श्रीअरविन्द के पत्र

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Sri Aurobindo

Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Letters On Yoga - Parts 2,3 Vol. 23 1776 pages 1970 Edition
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 PDF     Integral Yoga
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Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द के पत्र 578 pages 1972 Edition
Hindi Translation
Translator:   Chapsip Tripathi  PDF    LINK

भाग तीन

 


विभाग एक

 

अनुभव और साक्षात्कार

 


अनुभव और साक्षात्कार

 

 अनुभव एक ऐसा शब्द है जिसमें योगमें घटित होनेवाली सभी बातें समाविष्ट हों जाती है; केवल इतना है कि जब कोई वस्तु स्थिर हों जाती है तब वह अनुभव न रहकर सिद्धिका अंग बन जाती है, उदाहरणके लिये, जब तक शांतिका आना-जाना होता रहता है तब तक तो वह अनुभव होती है पर स्थिर होते ही वह सिद्धि बन जाती है । साक्षात्कार भिन्न वस्तु है - जब हम किसी वस्तुकी अभीप्सा करते हैं और वह हमारे सामने प्रत्यक्ष हो जाती है तो यह साक्षात्कार कहलाता है; उदाहरणार्थ, हमारे अंदर एक विचार है कि भगवान् सबमें विद्यमान है, परंतु यह केवल एक विचार, एक विश्वास हीं है; पर जब हम सबके अन्दर भगवान् का अनुभव या दर्शन करने लगते हैं, तब वह साक्षात्कार बन जाता है ।

 

*

 

        ऐसे सब भेद करना अनावश्यक है । मनके सारतत्वमें, प्राणमें या शरीरमें, कही भी किसी सत्यका अनुभव होनेपर साक्षात्कार प्रारंभ होता है । जब हम शांतिका अनुभव करते हैं, तब हम उसके स्वरूपको साक्षात् करने लगते हैं । इस अनुभवके बार-बार आनेपर हम उसका अधिक पूर्ण और स्थिर साक्षात्कार प्राप्त करते हैं । जब वह सत्तामें कही स्थिर हों जाता है तो वह सत्ताके उस स्थानमें अथवा उस अंगमें पूर्ण साक्षात्कार हो जाता है ।

 

*

 

        जब हम अहंसे भिन्न किसी अन्य चेतनाको जानना और उसमें निवास करना या उसके प्रभावके आधीन होना प्रारंभ करते हैं तो यह आध्यात्मिकता होती है । वह विशाल, अनन्त, स्वयंभू, अहंकार इत्यादिसे रहित चेतना हीं परमात्मा (पुरुष, ब्रह्म, भगवान्) कहलाती है, अतएव निश्चय ही आध्यात्मिकताका यही अर्थ है । यह और अनुभूति तथा महत्तर चेतनाके साथ आनेवाली अन्य सब वस्तुए साक्षात्कार कहलाती है !  

*

 

       योगी वह है जिसमें साक्षात्कार पूरी तरह प्रतिष्ठित हो गया हों -- साधक

 


बह है जो साक्षात्कारको प्राप्त कर रहा हो अथवा प्राप्त करनेका यत्न कर रहा हो ।

 

*

 

        ऐसा कोई नियम नही कि कोई भाव-भावना अनुभव नहीं बन सकते । अनुभव सभी प्रकारके होते हैं और चेतनामें बे हर प्रकारका रूप ग्रहण करते हैं । जब चेतना गहराईमें जाकर किसी आध्यात्मिक, चैत्य अथवा गुल तत्वका स्पर्श करती, देखती अथवा अनुभव करती है तो योगकी परिभाषामें यह अनुभव कहलाता है किन्तु बहुतसे ऐसे भी अनुभव होते हैं जो इस प्रकारके नहीं होते । भाव भी कई प्रकारके होते हैं । भाव शब्द बहुधा आवेगके अर्थमें प्रयुक्त होता है । भाव चैत्य अथवा आध्या- त्मिक श्रेणीके आवेग हो सकते हैं जिन्हें यौगिक अनुभवोंके वर्गमें गिना जाता है - उदाहरणके लिये शुद्ध भक्तिका वेग अथवा भगवान्के प्रति प्रेमका उदय । अंग्रेजी शब्द फीलिंगका अर्थ किसी अनुभूत वस्तुका स्पर्श भी होता है - भले हीं यह स्पर्श प्राणमें, अथवा चैत्य या चेतनाके अफ्ले सारतत्वमें ही हो । मैंने देखा है कि मानसिक स्पर्श भी, जम वह बहुत स्पष्ट हो फीलिंग कहलाता हैं । यदि तुम इन्हें तथा इन जैसे अन्य फीलिंमूसको फीलिंग कहकर रद्द कर दो तव तो अनुभवके लिये बहुत थोड़ा स्थान रह जायगा । भावप्रधान अनुभूति और अंतर्दर्शन आध्यात्मिक अनुभवके मुख्य प्रकार है । व्यक्ति ग्रह्यको हर कही देखता और अनुभव करता है । वह एक शक्तिको अपनेमें प्रवेश करते या अपनेसे बाहर निकलते देखता है । वह अपने अन्दर अथवा चारों ओर भगवान्की उपस्थितिको देखता अथवा महसूस करता है, बह ज्योतिके एवं शांति अथवा आनन्दके अवरोहणको भी देखता तथा महसूस करता है । यदि तुम इन सबको फीलिंगमात्र कहकर त्याग दो तो तुम जिनको हम अनुभव कहते हैं उनके अधिकतम भागको रद्द कर दोगे । हम चेतनाके तत्व, उसकी स्थितिमें भीं एक परिवर्तन महसूस करते हैं । हम शुद्ध विस्तारके एक सूक्ष्म क्षेत्रमें अपनेको फैलता हुआ पाते हैं और शरीर- को उस बिस्तारमें छोटीसी वस्तु महसूस करते है (ये दृश्य विषय भी हों सकते हैं), हम अपनी हच्चेतनाको संकरा होनेके बदले चौड़ा, और धूमिल होनेके बदले ज्योतिर्मय होते महसूस करते हैं, ऐसे ही मस्तिष्क-चेतना, प्राण और शरीर-चेतनाको भी । इसी प्रकारकी सहस्रों चीजों हम महसूस करते हैं, भला हम उनको अनुभव क्यों न कहें? निःसंदेह ये फीलिंग्स अंतर्दशन, आंतरिक भाव एवं सूल्म-अनुभूतिरूप होते हैं, शीत पवन, पत्थर अथवा अन्य किसी वस्तुके फीलिंगके समान भौतिक नहीं हैं, परंतु ज्यों- ज्यों अंतश्चेतना गहन बनती जाती हैं ये कम स्पष्ट अथवा कम मूर्त नहीं बल्कि अधिक ही होते जाते हैं ।

 

*

 

     अनुभव एक अव्यर्थ वस्तु है और उसे उचित महत्व देना ही चाहिये । अनुभव-

 

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सम्बन्धमें विचार करते हुए मन उसे बढा-चढ़ाकर कह सकता है पर यह वस्तु अनु- भवको उसके महत्वसे वंचित नहीं कर सकतीं ।

 

*

 

 प्रश्न अपने सब कार्योंको समान महत्व देनेका नही पर साधनाके विभिन्न प्रकारके सभी तत्वोंकी महत्ताको समझनेका है । जैसे यह नहीं कहा जा सकता कि कर्मका कोई मूल्य नही अथवा बहुत कम या तुच्छ मूल्य है, वैसे ही यह नियम नहीं बनाया जा सकता कि समाधिकी महत्ता कम है या अनुभूतियोंके महत्ता हीन-कोटिकी है ।

 

*

 

          गहनतर और आध्यात्मिक अर्थमें एक ठोस साक्षात्कार वह है जो किसी वस्तुको अधिक यथार्थ रूपमें प्रत्यक्ष बनाता है, सक्यि करता है, और जो चेतनाके सामने भौतिक वस्तुकी अपेक्षा अधिक घनिष्ठरूपमें दृष्टिगोचर होता है । सगुण या निर्गुण ब्रह्मका इस प्रकारका साक्षात्कार साधारणत: साधनाके प्रारंभमें अथवा प्रारंभिक वर्षोंमें या लम्बे समय तक नहीं होता । ऐसा बहुत विरले लोगोंको ही होता है । किन्तु किसी अनुभवी योगी या साधकको दृष्टिमें ऐसे साक्षात्कारकी आशा या मांग अविवेक और असाधारण अधीरतायुक्त मानी जायगी । अधिकतर योगी यही कहेंगे कि साधकको प्रारंभिक वर्षोंमें धीमी प्रगतिकी ही आशा करनी चाहिये और परिपक्व अनुभव केवल तभी प्राप्त हो सकते हैं जब प्रकृति तैयार और भगवान्के प्रति पूरी तरह एकाग्र हों जाय । कुछ लोगोंको तैयारीमें मदद देनेवाले दुत अनुभव अपेक्षाकृत आरंभिक अवस्थामें हों सकते हैं पर उसमें भी वे चेतनाकी उस मेहनतसे बच नहीं सकते जिसके द्वारा ये अनुभव स्थायी और पूर्ण साक्षात्कारमें परिणत होते हैं । यह पसन्दगी या नापसंदगीका प्रश्न नहीं है, यह तश्य, सत्य, और अनुभवकी बात है । यह तथ्य है कि जो साधक प्रसन्न रहते हैं और धीरे-धीरे, यहां तक कि जरूरत पड़ने पर बहुत धीरे चलनेको तैयार रहते हैं वे अधीर और उतावले लोगोंकी अपेक्षा अधिक तेजीसे और विश्वासके साथ -आगे बढ़ते हैं । मैनई हमेशा ही यह पाया है ।

 

*

 

          यह ( आत्म-साक्षात्कार) कोई लम्बी प्रक्यिा नहीं है! बहुधा संपूर्ण जन्म और अन्य अनेकजन्म भी इसकी प्राप्तिके लिये पर्याप्त नहीं होते । रामकृष्णके गुरुको इसकी उपलव्धिमें ३० वर्ष लगे थे और इसपर भी उन्होंने यह दावा नहीं किया कि उन्हें आत्म- साक्षात्कार हो गया है ।

 

*

 

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        तुम्हारी यह कल्पना (कि तुम भगवान्से तब तक प्रेम नही कर सकते जब तक तुम्हें किसी प्रकारकी अनुभूति न हों जाय) अनेक साधकोंके अनुभवके प्रतिकूल है । मैं समझता हूँ रामकृष्णने किसी स्थान पर कहा है कि साधनाकालका प्रेम, उल्लास और उत्साह सिद्धिके प्रेम, उल्लास और उत्साहसे कही अधिक तीव्र होता है । मैं इससे सहमत नही हूँ, पर यह वस्तु सूचित करती है कि कमसे कम ऐसा तीव्र प्रेम उप- लब्धिसे पहले संभव है ।

 

*

 

        मेरा अभिप्राय यह है कि ऐसे सैकड़ों भक्त है जिनमें बिना किसी ठोस अनुभवके, केवल मानसिक धारणा अथवा भगवान्के विषयमें भावनात्मक विश्वासका सहारा रखते हुए प्रेम और जिज्ञासाका भाव होता है । सारी बात यह है कि भगवान्के प्रति प्रेम होनेसे पहले व्यक्तिको कोई निर्णयात्मक या ठोस अनुभव होना ही चाहिये यह कहना मिथ्या छै । यह आध्यात्मिक अनुभवके तथ्योंके एवं सर्वथा सामान्य तथ्योंके भी विपरीत हैं ।

 

 *

 

     सामान्य भक्त वीर साधक नही होता । वीर साधक अपेक्षाकृत जल्दी अनुभव प्राप्त करते हैं किन्तु साधारण भक्तको प्रायः प्रेम या उत्कण्ठासे ही सन्तोष मानना पड़ता है -- और वह करता भी यही है ।

 

*

 

           तुम्हारे अनुभवोंके बारमें मेरे कथनका आशय केवल यही था कि तुम योगसे जो चाहते हों उसके संबंधमें तुमने अपनी निजी धारणाएं बना ली हैं । तुम्हें जो अनु- भव होना शुरू हुआ उसे तुम सदा उसी पैमानेसे नापते रहे हों । पर क्योंकि वह आशानुरूप नही था और न ही उस पैमानेपर पूरा उतरता था अतः पलभर बाद ही तुम अपने आपसे कहने लगे, ' 'यह कुछ नही, यह कुछ नही । '' इस असंतोषने तुम्हें परदादार ऐसी प्रतिक्रिया या जुगुप्साकी ओर उघाड़ डाला जिसने हर तरहकी प्रगतिमें पग-पग- पर रुकावट डाली । अनुभवी योगी जानता हैं कि छोटे प्रारंभ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं ओर उन्हें प्रोत्साहन देकर बड़े धीरजसे बढ़ने देना चाहिये । उदाहरणके लिये, वह जानता हे कि जो उदासीन अचंचलता प्राणिक उत्सुकतावाले साधकके लिये इतनी असंतोषकारक होती है वह शांतिकी प्राप्तिकी पहली सीढ़ी है जो शांति मन-बुद्धिकी समझसे सर्वथा परे है । वह जानता है कि आंतर हर्षकी लघु धारा या पुलक एवं गद्गद- भाव आनन्दसागरकी पहली बूँदका टपकना है, प्रकाशों या रंगोंकी क्रीड़ा आंतर दृष्टि

 

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एवं अनुभूतिके द्वारोंकी कुंजी है, शरीरको एकाग्र नीरवतामें निस्तब्ध कर देनेवाला अवतरण किसी वस्तुका प्रथम स्पर्श है जिसके अंतमें भगवान्की उपस्थिति विराजमान है । वह अधीर नही होता, वरंच सतर्क रहता तै कि कही वह उस आरंभ हुए विकासको भंग न कर दे । निःसंदेह, कुछ साधकोंको प्रारंभमें प्रबल एवं निर्णायक अनुभव प्राप्त होते हैं, किंतु उनके बाद उन्हें दीर्घ पुरुषार्थ करना पड़ता हे जिसमें कितनी ही सूनी घड़ियां तथा संघर्षकी घड़ियां आती हैं ।

 

*

 

          निश्चय ही इसमें निराशाके लिये कोई स्थान नही । प्रारंभमें आनन्द बूँद- बूँद करके या विच्छिन्न धाराके रूपमे आता है । तुम्हें प्रसन्नता और विश्वासके साथ अन्तिम प्रपाततक पहुँचना होगा ।

 

*

 

          यदि तुम सचमुच ही अपनी सम्पूर्ण चेतनामें अपनी सत्ताको भगवान्के चरणोंमें ' 'उसकी' ' इच्छानुसार ढालनेके लिये समर्पित करनेका निश्चय कर लो, तो तुम्हारी व्यक्तिगत कठिनाई अधिकांशमें समाप्त हों जाएंगी-मेरा आशय उस कठिनाईसे है जी अब भी बाकी है, और वहां केवल सामान्य चेतनाके यौगिक चेतनामें रूपांतरित होनेकी कुछ अधिक साधारण कठिनाइयां ही रह जाएंगी जो सब साधनाओंमें सर्वसामान्य हे । तुम्हारी मानसिक कठिनाई लगातार इसलिये बनी रहीं कि तुमने अपने पूर्वावधारित मानसिक विचारोंके अनुसार साधनाको मोडना, अनुभूतिको ग्रहण करना एवं भगवान् को प्रत्युत्तर देना चाहा और भगवान्को ' 'उसके' ' अपने सत्य और यथार्थताके अनुसार तथा तुम्हारे मन और प्राणकी नहीं परंतु तुम्हारी अन्तरात्मा और आत्माकी आव- श्यकताके अनुसार कार्य करने और व्यक्त होनेके लिये स्वतंत्रता नहीं दी । यह तो मानों ऐसा हुआ जैसे कि यह प्राण भगवान्के सामने रंगीन शीशा रखकर कहें '' अब अपनेको इसमे डाल दो, मैं तुम्हें इसमें बन्द कर दूँगा और इस शीशेसे देखूँगा' ', अथवा इसीप्रकार मानसिक दृष्टिबिन्दुसे, तुम एक परखनली लेकर कहो, ' 'इसमें घुस जाओ, मैं तुम्हारी परीक्षा करके देखूंगा कि तुम क्या हो' ' । परंतु भगवान् ऐसी प्रक्रियाओंसे कतराता है और उसकी यह आपत्ति बुद्धिको बिलकुल समझमें न आए ऐसी बात नही ।

 

          जो भी हों, मुझे खुशी है कि अनुभव होने फिर शुरू हो गये -- यह तुम्हारे और अन्तिम दिनोंमें किये गये मेरे प्रयत्नके परिणाम स्वरूप हुआ हैं और व्यावहारिक रूपसे इस बातको फिर याद दिलाता है कि योग और अनुभवोंके प्रवेशका द्वार तुममें अभी विद्यमान है और समुचित स्पर्शसे वह खुल भी सकता है । तुमने उस दिन मुझपर नाम जपके साथ प्राणमय करनेके अपने अनुभवके विषयमें भूल करनेका अभियोग लगाया था और मुझे एक अति तुच्छ घटनाको लेकर एक बड़ा अनुमान बांधनेके लिये

 

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दोषी ठहराया था - प्रसंगवश, यह एक ऐसी बात है वो वैज्ञानिक लोग प्रतिदिन करते हैं और उसके विषयमें तुम्हारी तर्कबुद्धिको जरा भी आपत्ति नहीं होती । मेरा विश्वास है कि तुम्हारे पहले अनुभवको, शरीरमें इस प्रवाह ओर शांतिके अवतरणको, मैनई जो तुम्हारे अन्दर स्थित योगीके लक्षणके रूपमें मान लिया था उसके सम्बन्धमें भी तुम्हारा यही ख्याल था । किन्तु ऐसे विचार आध्यात्मिक प्रदेश और उसके व्यापारों- के विषयमें अनभिज्ञतासे उत्पन्न होते हैं और केवल यह बताते है कि तुमने बाह्य भौतिक तर्कसे आध्यात्मिक सत्य और आन्तरिक अनुभवके विषयमें सर्वोच्च निर्णायककी भूमि- का अदा करनेकी जो आशा की थी उसे पूरा करनेमें वह असमर्थ दु - यह असमर्थता बिलकुल स्वाभाविक है क्योंकि वह इन वस्तुओंका क-ख भी नही जानता और मेरी समझमें नही आता कि वह ऐसी किसी वस्तुका निर्णायक कैसे हो सकता है जिसके विषयमें वह कुछ भी नहीं जानता । मैं जानता हूँ कि ' 'वैज्ञानिक' ' अपने क्षेत्रसे बाहरके अतिभौतिक व्यापारोंके विषयमें लगातार यहीं कर रहे हैं - जिन लोगोंको कभी आध्यात्मिक या गुह्य अनुभव नही हुआ वे गुह्य व्यापार ओर योगके विषयमें नियम निर्धारित कर रहे हे, परन्तु उनके ऐसा करनेके कारण यह कार्य अधिक तर्कसम्मत और क्षम्य नहीं हो जाता । प्राणायाम या जपके सम्बन्धमें थोड़ा बहुत जानेवाला कोई भी योगी यह कह सकता है कि प्राणायाममें नाम जप कोई सामान्य या तुच्छ व्यापार नहीं है बल्कि यह योगके इन अभ्यासोंमें बहुत महत्व रखता है ओर, यदि यह स्वभावत: आये तो इस बातका प्रतीक होता है कि आन्तरिक सत्ताके किसी अँगने पूर्वजन्ममें इस प्रकारकी साधना की थी । जहांतक धाराका प्रश्न है वह वैज्ञानिकके प्रकाशकी ' 'तरंग' ' के समान शरीरके, मन, प्राण, और भौतिक भागको अधिकृत करनेकी तैयारीके लिये झरनेके रूपमें नीचे बहती हुई उस उच्चतर चेतनाके प्रथम स्पर्शक सुपरिचित चिह्न हे । इसी प्रकार तुम्हारे पहलेके अनुभवमें शरीरकी निश्चेष्टता और अकड़ाहट निस्तब्धता और नीरवतासे युक्त अपने स्वरूप या स्वभावके साथ उच्चतर चेतनाके उसी अवतरण- का लक्षण था । यह निष्कर्ष पूरी तरह युक्तियुक्त है कि जो व्यक्ति साधनाके प्रारंभमें इन अनुभवोंको प्रान्त करता है उसमें योगसाधनाकी क्षमता है और चाहे उसकी सामान्य प्रकृतिसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाएं उद्घाटनमें बिलमब करवाये तो भी वह उद्- घाटित हों सकता है । ये बातें योगविज्ञानकी अंग है और उतनी ही परिचित हैं जितने कि वैज्ञानिक अन्वेषणके लिये भौतिक विज्ञानके निर्णायक परीक्षण ।

