श्रीअरविन्द के पत्र

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Sri Aurobindo

Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Letters On Yoga - Parts 2,3 Vol. 23 1776 pages 1970 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द के पत्र 578 pages 1972 Edition
Hindi Translation
Translator:   Chapsip Tripathi  PDF    LINK

विभाग छ:

 

ध्यानके द्वारा साधना


ध्यानके द्वारा साधना

 

      तुम्हारे प्रश्न. एक बहुत विशाल क्षेत्रको पूराका पूरा समाविष्ट कर लेते हैं । अतएव यह आवश्यक हे कि कुछ संक्षेपमें, किन्हीं प्रधान बातोंका स्पर्शमात्र करते हुए उनका उत्तर दिया जाय ।

 

           1 ध्यानका ठीक-ठीक अर्थ क्या है?

 

भारतीय शब्द 'ध्यान की भावनाको अभिव्यक्त करनेके लिये अंगरेजीमें दो शब्दोंका व्यवहार किया जाता है मेडिटेशंन (Meditation) और कण्टेफ्लेशन ( इ(Contemplation) । जब मनुष्य अपने- मनको किसी एक ही विषयको स्पष्ट करनेवाली किसी एक ही विचार-धारापर एकाग्र करता हैं तो उसे ही वास्तवमें 'मेडिटेशंन' कहते हैं । परंतु जब मनुष्य किसी हा_क ही विषय, मूर्त्ति, भावना आदिपर मनकी दृष्टि लगा देता है जिससे एकाग्रताकी शक्तिकी सहायतासे उसके मनमें स्वभावत: ही उस विषय, मूर्त्ति या भावनाका ज्ञान उदित हों जाता है तो वही कहलाता है 'कट्टे- म्प्लेशन' । ये दोनों ही चीज़ें ध्यानके दो रूप हैं, क्योंकि ध्यानका मूल स्वरूप हीं है मानसिक एकाग्रता, फिर वह एकाग्रता चाहे विचारपर की जाय या किसी दृश्यपर या ज्ञानपर. ।

 

    इनके अलावा ध्यानके अन्य रूप भी हैं । अपने एक लेखमें विवेकानन्दने यह सलाह दी है कि अपने विचारोंसे पीछे खड़े हो जाओ, उन्हें अपने मनमें, जैसे वे आवें, आने दो और महज उनका निरीक्षण करो तथा देखो कि वे क्या हैं । इस क्रियाको आत्म- निरीक्षणात्मक एएकाग्रता कह सकते हैं ।

 

     यह क्रिया एक दूसरी क्रियाकी ओर ले जाती है, हम अपने सभी विचारोंको अपने मनसे बाहर निकाल देते हैं और इस तरह उसे एक प्रकारसे शुद्ध, सजग और खाली बनाकर छोड़ देते हैं जिसमें कि उसपर दिव्य ज्ञान प्रकट हों और अपनी छाप डाल दे 1 साधारण मानव-मनके निम्नतर विचार उसे क्षुब्ध न करें और उसकी छाप वैसी ही स्पष्ट हों जैसी कि काले तख्तेपर सफेद खरिया मिट्टीकी लिखावट होती है । तुम देखोगे कि गीता इस प्रकार सभी मानसिक विचारोंके त्यागको योगकी एक पद्धति कहती है और इसी पद्धतिको पसंद करती हुई प्रतीत होती है । इसे हम मुक्तिदायक ध्यान कह सकते हैं, क्योंकि इस ध्यानसे चिंतनकी यांत्रिक क्रियाकी दासतासे मन मुक्त हो जाता है । मनको यह छूट मिल जाती है कि वह चाहे सोचे या न सोचे, यदि चाहे और जब चाहे तो ही सोचे, अथवा अपने विचारोंका चुनाव कर सके अथवा चिंतनके परे जाकर सत्यका शुद्ध दर्शन प्राप्त करे जिसे हमारे दर्शनमे 'विज्ञान' कहा गया है ।

 

    इन सब ध्यानोंमेंसे पहला (मेडिटेशन) मानव-मनके लिये सबसे अधिक सुगम तरीका है, पर अपने परिणामोंमें यह अत्यन्त परिमित है । दूसरे प्रकारका ध्यान

 

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( कण्टेफ्लेशन) अधिक कठिन है, पर पहलेसे अधिक शक्तिशाली हे । आत्मनिरीक्षण- की पद्धति तथा विचार-शृंखलासे मुक्ति - ये दोनों सबसे अधिक कठिन हैं, परंतु अपने परिणामकी दृष्टिसे सबसे अधिक विशाल और महान् हैं । मनुष्य अपनी रुझान और सामर्थ्यके अनुसार इनमेंसे किसी एक पद्धतिको चून सकता है । पूर्ण पद्धति है इन सबका उपयोग करना, प्रत्येकको उसके निजी स्थानमें और उसके निजी उद्देश्यसे व्यव- हत करना । परंतु इसके लिये आवश्यकता है सुदृढ़ विश्वास और अटूट धैर्यकी तथा योगमें अपने-आपको नियुक्त करनेके संकल्पकी महान् शक्तिकी ।

 

    2. ध्यानके लिये कौनसा बिषय या कौनसे विचार होने चाहियें?

 

     जो कुछ तुम्हारे स्वभाव और उच्चतम अभीप्साके साथ सबसे अधिक मेल खाता हों वही ध्यानका विषय है । परंतु तुम यदि मुझसे कोई निरपेक्ष उत्तर पूछो तो मैं यही कहूँगा कि ध्यानके लिये सबसे उत्तम विषय सदा ही ब्रह्म हे और जिस भावनापर मनको जमाना चाहिये यह भावना यह है कि भगवान् सबमें हैं, सब भगबानमें हैं और सब कुछ भगवान् ही है । मूलत: इस बातसे कुछ भी नहीं आता-जाता कि वह भगवान् निराकार है या साकार, अथवा प्रत्येकृदृष्टिसे, एकमेवाद्वितीय ब्रह्म है । परंतु जिसे मैंने सर्वोत्तम भावना पाया है वह है - सर्व खल्विदं ब्रह्म -- यह सब कुछ ब्रह्म ही है, क्योंकि यह उच्चतम भावना है और इसमें अन्य सभी सत्य निहित हैं, चाहे वे सत्य इस जगतके हों या अन्य जगतोंके अथवा समस्त इंद्रियग्राह्य सत्ताके परेके ।

 

        'आर्य' पत्रिकाके तीसरे अंकमें, ईशोपनिषद्की ब्याख्याकी दूसरी किश्तके अंत- मे, 'सर्व' विषयक इस दर्शनका विवरण तुम्हें मिलेगा और उससे तुम्हें इस विचारकों समझनेमें सहायता मिल सकती है । '

 

        3. आंतरिक और बाह्य अवस्थाएं जो ध्यानके लिये अत्यत आवश्यक हैं । वास्तवमें कोई भी अनिवार्य बाहरी अवस्थाएं नही हैं, पर ध्यानके समय एकांत और निर्जन स्थानमें रहना तथा शरीरका शातस्थिर रहना सहायक होता है, कभी- कभी नये साधकके लिये प्रायः आवश्यक होता है । परन्तु साधकको बाहरी अवस्था- ओंसे बंधा हुआ नही रहना चाहिये । एक बार जब ध्यान करनेकी आदत पंडू जाय तब फिर ऐसी अवस्था बना लेनी चाहिये जब सभी परिस्थितियोंमें, लेटकर, बैठकर, घूमकर, अकेलेमें, दुकेलेमें, नीरवतामें या शोरगुलके बीच आदि-आदि सभी अवस्था- ओमें ध्यान करना संभव हों जाय ।

 

    सबसे पहली आवश्यक आंतरिक अवस्था है ध्यानके विघ्नोंके विरुद्ध अर्थात् मनकी भाग-दौड, विस्मृति, नींद, शारीरिक और स्नायविक अधीरता और चंचलता आदि-आदिके विरुद्ध साधकके संकल्पकी एकाग्रता ।

 

     दूसरी आवश्यक अवस्था यह है कि जिस आंतरिक चेतना (चित) लें विचार और भावावेग उठते हैं उसकी पवित्रता और शांति निरन्तर बढ़ती रहे अर्थात् '

 

      श्रीअरविन्दकी अंगरेजी पुस्तक 'ईश उपनिषद्' (सन् १९६५ संस्करण), पृष्ठ ३५ देखिये ।

 

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बह विक्षुब्धकारी सभी प्रतिक्रियाओं, जैसे, क्रोध, दुःख, अवसाद, सांसारिक घटनाओं- के विषयमें दुश्चिता आदि, ३ एकदम मुक्त हों । मानसिक परिपूर्णता और नैतिक तत्त्व सदा एक-दूसरेसे घनिष्ठ रूपमे जुड़े होते हैं ।

 

*

 

    एकाग्रताका मतलब है चेतनाको एक साथ एकत्र कर लेना और उसे चाहे एक बिदुपर केंद्रित कर लेना अथवा किसी एक वस्तुकी ओर, जैसे, भगवान्की ओर मोड देना । उस समय किसी एक ही बिदुपर नहीं, बल्कि पूरी सत्ताभरमें एकत्रित अवस्था- का बोध हों सकता है । ध्यानमें इस प्रकार एकत्रित होना आवश्यक नहीं है, मनुष्य महज एक विषयका चिंतन करते हुए शांत-स्थिर बना रह सकता है और यह निरीक्षण कर सकता है कि चेतनाके अन्दर कौनसी चीज आती है और फिर उसके साथ समुचित व्यवहार कर सकता है ।

 

*

 

      एकाग्रताका तात्पर्य है एक स्थान या एक वस्तुपर और महज एक अवस्थामें चेतनाको जमा देना । ध्यान प्रसारित हों सकता है, उदाहरणार्थ, उस समय मनुष्य भगवानके विषयमें विचार कर सकता है, प्रभाव ग्रहण कर सकता है और विवेक कर सकता है, यह देख सकता है कि प्रकृतिमें क्या हों रहा है और उसपर क्यिा कर सकता है इत्यादि-इत्यादि ।

