चेहरेके सौंदर्यपर विश्वास नाई किया जा सकता । निम्रतर भूमिकाओंकी ऐसी अनेक सत्ताएं हैं जिनका सौंदर्य मोहक होता है एव उसके द्वारा वे वशीभूत भी कर सकती हैं तथा वे ऐसा आनन्द भी दे सकतीं हैं जो सर्वोच्च प्रकारका न हो और इसके विपरीत यह भी हों सकता है कि वे अपने प्रलोभन द्वारा मनुष्यको मार्गसे बिलकुल न्यूत कर थे । जब तुमने शुद्ध विवेककी वह स्थिति प्राप्त कर ली होती है जिसमें अनुभवमें आने- वाली सभी वस्तुओंपर सर्वोच्च प्रकाश डाला जाता है, तो नानाप्रकारके अनुभवोंका सुर- क्षति रूपसे मुकाबला किया जा सकता हैं, परंतु अब अत्यधिक सतर्कताको उपयोगमें लाना होगा और सब विचलनोंको अस्वीकार करना होगा । अपने कदमोंको परमोच्च सत्ताकी ओर ले जानेवाले सीधे मार्गपर दृढ़ता पूर्वक जमाना आवश्यक है; अन्य सब बातोंको उपयुक्त समयतक रोके रखना होगा ।

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         मुझे इसमें संदेह नही है कि एक बार अस्वीकार किये जानेपर शक्तिकी क्रिया यथा समय समाप्त हो जायेगी । यह कोई ऐसी वस्तु है जिसके साथ तुम्हारा संबंध कराया गया है, न कि कोई ऐसी अन्तरंगता वस्तु जिसे तुम्हारी सत्ताका कोई अंग स्वा- भाविकरूपसे प्रत्युत्तर देता है । यह बात इससे स्पष्ट होती है कि प्रकट हुई सत्ता तुम्हें जो कुछ बताना चाहती थीं तुम उसे हृदयंगम नही कर सके । ऐसा प्रतीत होता हैं कि एक प्रचंड आक्रमण, तुम्हारे कथनानुसार, बल और छल पूर्वक घेरनेका एक प्रयत्न किया गया है । यह बिलकुल सच है कि जब प्रकाशके प्रति उद्घाटन होता है, तो विरोधी

 

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शक्तियां और साथ हीं निम्र शक्तियां मौका मिलनेपर सक्रिय हों जाती हैं । साधक- की चेतना अपनी सामान्य सीमाओंसे बाहर आ गई है और वैश्व चेतनाके साथ साथ ऊपरकी ओर उच्च आत्माके प्रति खुल रही है और वे बल पूर्वक प्रवेश करनेके लिये उसका लाभ उठाती हैं । तथापि इस तरहके प्रचंड आक्रमण अवश्यम्भावी नही हैं -और तुम संभवत ठीक ही सोचते हो कि तुमने इसे ' क्ष' के वातावरणमेंसे ग्रहण किया हे । उसने गुह्य क्षेत्रमें अनेक प्रकारके परिक्षण किये हैं और उसमें व्यक्ति आसानीसे मलिनतर प्रकृतिकी शक्तियों और सत्ताओंके सपर्कमेसे आ जाता है तथा उसे उनका सामना करने एवं पराजित करनेके लिये बड़ी भारी सामर्थ्य, प्रकाश और पवित्रताकी --स्वयं अपनी या सहायता देनेवाली शक्तिके सामर्थ्य आदिकी आवश्यकता होती है । मनुष्यकी अपनी प्रकृतिमें भी कमियां या भूलें होती हैं जो इन सत्ताओंके लिये हार खोल सकती हैं पर यदि व्यक्ति यह कर सकें कि वह इनसे कोई सरोकार न रखे तो यह सबसे उत्तम बात होगी, क्योंकि निम्रतर प्रकृतिकी शक्तियोंपर विजय प्राप्त करना इस पेचीदगीके बिना भी काफी भारी काम है । व्यक्तिको जो काम करना है उसके कारण यदि उनके साथ संपर्क और संघर्ष आवश्यक हों जाय, तो फिर यह दूसरी बात है । तुम्हारे उदाहरणमें मे समझता हूँ कि यह कोई ऐसी वस्तु रही है जो अकस्मात् आ पडी है और तुम्हारी साधनाके विकासके लिये अनिवार्य नही है ।

 

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           नही, उस समय श्रीमांकि ओरसे कोई विशेष एकाग्रता या पुकार नही की गई थी । यह बात उस समय हुई जब वे किसीसे नही मिलती, इसलिये स्पष्ट ही उन्होंने तुमपर ऐसी शक्ति नही लगायी होगी न वे साधारणतया अपनी शक्तिका इस प्रकार प्रयोग ही करती है । तुमने इस आवेगका विरोध करके अच्छा ही किया । आंतर प्रत्यक्ष-बोध और संकल्पको निर्मल, सचेतन और पूर्ण संतुलित बनाये रखना एवं आवेग- की किसी शक्तिको -- चाहे वह अपनेको किसी भी रूपमें प्रस्तुत करे,-प्राण या शरीरको उनकी विवेकयुक्त अनुमतिके बिना कर्ममें झोंक देनेकी स्वीकृति कभी भी न देना सदा हीं आवश्यक है । ये शक्तियां चाहे कोई भी रूप धारण करें इनपर विश्वास नहीं किया जा सकता, एक बार विवेकशील बुद्धि का नियंत्रण हट जानेपर किसीकी भी शक्ति इस प्रकार दखल दे सकती है और साधनाको हानि पहुँचानेके लिये असंतुलित प्राणिक आवेगोंके प्रयोगका मार्ग खुल जाता है । मानसिक नियंत्रणका स्थान लेने वाला चैत्य या आध्यात्मिक नियंत्रण इस ढगसे काम नही करेगा,--बल्कि विरोधी शक्ति चाहे कितनी हीं तीव्रता या उत्साह प्रदान करे तो भी वस्तुओंके स्पष्ट प्रत्यक्ष बोधकों, पूर्ण विवेकको और बाह्य और आभ्यन्तर यथार्थताके बीचमें सामंजस्यको बनाये रखेगा । इन प्रवृत्तियोंमें एकमात्र प्राण ही बह जाता है, प्राणको सदैव बुद्धि एवं चैत्यके या फिर उच्चतर आध्यात्मिक चेतनाके सक्रिय हों जानेपर उस चेतनाके नियंत्रणमें रखना होगा ।

 

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     ये सब अनुभव एक ही प्रकारके हैं और इनमेंसे प्रत्येकके संबंधमें एक हीं बात कही जा सकतीं है । इनमें जो अनुभूतियां वैयक्तिक हैं उनके अतिरिक्त बाकी या तो भावना- सत्य ( idea truths) हैं जो सत्ताके कुछ स्तरोंके साथ संस्पर्श होनेपर ऊपरसे हमारी चेतनाके अन्दर उतर आते हैं, या विरा मनोमय और प्राणमय लोकोंकी शक्तिशाली रचनाएं है जो सीधे इन लोकोंकी ओर उद्घाटित होते ही साधकके अन्दर घुस आती है और अपने-आपको चरितार्थ करनेके लिये साधकका उपयोग करना चाहती हैं; ये चीजे जब ऊपरसे आती या अन्दर प्रवेश करती हैं तब एक बहुत बड़ी शक्तिका अनुभव होता है, अंत:स्फुरणा या ज्ञानदीप्तिका स्पष्ट बोध होता है, प्रकाश और हर्षातिरेकसे रोमांच हों आता है, विशालता और शक्तिमत्ताकी एक छापसी पडू जाती है । उस समय साधकको ऐसा मालूम होता है कि वह साधारण सीमाओंसे मुक्त हो गया है, अनुभूतिके एक विलक्षण नये जगत्में आ पहुँचा है, भरपूर, बृहत् और उन्नत हो गया है, इसके अतिरिक्त, जो कुछ इस तरह आता है वह साधककी अभीप्साओ, महत्वाकांक्षा, आध्यात्मिक पूर्णता और यौगिक सिद्धिसंबंधी उसकी धारणाओंके साथ घुल-मिल जाता है, यहांतक कि वह स्वयं उस सिद्धि और परिपूर्णताके रूपमें प्रतिभात होने लगता है । फिर बड़ी आसानीसे साधक उसकी चमकदमक और वेगके द्वारा अभि- भूत हों जाता है, उसे इस तरह जो कुछ मिला होता है उसे कही बढे-चढे रूपमें देखने लगता है और ऐसा समझने लगता है कि उसे कोई परम वस्तु या कम-से-कम निस्सदिग्ध रूपमें कोई सत्य-वस्तु मिल गयी है. । इस अवस्थामें प्रायः साधकको वह आवश्यक ज्ञान और अनुभव नहीं होता जिससे उसे यह पता चल जाय कि यह जो कुछ अनुभव उसे द्रुआ है वह बहुत ही अनिश्चित और सदोष आरंभ-मात्र है, वह संभवत: तुरत यह बात नही समझ सकता कि वह अभी विश्वव्यापी अज्ञानके ही अन्दर हे, विश्व- व्यापी सत्यके अन्दर नही पहुँच सका है, परात्पर सत्यकी तो बात हीं क्या, और यह भी नहीं समझ सकता कि उसके अन्दर रचनात्मक या क्रियात्मक चाहे जो भावना- सत्य अवतरित हुए हों, वे सब हैं केवल आशिक हीं और सों भी उसकी मिश्रित चेतनाके द्वारा उसके सामने उपस्थापित होनेके कारण और भी क्षीण हो गये है । यह संभवत: यह भी समझनेमें असमर्थ हो सकता है कि यह जो कुछ उसे अनुभूत या उपलब्ध हों रहा है इसे एक पक्की बात मानकर यदि वह इसका प्रयोग करनेके लिये दौड पड़ेगा तो वह या तो किसी गड़बड़ी या भूल-भ्रांतिमें जा गिरेगा या किसी ऐसे आशिक रूपके अन्दर आबद्ध हो जायगा जिसमे आध्यात्मिक सत्यका कुछ अंश तो हो सकता है पर वह अंश मन और प्राणके अन्दर उपजनेवाली बेकार बातोंके भारसे दबकर एकदम विकृत हों गया होता है । इस अवस्थामें पड़ा हुआ साधक तभी सच्ची स्वतंत्रता और एक उच्चतर, वृहत्तर तथा सत्यतर सिद्धिकी ओर ले जानेवाले मार्गपर आगे बढ़ सकता है जब वह (चाहे तुरत या कुछ समय बाद) अपनी अनुभूतियोंसे अपने-आपको अलग कर लेनेमें, निर्विकार साक्षी चेतनामें उनसे ऊपर खड़ा होकर उनके सच्चे स्वरूप, उनकी

 

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सीमाओं, उनकी बनावट और उनके अन्दर मिली हुई चीजोंको देखनेमें समर्थ हो । साधनाके प्रत्येक स्तरमें साधकको ऐसा करना होगा । कारण जो कुछ इस प्रकार इस योगके साधकके पास आता है, चाहे वह अधिमानस या सबोधिमय मानस या प्रबुद्ध मानस या किसी उच्चतर प्राणलोकमे आया हो या एक साथ ही इन सब लोकोंसे ही क्यों न आया हों, वह कभी अंतिम नही होता, वह कभी परम सत्य नही होता जहां आकर साधक निश्चित बैठ जाय, बल्कि वह तो एक अवस्था मात्र होता है । और फिर इन अवस्थाओंमेंसे होकर गुजरना ही पड़ता है, क्योंकि विज्ञानमय सत्य या परम सत्यतक कोई एक ही छलांगमे या कई छलांगमे भी नही पहुँच सकता; साधकको, ऐसी बहुतसी मध्यवर्ती अवस्थाओंको, उनके निम्र कोटिके सत्य या ज्योति या शक्ति या आनन्दसे आबद्ध या आसक्त हुए बिना, पार करते हुए स्थिरता, धीरता और दृढ़ता- पूर्वक आगे बढ़ना होता है ।

 

         यह वास्तवमें एक मध्यवर्ती अवस्था है, मनकी साधारण चेतना और सच्चे यौगिक ज्ञानके बीचमें आनेवाला एक कटिबंध है । कोई तो इस क्षेत्रको तुरत हीं अथवा साधनाकी प्राथमिक अवस्थामें ही इसके सच्चे स्वरूपको देखकर तथा इसके अर्द्धप्रकाश और प्रलोभक पर अपूर्ण और बहुधा मिश्रित तथा पथभ्रष्टकारी अनुभवोंमें अटकनेसे इनकार करके बेलाग पार कर सकता है, कोई इसमे आकर विपथगामी हों सकता है, झूठी वाणियों और मिथ्या निर्देशोंका अनुगमन कर सकता है और तब इसका फल होता है आध्यात्मिक सर्वनाश, अथवा कोई .इस मध्यवर्ती क्षेत्रमें हीं आकर निवास कर सकता है, और आगे जानेकी कोई परवा न कर कोई खंड सत्य निर्माण कर सकता है और उसे ही पूर्ण सत्य समझ सकता है या इन संक्रमण-क्षेत्रोंकी शक्तियोंका यंत्र बन सकता है -- और यही दशा बहुतसे साधकों और योगियोंके हुआ करती है । इस क्षेत्रके संस्पर्शमें आनेपर ये लोग एक असाधारण अवस्थाकी शक्तिकी अनुभूति और उसके प्रथम वेगसे अभिभूत हों जाते और थोड़ीसी रोशनीसे ही चौधियां जाते हैं; यह थोड़ीसी रोशनी उन्हें एक प्रखर ज्योतिसे ! देती है, अथवा वे किसी शक्तिका स्पर्श अनुभव करते हैं और उसे ही पूर्ण भागवत शक्ति या कम-से-कम कोई बड़ी महान् योग-शक्ति मान बैठते हैं, अथवा ये किसी मध्यवर्ती शक्ति (जो सदा भगवान्की ही शक्ति नहीं होती) को ही परम भागवत शक्ति और किसी मध्यवर्ती चेतनाको ही परम उपलब्धि मान लेते हैं । बड़ी आसानीसे ये लोग यह समझने लगते हैं कि अब तो हम पूर्ण विश्वमयी चेतनामें आ गये हैं जब कि ये उसके केवल सामनेके या छोटेसे भागमें ही होते हैं या ऐसे बृहत्तर मन, प्राण या सूक्ष्म भौतिक क्षेत्रोंमें ही होते हैं जिनके साथ इनका क्रियात्मक संबंध हो जाता है । अथवा इन लोगोंको ऐसा प्रतीत होने लगत है कि अब हम किसी पूर्णतया प्रबुद्ध चेतनाके अन्दर आ गये हैं जब कि वास्तवमें ये ऊपर- से आनेवाली चीजोंको किसी मनोमय या प्राणमय लोककी आशिक ज्योतिमें अधूरे तीरपर ग्रहण करते होते हैं, क्योंकि जो कुछ आता है वह इन लोकों- से होकर आनेके समय बहुधा क्षीण और विकृत हो जाता है, उसे ग्रहण करने- वाला साधकका मन और प्राण भी जो कुछ ग्रहण किया गया है उसे कुछ-का-कुछ

 

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समझता और प्रकट करता है अथवा उसके साथ अपनी ही धारणाओं, भावनाओं और कामनाओंको इस तरह मिला देता है कि इन्हें वह फिर अपना समझ ही नही पाता और ऊपरसे प्राप्त होनेवाले सत्यका ही अंश मानने लगता है, क्योंकि ये उसके साथ मिल जाती हैं, उसके आकारका अनुकरण करती हैं, उसके प्रकाशसे चमकने लगती हैं और इस साहचर्य और पराये प्रकाशके कारण अतिरंजित मूल्य प्राप्त करती हैं ।

 

       इससे भी कही बड़े संकट अनुभवके इस मध्यवर्ती क्षेत्रमें उपस्थित होते हैं । कारण, इस अवस्थामें जिन लोकोंकी ओर साधक अपनी चेतनाको खोले रखता है, खब्त लोकोंसे - पहलेकी तरह केवल किसी झलक और प्रभावके रूपमें ही नहीं, बल्कि सीधे, अपने पूर्ण वेगके साथ -- अनगिनत भावनाएं, प्रेरणाऐं, सूचनाएं और सभी प्रकारकी रचनाएं आया करती हैं जो बहुधा परस्पर विरोधी, विसंगत या विपरीत हुआ करती हैं, पर इस ढंगसे वे आ उपस्थित होती हैं कि उनकी न्यूनताए और उनके पारस्परिक भेद, उनके प्रबल वेग, उनकी आपात सत्यता और उनकी युक्तिके प्राचुर्य या निश्चयके तीव्र बोधसे एकदम ढक जाते हैं । निश्चयकी इस प्रतीति, इस स्पष्टता, प्राचुर्य और समृद्धिके इस दिखावेसे पराभूत होकर साधकका मन एक बहुत बड़ी विशुखलताको प्राप्त होता है और उसे ही कोई बृहत्तर संगठन और सुश्रंखला मान बैठता है; अथवा उसके मनमें लगातार नाना प्रकारके हेर-फेर और परिवर्तन होते रहते हैं और उन्हें उसका मन तीव्र प्रगति मान लेता है यद्यपि वे उसे किसी ओर भी नहीं ले जाते । अथवा, इसके विपरीत, वहां यह भी आशंका है कि साधक ऊपरसे देदीप्यमान दिखायी देनेवाली पर अज्ञानजनित्त किसी सत्ताका यंत्र बन जाय; क्योंकि ये मध्यवर्ती क्षेत्र छोटे-छोटे या प्रबल दैत्यों या नन्हीं-नन्ही सत्ताओंसे भरे हुए हैं जो इस पृथ्वीपर अपनी सृष्टि करना चाहती हैं, अपने किसी भावको पार्थिव रूपमें व्यक्त करना चाहती है अथवा पार्थिव जीवनमें किसी मनोमय और प्राणमय रूपको प्रस्थापित करना चाहती हैं और जो साधकके विचार और संकल्पको अपने काममें लगाने, अपने प्रभावमे ले आने या अपने अधिकारतकमें कर लेने तथा इस उद्देश्यकी पूर्त्तिके लिये साधकको अपना यंत्र बनानेके लिये उत्सुक रहती हैं । परंतु यह खतरा भी उस प्रसिद्ध खतरेसे भिन्न है जो वास्तविक विरोधी शक्तियोंकी ओरसे आता है; उन शक्तियोंका एकमात्र उद्देश्य होता है विशृंखल और असत्यकी सृष्टि करना, साधना- को तहस-नहस कर डालना तथा सर्वनाशकारी अनाध्यात्मिक प्रमाद उत्पन्न करना । ये शक्तियां बहुधा किसी दिव्य शक्तिका नाम धारण कर साधकके सामने आती हैं और जो साधक इनमेंसे किसी एकके चंगुलमें फंस जाता है वह योगमार्गसे भ्रष्ट हो जाता है । और इसके विपरीत यह भी सर्वथा संभव है कि इस क्षेत्रके अन्दर प्रवेश करते हीं साधकको भगवान्की कोई शक्ति मिल जाय जो उसकी सहायता करे और तबतक उसका पथप्रदर्शन करे जबतक वह महत्तर वस्तुओंके लिये प्रस्तुत न हों जाय; पर फिर भी इसी कारण यह नही कहा जा सकता कि साधक इस क्षेत्रके प्रमादों और पदस्सलनोंसें एकदम बच ही जायगा; क्योंकि यहां ऐसा होना अत्यत स्वाभाविक है कि इन क्षेत्रों- की शक्तियां या विरोधी शक्तियां मार्गप्रदर्शक दिव्य वाणी या मूर्त्तिका अनुकरण कर

 

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साधकको धोखा दें और पथभ्रष्ट करें या साधक स्वयं अपने ही मन, प्राण या अहंकारकी सृष्टियों और रचनाओंको भगवान्की ओरसे आयी हुई मान लें ।

 

      कारण, यह मध्यवर्ती क्षेत्र अर्ध-सत्योंका प्रदेश है - और केवल इतनेसे ही कोई हर्ज नहीं था; क्योंकि विज्ञानके नीचे कहीं भी पूर्ण सत्य नही है, पर यहांका अर्ध- सत्य प्रायः इतना आशिक या कार्यत: इतना अस्पष्ट और संदिग्ध होता है कि अस्त- व्यस्तता, भ्रांति या प्रमादके लिये एक चौड़ा मैदान खुला रहता है । यहांपर साधक यह समझने लगता है कि अब हम अपनी पुरानी छोटीसी चेतनामें हीं नही हैं, क्योंकि अब वह अपने-आपको किसी बृहत्तर या अधिक शक्तिशाली वस्तुसे युक्त अनुभव करता है जब कि वह होता है अपनी पुरानी चेतनामें ही जो वास्तवमें अभी लुप्त नही हुई है । वह अपने ऊपर अपनेसे अधिक महान् किसी शक्ति, सत्ता या सामर्थ्यका अधिकार या प्रभाव अनुभव करता है, उसीका यंत्र बननेकी आकांक्षा करता है और समझता है कि वह अहंकारसे मुक्त हों गया है; पर इस अनहकारिताकी भ्रांतिके अन्दर प्रायः एक बढ़ा-चढा अहंकार छिपा हुआ होता है । नाना प्रकारकी भावनाएं जो केवल अंशत: सत्य होती हैं, उसे आक्रांत कर लेती हैं और उसके मनको परिचालित करती हैं और अत्यधिक विश्वासके साथ उन भाबनाओंका दुरुपयोग करनेपर वे सत्यमें परिणत हो जाती हैं, इसके कारण चेतनाकी गतियां दूषित हो जाती हैं और भ्रांतिके लिये दर- बाजा खुल जाता है । नाना प्रकारकी सूचनाएं आती हैं, कभी-कभी तो बड़ी ही अद्धत और आकर्षक सूचनाएं आती हैं जो साधकके महत्त्वको अतिरंजित करती हैं अथवा उसकी इच्छाओंके अनुकूल होती हैं और वह कोई जांच-पड़ताल, या उचित-अनुचित- का विवेक किये बिना ही उन्हें ग्रहण कर लेता है । यहांतक कि उनमें जो कुछ सत्य होता है उसे भी उसके वास्तविक मूल्य, सीमा और मानसे परे इतना अधिक वढ़ा-चढा और फैला दिया जाता है कि वह प्रमादको उत्पन्न करनेवाला बन जाता है । यह बह क्षेत्र है जिसे बहुतेरे साधकोको पार करना पड़ता है, जिसमें बहुतेरे बहुत दिनोंतक भटकते रहते हैं और जिसमेंसे बहुतेरे कभी बाह्रा निकल ही नही पाते । विशेषकर जिन साधकों- की साधना प्रधानतया मन और प्राणके क्षेत्रोंमें ही चलती है उन्हें यहां बहुतसी कठिनाइयों और अत्यधिक खतरेका सामना करना पड़ता है; केवल वे ही लोग, जो सचाईके साथ गुरु-प्रदर्शित मार्गका अनुगमन करते हैं या जिनकी प्रकृतिमें हृत्युरुषका प्राधान्य स्थापित हो चुका होता है, बड़ी आसानीसे, मानो निश्चित और स्पष्ट रूपमें चिह्नित किसी मार्गसे होकर इस मध्यवर्ती प्रदेशका पार कर जाते हैं । अगर साधकमें केंद्रगत सच्चाई हो, मूलगत विनम्रता हों तो वह भी बहुतसे ख़तरों और कष्टोंसे बच सकता है और फिर शीघ्रतासे इस क्षेत्रके परे उस विशुद्धतर ज्योतिमें पहुँच सकता है जहां बहुत- कुछ मिलावट, अनिश्चितता और संघर्षकी अवस्था रहनेपर भी माया और अज्ञानके अर्ध-प्रकाशमें बने रहनेके बदले विश्वगत सत्यकी ओर अपने-आपको खोलनेकी ही प्रवृत्ति जगती है ।

 

      यहांपर मैंने साधारण चेतनाके ठीक उस पारवाली चेतनाकी अवस्थाका तथा उसके मुख्य-मुख्य अंगों और संभावनाओंका सामान्य रूपसे इसलिये वर्णन किया है

 

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 कि यही वह स्थान है जहां इस प्रकारकी अनुभ्तियां साधकको हुआ करती हैं । परंतु भिन्न-भिन्न साधक यहां भिन्न-भिन्न प्रकारसे बर्ताव किया करते है और कभी एक प्रकार- की संभावनाकी ओर झुकते हैं तो कभी दूसरे प्रकारकी सभावनाओंकी ओर । जिस प्रसंगमें यह चर्चा यहां की जा रहीं है उस प्रसंगमें ऐसा मालूम होता है कि साधकका इस क्षेत्रमें जो प्रवेश हुआ  वह विश्वचैतन्य नीचे उतार लाने या उसमें बलात प्रवेश करनेके प्रयत्नके कारण हुआ है -- इस बातको चाहे जिस ढंगसे कहा जाय अथवा स्वयं प्रयत्न करनेवालेको अपने इस प्रयत्नका बोध हो या न हो, अथवा बोध हों भी तो चाहे इस रूपमें हो या न हों, इससे कुछ आता-जाता नही, सार रूपमें बात जो कुछ हैं वह यही हैं । इस प्रसंगमें साधकका प्रवेश जिस क्षेत्रमें हुआ था वह अधिमानस नहीं था । क्योंकि सीधे अधिमानसमे पहुँचना असंभव है । निश्चय ही अधिमानस विश्व- चैतन्यके अखिल कर्मके ऊपर और पीछे विद्यमान है, पर आरंभमें उसके साथ अप्रत्यक्ष संबंध हीं स्थापित किया जा सकता है, वहांसे जो चीज़ें आती हैं वे मध्यवर्ती क्षेत्रोंमें होती हुई बृहत्तर मानस-क्षेत्र, प्राण-क्षेत्र और सूक्ष्म भौतिक क्षेत्रमें आती हैं और रास्ते- मे बहुत-कुछ परिवर्तित और क्षीण होतीं हुई आती हैं, यहांतक कि अधिमानसके अपने मल्ल क्षेत्रमें उनमें जो शक्ति या सत्य होता है वह अब पूरा-का-पूरा नही स्व जाता । अधि- काश गतियां तो अधिमानससे नहीं वरन् उससे नीचेके उच्चतर मानस-क्षेत्रोंसे हीं आती हैं । अधिकांश भावनाएं, जो इन अनुभूतियोंमे भरी होती हैं और जिनके आधार- पर हीं ये अनुभूतियां सत्य होनेका दावा करती हुई प्रतीत होती हैं, अधिमानसकी नही होती, बल्कि उच्चतर मनकी या कभी-कभी प्रबुद्ध मनकी होती हैं; पर साथ हीं उनमें निम्रतर मन और प्राणकी सूचनाएं भी मिली हुई होती हैं और वे अपने प्रयोगमें बुरी तरहसे क्षीण अथवा बहुतसे स्थानोंमें अनुचित रूपसे प्रयुक्त हुई होती हैं । पर इन सबसे कुछ नही बिगड़ता, ये सब यहांके लिये स्वभाविक और सामान्य बातें हैं और इन सबसे होकर हीं साधक एक ऐसे स्वच्छतर वातावरणमें पहुँच जाता है जहां सभी बातें अपेक्षा- कृत अधिक सुसंगठित और अधिक सुदृढ़ आधारपर अवस्थित होती हैं । परंतु इस प्रसंगमें जिस भावसे कार्य किया गया था उसमें अत्यधिक शीघ्रता और उत्सुकता, अतिरंजित आत्माभिमान और आत्म-विश्वास, अधूरे ज्ञानपर आश्रित निश्चयता वर्तमान थी और भरोसा और किसीके भी पथप्रदर्शनपर नही, बल्कि अपने ही मनके अथवा ऐसे 'भगवानके पथप्रदर्शनपर किया गया था जो अत्यंत सीमित ज्ञानकी अवस्था- मे कल्पित या अनुभूत हुए थे । ऐसी अवस्थामें भगवान्-संबंधी साधककी धारणा और अनुभूति, यदि वे मूलतः वास्तविक भी हों तो भी पूर्ण और विशुद्ध कभी नही होती, उनमें सब प्रकारके मन और प्राणके अध्यारोप मिले हुए होते हैं और इस भागवत पथ- प्रदर्शनके साथ ऐसी सभी प्रकारकी बातें जड़ित होती हैं और उसका अंग मानी जाती हैं जो एकदम दूसरे ही स्थानोंसे आती हैं । अधिकतर ऐसी अवस्थाओंमें भगवान् अधिकांशमें पर्देके पछिसे ही क्रिया करते हैं, फिर भी यदि यह मान लिया जाय कि वह सीधे ही मार्गप्रदर्शन करते है तो भी उनका पथप्रदर्शन कभी-कभी हीं मिलता है और उसके अतिरिक्त अन्य सभी बातें विश्व-शक्तियोंके खेल हीं होती हैं, उनमें प्रमाद, स्खलन

 

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और अज्ञानका सम्मिश्रण अबाध रूपसे होता रहता है और यह सब इसलिये होने दिया जाता है कि विश्वशक्तियोके द्वारा साधककी परीक्षा हो जाय, वह अनुभवके द्वारा शिक्षा प्राप्त करे, अपूर्णताओंसे होकर पूर्णताकी ओर अग्रसर हों सके - अगर उसमें इसके लिये योग्यता हो, अगर वह सीखना चाहता हो तो अपनी मूलों और गलितयोंको आंख खोलकर देखे, उनसे शिक्षा ग्रहण करे और लाभ उठावे, जिसमें वह विशुद्धतर सत्य, ज्योति और ज्ञानकी ओर अग्रसर हों सके ।

 

       मनके इस अवस्थामें पहुँचनेका परिणाम यह होता है कि जो कुछ इस सम्मिश्रण और संशयसंकुल क्षेत्रमें साधकके सामने आता है, उसका ही वह इस प्रकार समर्थन करने लगता है मानो वही परम सत्य और एकमात्र भागवत इच्छा हो; जो भावनाएं या सूचनाएं बार-बार आती रहती हैं उन्हें साधक इस प्रकार अपनी ही बातपर अहे रहकर और पूरे निश्चयके साथ प्रकट करता है मानो वे हीं संपूर्ण या निर्विवाद सत्य हों । इस अवस्थामें साधककी ऐसी धारणा बन जाती है कि हम नैर्व्यक्तिक और अहंकार- विमुक्त हो गये हैं, जब कि उसके मनका सारा रुख उसका कथन और भाव सब कुछ प्रचंड अहंमन्यतासे भरा होता है और उसकी यह अहंमन्यता इस कारण पुष्ट होती रहती है कि वह निश्चित रूपसे यह समझता है कि वह भगवान्के यंत्रके रूपमें और भगवान्की प्रेरणाके अनुसार ही सोचता-विचारता और कार्य करता है । उस समय साधक ऐसी-ऐसी भावनाओंको बड़े जोरदार शब्दोंमें पेश करता है जो मनके लिये तो ठीक हो सकती हैं, पर आध्यात्मिक दृष्टिसे ठीक नहीं होती, फिर भी वे ऐसे ढंगसे कही जाती हैं मानो वे अध्यात्मके ही ऐकांतिक सत्य हों । उदाहरणके तीरपर हम समताको ले सकते हैं जो उस दृष्टिसे एक मनोधर्ममात्र होता है -- क्योंकि यौगिक समता बिलकुल दूसरी हीं चीज है,-फिर अपने आत्माके लिये जो स्वतंत्रताका दावा किया जाता है, किसीको गुरु माननेसे जो इन्कार किया जाता है, या भगवान् तथा मनुष्य- देहधारी भगवान्के बीच जो भेद किया जाता है इन सब बातोंको लें सकते है । ये सब भावनाएं ऐसी स्थितियां हैं जिन्हें मन और प्राण ग्रहण कर सकते हैं और ऐसे सिद्धांतोंमें बदल सकते हैं जिन्हें वे धार्मिक या यहांतक कि आध्यात्मिक जीवनपर भी लादनेकी चेष्टा कर सकते हैं, यद्यपि वे स्वरूपत: न तो आध्यात्मिक होते हैं और न हों ही सकते हैं । फिर प्राणमय लोकोंसे भी सूचनाएं आने लगती हैं, रोमांचकारी, मनगढ़ंत या विलक्षण कल्पनाओंका तांता-सा लग जाता है, गूढार्थव्यजन, अतर्ज्ञानाभास और आगे होनेवाली उपलब्धियोका आश्वासन मिलने लगता है और इन बातोंसे साधकका मन या तो उत्तेजित हों जाता हैं या विमूढ़ हों जाता है और प्रायः साधक इन बातोंको ऐसे रूप दे देता है जिनसे उसका अहंकार और अहंमन्यता बेतरह बढ़ जाती है यद्यपि ये सब बातें सच्चे और सुनिश्चित आध्यात्मिक या गुह्य सत्योंके ऊपर अवलंबित नहीं होती । इस प्रकारकी बातोंसे यह क्षेत्र भरा हुआ है और अगर इन्हें मौका दिया जाय तो ये साधक- के ऊपर आकर एकदम छा जाती हैं, परन्तु साधक यदि वास्तवमें परम तत्त्वको हीं प्राप्त करना चाहता हो तो उसे चाहिये कि वह इन्हें केवल देखें और आगे बढ़ता जाय । यह बात नहीं है कि ऐसी बातोंमें तनिक भी सत्य न हो, पर बात यह है कि एक सत्यके

 

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साथ-साथ नौ असत्य सत्यका रूप धारण कर सामने आते हैं और केवल यही मनुष्य बिना लुढ़के या यहांके गोरखधंधेमें बिना फंसे अपना रास्ता निकाल सकता है जो सूक्ष्म जगत्- संबंधी गुह्यविद्याकी शिक्षा पा चुका हो और दीर्घकालीन अनुभवके द्वारा अचूक कौशल प्राप्त कर चुका हो । यहां यह संभव है कि साधकका सारा मनोभाव, उसका कर्म और उसकी बातचीत इस मध्यवर्ती क्षेत्रकी भूल-भ्रांतियोंसे इस तरह भर जाय कि फिर उसके लिये इस रास्तेपर आगे बढ़नेका अर्थ हीं हों जाय भगवान् और योगसे बहुत दूर चला जाना ।

 

           फिर भी यहां साधकको यह स्वतंत्रता है कि वह चाहे तो इन अनुभवोंके अन्दर मिलनेवाले इस मिश्रित पथप्रदर्शनका ही अनुसरण करे या सच्चे पथप्रदर्शनको स्वी- कार करे । प्रत्येक मनुष्य, जो यौगिक अनुभूतिके क्षेत्रोंमें प्रवेश करता है, अपने हीं मार्गका अनुसरण करनेके लिये स्वतंत्र है, परन्तु यह योगमार्ग ऐसा नहीं है जिसका अनुसरण चाहे जो कर सके, बल्कि यह केवल उन्हीं लोंगोंके लिये है जो इसके लक्ष्यको प्राप्त करना चाहते हैं, इसके निर्दिष्ट पथका अनुसरण करना चाहते हैं जिसके लिये सुनिश्चित पथप्रदर्शन अत्यंत आवश्यक है । किसीके भी लिये यह आशा करना व्यर्थ है कि वह इस मार्गपर किसी सच्ची सहायता या प्रभावको प्राप्त किये बिना ही केवल अपने हीं आंतरिक बल और ज्ञानके सहारे बहुत दूरटक-अंततक चले जानेकी तो बात ही क्या - अग्रसर हो सकता है । दीर्घकालसे जिन योगोंका अभ्यास लोग करते आ रहे है उन सामान्य योगमार्गका भी गुरुकी सहायताके बिना अनुसरण करना बहुत कठिन है; फिर इस योगमें तो ऐसा करना एकदम असंभव ही है, क्योंकि इस योगमें जैसे-जैसे मनुष्य आगे बढ़ता है वैसे-वैसे उसे ऐसे देश मिलते हैं जिनमें अबतक किसीने पैर नही रखा था और ऐसा क्षेत्र मिलते हैं जिन्हें अबतक किसीने जाना नहीं था । और यहां जो कर्म करनेको कहा जाता है वह भी ऐसा कर्म नहीं है जिसे चाहे किसी मार्गका चाहे जो साधक कर सके; यह कार्य 'नैर्व्यक्तिक ब्रह्मके लिये भी नही हे जो नैर्व्यक्तिक होनेके कारण ही क्रियाशील शक्ति नहीं है, बल्कि जो इस विश्वकी सभी क्यिाओंका एकसाथ ही उदासीन आधारमात्र है । यह कर्म तो उन्हीं लोगोंके लिये साधनाका एक क्षेत्र है जिन्हें इस योगके कठिन और जटिल मार्गको तै करना है, दूसरे किसीके लिये नही है 1 यहां सभी कर्मोंको स्वीकृति, नियमानुवर्तन और समर्पणकी भावनाके साथ ही करना होता है, अपनी वैयक्तिक मांगों और शत्तोंके रखते हुए नहीं, प्रत्युत सजग और सचेत होकर निर्दिष्ट नियंत्रण और परिचालनकी अधीनता स्वीकार करते हुए करना होता है । अन्य किसी भावसे किया हुआ कर्म वातावरणमें अनाध्यात्मिक असामंजस्य, अस्तव्यस्तता और उथल-पुथल उत्पन्न करता है । समचित भावके साथ कर्म करनेपर भी बहुतसी कठिनाइयां उपस्थित होतीं हैं, भूल-भ्रांतियां होतीं हैं, पद-पदपर ठोकरें खानी पड़ती हैं, क्योंकि इस योगमें साधकोंको बड़े धैर्यके साथ और उनके अपने प्रयासके लिये भी कुछ क्षेत्र रखते हुए अनुभवके सहारे, मन-प्राणके स्वाभाविक अज्ञानसे बाहर निकलकर वृहत्तर आत्मा और ज्योतिर्मय ज्ञानमें ले जाना होता है । परन्तु विना पथप्रदर्शनके यदि साधक साधारण मानसिक चेतनाके परेके

 

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इन क्षेत्रोंमें घूमने-भटकने लगे तो इसमें यह भय है कि योगकी भित्ति ही नष्ट हों जाय और केवल जिन अवस्थाओंमें ही कर्म किया जा सकता है उन अवस्थाओंको ही साधक खो बैठे । इस मध्यवर्ती क्षेत्रको पार करनेका रास्ता-जिससे होकर जानेके लिये सभी बाध्य नहीं है, क्योंकि बहुतसे लोग इससे अपेक्षाकृत तंगपर अधिक निश्चित पथसे इसे पार कर जाते हैं - बहुत विकट है; पर इस मार्गपर चलनेसे जो फल प्राप्त होता है उससे जीवनमें बहुत विशाल और समृद्ध सृष्टि की जा सकती है, परन्तु जब कोई यहां आकर डूब जाता है तब बाहर निकलना बहुत कठिन और कष्टसाध्य हो जाता है और बहुत दिनोंतक संघर्ष और प्रयास करनेपर ही संभव होता ३ ।

 

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          तुमने जो अनुभव मुझे लिखकर भेजे हैं वे सब मैनई पढा लिये हैं और मुझे तुम्हारा और 'क्ष' का पत्र भी मिला है । जैसा कि तुमने कहा है, यह निःसंदेह सच है कि तुम्हारी साधना अन्य लोगोंसे भिन्न दिशाओंमें चली गई हे किन्तु इससे यह परिणाम नहीं निकलता कि इस संबंधमें तुम्हारा अपने ही विचारोंके लिये आग्रह रखना बिलकुल सही है । तुम्हारे अनुभवोंके विषयमें मैनई जो देखा-भाला है वह मैं तुम्हें संक्षेपसे कहता हूँ ।

 

        पहली बातें जो तुमने लिख भेजी थीं वे बहुत रसप्रद और मूल्यवान्, चैत्य-आध्या- त्मिक और चैत्य-मानसिक अनुभव एवं संदेश थे । बादमें लिखी गई बातें चैत्य-भाव- प्रधान अनुभवोंकी ओर अधिक झुकी हुई है और उनमें एक विशेष प्रकारकी एक पक्षीयता और मिलावट है तथा उनमें दोहरे ढंगके चैत्य-प्राणिक एवं चैत्य-भौतिक तत्व भी आ मिले हैं 1 मेरा यह आशय नहीं कि उनमें सब कुछ मिथ्या ही है किन्तु यह कि उनमें ऐसे अनेक प्रबल आशिक सत्य हैं जिन्हें उन अन्य सत्योंके द्वारा शुद्ध करनेकी आवश्यकता है जिनकी वे उपेक्षा या बहिष्कार तक करते प्रतीत होते हैं । इसके अतिरिक्त बुद्धि तथा प्राणिक सत्तासे और बाह्य स्रोतोंसे भी ऐसे सुझाव आते हैं जिन्हें तुम्हें उतनी आसानीसे स्वीकार नहीं कर लेना चाहिये जितनी आसानीसे तुम करते प्रतीत होते हो । प्रारंभिक अवस्थाओंमें यह मिश्रण अनिवार्य होता है और इस संबंधमें निरुत्साह होनेकी आवश्यकता नहीं । पर यदि तुम इसे कायम रखनेका आग्रह रखोगे तो यह तुम्हें सच्चे मार्गसे भ्रष्ट कर सकता है और तुम्हारी साधनाको हानि पहुँचा सकता है ।

 

         तुम्हें अभीतक चैत्यसत्ता और चैत्य जगतोकी प्रकृतिका पर्याप्त अनुभव नहीं हुआ है । इस कारण तुम्हारे लिये, अपने सामने आनेवाली सभी वस्तुओंको सच्चा मूल्य प्रदान करना संभव नहीं है । जब चैत्य चेतना खुलती है, विशेषकरके ऐसी उन्मुक्त- ता और तेजीके साथ जैसा कि तुम्हारे साथ हुआ है,-तो यह सब तरहकी वस्तुओंके प्रति और सब प्रकारकी भूमिकाओं, जगतों, शक्तियों और सत्ताओंसे आनेवाले सुझावों और संदेशोंके प्रति खुलती है 1 एक सच्चा चैत्य भी है जो सदैव मंगलमय होता है और एक अन्य चैत्य भी होता है जो उन मानसिक, प्राणिक और अन्य लोकोंकी ओर खुलता है जिनमें सब प्रकारकी भली, बुरी और साधारण, सच्ची, झूठी और अर्धसत्य वस्तुएं,

 

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सब प्रकारके विचारात्मक सुझाव और सभी ढंगके संदेश भी होते हैं । आवश्यकता इस बातकी है कि तुम समभावसे अपनेको उन सभीके हाथमे न सौंप दो बल्कि अपने संतुलनका कायम रख सकनेके लिये पर्याप्त ज्ञान और अनुभव एवं पर्याप्त विवेक दोनोंका विकास करो तथा मिथ्यात्व और अर्धसत्यों और मिश्रणकोको बाहर निकाल दो । इस आधारपर कि यह तो. महज बुद्धिवाद है, विवेककी आवश्यकताका अधीरता- पूर्वक परित्याग कर देनेसे काम नही चलेगा । विवेकका बुद्धिसंगत होना आवश्यक नही है यद्यपि वह भी ऐसी चीज नही जिसकी अवहेलना करनी चाहिये । किन्तु यह एक चैत्य विवेक या ऐसा विवेक हो सकता है जो अतिभौतिक मन एव उच्चतर सत्ता- भैंसे आता है । यदि यह तुम्हारे पास न हों तो तुम्हें निरंतर उन लोंगोंसे रक्षण और पथप्रदर्शन प्राप्त करनेकी आवश्यकता होगी जिन्हें यह प्राप्त हैं और जिन्हें लम्बा चैत्य अनुभव भी है, और पूरी तरह अपनेपर भरोसा रखना तथा इस प्रकारके मार्ग- दर्शनको अस्वीकार करना तुम्हारे लिये संकटपूर्ण हो सकता है ।

 

         इसी बीच साधनाके ये तीन नियम हैं जिनका प्रारंभिक चरणमें पालन करना बहुत आवश्यक है और जिन्हें तुम्हें याद रखना चाहिये । सबसे पहले, अपनेको अनुभवके प्रति खोलो पर अनुभवोंका ' 'भोग' ' न करो । अपनेको किसी विशेष प्रकारके अनुभवके साथ आसक्त न करो । सब विचारों और सुझावोंको सच्चा न मान लो ओर किसी ज्ञान, वाणी या चिन्तन-संदेशको चरम रूपसे अन्तिम एव निर्णायक न समझ लो । सत्य स्वयं केवल तभी सत्य होता है जब वह सर्वांगपूर्ण होता है और व्यक्ति जैसे जैसे ऊपर उठता है तथा उसे उच्चतर स्तरसे देखता है वैसे वैसे सत्य अपना अर्थ बदलता जाता है ।

 

         मुझे तुम्हें उन विरोधी प्रभावोंके सुझावोंसे अपनी रक्षा करनेके लिये सावधान करना होगा जो इस योगमें सभी साधकोंपर आक्रमण करते हैं । तुम्हें जो युरोपियनका अन्तर्दर्शन हुआ था वह स्वयं तुम्हारे लिये इस बातकी सूचना देता है कि इन शक्तियोंकी आंखें तुमपर लगी हुई हैं, यदि वे पहले ही तुम्हारे विरोधमें कार्य न कर रहीं हों तो अब करनेके लिये तैयार हैं । उनके अधिक खुले आक्रमण नही किन्तु वे सूक्ष्मतर सुझाव ही सबसे अधिक खतरनाक हैं, जो सत्यका रूप धारण करते है, उनमेंसे बहुधा आनेवाले कुछ सुझावोंका मैं चर्चा करूँगा ।

 

        तुम्हारे अहंकारको उत्तेजित करनेकी चेष्टा करनेवाले किसी भी सुझावका विरोध करनेके लिये सतर्क रहो, उदाहरणके लिये यह कि तुम अन्य लोंगोंसे अधिक महान् हों या कि तुम्हारी साधना अद्वितीय या असाधारण रूपसे उच्च प्रकारकी है । ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकारका कोई सुझाव तुम्हारे पास आ चुका है । तुमने चैत्य अनुभवोंका समृद्ध और तीव्र विकास प्राप्त किया है किन्तु इतने ही असंदिग्ध रूप- मे कुछ अन्य लोग भी उन्हें पा चुके हैं जिन्होंने यहां साधनाकी है और तुम्हारे अनुभवमेंसे एक भी अपने प्रकार या कोटिकी दृष्टिसे अद्वितीय, या हमारे अनुभवोंके लिये अपरिचित नहीं हैं । यदि ऐसा न भी हो तो भी अहंकार साधनाके लिये सबसे बड़ा खतरा है और उसे आध्यात्मिक दृष्टिसे उचित कभी नही ठहराया जा सकता । महिमा

 

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सारी भगवान्की हीं है, किसी दूसरेकी नही ।

 

      ऐसी हरेक वस्तुसे अपनेको बचाओ जो तुम्हें किसी अशुद्धि या अपूर्णतासे, मनकी अव्यवस्था, हदयकी आसक्ति, प्राणकी कामना और आवेगसे या शरीरके रोगसे चिपटे रहने या उन्हें कायम रखनेका सुझाव देती है । इन वस्तुओंको चतुराई भरे समर्थनों और आवरणोंके द्वारा बनाये रखना विरोधी शक्तियोंकी घिसी-पिटी युक्तियोंमेंसे एक है।

 

       जो कोई भी विचार दिव्य शक्तियोंकी-सी शर्तपर ही तुम्हें इन विरोधी शक्तियोंको भी अंदर आने देनेके लिये प्रेरित कर उससे सतर्क रहो । मै समझता हूँ, तुमने. यह कहा है कि तुम्हें सब वस्तुओंको अन्दर आने देना चाहिये क्योंकि सब कुछ भगवान्की ही अभिव्यक्ति है । एक विशेष अर्थमें सभी भगवान्की अभिव्यक्ति है परन्तु यदि इसका गलत अर्थ लगाया जाय, जैसा कि प्रायः होता है, तो यह वेदांतिक सत्य असत्यके उद्देश्यों- की पूर्तिके लिये भी तोडा-मोडा जा सकता ३ । ऐसी बहुतसी वस्तुएं हैं जो आशिक अभिव्यक्तियां हैं और उनके स्थानपर अधिक पूर्ण और सच्ची अभिव्यक्तिको लाना है । अन्य कुछ ऐसी अभिव्यक्तियां भी हैं जिनका संबंध अज्ञानसे है और जो हमारे ज्ञानकी ओर अग्रसर होनेपर झड़ जाती है । कुछ और ऐसी भी हैं जो अंधकारमय हैं और उनके साथ युद्ध करके उन्हें नष्ट या निर्वासित कर देना चाहिये । यह एक ऐसी अभिव्यक्ति हैं जिसका प्रयोग, अपने अन्तर्दर्शनमें तुमने जिस युरोपियनको देखा था उसके द्वारा सूचित शक्तिने खुल कर किया है और इसने अनेक लोगोंकी योग साधनाको बरबाद कर दिया है । स्वयं तुमने बुद्धिको अस्वीकार करना चाहा था किन्तु फिर भी, तुमने जिन अन्य वस्तुओंको स्वीकार किया है, बुद्धि भी उनकी भांति भगवान्की ही अभि- व्यक्ति है ।

 

        यदि तुम वस्तुत: मुझे स्वीकार करते हों और अपनेको समर्पित करते हों तो तुम्हें मेरे सत्यको स्वीकार करना होगा । मेरा सत्य वह है जो अज्ञान और मिथ्यात्वको अस्वीकार करके ज्ञानकी ओर अग्रसर होता है, अंधकारको तजकर प्रकाशकी ओर बढ़ता है, अहंकारका निषेध कर भागवत आत्माकी ओर गति करता है, अपूर्णताओंका त्याग कर पूर्णताओंकी ओर प्रगति करता है । मेरा सत्य केवल भक्ति या चैत्य विकासका ही सत्य नही है बल्कि ज्ञानका, पवित्रताका, दिव्य बल एवं स्थिरताका तथा इन सब वस्तुओंको इनके मानसिक, भावप्रधान और प्राणिक रूपोंसे इनकी अतिमानसिक यथार्थतातक ले जानेवाला भी सत्य है ।

 

        मैं ये सब बातें तुम्हारी साधनाका महत्व कम करनेके लिये नही किंतु तुम्हारे मनको बढ्ती हुई समग्रता और पूर्णताके मार्गकी ओर मोडनेके लिये कहता हूँ ।

 

       तुम्हें यहा रखना मेरे लिये अभी संभव नही है । पहले तो इसलिये कि आवश्यक शर्तें पूरी नही हुई और दूसरे इसलिये कि यहा आनेसे पहले तुम्हें मेरे पथ प्रदर्शनको स्वीकार करनेके लिये पूरी तरह तैयार रहना होगा । यदि, तुम्हें घर जाना ही पड़े, जैसा कि मैं मानता हूँ कि वर्तमान परिस्थितिमें तुम्हें अवश्य करना चाहिये, तो वहां अपनेको मेरी ओर उन्मुख करके ध्यान करो, और अपनेको इस प्रकार तैयार करनेका

 

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यत्न करो जिससे तुम इसके बाद यहां आ सको । तुम्हें इस समय चैत्य विकासकी इतनी अधिक आवश्यकता नहीं, उसे तो तुम सदैव कर सकोगे (मैं तुम्हें इसे बिलकुल बन्द करनेके लिये नहीं कहता), किन्तु तुम्हारे भावी विकास और अनुभवके सच्चे आधार और परिवेशके रूपमें आंतरिक स्थिरता एवं अचंचलताकि, मनमें, शोधित प्राणसत्ता- और परिवेशके रूपमें आंतरिक स्थिरता एवं अचंचलताकि, मनमें, शोधित प्राण- सत्तामें और भौतिक चेतनामें स्थिरताकी आवश्यकता है । चैत्य-प्राणिक या चैत्य- भौतिक योग तुम्हारे लिये तबतक सुरक्षित नहीं होगा जबतक तुम्हें यह स्थिरता और सुनिश्चित पवित्रता तथा एक पूर्ण और सदा उपस्थित रहनेवाला प्राणिक और भौतिक संरक्षण प्राप्त न हो जाय।

 

*

 

        मैंने 'क्ष' का पत्र ध्यान पूर्वक पढ लिया है और मैं समझता हूँ कि सबसे पहले उसके द्वारा उल्लिखित उसकी वर्तमान स्थितिकी व्याख्या करना सबसि उत्तम होगा । क्योंकि मुझे लगता है कि उसने सच्चे कारणों और अर्थको नही समझा है ।

 

      निष्क्रियता और उदासीनताकी वर्तमान स्थिति पहलेकी उस असामान्य स्थितिकी प्रतिक्रिया है जिस तक वह बाहर या अंदरसे समुचित रूपसे संचालित न किये गये आंतरिक प्रयत्नों द्वारा पहुँचा था । इस प्रयत्नने उन आवरणोका भेदन किया जो भौतिक जगत्को चैत्य और प्राणिक जगतोंसे पृथक् करते हैं । किन्तु उसका मन तैयार न था और उसके अनुभवोंको समझनेमें असमर्थ था और उनका मनमौज और कल्पना- के प्रकाशके एवं भ्रामक मानसिक और प्राणिक सुझावोंके आधारपर निर्णय करता था । राजप्तइक और आहंकारिक ऊर्जासे परिपूर्ण उसकी प्राणिक सत्ता इन नवीन क्षेत्रोंका उपभोग करने एवं अपने निम्रतर लक्ष्योंके लिये कार्य करती हुई शक्तिका उपयोग करनेके लिये तेजीसे दौड पडी । इससे प्राणिक जगत्की विरोधी शक्तिको घुस आनेका एवं आशिक रूपसे अधिकार जमानेका अवसर मिल गया और उसका परिणाम यह हुआ कि स्नायवीय एवं भौतिक संस्थान तथा मस्तिष्कके कुछ एक केन्द्र अस्तव्यस्त हो गये । ऐसा प्रतीत होता है कि अब आक्रमण और अधिकार जमानेकी चेष्टा समाप्त हो गई हैं और अपने पीछे तम और उदासीनताकी किलेबन्दीके साथ निष्क्रियता रूपी प्रतिक्रियाको छोड़ गई हैं । तम और उदासीनता अपने आपमें कोई अभीष्ट वस्तुएं नही हैं पर वे विगत अस्वाभाविक तनावके बाद विश्रामके रूपमें कुछ समयके लिये उपयोगी अवश्य हैं । शक्तिके नवीन और सच्चे कार्यके लिये निष्क्रियता उत्तम आधार है ।

 

        उस ब्यक्तिकी अवस्थाकी यह सच्ची व्याख्या नही है कि वह अन्दरसे निष्प्राण हो गया है और केवल बाहरी प्रवृति ही चल रही है । सच यह है कि अपनेको कर्ता माननेवाला प्राणिक-अहंकारका केन्द्र कुचल दिया गया है और वह अब समस्त विचार और प्रवृत्तिको अपने बाहर क्रीड़ा करते हुए अनुभव करता है । यह ज्ञानाबस्था है;

 

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कारण यथार्थ सत्य यह है कि ये सब विचार और क्रियाएं प्रकृतिकी हैं और वैश्व प्रकृतिसे लहरोंके रूपमें हमारे भीतर आती हैं या हमारे अंदरसे गुजरती हैं । हमारा अहंकार और शरीर तथा व्यक्तिगत स्थूल मनमें हमारी आबद्धता ही हमें इस सत्यका वेदन और अनुभव करनेसे रोकती है । इस सत्यका बोध और अनुभव कर सकना, जैसा कि अब वह कर रहा है, एक बड़ा कदम है । निःसंदेह यह पूर्ण ज्ञान नहीं है । ज्ञानके पूर्णतर होने और चैत्य सत्ताके ऊर्ध्वमे खुलनेके साथ ही मनुष्य सब क्रियाओंको ऊपरसे उतरता हुआ अनुभव करता है और उनके सच्चे उद्गमको प्रान्त करके उन्हें रूपांतरित कर सकता है ।

 

           उसके सिरमे प्रकाशकी क्रीड़ा होनेका अर्थ है कि उसमें उस उच्चतर शक्ति और ज्ञानका उद्घाटन हों चुका है जो ऊपरसे प्रकाश रूपमें उतर रहा है और मनको आलों- कित करनेके लिये उसपर क्रिया कर रहा है । विद्युत-प्रवाह एक ऐसी शक्ति है जो निम्र- तर केंद्रोंमें कार्य करने और उन्हें प्रकाश ग्रहण करनेके लिये तैयार करनेके प्रयोजनसे अवतरित हो रही है । ठीक अवस्था तभी आयेगी जब प्राणशक्तियोको ऊपरकी ओर जानेके लिये जोर लगानेका यत्न करनेके स्थानपर प्राण स्थिर और समर्पित हो जायगा रहनेके स्थानपर हृदय ऊपरके सत्यके प्रति निरन्तर अभीप्सा करेगा । प्रकाशकों इन निम्रतर केन्द्रोंमें उतरना होगा जिससे कि वह मानसिक बिचार और संकल्पकी तरह भावप्रधान एवं प्राणिक और भौतिक सत्ताको भी रूपांतरित कर दे ।

 

         चैत्य अनुभवों एवं अदृश्य जगतोंके ज्ञानकी, और इसी प्रकार अन्य योग संबंधी अनुभवोंकी उपयोगिता हमारी इन संकीर्ण मानवीय धारणाओंसे नही नापनी चाहिये कि मनुष्यके वर्तमान भौतिक जीवनके लिये क्या चीज उपयोगी हो सकती है । सबसे पहले ये चीजों चेतनाकी पूर्णता और सत्ताकी समग्रताके लिये आवश्यक हैं ! दूसरे, ये अन्य जगत् हमपर कार्य कर रहे हैं । और यदि तुम उन्हें जानो और उनमें प्रवेश कर सको तो इन शक्तियोंके शिकार और कठपुतलियां बननेके स्थानपर हम सचेतन रूपसे उनसे व्यवहार कर सकते हैं, उनका नियमन और उपयोग कर सकते हैं । तीसरे, मेरे योगमें अर्थात् अतिमानसिक योगमें उस चैत्य चेतनाका उद्घाटन नितनित अनिवार्य है जिसके साथ इन अनुभवोंका संबंध है क्योंकि एक मात्र चैत्य उद्घाटन द्वारा ही अति- मानसिक चेतना दृढ और ठोस पकडके साथ पूरी तरह अवतरित होकर मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ताको रूपांतरित कर सकती है ।

 

         यह है वर्तमान स्थिति और उसकी महत्ता एवं मूल्य । भविष्यमें यदि वह मेरे योगको स्वीकार करना चाहता हो तो इसकी शर्ते हैं स्थिर संकल्प और उस सत्यकी अभीप्सा जिसे मैं अवतरित कर रहा हूँ, शांत निष्क्रियता और उस उद्गमके प्रति ऊपर- की ओर उद्घाटन जहांसे प्रकाश आ रहा है । शक्ति उसमें पहलेसे ही कार्य कर रही है और यदि वह इस वृत्तिको ग्रहण करे और बनाये रखे एवं मुझपर पूरा भरोसा करे तो कोई कारण नहीं कि उसके आधारमें हुई भौतिक और प्राणिक क्षतिके बावजूद उसकी साधना निरापद रूपसे अग्रसर न हो । मुझे मिलनेके लिये उसके आनेके विषयमें बात यह है कि मैं अभी पूरा तैयार नहीं हूँ किंतु हम इस संबंधमें तुम्हारे पांडिचेरी आने-

 

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के बाद बात करेंगे ।

 

*

 

      जहांतक तुम्हारे पत्रका प्रश्न है, मैं समझता हूँ कि तुम्हें पत्र लिखनेवालेको कहना होगा कि उसके पिताने गुरु किये बिना हीं योग साधना करनेकी भूल की-क्योंकि गुरु संबंधी मानसिक बिचार यथार्थ जीवन्त प्रभावका स्थान नही ले सकता । विशेषत. इस योगमें, जैसा कि मैंने अपनी पुस्तकोंमें लिखा है, गुरुकी सहायताकी आवश्यकता होती ही है ओर यह उसके बिना नही किया जा सकता । उसके पिता जिस अवस्थामें जा पड़े हैं बह योगभगकी स्थिति है, सिद्धिकी स्थिति नहीं, । वे सामान्य मानसिक चेतनामेमे निकलकर चेतनाके ऐसे किसी मध्यवर्ती ( आध्यात्मिक नही) प्रदेशके संपर्क- मे आ गये हैं जहां व्यक्ति सब प्रकारकी वाणियों, सुझावों, विचारों और तथाकथित अन्तप्रेरणाओंके आधीन हो सकता है जो सच्ची नही होती । मैंने अपनी किसी पुस्तक- मे इन मध्यवर्ती प्रदेशोंके खतरोंके बिरुद्ध चेताबनी दी हैं । साधक इस प्रदेशमें प्रवेश करनेसे बच सकता है -- यदि वह प्रवेश करे ही तो उसे इन सब वस्तुओंको तटस्थता पूर्वक देखना और उनपर विश्वास किये बिना उनका निरीक्षण करना होगा,--ऐसा करनेसे वह सच्चे आध्यात्मिक प्रकाशमें सुरक्षित रूपसे पहुँच सकता है । यदि वह उन सबको बिना विवेक किये सच्चा या यथार्थ रूपमें ग्रहण कर लेता है तो बहुत संभव है कि वह अपनेको भारी मानसिक गडबडमें फंसा ले और यदि इसके साथ हीं वहां मस्तिष्क- की क्षति या निर्बलता भी हों - जो रक्त मूर्छासे पीड़ित रहा हो उसके लिये पिछली बात बिलकुल संभव है -- तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं और इससे बुद्धिमें भी गड़बड़ पैदा हों सकती है । यदि आध्यात्मिक खोजके साथ महत्वाकांक्षा, या इसी प्रकारका अन्य हेतु मिला हुआ हों तो वह योग भ्रष्टताकी दिशामें अतिरंजित अहं- कार या महत्वोन्मादकी वृद्धिकी ओर भी ले जा सकती है -- दौरेके समय उसके पिता- के मुखसे जो उद्गार निकले उनमें ऐसे कितने ही लक्षण हैं । वस्तुत: कोई भी पर्याप्त लम्बे समयतक तैयारी और शोधन किये बिना साधनाके इन अनुभवोंमें नहीं कूद सकता या उसे कूदना नही चाहिये (जबतक उसके पास पहले ही कोई महान् आध्यात्मिक क्षमता और उच्चता विद्यमान न हों) । श्रीअरविन्द स्वयं अपने मार्गमें बहुत लोगों- को स्वीकार करनेकी परवाह नही करते और स्वीकार करनेकी अपेक्षा कही अधिक लोगोंको मना कर देते हैं । यह अच्छा होगा कि वह अपने पिताको साधनाका और आगे अनुसरण करनेसे रोक दे - क्योंकि वे जो कुछ कर रहे हैं वह वस्तुत: श्रीअरविन्द- का योग नही है किन्तु कोई ऐसी वस्तु है जिसकी रचना उन्होंने अपने मनसे की है और

 

      मध्यवर्ती प्रदेशके खतरोंके विरुद्ध यह चेतावनी श्रीअरविन्द एक लेने पत्रमें दी थी जो पत्र 'इस जगत्की पहेली' नामकी प्रयासमें १९३ ३में सबसे पहले प्रकाशित हुआ था । पत्रोंके इस खण्डमे उस पत्रका समावेश फरा लिया गया है । देखो पृष्ठ 530-537

 

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एक बार ऐसी गड़बड़ पैदा हों जानेपर सबसे अधिक समझदारीका रास्ता यही हे कि साधनाको बन्द कर दिया जाय ।

 

*

 

       मध्यवर्ती प्रदेशका अभिप्राय है केवल एक ऐसी अस्तव्यस्त स्थिति या ऐसा मार्ग जिसमें व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत चेतनामेंसे बाहर निकल रहा है और अभी मानव मनके स्तरोंको पार किये बिना ही वैश्व चेतना (वैश्वमन, वैश्व प्राण, वैश्व देह, शायद कोई वैश्व उच्चतर मनकी वस्तु) के अन्दर उद्घाटित हों रहा है । मनुष्य भागवत सत्यको ' 'उसके अपने स्तरोंपर' ' अधिगत नही करता न उसके साथ सीधे संपर्कमें ही आता हैं, पर व्यक्ति उन स्तरोंसे, यहां तक कि अधिमानससे भी अप्रत्यक्षरूपसे किसी वस्तुको ग्रहण कर सकता है । किंतु, क्योंकि मनुष्य अभी तक वैश्व अज्ञानमें डूबा हुआ है इसीलिये ऊपरसे मानेवाली सभी वस्तुएं मिश्रित और विकृत हों सकती है, निम्रतर और विरोधी शक्तियां भी उन्हें अपने प्रयोजनके लिये हथिया सकती हैं ।

 