 

          तुम्हें जो मूर्च्छाका आभास हुआ उसका यही कारण है कि तुम सो नहीं रहे थे जैसे कि तुमने कल्पना की थी, किन्तु निद्राकी उस स्थितिमें थे जिसे साधारणतया ' 'स्वप्त- समाधि' ' कहते हैं । यह मूर्च्छा जैसा अनुभव केवल अधिक गहराईमें, अधिक गहन स्वप्त-समाधिमें था सुषुप्तिमें जानेकी प्रवृत्ति थी - इनमेंसे पिछली अवस्था वह है जो साधारणतया अंग्रेजीके  शब्दसे अभिप्रेत है, परंतु इसका प्रयोग स्वप्त- समाधिके लिये भी किया जा सकता है । बाह्य मनको बाह्य चेतनाकी गभीरतर हानि मूर्च्छा जैसी प्रतीत होती है; यद्यपि इसमें वस्तुत: ऐसा कुछ नहीं होता - इसीलिये यह प्रभाव पड़ता है । यहां बहुतसे साधकोंको समय समयपर या कभी-कभी लम्बे समयके

 

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लिये यह गहरी समाधि होती है जिसका प्रारंभ निद्राके रूपमें होता है - परिणामत: जाग्रत अवस्थाकी तरह निद्रावस्थामें भी उनकी साधना जारी रहती हैं । यह प्राण या मनके स्तरपर होनेवाले उन स्वप्लानुभावोसे भिन्न है जो स्वयं सामान्य स्वप्न नही होते परंतु मन, प्राण, चैत्य या सूक्ष्म भौतिक लोकके यथार्थ अनुभव होते हैं ।. तुम्हें कुछ ऐसे स्वप्त आये जो प्राणस्तरके स्वप्तानुभव थे, वे जिनमें तुम श्रीमाँसे मिले और हाल ही मे तुम्हारा ऐसा सम्बन्ध मानसिक स्तरपर भी हुआ । इस विषयके विज्ञ इसका यह अर्थ करेंगे कि आन्तरचेतना एवं मनमें और इसीप्रकार प्राणमें भी तैयारी चल रही है, जो एक बड़ी उन्नतिकी सूचक हे ।

 

         तुम पूछोगे कि निद्रा या अंतर्मुख ध्यानमें ही ऐसी बातें क्यों होती हैं, जाग्रत अवस्था- मे क्यों नही । इसके दो प्रकारक कारण है । पहला यह कि साधारण तीरपर योगमें अन्तर्मुख अवस्थामें ही ये बातें गुरु होती हैं जाग्रत अवस्थामें नही -- यदि या जब जाग्रत मन तैयार हो जाता है केवल तभी ये उतने हीं सहजरूपमें जाग्रत अवस्थामें भी आती है । और फिर तुम्हारे अन्दर जाग्रत मन बाह्य चेतनाके विचार और व्यापारों- पर इसके लिये बहुत सक्रिय होकर दबाव डाल रहा है कि वे आंतरिक मनको जाग्रत चेतना- मे अपनेको प्रक्षिप्त करनेका मौका दे । परन्तु ऐसा आंतरिक चेतना द्वारा और प्रधान तया आन्तरमन द्वारा ही होता हे; इसलिये, आन्तरसे बाह्यके बीचका मार्ग साफ न होनेपर वे सर्वप्रथम आन्तरस्थितिमें ही प्रकट होंगे । यदि जाग्रत मन आन्तरचेतनाके अधिकारमें या उसके प्रति समर्पित होता है और स्वेच्छापूर्वक उसका उपकरण बनता है, तो ये उद्घाटन प्रारंभसे ही जाग्रत चेतनाके द्वारा साधित हो सकते हैं । यह भी योगका सुपरिचित नियम है ।

 

        इसके साथ-साथ मैं यह भी कहूँगा कि जब तुम जवाब न मिलनेपर फरियाद करते हो तो तुम संभवत: भगवान्के किसी ऐसे आविर्भावकी आशा करते हो जो नियमानुसार,-यद्यपि इसमें अपवाद होते हैं,-तभी आता है जब पहलेके अनुभवोंने चेतना- को इस प्रकार तैयार कर दिया होता है कि वह प्रत्युत्तरका अनुभव करे, उसे जान ले और पहचान लें । साधारणतया आध्यात्मिक या दिव्य चेतना - जिसे मैंने उच्चतर चेतना कहा है - पहले आती हे, उपस्थिति या आविर्भाव बादमें । पर उच्चतर चेतनाका यह अवतरण वस्तुत: स्वयं भगवानका स्पर्श या प्रत्यक्ष आगमन होता है, यद्यपि पहले पहल निम्र प्रकृति इसे पहचान नही पाती ।

 

*

 

       मैं यह नहीं कहता कि ये अनुभव सदा निरर्थक ही होते हैं । किंतु ये इतने मिश्रित एवं अव्यवस्थित होते हैं कि यदि कोई इनके पीछे बिना किसी विवेक के पड़ जाय तो ये उसे भटका देते हैं और कभी-कभी तो दुःखद रूपसे पथभ्रष्ट कर देते हैं; या फिर उसे एक विमूढ़ स्थितिमें डाल देते हैं ।.

 

        पर इसका यह अर्थ नहीं कि ऐसे सब अनुभव व्यर्थ एवं निर्मूल्य होते हैं, इनमें

 

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सच्चे या झूठे दोनों प्रकारके अनुभव होते हैं; कुछ तो उपलब्धिके मार्गमें वास्तवमें सहायक सिद्ध होते हैं । वे कभी ठीक दिशामें निशान बनते हैं, कभी उपलब्धिके मार्गमें अवस्थाएं और कभी उसे घटित करनेवाले तत्व एवं सामग्री । व्यक्ति ठीक हीं स्वसा भाविक रूपसे इनकी खोज करता है, आशा करता है तथा इनके लिये यत्नशील होता है । अथवा एक निश्चित आशामें कि देर-सवेर ये प्रकट होंगे, वह इनके लिये अपनेको खत्ता नै । तुम्हारे अपने मुख्य अनुभव चाहे थोड़े रहे हैं और यदा-कदा हुए हैं किंतु मैं यह नही कह सकता कि वे सारयुक्त नही थे अथवा व्यर्थ थे । मैं तो कहूँगा कि सार- युक्त थोडेसे अनुभव प्राप्त करना बहुतसे बेकार अनुभवोंसे अच्छा है । जो कुछ मैंने लिखा था उसका अर्थ यही था कि एकमात्र अनुभवोंकी राशिसे प्रभावित होना अथवा सोच बैठना कि ऐसे अनुभवोंसे ही कोई बड़ा साधक बन जाता है ठीक नही । यह भी नही समझना चाहिये कि इस राशिकोन पाना निश्चय ही एक नियन्ता है, एक शोचनीय हानि है अथवा वाछनीय वस्तुका अभाव है ।

 

        योगमें दो प्रकारकी चीजों होती हैं, उपलब्धियां एवं अनुभव । उपलब्धियोंका अर्थ है चेतनामें भगवान्के उच्चतर दिव्य प्रकृतिके, विश्वचेतना एवं उसके व्यापारके, ब्यक्तिकी अपनी आत्मा और उसकी सत्य प्रकृतिके, तथा वस्तुओंकी आंतरिक प्रवृत्तिके आधारभूत सत्योंकी स्वीकृति एवं स्थापना । इन वस्तुओंकी शक्ति ब्यक्तिमें धीरे- धीरे बढ्ती रहती हे । यहांतक कि ये उसके आंतरिक जीवन एवं अस्तित्व का अंग बन जाती हैं, उदाहरणके लिये ये अनुभव व्यक्तिको होने लगते हैं -- दिव्य उपस्थिति- की अनुभूति, उच्चतर शांति, शक्ति एवं आनन्दका चेतनामें अवतरण और स्थित होना, उनका वहां व्यापार, दिव्य अथवा आध्यात्मिक प्रेमकी प्राप्ति, अपनी चैत्य सत्ताकी अनुभूति, अपनी सत्य मनोमय, प्राणमय एवं अन्नमय सत्ताका ज्ञान, अधिमन अथवा अतिमानसिक चेतनाकी उपलब्धि और इन सबका हमारी वर्तमान निफ्ट प्रकृतिसे संबंध तथा इसे बदलनेके लिये इसपर इनकी क्रियाकी स्पष्ट अनुभूति । यह सूची प्रत्यक्ष हीं बेहद लम्बी हों सकती है । जब ये अनुभव केवल एक चमक, एक पकड़ अथवा विरल आगमनके रूपमे ही हमारी चेतनामें प्रकट होते हैं, तब भी बहुधा इनको अनुभव ही कहा जाता है । किंतु इनको पूर्ण उपलब्धि तभी कहा जायगा जब ये अत्यधिक सुनिश्चित, बहुधा, अथवा निरंतर घटित होनेवाले अथवा नियमित बन जायं ।

 

         इसके अनन्तर ऐसे अनुभव भी होते हैं जो आध्यात्मिक अथवा दिव्य उपलब्धियोंमें सहायता करते हैं, उनकी ओर व्यक्तिको ले चलते हैं, साधनामें नए द्वार खोलते तथा प्रगति प्रदान करते हैं, अथवा मार्गमें सहायक सिद्ध होते हैं । इन अनुभवोंके अंतर्गत ये सब आते हैं -- प्रतीकात्मक अनुभव, अलौकिक दर्शन, भगवान्से अथवा उच्चतर सत्यके व्यापारसे किसी भी प्रकारका संपर्क, कुण्डलिनीके जाग्रत् होने जैसी स्थितियां, चक्रोंके खुलने एवं संदेशों, संबंधियों (intuitions) और आंतरिक शक्तियोंके प्रकट होने जैसी बातें । व्यक्तिको इस बातका बहुत ध्यान रखना चाहिये कि ये अनु- भव वास्तविक एवं सच्चे हों । और यह बात उसकी अपनी सच्चाई पर निर्भर करती है, क्योंकि यदि वह स्वयं सद्हृदय नहीं है, अपने अहंसे -- बड़ा योगी अथवा अतिमानव

 

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बननेसे ही उसकी साधनाका संबंध है, भगवान्से मिलनेकी अथवा भागवत चेतनाको, जो उसे भगवान्के संपर्कमें ला सकती है, प्राप्त करनेकी उसकी सदाकांक्षा नहीं है तो उसकी चेतनामें भ्रामक अथवा मिश्रित अनुभवोंका एक प्रवाह भर उठता है जिसके कारण व्यक्ति बीचके क्षेत्र (intermediate Zone) की भूल-भुलैया अथवा अपनी ही नाना प्रकारकी कल्पनाओंमें फंसा रहता है । सारे विषयका सार यही है ।

 

           तब 'क्ष' क्यों कहता है कि व्यक्तिको अनुभवोंके पीछे न पड़कर केवल भगवान्से ही प्रेम करना तथा उसे ही खोजना चाहिये  इसका सीधा अर्थ यह है कि तुम्हें अनु- भवोंको अपना प्रमुख लक्ष्य न बनाकर उस भगवानको ही अपना चरम साध्य बनाना चाहिये । यदि तुम ऐसा करोगे तो शुद्ध सहायक अनुभवोंको प्राप्त करने तथा अशुद्ध अनुभवोंसे बचनेकी अधिक संभावना रहेगी । यदि व्यक्ति प्रधानतया अनुभवोंकी खोजमें रहेगा तो उसका योग मनोमय, प्राणमय, एव जड़ जगतके निम्रतर विषयों अथवा गौण आध्यात्मिक वस्तुओंका योग हीं बन जा सकता है तथा यह वृत्ति उन मिश्रित तथा पूर्ण-असत्यों अथवा अर्द्ध-असत्योंको भी पैदा कर सकती है, जो आत्मा और भग- वान्के बीचकी बाधा बन जायंगे । यह साधनाका बड़ा पक्का नियम है । परंतु इन सब नियमों तथा वक्तव्योंको मर्यादित रूपमें तथा इनकी. उपयुक्त सीमाओंमें ही ग्रहण करना चाहिये । इसका यह अर्थ कभी नहीं होता कि व्यक्ति उपयोगी अनुभवोंका स्वा- गत ही न करे अथवा उनका उचित मूल्य न समझे । जब अनुभवोंका पुष्ट क्रम चल पड़ता है तब उसका. आश्रय लेना पूर्णतया उचित है, हां, केंद्रीय लक्ष्य दृष्टिके सम्मुख सदा रहना चाहिये । अंतर्दृष्टि द्वारा अथवा स्वप्नमें अनुभूत हुए सभी सहायक एवं पुष्टिकर संपर्कोंका, जिनके विषयमें तुमने कहा है, स्वागत करना चाहिये, उन्हें स्वी- कार करना चाहिये । ठीक प्रकारके अनुभव उपलब्धिमें बड़े सहायक होते हैं; उन्हें सब प्रकारसे ग्रहण करना ही उचित है ।

 

        अनुभवके विषयमें अधिक व्यग्र मत बनो, क्योंकि भौतिक मन और सूक्ष्म भूमि- काओंके बीचकी बाधाको छिन्न-भिन्न करनेके बाद तुम हमेशा ही अनुभव प्राप्त कर सकते हों । तुम्हें सबसे अधिक इस बातकी अभीप्सा करनी चाहिये कि तुम्हारे अन्दर उन्नत प्रकारकी ग्रहणशील चेतना, मानसिक विवेक, अन्दर और बाहर होनेवाली घटनाओंके प्रति निर्लेप साक्षि-दृष्टि, प्राणकी पवित्रता, अचंचल स्थिरता, सहनशील धैर्य, घमंड और बडप्पनका अभाव -- और सबसे अधिक, चैत्य सत्ताका विकास -- समर्पण, आत्मदान, आन्तरात्मिक नम्रता और भक्ति उत्पन्न हों । इन वस्तुओंसे निर्मित और इस साचेमें ढली हुई चेतना ही बिना बिना लड़खड़ाते या बिना मूलमें भटके अतिभौतिक भूमिकाओंसे आनेवाले प्रकाशकी धारा, शक्ति और अनुभवोंको सहन कर सकती है । इन वस्तुओंमें समग पूर्णता तबतक नही प्राप्त हों सकती जबतक उच्चतर मनसे लेकर अवचेतन भौतिक स्तरतक सारी प्रकृति मनसे अधिक महान् आलोकमय एकताको नही प्राप्त कर लेती, परंतु एक अच्छा खासा आधार और इन वस्तुओंमें सदा आत्म-निरीक्षण करनेवाली, जागरूक रहने और विकसित होनेवाली चेतनाका अस्तित्व अनिवार्य है -- क्योंकि पूर्ण शोधन ही पूर्ण सिद्धिका आधार है ।

 

*

 

३८३


       जहांतक साधनाका प्रश्न है, उसके लिये आन्तरमनकी एक ऐसी नीरवताको प्राप्त करना आवश्यक है जो ध्यानको सफल बनाती है या हदयकी ऐसी निश्चलताको प्राप्त करना आवश्यक है जो उद्घाटन उत्पन्न करती है । नियमित एकाग्रता, सतत अभीप्सा और हृदय और मनको अशांत या उत्तेजित करनेवाली वस्तुओंको शुद्ध करनेके संकल्पके द्वारा ही यह कार्य संपन्न किया जा सकता है । इन दो केंद्रोंमें कोई आधार स्थापित हों जानेपर अनुभव स्वयं हीं आते हैं । निःसंदेह बहुतसे लोग, इन वस्तुओंकी ओर एक प्रकारके मानसिक या प्राणिक रुझानके कारण आधारके अच्छी तरह स्थापित होनेसे पहले हीं इस प्रकारके अन्तर्दर्शन जैसे अनुभवोंको प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु ऐसे अनुभव व्यक्तिको स्वयं रूपांतर या साक्षात्कारकी ओर नहीं प्रेरित करते - केवल मनकी नीरवता और चैत्य उद्घाटनके द्वारा ही बृहत्तर वस्तुए उपलब्ध हों सकती है ।

 

*

 

 इन तीन बातोंपर बल देना जरूरी है :-

( 1) मन और समग्र सत्तामें पूर्ण निश्चल-नीरवता और स्थिरता ।

( 2) 'पुनश्च' लिखकर वर्णित शोधनकी क्यिाकी जारी रखना जिससे चैत्य सत्ता (अन्तरात्मा) समग्र प्रकृतिपर शासन कर सके ।

( 3) सब अवस्थाओं और सब अनुभवों द्वारा श्रीमाँके प्रति आराधना और भक्तिकी वृत्तिको बनाये रखना ।

 

ये ही वे अवस्थाएं है जिनमें रहकर व्यक्ति सब अनुभवोंमें निरापदरूपसे आगे बढ़ सकता है और समूचे आधारमें गड़बड़के बिना या अनुभवकी तीव्रतासे उत्तेजित हुए बिना पूर्ण उपलब्धिके समुचित विकासको प्राप्त करता है । तीन अनिवार्य अवस्थाएं है - स्थिरता, चैत्यशुद्धि और भगवान्के प्रति भक्ति तथा आध्यात्मिक विनम्रता स्वयं अनुभव अपने-आपमे सही और सहायक है ।

 

*

 

            मैं नहीं समझता कि तुमने जो उन्नति की है उससे असंतुष्ट होनेका कोई कारण है । बहुतोंको प्रकृतिके तैयार होनेसे पहले ही अनुभव प्राप्त हों जाते हैं जिससे वे उनके द्वारा पूरा लाभ उठा सकें । दूसरोंके लिये शोधन और प्रकृतिके उपादानोंकी या करणोंकी तैयारीका कम या अधिक लम्बा काल पहले आता है, जब कि अनुभव तबतक रोके रखे जाते हैं जब तक कि यह तैयारीकी प्रक्रिया अधिकांशत: या पूर्णत: समाप्त नहीं हो जाती । पिछली विधि जो तुम्हारे लिये अपनायी गई दिखती है दोनोंमेंसे अधिक सुरक्षित तथा अधिक दृढ है । इस अंशमें, हम समझते हैं, तुमने स्पष्ट रूपसे पर्याप्त उन्नति की है, उदाहरणार्थ, उग्रता, असहिष्णुता तथा उत्तेजना पर, जो तुम्हारी प्रकृति-

 

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की ज्वालामुखीय शक्तिके लिये स्वभाविक थी, नियंत्रण करनेमें तथा अतीव चंचल मन एवं प्रकृतिके कुपथगामी एवं भ्रांतिशील आवेगोंको लगाम लगानेके लिये सद्- हृदयताका प्रयोग करनेमें, और समग्र रूपसे सारी सत्ताके भीतर महत्तर शांति और समस्वरता स्थापित करनेमें तुमने काफी प्रगति की है । निःसंदेह, यह प्रक्यिा पूरी करनी आवश्यक है, पर एक अत्यंत आधारभूत कार्य संपन्न हों गया दिखता है । इस विषयको निषेधात्मक पार्श्वकी अपेक्षा भावात्मक पार्श्वसे देखना अधिक आवश्यक? है । जिन चीजोंकी स्थापना करनी है वे ये हैं - ब्रह्मचर्य शम: सत्यं प्रशांतिरात्म- संयम: - ब्रह्मचर्य, पूर्ण लैंगिक पवित्रता; शम, सत्तामें शांति और समस्वरता, अर्थात् इसकी शक्तियां बनी रहें पर संयमित, समस्वरित एवं अनुशासित हों; सत्यम्, संपूर्ण प्रकृतिमें सत्य और सद्हृदयता; प्रशांति:, शांति और स्थिरताकी व्यापक अवस्था; आत्मसंयम:, प्रकृतिकी चेष्टाओमेंसे जिसे भी संयत करनेकी आवश्यकता है उसे संयत करनेका सामर्थ्य और अभ्यास । जब ये पर्याप्त प्रतिष्ठित हो जायं तब व्यक्तिके अन्दर वह आधारशिला स्थापित हो जाती है जिसपर वह योग-चेतना विकसित कर सकता है और योग-चेतनाके विकासके साथ उपलब्धि और अनुभूतिके प्रति उद्घाटन सरलता- से संपन्न हों जाता है ।

 

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          तुम्हें जो अनुभव हुए हैं वे भावी संभावनाओंके सूचक हैं । पहले डेढ़ वर्षमें अधिक अनुभवोंको प्राप्त करनेके लिये सांसारिक मनुष्यकी वृत्तिको त्याग कर साधककी वृत्ति- को पूरी तरह अपनाना जरूरी है । प्रारंभसे ही तीव्र प्रगति केवल तभी हो सकती है ।