 

*

 

      हमारे योगमें एकाग्रता उसे कहते हैं जब चेतना किसी विशेष स्थितिमें ( जैसे, शांतिमें) अथवा क्रियामें ( जैसे, अभीप्सा, संकल्प, श्रीमाताजीके साथ संपर्क, श्रीमाताजी- का नाम-स्मरण) आदिमें लवलीन होती है । ध्यान उसे कहते हैं जब आंतर मन वस्तु- ओंको उनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेके लिये देखता रहता है ।

 

       अब एकाग्रताकी बात लें । साधारणतया चेतना चारों ओर फैली हुई, छतरी हुई होती है और इस या उस दिशामें, इस विषय या उस वस्तुकी ओर, जो असंख्य होते हैं, दौड करती है । जव कोई ऐसा काम करना होता है जो स्थायी स्वभावका होता है तो सबसे पहले मनुष्यको इस पूरी छितरी चेतनाको पीछे खींचकर एकाग्र करना होता है । तब, कोई यदि ध्यानसे देखे तो उसे पता चलेगा कि बह चेतना किसी एक

 

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स्थान और किसी एक कार्य, विषय या वस्तुपर एकाग्र होनेके लिये बाध्य हों जाती है -- जैसे उस समय होती है जब तुम कविता लिखते होते हों या कोई वनस्पति-शास्त्री किसी पुष्पका अध्ययन करता होता है । एकाग्रताका स्थान सामान्यतया कहीं मस्तिष्कमें होता है यदि उसका विषय कोई विचार हों, हृदयमें होता है यदि उसका विषय कोई भावना हो । यौगिक एकाग्रता महज इसी चीजका एक विस्तारित और घनीभूत रूप होती हैं । यह एकाग्रता किसी वस्तुपर की जा सकती है जैसे कोई मनुष्य एक चमकते बिंदुपर त्राटक करता हैं - उस समय मनुष्यको इस प्रकार एकाग्र होना होता है ताकि वह केवल उस बिंदुको ही देखे और उसके अतिरिक्त उसमें दूसरा कोई विचार न हों । फिर यह एकाग्रता एक विचार या एक शब्द या एक नामपर, भगवान्- विषयक एक विचारपर,  शब्दपर, कृष्ण नामपर अथवा एक संग विचार और शब्द- पर या विचार ओर नामपर की जा सकती है । परंतु इसके अतिरिक्त योगमें मनुष्य एक विशिष्ट स्थानमें भी एकाग्रताका अभ्यास करता है । योगका एक प्रसिद्ध नियम है दोनों भौंहोंके बीच एकाग्र होना, आंतर मन, गुह्य दर्शन और संकल्पका केंद्र इसी स्थानपर है । इस एकाग्रताके लिये जिस विषयको तुम चुनते हों उसीका तुम उस स्थानमे चिंतन करते हो अथवा वहांसे उसकी प्रतिमूर्त्ति देखनेकी चेष्टा करते हों । यदि तुम ऐसा करनेमें सफल हो जाते हों तो कुछ दिन बाद तुम यह अनुभव करने लगते हो कि तुम्हारी सारी चेतना उस स्थानमें केंद्रित हों गयी है -- अवश्य ही उस समयके लिये । कुछ दिन इसका अभ्यास करनेके बाद और बहुधार ऐसा अनुभव करना आसान और स्वाभाविक हों जाता है ।

 

     मैं समझता हूँ कि यह बात स्पष्ट हो गयी है । अब, इस योगमें, यही चीज तुम्हें करनी होती हैं, पर आवश्यक रूपसे भौंहोंके बीचके उसी विशिष्ट स्थानपर नहीं, बल्कि मस्तकके किसी भी स्थानमें अथवा छातीके केंद्रमें जहां शरीरशास्त्री हदयका स्थान बतलाते है । यहां किसी वस्तुपर एकाग्र होनेके बदले तुम मस्तकमें एक संकल्पपर एकाग्र होते हों, ऊपरसे शक्तिके अवतरणके लिये एक पुकारपर एकाग्रता होते हो, अथवा जैसे कि कुछ लोग करते हैं, एक अदृश्य ढक्कनके खुल जाने और ऊपरसे चेतनाके अव- तरित होनेपर एकाग्र होते हों । हृदय-केंद्रमें साधक किसी अभीप्सापर, किसी उद्- घाटनके लिये, वहां भगवान्की सजीव मूर्त्तिकी उपस्थितिके लिये अथवा और जो भी उसका उद्देश्य होता है उसके लिये एकाग्रताका अभ्यास करता हैं । वहां, हृदय-केंद्रमें किसी नामका जप भी किया जा सकता है, पर, यदि ऐसा करना हों तो, उसके साथ- साथ उस नामपर एकाग्रता भी होना चाहिये और नामका जप स्वयं हृदय-केंद्रमे ही होता रहना चाहिये ।

 

      यहांपर यह प्रश्न किया जा सकता है कि जब इस तरह किसी एक स्थानमें एकाग्रता की जाती है तो चेतनाके बाकी हिस्सेका क्या होता है? हां, बाकी हिस्सा या तो शांत-नीरव हों जाता है जैसा कि किसी भी एकाग्रतामें होता हैं, अथवा, यदि शांत- नीरव नहीं होता तो उस हालतमें विचार या अन्य चीज़ें इस तरह घूम-फिर सकती हैं मानो बाहरकी ओर हों, पर एकाग्र भाग उनकी ओर ध्यान नही देता या उनकी ओर

 

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नहीं देखता । ऐसा तब होता है जब एकाग्रता पर्याप्त रूपमें सफल होती है ।

 

   जबतक मनुष्य अभ्यस्त न हो जाय तबतक उसे आरंभमें लंबे समयतक एकाग्रताका अभ्यास करके अपनेको थका नही देना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें मनके क्लांत हों जानेके कारण एकाग्रता अपना मूल्य-महत्त्व और शक्ति खो बैठती है । उस समय एकाग्रताका अभ्यास करनेके बदले मनुष्यको विश्रांतिका लिये अपनेको शिथिल अवस्थामें छोड़ देना चाहिये और ध्यान करना चाहिये । जब एकाग्रताकी अवस्था सहज-स्वाभाविक बन जाय केवल तभी मनुष्य धीरे-धीरे लंबे समयतक एकाग्रताका अभ्यास कर सकता है ।

 

    साधक तीन केंद्रोंमेंसे किसी एकमें एकाग्र हों सकता है जहां एकाग्र होना उसके लिये सबसे आसान हों और जो सबसे अधिक परिणाम देता हों । हृदय-केंद्रमें होनेवाली एकाग्रताकी क्षमता यह है कि वह उस केंद्रको खोल देती है और अभीप्सा, प्रेम, भक्ति और समर्पणकी शक्तिके द्वारा उस पर्देको हटा देती है जो अंतरात्माको ढकता और छिपाता है तथा अंतरात्मा या चैत्य पुरुषको सम्मुख भागमें ले आती है जिसमें कि वह मन, प्राण और शरीरपर शासन करे और उन सबको भगवान्की ओर पूर्णतः मोड दे और उद्घाटित कर दे और जो कुछ उस मोड और उद्घाटनका विरोध करता है उस सबको दूर हटा दे ।

 

     यहीं वह चीज है जिसे इस योगमें चैत्य रूपांतर कहा जाता है, सिरके ऊपर किये जानेवाली एकाग्रताकी सामर्थ्य यह है कि वह शांति, निश्चल-नीरवता, शरीर-बोधसे मुक्ति, मन और प्राणके साथ तादात्म्य प्रदान करती है और निम्रतर (मानसिक, प्राणिक, भौतिक) चेतनाके लिये ऊर्ध्वस्थ उच्चतर चेतनासे मिलनेके लिये ऊपर उठनेका रास्ता. खोल देती है और उच्चतर ( आध्यात्मिक प्रकृतिकी) चेतनाकी शक्तियोंके लिये मन, प्राण और शरीरमें उतर आनेका मार्ग खोल देती है । यही वह चीज है जिसे इस योग- मे आध्यात्मिक रूपांतरका नाम दिया गया है । यदि कोई इस क्रियासे आरंभ करता है तो ऊपरसे आनेवाली दिव्य शक्तिका अवतरण सभी केंद्रोंको (निम्रतम केंद्रतकको) खोलनेके लिये तथा चैत्य पुरुषको बाहर ले आनेके लिये होता हे; क्योंकि जबतक यह कार्य नहीं संपन्न हों जाता तबतक यह संभावना है कि निम्रतर चेतनाकी ओरसे बहुत अधिक कठिनाइयां ओर संघर्ष आयें और ऊपरसे होनेवाली भागवत क्रियाको वह चेतना बाधा दे, उसके साथ मिल-जुल जाय या यहांतक कि उसे अस्वीकार कर दे । यदि चैत्य पुरुष एक बार सक्रिय हों जाय तो यह संघर्ष और ये कठिनाइयां बहुत अधिक कम की जा सकतीं हैं ।

 

    दोनों भृकुटियोंके मध्यमें किये जानेवाली एकाग्रताकी शक्ति यह है कि वह वहां- के केंद्रको खोल देती है और आंतर मन और दृष्टिको तथा आंतर या यौगिक चेतनाको एव उसकी अनुभूतियों और शक्तियोंको  कर देती है । यहांसे भी साधक ऊपरकी ओर उद्घाटित हों सकता है और निम्रतर केंद्रोंमें भी कार्य कर सकता है; परंतु इस प्रकियाका खतरा यह है कि साधक अपनी मानसिक-आध्यात्मिक रचनाओमे आबद्ध हों सकता है और उनमेंसे बाहर निकलकर मुक्त और सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक अनुभव

 

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और ज्ञान तथा सत्ता और प्रकृतिके सर्वांगपूर्ण परिवर्तनकी स्थितिमें नहीं पहुँच सकता ।

 

*

 