        मध्यवर्ती प्रदेशको पार करते हुए संघर्ष करना प्रत्येक व्यक्तिके लिये जरूरी नही है । यदि मनुष्य अपनेको शुद्ध कर लें, यदि उसमें कोई असामान्य गर्व, अहंकार, महत्वाकांक्षा या अन्य कोई प्रबल भ्रामक तत्व न हों, या यदि व्यक्ति सृजक और सावधान रहे, अथवा यदि चैत्य अग्रभागमें हों तो वह चेतनाके उच्चतर प्रदेशोंमें जहां वह भागवत सत्यके संपर्कमें होता है, या तो तेजीसे या सीधे अथवा कमसे कम कष्टके साथ गुजर सकता है ।

 

       दूसरी ओर उच्चतर प्रदेशमेंसे अर्थात् उच्चतर मन, आलोकित मन, संबोधि, अधिमानसमे होकर जानेवाला मार्ग अनिवार्य है -- वर्तमान चेतना और अति- मानसके बीचमें ये ही सच्चे मध्यवर्ती प्रदेश हैं ।

 

*

 

        मेरा इस ( मध्यवर्ती-क्षेत्र) से यह आशय है कि जब साधक अपने देहबद्ध व्यक्ति- गत मनकी सीमाओंको पार कर जाता दू तो वह उन अनुभवोंके विशाल मैदानमें प्रवेश करता है जो वस्तुओंके सीमित ठोस स्थूल सत्य नही होते और न हीं अभी तक वस्तुओं- के आध्यात्मिक सत्य हीं । यह मानसिक, प्राणिक और सूक्ष्म भौतिक रचनाओंको प्रदेश है और व्यक्ति जो भी रचना करता है या हमारे अन्दर इस जगत्की शक्तियां जो भी रचना करतीं हैं, वह सब साधकके लिये थोड़े समयके लिये सत्य बन जाता है - यदि वह अपने पथप्रदर्शक द्वारा संचालित न हो और उसकी बात न सुने तो आगे जाकर यदि वह उसे पार कर ले तो वह उस प्रदेशके सत्यको खोज निकालता है और वस्तुओंके सूक्ष्म सत्यमें प्रविष्ट हों जाता है । यह एक ऐसा सीमा प्रांत है जहां मानसिक, प्राणिक, सूक्ष्मभौतिक, मिथ्या आध्यात्मिक, सभी जगत् मिलते हैं - किन्तु वहां कोई क्रम या

 

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 दृढ आधार भूमि नहीं होती - यह स्थूल और सच्चे आष्यात्मिक प्रदेशोंके बीचका मार्ग है ।

 

*

 

       तुम उस वैश्व चेतनाकी ओर प्रारंभिक कदम उठा रहे हो जिसमें भली और बुरी, सच्ची और झूठी, सब प्रकारकी वस्तुएं तथा वैश्व सत्य और वैश्व अज्ञान भी हैं । .मैं अहंके विषयमें इतना नहीं सोच रहा था जितना कि इन हज़ारों वाणियों, संभावनाओं और सुझावोंके विषयमें । यदि तुम इनसे बच जाओ तो मध्यवर्ती क्षेत्रोंमेंसे गुजरनेकी जरूरत नहीं । बचनेसे वस्तुत: मेरा मतलब यह है कि उन्हें घुसने न देना - मनुष्य उनके स्वभावका परिचय प्राप्त करके आगे बढ़ जा सकता है ।

 

*

 

       सामान्य चेतनाकी सीमाको पार कर यदि कोई चैत्यमें प्रवेश करनेकी सावधानी नहीं रखता तो वह इस (मध्यवर्ती) क्षेत्रमें घुस सकता है । इस प्रदेशसे गुजरभर जानेंमें कोई हानि नहीं, बशर्ते कि वहां रुका न जाय । किंतु अहं, कामवासना, महत्त्व- कांक्षा आदि यदि अतिशय बढ़ जायें तो आसानीसे संकटपूर्ण अधःपतनकी ओर लें जा सकते हैं ।

 

*

 

         यह (आवरणका भेदन) साधनाके दबावके साथ ही अपने-आप होता है । इसे विशेष एकाग्रता और प्रयत्नके द्वारा भी संपादित किया जा सकता है ।

 

      निश्चय ही यह अधिक अच्छा है कि व्यक्तिगत और विश्वगत चेतनाके बीचके पर्दे या आवरणके हटनेसे पूर्व, जो  आंतर सत्ताको उसकी संपूर्ण विशालताके साथ संमुख भागमें लानेके कारण संभव होता है, चैत्य पुरुष सचेतन और सक्यि हों जाय । क्योंकि तब, जिसे मैं मध्यवर्ती क्षेत्र कहता हूँ उसकी कठिनाइयोंका खतरा बहुत कम रहता है ।

 

*

 

         तुम्हारे ये सब अनुभव उस प्रदेशसे संबद्ध: रखते हैं जिन्हें मैनई मध्यवर्ती प्रदेशका नाम दिया है; उन अनुभवोंका एक विशाल समुदाय प्राणिक भूमिकाके अनुभवोंका है । प्राणिक स्तरमें भली और बुरी, लाभदायक और हानिकर, आधी सच्ची और

 

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 झूठी, यथार्थ और भ्रामक सर्वप्रकारकी वस्तुएं होती हैं इसलिये व्यक्तिको बहुत साब- धान और जागरूक एवं प्रकाशके सच्चे उद्गमके प्रति उत्सुख रहना चाहिये । मुश्किल यह है कि व्यक्तिको यहां पहले सच्चा आध्यात्मिक अनुभव हो सकता है और आगे जाकर सब प्रकारकी नकल करने और धोखा देनेवाली चीजे अन्दर आकर अपने साथ मिथ्या अनुभूतिके खतरेको ला सकती हैं । मनुष्यको अपने अनुभवोंपर निगरानी रखना और निरीक्षण करना होगा एवं उनमें विवेक करने और उन्हें समझनेकी चेष्टा करनी होगी - दो बातोंकी प्रतीक्षा करते हुए, एक तो ऊपरसे विस्तृततर उच्चचेतनाके उद्घाटनकी और दूसरे, चैत्यके पीछेकी ओरसे आगे आनेकी । जब ये चीजों पूरी हों जाती हैं, तो भूल होनेके अवसर कम हो जाते हैं और साधनामें सच्चा आंतरिक संचालन उत्तरोत्तर अधिक अनुभव 'होने लगता है ।

 

     प्रकाश सब प्रकारके होते हैं, अतिमानसिक, मानसिक, प्राणिक, भौतिक, दैवी या आसुरिक - मनुष्यको निरीक्षण करना चाहिये, अनुभवमें विकसित होना चाहिये और उनके पारस्परिक भेदकों जानना सीखना चाहिये तथापि सच्ची ज्योतियोंको उनकी निर्मलता और सौंदर्यके द्वारा पहचानना कठिन नही ।

 

      ऊपरसे आनेवाली धारा और ऊर्ध्वमुखी धारा यौगिक अनुभवके परिचित लक्षण है उच्चतर प्रकृतिकी ऊर्जा और निम्रतर प्रकृतिकी ऊर्जा ही सक्रिय होकर परस्पर अभिमुख हों जाती हैं और एक ऊपर चढ़ती हुई और दूसरी नीचे उतरीती हुई धाराके रूपमें मिलनेके लिये आगे बढ्ती हैं । उनके मिलनेपर क्या होगा यह तो साधक पर ही आधार रखता है । यदि वह उच्चतर चेतना द्वारा निम्रतर चेतनाको शुद्ध करनेके लिये निरंतर संकल्प बनाये रखता हो तो मिलनका परिणाम शुद्धि और आध्यात्मिक प्रगति होता है । यदि उसका मन और प्राण मलिन और तमसाच्छन्न हों तो उसमें संघर्ष, अशुद्ध मिश्रण और बहुत अधिक गड़बड़ा उत्पन्न होती है ।

 

     सत्ताका, एक तो पीछे रहनेवाली बृहत्तर चेतना, दूसरे अग्रभागमें रहनेवाली अल्पतर चेतना इन दो भागोंमें विभक्त हों जाना भी साधना का एक परिचित लक्षण है । यह अपने आपमें एक आवश्यक क्रिया है, इसका स्वाभाविक परिणाम होना चाहिये एक बृहत्तर यौगिक चेतनामें विकास जो शूद्र बाह्य चेतनापर हावी होते जाय और भागवत शक्तिके दबावके आधीन रूपांतरका साधन बनता जाय । किन्तु इसमें भी गलती होनेकी संभावना होती है - विशेषकर कोई बाहरकी शक्ति घुस आ सकती है और पृष्ठभागमें स्थित विशालतर चेतनाके स्थानपर 'उस वृहत्तर अहंकारको ला बीठा सकतीं है जो वही होनेका ढोंग रचाती दु । मनुष्यको इस प्रकारकी घुसपैठके सामने अपना बचाव करना होगा, क्योंकि साधनापथको बरबाद करनेवाली इस घुस- पैंठके कारण बहुतसे साधक दीर्घकाल तक दारुण कष्ट पाते हैं ।

 

       सब मिलकर चैत्य विकासके लिये और शेष प्रकृतिपर उसके शासनके लिये एवं विशालतर प्राणिक चेतनाकी ओर नही किंतु ऊपर स्थित उच्चतर चेतनाकी ओर उद्घाटनके लिये अभीप्सा करो । और अपनेको सभी क्रमिक अवस्थाओंमें श्रीमांके रक्षण और उनकी कृपाके प्रति उद्घाटित करो एवं नन्हे अपनी रक्षा और पथप्रदर्शनके

 

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लिये पुकारों ।

 

         इस प्रकारकी अभिव्यक्ति ( आदेश) योगाभ्यासकी एक विशेष स्थितिमें बहुधा आती ही हैं । मेरा अनुभव यह हे कि यह सर्वोच्च लोतमेंसे नही आती और इसपर भरोसा नही किया जा सकता एव जब तक ब्यक्तिमें इन आदेशोसे सूचित चेतना और सत्यसे अधिक ऊंची चेतना और महत्तर सत्यमें प्रवेश करनेका सामर्थ्य न आ जाय तबतक प्रतीक्षा करना अच्छा है । कभी-कभी वे मध्यवर्ती भूमिकाकी उन सत्ताओंसे आते हैं जो साधकका किसी कार्य या प्रयोजनके लिये उपयोग करना चरहती हैं । बहुत- से साधक स्वीकार कर लेते हैं, और कुछ,--सब तो कदापि नही, कुछ करनेमें सफल भी हो जाते हैं, किन्तु यह प्राय योगके महत्तर लक्ष्यको बलि देकर ही । अन्य उदाहरणों- मे वे ऐसी सत्ताओंसे आते हैं जो साधना विरोधी होती हैं और महत्वाकांक्षा, महान् कार्य करनेकी भ्रांति या अहंके किसी अन्य रूपकों उभाड़कर इसे निरर्थक बना देना चाहती हैं । प्रत्येक साधकको अपने लिये आप ही निर्णय करना होगा (यदि उसके पथप्रदर्शन- के लिये कोई गुरु न हों तो) कि वह इसे प्रलोभनके रूपमें माने या जीवन व्रतके रूपमें ।

 

*

 

       ये वाणिया कभी कभी ब्यक्तिकी अपनी मानसिक रचनाएं होती हैं और कभी बाहरके सुझाव भी होती हैं । उनका भला या बुरा होना इस बातपर आधार रखता है कि वे क्या कहती हैं और उस प्रदेशपर जहांसे वे आती हैं ।

 

*

 

       कोई भी व्यक्ति 'वाणिया' सुन सकता है -- सबसे पहले तो ब्यक्तिकी प्रकृतिकी कुछ क्रियाएं हैं जो वाणीको अपने ऊपर ले लेती हैं - पीर सब प्रकारकी सत्तर, भी हैं जो मजाकके लिये या एक गंभीर प्रयोजन वश अपनी वाणियोंके साथ आक्रमण करती !

 

*

 

       इस अवस्थामें यथार्थ शक्तिकी प्राप्तिकी अपेक्षा प्राप्तिका आभास अधिक होता है । कुछ ऐसी मिश्रित और पर्याप्त सापेक्ष शक्तियां भी हैं - कभी थोड़ीसी प्रभावशाली, कभी बिलकुल प्रभाव रहित - जो यदि भगवान्के नियंत्रणमें रखी जाये अर्थात् समर्पित की जायें तो किसी यथार्थ वस्तुके रूपमें विकसित की जा सकती हैं । किन्तु

 

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अहं बीचमें आकर इन छोटी वस्तुओंको बढ़ा चढ़ाकर उन्हे किसी विशाल और अद्वितीय वस्तुके रूपमें प्रस्तुत करता है एव समर्पण करनेसे इनकार करता है । तब साधक कोई प्रगति नही करता -- वह बिना किसी विवेक या समीक्षात्मक बुद्धिके अपनी ही कल्पनाओंके जंगलमे भटकता रहता है, या उन अव्यवस्थित शक्तियोकी क्रीडाको ले आता है जिन्हें न तो वह समझ हीं सकता है और न उनपर प्रभुत्व ही पा सकता है ।

 

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      अधिमानसिक शक्तियोंके नीचे प्रवाहित होनेपर उसका सबसे पहला परिणाम यह होता है कि बहुत बार अहं बहुत अधिक बढ़ जाता है; वह अपनेको प्रबल, लग- भग अदम्य (यद्यपि वह वास्तवमें वैसा नहीं होता), दिव्यभावापत्र और ज्योतिष्मान् अनुभव करता है । इस चीजका कुछ अनुभव होनेके बाद सबसे पहला कर्तव्य है इस अतिरंजित अहंसे छुट्टी पाना । इसके लिये तुम्हें पीछे हट आना चाहिये, उस क्रियाके प्रवाहमें अपनेको बह नही जाने देना चाहिये, बल्कि निरीक्षण करना, समझना, सभी प्रकारके मिश्रगाका त्याग करना और: विशुद्धतर तथा और भी अधिक विशुद्धतर ज्यर्ग़ेते और क्रियाकी अभीप्सा करनी चाहिये । यदि चैत्य पुरुष सामने आ जाय तो केवल तभी यह कार्य पूर्ण रूपसे किया जा सकता है । मन और प्राण, विशेषकर प्राण, इन शक्तियों- को पाकर अपने आहंकारिक प्रयोजनके लिये इन्हें पकड़कर इनका उपयोग करनेकी वृत्तिको मुश्किलसे ही रोक सकते हैं अथवा उच्चतर लक्ष्यकी सेवाके साथ अहंकारकी मांगकी मिला देते हैं जिसका वस्तुत. वही मतलब है ।

 

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         सबसे पहले तो व्यक्ति, ' क्ष' की मृत्युके बाद उसके विषयमें उसके शिष्योंने जो कुछ लिखा है उस सबपर, विश्वास करनेको बाध्य नही हैं । इसके अतिरिक्त उसके संसर्गमें वे जिन अनुभवोंका वर्णन करते है वे मध्यवर्ती भूमिकाओंके हैं, सर्वोच्च आध्या- त्मिक चेतनाके नही । उसे सर्वोच्च सत्ताके विषयमें जो भी अनुभव हुआ उसे उन्होंने चमत्कारपूर्ण और रोमांचक आख्यानोंके जंगलमे छिपा दिया । यह बहुत संभव है कि उसे एक महान् सिद्धिके रूपमें दिखानेकी चेष्टा करके उन्होंने उसे वस्तुत: जो वह था उससे भी नीचे गिरा दिया ।

 

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     सच्चा अंतर्बोध प्राप्त करनेके लिये मनुष्यको मनकी और प्राणकी भी आहंकारिक स्वेच्छासे, अपनी पसदगियोसे, तरंगों, हवाई कल्पनाओं, दृढ आग्रहोंसे मुक्त होना होगा और मानसिक एवं प्राणिक अहंकारके उस दबावका उन्मूलन करना होगा जो चेतनाको

 

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उसके अपने दावों और कामनाओंकी सेवापूर्त्तिके काममें लगाता है । अन्यथा थे वस्तुएं बलपूर्वक अन्दर आकर अन्तवोंध, अन्तःप्रेरणा और ऐसी हीं अन्य सब वस्तुएं होनेका दावा करेंगी। अथवा यदि कोई अन्तर्बोधके आये तो भी उन्हें अज्ञानकी इन शक्तियोंके मिश्रण द्वारा तोडा-मोडा और बिगड़ जा सकता है ।

 

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       नहीं, समयके ये संकेत और ये आवाज़ें श्रीमांकी ओरसे आनेवाले आदेश नहीं थे । मैनई तुम्हें इस बातके सत्यको बता दिया है; तुम्हें भौतिक जीवनके विषयमें श्रीमन् के द्वारा निर्धारित नियमोंका अनुसरण करना चाहिये, यदि कोई परिवर्तन करना हो तो, या तो वे स्वयं तुम्हें बतायेंगे या तुम्हें इसके लिये उनसे अनुमति लेनी होगी । अंदर सुनी गई कोई भी आवाज उनके आदेशसे प्रबल नहीं हो सकती एवं तुम्हारे अपने मनके द्वारा आई कोई भी सूचना तबतक अनिवार्य नही मानी जा सकती जबतक उनके लिये श्रीमांका समर्थन न प्राप्त हो ।

 

       तुमने एक ऐसा धपला कर दिया जो प्रायः इस प्रकारके अनुभवके प्रारंभ होनेपर होता है । इसमें संदेह नही हैं कि श्रीमांकि बह शक्ति जो तुम्हारे अन्दर और तुमपर कार्य कर रही थी, और कुछेक अनुभव, जैसे कि अपने हृदयमें श्रीमांकि अनुभूति, पूर्ण- तया यथार्थ थे । किन्तु जब शक्तिका दबाव चेतनापर क्यिा करता है, तो जिस भूमिका पर वह कार्य कर रही होती हैं उसमें, विभिन्न शक्तियोंकी महान् प्रवृत्तियोंकी क्रीड़ा प्रारंभ हो जाती है, उदाहरणार्थ यदि यह मन हो, तो नानाविध मानसिक शक्तियोंकी, यदि ये प्राणिक हों, तो विविध प्राणिक शक्तियोंकी । इन्हें सच्ची वस्तुओंके रूपमें ग्रहण करना, बिना नबुनचके मान लेना और श्रीमांके आदेशके रूपमें अनुसरण करना, निरापद नही है । तुमपर इतनी बलवान् शक्तिका दबाव पड़ा है कि इससे तुम्हारा सिर लम्बे समयतक हिलता रहा है । तुम्हारे सिरका इस प्रकार हिलना इस बातका चिह्न है कि मनमें या कमसे कम मनोमय स्थूल सत्तामें सारी शक्तिको ग्रहण करने और उसे आत्मसात् करनेकी क्षमता नहीं है, यदि उसने ऐसा किया होता, तो सिरमें कोई हलनचलन न होती, सब कुछ सहज, स्थिर और शांत रहता । किन्तु तुम्हारे मननें इस विशिष्ट घटनाको और फिर ऐसी अन्य घटनाओंपर भी कार्य करना, उनकी व्याख्या करना, इन्हें अपने अर्थ देने लगना तथा एक ऐसी पद्धति बनानेका यत्न करना शुरु किया जिसके द्वारा तुम्हारे आचार-व्यवहारको नियंत्रित किया जा सके और उसे प्रामाणिक माना जा सके तथा श्रीमांके आदेशके रूपमें प्रस्तुत किया जा सके । शक्तिकी क्यिा एक तथ्य थी, तुमने उसके आने जानेके विवरणकी जो व्याख्या की बह एक मानसिक रचना थी और उसका कोई बहुत वास्तविक मूल्य नहीं था ।

 

        यदि तुम इसे ध्यानपूर्वक देखो - जैसे कि मैनई तुम्हारे द्वारा उल्लिखित विवरण- को देखा है - तो तुम देखोगे कि ये सुझाव बहुत अस्थिर और परिवर्तनशील ढंगके हैं कभी एक बात तो कभी शीर; केवल तुम्हारा मन अपनेको परिवर्त्तनोंके

 

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अनुकूल बना लेता था, अपनी व्याख्याके उनके अनुकूल बिठा लेता था और एक पद्धतिमे संगति बनाये रखनेका यत्न करता था । किन्तु यथार्थमें सब कुछ अनियमित और अस्त- व्यस्त था ओर इसका झुकाव तुम्हारे कर्म और व्यवहारको अनियमित एवं अस्तव्यस्त बनानेकी ओर था । सच्चा अन्तर्बोध ऐसा नहीं करेगा, कमसे कम यह संतुलन, संवाद और व्यवस्थाकी ओर प्रवृत्त तो होगा ही ।

 

       कालके संकेतके संबंधमें तुम अन्तर्बोधके बात कहते हों । 'काल' का एक ऐसा अन्तर्बोध भी है जिसका संबंध मनसे नही होता और जब वह कार्य करता है तो सदैव एक-एक मिनटतक और जरूरत पडनेपर एक-एक सेकन्डतक सही होता है; परन्तु यह वैसा अन्तर्बोध नही था - क्योंकि यह हमेशा सही नही होता; वह शायद कितनी ही बार सही निकला, फिर यह भ्रामक बनने लगा, इसके कारण तुम्हें प्रणामके लिये पहुँचनेमें विलम्ब हों गया : यह दोपहरके भोजनमें भी विलबकी ओर धकेलने लगा, भोजनालयके कार्यकर्ताओंकी सुविधाके साथ संघर्ष करवाने लगा, यह शामके लिये भी तुम्हें विलंबकी दिशामें धकेलने लगा और तुम्हें पूरी तरह मंझधारमें छोड़ गया, जिससे कि अन्तत: तुम्हें शामको भोजन न मिला । किन्तु तुम्हारा मन अपनी निजी रचनाओंके साथ आसक्त हो गया था और इन अव्यवस्थित सनकोंको उचित ठहरानेका, इनका कुछ अर्थ लगानेका और श्रीमीकी (बहुत बदल सकनेवाली) इच्छा द्वारा उनकों व्याख्या करनेका यत्न कर रहा था । योगके अनुभवी लोगोंको यह वस्तु बहुत परचित है और इसका अर्थ है कि ये वस्तुएं अंतर्बोध नही थी, किन्तु मनकी कुतिया तथा मानसिक रचनाएं थीं । यदि इसमें जरा भी अन्तर्बोध था तो, वह सम्बोधिमनकी क्रिया थी, पर हमें सम्बोधिमनकी जो कुछ प्रदान करता है वह संभावनाओंका अन्तर्बोध होता है, उनमेंसे कुछ तो अपनेको चरितार्थ कर लेती हैं कुछ नहीं करती या केवल आशिक रूपसे करती हैं, अन्य बिलकुल असफल हो जाती हैं । इन मानसिक रचनाओंके पीछे ऐसी शक्तियां होती हैं जो अपनेको चरितार्थ करना चाहती हैं और मनुष्योंको अपने चरितार्थ करनेके उपकरणके रूपमें उपयोगमे लानेकी चेष्टा करती हैं । यह आवश्यक नहीं कि ये शक्तियां विरोधी ही हों, परन्तु वे अपनी चतुराई दिखानेके लिये क्रीड़ा करती हैं, वे चाहती हैं शासन करना, अपनेको उपयोगमें लाना, अपनेको उचित सिद्ध करना, अपने मनचाहे परिणामोंको उत्पन्न करना । यदि वे श्रीमांकि अनुमति प्राप्त करके या अपनेको श्रीमांके आदेशों के रूपमें प्रमाणित करके ऐसा कर सकें तो करनेको तैयार रहती है; जब उन्हें श्रीमांकि स्वीकृति नहीं मिल सकतीं, तो वे अपनेको सूक्ष्म अगोचर वैश्व रूपमें या सान्निध्यमें श्रीमांकि ही स्वीकृति के रूपमें प्रस्तुत करनेको तैयार रहती हैं । वे कुछ लोगोंको इस बातके लिये फुसला लेती है कि वे अन्तरस्थ श्रीमां जो उन्हें सदैव वही बात कहती है जो वे सुनना चाहते हैं, और वह देहधारी माताजी जिसे वे अपने अनुकूल नही पाते, जो उनको रोकती है, उन- की भ्रांति और गलतियोंको ठीक करती इ -- इन दोनोंके बीचमें वे भेद ही नही बल्कि विरोध भी खड़ा कर दें । इस अवस्थामें मानसिक भूलोंको लाभ उठाने- वाले एक ऐसे मिथ्यात्वके अधिक गंभीर आक्रमणका, एक ऐसी विरोधी प्राणिक शक्ति-

 

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के अन्दर आनेका खतरा होता है, जो या तो श्रीमांके नामका उपयोग करते हुए उनका स्थान लेनेकी चेष्टा करती है अथवा उनके विरुद्ध विद्रोह पैदा करती है । प्रणाममें न आनेके लिये मन मनाना, अपने अनुभवोंसे उन्हें अपरिचित रखना और उनके संशोधन- को न मानना, उनकी प्रकट इच्छाके साथ जीवनको संगत न करना, रो सब इस अवस्थामें खतरेके चिह्न हैं - क्योंकि इसका अर्थ यह है कि बलपूर्वक घुसपैठ करनेवाली शक्ति बन्धनमुक्त होकर काम करनेके लिये एक स्थान चाहती है - और यही कारण था कि विरोधी मायाके खतरेके ओर तुम्हारा ध्यान खींचनेके लिये मैंने अपनेको बाध्य अनु- भव किया ।

 

       जहांतक वाणियोंका प्रश्न है, वे बहुतसी होती हैं; प्रत्येक शक्ति मानसिक, प्राणिक और स्थूल भूमिकाकी प्रत्येक क्रिया अपने आपको वाणीसे सज्जकर सकती है । तुम्हारी वाणिया परस्पर मेल भी नही खाती थी एक वाणी एक बात कहती थी, जब कि वह चरितार्थ नही होती थी, तो दूसरी उससे कोई असंगत बात कहती थी; किन्तु तुम अपनी मानसिक रचनाके साथ चिपटे हुए थे और फिर भी उसका अनुसरण करनेका यत्न कर रहे थे ।

 

          यह सब इसलिये होता है कि साधनाके दबावकी उत्कटताओंके कारण मन और प्राण बहुत सक्रिय हो उठते हैं । इसलिये सबसे पहले यह जरूरी है कि अनुभवोंके या उनके फलके पीछे उत्सुकता पूर्वक न दौड़ते हुए, किंतु उनका अवलोकन और निरीक्षण करते हुए सदैव अधिकाधिक प्रकाशके लिये उत्तरोत्तर विस्तृत, उद्घाटित और अचंचल होकर एवं विवेक पूर्वक ग्रहणशील होनेकी चेष्टा करते, हुए अपनी साधनाको महान् स्थिरता, महान् समतापर प्रतिष्ठित कर लिया जाय । यदि चैत्य पुरुष सदैव अग्रभागमें रहे तो ये कठिनाइयां बहुत ही कम हों जाती हैं, क्योंकि यहां एक ऐसा आलोक होता है जो मन और प्राणमें नहीं होता, और दिव्य अदिव्यका, सत्य और मिथ्याका, नकली और असली पथ प्रदर्शनका एक स्वयस्फूर्त्त और स्वाभाविक चैत्य-बोध होता है । इस कारण भी मैं इस बातपर आग्रह रखता हूँ कि तुम अपने अनुभवोंको हमें सूचित करो, क्योंकि, अन्य वस्तुओंके अतिरिक्त, हमें इन वस्तुओंका ज्ञान और अनुभव है और हम भूलकी किसी भी प्रवृत्तिपर तुरन्त रोक लगा सकते हैं ।

 

       तुम अपनेको श्रीमांकि शक्तिके प्रति उद्घाटित रखो, किन्तु सब शक्तियोंपर विश्वास न करो । आगे बढ़नेपर यदि तुम सीधा चलते रहो तो एक ऐसा काल आयेगा जब चैत्य अधिक प्रबलतापूर्वक सक्रिय हो जायेगा और ऊपरका प्रकाश अधिक विशुद्धि और शक्तिके साथ इस तरह व्याप्त हों जायेगा कि मानसिक निर्माणोंका और प्राणिक रचनाओंका सच्चे अनुभवके साथ मिश्रण घट जायेगा । जैसे कि मैनई तुमसे कहा है, ये अतिमानसिक शक्तियां नहीं है और न ही हों सकती हैं, यह तैयारी की क्यिा है जो केवल वस्तुओंको भावी, योगसिद्धिके लिये तैयार कर रहीं है ।

 

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        इस आश्रमके लोग यह कैसे निर्णय कर सकते हैं कि किसी ब्यक्तिने योगमें उन्नति की है या नही? वे बाह्य प्रतीतियोंके आधारपर निर्णय करते हैं - यदि कोई साधक चला जाता है, ध्यानमें बहुत अधिक बैठता है, वाणियों और अनुभव उपलब्ध करता है आदि आदि तो वे सोचते हैं कि वह महान् साधक हैं! ' क्ष' सदैव ही एक बहुत निर्बल आधार था । उसे प्राथमिक ढंगके कुछ थोडेसे अस्तव्यस्त और अनिश्चित अनुभव हुए थे, प्रत्येक कदमपर बह परेशानीमें पडू जाता था और बगलकी किसी पगडंडीको पकड़ लेता था तथा हमें उसे ठीक राहपर खींचकर लाना पड़ता था । अन्तमें उसे ऐसी वाणिया और अन्तःप्रेरणा उपलब्ध होने लगी जिसके विषयमें उसने घोषणा की कि वे हमारी ९ - मैंने उसे गंभीर चेतावनी देते हुए अनेक पत्र लिखे और समझाया किन्तु उसने सुननेसे इनकार कर दिया, वह अपनी मिथ्या वाणियों और अन्त:- प्रेरणाओंके साथ बहुत अधिक आसक्त हो गया था और, हमारी झिड़की और हमारे किये हुए भूल सुधारसे बचनेके लिये उसने हमें लिखना या सूचना देना हीं बन्द कर दिया । इस प्रकार वह पूरी तरह ही पथभ्रष्ट हो गया और अन्तमें विरोधी बन गया । तुम इस बातको मेरे नामसे ऐसे किसी भी व्यक्तिको कह सकते हो जो तुम्हारी तरह इस विषयमें उलझनमें पढा हो ।

 

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          मेरा आशय उससे है जो क्ष के और य, ज जैसे तथा वैसे ही अन्य लोंगोंके साथ भी हुआ है । उच्चतर अनुभव किसीका नुकसान नही करते - प्रश्न यह है कि उच्चतरका अर्थ क्या हे? उदाहरणके लिये य समझता था कि उसके अनुभव स्वयं सर्वोच्च सत्य थे - मैंने उससे कहा कि वे सब काल्पनिक थे किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि वह मुझसे बहुत गुस्से हों गया । कुछ ऊंचे दर्जेके नकली अनुभव भी होते हैं जब कि मन या प्राण एक विचार या सुझावको पकडू लेता है और उसे किसी अनुभूतिमें बदल देता है, तथा जब शक्तियां दौड पड़ती है ओर उल्लास एवं बल इत्यादिका अनुभव होता है । सब प्रकारके ' 'आदेश' ', ' 'अन्तर्दर्शन' ' शायद ' 'वाणिया' ' भी सामने आती हैं । इन वाणियोंसे अधिक खतरनाक कोई वस्तु नहीं - जब मैं किसी ब्यक्तिसे सुनता हूँ कि उसने वाणी सुनी है, तो मैं हमेशा ही परेशानी अनुभव करता हूँ, यद्यपि असली और सहायक वाणिया भी हो सकती हैं, और मुझे यह कडुनेक्रा मन होता है ' 'कृपा करके वाणियोंकी बात न करो,-मौन, मौन और एक स्पष्ट विवेकशील मस्तिष्क बनाये रखो' ' । मैं इन नकली अनुभवोंके, मिथ्या अन्त:प्रेरणाओंके और असत्य वाणियोंके इस प्रदेशके विषयमें अपने मध्यवर्ती प्रदेश सम्बन्धी पत्रमें उल्लेख कर चुका हूँ जिनमें सैकड़ों योगी प्रवेश करते हैं और कुछ तो कभी बाहर ही नही निकलते । यदि मनुष्यका मस्तिष्क शक्तिशाली और स्पष्ट हो और उसमें एक विशेष प्रकारकी आध्या- त्मिक संदेहवादिता हो तो, बह इसे पार कर सकता है और करता भी है - परंतु य या ज जैसे विवेक रहित व्यक्ति रास्ता भटक जाते हैं । विशेष करके अहंकार अन्दर घुस

 

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आता है और उन्हें उनकी भव्य(?) अवस्थासे इतना अधिक आसक्त कर देता है कि वे बाहर निकलनेसे एकदम इनकार कर देते हैं । उधर एकांतमें चले जानेसे इस प्रकारकी क्रियाको खुला अवसर मिल जाता है, इसके कारण व्यक्ति पूरी तरहसे अपनी आंतर- सत्तामें निवास करने लगता है और वहां किसी प्रकारका नियंत्रण नहीं होता सिवाय उस नियंत्रणके जिसे ब्यक्तिका अपना स्वाभाविक विवेक ला सकता है - और यदि वह बलवान् न हुआ तो? नि:संदेश अहंकार इन आंतरिक मिथ्यात्वोंका दृढ अवलम्ब है, किन्तु और सहारे भी हैं । काम करना और अन्य लोगोंसे मिलना -- और इसके परिणाम स्वरूप बहिर्गत जगतके साथ हमारा जो सम्पर्क होता है वह - इन चीजोंके विरोधमें कोई अन्तिम प्रतिरक्षा नही है, किंतु यह एक बचाव अवश्य हैं और एक प्रतिबन्धका और एक प्रकारके दोष-संशोधक संतुलनका काम देता हे । मैनई यह देखा है कि जो लोग इस मध्यवर्ती प्रदेशमें प्रवेश करते हैं साधारणत. वे निवृत्ति और एकांतकी ओर अभिमुख हो जाते हैं छोर उसके लिये आग्रह रखते हैं । इन्ही कारणोंसे मैं साधारणत: यह पसन्द करता हू कि साधकोंको पूर्ण निवृत्ति नहीं ग्रहण करनी चाहिये किन्तु निश्चलता और क्रियाके बीचमें, एक विशेष संतुलन रखना चाहिये, आंतरिक और बाह्य दोनों वृत्तियोंको साथ साथ रखना चाहिये ।

 

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       जहांतक खतरोंका प्रश्न है इन एकांतवासमें ( अहंकारके सिवाय) एकमात्र असली खतरा है आत्मगत प्रभावों और कल्पनाओंका शिकार होना और सत्य वस्तु परसे उस पकडका हट जाना जिसे बनाये रखनेमें कर्म और अन्य लोगोंसे संपर्क सहायता देते हैं । निःसंदेह संपर्क कायम रखते हुए भी व्यक्ति पकडू खो सकता है जैसा कि 'क्ष' और अन्य लोंगोंके साथ हुआ । किन्तु मैं समझता हूँ कि तुम्हारा मस्तिष्क इतना पर्याप्त ठंडा और विवेचनशील है कि तुम इन खतरोंसे बचे रह सकते हो ।

 

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        एक भूमिकासे दूसरी भूमिकामें जानेके लिये एकांतवास आवश्यक नहीं है । यह केवल कुछ विरले व्यक्तियोंके लिये और किन्हीं विशेष प्रकृतिके लोंगोंके लिये थोड़े समयके लिये ही आवश्यक होता है ।

 

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        तुम यदि एक सप्ताहके लिये, जैसा कि तुमने प्रस्ताव किया है, यह ( एकांतवास) करो तो हमें कोई आपत्ति नही । मेरी समझमें यह एकांतवास नहीं है, किन्तु सामाजिक भेटोंका बन्द कर देना है । एकांतवासके संबंधमें मेरी आपत्ति यह है कि इसके कारण

 

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बहुतसे लोगोंका ' 'स्वास्थ्य विकृत' ' हो गया या ३ मिथ्या प्राणिक अनुभवोंके प्रदेशमें भटक गये, दूसरे यह कि पूर्ण एकांतवास आध्यात्मिक जीवनके लिये आवश्यक नहीं हैं । तथापि 'क्ष' जैसे लोंगोंके लिये यह दूसरी वस्तु है, जो जन्मसे ही इसी पद्धतिमें पले हैं या जिन्हें कमसे कम इससे पूर्ण प्रशिक्षण मिला है । ' 'प्रचार पर प्रतिबन्ध' ' बिलकुल दूसरी बात है । अथवा एकांतके योग्य होना और एकातका आनन्द लेना साधनाके लिये सदैव सहायक हो सकता है, और आंतरिक एकांतकी शक्ति योगीके लिये सहज होती है ।

 

       हम तुम्हें अपनी सहायता देंगे और आशा करते हैं कि तुम सफल होंगे - इसके द्वारा कमसे कम तुम भविष्यमें अपनी इच्छानुसार एकांतवासके लिये एक पूर्वाभ्यास तो स्थापित कर ही लोगे ।

 

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      निःसंदेह एकांतवासका सही उद्देश्य है, आत्मामें निवास करना और आत्मामें निवास उन उच्चतर अनुभूतियोंको लाता है जिन्हें स्पष्ट हीं सहायक होना चाहिये, हानिकारक नहीं । मैंने जो लिखा था वह केवल यह समझानेके लिये था कि एकदम पूर्ण एकांतवासके खतरेसे मेरा क्या आशय था और वह क्ष, य और अन्य लोगोंके लिये हानिकारक क्यों सिद्ध हुआ । ज जैसे कुछ लोग भी है जिन्होंने उससे विशुद्ध लाभ प्राप्त किया । यह सबका सब व्यक्ति की अपनी प्रकृतिपर और निश्चल-नीरवताके समय अपनी वृत्ति, लक्ष्य एवं आंतरिक स्थितिपर आधार रखता है।

 

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      एकांतवासका आवेग अन्तरमें एकाग्र होनेकी किसी प्रेरणासे उत्पन्न होता है - किंतु हंस प्रेरणाके कारण विभिन्न व्यक्तियोंमें विभिन्न होता है । कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जिनमें माताजीके प्रभावसे (प्रणाम, ध्यान आदिसे) अपनेको अलग करने- की और अपनी तरगोंका अनुसरण करनेकी इच्छा पैदा हुई, जैसे अ, ब मे, शायद श्रेष्ठताकी इस भावनाके साष भी कि ' 'मेरे जैसे महान् योगीके लिये इन चीजोंकी आवश्यकता नहीं' ' । अन्य व्यक्तियोंमें भी अपनेको पृथक् कर लेनेकी एक सुस्पष्ट इच्छा उत्पन्न हुई, किन्तु ऐसा वही हुआ जहां मस्तिष्क उद्भ्रांत हो गया था जैसे स मे, या कोई गलत प्रभाव सक्रिय था जैसे द मे । मैं समझता हूँ कि इनकी ओर ही इनिर्देश कर रहा था । किन्तु अन्य लोगोंने केवल एकाग्रताकी कामना की है और थे चाहा है कि वे अपनेको बहिर्मुखतामें न खाप दे जैसे कि फ, ग ने अपने एकांतवासके समय किया । तो एक ही निर्णयके द्वारा सबका निपटारा नहीं किया जा सकता ।

 

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          प्रगाढ़ शांतिमें निवास करते समय मौन रहना या लोगोंसे न मिलना एक बात अवश्य है - ऐसा किया जा सकता है । अन्य समयोंमें भी जीवनके एक नियमके रूपमे एकांतके रहना मुझे आवश्यक नही प्रतीत होता - यह केवल उन्हीं लोंगोंके लिये निरापद है जो बाह्य यथार्थताकी अपनी पकडको खोये बिना पूरी तरह अन्दर निवास कर सकते हैं । यदि ब्यक्तिमें सदैव शांतिकी एक ठोस स्थिति रहे तो वह ऐसा कर सकता है या फिर वह ऐसा तब कर सकता है यदि उसका मन स्पष्ट संतुलित और विवेकशील हों जिसमे सतत अनुभव होते रहें और उन्हें वह उनका अपना समुचित स्थान दे सके । किंतु कुछ लोग इन आंतर अनुभवोंमें ग्रस्त हों जाते हैं, उनमें वे खो ही जाते हैं और उनके साथ तीव्रतासे आसक्त हों जाते हैं एवं यह आंतरिक जीवन हीं उनके लिये एकमात्र यथार्थता बन जाता है जिसे बाह्य जीवन संतुलित और अपने नियंत्रण और जांचके आधीन नही रख सकता - इसमें खतरा होता है । और फिर यदि व्यक्ति एक ऐसे स्थिर आंतरिक संतुलन और सतत अनुभवकी, जिसपर उसका विवेक- शील नियंत्रण होता है, सहायताके बिना एकांतमें रहे, तो प्राण रिक्तताके कालोंमें संघर्षों, कठिनाइयों, बेचैनियों, सब प्रकारके सुझावों एवं एक विक्षुब्ध और कलुषित अवस्थाको लाते हुए उभर सकता है -- बल्कि इसमें समय बितानेकी अपेक्षा जैसा कि कुछ लोग करते हैं, दूसरे लोगोंके साथ मिलना या किसी अन्य प्रकारसे अपनेको स्वस्थ ढंगसे बहिर्मुख करना अधिक अच्छा है ।

 

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       बहुत अधिक संवेदनशील होना और किसी संपर्कसे विचलित हो जाना एक अति है; किन्तु बहुत सारे संबंध रखना और हमेशा अपने आपको बिखेरते रहना अंत:सत्तामे विकसित एवं दृढ होनेसे रोकता है क्योंकि साधारण व्यक्ति हमेशा ही साधारण बाह्य चेतनाकी ओर खींचा जा रहा है ।

 

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         लोगोंके साथके अपने संबंधोंमें, सरल और स्वाभाविक ढंगसे बरतो । उन नाना प्रकारकी झिझकोंसे जो कि एक निर्बलता है, मुक्त हों जाओ । महत्वपूर्ण बात है स्थिर और आसक्ति रहित सच्ची आंतरिक वृत्तिको धारण करना । यदि तुम ऐसा करो तो सब ब्यौरे ऐसे तुच्छ विषय बन जाते हैं जो अपनेको सुविधा और सामान्य बुद्धि- के अनुसार व्यवस्थित कर लेते हैं ।

 

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     अपनेको बाह्य संबंधोंसे बिलकुल अलग करके तुम भला सच्चे बाह्य संबंधोंको

 

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कैसे खोज पाओगे? और केवल आंतरिक जीवनमें रहते हुए, बाह्य संपर्कके द्वारा रूपांतर या एकताको कसौटीपर कसे बिना और बाह्य कर्म तथा जीवनकी अग्नि- परीक्षाओंमेंसे गुजरे बिना तुम अपने को रूपांतरित और एकीभूत करनेका प्रस्ताव कैसे करते हो ' पूर्णताके अन्दर केवल निवृत्त आंतरिक जीवनका हीं नहीं किन्तु बाह्य कर्म और संबंधोंका भी समावेश होता है । रूपांतर एवं एकीकरण केवल तभी हो सकता है जब प्राणिक अहं अपनी मांगों और देवोंको तथा उनके अतृप्त रहनेपर उत्पन्न होनेवाली प्रतिक्रियाओंको छोड़ दे. दूसरा कोई रास्ता नहीं ।

 

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        मैंने तुमसे कहा था कि तुम्हें अपने मनसे निर्णय करनेका प्रयत्न करना है । तुम लगातार दुहराये जा रहे हों 'मुझे निर्णय करना होगा । मुझे निर्णय. करना होगा । मुझे निर्णय लेना होगा । मुझे निश्चय करना होगा । '' तुम हमेशा इस मुझे, मुझे, मुझे निर्णय करना होगा को दुहराते रहे हों मानों तुम मुझसे अथवा माताजीसे अधिक अच्छा जानते हो! ' 'मुझे समझना होगा, मुझे निर्णय करना होगा! '' और हमेशा ही तुम यह पाते हों कि तुम्हारा मन कोई भी निर्णय नहीं कर सकता और कुछ भी नही समझ सकता । और फिर भी तुम उसी असत्यको दुहराये जाते हों ।

 

        मैं तुम्हें एकबात फिर साफ कहता हूँ कि तुम्हारे सारे तथा कथित अनुभव कौड़ी कीमतके नहीं, निरे प्राणिक अज्ञान और भ्रांति हैं । एकमात्र जिस अनुभवकी तुम्हें आवश्यकता है वह हे माताजीकी उपस्थिति, माताजीका प्रकाश, माताजीकी शक्ति और वह परिवर्तन जिसे वे तुममें लाती है ।

 

         तुम्हें अन्य सब प्रभावोंको फेंक देना होगा और एकमात्र माताजीके प्रभावकी ओर ही अपनेको खोलना होगा ।

 

         तुम्हें बाहरकी ओर प्रवाहित होती हुई शक्तियोंके संबंधमें और अपनी शक्तियोंके तथा दूसरोंकी शक्तियोंके विषयमें भी और अधिक नही विचारना और बोलना है । एकमात्र जिस शक्तिका तुम्हें अनुभव करना है वह हे माताजीकी शक्तिका अवतरण, अन्त प्रवाह और उसकी किया ।

ये ही थे मेरे निर्देश और जबतक तुमने उनका पालन किया तबतक तुम तेजीसे प्रगति करते रहे ।

 

         इन सब असंबद्ध मिथ्या अनुभवोंको दूर फेंक दो और एकमात्र उस नियमकी ओर लौट जाओ जो मैनई तुम्हें दिया था । माताजीकी उपस्थिति, प्रभाव, ज्योति और शक्तिकी ओर खुल जाओ - बाकी प्रत्येक वस्तुको अस्वीकार करो । केवल इसी प्रकार तुम ?? इस अस्तव्यस्तताके स्थानपर) स्पष्टता, शांति, चैत्य संबंधी प्रत्यक्ष- बोध और साधनामें प्रगतिको फिरसे प्राप्त कर लोगे ।

 

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        तुम ऐसे गलत प्रयत्नोंमें लगे हुए हो जो स्वयं तुम्हारी आंखोंके सामने स्थित असली ध्येय की प्राप्तिमें रुकावट डालता है । तुम उस वस्तुको पाना चाहते हो जिसे तुम 'दिव्य बनना' कहते हों; किन्तु जिस ढंगसे तुम प्रयत्न कर रहे हों उस ढंगसे उसे नही पा सकते ।

 

        मैं तुम्हारी भूल बताता हूँ; कृपाकरके ध्यानसे पढो और ठीक ढंगसे समझनेका यत्न करो । विशेष करके मेरे शब्दोंको उनके सीधे सादे अर्थमें समझो और उनका कोई 'गूढ़ अर्थ' या अन्य कोई ऐसा अर्थ न लगाओ जो तुम्हारे वर्तमान विचारोंके अनु- . कूल हों ।

 

        जिस भागवतचेतनाको हम नीचे लानेका यत्न कर रहे हैं वह हे सत्य-चेतना । यह चेतना मन, प्राण, शरीर सभी भूमिकाओंमें स्थित हमारी सत्ता और प्रकृतिके सत्यको बताती है !वह उन्हें फेंक नही देती या उनसे तुरन्त छुटकारा पानेके लिये उनके स्थानपर किसी विलक्षण और अद्धा वस्तुको लानेके लिये अधीरतापूर्ण प्रयत्न नहीं करती । उनमें जो कोई भी वस्तु पूर्णता प्राप्त कर सकतीं है उस सबको पूर्ण करने और ऊपर उठानेके लिये तथा जो तमोग्रस्त और अपूर्ण है उसे बदलनेके लिये उनपर धैर्य पूर्वक धीरे धीरे क्यिा करती है ।

 

       तुम्हारी पहली भूल है यह कल्पना करना कि एक ही क्षणमें दिव्य बनना संभव है । तुम यह कल्पना करते हो कि उच्चतर चेतनाको तुम्हारे अन्दर केवल अवतरित होना है और वहां आकर रहना है और बस फिर सब कुछ समाप्त हो गया । तुम कल्पना करते हों कि इसमें समयकी और लम्बे, कठोर या ध्यानपूर्वक किये गये कामकी आवश्यक्ला नहीं और यह कि तुम्हारे लिये सबकुछ भगवान्की कृपा एक क्षणमें ही कर देगी । यह बिलकुल गलत है । यह सब इस ढंगसे नहीं होता; और जबतक तुम इस गलतीपर अहे रहते हों तबतक स्थायी दिव्यता नहीं प्राप्त हों सकती, और तुम केवल उस सत्यके आनेमें बाधा ही डालोगे जो आनेकी चेष्टा कर रहा है, और स्वयं अपने मन और शरीर- को एक निरर्थक संघर्ष द्वारा विक्षुब्ध कर दोगे ।

 

            दूसरे तुमने यह सोचनेमें गलती की कि क्योंकि तुम किसी विशेष शक्ति और सामीप्यको अनुभव करते हो इसलिये तुम एकदम दिव्य बन गये हों । दिव्य बनना इतना आसान नहीं चाहे कोई भी शक्ति या उपस्थिति आये मनमें उसकी एक सही व्याख्या और प्रत्युत्तर एवं सच्चा ज्ञान और प्राणिक एवं भौतिक सत्तामें ठीक ठीक तैयारी होनी चाहिये । लेकिन जो तुम अनुभव कर रहे हों वह एक असामान्य प्राणिक शक्ति और उफान है जिसका कारण है तुम्हारी कामनाकी अधीरता, और उसके साथ वहां तुम्हारी कामनासे उत्पन्न सुझाव भी आते हैं जिन्हें तुम सत्य माननेकी स्व कर बैठते हों और उन्हें अन्त: प्रेरणायें तथा अंतर्बोध कहते हो ।

 

       इस अवस्थामें तुम जो भूलें करते हों उनमेंसे कुछकी और मैं निर्देश करूँगा । तुम तुरन्त ही यह सोचना शुरू कर देते हो कि मेरे निर्देशों या पथप्रदर्शनकी अब और अधिक आवश्यकता नहीं, क्योंकि तुम कल्पना करते हो कि तुम अबसे मेरे साथ एक हों गये हो । केवल इतना ही नहीं, किन्तु जिन सुझावोंको तुम स्वीकार करना

 

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चाहते हों वे मेरे निर्देशोंके बिलकुल विरुद्ध है । यदि तुम मेरे साथ एक हों गये हो तो यह कैसे हों सकता है? यह स्पष्ट है कि मेरे निर्देशोंके विरोधमें जानेवाले ये विचार तुम्हारे मन और आवेगोंसे आते है और मेरे अन्दरसे या किसी दैवी चेतनामेंसे या किसी ऐसी वस्तुमेंसे नही आते जिसे श्रीअरविन्दकी चेतनाके नामसे पुकारा जा सकता है ।

 

        इस संबंधमें तुम लिखते हों, ' 'मैं यह कठिनाई देखता हूँ कि जब मे आपसे परि- पूर्ण होता हूँ, तो आपके निर्देशोंका पालन और अनुसरण करनेका विचार तब भी काम कर रहा होता है - जब कि आपने मुझे अपना बना लिया है । मैं आवश्यक सहायता- के लिये प्रार्थना करता हूँ । '' मेरे निर्देशोंका अनुसरण और पालन करनेका बिचार कोई कठिन बात नही है केवल यही वह वस्तु है जो तुम्हें मदद दे सकती है । यह आज्ञापालन ही एक ऐसी वस्तु है जो आवश्यक है ।

 

        तुम्हारे इस कथनका क्या अर्थ है, ' 'कि आपने मुझे अपना बना लिया है? इन शब्दोंका कोई अर्थ प्रतीत नही होता । तुम्हारा यह मतलब नहीं हों सकता कि तुम वही व्यक्ति बन गये हों जो मैं हूँ; यहां दो अरविन्द नहीं हो सकते, यदि यह संभव होता तो भीं यह मूर्खतापूर्ण और निरर्थक होता । तुम्हारा आशय यह नही हो सकता कि तुम परमपुरुष बन गये हों, क्योंकि तुम भगवान् या ईश्वर नहीं हों सकते यदि यह सामान्य ( वेदांतिक) भावमें कहा गया हों तो प्रत्येक वस्तु मैं हूँ क्योंकि प्रत्येक जीव उस एकमेवका अंश है । शायद यह हों सकता है कि तुम कुछ समयके लिये इस एकत्वके सबमें सचेतन हों गये हो; किन्तु वह चेतना अपने आपमें तुम्हें रूपांतरित करने या तुम्हें दिव्य बनानेके लिये पर्याप्त नही है ।

 

         तुम यह कल्पना करने लगे हो कि तुम भोजन और निद्राके बिना चला सकते हो और शरीरकी आवश्यकताओंकी अवहेलना कर सकते हो; एवं मेरे निर्देशोंको भुलाकर तुम गलतीसे इन जरूरतोंको बाधा या विरोधी वस्तुओं और भौतिक शक्तियों- की क्रीड़ा कहते हों । यह विचार असत्य है । तुम जो अनुभव करते हों वह महज एक प्राणिक शक्ति है, सर्वोच्च सत्य नही, और शरीर पहले जैसा ही बना रहता है; यदि शरीरको भोजन, विश्राम और निद्रा न दिये गये तो बह कष्ट पायेगा और हार जायेगा ।

 

      यहीं वह गलत प्राणिक उल्लास है जिसने तुम्हारे शरीरको यह अनुभव कराया कि वह देखे कही वह अतिमानसिक तत्वका तो नहीं बना । यह स्पष्टतया समझ लो कि शरीरको उस ढगसे किसी नितांत अभौतिक वस्तुमें रूपांतरित नही किया जा सकता । पूर्ण बननेके लिये स्थूलसत्ता और शरीरको लम्बी तैयारी और क्रमिक परिवर्तनमेसे गुजरना होगा । ऐसा नहीं किया जा सकता यदि तुम इस गलत प्राणिक हुलासमेंसे निकलकर भौतिक यथार्थताओंके स्पष्ट बोधके साथ, पहले सामान्य भौतिक चेतनामें न उतर आओ ।

 

      अन्तमें यदि तुम यथार्थ परिवर्तन और रूपांतर चाहते हो, तो तुम्हें यह स्पष्टता- के साथ और दृढ संकल्पपूर्वक स्वीकार करना होगा कि तुमने पहले भूलें की और अब भी कर रहे हों और ऐसी अवस्थामें प्रवेश किया कि जो तुम्हारे उद्देश्यके लिये अनुकूल नहीं है । तुमने अपने चिन्तनशील मनको पूर्ण और आलोकित करनेके स्थानपर उससे छुटकारा

 

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पानेका, और उसके स्थानपर ' 'अन्तःप्रेरणा और अन्तर्बोधों' ' को ला बिठानेका प्रयत्न किया है ।

 

     तुमने शरीर, स्थूलसत्ता और .उसकी क्रियाओंके प्रति एक अरुचि और जुगुप्सा- को पैदा किया है; और इसलिये तुम साधारण स्थूल चेतनामें नीचे उतरना और परिवर्तनके लिये आवश्यक क्रियाओंको धैर्यपूर्वक करना नही चाहते । तुम्हारे साथ केवल एक ऐसी प्राणिक चेतना रह गई है जो किसी समय एक महान् शक्ति और आनन्दका अनुभव करती है और दूसरे समय बुरे विषादोंमें पतित हो जाती है क्योंकि इसे न तो ऊपरसे मनका समर्थन प्राप्त होता है और न नीचेसे शरीरका !

 

     यदि तुम यथार्थ रूपांतर चाहते हो, तो तुम्हें इस सबको पूर्णतया बदलना होगा ।

 

    प्राणिक उल्लासके खो जानेका कुछ ख्याल नही करना होगा; और म्पष्ट व्यावहारिक मनके साथ तथा वहांसे भौतिक अवस्थाओं एवं यथार्थताओंको सामान्य स्थूल चेतनामें देखनेकी बातको भी मनमें नही लाना चाहिये । तुम्हें उसे पहले स्वीकार करना होगा, अन्यथा तुम उन्हें कभी भी परिवर्तित न कर सकोगे और न कभी पूर्ण ही बना सकोगे ।

 

     तुम्हें एक अचंचल मन और बुद्धिको पुन: प्राप्त करना होगा । यदि तुम एकबार इन चीजोंको दृढ़तापूर्वक कर सको, तो महत्तर सत्य और चेतना अपने समुचित समयमें, ठीक ढंगसे और सही अवस्थाओंमें लौटकर आ सकती हैं ।

 

*

 

        सफल होनेके लिये तुम्हारे अन्दर संकल्प और कर्म करनेका पूरा बल होना चाहिये ।

 

        अपने शरीरको ही सबल बनाना पर्याप्त नहीं हैं, तुम्हें अपने मनको भी बल- शाली बनाना होगा; तुम्हें पाप संबंधी अपने विचारोंसे, यौनवृत्तिके सुझावोंका इस- प्रकार चिन्तन करनेसे और सब जगह अंधकारमय प्राण-शक्तियोंको देखनेकी इस आदतसे पूरी तरह मुक्त होना होगा । तुमने जिन लोगोंका वर्णन किया है वे बिलकुल सामान्य मानव प्राणी हैं, वे अशुभ आत्मा या शक्तिया नहीं हैं । उनके प्रति तुम्हारी वृत्ति न आसक्ति पूर्ण होनी चाहिये, न ही भय, विभीषिका और जुगुप्साभरी किन्तु बिलकुल निर्लिप्त होनी चाहिये ।

 

          अन्तःप्रेरणा पानेका यत्न न करो, परन्तु स्थिर मन और अटल संकल्पके साथ, हमारे निर्देशानुसार अचंचल रहकर और बुद्धि पूर्वक काम करो । यहां आकर हमारे पैरोंमें पड़नेके मोहसे अपनेको मुक्त करो । यह तथा अन्य सुझाव और वाणिया अन्त.- प्रेरणायें नही हैं परन्तु महज ऐसी वस्तुएं हैं जिसकी सृष्टि तुम्हारे अपने मनने और उसके आवेगोंने की । तुम्हारी सुरक्षा इसीमें है कि तुम निश्चल रहो और जिस वस्त्रको हम तुम्हें शान्तिपूर्वक और आग्रहके साथ कहते हैं उसे पूरे भरोसेके साथ करते रहो, जबतक तुम पूरी तरह अपनी पहलेवाली स्थितिको प्राप्त न कर लो ।

 

*

 

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    'आर्य' ' को पढ़ना और उसका अनुवाद करना तुम्हारे लिये बहुत अच्छा होगा । मैं तुम्हें '' ( ' 'गीता निबन्ध' ') प्रथम भागकी एक प्रति भेजूँगा । इस पुस्तकको पढ़ना शुरू करना और इसका अनुवाद करना तुम्हारे लिये सर्वोत्तम होगा । प्रतिदिन केवल थोड़ासा अनुवाद करनेकी आदत डालो और उसे खूब ध्यानसे करो । जल्दीमें मत लिखो, अपनी लिखी वस्तुको अनेक बार पढ जाओ और देखो कि यह मूल वस्तुके भावको ठीक ठीक प्रस्तुत करती है या नही और भाषामें सुधार किया जा सकता है या नहीं । मानसिक और भौतिक भूमिकाकी सभी वस्तु- ओंके विषयोंमें फिलहाल तुम्हारा यह उद्देश्य होना चाहिये कि तुम बहुत जल्दी जल्दी समाप्त करनेकी बात न सोचों, बल्कि प्रत्येक वस्तुको ध्यानपूर्वक, पूर्णताके साथ और ठीक ढंगसे करो ।

 

      हम चाहते हैं कि जिन स्थूल-प्राणिक आवेगों, अर्थात् भोजन, पैसा, यौन आवेगों आदिके संबंधमें तुम शिकायत करते हो उनके संबंधमें अबसे तुम समुचित वृत्तिको समझ जाओ और इसे बनाये रखो । तुम अबतक उस नैतिक और तामसिक वृत्तिको अपनाये हुए थे जो बिलकुल गलत है और वह तुम्हें प्रकृतिकी इन शक्तियोंपर प्रभुत्व प्राप्त करनेमें सहायता नही दे सकती ।

 

      भोजनकी बात यह है कि यह शरीरकी एक जरूरत है और तुम्हें शरीरको स्वस्थ एवं बलवान बनाये रखनेके लिये इसका उपयोग करना होगा । तुम्हें भोजनकी आसक्तिके स्थानपर भोजनके आनन्दको स्थापित करना होगा । यदि तुम्हारे पास यह आनन्द हो और तुम्हें स्वाद आदिका सच्चा ज्ञान तथा भोजनकी ठीक उपयोगका ज्ञान हों, तो कोई आसक्ति होनेपर भी वह कुछ समयके बाद स्वयं ही समाप्त हो जायेगी ।

 

      जहांतक पैसेका प्रश्न है, वह भी जीवन और कर्मके लिये आवश्यक है । धन जीवनकी एक महान् शक्तिका प्रतिनिधित्व करता है जिसे भगवान्के कार्योंको लिये जीतना होगा । इसलिये तुम्हें इसमे कोई लाग-लपेट और घृणा या भय भी नही होना चाहिये ।

 

          जहांतक यौन-आवेगका संबंध है, इससे भी तुम्हें कोई नैतिक भय या विशुद्धि- वादी अथवा तामसिक विरक्ति नहीं होनी चाहिये । यह भी जीवनकी एक शक्ति ९ और जैसे तुम्हें इस शक्तिके वर्तमान रूपको ( अर्थात् भौतिक क्रियाको) हटाना है वैसे ही स्वयं इस शक्तिपर भी अधिकार पाना और इसे रूपांतरित करना होगा । जिन लोंगोंकी प्राणिक प्रकृति बलवान् होती है उनमें यह यौन वृत्ति प्रायः सबसे अधिक बल- शाली होतीं है और इस बलवान् प्राणिक प्रकृतिको दिव्य जीवनके भौतिक क्षेत्रमें चरितार्थ करनेके लिये एक महान् उपकरण बनाया जा सकता रुँ । यदि यौन आवेग आये तो दुःखी और विचलित न हों किंतु इसे स्थिर होकर देखो, इसे शांत कर लो, इससे संबंध रखनेवाले सब गलत सुझावोंको अस्वीकार करो एवं उच्चतर चेतनाकी प्रतीक्षा करो ताकि वह आकर इसे सच्ची शक्ति और आनन्दमें रूपांतरित कर दे ।

 

       हमने जो बातें कही है वे सब स्थूल चेतनामें स्थित तुम्हारी सत्ताके लिये और स्थूल जीवनके साथ सच्चे संबधके लिये जरूरी हैं ।

 

५५९


 

VI

 

वैश्व चेतना विशेषकर अधिमानससे ही संबद्ध नही है; ये सब भूमिकाओंको अपनेमें समाये हुए हैं ।

 

       इस समय मनुष्य उपरितलीय व्यक्तिगत चेतनामें बन्द है और जगत्को ( या बल्कि इसके उपरितलको) केवल अपने बाह्य मन और इन्द्रियोंद्वारा और जगत् के साथ उनके संबंधोंकी व्याख्या करके ही जानता है । योगके द्वारा उसके अन्दर एक ऐत्ती चेतना खुल सकती है जो जगत्की चेतनाके साथ एक हो जाती है, वह विरा पुरुष, वैश्व स्थितियों, वैश्व शक्ति और बल, वैश्व मन, प्राण और जडतत्वके विषयमें सीधा सचेतन हों जाता है और इन वस्तुओंके साथ सचेतन संबंध रखते हुए निवास कर सकता है । तब यह कहा जाता है कि उसने वैश्व चेतना प्राप्त कर ली है ।

 

*

 

       अधिमानस संपूर्ण वैश्व चेतनाका आधार है, किंतु स्वयं वैश्व चेतनाका अनुभव केवल मनसे आर ही नही परंतु मन, प्राण और शरीरमें, किसी भी भूमिकापर किया जा सकता है ।

 

*

 

        वैश्व चेतनाका दो पक्ष हैं -- पहला है साधारण वैश्व शक्तियों और इन शक्ति- योंके पीछे रहनेवाली सत्ताओंके साथ संपर्क और उनका प्रत्यक्ष बोध, इसे हीं मैं वैश्व- अज्ञान कहता हूँ - दूसरा वैश्व सत्योंका प्रत्यक्ष बोध, एकमेव वैश्व सत्ताका, एकमेव वैश्व शक्तिका ' 'सर्वमें स्थित एक और एकमें स्थित सर्व' ' के सभी वैदांतेक सत्योंका, वैश्व सत्तामें अवस्थित भगवान्के सभी विभिन्न पक्षोंका साक्षात्कार और इसमें अन्य न जाने कितनी ही वस्तुएं आ सकती हैं जो साक्षात्कार और ज्ञानमें अवश्य मदद करती हैं -- बशर्ते उन्हें ठीक ढंगसे लिया जाय । तथापि इस सबके साथ सर्वोत्तम ढंगसे तभी व्यवहार किया जा सकता है जब कि वह वस्तुत. सचमुच सामने आये । यह सदा विशालता आनेके साथ ही आ जाता हों यह बात नहीं है -- बहुतसे लोग इस चेतनाकी विशालतामेंसे होकर वहां पहुँचते हैं जो विश्वके परे है और वैश्व चेतनाको बादमें ही ब्योरेवार हाथमें लेते हैं - और शायद यही सबसे अधिक निरापद क्रम है ।