 

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       ये सब बातें (भोजन, चाय इत्यादिके सत्यधिक सेवनका त्याग) बाह्य वस्तुएं हैं जिनका अपना उपयोग हे, पर साधककी पूर्ण वृत्तिसे मेरा आशय यह है कि कामना- वश बाह्य वस्तुओंका अनुसरण करते हुए, केवल उनके अपने लिये ही, हमें उनमें आसक्त नहीं होना चाहिये, परन्तु प्रधानतया आन्तरिक सत्ता और उसकी उत्रतिमें निवास करते हुए और बाह्य वस्तुओं तथा क्यिाओंको केवल आन्तरिक उन्नतिके साधनके रूपमें ग्रहण करते हुए हमें सब समय अपनी अन्तरात्मा पर एकाग्र रहना चाहिये ।

 

*

 

         किंतु किसी भी प्रकारके अनुभवोंके किसी भी ऐश्वर्यसे आच्छादित होनेकी जरूरत ही क्या है? अन्तत:, इनका मूल्य ही क्या है? साधककी विशेषता इसपर निर्भर नहीं करती, एक महान् आध्यात्मिक उपलब्धि, जो प्रत्यक्ष तथा केंद्रीय हों,

 

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प्रायः व्यक्तिको महान् साधक या योगी बना देती है, मध्यवर्त्ती यौगिक अनुभवोंकी सेना भी उसे ऐसा नही बनाती, यह अनेकों दृष्टांतोंसे पुष्कल रूपमें प्रमाणित हो चुका है. इसलिये तुम्हें अपनी दरिद्रताकी उस वैभवसे तुलना करनेकी आवश्यकता नही । उच्चतर चेतना (वास्तविक सत्ता) के अवतरणके प्रति अपनेको खोलना ही एकमात्र प्रयोजनीय वस्तु है और वह, चाहे दीर्घ प्रयत्न तथा अनेक विफलताओंके बाद हीं क्यों प्राप्त हो, उस क्षयकारी सरपट दौडसे अधिक अच्छी है ओ कही भी नहीं पहुँचाती ।

 

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         साधनाके मानसिक स्तरपर आनेके साथ ही अनुभव अनिवार्य रूपसे प्रारंभ हों जाते है,--आवश्यकता इस बातकी है कि अनुभव दोष रहित और सच्चा हों । मनमें जिज्ञासा एवं संकल्प और हृदयमें भगवान्के प्रति भक्तिकी प्रेरणा, ये दोनों योग- साधनाके पहले करण है, और (निम्र प्रकृतिकी हलचलको चुपकरके सुला देनेके साथ- साथ) शांति, विशुद्धि और स्थिरता - ये सब निश्चय हीं वह पहला आधार है जिसे तुम्हें स्थापित करना है, प्रारंभमें अतिभौतिक लोकोंकी झलक लेने और आन्तर- दृष्टि, शब्द और शक्तियोंको प्राप्त करनेकी अपेक्षा इन वस्तुओंको उपलब्ध करना अधिक महत्वपूर्ण है । योगमें पहले विशुद्धि और स्थिरता आवश्यक है । इनके बिना साधकके पास (लोकों, सूक्ष्मदर्शन, शब्द इत्यादि जैसे) अनुभवोंका भंडार हो सकता है, पर जब ये अनुभव अशुद्ध और विक्षुब्ध चेतनामें आते हैं तो प्रायः अव्यवस्था और मिश्रणसे भरपूर होते हैं ।

 

      पहले पहल शांति और स्थिरता लगातार स्थिर नही रहती, वे आती-जाती रहती हैं और उन्हें प्रकृतिमें स्थिर करनेके लिये सामान्य रूपसे बहुत समय लगता है । इसलिये अधीरतासे बचकर, जो कुछ किया जा रहा है उसके सहारे स्थिर गतिसे चलते जाना चाहिये । यदि तुम शांति और स्थिरतासे परेकी किसी वस्तुकी कामना करते हो तो वह वस्तु होनी चाहिये अपनी आन्तरिक सत्ताको पूरी तरहसे खोलना और अपने अन्दर क्रिया करती हुई दिव्य शक्तिके प्रति सचेतन होना । इसके लिये सच्चे हदयसे, खूब तीव्रतासे परन्तु अधीर हुए बिना अभीप्सा करो और तुम्हें यह लक्ष्य प्राप्त होगा ।

 

*

 

          बिलकुल ठीक । जबतक आधार शुद्ध नही हो जाता तबतक न तो उच्चतर (अर्थात् सहजस्फूर्त, ज्ञानदीप्त एवं आध्यात्मिक) सत्य ही प्रकट हों सकता है न ही अधिमानसिक और अतिमानसिक सत्य, तब उनसे जो भी शक्तियां अवतरित होती है दे निम्रकोटिकी चेतनाके साथ मिश्रित हों जाती है तथा सत्यका स्थान अर्धसत्य या कभी-कभी खतरनाक भूलें भी ले लेती हैं ।

 

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कभी-कभी ऐसा होता है कि साधनाकी एक विशेष स्थितिमें, अधिक तीव्र अनुभवोंके प्रारंभमें (या उनके थोड़ा आगेपीछे) भगवानका कोई स्वरूप तीव्रतासे प्रत्यक्ष होता है । यह एक ऐसा मिलन है जो सब जगह दृष्टिगोचर होता है और इससे मिलते- जुलते और भी अनुभव होते हैं । पर यह स्थिति चिरस्थायी नही होती और बादमें वह (सगुण) भगवान्के -- सब रूपोंमें स्थित और अपने सब रूपोंसे परे स्थित भग- वान्के - अधिक विस्तृत अनुभवोंको प्राप्त करता है । इन अनुभवोंमें सारे समय सत्ताका एक ऐसा अंश होना चाहिये जो साक्षी बनाकर निरीक्षण करता रहे और ज्ञान प्राप्त करता रहे - क्योंकि कभी-कभी अज्ञानी साधक अपने अनुभवोंसे बहुत अधिक प्रभावित हों जाते हैं और वहीं रुक जाते हैं अथवा स्वच्छन्द बनाकर पतित हो जाते हैं । तुम्हें उसे एक ऐसा अनुभव ही मानना चाहिये जिसमे होकर तुम आगे बढ़ रहे हों ।

 

*

 

         जो विशेष अनुभव तुम्हें हो रहे हैं वे इस बातका आभास देते हैं कि तुम्हारे अन्दर क्या होना है और क्या विकसित एव तैयार हो रहा है तथा वे चेतनाको तैयार करनेमें सहायता दे रहे हैं । इसलिये यदि वे बदल जाते हैं और उनका स्थान दूसरे अनुभव ले लेते हैं तो इसमे आश्चर्यकी कोई बात नहीं -- साधारण तौरपर ऐसा ही होता है, क्योंकि अनुभवोंके इन रूपोंको ही निरन्तर नही बनाये रखना चाहिये किन्तु इनके द्वारा उपलब्ध तत्वको ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार तुम्हें इस समय जिस वस्तुको सबसे अधिक विकसित करना है वह हैं निश्चल-नीरवता, अचंचलता, शांति, ऐसी शून्यता जिसमें अनुभव आ सके, तथा शीतलता और मुक्तिकी भावना । चेतनामें इस वस्तुको पूरी तरह प्राप्त कर लेनेके बाद उसमें एक अन्य ऐसी भी वस्तु आकर प्रतिष्ठित हो जायगी जो सच्ची चेतनाके लिये अनिवार्य है - साधारणतया साधना इसी तरह आगे बढ्ती है । इसलिये इन अनुभवोंके लिखने और श्रीमाँके सामने रखनेके बाद उनके विशिष्ट आकार-प्रकार नष्ट हों गायें तथा अन्य रूपोंने उनका स्थान लें लिया तो इसमे आश्चर्यकी कोई बात नही । जब साक्षात्कार आधीक स्थिर रूपसे आना शुरु होगा तो फिर आगे ऐसा नही होगा ।

 

*

 

 तुम्हारे व्यक्तिगत उत्साह अथवा आन्तरिक अनुभवके ठोस होनेके विषयमें मुझे कोई संदेह नही है, परंतु अनुभवोंके तीव्र होनेपर भी उनकी सचाई और प्रकृतिमें बहुत अधिक मिश्रण हों सकता हे । तुम्हारी अनुभूतिमें तुम्हारी अपनी व्यक्तिनिष्ठा, कभी-कभी तुम्हारे अहंके धक्के, बीचमें बहुत अधिक बाधा डालते हैं । ये तुम्हारी अनुभूतिको रूप प्रदान करते हैं एवं तुमपर अंकित होनेवाले संस्कारको भी उत्पन्न करते हैं । चैत्यके विशुद्धरूपसे प्रत्युत्तर देनेपर ही यह सम्भव होता है कि उसके द्वारा दिया

 

३८७


गया आकार ठीक हो और मन तथा प्राणकी क्रियाएं अपने सच्चे स्वरूपमें प्रकट हों । अन्यथा मनु प्राण और अहं अनुभवको अपने रंगमें रंग देते हैं, उसे अपने ढंगसे मोड देते हैं और बहुधा विकृत बना देते हैं । अनुभवकी तीव्रता उसकी पूरी सचाई और शुद्धताका आश्वासन नहीं देती, केवल चेतनाकी विशुद्धि ही उसे पूरी सचाई और शुद्धता प्रदान कर सकती है ।

 

        श्रीमां यहां शाश्वतरूपसे विद्यमान हैं; परन्तु यदि तुम अपने हीं ढंगसे अर्थात् अपने बिचार, वस्तुओंके सम्बन्धमें अपनी धारणा और अपने संकल्प और मांगके अनु- सार ही कार्य करनेका निश्चय करो तो यह पूरी सम्भावना हे कि श्रीमाँकी उपस्थिति पर्देके पीछे ढक जाये, वे स्वयं तुमसे दूर नहीं हटती परन्तु तुम उनसे दूर हटते हो । परंतु तुम्हारा मन और प्राण इस बातको स्वीकार करना नहीं चाहता क्योंकि अपनी क्रियाओं- को उचित ठहरानेमें हीं उसका ध्यान लगा रहता है । यदि उनपर अन्तरात्माका पूरा प्रभुत्व स्थापित हों गया होता तो ऐसा न होता; वह आवरणको देख लेता, और तुरंत बोल उठता अन्दर कही कोई भूल हुई है, कोई धन्य छा गई है,. और तब वह निरीक्षण करके उसके कारणको ढूंढ लेता ।

 

       यह पूर्णतया सत्य है कि जबतक आन्तरिक और बाह्य दोनों सत्ताएं नि:शेषरूपसे आत्मसमर्पण नहीं कर देतीं तबतक सदा ही आवरण, अन्धकारके काल और कठिनाइयां आती रहेंगी । किन्तु यदि आन्तरिक सत्ता पूर्णतया आत्मसमर्पण कर दे तो बाह्य सत्ता भी स्वभावत: ही उसका अनुसरण करती है; यदि ऐसा न हों तो इसका मतलब यह है कि आन्तरिक सत्ताने अपने आपको पूरी तरहसे समर्पित नहीं किया; मन अपने विचारों और धारणाओंको दृढ़तासे पकड़े हुए है और अपने किसी भागमें कुछ बातें छिपाये हुए है, प्राण अपनी मांग, आवेश, गतियों, अहतापूर्ण विचारों और निर्माणोंको बलपूर्वक थामे हुए है और अपने किसी अंगमें किन्हीं चीजोंको बचाये हुए है, शरीर अनेक तरहकी अपनी पुरानी आदतोंसे चिपटा हुआ है और कुछ वस्तुओंको अपने किसी अंगमें रखे हुए है; और ये तीनों सचेतन, अर्धचेतन या अवचेतन रूपसे दावा करते हैं कि इन सबको कायम रखा जाय, सम्मान दिया जाय, सन्तुष्ट रखा जाय और कार्य एवं सर्जनमें या योगमें एक महत्वपूर्ण तत्वके रूपमें ग्रहण किया जाय ।

 

*

 

         मन, प्राण और सूक्ष्म भौतिक भूमिकाके अनुभव अथवा विचार और प्राणकी रचनाएं प्रायः अपनेको इस प्रकार प्रस्तुत करती हैं मानों वे बाह्य घटनाओंके ठोस रूप हों । इसी प्रकार सच्ची अनुभूतियां भी मन और प्राणमें होनेवाली नवीन वस्तुओं- की उत्पत्ति और वृद्धिका कारण बन जाती हैं । हमारे योगमें सबसे प्रथम आवश्यकता है विवेक और चैत्य कौशल की जो सत्य और मिथ्यामें भेद करते हैं, प्रत्येक्को यथोचित स्थान देते हैं या उनकी महत्ता या तुच्छता प्रदान करते हैं और प्राण सत्ताकी उत्तेजनामें बह नहीं जाते ।

 

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II

 

         केवल उच्च चेतनाकी अनुभूतियां स्वभावको नही बदलतीं । या तो उच्चतर चेतनाको सक्रियरूपसे नीचे उतरकर सारी सत्ताको बदलना होगा, या उसे आन्तरिक सत्तामें नीचे .आन्तरिक-भौतिक भूमिका तक अपनेको प्रतिष्ठित करना होगा जिससे आन्त्तरिक सत्ता त्रापनेको बाह्य सत्तासे पृथक् अनुभव करे और उनपर स्वतंत्रतापूर्वक कार्य कर सकें; अथवा अन्तरात्माको सामने आकर प्रकृतिको बदलना होगा; या आन्तरिक संकल्पको जागकर प्रकृतिकों बदलनेके लिये बाधित करना होगा । ये चार तरीके हैं जिनके द्वारा प्रकृतिका परिवर्तन साधित किया जा सकता है ।

 

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         इस योगकी कठिनाई सत्यके अनुभव प्राप्त करना या उसका व्यक्तिगत साक्षात्कार करना नही है, किन्तु सत्यको समष्टिगत बनाना अर्थात् बाह्य चेतनाको उसकी स्थूल भूमिका तक आन्तरिक सत्यकी अभिव्यक्ति बनाना है । जब तक ऐसा नही होता तब तक निम्रतर प्रकृतिके आवरण सदा ही बाधा उपस्थित कर सकते हैं ।

 

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      विश्वचेतना, अधिमानसज्ञान और अनुभव एक आन्तरिक. ज्ञान है -- परन्तु इसका प्रभाव व्यक्तिगत होता है । जब तक व्यक्तिके पास वह ज्ञान होता है तब तक तो वह अन्तरात्मामें मुक्त होता है परन्तु बाह्य प्रकृतिको रूपांतरित करनेके लिये इसके अलावा कुछ और बातकी भी आवश्यकता होती है ।

 

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      आत्मगतका अर्थ मिथ्या नही है । इसका अर्थ यह है कि सत्यकी अनुभूति अन्दरमें तो हुई पर उसने बाह्य सत्ताके साथ अभी सक्रिय संपर्क स्थापित नही किया । वह वैश्व चेतना और अधिमानस ज्ञानकी एक आन्तर-अनुभूति हे ।

 

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        मैं एकबार तुम्हें कह चुका हूं कि तुम्हारी अनुभूतियां आत्मनिष्ठ हैं और उस क्षेत्रमें जहांतक उनकी पहुँच है, वे सारस ठीक हैं । किन्तु अतिमानसमें प्रवेश करनेके लिये आत्मगत अनुभवका होना यथेष्ट नही है । जीवनमें पहले सहज ज्ञान और अधिमानसका पर्याप्त मात्रामें प्रयोग करना चाहिये ।

 

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       सच्चासे तुम्हारा क्या आशय है? तुम्हें जो आन्तरिक अनुभव हुआ उसका सम्बन्ध उच्चतर भूमिकासे है । जब तुम नीचे उतरते हों तो अपने साथ उसे भी इस स्थूल जगत्में ले आते हों और इस संपूर्ण जगत्को उस चेतनाके माध्यमसे ही देखते हों -- यह बात वैसी ही है जैसे कि जब कोई व्यक्ति सभी जगह भगवान्के अन्तर्दर्शन करता है तो वह नीचे, स्थूल जगत् तक सबको भगवान्के रूपमे हीं देखता है ।

 

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       साधककी अपनी आन्तरिक चेतनामें ऐसा ही होता है । निःसंदेह इसका अर्थ यह नहीं कि सारा संसार वैसा हों जाता है अर्थात् प्रत्येक व्यक्तिकी चेतना भी ।. .यदि तुम्हारी अनुभूति वस्तुगत होती तो इसका अर्थ यह होता कि जगत् बदल गया है, प्रत्येक व्यक्ति सचेतन हों गया है, कही दुख-कष्ट नही रहा । परन्तु यह कहनेकी जरूरत नही कि स्थूल जगत् उस ढंगसे बाह्य रूपसे नही बदला, केवल तुम अपनी चेतनामें आन्तरिकरूपसे भगवान्को सर्वत्र देखने लगे हों, सारी अव्यवस्था दूर हो गई है, दुःख- कष्ट कमसेकम तत्कालके लिये समाप्त हो गया है - यह एक आत्मगत अनुभव है ।

 

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       यह इस बात पर आधार रखता है कि तुम आत्मगत और वस्तुगतका क्या अर्थ करते हों । ज्ञान और अज्ञानका अपना स्वभाव आत्मगत हे । किन्तु व्यक्तिगत दृष्टि- बिन्दुसे अज्ञानकी शक्ति ब्यक्तिसे बाहर किसी ऐसे रूपमें प्रकट हो सकती है कि स्वयं ज्ञानी होनेपर भी वह चारों ओर घिरे हुए अज्ञानको हटा नहीं सकता । यदि यह बात सत्य है तो व्यक्तिमे अज्ञान एकमात्र आत्मगत वस्तु नही है परन्तु जगत्में भी व्याप्त

 

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         यह भक्तिके विविध भावोंकी अनुभूतियोंकी एक ऐसी शृंखला प्रतीत होती है जो केवल अनुभवके लिये - या भक्तिके बहुविध विकासके लिये आई है । निःसंदेह यह विशुद्ध आन्तरिक अनुभव है जिनका उद्देश्य है चेतनाको शिक्षित करना और वास्तविक अभिव्यक्तिके लिये इनका कोई सुनिश्चित मूल्य नहीं । ये केवल आत्मगत अनुभूति और ज्ञानके लिये ही आते हैं ।

 

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        सुनहली ज्योति साधारणतया अतिमानस-लोकसे आनेवाली एक ज्योति होती

 

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है - सत्य-ज्ञानकी ज्योति होती हैं (कभी-कभी यह अधिमानसिक अथवा संबोधि- जन्य सत्यमें परिवर्तित अतिमानसिक सत्य-ज्ञानकी ज्योति हों सकती है) । नारंगी रग बहुधा गुह्य शक्तिको परिलक्षित करता है । तुम्हारे अन्दर सर्जनकारी रचना करनेकी एक प्रबल ( आंतरिक) शक्ति है, अधिकांशमें, मेरा ख्याल है, मानसिक स्तरमें है पर अंशत: प्राणलोकमे भी है । इस प्रकारकी रचनात्मिका शक्तिका उपयोग बाह्य परिणाम उत्पन्न करनेके लिये भी किया जा सकता है यदि उसके साथ-साथ गुह्य शक्ति- यों तथा उनकी क्यिाओंका गभीर ज्ञान प्राप्त हों, परंतु जब वह शक्ति अकेली होती है तब बहुत अधिक प्रसंगोंमें इसका परिणाम यहीं होता है कि तुम अपना एक निजी जगत् गढ़ डालते हों और उसमें खूब संतोषके साथ तबतक निवास कर सकते हों जबतक तुम स्वयं अपने अन्दर, बाह्य स्थूल जीवनके किसी घनिष्ठ सपर्कमेसे दूर रहते हुए, निवास करते हों, परंतु स्थूल अनुभवके द्वारा इस स्थितिकी परीक्षा नही की जा सकती ।

 

*

 

        प्रत्येक भूमिकामें वस्तुगत पक्षकी तरह ही आत्मनिष्ठ पक्ष भी होता है । केवल भौतिक भूमिका और जीवन ही वस्तुगत पक्ष नही है ।

 