    जब कोई किसी विचार या शब्दपर एकाग्र होता है तब उसे उस शब्दमें निहित मूल भावनापर ध्यान जमाना होता है और यह अभीप्सा रखनी होती है कि जिस चीज- को बह शब्द व्यक्त करता है वह अनुभूत हो ।

 

*

 

   इस समय वह मूल अध्याय मेरे सामने नही है; परंतु जिन वाक्योंको तुमने उद्- धृत किया है,' उससे मालूम होता है कि वह भावना अ मानसिक भावना है । उदाहरणार्थ, वैदांतिक ज्ञानमार्गमें मनुष्य सर्वव्यापी ब्रह्मकी भावनापर एकाग्र होता है - वह एक वृक्षकी ओर या दूसरी आसपासकी वस्तुकी ओर इस भावनाके साथ ताकता है कि ब्रह्म वहां विद्यमान हैं और वृक्ष या दूसरी वस्तु महज उसका एक रूप है । कुछ समय बाद जब एकाग्रता समुचित प्रकारकी हों जाती है तब मनुष्य एक उपस्थिति, एक सत्ताका अनुभव करना आरंभ करता है और स्थूल वृक्षका रूप एक बाहरी खोल बन जाता है और बह उपस्थिति, या सत्ता ही एकमात्र सद्वस्तुके रूपमें अनुभव होने लगती है । भावना तब विलीन हों जाती है, वह उस वस्तुका साक्षात् दर्शन बन जाता है जो भावनाके स्थानमें आ जाती है - उस समय अब भावनाके ऊपर एकाग्र होनेकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, मनुष्य एक गभीरतर चेतनाके द्वारा देखने लगता हैं -- ' 'स पश्यति । '' यहांपर यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि भावनाके ऊपर की गयी यह एकाग्रता महज चिंतनकी, मनकी क्यिा नहीं है - यह भावनाके स्व स्वरूप- पर एक प्रकारसे आंतरिक रूपसे ध्यानस्थ होना है ।

 

*

 

   अगर तुम कभी तो हृदयमें और कभी मस्तकके ऊपर ध्यान एकाग्र करो तो इसमें कोई हर्ज नहीं । परंतु इन दोनों स्थानोंपर एकाग्र होनेका अर्थ यह नही है कि किसी

 

    '''यह एकाग्रता भावनासे आरंभ होती है......, क्योंकि भावनाके द्वारा हीं मनोमय सत्ता समस्त अभिव्यक्तिके परे उस चीजतक चली जाती है वों अभिव्यक्त की गयी होती है, उस चीज- तक जाती है जिसका महज एक यंत्र यह भावना होती है । भावनापर एकाग्र होकर मनोमय सत्ता, वों कि हम अभी हैं, हमारी मानसिक सीमाको तोड़ देती है और चेतनाकी उस स्थितिपर, सताकी उस स्थितिपर, चेतन सत्ताकी शक्तिकी और चेतनन्दत्ताके आनन्दकी उस स्थितिपर पहुंच जाती १ जिसके अनुरूप वह भावना होती है और जिसका यह एक रूपक, क्यिा और छंद होती दु ।''

 

- ( ''योग-समन्वय'') आर्य, वर्ष, 1 पृष्ठ ४६५)

 

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एक विशिष्ट स्थानपर अपने ध्यानको जमाये रखा जाय । तुम दोनोंमेंसे किसी एक स्थानपर अपनी चेतनाको ले जाकर वहां जम जाओ और फिर वहां किसी स्थानपर नहीं वरन् भगवानपर एकाग्र होओ । इसे, चाहे आंखें बंद करके या खोल करके, जैसा कि सबसे अधिक तुम्हारे अनुकूल हो उसके अनुसार, किया जा सकता है ।

 

    तुम सूर्यपर ध्यान जमा सकते हों, पर भगवानपर ध्यान एकाग्र करना सूर्यपर एकाग्र होनेसे कही अधिक अच्छा है ।

 

*

 

     अधिकांश लोग चेतनाका मतलब मस्तिष्क या मन समझते हैं, क्योंकि बौद्धिक चिंतन और मानसिक दर्शनका वही केंद्र है । परंतु चेतना केवल उस तरहके चिंतन या दर्शनमे सीमित नहीं है । चेतना तो हमारी सत्तामें सर्वत्र विद्यमान है और उसके कई केंद्र हैं, जैसे, आंतरिक एकाग्रताका केंद्र मस्तिष्कमें नही वरन् हृदयमें है,--प्राणिक वासनाओंका उद्भव-केंद्र उससे भी और नीचे है ।

 

    योगके लिये चेतनाको एकाग्र करनेके दो प्रमुख स्थान हैं जो मस्तकमें और हृदय- मे हैं - इन्हें मानस-केंद्र और चैत्य-केंद्र कह सकते हैं ।

 

*

 

   मस्तिष्कको एकाग्र करना बराबर ही एक प्रकारकी तपस्या है और आवश्यक रूपसे थकावट ले आता है । जब मनुष्य मस्तिष्क-मनसे पूर्णतया ऊपर उठ जाता है केवल तभी मानसिक एकाग्रताकी थकावट दूर होती है ।

 

*

 

    पढ़ने या चिंतन करते समय यौगिक एकाग्रता करनेका उत्तम स्थान है मस्तक- का शीर्ष-स्थान या उससे भी और ऊपर ।

 

*

 

    एकाग्रतापूर्ण ध्यानके लिये स्वाभाविक मुद्रा है निश्चल होकर बैठ जाना - खड़ा होना और घूमते रहना सक्थि अवस्थाएं हैं । जब मनुष्य अपनी चेतनामें स्थायी स्थिरता और निश्चेष्टता प्राप्त कर लेता है केवल तभी घूमते-फिरते या कोई काम करते हुए एकाग्र होना और ग्रहणशील होना आसान होता है । जब चेतना अपने अंदर सिमटकर अपने सार-तत्वमें निष्क्यि हो जाती है तो वही अवस्था एकाग्रताकी समुचित स्थिति होती है और उसके लिये सबसे उत्तम मुद्रा है शरीरकी बैठी हुई स्थितिमें

 

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समाहित निश्चलता । ऐसा लेटकर भी किया जा सकता है पर वह आसन अत्यधिक निष्क्रिय हे और उसमें अंतरमें समाहित होनेकी अपेक्षा जड़ बन जानेकी प्रवृत्ति पैदा होती है । यही कारण है कि योगी लोग सर्वदा बैठकर आसन लगाते है । मनुष्य घूमते हुए, खड़े होकर, सोकर ध्यान करनेका अभ्यास डाल सकता है, परंतु बैठकर ध्यान करना सबसे पहली स्वाभाविक स्थिति है ।

 

*

 

    जब तुम अकेले होओ या शांत-स्थिर होओ केवल तभी गभीर रूपमे एकाग्र होना अच्छा है । उस समय तुम्हें बाधा देनेवाला कोई बाहरी शब्द नही होना चाहिये ।

 

 *

 

    ध्यानके बाद कुछ समयतक नीरव और एकाग्र बने रहना निस्संदेह बहुत अच्छा मद्य । ध्यानको हलके रूपमें लेना भूल है -- वैसा करनेसे मनुष्य जो कुछ ग्रहण कर चुका है उसे या उसके अधिकांश भागको धारण करनेमें असमर्थ होता अथवा बिखेर देता है ।

 

*

 

   तुम गहरी अंतर्मुखीनता और स्थिरताकी अवस्थामें प्रवेश कर जाते हों । परंतु कोई यदि हठात् इस अवस्थासे बाहर निकलकर साधारण चेतनामें वापस आ जाय तो उसे थोड़ा स्नायविक धक्का लग सकता है अथवा कृउछ समयके लिये हदयकी धड़कन आरंभ हों सकतीं है जैसा कि तुमने वर्णन किया है । इस अतर्मुखीनतासे बाहर आने और आंखें खोलनेसे पहले कुछ क्षणोंतक शांत-स्थिर बने रहना सदा हीं अत्युत्तम होता है ।

 

    कर्मके विषयमें तुम्हारी नवीन भावना बिलकुल सही है, यह नवीन शांतिका ही अंश है और यह सूचित करती है कि तुम्हारी चेतना अधिक संतुलित और मुक्त हों रही है । आलस्यको आनेकी संभावना नहीं है ।

 

    जो खुला मैदान तुमने देखा वह निश्चल-नीरव आंतरिक चेतनाका, मुक्त, उल्वल, सुस्पष्ट और स्थिर चेतनाका प्रतीक है ।

 

    जो चीज़ें तुम देखते हो वे अधिकांशत: उस क्रियाके चिह्न बे जो तुम्हारे अन्दर चल रही है । इस बातका कोई भय नहीं कि वे चेतनापर कोई प्रभाव न डालनेवाले केवल सूक्ष्मदर्शन ही रहेंगी । तुम्हारी चेतना अबतक बहुत परिवर्त्तित हों चुकी है और फिर भी आगे आनेवाले और भी महत्तर परिवर्तनका यह केवल प्रारंभ ही है ।

 

*

 

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    बहिर्मुखी क्रियाओंके विषयमें तुमने जो कुछ देखा वह निश्चय ही कल्पना नही था । यह उनकी क्रियाका एक सच्चा और सही अनुभव और दर्शन था । उनसे अपने- को पृथक् अनुभव करना और उन्हें देखना यथार्थ आंतरिक अवस्था है जो अन्तमें उनसे एकदम मुक्त हो जानेके लिये आवश्यक है ।

 

  एकाग्रता बहुत उपयोगी और आवश्यक है -- मनुष्य जितना ही अधिक ( निस्संदेह, शरीरको थकाये बिना उसकी क्षमताकी सीमाओंके भीतर) एकाग्र होता. है उतनी ही अधिक योगकी शक्ति बढ्ती है । परंतु तुम्हें कभी-कभी ध्यानके असफल होने- के लिये भी तैयार रहना चाहिये और उससे घबड़ा नही जाना चाहिये - क्योंकि ध्यानकी यह अस्थिरता प्रत्येक व्यक्तिके साथ घटित होती है । इसके कई कारण होते हैं । परंतु अधिकतर कोई भौतिक वस्तु होती है जो हस्तक्षेप करती है, अथवा जो कुछ आया हैं या किया गया है उसे आत्मसात् करनेके लिये समय लेनेकी शरीरकी आवश्यक- ता होती है । कभी-कभी तामसिकता या जड़ता होती है जो ऐसे कारणोंसे, जिनका तुमने वर्णन किया है अथवा दूसरे कारणोंसे आती है । सबसे उत्तम बात यह है कि जबतक शक्ति फिरसे कार्य नही करने लग जाती तबतक शांतस्थिर बना रहा जाय और अधीर या उदास न हुआ जाय ।