 

*

 

          जब मनुष्यके अन्दर वैश्व चेतना होती है तो वह विश्वात्माको अपनी ही आत्मा- के रूपमें अनुभव कर सकता है, अपनेको विश्वकी अन्य सत्ताओंके साथ एक अनुभव

 

५६०


 कर सकता है, व्यक्ति प्रकृतिकी सब शक्तियोंको अपने अन्दर क्रिया करते हुए और सब आत्माओंको अपनी आत्मा अनुभव कर सकता है ।

 

           इसका कोई कारण नही है सिवाय इसके कि यह ऐसा है, क्योंकि सब कुछ वही एक हे ।

 

*

 

        सब कुछ परमात्मामें स्थित हे; विश्वात्माके साथ तादात्म्य होनेपर सब कुछ तुम्हारे अन्दर विद्यमान होता है । और पिंड भी ब्रह्माण्डको प्रतिमूर्त्ति करता है -- इस प्रकार 'सर्व' प्रत्येकमें विद्यमान है, यद्यपि सब ऊपरितलीय चेतनामें व्यक्त नही होता (और न हो ही सकता है) ।

 

*

 

         प्रत्येक वस्तु पुरुषमें ही कार्य करती है । प्रकृतिकी सारी लीला पुरुषमें अर्थात् भगवान्में होती है । पुरुष सारे विश्वको अपने अन्दर धारण किये हुए हे ।

 

*

 

         पुरुष सत्तामात्र है न कि कोई एक सत्ता विशेष । पुरुषका आशय है सचेतन सारभूत अस्तित्व अर्थात् सबमें स्थित वह एक ।

 

 *

 

       आत्मामात्र का मुल तत्व है शुद्ध सत्ता जो अपने अन्दर शुद्ध स्वयमू चेतना (या चित्-शक्ति) और शुद्ध आनन्दको धारण किये हुए है ।

 

*

 

       सारतत्व और सत्ता एक हीं वस्तु है । सृष्टिमें उन्हें आत्माके दो पक्षोंके रूपमें देखा जा सकता है ।

 

*

 

       परमात्मा तत्वतः वैश्व है; व्यक्तिभावापत्र आत्मा वैश्व आत्मा हीं है जिसे व्यक्तिगत केन्द्रमें या व्यक्तिगत केन्द्रमें अनुभव किया जाता है । तुमने जिसका साक्षा-

 

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 त्कार किया है यदि उस वस्तुका अनुभव सबमें विद्यमान एकमेवके रूपमें नही हुआ, तो वह आत्मा नही है; वह केन्द्रीय सत्ता है जिसने अपने वैश्व पक्षको आत्माके रूपमें अभीतक प्रकट नही किया ।

 

*

 

        आत्माका या तो वैश्व अर्थात् सबमें स्थित उस एकमेवके रूपमें, या उस विश्व- . भावापत्र व्यक्तित्वके रूपमें अनुभव होता है जो तत्वत: वही है जैसा अन्य लोगोंमें हैं; और प्रत्येक सत्तामेंसे सर्वत्र फैला हुआ है किंतु यहां केंद्रित है । निःसंदेह केन्द्र एक कहने- का तरीका है क्योंकि साधारणत: किसी भौतिक केन्द्रका अनुभव नही होता -- केवल सारी क्रियाएं इस व्यक्ति-केंद्रके चारों ओर होती है ।

 

*

 

         निर्गुणका सामान्य अनुभव यह है कि वह किसी भी रूपके बिना या देश कालमें संबद्ध हुए बिना सर्वत्र विद्यमान है ।

 

*

 

       निर्गुण ब्रह्मका कोई निवास स्थान नहीहोता और न ही हों सकता है, वह सर्व- व्यापी है । यदि कोई कहें कि निर्गुण ब्रह्मका निवास हृदयमें है तो उससे पूछा जा सकता कि निर्गुण ब्रह्मसे उसका क्या आशय है ।

 

*

 

      वैश्व चेतनामें व्यक्तिगत 'मैं' सर्वके आत्मामें विलीन हों जाता है । वह 'मैं' जिसका ही एकमात्र अस्तित्व है वह, ब्यक्तिका 'मैं' अर्थात् व्यक्तिभावापत्र 'मैं' नही होता, किंतु ऐसा विश्वभावापत्र 'मैं' है जिसका सबके साथ और वैश्व आत्माके साथ तादात्म्य होता है ।

 

*

 

        मुक्त होनेके वाद जो शेष रह जाता है वह है केन्द्रीय सत्ता - अहं नही । केंद्रीय सत्ता इस चेतनामें निवास करती है कि भगवान् सर्वत्र है और अन्य सत्ताओंमें भी है; इसलिये इसे पृथक् अहंका बोध नहीं रहता बल्कि यह बोध होता है कि बह भागवत- बहुत्चके अनेक केन्द्रोंमें एक केन्द्र है ।

 

*

 

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           जो कुछ तुम अनुभव करते हो वह एक ऐसी सामान्य अवस्था है जो मुक्ति प्राप्त होनेपर होती है । इन्द्रियोंका कार्य इत्यादि पहले जैसा ही चलता है, किंतु चेतना होती है इस कारण व्यक्ति केवल मुक्ति, और पार्थक्य, आदिका भाव ही नही अनुभव करता किंतु यह भी करता है कि वह सामान्य मन, प्राण या इंद्रियोंका लोकोंसे बिलकुल भिन्न किसी अन्य जगत्में निवास कर रहा है । तब एक दूसरी ही चेतना प्रारंभ होती है जिसका ज्ञान और वस्तुओंको देखनेका तरीका और ही होता है । आगे जाकर जब यह चेतना उपकरणोंको अपने अधिकारमें लेती है, तो इन्द्रिय और प्राणके साथ उसका सामंजस्य स्थापित हों जाता है; ये भी बदल जाते हैं, इनका दृष्टिबिड बदल जाता है और ये संसारको पहलेकी तरह नहीं किंतु मानो किसी अन्य ही उपादानसे और किसी अन्य आशयसे बना हुआ देखते हैं ।

 

*

 

         शांति, निश्चल-नीरवता, र्पावेत्रता, और आत्माकी स्वतंत्रतामें निवास करनेके लिये प्रथम आवश्यक है मुक्त । इसके साथ ही या बादमें जब मनुष्य वैश्व चेतनाके प्रति जाग्रत होता है तो मुक्त होते हुए वह सब वस्तुओंके साथ एक होकर भी रह सकता है ।

 

        मुक्तिके बिना वैश्व चेतनाको प्राप्त करना संभव है, किंतु तब मनुष्यकी सत्ता कही भी निम्र प्रकृतिसे मुक्त नही होती और वह अपनी विस्तृत चेतनामें स्वतंत्र या स्वामी बनानेमें समर्थ हुए बिना सब प्रकारकी शक्तियोंका क्रीडाक्षेत्र बन सकता है ।

 

        दूसरी ओर यदि आत्म-साक्षात्कार हों गया हो तो सत्ताका एक भाग ऐसा होता है जो वैश्व शक्तियोंकी क्रीडाके बीचमें रहकर भी अछूता रहता है - जब कि समग्र आंतरिक चेतनामें आत्माकी शांति और पवित्रताके स्थापित होनेपर निफ्ट प्रकृतिके बाह्य स्पर्श व्यक्तिके अन्दर नही आ सकते या उसे पराभूत नही कर सकते । वैश्व चेतनासे पहले उसे सहारा देने वाले आत्म साक्षात्कारके हो जानेका यही लाभ है ।

 

*

 

       जब व्यक्तिमे आत्म साक्षात्कार या वैश्व चेतनाका विकास हो जाता है या यदि वह शून्यता आ जाती है जो इन वस्तुओंकी प्रारंभिक अवस्था है तो ब्यक्तिमें सबके साथ एकत्वकी वृत्ति स्वतः ही आ जाती है अर्थात् उनकी मानसिक, प्राणिक और: शारीरिक भावनाएं उसे सहज ही स्पर्श कर सकती हैं । मनुष्यको अपनेको उनसे मुक्त रखना होगा ।

 

*

 

        तुम्हारा वैश्व चेतनाके प्रति मानसिक उद्घाटन हो गया था और प्राणिक उद्-

 

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घाटन शुरू हुआ था -- यदि तुम उसे आध्यार्त्माकृत स्तरपर अर्थात् स्वामित्व या स्थूल बाह्य उपभोगकी कामनाके बिना, भागवत आनन्दके दर्शन और अनुभवके आधार- पर बनाये रखते तो यह एक यौगिक चेतनाको प्रतिष्ठित कर देता और ज्ञान. शांति, शक्ति, चैत्यप्रेम और समर्पण को नीचे आनेके लिये आधार बना देता ।

 

*

 

        यह बहुत अच्छा हैं । विश्वव्यापी अनन्तके साथ एक होनेके लिये चेतनाको विस्तृत करना, साधनामें एक महत्वपूर्ण स्थिति है ।

 

*

 

         हां, तुम्हारा अनुभव बहुत सुन्दर था और इसके संबंधमें तुम्हारा भाव भी ठीक था । जब चेतना संकीर्ण और व्यक्तिगत या देहबद्ध हो जाती है, तो भगवान्से कुछ पाना कठिन होता है -- वह जितना अधिक विस्तृत होती है उतना ही अधिक प्राप्त कर सकती है । एक ऐसा समय आता है जब वह अपनेको संसार जितना विस्तृत और संपूर्ण भगवान्को अपने अन्दर ग्रहण करनेमें समर्थ अनुभव करती है ।

 

*

 

       यह चेतनाके विस्तारका एक अनुभव है । यौगिक अनुभवमें चेतना प्रत्येक दिशामें चारों ओर, नीचे, ऊपर असीमतक फैलती हुई हरेक दिशामें विस्तृत होतीं है । जब योगीकी चेतना मुक्त हो जाती है, तो वह शरीरमें नहीं, किंतु सदैव इस असीम ऊँचाई, गहराई और विस्तारमें ही निवास करता है । उसका आधार एक अनन्त शून्यता या निश्चल-नीरवता होती हैं, किंतु उसमें शांति, मुक्ति, शक्ति, प्रकाश, ज्ञान, आनन्द सब प्रकट हों सकते हैं । यह चेतना सामान्यतया पुरुष या आत्माकी चेतना कहलाती है, क्योंकि यह एक विशुद्ध सत्ता या पुरुष है जो सब वस्तुओंका उद्गम स्थान है और सब वस्तुओंको धारण करता है ।

 

*

 

         हा -- इस (विशालता) का इस प्रकार अनुभव होता है मानों वह ऊपरसे लेकर नीचेतक शक्तिसे परिपूर्ण और मुक्त एव निःसीम एकलताकी भावना प्रदान करने वाली महान् ठोस विशालता हो ।

 

*

 

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        प्रारंभमें दूसरे अनुभवोंके समान ही विस्तारका अनुभव भी कभी कभी ही आता है । बादमें जाकर ही यह बारंबार आता है और चिरकालतक बना रहता हे, अन्तमें जाकर यह स्थिर हों जाता है और चेतना सदा ही विस्तृत रहती है ।

 

*

 

       तुम्हें एकाग्रताके भयको त्याग देना होगा । वह शून्यता जो तुम्हें अपने ऊपर आती हुई अनुभव होती है बह उस महान् शांतिकी निश्चल-नीरवता है जिसके अंदर तुम अपने पुरुषके संबंधमें सचेतन होते हों, इस रूपमें नही कि वह देहमें बद्ध शूद्र अहं है, कितु इस रूपमें कि वह विश्व जितना विशाल आध्यात्मिक पुरुष है । चेतना विलीन नहीं हुई; चेतनाकी सीमाएं ही विलीन हो गई हैं । उस नीरवतामें कुछ समयके लिये विचार बन्द हों सकते हैं, हों सकता है कि वहां एक महान् निःसीम स्वतंत्रता और विशाल- ताके सिवाय और कुछ न हों, किन्तु उस नीरवतामें, उस शून्य विस्तारमें ऊपरसे अपार शांति, प्रकाश, आनन्द, ज्ञान अर्थात् वह उच्चतर चेतना उतरती है जिसमें तुम भगवान्- के साथ एकत्वका अनुभव करते हों । यह रूपांतरका प्रारंभ है और इसमे डरनेकी कोई बात नही ।

 

 

          इसका अर्थ है देह-भावसे मुक्ति जिसमें मनुष्य सचमुच कह सकता है, ' 'मैं शरीर नहीं हूँ' ' । वैश्व संकल्पके प्रत्यक्षानुभवके समान ही यह मुक्ति भी वैश्व-चेतनाका अंग है ।

 

          यह केवल देह-भावसे मुक्ति है ! यह देहके नियंत्रणसे बिलकुल भिन्न वस्तु है ।

 

*

 

         तुमने एक सूक्ष्म हवाके रूपमें जिस वस्तुका अनुभव किया था वह देहसे स्वतंत्र स्वयं चेतनाकी या सचेतन सत्ताकी ठोस अभिव्यक्ति थीं । फिर भी यह अनुभव अभी शरीर द्वारा सीमित है, किन्तु जम उस सीमासे मुक्त रूपमे इसका अनुभव होता हे तब यह संपूर्ण अवकाशको परिपूर्ण करनेवाले व्यापक व्योमका, आकाश-ब्रह्मका बोध होता है । इसके विकसित होनेके साथ, देह-भाव लुप्त हो जाता है और जब मन भी बिलकुल निष्क्रिय हों जाता है तो व्यक्ति अपनेकी ऐसे मनके रूपमें अनुभव करता है जो समस्त अनन्तकी और फैल रहा है ।

 

*

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यदि ये कल्पनाएं ही होती तो तुम प्रत्येक बार उनका बिचार करते ही इन्हें ठीक-ठीक रूपमें पुन: प्रस्तुत कर सकते । यह बिचार कि ये कल्पना हैं, उस स्थूल मनसे आता है जो किन्हीं भी अतिभौतिक वस्तुओंमें विश्वास करनेमें असमर्थ है ।

 

      शून्यके भीतर (वस्तुत: शून्यमें नहीं, पर वैश्व और निःसीम चितके अनन्त आकाशके भीतर) हदयका यह उद्घाटन विश्वमय भगवान्की विरा सत्तामें भाव- प्रधान सत्ताके उद्घाटनका चिह्न है । ध्यानमें साधक आकाशके मूर्त्ति रूपका प्राय. दर्शन करते हैं । मनमें या किसी अन्य भागमें चेतनाके मुक्त होनेपर सदैव इसी विशाल असीम शून्यताका बोध होता है । सिरमें करसे लेकर गलेतक सत्ताकी मानसिक भूमिका स्थित है -- यहां इसी प्रकारका उद्घाटन एवं शून्यता या विशालता मानसिक सत्ताके वैश्वसत्तामें मुक्त होनेका संकेत है । कंठसे लेकर उदरतक उच्चतर प्राणिक या भावमय क्षेत्र है । नीचे निम्रतर प्राणिक भूमिका है ।

 

        मैं समझता हूँ, यह देहके साथ तादात्म्यके अभावकी अपेक्षा कहीं अधिक देहका विस्मरण है । तीव्र मनोमय रूप देनेमें या तीव्र प्राणिक क्रियामें शरीरका स्थान गौण हो जाता है एवं बह अधिक बाह्य हों जाता है और ऐसा ही कुछ हदतक अधिक सतत रूपमें उस मनुष्यमें भी हो सकता है जो अपने मनमें या अपने प्राणमें रहता है और उसके साथ अधिक प्रगाढ़ रूपसे तल्लीन हो जाता है । किंतु फिर भी यह शरीरमें देहगत मन और देहगत प्राण होता है । आध्यात्मिक मुक्तिके समान इसमें कोई छुटकारा, कोई पूर्ण पार्थक्य नहीं होता ।

 

*

 

        हां, मानव मनके लिये स्वयं पूरी तरह अपने अन्दर इस हदतक निवास करना असंभव है कि वह शरीरकी बिलकुल उपेक्षा कर दे -- आध्यात्मिक मुक्तिके बिना एक यथार्थ या पूर्ण मुक्ति अथवा तादात्म्यका अभाव संभव नहीं है । मनके लिये जो संभव है वह सब यह है कि वह अपने अन्दर पूरी तरह मग्न रहे और यथाशक्ति शरीरकी उपेक्षा करे या उसे अ जाय । यह बात प्रायः उन लोगोंमें ( विद्वानों, मनीषियों आदिमें) पायी जाती है जो अपनी आजीविका, परिवार इत्यादिके विषयमें स्वयं व्यग्र होनेकी आवश्यकता के विना निवृत्त मानसिक जीवन बिताते हैं ।

 

*

 

 क्षितिज पर उदय होता हुआ सूर्य सत्तामें उदय होते हुए भागवत सत्यका सीधा प्रकाश है - ऊपर जाती हुई किरण सत्ताको सत्यके प्रति उद्घाटित करती है क्योंकि

 

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वह मनसे ऊपर है, सामनेवाली किरण सत्ताको उस चेतनाके प्रति खोलती है जिसे हम विश्वचेतना कहते हैं, वह व्यक्तिगत सीमाबन्धनसे मुक्त हों जाती है और खुल जाती है तथा वैश्व मन, वैश्व शरीर और वैश्व प्राणके संबंधमें सचेतन हो जाती है । हृदय पर होनेवाली यह क्रिया इस सूर्यका हदयपर डाला गया दबाव था जिससे इस प्रकारका सीधा उद्घाटन हो सके, फलत: चैतना स्वतंत्र, विस्तृत और पूरी तरह शांत हो जाय ।

 

         यह बड़ी भारी बात है कि तुम अपने आपको विरोधी दबावके सामने अविचल और असुब्ध एवं शांतिकी चेतनाको पीछेकी ओर स्थिर कर सेज हो । यह इस बातका चिह्न है कि यह चेतना अधिक ठोस और प्रभावशाली हों रही है ।

 

*

 

          वैयक्तिक चेतनासे परे जानेपर या वैयक्तिक चेतनासे परे जाने और विश्व-चेतना- की ओर प्रसारित होनेका प्रारंभ होनेपर विशालता आती है । किंतु वैयक्तिक चेतना- के अन्दर भी चैत्य पुरुष सक्यि हो सकता है ।

 

*

 

         चैत्य पुरुष व्यक्तिगत विकास-कर्मका आधार है; यह सीधे संपर्कके द्वारा तथा मन, प्राण और शरीरके माध्यमसे, दोनों प्रकारसे, वैश्व चेतनाके साथ संयुक्त रहता है ।

 

*

 

         प्रेम, हर्ष और अ आते हैं चैत्य पुरुषसे । आत्मा देता है शांति या विश्वव्यापी आनन्द ।

 

*

 

       पुरुष या आत्मा निष्क्रिय है, प्रकृति या शक्ति कार्य करती है । पुरुषका अनुभव होते समय पहले एक असीम सत्ता, निश्चल-नीरवता, मुक्ति और शांतिका अनुभव होता है क्हीआत्मा या पुरुष कहलाता है । इसमें जो क्यिा होती है वह उस साक्षात्कार- के अनुसार होती है जिसका अनुभव या तो इस रूपमें होता है कि उस विशालतामें प्रकृतिकी शक्तियां कार्य कर रही हैं या भागवतशक्ति कार्य कर रही है अथवा विरा भगवान् या उनकी नानाविध शक्तियां कार्य कर रहीं हैं । ऐसा अनुभव नही होता कि परमपुरुष कार्य कर रहा है ।

 

*

 

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      जहांतक द्रष्टा और पंखवाले व्यालकी कुंडलियोंका संबंध है यह विश्वके गतिचक्रमे अपनेको विस्तृत करती हुई जगत् शक्तिका एक चीनी-जापानी रूपक हैं और यह इस समग्र व्यापारके द्रष्टा और भागवत लीलाके विलासके प्राकटपमें उसके उन्मीलन- का अवलोकन करनेवाले साक्षीके भावको व्यक्त करता है । जव हम वैश्व व्यापारोंकी पहेलीके सामने आते हैं तो यह साक्षिभाव ही हमें महत्तम स्थिरता, शांति और ' 'समता' ' प्रदान करता है । इसका आशय यह नही है कि इस क्यिा और व्यापारको स्वीकार नहीं किया जाता किंतु उन्हें ऐसी भागवत क्रियाके रूपमें स्वीकार किया जाता है जो उन लक्ष्योंकी ओर ले जाती है जिन्हें मन सदा तुरन्त नहीं देख सकता; किन्तु आत्मा समस्त परम प्रयोजन और गुप्त पथप्रदर्शन के बीच भी भांप लेती है ।

 

         निश्चय ही आगे जाकर एक ऐसा अनुभव होता है जिसमें अखण्ड भगवान्के, साक्षी और लीला करनेवाले दो पक्ष परस्पर गुंथकर एक हो जाते हैं; किंतु द्रष्टाकी यह अवस्था पहले आती है और यह उस पूर्णतर अनुभवकी ओर लें जाती है । यह अवस्था उस संतुलन, स्थिरता, अन्तरात्मा और जीवनके विषयमें बढ्ती हुई समझ और उनके अधिक गहरे आशयोंको प्रदान करती है जिनके बिना अतिमानसका पूर्ण अनुभव नहीं प्राप्त हो सकता ।

 

*

 

        वैश्व शक्तियां अपने अन्दर स्थित अपने बल और चैतन्य द्वारा गति करती हैं, -किन्तु एक वैश्व आत्मा भी है जो उन्हें अवलम्बन देता है और अपने अधीक्षण तथा सुव्यवस्थित करनेवाले संकल्प द्वारा उनकी क्रीडाको निर्धारित करता है - यद्यपि सीधी क्रिया तो शक्तियोंपर ही छोडू दी जाती है - यह वैश्व प्रकृतिकी उसके पीछे रहकर उसका निरीक्षण करनेवाले वैश्वपुरुषके साथ क्रीड़ा है । ब्यक्तिमें भी एक व्यक्तिगत पुरुष होता है जो इच्छा करनेपर केवल प्रकृतिकी लीलाके लिये सहमति हीं नही दे सकता बल्कि इसके परिवर्तनके लिये स्वीकृति दे सकता है या निषेध या संकल्प भी कर सकता है । यह सब स्वयं लीलामें हीं होता है जैसा कि हम यहां देखते हैं । इससे ऊपर भी कोई वस्तु है परन्तु उसकी क्यिा प्रतिक्षण नियंत्रण करनेकी अपेक्षा कही अधिक एक हस्तक्षेपके रूपमें दृष्टिगोचर होती है; यह हस्तक्षेप एक सतत सीधा नियंत्रण तभी बन सकता है जब कि व्यक्ति शक्तियोंकी क्रीडाके स्थानपर भगवान्के शासनको स्थापित करता है ।

 

*

 

         सच्ची यौगिक चेतनामें ही मनुष्य एकताका अनुभव करता है और बाह्य सत्तासे और उसकी निम्रतर क्यिाओंसे अछूता रहकर, पर उनके अज्ञान और क्षुद्रतापर मुस्करा- ता हुआ उसके अन्दर निवास करता है । यदि इस पृथक् भावको सदैव कायम रखा जाय

 

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तो इन बाह्य वस्तुओंसे व्यवहार करना बहुत अधिक साध्य हो जायेगा । .

 

*

 

         यह प्रकृतिके पुरुष और प्रकृति पक्ष हैं - एक विशुद्ध सचेतन सत्ता अर्थात् निष्क्यि अवस्थाकी ओर ले जाता है, यह निष्क्यि पक्ष है और दूसरा शुद्ध सचेतन शक्तिकी ओर सक्रिय है । जिस पुरातन अन्धकारमेसे वे बाहर निकले हैं वह अज्ञानका अन्धकार है, भावी अन्धकार जिसका अनुभव ऊपरकी ओर हुआ है वह अतिचेतना है । किंतु, निःसंदेह, अतिचेतना वस्तुत: ज्योतिर्मय है - हां केवल इसका प्रकाश दीखता नही । चेतनाके तीन रूप तीन गुणों द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रकृतिके तीन पक्ष हैं - अवचेतन तमषकी शक्ति अर्थात् जड़ता जो जडतत्वका धर्म हू, अर्धचेतन कामना- की शक्ति, गतिशीलता अर्थात् रजस् जो प्राणका धर्म है और सात्विक प्रकाशकी शक्ति जो बुद्धिका धर्म है ।

 

 *

 

          पुरुष एक है - इसकी क्यिा चेतनाकी तत्कालीन स्थिति और आवश्यकताके अनुसार होतीं है ।

 

         यह साधारण मनसे ऊपर या बहुमुखी वैश्व चेतनामें होनेवाली क्रियाका स्वरूप होता है ।

 

        प्रकृति केवल कार्यवाहिका या काम करनेवाली शक्ति है -- प्रकृतिके पीछे रहने वाले बलका नाम ही है शक्ति । यह व्यक्त हुई चित्-शक्ति अर्थात् आध्यात्मिक चेतना

 

*

 

        मानसिक ज्ञान और संकल्पके विषयमें यह सत्य है, किंतु उच्चतर ज्ञान-संकल्पके विषयमें नहीं । अतिमानसमें ज्ञान और संकल्प एक होते हैं ।

 

          सब ऊर्जाएं चित्-शक्तिसे उत्पन्न होती हैं, किन्तु नीचे उतरनेपर उससे भिन्न रूप धारण कर लेती हैं ।

 

        इतना तो सत्य है कि लाक्षणिक रूपसे प्राणका विशेष लक्षण है शक्ति - स्थूल सत्ताका विशेष लक्षण है द्रव्य, लेकिन दोनोंकी क्रियाशीलता चित्मेंसे आती है -

 

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मनकी क्रियाशीलता भी क्रियाशीलता मात्र है ।

 

*

 

       एक सर्व सामान्य शक्ति है जो सबमें कार्य करती है और उस शक्तिका या उसकी किसी एक क्रियाका स्पन्दन अन्यमें उसी स्पन्दनको जगा सकता है ( किन्तु हमेशा नहीं) । एक है अविच्छिन्न क्यिा ( प्रकृति) और एक है अविच्छिन्न निश्चल नीरवता (पुरुष) ।

 

      उपनिषद्का यह कथन है कि एक ऐसा आनन्दका आकाश है जिसमें सब लोग श्वास लेते और जीते हैं; यदि वह न होता तो कोई व्यक्ति श्वास-प्रश्वासन ले सकता, न जी ही सकता । '

 

*

 

    ' 'उत्पन्न' ' शक्ति तुम्हारी नहीं है -- यह प्रकृतिकी है - तुम्हारा संकल्प इसे गति प्रदान करता है, यह वस्तुत: उसे उत्पन्न नही करता; किन्तु एक बार अगतिमय होनेपर यह अपनेको उस हदतक चरितार्थ करनेके लिये प्रवृत्त होती है जहांतक कि अन्य शक्तियोंकी क्रीड़ा उसे अनुमति देती है । इसलिये, स्वभावत: यदि तुम इसे रोकना चाहो तो, तुम्हें-एक विरोधी शक्तिको सक्यि करना होगा जो इतनी अधिक बलशाली हो कि उसके प्रवेगपर हावी हों सके ।

 

*

 

         यह अन्तर्दर्शन एक स्थितिसे दूसरी स्थितिमें विकसित होती हुई वस्तुओंकी वैश्व क्यिाका और उसमें उन व्यक्तिगत क्यिाओंका प्रत्यक्ष बोध है जो उन क्रियाओंका गठित करती है । एक ऐसी अनुभूति भी संभव है जिसमें सर्व प्रवहमान कालके रूपमें अनुभूत होता है या फिर बह एक ऐसे आयामके रूपमें अनुभूत होता है जो देशके साथ कपड़ेके ताने-बानेकी तरह गुँथा हुआ है आदि ।

 

*

 

         जगत् एक रूपमात्र है, यथार्थ वस्तु है भगवान् । मनुष्यको रूपमें भगवान्की उपस्थितिका दर्शन करना होगा ।

 

    *का हयेवान्यात् क: प्राणयात् ।

         यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् । तै. २-७.

 

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          भगवान् सर्वोच्च सत्य हैं क्योंकि इस परम पुरुषसे ही सब उत्पन्न हुए हैं और उसीमें सब विद्यमान हैं ।

 

*

 

             भगवान् वह है जिससे सब उत्पन्न होते हैं, जिसमें सब निवास करते हैं, और भगवान्के उस सत्य (स्वरूप) मे लौटना ही अन्तरात्माका जीवन-लक्ष्य है जो इस समय अज्ञानसे आच्छादित है । अपने सर्वोच्च सत्यमें भगवान् निरपेक्ष और असीम शांति, चेतना, सत्ता शक्ति और आनन्द हैं ।

 

*

 

            परमात्मा परात्पर द्वारा सृष्टि नही कर सकता क्योंकि परात्पर ही परमात्मा है । भगवान् वैश्व-शक्ति द्वारा सृष्टि करता है ।

 

*

 

          वैश्व-शक्ति अधिमानसके नियंत्रणमें हैं । अधिमानस इसके ऊपर सीधा क्रिया नही करता --जो कुछ भी वहांसे नीचे आता हे वह थोड़ा बहुत इस प्रकार परिवर्तित हो जाता है कि वह अधिमानसमेंसे गुजर सके और मानसिक, प्राणिक या भौतिक जिस किसी भी भूमिकापर वह कार्य करता है उसका एक अल्पतर आकार धारण कर सके । किन्तु वैश्व शक्तियोंकी सामान्य लीलामें ऐसा हस्तक्षेप अपवाद रूप ही होता है ।

 

*

 

          वैश्व आत्मा अतिमानसको धारण किये हुए हे, किंतु वह उसे ऊपर अलग रखे हुए है और इस समय अधिमानस और भौतिक सत्ताके बीचमें हीं कार्य कर रहा है । एकमात्र अज्ञानको हटानेपर हीं अतिमानस यहांपर वैश्व प्रकृतिकी क्रियाओंका सीधा एक सक्यि भाग बन जाता । तबतक केवल उसके प्रतिबिंब ही दिखाई देते हैं ।

 

*

 

         यह (वैश्व आत्मा) सत्य और मिथ्या, ज्ञान और अज्ञान और अन्य सब द्वन्द्वोंको अभिव्यक्तिके तत्वोंके रूपमें उपयोगमें लाता है और चरितार्थ करने योग्य वस्तुओंको तबतक कार्यान्वित करता रहता है जबतक सब कुछ उच्चतर क्रियाके लिये तैयार न हो जाय ।

 

*

 

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          यहां वैश्व शक्तियां चाहे वे भली हों या बुरी, अज्ञानकी शक्तियां है । उनसे ऊपर सत्य-चेतना है बह तभी व्यक्त हो सकतीं है जव अहंकार और कामना जीत लिये जाते हैं - भागवत सत्य-चेतनासे एक शक्तिको उतरना होगा - उच्चतर शांति, प्रकाश, ज्ञान, विशुद्धि, आनन्दको व्यक्तिके अन्दर स्थित वैश्व शक्तियोंपर कार्य करना होगा जिससे बह उन्हें बदलकर साधारण क्रियाके स्थानपर सत्य-शक्तिको स्थापित कर दे ।

 

*

 

         ब्रह्मांड या जगत् सदा ही संवादमय होता है, अन्यथा इसका अस्तित्व न रह सकता, यह टुकड़े टुकड़े हो जाता किन्तु क्योंकि एक ऐसी भी संगीतमय संवादिताएं हैं जो अंशत: या प्रधान रूपसे भी विसंगतियोंसे बनती हैं, इसलिये यह विश्व (स्थूल) अपने पृथक् तत्वोंमें विसंवादी हैं -- पृथक् तत्व बहुत हदतक परस्पर विसंगत होते हैं; केवल समग्र विश्व अपने पीछे स्थित सबको धारण करनेवाले भागवत संकल्पके कारण ही उन लोगोंके लिये अब भी एक संवादयुक्त वस्तु है जो इसे वैश्व दृष्टिसे देखते हैं । किन्तु यह एक ऐसी संवादिता है जो उत्तरोत्तर विकसित हो रही है - अर्थात् सब कुछ उस लक्ष्यको पानेके लिये मिलकर प्रयास कर रहे हैं जो अभी प्राप्त नहीं हुआ, और हमारे योगका लक्ष्य है इस लक्ष्यतक जल्दी पहुँचना । इसके प्राप्त होनेपर वहां वर्तमान विसंवादिताओंपर निर्मित हुई संवादिताके स्थानपर संवादिताओंकी सवादिता आ जायेगी । वस्तुओंके वर्तमान बाह्य रूपकी यही व्याख्या है ।

 

*

 

         यहां कोई भी वस्तु पूर्ण नहीं है किन्तु यहांकी सब वस्तुए वैश्व संकल्पको युग- युगांतरोंमें चरितार्थ कर रही है ।

 

*

 

         निम्रतर चेतनाकी संवादिता वैषम्योंकी एक ऐसी संवादिता है जो शक्तियोंके संघर्ष और उनके मिश्रणके द्वारा लाई जाती है ।

 

*

 

          यह आंतरिक अनुभव उस वैश्व संवादिताका ध्वन्यात्मक रूप है जिसमेंसे पतन और विसंवादके होनेपर अज्ञानकी सृष्टि होती है ।

 

*

 

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          प्रत्येक वस्तुमें एक लय-ताल है जिसे स्थूल कान नहीं सुनते और उस लय-ताल द्वारा हीं सब पदार्थोंका अस्तित्व होता हैं ।

 

*

 

          ये दोनों ( ॐ और गिरजेके घण्टोंका शब्द) साधारणतया ऐसे शब्द हैं जो वैश्व चेतनाके प्रति उद्घाटनको या उद्घाटनके प्रयासको सूचित करते हैं ।

 

*

 

         जब तुम पदार्थोंमें वैश्व या भागवत सौन्दर्य अथवा उपस्थितिका अनुभव करो तब यह समझो कि इन्द्रियों भगबनके प्रति खुली है ।

 

*

 

       मनुष्य वैश्व शक्तियोंके बीचमें भी भगवान्के साथ संपर्क रखते हुए जी सकता है - किंतु भगवान्में निवास करनेके लिये व्यक्तिको निम्रतर विश्व प्रकृतिसे परे, ऊपर उठनेमें या भागवत चेतनाको यहां नीचे पुकार लानेमें समर्थ बनना होगा । अधि- कतर लोगोंके लिये प्रारंभिक सोपान कठिन होते हैं - और असलमें प्रारंभ कभी भी सरल नहीं होता ।

 

*

 

        सर्वदा भगवान्में मग्न रहना इतना सरल नही १ । यह केवल तभी किया जा सकता है जब व्यक्ति अपने आंतर आत्मामें डूबा रहे या ऐसी चेतना प्राप्त करे जो सबको भगवान्में और भगवान्को सबमें देखें और सदैव इसी स्थितिमें रहे । ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसने अभी तक यह स्थिति प्राप्त की हो ।

 

*

 

         वैश्व आत्मा या पुरुष विश्वकी प्रत्येक वस्तुको अपनेमें धारण किये हुए हैं - वह वैश्व मन, वैश्व प्राण, वैश्व शरीर इसी प्रकार अधिमानसको थामे रखता है । पुरुष उन सब वस्तुओंसे अधिक है जो प्रकृतिमें उसकी रूप-रचनाएं हैं ।

 

*

 

५७३


     (वैश्वमनके प्रति उद्घाटनके परिणाम:) व्यक्ति वैश्व मनको और वहां क्यिा करनेवाली मानसिक शक्तियोंको एवं उसके अपने और अन्योंके मनपर उनकी किस प्रकार क्यिा होती है इसे भी जान जाता है तथा व्यक्ति अपने मनके साथ महत्तर ज्ञान और प्रभावशाली शक्तिके साय व्यवहार कर सकता है और भी बहुतसे परिणाम हैं परन्तु यह एक आधारभूत परिणाम है । ऐसा निःसंदेह तब होता है जब व्यक्ति ठीक ढंगसे उद्घाटित होता है तथा सब प्रकारके विचारों एवं मानसिक शक्तियोंका एक निष्क्रिय क्षेत्र मात्र नही बन जाता ।

 

*

 

           वैश्व मनके प्रति उद्घाटन, उदाहरणके लिये, सर्वत्र भगवान्की अनुभूतिको आसान बना देता हे - किन्तु यह तत्वतः आध्यात्मिक नहीं है; यदि विशालतर आध्यात्मिक अनुभव न हों, तो इसका आध्यात्मिक होना बिलकुल भी जरूरी नहीं ।

 

*

 

         जो वस्तु हों रही है वह यह कि तुम उस वैश्व मनके संपर्कमें आ गये हों जहां सब प्रकारके विचार, संभावनाओं, रचनाएं इधर उधर घूम रही हैं । ब्यक्तिका मन उन वस्तुओंको ग्रहण कर लेता है जो उसे प्रभावित करती हैं या शायद उसे स्पर्श करनेपर स्पष्ट स्वरूप धारण कर लेती हैं । किंतु ये संभावनाएं हैं, सत्य नही, इसलिये इन्हें इस प्रकार खुला दौड़नेके छूट देना ठीक नही ।

 

*

 

          जडतत्वके समान मनके भी अपने प्रदेश हैं और प्राणके अपने । मनके प्रदेशमें प्राण और जडुतत्व पूरी तरह मनके आधीन रहते हैं और उसकी आज्ञाओंका पालन करते हैं । यहां पृथ्वी पर जो विवर्तन होता है उसका आरंभबिनदु है जडतत्व, मध्यबिन्तु है प्राण और इससे उद्भूत होता है मन । विश्वमें बहुतसी श्रेणियां, प्रदेश एवं संयोग है - यहां तक कि बहुतसे विश्व भी है । हमारा विश्व उन बहुतोंमें केवल एक है।

 

*

 

 (वैश्व जीवनके प्रति उद्घाटनका प्रभाव:) मनुष्य सब जीवन शक्तियोंको जान जाता है और यह भी जान लेता है कि बे उसके अपने और अन्योंके मन और शरीरपर किस प्रकार कार्य करती हैं - और घटनाओंके पीछे काम करनेवाली शाक्ते-

 

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के व्यापारोंको भी । व्यक्ति प्राणिक भूमिका, उसके लोकों, उसकी सत्ताओंसे और पार्थिव जीवनपर उनकी रचनाओंकी सीधी क्यिासे भी सीधा सचेतन हो जात्रा है । इसके साथ ही व्यक्तिको अपनी सच्ची प्राण सत्ताके विषयमें भी जानना होगा और वहीसे इन सब वस्तुओंके संबंधमें कार्य करना होगा न कि उपरितलीय या कामनामय प्राणसे । यह सारा परिणाम एकदम नहीं उत्पन्न हों जाता,--यह वैश्व जीवनके साथ संपर्क बढ़नेके अनुपातमें ही विकसित होता है ।

 

*

 

        विशेषत: वैश्व प्राणमें शक्तिका ऐसा कपटपूर्ण आकर्षण (यह सच्ची शांत शक्ति नही किंतु निरी शक्ति) एव उल्लासकारी प्रबल प्रवाह होता है । उसकी आधीनता स्वीकार करने वाले लोग उसके साथ ऐसे चिपटा जाते हैं जैसे एक शराबी मादक वस्तु- ओंके साथ । यह उन्हें भावना प्रदान करती हैं कि हम बलवान् एवं महान् हैं और हैं दिलचस्प बातोंसे भरपूर - जब यह उनसे ले ली जाती हैं, तो वे अपनेको ' 'सामान्य- जैसे' ' अनुभव करते हैं और इसकी फिर मांग करते हैं ।

 

*

 

       वैश्व शक्तियोंका आशय है विश्वमें क्रियारत सब भली या बुरी, अनुकूल या प्रतिकूल, प्रकाश और अधिकारकी शक्तियां ।

 

*

 

       पृथ्वी विकासका एक ऐसा स्थान है जिसमें ये सब शक्तियां इकट्ठे होती हैं और व्यक्त होनेका प्रयत्न करती हैं एवं उनकी क्यिामेंसे किसी वस्तुको विकसित होना होता हैं । दूसरी भूमिकाओं ( मानसिक, प्राणिक आदि) पर विकास नही होता - वहां प्रत्येक अपने नियमके अनुसार अलग अलग कार्य करती हैं ।

 

*

 

 वैश्व शब्दका प्रयोग विश्वकी प्रत्येक वस्तुके लिये किया जाता है - व्यक्तिगत सत्ताएं सर्वत्र होती हैं, किन्तु पार्थिव अर्थमें वे स्थूल नही होतीं क्योंकि उनका गठन भिन्न होता है ।

 

*

 

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        नहीं, वे (विरोधी सत्ताएं) वैश्व शक्तियोंको उत्पन्न नहीं करतीं; वे स्वयं उनसे संचालित होती हैं और उनका संचालन करती हैं ।

 

*

 

         हां, निश्चय ही, सदैव प्रकाश और अन्धकारके बीच युद्ध चलता रहता है । साधनामें यह घनीभूत हो जाता है और हम उसके विषयमें सचेतन हो जाते

 

        जहांतक विरोधी शक्तियोंका प्रश्न है, वे हमेशा एक दूसरेके साथ बुद्धमें लगी रहती हैं; किन्तु सत्य और प्रकाशके विरोधको वे साझा ध्येय बना लेती हैं ।

 

*

 

         शक्तियां सचेतन होतीं हैं । इसके सिवाय ऐसी व्यक्तित्वापत्र सत्ताएं भी हैं जो शक्तियोंका प्रतिनिधित्व या उनका प्रयोग करती हैं । व्यक्ति जय जडतत्वके परदेके पीछे चला जाता है तो चेतना एवं शक्ति, निर्ब्धक्तिकता एवं वैयक्तिकताके बीचकी दीवार बहुत अधिक पतली हो जाती है । यदि कोई किसी क्यिाको निर्व्यक्तिक शक्तिकी दिशासे देखे तो यह शक्ति या र्क्ला को किसी प्रयोजनके लिये परिणामोत्पादक रूपमें काम करते हुए देखता है, यदि कोई सत्ताकी दिशासे देखे तो वह एक ऐसी सत्ताको देखता है जो एक चेतन शक्तिको अपने अधिकारमें रखती है, उसका मार्गदर्शन और उपयोग करती हैं या फिर जो उसकी प्रतिनिधि होती है और उसके द्वारा विशिष्ट क्यिा और अभिव्यक्तिके उपकरणके रूपमें प्रयुक्त की जाती है । तुम लहरकी बात करते हो, किन्तु आधुनिक भौतिक शास्यमेंयह पाया गया हैं कि यदि तुम ऊर्जाकी गतिका अवलोकन करो, तो एक ओर, यह लहर प्रतीत होती है एवं एक लहरकेरूपमे काम करती दिखाई देती है, दूसरी और कणोंका एक समूह प्रतीत होती है और कणोंके ऐसे समूहके रूपमें काम करती  देती है जिसमें प्रत्येक कण अपने ढंगसे कार्य फरा रहा होता है । यहां भी थोड़ा बहुत वही सिद्धांत देखनेमें आता है ।

 

*

 

         प्रकृति-शक्तियां सचेतन शक्तियां हैं - वे किसी क्यिा या प्रयोजनके लिये आवश्यक सब वस्तुओंको अच्छी तरह जुटा सकतीं हैं और जब कोई साधन असफल होता है, तो वे दूसरे साधनाको हाथमें ले लेती हैं ।

 

*

 

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        हां, समग्र मानव प्रकृतिके लिये सामान्य सर्व साधारण मनोवैज्ञानिक कियाके द्वारा काम करनेकी अपेक्षा यदि थे (शक्तियां) अपनी कोई विशेष रचना कर सकें तो अधिक बल पूर्वक कार्य कर सकती हैं ।

 

*

 

 वे (वैश्व शक्तियां) प्रत्येक ब्यक्तिपर व्यक्तिकी प्रकृतिके अर्थात् उसके संकल्प और चेतनाके अनुसार हीं कार्य करती हैं ।

 

*

 

         अहंकार वैश्व प्रकृति रूपी यंत्रका भाग - मुख्य भाग - हैं, प्रथम तो प्रकृति- की भेद-प्रभेद रहित शक्ति और उपादानमेंसे व्यक्तित्वका विकास करनेके लिये और, दूसरे, (अहंकारीक विचार, अनुभव, संकल्प और कामनाके यंत्र द्वारा) व्यक्तिको वैश्व शक्तियोंका हथियार बनानेके लिये । जव कोई उच्चतर प्रकृतिके स्पर्शमें आता है तभी इस अहंके शासनसे और इन शक्तियोंकी आधीनतासे मुक्त होना संभव होता

 

*

 

         हां, यदि यह ठोस अनुभव हों (कि हमारी सारी शक्तियां और क्षमताएं विश्व- शक्तियोंसे आती हैं) तो अहंका अभ्यास बहुत कम हो जाता है, पर यह एकदम चला नहीं जाता । यह इस भावनाके अन्दर शरण लेता है कि यह एक यंत्र है और - यदि यह चैत्यकी ओर मुंडा हुआ न हो तो -- बड़ी आसानीसे ऐसी किसी भी शक्तिका यंत्र होना पसन्द कर सकता है जो अहंकी संतुष्टिका पोषण करती है । ऐसी अवस्थाओंमें अहं फिर भी प्रबल बना रह सकता है यद्यपि वह अपनेको यंत्र ही अनुभव करता है, प्रमुख कर्ता नही ।

 

*

 

         यदि चैत्य पुरुष सक्रिय होता है, या जिस हदतक वह सक्यि होता है उस हदतक, उसके अन्दर कोई ऐसी चीज होती है जो कि विश्व-शक्तियोंके लिये सहज कसौटी जैसी होती है,-जो नही होना चाहिये उत्तरके विरुद्ध यह एक चेतावनी देती है ( विचार- के द्वारा उतना नहीं जितना कि एक मूलभूत अनुभवके द्वारा) और उसका परित्याग करती है तथा जो होना चाहिये उसे वह स्वीकार करती और रूपांतरित करती है ।

 

*

५७७


       हां, ऐसी ही बात है । वैश्व शक्तियां बहुधा अवचेतन द्वारा क्तिका करती हैं - विशेषकर जब उनके द्वारा भेजी गई शक्ति कोई ऐसी वस्तु होती है जिसकी आज्ञाका पालन करनेकी व्यक्तिको आदत पडू गई होती है और जिसके बीज, संस्कार, ' 'ग्रंथियां' ' अवचेतनमें दृढ़तासे जम गये होते हैं अथवा चाहे ऐसी स्थिति न भी हो, तो जिसकी स्मृति अब भी अवचेतनमें विद्यमान होतीं है ।

 

*

 

           इसका कोई नियम नहीं है । साधारणतया मानव सत्ता केवल उपरितल पर ही सचेतन होती है -- किंतु उपरितल केवल प्रच्छन्न अन्त: सत्ताके कार्यमें लगी हुई शक्तियोंके परिणामोंका ही ब्यौरा रखता है । प्राय. चक्रोंके द्वारा हीं शक्तियां अन्दर आती हैं, क्योंकि तब वे प्रकृतिपर कार्य करनेके लिये सबसे अधिक शक्ति प्राप्त करती हैं - किन्तु वे कही भी प्रवेश कर सकती हैं ।

 

*

 

           अधिक ठीक कहें तो वे ( दुःख-दर्द) शायद वैश्व शक्तियोंकी क्रीडाके परिणाम हैं - किंतु एक विशेष अर्थमें दुःख-दर्द को वैश्व शक्तियां कहा जा सकता है -- क्योंकि इन वस्तुओंकी लहरें आकर सत्ताको प्रायः बिना किसी प्रत्यक्ष कारणके घेर लेती हैं ।

 

*

 

         यह ( मृत्यु) एक वैश्व शक्ति है -- जिस घटना या परिवर्तनको मृत्यु कहा जाता है वह शक्तियोंकी क्रियाका केवल एक परिणाम है ।n


 *  *  *  *  *  *

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विभाग तीन

 

आंतरिक और वैश्वचेतनाकी अनुभूतियां

 


आंतरिक और वैश्वचेतनाकी अनुभूतियां

 

         बाह्य चेतना और अन्तःपुरुषकी बीचके आवरणका भेदन योगकी निर्णायक गतियोंमेंसे है । क्योंकि, योगका अभिप्राय है भगवान्से मिलन, पर साथ ही इसका अभिप्राय है जागरण -- पहले अपनी अन्तरात्माके प्रति और फिर अपनी ऊर्ध्वस्थित आत्माके प्रति, अर्थात् अन्तर्मुख गति और ऊर्ध्वमुख गति । वास्तवमें अन्तःपुरुषकी जागने और सामने आ जानेपर ही तुम भगवान्से मिलन प्राप्त कर सकते हों । बाह्य भौतिक मनुष्य यंत्रात्मक व्यक्तित्वमात्र है, और अपने बल-बूतेपर वह मिलन प्राप्त नही कर सकता वह केवल कभी-कभार स्पर्श, धार्मिक अनुभव तथा अपूर्ण संदेश ही प्राप्त कर सकता है । और, ये भी बाह्य चेतनासे नही बल्कि हमारी आभ्यंतर सत्तासे प्राप्त होते हैं ।

 

       आवरणका भेदन दो प्रकारकी गतियोंसे होता है जो परस्पर-पूरक हैं । एकमें अन्तःपुरुष सामने आ जाता है और अपनी स्वाभाविक चेष्टाए बाह्य चेतनापर बल- पूर्वक लागू करता है । वैसे वे चेष्टाए बाह्य चेतनाके लिये असाधारण एवं अस्वाभाविक होती है । दूसरी गति है बाह्य चेतनासे. पीछेकी ओर हटना, भीतर आंतरिक स्तरोंमें जाना, अपनी अन्तरात्माके लोकमें प्रवेश करना और अपनी सत्ताके प्रच्छन्न भागोंमें जाग्रत होना । जब एक बार तुम ऐसी डुबकी लगा चुकाते हों तो तुमपर यौगिक एवं आध्यात्मिक जीवनकी मोहर लग. जाती है और जो मोहर तुमपर लगाई गई है उसे कोई भी वस्तु मिटा नही सकती ।

 

          यह अन्तर्मुख गति अनेक विभिन्न तरीकोंमें होती है और कभी कभी ऐसा जटिल अनुभव होता है जिसमें पूर्ण निमज्जन के सभी चिह्न एक साथ उपस्थित होते हैं । भीतर या गहरे तलमें जानेका भान तथा आंतरिक गहराइयोंके ओर गतिका असंभव होता है? प्रायः अंगोंकी निस्तब्धता, मधुर जडिमा और अकड़ाहट अनुभूत होती है । यह इस बातका चिह्न है कि ऊपरसे किसी शक्तिका दबाव पड़नेके कारण चेतना शरीरसे पीछे हटकर भीतर जा रही है । वह दबाव शरीरको अन्तर्जीवनके अचल आधारके रूपमें या एक प्रकारके दृढ-स्थिर स्वतःसिद्ध आसनके रूपमें स्थितिशील बना देता है । ऐसा अनुभव होता है कि तरंगें उठकर सिरकी ओर आरोहण कर रही है और इससे हम बाहरकी सुधबुध खोकर आंतरिक जागरण प्राप्त करते हैं । यह है आधर्य निम्र- तर चेतनाका ऊर्ध्वस्थित महत्तर चेतनासे मिलनेके लिख आरोहण । यह गति उस गति नसी है जिसपर तांत्रिक पद्धतिमें इतना अधिक बल दिया गया है, अर्थात् शरीरमें कुण्डलित तथा प्रसुप्त कुण्डलिनी शक्तिका जागरण और उसका मेरुदण्ड तथा चक्रों एवं ब्रह्मरध्रमेंसे होते हुए ऊपर भगवान्से मिलनेके लिये आरोहण । हमारे योगकी विशिष्ट विधि यह नही बल्कि संपूर्ण निम्रतर चेतनाका कभी तो धाराओं या तरंगोंके

 


रूपमें, कभी कम स्थूल गतिके रूपमें सहज ऊर्ध्व-प्रवाह और दूसरी तरफ भागवत चेतना एवं उसकी शक्तिका देहमें अवतरण है । इस अवतरणका अनुभव इस रूपमें होता है कि स्थिरता और शांतिका, बल और शक्तिका, प्रकाशका, हर्ष और आनन्दोद्रेकका, विशालता, स्वतंत्रता और ज्ञानका, भागवत सत्ता या उपस्थितिका - कभी तो इनमें- से केवल एक्का और कभी इनमेंसे कई एक्का या एक साथ सभीका अंतप्रवाह हो रहा है । आरोहण-गतिके नाना परिणाम होते हैं । यह चेतना को इस प्रकार मुक्त कर सकती है कि व्यक्ति अब अपनेको शरीरमें नहीं बल्कि उसके ऊपर अनुभव करे अथवा वह अपने-आपको विशालतामें इस प्रकार फैला हुआ अनुभव करे कि शरीर या तो लगभग अ-सत् रh जाय या व्यक्तिके विनिर्मुक्त विस्तारमें बिंदुमात्र । यह जीवको या जीवके किसी भागको शरीरसे बाहर निकल अन्यत्र विचरनेका सामर्थ्य प्रदान कर सकती है । इस विचरणमें जीव बहुधा किसी प्रकारकी आशिक समाधि किंवा पूर्ण समाधिमें रहता है । मत्वा इस आरोहणका यह परिणाम हो सकता है कि यह चेतना- को, जो अब शरीरसे और बाह्य प्रकृतिकी आदतोंसे पूर्ववत् बद्ध नहीं, इस प्रकारकी शक्ति दे कि वह भीतर जाय, आंतर मानसिक गहराइयों, आंतर प्राण, आंतर (सूक्ष्म) शरीर तथा अन्तरात्मामें प्रवेश करे, अपने अन्तर्तम हत्युरुष या अपने आंतर मनोमय, प्राणमय एव सूक्ष्म अन्नमय पुरुषसे सचेतन हो और यहांतक कि प्रकृतिके इन भागोंसे संबद्ध प्रदेशों, स्तरों एवं लोगोमे संचार और निवास करे। निम्रतर चेतनाका पुनः पुन और सतत आरोहण ही मन, प्राण एवं शरीरको अतिमानसिक स्तर पर्यन्त सभी उच्चतर स्तरोंका संस्पर्श पाने और उनकी ज्योति, शक्ति एवं प्रभावसे परिपूरित होनेके योग्य बनाता है । अथच भागवत चेतना एवं उसकी शक्तिका पुनःपुन. और सतत अवरोहण हीं संपूर्ण सत्ता तथा संपूर्ण प्रकृतिके रूपांतरका साधन है । जब एक बार यह अवरोहण स्वाभाविक बन जाता है, तब भागवत बल एवं माताकी शक्ति पहलेकी तरह केवल ऊपरसे या पर्देके पीछेसे नहीं बल्कि सचेतन रूपसे स्वयं आधारमें कार्य करने लगती है, वह इसकी कठिनाइयों तथा संभावनाओंके साथ निपटती और योग चलाती

 

        अंतमें सीमा पार करनेकी बात आती है । वह चेतनाका प्रसुप्त या लुप्त हों जाना नही है, क्योंकि चेतना तो वहां बराबर उपस्थित रहती है । हां, वह बाह्य और भौतिक सत्तासे सरक जाती है, बाह्य पदार्र्थोको लिये बन्द हों जाती है और सत्ताके आंतर चैत्य तथा प्राणमय भागके अन्दर पीछेकी ओर हट जाती है । वहां वह अनेक अनुभवों- भैंसे गुजरती है और इनमेंसे कुछ एक जागरित अवस्थामें भी प्राप्त हों सकते हैं और होने चाहियें । क्योंकि दोनों गतियों आवश्यक हैं, आंतर सत्ताका बाहर सामनेकी ओर आना और आंतर आत्मा तथा प्रकृतिसे सज्ञान होनेके लिये चेतनाका अन्दर जाना । पर अन्तर्मुखी गति तो और भी बहुतसे अनुभवोंके लिये आवश्यक है । कारण, बाह्य चेतना अन्त पुरुषको प्रकट करनेकी बहुत ही कम चेष्टा करती है, अन्तर्गति का फल यह होता हैं कि हम बाह्य इन्द्रिय-चेतना और अन्त पुरुषके बीचकी दीवार तोडकर या कम- से-कम उसमें एक द्वार खोलकर भीतर घुस सकते हैं और फिर आगे चलकर हम संभावना

 

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और अनुभूतिके तथा नए अस्तित्व एवं नए जीवनके अशेष अनन्त ऐश्वर्योंका सचेतन ज्ञान प्रान्त कर सकते हैं । वे ऐश्वर्य आज इस क्षुद्र, अत्यध एव सीमित स्थूल व्यक्तित्वके पर्देके पीछे अवरुद्ध पड़े हैं जिसे हम भ्रांतिवश अपना सर्वस्व समझते हैं । अंदर डुबकी लगाने और इस अन्तर्लोकसे जागरित अवस्थाकी ओर लौटनेके बीचके कालमें इसी गभीरतर, समग्रतर एवं समृद्धतर चेतनाका प्रारंभ और सतत विस्तार साधित होता

 

         साधकको समझ लेना होगा कि ये अनुभूतियां केवल कल्पनाएं या स्वत्व नही बल्कि यथार्थ घटनाएं हैं । क्योंकि जब कभी ये केवल गलत या भ्रामक या विरोधी ढंगकी रचनाएं होती हैं -- जैसा कि बहुधा होता है - तब भी रचनाओंके तीरपर इनकी अपनी विशेष शक्ति होती है और इन्हें समझ लेनेपर ही इनका निराकरण या विनाश किया जा सकता है । प्रत्येक आंतर अनुभव अपने हीं ढंगसे पूर्णतया वास्तविक होता है,--यद्यपि विभिन्न अनुभवोंके मूल्य अतीव भिन्न भिन्न होते है,--किंतु अन्त- रात्मा और आंतर स्तरोंके सत्यसे युक्त होनेक कारण वे वास्तविक होते हैं । यह समझना गलत है कि हम केवल शारीरिक तीरपर, बाह्य मन और प्राणके द्वारा ही, जीते हैं । चेतनाके अन्य स्तरोपर भी हम हर समय जी रहे और कार्य कर रहे हैं, वहां दूसरोंसे मिल रहे और उनपर प्रभाव डाल रहे हैं । वहां हम जो कार्य, अनुभव एवं विचार करते हैं, जो जो सामर्थ्य संचित करते तथा जो जो परिणाम तैयार करते हैं उनका हमारे बाह्य जीवनपर, हमारे बिना जाने ही, अपरिमेय प्रभाव एवं फल होता है । वह सारे- का सारा बाहर प्रकट नही होता । जो कुछ प्रकट होता भी हैं वह स्थूल सत्तामें अन्य रूप ग्रहण कर लेता है - यद्यपि कभी कभी पूर्ण सारूप्य होता है । किंतु यह स्वल्पांश भी हमारी बाह्य सत्ताका आधार होता है । भौतिक जीवनमें हम जो कुछ भी बनते, करते और भोगते हैं वह सब हुमारे भीतर पर्देके पीछे तैयार होता है । अतएव जीवनके रूपांतरको लक्ष्य माननेवाले योगके लिये यह अत्यत आवश्यक है कि वह इन स्तरोंके भीतर होनेवाली प्रत्येक घटनासे सचेतन हों, इनका स्वामी बने और उन गुह्य शक्तियोंको अनुभव करने, जानने तथा उनसे बरतनेके योग्य बने जो हमारा भविष्य और आंतर एवं बाह्य विकास या हास निर्धारित करती हैं ।

 

       यह अंतर्मुख गति भगवन्मिलनके अभिलाषियोंके लिये भी इतनी ही आवश्यक है क्योंकि ऐसे मिलनेके बिना उनका रूपांतरका ध्येय सिद्ध नही हो सकता । यदि तुम अपनी बाह्य आत्मासे बद्ध और स्थूल मन तथा उसकी तुच्छ चेष्टाओंमें ग्रस्त रहोगे तो तुम्हारी अभीप्सा फलवती नहीं हो पायेगी । बाह्य सत्ता आध्यात्मिक संवेगका स्रोत कदापि नहीं होती, वह तो केवल पर्देके पीछेसे प्राप्त आंतर प्रेरणाकी अनुगामिनी होती है । तुम्हारे अन्दर जो भक्त है, मिलन और आनन्दका अन्वेषक है, वह तो तुम्हारा आंतर हत्युरुष ही है । स्वयं अकेली बाह्य प्रकृतिके लिये जो असंभव है वह भी तब पूर्णतः संभव हो जाता है जब आवरण दूर होकर अन्तरात्मा सामने आ जाती है । क्योंकि ज्यों हीं यह दृढ़तापूर्वक आगे आ जाती है अथवा चेतनाको प्रबलतासे अपने अन्दर खींचती है त्यों ही शांति, हर्षातिरेक, स्वातैम्य एवं विशालताका उदय तथा प्रकाश

 

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और उच्चतर ज्ञानके प्रति उद्घाटन सहज-स्वाभाविक रूपसे और प्रायः तुरन्त ही होने लगता है ।

 

       एक बार किसी न किसी गतिसे आवरण दूर होते ही तुम्हें अनुभव होने लगता कि योगके लिये आवश्यक सभी प्रक्यिांएं और गतियां तुम्हारी पहुँचके भीतर हैं और वे वैसी कठिन या असंभव नहीं जैसी वे बाह्य मनको प्रतीत होती हैं । तुम्हारे अन्तरतम हृत्युरुषमें योगी एव भक्त पहलेसे ही विद्यमान है और यदि वह पूर्ण रूपेण प्रकट होकर नेतृत्व ग्रहण कर सके तो, तुम्हारे बाह्य जीवनका आध्यात्मिक परिवर्तन अनिवार्य एवं अटल हों जाता है । जो साधक प्रारंभमें ही सफलता लाभ करता है उसका यौगिक एवं आध्यात्मिक गभीर अन्तर्जीवन पहलेसे हीं अन्तरात्मा द्वारा गठित हुआ रहता है । वह केवल किसी ऐसी प्रबल बाह्य प्रकृतिके कारण हीं ढका होता है जिसकी ओर हमारा चितनात्मक मन और हमारे निम्रतर प्राणमय भाग शिक्षा तथा अतीत कर्मोंके द्वारा झुक जाते हैं । इस बहिर्मुख झुकावको ठीक करने और आवरण हटानेके लिये ही तो व्यक्तिको योगाभ्यास करनेकी आवश्यकता होती है । एक बार जब अन्तःपुरुष चाहे अन्दर जाने या बाहर आनेकी गतिसे प्रबलतापूर्वक व्यक्त हों जायगा तो वह अपने बालकों पुनः प्रतिष्ठित करके अपने पथको प्रशस्त कर लेगा और अन्तमें अपना राज्य अधिगत करके रहेगा । इस प्रकारका उपक्रम उस चीजका चिह्न है जो बादमें बहुत बड़े पैमाने- पर होनेवाली है ।

 

* 

 

       पहले पहल चैत्य सत्ताको पहचानना संभव नही होता । हमें करना यह चाहिये कि हम आंतरिक सत्ताके प्रति सचेतन बने जो बाह्य व्यक्तित्व और प्रकृतिसे भिन्न है अर्थात् एक ऐसी चेतना या पुरुष है जो शांत, स्थिर और प्रकृतिकी बाह्य क्रियाओंसे अलिप्त रहता है ।

 

       तुमने जिन अनुभूतियोंका वर्णन किया है वे चैत्य-भौतिक हैं । इनमेंसे एकमात्र महत्वपूर्ण अनुभूति है (चैतन्य) धाराका ऊपरकी ओर जाना जो मस्तकमें स्थित मान- सिक केन्द्र ( आंतरिक मन, संकल्प, दृष्टि) एवं ऊर्ध्वके उच्चतर केन्द्रको जोड़नेवाले मार्गके निर्माणके प्रयासका प्रारंभ है।

 

        केवल एक अटल साधनाके द्वारा ही व्यक्ति क्रमश: बाधाओंसे मुक्त हों सकता है । अंधकार और प्रकाशकी अवस्थाओंका बारी बारीसे आना स्वाभाविक और अनिवार्य

 

        तुम्हारी अनुभूतिमें प्रकाश शक्तिकी क्यिाका द्योतक है (संभवत: नीली आभा- वाला प्रकाश आध्यात्मिक मानस-शक्तिका निर्देश करता है) -शेष ऊच्चतर आध्या- त्मिक केन्द्र (सहस्रदल) को खोलनेकी क्रिया थी ।

 

*

 

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        यह बल्कि दुःखकी बात है कि भय भीतर घुस आया और उसने अंतर्मुखी क्रियाको नष्ट कर दिया - क्योंकि यह अतर्मुखी क्रिया साधनाके लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । तुम्हारे अन्दर चैत्य चेतनाका अधिक बार और अधिक संपूर्णताके साथ आना तथा सामान्य चेतनाका स्थान ग्रहण करना अबतक प्रगतिका सबसे अधिक आशाप्रद चिह्न रहा है -- किंतु अंतर्मुखी गतिकी यदि स्थापना हों जाय तो वह एक और भी बड़ी चीज होंगी; क्योंकि उसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि अन्दर अंतरात्मा मुक्त हों जायगा और आंतरिक सत्तामें तुम्हें एक आधार प्राप्त हों जायगा जिसमें कि तुम बाह्य चेतनाके किसी भी उतार-चढावको उसके अधीन हुए बिना देख सको और वह तुम्हारी आंतरिक स्थिति और स्वतंत्रतामें कोई हस्तक्षेप न करे । किंतु यह निश्चित है कि वह गति वापस आयेगी और अपने-आपको चरितार्थ करेगी । यह बहुत अच्छा है कि तुम्हारी पुकारपर सहायता आती है और तुम बंधनसे निकल जाते हों - यह चैत्य विकासका दूसरा चिह्न है ।

 

*

 

            तुम जो कहते हो वह तुम्हारे अन्दरकी वस्तु नही थी, किन्तु प्राण प्रकृतिकी वस्तु- ओंका प्रतीक थी । बिच्छू और साधारणतया सांप भी अनिष्टकारी शक्तियोंके प्रतीक है; पार्थिव प्राण-प्रकृति इन शक्तियोंसे भरी हुई है और इसीलिये मानवकी बाह्य प्रकृति- का शोधन भी इतना कठिन है और उसमें इतनी अधिक गलत क्रियाएं और घटनाएं होती है,--क्योंकि उसका प्राण इन सब पार्थिव गतियोंके प्रति सरलतासे खुल जाता है । इनसे मुक्त होनेके लिये, आंतरिक सत्ताको जाग्रत और विकसित होना होगा और बाह्य प्रकृतिके स्थानपर उसे अपनी प्रकृतिकों स्थापित करना होगा । कभी कभी सांप केवल शक्तियोंके द्योतक भी हों सकते हैं जो हानिकर नहीं होतीं; पर बहुधा इससे उलटा ही होता है । दूसरी ओर, जो मोर तुमने देखे वे विजयकी शक्तियां थे अर्थात् वे अंधकारकी शक्तियोंके ऊपर प्रकाशकी शक्तियोंकी विजयके प्रतीक थे ।

 

तुमने जो बाह्य सत्ताके विषयमें कहा है वह सही हे, उसे बदलना होगा और आंतरिक प्रकृतिकी वस्तुको प्रकट होना होगा । किंतु इसके लिये व्यक्तिको आंतरिक प्रकृतिके अनुभव होने चाहिये और इनके द्वारा आंतर प्रकृतिकी शक्ति तबतक बढ्ती जाती है जबतक वह बाह्य सत्ताको पूरी तरह प्रभावित करके अपने अधिकारमें न ले लें । इस आंतरिक चेतनाको विकसित किये बिना बाह्य चेतनाको पूरी तरहसे बदलना बहुत कठिन होगा । इसीलिये ये आंतरिक अनुभव आंतरिक चेतनाके विकासको तैयार करनेके लिये हों रहे है । हमारे अन्दर एक आंतर मन, आंतर प्राण और आंतर- भौतिक-चेतना है जो बाह्य चेतनाकी अपेक्षा अधिक आसानीसे ऊपरकी ऊच्चतर चेतनाको ग्रहण कर सकती है एवं चैत्य पुरुषके साथ अपनेकी सुसमंजस बना सकती है; यह कार्य हों जानेके बाद बाहरी प्रकृति हमें ऊपरी सतहकी किनारी भर प्रतीत हाता है, न कि अपना शुद्ध स्वरूप और अधिक सरलतासे पूरी तरह रूपांतरित हों जाती

 

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है!