         निर्माणके जिस शक्तिके विषयमें मैंने अभी कहा था, जब वह तुम्हारे अन्दर होतीं है तो मनके अन्दर जो भी सुझाव आते हैं उनकी रूपरेखा बना कर वह उनके आकारको अपने अन्दर स्थिर कर लेता है । किन्तु यह शक्ति दो रास्तोंमें फट सकती हैं, एकमें वह मनको केवल यथार्थ वस्तुकी प्रतिमूर्तिया बनानेके लिये ललचा सकतीं है और दूसरेमें उसे स्वयं यथार्थ वस्तु समझनेकी भूल कर सकती है । यह अत्यन्त सक्यि मनके बहुतेरे खतरोमेंसे एक है ।

 

          तुम अपने मनमें या प्राणके स्तरपर अपने अन्दर कोई सर्जन कर सकते हों -- यह एक तरहका सर्जन अवश्य है पर है केवल एक आन्तरिक सर्जन, यह एकमात्र तुम्हारे मन और तुम्हारी प्राणसत्तापर ही असर डाल सकता है । तुम अपने विचार, विचारोंके आकार और प्रतिमूर्तियो द्वारा अपने अन्दर या अपने लिये एक संपूर्ण जगत्का निर्माण कर सकते हो पर यह बात यही रुक जाती है ।

 

        कुछ लोगोंमें सचेतन रूपसे ऐसी रचनाएं बनानेकी शक्ति होतीं है जो बाहर आकर अन्य लोगोंके मन, प्राणिक क्रियाओं और बाह्य जीवनको प्रभावित करती है । ये रचनाएं विनाशात्मक होनेके साथ साथ सर्जनात्मक भी हो सकती हैं ।

 

        अतमें एक शक्ति ऐसी रचनाओंका भी निर्माण करती है जो यहा पार्थिव चेतनामें, उसके मन, प्राण और भौतिक सत्तामें प्रभावशाली यथार्थ वस्तुएं बन जाती है । साधारणत: सर्जनसे हमारा यही अभिप्राय होता है ।

 

III

 

        आरम्भमें मानसिक साक्षात्कार उपयोगी होता है और वह आध्यात्मिक अनु-

 

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भवको तैयार करता है ।

 

       शुरुआतमें यह मदद भी कर सकता है - पर यह बाधक भी बन सकता है । यह साधकपर निर्भर करता है ।

 

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       वर्ड्सवर्थका अनुभव भी मानसिक था । निःसंदेह मानसिक अनुभव अच्छी तैयारीके सूचक हैं 1 परन्तु वही रुक जानेसे साधक यथार्थ वस्तुसे कोसों दूर रह जाता

 

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        यह (मनमें भगवानका साक्षात्कार) एक विशेष प्रकारका जीवन्त प्रत्यय है -- जिसके दो भाग हैं -- पहला है विचारमें जीवन्त प्रत्यक्ष बोध जिसकी पहुँच ऊपर संबोधि या सत्यदृष्टि तक होती है, यह एक सजीव मानसिक भाव है, और दूसरा हैं मनs तत्वमें इस प्रकार ज्ञात हुई वस्तुओंका पुन: प्रकटीकरण । इस तरह मन एक प्रकारकी आन्तरिक मानसिक इन्द्रिय द्वारा सबमें व्याप्त उस एक्का अनुभव, दर्शन और साक्षात्कार करता है । आध्यात्मिक साक्षात्कार इससे अधिक ठोस होता है -- व्यक्तिको स्वयं अपनी सत्ताके ही उपादानमें एक प्रकारके तादात्म्य द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है ।

 

 *

 

        तुम्हें अनुभवके द्वारा यह जानना होगा । मानससदतकार  और मानस- साक्षात्कार एक दूसरेसे भिन्न हैं -- पहला केवल एक विचार है, दूसरेमें मन स्वयं अपने उपादानमें सत्यको प्रतिबिम्ब या पुन: प्रकट करता है । आध्यात्मिक अनुभव मानसिक अनुभवसे अधिक ऊंचा होता है इसमें अनुभूति स्वयं सत्ताके सारतत्वमें ही होती है ।

 

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        एकत्वकी मानसिक या प्राणिक अनुभूतिमें वही तात्विकता या वही प्रभाव नहीं होता जो एकत्वके आध्यात्मिक साक्षात्कारमें होता है - ठीक उसी प्रकार जैसे भगवानका मानसिक प्रत्यक्ष बोध और आध्यात्मिक साक्षात्कार एक नही है । एक स्तरकी चेतना दूसरे स्तरकी चेतनासे भिन्न होती है । आध्यात्मिक और चैत्य- प्रेम मानसिक, प्राणिक या भौतिक प्रेमसे भिन्न है - यही बात दूसरी प्रत्येक चीजके

 

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विषयमें लागू होती है । ऐसा ही एकताके प्रत्यक्षबोध और उसके प्रभावोके विषयमें भी होता है । इसीलिये विभिन्न स्तरोंकी अपनी महत्ता है, अन्यथा उनके अस्तित्वका कोई अर्थ ही न होता ।

 

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         तुम्हारा अनुभव उस आधारभूत और निर्णायक साक्षात्कारके प्रारंभको सूचित करता है जो चेतनाको सीमित मानसिक क्षेत्रमेंसे निकालकर उस सच्चे आध्यात्मिक दर्शन और अनुभवकी ओर ले जाता है जिसमें सब कुछ ' 'एक' ' ही होता है तथा सब कुछ भगवान् हीं होता है । यह सतत और जीवन्त अनुभव ही आध्यात्मिक जीवनकी नीव है । इसकी सचाई और महत्ताके विषयमें कोई संदेह नही हो सकता क्योंकि स्पष्ट हीं यह एक सजीव और सक्यि वस्तु है और मानसिक साक्षात्कारको भी अतिक्रान्त कर जाती है । आगे जाकर यह विभिन्न पहलुओंको अपनेमें जोड़ भी सकती है, पर अब तुम्हें तात्विक एवं आधारभूत साक्षात्कार हों गया है । इसके स्थायी हों जानेपर यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति मनके धुँधलकेको पार करके परमात्माके प्रकाशमें पहुँच गया है ।

 

       तुम्हें अब साक्षात्कारको बढ़ने और विकसित होने देना चाहिये । आवश्यक क्रियाएं संभवत: स्वयं वैसे ही आयेंगी जैसे बे अब आई हैं - बशर्ते कि तुम अपने संकल्प- को प्रकाश और सत्यके प्रति एकाग्र और एकनिष्ठ रखो । यह तुम्हारे अन्दर अगले कदमकी ओर अर्थात् विचार-प्रवाहके विराम और आन्तरमनकी नीरवताकी ओर मार्गदर्शन दे हीं चुका हैं । एक बार इसे जीत लेनेपर स्थायी शांति, मुक्ति, विशालता, आयेगी ही । सरलता और निष्कपटताकी आवश्यकताका भाव भी एक सच्ची प्रवृत्ति है जो उसी आन्तिरिक पथ-प्रदर्शनसे आती है । यह मन, प्राण और शरीरके पीछे रहनेवाले अधिकतम गहराईमें स्थित अन्तर्तम दिव्यतत्वको पूरी तरह तुम्हारे सामने लानेके लिये आवश्यक है - इसके सामने आनेपर तुम अपने आन्तरिक नेतृत्वके और पूर्ण आध्यात्मिक परिवर्तनके लिये क्रियाशील शक्तिके विषयमें जान सकोगे । यह सरलता उन नानाविध कुटिल मानसिक और प्राणिक व्यापारोंसे पृथक  क्यैपर आती है जो व्यक्तिको जहां-तहां लिये चलते हैं -- हदयकी निश्चलता, अनासक्ति हीं व्यक्तिको अकेले एक और अनन्य सत्य और प्रकाशकी ओर तबतक प्रेरित करती है जबतक वह सारी सत्ता और समग्र जीवनको अपने अधिकारमें नहीं ले लेती ।

 

            उस अद्वितीय और दिव्य भगवान्की कृपापर विश्वास रखो जिसने तुम्हारा स्पर्श कर लिया है और तुम्हारे लिये अपना द्वार खोल दिया है । तुम आगे आनेवाली सब बातोंके लिये भी उसी पर भरोसा रखो ।

 

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३९३


       मैंने ' क्ष' के अनुभवोंका विवरण पढ़ लिया । इससे लगता ३ कि उसने कुछ हद तक ठीक प्रारंभ किया है और वह मानसिक स्थिरता तथा एक प्रकारके चैत्य उद्- घाटनके प्रारंभको स्थापित कर सका है, परंतु इनमें कोई भी वस्तु अभीतक अधिक दूरीतक अग्रसर नही हो सकी है । संभवत. इसका कारण यह है कि उसने यह सब दृढ मानसिक संयम द्वारा और मन एवं भावमय तथा प्राणिक क्रियाओंको बलात शान्त करके किया है, किन्तु उस आध्यात्मिक स्थिरताको स्थापित नही किया जो केवल अनुभवसे या मनके ऊपर स्थित उच्चतर सत्ताके प्रति समर्पणसे आती हे । एक अधिक सारभूत उन्नतिकी नींव रखनेके लिये उसे इस वस्तुको प्राप्त करना होगा ।

 

         1 उसका यह विचार ठीक है कि आंतर स्थिरता और निश्चल-नीरवता ही आधारशिला बन्नी चाहिये केवल बाह्य कर्मकी ही नही किन्तु सभी आन्तर और बाह्य प्रवृत्तियोंकी भी । परन्तु मनकी नीरवता या निष्क्रियतामें मनकी अचंचलता, पहले कदमके रूपमे प्रायः उपयोगी होनेपर भी, पर्याप्त नहीं होती । मनकी स्थिरता- को पहले तो गभीरतर आध्यात्मिक शान्तिमें बदलना होगा, और फिर उच्चतर प्रकाश, बल और आनन्दसे परिपूर्ण अतिमानसिक स्थिरता और निश्चल-नीरवतामे । इसके साथ ही एक और बात यह भी है कि महज मनको निश्चल करना हीं पर्याप्त नही है । प्राणिक और भौतिक चेतनाको उन्मुख करना होगा एवं वहां भी उसी आधारको प्रतिष्ठित करना होगा । जिस भक्ति-भावके विषयमें उसने लिखा है वह एक मानसिक भाव मात्र हीं नहीं होना चाहिये परन्तु गभीरतर हदयकी अभीप्सा तथा उच्च सत्यके प्रति संकल्प भी होना चाहिये, जिससे सत्ता उसमें आरोहण कर सके और वह नीचे अवतरित होकर सब व्यापारोंको संचालित कर सके ।

 

       2. वह मनमें जिस शून्यताका अनुभव कर रहा है वह साधारणतया सामान्य व्यापारोसे मनको खाली करनेके लिये आवश्यक अवस्था है जिससे वह उच्चतर चेतना और नवीन अनुभूतियोंकी ओर उद्घाटित हों सकें, पर वह अपने-आपमे एक निरी निषेध- त्मक वस्तु है, किसी भावात्मक वस्तुसे रहित मानसिक स्थिरता है, मोर यदि कोई वही रुक जाय तो जिस जड़ता और तमस्की उसने शिकायत की है वे उसमें अवश्य आयेंगी । जरूरत इस बातकी है कि वह मनकी शून्यता और नीरवतामें अपनेको मनसे ऊपर स्थित उच्चतर शक्ति, प्रकाश और शान्तिकी क्रियाके प्रति उद्घाटित करे, उसकी प्रतीक्षा करे या उसके लिये पुकार करे ।

 

         3. निद्रामें जो बुरी आदतें बची रh जाती हैं उसकी व्याख्या सरलतासे की जा सकती है और यह एक सर्वसामान्य अनुभवकी बात है । यह मनोविज्ञानका एक प्रसिद्ध नियम है कि सचेतन मनमें जिस वस्तुका दमन किया जाता है वह अवचेतन सत्तामें बनी रहती है और नियंत्रण हटा लेनेपर या तो जाग्रत अवस्थामें अथवा निद्रामें फिरसे आती है । स्वयं मानसिक नियन्त्रण किसी भी वस्तुका पूरी तरह उन्मूलन नही कर सकता । सामान्य मनुष्यके अवचेतनमें प्राण-सत्ताके और भौतिक-मनके अधिक बड़े भागका और साथ हीं गुप्त शारीरचेतनाका भी समावेश होता है, सच्चे और पूर्ण परिवर्तनके लिये व्यक्ति- को इन सबको सचेतन बनाना होगा; उसे स्पष्टरूपसे यह देखना होगा कि अभी वहां

 

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क्या शेष है और उसके बाद एकके बाद एक स्तरसे उनका परित्याग करना होगा जबतक कि वे व्यक्तिगत सत्तामेंसे पूरी तरहसे बाहर न फेंक दिये जाएं । उसके बाद भी वे वहां रह सकते है ओर चारों ओरकी वैश्वशक्तियो द्वारा सत्तामें फिर वापस लौट सकते हैं और जब चेतनाका कोई भी भाग निम्रस्तरकी इन शक्तियोंको कोई प्रत्युत्तर नहीं देता तभी विजय और रूपान्तर निःशेषरूपसे पूर्ण होते है ।

 

         4. उसका यह अनुभव कि जब भी वह मानसिक भूमिकापर कोई विजय प्राप्त करता है तो भूतकालके कर्मकी अर्थात् वस्तुत: पुरानी प्रकृतिकी - शक्तियां दुहरे उत्साहके साथ उसपर फिर टूट पड़ती है, यह भी एक सामान्य अनुभव है । इसकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या इससे पहले प्रेममें पाई जा सकती है । सत्ताके रूपांतरके लिये किए गायें सभी प्रयत्न उन विश्वशक्तियोके साथ होनेवाले संग्राम जैसे हैं जिनका सत्ता- पर दीर्घकालसे अधिकार था और यह आशा करना व्यर्थ है कि प्रथम पराजयके साथ हीं वे संघर्षका त्याग कर देंगी । वे यथाशक्ति अधिकसे अधिक समयतक अपने अधि- कारकों कायम रखनेकी चेष्टा करती हैं और बाहर निकाल दिये जानेपर भी, तबतक वापस आनेका और अपनी पकडूको फिरसे जमानेका यत्न करती रहती हैं, जबतक सचेतन या अवचेतन सत्तामेंसे प्रत्युत्तरका कोई अवकाश रहता है । इन धावोंसे निरुत्साहित होनेका कोई लाभ नही । तुम्हें इस बातपर ध्यान देना चाहिये कि उन्हें अधि- काधिक बाह्य बना दिया जाय और उन्हें सहमति देनेसे तबतक इन्कार कर दिया जाय जबतक वे क्षीण होकर समाप्त न हो जायें । केवल चित्त और बुद्धिको ही नहीं किन्तु सत्ताके निफ्ट अंगों, प्राण और भौतिकप्राण, भौतिक-मन और शरीरचेतनाको भी उन्हें अस्वीकार कर देना चाहिये ।

 

        5. ग्रहणशील मन और विवेकशील बुद्धिके जिन दोषोंके विषयमें तुम कहते हों वे बुद्धिके सर्वसामान्य दोष है और जबतक बौद्धिक क्रियाके स्थानपर उच्चतर अति- बौद्धिक और अन्तमें अतिमानसिक सत्ताका सामंजस्यकारी प्रकाश स्थापित नही किया जाता तबतक उनसे मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती ।

 

       अब चैत्य अनुभवोंके विषयमें । तुम्हें अपने सिरके शीर्ष भागमें जिस तेजोमय क्षेत्रका अनुभव हुआ वह केवल मनके उच्चतर भागपर अतिमानसिक प्रकाशका स्पर्श या प्रतिबिंब था । समग्र मन और सत्ताको इस प्रकाशकी ओर खुलना होगा और इस प्रकाशकों सारे आधारको परिपूर्ण कर देना होगा । तड़ित और विद्युत्का प्रवाह उस अतिमानस सूर्यकी (वैद्युत्) अग्नि-शक्ति है जो शरीरका स्पर्श करके उसमें अपनेको उडेलनेकी चेष्टा कर रही है । अन्य चिह्न भविष्यमें होनेवाले चैत्य और अन्य अनुभवों- का आश्वासन देते हैं । किन्तु इनमेंसे कोई भी वस्तु अपनेको तबतक प्रतिष्ठित नही कर सकती जबतक ऊच्चतर शक्तिकी ओर उद्घाटन पूर्ण न कर लिया जाय । इस अधिक सच्चे श्रीगणेशके लिये मानसिक योग महज एक तैयारी रूप हीं हों सकता है ।

 

      मैंने यह सब केवल इन अनुभवोंको समझानेके लिये हीं कहा है किन्तु मुझे प्रतीत होता है कि वह इतना आगे बढ़ गया है कि इस उच्चतर योगको प्रारंभ करनेके लिये आधार नही बना सकता । यदि वह उसे करना चाहता है तो उसे अपने मानसिक

 

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संयमके स्थानपर मनसे ऊपर स्थित परमदेवकी उपस्थिति तथा शक्तिमें विश्वास और समर्पण भावको, हृदयमें अभीप्साको और उच्चतर मनमें चरम सत्यकी प्राप्तिके संकल्पको एवं उसके अवतरण और उसकी शक्ति द्वारा समग्र सत्ताके रूपांतरको स्थापित करना होगा । उसे अपने ध्यानमें नीरव भावसे उसके प्रति उद्घाटित होना हुाएगा और सर्व प्रथम एक गभीरतर स्थिरता तथा निश्चल-नीरवताको नीचे पुकार लाना होगा और उसके बाद समग आधारमें कार्य करनेवाली शक्तिको ऊपरसे उतार लाना होगा तथा अन्तमें समग्र सत्तामें प्रवाहित होनेवाली और दिव्य-सत्य-क्रियासे उसे प्रकाशित करनेवाली उस ऊच्चतर ज्योतिको पुकार लाना होगा जिसकी उसने एक झलक पाई है ।

 

 *

 

         हां, जबतक वृत्ति मानसिक स्तरपर होती है तबतक वह निरापद नहीं होती क्योंकि तब प्रकृतिपर - एक मानसिक निर्देश और नियंत्रणकी रूपमें कोई वस्तु आरोपित की जाती है । पर आध्यात्मिक अनुभवके साथ ही स्वयं चेतनाके उपादान तत्वमें परिवर्त्तन होने लगता है और उसके स्थिर और दृढ होना शुरू होनेपर स्वभावत: वह वस्तु प्रारंभ होती है जिसे हम प्रकृतिका रूपांतर कहते हैं ।

 

 

           नही, ( चेतनाका उपादानतत्व) इस वाक्यांशका एक मात्र आशय है ' 'चेतनाका मूलतत्व' ', स्वयं चेतना ।

 

        योगकी अनुभूतियोंके विकासके साथ ही चेतनाका सूत्र रूपसे अनुभव होने लगता है, उसमें जो क्रियाएं और रचनाएं होती हैं उन्हींको हम विचार, भाव इत्यादि कहते !