 

*

 

    संभव है कि किसी साधकके ध्यानका कोई निश्चित समय न हो और फिर भी वह साधना कर सकता है

 

*

 

    अनुभूति और उसके बादकी भावना दोनोंका अपना सत्य मग्न । आरंभमें बहुत दीर्घ कालतक प्रयास करके भी एकाग्र होना आवश्यक है, क्योंकि अभी प्रकृति, चेतना तैयार नही होती । पर उस अवस्थामें भी एकाग्र होनेकी क्रिया जितनी अधिक अचंचल और स्वाभाविक हों उतना ही अच्छा है । परंतु चेतना और प्रकृति जब तैयार हों जाती हैं तब एकाग्रताका अभ्यास सहज-स्वाभाविक बन जाना चाहिये और सब समय बिना प्रयासके आसानीसे करना संभव होना चाहिये । अंतमें जाकर तो यह सत्ताकी स्वाभाविक और स्थायी अवस्था बन जाती है - उस समय यह अब एकाग्रता नही रह जाती, बल्कि भगबानमें जीवकी ससिद्ध स्थिति बन जाती है ।

 

    यह सही है कि एकाग्र होना और उसके साथ-हीं-साथ कोई बाहरी कार्य करना आरंभमें संभव नहीं होता । पर वह भी संभव हो जाता है । चाहे तो चेतना दो भागों- मे विभक्त हों जाती है, एक, आंतरिक भाग तो गवान्में स्थित होता है और दूसरा, बाहरी भाग बाहरी कार्य करता है,--अथवा संपूर्ण चेतना ही उस प्रकार भगबानमें स्थित होती है और शक्ति निष्क्रिय यंत्रके द्वारा कार्य करती ।

 

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     स्वभावत: ही यदि ध्यान स्वाभाविक हो जाय तो थकावट नहीं आती । परन्तु अभीतक यदि उसकी क्षमता न हो तो बहुतसे लोग बिना तनावके उसे जारी नहीं रख सकते जो कि थकावट ले आता है ।

 

*

 

    यदि मन थक जाय तो स्वभावत: ही एकाग्र होना कठिन हो जाता है - जबतक कि तुम मनसे पृथक् नहीं हो जाते ।

 

*

 

    तुम्हें मनसे भी अपनेको पृथक् करना होगा । तुम्हें मानसिक, प्राणिक और भौतिक स्तरोंमें भी (केवल ऊर्ध्वमे ही नहीं) एक चेतनाको अनुभव करना होगा जो न तो मन, प्राण है और न शरीर 1

 

*

 

    प्रयासका मतलब है खिंचाव उत्पन्न करनेवाला प्रयत्न । ऐसा कर्म भी हो सकता है जिसमें एक संकल्प हो पर जिसमें कोई खिंचाव या प्रयास न हो ।

 

    खींच-तान (एकाग्रताके लिये संघर्ष) और एकाग्रता एक ही चीज नहीं हैं । खींचतानका तात्पर्य है एक प्रकारकी अति-उत्सुकता और प्रयासमें जोर-जबर्दस्ती; परंतु एकाग्रता अपने स्वभावमें शांत-स्थिर और अविचल होती हे । यदि मनुष्यमें चंचलता या अति-उत्सुकता हों तो यह कहना होगा कि उसमें एकाग्रता नही है ।

 

*

 

   सच पूछो तो तुमने बिना पथप्रदर्शनके जो व्यक्तिगत रूपसे प्रयास किया उसीके कारण तुम कठिनाइयों में जा पड़े तथा ऐसी उत्तप्त स्थितिमें पहुँच गये जहां तुम ध्यान वगैरह कर ही नही सके । मैनई तुमसे कहा कि प्रयास बंद कर दो और शांत बने रहो और तुमने वैसा किया भी । मेरा आशय यह था कि जब तुम शांत रहोगे तो श्रीमीकी शक्तिके लिये तुम्हारे अंदर कार्य करना, एक अच्छी आरंभिक अवस्थाको स्थापित करना और प्राथमिक अनुभूतियों एक धारा खोल देना संभव होगा । इस चीजका होना आरंभ भी हों गया था; पर तुम्हारा मन यदि फिरसे सक्थि हों जाय और अपने लिये साधनाकी व्यवस्था करनेका प्रयत्न करे तो विख्त-बाधाओंके आनेकी संभावना है । भागवत पथप्रदर्शन तभी उत्तम रूपमें काम करता है जब चैत्य पुरुष खुला हुआ और सामने होता है (तुम्हारा चैत्य पुरुष खुल रहा था), पर वह उस समय भी कार्य

 

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कर सकता है जब साधक उस विषयमें सचेतन न हो अथवा जब उसके परिणामोंके कारण ही वह उसे जानता हों । निर्विकल्प समाधिका जहांतक प्रश्न है, यदि उसे कोई चाहे भी तो उसे केवल उसके लिये तैयार की हुई चेतनामें एक लबी साधना करनेपर ही पा सकता है -- अभी उसकी चर्चा करनेसे कोई लाभ नही जब कि आंतरिक चेतना- ने यौगिक अनुभूतिकी ओर केवल उद्घाटित होना अभी-अभी आरंभ किया है !

 

 *

 

     यदि ध्यानमें यह कठिनाई आती है कि सब प्रकारके विचार भीतर घुस आते हैं तो यह विरोधी शक्तियोंके कारण नहीं बल्कि मानव-मनकी सामान्य प्रकृतिके कारण होता है ! सभी साधकोंको यह कठिनाई होती है और बहुतोंके साथ तो यह बहुत लंबे अर्सेतक लगी रहती है । इससे छुटकारा पानेके कई रास्ते हैं । उनमेंसे [रक रास्ता है विचारोंका निरीक्षण करना और यह देखना कि मानव-मनका स्वभाव क्या है जिसे ये विचार हमें दिखाते है, पर इन विचारोंको कोई अनुमति न देना और इन्हें तबतक दौड़ते रहने देना जबतक कि ये निस्तब्ध नही हों जाते -- यही वह पथ है जिसे विवेका- नदने अपने राजयोगमें बताया है । दूसरा हे विचारोंकी ओर इस प्रकार देखना मानो वे अपने न हों, उनसे पीछे साक्षी पुरुषकी तरह खड़ा हों जाना और अनुमति देना अस्वी- कार कर देना -- उस समय विचारोंको इस प्रकार देखा जाता है मानों वे बाहरसे, प्रकृतिसे आते हों, और फिर उनके विषयमें यह समझना चाहिये कि वे मनोमय देशमें से गुजरनेवाले यात्री हैं जिनके साथ हमारा कोई संबद्ध नहीं और जिनमें हम कोई रुचि नही रखते । ऐसा करनेपर साधारणतया यह होता है कि कुछ समय बाद मन दो भागोंमें बट जाता है, एक भाग वह होता हे जो मनोमय साक्षी होता है, जो देखता है और पूर्णत: अनुद्विग्न और शांत होता है । दूसरा भाग वह होता है जो निरीक्षणका विषय होता है, प्रकृति-भाग होता है जिसमें विचार घूमते-फिरते या जिसमेंसे होकर गुजर जाते है । कुछ दिन बाद हम प्रकृति-भागको भी नीरव या शांत-स्थिर करनेका प्रयास कर सकते है । एक तीसरा पथ भी है, एक सक्रिय पद्धति है जिसमे मनुष्य यह देखनेकी चेष्टा करता हैं कि विचार कहांसे आते है और उसे पता चलता है कि स्वयं अपने अंदरसे वे नही आते बल्कि मानो मस्तकके बाहरसे आते हैं । यदि कोई उन्हें बाहरसे आते हुए देख सके तो, उनके भीतर प्रवेश करनेसे पहले ही, उन्हें एकदम दूर फेंक देना होता है । यह शायद सबसे अधिक कठिन पद्धति है और सब इसे नही कर .सकते । पर यदि इसे किया जा सके तो यह नीरवता प्राप्त करनेका सबसे छोटा और सबसे अधिक शक्तिशाली पथ है ।

 

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   मन सर्वदा क्रियाशील रहता है, पर हम पूरी तरह यह नहीं देखते कि यह क्या

 

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कर रहा है, बल्कि हम अपनेको सतत चिंतनकी धारामें बहा ले जाने देते है । जब हम एकाग्र होनेका प्रयास करते हैं, यह स्वनिर्मित यांत्रिक चिंतनकी धारा हमारी निरीक्षण- क्रियाके लिये स्थायी बन जाती है । योगके प्रयासके लिये यह प्रथम सामान्य बाधा है (दूसरी है ध्यानके समय नींदका आना) ।

 