 

        तुम्हारी बाह्य प्रकृतिमे अभी जो भी कठिनाइयां, हों, उनके कारण इस तथ्यमें कोई फर्क नही आता कि तुम्हारा अन्तर जाग गया है, श्रीमांकि शक्ति तुम्हारे अन्दर कार्य कर रही है और तुम उनके सच्चे पुत्र हों और तुम्हारे भाग्यमें यह लिखा है कि तुम पूरी तरह उनके पुत्र बन जाओगे । अपनी श्रद्धा और अपने विचारकों पूरी तरह उनपर एकाग्र करो और तुम सब कठिनाइयोंमेंसे सुरक्षित रूपसे पार हो जाओगे ।

 

*

 

            रूपांतर सतह पर ही हुआ है । व्यक्ति गहराइयोंमें जो कुछ पाता है उसे लेकर वह सतहको बदलनेके लिये ऊपर आता है । संभव है कि तुम्हें फिर अन्दर जानेकी जरूरत पड़े और तेजीसे लौटनेकी क्रियामें कठिनाई अनुभव हो । जब समग्र कात नमनीय हों जाती है तब तुम किसी भी आवश्यक गतिको अधिक तेजीसे करनेमें समर्थ होंगे ।

 

*

 

          निःसंदेह चेतनाकी एक स्थितिसे दूसरी स्थितिमें संक्रमण करनेमें समय लगता है । ज्यों-ज्यों तुम्हारी चेतना अपने ऊपर बाह्य वस्तुओंके दावेसे हाथ खिचती जायेगी और हृदय प्रदेशमें अधिक गहरे भीतर जायगी तथा प्रकाश एवं प्रेरणाके लिये चैत्यको सामने रखकर वहीसे सब कुछ देखने और अनुभव करने लगेगी त्यों त्यों अनुभवमें अधि- काधिक गहराई आती जायगी । इस क्रियाके साथ श्रद्धा भी बढ़ेगी - क्योंकि केवल बाह्य बुद्धि ही श्रद्धाके संबंधमें दुर्बल या अघूरी होती है, हृदयस्थ अंत:सत्तामे श्रद्धा सदा विद्यमान होती है ।

 

        तुमने अपने पत्रमें जो लिखा है बह विचारने और समझनेका सही तरीका है । मनकी मनमानी जो वस्तुओंको भगवान्के ढंगसे नही किंतु अपने ढगसे होते देखना चाहती थी, एक बड़ी बाधा श्री । उसके हट जानेपर रास्ता कम ऊबड-खाबड़ और कम कठिन हों जाना चाहिये ।

 

       बाह्य सत्तामें श्रद्धा, भगवान्के प्रति निष्ठा, आदरभाव, प्रेम, पूजाभाव, भक्ति और आराधना बढ़ सकती है, ये अपने आपमें बंडी बातें हैं,-यद्यपि ये चीजों भी वस्तुत: अन्दरसे आती है,--किन्तु साक्षात्कार तो केवल तभी होता है जब आंतरिक सत्ता अगोचर वस्तुओंके विषयमें अपने अन्तर्दर्शन और अनुभवके साथ जाग्रत होती है । तब तक, व्यक्ति भगवान्की सहायताके परिणामोंका अनुभव कर सकता है, और श्रद्धा

 

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होनेपर समझ सकता है कि यह सब भगवानका काम है, किन्तु मनुष्य केवल तभी कार्य करती हुई शक्तिको, भगवान्के सामीप्यको, उसके प्रत्यक्ष अन्त: संपर्कको स्पष्ट- रूपसे अनुभव कर सकता है ।

 

*

 

           निश्चल-नीरवताका अर्थ अनुभवोंका अभाव नही है । आंतरिक नीरवता और प्रशांतिमें ही सब कुछ अनुभव बिना किसी विक्षोभको उत्पन्न किये हों सकते हैं । तुम्हारे अन्दर जो प्रतिमूर्ततिया उठ रही हैं उनमें हस्तक्षेप करना बड़ी भूल होगी । वे मानसिक है या चैत्य इसका कोई महत्व नही । मनुष्यको केवल सच्चे चैत्य लोकोंका हीं नहीं किन्तु चेतनाके आंतर-मानसिक, आंतर प्राणिक और सूक्ष्म भौतिक लोकों अथवा भूमिकाओंका भी अनुभव होना चाहिये । प्रतिमूर्तियोंको आविर्भूत होना इस बातका सूचक है कि ये चीज़ें खुल रही हैं और उनके निरोधका अर्थ होगा चेतना और अनुभवके विस्तारको रोकना, जिनके बिना योग-साधना नही की जा सकती ।

 

*

 

          सब अनुभव निश्चल-नीरवताकी स्थितिमें ही आते है किन्तु प्रारंभमें सभी भीड़भाड़ करते हुए असंबद्ध रूपमें नहीं आते । पहले आंतर नीरवता और शांतिको प्रतिष्ठित करना होगा ।

 

*

 

         अपने अन्तिम (लम्बे) पत्रमें तुमने जिस कठिनाईका सकेत किया है वह इस बात- की सूचक है कि तुम आंतर सत्तामें प्रवेश करते हों और अनुभव प्राप्त करने लगते हो, परन्तु उन्हें व्यवस्थित करनेमें अथवा संबद्ध रूपमे समझनेमें तुम्हें कठिनाई होती है । यह कठिनाई इसलिये होती है कि आंतर मन अभी आंतरिक वस्तुओंपर कार्य करने और उन्हें देखनेके लिये पर्याप्त अभ्यस्त नहो हुआ है और इसलिये साधारण बाह्य मन बीचमें हस्तक्षेप करके उन्हें व्यवस्थित करनेकी चेष्टा करता है, परन्तु बाह्य नग आतरिक वस्तुओंके अर्थ समझनेमें असमर्थ है । जब बाह्य मनको बिलकुल बाहर छोड़ दिया जाता है तो अन्दरकी चीज़ें सजीव और स्पष्ट रूपसे दिखाई देने लगती है; परन्तु आंतरिक मनके सक्रिय न होनेपर, या तो उनकी संबद्धता दिखाई नही देती या चेतना निम्रतर प्राणकी भूमिकाके अव्यवस्थित अनुभवोंमें लटकती रहती है और उन्हें पार कर अधिक गहरे, अधिक संबद्ध और महत्वपूर्ण अनुभवोंतक नही पहुँच पाती । एक आंतरिक चेतनाके विकासकी आवश्यकता है -- उसके विकसित होनेपर सब बातें अधिक स्पष्ट और संबद्ध हों जायेंगी । यह विकास तब होगा जब तुम बिना विक्षुब्ध

 

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हुए शांत भावसे अभीप्सा करोगे आर आवश्यक क्यिा करनेके लिये श्रीमांकि शक्तिका आवाहन करते रहोगे ।

 

*

 

          तुम्हारी पुकार सदा ही श्रीमांके पास पहुँचेगी । यदि तुम शांत और आश्वस्त रहो तो तुम्हें समय आनेपर उत्तर भी मालूम हो जायगा । मन जितना अधिक अचंचल होगा यह बात तुम्हारे सामने उतनी ही अधिक स्पष्ट होती जायगी और तुम श्रीमांके कार्यको अनुभव करने लगोगे । समय समयपर तुम अपने अनुभवोंके विषयमें लिख सकते हों, जहां भी, आवश्यकता होगी, मैं उत्तर दूँगा ।

 

*

 

          संपर्कका आशय यही है और इसी प्रकार यह स्थापित होता है ।

 

       जहांतक इस बातका संबंध है कि यह सदा नही प्राप्त होता, इसका कारण यह है कि सत्ताके ऐसे अनेक भाग है जो अभी तक अचेतन हैं अथवा यह कि शायद अचेतनाकी अवस्थाएं बीचमें आ जाती है । उदाहरणके लिये, लोग एक दूसरेको पत्र लिखते हैं, परंतु वे इसके विषयमें बिलकुल अचेतन होते हैं कि ऐसा करते हुए वे परस्पर शक्तियोंका आदान-प्रदान कर रहे हैं । तुम इस संबंधमें इसलिये सचेतन हों गये हो कि योगके द्वारा तुम्हारी आंतरिक चेतता विकसित हों चुकी है - और. फिर भी ऐसे समय आ सकते हैं जब कि तुम केवल बाह्य ज्ञानके द्वारा ही लिखते हो, और तब तुम केवल शब्दों- के पीछे रहनेवाले अर्थको जाने बिना महज शब्दोंको हीं देखते हो । सों, आंतरिक चेतनाके विकासके परिणामस्वरूप तुम यह समझनेमें समर्थ होते हों कि संपर्क क्यों चीज है और सच्चे संपर्कको प्राप्त कर सकते हो । पर कभी कभी जब बाह्य चेतना आंतरिक चेतनाकी अपेक्षा अधिक बलवान् होती है, तब फिर तुम (तत्काल) संपर्क प्राप्त करनेमें समर्थ नही रह जाते ।

 

*

 

           यह बात नहीं कि तुमसे कोई वस्तु ले ली गई है किन्तु जैसे कि तुमने अन्तमें कहा है कि तुम्हें अपनी सत्ता दो भागोंमें बंटी दिखाई दी है । यह ऐसी वस्तु है जो साधना- की प्रगतिके साथ साथ होती है और होनी ही चाहिये जिससे व्यक्तिको अपने स्वरूप और सच्ची चेतनाका पूरी तरह ज्ञान हो सके । ये दो भाग हैं आंतरिक सत्ता और बाह्य सत्ता । बाह्य सत्ता ( मन, प्राण और शरीर) अचंचल रहनेमें समर्थ हो गई है और यह ध्यानमें ऐसी मुक्त, सुखमय, शून्य अचंचलावमें प्रवेश कर जाती है जो सच्ची चेतनाकी ओर पहला कदम है । आंतरिक सत्ता ( आंतरमन, प्राण, शरीर) खो नहीं

 

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गई है पर अन्दर चली गई है बाह्ररका भाग नही जानता कि कहां - किन्तु बहुत संभव है कि वह अन्दर जाकर चैत्यके साथ एक हो गई है । केवल एक वस्तु संभवत: चली गई प्रतीत होती है वह है पुरानी प्रकृतिकी आदतें जो इस अनुभवके मार्गमें बाधक थी ।

 

*

 

       एक आंतरिक सत्ता है और एक अंतरतम सत्ता जिसे हम चैत्य कहते हैं । जब हम ध्यान करते हैं तो हम आंतरिक सत्ताके अन्दर जानेकी चेष्टा करते हैं । ऐसा करने- पर हम भली भांति अनुभव करते हैं कि हम अन्दर चले गये हैं । ध्यानमें हम जिस वस्तुका साक्षात्कार कर सकते हैं वह एक ऐसी सामान्य चेतना भी बन सकती हे जिसमें हम निवास करते है । तब मनुष्यको वर्तमान सामान्य चेतना एक बिलकुल बाह्य और उपरि सतहकी वस्तु लगती है न कि अपना वास्तविक आत्मा ।

 

*

 

         तुम जो नवजीवनका अनुभव करते हो उसका कारण है तुम्हारे भीतर अन्त. । सत्ताका विकास; आंतरिक सत्ता ही सच्ची सत्ता है और उसके विकासके साथ साथ समग्र चेतना बदलने लगती हैं । यह अनुभव और लोंगोंके प्रति तुम्हारी नई वृत्ति, इस परिवर्तनके चिह्न है । आंतरिक वस्तुओंका दर्शन भी साधारणतया आंतरिक- सत्ता और चेतनाके इस विकासके साथ ही आता है, यही आंतरिक-दृष्टि अनेक साधकों- मे इस अवस्थाको प्राप्त करनेपर जागती है ।

 

         इस आंतरिक चेतनाका यह स्वभाव भी है कि जब यह सक्रिय होती है तब भी हमें कियाके पीछे रहनेवाली अथवा उसे धारण करनेवाली पूर्ण अचंचलता अथवा नीरवताका अनुभव होता है । मनुष्य जितना अधिक एकाग्रता करता है यह अचंचलता और नीरवता उतनी ही अधिक बढ्ती है । इसीलिये अन्दर सब तरहकी वस्तुओंके घटित होनेपर भी अन्तरमें सब कुछ शांत प्रतीत होता है ।

 

        यह भी बिलकुल सामान्य वस्तु है कि आंतर चेतनामें जो हो रहा है उसे इस समय अपनेको बाह्य भौतिक सत्तामें नही प्रकट करना चाहिये । यह पहले बाहर परिवर्तन उत्पन्न करती है किन्तु बाह्य उपकरणोंको बादमें ही अपने अधिकारमें लेती है ।

 

*

 

         यह बड़ा अच्छा लक्षण है कि जब विचार और विक्षुब्ध करनेवाली चेष्टा उत्पन्न होने लगती है तो आधारमें कोई वस्तु ऐसी होती है जो स्थिर और शांत रहती है - क्योंकि वह, अन्तरके अन्दरसे आनेवाले चैत्य उत्तरके समान यह बताती है कि आंतरि

 

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चेतना सत्ताके किसी अंगमें स्थिर हो गई है अथवा अपनेको स्थिर कर रही है । साधना- मे आंतरिक परिवर्तनकी यह सुपरिचित अवस्था है । बाह्य वस्तुओंपर आधार न रखनेवाले अन्दरसे उत्पन्न हुए स्वयंभू आनन्दका प्रकट होना भी उतना ही अच्छा है । यह तथ्य हैं कि यह आंतरिक प्रसन्नता और सुख कोई ऐसी चीज है जो एक साथ शांति और सुखसे परिपूर्ण हे -- यह प्राणके बाह्य आमोद-प्रमोद जैसी कोई उत्तेजना पूर्ण क्रिया नही है, यद्यपि यह ( आंतरिक प्रसन्नता एवं सुख) अधिक तीव्र और सघन हो सकता है । दूसरा अच्छा परिणाम है इस अनुभवका नष्ट हों जाना कि ' 'यह काम मेरा है' ' और बाह्य चेतना द्वारा इस कार्यको करनेवाली शक्ति आंतरिक सत्ताको काममें व्यस्त नही करती ।

 

     चैत्यपुरुषके आविर्भावके अथवा ऊर्ध्वस्थित आत्माकी उपलब्धिके साथ हमेशा ऐसा अनुभव होता ३ मानो जेलसे छुटकारा मिल गया हों । इसीलिये इसे मुक्ति नाम दिया गया है । यह शांतिमें, हर्षमे मुक्त होना है, यह अंतरात्माकी ऐसी मुक्ति है जो बाहरी अज्ञानमय जीवनके हज़ारों बन्धनो और दुश्चिन्ताओंसे बद्ध नही है ।

 

       तुमने अपने अन्तर्दर्शनमें जो मुख देखा था वह निःसंदेह माताजीका ही था पर अधिक संभव यह है कि वह उनके भौतिक नही पर अतिभौतिक आकारों और मुखोमेंसे कोई एक ही -- यह भी उस महान् ज्योतिके द्वारा सूचित होता है जिसने उस आकारमें- से उद्भूत होकर उसे अदृश्य बना दिया ।

 

*

 

       विचारका अभाव बिलकुल ठीक वस्तु है -- क्योंकि सच्ची आंतरिक चेतना ऐसी नीरव चेतना है जिसे वस्तुओंके विचारके द्वारा नही जानना पड़ता, पर जिसे भीतरसे ही सच्चा बोध, समझ और ज्ञान स्वयं स्फूर्त रूपमें हो जाता छए और जो उसके अनुसार बोलती या कार्य करती है । केवल बाह्य चेतनाको ही बाहरकी वस्तुओंपर आधार रखना और उनके विषयमें सोचना पड़ता हे क्योंकि उसे स्वयं सहज पथ-प्रदर्शन प्राप्त नहीं है । इस आंतर चेतनामें स्थिर हों जानेपर मनुष्य संकल्पके प्रयत्न द्वारा पुरानी क्रियाओंकी ओर वस्तुत. लौट सकता है, पर तब यह स्वाभाविक क्रिया नहीं रह जाती और, लम्बे समयतक जारी रखनेपर थकानेवाली बन जाती है । सपनोंकी बात दूसरी है । पुरानी राव अतीत वस्तुओंके विषयमें स्वप्न अवचेतनमेंसे उठते हैं जो पुराने संस्कारों और पुरानी चेष्टाओं और आदतोंको, जाग्रत चेतना द्वारा बहुत पहले छोड़ दिये जानेके बाद भी, अपने अन्दर बजिरूपमें धारण करता है । जाग्रत चेतना द्वारा छोड़ दिये जानेपर भी वे फिर स्वप्नोंमें उभर आते हैं; क्योंकि निद्रामें बाह्य भौतिक चेतना नीचे अवचेतनमें अथवा उसकी ओर चली जाती है और बहुतसे स्वप्न वहीसे ऊपर उठते हैं ।

 

       पूर्ण निश्चल-नीरवता वही है जिसमें सब अचंचल होता है और व्यक्ति साक्षीके रूपमें स्थित होता है जबकि चेतनामें कोई वस्तु सहज भावसे ऊच्चतर वस्तुओंक

 

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नीचे पुकार लाती हैं और वह तब प्राप्त होती है जब ऊच्चतर चेतनाकी पूर्ण शक्ति मन, प्राण और शरीरपर सक्रिय होतीं है ।

 

         अन्दरकी वस्तुएं सूक्ष्म दृष्टि द्वारा मूर्त्ति रूपमें अथवा उससे भी अधिक सूक्ष्म और शक्तिशाली दर्शनके तरीकेसे साररूपमें, बाह्य वस्तुओं जितनी ही स्पष्टतासे देखी जा सकती है; पर इन वस्तुओंको अपना पूर्ण बल और तीव्रता प्राप्त करनेके लिये विकसित होना होगा ।

 

II

 

           साधनाकी एक ऐसी अवस्था आती है जिसमें आंतरिक सत्ता जागने लगती है । इसके प्रथम परिणाम स्वरूप प्रायः जो अवस्था उत्पन्न होती है वह निम्रलिखित तत्वोंसे बनी होती है :

 

      1. एक प्रकारका साक्षी-भाव जिसमें आंतरिक चेतना सब घटनाओंको द्रष्टा या प्रेक्षकके रूपमें देखती है, वह वस्तुओंका निरीक्षण करती है पर उनमें सक्रिय रूपसे रुचि या आनन्द नही लेती ।

 

       2. उदासीन समताकी एक अवस्था जिसमें न मुख होता है न दुःख, होती है केवल एक अचंचलता ।

 

      3. जो कुछ हो रहा है उस सबसे पृथक् कोई ऐसी वस्तु होनेका बोध, जो उसका निरीक्षण करती है किन्तु उसका अंग नही होती ।

 

       4. वस्तुओं, लोगों, या घटनाओंके साथ आसक्तिका अभाव ।

 

         ऐसा प्रतीत होता है मानों यह अवस्था तुम्हारे अंदर आनेकी चेष्टा कर रही थी पर है यह भी अपूर्ण । उदाहरणके लिये, इस अवस्थामें ( 1) लोंगोंके साथ बातचीत करते समय किसी विरक्ति या अधीरता या क्रोधका नही, किन्तु केवल एक तटस्थता और आंतरिक शांति एवं नीरवताका भाव होना चाहिये । और ( 2) एकमात्र उदासीन अचंचल और तटस्थ वृत्ति ही नही किन्तु स्थिरता अनासक्ति और शांतिका दृढ भाव भी होना चाहिये । और फिर ( उ) इस अवस्थामें शरीरसे बाहर नहीं निकलना चाहिये जिससे ऐसा न हो कि तुम यह न जान पाओ कि क्या हो रहा है या तुम क्या कर रहे हों । उस समय ' 'मैं शरीर नही हूँ पर कोई अन्य वस्तु हूँ' ' यह भाव हों सकता है - यह ठीक भी है; किन्तु तुम्हारे अन्दर अथवा चारों ओर जो कुछ हों रहा है उस सबके विषयमें तुम्हें पूर्ण सचेतन भी रहना चाहिये ।

 

        इसके सिवाय, यह अवस्था पूर्ण हो जानेपर भी एक संक्रमणकी ही स्थिति होती है - इसका प्रयोजन स्वतन्त्रता और मुक्तिकी एक विशेष स्थितिको लाना है । परंतु उस शांतिमें भगवान्की उपस्थितिकी अनुभूतिका, तुम्हारे अन्दर होनेवाली श्रीमांकि शक्तिकी क्रियाका, हर्ष या आनन्दका बोध भी उत्पन्न होना चाहिये ।

 

        यदि तुम हृदयमें तथा सिरमें एकाग्रता कर सको तो ये वस्तुएं अधिक आसानीसे आ सकती हैं ।

 

४९५


          सत्ताके विभक्त होनेका जो अनुभव तुम्हें हुआ है जिसमें सत्ता अन्दरसे खाली और उदासीन हो गई है - दुःखी नही पर तटस्थ और उदासीन -- वह एक ऐसा अनुभव है जिसमेंसे बहुतेरे लोग गुजरते हैं और जिसे संन्यासी लोग बहुत अधिक महत्व देते हैं । हमारे लिये तो यह अधिक विशाल और भावात्मक वस्तुके लिये एक मार्गमात्र है । इसमें पुराने तुच्छ मानव-भाव हट जाते हैं और एक प्रकारकी स्थिर उदासीन शून्यताका निर्माण किया जाता है जिससे उच्चतर प्रकृति अभिव्यक्त हो सके । इसे परिपूर्ण करके इसके स्थानपर एक ऐसी विशाल नीरवता और मुक्तिके भावको लाना होगा जिसमें श्रीमांकि चेतना ऊपरसे प्रवाहित हो सके ।

 

*

 

         वह अवस्था जिसमें सब व्यापार ऐसे उथले और शून्य हों जाते हैं कि उनका अन्तरात्माके साथ कोई संबंध नहीं रह जाता, एक ऐसी स्थिति है जो उपरि चेतनासे आंतरिक चेतनाकी ओर जाते हुए आती है । जब मनुष्य आंतरिक चेतनामें जाता है जों उसे उसका अनुभव एक स्थिर विशुद्ध सत्ताके रूपमें होता है जो गतिहीन परन्तु शाश्वत रूपसे प्रशांत और बाह्य प्रकृतिसे अविचल और पृथक् है । यह चेतना अपनेको क्रियाओंसे अनासक्त रखने और उनसे पृथक् रहनेके परिणाम स्वरूप प्राप्त होती है और यह साधनाकी बहुत महत्वपूर्ण क्रिया है । इसका पहला फल है पूर्ण अचंचलता परंतु बादमें जाकर वह अचंचलता (अपने आप बिना हटे) चैत्य एव अन्य ऐसी आत- रिक क्यिाओंसे परिपूर्ण होने लगती है जो बाह्य जीवन और प्रकृतिके पीछे सच्चे आत- रिक और आध्यात्मिक जीवनकी सृष्टि करती हैं । तब बाह्य जीवन और प्रकृतिको नियंत्रित करना और बदलना अधिक सरल हो जाता है ।

 

        इस समय तुम्हारी चेतनामें उतार-चढ़ाव आ रहे हैं क्योंकि यह आंतरिक अवस्था अभी पूरी तरह विकसित और प्रतिष्ठित नहीं हुई । ऐसा हों जानेपर भी बाह्य चेतना- मे उतार-चढ़ाव आते रहेंगे, परन्तु आंतर अचंचलता, शक्ति, प्रेम आदि उसमें सतत विद्यमान रहेंगे और आंतरिक सत्ता सतहपर होनेवाले उतार-चढावोंका स्वयं विचलित या विरुद्ध हुए बिना तबतक निरीक्षण करती रहेगी जबतक वे पूर्ण बाह्य परिवर्तन द्वारा हटा नही दिये जाते ।

 

          जहांतक 'क्ष' का प्रश्न है, उसके लिये यही सर्वोत्तम होगा कि वह इसे गुजर जाने दे और अन्दरसे स्थिर और अनासक्त रहे, व्यक्ति अपनेको सब संपर्कोंसे अलग नही रख सकता, उसे बस उनकी अभ्यस्त प्रतिक्रियाओंसे अधिकाधिक ऊंचे उठना होगा ।

 

*

 

            कामके समय होनेवाली अपनी स्थितिका जो तुमने वर्णन किया है उसका अर्थ यह है कि अन्तःसत्ता जाग्रत हो गई है और तुम्हारी चेतना अब दुहरी बन गई है । अंत:-

 

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सत्तामें ऐसा आंतरिक सुख, स्थिरता, शांति और ऐसी नीरवता होती है जिसमें विचारों- की कोई लहर नही होती, केवल अन्दर हीं अन्दर मौन नाम-जप ( अजपा-जप) चलता रहता है । इस स्थितिमें 'मन्त्र' का जप स्वतः होता रहता है - मंत्रके विषयमें ऐसा ही होना चाहिये कि यह एक ऐसी सचेतन किंतु सहज वस्तु बन जाय जो स्वयं चेतनाके मूलतत्वमें अपनेको दुहराता रहे और जिसमें मानसिक आयासकी ओर अधिक जरूरत न रहे । मनके ये सारे सदेह. तथा प्रश्न निरर्थक हैं । होना यह चाहिये कि यह आंतरिक चेतना वहां सदैव बनी रहे और किसी विक्षोभ द्वारा विक्षुब्ध न हों जाय तथा सतत नीरवता, आंतरिक सुख और शांति इत्यादिको कायम रखे, जब कि बाह्य चेतना उसके द्वारा कर्म इत्यादिके लिये आवश्यक या अधिक श्रेष्ठ वस्तु करवाये -- तुम्हें कुछ दिनों तक यह पिछला अन्उभव हुआ, मानों कोई तुमसे अविराम शक्तिके साथ कार्य करवाता रहा और तुम्हें जरा भी थकानका अनुभव नही हुआ ।

 

         यदि तुम यह अनुभव करते हों कि तुम अधिक शांत हों गये हो और समर्पणका भाव अधिक सघन हो गया है तो यह बुरी नही बल्कि एक अच्छी स्थिति है और यदि' इसके द्वारा मन प्रकाशकों ग्रहण करनेवाला एक शून्य कक्ष बन जाय तो और भी अधिक अच्छा । अनुभव ओर अवतरण तैयारीके लिये बहुत अच्छे हैं, परन्तु आवश्यक चीज है चेतनाका परिवर्तन -- यह इस बातका प्रमाण है कि अनुभवों और अवतरणोंका कोई प्रभाव हुआ है । शांतिके अवतरण भी अच्छी चीजे हैं, किन्तु मनकी निरन्तर बढ्ती हुई स्थिर शांति और नीरवता ओर भी अधिक मूल्यवान है । एकबार उनके आधारमें आ जानेपर दूसरी चीजे आ सकती हैं -- साधारणतया एक समयमें एक हीं, प्रकाश या बल और शक्ति या ज्ञान अथवा आनन्द । हमेशा तैयारीकी इन्ही अनुभूतियोंको प्राप्त करते रहना आवश्यक नही है - एक समय ऐसा आता है जब कि चेतना एक नया संतुलन और दूसरी स्थितिको ग्रहण करना प्रारंभ करती है ।

 

*

 

           इसका एकमात्र कारण यह है कि तुम प्राण और मनकी प्रवृत्तियों और संबंधोंमें पूरी तरह उलझे हुए हों । मनुष्यको, पहले पहल यदि सारे समय नही तो जब भी चाहे तब, मन और प्राणको अचंचल बनानेकी शक्ति प्राप्त करनी होगी -- क्योंकि मन और प्राण ही चैत्य सत्ता एवं आत्माको ढक देते हैं और इनमेंसे किसी एक तक पहुँचनेके लिये मनुष्यको उनपर ढेक आवरणमें होकर प्रवेश करना होगा, परन्तु यदि मन और प्राण हमेशा सक्रिय बने रहें और तुम उनकी क्रियाओंके साथ सदा एक बने रहो तो आवरण हमेशा बना रहेगा, यह भी संभव है कि अपनेको इन प्रवृत्तियोंमें अलग कर इन्हें इस रूपमें देखो मानों वे तुम्हारी अपनी क्रिया नहीं पर प्रकृतिकी वह यांत्रिक क्रिया है जिसे तुम एक तटस्थ साक्षीके रूपमें देखते हो । तब व्यक्ति एक ऐसी आंतरिक सत्ताके विषयमें सचेतन हों सकता है जो पृथक्, स्थिर और प्रकृतिमें आसक्त नही होती । यह आंतरिक मनोमय या प्राणमय पुरुष हो सकता है न कि चैत्य-पुरुष, किंतु आंतरि

 

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मनोमय और प्राणमय पुरुषकी चेतनाको प्राप्त करना सदा हीं चैत्य सत्ताके अनावरण- की ओर बढ़नेका एक कदम होता है ।

 

      हां, वाणीका पूर्ण संयम प्राप्त करना अधिक अच्छा होगा - भीतर जानेके लिये और सच्ची आंतरिक एवं यौगिक चेतनाके विकासके लिये यह एक महत्वपूर्ण कदम है ।

 

*

 

       आंतरिक सत्ता आंतर मन, आंतर प्राण और आंतर शरीरको बनी है, चैत्य अन्तर्तम सत्ता है जो अन्य सबको सहारा दती हे । साधारणतया यह पार्थक्य पहले पहल आंतरिक मनमें ही होता है और आंतरिक मनोमय पुरुष प्रकृतिकों अपनेसे पृथक् रूपमें देखते हुए निश्चल नीरव बना रहता है पर यह आंतर प्राण पुरुष आंतरिक अन्नमय पुरुष भी हों सकता है अथवा यह किसी नियत स्थानसे रहित केवल समग्र पुरुषचेतना भी हों सकती है जो संपूर्ण प्रकृतिसे पृथक् होती है । कभी कभी इसका अनुभव सिरके ऊपर होता है पर तब इसे साधारणतया आत्मा कहा जाता हे और उससे होनेवाला साक्षात्कार नीरव आत्माका साक्षात्कार होता है ।

 

*

 

     तुम जिस चेतनाके विषयमें कहते हों गीतामें उसे साक्षी पुरुष कहा गया हैं । पुरुष या मूल चेतना ही सच्ची सत्ता है या कमसे कम, किसी भी भूमिकामे प्रकट होने- पर वह उसका प्रतिनिधित्व करती है । पर मनुष्यकी सामान्य प्रकृतिमे वह अहंकारसे और प्रकृतिकी अज्ञानमयी क्रीडासे ढकी होती हैं और अज्ञानकी क्रीडाको सहारा देंने वाले अगोचर साक्षीके रूपमें पीछेकी ओर छिपी रहती है । जब यह चेतना प्रकट होती है तो तुम इसे पृष्ठ भागोंमें स्थित एक स्थिर और केंद्रीय चेतनाके रूपमें अनुभव करते हों, यह बाहरी क्रीडासे एकाकार नहीं होती जो क्रीड़ा स्वयं इसपर निर्भर करती है वह ऊपरसे ढकी हों सकती है, पर सदा वहां होती अवश्य है । पुरुषका बाहर प्रकट होना मुक्तिका श्रीगणेश है । पर यह धीरे-धीरे महेश्वर भी हों सकता है - धीरे धीरे क्योंकि अहंकारका पूराका पूरा स्वभाव और निम्नतर शक्तियोंकी क्रीड़ा इसकें विरोधमें खड़ी होती है । फिर भी वह आदेश दे सकता है कि किस उच्चतर क्रीडाको इस निम्रतर गतिका स्थान लेना है और उसके बाद यह परिवर्तनकी प्रक्रिया होती है और उच्चतर क्रिया आ जाती है, निम्रतर क्रिया बने रहने और उच्चतर क्रियाको धकेल देनेके लिये संघर्ष करती रहती है । तुम ठीक ही कहते हों कि भगवान्के प्रति आत्मदान इस सारी प्रकियाको सक्षिप्त कर देता है और अधिक प्रभावशाली होता है, किन्तु सामान्यतया इसे पुरानी आदतके कारण एक बारगी पूरी तरह संपन्न नहीं किया जा सकता और दोनों हीं पद्धतियां तबतक साथ साथ चलती रहती है जबतक पूर्ण

 

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समर्पण संभवन हो जाये ।

 

*

 

         पुरुष अपने आपमें निर्व्यक्तिक है, पर प्रकृतिकी क्रियाओंके साथ अपनेको मिश्रित करके वह अपने लिये अहं और व्यक्तित्वकी एक परत चढ़ा लेता है । जब वह अपनी पृथक् प्रकृतिमें प्रकट होता है तब अनासक्त और साक्षी पुरुषके रूपमें दृष्टिगोचर होता

 

*

 

         साक्षी सत्ता सर्वदा बिन्दु रूपमे ही नही रहती । यह एक ऐसी विस्तृत वस्तुका रूप ले लेती है जो शेष सारी गताको सहारा देती रहती है।

 

*

 

         भीतर साक्षी चेतनाका भाव -- मैं यह नही समझता कि इसमें बाह्य चेतनाका बहिष्कार अनिवार्य रूपसे निहित है ही, यद्यपि व्यक्ति यह भी कर सकता है -- प्रगति- मे एक बहुत आवश्यक स्थिति है । यह भाव सामान्य प्रकृतिकी क्रियाओंमें उलझे बिना निम्र प्रकृतिसे मुक्त होनेमें सहायता देता है; यह अन्दर पूर्ण स्थिरता और शांतिकी स्थापनामें मदद करता है, क्योंकि उस अवस्थामें सत्ताका एक ऐसा अंश होता है जो अनासक्त रहता है और सतहकी हलचलोंको बिना विक्षुब्ध हुए देखता है, यह उच्च- चेतनाकी ओर आरोहणमें और उच्चतर चेतनाके अवतरणमें भी सहायता देता है, क्योंकि इस स्थिर, अनासक्त और मुक्त हुई आंतरिक सत्ताके द्वारा हीं आरोहण और अवरोहणकी क्रिया आसानीसे की जा सकती है । और साथ हीं, अन्य लोगोंमें हो रही प्रकृतिकी क्रियाओंपर वही साक्षी दृष्टि बनाये रखना, इन क्रियाओंको देखना, समझना पर उनसे किसी भी प्रकार विचलित न होना, सत्ताको मुक्त करने और विश्वमय बनानेकी दिशामें बहुत भारी सहायता है । संभवत: इसलिये मैं साधकमें इस कियाके होनेके विषयमें आपत्ति नहीं कर सकता ।

 

        समर्पणकी बात यह है कि वह साक्षी भावके साथ असंगत नहीं है । इसके विपरीत सामान्य प्रकृतिसे मुक्त करके यह भाव उच्चतर या दिव्य शक्तिके प्रति समर्पणको अधिक सरल बना देता है । बहुधा जब व्यक्तिने इस साक्षी भावको न अपनाया हों, किन्तु अपने अन्दर कार्य करनेके लिये शक्तिके आवाहनमें सफल हुआ हो तो शक्ति उसके अन्दर सर्वप्रथम जो कार्य करती है वह है साक्षी भावको स्थापित करना जिससे वह निम्रतर प्रकृतिकी क्रियाओंके अपेक्षाकृत कम हस्तक्षेप या मिलावटके साथ अपना कार्य कर सके ।

 

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        अब दूसरोंके साथ संपर्कसे बचनेका प्रश्न बाकी रहता है और उसमें थोडी कठि- नाई या अनिश्चितता है । तुम्हारी प्रकृतिके एक अंगमें अन्य लोगोंसे संबंध बांधने, दूसरोंपर कार्य करने और उनके साथ आदान प्रदान करनेकी ओर तीव्र झुकाव है, यहांतक कि यह आवश्यकता तुम्हें लगभग अनिवार्य लगती है । यह वस्तु आंतरिक एकलताकी ओर अभिमुख होने और संपर्क एवं कार्यकी दिशामें मुड़नेके बीचमें एक डांवांडोल स्थिति उत्पन्न करती है, यहां 'क्ष' के समान अन्य साधकोंमें भी वही दुहरी और उतारचढाववाली क्रिया देखनेमें आती है । ऐसे व्यक्तियोंमें मैं साधारणत: दोनोंमेंसे किसी एक प्रवृत्तिपर ही भार नही देता पर चेतनाको अपना संतुलन खोज लेने- के लिये छोड़ देता हूँ क्योंकि मैंने देखा है कि प्रकृतिके प्रधानत: चिन्तनशील न होनेपर एकातसेवनकी वृत्तिपर बहुत अधिक भार देना भलीभाँति सफल नही होता - निश्चय ही, यह बात तभीतक सत्य है जबतक साधक स्वयं उस प्रकारका दृढ और अटल निश्चय नही कर लेता । तुमने जो अनुभव किया उसका कारण यही हो सकता है । किन्तु साक्षीभाव और समर्पणके बीच कोई प्रश्न नहीं उठता, इसका कारण मैंने स्पष्ट कर दिया है - इनमेंसे एक भाव दूसरेकी भली प्रकार सहायता कर सकता है अथवा उसकी दिशामें प्रेरित कर सकता है क्योंकि हमारा योग ऐसा है जो इन दोनों वस्तुओंको साथमें जोड़े रहता हे और उन्हें सदा ही अलग अलग नहीं रखता ।

 

*

 

         उच्चतर चेतनासे अन्य वस्तुओंकी भांति निश्चल नीरवता भी सबसे पहले आंतरिक सत्तामें ही उतरती है । व्यक्ति स्थिर, नीरव, प्रकृतिकी क्रियाओंसे अछूती, ज्ञान और प्रकाशसे परिपूर्ण इस आंतर सत्ताके विषयमें सचेतन हो सकता है और उसके साथ ही दूसरी अल्पतर सत्ताके अर्थात् उपरितलके उस लघु व्यक्तित्वके विषयमें भी जो प्रकृतिकी क्रियाओंसे बना है अथवा उनके अधिकारमें है या अधिकारमें न होनेपर भी उनके आक्रमणके प्रति खुला है । यह एक ऐसी अवस्था है जिसका अनगिनत साधकों और योगियोंने अनुभव किया है । आंतर सत्ताका अर्थ है चैत्य आंतर मन, आंतर प्राण और आंतर शरीर । वर्तमान अवस्थामें इनमेंसे किसीका भी स्पर्श तक नही प्राप्त हो सकता, इसलिये इसमें शोधनकी क्रिया अनिवार्य रही है । यह आवश्यक नहीं कि सब लोग इन दो चेतनाओंके विभाजनका अनुभव करें ही, पर अधिकतर लोग करते हैं । जब यह अनुभव होता है तो क्यिाका निर्धारण करनेवाला संकल्प आंतर सत्तामें होता है बाह्यमें नही - इसलिये बाह्य सत्तापर प्राणिक क्रियाओं द्वारा होनेवाला आक्रमण इस क्रियाको चालू होनेके लिये किसी भी प्रकार बाध्य नही कर सकता । इसके विपरीत रूपांतरमें यह एक बहुत अनुकूल स्थिति है क्योंकि यह आंतर सत्ता स्वभाबको पूरी तरहसे बदलनेके लिये प्रकृतिकी क्यिासे प्रभावित हुए बिना उसका निरीक्षण करते हुए, जहां भी आवश्यक हो वहां परिवर्तनके लिये शक्तिका प्रयोग करते हुए और मशीन- की तरह समग्र सत्ताको ठीक स्थितिमें रखते हुए उच्चतर प्रकृतिकी संपूर्ण शक्तिको

 

५००


नीचे ला सकती है । यह बात तभी होती है जब कोई रूपांतरकी कामना करे । क्योंकि बहुतसे वैदाती इसे आवश्यक नहीं समझते - वे कहते हैं कि आंतर सत्ता मुक्त है, शेष तो केवल देह प्रधान मानवमें प्रकृतिकी बलवती प्रेरणाकी यंत्रवत् अविराम गति है और वह शरीरके साथ ही समाप्त हो जायगी जिससे व्यक्ति निर्वाणको प्राप्त कर सके ।

 

*

 

        अन्दरसे मुक्त और अलिप्त रहना और प्रकृतिको अपने ऊपर छोड़ देना - यह पुराना वैदांतिक विचार है, जब हम मरते हैं तब पुरुष स्वर्ग जायेगा और प्रकृति, शायद नरकमें जा गिरेगी । यह सिद्धांत अतिमात्र आत्म-वंचना और आत्म-रतिका उद्गम !

 

 

        निश्चय ही, तुम ऊपर-स्थित साक्षी पुरुषकी चेतनाको विकसित कर सकते हों, पर वह यदि केवल एक साक्षी हीं हों और निम्रतर प्रकृतिको अपने निजी पथपर ही चलने दिया जग्य तो फिर ऐसा कोई कारण नही रह जायगा जिससे कि ये अवस्थाएं कभी बन्द हों सकें । बहुतसे लोग इस भावको ग्रहण करते हैं - यह भाव ग्रहण करते हैं कि पुरुष पीछे हटकर अपनेको मुक्त कर ले, और प्रकृतिको जीवनका अंत हों जानेतक अपना निजी व्यापार ज्योत्यों चलाते रहने दिया जाय -- यह तो 'प्रारब्ध कर्म' है; जब शरीरपात हों जायगा तब प्रकृति भी रुक जायगी और पुरुष निराकार ब्रह्ममें समा जायगा! यह एक सुखदायी सिद्धांत है, पर इसके सत्यके विषयमें संदेह ही अधिक है । मैं नही समझता कि मुक्ति इतनी अधिक सरल और सहज वस्तु है । जो हों, हमारे योगका उद्देश्य जौ रूपांतर है वह इसके द्वारा कभी संपत्र नही होगा ।

 

       ऊपर-स्थित पुरुष केवल एक साक्षी ही नही है, बह अनुमति देनेवाला ( या रोक रखनेवाला) भी है; अगर वह प्रकृतिकी किसी क्रियाके लिये अनुमति देना लगातार अस्वीकार करता रहे, अपने-आपको अनासक्त बनाये रखे तोर यदि वह अपने पुराने वेगके कारण कुछ समयतक चलती भी रहे तो भी, कुछ समय बाद वह साधारणतया अपना अधिकार खो बैठती है, अधिकाधिक शक्तिहीन, कम आग्रहशील, कम ठोस हों जाती है और अन्तमें निष्प्राण हो जाती हैं । यदि तुम पुरुष-चेतनाको ग्रहण करो तो वह केवल साक्षी ही नही होनी चाहिये बल्कि अनुमता भी होनी चाहिये, उसे विक्षोभ उत्पन्न करनेवाली क्रियाओंकी स्वीकृति नहीं देनी चाहिये, केवल शांति, स्थिरता, पवित्रता तथा अन्य जो कुछ दिव्य प्रकृतिका अंग है उसे ही अनुमति देनी चाहिये । अनुमति अस्वीकार करनेकी इस बातका निश्चय ही यह अर्थ नही है कि निम्रतर प्रकृतिके साथ संघर्ष किया जाय; यह एक अचंचल, सुदृढ़, अनासक्त अस्वीकृत हो सकतीं है जो प्रकृति- के विरोधी कार्यको, कोई अर्थ या समर्थन दिये विना, कोई सहारा, कोई अनुमति दिये

 

५०१


बिना छोड़ दे ।

 

*

 

        जब कोई मनुष्य नैर्व्यक्तिक आत्माकी खोज करता है तब वह नैर्व्यक्तिक निष्क्रिय आत्माकी नीरवता और पवित्रता तथा अज्ञ प्रकृतिकी क्रियाशीलता इन दो विपरीत तत्त्वोंके बीच विचरण करता है । मनुष्य अज्ञानमयी प्रकृतिको छोड़कर अथवा उसे निश्चल-नीरव बनाकर उच्चतर आत्मामें चला जा सकता है । अथवा, मनुष्य उच्चतर आत्माकी शांति और स्वतन्त्रतामें निवास कर सकता तथा साक्षीरूपमें प्रकृतिके कार्यकार निरीक्षण कर सकता है । फिर मनुष्य प्रकृतिकी क्रियाके ऊपर, तपस्याके द्वारा, कुछ सात्विक नियंत्रण भी लागू कर सकता है; पर नैर्व्यक्तिक आत्मामें प्रकृतिकों बदलने या दिव्य बनानेकी कोई शक्ति नही है । वैसा करनेके लिये मनुष्यको नैव्यक्तिक आत्मा- के परे जाना पड़ता है ओर भगवान्की खोज करनी पड़ती है जो साकार और निराकार दोनों हैं तथा इन दोनों रूपोंसे परे है । फिर भी, तुम यदि नैर्व्यक्तिक आत्मामें निवास करनेका अभ्यास करो और एक प्रकारकी आध्यात्मिक नैर्व्यक्तिकता प्राप्त कर सको तो समता, शुद्धि, शांति अनासक्ति आदि गुण तुममें बढ़ जाते हैं, तुम एक प्रकारकी आत- रिक मुक्तिकी अवस्थामें वास करनेकी शक्ति प्राप्त कर लेते हो जो ऊपरी हलचल या मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृतिके संघर्षसे अछूती रहती है, और जब तुम्हें निर्व्यक्तिक परे जाना होता तथा विक्षुब्ध प्रकृतिको भी किसी दिव्य सत्तामें परिवर्तित करना होता है तब इस अवस्थासे तुम्हें बहुत बड़ी सहायता मिलती है ।

 

         अब भगवान्को अपने कर्म अर्पित करने तथा उससे उत्पन्न प्राणिक कठिनाईकी बातपर आवें : । उस कठिनाईसे बचना संभव नही है -- तुम्हें उसमेंसे गुजरना और उसे जीतना ही होगा । अभी तुम यह प्रयास कर रहे हो ओर परिवर्तनको रोकनेके लिये प्राण अपनी समस्त चंचल अपूर्णताओके साथ खड़ा हो रहा है । तरन्तु तीन बातें हैं जिन्हें तुम इस कठिनाईको हलका करने या घटानेके लिये कर सकते हो

 

      ( 1) इस प्राणिक-भौतिक स्तरसे अपनेको पृथक् कर लो -- इसे एक ऐसी चीजके रूपमें देखो जो तुम नहीं हो; इसे त्याग दो, इसकी मांगों और प्रेरणाओंको अपनी सम्मति देना अस्वीकार कर दो, पर करो खूब स्थिरताके साथ, उस साक्षी पुरुष- के रूपमें जिसकी असम्मति अंतमें अवश्य विजयी होती है । यदि तुमने अधिकाधिक नैर्व्यक्तिक आत्मामें निवास करना सीख लिया है तो ऐसा करना तुम्हारे लिये कठिन नहीं होना चाहिये ।

 

       ( 2) यदि तुम इस नैर्व्यक्तिक भावमें न होओ तब भी अपने मानसिक संकल्प और सम्मति या असम्मति देनेकी उसकी शक्तिका व्यवहार करो,--एक दुखपूर्ण संघर्षके साथ नही, बल्कि उसी रूपमें, शांतिके साथ, कामनाकी मांगोंको अस्वीकार करते हुए करो, जबतक कि समर्थन और सम्मतिके अभावके कारण ये मांगे वापस आनेकी अपनी शक्ति ही न खो दें और धीरे-धीरे क्षीण और बाह्य वस्तु न बन जायं ।

 

५०२


          ( उ) यदि तुम अपने ऊपर या अपने हृदयमें भगवान्को अनुभव करो तो स्वयं प्राणको बदलनेके लिये आवश्यक साहाथ्य, ज्योति और शक्ति प्रदान करनेके लिये वहांसे उन्हें पुकारों, तथा उसके साथ-हीं-साथ तबतक इस प्राणपर भी बार-बार दबाव डालते रहो जबतक कि वह स्वयं भी अपने परिवर्तनके लिये प्रार्थना करना न सीख जाय ।

 

           अतमें, जब तुम भएवानके निमित्त अपनी अभीप्साकी सच्चाई और आत्म- समर्पणके द्वारा अपने अन्दर चैत्य पुरुष (हृदयगुहामें स्थित पुरुष) को जाग्रत कर लोगे जिसमें कि वह आगे आ जाय, बराबर सामने बना रहे तथा मन, प्राण और भौतिक चेतनाकी सभी गतिविधियोंपर अपना प्रभाव डालता रहे, तव यह कठिनाई कम हों जायगी और अपनी सबसे कम मात्रामें ही रहेगी । परन्तु रूपांतरका काम उसके बाद भी करना होगा, उसके बाद वह कार्य उतना कठिन और दुःखदायी नही होगा ।

 

*

 

        स्पष्ट ही नहीं । साक्षि-भावका प्रयोजन यह नहीं है कि उसे अपने दोषोंके उत्तरदायित्वको स्वीकार करनेका और इसी कारण उन्हें सुधारनेसे इनकार करनेका सुविधाजनक साधन बनाया जाय । इसका अस्तित्व आत्मज्ञानके लिये और, हमारे योगमें, एक सुविधाजनक (पृथक् और अनासक्त, होनेके कारण प्रकृतिसे स्वतंत्र) एक ऐसे केन्द्रके रूपमें अभिप्रेत है जहांसे व्यक्ति गलत क्रियाओंको स्वीकृति देनेसे इनकार करके और उनके स्थानपर अन्दर या ऊपरसे सच्ची चेतनाके व्यापारोंको स्थापित करके उनपर अपना कार्य कर सकें ।

 

III

 

          व्यक्तिके योगमें एक बहुत गभीर कठिनाई है एक ऐसे केन्द्रीय संकल्पका अभाव जो प्रकृतिकी शक्तियोंकी लहरोंसे सदा ही ऊपर रहे और प्रकृतिपर अपने केन्द्रीय लक्ष्य एवं अभीप्साको आरोपित करते हुए सदा ही श्रीमांके साथ स्पर्शमें रहे । इसका कारण यह है कि तुमने अपनी केन्द्रीय सत्तामें जीना नही सीखा है; तुम अपनेपर आक्रमण करनेवाली शक्तिकी किसी भी प्रकारकी लहरके साथ दौड पड़नेके और तत्काल हीं उसके साथ तदाकार होनेके आदी रहे हों । यह एक ऐसी वस्तु है जिसे भूलना होगा; तुम्हें चैत्यके आधारपर स्थित अपनी केन्द्रीय सत्ताको खोजना और उसमें निवास करना होगा ।

 

*

 

           जबतक मन उछलकूद करता रहता है अथवा बाहरकी वस्तुकी ओर दौड़ता रहता है तबतक अन्तर्मुख, अन्तरमें समाहित और सचेतन होना संभव नही है ।

 

*

 

५०३


        अपनी केन्द्रीय-चेतनाके विषयमें सचेतन होना और शक्तियोकी क्यिाको जानना आत्म-प्रमुत्चकी ओर पहला निश्चित कदम है ।

 

        इसके ( चेतनाके) दोनों ही अर्थ है । व्यक्तिको अपनी सारी अवस्थाओं, किया- ओ और उन्हें उत्पन्न करनेवाले कारणों और प्रभावोंके विषयमें सचेतन होना चाहिये एवं भगवान्के - उनकी स्मृति, उपस्थिति, शक्ति, शांति, प्रकाश, ज्ञान और प्रेम, आनन्द- के विषयमें भी सज्ञान होना चाहिये ।

 

*

 

         अनासक्ति प्रभुत्वका प्रारंभ है, किन्तु पूर्ण प्रभुत्वके लिये सत्तामें कोई भी प्रतिक्रियाएं नहीं होनी चाहिये । अन्दर जब कोई वस्तु प्रतिक्यिाओंसे अविचल रहती है तो इसका अर्थ यह है कि आंतर सत्ता मुक्त और अपनी स्वामिनी हो गई है, परन्तु अभी समग्र प्रकृतिकी स्वामिनी नही । जब वह स्वामिनी हो जाती है तो वह किन्हीं अशुद्ध प्रतिक्रियाओंको अन्दर नहीं आने देती - यदि इनमेंसे कोई प्रतिक्रियाएं आती भी हैं तो उन्हें तुरन्त धकेलकर बाहर फेंक दिया जाता है और अन्तमें फिर उनमेंसे कोई भी नही आती ।

 

*

 

       तुम्हें अपनेको अपने अन्दर अधिक दृढ़ताके साथ समेटना चाहिये । तुम यदि अपनेको निरन्तर बिखेरते रहो, अन्दरके घेरेसे बाहर निकलते रहो तो तुम सामान्य बाह्य प्रकृतिकी क्षुद्रतामें और उन प्रभावोंके आधीन जिनके प्रति. वह खुली हुई है, विचरते रहोगे । अन्तरमें निवास करना सदा ही अंतरसे अर्थात् श्रीमांके साथ लगातार संबंध- मे रहते हुए कार्य करना सीखो । पहले पहल इसे नित्यप्रति और पूर्ण रूपसे करना कठिन हो सकता है पर यदि हम लगे रहें तो इसे संपादित किया जा सकता है - और इसी किमतपर, ऐसा करना सीख फरा ही, हम इस योगमें सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं ।

 

*

 

        अवश्य ही तुमने किसी कारणवश अपनेको बहुत अधिक बहिर्मुख कर लिया है । एकमात्र आंतर चेतनामें निवास करते हुए और वहींसे सब कुछ करते हुए सच्ची चैत्य स्थिति कायम रखी जा सकती है । अन्यथा यह अन्दर चली जाती है और बाह्य चेतना उसे ढंक देती है । वह खो नहीं जाती, पर छीप जाती है - इसे फिरसे पानेके लिये हमें अन्तर्मुख होना होगा ।

 

 

*

 

५०४


       प्राणकी भूतकालीन आदत कारण हीं तुम्हें बारंबार सत्ताके बाहरी हिस्सोंमें जाना पड़ता है; तुम्हें अडिग रहना चाहिये और इससे उलटी अपनी सच्ची सत्तारूप आंतर सत्तामें निवास करनेकी और वहींसे प्रत्येक वस्तुका अवलोकन करनेकी आदत डालनी चाहिये । इसीमेंसे तुम वस्तुओंके एवं स्वयं अपने और अपनी प्रवृत्तिके संबंध- मे सच्चा विचार, सच्ची दृष्टि और सच्ची समझ प्राप्त करते हों ।

 

*

 

          हां, जय व्यक्ति सही चेतनामें निवास करता है, तब ठीक क्रिया ही होती है, सच्चा सुख प्राप्त होता है, प्रत्येक वस्तु सत्यके साथ सुसंगत होती है ।

 

          गलत चेतना होनेपर, मांग, असंतोष, संदेह, सब प्रकारका विसंवादी उत्पन्न होता है ।

 

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          भेद तव उत्पन्न होता है जय कोई वस्तु आन्तर मनसे और केवल बाहरी मस्तिष्कसे की जाती है । तुम जो अनुभव कर रहे हो तो बह है आन्तर मनका कार्य- को अपने हाथमें लेना - तब यह चेतनाका अंग बन जाता है और तुम्हें वस्तुओंका वास्तविक बोध प्राप्त हो जाता है - बाह्य मनका कार्य हमेशा कठिन और उथला होता है ।

यह प्रत्यक्ष हैं कि तुम्हारे अन्दर आंतर सत्ता अधिकाधिक आगे आ रही है । ज्यों ज्यों यह आगे आयेगी त्यों त्यों कठिनाइयां उत्तरोत्तर बाहर धकेल दी जायेंगी और चेतना शांति और शक्तिको पहले इसके अधिक विस्तृत भागमें और बादमें सारी- की सारी सत्तामें कायम कर देगी ।

 

        हां, यह सब ठीक है । प्रधानत: बाह्य पद्धतिपर भरोसा रखनेसे बहुत अच्छी सफलता नहीं मिलती । केवल आंतर संतुलन प्राप्त करनेपर ही बाह्य किया वस्तुत: असर कारक होती है और तव यह क्यिा स्वयं ही संपन्न हो जाती है ।

 

*

 

          यह अच्छा है । सच्ची वस्तुपर अर्थात् आंतर सत्ता और आंतर जीवनमें अपनी एकाग्रता लगाये रहो । ये सब बाह्य वस्तुएं कम महत्वकी हैं और आंतर जीवनके भली प्रकार प्रतिष्ठित होनेपर ही उन अवरोध करनेवाली कठिनाइयोंका सच्चा समाधान प्राप्त

 

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हो सकता है । तुमने इस बातको अन्तर्मुख होनेपर कितनी ही बार देखा है । बाह्य वस्तुओंके विषयमें मानसिक रूपसे अत्यधिक व्यस्त रहना मनको बहुमुखता बनाये रखता हे । अंतरमें निवास करनेपर तुम धीमाको अपनइ पास पाओगे ओर उनकी इच्छा और क्रियाका साक्षात् अनुभव कर सकोगे ।

 

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          कठिनाई यह है कि तुम ऐसी वस्तुओंको बहुत महत्व देते हों जिनका बहुत कम मूल्य है । तुम इस प्रकार व्यवहार कर रहे हों मानों मेज़ मिलना या न मिलना कोई अत्यधिक महत्वकी बात है और इस मामलेके सही या गलत होनेके विषयमें तुम अपने- को चिंतित और उत्तेजित कर लेते हो जिनसे तुम अपने मनकी संपूर्ण शांतिको गड़बड़ा देते हो और अपनेको सच्ची स्थितिसे गिरा देते हो । ये बातें तुच्छ हैं और सापेक्ष महत्व ही रखती है -- तुम्हें नई मेज़ मिल सकती है या नही भी, इन दोनोंमें किसीका भी कोई बहुत बड़ा महत्व नहीं हैं और तुम्हारे अन्दर भगवान्के उद्देश्यकी दृष्टिसे, इससे कोई फर्क नही पड़ता, एक ही वस्तु अर्थात् हिथरता, शांति और दिव्य शक्तिके अवतरण- को बढ़ाना, समता एवं आंतरिक प्रकाश एवं चेतनामें उन्नत होना महत्वपूर्ण है ! बाह्य वस्तुओंको अत्यन्त शांतावसे करना चाहिये, आवश्यक कार्योंको करते रहना चाहिये पर किसी वस्तुके विषयमें अपनेको विक्षुब्ध या उत्तेजित नही करना चाहिये । केवल इसी तरह तुम स्थिरता और तेजीसे आगे बढ़ सकते हो । जब तुम अपने आसपास श्रीमांकि शक्तिका, अपने चारों ओर बहुत ही निकट, शांतिका अनुभव करते हों तो वह एक महत्वपूर्ण वस्तु है - बाहरकी इन छोटी छोटी बातोंको सैकडो विभित्र तरीकोंसे निबटाया जा सकता हैं, वस्तुत: इसका कोई महत्व नही ।

 

IV

 

      'क्ष' संबंधी स्वप्न अवश्य हीं अवचेतन प्राणमेंसे पुरानी क्रियाके बचे खुचे अंशों- की सफाईकी प्रक्रियाके सतत जारी रहनेका सूचक था ।

 

           जिस अनुभव अर्थात् निस्तब्धता मन और प्राणकी शून्यता तथा विचारों और अन्य क्यिाओंके बन्द होनेका तुम वर्णन करते हों वह समाधिकी उस स्थितिका प्रारंभ था जिसमें चेतना अन्दरकी ओर एक गहरी निस्तब्धता और निश्चल-नीरवतामे चली जाती है । यह अवस्था आंतर अनुभूति, साक्षात्कार और वस्तुओंके अगोचर सत्यके दर्शन- के लिये अनुकूल है, यद्यपि इन्हें कोई शक्ति जाग्रत अवस्थामें भी प्राप्त कर सकता है । यह निद्रा नही बल्कि एक ऐसी अवस्था है जिसमे व्यक्ति अपनेको पहलेकी तरह बाहर नही पर अन्दर अनुभव करता है ।

 

        तुमने अपने हृदयमें जो हीरा देखा वह श्रीमांकि चेतनाके प्रकाशकी एक रचना था - क्योंकि श्रीमांका प्रकाश सफेद और बहुत अधिक तीद होनेपर हीरे जैसा चम-

 

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कीला होता है । प्रकाश. तुम्हारे हृदयमें श्रीमांकि उपस्थितिका सूचक है और तुमने उसे हीं एक बार देखा और क्षणभर अनुभव किया ।

 

       पुस्तक या समाचार पत्र पढनेकी अक्षमताका प्रायः तब अनुभव होता है जब चेतना मे अंतर्मुखी होनेकी वृत्ति हौदा हो रही होती हैं ।

 

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         तुम्हें जो अनुभव हुआ है वह अवश्य ही चेतनाका अन्तर्मुख होना है जिसे साधारण- तया ' 'समाधि' ' कहा जाता है । तथापि इसका सबसे अधिक महत्वपूर्ण अंग है मन और प्राणकी वह नीरवता जो शरीरकी ओर भी पूरी तरह फैली हुई है । इस नीरवता और शांतिको समा लेनेकी क्षमता प्राप्त करना साधनाका सबसे अधिक महत्वपूर्ण कदम है । यह अनुभव सबसे पहले ध्यानके अन्दर आता है और चेतनाको अन्दरकी ओर समाधिमे फेंक देता है, परन्तु आगे जाकर इसे जाग्रत अवस्थामें भी लाना होगा और संपूर्ण जीवन और कार्यके स्थायी आधारके रूपमें अपनेको प्रतिष्ठित करना होगा । आत्माके साक्षात्कार और प्रकृतिके आध्यात्मिक रूपांतरकी यही शर्त है ।

 

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     1 - नहीं, यह निद्रा नही थी । तुम अन्दर आंतरिक चेतनामें चले गये थे; इस आंतर चेतनामें हम अन्दरसे जाग्रत होते हैं, बाहरसे नही, केवल आंतरिक वस्तुओंसे ही सचेतन होते हैं बाह्य वस्तुओंसे नही । तुम्हारा बाह्य मन जिस कार्यको करने अर्थात् चंचलता उत्पन्न करनेवाले विचारों और सुझावोंपर क्रिया करके उन्हें ठीक करनेकी, चेष्टा कर रहा था, उसी कार्यमें तुम्हारी आंतरिक चेतना भी व्यस्त थी, यह कार्य बाह्य मनकी अपेक्षा आंतरिक चेतना द्वारा बहुत ही अधिक सरलतासे किया जा सकता

 

     2. जहांतक करने योग्य आवश्यक कार्यका प्रश्न है, वे तुम्हारे अपने मानसिक प्रयासकी अपेक्षा अवतरित होती हुई (ठोस शक्तिको लाती हुई) शक्ति कौर शांतिके द्वारा बहुत आसानीसे किये जा सकते हैं ।

 

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           इसका कोई कारण नही कि तुम्हारे अन्दर निद्राके समय ज्वलन्त अभीप्सा न हों, बशर्ते कि तुम नीदमें सचेतन रहो । वास्तवमें तुम जिस अवस्थाकर वर्णन करते हों वह निद्रा नहीं थी - बात केवल इतनी थी कि चेतना (अन्दर) एक प्रकारकी अंतर्मुखी अवस्था (एक प्रकारकी अर्द्धसमाधि) मे भीतर जानेका यत्न कर रहीं थी जब कि बाह्य मन निरन्तर उसमेंसे बाहर निकलता रहता था । यदि तुम इस अंतर्मुखी अवस्थामे

 

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प्रवेश करो तो तुम्हें जो प्राप्त होता है वह स्वप्न नहीं किंतु आध्यात्मिक अनुभूतियां अथवा सूक्ष्मदर्शन या चेतनाके अन्य अतिभौतिक स्तरोंके अनुभव हैं । तुम्हारी ज्वलंत अभीप्सा ठीक ऐसी ही आध्यात्मिक अनुभूति थी ।

 

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       तुम्हारे अनुभवोंके संबंधमें

 

     1. ध्यान करते समय तुम्हें जो निद्राका अनुभव हुआ वह निद्रा नही परन्तु चेतना- की अंतर्मुखी अवस्था थीं । जब यह अवस्था बहुत गहरी नहीं होती तो मनुष्य ऐसे विभिन्न दृश्यों, आवाज़ों इत्यादिके विषयमें सचेतन हो सकता है जिनका संबंध भौतिक भूमिकासे नहीं किंतु चेतनाकी आंतरिक भूमिकासे होता है - उनका महत्व या सत्य (इस भूमिका पर निर्भर करता हे जिसपर व्यक्ति पहुँचता है । सतहपर आनेवाली इन वस्तुओंका कोई महत्व नही और व्यक्ति जब तक अधिक गहराईमें न पहुँच जाय तब तक उसे उनमें- से गुजर भर जाना होगा।

 

    2. भय, क्रोध, अवसाद, आदि जो भाव नाम जप करते समय ऊपर आ जाया करते थे ३ उस प्रकृतिके प्राणिक प्रतिरोधसे (यह प्रतिरोध हरेकमे पाया जाता है) उत्पन्न होते थे । यह प्रकृति इन्हें प्राणिक भागपर उसे बदलनेके लिये डाले गये उस दबावके कारण ऊपरकी ओर फेंकती थी जो साधनामें स्वभावत: ही आया करता एवं । ये प्रतिरोध ऊपर आते हैं और फिर व्यक्तिके सच्चा भाव ग्रहण करनेपर देर या सबेरमें दूर हो जाते हैं । व्यक्तिको एकाग्रता और साधनामें दृढ़तापूर्वक लगे रहकर तबतक उनका निरीक्षण करना और अपनेको उनसे पृथक् रखना होता है जबतक प्राण शांत और निर्मल न हो जाय ।

 

     3. जिन (चन्द्र, आकाश, आदि) वस्तुओंको तुमने देखा उनका कारण है अंतर्दर्शनका उद्घाटन, यह साधारणतया तब होता है जय एकाग्रता उस आंतर चेतनाको खोलना शुरू करती है जिसका यह सूक्ष्म दर्शन एक अंग है । आंतर सत्ताके विकासमें सूक्ष्मदर्शनकी इस क्षमताका अपना महत्व है, और इसे अनुत्साहित नहीं करना चाहिये, यद्यपि आरंभिक अवस्थामें देखी गई चीजोंको बहुत अधिक महत्व नहीं प्रदान करना चाहिये।

 

      4. तो भी कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो बढ़ते हुए आध्यात्मिक अनुभवके अंग है, जैसे कि वह सूर्य जिसका तुमने सिरके ऊपर दर्शन किया और सुनहरे प्रकाशका पिण्ड भी -खां।इ[ ये आंतरिक उद्घाटनके चिह्न हैं और प्रतीकात्मक हैं । दोनों ही दिव्य सत्य एवं प्रकाशके तथा उनके प्रभावकी एक हीं कियाके प्रतीक हैं ।

 

     5. तथापि सबसे अधिक महत्वपूर्ण अनुभव उस शांति और अचंचलताका है जो सम्यक् एकाग्रतासे आती है । इसे हीं मन, प्राण और शरीरमें ?? और स्थिर होना होगा - क्योंकि ये शांति और अचंचलता ही साधनाके लिये दृढ आधारका निर्माण करती हैं ।

 

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            ये सारे विचार और प्रभाव वस्तुत: बाहरसे, वैश्व-प्रकृतिमेंसे आते हैं-वे हमारे अन्दर कुछ रचनाएं बनाते हैं अथवा व्यष्टिगत सत्तासे अभ्यस्त उत्तर पाते है । अस्वी- कार कर दिये जानेपर वै बाह्य प्रकृतिमें वापिस चले जाते हैं और यदि कोई सचेतन हो जाय तो वह उन्हें बाहरसे आते हुए और अन्दर फिरसे स्थान पानेकी या पुराने उत्तरको फिरसे उकसानेकी चेष्टा करते हुए अनुभव कर सकता हैं । व्यक्तिको दृढ़तापूर्वक उनका तबतक अस्वीकार करना होगा जबतक और अधिक जवाबकी संभावना न रहे । यदि कोई ऐसी आंतरिक शांति, विशुद्धि और नीरवता स्थापित की जा सके जिससे ये वस्तु उसे छूनेमें समर्थ हुए बिना ही पीछे हट जाये तो इसका वेग बढ़ सकता है ।.