 

*

 

           तुम्हारी अनुभूति बिलकुल ठीक है । सब आध्यात्मिक अनुभवोंका स्वरूप ठोस होता है -- चेतना और आनन्द तकको ठोस रूपमें अनुभव किया जाता है । यह भी सत्य है कि यह अनुभव मनसे अधिक गहरी कोई वस्तु करती है, मन स्वयं ठोस वास्तविकताओंको अमूर्त्त वस्तुमें बदल देता है ।

 

*

 

          निःसंदेह मानसिक ज्ञानमें यह असुविधा है । परन्तु मुझे सन्देह है कि कोई

 

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व्यक्ति मानसिक रूपमें ऐसा ढोंग भी कर सके कि उसे सब जगह एकमेव भगवानका अनुभव हो या उसमें शांति प्रवाहित होती हो । वह प्रारंभिक मानसिक साक्षात्कारको गभीरतर आध्यात्मिक साक्षात्कार समझ सकता है या यह समझ सकता है कि वह अव- तरण उसके शरीरमें हुआ जब कि वस्तुत: वह उसके मनमें हुआ होता है जो सूक्ष्म- शरीरके मनोमयकोश द्वारा शरीरको प्रभावित करता है - परन्तु जिनमें मानसिक ज्ञान नहीं होता वे भी यह भूल कर सकते हैं । मानसिक ज्ञान रहित व्यक्तिको यह असुविधा होती है कि वह बिना समझे ही अनुभवको प्राप्त करता है और यह विकास- के लिये बाधक या कमसे कम उसमें विलम्ब करनेवाली वस्तु बन सकती है जब कि मानसिक रूपसे अधिक प्रबुद्ध व्यक्तिके समान वह भूलसे आसानीसे मुक्त नही हो सकता ।

 

*

 

         सामान्यतया वे (जिन्हें विश्वव्यापी पुरुषके विषयमें ज्ञान नहीं होता) पहले श्रीमाँके साथ तादात्म्य प्राप्त करके चैत्य केन्द्र द्वारा उसका अनुभव प्राप्त करते है और उसे पुरुष नहीं कहते -- अथवा वे बस केवल सिर या हृदयमें विशालता और शांतिका अनुभव करते हैं । पहलेसे मानसिक ज्ञान होना अनिवार्य नहीं है । मैंने ऐसे एकसे अधिक उदाहरण देखे हैं जिनमें साधकोंने ब्रह्मका साक्षात्कार होनेके बाद पूछा ' 'यह क्या है?'' -- वे उसका बहुत स्पष्ट और सुनिश्चितरूपसे वर्णन करते थे किन्तु किसी ज्ञात परिभाषामें नही ।

 

*

 

         यह लिखनेके ठीक बाद मैंने एक साधिकाका पत्र पढा जिसमें वह लिखती है ' 'मैं देखती हूँ कि मेरा सिर बहुत शान्त, शुद्ध, आलोकमय और विश्वमय हों रहा है । '' अच्छा तो यह विश्वमय ब्रह्मके - मनमें स्थित पुरुषके साक्षात्कारका प्रारंभ है, परन्तु यदि मैं इसे इन शब्दोंमें कहुँ तो वह कुछ नही समझेंगी ।

 

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       कल्पित (सचाईके साथ कल्पित) अनुभव भी मानसिक साक्षात्कारमें सहायता दे सकते हैं और मानसिक साक्षात्कार समग साक्षात्कारका एक सोपान बन सकता

 

 *

 

        स्थूल मनमें निवास करनेपर व्यक्तिके लिये उससे बचनेका एकमात्र उपाय होता हई कल्पना । प्रसंगवश, इसीलिये कविता और कला इत्यादिकी पकड़ इतनी मजबूत होती है । परंतु प्रायः ये कल्पनाएं वस्तुत: अतिभौतिक अनुभवोंकी प्रतिच्छाया होती हैं और एकबार भौतिकमनका अवरोध टूटने अथवा हिलडुलकर थोड़ा घुल जानेपर, अनुभव

 

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स्वयंमेव होने लगते हैं, बशर्ते कि स्वभाव अनुकूल हो । इसके परिणामस्वरूप अन्तर्दर्शन और इस प्रकारके अन्य सब ऐसे दृश्योंका अनुभव होता है, जिन्हें चैत्य-दृश्योंका गलत नाम दिया जाता है ।

 

        जहांतक प्रार्थनाका प्रश्न है उसके विषयमें कोई पक्का नियम नही बनाया जा सकता । कुछ प्रार्थनाओंका ही उत्तर मिलता हैं, सबका नही । तुम पूछ सकते हों कि तो फिर सबका जवाब क्यों नही मिलता? पर क्यों मिलना चाहिये? यह कोई मशीन नही है कि छेदमें डालते ही प्रार्थनाका जवाब मिल जाय । इसके सिवाय मानव जाति एक हीं समयमें जिन विरोधी बातोंके लिये प्रार्थना करती रहती है उन सबका विचार करनेपर यदि भगवान् सब प्रार्थनाओंको पूर्ण करने लगे तो उसकी स्थिति बहुत विषम हो जायगी, इससे काम नही चलेगा ।

 

IV 

 

          हदयकी शुद्विध असंभव नही हे जिसके लिये तुम प्रयत्न कर रहे थे, और जब हृदय शुद्ध हो जाता है तो असंभव लगनेवाली अन्य चीजों भी आसान हों जाती हैं -- यहांतक कि वह आंतरिक समर्पण भी जो तुम्हें इस समय दुष्कर प्रतीत होता है ।

 

यह एक सर्व साधारण नियम है कि यदि हृदयमें विनम्रता और आत्मदान दृढ़ता- पूर्वक स्थापित हों जायें तो विश्वास जैसी अन्य चीज़ें सहज ही उनका अनुसरण करती है । यदि एक बार चैत्य ज्योति और आनन्द, जो विनम्रता और आत्म दानकी देन हैं, स्थापित हों जायें तो फिर अन्य शक्तियोंके लिये उस स्थितिको आच्छादित करना आसान नहीं होता और उसे नष्ट करना भी उनके लिये संभव नही होता । यही सामान्य अनुभव है ।

 

          शोधन और आत्मोत्सर्ग, ये दो साधनाकी महान् आवश्यक बातें हैं । जिन लोगों- को शोधनसे पहले ही आन्तरिक अनुभव होने शुरू हो जाते हैं वे बहुत बड़ा खतरा मोल लेते है पहले हृदयको शुद्ध कर लेना कही अधिक अच्छा है क्योंकि तब मार्ग निरापद हों जाता है । इसीलिये मैं पहले प्रकृतिमें चैत्यके परिवर्तनकी सलाह देता हूँ -- क्यों- कि उसका अर्थ है हदयका पवित्रीकरण : उसका पूरी तरह भगवान्की ओर मुड जाना, मन और प्राणका आन्तर सत्ताके, अन्तरात्माके शासनकी अधीनताको स्वीकार कर लेना । जब अन्तरात्मा सामने होता है तो मनुष्य, क्या करना चाहिये, किस चीजसे बचना चाहिये, विचार, अनुभव और कर्ममें कौनसी चीज गलत है और कौनसी ठीक है, इस सम्बन्धमें भीतरसे समुचित पथप्रदर्शन पाता है परन्तु यह आन्तरिक सुझाव उसो अनुपातमें बाहर व्यक्त होता है जैसे-जैसे चेतना अधिकाधिक शुद्ध होतीं जाती

 

            क्षके मार्गमें रोड़ा अटकानेवाली चीज थी महत्वाकांक्षा, गर्व, मिथ्याभिमान -- गुह्य शक्ति प्राप्त. करके एक बड़ा योगी बननेकी कामना । अपवित्र मन, हृदय और शरीरमें गुह्य शक्तियोंको उतार लानेकी चेष्टा - हां, यदि तुम पहाड़की कगार-

 

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पर खड़े होकर नाचना चाहो तो नाच सकते हो । अथवा यदि तुम्हारा उद्देश्य गुह्यविद्या बनना हो न कि आध्यात्मिक, तो भी तुम यह कर सकते हो, क्योंकि तब तुम आवश्यक पद्धतियोंका अनुसरण करके गुह्य शक्तियोंकी सहायता पा सकते हों । दूसरी ओर सच्ची गुह्य आध्यात्मिक शक्तियों और रहस्योंका आवाहन किया जा सकता है या वे बिना आवाहनके भी आ सकती हैं किन्तु तब इसे एकमात्र सच्चे लक्ष्य भगवान्की खोजके मुकाबले गौण स्थान ही देना होगा, और तभी जब कि यह तुम्हारे अन्दर भाग- वत योजनाका एक अंग हों । आध्यात्मिक व्यक्तिके लिये गुह्य शक्तियां केवल उस भागवत शक्तिका यत्र हों सकती हैं जो उस ब्यक्तिका उपयोग करती है वे उसकी साधनाका मुख्य या कोई एक मात्र उद्देश्य नहीं हों सकतीं । बहुतसे लोगोंको अपने मनमानी विचारोंके अनुसार योग करनेकी आदत होती है और वे गुरुके पथ-प्रदर्शनकी कोई परवाह नहीं करते -- तथापि उससे एक पूर्ण संरक्षण पानेकी और साधनामें सफल होनेकी तब भी आशा रखते हैं जब कि वे अधिकसे अधिक गलत रास्तोंपर उछल- कूद करते या इतराते हुए चलते हैं ।

 

          सूक्ष्म पद्धतियोंसे मेरा मतलब हे मनोवैज्ञानिक, अयांत्रिक पद्धतियां, उदाहरणार्थ, हृदयमें एकाग्रता, आत्मसमर्पण, आत्मशुद्धि, आंतरिक साधनोंके द्वारा चेतनाको परिवर्तित करना आदि । इसका अर्थ यह नही है कि बाह्य परिवर्तनका कोई स्थान नही हैं, बाह्य परिवर्तन आवश्यक है पर आंतरिक परिवर्तनके एक अंगके रूपमे । यदि भीतर पवित्रता और सहृदयता न हो तो बाह्य परिवर्तन फलदायक नही होगा, परन्तु यदि भीतर सच्ची किया हो तो बाह्य परिवर्तन उसमें सहायक होगा और वह प्रक्रियाको अधिक तेज कर देगा । हदयकी शुद्धिके लिये अत्यत आवश्यक चीज है पूर्ण सचाई । स्वयं अपने साथ कोई छल-कपट नही करना चाहिये, भगवान्से या स्वयं अपनेसे, या गुरुसे कोई दुराव-छिपाव नही रखना चाहिये, अपनी गतिविधियोंपर राक सीधी नजर डालनी चाहिये और उन्हें सीधा करनेके लिये एक सीधा संकल्प करना चाहिये । यदि इसमे कुछ समय लगे तो इससे विशेष आता-जाता नही भगवान्की खोजको अपने समूचे जीवनका कार्य बनानेके लिये हमें तैयार होना चाहिये, हदयकी शुद्धिका अर्थ है एक बहुत ऊंची सिद्धि ओर उदास, निराश आदि होनेका कोई लाभ नहो है, क्योंकि मनुष्य अपने अन्दर उन चीजोको देखता है जिन्हें अभी परिवर्तित करना आवश्यक है । यदि कोई अपने सच्चे संकल्प और यथार्थ मनोभावको बनाये रखे तो भीतरसे अंत-प्रेरणाओं और संकेतोंका आना बढ़ने लगेगा, वे सुस्पष्ट, भूल रहित और यथार्थ बन जायेंगे तथा उन्हें अनुसरण करनेकी शक्ति भी बढ़ जायगी, और तब तुम्हारे स्वयं अपने-आपसे संतुष्ट होनेसे पहले ही भगवान् तुमसे संतुष्ट हों जायेंगे और उस पर्देको हटाना शुरू कर देग द्वारा वह स्वयं अपनी तथा अपनी खोज करनेवाले साधकोंकी रक्षा करते एवं जिससे मनुष्य जिन सब महान् वस्तुओंको अभीप्सा करता है उन्हें कोई अपरिपक्व अवस्थामें तथा खतरनाक तरीकेसे पकड़ न ले ।

 

*

 

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     स्वयंस्कृर्त स्वतः प्रवृत्ति एक अच्छा लक्षण है क्योंकि यह बताता है कि अन्त.- पुरुष उस सत्यके प्रति उद्घाटित हो रहा है जो आवश्यक परिवर्तनोंको आगे लानेके लिये दबाव डाल रहा है ।

 

        जैसा कि तुम कहते हो, प्रकृतिकों बदलनेके लिये अग्नि-परीक्षाओंमेंसे गुजरने- मे सभ्यक्-वृत्तिकी कमी ही रुकावट डाल रही है । इस समय योगका निर्णायक अनु- भव प्राप्त करनेकी अपेक्षा भी कही अधिक चरित्रके इस प्रकारके परिवर्तनके लिये दबाव अधिकाधिक पड़ रहा है । क्योंकि अनुभवके आनेपर भी प्रकृतिमे आवश्यक परिवर्तन न होनेके कारण वह निर्णायक नही बन सकता । उदाहरणार्थ, मन सबमें व्याप्त उस एकमेवका अनुभव प्राप्त करता है परन्तु प्राण उसका अनुसरण नही कर सकता, क्योंकि उसपर अहंकी प्रतिक्रिया और अहंका प्रेरकभाव हावी हों जाते है अथवा बाह्य प्रकृतिकी आदतें अपने ऐसे विचार, अनुभव, क्रिया और जीवन-निर्वाहके तरीकोंको बनाये रखती है जिसका अनुभवके साथ बिलकुल मेल नही खाता, अथवा चैत्य और मन तथा भावप्रधान पुरुषका एक अंश बारबार माताजीके सामीप्यका अनुभव करता है, किन्तु प्रकृतिका शेष अंश समर्पित नही होता और उनके सामीप्यसे दूरीको बढ़ाता हुआ अपने हीं मार्गपर चलता रहता है । यह पर्याप्त नही है, और यह बहुत जरूरी है कि इसे बदला जाय ।

 

*

 

         मुझे मालूम नही 'क्ष' ने क्या कहा है या कहाँ लिखा है, वह लेख मेरे पास नहीं है परंतु यदि उसकी स्थापना यह हो कि कोई भी व्यक्ति जबतक शुद्ध और पूर्ण न हो जाय तबतक सफल ध्यान या किसी वस्तुका साक्षात्कार नही कर सकता तो यह बात मेरी समझमें नही आती स्वयं मेरे अनुभव इसके विपरीत है । मुझे सदा ही व्यान द्वारा साक्षात्कार प्राप्त हुआ है और शुद्धि पीछेसे उसके परिणामस्वरूप प्रारंभ हुई । मैले देखा है कि बहुतसे लोगोंने महत्वपूर्ण, यहांतक कि आधारभूत उपलब्धियां ध्यानके द्वारा प्राप्त की । उन लोगोंके सम्बन्धमें यह नही कहा जा सकता कि वे आंतरिक रूपसे बहुत अधिक विकसित थे । क्या उन सब योगियोंकि प्रकृति शुद्ध थीं जिन्होंने अपनी आन्तरचेतनामें महान् उपलब्धिया प्राप्त की थी? मुझे ऐसा नही प्रतीत होता । मैं यह नही मान सकता कि इस क्षेत्रमें कोई चरम सर्वसामान्य नियम बनाये जा सकते हैं, क्योंकि आध्यात्मिक चेतनाका विकास एक अत्यंत विस्तृत और जटिल विषय है जिसमें सभी प्रकारकी कठिनाइयां हों सकती हैं । और व्यक्ति करीब करीब यह कह सकता है कि प्रत्येक ब्यक्तिकी प्रकृतिके अनुसार उसका रूप भिन्न-भिन्न होता है और इसके लिये एक बात आवश्यक होती है कि ब्यक्तिमें आंतरिक पुकार हों, अभीप्सा हो और उसका अनुसरण करनेका धैर्य हो, चाहे इसमे कितना ही समय लगे कितनी ही कठिनाइयां या अड़चने आयें, क्योंकि हमारे अन्तरात्माको इसके सिवाय अन्य कोई वस्तु संतुष्ट नही कर सकती । यह बिलकुल सत्य है कि आगे बढ़नेके लिये शुद्धिकी

 

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एक नियत मात्रा अनिवार्य होती है और शुद्धि जितनी पूर्ण हो उतना ही अच्छा, क्योंकि तब साक्षात्कार प्रारंभ होनेपर बिना किसी बड़ी कठिनाईके या भूलके और बिना पतन या असफलताकी सम्भावनाके वे अपनी साधना जारी रख सकते हैं । यह भी सत्य है कि बहुतसे लोंगोंके लिये सर्वप्रथम शुद्धि आवश्यक होती है,-किसी क्रम- बद्ध आन्तर अनुभवको प्रारंभ करनेसे पहले व्यक्तिको किन्हीं वस्तुओंको रास्तेसे हटा देना पड़ता है । पर मुख्य आवश्यकता हे चेतनाकी एक विशेष तैयारीकी जिससे वह उच्चतर शक्तिको उत्तरोत्तर मुक्तभावसे प्रत्युत्तर दे सके । इस तैयारीमें बहुतसी बातें उपयोगी होती हैं -- कविता .और संगीत जिनका तुम अनुसरण कर रहे हों, सहायक हों सकते हैं क्योंकि यह सब एक प्रकारके श्रवण और मननका और यदि इसके द्वारा उत्पन्न भाव तीव्र हों तो एक प्रकारके सहज निदिध्यासनका भी काम करता है । चैत्य तैयारी, मानसिक और प्राणिक अहंके असंस्कृत रूपोंकी सफाई, मन और हृदय- को गुरुके सामने खोलना और अन्य बहुतसी बातें अत्यधिक सहायक होती हैं -- प्रारंभमें पूर्णता या द्वन्द्वों या अहंसे पूर्ण मुक्ति अनिवार्य नहीं होती; परन्तु अन्त. पुरुषकी तैयारी और क्षमता ही आध्यात्मिक प्रत्युत्तर ओर प्राप्तिकी संभव बनाती है ।

 

       इसीलिये इन मांगोंको वेदवाक्य मान लेनेका कोई कारण नहीं । ' 'क्ष' ' जिस मार्गपर चला है उसके लिये ये ठीक हों सकतीं है, पर इन्हें सबपर नन्हों लादा जा सकता आत्माका नियम इतना कठोर और अटल नहीं होता ।

 

*

 

        'क्ष' को.... एक या दो दिन पहले ऊपर आरोहणका और (देह-बोध और सीमासे मुक्त) शान्तिके विस्तार एवं असीमके आनन्दका अनुभव हुआ था साथ हीं नीचे मूलाधारमें अवतरणका भी । वह इन वस्तुओंके नाम या परिभाषा नहीं जानती, किन्तु इस सम्बन्धमें उसका सूक्ष्म और सुविस्तृत वर्णन असंदिग्ध था । अन्य ऐसे तीन या चार व्यक्ति हैं जिन्हें हाल हीमें यह अनुभव हुआ है । तो इस प्रकार हम मान सकते हैं कि शक्तिकी क्रिया बिलकुल ही व्यर्थ नही गई क्योंकि यह अनुभव बहुत महत्वपूणइ है और यदि इसे स्थिर किया जा सके तो यह प्राचीन योगका शिखर समझा जा सकता हैं, हमारे लिये तो यह आध्यात्मिक रूपांतरकी शुरुआत ही है । यद्यपि यह एक व्यक्ति- गत बात है तो भी मैंने यह इसलिये कही है कि प्रकृतिमें बाहरकी कमियां और बाधाएं अथवा यौगिक-अक्षमताकी प्रतीतिका अनिवार्य रूपसे यह अर्थ नही होता कि व्यक्ति साधना नहीं कर सकता या नही कर रहा है ।

 

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 निम्रतर प्रकृति और उसकी बाधाओंके विषयमें बहुत अधिक विचार करते रहना एक भूल है, यह साधनाका निषेधात्मक पहलू है । इन्हें देखना और शुद्ध करना

 

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चाहिये किन्तु एक महत्वपूर्ण वस्तुके रूपमे उनके विषयमें बिचार करते रहनेसे कोई मदद नही मिलती । अवतरणके अनुभवका भावात्मक पक्ष ही अधिक महत्वपूर्ण वस्तु है । यदि कोई व्यक्ति भावात्मक अनुभवको नीचे बुलानेसे पहले यह प्रतीक्षा करे कि पहले निम्रतर प्रकृति पूरी तरह और सदाके लिये शुद्ध हों जाय तो उसे अनन्त कालतक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है । यह सत्य है कि निम्रतर प्रकृति जितनी अधिक शुद्ध की जायगी उच्चतर प्रकृति उतनी हीं अधिक अवतरित होगी, किन्तु यह इससे भी अधिक सच हे कि उच्चतर प्रकृति जितनी अधिक नीचे उतरेगी निम्रतर प्रकृति उतनी ही अधिक शुद्ध होगी । अकस्मात् न तो पूर्ण शुद्धि और न स्थायी और पूर्ण आविर्भाव हीं हो सकता है, यह समय और धैर्यपूर्ण प्रगतिका विषय है । ये दोनों (विशुद्धि और आविर्भाव) साथ-साथ ही प्रगति करते जाते हैं और एक दूसरेकी सहायता करनेके लिये उत्तरोत्तर बलशाली होते जाते हैं - यहीं साधनाका साधारण मार्ग है ।

 

 *

 