   ऐसे समय करने योग्य सबसे उत्तम बात यह अनुभव करना है कि यह विचार- धारा हम स्वयं नही हैं, सचमुचमें हम स्वयं विचार नही कर रहे हैं, बल्कि विचार ही मनमें चल रहे हैं । वास्तवमें प्रकृति ही अपनी विचार-शक्तिके द्वारा हमारे अन्दर 'विचारोंका यह सब भंवर उठा रही है । हमें पुरुष-रूपसे उससे पीछे साक्षीभावके साथ खड़ा होना चाहिये, उस कार्यको देखना चाहिये, पर उसके साथ अपनेको एकात्म करना अस्वीकार कर देना चाहिये । दूसरी बात है एक प्रकारके नियंत्रणका प्रयोग करना और विचारोंका त्याग कर देना -- यद्यपि कभी-कभी ए_कदम अनासक्तिकी क्रियासे हीं चिंतनाभ्यास बंद हो जाता है या ध्यानके समय कम हों जाता है और पर्याप्त नीरवता आ जाती है या कम-से-कम अचंचलता आ जाती है जिसके कारण आनेवाले विचारोंका त्याग करना, और अपने-आपको ध्यानके विषयपर एकाग्र करना आसान हों जाता है । यदि कोई इतना सचेत हों जाय कि विचारोंको बाहरसे, विश्व-प्रकृतिसे आते हुए देख सके तो वह उनके मनमें आनेसे पहले ही उन्हें बाहर फेंक सकना है : इस प्रकार मन अंतमें निश्चल-नीरव हों जाता है । यदि इनमेंसे कोई भी बात न हों सके तो परित्यागका सतत अभ्यास करना आवश्यक हो जाता है -- विचारोके साथ कोई संघर्ष या कुश्ती नहीं होनी चाहिये, बल्कि केवल शांत रूपसे अपने-आपको पृथक् करना चाहिये और उन्हें अस्वीकार करना चाहिये । प्रारंभमें हीं सफलता नहीं आती, परंतु अनुमति जब निरंतर हटा ली जाती है तो यंत्रकी तरह चलनेवाला भंवर अतमें बद हों जाता है और मरना आरंभ कर देता है और तब साधक इच्छापूर्वक आंतरिक स्थिरता या नीरवता प्राप्त कर सकता है ।

 

    यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि, कुछ विरल लोंगोंके प्रसंगको छोड़कर यौगिक प्रक्रियाओंको फल तुरत नहीं प्राप्त होता और साधकको तबतक अपने संकल्प- धैर्यको प्रयुक्त करना चाहिये जबतक कि वे फल नही देने लगती, जिसके आनेमें कभी- कभी, यदि बाहरी प्रकृतिमें बहुत अधिक बाधा-विरोध हो तो, लंबा समय लग जाता

 

    जबतक तुम्हें उच्चतर आत्माका बोध या अनुभव नही प्राप्त हुआ है तबतक तुम उसपर अपने मनको कैसे जमा सकते हों? तुम केवल उस आत्माकी भावनापर एकाग्र हो सकते हों अथवा कोई भगवानके या भगवती माताके विचारपर या किसी मूर्तिपर या उस भक्तिभावनापर एकाग्र हो सकता है जो हृदयमें भागवत उपस्थिति- को पुकारती है अथवा शक्तिको मन, प्राण और शरीरमें कार्य करने, चेतनाको मुक्त करने तथा आत्मसाक्षात्कार प्रदान करनेके लिये पुकारती हे । यदि तुम आत्माकी भावनापर एकाग्र होओ तो इसे तुम्हें इस कल्पनाके साथ करना चाहिये कि आत्मा मनसे और उसके विचारोंसे, प्राण और उसके अनुभवोंसे तथा शरीर और उसकी

 

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क्रियाओंसे भिन्न कोई वस्तु है -- कोई ऐसी चीज है जो इन सब चीजोंके पीछे अवस्थित है, ऐसी चीज है जिसे तुम ठोस तीरपर सत-चितके रूपमें, इस सबसे पृथक् फिर भी इन चीजोंमें अंतर्ग्रस्त हुए बिना मुक्त रूपमे इन सबमें परिव्याप्त अनुभव करोगे ।

 

    जो कुछ तुम पढो उस सबको यदि प्रयोगमें लानेका प्रयास करोगे तो तुम्हारे नये-नये प्रारभोंका कोई अंत नहीं होगा । विचारोंका त्याग करके विचारोंको बद किया जा सकता हैं और नीरवताके अन्दर अपने-आपको पाया जा सकता है । कोई विचारोंको अबाध दौड़नेके लिये छोड़ सकता और उनसे अपनेको पृथक् कर सकता तथा इस प्रकार इस कार्यको कर सकता है । दूसरे और भी कई रास्ते हैं । ' ' की पुस्तकमें वर्णित पथ मुझे अद्वैत-ज्ञानीकी पद्धति प्रतीत होता है जिसमें शरीर, प्राण और मनसे अपनेको, ' 'मैं शरीर नही हूँ, मैं प्राण नही हूँ, मैं मन नही हूँ' ' आदि विवेकके द्वारा तबतक पृथक् किया जाता है जबतक मनुष्य मन, प्राण और शरीरसे पृथक् आत्माको नहीं प्राप्त कर लेता । यह भी इसे करनेका एक पथ हे । फिर प्रकृति और पुरुषका पृथक्करण भी तबतक किया जा सकता है जबतक कि साधक केवल साक्षी नही बन जाता और साक्षी-चैतन्यके रूपमें अपनेको सभी क्रियाकलापोंसे पृथक् नही अनुभव करने लगता । इनके अतिरिक्त और भी पद्धतियां है ।

 

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    मनको एकत्र करनेकी पद्धति आसान पद्धति नही है । यह कही अधिक अच्छा है कि विचारोंका निरीक्षण किया जाय और अपनेको उनसे पृथक् किया जाय जबतक कि अपने अन्दर विद्यमान एक शांत-स्थिर प्रदेशका बोध न प्राप्त हों जाय जिसमे कि वे विचार बाहरसे आते हैं ।

 

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    भौतिक मनकी भिनभिनाहटके लिये उपाय यह है कि जरा भी उद्विग्न हुए बिना उसका चुपचाप परित्याग करते रहो; अंतमें हताश होकर वह पीछे हट जायगा और सिर हिलाते हुए कहेगा, ' 'यह पट्टा मेरे लिये अत्यंत शांत-अचल और बलवान् है । '' बराबर दो चीज़ें ऐसी होती हैं जो उठ सकती और नीरवताको भग कर सकती हैं -- प्राणिक सुझाव तथा भौतिक मनकी यत्रवत् बार-बार होनेवाली क्रियाएं । दोनोंको दूर करनेका उपाय है शांतिपूर्वक परिवर्जन करना । हमार अंदर एक पुरुष है जो प्रकृतिको यह आदेश दे सकता है कि उसे क्या आने देना चाहिये और क्या बाहर छोड़ देना चाहिये, परंतु उसका संकल्प एक प्रबल, शांत संकल्प है, यदि साधक कठिनाइ-

 

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योंके, कारण घबड़ा जाय या चंचल हों जाय तो फिर पुरुषका संकल्प वैसे हीं सफलता- पूर्वक कार्य नहीं कर सकता जैसे कि वह अन्य स्थितिमें करता ।

 

    सक्रिय उपलब्धि संभवत. तब प्राप्त होगी जब कि उच्चतर चेतना पूर्ण रूपसे प्राणके अन्दर उतर आयेगी । जब वह मनमें आती है तब वह पुरुषकी शांति और मुक्ति ले आती है तथा वह ज्ञान भी लें आ सकती है । परन्तु जब वह प्राणमें आती है तभी सक्थि उपलब्धि उपस्थित होतीं और सजीव होती है ।

 

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    यांत्रिक मनकी क्रियासे अपने-आपको पृथक् करनेकी क्षमता प्राप्त करना सबसे पहली आवश्यकता है; ऐसा कर लेनेपर, जब वह क्रिया होती है तब भी, मनकी स्थिरता और शांतिको उससे अविचलित बनाये रखना बहुत आसान होता है ।

 

    यदि शांति और निश्चल-नीरवताका नीचे उतरना जारी रहता है तो सामान्य- तया दें इतनी तीव्र हो जाती है कि कुछ समय बाद भौतिक मनको भी अभिभूत कर लेती है ।

 

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    वास्तवमें हुआ यह कि सक्रिय मन अधिक स्थिर हों गया जिससे भौतिक मनकी क्रियाएं अधिक स्पष्ट हो गयी -- ऐसा ही बहुधा घटित होता है । ऐसी अवस्थामें हमारा कर्तव्य है इन क्रियाओंसे अपने-आपको पृथक् कर लेना और उनकी ओर अब और ध्यान दिये बिना एकाग्र होना । फिर उन क्रियाओंका स्थिरतामें डूब जाना या विलीन हों जाना संभव हों जाता है ।

 

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    यही यांत्रिक मनका स्वभाव है -- उसकी किसी संवेदनशीलता कारण ऐसा नही हुआ है । चूँकि मनके अन्य भाग अधिक नीरव और संयमके अधीन हैं, केवल इसी कारण यह क्रिया अधिक प्रमुख दिखायी देती है और अधिक स्थान ले रही है । यदि कोई इसका लगातार परित्याग करता रहे तो यह सामान्यतया क्षीण हों जाती है !