 

         2. जो लोग योग करते हैं प्रारंभमें उन सभीके सामने यह बाधा समान रूपसे आती है । निद्रा वृत्ति इन दो तरीकोंसे क्रमश: दूर हों जाती है : (अ) अभीप्साकी अग्निको तीब्र बनानेके द्वारा (ब) निद्राके स्वयं ऐसी स्वप्न-समाधि बननेके द्वारा जिसमें व्यक्ति उन आंतर अनुभवोंके विषयमें सचेतन होता है जो स्वप्त नही होते ( अर्थात् जाग्रत चेतना थोडे समयके लिये खो जाती है पर उसका स्थान निद्रा नहीं परन्तु एक ऐसी आंतरिक सचेतन स्थिति ले लेती है जिसमें व्यक्ति अतिभौतिक या मानसिक या प्राणिक सत्तामें विचरण करता है) ।

 

      3. निद्रामें आनेवाली अचेतनाके विषयमें यह सर्वथा सामान्य अवस्था है । निद्रामें सचेतनता केवल जाग्रत स्थितिमें सच्ची चेतनाके विकासके द्वारा ही क्रमश: स्थापित की जा सकती है ।

 

       4. हत्पद्य ओर हृदयकेन्द्र एक ही हैं ।

 

       5. वह मूर्त रूपकमाला जिसका तुम प्रयोग करते हों, अवतरणके लानेमें सहायता दे सकतीं है ।

 

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       जहांतक इस स्वप्नका प्रश्न है, यह स्वप्त नहीं था पर सचेतन स्वप्तावस्थामें ' 'स्वप्त समाधि' ' मे आंतर सत्ताका एक अनुभव था । सुन्न हो जाना और चेतनाको लगभग खेनों जैसा अनुभव, दोनों सदा ही उस शक्तिके दबाव या अवतरणके कारण होते हैं जिसका शरीर आदी नहीं होता पर जिसे वह प्रबलरूपसे अनुभव करता है । जिसपर सीधा दबाव पडू रहा था वह भौतिक शरीर नहीं था, किंतु वह सूक्ष्म शरीर था जिसमें आंतर सत्ता अधिक अन्तरंग रूपमें निवास करती है और जिसमें यह निद्रा या समाधिमें अथवा मृत्युके समय बाहर जाती है । परन्तु भौतिक शरीर इन सजीव अनुभवोंमें ऐसा अनुभव करता है मानों यह अनुभव वह स्वयं कर रहा हो; इसमें सुन्न होना दबावका प्रभाव था । समग्र शरीरपर दबावका अर्थ होगा समग्र आंतर चेतनापर दबाव, शायद किसी ऐसे लोटे या बड़े परिवर्तनके लिये जो इसे ज्ञान या अनुभवके लिये अधिक तैयार कर देगा; तीसरी या चौथी पसली ऐसे प्रदेशको सूचित करती है जिसका संबंध प्राण-प्रकृतिके, प्राण-शक्तिके प्रदेशके साथ ,है, वहां परिवर्तन करनेके लिये थोड़ा

 

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दबाव पड़ रहा है ।

 

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        इस प्रश्नकी आवश्यकता नही है । इस स्थितिमें तुम्हें केवल अनुभवोंका निरीक्षण और उनके तात्पर्यका अवलोकन करना चाहिये । अनुभवोंके केवल प्राणिक क्षेत्रमें होनेपर ही संभवत: उनमेंसे कुछ अनुभव मिथ्या रचनाएं हों सकते हैं । जिनके विषयमें तुम लिखते हों वे खुलती हुई यौगिक चेतनाके सामान्य अनुभव मात्र है और तुम्हें उन्हें सीधे-सरल रूपसे समझना होगा ।

 

        इस अनुभवमें तुच्छ उपरितलीय प्राण टूटकर उस कच्चे या आंतरिकप्राणके विस्तारमें फेल गया है जो तुरन्त उच्चतर चेतना, उसकी शक्ति, प्रकाश और ने आनन्द- की ओर उद्घाटित हों सकता है । इसी प्रकार तुच्छ भौतिक मन और इन्द्रियमी टूटने लगे हैं और आंतरभौतिक चेतनामें विस्तृत होने लगे हैं । आंतरिक भूमिकाएं नित्य ही विस्तृत होती हैं और वैश्व-भूमिकाकी ओर खुली होती हैं, बाह्य उपरितलीय भाग अपने अन्दर बन्द होते हैं एवं संकीर्ण और अज्ञानयुक्त व्यापारोंसे भरे होते हैं ।

 

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         तुम्हारे अनुभवोंकी बीच बीचमें अन्तराल युक्त सुखाल जिस सतत विकासको प्रदर्शित करती हे उसके कारण बहुत रोचक लगती है. । ये दो नये महत्वपूर्ण तत्व अनुभवके पहले तत्वमें और जुड गये हैं । पहला है पेटके गढेसे - अर्थात् नाभिके ऊपरसे, स्वयं यह क्रिया ठीक नाभिमेंसे, उसके नीचेके भागमेंसे भी, प्रारंभ होती हे -- चेतनाके ऊपर धंस आनेका स्थान सुनिश्चित हो जाना । नाभिकेन्द्र ( नाभिपद्य) केन्द्रित हुई प्राणिक चेतनाका प्रधान पीठस्थान (सक्रिय केन्द्र) है जिसका विस्तार हदयके ( भाव- मय) स्तरसे लेकर नाभिके नीचेके केन्द्रतक (निम्रतर प्राण, संवेदनामय कामना- केन्द्रतक) है । ये तीनों प्राणिक सत्ताके प्रदेश हैं । इसलिये यह स्पष्ट है कि तुम्हारी आंतर प्राणिक सत्ताको ही यह अनुभव हुआ, और बहुत करके इस समय समग ( अथवा अधिकांश) प्राणिक सत्ता जाग्रत थीं और इसमे हिस्सा ले रही थी इसीलिये उसमें इतनी तीव्रता और उत्कटता थी । स्वयं अनुभव मूलत. आन्तरात्मिक था, परन्तु प्रकट होते समय उसे तीब्र भावप्रधान प्राणिक रूप दे दिया गया । इसे पूरा करनेके लिये, मैं इसमे और बढ़ा सकता हूँ कि चैत्यका केन्द्र हदयके पीछे है और विशुद्ध आवेगोंके द्वारा ही चैत्य बाहर आनेका मार्ग बहुत आसानीसे प्राप्त कर सकता है । हदयसे ऊपरका सबकुछ मनोमय-प्राणिक प्रदेशसे जुड़ा हुआ है और उससे ऊपर मन अपने तीन केन्द्रोंके साथ स्थित है । एक तो है कण्ठमें (बाहर जानेवाला या बहिर्मुख करनेवाला मन), दूसरा आंखोंके बीचमें या बल्कि माथेके मध्यमें (सूक्ष्मदर्शन और संकल्पका केन्द्र) और तीसरा उससे ऊपर, मस्तिष्कके साथ संपर्क करनेवाला वह केन्द्र जो सहस्रदलपद्य कहलाता हैं, ओर जिसमे ऊपरकी महत्तर मानसिक भूमिकाओंके साथ ( आलोकित

 

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मन, संबोधि और अधिमानसके साथ) संबंध बांधनेवाली सर्वोच्च विचार और बुद्धि क्रेंद्रित हैं ।

 

          दूसरी नवीन महत्वपूर्ण विशेषता है आंतर मनकी आत्माभिव्यक्ति; क्योंकि तुम्हारा आंतर मन ही प्राणिक सत्ताके चैत्य अनुभवकी निगरानी, निरीक्षण और समीक्षा कर रहा था । अपनी सत्तामें यह स्पष्ट विभाजन तुम्हें आश्चर्यजनक लगा, परन्तु एक बार यह पूरी तरह जान लेनेपर कि सत्ताके विभिन्न भागोंका इस प्रकार विभक्त हो सकना बिलकुल सामान्य बात है तो फिर यह तुम्हें विचित्र नही लगेगा । उपरि- तलीय प्रकृतिमें, मन, चैत्य, प्राण, भौतिक भाग सब खिचड़ी हों गये हैं । और हमारी प्रकृतिकी गठनको तथा इन भागोके पारस्परिक एव अन्त क्रियाको खोजनेके लिये अंत: निरीक्षण आत्मविश्लेषण ओर सूक्ष्म अवलोकनकी एवं विचार-सूत्र, भाव और प्रवृत्तिके सुलझानेकी तीव्र शक्तिकी आवश्यकता है । परन्तु जब व्यक्ति तुम्हारी तरह अन्दर जाना है तो हम सतहपर हीं इस सारी क्रियाके उद्गमको पा लेते हैं और यह देखते हैं कि उसमें हमारी सत्ताके अंग बिलकुल पृथक् और एक दूसरेसे स्पष्टतया भिन्न हैं । हम उन्हें अन्दर वस्तुत. पृथक् सत्ताओंके रूपमें अनुभव करते है और जैसे किसी समूहबद्ध काममें दो व्यक्ति कर सकते हैं वैसे हीं वे भी एक दूसरेका अवलोकन, आलों- चना, सहायता या विरोध और दमन करते देखे जाते हैं, यह ऐसा है मानो हम समूह- सत्ता हैं, समूहके प्रत्येक सदस्यका अपना अलग स्थान और कार्य हैं, और सब उस केंद्रीय सत्ताके द्वारा संचालित होते है जो कभी तो अन्य सत्ताओंसे ऊपर स्थित होकर सामने आ जाती है और कभी परदेके पूछिए चली जाती है । तुम्हारी मानसिक सत्ता प्राणका निरीक्षण कर रहीं थीं और उसकी उग्रताके विषयमें बिलकुल निश्चलन नही थी, क्योंकि मानसिक सत्ताका स्वाभाविक आधार है स्थिरता, चिंतनशीलता, संयम, नियंत्रण और समता, जबकि प्राणकी स्वाभाविक वृत्ति है सक्रियता, भावावेग, संवेदन और क्यिासे ऊर्जाको झोंक देना ।. इसलिये सब कुछ पूरी तरह स्वाभाविक और व्यव- स्थित था ।

 

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        तुम्हारे अनुभवकी व्याख्या सीधीसी है । निम्रतर (प्राणिक और भौतिक) सत्ता चिंतनशील मन और उच्चतर प्राणसे उस प्रभाव (पीले मानसिक प्रकाश) को प्राप्त कर रही थी जो पुरानी अभ्यस्त निम्रतर प्राणकी प्रतिक्रियाओंको उसमेंसे साफ कर रहा था. साधनामें बहुधा मनुष्य आन्तरिक सत्ताको बाह्य सत्ताके साथ अथवा मन या उच्चतर प्राणको निम्नतर मन या प्राणके साथ बातचीत करते हुए अनुभव करता है जिससे कि वह उसे आलोकपूर्ण कर सके ।

 

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      महत्वपूर्ण अनुभव है हृदयमें श्वेत किरणका आना - श्वेत प्रकाश और प्रकाश द्वारा हदयका आलोकित होना इस साधनामें एक महान् शक्तिसंपन्न वस्तु है । जिन अन्त: स्कुरणाओंके विषयमें वह कहती है वे उसमें विकसित होती हुई आंतर चेतनाके चिह्न है - उस चेतनाके जो योगके लिये आवश्यक है ।

 

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       जिन तीन अनुभवोंका तुमने वर्णन किया है वे सबके सब तुम्हारे आध्यात्मिक जीवनकी एक ही गति या एक ही अवस्थासे सबद रखते हैं । वे तुम्हारे अन्तःपुरुष सज्ञान होनेके लिये चेतनाकी प्रारंभिक गतियां हैं । जैसा कि अधिकतर मनुष्योंमें होता है, यह अन्तःपुरुष तुममें बाह्य जागरित पुरुषके पीछे छिपा था । हम कह सकते हैं कि हममें दो पुरुष हैं, एक तो उपरितलपर, हमारा साधारण बाह्य मन, प्राण और शरीर-चेतना, दूसरा पर्देके पीछे, आंतर भन, आंतर प्राण और आंतर शारीरिक चेतना जो एक अन्य या आंतर पुरुष हैं । यह आंतर पुरुष एक बार जागरित होकर यथाक्रम हमारी सच्ची वास्तविक सनातन आत्माकी ओर सूलता है । एक तो यह खुलता है भीतर, अन्तरात्माकी ओर जिसे इस योगकी भाषामें चैत्य पुरुष कहते हैं और जो हमारे क्रमिक जन्मोंका आधार है तथा प्रत्येक जन्ममें नया मन, प्राण एवं शरीर ग्रहण करती है । दूसरे, यह खुलता है ऊपरकी ओर,-अज आत्मा या आत्मतत्वकी ओर । उसकी सचेतन प्राप्तिसे हम परिवर्तनशील व्यक्तित्वका अतिक्रम कर अपनी प्रकृतिपर पूर्ण प्रभुत्व एवं स्यातंम्य अधिगत कर लेते हैं ।

 

         तुमने जो पहले पहल सात्त्विक गुणोंका विकास तथा अन्तरीय ध्यानात्मक शमकी प्रतिष्ठा की सो बिलकुल ठीक ही किया । इस प्रारंभिक आत्मानुशासनको पूरा करने अथवा शुरू करनेसे भी पहले आयासपूर्ण ध्यानसे या कतिपय उत्कट-प्रयत्नशाली विधियोंसे अंतःपुरुषके किवाड़ खोलना अथवा आंतर और बाह्य आत्माके बीचकी कुछ एक दीवारें तोड़ गिराना भी संभव है । किंतु ऐसा करना सदा बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होता, क्योंकि इसके परिणामस्वरूप साधनामें ऐसी अवस्थाएं आ सकती हैं जो अत्यंत कलुषित, अस्तव्यस्त और वृथा संकटपूर्ण होती हैं । तुम अधिक धीर पथ अपना करके ऐसी अवस्थामें पहुँच गये हो जिसमें अन्तःपुरुषकी द्वार लगभग स्वयमेव खुलने लग पड़े हैं । अब दोनों प्रक्रियाएं साध साथ चल सकती हैं । किंतु यह आवश्यक हैं कि तुम सात्त्विक अचंचलता, धीरता तथा जागरूकता बनाये रखो,-किसी चीजके लिये जल्दी मत मचाओ, किसी चीजके लिये जबर्दस्ती न करो, जो मध्यवर्ती अवस्था इस समय प्रारंभ हो रही है उसके किसी प्रबल प्रलोभन या पुकारके कारण मार्गसे विचलित न होओ जब तक तुम्हें यह निश्चय ही न हो जाय कि यह सही पुकार हैं । कारण, आत- रिक स्तरोंकी शक्तियोंसे ऐसे अनेक प्रबल आकर्षण प्राप्त होते हैं जिनका अनुसरण करना निरापद नहीं होता ।

 

         तुम्हारे प्रथम अनुभवका अभिप्राय है आंतर मनोमय पुरुषकी ओर उद्घाटन !

 

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भ्रूमध्य -प्रदेश आंतर मन, दृष्टि और संकल्पका केंद्र है और तुमने जो नीले रंगका प्रकाश देखा वह उच्चतर मानसिक स्तरका प्रकाश था; अथवा यों कह सकते हैं कि वह उस आध्यात्मिक मनका प्रकाश था जो साधारण मानवीय मानसिक बुद्धिसे परे हे । इस उच्चतर मनकी और उद्घाटनके साथ ही बहुधा साधारण मानसिक बिचारकी निस्तब्धता भी प्राप्त होती है । हमारे विचार वास्तवमें हमारे भीतर स्वतंत्र रूपसे हमारी इस मन-नामक छोटीसी संकीर्ण चिंतनशील मशीनमें पैदा नहीं होते । असलमें वे हमारे पास विशाल मानसिक व्योम या आकाशसे मानस-तरंगों या मानस-शक्तिकी तरंगोंके रूपमें आते हैं । वे तरंगें कोई भाव धारण किये होती हैं जो हमारे व्यक्तिगत मनमें आकर रूप ग्रहण कर लेता है । अथवा वे विचार ऐसी तैयार विचार-रचनाओंके रूपमें आते हैं जिन्हें हम अंगीकार कर लेते हैं और फिर अपनी मानने लगते हैं । हमारे बाह्य मनको प्रकृतिकी इस प्रक्रियाका कुछ पता नहीं होता; परंतु आंतर मनके जाग जानेपर हम इससे अभिज्ञ हों सकते हैं । तुमने जो देखा वह यहीं कि विचारोंके सतत आक्रमणका प्रभाव क्षीण हों रहा है तथा वें पीछे हट रहे है और विचार-रचनाएं मनोमय विश्व प्रकृतिके विस्तृत प्रदेशके क्षितिजसे दूर भाग रही हैं । तुमने यह क्षितिज कही अपने अन्दर ही अनुभव किया किंतु स्पष्ट ही यह उस विस्तीर्णपर आत्मप्रदेशमें था जिसे तुमने उसके अधिक सीमित भ्रूमध्य-प्रदेश भरमें भोग सत्संबंधी स्थूल स्थान की अपेक्षा अधिक बड़ा अनुभव किया । वस्तुत: आंतर मनके प्रदेशोंके भी क्षितिज होते हैं पर वे प्रदेश उन ज्ञितिजोंसे परे -- अनन्त दूरी तक - फैल होते हैं । आंतर मन अतिविशाल वस्तु है । वह अपनेको अनन्तके भीतर प्रसारित करता और अंतमें विश्वव्यापी परम मनकी अनंतताके साथ अपने आपको एकाकार कर लेता है । जब हम बाह्य स्थूल मनकी तंग चौहद्दीसे बाहर निकलते हैं तो हम भीतर देखने तथा इस प्रकारकी विशालता अनुभव करने लगते हैं और अंतमें मानस आकाशकी ऐसी विश्वमयता एवं अनंतता भी । बिचार मानस-सत्ताका सार नहीं, बल्कि मानसिक प्रकृतिकी क्रियामात्र है । यदि वह क्रिया बन्द हो जाय तो जो कुछ उसके स्थानपर प्रकट होता है और विचार-निर्मुक्त सत्ताके रूपमें प्रतीत होता है वह रिक्तता या शून्य नही होता वरन् एक अत्यंत वास्तबिक एवं सारभूत तत्त्व होता है । हम कह सकते हैं कि वह मूर्त्ति पदार्थ होता है -- वह होता है मनोमय पुरुष जो अपने आपको व्यापक रूपसे विस्तृत करता है और आप ही अपनी प्रशांत या सक्यि सत्ताका क्षेत्र हों सकता है एवं उस क्षेत्र तथा उसके कार्यका साक्षी, ज्ञाता और स्वामी भी । अवश्य ही कुछ लोग इसे पहले पहल शून्य के रूपमें अनुभव करते हैं, पर वह इस कारण कि उनका निरीक्षण अनभ्यस्त और अक्षम होता हे और क्रियाका विलोप उनमें रिक्तताकी भान पैदा करता है । रिक्तता वहां होती अवश्य है, पर वह साधारण क्यिाओंकी रिक्ततता होतीं है, न कि सत्ताका अत्यंताभाव ।

 

         विचारोंके दूर हटनेके अनुभवका बार बार होना, विचारोत्पादिका यांत्रिक प्रक्यिाका बन्द हो जाना और इसके स्थानपर मनके अपने आकाशका प्रतिष्ठित होना -यह सब सामान्य नियमके अनुसार है तथा ऐसा है जैसा होना चाहिये । क्योंकि

 

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इस निश्चलनीरवताको या कम-से-कम एतदर्थ क्षमताको तबतक बढ़ते जाना होगा जबतक व्यक्ति इसे स्वेच्छानुसार प्राप्त करनेमे समर्थ न हों जाय या? इससे भी बढ़कर, जब तक वह इसे सहज स्वयं-स्थायिताकी अवस्थामें प्रतिष्ठित न कर ले । कारण, यह आवश्यक है कि मनकी साधाराग यंत्रसम क्रिया शांत हों जाय ताकि उच्चतर भन आविर्भूत एवं अवतरित हो सके और क्रमश: वर्तमान अपूर्ण मनका स्थान लेकर इसकी क्रियाओंको अपनी परिपूर्णतर गतियोंमें रूपांतरित कर सकें । यह जो कठिनाई है कि जब तुम काम कर रहे होते हो तब निश्चलनीरवता आ उपस्थित होती है यह प्रारंभ- मे ही है । बादमें इस निश्चलनीरवताके अधिक दृढ हो जानेपर व्यक्तिको अनुभव होता है कि वह जीवनके समस्त कार्य सर्वव्यापिनी साक्षात् निश्चलनीरवतामें ही या कमसे कम उसे आधार और पीठिका बनाकर जारी रख सकता है । निश्चल- नीरवता पीछे रहती है और आवश्यक कार्य उपरितलपर चलता रहता है अथवा निश्चल- नीरवता हमारी विशाल आत्मा होती है और इसीमें कही एक ओर सक्रिय शक्ति निश्चल- नीरवतामें बाधा डाले बिना विश्व प्रकृतिके कार्य करती है । अतएव जब तक अनुभव उपस्थित रहे तबतक कर्म स्थगित रखना बिलकुल ठीक है । इस अंतरीय निश्चल- नीरव चेतनाका विकास काफी महत्त्वपूर्ण है, यहांतक कि यह अल्पकालीन कर्म-निरोध या निवृत्तिको उचित ठहरा सकता है ।

 

       इसके विपरीत, अन्य दो अनुभवोंकी बात इससे भिन्न है । ऐसा कभी नही होने देना चाहिये कि स्वम्नानुभव जागरितावस्थापर अधिकार करके चेतनाको भीतरकी ओर खींच । इसे अपनी क्रिया .निद्राके समयतक ही सीमित रखनी चाहिये । इसी प्रकार आंतर पुरुष और बाहरी ' 'मै' ' के बीचकी दीवार तोड़ गिरानेके लिये कोई धका- पेल या जोर-जबरदस्ती नही करनी चाहिये - एकीकरणको विकासशील आंतर किया द्वारा अपने स्वाभाविक समयमें होने देना चाहिये । इसके कारणकी व्याख्यामें मैं दूसरे पत्रमें करूँगा ।

 

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         तुम्हारा दूसरा अनुभव निद्रामें अन्तःपुरुषके जागरणकी प्रारभिक गति है । साधारणतया जब कोई सोता है तो एक जटिल घटना घटित होती है । जागरित चेतना तब वहां नर्हो रहती, क्योंकि सब कुछ भीतर उन अतर्लोकोंमें लौट गया होता हैं जिनसे हम जागरित अवस्थामें सचेतन नही रहते, यद्यपि उनका अस्तित्व तो तब भी होता हैं । कारण, उस समय जाग्रत मन उन सबको पर्देकी आडूमें छिपा देता है, बहुत कुछ वैसे ही जैसे रविरश्मियोका पर्दा अपनी आडमे विद्यमान बृहत् नक्षत्रलोकोंको हमसे छिपाये रखता है । फलत: तब उपरितलीय आत्मा तथा बाह्य जगतके सिवा और कुछ भी नहीं. रहता । निद्राका अभिप्राय है अन्दरकी ओर जाना जिसमे उपरितलीय आत्मा और बाह्य जगत् हमारे इन्द्रियानुभव तथा दृष्टिशक्तिसे ओझल हो जाते हैं । परन्तु माधारण निद्रामें हमें आभ्यंतर जगतोंका ज्ञान नही होता; हमें अपनी सत्ता गहरी

 

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अवचेतनामें डूबी प्रतीत होती है । इस अवचेतनाके उपरितलपर एक धुँधली सतह तैरती रहती है । हमें ऐसा प्रतीत होता है कि स्वप्न हमें इसी सतहमें आते हैं, किंतु असलमें वे वहां केवल अंकित ही होते हैं । जब हम बहुत गाड़ी नीदमें चले जाते हैं, तब हमें एक इस प्रकारकी नींद आती है जो हमें निःस्व निद्रा प्रतीत होती है । परंतु वास्तवमें स्वप्न आ तो रहे होते हैं पर वे इतने गहरे तलमें होते हैं कि अंईकेत करनेवाली सतहपर पहुँच ही नही पाते अथवा वे भूल जाते हैं । जाग्रत चेतनाकी अवस्था तक हमारे पहुँचते पहुँचते उनके आ चुके होनेकी स्मृति भी सारी-की-सारी मिट जाती है । साधारण स्वप्न अधिकांशत: बे-सिर-पैरके होते हैं या, कमसे कम, वे प्रतीत ऐसे ही होते हैं, क्योंकि अवचेतन सत्ता इनकी रचना उन गहरे जमे संस्कारोसे करती है जो हमारे व्यतीत वाद्ययंत्र जीवनसे इसपर पड़ते हैं । यह रचना वह ऐसे मनमौजी ढंगसे करती है कि जाग्रत मनकी स्मृतिके स्वप्नके अर्थका कुछ भी अता-पता आसानी- सै नहीं मिलता । अथवा ये स्वप्न निद्राके पर्देके पीछे होनेवाले अनुभवोंके आशिक अंकन होते हैं और सों भी अधिकतर विरूप । निश्चय ही ये दोनों चीज़ें परस्पर अत्यधिक मिल-जुल जाती हैं । वास्तवमें निद्राके समय हमारी चेतनाका एक बड़ा भाग इस अवचेतन अवस्थामें निमज्जित नही होता । यह पर्देको पारकर सत्ताके उन अन्य स्तरोंमें चला जाता है जो हमारे आंतरिक स्तरोंसे संबद्ध हैं, अर्थात् अतिभौतिक  सत्ताके उन स्तरों, और विस्तीर्णतर प्राण, मन या चैत्य के उन लोकोंमें जो पर्देके पीछे हैं और जिनके प्रभाव हमें बिना पता चले ही हमतक पहुँचते हैं । कभी कभी हम इन लोकोंसे स्वप्न प्राप्त करते हैं, एक ऐसी चीज प्राप्त करते हैं जो स्वप्नसे अधिक कुछ होती है,-एक ऐसा स्तन्य अनुभव जो उन लोकोंमें हमारे साथ या हमारे चारों ओर होनेवाली घटनाका साक्षात् या प्रतीका- त्मक अंकन  होता है । जैसे जैसे अंतश्चेतना साधना द्वारा बढ्ती हैं वसा वैसे इन स्वप्त अनुभवोंकी संख्या, स्पष्टता, संगति एवं यथार्थतामें वृद्धि होती जाती है । अनुभव तथा चेतनाके कुछ विकासके बाद, यदि हग निरीक्षण करें तो हम उनको तथा अपने अंतर्जीवनके लिये उनके महत्त्वको समझने लग सकते हैं । यहा तक कि हम अभ्याससे इतने सचेतन बन सकते हैं कि अपनी अनेक स्तरोंमेंसे होकर जानेकी क्रियाको, जो साधारणतया हमारी सजगता और स्मृतिसे छिपी रहती 'बे, तथा जागरित अवस्थामें वापिस आनेकी प्रक्रियाको भी जान सकें । इस आंतरिक सजगताकी विशेष ऊंची अवस्थामें इस प्रकारकी निद्रा, अनुभवोंकी निद्रा, साधारण अवचेतन तंद्राका स्थान ले सकती है ।

 

        इस प्रकार -- साधारणरीत्यनुसार निद्राके पर्देके पीछे नही, बल्कि स्वत. निद्रामें ही -- जो तत्त्व विकसित होता है वह निःसंदेह आतर पुरुष या चैतन्य, या अन्तरात्माका हीं कोई अंश होता है । जिस अवस्थाका तुमने वर्णन किया है उसमें अंतः पुरुष अभी निद्रा और स्वप्नसे सज्ञान होकर उनका निरीक्षण कर रहा है - किंतु अभी तक इससे अधिक कुछ नही - यदि तुम्हारे स्वप्नोंके स्वरूपमें कोई और ऐसी चीज नही जो तुम्हारी स्मृति से छूट गई हों । परंतु यह अंतः पुरुष इतना काफी जागरित

 

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है कि उपरितलीय चेतना इस अवस्थाको स्मरण रख सकती है, अर्थात् इसका वृत्तांत प्राप्त करके, निद्रासे जागरित अवस्थाकी ओर लौटती हुई भी, उसे स्थिर रख सकती है, चाहे साधारणतया इस लौटनेकी क्रियामें स्वप्त घटनाओंके अंकनके कुछ एक अंशों- के सिवा शेष सब विस्मृतिके गर्भमे विलीन हो जाते हैं । तुम्हारा यह अनुभव ठीक है कि जाग्रत चेतना और निद्रामें जागरित रहनेवाली चेतना एक ही नहीं हैं - ये सत्ता- के भिन्न-भिन्न भाग हैं ।

 

       जब आंतरिक निद्रा-चेतनाका यह विकास आरंभ होता है तब चाहे नींदकी जरूरत या थकावट न भी हो तो भी भीतर जाकर बिकाससाधनमें लगे रहनेका आर्क्षण प्रायः ही होता है । एक और कारण भी इस आकर्षणका साथ देता है । साधारणतया अन्तःपुरुषका प्राणमय भाग ही निद्रामें सर्वप्रथम जागता है और साधारण स्वप्नोंके विपरीत प्रारंभिक स्वाप्त अनुभव प्रायः अधिकांशमें प्राणमय स्तरके होते हैं । प्राणमय स्तरका अभिप्राय हे अतिभौतिक जीवनका लोक जो विविधता तथा रोचकतासे पूर्ण एक और प्रकाशमय या अन्धकारमय, मनोहर या भयंकर और प्रायः अतीव आकर्षक, अनेक प्रदेशोंसे युक्त है । इन प्रदेशोमें हम अपनी प्रकृतिके प्रच्छन्न भागोंका और साथ ही पर्देके पीछे हमारे साथ घटनेवाली घटनाओंका एवं हमारी प्रकृतिके अंगोंके विकाससे संबद्ध बातोंका बहुत कुछ ज्ञान भी प्राप्त कर सकते हैं । सुतरां, हमारे अन्दरका प्राणमय पुरुष अनुभवके इस क्षेत्रके प्रति अत्यधिक आकृष्ट हों सकता है, उसकी ऐसी इच्छा हों सकती है कि वह इसमें अधिक निवास करे और बाह्य जीवनमें कम । इसी आकर्षण- के कारण किसी रोचक और मोहक वस्तुकी ओर लौट जानेकी कामना होती है और फिर इसके लिये हम सो जाना चाहते हैं । किंतु निश्चय ही जागरित अवस्थामें इस कामनाको उत्साहित नहीं करना चाहिये, इसे निद्राके उन नियत घंटोंके लिये रख छोड़ना चाहिये जिनमें यह अपना स्वाभाविक क्षेत्र प्राप्त करती है । अन्यथा एक प्रकारका असंतुलन पैदा हों सकता है, अतिभौतिक लोकोंके दृश्येंमें अपेक्षाकृत अधिक तथा अतीव अधिक निवास करनेकी प्रवृत्ति और बाह्य वास्तविकताओंपर अधिकारकी कमी पैदा हों सकती है । आंतर विश्वप्रकृतिके इन क्षेत्रोंका ज्ञान और इनके संबंधमें हमारी चेतनाका विस्तार अतीव वांछनीय है, पर इसे इसके अपने स्थान और सीमाओं- मे ही मर्यादित रखना होगा ।

 

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 अपने पिछले पत्रमें मैंने तुम्हारे तीसरे अनुभवकी व्याख्या स्थगित रखी थी । तुमने जिस चीजका संस्पर्श अनुभव किया हैं वह आत्मा ही है,-आत्मा अर्थात् अन्त:- पुरुष या आंतर मनोमय, प्राणमय एवं अन्नमय पुरुषको धारण करनेवाला चैत्य पुरुष जिसका वर्णम मैं पहले कर चुका हूँ । परन्तु यह ऊर्ध्वस्थित अज आत्मा या उपनिषदुक्त आत्मा नहीं है,-क्योंकि उसका अनुभव तो भिन्न प्रकारसे, अर्थात् चिन्तनात्मक मनकी निश्चलनीरवता द्वारा होता है । पूर्ण आत्मज्ञानके प्रत्येक जिज्ञासुके जीवनमें एक

 

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ऐसी घड़ी अवश्य आती है जब वह अपनेको इस प्रकार एक ही समय दो लोकों, दो चेतनताओं या एक ही सत्ताके दो भागोंमें रहता हुआ अनुभव करता है । इस समय वह बाह्य चेतना, बाह्य सत्तामें रहता है और भीतर अन्तरात्माको देखता है । परन्तु उसे अधिकाधिक अन्दरकी ओर जाना होगा, ताकि यह अवस्था पलट जाय और वह भीतर इस नई आंतरिक चेतना एवं आंतरिक आत्मामें निवास करने लगे तथा बाह्य चेतनाको इस रूपमे अनुभव करे कि यह उपरितलकी कोई चीज है जो स्थूल जगत्में आंतर पुरुष- के आत्मप्रकाशके लिये साधनभूत व्यक्तित्वके तीरपर गठित है । तदनंतर भीतरसे एक प्रमा शक्ति बाह्य व्यक्तित्वको सचेतन तथा सुनम्य यंत्र बनानेके लिये इसपर प्रभाव डालती है ताकि अतमें आंतर और बाह्य घुल-मिलकर एक हों जाय । जिस दीवारका तुम्हें अनुभव होता है वह निश्चय ही अहंकी दीवार है । इसका आधार है -- बाह्य व्यक्तित्व एवं उसर्को चेष्टाओंके साथ अपने आपको आग्रहपूर्वक एकाकार करना और अपनेको वही कुछ समझना । यह एकाकारता ही विस्तार, आत्मज्ञान तथा आध्यात्मिक स्वातन्त्रयमें बाधा डालती है, यही उन बाधाओं और बंधनोंकी आधार-शिला है जिनके कारण बाह्य सत्ता दुःख भोगती है । तथापि दीवार को समयसे पूर्व कदापि नही ढाहना चाहिये क्योंकि संभवतः उसका परिणाम होगा -- दो पृथक् लोकोंकी गतियों द्वारा किसी एक भाग ( आंतर या बाह्य) का ऐसे समयमें विदारण या अस्तव्यस्तीकरण या उसपर आक्रमण जब कि वे लोक समस्वर होनेके लिये अभी तैयार नही हुए । करा व्यक्तिको सत्ताके इन दो भागोंका इस रूपमें ज्ञान हो जाय कि ये दोनों एक साथ विद्यमान हैं उसके बाद भी थोड़े समयके लिये कुछ पार्थक्य आवश्यक होता है । योगशक्तिको अवकाश देना होगा ताकि वह आवश्यक सुव्यवस्थाएं और उद्घाटन संपन्न करके सत्ता- को अन्दरकी ओर ले जाय और फिर इस अंतर्मुख स्थितिसे बाह्य प्रकृतिपर प्रभाव डाल सके ।

 

        इसका अर्थ यह नही कि व्यक्ति चेतनाको यथाशीघ्र सत्ताके आंतरिक जगत्में निवास करने और वहांसे सब कुछ नयी दृष्टिसे देखनेके लिये भीतर जानेका अवसर ही न दे । यह अन्तर्मुख गति तो अत्यंत वांछनीय एवं आवश्यक है और वैसे ही दृष्टि- का यह परिवर्तन भी । मेरा आशय इतना ही है कि यह सब बिना जल्दी मचाये सहज गतिसे करना चाहिये । भीतर जानेकी गति शीघ्र ही प्रारंभ हों सकती है, किंतु उसके बाद भी अहंभावकी दीवारका कुछ भाग विद्यमान रहेगा हीं और इसे स्थिरता एवं धैर्यपूर्वक भूमिसात् करना होगा, यहांतक कि इसका एक भी पत्थर गड़ा न रहने पाय । मेरी जो यह चेतावनी है कि निद्रा - लोकको जागरित अवस्थापर बलपूर्वक आक्रमण और अधिकार नही करने देना चाहिये उसका तात्पर्य बस यहीं है, और सजग एकाग्रता या साधारण जाग्रत चेतनामें होनेवाली अन्तर्मुख गतिसे उसका कुछ संबंध नहीं । जाग्रत गति हमें अन्ततः अन्तरात्मामें ले जाती हैं और अन्तरात्माके द्वारा अतिभौतिक लोकों- से हमारा संबंध बढ़ता है और साथ हीं उनके विषयमें हमारा ज्ञान भी । किंतु इस संबंध और ज्ञानके कारण हमें उनमें अतिमात्र व्यस्त या उनकी सत्ताओं तथा शक्तियों- के अधीन हों जानेकी आवश्यकता नही और न ही हमें इस प्रकार व्यस्त या अधीन

 

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होना चाहिये । निद्रामें हम सचमुच ही इन लोकोंमें प्रवेश करते हैं और यदि निद्रा- चेतनाका आकर्षण अतीव महान् हों तथा जाग्रत चेतनापर बलपूर्वक अधिकार कर लें तो इस अतिमात्र व्यस्तता और प्रभावपरवशताका भय है ।

 

          यह सर्वथा सत्य है कि आंतरिक पवित्रता और सचाई, जिसमें व्यक्ति केवल उच्चतर पुकारसे हीं प्रेरित होता है, मध्यवर्ती अवस्थाके प्रलोभनोंसे बचनेके लिये ब्यक्तिका सर्वोत्तम रक्षासाधन है । यह व्यक्तिको सदा सही मार्गपर चलाता है और पथभ्रष्ट होनेसे बचाता रहता है । अन्ततोगत्वा चैत्य पुरुष पूरी तरह जागकर सामने आ जाता नै और, जब एक बार ऐसा हो जाता है तब आगे कोई भय नही रहता । यदि इस पवित्रता और सचाईके साथ-साथ मनमें विवेक-शक्ति और स्पष्टता भी हों तो वह प्रांरभिक अवस्थाओंमें सुरक्षाको और भी बढ़ाती है । प्रलोभन या आकर्षण क्या क्या रूप धारण कर सकता है इसका पूरे विस्तारसे या ठीक ठीक वर्णन करना, मेरे विचारमें, न तो आवश्यक है और न ही मुझे ऐसा करना चाहिये । इन शक्तियोंकी ओर ध्यान देकर, जिसकी शायद कोई जरूरत भी नही होती, इन्हें जगाया ही न जाय तो अधिक अच्छा होगा । मैं नहीं समझता कि तुम किसी बहुत बड़े भय संकुल आकर्षण- के कारण पथसे व्युत हो सकते हों । जहां तक मध्यवर्ती अवस्थाकी छोटी-मोटी कठिनाइयोंका प्रश्न है वे भयानक नही होतीं और जैसे जैसे व्यक्ति चेतनाके विकास, विवेक और असंदिग्ध अनुभवके सहारे अग्रसर होता है वैसे वैसे वे आसानीसे दूर की जा सकती !

 

          जैसा मैं कह चुका हूँ, आंतरिक आकर्षण अर्थात् भीतर जानेके लिये आकर्षण अवांछनीय नही है और इसका प्रतिरोध करनेकी आवश्यकता नही । एक विशेष अवस्थामें यह अपने साथ अनेकानेक दिव्यदर्शन भी ला सकता है, क्योंकि तब एक ऐसी अंतर्दृष्टि विकसित हों जाती है जो सत्ताके सभी स्तरोंकी वस्तुओंका साक्षात्कार करती है । यदु आकर्षण एक अमुल्य शक्ति है जो साधनामें सहायक है; इसे दबाना नही चाहिये । परंतु अन्त:स्थ परम आत्मा और भगवान्के साक्षात्काररूपी मुख्य लक्ष्यको सदा समक्ष रखते हुए व्यक्तिको आसक्तिके बिना अवलोकन एवं निरीक्षण करना चाहिये । इन चीजोंको केवल ऐसा समझना चाहिये कि ये चेतनाकी वृद्धि मे प्रासंगिक और सहायक हैं, ऐसा नही कि ये अपने-आपमें अपनी ही खातिर अनुसरणीय लक्ष्य ३ । अपिच, व्यक्तिको एक ऐसे विवेकशील मनकी भी आवश्यकता है जो प्रत्येक वस्तुको उसके अपने अपने स्थानपर सन्निविष्ट कर उसका क्षेत्र तथा स्वभाव समझनेके लिये प्रतीक्षा कर सके । ऐसे भी कुछ लोग होते हैं जो इन सहायक अनुभवोंके लिये इतने उत्सुक हों जाते है कि वे सद्वस्तुके विभिन्न क्षेत्रोंके वास्तविक तारतम्य और सीमाका समस्त विवेक भी खेने लगते हैं । इन अनुभवोंमें जो कुछ भी घटित होता है वह सबका सब सत्य नही समझ लेना चाहिये । व्यक्तिको विवेक करनेकी आवश्यकता होती है, यह देखना होता है कि कौनसी चीज मानसिक आकृति या आंतरिक रचना है और कौन- सी चीज सत्य है, कौनसी चीज ऐसी है जो विस्तीर्णतर मनोमय और प्राणमय स्तरों- से प्राप्त निर्देशमात्र है अथवा किस चीजका केवल वहीं वास्तविक अस्तित्व है और किस

 

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चीजका आंतरिक साधना या बाह्य जीवनमें सहायता या पथप्रदर्शनके लिये महत्त्व

 

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       'क्ष' के अनुभव ऐसे हैं जो साधारणत: बाह्य चेतनासे अनुभवकी आंतरिक भूमिकामें पीछे हटनेके साथ आया करते हैं । प्रथम अनुभवमें शरीरके ठंडा हों जानेका वेदन -- '' के अनुभवोंमें शरीरके निश्चेष्ट और अकड़ जानेकी तरह -- उन चिह्नोंमेंसे एक है इसीलिये चेतना बाह्य अथवा अन्नमय कोषसे पीछे हटकर भीतरकी ओर जा रही है । स्फटिकीकरण एक ऐसा रूप था जिसमें उसने उस आंतर चेतनाके संगठनका अनुभव किया जो ऊपरसे आनेवाली वस्तुको दृढ़ता और साथ ही स्वतंत्रता पूर्वक ग्रहण कर सकती थी । स्फटिक संगठित रचनाके साथ साथ उस स्थायी पार- दर्शिताको भी सूचित करते है जिसमें उच्चतर भूमिकाओंसे अवतरित होते हुए बृहत्तर सूक्ष्मदर्शन और अनुभव स्पष्ट रूपसे प्रतिबिम्बित हो सकें ।

 

         जहांतक दूसरे अनुभवका प्रश्न है, उसने जाग्रत चेतनाका जो परित्याग किया उसका प्रत्यक्ष हीं यह परिणाम हुआ कि उसने उसे एक ऐसी आंतरिक चेतनामें फेंक दिया जिसमें वह अतिभौतिक भूमिकाओंके संपर्कमें आने लगा । लाल रंगके समुद्र और तारोंका क्या आशय है यह तो लाल रंगके स्वरूपपर निर्भर करता है । यदि यह किरमिजी रंगका था तो उसने जो कुछ देखा वह भौतिक चेतना और भौतिक जीवनका समुद्र था जैसा कि वह आंतर प्रतीकात्मक सूक्ष्मदृष्टिके सामने प्रस्तुत हुआ है, यदि यह जामनी-लाल था तो यह प्राणिक चेतना और प्राणिक जीवन शक्तिका सागर था । यदि उसने श्रीमांके सामीप्यके भावको रोक न दिया होता तो शायद और भी अच्छा होता - बल्कि हों सके तो उसे इस सामीप्यको अपने साथ आंतर भूमिकाओंमें भी ले जाना चाहिये, तब उसे भयका कोई अवकाश न रहता ।

 

        जो भी हों, यदि वह आंतर चेतनामें जाना और आंतर भूमिकाओंमें विचरना चाहता हो - जिसका होना अवश्यंभावी है यदि वह अपने ध्यानमें जाग्रत चेतनासे आंखें मंच लें - तो उसे भयको त्याग देना होगा । बहुत संभवत: वह गीताके निर्देश- का अनुसरण करके दिव्य चेतनाकी नीरवता या उसका स्पर्श पानेकी आशा करता था । किन्तु दिव्य चेतनाकी नीरवता या उसका स्पर्श भीमाकी उपस्थिति और ऊपर- के स्तरसे चेतनाके अवतरणके द्वारा (पूर्वोक्त विधिके समान हीं) और कुछ लोगोंको तो उससे भी अधिक आसानीसे जाग्रत अवस्थाके ध्यानमें हीं प्राप्त हो सकता है । तथापि अंतर्मुख किया संभवत: अनिवार्य है और उसे समझनेका एव, झिझके या भयभीत हुए बिना जाग्रत ( अवस्था) के ध्यानमें श्रीमांके लिये जो श्रद्धा और विश्वास था उसी- के साथ इसके पास जानेका उसे यत्न करना चाहिये । निःसंदेह, उसके अन्उभव आंतर (प्राणिक) स्तरके हैं; मुझे '' के लिये पहले ही किये जा चुके स्पष्टीकरणको दुहरानेकी आवश्यकता नही ।

 

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        पुनश्च :-महादेवकी मूर्तिके संबंघमें हुए स्वप्नका यह अर्थ हो सकता है कि (निःसंदेह, इस जगत् से भिन्न) कोई व्यक्ति इसे पथभ्रष्ट करना चाहता था और उसके मनमें जिस बृहत्तर जीवन्त सत्यको बह खोज रहा था उसके साय भूत कालके किसी अधिक संकीर्ण परम्परागत रूपको उलझा देना चाहता था ।

 

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     जिन चीजोंका तुम अनुभव कर रहे हो उनका कारण यह तथ्य है कि चेतना अन्दर चली जगती है, इसलिये भौतिक वस्तुएं ऐसी लगती हैं मानों वे दूरीपर स्थित हों । यही प्रतीति तब हो सकती है जव कोई चेतनाके अन्य स्तरमें जाकर वहांसे भौतिक पदार्र्थोको देखता है । पर बहुत करके यह घटना तुम्हारे साथ पहलीबार हुई है । बिल- कुल अंदर जानेगर स्थूल चीज़ें अदृश्य हो जाती हैं,--उनके साथ कोई संबंध कायम करने- पर, वे दूर हो जाती हैं । किंतु यह अस्थायी परिवर्तन है । आगे जाकर तुम दोनों चेतनाओंको एक साथ धारण कर सकोगे - अपने एक अंगमें तो तुम चैत्य पुरुष और प्रकृतिके सारे अनुभव और क्यिाओंके साथ अपने चैत्यमें रहोगे और तो भी इसके साथ ही तुम्हारा उपरितलीय आत्मा स्थूल वस्तुओंके विषयमें बाह्य क्रियाके पीछे चैत्यके आश्रय और प्रभावके साय ही पूर्ण जाग्रत और सक्यि रहेगा ।

 

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         स्पष्ट ही तुम भ्रातिका जगत्में नहीं पर सूक्ष्म जगत्में विचरण कर रहे हो; यह वस्तुओंकी भिन्न प्रकारकी व्यवस्थासे प्रत्यक्ष है पर ऐसे ब्यौरे जैसे कि तीसरी भुजा और पुस्तक-पर्णी जो हटाई जानेपर भी बही स्थित है, यह बताते हैं कि यह ऐसा सूक्ष्म जगत् है जो स्थूल भौतिक प्रदेशके निकट है; या तो यह सूक्ष्म भौतिक जगत् है या अति स्थूल प्राणिक क्षेत्र । सब मूल्य क्षेत्रोंमें स्थूलको थोड़ा परिवर्तित करके फिरसे आकार दिया जाता है, जैसे जैसे व्यक्ति और अधिक आगे जाता है यह परिवर्तन अधिकाधिक मुक्त और नमनीय होता जाता है । ऐसे ब्यौरे जैसे कि लंगड़ापन आदि इसी बातको बताते हैं,-कि उसपर अब भी स्थूलकी पकड़ है । स्थूल जगत्में इधर उधर विचरण करना संभव है, पर वह भी साधारणतया रूपकों अधिक बलशाली स्थूल आकार देनेके लिये केवल अन्य स्थूल सत्ताओंके वातावरणसे पोषण प्राप्त करनेके द्वारा ही किया जा सकता है - जब यह होता है तो व्यक्ति उनमें तिचरता है और उन्हें और आसपास- की चीजको ठीक उसी रूपमें देखता है जैसी कि उस समय वे स्थूल जगत्में होती हैं और व्यक्ति ब्योरेकी यथार्थताकी जांच कर सकता है यदि शरीरमें लौटनेके तुरंत बाद (जो सामान्यतया इसमें लौटनेकी संपूर्ण प्रक्रियाके विषयमें स्पष्ट ज्ञान होनेपर ही किया जाता है) उसी दृश्यको स्थूल शरीरमें भी फिरसे आरपार देख सके । किंतु ऐसा बहुत कम हीं होता है; इसके विपरीत सूक्ष्म विचरण एक ऐसी घटना है जो प्रायः होतीं है,

 

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केवल इतना है कि जब वह भौतिक जगतके बहुत निकट होती है तो सब बहुत अधिक स्थूल और ठोस प्रतीत होता है और सूक्ष्म घटनाओंके साथ स्थूल आदतों और स्थूल मानसिक-क्रियाओंका साहचर्य अधिक निकट होता है ।

 

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        यह चेतनाका आशिक बहर्गमन था, चेतनाका एक भाग बाहर निकल कर उस दृश्य एवं परिवेशमें चला गया जिसका तुमने वर्णन किया है जब कि शेष भाग शरीरमें ही रहा और वह सामान्य परिवेशसे और, संपर्क अथवा अप्रत्यक्ष भाग लेनेके द्वारा दूसरा अंश जो अनुभव कर रहा था उससे भी अभिज्ञ था । यह बिलकुल संभव है और इसके लिये किसी प्रकारकी समाधि या बाह्य चेतनाको खो देना आवश्यक नही है । जहांतक इस प्रकारके अनुभवके कारणका प्रश्न है, यह ब्यक्तिकी अपनी साधारण मान- सिक या अन्य रुचियोंपर जरा भी निर्भर नहीं करता; यह एक प्रकारके आकर्षणसे या किसी ऐसे व्यक्तिके स्पर्श द्वारा आता है जो उस घटना स्थलपर होता है और जो सहानुभूतिकी, किसी प्रकारके सहारे या सहायताकी आवश्यकताका अनुभव करता है, एक ऐसे तीव्र आवश्यकताका जो एक पुकारका रूप धारण कर लेती हैं; प्रायः बहुत करके यह कोई बिलकुल अज्ञात व्यक्ति होता है और यह बात बस उस ब्यक्तिपर निर्भर करती है जिसे हमारी पुकार स्पर्श करती है क्योंकि वह उस समय उद्घाटित होता है और स्पन्दनको ग्रहण करता है एवं उसमें उसका उत्तर देनेकी क्षमता भी होती है । इसमें साधारणतया पुकार करनेवाले पुरुषकी चेतनाके साथ हमारी चेतनाका एक प्रकारका तादात्म्य होता है जिसके कारण वह दूसरे व्यक्तिके परिवेश और उसके द्वारा होनेवाली घटनाओंको भी देख सकता है । इन अनुभवोंसे स्थूल सत्ता घबरा जाती है । इसपर हमें विजय प्राप्त करनी होगी; ज्योंही आंतर मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक चेतना मोटे भौतिक- आवरणके पीछेकी वस्तुओंके प्रति उद्घाटित होती है त्योंही सभी तरहके ऐसे अनुभव प्रकट हो सकते हैं जो स्थूल मनको विलक्षण लगें और इन वस्तुओंसे डरने और अधीर होनेकी उसकी प्रवृत्तिको हटना ही होगा । इसे (स्थूल चेतनाको) भयानक वस्तुओंका भी बिना किसी भयके मुकाबला करनेमें समर्थ होना होगा ।

 

        जहांतक आंखोंका प्रश्न है, उस अनुभवको एक विशेष पकडू प्राप्त हो गई थी और यह आशा नही थी कि यह एकबारगी बिलकुल हट जायगा । ये वस्तुएं चिपटे रहनेकी चेष्टा करती हैं; पर अस्वीकृतिके दृढ और अटल रहनेपर कुछ समय बाद मन्द पडू जाती है या नष्ट हों जाती हैं । आनन्दकी तीव्रताका कम हों जाना इस बातका पूर्व चिह्न है कि अस्वीकृतिका अपना प्रभाव हों रहा है । तुम्हें केवल डटे रहना चाहिये और कुछ समयके बाद प्राणिक चेतना मुत्त हो जायगी ।

 

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        तुम जिस स्थानपर गये थे वह स्थूल जगत् जितना ही यथार्थ और वास्तविक जगत् है - और उसकी घटनाओंका कभी कभी इस जगत् पर भारी प्रभाव पड़ता है । कितने अज्ञानी शिष्य हों तुम सब । अत्यधिक आधुनिकता और युरोपीयपनकी हद हीं हों गई ।

 

        ये वस्तुएं प्राणिक भूमिका पर होनेवाले सम्मिलन हैं, परन्तु बहुधा जो घटना होती है उसके प्रतिलेखमें कुछ ऐसे विवरण घुस आते है जो अवचेतनकी देन होते है । बाकी सब ठीक लगता दु । माथेपर अंकित लिपिका निःसंदेह यह अर्थ है कि कोई वस्तु तुम्हग्रे अंदर प्राणिक स्तरमें स्थिर हों गई है और वह आगे चलकर स्थूल चेतनामें आकर रहेगी ।

 

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       भौतिक रूपसे तुम अत्यन्त यथार्थवादी हो । इसके सिवाय तुम गुह्य वस्तुओंके विषयमें बिलकुल अज्ञान हों । प्राण वह भाग है जिसे पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक कभी कभी प्रच्छन्न सत्ता कहते हैं और प्रच्छन्न सत्ता, जैसा कि प्रत्येकको जानना चाहिये, ऐसे कार्य कर सकतीं है जिसे स्थूल सत्ता नही कर सकतीं -- उदाहरणके लिये जिस प्रश्नको हल करनेमे भौतिक सत्ता वृथा हीं अनेक दिन लगा चुकी होतीं है उसे कुछ हीं मिनिटोंमें हल करना आदि आदि ।

 

        दोनों स्तरोपर वस्तुओंके होनेका क्या लाभ ' यह निष्प्रयोजन और बेकार होगा । प्राणिक स्तर एक ऐसा स्तर है जहां वें कार्य किये जा सकते है जो इस समय एक या अन्य कारणवश भौतिक स्तरपर नही किये जा सकते ।

 

        निःसंदेह प्राणमें सैकड़ों प्रकारकी नानाविध वस्तुएं हैं क्योंकि चेतनाका यह प्रदेश स्थूल चेतनाकी अपेक्षा कही अधिक समृद्ध और नमनीय प्रदेश है, और उन सब वस्तुओकी प्रामाणिकता और महत्ता समान नही होती । मैं ऊपरकी उन्हीं वस्तुओंके विषय- मे कह रहा हूँ जो प्रामाणिक हैं । प्रसंगवश, इस प्राणिक भूमिकाके बिना कोई कला, कविता या साहित्यका कोई अस्तित्व न होता -- ये चीजों यहा अभिव्यक्त हों सकनेके पहले प्राणमें होकर आती हैं ।

 

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        तुम जो विभिन्न प्राणिक लोकोंकी बात करते हो वह निः सदेह रोचक है और उसमें कोई सत्य है, परन्तु तुम्हें याद रखना चाहिये कि ये लोक जो सच्चे या दिव्य प्राणक लोकोंसे भिन्न है, सम्मोहन और भ्रांतियोंसे भरे होते हैं और सौंदर्यके ऐसे आभासोंको प्रस्तुत करते हैं जो पथभ्रष्ट करने या नष्ट करनेके लिये ही प्रलोभित करते हैं । वे 'राक्षसीमाया' के लोक हैं और उनके स्वर्ग उनके नरकोंसे भी अधिक खतरनाक होते हैं । हमें उन्हें जानना चाहिये एव आवश्यकता पडनेपर उनकी शक्तियोंका सामना

 

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करना चाहिये पर उन्हें स्वीकार नही करना चाहिये; हमें केवल अतिमानससे ही सरोकार है और प्राणसे केवल तभी जब यह अतिमानसिक हो जाय और जबतक ऐसा न हो जाय तबतक हमें सदा ही अन्य स्थानसे आनेवाले प्रलोभनोंसे अपनी रक्षा करनेमे तत्पर रहना होगा । मैं समझता हूँ तुम जिन लोकोंके सबन्धमे कहते हो वे ऐसे लोक हैं जिनमे विशेष आकर्षण है और जिनमे कवियों, कल्पनाशील लोगों और कुछ कला- कारोंके लिये विशेष आकर्षण  विशेष सकट भी होता है । इनमें विशेष रूपसे उस सौन्दर्यभावापत्र प्राणिक संवेदनशीलता या भावुकता यहांतक कि रसात्मकता पर भी भार दिया जाता है जिसके द्वारा वे सत्ताको प्रभावित करते हैं और वह उन वस्तु- ओंमेंसे एक है जिनका सर्वोच्च कविता, कला या कल्पनाशील सर्जन तक उन्नत हों सकनेसे पहले शोधन कर लेना आवश्यक होता है ।

 

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          जब प्राणिक सत्ता बाहर निकल जाती है तो यह प्राणके स्तरपर और प्राणिक चेतनामें विचरण करती है और, स्थूल दृश्यों और पदार्थोंके विषयमें मचेनन होनेपर भी उन्हें स्थूल दृष्टि द्वारा नही जानती । यह केवल उसीके लिये संभव है जिसने प्राणिक शरीरमें विचरण करते हुए भी, अन्दर स्थूल वस्तुओंके स्पर्शके आने, उन्हें ठीक ठीक रूपमे देखने और अनुभव करने, यहांतक कि उनपर क्रिया करने और उन्हें भौतिक रूपसे परिचालित करनेकी क्षमताओंको सधा लिया । किंतु वह सामान्य साधक जिसे इन वस्तुओंका ज्ञान, व्यवस्थित अनुभव या दशिक्षण प्राप्त नही है, ऐसा नही कर सकता । उसे यह समझना होगा कि प्राण जगत् स्थूल जगतसे भिन्न है और यह भी कि उस जगत्में होनेवाली घटनाएं स्थूल नही होती, यद्यपि, यदि वे ठीक प्रकार- की हों और उन्हें सही ढगसे समझा और प्रयोगमें लाया जाय, तो उनका पार्थिव जीवनके लिये कोई अर्थ और मूल्य हों सकता है । पर प्राणचेतना मिथ्या रचनाओंसे और बहुत उलझनोंसे, भी भरी हुई है तथा विना ज्ञानके और बिना सीधे संरक्षण या पथ प्रदर्शनके उनमें विचरण करना निरापद नही होता ।

 

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           तुम शरीरको अरक्षित छोड़कर उससे बाह्रा निकल गये होंगे और उसपर आक्रमण हुआ जिससे तुम शरीरमें आनेके बाद ही अपना पिंड छुडा सकें । कानोंसे लेकर नीचे गर्दनतक सिरका यह भाग स्थूल मनका स्थान है - स्थूल मनका या बाह्य रूप देंने- वाले मनका केंद्र गलेमें है जो पीठमें मेरुदण्डसे जा मिलता हे । यह आक्रमण स्थूल मनपर हुआ था ।

 

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       तुम्हारे पत्रमें उल्लिखित तुम्हारी तीन अनुभूतियोंका यह अर्थ था कि तुम अपने प्राणिक शरीरको लेकर प्राण लोकोंमें जाते रहे हों और उन लोकोंकी सत्ता और रचना- ओंके संपर्कमें आते रहे हों । तुमने जो मन्दिरका बूढ़ा आदमी और लड़कियां देखी वे प्राण लोककी विरोधी सत्ताएं है ।

 

       जबतक मनुष्यको भौतिक रूपमें किसी ऐसे ब्यक्तिका संरक्षण न प्राप्त हो जिसे प्राण लोकका ज्ञान हों और उसपर अधिकार प्राप्त हों, तबतक इस मार्गमें न जाना ही अधिक अच्छा है । क्योंकि वहां कोई ऐसा व्यक्ति नही है जो तुम्हारे लिये यह काम कर सके इसलिये तुम्हें इस क्रियासे पीछे हट जाना चाहिये । हृदय और मनमें पूर्ण समर्पण, स्थिरता, शांति, प्रकाश, चैतन्य और सामर्थ्यके लिये अभीप्सा करो । जब इस प्रकार मानसिक और आंतरात्मिक सत्ता उद्घाटित, आलोकित और समर्पित हो जाय तब प्राण उद्घाटित होकर उसी आलोकको ग्रहण कर सकता है । तबतक प्राणिक लोकमें असामयिक अभियान करनेकी सलाह नही दी जा सकती ।

 

        यदि यह क्रिया न रोकी जा सके तो निम्र निर्देशोंका पालन करो.