          प्रकृतिको बदलना आसान नही है और इसमे बराबर ही समय लगता है । पर, यदि कोई आंतरिक अनुभव न हों, जो दूसरी अधिक शुद्ध चेतना इन सब चीजोंसे ढकी हुई है जिसे कि अब तुम देख रहे हों, वह धीरे-धीरे ऊपर प्रकट न हो तो फिर अत्यंत प्रबल संकल्पके लिये भी इसे बदलना प्रायः असंभव सिद्ध होगा । तुम कहते हों कि तुम्हें पहले इन चीजोंसे मुक्त होना होगा और फिर आतरिक अनुभव प्राप्त करना होगा; पर ऐसा भला कैसे किया जा सकता है? ये चीजे -- क्रोध, ईर्ष्या, कामना आदि -- सामान्य मानवीय प्राणिक चेतनाके एकदम उपादान-तत्त्व हैं । यदि अंतरमें कोई बिलकुल भिन्न स्वभाववाली गभीरतर चेतना न हों तो इनको परिवर्त्तित नही किया जा सकता । तुम्हारे अन्दर एक चैत्य पुरुष है जो दिव्य, है, श्रीमांका सीधा एक अंग है और इन सब दोषोंसे शुद्ध है । वह सामान्य चेतना और प्रकृतिसे ढका और छिपा हुआ है, किंतु जब उसका आवरण हट जाता है और वह आगेआनेमे तथा सत्तापर शासन करनेमे समर्थ होता है तो वह सामान्य चेतनाको परिवर्त्तित करता है, इन सारी अदिव्य वस्तुओंको निकाल फेंकता है और बाह्य प्रकृतिको एकदम परिवर्त्तित कर देता है । यहीं कारण है कि हम चाहते हैं कि साधकगण एकाग्र हों और इस छिपी चेतनाको उद्- घाटित करे - चाहे किसी भी प्रकारकी एकाग्रता हो और उससे चाहे जो भी अनुभूतियां प्राप्त हों, उन्हींके द्वारा साधक उद्घाटित होता है और अंतरमें सचेतन होता है तथा नयी चेतना एवं प्रकृति विकसित होना और बाहर आना आरंभ करती हैं । निस्संदेह, हम यह भी चाहते हैं कि वे अपनी इच्छाशक्तिका व्यवहार करें और प्राणकी कामनाओं और गलत क्रियाओंका परिहार करें, क्योंकि ऐसा करनेसे सच्ची चेतनाका बाहर निकलना संभव होता है । किंतु मात्र परिहारसे सफलता नही मिल सकती; परिहारके साथ-साथ आंतरिक अनुभूति और विकाससे ही ऐसा किया जा सकता है । तुम कहते हो कि ये सब चीजों तुम्हारे अन्दर छिपी हुई थी । नही, वे तुम्हारे

 

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अन्दर गहराईमें नही थी, वे बाहरी या उपरितलीय प्रकृतिमे थी, तुम महज उनके विषय- मे पर्याप्त सचेतन नहीं थे, क्योंकि दूसरी सच्ची चेतना तुम्हारे अन्दर उद्घाटित और विकसित नही हुई थीं । अब तुम्हें जो अनुभूतियां हुई हैं उनके कारण चैत्य पुरुष वि- किस्त हुआ है और इस नयी चैत्य चेतनाके कारण ही इन सब चीजोंको, जिन्हें नही रहना चाहिये, तुम स्पष्ट देखनेमें समर्थ हों रहे हो । ये चीजे तुरत-फुरत नही जाती, क्योंकि भूतकालमें प्राणको इनका इतना अधिक अभ्यास हो गया था, पर अब उन्हें जाना होगा, क्योंकि तुम्हारा अंतरात्मा उनसे छुटकारा पाना चाहता है और वह तुम्हारे अन्दर अधिकाधिक प्रबल हो रहा है । अतएव इन चीजोंसे छुट्टी पानेके लिये तुम्हें दोनों चीजों- का उपयोग करना चाहिये -- श्रीमाँकी शक्तिसे युक्त अपनी संकल्पशक्तिको लगाना चाहिये तथा साथ ही अपनी आंतरिक चैत्य अनुभूतियोंको भी जारी रखना चाहिये - एक साथ इन दोनोंकी सहायतासे ही सब कुछ किया जा सकता है ।

 

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          ये अनुभव एक बार शुरू हों जानेपर प्रायः अपनेको दुहराते रहते हैं चाहे सामान्य स्थिति अच्छी हो या न हों । पर स्वभावतया वे तबतक कोई मूलगामी परिवर्तन नही कर सकते जबतक वे समग्र सत्तामें या कमसे कम उसके आंतरिक भागमें अपनेको स्थिर नही फर लेते और सामान्य नही बन जाते । सत्ताकी आंतरिक पुरानी क्रियाएं फिर भी आ सकती हैं किंतु तब ऐसा लगता है मानों वे बिलकुल उपरि सतहकी चीजे हैं । और उनके बावजूद साधना आगे बढ्ती रहती है । यहां भले-बुरेका प्रश्न नही । यदि सत्ताका कोई एक अंग भी उद्घाटित हों जाय तो अनुभूतियां आने लगती हैं ।

 

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          हां, क्रिया यथार्थत ऐसी ही होती है । प्रारंभमें हमें जिस वस्तुको प्रतिष्ठित करना है वह मुश्किलसे आती है और ऐसा लगता है मानों वह अस्वाभाविक हों, इस अनुभवको व्यक्ति आसानीसे गवा देता हे -- बादमें यह स्वयं आता है पर तब भी देरतक नही टिकता; अन्तमें यह बार-बार आकर सत्ताकी अन्तरंग स्थितिका रूप ले लेता है और अपनेको सतत और सामान्य बना लेता है । दूसरी ओर प्रकृतिकी वे सभी उलझनें और भूलें बाहर धकेल दी जाती हैं जिनकी वह आदी थी; पहले पहल तो वे लौट-लौटकर बार-बार आती रहती हो पर बादमें लौटनेपर वे प्रकृतिको अस्वाभाविक और विजातीय लगने लगती हैं और बार-बार लौटनेकी शक्ति खो देती हैं और अन्तमें विलीन हों जाती हैं ।

 

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उतार-चढावकी जिस गतिकी तुम चर्चा करते हों बह योगकी सभी प्रणालियोंमें समान रूपसे पाई जाती हे । भक्ति-मार्गमें तो यह विद्यमान इ ही, पर जब कोई ज्ञान- मार्गका अनुगमन करता है तब भी इसी प्रकार प्रकाशकी और अन्धकारकी अवस्थाएं, कभी कभी तो निरे और सुदीर्घ अंधकारकी, बारी बारीसे आती है । जिन्हें गुह्य अनुभव प्राप्त होते हैं उनके सामने ऐसे काल भी आते हैं जब सभी अनुभव बन्द हों जाते हैं, यहांतक कि सदाके लिये समाप्त हो गये जान पढ़ते हैं । अनेक तथा स्थायी अनुभव प्राप्त हों चुकनेपर भी ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वे पर्देके पीछे चले गये हैं और सामने नीरस शून्यके अतिरिक्त कुछ नहीं रहता, केवल पुन: पुन: होनेवाले आक्रमण तथा कठि- नाइया ही होती हैं, जब कभी कुछ होता है तो । बारी बारीसे आनेवाली प्रकाश और अमंगलकारी ये अवस्थाएं मानव चेतनाके स्वभावका परिणाम हैं, ये अयोग्यता या पूर्वनियत असफलताका प्रमाण नहीं है । मनुष्यको इनके लिये तैयार रहना तथा इनमें- से गुजरना पड़ता है । ये वैदिक गुह्यदर्शियोंके ' 'दिन और रात' ' हैं ।

 

        जहांतक समर्पणका संबंध है, इसमें प्रवेशका प्रारंभिक मार्ग हर एकका अपना अपना होता है । परंतु यदि यह भय, ' 'बाह्याचार' ' या कर्तव्यभावनाके कारण किया जाता है तो निश्चय ही यह समर्पण तो बिलकुल हीं नहीं है, इन चोजोका समर्पणसे कोई संबंध नहीं है । अपीच, पूर्ण तथा समग्र समर्पण उतना सरल भी नहीं है जितना कुछ लोग इसे समझते दीखते हैं । सदा ही अनेकों तथा विस्तृत आरक्षित क्षेत्र (Reservations) या लुकाव-छिपाव होते हैं; चाहे कोई उनके प्रति सचेतन न भी हो तो भी ये वहां विद्यमान होते हैं । पूर्ण समर्पण तो पूर्ण प्रेम तथा भक्ति द्वारा हीं सर्वोत्तम प्रकारसे साधित हो सकता है । इसके विपरीत, भक्ति बिना समर्पणके आरम्भ हों सकतीं है, पर जैसे ही यह स्थिर होतीं है यह स्वभावत: समर्पणकी ओर ले जाती है ।

 

     तुम्हारा यह विचार निश्चित रूपसे भ्रात हे कि बौद्धिक धारणाओंको त्यागने- की कठिनाई दूसरोंकी अपेक्षा तुम्हारी विशिष्ट बाधा है । अपने विचारों तथा धारणा- ओमें आसक्ति या उनपर आग्रह सार्वजनीन स्वभाव है । यह ऊपरसे आनेवाली उस ज्ञान-ज्योतिसे दूर किया जा सकता है जो मनुष्यको सत्यका साक्षात् संस्पर्श या प्रकाश- मान अनुभव प्रदान करती हे तथा निरी बौद्धिक सम्मति, विचारों या धारणाका समस्त मूल्य अपहृत कर लेती है और इसकी आवश्यकताका निवारण कर देती है, अथवा यह उस युक्त चेतना द्वारा दूर किया जा सकता है जो अपने साथ युक्त विचार, युक्त वेदन, युक्त कर्म तथा और भी प्रत्येक युक्त चीज लाती है । अथवा यह उस आध्यात्मिक एवं मानसिक विनय द्वारा दूर होगा जो मानव प्रकृतिमे दुर्लभ है - विशेषकर मानसिक विनय, क्योंकि मनकी सदा ही ऐसा सोचनेकी प्रवृत्ति है कि उसके अपने विचार ही, चाहे वे सच्चे हों या झूठे, युक्त विचार हैं । अन्तमें चैत्य विकास इस समर्पणको भी संभव बना देता है और यह समर्पण भी भक्ति द्वारा अत्यंत सुगमतासे संपन्न होता है । कुछ भी हों, इस कठिनाईका अस्तित्व, स्वयं, योगमें असफलताका अनुमान करनेका

 

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सबल कारण नहीं है ।

 

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          इन अवस्थाओंके बारी-बारीसे आते रहनेके विषयमें जो तुम फरियाद करते हो कि ये क्यों आती हैं तो इसका कारण यह है कि चेतनाका स्वभाव ही ऐसा है, जागरणके एक छोटेसे मोहक दौरके बाद उसे थोडी नींदकी जरूरत होती है । प्रारंभमें बहुधा ये संक्षिप्त होते हैं और निद्रामें लम्बी, आगे जाकर ये एक दूसरेके अधिक समान हो जाते हैं और बादमें निद्राके काल अधिक संक्षिप्त होते जातें हैं । इस परिवर्तनका दूसरा कारण यह दु कि ब्यक्तिकी प्रकृतिको वस्तुको अन्दर ग्रहण करते समय, उसे पचानेके लिये बन्द होनेकी जरूरत होती है । यह शायद वस्तुको बहुत मात्रामें अन्दर ले सकती है, किन्तु अनुभव होते समय उससे प्राप्त वस्तुको ठीक ढंगसे आत्मसात् नहीं कर सकती इसलिये इसे पचानेके लिये बन्द हों जाती हैं । तीसरा कारण रूपांतरकके समय आता है,-प्रकृतिका एक अंश बदल जाता है और व्यक्तिको ऐसा अनुभव होता है मानो पूर्ण और स्थायी परिवर्तन हो गया हों । किन्तु इसकी समाप्ति- पर उसे निराशा होती है और उसके बाद एक शुष्कताका या चेतनाके पतनका काल आता है । यह इस कारण होता है कि चेतनाका दूसरा अंश परिवर्तनके लिये ऊपर आता है और तैयारीका समय और गुप्त क्रिया उसका अनुसरण करते हैं जो अंधेरेका या उससे भी बुरा काल प्रतीत होता है । ये बातें साधककी उत्सुकता और अधीरताको चौंका देती हैं, निराशा करती हैं या उसे गड़बड़ा देती हैं; पर यदि कोई व्यक्ति उन्हें अचंचल रहकर ग्रहण करे और उनका उपयोग करना जाने या सम्यक्-वृत्ति धारण करे तो वह इन अंधकारभरे कालोंको भी सचेतन साधनाका अंग बना सकता है । इसलिये वैदिक ऋषि कहते हैं कि ' 'दिन और रात दोनों' ' बारी-बारीसे आकर ' 'दिव्य शिशुको स्तनपान कराते हैं' '' । तुम अपने सिरमें जो कुछ अनुभव करते हों वह संभवत: शरीर- मे ऊपरसे दिव्य शक्तिका प्रथम सचेतन अवतरण है । वह अबतक संभवत: हदयके पीछे रहकर कार्य कर रहीं थी और तुम इसका अनुभव नही करते थे । यदि चेतना स्वभावत: सिरमें एकाग्र होती हों तो उसे ऐसा करने दो, परन्तु पहले हृदयमें की गई एकाग्रताके कारण ही यह संभव हो सका है, इसलिये इसे बन्द करनेकी जरूरत नही जबतक तुम्हारे अन्दर कार्य करनेवाली शक्ति केवल ऊपरकी ओर एकाग्र रहनेका आग्रह न रखे । इसी प्रकार बग्भीप्सा भी जारी रखी जा सकतीं है जब तक श्रीमाँकी शक्ति द्वारा साधनाके संचालनक: स्पष्ट रूपसे अनुभव न हो और वह तुम्हारे लिये सामान्य वस्तु न बन जाय ।

 

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        न्यंक्तोषासा बर्णमाम्येनाने धापयेते शिशुमेकं समीची । ऋ ०१ - ३ ६-५

 

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         हां, यह ठीक है । प्रत्येक व्यक्तिके सप्त ।ने ये काल बारी-बारीसे आते हैं क्योंकि संपूर्ण चेतना ऊपर वर्णन किये गये अनुभवमें सदा स्थिर नही रह सकती 1 मुख्य बात यह है कि बीचके अन्तरालोंमें, कमसे कम आंतरिक सत्तामें, प्रशांति रहनी चाहिये, कोई चंचलता, असंतोष या संघर्ष नही होना चाहिये । यदि इस लक्ष्यको प्राप्त कर लिया जाय तो साधना निर्बीज आगे बढ़ सकती हैं - यह नही कि कोई कठिनाई नही आयेगी परन्तु उसमें कोई अशांति या असंतोष आदि नही होगा ।

 

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         वैष्णव भजन एक ऐसी चीज है जो प्राण सत्ताको सहज ही उत्तेजित कर देती है और यदि उस स्थानपर निम्र प्रकृतिके लोग हों, तो सब प्रकारकी अंधकारमय और निफ्ट कोटिकी शक्तियां उस उत्तेजनासे तृप्ति प्राप्त करनेके लिये या जुटती हैं ।.... आध्यात्मिक परिपूर्णता सत्ता और प्रकृतिके स्थिर विकास द्वारा अपने समय पर आयेगी ही । यह इस या उस अवसरको बलात पकड़नेपर आधारित नही होता ।

 

      एक दूसरी बात भी तुम्हें सिखनी होगी । यादें कोई साधनामें विघ्र डाले.. .तो तुम्हें बस अन्दरसे शांत रहना चाहिये और उस विघ्रको गुजर जाने देना चाहिये । यदि ऐसा करना तुम सीख जाओ, तो आगे जाकर आंतरिक अवस्था या अनुभव इस तरह जारी रहेंगे मानों कुछ हुआ ही नही । इसके विपरीत, यदि तुम इसे अनावश्यक महत्त्व दोगे और अशांत हों जाओगे तो तुम इस विघको विक्षोभमें बदल दोगे और आंतरिक स्थिति या अनुभव बन्द हो जायगा । प्रत्येक परिस्थितिमें आंतरिक अचंचलता और विश्वासको हमेशा बनाये रखो; किसी भी वस्तुसे उसे विक्षुब्ध न होने दो या अपनेको उत्तेजित न होने दो । एक अटल आंतरिक स्थिरता और अचंचल संकल्प तथा चैत्य श्रद्धा और भक्ति तुम्हारी साधनाकी एकमात्र सच्ची नीव है ।

 

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         अचंचल और सम आधारका आशय है साधनाकी एक ऐसी स्थिति जिसमें साधक अनुभवके उत्सुकतापूर्ण विस्फोट और अवसांदपूर्ण तामसिक या अर्द्धतामसिक अवस्था- के बीचमें हचकोले नहीं खाता, पर प्रगतिमें या कठिनाई में किसी भी अवस्थामें पृष्ठ भागमें एक ऐसी निश्चल चेतना विराजमान होती है जो विश्वास और श्रद्धाके साथ भगवान्की ओर उन्मुख होती है ।

 

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        समय-समयपर चेतनाके अवसादकी घटना सभीके साथ होती हैं । इसके विभिन्न कारण हैं, किसी बाह्य प्रभावका अन्दर आना, प्राणमें विशेषतया निम्न प्राणमें,

 

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किसी वस्तुका अबतक भी पूरी तरह या पर्याप्त रूपसे न बदलना, प्रकृतिके भौतिक भागोंमेंसे जड़ता या तमसका उभर आना । इस प्रभावके आनेपर निश्चल रहो, अपने- को श्रीमाँके प्रति उद्घाटित करो, सच्ची अवस्थाओंको वापस लानेके लिये पुकार करो और उस स्पष्ट और अक्षुब्ध विवेकके लिये अभीप्सा करो जो तुम्हारे अन्दर वस्तुके उस कारणको बतायेगा जिसे ठीक करनेकी आवश्यकता है ।

 

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           दो क्रियाओंके बीचमें नित्य हीं तैयारी और आत्मसात् करनेके विराम-काल आते हैं । तुम्हें साधनाके लिये अशुभ अन्तराल मानकर उन्हें खीज या व्यग्रताके साथ नही देखना चाहिये । इसके सिवाय, शक्ति अपने साथ प्रकृतिके किसी अंगको लेकर ऊच्च स्तरपर आरोहण करती है और फिर उसका निर्माण करनेके लिये निम्नस्तरपर उतरती है; आरोहण और अवरोहणकी यह गति प्रायः बहुत अधिक कष्टदायक होती है क्योंकि बिलकुल सीधा ऊपर चढ़नेका पक्षपाती मन और तेजीसे कामको पूरा करनेके लिये उत्सुक प्राण इस जटिल गतिको नही समझ सकते या उसका अनुसरण नही कर सकते एव इससे दुःखी और नाराज होनेके लिये तैयार रहते हैं । किंतु संपूर्ण प्रकृतिका रूपांतर कोई आसान बात नहीं और इसे संपादित करनेवाली शक्ति हमारी मानसिक अनभिज्ञता और प्राणिक अधीरतासे अधिक अच्छा जानती है ।

 

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         एकबार प्राप्त हुई वस्तुका अस्तित्व बना रहता हे और उसे दूसरी बार प्राप्त किया जा सकता है । योग ऐसी चीज नहीं हैं जो एक ही निर्णायक झपाटेके साथ एक या दूसरी ओर चल पड़ती है -- यह तो एक नवीन चेतनाका निर्माण है और उतार- चढ़ावोंसे भरा रहता है । परंतु यदि कोई इसमें लगा रहे तो चढावोंका स्वभाव यह है कि वे इकठ्ठे हों कर एक निर्णायक परिवर्तन मे परिणत हो जाते हैं -- इसलिये हमें यही करना चाहिये कि हम उसके साथ चिपटे रहे । गिरनेके बाद रोकर यह मत कहो, ' 'मैं खत्म हो गया, '' परन्तु उठ खड़े हो, अपनेको झाडू लो और ठीक राह पर आगे बढ़ते जाओ ।

 

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          अनुभवको पूरी तरह भूल जानेका अर्थ महज यह है कि उस आंतरिक चेतनाको जिसमें यह अनुभव एक प्रकारकी समाधिरूपमें प्राप्त हुआ है, और बाहरकी जाग्रत् चेतनाको जोतनेवाला पुल अभी ठीक तरह नही बना है । इन दोनोंके बीचमें जब उच्चतर चेतना पुल बना लेती है तव बाह्य चेतना भी अनुभवको याद रखने लगती है ।

 

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        इस प्रकारके उतार-चढ़ाव आये बिना नहीं रह सकते, और उनके आनेपर व्यक्ति- को बहुत निश्चल रहना चाहिये और उपरि सतहकी अवस्थासे अपने आपको अलिप्त रखना चाहिये एवं श्रीमाँकी शक्तिको पुकारते हुए इसके गुजर जानेकी प्रतीक्षा करनी चाहिये । इस प्रकारकी उदासीन अवस्था शुद्धि और परिवर्तनके मितव्ययमें एक विशेष प्रयोजनको सिद्ध करती है -- वह रूपांतर करने या अस्वीकार करने योग्य वस्तुओंको ऊपर लाती है, सत्ताके किसी अंगको रूपांतरित करनेवाली शक्तिके सामने खोलनेके लिये उसे ऊपर उठाती हे । यदि व्यक्ति समझ सके, निश्चल रहे और बाह्य क्रियाओंसे अनासक्त रहे, उनके साथ एक न हों जाय तो यह अधिक तेजीसे चलती है, शक्ति उभरनेवाली वस्तुकी तेजीसे सफाई कर देती है और आगे जाकर पता चलता है कि हमें किसी वस्तुकी प्राप्ति हुई है और हमने प्रगति की है ।