 

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     तुम संभवत उनकी (यांत्रिक मनके विचारोंकी) ओर बहुत अधिक ध्यान दे रहे हों । यह बिलकुल संभव हैं कि मनुष्य एकाग्र होवे और यांत्रिक त्रियाकी ओर

 

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देखे बिना उसे जारी रहने दे ।

 

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 जो कुछ तुम प्रस्ताव करते हों उसके विषयमें मैं बिलकुल निस्सदिग्ध नही हूँ । इसमें संदेह नहीं कि मानसिक चेतना थकी होनेपर भी अपने पुराने अभ्यासवश बाहर- से विचारोंको ग्रहण करती जाती है - वह उन्हें चाहती हों ऐसी बात नही, पर विचारों- को आनेका अभ्यास है और मन उन्हें यंत्रवत् भीतर आने देता है तथा अभ्यासवश उनकी ओर ध्यान देता है । योगमें जब अनुभूतियां आना आरंभ करती हैं और मन या तो सर्वदा एकाग्र रहना या शांत-स्थिर रहना चाहता है तो उस समय बराबर ही यह एक प्रधान कठिनाई होती है । कुछ लोग तो वही करते हैं जो तुमने प्रस्ताव किया है और कुछ समय बाद या तो मनको एकदम शांत कर देनेमें सफल होते हैं या ऊपरसे निश्चल-नीरवता नीचे उतरती है और मनको शांत कर देती है । परंतु साधक जब इसे करनेका प्रयास करता है तब अकसर विचार बहुत अधिक सक्रिय हों उठते है और नीरवता ले आनेकी प्रक्रियाका विरोध करते हैं और यह सब बड़ा कष्टदायक होता है । अतएव बहुतसे लोग धीरे-धीरे चलना पसंद करते हैं; वे मनको थोडा-थोडा करके स्थिर होने देते हैं, स्थिरताको फैलने तथा अधिक समयतक बने रहने देते हैं जब कि अंतमें जाकर अवांछित विचार जाते हैं अथवा पीछे हट जाते हैं और मन भीतरसे या ऊपरसे आनेवाले ज्ञानके लिये खाली छोड़ दिया जाता है ।

 

     तुम्हें संभवत: इसे करनेकी कोशिश करनी चाहिये और देखना चाहिये कि क्या परिणाम होता है -- यदि विचार बहुत अधिक आक्रमण करें और परेशान करें तो तुम बद कर सकते हो - यदि मन शीघ्र या अधिकाधिक शांत होता हों तो जारी रख सकते हो ।

 

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    जितना ही अधिक चैत्य बाहरी सत्तामें फैलता है उतनी ही अधिक ये सब चीज़ें (अवचेतन मनकी यांत्रिक क्रियाएं) शांत होती हैं । यही सबसे उत्तम तरीका है । मनको शांत करनेके जो सीधे प्रयास होते हैं वे कठिन तरीके होते हैं ।

 

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 एकाग्रता करनेमें सबसे अधिक सहायक चीज है अपने मनमें श्रीमाताजीकी स्थिरता और शांतिको ग्रहण करना । यह तुम्हारे ऊपर विद्यमान है -- केवल मन और उसके केंद्रोंको उसकी ओर खुलनेकी आवश्यकता है । यहीं चीज है जिसे श्रीमाताजी शामके ध्यानके समय तुम्हारे ऊपर ठेलती हैं।

 

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   चित् हे विशुद्ध चेतना, जैसे, सत्-चित्-आनन्दमें ।

 

   चित्त है मानसिक-प्राणिक-शारीरिक चेतनाओंका मिश्रित रूप और इसीमेंसे विचार, भावावेग, संवेदन, प्रवेग आदिकी क्रियाएं उत्पन्न होती हैं । पांतजलि योग- पद्धतिमें इन्ही सबको एकदम शांत कर दिया जाता है जिसमें कि चेतना निश्चल हों जाय और समाधिमें चली जाय ।

 

   हमारे योगमें दूसरी तरहकी क्रिया होती है । साधारण चेतनाकी क्रियाओंको निश्चल बना देना होता है और उस निश्चलताके अंदर उच्चतर चेतना और उसकी शक्तियोंको उतार लाना होता है जो कि प्रकृतिका रूपांतर कर देंगी ।

 

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     यदि तुम चित्तवृत्तियोंका दमन कर दो तो फिर तुम्हारे अंदर चित्तकी एकदम कोई क्रिया ही नही होगी । सब कुछ तबतक निश्चल बना रहेगा जबतक तुम दमनको दूर नहीं कर दोगे अथवा सब कुछ इतना शांत-निश्चल बना रहेगा कि निश्चलताके सिवा वहां और कोई चीज ही नही रह सकेगी ।

 

      यदि तुम उन्हें स्थिर कर दो तो चित्त भी स्थिर हों जायगा, वहां चाहे जो भी क्रिया या गतिशीलता हों वह उस स्थिरताको विचलित नही करेगी ।

 

   यदि तुम उन्हें संयमित कर लो या उनपर प्रभुत्व स्थापित कर लो तो जब तुम चाहोगे तब चित्त निश्चल-निष्क्रिय हों जायगा और जब तुम चाहोगे तब सक्रिय हों जायगा, और उसकी क्रिया ऐसी हों जायगी कि जिस चीजसे तुम छुटकारा पाना चाहोगे वह चली जायगी, जिस चीजको तुम यथार्थ और उपयोगी समझोगे बस वही आयगी ।

 

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    नीरवताकी स्थितिमें चला जाना आसान नही है । ऐसा करना केवल तभी संभव होता है जब समस्त मानसिक-प्राणिक क्रियाओंको बाहर निकाल दिया जाता है । इससे अधिक आसान है अपने अंदर निश्चल-नीरवताको अवतरित होने देना, अर्थात् अपनेको उसकी ओर उद्घाटित करना और उसे उतरने देना । ऐसा करनेका तरीका और उच्चतर शक्तियोंका अपने अंदर आवाहन करनेका तरीका एक ही है । यह तरीका है ध्यानके समय अचंचल बने रहना । उस समय मनके साथ संघर्ष नही करना चाहिये अथवा शक्तिको या निश्चल-नीरवताको नीचे बीच लानेका मानसिक प्रयास नही करना चाहिये बल्कि उसके लिये केवल नीरव संकल्प और अभीप्सा बनाये रखना चाहिये । अगर मन सक्रिय हो तो हमें पीछेकी ओर हटकर और अंदरसे उसके लिये कोई अनुमति दिये बिना उसका तबतक अवलोकन करना सीखना चाहिये जबतक कि उसकी अभ्यासगत या यंत्रवत् क्रियाएं भीतरसे प्राप्त सहारेके अभावमें नीरव हो जाना न आरंभ कर दे । यदि मन अत्यंत हठी हों तो अधिक जोर लगाये या संघर्ष किये

 

 

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बना दृढ़तापूर्वक परित्याग करते रहना ही एकमात्र करणीय कार्य हैं ।

 

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    किसी चीजको अतिरंजित न करना ही अच्छा है । सच पूछा जाय तो मानसिक क्रियावलीसे छुटकारा पाना उतना अधिक आवश्यक नही है जितना कि उसे सम्रुचित रूपमे बदल देना. । जिस चीजको हमें अतिक्रम करना और परिवर्त्तित करना है वह है बौद्धिक तर्क-युक्ति जो चीजोंको केवल बाहरसे, विश्लेषण और अनुमानके द्वारा देखती है -- जब वह ऐसा नही करती तब प्राय. शीघ्रतासे दृष्टिपात करती और कहती है, ' 'यह बात ऐसी दू' ' अथवा ' 'यह बात ऐसी नही है । '' किंतु तुम तबतक इसका अति- क्रमण और परिवर्तन नही कर सकते जबतक कि पुरानी मानसिक क्रिया थोडी स्थिर नही हों जाती । स्थिर मन अपने विचारमें नही उलझता अथवा उनसे दूर नही भाग- ता; वह पीछे खड़ा हों जाता हैं, अपनेको पृथक् कर लेता है और उनके साथ अपना तादात्म्य किये बिना तथा उन्हें अपना बनाये बिना गुजर जाने देता है । वह साक्षी मन बन जाता हे और आवश्यक होनेपर विचारोंका निरीक्षण करता है, परंतु साथ ही उनसे मुँह मोड लेने और अंदरसे तथा ऊपरसे ग्रहण करनेमें समर्थ होता है । निश्चल- नीरवता अच्छी चीज है, पर पूर्ण निश्चल-नीरवता अपरिहार्य नही है, कम-से-कम इस स्थितिमें । मैं नही समझता कि मनको शांत-स्थिर करनेके लिये उसके साथ कुश्ती करनेसे कोई विशेष लाभ है, साधारणतया उस खेलमें मनकी ही जीत होती है । वास्तवमें पीछे हटना, अपनेको पृथक् कर लेना, किसी अन्य चीजकी, बाहरी मनके विचारोंसे भिन्न दूसरी चीजकी बात सुननेकी शक्ति पा लेना ही अधिक आसान पथ है । इसके साथ-ही-साथ मनुष्य मानो ऊपरकी ओर अपनी दृष्टि उठा सकता है, अपनेसे ठीक ऊपर स्थित एक शक्तिकी कल्पना कर सकता ओर उसे नीचे पुकार सकता है अथवा चुपचाप उसकी सहायताकी प्रतीक्षा कर सकता है । इसी ढंगसे बहुतसे लोग इसे करते हैं जबतक कि मन धीरे-धीरे स्थिर नहीं हों जाता या अपने-आप नीरव नही हों जाता अथवा ऊपर- से निश्चल-नीरवता उतरना आरंभ नहीं कर देती । परंतु यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि अवसाद या निराशाको बीचमें न आने दिया जाय क्योंकि तुरत-फुरत सफलता नही मिली; ऐसा करनेसे तो बस कार्य कठिन ही हों सकता है ओर जिस किसी प्रगतिके लिये तैयारी हो रही है वह रुक सकती है ।

 

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     नीरव मन योगसाधनाका एक परिणाम है, साधारण मन कभी नीरव नही होता.. । मनीषियों और दार्शनिकोंका मन नीरव नही होता । उनका मन सक्रिय होता है; अवश्य हीं वे अपने मनको एकाग्र करते हैं और इसलिये सामान्य असंबद्ध मानसिक क्रिया बंद हो जाती है और जो विचार उठते हैं या प्रवेश करते और रूप ग्रहण

 

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करते हैं वे उनके विषय या कार्यसे सामंजस्य रखते हुए बंधे रहते हैं । परंतु यह बात समूचे मनके नीरव हो जानेसे एकदम भिन्न है ।

 

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    जब मन ध्यानमें या पूर्ण निश्चल-नीरवतामें नहीं होता, किसी-न-किसी वस्तु- के साथ -- चाहे अपनी निजी भावनाओं या कामनाओं या अन्य लोगों या वस्तुओं या बातचीत आदिके साथ - सर्वदा सक्रिय रहता है ।

 