 

    1 किसी भी भयको कभी भी अपने अन्दर न आने दो । इस जगत्में तुम जिससे भी मीलों या जिन्हें भी देखी उन सबका अनासक्त भावसे और साहस पूर्वक सामना करो ।

 

    2. निद्रा या ध्यानसे पहले हमारे संरक्षणको प्राप्त करनेके लिये प्रार्थना करो । जब भी तुमपर आक्रमण हों या तुम्हें प्रलोभन दिया जाय तब हमारे नामका जाप करो । 3. मंदिरके बूढ़े व्यक्तिके लिये किसी प्रकारकी सहानुभूति रखते हुए इस जगत्में आसक्त न हों जाओ । न ही ऐसे सुझावोंको स्वीकार करो कि वह तुम्हारा आध्यात्मिक गुरु था । यह बात स्पष्ट ही मिथ्या थी क्योंकि तुम हमारे सिवाय अन्य किसीको गुरुके रूपमें स्वीकार नही कर सकते । इस सहानुभूति और सुझावकी स्वीकृतिके कारण हीं वह तुम्हारे अन्दर प्रवेश करके उस पीडाको उत्पन्न कर सका जिसका तुमने अनुभव किया ।

 

     4. एकमात्र ऊपरके प्रकाश, शक्ति इत्यादिके सिवाय अन्य किसी विजातीय व्यक्तित्वको अपने अन्दर मत घुसने दो ।

 

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         ऐसा लगता है कि यह शरीरसे बाहर निकलनेकी क्रिया है जिसमें वह अपने प्राणिक शरीरको लेकर बाहर जाती है । जब व्यक्ति सचेतन होकर अपनी इच्छासे ऐसा करता है, तो सब ठीक चलता है पर अचेतन होकर किया गया इस प्रकारका बहिर्गमन हमेशा निरापद नही होता । महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इसका उसपर क्या प्रभाव पड़ा । यदि यह उसमेंसे बलवान् और ताज़ी होकर या बिलकुल सामान्य अवस्था- मे लौट आती है तो फिर कष्ट या चिन्ताकी बात नही, यदि वह उसमेंसे थककर या खिन्न होकर बाहर आती हो तो इसका अर्थ है कि कुछ ऐसी शक्तियां हैं जो उसके प्राणिक

 

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आवरणको क्षति पहुँचाकर उसे प्राण जगत्में खींच ले जाती हैं और ऐसा नहीं चलने देना चाहिये ।

 

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       'क्ष' के अनुभवोंमें एक लेखका शीर्षक है ' 'सतहकी चेतना' ' । उसमें जिसका उल्लेख है वह है स्नायविक या भौतिक-प्राणिक आवरण । सम्मोहनके माध्यम इसी वस्तुको देखते हैं और इस अल्पाधिक सीमातक बाह्यरूप प्रदान करके वे अपने चमत्कार प्रस्तुत करते हैं । ' क्ष' को इसके संबंधमें कैसे मालूम हुआ ' क्या यह अंतर्बोध द्वारा । सूक्ष्म दर्शनसे या व्यक्तिगत अनुभवके कारण हुआ? यदि इनमेंसे पिछला कारण हों, तो उसे सावधान करो कि वह इस प्राणिक आवरणको बाह्यरूप न दें, क्योंकि इन वस्तु- ओंसे परिचित और उस समय शारीरिक रूपसे उपस्थित व्यक्ति द्वारा दिये गायें पर्याप्त संरक्षणके बिना ऐसा करनेसे स्नायविक सत्ता और शरीरपर गभीर चैत्य संकट आ सकते हैं, वे क्षत-विक्षत भी हों सकते हैं या इससे भी बड़े दुष्परिणाम आ सकते हैं ।

 

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        ऐसे अनुभवोंकी कोई उपयोगिता नही है, वे प्राणिक भूमिकापर तबतक हों सकते हैं जबतक व्यक्तिको अनुभवोंके प्राणिक प्रदेशमेंसे गुजरना अभी भी आवश्यक हों, किंतु लक्ष्य तो इससे भी आगे जानेका और एक विशुद्ध आंतरात्मिक एवं आध्यात्मिक अनुभवमँ निवास करनेका होना चाहिये । अपनी सत्तामें अन्य लोगोंके बलात प्रवेशकों होने देना या उसे बुल लानेका अर्थ है हमेशा ही मध्यवर्ती क्षेत्रकी उलझनोंमें फंस रहना । मनुष्यको अपने व्यक्तिगत आधारमें केवल भगवान्को हीं बुलाना चाहिये -- जिसका मतलब यह नही कि व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत सत्ताको खो दे और भगवान् बनानेका विचार करने लगे, क्योंकि इस बातसे बचना चाहिये । अहंकारको जीतना होगा, पर केंद्रित व्यक्तिगत सत्ताको (जो अहंकार नहीं पर व्यक्तिगत् पुरुष, अन्तरात्मा, भगवानका अंश है) भागवत-शक्तिका माध्यम और यन्त्र बनाकर रहना होगा । जहांतक अन्य लोगों, साधकों आदिका प्रश्न है, व्यक्ति उन्हें अपनी वैश्वावापन्न चेतनामे अनुभव कर सकता है, उनके व्यापारोंके संबंधमें जान सकता हे, सर्वमय भगवान्में उनके साथ सामजस्य पूर्वक रह सकता हे, किंतु उसे उनकी उपस्थितिको अपने व्यक्तिगत आधारमें नही आने देना चाहिये या न बुलाना ही चाहिये । बहुधा यह उन प्राणिक शक्तियों अथवा उपस्थितियोंको चेतनापर आक्रमण करनेके लिये प्रेरित करता है जो इस प्रकार अन्दर प्रवेश करने दी गई सत्ताओंके रूपोंको धारण कर लेती है -- और यह बात अत्यंत अवांछनीय है । साधकको अपनी आधारभूत चेतनाको नीरव, स्थिर, विशुद्ध और शांत बनाना होगा और जिस वस्तुको उसे अन्दर आने देना या रोकना है उसपर संपूर्ण नियंत्रण बनाये रखना या प्राप्त करना होगा - अन्यथा, यदि वह यह नियंत्रण न

 

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रखे तो वह अस्तव्यस्त और अव्यवस्थित अनुभवोंका क्षेत्र बनानेका अथवा सब प्रकारकी मानसिक और प्राणिक सत्ताओं और शक्तियोंका खिलौना बनानेका खतरा मोल लेगा । व्यक्तिको अपने (आधिपत्य या प्रभावके) सिवाय अन्य केवल एक दी आधिपत्य या प्रभावको, अर्थात् आधारपर दिन शक्तिके शासनको ही स्वीकार करना चाहिये ।

 

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           अनुभवोंके संबंधमें तुम्हारे मित्रने जो विवरण दिया है उसके अर्थ एव महत्व- के विषयमें मुझे बहुत विश्वास नही । 'दुहरी' आवाज एक ऐसी घटना है जो प्रायः घटती रहती है; बहुधा यह तब होता है जब व्यक्तिको एक मन्त्रका जाप करते हुए इतना लम्बा समय बीत गया हों कि अन्तरमें कोई वाणी या चेतना उसे स्वत. ही दुहराने लगे -- व्यक्ति इसी ढंगसे प्रार्थनाको भी अपने अन्तरमें आत्मसात् कर सकता है । ऐसा साधारणतया आंतर चेतनाके जाग्रत होनेपर या चेतनाके अपनी बहिर्मुख स्थितिसे अन्दर अधिक गहराईमें जानेपर ही होता है । उसके मामलेमें यह इस तथ्य द्वारा पुष्ट होता है कि वह अपनेको समाधिके अधबीच पहुँचा हुआ अनुभव करता है, उसे लगता है कि शरीर पिघल गया है, एवं पुस्तकके भार अनुभव नहीं होता इत्यादि, ये सब इस बातके सुपरिचित लक्षण है कि, आंतर चेतनाने जाग्रत होकर बाह्य चेतनाका विस्तृत रूपसे स्थान ले लिया है । उसकी इस नई अवस्थाके नैतिक प्रभाव भी आंतर चेतनाके अर्थात् चैत्य या शायद चैत्य-मानसिक चेतनाके जागरणको सूचित करते हैं । किंतु दूसरी ओर वह इस अन्य वाणीको मानो अपनेसे बाहरकी वस्तु अनुभव करता है और सत्ताको अपनेसे भिन्न किसी दूसरी सत्ताके अर्थात् कमरेमें एक अन्य अदृश्य उप- स्थितिके रूपमे मानता प्रतीत होता है । आंतरसंत्ताका प्राय. इस रूपमे अनुभव होता है मानों वह सामान्य सत्तासे पृथक् या भिन्न कोई अन्य सत्ता है, पर साधारणतया वाणी कही बाहर स्थित नही अनुभूत होती । इसलिये यह संभव हैं कि अन्तर्मुख स्थितिमें वह अन्य भूमिका या जगतके संपर्कमें आता हों और वहांकी किसी ऐसी सत्ताको. अपनी ओर आकृष्ट करता हों जो उसकी साधनामें हिस्सा लेना और उसे नियंत्रित करना चाहती है । इनमेंसे अन्तिम स्थिति बहुत निरापद नहीं होती क्योंकि ज्ञात तथ्योंके आधारपर यह कहना कठिन हे कि यह किस प्रकारकी सत्ता है और भगवान्, गुरु या अपने चैत्य पुरुषसे भिन्न किसी सत्ताको अपने आंतर विकासके संचालनको सौंपना गंभीर खतरा पैदा कर सकता है । हालमें तो मैं बस यही कह सकता है।

 

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         तुम्हारे वर्णनसे यह स्पष्ट है कि कोई प्राणिक शक्ति शरीरपर बलात अधिकार करनेका प्रयास कर रहीं है । इस प्रकारके नियंत्रणके अभाव या विजातीय प्रभावके अनधिकार हस्ताक्षेपके लिये अनुमति देनेसे अधिक खतरनाक कोई बात नही हो सकती ।

 

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तुम्हारी वर्तमान अज्ञानावस्थामें जब कि प्राणसत्ता पर्याप्त उद्घाटित नही हुई, चैत्य सत्ता पर्याप्त जाग्रत नही हुई, ऐसे समय कोई विरोधी शक्ति आसानीसे घुसपैठ कर सकती है और दिव्य शक्तिका स्वांग भर सकती है । याद रखो कि किसी भी व्यक्तित्व या शक्ति- को अपने ऊपर अधिकार करनेकी अनुमति नही देनी चाहिये । भगवान्की शक्ति इस ढंगसे काम नही करती, वह पहले शोधनके लिये, चेतनाको विशाल और आलोक- मय बनानेके लिये, इस प्रकाश और सत्यके प्रति खोलनेके लिये, हृदय और चैत्य सत्ताको जाग्रत करनेके लिये कार्य करती है । बादमें जाकर ही वह विशुद्ध और सचेतन समर्पण द्वारा क्रमश: और शांतिसे अधिकार ग्रहण करती है ।

 

          तुम्हें यह भी समझे रखना होगा कि एकमात्र एक ही शक्ति कार्य कर रही है और न तुम्हारा, न उसका और न किसी अन्य ब्यक्तिका ही कोई महत्व है । प्रत्येक व्यक्ति अपने अन्तरको उस शक्तिके क्रियाकलापके प्रति खोल दे और साधकोंका एक ऐसा संघ बनानेका प्रयास न किया जाय जिसमें कोई एक व्यक्ति नेतृत्व करे या एकमेव शक्ति और साधकोंके बीचमें मध्यस्थका काम करे ।

 

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       तुम जिन अन्य परिस्थितियोंका उल्लेख करते हों वे सब सामान्य हैं और समग्र यन्त्ररूप सत्ताको अधिकृत करनेवाले आनन्दके आक्रमणके एक घटना विशेष है जब कि निश्चल-नीरव आंतर सत्ता अन्दर उससे इसी तरह पृथक् रहती जैसे वह साधारणतया वाहरसे आनेवाली सब वस्तुओंसे पृथक् रहती है । यहां जो वस्तु स्पष्ट नहीं है वह है उर्पास्थति । इसमें कोई ऐसी वस्तु नही है जो सूचित करे कि यह (उपस्थिति) क्या और किस प्रकारकी है । यदि यह प्राणिक हर्षको उत्पन्न करने- वाली कोई अवांछनीय प्राणिक उपस्थिति हों तो साधारणतया इसमे कोई ऐसे प्राणिक व्यापार होंगे जिनके द्वारा तुम उनके मूल ढूँढू निकालनेमें समर्थ होगे, पर ये घटनाएं यहां स्पष्ट नही हैं । इन परिस्थितियोंमें एक ही मार्ग है कि तुम जो भी घटे उसके, द्वारा सत्ताकी दखल किये जानेको स्वीकार किये बिना अनुभवका निरीक्षण भर करो, उसे केवल एक ऐसे अनुभवके रूपमे ग्रहण करो जिसपर अन्त. सत्ता साक्षीके रूपमें दृष्टिपात करती है जबतक परदेके पीछे छिपा विषय स्पष्ट न हों जाय ।

 

       पुनश्च: - इसकी अनेक व्याख्याएं हो सकती हैं किंतु मैं उनका उल्लेख नहीं करता क्योंकि वह मानसिक सुझावको अन्दर लाकर तथा अनुभवके विशुद्ध निरीक्षणको प्रभावित करके उसमें हस्तक्षेप कर सकता है ।

 

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     मैंने तुम्हारा पत्र पढा है और श्रीमांको भी बढ़कर सुनाया है । अनुभवके संबंध- मे मेरा निष्कर्ष वही है जो उनका है - मैंने अपना निर्णय अबतक रोक रखा था ।

 

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        हम मानते हैं कि तुम्हारे लिये यह अधिक समझदारीकी बात होगी कि तुम भविष्यमें इस विषयमें सतर्क रहो । पहली बात तो यह है कि वह बुद्ध नहीं हो सकता --बुद्धिकी उपस्थिति शांति लाती है पर वह इस तरहका आनन्द कदापि नही दे सकतीं । दूसरे, तुम्हारी पुरानी व्यक्तिगत भावना पर आधारित यह सुझाव तुमपर इसलिये फेंका गया प्रतीत होता है कि तुम किसी शक्तिका प्रभुत्व स्वीकार कर लो जिस प्रभुत्व- को तुमपर बलात थोपनेके लिये यह अनुभव एक( साधन मात्र हैं । और फिर तुम्हें जो लगता है कि यह आनन्द तुम्हारी सहन शक्तिके लिये असह्य है, अनुभव प्राप्तिके लिये अनुकूल लक्षण नहीं है, तुम कल्पना करते हो कि अनुकूल होनेकी वृत्तिके अभावके कारण तुम्हें ऐसा लगता है किन्तु यह अधिक संभव है कि यह कोई विजातीय वस्तु हो जो उस प्राण द्वारा तुमपर फैंकी गई है जिसके साथ तुम्हारी अन्दरकी चैत्य सत्ता आत्मीयता नही अनुभव करती । अन्तमें, यहांपर योग करते समय ऐसे ' 'किसी भी' ' प्रभावको अपने अन्दर आने देना निरापद नही है जो हमारा या इस साधनाकी क्रियाका अंग न हों । यदि यह घटित हों तो कुछ भी हो सकता है और हम इसके विरुद्ध तुम्हारा रक्षण नही कर सकेंगे क्योंकि तुम संरक्षणके घेरेमेंसे बाहर निकल गये होते हो । अब तक तुम विकासके बहुत ठोस मार्गपर अग्रसर हों रहे थे; इस प्रकार राह भटक जाना जो कि प्राणिक स्तरपर हुआ प्रतीत होता है, एक गंभीर बाधा सिद्ध हों सकता हैं । आखों या चेहरेके सौंदर्यपर विश्वास नाई किया जा सकता । निम्रतर भूमिकाओंकी ऐसी अनेक सत्ताएं हैं जिनका सौंदर्य मोहक होता है एव उसके द्वारा वे वशीभूत भी कर सकती हैं तथा वे ऐसा आनन्द भी दे सकतीं हैं जो सर्वोच्च प्रकारका न हो और इसके विपरीत यह भी हों सकता है कि वे अपने प्रलोभन द्वारा मनुष्यको मार्गसे बिलकुल न्यूत कर थे । जब तुमने शुद्ध विवेककी वह स्थिति प्राप्त कर ली होती है जिसमें अनुभवमें आने- वाली सभी वस्तुओंपर सर्वोच्च प्रकाश डाला जाता है, तो नानाप्रकारके अनुभवोंका सुर- क्षति रूपसे मुकाबला किया जा सकता हैं, परंतु अब अत्यधिक सतर्कताको उपयोगमें लाना होगा और सब विचलनोंको अस्वीकार करना होगा । अपने कदमोंको परमोच्च सत्ताकी ओर ले जानेवाले सीधे मार्गपर दृढ़ता पूर्वक जमाना आवश्यक है; अन्य सब बातोंको उपयुक्त समयतक रोके रखना होगा ।

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         मुझे इसमें संदेह नही है कि एक बार अस्वीकार किये जानेपर शक्तिकी क्रिया यथा समय समाप्त हो जायेगी । यह कोई ऐसी वस्तु है जिसके साथ तुम्हारा संबंध कराया गया है, न कि कोई ऐसी अन्तरंगता वस्तु जिसे तुम्हारी सत्ताका कोई अंग स्वा- भाविकरूपसे प्रत्युत्तर देता है । यह बात इससे स्पष्ट होती है कि प्रकट हुई सत्ता तुम्हें जो कुछ बताना चाहती थीं तुम उसे हृदयंगम नही कर सके । ऐसा प्रतीत होता हैं कि एक प्रचंड आक्रमण, तुम्हारे कथनानुसार, बल और छल पूर्वक घेरनेका एक प्रयत्न किया गया है । यह बिलकुल सच है कि जब प्रकाशके प्रति उद्घाटन होता है, तो विरोधी

 

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शक्तियां और साथ हीं निम्र शक्तियां मौका मिलनेपर सक्रिय हों जाती हैं । साधक- की चेतना अपनी सामान्य सीमाओंसे बाहर आ गई है और वैश्व चेतनाके साथ साथ ऊपरकी ओर उच्च आत्माके प्रति खुल रही है और वे बल पूर्वक प्रवेश करनेके लिये उसका लाभ उठाती हैं । तथापि इस तरहके प्रचंड आक्रमण अवश्यम्भावी नही हैं -और तुम संभवत ठीक ही सोचते हो कि तुमने इसे ' क्ष' के वातावरणमेंसे ग्रहण किया हे । उसने गुह्य क्षेत्रमें अनेक प्रकारके परिक्षण किये हैं और उसमें व्यक्ति आसानीसे मलिनतर प्रकृतिकी शक्तियों और सत्ताओंके सपर्कमेसे आ जाता है तथा उसे उनका सामना करने एवं पराजित करनेके लिये बड़ी भारी सामर्थ्य, प्रकाश और पवित्रताकी --स्वयं अपनी या सहायता देनेवाली शक्तिके सामर्थ्य आदिकी आवश्यकता होती है । मनुष्यकी अपनी प्रकृतिमें भी कमियां या भूलें होती हैं जो इन सत्ताओंके लिये हार खोल सकती हैं पर यदि व्यक्ति यह कर सकें कि वह इनसे कोई सरोकार न रखे तो यह सबसे उत्तम बात होगी, क्योंकि निम्रतर प्रकृतिकी शक्तियोंपर विजय प्राप्त करना इस पेचीदगीके बिना भी काफी भारी काम है । व्यक्तिको जो काम करना है उसके कारण यदि उनके साथ संपर्क और संघर्ष आवश्यक हों जाय, तो फिर यह दूसरी बात है । तुम्हारे उदाहरणमें मे समझता हूँ कि यह कोई ऐसी वस्तु रही है जो अकस्मात् आ पडी है और तुम्हारी साधनाके विकासके लिये अनिवार्य नही है ।

 

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           नही, उस समय श्रीमांकि ओरसे कोई विशेष एकाग्रता या पुकार नही की गई थी । यह बात उस समय हुई जब वे किसीसे नही मिलती, इसलिये स्पष्ट ही उन्होंने तुमपर ऐसी शक्ति नही लगायी होगी न वे साधारणतया अपनी शक्तिका इस प्रकार प्रयोग ही करती है । तुमने इस आवेगका विरोध करके अच्छा ही किया । आंतर प्रत्यक्ष-बोध और संकल्पको निर्मल, सचेतन और पूर्ण संतुलित बनाये रखना एवं आवेग- की किसी शक्तिको -- चाहे वह अपनेको किसी भी रूपमें प्रस्तुत करे,-प्राण या शरीरको उनकी विवेकयुक्त अनुमतिके बिना कर्ममें झोंक देनेकी स्वीकृति कभी भी न देना सदा हीं आवश्यक है । ये शक्तियां चाहे कोई भी रूप धारण करें इनपर विश्वास नहीं किया जा सकता, एक बार विवेकशील बुद्धि का नियंत्रण हट जानेपर किसीकी भी शक्ति इस प्रकार दखल दे सकती है और साधनाको हानि पहुँचानेके लिये असंतुलित प्राणिक आवेगोंके प्रयोगका मार्ग खुल जाता है । मानसिक नियंत्रणका स्थान लेने वाला चैत्य या आध्यात्मिक नियंत्रण इस ढगसे काम नही करेगा,--बल्कि विरोधी शक्ति चाहे कितनी हीं तीव्रता या उत्साह प्रदान करे तो भी वस्तुओंके स्पष्ट प्रत्यक्ष बोधकों, पूर्ण विवेकको और बाह्य और आभ्यन्तर यथार्थताके बीचमें सामंजस्यको बनाये रखेगा । इन प्रवृत्तियोंमें एकमात्र प्राण ही बह जाता है, प्राणको सदैव बुद्धि एवं चैत्यके या फिर उच्चतर आध्यात्मिक चेतनाके सक्रिय हों जानेपर उस चेतनाके नियंत्रणमें रखना होगा ।

 

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५२९


V

 

     ये सब अनुभव एक ही प्रकारके हैं और इनमेंसे प्रत्येकके संबंधमें एक हीं बात कही जा सकतीं है । इनमें जो अनुभूतियां वैयक्तिक हैं उनके अतिरिक्त बाकी या तो भावना- सत्य ( idea truths) हैं जो सत्ताके कुछ स्तरोंके साथ संस्पर्श होनेपर ऊपरसे हमारी चेतनाके अन्दर उतर आते हैं, या विरा मनोमय और प्राणमय लोकोंकी शक्तिशाली रचनाएं है जो सीधे इन लोकोंकी ओर उद्घाटित होते ही साधकके अन्दर घुस आती है और अपने-आपको चरितार्थ करनेके लिये साधकका उपयोग करना चाहती हैं; ये चीजे जब ऊपरसे आती या अन्दर प्रवेश करती हैं तब एक बहुत बड़ी शक्तिका अनुभव होता है, अंत:स्फुरणा या ज्ञानदीप्तिका स्पष्ट बोध होता है, प्रकाश और हर्षातिरेकसे रोमांच हों आता है, विशालता और शक्तिमत्ताकी एक छापसी पडू जाती है । उस समय साधकको ऐसा मालूम होता है कि वह साधारण सीमाओंसे मुक्त हो गया है, अनुभूतिके एक विलक्षण नये जगत्में आ पहुँचा है, भरपूर, बृहत् और उन्नत हो गया है, इसके अतिरिक्त, जो कुछ इस तरह आता है वह साधककी अभीप्साओ, महत्वाकांक्षा, आध्यात्मिक पूर्णता और यौगिक सिद्धिसंबंधी उसकी धारणाओंके साथ घुल-मिल जाता है, यहांतक कि वह स्वयं उस सिद्धि और परिपूर्णताके रूपमें प्रतिभात होने लगता है । फिर बड़ी आसानीसे साधक उसकी चमकदमक और वेगके द्वारा अभि- भूत हों जाता है, उसे इस तरह जो कुछ मिला होता है उसे कही बढे-चढे रूपमें देखने लगता है और ऐसा समझने लगता है कि उसे कोई परम वस्तु या कम-से-कम निस्सदिग्ध रूपमें कोई सत्य-वस्तु मिल गयी है. । इस अवस्थामें प्रायः साधकको वह आवश्यक ज्ञान और अनुभव नहीं होता जिससे उसे यह पता चल जाय कि यह जो कुछ अनुभव उसे द्रुआ है वह बहुत ही अनिश्चित और सदोष आरंभ-मात्र है, वह संभवत: तुरत यह बात नही समझ सकता कि वह अभी विश्वव्यापी अज्ञानके ही अन्दर हे, विश्व- व्यापी सत्यके अन्दर नही पहुँच सका है, परात्पर सत्यकी तो बात हीं क्या, और यह भी नहीं समझ सकता कि उसके अन्दर रचनात्मक या क्रियात्मक चाहे जो भावना- सत्य अवतरित हुए हों, वे सब हैं केवल आशिक हीं और सों भी उसकी मिश्रित चेतनाके द्वारा उसके सामने उपस्थापित होनेके कारण और भी क्षीण हो गये है । यह संभवत: यह भी समझनेमें असमर्थ हो सकता है कि यह जो कुछ उसे अनुभूत या उपलब्ध हों रहा है इसे एक पक्की बात मानकर यदि वह इसका प्रयोग करनेके लिये दौड पड़ेगा तो वह या तो किसी गड़बड़ी या भूल-भ्रांतिमें जा गिरेगा या किसी ऐसे आशिक रूपके अन्दर आबद्ध हो जायगा जिसमे आध्यात्मिक सत्यका कुछ अंश तो हो सकता है पर वह अंश मन और प्राणके अन्दर उपजनेवाली बेकार बातोंके भारसे दबकर एकदम विकृत हों गया होता है । इस अवस्थामें पड़ा हुआ साधक तभी सच्ची स्वतंत्रता और एक उच्चतर, वृहत्तर तथा सत्यतर सिद्धिकी ओर ले जानेवाले मार्गपर आगे बढ़ सकता है जब वह (चाहे तुरत या कुछ समय बाद) अपनी अनुभूतियोंसे अपने-आपको अलग कर लेनेमें, निर्विकार साक्षी चेतनामें उनसे ऊपर खड़ा होकर उनके सच्चे स्वरूप, उनकी

 

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सीमाओं, उनकी बनावट और उनके अन्दर मिली हुई चीजोंको देखनेमें समर्थ हो । साधनाके प्रत्येक स्तरमें साधकको ऐसा करना होगा । कारण जो कुछ इस प्रकार इस योगके साधकके पास आता है, चाहे वह अधिमानस या सबोधिमय मानस या प्रबुद्ध मानस या किसी उच्चतर प्राणलोकमे आया हो या एक साथ ही इन सब लोकोंसे ही क्यों न आया हों, वह कभी अंतिम नही होता, वह कभी परम सत्य नही होता जहां आकर साधक निश्चित बैठ जाय, बल्कि वह तो एक अवस्था मात्र होता है । और फिर इन अवस्थाओंमेंसे होकर गुजरना ही पड़ता है, क्योंकि विज्ञानमय सत्य या परम सत्यतक कोई एक ही छलांगमे या कई छलांगमे भी नही पहुँच सकता; साधकको, ऐसी बहुतसी मध्यवर्ती अवस्थाओंको, उनके निम्र कोटिके सत्य या ज्योति या शक्ति या आनन्दसे आबद्ध या आसक्त हुए बिना, पार करते हुए स्थिरता, धीरता और दृढ़ता- पूर्वक आगे बढ़ना होता है ।

 

         यह वास्तवमें एक मध्यवर्ती अवस्था है, मनकी साधारण चेतना और सच्चे यौगिक ज्ञानके बीचमें आनेवाला एक कटिबंध है । कोई तो इस क्षेत्रको तुरत हीं अथवा साधनाकी प्राथमिक अवस्थामें ही इसके सच्चे स्वरूपको देखकर तथा इसके अर्द्धप्रकाश और प्रलोभक पर अपूर्ण और बहुधा मिश्रित तथा पथभ्रष्टकारी अनुभवोंमें अटकनेसे इनकार करके बेलाग पार कर सकता है, कोई इसमे आकर विपथगामी हों सकता है, झूठी वाणियों और मिथ्या निर्देशोंका अनुगमन कर सकता है और तब इसका फल होता है आध्यात्मिक सर्वनाश, अथवा कोई .इस मध्यवर्ती क्षेत्रमें हीं आकर निवास कर सकता है, और आगे जानेकी कोई परवा न कर कोई खंड सत्य निर्माण कर सकता है और उसे ही पूर्ण सत्य समझ सकता है या इन संक्रमण-क्षेत्रोंकी शक्तियोंका यंत्र बन सकता है -- और यही दशा बहुतसे साधकों और योगियोंके हुआ करती है । इस क्षेत्रके संस्पर्शमें आनेपर ये लोग एक असाधारण अवस्थाकी शक्तिकी अनुभूति और उसके प्रथम वेगसे अभिभूत हों जाते और थोड़ीसी रोशनीसे ही चौधियां जाते हैं; यह थोड़ीसी रोशनी उन्हें एक प्रखर ज्योतिसे ! देती है, अथवा वे किसी शक्तिका स्पर्श अनुभव करते हैं और उसे ही पूर्ण भागवत शक्ति या कम-से-कम कोई बड़ी महान् योग-शक्ति मान बैठते हैं, अथवा ये किसी मध्यवर्ती शक्ति (जो सदा भगवान्की ही शक्ति नहीं होती) को ही परम भागवत शक्ति और किसी मध्यवर्ती चेतनाको ही परम उपलब्धि मान लेते हैं । बड़ी आसानीसे ये लोग यह समझने लगते हैं कि अब तो हम पूर्ण विश्वमयी चेतनामें आ गये हैं जब कि ये उसके केवल सामनेके या छोटेसे भागमें ही होते हैं या ऐसे बृहत्तर मन, प्राण या सूक्ष्म भौतिक क्षेत्रोंमें ही होते हैं जिनके साथ इनका क्रियात्मक संबंध हो जाता है । अथवा इन लोगोंको ऐसा प्रतीत होने लगत है कि अब हम किसी पूर्णतया प्रबुद्ध चेतनाके अन्दर आ गये हैं जब कि वास्तवमें ये ऊपर- से आनेवाली चीजोंको किसी मनोमय या प्राणमय लोककी आशिक ज्योतिमें अधूरे तीरपर ग्रहण करते होते हैं, क्योंकि जो कुछ आता है वह इन लोकों- से होकर आनेके समय बहुधा क्षीण और विकृत हो जाता है, उसे ग्रहण करने- वाला साधकका मन और प्राण भी जो कुछ ग्रहण किया गया है उसे कुछ-का-कुछ

 

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समझता और प्रकट करता है अथवा उसके साथ अपनी ही धारणाओं, भावनाओं और कामनाओंको इस तरह मिला देता है कि इन्हें वह फिर अपना समझ ही नही पाता और ऊपरसे प्राप्त होनेवाले सत्यका ही अंश मानने लगता है, क्योंकि ये उसके साथ मिल जाती हैं, उसके आकारका अनुकरण करती हैं, उसके प्रकाशसे चमकने लगती हैं और इस साहचर्य और पराये प्रकाशके कारण अतिरंजित मूल्य प्राप्त करती हैं ।

 

       इससे भी कही बड़े संकट अनुभवके इस मध्यवर्ती क्षेत्रमें उपस्थित होते हैं । कारण, इस अवस्थामें जिन लोकोंकी ओर साधक अपनी चेतनाको खोले रखता है, खब्त लोकोंसे - पहलेकी तरह केवल किसी झलक और प्रभावके रूपमें ही नहीं, बल्कि सीधे, अपने पूर्ण वेगके साथ -- अनगिनत भावनाएं, प्रेरणाऐं, सूचनाएं और सभी प्रकारकी रचनाएं आया करती हैं जो बहुधा परस्पर विरोधी, विसंगत या विपरीत हुआ करती हैं, पर इस ढंगसे वे आ उपस्थित होती हैं कि उनकी न्यूनताए और उनके पारस्परिक भेद, उनके प्रबल वेग, उनकी आपात सत्यता और उनकी युक्तिके प्राचुर्य या निश्चयके तीव्र बोधसे एकदम ढक जाते हैं । निश्चयकी इस प्रतीति, इस स्पष्टता, प्राचुर्य और समृद्धिके इस दिखावेसे पराभूत होकर साधकका मन एक बहुत बड़ी विशुखलताको प्राप्त होता है और उसे ही कोई बृहत्तर संगठन और सुश्रंखला मान बैठता है; अथवा उसके मनमें लगातार नाना प्रकारके हेर-फेर और परिवर्तन होते रहते हैं और उन्हें उसका मन तीव्र प्रगति मान लेता है यद्यपि वे उसे किसी ओर भी नहीं ले जाते । अथवा, इसके विपरीत, वहां यह भी आशंका है कि साधक ऊपरसे देदीप्यमान दिखायी देनेवाली पर अज्ञानजनित्त किसी सत्ताका यंत्र बन जाय; क्योंकि ये मध्यवर्ती क्षेत्र छोटे-छोटे या प्रबल दैत्यों या नन्हीं-नन्ही सत्ताओंसे भरे हुए हैं जो इस पृथ्वीपर अपनी सृष्टि करना चाहती हैं, अपने किसी भावको पार्थिव रूपमें व्यक्त करना चाहती है अथवा पार्थिव जीवनमें किसी मनोमय और प्राणमय रूपको प्रस्थापित करना चाहती हैं और जो साधकके विचार और संकल्पको अपने काममें लगाने, अपने प्रभावमे ले आने या अपने अधिकारतकमें कर लेने तथा इस उद्देश्यकी पूर्त्तिके लिये साधकको अपना यंत्र बनानेके लिये उत्सुक रहती हैं । परंतु यह खतरा भी उस प्रसिद्ध खतरेसे भिन्न है जो वास्तविक विरोधी शक्तियोंकी ओरसे आता है; उन शक्तियोंका एकमात्र उद्देश्य होता है विशृंखल और असत्यकी सृष्टि करना, साधना- को तहस-नहस कर डालना तथा सर्वनाशकारी अनाध्यात्मिक प्रमाद उत्पन्न करना । ये शक्तियां बहुधा किसी दिव्य शक्तिका नाम धारण कर साधकके सामने आती हैं और जो साधक इनमेंसे किसी एकके चंगुलमें फंस जाता है वह योगमार्गसे भ्रष्ट हो जाता है । और इसके विपरीत यह भी सर्वथा संभव है कि इस क्षेत्रके अन्दर प्रवेश करते हीं साधकको भगवान्की कोई शक्ति मिल जाय जो उसकी सहायता करे और तबतक उसका पथप्रदर्शन करे जबतक वह महत्तर वस्तुओंके लिये प्रस्तुत न हों जाय; पर फिर भी इसी कारण यह नही कहा जा सकता कि साधक इस क्षेत्रके प्रमादों और पदस्सलनोंसें एकदम बच ही जायगा; क्योंकि यहां ऐसा होना अत्यत स्वाभाविक है कि इन क्षेत्रों- की शक्तियां या विरोधी शक्तियां मार्गप्रदर्शक दिव्य वाणी या मूर्त्तिका अनुकरण कर

 

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साधकको धोखा दें और पथभ्रष्ट करें या साधक स्वयं अपने ही मन, प्राण या अहंकारकी सृष्टियों और रचनाओंको भगवान्की ओरसे आयी हुई मान लें ।

 

      कारण, यह मध्यवर्ती क्षेत्र अर्ध-सत्योंका प्रदेश है - और केवल इतनेसे ही कोई हर्ज नहीं था; क्योंकि विज्ञानके नीचे कहीं भी पूर्ण सत्य नही है, पर यहांका अर्ध- सत्य प्रायः इतना आशिक या कार्यत: इतना अस्पष्ट और संदिग्ध होता है कि अस्त- व्यस्तता, भ्रांति या प्रमादके लिये एक चौड़ा मैदान खुला रहता है । यहांपर साधक यह समझने लगता है कि अब हम अपनी पुरानी छोटीसी चेतनामें हीं नही हैं, क्योंकि अब वह अपने-आपको किसी बृहत्तर या अधिक शक्तिशाली वस्तुसे युक्त अनुभव करता है जब कि वह होता है अपनी पुरानी चेतनामें ही जो वास्तवमें अभी लुप्त नही हुई है । वह अपने ऊपर अपनेसे अधिक महान् किसी शक्ति, सत्ता या सामर्थ्यका अधिकार या प्रभाव अनुभव करता है, उसीका यंत्र बननेकी आकांक्षा करता है और समझता है कि वह अहंकारसे मुक्त हों गया है; पर इस अनहकारिताकी भ्रांतिके अन्दर प्रायः एक बढ़ा-चढा अहंकार छिपा हुआ होता है । नाना प्रकारकी भावनाएं जो केवल अंशत: सत्य होती हैं, उसे आक्रांत कर लेती हैं और उसके मनको परिचालित करती हैं और अत्यधिक विश्वासके साथ उन भाबनाओंका दुरुपयोग करनेपर वे सत्यमें परिणत हो जाती हैं, इसके कारण चेतनाकी गतियां दूषित हो जाती हैं और भ्रांतिके लिये दर- बाजा खुल जाता है । नाना प्रकारकी सूचनाएं आती हैं, कभी-कभी तो बड़ी ही अद्धत और आकर्षक सूचनाएं आती हैं जो साधकके महत्त्वको अतिरंजित करती हैं अथवा उसकी इच्छाओंके अनुकूल होती हैं और वह कोई जांच-पड़ताल, या उचित-अनुचित- का विवेक किये बिना ही उन्हें ग्रहण कर लेता है । यहांतक कि उनमें जो कुछ सत्य होता है उसे भी उसके वास्तविक मूल्य, सीमा और मानसे परे इतना अधिक वढ़ा-चढा और फैला दिया जाता है कि वह प्रमादको उत्पन्न करनेवाला बन जाता है । यह बह क्षेत्र है जिसे बहुतेरे साधकोको पार करना पड़ता है, जिसमें बहुतेरे बहुत दिनोंतक भटकते रहते हैं और जिसमेंसे बहुतेरे कभी बाह्रा निकल ही नही पाते । विशेषकर जिन साधकों- की साधना प्रधानतया मन और प्राणके क्षेत्रोंमें ही चलती है उन्हें यहां बहुतसी कठिनाइयों और अत्यधिक खतरेका सामना करना पड़ता है; केवल वे ही लोग, जो सचाईके साथ गुरु-प्रदर्शित मार्गका अनुगमन करते हैं या जिनकी प्रकृतिमें हृत्युरुषका प्राधान्य स्थापित हो चुका होता है, बड़ी आसानीसे, मानो निश्चित और स्पष्ट रूपमें चिह्नित किसी मार्गसे होकर इस मध्यवर्ती प्रदेशका पार कर जाते हैं । अगर साधकमें केंद्रगत सच्चाई हो, मूलगत विनम्रता हों तो वह भी बहुतसे ख़तरों और कष्टोंसे बच सकता है और फिर शीघ्रतासे इस क्षेत्रके परे उस विशुद्धतर ज्योतिमें पहुँच सकता है जहां बहुत- कुछ मिलावट, अनिश्चितता और संघर्षकी अवस्था रहनेपर भी माया और अज्ञानके अर्ध-प्रकाशमें बने रहनेके बदले विश्वगत सत्यकी ओर अपने-आपको खोलनेकी ही प्रवृत्ति जगती है ।

 

      यहांपर मैंने साधारण चेतनाके ठीक उस पारवाली चेतनाकी अवस्थाका तथा उसके मुख्य-मुख्य अंगों और संभावनाओंका सामान्य रूपसे इसलिये वर्णन किया है

 

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 कि यही वह स्थान है जहां इस प्रकारकी अनुभ्तियां साधकको हुआ करती हैं । परंतु भिन्न-भिन्न साधक यहां भिन्न-भिन्न प्रकारसे बर्ताव किया करते है और कभी एक प्रकार- की संभावनाकी ओर झुकते हैं तो कभी दूसरे प्रकारकी सभावनाओंकी ओर । जिस प्रसंगमें यह चर्चा यहां की जा रहीं है उस प्रसंगमें ऐसा मालूम होता है कि साधकका इस क्षेत्रमें जो प्रवेश हुआ  वह विश्वचैतन्य नीचे उतार लाने या उसमें बलात प्रवेश करनेके प्रयत्नके कारण हुआ है -- इस बातको चाहे जिस ढंगसे कहा जाय अथवा स्वयं प्रयत्न करनेवालेको अपने इस प्रयत्नका बोध हो या न हो, अथवा बोध हों भी तो चाहे इस रूपमें हो या न हों, इससे कुछ आता-जाता नही, सार रूपमें बात जो कुछ हैं वह यही हैं । इस प्रसंगमें साधकका प्रवेश जिस क्षेत्रमें हुआ था वह अधिमानस नहीं था । क्योंकि सीधे अधिमानसमे पहुँचना असंभव है । निश्चय ही अधिमानस विश्व- चैतन्यके अखिल कर्मके ऊपर और पीछे विद्यमान है, पर आरंभमें उसके साथ अप्रत्यक्ष संबंध हीं स्थापित किया जा सकता है, वहांसे जो चीज़ें आती हैं वे मध्यवर्ती क्षेत्रोंमें होती हुई बृहत्तर मानस-क्षेत्र, प्राण-क्षेत्र और सूक्ष्म भौतिक क्षेत्रमें आती हैं और रास्ते- मे बहुत-कुछ परिवर्तित और क्षीण होतीं हुई आती हैं, यहांतक कि अधिमानसके अपने मल्ल क्षेत्रमें उनमें जो शक्ति या सत्य होता है वह अब पूरा-का-पूरा नही स्व जाता । अधि- काश गतियां तो अधिमानससे नहीं वरन् उससे नीचेके उच्चतर मानस-क्षेत्रोंसे हीं आती हैं । अधिकांश भावनाएं, जो इन अनुभूतियोंमे भरी होती हैं और जिनके आधार- पर हीं ये अनुभूतियां सत्य होनेका दावा करती हुई प्रतीत होती हैं, अधिमानसकी नही होती, बल्कि उच्चतर मनकी या कभी-कभी प्रबुद्ध मनकी होती हैं; पर साथ हीं उनमें निम्रतर मन और प्राणकी सूचनाएं भी मिली हुई होती हैं और वे अपने प्रयोगमें बुरी तरहसे क्षीण अथवा बहुतसे स्थानोंमें अनुचित रूपसे प्रयुक्त हुई होती हैं । पर इन सबसे कुछ नही बिगड़ता, ये सब यहांके लिये स्वभाविक और सामान्य बातें हैं और इन सबसे होकर हीं साधक एक ऐसे स्वच्छतर वातावरणमें पहुँच जाता है जहां सभी बातें अपेक्षा- कृत अधिक सुसंगठित और अधिक सुदृढ़ आधारपर अवस्थित होती हैं । परंतु इस प्रसंगमें जिस भावसे कार्य किया गया था उसमें अत्यधिक शीघ्रता और उत्सुकता, अतिरंजित आत्माभिमान और आत्म-विश्वास, अधूरे ज्ञानपर आश्रित निश्चयता वर्तमान थी और भरोसा और किसीके भी पथप्रदर्शनपर नही, बल्कि अपने ही मनके अथवा ऐसे 'भगवानके पथप्रदर्शनपर किया गया था जो अत्यंत सीमित ज्ञानकी अवस्था- मे कल्पित या अनुभूत हुए थे । ऐसी अवस्थामें भगवान्-संबंधी साधककी धारणा और अनुभूति, यदि वे मूलतः वास्तविक भी हों तो भी पूर्ण और विशुद्ध कभी नही होती, उनमें सब प्रकारके मन और प्राणके अध्यारोप मिले हुए होते हैं और इस भागवत पथ- प्रदर्शनके साथ ऐसी सभी प्रकारकी बातें जड़ित होती हैं और उसका अंग मानी जाती हैं जो एकदम दूसरे ही स्थानोंसे आती हैं । अधिकतर ऐसी अवस्थाओंमें भगवान् अधिकांशमें पर्देके पछिसे ही क्रिया करते हैं, फिर भी यदि यह मान लिया जाय कि वह सीधे ही मार्गप्रदर्शन करते है तो भी उनका पथप्रदर्शन कभी-कभी हीं मिलता है और उसके अतिरिक्त अन्य सभी बातें विश्व-शक्तियोंके खेल हीं होती हैं, उनमें प्रमाद, स्खलन

 

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और अज्ञानका सम्मिश्रण अबाध रूपसे होता रहता है और यह सब इसलिये होने दिया जाता है कि विश्वशक्तियोके द्वारा साधककी परीक्षा हो जाय, वह अनुभवके द्वारा शिक्षा प्राप्त करे, अपूर्णताओंसे होकर पूर्णताकी ओर अग्रसर हों सके - अगर उसमें इसके लिये योग्यता हो, अगर वह सीखना चाहता हो तो अपनी मूलों और गलितयोंको आंख खोलकर देखे, उनसे शिक्षा ग्रहण करे और लाभ उठावे, जिसमें वह विशुद्धतर सत्य, ज्योति और ज्ञानकी ओर अग्रसर हों सके ।

 

       मनके इस अवस्थामें पहुँचनेका परिणाम यह होता है कि जो कुछ इस सम्मिश्रण और संशयसंकुल क्षेत्रमें साधकके सामने आता है, उसका ही वह इस प्रकार समर्थन करने लगता है मानो वही परम सत्य और एकमात्र भागवत इच्छा हो; जो भावनाएं या सूचनाएं बार-बार आती रहती हैं उन्हें साधक इस प्रकार अपनी ही बातपर अहे रहकर और पूरे निश्चयके साथ प्रकट करता है मानो वे हीं संपूर्ण या निर्विवाद सत्य हों । इस अवस्थामें साधककी ऐसी धारणा बन जाती है कि हम नैर्व्यक्तिक और अहंकार- विमुक्त हो गये हैं, जब कि उसके मनका सारा रुख उसका कथन और भाव सब कुछ प्रचंड अहंमन्यतासे भरा होता है और उसकी यह अहंमन्यता इस कारण पुष्ट होती रहती है कि वह निश्चित रूपसे यह समझता है कि वह भगवान्के यंत्रके रूपमें और भगवान्की प्रेरणाके अनुसार ही सोचता-विचारता और कार्य करता है । उस समय साधक ऐसी-ऐसी भावनाओंको बड़े जोरदार शब्दोंमें पेश करता है जो मनके लिये तो ठीक हो सकती हैं, पर आध्यात्मिक दृष्टिसे ठीक नहीं होती, फिर भी वे ऐसे ढंगसे कही जाती हैं मानो वे अध्यात्मके ही ऐकांतिक सत्य हों । उदाहरणके तीरपर हम समताको ले सकते हैं जो उस दृष्टिसे एक मनोधर्ममात्र होता है -- क्योंकि यौगिक समता बिलकुल दूसरी हीं चीज है,-फिर अपने आत्माके लिये जो स्वतंत्रताका दावा किया जाता है, किसीको गुरु माननेसे जो इन्कार किया जाता है, या भगवान् तथा मनुष्य- देहधारी भगवान्के बीच जो भेद किया जाता है इन सब बातोंको लें सकते है । ये सब भावनाएं ऐसी स्थितियां हैं जिन्हें मन और प्राण ग्रहण कर सकते हैं और ऐसे सिद्धांतोंमें बदल सकते हैं जिन्हें वे धार्मिक या यहांतक कि आध्यात्मिक जीवनपर भी लादनेकी चेष्टा कर सकते हैं, यद्यपि वे स्वरूपत: न तो आध्यात्मिक होते हैं और न हों ही सकते हैं । फिर प्राणमय लोकोंसे भी सूचनाएं आने लगती हैं, रोमांचकारी, मनगढ़ंत या विलक्षण कल्पनाओंका तांता-सा लग जाता है, गूढार्थव्यजन, अतर्ज्ञानाभास और आगे होनेवाली उपलब्धियोका आश्वासन मिलने लगता है और इन बातोंसे साधकका मन या तो उत्तेजित हों जाता हैं या विमूढ़ हों जाता है और प्रायः साधक इन बातोंको ऐसे रूप दे देता है जिनसे उसका अहंकार और अहंमन्यता बेतरह बढ़ जाती है यद्यपि ये सब बातें सच्चे और सुनिश्चित आध्यात्मिक या गुह्य सत्योंके ऊपर अवलंबित नहीं होती । इस प्रकारकी बातोंसे यह क्षेत्र भरा हुआ है और अगर इन्हें मौका दिया जाय तो ये साधक- के ऊपर आकर एकदम छा जाती हैं, परन्तु साधक यदि वास्तवमें परम तत्त्वको हीं प्राप्त करना चाहता हो तो उसे चाहिये कि वह इन्हें केवल देखें और आगे बढ़ता जाय । यह बात नहीं है कि ऐसी बातोंमें तनिक भी सत्य न हो, पर बात यह है कि एक सत्यके

 

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साथ-साथ नौ असत्य सत्यका रूप धारण कर सामने आते हैं और केवल यही मनुष्य बिना लुढ़के या यहांके गोरखधंधेमें बिना फंसे अपना रास्ता निकाल सकता है जो सूक्ष्म जगत्- संबंधी गुह्यविद्याकी शिक्षा पा चुका हो और दीर्घकालीन अनुभवके द्वारा अचूक कौशल प्राप्त कर चुका हो । यहां यह संभव है कि साधकका सारा मनोभाव, उसका कर्म और उसकी बातचीत इस मध्यवर्ती क्षेत्रकी भूल-भ्रांतियोंसे इस तरह भर जाय कि फिर उसके लिये इस रास्तेपर आगे बढ़नेका अर्थ हीं हों जाय भगवान् और योगसे बहुत दूर चला जाना ।

 

           फिर भी यहां साधकको यह स्वतंत्रता है कि वह चाहे तो इन अनुभवोंके अन्दर मिलनेवाले इस मिश्रित पथप्रदर्शनका ही अनुसरण करे या सच्चे पथप्रदर्शनको स्वी- कार करे । प्रत्येक मनुष्य, जो यौगिक अनुभूतिके क्षेत्रोंमें प्रवेश करता है, अपने हीं मार्गका अनुसरण करनेके लिये स्वतंत्र है, परन्तु यह योगमार्ग ऐसा नहीं है जिसका अनुसरण चाहे जो कर सके, बल्कि यह केवल उन्हीं लोंगोंके लिये है जो इसके लक्ष्यको प्राप्त करना चाहते हैं, इसके निर्दिष्ट पथका अनुसरण करना चाहते हैं जिसके लिये सुनिश्चित पथप्रदर्शन अत्यंत आवश्यक है । किसीके भी लिये यह आशा करना व्यर्थ है कि वह इस मार्गपर किसी सच्ची सहायता या प्रभावको प्राप्त किये बिना ही केवल अपने हीं आंतरिक बल और ज्ञानके सहारे बहुत दूरटक-अंततक चले जानेकी तो बात ही क्या - अग्रसर हो सकता है । दीर्घकालसे जिन योगोंका अभ्यास लोग करते आ रहे है उन सामान्य योगमार्गका भी गुरुकी सहायताके बिना अनुसरण करना बहुत कठिन है; फिर इस योगमें तो ऐसा करना एकदम असंभव ही है, क्योंकि इस योगमें जैसे-जैसे मनुष्य आगे बढ़ता है वैसे-वैसे उसे ऐसे देश मिलते हैं जिनमें अबतक किसीने पैर नही रखा था और ऐसा क्षेत्र मिलते हैं जिन्हें अबतक किसीने जाना नहीं था । और यहां जो कर्म करनेको कहा जाता है वह भी ऐसा कर्म नहीं है जिसे चाहे किसी मार्गका चाहे जो साधक कर सके; यह कार्य 'नैर्व्यक्तिक ब्रह्मके लिये भी नही हे जो नैर्व्यक्तिक होनेके कारण ही क्रियाशील शक्ति नहीं है, बल्कि जो इस विश्वकी सभी क्यिाओंका एकसाथ ही उदासीन आधारमात्र है । यह कर्म तो उन्हीं लोगोंके लिये साधनाका एक क्षेत्र है जिन्हें इस योगके कठिन और जटिल मार्गको तै करना है, दूसरे किसीके लिये नही है 1 यहां सभी कर्मोंको स्वीकृति, नियमानुवर्तन और समर्पणकी भावनाके साथ ही करना होता है, अपनी वैयक्तिक मांगों और शत्तोंके रखते हुए नहीं, प्रत्युत सजग और सचेत होकर निर्दिष्ट नियंत्रण और परिचालनकी अधीनता स्वीकार करते हुए करना होता है । अन्य किसी भावसे किया हुआ कर्म वातावरणमें अनाध्यात्मिक असामंजस्य, अस्तव्यस्तता और उथल-पुथल उत्पन्न करता है । समचित भावके साथ कर्म करनेपर भी बहुतसी कठिनाइयां उपस्थित होतीं हैं, भूल-भ्रांतियां होतीं हैं, पद-पदपर ठोकरें खानी पड़ती हैं, क्योंकि इस योगमें साधकोंको बड़े धैर्यके साथ और उनके अपने प्रयासके लिये भी कुछ क्षेत्र रखते हुए अनुभवके सहारे, मन-प्राणके स्वाभाविक अज्ञानसे बाहर निकलकर वृहत्तर आत्मा और ज्योतिर्मय ज्ञानमें ले जाना होता है । परन्तु विना पथप्रदर्शनके यदि साधक साधारण मानसिक चेतनाके परेके

 

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इन क्षेत्रोंमें घूमने-भटकने लगे तो इसमें यह भय है कि योगकी भित्ति ही नष्ट हों जाय और केवल जिन अवस्थाओंमें ही कर्म किया जा सकता है उन अवस्थाओंको ही साधक खो बैठे । इस मध्यवर्ती क्षेत्रको पार करनेका रास्ता-जिससे होकर जानेके लिये सभी बाध्य नहीं है, क्योंकि बहुतसे लोग इससे अपेक्षाकृत तंगपर अधिक निश्चित पथसे इसे पार कर जाते हैं - बहुत विकट है; पर इस मार्गपर चलनेसे जो फल प्राप्त होता है उससे जीवनमें बहुत विशाल और समृद्ध सृष्टि की जा सकती है, परन्तु जब कोई यहां आकर डूब जाता है तब बाहर निकलना बहुत कठिन और कष्टसाध्य हो जाता है और बहुत दिनोंतक संघर्ष और प्रयास करनेपर ही संभव होता ३ ।

 

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          तुमने जो अनुभव मुझे लिखकर भेजे हैं वे सब मैनई पढा लिये हैं और मुझे तुम्हारा और 'क्ष' का पत्र भी मिला है । जैसा कि तुमने कहा है, यह निःसंदेह सच है कि तुम्हारी साधना अन्य लोगोंसे भिन्न दिशाओंमें चली गई हे किन्तु इससे यह परिणाम नहीं निकलता कि इस संबंधमें तुम्हारा अपने ही विचारोंके लिये आग्रह रखना बिलकुल सही है । तुम्हारे अनुभवोंके विषयमें मैनई जो देखा-भाला है वह मैं तुम्हें संक्षेपसे कहता हूँ ।

 

        पहली बातें जो तुमने लिख भेजी थीं वे बहुत रसप्रद और मूल्यवान्, चैत्य-आध्या- त्मिक और चैत्य-मानसिक अनुभव एवं संदेश थे । बादमें लिखी गई बातें चैत्य-भाव- प्रधान अनुभवोंकी ओर अधिक झुकी हुई है और उनमें एक विशेष प्रकारकी एक पक्षीयता और मिलावट है तथा उनमें दोहरे ढंगके चैत्य-प्राणिक एवं चैत्य-भौतिक तत्व भी आ मिले हैं 1 मेरा यह आशय नहीं कि उनमें सब कुछ मिथ्या ही है किन्तु यह कि उनमें ऐसे अनेक प्रबल आशिक सत्य हैं जिन्हें उन अन्य सत्योंके द्वारा शुद्ध करनेकी आवश्यकता है जिनकी वे उपेक्षा या बहिष्कार तक करते प्रतीत होते हैं । इसके अतिरिक्त बुद्धि तथा प्राणिक सत्तासे और बाह्य स्रोतोंसे भी ऐसे सुझाव आते हैं जिन्हें तुम्हें उतनी आसानीसे स्वीकार नहीं कर लेना चाहिये जितनी आसानीसे तुम करते प्रतीत होते हो । प्रारंभिक अवस्थाओंमें यह मिश्रण अनिवार्य होता है और इस संबंधमें निरुत्साह होनेकी आवश्यकता नहीं । पर यदि तुम इसे कायम रखनेका आग्रह रखोगे तो यह तुम्हें सच्चे मार्गसे भ्रष्ट कर सकता है और तुम्हारी साधनाको हानि पहुँचा सकता है ।

 

         तुम्हें अभीतक चैत्यसत्ता और चैत्य जगतोकी प्रकृतिका पर्याप्त अनुभव नहीं हुआ है । इस कारण तुम्हारे लिये, अपने सामने आनेवाली सभी वस्तुओंको सच्चा मूल्य प्रदान करना संभव नहीं है । जब चैत्य चेतना खुलती है, विशेषकरके ऐसी उन्मुक्त- ता और तेजीके साथ जैसा कि तुम्हारे साथ हुआ है,-तो यह सब तरहकी वस्तुओंके प्रति और सब प्रकारकी भूमिकाओं, जगतों, शक्तियों और सत्ताओंसे आनेवाले सुझावों और संदेशोंके प्रति खुलती है 1 एक सच्चा चैत्य भी है जो सदैव मंगलमय होता है और एक अन्य चैत्य भी होता है जो उन मानसिक, प्राणिक और अन्य लोकोंकी ओर खुलता है जिनमें सब प्रकारकी भली, बुरी और साधारण, सच्ची, झूठी और अर्धसत्य वस्तुएं,

 

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सब प्रकारके विचारात्मक सुझाव और सभी ढंगके संदेश भी होते हैं । आवश्यकता इस बातकी है कि तुम समभावसे अपनेको उन सभीके हाथमे न सौंप दो बल्कि अपने संतुलनका कायम रख सकनेके लिये पर्याप्त ज्ञान और अनुभव एवं पर्याप्त विवेक दोनोंका विकास करो तथा मिथ्यात्व और अर्धसत्यों और मिश्रणकोको बाहर निकाल दो । इस आधारपर कि यह तो. महज बुद्धिवाद है, विवेककी आवश्यकताका अधीरता- पूर्वक परित्याग कर देनेसे काम नही चलेगा । विवेकका बुद्धिसंगत होना आवश्यक नही है यद्यपि वह भी ऐसी चीज नही जिसकी अवहेलना करनी चाहिये । किन्तु यह एक चैत्य विवेक या ऐसा विवेक हो सकता है जो अतिभौतिक मन एव उच्चतर सत्ता- भैंसे आता है । यदि यह तुम्हारे पास न हों तो तुम्हें निरंतर उन लोंगोंसे रक्षण और पथप्रदर्शन प्राप्त करनेकी आवश्यकता होगी जिन्हें यह प्राप्त हैं और जिन्हें लम्बा चैत्य अनुभव भी है, और पूरी तरह अपनेपर भरोसा रखना तथा इस प्रकारके मार्ग- दर्शनको अस्वीकार करना तुम्हारे लिये संकटपूर्ण हो सकता है ।

 

         इसी बीच साधनाके ये तीन नियम हैं जिनका प्रारंभिक चरणमें पालन करना बहुत आवश्यक है और जिन्हें तुम्हें याद रखना चाहिये । सबसे पहले, अपनेको अनुभवके प्रति खोलो पर अनुभवोंका ' 'भोग' ' न करो । अपनेको किसी विशेष प्रकारके अनुभवके साथ आसक्त न करो । सब विचारों और सुझावोंको सच्चा न मान लो ओर किसी ज्ञान, वाणी या चिन्तन-संदेशको चरम रूपसे अन्तिम एव निर्णायक न समझ लो । सत्य स्वयं केवल तभी सत्य होता है जब वह सर्वांगपूर्ण होता है और व्यक्ति जैसे जैसे ऊपर उठता है तथा उसे उच्चतर स्तरसे देखता है वैसे वैसे सत्य अपना अर्थ बदलता जाता है ।

 

         मुझे तुम्हें उन विरोधी प्रभावोंके सुझावोंसे अपनी रक्षा करनेके लिये सावधान करना होगा जो इस योगमें सभी साधकोंपर आक्रमण करते हैं । तुम्हें जो युरोपियनका अन्तर्दर्शन हुआ था वह स्वयं तुम्हारे लिये इस बातकी सूचना देता है कि इन शक्तियोंकी आंखें तुमपर लगी हुई हैं, यदि वे पहले ही तुम्हारे विरोधमें कार्य न कर रहीं हों तो अब करनेके लिये तैयार हैं । उनके अधिक खुले आक्रमण नही किन्तु वे सूक्ष्मतर सुझाव ही सबसे अधिक खतरनाक हैं, जो सत्यका रूप धारण करते है, उनमेंसे बहुधा आनेवाले कुछ सुझावोंका मैं चर्चा करूँगा ।

 

        तुम्हारे अहंकारको उत्तेजित करनेकी चेष्टा करनेवाले किसी भी सुझावका विरोध करनेके लिये सतर्क रहो, उदाहरणके लिये यह कि तुम अन्य लोंगोंसे अधिक महान् हों या कि तुम्हारी साधना अद्वितीय या असाधारण रूपसे उच्च प्रकारकी है । ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकारका कोई सुझाव तुम्हारे पास आ चुका है । तुमने चैत्य अनुभवोंका समृद्ध और तीव्र विकास प्राप्त किया है किन्तु इतने ही असंदिग्ध रूप- मे कुछ अन्य लोग भी उन्हें पा चुके हैं जिन्होंने यहां साधनाकी है और तुम्हारे अनुभवमेंसे एक भी अपने प्रकार या कोटिकी दृष्टिसे अद्वितीय, या हमारे अनुभवोंके लिये अपरिचित नहीं हैं । यदि ऐसा न भी हो तो भी अहंकार साधनाके लिये सबसे बड़ा खतरा है और उसे आध्यात्मिक दृष्टिसे उचित कभी नही ठहराया जा सकता । महिमा

 

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सारी भगवान्की हीं है, किसी दूसरेकी नही ।

 

      ऐसी हरेक वस्तुसे अपनेको बचाओ जो तुम्हें किसी अशुद्धि या अपूर्णतासे, मनकी अव्यवस्था, हदयकी आसक्ति, प्राणकी कामना और आवेगसे या शरीरके रोगसे चिपटे रहने या उन्हें कायम रखनेका सुझाव देती है । इन वस्तुओंको चतुराई भरे समर्थनों और आवरणोंके द्वारा बनाये रखना विरोधी शक्तियोंकी घिसी-पिटी युक्तियोंमेंसे एक है।

 