 

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           अभीप्साके बल और साधनाकी शक्तिमें जो यह उतार-चढ़ाव होता रहता है, यह सब साधकोंमें होता है और जबतक सारी सत्ता रूपांतरके लिये तैयार नहीं कर ली जाती तबतक इससे बचा नहीं जा सकता । जब चैत्य पुरुष सामने होता है या सक्रिय होता है और मन तथा प्राण सहमत होते हैं तब तीव्रता रहती है । जब चैत्य पुरुष कम प्रमुख होता है और निम्रतर प्राणमें उसकी सामान्य क्रियाएं चलती रहती हैं या मनमें उसकी अज्ञानपूर्ण क्रिया होती रहती है, तब यदि साधक बहुत सतर्क न हों तो विरोधी शक्तियां अन्दर घुस आ सकती हैं । तमसु साधारणतया आता है सामान्य भौतिक चेतनासे, विशेषत. जब कि प्राण साधनाको सक्यि रूपसे सहारा नहीं देता । सत्ताके सभी अंगोंमें लगातार उच्चतर आध्यात्मिक चेतनाको नीचे उतारते रहना ही इन चीजोंको दूर करनेका एकमात्र उपाय है ।

 

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          एकाग्रतामें हासका अनुभव सबको होता है - इसे इस रूपमें न लो कि यह कोई दुखपूर्ण वस्तु है अथवा यह न मानों कि उदासीका कारण यही है ।

 

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         साधनामें दिनके समय चेतनाके इस प्रकारके हेरफेर प्रायः सब साधकोंके सामने सामान्यतया आते हैं । भौतिक चेतनामें साधनाकी क्रिया होते समय दुविधा और शिथिलताका तत्व, उस उच्चतर स्थितिसे जिसका अनुभव तो हुआ है पर जो अभी पूर्णतया स्थिर नहीं हुई, सामान्य अथवा भूतकालीन निम्रतर स्थितिमें पतनका तत्त्व बहुत बलशाली और महत्त्वपूर्ण हो उठता है । क्योंकि भौतिक प्रकृतिमें एक ऐसी

 

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जड़ता है जो उच्चतर चेतनाकी स्वाभाविक तीव्रताको स्थिर रहने नहीं देती,-भौतिक प्रकृति हमेशा किसी सामान्यतर वस्तुमें फिरसे डूब जाती है, उच्चतर चेतना और उसकी शक्तिको भौतिक प्रकृतिमें निरंतर निवास करने और सामान्य बन जानेसे पहले लंबे समय तक कार्य करना होता है और बारंबार आना पड़ता है । इन परिवर्तनोंसे या इस विलम्बसे विक्षुब्ध या निरुत्साहित मत हो, चाहे ये कितने ही लम्बे और कष्टप्रद क्यों न हों; तुम अपने ऊपर अधिकार करनेके लिये आनेवाली किसी भी यथार्थ विरोधी शक्तिको अस्वीकार करते हुए आंतरिक निश्चलताके साथ सर्वदा निश्चल बने रहने और उच्चतर शक्तिके प्रति यथाशक्ति खुला रहनेके विषयमें सदा सावधान बने रहो । यदि साधनामें कोई विरोधी लहर न आये, तो शेष केवल न्यूनताओंका हठीलापन हीं रहता है. जो सबमें प्रचुरमात्रामें होता है; शक्तिको इस न्यूनता और हठीलेपन पर कार्य करके इन्हें बाहर निकाल देना होगा परन्तु निकालनेके लिये समयकी जरूरत होती

 

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         यह अनुभव बार-बार आता है, (यद्यपि मैं समझता हूँ कि यह सर्वसामान्य नहीं है) - इसमें केवल शान्ति ही नहीं, अन्य वस्तुएं भी होती है; शामके समय चेतनामें नीचे उतरनेकी प्रवृत्ति होती है । दूसरी ओर अन्य लोगोंमें इससे उल्टा भी होता है । मुझे मालूम नहीं कि यह वस्तुत: व्यक्तिके काम और लोगोंसे मिलने-जुलनेपर आधारित है या नहीं, यद्यपि इससे बहुत क्लांतिका अनुभव हो सकता है - मैंने अधिकतर यह पाया है कि दिनभरमें चेतनाके उत्थान और पतनमें एक प्रकारकी तालबद्धता होती है । शान्तिके पूरी तरहसे प्रतिष्ठित हो जानेके बाद भी विकसित हुई अन्य वस्तुओंमें भी यह ताल बद्धता हों सकती है ।

 

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          इसके (तमसमें  पतनके) दोपहर दो बजे या मध्य रात्रिमें अथवा सबेरे न होकर शामके समय होनेमें मानसिक रूपसे निश्चित और स्थिर रूपसे प्रभाव शाली कोई कारण नहीं है । कुछ लोगोंको ऐसा शामके समय होता है, कुछको सबेरे और अन्य लोगोंको किसी दूसरे समयमें और इसी प्रकार उठानेके समय भी । पर अधिकांश लोंगोंके साथ ऐसा बार-बार किसी न किसी प्रकारके तालबद्ध नियमके साथ होता है । ये समय विभिन्न लोगोंके अनुसार बदलते रहते हैं और एक ब्यक्तिमें भी भिन्न हो सकते हैं इसके किसी खास समयमें होनेके लिये कोई ऐसा कारण नहीं जिसे समझाया जा सके, सिवाय इसके कि तमस् उस समयमें आनेका आदी हो गया हो । शेष तो उन शक्तियोंके खेलका प्रश्न है जिसे हम देख तो सकते हैं किंतु जिसका कारण मनके द्वारा स्पष्ट नही कर सकते ।

 

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            (साधनामें उतार-चढावके कारण:) मुझे मालूम नहीं । चेतनाकी स्थिरता और ज्वारभाटेके अनुसार ही समय और ऋतुएं बदलते हैं । यह ऐसी वस्तु नही जिसके लिये तुम कोई बुद्धिसंगत और व्यवस्थित व्याख्या निश्चित कर सको । व्यक्ति उसका अनुभव कर सकता है और चेतनाके सार तत्वमें उसे समझ भी सकता है पर उसके यथार्थ कार्य-कारण भावको प्रतिपादित नही कर सकता ।

 

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          पहलेकी तरह मैं केवल यही कह सकता हूँ कि (शक्तिकी क्रियाके उतार-चढ़ाव- का) ऐसा ' 'कोई विशेष कारण' ' नहीं है जिसे मन निर्धारित कर सके । यह सब शक्तियों- की परिस्थिति ओर उनकी पारस्परिक क्रियापर निर्भर करता हे । व्यक्तिको बस अभीप्सा पर अटल रहना चाहिये और इन विषमताओं और उतार-चढ़ावोंसे घबडाये बिना लक्ष्यकी ओर स्थिर दृष्टिसे देखना चाहिये ।

 

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         (शक्तिकी क्रियाके उतार-चढावके विषयमें) कोई बंधे-बंधाये नियम नही है । हैं केवल प्रवृत्ति और शक्तियोंके समूह जिनके साथ व्यक्तिको परिचय प्राप्त करना होगा । यह कोई अटल मशीन नही है कि जिसे किसी न किसी युक्तिसे या इस या उस बटनको खींचकर चलाया जा सकें । केवल आंतरिक संकल्प और सतत अभीप्सा द्वारा, उदासीनता और अस्वीकृत द्वारा, सच्ची चेतना, शक्ति इत्यादिको नीचे उतार कर यह कार्य संपादित किया जा सकता है ।

 

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        चेतनाका अवपतन थकान अथवा केवल ढील छोड़नेकी आदतके द्वारा चेतनामें आई किसी जड़ताके कारण होता है अथवा प्राणकी किसी जानी या अनजानी प्रति- किया या मनकी किसी गलत क्रियाके कारणसे होता है । अवपतनके ये भावात्मक कारण हैं पर उनके पीछे तथ्य यह है कि ये हेरफेर तबतक अनिवार्यसे होते हैं जबतक चेतना किसी भी रूपमें पुरानी प्रकृतिके आधीन रहती है । तथापि साधना-विरामके अन्तराल आन्तरिक परिस्थितियोंके अनुसार (मुख्यतया संकल्प शक्ति या चैत्य अथवा उच्चतर सत्ता, इन सबके सच्चे सन्तुलनको जल्दीसे स्थापित करनेकी सामर्थ्यके अनु- सार) लम्बे या छोटे हों सकते हैं ।

 

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           अनुभवोंके रुक जानेका एकमात्र कारण विषाद ही नहीं है । इसके तमs आदि जैसे अन्य कारण भी हैं । इन कारणोंके बावजूद यदि व्यक्ति निरन्तर अनुभव प्राप्त कर सके, तो इसका अर्थ है कि चेतनाका एक हिस्सा इसके शेष हिस्सेसे निश्चित रूपसे पृथक् हों गया है और बाह्य प्रतिरोध होनेपर भी आगे बढ़ सकता है ।

 

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          हां, शांति प्रतिष्ठित हों जानेपर पतन सतहपर हीं होते हैं और आंतर चेतनाको प्रभावित नही करते ।

 

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         यदि कभी भौतिकरूपसे थकान अनुभव हो तो भी यह अनिवार्य नहीं कि वह साधनामें बाधा डाले ही । आंतरिक क्रिया हमेशा चालू रह सकती है ।

 

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          साधारणत. जब मन और प्राणकी कोई वस्तु निम्रतर शक्तियोंको स्वीकार करती है या उन्हें संतुष्ट करती है तभी सच्ची चेतनामें फिरसे प्रवेश करना इतना दुःसाध्य हो जाता है । भौतिक तमs अंधकारमय चेतनाके मध्यावधि शासनकालको लम्बा कर सकता है, पर प्रायः इतने तीव्र अवरोधके साथ नहीं, पर सामान्यतया यह नीरस और हठीला होता है ।

 

          इस प्रकारकी तीवताएं तबतक स्थिर नहीं होती जबतक चेतना रूपांतरित नही हो जाती -- आत्मसात् करनेके समयकी जरूरत होती ही है । जब सत्ता अचेतन होती है तो पाचनकी यह क्रिया परदेके पीछे या सतहके नीचे चलती रहती है और बीचके समयमें सतहकी चेतना केवल उपलब्ध वस्तुकी नीरसता और हानिको ही देखती है, पर सचेतन होनेपर व्यक्ति यह देख सकता है कि पाचन क्रिया हों रही है और यह जान लेता है कि किसी भी वस्तुकी हानि नहीं हुई और यह सब ऊपरसे अवतीर्ण हुई वस्तुका शांतिसे प्रतिष्ठित हो जाना मात्र है ।

 

         इस विशालता, अभिभूत करनेवाली स्थिरता और निश्चल-नीरवताको, जिसमे तुम अपने-आपको डूबा हुआ अनुभव करते हों, आत्मा या नीरव ब्रह्म कहते हैं । आत्मा या नीरव ब्रह्मके इस अनुभवको उपलब्ध करना और इसमे निवास करना बहुतसी योग पद्धतियोंका पूर्ण लक्ष्य है । हमारे योगमें भगवान्के साक्षात्कारकी और उच्चतर

 

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या दिव्य चेतनामें हमारी सत्ताके उन्नत होनेकी - जिसे हम रूपांतर कहते हैं - यह पहली मंजिल है ।

 

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         एक विशेष स्थितिको प्राप्त करनेके बाद उपलब्ध वस्तुएं कभी नष्ट नहीं होती - यह हो सकता है कि वे ढक जायें पर वे वापिस आती हैं -- वे केवल अन्दर चली जाती हैं और फिर सतह पर लौट आती हैं ।

 

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          जब भौतिक चेतनाका प्राबल्य होता है तो अनुभूतियोंके विद्यमान होनेपर भी व्यक्ति उनके चिह्न या प्रभावका अनुभव नहीं करता ।

 

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         यदि अनुभव बारंबार न आये तो तुम भौतिक चेतना जैसी अ और भूलनेवाथी वस्तुपर प्रभाव पड़नेकी आशा कैसे कर सकते हो? यह ठीक वैसी ही बात है कि जब तुम पाठ सीखते हों, तो तुम्हें उसे तबतक दुहराना होता है जबतक भौतिकमन उसे पकड़ नहीं लेता -- अन्यथा वह चेतनाका अंग नही बनता ।

 

 VI

 

       कल अपने पत्रमें तुमने जिस शून्यताके विषयमें लिखा था वह कोई खराब वस्तु नही थी - योगमें यह आंतर और बाहर शून्यता ही प्राय. नई चेतनाकी ओर बढ़नेका पहला कदम बन जाती है । मनुष्यकी प्रकृति गदले पानीसे भरे प्याले जैसी है -- पानीको बाहर फेंक देना होगा; प्यालेको सोमरससे भरनेके लिये स्वच्छ और खाली करना होगा । मुश्किल यह है कि मानवकी स्थूल चेतनाको इस रिक्तताको सहन करना कठिन लगता है । वह सब तरहकी उन छोटी-छोटी मानसिक और प्राणिक क्रिया- ओमें लगे रहनेकी आदी होती है जो उसकी खुशी और दिलचस्पीको बनाये रखती है अथवा दुःख-कष्ट आनेपर भी उसे सक्रिय रखती है । इनकी समाप्ति उसके लिये असह्य हों जाती है । वह उदासी और बेचैनी अनुभव करने लगती है और पुरानी अभिरुचियों और क्रियाओंके लिये आतुर हो उठती है पर यह बेचैनी अचंचलताको विक्षुब्ध कर देती है और बाहर फोकी गई वस्तुओंको फिर लौटा लाती है । यही चीज इस समय कठिनाई और अवरोधकों पैदा करती है । तुम यदि इस शून्यताको सच्ची चेतना और सच्ची क्रियाओंकी ओर जानेका मार्ग मान सको तो बाधाओंसे छुटकारा

 

४१२


पाना अधिक आसान हो जायेगा ।

 

आश्रमके सभी नहीं, किन्तु बहुतसे साधक उदासी और अरुचिकी इस भावनासे ग्रस्त हैं, क्योंकि जो शक्ति अवतरित हों रही है वह भौतिक और प्राणिक मनकी उन क्रियाओंको अनुत्साहित कर रही है जिन्हें लोग जीवन कहते हैं और वे लोग इनके त्याग- को अंगीकार करनेके अथवा शांति या निश्चलताके आनन्दको लानेके अभ्यस्त नहीं है ।

 

*

 

            शून्यता अपने-आपमें कोई बुरी स्थिति नही है यह बुरी केवल तभी होती है जब यह असंतुष्ट प्राणकी उदासी और बेचैनीसे भरी शून्यता होती है । साधनामें शून्यता बहुधा एक स्थितिसे दूसरी स्थितिमें एक आवश्यक संक्रमणके रूपमें आती है । जब मन और प्राण निश्चल हों जाते हैं एवं उनकी चंचल क्रियाएं, विचार और कामनाएं समाप्त हों जाती हैं तब व्यक्ति अपनेको रिक्त अनुभव करता है । सबसे पहले यह प्रायः एक उदासीन रिक्तता होती है जिसमें कुछ नहीं होता, कोई अच्छी या बुरी वस्तु, सुख- मय या दुःखमय स्थिति, कोई प्रवृत्ति या क्रिया नही होती । इस उदासीन अवस्थाके बाद प्रायः या साधारणतया भी आन्तरिक अनुभवके प्रति उद्घाटन होता है । एक शून्यता ऐसी भी होती हे जो शांति और नीरवताकी बनी होती है, ऐसा तब होता है जब शांति और निश्चलता अंतस्थ चैत्यसे आती है अथवा ऊपर स्थित उच्चतर चेतनामेंसे अवतरित होती है । यह उदासीन अवस्था नही है क्योंकि इसमें शांतिका और प्राय. विशालता और मुक्तिका भी बोध होता है । एक प्रसन्नतायुक्त शून्यता भी होती है जिसमें समीप आती हुई किसी ऐसी वस्तुका बोध होता है जो अबतक वहां नहीं थी, उदाहरणके लिये श्रीमाँकी समीपता अथवा कोई अन्य तैयार होता हुआ अनुभव । तुमने जिस अनुभवका वर्णन किया है वह उदासीन अचंचलता है । चिन्ता करनेकी कोई आवश्यकता नही । ऐसा होनेपर व्यक्तिको केवल निश्चल रहना चाहिये और श्रीमाँके प्रति तबतक उद्घाटित और उन्मुख रहना चाहिये जबतक अन्दरसे कोई वस्तु विकसित न हो जाय ।

 

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          एक शून्य पात्र बनना बड़ी अच्छी बात है यदि कोई शून्यता उपयोग करना जाने तो ।

 

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 यदि यह महज शून्यता हों तो इसमें कुछ खराबी नहीं । शून्यता और पूर्णताका बारी बारीसे आना साधनामें अनुभवका एक बिलकुल सामान्य लक्षण हैं ।

 

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          खालीपन (यदि इससे तुम्हारा मतलब विचारों, क्रियाओं इत्यादिकी निश्चलता और शून्यतासे हों तो वह) एक ऐसी आधारभूत अवस्था है जिसमें उच्चतर चेतना प्रवाहित हों सकती है ।

 

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         खालीपनकी स्थिति पूर्ण ग्रहणशीलताके लिये सर्वोत्तम स्थिति है ।

 

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       खालीपन मन, प्राण या उससे ऊपरके किसी भी स्थानसे आ सकता है ।

 

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         रिक्तता साधारणतया चेतना या उसके किसी अंशकी सफाईके रूपमे आती है । चेतना या उसका कोई अंश एक खाली पात्र जैसा हों जाता है जिससे उसमें कोई नई वस्तु डाली जा सकें । सबसे ऊंची रिक्तता है आत्माको विशुद्ध सत्ता जिसमें सब आविर्भाव संपन्न हो सकते हैं ।

 

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           इस प्रकारकी शून्यता उच्चतर चेतनाका स्वभाव नही है, यद्यपि मानव प्राणको यह प्रायः इस रूपमें उस समय दिखती है जब किसीको आत्माका शुद्ध साक्षात्कार होता हे, क्योंकि इसमें सब कुछ अचल होता १, और प्राणको सब निष्क्रिय वस्तुएं खाली लगती हैं । किंतु मन, प्राण या शरीरमें आनेवाली शून्यता एक विशिष्ट वस्तु है जो ऊपरसे आनेवाली वस्तुओंके लिये स्थान खाली करनेके प्रयोजनसे आती है ।

 

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         मानसिक या प्राणिक शून्यता आध्यात्मिक हो सकती है, भले ही वह उच्चतर चेतनाका मूल लक्षण न हों । यदि वह मूल लक्षण होती तो उच्चतर चेतनामें शक्ति, प्रकाश या आनन्द हो ही न सकता । उच्चतर शक्ति उच्चतर चेतनाको अन्दर लानेके लिये सारे आधारपर एक विशेष क्रिया करती है, शून्यता उस क्रियाका एक परिणाम- मात्र है यह आध्यात्मिकतासे रहित पूर्ण तमस्की शुष्क और जड़ शून्यतासे विपरीत एक आध्यात्मिक शून्यता है ।

 

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४१४


          शून्यता मनकी या प्राणकी अथवा उस संपूर्ण चेतनाकी निश्चल स्थिति है जो मन या प्राणकी क्रियाओंके संसर्गमें नहीं आई पर विशुद्ध सत्की ओर उद्घाटित है और ' 'वही सत्' ' बन जानेके लिये तैयार है अथवा उसकी ओर उन्मुख है या वह बन ही चुकी है परन्तु अभी अपनी सत्ताकी पूर्ण शक्तिके साथ चरितार्थ नहीं हुई है । इनमें यह कौनसी स्थिति हे यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है । कभी कभी आत्मिक स्थिति या विशुद्ध सत्की स्थिति भी शून्यता कहलाती है, किन्तु केवल इसी अर्थमें कि वह पुरुषकी एकमात्र अचल विश्रामकी ऐसी स्थिति है जिसका चल (क्षर) प्रकृतिके साथ किसी प्रकारका संपर्क नही है ।

 

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         '' अभाव' ' जैसी कोई वस्तु नही है । ' 'शून्य' ' का आशय है ऐसी रिक्तता जिसमें विशुद्धि और निरी सत्ताके सिवाय अन्य कोई भी वस्तु नही है । उसके बिना कोई नीरव ब्रह्मका साक्षात्कार नही कर सकता ।

 