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    इसे ध्यान नही कहा जाता -- यह तो चेतनाकी एक विभक्त अवस्था है । जब- तक चेतना वास्तवमें तल्लीन नहीं हो जाती और ऊपरी विचार बस ऐसी चीज़ें नहीं बन जाते जो मनमें आती, स्पर्श करती और निकल जाती हैं, तबतक इसे मुश्किलसे ध्यान कहा जा सकता है । मैं नहीं समझता कि किस तरह आंतरिक सत्ता तल्लीन हो सकती है और साथ हीं अन्य प्रकारके सारे विचार और सारी कल्पनाएं उपरितलीय चेतनामें घूमती-फिरती रह सकतीं हैं । मनुष्य पृथक् रह सकता और विचारों तथा कल्पनाओंको, उनसे प्रभावित हुए बिना, गुजरते हुए देख सकता है, पर उसे ध्यानमें डूब जाना या तल्लीन हो जाना नहीं कहा जा सकता ।

 

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     यह बिलकुल स्वाभाविक है कि आरंभमें जब तुम एकाग्र होनेके लिये बैठ तब केवल स्थिरता और शांतिकी अवस्था बनी रहे । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब कभी तुम बैठा यह अवस्था बनी रहे और उसके लिये बराबर ही दबाव बना रहे । पर दूसरे समय इसके परिणामस्वरूप प्रारंभमें केवल एक प्रकारकी मानसिक अचंचलता और विचारोंसे मुक्तिकी अवस्था विद्यमान रहती है । बादमें जब शांतिकी अवस्था आंतरिक सत्तामें एकदम जम जाती है -- क्योंकि जब कभी तुम एकाग्र होते हों तब आंतरिक सत्तामें ही प्रवेश करते हो - तब वह बाहर आना और बाहरी सत्तापर भी शासन करना आरंभ करती है जिससे कि स्थिरता और शांति उस समय भी बनी रहती है जब मनुष्य कार्य करता है, दूसरोंसे मिलता-जुलता है, बातचित करता या अन्य कार्य करता है । क्योंकि, उस समय बाहरी चेतना चाहे कुछ भी क्यों न करे, आंतरिक सत्ता भीतर शांत अनुभूत होती है - अवश्य हीं मनुष्य अपनी आंतरिक सत्ताको ही अपना सच्चा स्वरूप समझता है और बाहरी सत्ताको एक ऐसी ऊपरी चीज समझता है जिसके द्वारा आंतरिक सत्ता जीवनके ऊपर क्रिया करती है ।

 

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   सुख-शातिका अनुभव अंदर बहुत गहराईमें और बहुत दूर होता हे क्योंकि वे चीज़ें चैत्य सत्तामें होती हैं और चैत्य सत्ता हमारे अंदर बहुत गहराईमें है और मन तथा प्राणके द्वारा आच्छादित है । जब तुम ध्यान करते हों तो चैत्यकी ओर उद्घाटित होते हों, अपने भीतर गहराईमें विद्यमान अपनी चैत्य चेतनाके विषयमें सचेतन होते हो और इन चीजोंको अनुभव करते हों । यदि तुम चाहो कि ये सुख, शांति और प्रसन्न- ता तीव्र और स्थायी हों जायं तथा सारी सत्तामें और शरीरमें भी अनुभूत हों तो तुम्हें अपने अंदर और अधिक गहराईमें पैठना होगा और चैत्य चेतनाकी संपूर्ण शक्तिको शरीरमें लें आना होगा । यह कार्य अधिक आसानीसे तभी किया जा सकता है जब कि इस सच्ची चेतनाकी पानेकी अभीप्सा रखकर नियमित रूपसे एकाग्रता और ध्यान- का अभ्यास किया जाय । यह कार्य कर्मके द्वारा भी किया जा सकता है, आत्मोत्सगैके द्वारा, अपने विषयमें कुछ सोचे बिना और हृदयमें सर्वदा श्रीमाँके प्रति आत्मार्पणका भाव बनाये रखकर एकमात्र भगवानके लिये कर्म करके भी इसे किया जा सकता है । परंतु पूर्ण रूपसे ऐसा करना आसान नहीं है ।

 

*

 

     यदि उच्चतर ध्यान या ऊपर बने रहना मनुष्यको उदास बना देता है, साधनामें उसे किसी प्रकारका संतोष या शांति नही मिलती तो, मैं जहाँतक समझ सकता हूँ, इसके केवल दो ही कारण हैं -- अहंभाव या तामसिकता ।

 

*

 

    यह बिलकुल स्वाभाविक है कि यौगिक साहित्य पढ़ते समय मनुष्य ध्यान करना चाहे - यह आलस्य नहीं है ।

 

    मनका आलस्य तो है ध्यान न करना, जब कि चेतना उसे करना चाहती हो ।

 

*

 

   यह यथार्थ बात नही है कि जब मनुष्यमें धूमिलपन या तामसिकता होती है तो वह एकाग्रता या ध्यान नहीं कर सकता । यदि किसीकी आंतरिक सत्तामें इसे करनेका दृढ संकल्प हो तो वह इसे. कर सकता है ।

 

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 जब कोई ध्यान करनेकी कोशिश करता है तब भीतर पैठनेके लिये, जाग्रत् (बाह्य) चेतना खो देनेके लिये तथा अंदरमें, आंतरिक चेतनाकी गहराईमें जागृत

 

२३७


होनेका दबाव पड़ता है । परंतु आरंभमें मन ऐसा समझता है कि यह दबाव निद्रामें डूबनेके लिये है, क्योंकि निद्रा हीं एकमात्र आंतरिक चेतनाकी वह स्थिति है जिसका उसे अभीतक अभ्यास रहा है । इसलिये योगमें ध्यान करनेपर आरंभमें जो बहुधा कठिनाई होती है वह है नींद । परंतु कोई यदि लगातार प्रयास करता रहे तो धीरे- धीरे नदी एक आंतरिक सचेतन स्थितिमें बदल जाती है ।

 

*

 

    जब कोई ध्यान करनेका प्रयत्न करता है तब उस तरह नींद नही आती । जहां वैसा करना संभव हो, इसे एक सज्ञान आंतरिक तथा अंतर्मुखी स्थितिमें बदलकर और, जहां संभव न हों, ग्रहण करनेके लिये उद्घाटित एक अचंचल एकाग्रीभूत जाग्रतावस्था- मे ( बिना प्रयास) बने रहकर, इस नींदकी स्थितिमें सुधार करना चाहिये ।

 

*

 

    नही, यह नींद नही है । बल्कि जब दबाव अंतर्मुखी होने (समाधिमें जाने) की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है तो. भौतिक सत्ता इसे निद्राके भावमें बदल देती है, क्योंकि उसे निद्राके द्वारा अंदर पैठनेके सिवा और किसी चीजका अभ्यास नही होता ।

 

 *

 

    ऐसा लगता है कि तुम एक प्रकारकी समाधिमें भीतर चले जाते हों पर अभी सचेतन नही रहते (इसी कारण निद्राका भाव आता है) । '' सोया नही होता, बल्कि जब वह अन्दर पैठता है तो अपने शरीरपर उसका नियंत्रण नहीं रहता । बहुतसे योगियोंको यह कठिनाई होती है । ऐसी हालतमें वे एक ऐसी चीजका उद्भावन करते हैं जिसे दे अपनी ठोड़ीके नीचे डाल देते हैं ताकि वह ध्यानमें इस प्रकार अंदर घुसनेपर उनके मस्तक और उसके साथ-साथ उनके शरीरको पकड़े रखे ।

 

II

 

    समाधिके समय आंतर भनप्राण और शरीर हीं बाह्य सत्तासे पृथक् होते हैं और अब उससे आच्छादित नहीं रहते -- इसलिये वे पूर्ण रूपसे आंतरिक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं । उस समय बाह्य मन या तो निष्क्रिय हों जाता है या किसी रूपमे अनुभवको प्रतिबिंबित करता या उसमें भाग लेता है । समस्त मनोमयी सतासे केंद्रीय चेतनाके पृथक् हों जानेका मतलब है पूर्ण समाधिका अवस्था जिसमे अनुभवोंकी कोई स्मृति नहीं रहती ।

 

२३८


    परंपराके अनुसार निर्विकल्प समाधि महज वह समाधि है जहांसे मनुष्य गर्म लोहेसे दागने या आगसे जलानेपर भी नही जग सकता - अर्थात् ऐसी समाधि जिसमें मनुष्य पूर्ण रूपसे शरीरसे बाहर चला गया होता है । अधिक वैज्ञानिक भाषामें कहा जा सकता है कि यह वह समाधि है जिसमें चेतनाके अंदर कोई रचना या गति नही होती और योगी एक ऐसी स्थितिमें खो जाता है जहांसे वह अनुभवका कोई विवरण नही ले आ सकता, महज यही कह सकता है कि वह आनन्दमें था । ऐसा माना जाता है कि यह स्थिति सुषुप्ति या तुरीयमें पूर्णतः लीन हों जाना है ।

 

*

 

     निर्विकल्प समाधिका ठीक-ठीक अर्थ है पूर्ण समाधि जिसमे कोई विचार नही होता या चेतनाकी कोई गाते नहीं होती अथवा न तो बाहरी न भीतरी वस्तुओंका कोई ज्ञान रहता है -- सब कुछ खींचकर विश्वातीत परात्परमें चला जाता है । पर यहांपर इसका अर्थ ऐसा नही हों सकता -- यहां संभवतः अर्थ है मनसे परेकी चेतनामें समाधि ।

 

    तोड़ना और फिर गढ़ना प्राय. ही परिवर्तनके लिये आवश्यक होता है; परंतु जब एक बार मौलिक चेतना प्राप्त हों चुकती है तब कोई कारण नही कि यह सब कष्ट और उथल-पुथलके साथ किया जाय -- इसे शांतिके साथ किया जा सकता है । सच पूछो तो निम्रतर अंगोंको विरोध हीं कष्ट और उथल-पुथल उत्पन्न करता है !