       जो कोई भी विचार दिव्य शक्तियोंकी-सी शर्तपर ही तुम्हें इन विरोधी शक्तियोंको भी अंदर आने देनेके लिये प्रेरित कर उससे सतर्क रहो । मै समझता हूँ, तुमने. यह कहा है कि तुम्हें सब वस्तुओंको अन्दर आने देना चाहिये क्योंकि सब कुछ भगवान्की ही अभिव्यक्ति है । एक विशेष अर्थमें सभी भगवान्की अभिव्यक्ति है परन्तु यदि इसका गलत अर्थ लगाया जाय, जैसा कि प्रायः होता है, तो यह वेदांतिक सत्य असत्यके उद्देश्यों- की पूर्तिके लिये भी तोडा-मोडा जा सकता ३ । ऐसी बहुतसी वस्तुएं हैं जो आशिक अभिव्यक्तियां हैं और उनके स्थानपर अधिक पूर्ण और सच्ची अभिव्यक्तिको लाना है । अन्य कुछ ऐसी अभिव्यक्तियां भी हैं जिनका संबंध अज्ञानसे है और जो हमारे ज्ञानकी ओर अग्रसर होनेपर झड़ जाती है । कुछ और ऐसी भी हैं जो अंधकारमय हैं और उनके साथ युद्ध करके उन्हें नष्ट या निर्वासित कर देना चाहिये । यह एक ऐसी अभिव्यक्ति हैं जिसका प्रयोग, अपने अन्तर्दर्शनमें तुमने जिस युरोपियनको देखा था उसके द्वारा सूचित शक्तिने खुल कर किया है और इसने अनेक लोगोंकी योग साधनाको बरबाद कर दिया है । स्वयं तुमने बुद्धिको अस्वीकार करना चाहा था किन्तु फिर भी, तुमने जिन अन्य वस्तुओंको स्वीकार किया है, बुद्धि भी उनकी भांति भगवान्की ही अभि- व्यक्ति है ।

 

        यदि तुम वस्तुत: मुझे स्वीकार करते हों और अपनेको समर्पित करते हों तो तुम्हें मेरे सत्यको स्वीकार करना होगा । मेरा सत्य वह है जो अज्ञान और मिथ्यात्वको अस्वीकार करके ज्ञानकी ओर अग्रसर होता है, अंधकारको तजकर प्रकाशकी ओर बढ़ता है, अहंकारका निषेध कर भागवत आत्माकी ओर गति करता है, अपूर्णताओंका त्याग कर पूर्णताओंकी ओर प्रगति करता है । मेरा सत्य केवल भक्ति या चैत्य विकासका ही सत्य नही है बल्कि ज्ञानका, पवित्रताका, दिव्य बल एवं स्थिरताका तथा इन सब वस्तुओंको इनके मानसिक, भावप्रधान और प्राणिक रूपोंसे इनकी अतिमानसिक यथार्थतातक ले जानेवाला भी सत्य है ।

 

        मैं ये सब बातें तुम्हारी साधनाका महत्व कम करनेके लिये नही किंतु तुम्हारे मनको बढ्ती हुई समग्रता और पूर्णताके मार्गकी ओर मोडनेके लिये कहता हूँ ।

 

       तुम्हें यहा रखना मेरे लिये अभी संभव नही है । पहले तो इसलिये कि आवश्यक शर्तें पूरी नही हुई और दूसरे इसलिये कि यहा आनेसे पहले तुम्हें मेरे पथ प्रदर्शनको स्वीकार करनेके लिये पूरी तरह तैयार रहना होगा । यदि, तुम्हें घर जाना ही पड़े, जैसा कि मैं मानता हूँ कि वर्तमान परिस्थितिमें तुम्हें अवश्य करना चाहिये, तो वहां अपनेको मेरी ओर उन्मुख करके ध्यान करो, और अपनेको इस प्रकार तैयार करनेका

 

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यत्न करो जिससे तुम इसके बाद यहां आ सको । तुम्हें इस समय चैत्य विकासकी इतनी अधिक आवश्यकता नहीं, उसे तो तुम सदैव कर सकोगे (मैं तुम्हें इसे बिलकुल बन्द करनेके लिये नहीं कहता), किन्तु तुम्हारे भावी विकास और अनुभवके सच्चे आधार और परिवेशके रूपमें आंतरिक स्थिरता एवं अचंचलताकि, मनमें, शोधित प्राणसत्ता- और परिवेशके रूपमें आंतरिक स्थिरता एवं अचंचलताकि, मनमें, शोधित प्राण- सत्तामें और भौतिक चेतनामें स्थिरताकी आवश्यकता है । चैत्य-प्राणिक या चैत्य- भौतिक योग तुम्हारे लिये तबतक सुरक्षित नहीं होगा जबतक तुम्हें यह स्थिरता और सुनिश्चित पवित्रता तथा एक पूर्ण और सदा उपस्थित रहनेवाला प्राणिक और भौतिक संरक्षण प्राप्त न हो जाय।

 

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        मैंने 'क्ष' का पत्र ध्यान पूर्वक पढ लिया है और मैं समझता हूँ कि सबसे पहले उसके द्वारा उल्लिखित उसकी वर्तमान स्थितिकी व्याख्या करना सबसि उत्तम होगा । क्योंकि मुझे लगता है कि उसने सच्चे कारणों और अर्थको नही समझा है ।

 

      निष्क्रियता और उदासीनताकी वर्तमान स्थिति पहलेकी उस असामान्य स्थितिकी प्रतिक्रिया है जिस तक वह बाहर या अंदरसे समुचित रूपसे संचालित न किये गये आंतरिक प्रयत्नों द्वारा पहुँचा था । इस प्रयत्नने उन आवरणोका भेदन किया जो भौतिक जगत्को चैत्य और प्राणिक जगतोंसे पृथक् करते हैं । किन्तु उसका मन तैयार न था और उसके अनुभवोंको समझनेमें असमर्थ था और उनका मनमौज और कल्पना- के प्रकाशके एवं भ्रामक मानसिक और प्राणिक सुझावोंके आधारपर निर्णय करता था । राजप्तइक और आहंकारिक ऊर्जासे परिपूर्ण उसकी प्राणिक सत्ता इन नवीन क्षेत्रोंका उपभोग करने एवं अपने निम्रतर लक्ष्योंके लिये कार्य करती हुई शक्तिका उपयोग करनेके लिये तेजीसे दौड पडी । इससे प्राणिक जगत्की विरोधी शक्तिको घुस आनेका एवं आशिक रूपसे अधिकार जमानेका अवसर मिल गया और उसका परिणाम यह हुआ कि स्नायवीय एवं भौतिक संस्थान तथा मस्तिष्कके कुछ एक केन्द्र अस्तव्यस्त हो गये । ऐसा प्रतीत होता है कि अब आक्रमण और अधिकार जमानेकी चेष्टा समाप्त हो गई हैं और अपने पीछे तम और उदासीनताकी किलेबन्दीके साथ निष्क्रियता रूपी प्रतिक्रियाको छोड़ गई हैं । तम और उदासीनता अपने आपमें कोई अभीष्ट वस्तुएं नही हैं पर वे विगत अस्वाभाविक तनावके बाद विश्रामके रूपमें कुछ समयके लिये उपयोगी अवश्य हैं । शक्तिके नवीन और सच्चे कार्यके लिये निष्क्रियता उत्तम आधार है ।

 

        उस ब्यक्तिकी अवस्थाकी यह सच्ची व्याख्या नही है कि वह अन्दरसे निष्प्राण हो गया है और केवल बाहरी प्रवृति ही चल रही है । सच यह है कि अपनेको कर्ता माननेवाला प्राणिक-अहंकारका केन्द्र कुचल दिया गया है और वह अब समस्त विचार और प्रवृत्तिको अपने बाहर क्रीड़ा करते हुए अनुभव करता है । यह ज्ञानाबस्था है;

 

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कारण यथार्थ सत्य यह है कि ये सब विचार और क्रियाएं प्रकृतिकी हैं और वैश्व प्रकृतिसे लहरोंके रूपमें हमारे भीतर आती हैं या हमारे अंदरसे गुजरती हैं । हमारा अहंकार और शरीर तथा व्यक्तिगत स्थूल मनमें हमारी आबद्धता ही हमें इस सत्यका वेदन और अनुभव करनेसे रोकती है । इस सत्यका बोध और अनुभव कर सकना, जैसा कि अब वह कर रहा है, एक बड़ा कदम है । निःसंदेह यह पूर्ण ज्ञान नहीं है । ज्ञानके पूर्णतर होने और चैत्य सत्ताके ऊर्ध्वमे खुलनेके साथ ही मनुष्य सब क्रियाओंको ऊपरसे उतरता हुआ अनुभव करता है और उनके सच्चे उद्गमको प्रान्त करके उन्हें रूपांतरित कर सकता है ।

 

           उसके सिरमे प्रकाशकी क्रीड़ा होनेका अर्थ है कि उसमें उस उच्चतर शक्ति और ज्ञानका उद्घाटन हों चुका है जो ऊपरसे प्रकाश रूपमें उतर रहा है और मनको आलों- कित करनेके लिये उसपर क्रिया कर रहा है । विद्युत-प्रवाह एक ऐसी शक्ति है जो निम्र- तर केंद्रोंमें कार्य करने और उन्हें प्रकाश ग्रहण करनेके लिये तैयार करनेके प्रयोजनसे अवतरित हो रही है । ठीक अवस्था तभी आयेगी जब प्राणशक्तियोको ऊपरकी ओर जानेके लिये जोर लगानेका यत्न करनेके स्थानपर प्राण स्थिर और समर्पित हो जायगा रहनेके स्थानपर हृदय ऊपरके सत्यके प्रति निरन्तर अभीप्सा करेगा । प्रकाशकों इन निम्रतर केन्द्रोंमें उतरना होगा जिससे कि वह मानसिक बिचार और संकल्पकी तरह भावप्रधान एवं प्राणिक और भौतिक सत्ताको भी रूपांतरित कर दे ।

 

         चैत्य अनुभवों एवं अदृश्य जगतोंके ज्ञानकी, और इसी प्रकार अन्य योग संबंधी अनुभवोंकी उपयोगिता हमारी इन संकीर्ण मानवीय धारणाओंसे नही नापनी चाहिये कि मनुष्यके वर्तमान भौतिक जीवनके लिये क्या चीज उपयोगी हो सकती है । सबसे पहले ये चीजों चेतनाकी पूर्णता और सत्ताकी समग्रताके लिये आवश्यक हैं ! दूसरे, ये अन्य जगत् हमपर कार्य कर रहे हैं । और यदि तुम उन्हें जानो और उनमें प्रवेश कर सको तो इन शक्तियोंके शिकार और कठपुतलियां बननेके स्थानपर हम सचेतन रूपसे उनसे व्यवहार कर सकते हैं, उनका नियमन और उपयोग कर सकते हैं । तीसरे, मेरे योगमें अर्थात् अतिमानसिक योगमें उस चैत्य चेतनाका उद्घाटन नितनित अनिवार्य है जिसके साथ इन अनुभवोंका संबंध है क्योंकि एक मात्र चैत्य उद्घाटन द्वारा ही अति- मानसिक चेतना दृढ और ठोस पकडके साथ पूरी तरह अवतरित होकर मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ताको रूपांतरित कर सकती है ।

 

         यह है वर्तमान स्थिति और उसकी महत्ता एवं मूल्य । भविष्यमें यदि वह मेरे योगको स्वीकार करना चाहता हो तो इसकी शर्ते हैं स्थिर संकल्प और उस सत्यकी अभीप्सा जिसे मैं अवतरित कर रहा हूँ, शांत निष्क्रियता और उस उद्गमके प्रति ऊपर- की ओर उद्घाटन जहांसे प्रकाश आ रहा है । शक्ति उसमें पहलेसे ही कार्य कर रही है और यदि वह इस वृत्तिको ग्रहण करे और बनाये रखे एवं मुझपर पूरा भरोसा करे तो कोई कारण नहीं कि उसके आधारमें हुई भौतिक और प्राणिक क्षतिके बावजूद उसकी साधना निरापद रूपसे अग्रसर न हो । मुझे मिलनेके लिये उसके आनेके विषयमें बात यह है कि मैं अभी पूरा तैयार नहीं हूँ किंतु हम इस संबंधमें तुम्हारे पांडिचेरी आने-

 

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के बाद बात करेंगे ।

 

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      जहांतक तुम्हारे पत्रका प्रश्न है, मैं समझता हूँ कि तुम्हें पत्र लिखनेवालेको कहना होगा कि उसके पिताने गुरु किये बिना हीं योग साधना करनेकी भूल की-क्योंकि गुरु संबंधी मानसिक बिचार यथार्थ जीवन्त प्रभावका स्थान नही ले सकता । विशेषत. इस योगमें, जैसा कि मैंने अपनी पुस्तकोंमें लिखा है, गुरुकी सहायताकी आवश्यकता होती ही है ओर यह उसके बिना नही किया जा सकता । उसके पिता जिस अवस्थामें जा पड़े हैं बह योगभगकी स्थिति है, सिद्धिकी स्थिति नहीं, । वे सामान्य मानसिक चेतनामेमे निकलकर चेतनाके ऐसे किसी मध्यवर्ती ( आध्यात्मिक नही) प्रदेशके संपर्क- मे आ गये हैं जहां व्यक्ति सब प्रकारकी वाणियों, सुझावों, विचारों और तथाकथित अन्तप्रेरणाओंके आधीन हो सकता है जो सच्ची नही होती । मैंने अपनी किसी पुस्तक- मे इन मध्यवर्ती प्रदेशोंके खतरोंके बिरुद्ध चेताबनी दी हैं । साधक इस प्रदेशमें प्रवेश करनेसे बच सकता है -- यदि वह प्रवेश करे ही तो उसे इन सब वस्तुओंको तटस्थता पूर्वक देखना और उनपर विश्वास किये बिना उनका निरीक्षण करना होगा,--ऐसा करनेसे वह सच्चे आध्यात्मिक प्रकाशमें सुरक्षित रूपसे पहुँच सकता है । यदि वह उन सबको बिना विवेक किये सच्चा या यथार्थ रूपमें ग्रहण कर लेता है तो बहुत संभव है कि वह अपनेको भारी मानसिक गडबडमें फंसा ले और यदि इसके साथ हीं वहां मस्तिष्क- की क्षति या निर्बलता भी हों - जो रक्त मूर्छासे पीड़ित रहा हो उसके लिये पिछली बात बिलकुल संभव है -- तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं और इससे बुद्धिमें भी गड़बड़ पैदा हों सकती है । यदि आध्यात्मिक खोजके साथ महत्वाकांक्षा, या इसी प्रकारका अन्य हेतु मिला हुआ हों तो वह योग भ्रष्टताकी दिशामें अतिरंजित अहं- कार या महत्वोन्मादकी वृद्धिकी ओर भी ले जा सकती है -- दौरेके समय उसके पिता- के मुखसे जो उद्गार निकले उनमें ऐसे कितने ही लक्षण हैं । वस्तुत: कोई भी पर्याप्त लम्बे समयतक तैयारी और शोधन किये बिना साधनाके इन अनुभवोंमें नहीं कूद सकता या उसे कूदना नही चाहिये (जबतक उसके पास पहले ही कोई महान् आध्यात्मिक क्षमता और उच्चता विद्यमान न हों) । श्रीअरविन्द स्वयं अपने मार्गमें बहुत लोगों- को स्वीकार करनेकी परवाह नही करते और स्वीकार करनेकी अपेक्षा कही अधिक लोगोंको मना कर देते हैं । यह अच्छा होगा कि वह अपने पिताको साधनाका और आगे अनुसरण करनेसे रोक दे - क्योंकि वे जो कुछ कर रहे हैं वह वस्तुत: श्रीअरविन्द- का योग नही है किन्तु कोई ऐसी वस्तु है जिसकी रचना उन्होंने अपने मनसे की है और

 

      मध्यवर्ती प्रदेशके खतरोंके विरुद्ध यह चेतावनी श्रीअरविन्द एक लेने पत्रमें दी थी जो पत्र 'इस जगत्की पहेली' नामकी प्रयासमें १९३ ३में सबसे पहले प्रकाशित हुआ था । पत्रोंके इस खण्डमे उस पत्रका समावेश फरा लिया गया है । देखो पृष्ठ 530-537

 

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एक बार ऐसी गड़बड़ पैदा हों जानेपर सबसे अधिक समझदारीका रास्ता यही हे कि साधनाको बन्द कर दिया जाय ।

 

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       मध्यवर्ती प्रदेशका अभिप्राय है केवल एक ऐसी अस्तव्यस्त स्थिति या ऐसा मार्ग जिसमें व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत चेतनामेंसे बाहर निकल रहा है और अभी मानव मनके स्तरोंको पार किये बिना ही वैश्व चेतना (वैश्वमन, वैश्व प्राण, वैश्व देह, शायद कोई वैश्व उच्चतर मनकी वस्तु) के अन्दर उद्घाटित हों रहा है । मनुष्य भागवत सत्यको ' 'उसके अपने स्तरोंपर' ' अधिगत नही करता न उसके साथ सीधे संपर्कमें ही आता हैं, पर व्यक्ति उन स्तरोंसे, यहां तक कि अधिमानससे भी अप्रत्यक्षरूपसे किसी वस्तुको ग्रहण कर सकता है । किंतु, क्योंकि मनुष्य अभी तक वैश्व अज्ञानमें डूबा हुआ है इसीलिये ऊपरसे मानेवाली सभी वस्तुएं मिश्रित और विकृत हों सकती है, निम्रतर और विरोधी शक्तियां भी उन्हें अपने प्रयोजनके लिये हथिया सकती हैं ।

 

        मध्यवर्ती प्रदेशको पार करते हुए संघर्ष करना प्रत्येक व्यक्तिके लिये जरूरी नही है । यदि मनुष्य अपनेको शुद्ध कर लें, यदि उसमें कोई असामान्य गर्व, अहंकार, महत्वाकांक्षा या अन्य कोई प्रबल भ्रामक तत्व न हों, या यदि व्यक्ति सृजक और सावधान रहे, अथवा यदि चैत्य अग्रभागमें हों तो वह चेतनाके उच्चतर प्रदेशोंमें जहां वह भागवत सत्यके संपर्कमें होता है, या तो तेजीसे या सीधे अथवा कमसे कम कष्टके साथ गुजर सकता है ।

 

       दूसरी ओर उच्चतर प्रदेशमेंसे अर्थात् उच्चतर मन, आलोकित मन, संबोधि, अधिमानसमे होकर जानेवाला मार्ग अनिवार्य है -- वर्तमान चेतना और अति- मानसके बीचमें ये ही सच्चे मध्यवर्ती प्रदेश हैं ।

 

*

 

        मेरा इस ( मध्यवर्ती-क्षेत्र) से यह आशय है कि जब साधक अपने देहबद्ध व्यक्ति- गत मनकी सीमाओंको पार कर जाता दू तो वह उन अनुभवोंके विशाल मैदानमें प्रवेश करता है जो वस्तुओंके सीमित ठोस स्थूल सत्य नही होते और न हीं अभी तक वस्तुओं- के आध्यात्मिक सत्य हीं । यह मानसिक, प्राणिक और सूक्ष्म भौतिक रचनाओंको प्रदेश है और व्यक्ति जो भी रचना करता है या हमारे अन्दर इस जगत्की शक्तियां जो भी रचना करतीं हैं, वह सब साधकके लिये थोड़े समयके लिये सत्य बन जाता है - यदि वह अपने पथप्रदर्शक द्वारा संचालित न हो और उसकी बात न सुने तो आगे जाकर यदि वह उसे पार कर ले तो वह उस प्रदेशके सत्यको खोज निकालता है और वस्तुओंके सूक्ष्म सत्यमें प्रविष्ट हों जाता है । यह एक ऐसा सीमा प्रांत है जहां मानसिक, प्राणिक, सूक्ष्मभौतिक, मिथ्या आध्यात्मिक, सभी जगत् मिलते हैं - किन्तु वहां कोई क्रम या

 

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 दृढ आधार भूमि नहीं होती - यह स्थूल और सच्चे आष्यात्मिक प्रदेशोंके बीचका मार्ग है ।

 

*

 

       तुम उस वैश्व चेतनाकी ओर प्रारंभिक कदम उठा रहे हो जिसमें भली और बुरी, सच्ची और झूठी, सब प्रकारकी वस्तुएं तथा वैश्व सत्य और वैश्व अज्ञान भी हैं । .मैं अहंके विषयमें इतना नहीं सोच रहा था जितना कि इन हज़ारों वाणियों, संभावनाओं और सुझावोंके विषयमें । यदि तुम इनसे बच जाओ तो मध्यवर्ती क्षेत्रोंमेंसे गुजरनेकी जरूरत नहीं । बचनेसे वस्तुत: मेरा मतलब यह है कि उन्हें घुसने न देना - मनुष्य उनके स्वभावका परिचय प्राप्त करके आगे बढ़ जा सकता है ।

 

*

 

       सामान्य चेतनाकी सीमाको पार कर यदि कोई चैत्यमें प्रवेश करनेकी सावधानी नहीं रखता तो वह इस (मध्यवर्ती) क्षेत्रमें घुस सकता है । इस प्रदेशसे गुजरभर जानेंमें कोई हानि नहीं, बशर्ते कि वहां रुका न जाय । किंतु अहं, कामवासना, महत्त्व- कांक्षा आदि यदि अतिशय बढ़ जायें तो आसानीसे संकटपूर्ण अधःपतनकी ओर लें जा सकते हैं ।

 

*

 

         यह (आवरणका भेदन) साधनाके दबावके साथ ही अपने-आप होता है । इसे विशेष एकाग्रता और प्रयत्नके द्वारा भी संपादित किया जा सकता है ।

 

      निश्चय ही यह अधिक अच्छा है कि व्यक्तिगत और विश्वगत चेतनाके बीचके पर्दे या आवरणके हटनेसे पूर्व, जो  आंतर सत्ताको उसकी संपूर्ण विशालताके साथ संमुख भागमें लानेके कारण संभव होता है, चैत्य पुरुष सचेतन और सक्यि हों जाय । क्योंकि तब, जिसे मैं मध्यवर्ती क्षेत्र कहता हूँ उसकी कठिनाइयोंका खतरा बहुत कम रहता है ।

 

*

 

         तुम्हारे ये सब अनुभव उस प्रदेशसे संबद्ध: रखते हैं जिन्हें मैनई मध्यवर्ती प्रदेशका नाम दिया है; उन अनुभवोंका एक विशाल समुदाय प्राणिक भूमिकाके अनुभवोंका है । प्राणिक स्तरमें भली और बुरी, लाभदायक और हानिकर, आधी सच्ची और

 

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 झूठी, यथार्थ और भ्रामक सर्वप्रकारकी वस्तुएं होती हैं इसलिये व्यक्तिको बहुत साब- धान और जागरूक एवं प्रकाशके सच्चे उद्गमके प्रति उत्सुख रहना चाहिये । मुश्किल यह है कि व्यक्तिको यहां पहले सच्चा आध्यात्मिक अनुभव हो सकता है और आगे जाकर सब प्रकारकी नकल करने और धोखा देनेवाली चीजे अन्दर आकर अपने साथ मिथ्या अनुभूतिके खतरेको ला सकती हैं । मनुष्यको अपने अनुभवोंपर निगरानी रखना और निरीक्षण करना होगा एवं उनमें विवेक करने और उन्हें समझनेकी चेष्टा करनी होगी - दो बातोंकी प्रतीक्षा करते हुए, एक तो ऊपरसे विस्तृततर उच्चचेतनाके उद्घाटनकी और दूसरे, चैत्यके पीछेकी ओरसे आगे आनेकी । जब ये चीजों पूरी हों जाती हैं, तो भूल होनेके अवसर कम हो जाते हैं और साधनामें सच्चा आंतरिक संचालन उत्तरोत्तर अधिक अनुभव 'होने लगता है ।

 

     प्रकाश सब प्रकारके होते हैं, अतिमानसिक, मानसिक, प्राणिक, भौतिक, दैवी या आसुरिक - मनुष्यको निरीक्षण करना चाहिये, अनुभवमें विकसित होना चाहिये और उनके पारस्परिक भेदकों जानना सीखना चाहिये तथापि सच्ची ज्योतियोंको उनकी निर्मलता और सौंदर्यके द्वारा पहचानना कठिन नही ।

 

      ऊपरसे आनेवाली धारा और ऊर्ध्वमुखी धारा यौगिक अनुभवके परिचित लक्षण है उच्चतर प्रकृतिकी ऊर्जा और निम्रतर प्रकृतिकी ऊर्जा ही सक्रिय होकर परस्पर अभिमुख हों जाती हैं और एक ऊपर चढ़ती हुई और दूसरी नीचे उतरीती हुई धाराके रूपमें मिलनेके लिये आगे बढ्ती हैं । उनके मिलनेपर क्या होगा यह तो साधक पर ही आधार रखता है । यदि वह उच्चतर चेतना द्वारा निम्रतर चेतनाको शुद्ध करनेके लिये निरंतर संकल्प बनाये रखता हो तो मिलनका परिणाम शुद्धि और आध्यात्मिक प्रगति होता है । यदि उसका मन और प्राण मलिन और तमसाच्छन्न हों तो उसमें संघर्ष, अशुद्ध मिश्रण और बहुत अधिक गड़बड़ा उत्पन्न होती है ।

 

     सत्ताका, एक तो पीछे रहनेवाली बृहत्तर चेतना, दूसरे अग्रभागमें रहनेवाली अल्पतर चेतना इन दो भागोंमें विभक्त हों जाना भी साधना का एक परिचित लक्षण है । यह अपने आपमें एक आवश्यक क्रिया है, इसका स्वाभाविक परिणाम होना चाहिये एक बृहत्तर यौगिक चेतनामें विकास जो शूद्र बाह्य चेतनापर हावी होते जाय और भागवत शक्तिके दबावके आधीन रूपांतरका साधन बनता जाय । किन्तु इसमें भी गलती होनेकी संभावना होती है - विशेषकर कोई बाहरकी शक्ति घुस आ सकती है और पृष्ठभागमें स्थित विशालतर चेतनाके स्थानपर 'उस वृहत्तर अहंकारको ला बीठा सकतीं है जो वही होनेका ढोंग रचाती दु । मनुष्यको इस प्रकारकी घुसपैठके सामने अपना बचाव करना होगा, क्योंकि साधनापथको बरबाद करनेवाली इस घुस- पैंठके कारण बहुतसे साधक दीर्घकाल तक दारुण कष्ट पाते हैं ।

 

       सब मिलकर चैत्य विकासके लिये और शेष प्रकृतिपर उसके शासनके लिये एवं विशालतर प्राणिक चेतनाकी ओर नही किंतु ऊपर स्थित उच्चतर चेतनाकी ओर उद्घाटनके लिये अभीप्सा करो । और अपनेको सभी क्रमिक अवस्थाओंमें श्रीमांके रक्षण और उनकी कृपाके प्रति उद्घाटित करो एवं नन्हे अपनी रक्षा और पथप्रदर्शनके

 

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लिये पुकारों ।

 

         इस प्रकारकी अभिव्यक्ति ( आदेश) योगाभ्यासकी एक विशेष स्थितिमें बहुधा आती ही हैं । मेरा अनुभव यह हे कि यह सर्वोच्च लोतमेंसे नही आती और इसपर भरोसा नही किया जा सकता एव जब तक ब्यक्तिमें इन आदेशोसे सूचित चेतना और सत्यसे अधिक ऊंची चेतना और महत्तर सत्यमें प्रवेश करनेका सामर्थ्य न आ जाय तबतक प्रतीक्षा करना अच्छा है । कभी-कभी वे मध्यवर्ती भूमिकाकी उन सत्ताओंसे आते हैं जो साधकका किसी कार्य या प्रयोजनके लिये उपयोग करना चरहती हैं । बहुत- से साधक स्वीकार कर लेते हैं, और कुछ,--सब तो कदापि नही, कुछ करनेमें सफल भी हो जाते हैं, किन्तु यह प्राय योगके महत्तर लक्ष्यको बलि देकर ही । अन्य उदाहरणों- मे वे ऐसी सत्ताओंसे आते हैं जो साधना विरोधी होती हैं और महत्वाकांक्षा, महान् कार्य करनेकी भ्रांति या अहंके किसी अन्य रूपकों उभाड़कर इसे निरर्थक बना देना चाहती हैं । प्रत्येक साधकको अपने लिये आप ही निर्णय करना होगा (यदि उसके पथप्रदर्शन- के लिये कोई गुरु न हों तो) कि वह इसे प्रलोभनके रूपमें माने या जीवन व्रतके रूपमें ।

 

*

 

       ये वाणिया कभी कभी ब्यक्तिकी अपनी मानसिक रचनाएं होती हैं और कभी बाहरके सुझाव भी होती हैं । उनका भला या बुरा होना इस बातपर आधार रखता है कि वे क्या कहती हैं और उस प्रदेशपर जहांसे वे आती हैं ।

 

*

 

       कोई भी व्यक्ति 'वाणिया' सुन सकता है -- सबसे पहले तो ब्यक्तिकी प्रकृतिकी कुछ क्रियाएं हैं जो वाणीको अपने ऊपर ले लेती हैं - पीर सब प्रकारकी सत्तर, भी हैं जो मजाकके लिये या एक गंभीर प्रयोजन वश अपनी वाणियोंके साथ आक्रमण करती !

 

*

 

       इस अवस्थामें यथार्थ शक्तिकी प्राप्तिकी अपेक्षा प्राप्तिका आभास अधिक होता है । कुछ ऐसी मिश्रित और पर्याप्त सापेक्ष शक्तियां भी हैं - कभी थोड़ीसी प्रभावशाली, कभी बिलकुल प्रभाव रहित - जो यदि भगवान्के नियंत्रणमें रखी जाये अर्थात् समर्पित की जायें तो किसी यथार्थ वस्तुके रूपमें विकसित की जा सकती हैं । किन्तु

 

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अहं बीचमें आकर इन छोटी वस्तुओंको बढ़ा चढ़ाकर उन्हे किसी विशाल और अद्वितीय वस्तुके रूपमें प्रस्तुत करता है एव समर्पण करनेसे इनकार करता है । तब साधक कोई प्रगति नही करता -- वह बिना किसी विवेक या समीक्षात्मक बुद्धिके अपनी ही कल्पनाओंके जंगलमे भटकता रहता है, या उन अव्यवस्थित शक्तियोकी क्रीडाको ले आता है जिन्हें न तो वह समझ हीं सकता है और न उनपर प्रभुत्व ही पा सकता है ।

 

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      अधिमानसिक शक्तियोंके नीचे प्रवाहित होनेपर उसका सबसे पहला परिणाम यह होता है कि बहुत बार अहं बहुत अधिक बढ़ जाता है; वह अपनेको प्रबल, लग- भग अदम्य (यद्यपि वह वास्तवमें वैसा नहीं होता), दिव्यभावापत्र और ज्योतिष्मान् अनुभव करता है । इस चीजका कुछ अनुभव होनेके बाद सबसे पहला कर्तव्य है इस अतिरंजित अहंसे छुट्टी पाना । इसके लिये तुम्हें पीछे हट आना चाहिये, उस क्रियाके प्रवाहमें अपनेको बह नही जाने देना चाहिये, बल्कि निरीक्षण करना, समझना, सभी प्रकारके मिश्रगाका त्याग करना और: विशुद्धतर तथा और भी अधिक विशुद्धतर ज्यर्ग़ेते और क्रियाकी अभीप्सा करनी चाहिये । यदि चैत्य पुरुष सामने आ जाय तो केवल तभी यह कार्य पूर्ण रूपसे किया जा सकता है । मन और प्राण, विशेषकर प्राण, इन शक्तियों- को पाकर अपने आहंकारिक प्रयोजनके लिये इन्हें पकड़कर इनका उपयोग करनेकी वृत्तिको मुश्किलसे ही रोक सकते हैं अथवा उच्चतर लक्ष्यकी सेवाके साथ अहंकारकी मांगकी मिला देते हैं जिसका वस्तुत. वही मतलब है ।

 

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         सबसे पहले तो व्यक्ति, ' क्ष' की मृत्युके बाद उसके विषयमें उसके शिष्योंने जो कुछ लिखा है उस सबपर, विश्वास करनेको बाध्य नही हैं । इसके अतिरिक्त उसके संसर्गमें वे जिन अनुभवोंका वर्णन करते है वे मध्यवर्ती भूमिकाओंके हैं, सर्वोच्च आध्या- त्मिक चेतनाके नही । उसे सर्वोच्च सत्ताके विषयमें जो भी अनुभव हुआ उसे उन्होंने चमत्कारपूर्ण और रोमांचक आख्यानोंके जंगलमे छिपा दिया । यह बहुत संभव है कि उसे एक महान् सिद्धिके रूपमें दिखानेकी चेष्टा करके उन्होंने उसे वस्तुत: जो वह था उससे भी नीचे गिरा दिया ।

 

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     सच्चा अंतर्बोध प्राप्त करनेके लिये मनुष्यको मनकी और प्राणकी भी आहंकारिक स्वेच्छासे, अपनी पसदगियोसे, तरंगों, हवाई कल्पनाओं, दृढ आग्रहोंसे मुक्त होना होगा और मानसिक एवं प्राणिक अहंकारके उस दबावका उन्मूलन करना होगा जो चेतनाको

 

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उसके अपने दावों और कामनाओंकी सेवापूर्त्तिके काममें लगाता है । अन्यथा थे वस्तुएं बलपूर्वक अन्दर आकर अन्तवोंध, अन्तःप्रेरणा और ऐसी हीं अन्य सब वस्तुएं होनेका दावा करेंगी। अथवा यदि कोई अन्तर्बोधके आये तो भी उन्हें अज्ञानकी इन शक्तियोंके मिश्रण द्वारा तोडा-मोडा और बिगड़ जा सकता है ।

 

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       नहीं, समयके ये संकेत और ये आवाज़ें श्रीमांकी ओरसे आनेवाले आदेश नहीं थे । मैनई तुम्हें इस बातके सत्यको बता दिया है; तुम्हें भौतिक जीवनके विषयमें श्रीमन् के द्वारा निर्धारित नियमोंका अनुसरण करना चाहिये, यदि कोई परिवर्तन करना हो तो, या तो वे स्वयं तुम्हें बतायेंगे या तुम्हें इसके लिये उनसे अनुमति लेनी होगी । अंदर सुनी गई कोई भी आवाज उनके आदेशसे प्रबल नहीं हो सकती एवं तुम्हारे अपने मनके द्वारा आई कोई भी सूचना तबतक अनिवार्य नही मानी जा सकती जबतक उनके लिये श्रीमांका समर्थन न प्राप्त हो ।

 

       तुमने एक ऐसा धपला कर दिया जो प्रायः इस प्रकारके अनुभवके प्रारंभ होनेपर होता है । इसमें संदेह नही हैं कि श्रीमांकि बह शक्ति जो तुम्हारे अन्दर और तुमपर कार्य कर रही थी, और कुछेक अनुभव, जैसे कि अपने हृदयमें श्रीमांकि अनुभूति, पूर्ण- तया यथार्थ थे । किन्तु जब शक्तिका दबाव चेतनापर क्यिा करता है, तो जिस भूमिका पर वह कार्य कर रही होती हैं उसमें, विभिन्न शक्तियोंकी महान् प्रवृत्तियोंकी क्रीड़ा प्रारंभ हो जाती है, उदाहरणार्थ यदि यह मन हो, तो नानाविध मानसिक शक्तियोंकी, यदि ये प्राणिक हों, तो विविध प्राणिक शक्तियोंकी । इन्हें सच्ची वस्तुओंके रूपमें ग्रहण करना, बिना नबुनचके मान लेना और श्रीमांके आदेशके रूपमें अनुसरण करना, निरापद नही है । तुमपर इतनी बलवान् शक्तिका दबाव पड़ा है कि इससे तुम्हारा सिर लम्बे समयतक हिलता रहा है । तुम्हारे सिरका इस प्रकार हिलना इस बातका चिह्न है कि मनमें या कमसे कम मनोमय स्थूल सत्तामें सारी शक्तिको ग्रहण करने और उसे आत्मसात् करनेकी क्षमता नहीं है, यदि उसने ऐसा किया होता, तो सिरमें कोई हलनचलन न होती, सब कुछ सहज, स्थिर और शांत रहता । किन्तु तुम्हारे मननें इस विशिष्ट घटनाको और फिर ऐसी अन्य घटनाओंपर भी कार्य करना, उनकी व्याख्या करना, इन्हें अपने अर्थ देने लगना तथा एक ऐसी पद्धति बनानेका यत्न करना शुरु किया जिसके द्वारा तुम्हारे आचार-व्यवहारको नियंत्रित किया जा सके और उसे प्रामाणिक माना जा सके तथा श्रीमांके आदेशके रूपमें प्रस्तुत किया जा सके । शक्तिकी क्यिा एक तथ्य थी, तुमने उसके आने जानेके विवरणकी जो व्याख्या की बह एक मानसिक रचना थी और उसका कोई बहुत वास्तविक मूल्य नहीं था ।

 

        यदि तुम इसे ध्यानपूर्वक देखो - जैसे कि मैनई तुम्हारे द्वारा उल्लिखित विवरण- को देखा है - तो तुम देखोगे कि ये सुझाव बहुत अस्थिर और परिवर्तनशील ढंगके हैं कभी एक बात तो कभी शीर; केवल तुम्हारा मन अपनेको परिवर्त्तनोंके

 

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अनुकूल बना लेता था, अपनी व्याख्याके उनके अनुकूल बिठा लेता था और एक पद्धतिमे संगति बनाये रखनेका यत्न करता था । किन्तु यथार्थमें सब कुछ अनियमित और अस्त- व्यस्त था ओर इसका झुकाव तुम्हारे कर्म और व्यवहारको अनियमित एवं अस्तव्यस्त बनानेकी ओर था । सच्चा अन्तर्बोध ऐसा नहीं करेगा, कमसे कम यह संतुलन, संवाद और व्यवस्थाकी ओर प्रवृत्त तो होगा ही ।

 

       कालके संकेतके संबंधमें तुम अन्तर्बोधके बात कहते हों । 'काल' का एक ऐसा अन्तर्बोध भी है जिसका संबंध मनसे नही होता और जब वह कार्य करता है तो सदैव एक-एक मिनटतक और जरूरत पडनेपर एक-एक सेकन्डतक सही होता है; परन्तु यह वैसा अन्तर्बोध नही था - क्योंकि यह हमेशा सही नही होता; वह शायद कितनी ही बार सही निकला, फिर यह भ्रामक बनने लगा, इसके कारण तुम्हें प्रणामके लिये पहुँचनेमें विलम्ब हों गया : यह दोपहरके भोजनमें भी विलबकी ओर धकेलने लगा, भोजनालयके कार्यकर्ताओंकी सुविधाके साथ संघर्ष करवाने लगा, यह शामके लिये भी तुम्हें विलंबकी दिशामें धकेलने लगा और तुम्हें पूरी तरह मंझधारमें छोड़ गया, जिससे कि अन्तत: तुम्हें शामको भोजन न मिला । किन्तु तुम्हारा मन अपनी निजी रचनाओंके साथ आसक्त हो गया था और इन अव्यवस्थित सनकोंको उचित ठहरानेका, इनका कुछ अर्थ लगानेका और श्रीमीकी (बहुत बदल सकनेवाली) इच्छा द्वारा उनकों व्याख्या करनेका यत्न कर रहा था । योगके अनुभवी लोगोंको यह वस्तु बहुत परचित है और इसका अर्थ है कि ये वस्तुएं अंतर्बोध नही थी, किन्तु मनकी कुतिया तथा मानसिक रचनाएं थीं । यदि इसमें जरा भी अन्तर्बोध था तो, वह सम्बोधिमनकी क्रिया थी, पर हमें सम्बोधिमनकी जो कुछ प्रदान करता है वह संभावनाओंका अन्तर्बोध होता है, उनमेंसे कुछ तो अपनेको चरितार्थ कर लेती हैं कुछ नहीं करती या केवल आशिक रूपसे करती हैं, अन्य बिलकुल असफल हो जाती हैं । इन मानसिक रचनाओंके पीछे ऐसी शक्तियां होती हैं जो अपनेको चरितार्थ करना चाहती हैं और मनुष्योंको अपने चरितार्थ करनेके उपकरणके रूपमें उपयोगमे लानेकी चेष्टा करती हैं । यह आवश्यक नहीं कि ये शक्तियां विरोधी ही हों, परन्तु वे अपनी चतुराई दिखानेके लिये क्रीड़ा करती हैं, वे चाहती हैं शासन करना, अपनेको उपयोगमें लाना, अपनेको उचित सिद्ध करना, अपने मनचाहे परिणामोंको उत्पन्न करना । यदि वे श्रीमांकि अनुमति प्राप्त करके या अपनेको श्रीमांके आदेशों के रूपमें प्रमाणित करके ऐसा कर सकें तो करनेको तैयार रहती है; जब उन्हें श्रीमांकि स्वीकृति नहीं मिल सकतीं, तो वे अपनेको सूक्ष्म अगोचर वैश्व रूपमें या सान्निध्यमें श्रीमांकि ही स्वीकृति के रूपमें प्रस्तुत करनेको तैयार रहती हैं । वे कुछ लोगोंको इस बातके लिये फुसला लेती है कि वे अन्तरस्थ श्रीमां जो उन्हें सदैव वही बात कहती है जो वे सुनना चाहते हैं, और वह देहधारी माताजी जिसे वे अपने अनुकूल नही पाते, जो उनको रोकती है, उन- की भ्रांति और गलतियोंको ठीक करती इ -- इन दोनोंके बीचमें वे भेद ही नही बल्कि विरोध भी खड़ा कर दें । इस अवस्थामें मानसिक भूलोंको लाभ उठाने- वाले एक ऐसे मिथ्यात्वके अधिक गंभीर आक्रमणका, एक ऐसी विरोधी प्राणिक शक्ति-

 

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के अन्दर आनेका खतरा होता है, जो या तो श्रीमांके नामका उपयोग करते हुए उनका स्थान लेनेकी चेष्टा करती है अथवा उनके विरुद्ध विद्रोह पैदा करती है । प्रणाममें न आनेके लिये मन मनाना, अपने अनुभवोंसे उन्हें अपरिचित रखना और उनके संशोधन- को न मानना, उनकी प्रकट इच्छाके साथ जीवनको संगत न करना, रो सब इस अवस्थामें खतरेके चिह्न हैं - क्योंकि इसका अर्थ यह है कि बलपूर्वक घुसपैठ करनेवाली शक्ति बन्धनमुक्त होकर काम करनेके लिये एक स्थान चाहती है - और यही कारण था कि विरोधी मायाके खतरेके ओर तुम्हारा ध्यान खींचनेके लिये मैंने अपनेको बाध्य अनु- भव किया ।

 

       जहांतक वाणियोंका प्रश्न है, वे बहुतसी होती हैं; प्रत्येक शक्ति मानसिक, प्राणिक और स्थूल भूमिकाकी प्रत्येक क्रिया अपने आपको वाणीसे सज्जकर सकती है । तुम्हारी वाणिया परस्पर मेल भी नही खाती थी एक वाणी एक बात कहती थी, जब कि वह चरितार्थ नही होती थी, तो दूसरी उससे कोई असंगत बात कहती थी; किन्तु तुम अपनी मानसिक रचनाके साथ चिपटे हुए थे और फिर भी उसका अनुसरण करनेका यत्न कर रहे थे ।

 

          यह सब इसलिये होता है कि साधनाके दबावकी उत्कटताओंके कारण मन और प्राण बहुत सक्रिय हो उठते हैं । इसलिये सबसे पहले यह जरूरी है कि अनुभवोंके या उनके फलके पीछे उत्सुकता पूर्वक न दौड़ते हुए, किंतु उनका अवलोकन और निरीक्षण करते हुए सदैव अधिकाधिक प्रकाशके लिये उत्तरोत्तर विस्तृत, उद्घाटित और अचंचल होकर एवं विवेक पूर्वक ग्रहणशील होनेकी चेष्टा करते, हुए अपनी साधनाको महान् स्थिरता, महान् समतापर प्रतिष्ठित कर लिया जाय । यदि चैत्य पुरुष सदैव अग्रभागमें रहे तो ये कठिनाइयां बहुत ही कम हों जाती हैं, क्योंकि यहां एक ऐसा आलोक होता है जो मन और प्राणमें नहीं होता, और दिव्य अदिव्यका, सत्य और मिथ्याका, नकली और असली पथ प्रदर्शनका एक स्वयस्फूर्त्त और स्वाभाविक चैत्य-बोध होता है । इस कारण भी मैं इस बातपर आग्रह रखता हूँ कि तुम अपने अनुभवोंको हमें सूचित करो, क्योंकि, अन्य वस्तुओंके अतिरिक्त, हमें इन वस्तुओंका ज्ञान और अनुभव है और हम भूलकी किसी भी प्रवृत्तिपर तुरन्त रोक लगा सकते हैं ।

 

       तुम अपनेको श्रीमांकि शक्तिके प्रति उद्घाटित रखो, किन्तु सब शक्तियोंपर विश्वास न करो । आगे बढ़नेपर यदि तुम सीधा चलते रहो तो एक ऐसा काल आयेगा जब चैत्य अधिक प्रबलतापूर्वक सक्रिय हो जायेगा और ऊपरका प्रकाश अधिक विशुद्धि और शक्तिके साथ इस तरह व्याप्त हों जायेगा कि मानसिक निर्माणोंका और प्राणिक रचनाओंका सच्चे अनुभवके साथ मिश्रण घट जायेगा । जैसे कि मैनई तुमसे कहा है, ये अतिमानसिक शक्तियां नहीं है और न ही हों सकती हैं, यह तैयारी की क्यिा है जो केवल वस्तुओंको भावी, योगसिद्धिके लिये तैयार कर रहीं है ।

 

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        इस आश्रमके लोग यह कैसे निर्णय कर सकते हैं कि किसी ब्यक्तिने योगमें उन्नति की है या नही? वे बाह्य प्रतीतियोंके आधारपर निर्णय करते हैं - यदि कोई साधक चला जाता है, ध्यानमें बहुत अधिक बैठता है, वाणियों और अनुभव उपलब्ध करता है आदि आदि तो वे सोचते हैं कि वह महान् साधक हैं! ' क्ष' सदैव ही एक बहुत निर्बल आधार था । उसे प्राथमिक ढंगके कुछ थोडेसे अस्तव्यस्त और अनिश्चित अनुभव हुए थे, प्रत्येक कदमपर बह परेशानीमें पडू जाता था और बगलकी किसी पगडंडीको पकड़ लेता था तथा हमें उसे ठीक राहपर खींचकर लाना पड़ता था । अन्तमें उसे ऐसी वाणिया और अन्तःप्रेरणा उपलब्ध होने लगी जिसके विषयमें उसने घोषणा की कि वे हमारी ९ - मैंने उसे गंभीर चेतावनी देते हुए अनेक पत्र लिखे और समझाया किन्तु उसने सुननेसे इनकार कर दिया, वह अपनी मिथ्या वाणियों और अन्त:- प्रेरणाओंके साथ बहुत अधिक आसक्त हो गया था और, हमारी झिड़की और हमारे किये हुए भूल सुधारसे बचनेके लिये उसने हमें लिखना या सूचना देना हीं बन्द कर दिया । इस प्रकार वह पूरी तरह ही पथभ्रष्ट हो गया और अन्तमें विरोधी बन गया । तुम इस बातको मेरे नामसे ऐसे किसी भी व्यक्तिको कह सकते हो जो तुम्हारी तरह इस विषयमें उलझनमें पढा हो ।

 

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          मेरा आशय उससे है जो क्ष के और य, ज जैसे तथा वैसे ही अन्य लोंगोंके साथ भी हुआ है । उच्चतर अनुभव किसीका नुकसान नही करते - प्रश्न यह है कि उच्चतरका अर्थ क्या हे? उदाहरणके लिये य समझता था कि उसके अनुभव स्वयं सर्वोच्च सत्य थे - मैंने उससे कहा कि वे सब काल्पनिक थे किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि वह मुझसे बहुत गुस्से हों गया । कुछ ऊंचे दर्जेके नकली अनुभव भी होते हैं जब कि मन या प्राण एक विचार या सुझावको पकडू लेता है और उसे किसी अनुभूतिमें बदल देता है, तथा जब शक्तियां दौड पड़ती है ओर उल्लास एवं बल इत्यादिका अनुभव होता है । सब प्रकारके ' 'आदेश' ', ' 'अन्तर्दर्शन' ' शायद ' 'वाणिया' ' भी सामने आती हैं । इन वाणियोंसे अधिक खतरनाक कोई वस्तु नहीं - जब मैं किसी ब्यक्तिसे सुनता हूँ कि उसने वाणी सुनी है, तो मैं हमेशा ही परेशानी अनुभव करता हूँ, यद्यपि असली और सहायक वाणिया भी हो सकती हैं, और मुझे यह कडुनेक्रा मन होता है ' 'कृपा करके वाणियोंकी बात न करो,-मौन, मौन और एक स्पष्ट विवेकशील मस्तिष्क बनाये रखो' ' । मैं इन नकली अनुभवोंके, मिथ्या अन्त:प्रेरणाओंके और असत्य वाणियोंके इस प्रदेशके विषयमें अपने मध्यवर्ती प्रदेश सम्बन्धी पत्रमें उल्लेख कर चुका हूँ जिनमें सैकड़ों योगी प्रवेश करते हैं और कुछ तो कभी बाहर ही नही निकलते । यदि मनुष्यका मस्तिष्क शक्तिशाली और स्पष्ट हो और उसमें एक विशेष प्रकारकी आध्या- त्मिक संदेहवादिता हो तो, बह इसे पार कर सकता है और करता भी है - परंतु य या ज जैसे विवेक रहित व्यक्ति रास्ता भटक जाते हैं । विशेष करके अहंकार अन्दर घुस

 

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आता है और उन्हें उनकी भव्य(?) अवस्थासे इतना अधिक आसक्त कर देता है कि वे बाहर निकलनेसे एकदम इनकार कर देते हैं । उधर एकांतमें चले जानेसे इस प्रकारकी क्रियाको खुला अवसर मिल जाता है, इसके कारण व्यक्ति पूरी तरहसे अपनी आंतर- सत्तामें निवास करने लगता है और वहां किसी प्रकारका नियंत्रण नहीं होता सिवाय उस नियंत्रणके जिसे ब्यक्तिका अपना स्वाभाविक विवेक ला सकता है - और यदि वह बलवान् न हुआ तो? नि:संदेश अहंकार इन आंतरिक मिथ्यात्वोंका दृढ अवलम्ब है, किन्तु और सहारे भी हैं । काम करना और अन्य लोगोंसे मिलना -- और इसके परिणाम स्वरूप बहिर्गत जगतके साथ हमारा जो सम्पर्क होता है वह - इन चीजोंके विरोधमें कोई अन्तिम प्रतिरक्षा नही है, किंतु यह एक बचाव अवश्य हैं और एक प्रतिबन्धका और एक प्रकारके दोष-संशोधक संतुलनका काम देता हे । मैनई यह देखा है कि जो लोग इस मध्यवर्ती प्रदेशमें प्रवेश करते हैं साधारणत. वे निवृत्ति और एकांतकी ओर अभिमुख हो जाते हैं छोर उसके लिये आग्रह रखते हैं । इन्ही कारणोंसे मैं साधारणत: यह पसन्द करता हू कि साधकोंको पूर्ण निवृत्ति नहीं ग्रहण करनी चाहिये किन्तु निश्चलता और क्रियाके बीचमें, एक विशेष संतुलन रखना चाहिये, आंतरिक और बाह्य दोनों वृत्तियोंको साथ साथ रखना चाहिये ।

 

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       जहांतक खतरोंका प्रश्न है इन एकांतवासमें ( अहंकारके सिवाय) एकमात्र असली खतरा है आत्मगत प्रभावों और कल्पनाओंका शिकार होना और सत्य वस्तु परसे उस पकडका हट जाना जिसे बनाये रखनेमें कर्म और अन्य लोगोंसे संपर्क सहायता देते हैं । निःसंदेह संपर्क कायम रखते हुए भी व्यक्ति पकडू खो सकता है जैसा कि 'क्ष' और अन्य लोंगोंके साथ हुआ । किन्तु मैं समझता हूँ कि तुम्हारा मस्तिष्क इतना पर्याप्त ठंडा और विवेचनशील है कि तुम इन खतरोंसे बचे रह सकते हो ।

 

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        एक भूमिकासे दूसरी भूमिकामें जानेके लिये एकांतवास आवश्यक नहीं है । यह केवल कुछ विरले व्यक्तियोंके लिये और किन्हीं विशेष प्रकृतिके लोंगोंके लिये थोड़े समयके लिये ही आवश्यक होता है ।

 

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        तुम यदि एक सप्ताहके लिये, जैसा कि तुमने प्रस्ताव किया है, यह ( एकांतवास) करो तो हमें कोई आपत्ति नही । मेरी समझमें यह एकांतवास नहीं है, किन्तु सामाजिक भेटोंका बन्द कर देना है । एकांतवासके संबंधमें मेरी आपत्ति यह है कि इसके कारण

 

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बहुतसे लोगोंका ' 'स्वास्थ्य विकृत' ' हो गया या ३ मिथ्या प्राणिक अनुभवोंके प्रदेशमें भटक गये, दूसरे यह कि पूर्ण एकांतवास आध्यात्मिक जीवनके लिये आवश्यक नहीं हैं । तथापि 'क्ष' जैसे लोंगोंके लिये यह दूसरी वस्तु है, जो जन्मसे ही इसी पद्धतिमें पले हैं या जिन्हें कमसे कम इससे पूर्ण प्रशिक्षण मिला है । ' 'प्रचार पर प्रतिबन्ध' ' बिलकुल दूसरी बात है । अथवा एकांतके योग्य होना और एकातका आनन्द लेना साधनाके लिये सदैव सहायक हो सकता है, और आंतरिक एकांतकी शक्ति योगीके लिये सहज होती है ।

 

       हम तुम्हें अपनी सहायता देंगे और आशा करते हैं कि तुम सफल होंगे - इसके द्वारा कमसे कम तुम भविष्यमें अपनी इच्छानुसार एकांतवासके लिये एक पूर्वाभ्यास तो स्थापित कर ही लोगे ।

 

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      निःसंदेह एकांतवासका सही उद्देश्य है, आत्मामें निवास करना और आत्मामें निवास उन उच्चतर अनुभूतियोंको लाता है जिन्हें स्पष्ट हीं सहायक होना चाहिये, हानिकारक नहीं । मैंने जो लिखा था वह केवल यह समझानेके लिये था कि एकदम पूर्ण एकांतवासके खतरेसे मेरा क्या आशय था और वह क्ष, य और अन्य लोगोंके लिये हानिकारक क्यों सिद्ध हुआ । ज जैसे कुछ लोग भी है जिन्होंने उससे विशुद्ध लाभ प्राप्त किया । यह सबका सब व्यक्ति की अपनी प्रकृतिपर और निश्चल-नीरवताके समय अपनी वृत्ति, लक्ष्य एवं आंतरिक स्थितिपर आधार रखता है।

 

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      एकांतवासका आवेग अन्तरमें एकाग्र होनेकी किसी प्रेरणासे उत्पन्न होता है - किंतु हंस प्रेरणाके कारण विभिन्न व्यक्तियोंमें विभिन्न होता है । कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जिनमें माताजीके प्रभावसे (प्रणाम, ध्यान आदिसे) अपनेको अलग करने- की और अपनी तरगोंका अनुसरण करनेकी इच्छा पैदा हुई, जैसे अ, ब मे, शायद श्रेष्ठताकी इस भावनाके साष भी कि ' 'मेरे जैसे महान् योगीके लिये इन चीजोंकी आवश्यकता नहीं' ' । अन्य व्यक्तियोंमें भी अपनेको पृथक् कर लेनेकी एक सुस्पष्ट इच्छा उत्पन्न हुई, किन्तु ऐसा वही हुआ जहां मस्तिष्क उद्भ्रांत हो गया था जैसे स मे, या कोई गलत प्रभाव सक्रिय था जैसे द मे । मैं समझता हूँ कि इनकी ओर ही इनिर्देश कर रहा था । किन्तु अन्य लोगोंने केवल एकाग्रताकी कामना की है और थे चाहा है कि वे अपनेको बहिर्मुखतामें न खाप दे जैसे कि फ, ग ने अपने एकांतवासके समय किया । तो एक ही निर्णयके द्वारा सबका निपटारा नहीं किया जा सकता ।

 

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          प्रगाढ़ शांतिमें निवास करते समय मौन रहना या लोगोंसे न मिलना एक बात अवश्य है - ऐसा किया जा सकता है । अन्य समयोंमें भी जीवनके एक नियमके रूपमे एकांतके रहना मुझे आवश्यक नही प्रतीत होता - यह केवल उन्हीं लोंगोंके लिये निरापद है जो बाह्य यथार्थताकी अपनी पकडको खोये बिना पूरी तरह अन्दर निवास कर सकते हैं । यदि ब्यक्तिमें सदैव शांतिकी एक ठोस स्थिति रहे तो वह ऐसा कर सकता है या फिर वह ऐसा तब कर सकता है यदि उसका मन स्पष्ट संतुलित और विवेकशील हों जिसमे सतत अनुभव होते रहें और उन्हें वह उनका अपना समुचित स्थान दे सके । किंतु कुछ लोग इन आंतर अनुभवोंमें ग्रस्त हों जाते हैं, उनमें वे खो ही जाते हैं और उनके साथ तीव्रतासे आसक्त हों जाते हैं एवं यह आंतरिक जीवन हीं उनके लिये एकमात्र यथार्थता बन जाता है जिसे बाह्य जीवन संतुलित और अपने नियंत्रण और जांचके आधीन नही रख सकता - इसमें खतरा होता है । और फिर यदि व्यक्ति एक ऐसे स्थिर आंतरिक संतुलन और सतत अनुभवकी, जिसपर उसका विवेक- शील नियंत्रण होता है, सहायताके बिना एकांतमें रहे, तो प्राण रिक्तताके कालोंमें संघर्षों, कठिनाइयों, बेचैनियों, सब प्रकारके सुझावों एवं एक विक्षुब्ध और कलुषित अवस्थाको लाते हुए उभर सकता है -- बल्कि इसमें समय बितानेकी अपेक्षा जैसा कि कुछ लोग करते हैं, दूसरे लोगोंके साथ मिलना या किसी अन्य प्रकारसे अपनेको स्वस्थ ढंगसे बहिर्मुख करना अधिक अच्छा है ।

 

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       बहुत अधिक संवेदनशील होना और किसी संपर्कसे विचलित हो जाना एक अति है; किन्तु बहुत सारे संबंध रखना और हमेशा अपने आपको बिखेरते रहना अंत:सत्तामे विकसित एवं दृढ होनेसे रोकता है क्योंकि साधारण व्यक्ति हमेशा ही साधारण बाह्य चेतनाकी ओर खींचा जा रहा है ।

 

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         लोगोंके साथके अपने संबंधोंमें, सरल और स्वाभाविक ढंगसे बरतो । उन नाना प्रकारकी झिझकोंसे जो कि एक निर्बलता है, मुक्त हों जाओ । महत्वपूर्ण बात है स्थिर और आसक्ति रहित सच्ची आंतरिक वृत्तिको धारण करना । यदि तुम ऐसा करो तो सब ब्यौरे ऐसे तुच्छ विषय बन जाते हैं जो अपनेको सुविधा और सामान्य बुद्धि- के अनुसार व्यवस्थित कर लेते हैं ।

 

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     अपनेको बाह्य संबंधोंसे बिलकुल अलग करके तुम भला सच्चे बाह्य संबंधोंको

 

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कैसे खोज पाओगे? और केवल आंतरिक जीवनमें रहते हुए, बाह्य संपर्कके द्वारा रूपांतर या एकताको कसौटीपर कसे बिना और बाह्य कर्म तथा जीवनकी अग्नि- परीक्षाओंमेंसे गुजरे बिना तुम अपने को रूपांतरित और एकीभूत करनेका प्रस्ताव कैसे करते हो ' पूर्णताके अन्दर केवल निवृत्त आंतरिक जीवनका हीं नहीं किन्तु बाह्य कर्म और संबंधोंका भी समावेश होता है । रूपांतर एवं एकीकरण केवल तभी हो सकता है जब प्राणिक अहं अपनी मांगों और देवोंको तथा उनके अतृप्त रहनेपर उत्पन्न होनेवाली प्रतिक्रियाओंको छोड़ दे. दूसरा कोई रास्ता नहीं ।

 

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        मैंने तुमसे कहा था कि तुम्हें अपने मनसे निर्णय करनेका प्रयत्न करना है । तुम लगातार दुहराये जा रहे हों 'मुझे निर्णय करना होगा । मुझे निर्णय. करना होगा । मुझे निर्णय लेना होगा । मुझे निश्चय करना होगा । '' तुम हमेशा इस मुझे, मुझे, मुझे निर्णय करना होगा को दुहराते रहे हों मानों तुम मुझसे अथवा माताजीसे अधिक अच्छा जानते हो! ' 'मुझे समझना होगा, मुझे निर्णय करना होगा! '' और हमेशा ही तुम यह पाते हों कि तुम्हारा मन कोई भी निर्णय नहीं कर सकता और कुछ भी नही समझ सकता । और फिर भी तुम उसी असत्यको दुहराये जाते हों ।

 

        मैं तुम्हें एकबात फिर साफ कहता हूँ कि तुम्हारे सारे तथा कथित अनुभव कौड़ी कीमतके नहीं, निरे प्राणिक अज्ञान और भ्रांति हैं । एकमात्र जिस अनुभवकी तुम्हें आवश्यकता है वह हे माताजीकी उपस्थिति, माताजीका प्रकाश, माताजीकी शक्ति और वह परिवर्तन जिसे वे तुममें लाती है ।

 

         तुम्हें अन्य सब प्रभावोंको फेंक देना होगा और एकमात्र माताजीके प्रभावकी ओर ही अपनेको खोलना होगा ।

 

         तुम्हें बाहरकी ओर प्रवाहित होती हुई शक्तियोंके संबंधमें और अपनी शक्तियोंके तथा दूसरोंकी शक्तियोंके विषयमें भी और अधिक नही विचारना और बोलना है । एकमात्र जिस शक्तिका तुम्हें अनुभव करना है वह हे माताजीकी शक्तिका अवतरण, अन्त प्रवाह और उसकी किया ।

ये ही थे मेरे निर्देश और जबतक तुमने उनका पालन किया तबतक तुम तेजीसे प्रगति करते रहे ।

 

         इन सब असंबद्ध मिथ्या अनुभवोंको दूर फेंक दो और एकमात्र उस नियमकी ओर लौट जाओ जो मैनई तुम्हें दिया था । माताजीकी उपस्थिति, प्रभाव, ज्योति और शक्तिकी ओर खुल जाओ - बाकी प्रत्येक वस्तुको अस्वीकार करो । केवल इसी प्रकार तुम ?? इस अस्तव्यस्तताके स्थानपर) स्पष्टता, शांति, चैत्य संबंधी प्रत्यक्ष- बोध और साधनामें प्रगतिको फिरसे प्राप्त कर लोगे ।

 

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        तुम ऐसे गलत प्रयत्नोंमें लगे हुए हो जो स्वयं तुम्हारी आंखोंके सामने स्थित असली ध्येय की प्राप्तिमें रुकावट डालता है । तुम उस वस्तुको पाना चाहते हो जिसे तुम 'दिव्य बनना' कहते हों; किन्तु जिस ढंगसे तुम प्रयत्न कर रहे हों उस ढंगसे उसे नही पा सकते ।

 

        मैं तुम्हारी भूल बताता हूँ; कृपाकरके ध्यानसे पढो और ठीक ढंगसे समझनेका यत्न करो । विशेष करके मेरे शब्दोंको उनके सीधे सादे अर्थमें समझो और उनका कोई 'गूढ़ अर्थ' या अन्य कोई ऐसा अर्थ न लगाओ जो तुम्हारे वर्तमान विचारोंके अनु- . कूल हों ।

 

        जिस भागवतचेतनाको हम नीचे लानेका यत्न कर रहे हैं वह हे सत्य-चेतना । यह चेतना मन, प्राण, शरीर सभी भूमिकाओंमें स्थित हमारी सत्ता और प्रकृतिके सत्यको बताती है !वह उन्हें फेंक नही देती या उनसे तुरन्त छुटकारा पानेके लिये उनके स्थानपर किसी विलक्षण और अद्धा वस्तुको लानेके लिये अधीरतापूर्ण प्रयत्न नहीं करती । उनमें जो कोई भी वस्तु पूर्णता प्राप्त कर सकतीं है उस सबको पूर्ण करने और ऊपर उठानेके लिये तथा जो तमोग्रस्त और अपूर्ण है उसे बदलनेके लिये उनपर धैर्य पूर्वक धीरे धीरे क्यिा करती है ।

 

       तुम्हारी पहली भूल है यह कल्पना करना कि एक ही क्षणमें दिव्य बनना संभव है । तुम यह कल्पना करते हो कि उच्चतर चेतनाको तुम्हारे अन्दर केवल अवतरित होना है और वहां आकर रहना है और बस फिर सब कुछ समाप्त हो गया । तुम कल्पना करते हों कि इसमें समयकी और लम्बे, कठोर या ध्यानपूर्वक किये गये कामकी आवश्यक्ला नहीं और यह कि तुम्हारे लिये सबकुछ भगवान्की कृपा एक क्षणमें ही कर देगी । यह बिलकुल गलत है । यह सब इस ढंगसे नहीं होता; और जबतक तुम इस गलतीपर अहे रहते हों तबतक स्थायी दिव्यता नहीं प्राप्त हों सकती, और तुम केवल उस सत्यके आनेमें बाधा ही डालोगे जो आनेकी चेष्टा कर रहा है, और स्वयं अपने मन और शरीर- को एक निरर्थक संघर्ष द्वारा विक्षुब्ध कर दोगे ।

 

            दूसरे तुमने यह सोचनेमें गलती की कि क्योंकि तुम किसी विशेष शक्ति और सामीप्यको अनुभव करते हो इसलिये तुम एकदम दिव्य बन गये हों । दिव्य बनना इतना आसान नहीं चाहे कोई भी शक्ति या उपस्थिति आये मनमें उसकी एक सही व्याख्या और प्रत्युत्तर एवं सच्चा ज्ञान और प्राणिक एवं भौतिक सत्तामें ठीक ठीक तैयारी होनी चाहिये । लेकिन जो तुम अनुभव कर रहे हों वह एक असामान्य प्राणिक शक्ति और उफान है जिसका कारण है तुम्हारी कामनाकी अधीरता, और उसके साथ वहां तुम्हारी कामनासे उत्पन्न सुझाव भी आते हैं जिन्हें तुम सत्य माननेकी स्व कर बैठते हों और उन्हें अन्त: प्रेरणायें तथा अंतर्बोध कहते हो ।

 

       इस अवस्थामें तुम जो भूलें करते हों उनमेंसे कुछकी और मैं निर्देश करूँगा । तुम तुरन्त ही यह सोचना शुरू कर देते हो कि मेरे निर्देशों या पथप्रदर्शनकी अब और अधिक आवश्यकता नहीं, क्योंकि तुम कल्पना करते हो कि तुम अबसे मेरे साथ एक हों गये हो । केवल इतना ही नहीं, किन्तु जिन सुझावोंको तुम स्वीकार करना

 

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चाहते हों वे मेरे निर्देशोंके बिलकुल विरुद्ध है । यदि तुम मेरे साथ एक हों गये हो तो यह कैसे हों सकता है? यह स्पष्ट है कि मेरे निर्देशोंके विरोधमें जानेवाले ये विचार तुम्हारे मन और आवेगोंसे आते है और मेरे अन्दरसे या किसी दैवी चेतनामेंसे या किसी ऐसी वस्तुमेंसे नही आते जिसे श्रीअरविन्दकी चेतनाके नामसे पुकारा जा सकता है ।

 

        इस संबंधमें तुम लिखते हों, ' 'मैं यह कठिनाई देखता हूँ कि जब मे आपसे परि- पूर्ण होता हूँ, तो आपके निर्देशोंका पालन और अनुसरण करनेका विचार तब भी काम कर रहा होता है - जब कि आपने मुझे अपना बना लिया है । मैं आवश्यक सहायता- के लिये प्रार्थना करता हूँ । '' मेरे निर्देशोंका अनुसरण और पालन करनेका बिचार कोई कठिन बात नही है केवल यही वह वस्तु है जो तुम्हें मदद दे सकती है । यह आज्ञापालन ही एक ऐसी वस्तु है जो आवश्यक है ।

 

        तुम्हारे इस कथनका क्या अर्थ है, ' 'कि आपने मुझे अपना बना लिया है? इन शब्दोंका कोई अर्थ प्रतीत नही होता । तुम्हारा यह मतलब नहीं हों सकता कि तुम वही व्यक्ति बन गये हों जो मैं हूँ; यहां दो अरविन्द नहीं हो सकते, यदि यह संभव होता तो भीं यह मूर्खतापूर्ण और निरर्थक होता । तुम्हारा आशय यह नही हो सकता कि तुम परमपुरुष बन गये हों, क्योंकि तुम भगवान् या ईश्वर नहीं हों सकते यदि यह सामान्य ( वेदांतिक) भावमें कहा गया हों तो प्रत्येक वस्तु मैं हूँ क्योंकि प्रत्येक जीव उस एकमेवका अंश है । शायद यह हों सकता है कि तुम कुछ समयके लिये इस एकत्वके सबमें सचेतन हों गये हो; किन्तु वह चेतना अपने आपमें तुम्हें रूपांतरित करने या तुम्हें दिव्य बनानेके लिये पर्याप्त नही है ।

 

         तुम यह कल्पना करने लगे हो कि तुम भोजन और निद्राके बिना चला सकते हो और शरीरकी आवश्यकताओंकी अवहेलना कर सकते हो; एवं मेरे निर्देशोंको भुलाकर तुम गलतीसे इन जरूरतोंको बाधा या विरोधी वस्तुओं और भौतिक शक्तियों- की क्रीड़ा कहते हों । यह विचार असत्य है । तुम जो अनुभव करते हों वह महज एक प्राणिक शक्ति है, सर्वोच्च सत्य नही, और शरीर पहले जैसा ही बना रहता है; यदि शरीरको भोजन, विश्राम और निद्रा न दिये गये तो बह कष्ट पायेगा और हार जायेगा ।

 

      यहीं वह गलत प्राणिक उल्लास है जिसने तुम्हारे शरीरको यह अनुभव कराया कि वह देखे कही वह अतिमानसिक तत्वका तो नहीं बना । यह स्पष्टतया समझ लो कि शरीरको उस ढगसे किसी नितांत अभौतिक वस्तुमें रूपांतरित नही किया जा सकता । पूर्ण बननेके लिये स्थूलसत्ता और शरीरको लम्बी तैयारी और क्रमिक परिवर्तनमेसे गुजरना होगा । ऐसा नहीं किया जा सकता यदि तुम इस गलत प्राणिक हुलासमेंसे निकलकर भौतिक यथार्थताओंके स्पष्ट बोधके साथ, पहले सामान्य भौतिक चेतनामें न उतर आओ ।

 

      अन्तमें यदि तुम यथार्थ परिवर्तन और रूपांतर चाहते हो, तो तुम्हें यह स्पष्टता- के साथ और दृढ संकल्पपूर्वक स्वीकार करना होगा कि तुमने पहले भूलें की और अब भी कर रहे हों और ऐसी अवस्थामें प्रवेश किया कि जो तुम्हारे उद्देश्यके लिये अनुकूल नहीं है । तुमने अपने चिन्तनशील मनको पूर्ण और आलोकित करनेके स्थानपर उससे छुटकारा

 

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पानेका, और उसके स्थानपर ' 'अन्तःप्रेरणा और अन्तर्बोधों' ' को ला बिठानेका प्रयत्न किया है ।

 

     तुमने शरीर, स्थूलसत्ता और .उसकी क्रियाओंके प्रति एक अरुचि और जुगुप्सा- को पैदा किया है; और इसलिये तुम साधारण स्थूल चेतनामें नीचे उतरना और परिवर्तनके लिये आवश्यक क्रियाओंको धैर्यपूर्वक करना नही चाहते । तुम्हारे साथ केवल एक ऐसी प्राणिक चेतना रह गई है जो किसी समय एक महान् शक्ति और आनन्दका अनुभव करती है और दूसरे समय बुरे विषादोंमें पतित हो जाती है क्योंकि इसे न तो ऊपरसे मनका समर्थन प्राप्त होता है और न नीचेसे शरीरका !