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       खालीपन मुक्त, व्यापक और निश्चल-नीरव आत्माकी स्थिति है । मनको यह खाली प्रतीत होती है परन्तु वस्तुत: वह केवल विशुद्ध सत्-चित्की, शांतिमय सत्-चित्- की स्थिति है ।

 

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         खालीपन अनेक प्रकारका हो सकता है -- एक विशेष प्रकारका आध्यात्मिक खालीपन अथवा ऐसी रिक्तता जो नये अनुभवकी तैयारीरूप होती है । किन्तु प्राणिक ऊर्जाका समाप्त हों जाना बिलकुल अलग वस्तु है । ऐसा थकावटसे, प्राण शक्तिको खीचनेवाले किसी व्यक्ति या वस्तुके कारण या तमस्के आक्रमणसे हों सकता हैं । पर मुझे समझ नही आता कि इसे अंग्रेजी भाषाके अध्ययनके साथ क्यों जोड़ना चाहिये और अध्ययनके समय ही होनेवाला क्यों मानना चाहिये ।

 

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        शून्यताका सामान्य परिणाम है किसी प्राणिक विक्षोभको शांत करना यद्यपि वह मनकी बारबार होनेवाली तान्त्रिक क्रियाको तबतक नही रोकती जबतक स्वयं पूर्ण नही हों जाती ।

 

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        यदि शून्यता यथार्थ हो तो व्यक्ति उसमें वर्षोंतक एक साथ विश्राम कर सकता है, - क्योंकि प्राण चंचल और कामनाओंसे परिपूर्ण होता है (खाली नहीं) इसलिये शून्यता स्थिर नहीं रहती । भौतिक मन भी सर्वथा शांत नही होता । यदि कामनाओं- को बाहर फेंक दिया जाय और अहं कम सक्रिय हों जाय तथा भौतिक मन स्थिर हो जाय तो ज्ञान भौतिक मनकी मूर्खताओंमेंसे आनेके स्थानपर ऊपरसे आयेगा, प्राणिक- मन स्थिर और शांत हो सकता है और श्रीमांकि शक्ति कामको अपने हाथमें ले सकती है तथा उच्चतर चेतना नीचे आना शुरू हों सकती; है । यही है शून्यताका समुचित परिणाम ।

 

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        यह संभव नही कि मैनई यह लिखा हो ' 'केवल. तुम ही निश्चल-नीरवताको शून्यताके रूपमे अनुभव करते हों' ' र क्योंकि ऐसे बहुतसे व्यक्ति हैं जो प्रारंभमें इसका इस रूपमें अनुभव करते हैं । मनुष्यको इसका अनुभव शून्यरूपमे इसलिये होता है कि वह जीवनको विचार, वेदन और क्रियाके साथ अथवा रूपों और पदार्थोंके साथ जोड़ने- का आदी होता है, और उसमें इनमेंसे कोई वस्तु नहीं होती । किन्तु यह वस्तुत: शून्य नहीं होता ।

 

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          तुमने शक्तिके अवतरणके - कभी इसके द्वारा सब अंगोंके परिपूर्ण होनेके भी -- विषयमें लिखा है, तो फिर यह ' 'कभी नही' ' क्यों? मेरा आशय यह बिलकुल नही था कि एक ऐसी तान्त्रिक प्रक्रिया होती है जिसके द्वारा प्रत्येक बार जब भी शून्यता आती है तो उसके साथ रिक्त स्थान भी पूरी तरहसे भर जाता है । यह साधनाकी स्थिति पर आधार रखता है । अवतरण होनेसे पहले शून्यता बारंबार आ सकती है या देरतक ठहर सकती है - उसे पूर्ण करनेवाली वस्तु निश्चल-नीरवता और शांति और शक्ति या ज्ञान हो सकते हैं और वे केवल मनको अथवा मन और हृदयको या मन, हृदय एवं प्राणको अथवा सबको पूर्ण कर सकते हैं । किन्तु इन दो प्रक्रियाओंको विषयके कोई वस्तु स्थिर और यंत्रवत् नियमित नहीं है ।

 

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          योगका सर्वप्रथम स्वाभाविक लक्ष्य है सत्ताकी निश्चल-नीरवता । 'क्ष' और कुछ अन्य लोग इससे संतुष्ट नहीं हो पाते क्योंकि उन्होंने उस प्राणिक मनपर विजय प्राप्त नही की जो चाहता है सदा ही किसी प्रकारकी प्रवृति, परिवर्त्तन, कुछ करना, किसी घटनाका होना । वह नीरव ब्रह्मकी अनादि अचलताका आस्वाद नही ले सकता ।

 

४१६


इसलिये जब शून्यता आती है तो वह उसे शुष्क, जड़ और एकरस लगती है ।

 

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        निश्चय ही, शून्य अवस्थामें प्राणकी अभिरुचि नही हो सकती । यदि तुम अपने प्राणपर आधार रखो तो इस अवस्थाको देरतक नही टिका सकते । मानसिक और अन्य प्रवृत्तियोंमें शून्य इस नीरवतामें आत्मा ही मुक्तिका अनुभव करता है, क्योंकि इस नीरवतामें ही उसे आत्म-ज्ञान होता है । ' 'शून्यताकी यथार्थता' ' के लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति पुरुष या साक्षी-चेतनामें प्रवेश कर चुका हो । तुम यदि उसे मन या प्राणसे देख रहे हो तो वह शून्यता है ही नहीं, क्योंकि कोई प्रकट बिचार न होनेपर भी उसमें मानसिक वृत्ति या मानसिक स्पन्दन होते ही हैं - उदाहरणार्थ अरुचिका अनुभव ।

 

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         इसका कोई कारण नहीं कि खालीपन एक नीरस या असुखकर अवस्था हो ही । साधारणतया यह मन और प्राणकी आदत है कि वे सुख या अभिरुचिको प्रवृत्तिके साथ जोड़ देते हैं, पर आध्यात्मिक चेतनामें ऐसी सीमाएं नहीं होतीं ।

 

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        मैं वस्तुत: नहीं समझा कि तुम किस प्रकारका हर्ष चाहते हो । सभी अनुभवोंके साथ हर्ष नहीं रहता । रुचिकी बात दूसरी है ।

 

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        स्थूलसत्ताकी यह प्रवृत्ति है कि वह शून्यताके स्थानपर अपनी जडताको ला बिठाती है । सच्ची शून्यता है अनादि आत्माकी विश्रांति, स्थिरता, शांति जिसे मैनई आर्यमें 'शम' कहा है जो अन्तमें तमs, भौतिक जड़ताका स्थान ग्रहण करता है । जैसे तपs अर्थात् दिव्य शक्ति विकृत होकर रजs बन जाती है उसी प्रकार शम ?? होकर तमसु बन जाता है । जैसे प्राण नित्य ही दिव्य शक्तिकी सच्ची क्रियाके स्थानपर अपने रजोगुणको लानेकी चेष्टा करता रहता है ठीक उसी प्रकार भौतिक चेतना सदैव सच्ची चेतनाकी स्थिरता, शांति अथवा विश्रांतिके स्थानपर अपनी जड़ताको स्थापित करनेका यत्न करती रहती है ।

 

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४१७


          स्थूलसत्ता रिक्ततासे कभी ऊबती नही । जड़ताकी ओर स्वयं अपने झुकावके कारण वह अपनेको तामसिक तो अनुभव कर सकती है, पर साधारणतया उसे श्न्यताके प्रति कोई आपत्ति नहीं होती । निश्चय ही यह प्राणमय स्थूलसत्ता हो सकतीं है । तुम्हें बस इसका पुरानी क्रियाओंके अवशेष के रूपमें त्याग करना होगा ।

 

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        साधनाके मार्गमें ऐसी रिक्तताकी, ' 'उदासीन अचंचलता' ' की स्थिति प्राय. आती है -- विशेषत. जब साधना भौतिक चेतनामें हों रही होती है । यह नही कि अभीप्सा समाप्त हो जाती है पर कुछ समयके लिये वह प्रत्यक्ष नही होती, क्योंकि सब कुछ उदासीन होकर निश्चल हों जाता है । यह अवस्था मानवमन और प्राणके लिये कष्टदायक होती है क्योंकि वे सदा ही किसी प्रवृत्तिमें लगे रहनेके आदी होते हैं और इसे एक निर्जीव स्थिति मान लेते हैं । किंतु इससे किसीको विक्षुब्ध या निराश नहीं होना चाहिये परन्तु उसे इस विश्वासके साथ स्थिर रहना चाहिये कि यह केवल एक ऐसी मंजिल है, ऐसा रास्ता है जिसे साधनामें पार करना होता है । चाहे जो भी स्थिति आये, हमें मनके सामने श्रद्धा और समर्पणका दृढ विचार बनाये रखना चाहिये । जहां तक चंचलताकी अल्पकालीन क्रियाओंका प्रश्न है, इस विचारकों बनाये रखनेपर वे शांत हों जायेगी और शांत मन तथा प्राण शीघ्र ही फिरसे अपने अधिकारपर दृढ हो जायेंगे ।

 

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        रिक्तता साक्षात्कारकी प्राप्तिके लिये एक अवस्था मात्र है । उसके लिये यदि अभी अभीप्साकी जरूरत हों तो उसका प्रयोग करना चाहिये; यदि साक्षात्कार स्वयं आये, तो अभीप्साकी आवश्यकता नही ।

 

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        जिस ' 'स्थिति' ' की बात मैं कह रहा था वह रिक्तता नही थी पर कोई अन्य वस्तु थी -- तुम्हारे पत्रमें लिखे उद्धरणके सदर्भसे मैं समझ गया कि यह एक ऐसी ' 'स्थिति है जिसमे अभीप्साकी जरूरत नही । '' यह स्थिति शून्यता नही है परन्तु एक ऐसी स्थिति है जिसमे श्रीमाँकी शक्ति चेतनाके सामने उपस्थित है और सब कुछ कर रही

 

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४१८


         सब प्रकारके साक्षात्कार -- असीम आत्मा, वैश्व-चेतना, श्रीमाँकी उपस्थिति, प्रकाश, शक्ति, आनन्द, ज्ञान, सच्चिदानन्दका साक्षात्कार, अतिमानसतक चेतनाके विभिन्न स्तर - उस निश्चल-नीरवतामें प्राप्त हो सकते हैं जो लगातार बनी रहती है पर शून्य नही होती ।

 

* 

 

         शून्यताके हट जानेके बाद भी नीरवता स्थिर रह सकती है । सब तरहकी चीजों- के अन्दर आनेपर भी नीरवता बनी रह सकती है, यदि तुम शक्ति, प्रकाश, आनन्द, ज्ञान, इत्यादिसे परिपूर्ण हो जाओ तो फिर अपनेको शून्य नही कह सकते ।

 

* 

 

          यदि यह आध्यात्मिक शून्यता है तो तुम इसे साधनामें बाधक नही अनुभव करोगे ।

 

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        तुम जिस अवस्थाका वर्णन करते हो वह तुम्हारी वही उदासीन अवस्था है जो पहले भी आई थी । यह संक्रमणकी एक ऐसी स्थिति है जिसमें पुरानी चेतनाकी सक्रियता बन्द हो गई है, नई चेतना उदासीन अचंचलताके पीछे तैयार हों रही है । हमें इसे शांतिसे ग्रहण करना चाहिये और तबतक प्रतीक्षा करनी चाहिये जबतक वह उस आध्यात्मिक शांति और चैत्य-प्रसन्नतामें न बदल जाय जो प्राणिक हर्ष और शोक- से बिलकुल भिन्न होती है । न तो प्राणिक हर्ष हो और न प्राणिक शोक -- यह एक ऐसी मुक्त अवस्था है जिसे योगीजन अति स्पृहणीय मानते है,--इसके द्वारा हमारे लिये सामान्य मानव प्राणके भावोंसे सच्ची बार सतत आंतरिक शांति, हर्ष या सुखकी ओर जाना संभव हों जाता हैं । मैं समझता हूँ कि इस समय तुम्हारे पास ध्यानमें बैठनेके लिये समय नही हे । यह निद्राका दबाव तुम्हें अंतर्मुखी होनेको प्रेरित करता है और ध्यान करनेका अभ्यास आनेवाली निद्राको एक प्रकारकी ऐसी निद्रा-समाधिमें बदल सकता है जिसमें मनुष्य अनेक प्रकारके अनुभवों और आंतरिक सत्ताकी प्रगतियोंके विषयमें सचेतन होता है ।

 

*

 

           तुम जिस स्थितिका अनुभव करते हों वह साधनाकी एक सुपरिचित अवस्था है । यह एक प्रकारके मध्यवर्ती मार्ग या संक्रमणकी अवस्था है, एक अन्तर्मुखी स्थिति है जो विकसित हो रही है किन्तु अभी पूरी नही हुई है - ऐसे समय बोलना या अपनी शक्ति-

 

४१९


को बाहर फेंकना कष्टदायक होता है । आवश्यकता इस बातकी है कि व्यक्ति सारे समय अचंचल और अन्तर्मुखी रहे जबतक कि यह क्रिया पूर्ण न हों जाय,-व्यक्तिको उस समय बोलना नहीं चाहिये या केवल थोड़ा या शांत स्वरसे ही बोलना चाहिये, न ही मनको बाह्य वस्तुओंमें लगाना चाहिये । लोग क्या कहते हैं या क्या पूछते हैं इसकी भी परवाह नही करनी चाहिये, यद्यपि वे लोग साधना कर रहे हैं, तो भी वे इन अवस्थाओंके संबंध- मे कुछ नहीं जानते और यदि कोई व्यक्ति शांत हों जाए या अपनेको पीछे हटा ले तो वे सोचते हैं कि वह अवश्य उदास या बीमार है । माताजीको यह जरा भी नहीं लगा कि तुम उस प्रकार उदास या बीमार हों, यह केवल साधनाका एक पहलू या साधनाकी एक अस्थायी अवस्था हे जिसका उन्हें अनुभव है और जिसे वे खूब अच्छी तरह जानती

 

        यह अवस्था प्रायः कई दिनोंतक और कभी कभी तो बहुत दिनोंतक रहती है जबतक कोई निश्चित वस्तु प्रारंभ नहीं हो सकती । भरोसा रखो और शांत बने रहो ।

 

VII

 

       योगियोंने जो सामान्य नियम बताया है वह यह है कि मनुष्यको साधनाकालमें अपने अनुभवोंके संबंधमें, निस्सन्देह गुरुके सिवाय, अन्य लोगोंको नहीं कहना चाहिये, क्योंकि यह कथन अनुभवको व्यर्थ कर देता है, वे कहते हैं कि इससे तपस्याका क्षय होता है । वे केवल बहुत पुराने अनुभवोंकी ही चर्चा करते हैं और उनकी भी बहुत खुलकर नही ।

 

*

 

        जो प्रकाश तुम्हें मिला था उसके तिरोहित होनेका कारण यह है कि तुमने अपने इस अनुभवकी चर्चा किसी ऐसे ब्यक्तिसे कर दी जो इसका अधिकारी नहीं था । सबसे अधिक सुर्राक्षेत तो यह है कि गुरुको या जो तुम्हारी सहायता करनेमें समर्थ हो उसे छोड़कर और किसीसे इन अनुभवोंकी चर्चा न की जाय । ऐसा प्रायः होता है कि दूसरों- को बतानेके साथ ही अनुभवकी समाप्ति हों जाती है और इस कारण कई योगी यह नियम बना लेते हैं कि उनके भीतर जो कुछ हों रहा है वे उसकी चर्चा कभी किसीसे नही करते, जब तक कि वह भूतकालकी ही चीज न बन जाय, या ऐसी दृढ उपलब्धि न हो जाय, जो किसी तरह अपहृत न हो सकें । सुप्रतिष्ठित स्थायी उपलब्धि बराबर टिकती है, परन्तु ये तो उस श्रेणीके अनुभव थे जिनके आनेका प्रयोजन चेतनाको किसी पूर्णतर अनुभवके प्रति खोलना, उसे उपलब्धिके लिये तैयार करना होता है ।

 

*

 

४२०


         मैं समझता था यह तो तुम समझते ही होंगे कि लोगोंके विषयमें मैनई तुम्हें जो कुछ लिखा था वह गोपनीय है । यदि किसी व्यक्तिको अपने या अन्य किसीके अनुभव मालूम हों तो उसे उन अनुभवोंको बातचीत या गपशप का विषय नही बनाना चाहिये । यदि इससे अन्य लोगोंको आध्यात्मिक लाभ हों सकता हो और वह भी यदि अनुभव भूतकालके हो गायें हों तभी व्यक्ति उनकी चर्चा कर सकता है अन्यथा वह चर्चा एबीसीनिया या स्पेनकी खबरोंकी तरह जनसाधारणके प्राणिक मनके लिये चाबने या जुगाली करने जैसी सामान्य और तुच्छ वस्तु बन जाती है ।

 

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          यदि तुम हर्षको सुरक्षित रखना चाहते हों तो अन्य लोगोंसे इसकी चर्चा न करना ही बुद्धिमत्ता होगी । बाहर चर्चा करनेपर बातोंको पंख लग जाते हैं और वे निकल भागनेकी चेष्टा करती है ।

 

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         तुम्हारे अनुभवोंके विषयमें क्या लिखा गया है यह बताना या अपने अनुभवोंको अन्य लोंगोंसे कहते फिरना हमेशा खतरेसे भरा होता है । उन्हें अपने तक ही सीमित रखना अधिक अच्छा है ।

 

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         सामान्यज्ञानकी बात दूसरी हैं, इसका सम्बन्ध बुद्धिसे है और बुद्धिको शिक्षणकी बौद्धिक प्रवृत्तिसे लाभ ही होता है । अपीच यदि योगमें विषयसंबधो अपने मानसिक ज्ञानको बौद्धिक रूपसे प्रदान करनेकी ही बात होती तो शायद यह नियम लागू हो सकता, परन्तु, यह मानसिक पक्ष योगका एक छोटासा अंशमात्र है । योगमें एक अधिक जटिल वस्तु भी है जो इसका अधिक बड़ा हिस्सा है । दूसरोंको योग सिखाते समय व्यक्ति कुछ हदतक ऐसा गुरु बन जाता है जिसके अनेक शिष्य हों । योगी सदा यह कहते आये हैं कि शिष्यको ग्रहण करनेपर मनुष्य अपनी कठिनाइयोंके साथ-साथ शिष्योंके कठिनाइयोंको भी अपने ऊपर ले लेता है - इसीलिये यह सलाह दी जाती हे कि जब- तक मनुष्य सिद्ध न हों जाय, उसमें भी जबतक उसे ऐसा करनेका ईश्वर-प्रदत्त अधिकार, जिसे रामकृष्ण चपडास पाना कहते थे - न मिल जाय तबतक उसे शिष्योंको स्वीकार नहीं करना चाहिये । दूसरे अहंकारका भी एक खतरा है - जब कोई इससे मुक्त हों तब यह आपत्ति उसके साथ लागू नही होती । इसके अलावा और प्रश्न भी है और बह है अपने अनुभवोंके विषयमें दूसरोंसे चर्चा करना । इसके अबैधमें भी योगियोंने अत्यधिक निरुत्साहित किया है - वे कहते हैं कि यह साधनाके लिये हानिकारक

 

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है । मैनई निश्चय हीं ऐसे अनगिनत उदाहरण देखे और सुने हैं जिनमें लोगोंको अनुभव धाराप्रवाह प्राप्त हो रहे थे, और जब उन्होने उसकी चर्चा की तो वह प्रवाह बन्द हो गया - तो इस आपत्तिमें कोई न कोई बात अवश्य होनी चाहिये । परन्तु मैं समझता हूँ कि जब मनुष्यको अनुभवमें एक प्रकारकी चिरप्रतिष्ठित ? प्राप्त हो जाती हे, अर्थात् जब अनुभव एक निश्चित और स्थिर उपलब्धि तक पहुँच जाता है अथवा चेतना- के साथ कोई वस्तु अंतिम और अटल रूपसे संयुक्त हो जाती १ तो यह नियम नही लागू होता । मैंने यह देखा है कि जो लोग अपने अनुभवोंको अपनेतक ही सीमित रखते हैं और अपनेको दूसरोंके सामने खोल नही देते उनकी साधना अन्य लोगोंकी अपेक्षा अधिक स्थिरतासे आगे बढ्ती दिखाई देती है, परंतु मुझे यह नही मालूम कि यह कोई अपवाद रहित नियम है या नही । संभवत. साक्षात्कारकी एक विशेष स्थितिके बाद यह नियम और लागू नहीं होता ।

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