 

     यदि तुम यथार्थ रूपांतर चाहते हो, तो तुम्हें इस सबको पूर्णतया बदलना होगा ।

 

    प्राणिक उल्लासके खो जानेका कुछ ख्याल नही करना होगा; और म्पष्ट व्यावहारिक मनके साथ तथा वहांसे भौतिक अवस्थाओं एवं यथार्थताओंको सामान्य स्थूल चेतनामें देखनेकी बातको भी मनमें नही लाना चाहिये । तुम्हें उसे पहले स्वीकार करना होगा, अन्यथा तुम उन्हें कभी भी परिवर्तित न कर सकोगे और न कभी पूर्ण ही बना सकोगे ।

 

     तुम्हें एक अचंचल मन और बुद्धिको पुन: प्राप्त करना होगा । यदि तुम एकबार इन चीजोंको दृढ़तापूर्वक कर सको, तो महत्तर सत्य और चेतना अपने समुचित समयमें, ठीक ढंगसे और सही अवस्थाओंमें लौटकर आ सकती हैं ।

 

*

 

        सफल होनेके लिये तुम्हारे अन्दर संकल्प और कर्म करनेका पूरा बल होना चाहिये ।

 

        अपने शरीरको ही सबल बनाना पर्याप्त नहीं हैं, तुम्हें अपने मनको भी बल- शाली बनाना होगा; तुम्हें पाप संबंधी अपने विचारोंसे, यौनवृत्तिके सुझावोंका इस- प्रकार चिन्तन करनेसे और सब जगह अंधकारमय प्राण-शक्तियोंको देखनेकी इस आदतसे पूरी तरह मुक्त होना होगा । तुमने जिन लोगोंका वर्णन किया है वे बिलकुल सामान्य मानव प्राणी हैं, वे अशुभ आत्मा या शक्तिया नहीं हैं । उनके प्रति तुम्हारी वृत्ति न आसक्ति पूर्ण होनी चाहिये, न ही भय, विभीषिका और जुगुप्साभरी किन्तु बिलकुल निर्लिप्त होनी चाहिये ।

 

          अन्तःप्रेरणा पानेका यत्न न करो, परन्तु स्थिर मन और अटल संकल्पके साथ, हमारे निर्देशानुसार अचंचल रहकर और बुद्धि पूर्वक काम करो । यहां आकर हमारे पैरोंमें पड़नेके मोहसे अपनेको मुक्त करो । यह तथा अन्य सुझाव और वाणिया अन्त.- प्रेरणायें नही हैं परन्तु महज ऐसी वस्तुएं हैं जिसकी सृष्टि तुम्हारे अपने मनने और उसके आवेगोंने की । तुम्हारी सुरक्षा इसीमें है कि तुम निश्चल रहो और जिस वस्त्रको हम तुम्हें शान्तिपूर्वक और आग्रहके साथ कहते हैं उसे पूरे भरोसेके साथ करते रहो, जबतक तुम पूरी तरह अपनी पहलेवाली स्थितिको प्राप्त न कर लो ।

 

*

 

५५८


    'आर्य' ' को पढ़ना और उसका अनुवाद करना तुम्हारे लिये बहुत अच्छा होगा । मैं तुम्हें '' ( ' 'गीता निबन्ध' ') प्रथम भागकी एक प्रति भेजूँगा । इस पुस्तकको पढ़ना शुरू करना और इसका अनुवाद करना तुम्हारे लिये सर्वोत्तम होगा । प्रतिदिन केवल थोड़ासा अनुवाद करनेकी आदत डालो और उसे खूब ध्यानसे करो । जल्दीमें मत लिखो, अपनी लिखी वस्तुको अनेक बार पढ जाओ और देखो कि यह मूल वस्तुके भावको ठीक ठीक प्रस्तुत करती है या नही और भाषामें सुधार किया जा सकता है या नहीं । मानसिक और भौतिक भूमिकाकी सभी वस्तु- ओंके विषयोंमें फिलहाल तुम्हारा यह उद्देश्य होना चाहिये कि तुम बहुत जल्दी जल्दी समाप्त करनेकी बात न सोचों, बल्कि प्रत्येक वस्तुको ध्यानपूर्वक, पूर्णताके साथ और ठीक ढंगसे करो ।

 

      हम चाहते हैं कि जिन स्थूल-प्राणिक आवेगों, अर्थात् भोजन, पैसा, यौन आवेगों आदिके संबंधमें तुम शिकायत करते हो उनके संबंधमें अबसे तुम समुचित वृत्तिको समझ जाओ और इसे बनाये रखो । तुम अबतक उस नैतिक और तामसिक वृत्तिको अपनाये हुए थे जो बिलकुल गलत है और वह तुम्हें प्रकृतिकी इन शक्तियोंपर प्रभुत्व प्राप्त करनेमें सहायता नही दे सकती ।

 

      भोजनकी बात यह है कि यह शरीरकी एक जरूरत है और तुम्हें शरीरको स्वस्थ एवं बलवान बनाये रखनेके लिये इसका उपयोग करना होगा । तुम्हें भोजनकी आसक्तिके स्थानपर भोजनके आनन्दको स्थापित करना होगा । यदि तुम्हारे पास यह आनन्द हो और तुम्हें स्वाद आदिका सच्चा ज्ञान तथा भोजनकी ठीक उपयोगका ज्ञान हों, तो कोई आसक्ति होनेपर भी वह कुछ समयके बाद स्वयं ही समाप्त हो जायेगी ।

 

      जहांतक पैसेका प्रश्न है, वह भी जीवन और कर्मके लिये आवश्यक है । धन जीवनकी एक महान् शक्तिका प्रतिनिधित्व करता है जिसे भगवान्के कार्योंको लिये जीतना होगा । इसलिये तुम्हें इसमे कोई लाग-लपेट और घृणा या भय भी नही होना चाहिये ।

 

          जहांतक यौन-आवेगका संबंध है, इससे भी तुम्हें कोई नैतिक भय या विशुद्धि- वादी अथवा तामसिक विरक्ति नहीं होनी चाहिये । यह भी जीवनकी एक शक्ति ९ और जैसे तुम्हें इस शक्तिके वर्तमान रूपको ( अर्थात् भौतिक क्रियाको) हटाना है वैसे ही स्वयं इस शक्तिपर भी अधिकार पाना और इसे रूपांतरित करना होगा । जिन लोंगोंकी प्राणिक प्रकृति बलवान् होती है उनमें यह यौन वृत्ति प्रायः सबसे अधिक बल- शाली होतीं है और इस बलवान् प्राणिक प्रकृतिको दिव्य जीवनके भौतिक क्षेत्रमें चरितार्थ करनेके लिये एक महान् उपकरण बनाया जा सकता रुँ । यदि यौन आवेग आये तो दुःखी और विचलित न हों किंतु इसे स्थिर होकर देखो, इसे शांत कर लो, इससे संबंध रखनेवाले सब गलत सुझावोंको अस्वीकार करो एवं उच्चतर चेतनाकी प्रतीक्षा करो ताकि वह आकर इसे सच्ची शक्ति और आनन्दमें रूपांतरित कर दे ।

 

       हमने जो बातें कही है वे सब स्थूल चेतनामें स्थित तुम्हारी सत्ताके लिये और स्थूल जीवनके साथ सच्चे संबधके लिये जरूरी हैं ।

 

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VI

 

वैश्व चेतना विशेषकर अधिमानससे ही संबद्ध नही है; ये सब भूमिकाओंको अपनेमें समाये हुए हैं ।

 

       इस समय मनुष्य उपरितलीय व्यक्तिगत चेतनामें बन्द है और जगत्को ( या बल्कि इसके उपरितलको) केवल अपने बाह्य मन और इन्द्रियोंद्वारा और जगत् के साथ उनके संबंधोंकी व्याख्या करके ही जानता है । योगके द्वारा उसके अन्दर एक ऐत्ती चेतना खुल सकती है जो जगत्की चेतनाके साथ एक हो जाती है, वह विरा पुरुष, वैश्व स्थितियों, वैश्व शक्ति और बल, वैश्व मन, प्राण और जडतत्वके विषयमें सीधा सचेतन हों जाता है और इन वस्तुओंके साथ सचेतन संबंध रखते हुए निवास कर सकता है । तब यह कहा जाता है कि उसने वैश्व चेतना प्राप्त कर ली है ।

 

*

 

       अधिमानस संपूर्ण वैश्व चेतनाका आधार है, किंतु स्वयं वैश्व चेतनाका अनुभव केवल मनसे आर ही नही परंतु मन, प्राण और शरीरमें, किसी भी भूमिकापर किया जा सकता है ।

 

*

 

        वैश्व चेतनाका दो पक्ष हैं -- पहला है साधारण वैश्व शक्तियों और इन शक्ति- योंके पीछे रहनेवाली सत्ताओंके साथ संपर्क और उनका प्रत्यक्ष बोध, इसे हीं मैं वैश्व- अज्ञान कहता हूँ - दूसरा वैश्व सत्योंका प्रत्यक्ष बोध, एकमेव वैश्व सत्ताका, एकमेव वैश्व शक्तिका ' 'सर्वमें स्थित एक और एकमें स्थित सर्व' ' के सभी वैदांतेक सत्योंका, वैश्व सत्तामें अवस्थित भगवान्के सभी विभिन्न पक्षोंका साक्षात्कार और इसमें अन्य न जाने कितनी ही वस्तुएं आ सकती हैं जो साक्षात्कार और ज्ञानमें अवश्य मदद करती हैं -- बशर्ते उन्हें ठीक ढंगसे लिया जाय । तथापि इस सबके साथ सर्वोत्तम ढंगसे तभी व्यवहार किया जा सकता है जब कि वह वस्तुत. सचमुच सामने आये । यह सदा विशालता आनेके साथ ही आ जाता हों यह बात नहीं है -- बहुतसे लोग इस चेतनाकी विशालतामेंसे होकर वहां पहुँचते हैं जो विश्वके परे है और वैश्व चेतनाको बादमें ही ब्योरेवार हाथमें लेते हैं - और शायद यही सबसे अधिक निरापद क्रम है ।

 

*

 

          जब मनुष्यके अन्दर वैश्व चेतना होती है तो वह विश्वात्माको अपनी ही आत्मा- के रूपमें अनुभव कर सकता है, अपनेको विश्वकी अन्य सत्ताओंके साथ एक अनुभव

 

५६०


 कर सकता है, व्यक्ति प्रकृतिकी सब शक्तियोंको अपने अन्दर क्रिया करते हुए और सब आत्माओंको अपनी आत्मा अनुभव कर सकता है ।

 

           इसका कोई कारण नही है सिवाय इसके कि यह ऐसा है, क्योंकि सब कुछ वही एक हे ।

 

*

 

        सब कुछ परमात्मामें स्थित हे; विश्वात्माके साथ तादात्म्य होनेपर सब कुछ तुम्हारे अन्दर विद्यमान होता है । और पिंड भी ब्रह्माण्डको प्रतिमूर्त्ति करता है -- इस प्रकार 'सर्व' प्रत्येकमें विद्यमान है, यद्यपि सब ऊपरितलीय चेतनामें व्यक्त नही होता (और न हो ही सकता है) ।

 

*

 

         प्रत्येक वस्तु पुरुषमें ही कार्य करती है । प्रकृतिकी सारी लीला पुरुषमें अर्थात् भगवान्में होती है । पुरुष सारे विश्वको अपने अन्दर धारण किये हुए हे ।

 

*

 

         पुरुष सत्तामात्र है न कि कोई एक सत्ता विशेष । पुरुषका आशय है सचेतन सारभूत अस्तित्व अर्थात् सबमें स्थित वह एक ।

 

 *

 

       आत्मामात्र का मुल तत्व है शुद्ध सत्ता जो अपने अन्दर शुद्ध स्वयमू चेतना (या चित्-शक्ति) और शुद्ध आनन्दको धारण किये हुए है ।

 

*

 

       सारतत्व और सत्ता एक हीं वस्तु है । सृष्टिमें उन्हें आत्माके दो पक्षोंके रूपमें देखा जा सकता है ।

 

*

 

       परमात्मा तत्वतः वैश्व है; व्यक्तिभावापत्र आत्मा वैश्व आत्मा हीं है जिसे व्यक्तिगत केन्द्रमें या व्यक्तिगत केन्द्रमें अनुभव किया जाता है । तुमने जिसका साक्षा-

 

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 त्कार किया है यदि उस वस्तुका अनुभव सबमें विद्यमान एकमेवके रूपमें नही हुआ, तो वह आत्मा नही है; वह केन्द्रीय सत्ता है जिसने अपने वैश्व पक्षको आत्माके रूपमें अभीतक प्रकट नही किया ।

 

*

 

        आत्माका या तो वैश्व अर्थात् सबमें स्थित उस एकमेवके रूपमें, या उस विश्व- . भावापत्र व्यक्तित्वके रूपमें अनुभव होता है जो तत्वत: वही है जैसा अन्य लोगोंमें हैं; और प्रत्येक सत्तामेंसे सर्वत्र फैला हुआ है किंतु यहां केंद्रित है । निःसंदेह केन्द्र एक कहने- का तरीका है क्योंकि साधारणत: किसी भौतिक केन्द्रका अनुभव नही होता -- केवल सारी क्रियाएं इस व्यक्ति-केंद्रके चारों ओर होती है ।

 

*

 

         निर्गुणका सामान्य अनुभव यह है कि वह किसी भी रूपके बिना या देश कालमें संबद्ध हुए बिना सर्वत्र विद्यमान है ।

 

*

 

       निर्गुण ब्रह्मका कोई निवास स्थान नहीहोता और न ही हों सकता है, वह सर्व- व्यापी है । यदि कोई कहें कि निर्गुण ब्रह्मका निवास हृदयमें है तो उससे पूछा जा सकता कि निर्गुण ब्रह्मसे उसका क्या आशय है ।

 

*

 

      वैश्व चेतनामें व्यक्तिगत 'मैं' सर्वके आत्मामें विलीन हों जाता है । वह 'मैं' जिसका ही एकमात्र अस्तित्व है वह, ब्यक्तिका 'मैं' अर्थात् व्यक्तिभावापत्र 'मैं' नही होता, किंतु ऐसा विश्वभावापत्र 'मैं' है जिसका सबके साथ और वैश्व आत्माके साथ तादात्म्य होता है ।

 

*

 

        मुक्त होनेके वाद जो शेष रह जाता है वह है केन्द्रीय सत्ता - अहं नही । केंद्रीय सत्ता इस चेतनामें निवास करती है कि भगवान् सर्वत्र है और अन्य सत्ताओंमें भी है; इसलिये इसे पृथक् अहंका बोध नहीं रहता बल्कि यह बोध होता है कि बह भागवत- बहुत्चके अनेक केन्द्रोंमें एक केन्द्र है ।

 

*

 

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           जो कुछ तुम अनुभव करते हो वह एक ऐसी सामान्य अवस्था है जो मुक्ति प्राप्त होनेपर होती है । इन्द्रियोंका कार्य इत्यादि पहले जैसा ही चलता है, किंतु चेतना होती है इस कारण व्यक्ति केवल मुक्ति, और पार्थक्य, आदिका भाव ही नही अनुभव करता किंतु यह भी करता है कि वह सामान्य मन, प्राण या इंद्रियोंका लोकोंसे बिलकुल भिन्न किसी अन्य जगत्में निवास कर रहा है । तब एक दूसरी ही चेतना प्रारंभ होती है जिसका ज्ञान और वस्तुओंको देखनेका तरीका और ही होता है । आगे जाकर जब यह चेतना उपकरणोंको अपने अधिकारमें लेती है, तो इन्द्रिय और प्राणके साथ उसका सामंजस्य स्थापित हों जाता है; ये भी बदल जाते हैं, इनका दृष्टिबिड बदल जाता है और ये संसारको पहलेकी तरह नहीं किंतु मानो किसी अन्य ही उपादानसे और किसी अन्य आशयसे बना हुआ देखते हैं ।

 

*

 

         शांति, निश्चल-नीरवता, र्पावेत्रता, और आत्माकी स्वतंत्रतामें निवास करनेके लिये प्रथम आवश्यक है मुक्त । इसके साथ ही या बादमें जब मनुष्य वैश्व चेतनाके प्रति जाग्रत होता है तो मुक्त होते हुए वह सब वस्तुओंके साथ एक होकर भी रह सकता है ।

 

        मुक्तिके बिना वैश्व चेतनाको प्राप्त करना संभव है, किंतु तब मनुष्यकी सत्ता कही भी निम्र प्रकृतिसे मुक्त नही होती और वह अपनी विस्तृत चेतनामें स्वतंत्र या स्वामी बनानेमें समर्थ हुए बिना सब प्रकारकी शक्तियोंका क्रीडाक्षेत्र बन सकता है ।

 

        दूसरी ओर यदि आत्म-साक्षात्कार हों गया हो तो सत्ताका एक भाग ऐसा होता है जो वैश्व शक्तियोंकी क्रीडाके बीचमें रहकर भी अछूता रहता है - जब कि समग्र आंतरिक चेतनामें आत्माकी शांति और पवित्रताके स्थापित होनेपर निफ्ट प्रकृतिके बाह्य स्पर्श व्यक्तिके अन्दर नही आ सकते या उसे पराभूत नही कर सकते । वैश्व चेतनासे पहले उसे सहारा देने वाले आत्म साक्षात्कारके हो जानेका यही लाभ है ।

 

*

 

       जब व्यक्तिमे आत्म साक्षात्कार या वैश्व चेतनाका विकास हो जाता है या यदि वह शून्यता आ जाती है जो इन वस्तुओंकी प्रारंभिक अवस्था है तो ब्यक्तिमें सबके साथ एकत्वकी वृत्ति स्वतः ही आ जाती है अर्थात् उनकी मानसिक, प्राणिक और: शारीरिक भावनाएं उसे सहज ही स्पर्श कर सकती हैं । मनुष्यको अपनेको उनसे मुक्त रखना होगा ।

 

*

 

        तुम्हारा वैश्व चेतनाके प्रति मानसिक उद्घाटन हो गया था और प्राणिक उद्-

 

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घाटन शुरू हुआ था -- यदि तुम उसे आध्यार्त्माकृत स्तरपर अर्थात् स्वामित्व या स्थूल बाह्य उपभोगकी कामनाके बिना, भागवत आनन्दके दर्शन और अनुभवके आधार- पर बनाये रखते तो यह एक यौगिक चेतनाको प्रतिष्ठित कर देता और ज्ञान. शांति, शक्ति, चैत्यप्रेम और समर्पण को नीचे आनेके लिये आधार बना देता ।

 

*

 

        यह बहुत अच्छा हैं । विश्वव्यापी अनन्तके साथ एक होनेके लिये चेतनाको विस्तृत करना, साधनामें एक महत्वपूर्ण स्थिति है ।

 

*

 

         हां, तुम्हारा अनुभव बहुत सुन्दर था और इसके संबंधमें तुम्हारा भाव भी ठीक था । जब चेतना संकीर्ण और व्यक्तिगत या देहबद्ध हो जाती है, तो भगवान्से कुछ पाना कठिन होता है -- वह जितना अधिक विस्तृत होती है उतना ही अधिक प्राप्त कर सकती है । एक ऐसा समय आता है जब वह अपनेको संसार जितना विस्तृत और संपूर्ण भगवान्को अपने अन्दर ग्रहण करनेमें समर्थ अनुभव करती है ।

 

*

 

       यह चेतनाके विस्तारका एक अनुभव है । यौगिक अनुभवमें चेतना प्रत्येक दिशामें चारों ओर, नीचे, ऊपर असीमतक फैलती हुई हरेक दिशामें विस्तृत होतीं है । जब योगीकी चेतना मुक्त हो जाती है, तो वह शरीरमें नहीं, किंतु सदैव इस असीम ऊँचाई, गहराई और विस्तारमें ही निवास करता है । उसका आधार एक अनन्त शून्यता या निश्चल-नीरवता होती हैं, किंतु उसमें शांति, मुक्ति, शक्ति, प्रकाश, ज्ञान, आनन्द सब प्रकट हों सकते हैं । यह चेतना सामान्यतया पुरुष या आत्माकी चेतना कहलाती है, क्योंकि यह एक विशुद्ध सत्ता या पुरुष है जो सब वस्तुओंका उद्गम स्थान है और सब वस्तुओंको धारण करता है ।

 

*

 

         हा -- इस (विशालता) का इस प्रकार अनुभव होता है मानों वह ऊपरसे लेकर नीचेतक शक्तिसे परिपूर्ण और मुक्त एव निःसीम एकलताकी भावना प्रदान करने वाली महान् ठोस विशालता हो ।

 

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        प्रारंभमें दूसरे अनुभवोंके समान ही विस्तारका अनुभव भी कभी कभी ही आता है । बादमें जाकर ही यह बारंबार आता है और चिरकालतक बना रहता हे, अन्तमें जाकर यह स्थिर हों जाता है और चेतना सदा ही विस्तृत रहती है ।

 

*

 

       तुम्हें एकाग्रताके भयको त्याग देना होगा । वह शून्यता जो तुम्हें अपने ऊपर आती हुई अनुभव होती है बह उस महान् शांतिकी निश्चल-नीरवता है जिसके अंदर तुम अपने पुरुषके संबंधमें सचेतन होते हों, इस रूपमें नही कि वह देहमें बद्ध शूद्र अहं है, कितु इस रूपमें कि वह विश्व जितना विशाल आध्यात्मिक पुरुष है । चेतना विलीन नहीं हुई; चेतनाकी सीमाएं ही विलीन हो गई हैं । उस नीरवतामें कुछ समयके लिये विचार बन्द हों सकते हैं, हों सकता है कि वहां एक महान् निःसीम स्वतंत्रता और विशाल- ताके सिवाय और कुछ न हों, किन्तु उस नीरवतामें, उस शून्य विस्तारमें ऊपरसे अपार शांति, प्रकाश, आनन्द, ज्ञान अर्थात् वह उच्चतर चेतना उतरती है जिसमें तुम भगवान्- के साथ एकत्वका अनुभव करते हों । यह रूपांतरका प्रारंभ है और इसमे डरनेकी कोई बात नही ।

 

 

          इसका अर्थ है देह-भावसे मुक्ति जिसमें मनुष्य सचमुच कह सकता है, ' 'मैं शरीर नहीं हूँ' ' । वैश्व संकल्पके प्रत्यक्षानुभवके समान ही यह मुक्ति भी वैश्व-चेतनाका अंग है ।

 

          यह केवल देह-भावसे मुक्ति है ! यह देहके नियंत्रणसे बिलकुल भिन्न वस्तु है ।

 

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         तुमने एक सूक्ष्म हवाके रूपमें जिस वस्तुका अनुभव किया था वह देहसे स्वतंत्र स्वयं चेतनाकी या सचेतन सत्ताकी ठोस अभिव्यक्ति थीं । फिर भी यह अनुभव अभी शरीर द्वारा सीमित है, किन्तु जम उस सीमासे मुक्त रूपमे इसका अनुभव होता हे तब यह संपूर्ण अवकाशको परिपूर्ण करनेवाले व्यापक व्योमका, आकाश-ब्रह्मका बोध होता है । इसके विकसित होनेके साथ, देह-भाव लुप्त हो जाता है और जब मन भी बिलकुल निष्क्रिय हों जाता है तो व्यक्ति अपनेकी ऐसे मनके रूपमें अनुभव करता है जो समस्त अनन्तकी और फैल रहा है ।

 

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यदि ये कल्पनाएं ही होती तो तुम प्रत्येक बार उनका बिचार करते ही इन्हें ठीक-ठीक रूपमें पुन: प्रस्तुत कर सकते । यह बिचार कि ये कल्पना हैं, उस स्थूल मनसे आता है जो किन्हीं भी अतिभौतिक वस्तुओंमें विश्वास करनेमें असमर्थ है ।

 

      शून्यके भीतर (वस्तुत: शून्यमें नहीं, पर वैश्व और निःसीम चितके अनन्त आकाशके भीतर) हदयका यह उद्घाटन विश्वमय भगवान्की विरा सत्तामें भाव- प्रधान सत्ताके उद्घाटनका चिह्न है । ध्यानमें साधक आकाशके मूर्त्ति रूपका प्राय. दर्शन करते हैं । मनमें या किसी अन्य भागमें चेतनाके मुक्त होनेपर सदैव इसी विशाल असीम शून्यताका बोध होता है । सिरमें करसे लेकर गलेतक सत्ताकी मानसिक भूमिका स्थित है -- यहां इसी प्रकारका उद्घाटन एवं शून्यता या विशालता मानसिक सत्ताके वैश्वसत्तामें मुक्त होनेका संकेत है । कंठसे लेकर उदरतक उच्चतर प्राणिक या भावमय क्षेत्र है । नीचे निम्रतर प्राणिक भूमिका है ।

 

        मैं समझता हूँ, यह देहके साथ तादात्म्यके अभावकी अपेक्षा कहीं अधिक देहका विस्मरण है । तीव्र मनोमय रूप देनेमें या तीव्र प्राणिक क्रियामें शरीरका स्थान गौण हो जाता है एवं बह अधिक बाह्य हों जाता है और ऐसा ही कुछ हदतक अधिक सतत रूपमें उस मनुष्यमें भी हो सकता है जो अपने मनमें या अपने प्राणमें रहता है और उसके साथ अधिक प्रगाढ़ रूपसे तल्लीन हो जाता है । किंतु फिर भी यह शरीरमें देहगत मन और देहगत प्राण होता है । आध्यात्मिक मुक्तिके समान इसमें कोई छुटकारा, कोई पूर्ण पार्थक्य नहीं होता ।

 

*

 

        हां, मानव मनके लिये स्वयं पूरी तरह अपने अन्दर इस हदतक निवास करना असंभव है कि वह शरीरकी बिलकुल उपेक्षा कर दे -- आध्यात्मिक मुक्तिके बिना एक यथार्थ या पूर्ण मुक्ति अथवा तादात्म्यका अभाव संभव नहीं है । मनके लिये जो संभव है वह सब यह है कि वह अपने अन्दर पूरी तरह मग्न रहे और यथाशक्ति शरीरकी उपेक्षा करे या उसे अ जाय । यह बात प्रायः उन लोगोंमें ( विद्वानों, मनीषियों आदिमें) पायी जाती है जो अपनी आजीविका, परिवार इत्यादिके विषयमें स्वयं व्यग्र होनेकी आवश्यकता के विना निवृत्त मानसिक जीवन बिताते हैं ।

 

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 क्षितिज पर उदय होता हुआ सूर्य सत्तामें उदय होते हुए भागवत सत्यका सीधा प्रकाश है - ऊपर जाती हुई किरण सत्ताको सत्यके प्रति उद्घाटित करती है क्योंकि

 

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वह मनसे ऊपर है, सामनेवाली किरण सत्ताको उस चेतनाके प्रति खोलती है जिसे हम विश्वचेतना कहते हैं, वह व्यक्तिगत सीमाबन्धनसे मुक्त हों जाती है और खुल जाती है तथा वैश्व मन, वैश्व शरीर और वैश्व प्राणके संबंधमें सचेतन हो जाती है । हृदय पर होनेवाली यह क्रिया इस सूर्यका हदयपर डाला गया दबाव था जिससे इस प्रकारका सीधा उद्घाटन हो सके, फलत: चैतना स्वतंत्र, विस्तृत और पूरी तरह शांत हो जाय ।

 

         यह बड़ी भारी बात है कि तुम अपने आपको विरोधी दबावके सामने अविचल और असुब्ध एवं शांतिकी चेतनाको पीछेकी ओर स्थिर कर सेज हो । यह इस बातका चिह्न है कि यह चेतना अधिक ठोस और प्रभावशाली हों रही है ।

 

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          वैयक्तिक चेतनासे परे जानेपर या वैयक्तिक चेतनासे परे जाने और विश्व-चेतना- की ओर प्रसारित होनेका प्रारंभ होनेपर विशालता आती है । किंतु वैयक्तिक चेतना- के अन्दर भी चैत्य पुरुष सक्यि हो सकता है ।

 

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         चैत्य पुरुष व्यक्तिगत विकास-कर्मका आधार है; यह सीधे संपर्कके द्वारा तथा मन, प्राण और शरीरके माध्यमसे, दोनों प्रकारसे, वैश्व चेतनाके साथ संयुक्त रहता है ।

 

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         प्रेम, हर्ष और अ आते हैं चैत्य पुरुषसे । आत्मा देता है शांति या विश्वव्यापी आनन्द ।

 

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       पुरुष या आत्मा निष्क्रिय है, प्रकृति या शक्ति कार्य करती है । पुरुषका अनुभव होते समय पहले एक असीम सत्ता, निश्चल-नीरवता, मुक्ति और शांतिका अनुभव होता है क्हीआत्मा या पुरुष कहलाता है । इसमें जो क्यिा होती है वह उस साक्षात्कार- के अनुसार होती है जिसका अनुभव या तो इस रूपमें होता है कि उस विशालतामें प्रकृतिकी शक्तियां कार्य कर रही हैं या भागवतशक्ति कार्य कर रही है अथवा विरा भगवान् या उनकी नानाविध शक्तियां कार्य कर रहीं हैं । ऐसा अनुभव नही होता कि परमपुरुष कार्य कर रहा है ।

 

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      जहांतक द्रष्टा और पंखवाले व्यालकी कुंडलियोंका संबंध है यह विश्वके गतिचक्रमे अपनेको विस्तृत करती हुई जगत् शक्तिका एक चीनी-जापानी रूपक हैं और यह इस समग्र व्यापारके द्रष्टा और भागवत लीलाके विलासके प्राकटपमें उसके उन्मीलन- का अवलोकन करनेवाले साक्षीके भावको व्यक्त करता है । जव हम वैश्व व्यापारोंकी पहेलीके सामने आते हैं तो यह साक्षिभाव ही हमें महत्तम स्थिरता, शांति और ' 'समता' ' प्रदान करता है । इसका आशय यह नही है कि इस क्यिा और व्यापारको स्वीकार नहीं किया जाता किंतु उन्हें ऐसी भागवत क्रियाके रूपमें स्वीकार किया जाता है जो उन लक्ष्योंकी ओर ले जाती है जिन्हें मन सदा तुरन्त नहीं देख सकता; किन्तु आत्मा समस्त परम प्रयोजन और गुप्त पथप्रदर्शन के बीच भी भांप लेती है ।

 

         निश्चय ही आगे जाकर एक ऐसा अनुभव होता है जिसमें अखण्ड भगवान्के, साक्षी और लीला करनेवाले दो पक्ष परस्पर गुंथकर एक हो जाते हैं; किंतु द्रष्टाकी यह अवस्था पहले आती है और यह उस पूर्णतर अनुभवकी ओर लें जाती है । यह अवस्था उस संतुलन, स्थिरता, अन्तरात्मा और जीवनके विषयमें बढ्ती हुई समझ और उनके अधिक गहरे आशयोंको प्रदान करती है जिनके बिना अतिमानसका पूर्ण अनुभव नहीं प्राप्त हो सकता ।

 

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        वैश्व शक्तियां अपने अन्दर स्थित अपने बल और चैतन्य द्वारा गति करती हैं, -किन्तु एक वैश्व आत्मा भी है जो उन्हें अवलम्बन देता है और अपने अधीक्षण तथा सुव्यवस्थित करनेवाले संकल्प द्वारा उनकी क्रीडाको निर्धारित करता है - यद्यपि सीधी क्रिया तो शक्तियोंपर ही छोडू दी जाती है - यह वैश्व प्रकृतिकी उसके पीछे रहकर उसका निरीक्षण करनेवाले वैश्वपुरुषके साथ क्रीड़ा है । ब्यक्तिमें भी एक व्यक्तिगत पुरुष होता है जो इच्छा करनेपर केवल प्रकृतिकी लीलाके लिये सहमति हीं नही दे सकता बल्कि इसके परिवर्तनके लिये स्वीकृति दे सकता है या निषेध या संकल्प भी कर सकता है । यह सब स्वयं लीलामें हीं होता है जैसा कि हम यहां देखते हैं । इससे ऊपर भी कोई वस्तु है परन्तु उसकी क्यिा प्रतिक्षण नियंत्रण करनेकी अपेक्षा कही अधिक एक हस्तक्षेपके रूपमें दृष्टिगोचर होती है; यह हस्तक्षेप एक सतत सीधा नियंत्रण तभी बन सकता है जब कि व्यक्ति शक्तियोंकी क्रीडाके स्थानपर भगवान्के शासनको स्थापित करता है ।

 

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         सच्ची यौगिक चेतनामें ही मनुष्य एकताका अनुभव करता है और बाह्य सत्तासे और उसकी निम्रतर क्यिाओंसे अछूता रहकर, पर उनके अज्ञान और क्षुद्रतापर मुस्करा- ता हुआ उसके अन्दर निवास करता है । यदि इस पृथक् भावको सदैव कायम रखा जाय

 

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तो इन बाह्य वस्तुओंसे व्यवहार करना बहुत अधिक साध्य हो जायेगा । .

 

*

 

         यह प्रकृतिके पुरुष और प्रकृति पक्ष हैं - एक विशुद्ध सचेतन सत्ता अर्थात् निष्क्यि अवस्थाकी ओर ले जाता है, यह निष्क्यि पक्ष है और दूसरा शुद्ध सचेतन शक्तिकी ओर सक्रिय है । जिस पुरातन अन्धकारमेसे वे बाहर निकले हैं वह अज्ञानका अन्धकार है, भावी अन्धकार जिसका अनुभव ऊपरकी ओर हुआ है वह अतिचेतना है । किंतु, निःसंदेह, अतिचेतना वस्तुत: ज्योतिर्मय है - हां केवल इसका प्रकाश दीखता नही । चेतनाके तीन रूप तीन गुणों द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रकृतिके तीन पक्ष हैं - अवचेतन तमषकी शक्ति अर्थात् जड़ता जो जडतत्वका धर्म हू, अर्धचेतन कामना- की शक्ति, गतिशीलता अर्थात् रजस् जो प्राणका धर्म है और सात्विक प्रकाशकी शक्ति जो बुद्धिका धर्म है ।

 

 *

 

          पुरुष एक है - इसकी क्यिा चेतनाकी तत्कालीन स्थिति और आवश्यकताके अनुसार होतीं है ।

 

         यह साधारण मनसे ऊपर या बहुमुखी वैश्व चेतनामें होनेवाली क्रियाका स्वरूप होता है ।

 

        प्रकृति केवल कार्यवाहिका या काम करनेवाली शक्ति है -- प्रकृतिके पीछे रहने वाले बलका नाम ही है शक्ति । यह व्यक्त हुई चित्-शक्ति अर्थात् आध्यात्मिक चेतना

 

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        मानसिक ज्ञान और संकल्पके विषयमें यह सत्य है, किंतु उच्चतर ज्ञान-संकल्पके विषयमें नहीं । अतिमानसमें ज्ञान और संकल्प एक होते हैं ।

 

          सब ऊर्जाएं चित्-शक्तिसे उत्पन्न होती हैं, किन्तु नीचे उतरनेपर उससे भिन्न रूप धारण कर लेती हैं ।

 

        इतना तो सत्य है कि लाक्षणिक रूपसे प्राणका विशेष लक्षण है शक्ति - स्थूल सत्ताका विशेष लक्षण है द्रव्य, लेकिन दोनोंकी क्रियाशीलता चित्मेंसे आती है -

 

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मनकी क्रियाशीलता भी क्रियाशीलता मात्र है ।

 

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       एक सर्व सामान्य शक्ति है जो सबमें कार्य करती है और उस शक्तिका या उसकी किसी एक क्रियाका स्पन्दन अन्यमें उसी स्पन्दनको जगा सकता है ( किन्तु हमेशा नहीं) । एक है अविच्छिन्न क्यिा ( प्रकृति) और एक है अविच्छिन्न निश्चल नीरवता (पुरुष) ।

 

      उपनिषद्का यह कथन है कि एक ऐसा आनन्दका आकाश है जिसमें सब लोग श्वास लेते और जीते हैं; यदि वह न होता तो कोई व्यक्ति श्वास-प्रश्वासन ले सकता, न जी ही सकता । '

 

*

 

    ' 'उत्पन्न' ' शक्ति तुम्हारी नहीं है -- यह प्रकृतिकी है - तुम्हारा संकल्प इसे गति प्रदान करता है, यह वस्तुत: उसे उत्पन्न नही करता; किन्तु एक बार अगतिमय होनेपर यह अपनेको उस हदतक चरितार्थ करनेके लिये प्रवृत्त होती है जहांतक कि अन्य शक्तियोंकी क्रीड़ा उसे अनुमति देती है । इसलिये, स्वभावत: यदि तुम इसे रोकना चाहो तो, तुम्हें-एक विरोधी शक्तिको सक्यि करना होगा जो इतनी अधिक बलशाली हो कि उसके प्रवेगपर हावी हों सके ।

 

*

 

         यह अन्तर्दर्शन एक स्थितिसे दूसरी स्थितिमें विकसित होती हुई वस्तुओंकी वैश्व क्यिाका और उसमें उन व्यक्तिगत क्यिाओंका प्रत्यक्ष बोध है जो उन क्रियाओंका गठित करती है । एक ऐसी अनुभूति भी संभव है जिसमें सर्व प्रवहमान कालके रूपमें अनुभूत होता है या फिर बह एक ऐसे आयामके रूपमें अनुभूत होता है जो देशके साथ कपड़ेके ताने-बानेकी तरह गुँथा हुआ है आदि ।

 

*

 

         जगत् एक रूपमात्र है, यथार्थ वस्तु है भगवान् । मनुष्यको रूपमें भगवान्की उपस्थितिका दर्शन करना होगा ।

 

    *का हयेवान्यात् क: प्राणयात् ।

         यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् । तै. २-७.

 

५७०


          भगवान् सर्वोच्च सत्य हैं क्योंकि इस परम पुरुषसे ही सब उत्पन्न हुए हैं और उसीमें सब विद्यमान हैं ।

 

*

 

             भगवान् वह है जिससे सब उत्पन्न होते हैं, जिसमें सब निवास करते हैं, और भगवान्के उस सत्य (स्वरूप) मे लौटना ही अन्तरात्माका जीवन-लक्ष्य है जो इस समय अज्ञानसे आच्छादित है । अपने सर्वोच्च सत्यमें भगवान् निरपेक्ष और असीम शांति, चेतना, सत्ता शक्ति और आनन्द हैं ।

 

*

 

            परमात्मा परात्पर द्वारा सृष्टि नही कर सकता क्योंकि परात्पर ही परमात्मा है । भगवान् वैश्व-शक्ति द्वारा सृष्टि करता है ।

 

*

 

          वैश्व-शक्ति अधिमानसके नियंत्रणमें हैं । अधिमानस इसके ऊपर सीधा क्रिया नही करता --जो कुछ भी वहांसे नीचे आता हे वह थोड़ा बहुत इस प्रकार परिवर्तित हो जाता है कि वह अधिमानसमेंसे गुजर सके और मानसिक, प्राणिक या भौतिक जिस किसी भी भूमिकापर वह कार्य करता है उसका एक अल्पतर आकार धारण कर सके । किन्तु वैश्व शक्तियोंकी सामान्य लीलामें ऐसा हस्तक्षेप अपवाद रूप ही होता है ।

 

*

 

          वैश्व आत्मा अतिमानसको धारण किये हुए हे, किंतु वह उसे ऊपर अलग रखे हुए है और इस समय अधिमानस और भौतिक सत्ताके बीचमें हीं कार्य कर रहा है । एकमात्र अज्ञानको हटानेपर हीं अतिमानस यहांपर वैश्व प्रकृतिकी क्रियाओंका सीधा एक सक्यि भाग बन जाता । तबतक केवल उसके प्रतिबिंब ही दिखाई देते हैं ।

 

*

 

         यह (वैश्व आत्मा) सत्य और मिथ्या, ज्ञान और अज्ञान और अन्य सब द्वन्द्वोंको अभिव्यक्तिके तत्वोंके रूपमें उपयोगमें लाता है और चरितार्थ करने योग्य वस्तुओंको तबतक कार्यान्वित करता रहता है जबतक सब कुछ उच्चतर क्रियाके लिये तैयार न हो जाय ।

 

*

 

५७१


          यहां वैश्व शक्तियां चाहे वे भली हों या बुरी, अज्ञानकी शक्तियां है । उनसे ऊपर सत्य-चेतना है बह तभी व्यक्त हो सकतीं है जव अहंकार और कामना जीत लिये जाते हैं - भागवत सत्य-चेतनासे एक शक्तिको उतरना होगा - उच्चतर शांति, प्रकाश, ज्ञान, विशुद्धि, आनन्दको व्यक्तिके अन्दर स्थित वैश्व शक्तियोंपर कार्य करना होगा जिससे बह उन्हें बदलकर साधारण क्रियाके स्थानपर सत्य-शक्तिको स्थापित कर दे ।

 

*

 

         ब्रह्मांड या जगत् सदा ही संवादमय होता है, अन्यथा इसका अस्तित्व न रह सकता, यह टुकड़े टुकड़े हो जाता किन्तु क्योंकि एक ऐसी भी संगीतमय संवादिताएं हैं जो अंशत: या प्रधान रूपसे भी विसंगतियोंसे बनती हैं, इसलिये यह विश्व (स्थूल) अपने पृथक् तत्वोंमें विसंवादी हैं -- पृथक् तत्व बहुत हदतक परस्पर विसंगत होते हैं; केवल समग्र विश्व अपने पीछे स्थित सबको धारण करनेवाले भागवत संकल्पके कारण ही उन लोगोंके लिये अब भी एक संवादयुक्त वस्तु है जो इसे वैश्व दृष्टिसे देखते हैं । किन्तु यह एक ऐसी संवादिता है जो उत्तरोत्तर विकसित हो रही है - अर्थात् सब कुछ उस लक्ष्यको पानेके लिये मिलकर प्रयास कर रहे हैं जो अभी प्राप्त नहीं हुआ, और हमारे योगका लक्ष्य है इस लक्ष्यतक जल्दी पहुँचना । इसके प्राप्त होनेपर वहां वर्तमान विसंवादिताओंपर निर्मित हुई संवादिताके स्थानपर संवादिताओंकी सवादिता आ जायेगी । वस्तुओंके वर्तमान बाह्य रूपकी यही व्याख्या है ।

 

*

 

         यहां कोई भी वस्तु पूर्ण नहीं है किन्तु यहांकी सब वस्तुए वैश्व संकल्पको युग- युगांतरोंमें चरितार्थ कर रही है ।

 

*

 

         निम्रतर चेतनाकी संवादिता वैषम्योंकी एक ऐसी संवादिता है जो शक्तियोंके संघर्ष और उनके मिश्रणके द्वारा लाई जाती है ।

 

*

 

          यह आंतरिक अनुभव उस वैश्व संवादिताका ध्वन्यात्मक रूप है जिसमेंसे पतन और विसंवादके होनेपर अज्ञानकी सृष्टि होती है ।

 

*

 

५७२


          प्रत्येक वस्तुमें एक लय-ताल है जिसे स्थूल कान नहीं सुनते और उस लय-ताल द्वारा हीं सब पदार्थोंका अस्तित्व होता हैं ।

 

*

 

          ये दोनों ( ॐ और गिरजेके घण्टोंका शब्द) साधारणतया ऐसे शब्द हैं जो वैश्व चेतनाके प्रति उद्घाटनको या उद्घाटनके प्रयासको सूचित करते हैं ।

 

*

 

         जब तुम पदार्थोंमें वैश्व या भागवत सौन्दर्य अथवा उपस्थितिका अनुभव करो तब यह समझो कि इन्द्रियों भगबनके प्रति खुली है ।

 

*

 

       मनुष्य वैश्व शक्तियोंके बीचमें भी भगवान्के साथ संपर्क रखते हुए जी सकता है - किंतु भगवान्में निवास करनेके लिये व्यक्तिको निम्रतर विश्व प्रकृतिसे परे, ऊपर उठनेमें या भागवत चेतनाको यहां नीचे पुकार लानेमें समर्थ बनना होगा । अधि- कतर लोगोंके लिये प्रारंभिक सोपान कठिन होते हैं - और असलमें प्रारंभ कभी भी सरल नहीं होता ।

 

*

 

        सर्वदा भगवान्में मग्न रहना इतना सरल नही १ । यह केवल तभी किया जा सकता है जब व्यक्ति अपने आंतर आत्मामें डूबा रहे या ऐसी चेतना प्राप्त करे जो सबको भगवान्में और भगवान्को सबमें देखें और सदैव इसी स्थितिमें रहे । ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसने अभी तक यह स्थिति प्राप्त की हो ।

 

*

 

         वैश्व आत्मा या पुरुष विश्वकी प्रत्येक वस्तुको अपनेमें धारण किये हुए हैं - वह वैश्व मन, वैश्व प्राण, वैश्व शरीर इसी प्रकार अधिमानसको थामे रखता है । पुरुष उन सब वस्तुओंसे अधिक है जो प्रकृतिमें उसकी रूप-रचनाएं हैं ।

 

*

 

५७३


     (वैश्वमनके प्रति उद्घाटनके परिणाम:) व्यक्ति वैश्व मनको और वहां क्यिा करनेवाली मानसिक शक्तियोंको एवं उसके अपने और अन्योंके मनपर उनकी किस प्रकार क्यिा होती है इसे भी जान जाता है तथा व्यक्ति अपने मनके साथ महत्तर ज्ञान और प्रभावशाली शक्तिके साय व्यवहार कर सकता है और भी बहुतसे परिणाम हैं परन्तु यह एक आधारभूत परिणाम है । ऐसा निःसंदेह तब होता है जब व्यक्ति ठीक ढंगसे उद्घाटित होता है तथा सब प्रकारके विचारों एवं मानसिक शक्तियोंका एक निष्क्रिय क्षेत्र मात्र नही बन जाता ।

 

*

 

           वैश्व मनके प्रति उद्घाटन, उदाहरणके लिये, सर्वत्र भगवान्की अनुभूतिको आसान बना देता हे - किन्तु यह तत्वतः आध्यात्मिक नहीं है; यदि विशालतर आध्यात्मिक अनुभव न हों, तो इसका आध्यात्मिक होना बिलकुल भी जरूरी नहीं ।

 

*

 

         जो वस्तु हों रही है वह यह कि तुम उस वैश्व मनके संपर्कमें आ गये हों जहां सब प्रकारके विचार, संभावनाओं, रचनाएं इधर उधर घूम रही हैं । ब्यक्तिका मन उन वस्तुओंको ग्रहण कर लेता है जो उसे प्रभावित करती हैं या शायद उसे स्पर्श करनेपर स्पष्ट स्वरूप धारण कर लेती हैं । किंतु ये संभावनाएं हैं, सत्य नही, इसलिये इन्हें इस प्रकार खुला दौड़नेके छूट देना ठीक नही ।

 

*

 

          जडतत्वके समान मनके भी अपने प्रदेश हैं और प्राणके अपने । मनके प्रदेशमें प्राण और जडुतत्व पूरी तरह मनके आधीन रहते हैं और उसकी आज्ञाओंका पालन करते हैं । यहां पृथ्वी पर जो विवर्तन होता है उसका आरंभबिनदु है जडतत्व, मध्यबिन्तु है प्राण और इससे उद्भूत होता है मन । विश्वमें बहुतसी श्रेणियां, प्रदेश एवं संयोग है - यहां तक कि बहुतसे विश्व भी है । हमारा विश्व उन बहुतोंमें केवल एक है।

 

*

 

 (वैश्व जीवनके प्रति उद्घाटनका प्रभाव:) मनुष्य सब जीवन शक्तियोंको जान जाता है और यह भी जान लेता है कि बे उसके अपने और अन्योंके मन और शरीरपर किस प्रकार कार्य करती हैं - और घटनाओंके पीछे काम करनेवाली शाक्ते-

 

५७४


के व्यापारोंको भी । व्यक्ति प्राणिक भूमिका, उसके लोकों, उसकी सत्ताओंसे और पार्थिव जीवनपर उनकी रचनाओंकी सीधी क्यिासे भी सीधा सचेतन हो जात्रा है । इसके साथ ही व्यक्तिको अपनी सच्ची प्राण सत्ताके विषयमें भी जानना होगा और वहीसे इन सब वस्तुओंके संबंधमें कार्य करना होगा न कि उपरितलीय या कामनामय प्राणसे । यह सारा परिणाम एकदम नहीं उत्पन्न हों जाता,--यह वैश्व जीवनके साथ संपर्क बढ़नेके अनुपातमें ही विकसित होता है ।

 

*

 

        विशेषत: वैश्व प्राणमें शक्तिका ऐसा कपटपूर्ण आकर्षण (यह सच्ची शांत शक्ति नही किंतु निरी शक्ति) एव उल्लासकारी प्रबल प्रवाह होता है । उसकी आधीनता स्वीकार करने वाले लोग उसके साथ ऐसे चिपटा जाते हैं जैसे एक शराबी मादक वस्तु- ओंके साथ । यह उन्हें भावना प्रदान करती हैं कि हम बलवान् एवं महान् हैं और हैं दिलचस्प बातोंसे भरपूर - जब यह उनसे ले ली जाती हैं, तो वे अपनेको ' 'सामान्य- जैसे' ' अनुभव करते हैं और इसकी फिर मांग करते हैं ।

 

*

 

       वैश्व शक्तियोंका आशय है विश्वमें क्रियारत सब भली या बुरी, अनुकूल या प्रतिकूल, प्रकाश और अधिकारकी शक्तियां ।

 

*

 

       पृथ्वी विकासका एक ऐसा स्थान है जिसमें ये सब शक्तियां इकट्ठे होती हैं और व्यक्त होनेका प्रयत्न करती हैं एवं उनकी क्यिामेंसे किसी वस्तुको विकसित होना होता हैं । दूसरी भूमिकाओं ( मानसिक, प्राणिक आदि) पर विकास नही होता - वहां प्रत्येक अपने नियमके अनुसार अलग अलग कार्य करती हैं ।

 

*

 

 वैश्व शब्दका प्रयोग विश्वकी प्रत्येक वस्तुके लिये किया जाता है - व्यक्तिगत सत्ताएं सर्वत्र होती हैं, किन्तु पार्थिव अर्थमें वे स्थूल नही होतीं क्योंकि उनका गठन भिन्न होता है ।

 

*

 

५७५


        नहीं, वे (विरोधी सत्ताएं) वैश्व शक्तियोंको उत्पन्न नहीं करतीं; वे स्वयं उनसे संचालित होती हैं और उनका संचालन करती हैं ।

 

*

 

         हां, निश्चय ही, सदैव प्रकाश और अन्धकारके बीच युद्ध चलता रहता है । साधनामें यह घनीभूत हो जाता है और हम उसके विषयमें सचेतन हो जाते

 

        जहांतक विरोधी शक्तियोंका प्रश्न है, वे हमेशा एक दूसरेके साथ बुद्धमें लगी रहती हैं; किन्तु सत्य और प्रकाशके विरोधको वे साझा ध्येय बना लेती हैं ।

 

*

 

         शक्तियां सचेतन होतीं हैं । इसके सिवाय ऐसी व्यक्तित्वापत्र सत्ताएं भी हैं जो शक्तियोंका प्रतिनिधित्व या उनका प्रयोग करती हैं । व्यक्ति जय जडतत्वके परदेके पीछे चला जाता है तो चेतना एवं शक्ति, निर्ब्धक्तिकता एवं वैयक्तिकताके बीचकी दीवार बहुत अधिक पतली हो जाती है । यदि कोई किसी क्यिाको निर्व्यक्तिक शक्तिकी दिशासे देखे तो यह शक्ति या र्क्ला को किसी प्रयोजनके लिये परिणामोत्पादक रूपमें काम करते हुए देखता है, यदि कोई सत्ताकी दिशासे देखे तो वह एक ऐसी सत्ताको देखता है जो एक चेतन शक्तिको अपने अधिकारमें रखती है, उसका मार्गदर्शन और उपयोग करती हैं या फिर जो उसकी प्रतिनिधि होती है और उसके द्वारा विशिष्ट क्यिा और अभिव्यक्तिके उपकरणके रूपमें प्रयुक्त की जाती है । तुम लहरकी बात करते हो, किन्तु आधुनिक भौतिक शास्यमेंयह पाया गया हैं कि यदि तुम ऊर्जाकी गतिका अवलोकन करो, तो एक ओर, यह लहर प्रतीत होती है एवं एक लहरकेरूपमे काम करती दिखाई देती है, दूसरी और कणोंका एक समूह प्रतीत होती है और कणोंके ऐसे समूहके रूपमें काम करती  देती है जिसमें प्रत्येक कण अपने ढंगसे कार्य फरा रहा होता है । यहां भी थोड़ा बहुत वही सिद्धांत देखनेमें आता है ।

 

*

 

         प्रकृति-शक्तियां सचेतन शक्तियां हैं - वे किसी क्यिा या प्रयोजनके लिये आवश्यक सब वस्तुओंको अच्छी तरह जुटा सकतीं हैं और जब कोई साधन असफल होता है, तो वे दूसरे साधनाको हाथमें ले लेती हैं ।

 

*

 

५७६


        हां, समग्र मानव प्रकृतिके लिये सामान्य सर्व साधारण मनोवैज्ञानिक कियाके द्वारा काम करनेकी अपेक्षा यदि थे (शक्तियां) अपनी कोई विशेष रचना कर सकें तो अधिक बल पूर्वक कार्य कर सकती हैं ।

 

*

 

 वे (वैश्व शक्तियां) प्रत्येक ब्यक्तिपर व्यक्तिकी प्रकृतिके अर्थात् उसके संकल्प और चेतनाके अनुसार हीं कार्य करती हैं ।

 

*

 

         अहंकार वैश्व प्रकृति रूपी यंत्रका भाग - मुख्य भाग - हैं, प्रथम तो प्रकृति- की भेद-प्रभेद रहित शक्ति और उपादानमेंसे व्यक्तित्वका विकास करनेके लिये और, दूसरे, (अहंकारीक विचार, अनुभव, संकल्प और कामनाके यंत्र द्वारा) व्यक्तिको वैश्व शक्तियोंका हथियार बनानेके लिये । जव कोई उच्चतर प्रकृतिके स्पर्शमें आता है तभी इस अहंके शासनसे और इन शक्तियोंकी आधीनतासे मुक्त होना संभव होता

 

*

 

         हां, यदि यह ठोस अनुभव हों (कि हमारी सारी शक्तियां और क्षमताएं विश्व- शक्तियोंसे आती हैं) तो अहंका अभ्यास बहुत कम हो जाता है, पर यह एकदम चला नहीं जाता । यह इस भावनाके अन्दर शरण लेता है कि यह एक यंत्र है और - यदि यह चैत्यकी ओर मुंडा हुआ न हो तो -- बड़ी आसानीसे ऐसी किसी भी शक्तिका यंत्र होना पसन्द कर सकता है जो अहंकी संतुष्टिका पोषण करती है । ऐसी अवस्थाओंमें अहं फिर भी प्रबल बना रह सकता है यद्यपि वह अपनेको यंत्र ही अनुभव करता है, प्रमुख कर्ता नही ।

 

*

 

         यदि चैत्य पुरुष सक्रिय होता है, या जिस हदतक वह सक्यि होता है उस हदतक, उसके अन्दर कोई ऐसी चीज होती है जो कि विश्व-शक्तियोंके लिये सहज कसौटी जैसी होती है,-जो नही होना चाहिये उत्तरके विरुद्ध यह एक चेतावनी देती है ( विचार- के द्वारा उतना नहीं जितना कि एक मूलभूत अनुभवके द्वारा) और उसका परित्याग करती है तथा जो होना चाहिये उसे वह स्वीकार करती और रूपांतरित करती है ।

 

*

५७७


       हां, ऐसी ही बात है । वैश्व शक्तियां बहुधा अवचेतन द्वारा क्तिका करती हैं - विशेषकर जब उनके द्वारा भेजी गई शक्ति कोई ऐसी वस्तु होती है जिसकी आज्ञाका पालन करनेकी व्यक्तिको आदत पडू गई होती है और जिसके बीज, संस्कार, ' 'ग्रंथियां' ' अवचेतनमें दृढ़तासे जम गये होते हैं अथवा चाहे ऐसी स्थिति न भी हो, तो जिसकी स्मृति अब भी अवचेतनमें विद्यमान होतीं है ।

 

*

 

           इसका कोई नियम नहीं है । साधारणतया मानव सत्ता केवल उपरितल पर ही सचेतन होती है -- किंतु उपरितल केवल प्रच्छन्न अन्त: सत्ताके कार्यमें लगी हुई शक्तियोंके परिणामोंका ही ब्यौरा रखता है । प्राय. चक्रोंके द्वारा हीं शक्तियां अन्दर आती हैं, क्योंकि तब वे प्रकृतिपर कार्य करनेके लिये सबसे अधिक शक्ति प्राप्त करती हैं - किन्तु वे कही भी प्रवेश कर सकती हैं ।

 

*

 

           अधिक ठीक कहें तो वे ( दुःख-दर्द) शायद वैश्व शक्तियोंकी क्रीडाके परिणाम हैं - किंतु एक विशेष अर्थमें दुःख-दर्द को वैश्व शक्तियां कहा जा सकता है -- क्योंकि इन वस्तुओंकी लहरें आकर सत्ताको प्रायः बिना किसी प्रत्यक्ष कारणके घेर लेती हैं ।

 

*

 

         यह ( मृत्यु) एक वैश्व शक्ति है -- जिस घटना या परिवर्तनको मृत्यु कहा जाता है वह शक्तियोंकी क्रियाका केवल एक परिणाम है ।n


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