 

*

 

     सच्चिदानन्दमें डूब जाना एक ऐसी स्थिति हे जिसे निरूप्य समाधिके बिना जाग्रत् अवस्थामें प्राप्त कर सकता है -- विलयन केवल शरीरके नाशके बाद ही 'हों सकता है, बशर्त्ते कि मनुष्य उच्चतम स्थितिको प्राप्त कर चुका हो और संसारकी सहायता करनेके लिये यहां वापस आनेकी इच्छा नहीं करता ।

 

*

 

     यह तुम्हारी भौतिक चेतनाके स्वभावपर निर्भर करता है । जब शरीरमें चेतना- का अवतरण होता है तो मनुष्य सूक्ष्म-भौतिक चेतनाके विषयमें सज्ञान हो उठता है और वह ज्ञान समाधिमें बना रह सकता है -- ऐसा लगता है कि मनुष्यको शरीरका ज्ञान है पर वास्तवमें वह सूक्ष्म शरीर होता है न कि बाहरी स्थूल शरीर । परंतु मनुष्य और अधिक गहराईमें भी जा सकता है और फिर भी भौतिक शरीरके बारेमें और उसपर किया करनेके बारेमें भी सचेतन रह सकता है, पर बाहरी वस्तुओंके बारेमें नहीं रह सकता । अंतमें जाकर मनुष्य एक गभीर एकाग्रतामें निमग्न हों जा सकता

 

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है पर प्रबल रूपमें शरीरके विषयमें तथा उसमें शक्तिके अवतरणके बिषयमें सचेतन रह सकता है । इस अंतिम स्थितिमें बाहरी वस्तुओंका ज्ञान भी बना रहता है यद्यपि उनकी ओर ध्यान नही भी दिया जा सकता । इस अंतिम स्थितिको सामान्यतया समाधि नहीं कहा जाता, पर यह एक प्रकारकी जाग्रत् समाधि है । पूर्ण समाधिकी गभीर स्थितिसे लेकर पूर्ण जागृत चेतनामें होनेवाली शक्तिकी क्रियातककी सभी अवस्थाओंका उपयोग इस योगमें किया जाता है । साधकको सर्वदा पूर्ण समाधिपर ही जोर नही देना चाहिये, क्योंकि अन्य समाधियां भी आवश्यक हैं और उनके बिना पूर्ण परिवर्तन नही साधित हों सकता ।

 

    यह बड़ा अच्छा है कि उच्चतर चेतना और उसकी शक्तियां मस्तक और हदयके नीचेके भागोंमें अवतरित हो रही हैं । यह रूपांतरके लिये अत्यंत आवश्यक है । क्यों- कि निम्रतर प्राण और शरीर भी उच्चतर चेतनाके उपादानमें अवश्य परिवर्तित हों जाने चाहियें ।

 

*

 

     तुम जो अपने ध्यानसे बाहर आनेपर कुछ याद नहीं रख पाते इसका कारण यह है कि अनुभव आंतर सत्तामें घटित होता है और बाह्य सत्ता उसे ग्रहण करनेके लिये प्रस्तुत नहीं है । इससे पहले तुम्हारी साधना मुख्यतया प्राणिक लोकमें चल रही थी जो बहुधा सबसे पहले खुलता है और उस लोकके साथ शारीर चेतनाका संपर्क स्थापित करना आसान होता है क्योंकि वे दोनों स्तर एक-दूसरेके अधिक समीप हैं । अब ऐसा लगता है कि साधना भीतर चैत्य सत्तामें चली गयी है यह एक महान् प्रगति है और तुम्हें अभी अत्यंत बाह्य चेतनाके साथ संपर्क न होनेके कारण कोई चिंता करनेकी आवश्यकता नहीं । कार्य फिर भी चल रहा हैं और संभवत यह आवश्यक है कि ठीक अभी यह इसी भांति हो । पीछे चलकर यदि तुम समुचित मनोभाव सतत बनाये रखोगे तो वह बाहरी चेतनामें भी अवतरित होगी ।

 

*

 

     एक मध्यवर्ती समाधि होती है जो भिन्न प्रकारकी होती है -- उसमें योगीको सच्चिदानन्दकी संपर्क नही प्राप्त होता बल्कि निम्र प्राणिक लोककी सत्ताओंके साथ संपर्क प्राप्त होता है । उच्चतर प्रकारकी समाधिमें जानेकी शक्तिको विकसित करनेके लिये कुछ साधना करनेकी आवश्यकता होती है । पवित्रीकरणका जहांतक प्रश्न है, संपूर्ण पवित्रीकरण आवश्यक नहीं है, पर सत्ताके कुछ भागोंको उच्चतर वस्तुओंकी ओर अवश्य मुड जाना चाहिये ।

 

२४०


     अंगरेजीमें 'ट्रांस' (Trance) शब्दका प्रयोग सामान्यतया केवल गभीरतर प्रकारकी समाधिके लिये होता है, परंतु, अन्य कोई शब्द न होनेके कारण, हमें इसका प्रयोग सब प्रकारकी समाधियोंके लिये करना होगा ।

 

*

 

   समाधि कोई ऐसी चीज नही है जिसका त्याग कर दिया जाय -- बस, आवश्यक- ता है इसे अधिकाधिक सचेतन बनानेकी ।

 

*

 

   भगवानके साथ संपर्क प्राप्त करनेके लिये समाधिमे रहना आवश्यक नहीं है ।

 

*

 

      इसके विपरीत, सच पूछो तो जाग्रत् अवस्थामें इस अनुभूतिको आना चाहिये और बने रहना चाहिये जिसमें कि यह जीवनका एक सत्य बन सके । यदि समाधिमे इसका अनुभव हों तो यह एक ऐसी अतिचेतन अवस्था होगी जो आंतरिक सत्ताके किसी भागते लिये ही सत्य होगी, समस्त चेतनाके लिये सत्य नही होगी । सत्ताके उद्घाटन और उसकी तैयारीके लिये समाधिमें होनेवाली अनुभूतियोंका उपयोग तो है पर जब उपलब्धि जाग्रत् अवस्थामें निरंतर होती रहती है केवल तभी वह वास्तवमें अपने अधि- कारमें होती है । अतएव इस योगमें जाग्रत् उपलब्धि और अनुभूतिको ही सबसे अधिक मूल्य प्रदान किया जाता है ।

 

     स्थिर चिर-विस्तरणशील चेतनामें रहकर कार्य करना एक साथ ही एक साधना और एक सिद्धि भी है ।

 

 *

 

    जो अनुभव तुम्हें हुआ वह निस्संदेह चेतनाका अंदर प्रवेश करना था जिसे साधारणतया समाधि कहा जाता है । परंतु इसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाग है मन और प्राणकी निश्चल-नीरवता जो पूर्णत. शरीरतक भी विस्तारित है । इस नीरवता और शांतिकी क्षमताको प्राप्त करना साधनाकी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवस्था है । यह सर्वप्रथम ध्यानमें आती है और चेतनाषगे भीतरकी ओर समाधिमें फेंक दे सकती है, पर पीछे इसे जागृत अवस्थामें भी आना होगा और समस्त जीवन तथा कर्मके स्थायी आधारके रूपमे अपनेको स्थापित करना होगा । यही वह अवस्था है जिसमें आत्मा- का साक्षात्कार और प्रकृाताक आध्यात्मिक रूपांतर साधित होता है ।

 

२४०


     हा, उन्हें (उच्चतर सिद्धिकी सभी स्थितियोंके) पूरी क्रियाशीलताके अंदर प्राप्त किया जा सकता है । समाधि आवश्यक नही है -- उसका व्यवहार किया जा सकता है पर वह स्वयं अपने-आपमें चेतनाका परिवर्तन नही लें आ सकती जो कि हमारा उद्देश्य है, क्योंकि समाधि केवल आंतरिक आत्मनिष्ठ अनुभव ही प्रदान करती है जो बाहरी चेतनामें कोई अंतर पैदा करे ही यह आवश्यक नहीं है। ऐसे बहुतसे साधकों- के उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने समाधिमें बड़ी अच्छी-अच्छी अनुभूतियां पायी है पर उनकी बाहरी सत्ता पहलेकी जैसी ही बनी हुई है । जो कुछ अनुभूत होता है उसे बाहर लें आना और उसे आंतरिक तथा बाह्य सत्ता दोनोंके रूपांतरके लिये ए_क शक्तिमें परिणत करना आवश्यक है । परंतु यह कार्य समाधिमें गये बिना स्वयं जाग्रत् चेतनामें किया जा सकता है । अवश्य हीं एकाग्रताका अभ्यास करना अनिवार्य है ।

 

*

 

    दो अलग-अलग स्थितियां हैं -- एक तो वह है जिसे चेतना. एकाग्रताकी अवस्था- मे लेती है और दूसरी वह है जिसे वह विश्रामकी अवस्थामें लेती है । इनमेंसे दूसरी विश्रामकी स्थिति सामान्य चेतना है (सामान्य साधककी दृष्टिसे, पर शायद सामान्य जनकी सामान्य चेतना नही) और पहली एकाग्रताकी स्थिति वह है जो साधनामें चेतनाकी तपस्याके द्वारा प्राप्त होती है । जो साधक इतनी दूर जा चुका है उसके लिये अक्षरकी स्थितिमें प्रवेश करना और वहांसे अनुभवोंको देखना आसान है । वह एकाग्र हो सकता और अपनी सत्ताके प्रमुख पक्षोंमें एकत्व भी बनाये रख सकता हे, यद्यपि इसमे उसे अधिक कठिनाई हों सकती है -- पर शिथिलीकरणकी अवस्थामें वह शिथिल सामान्य चेतनामें आ गिरता है । वास्तवमें साधनाके द्वारा जो कुछ प्राप्त हुआ है वह जब साधारण चेतनाके लिये स्वाभाविक बन जाता है केवल तभी इससे बचा जा सकता है । जितने अंशमें इसे किया जाता है उतने अंशमें सत्यको केवल आंतरिक रूपमें अनुभव करना ही नही बल्कि उसे कार्यमें भी आअभिव्यक्त करना संभव होता है ।

 

*

 

    उच्चतर चेतना संकेंद्रित चेतना है -- भागवत एकत्वमें और भागवत संकल्प- को कार्यान्वित करनेमे संकेंद्रित है, वह बिखरी हुई नही है और न वह किसी -न-किसी मानसिक विचार या प्राणिक कामना या भौतिक आवश्यकताके पीछे हीं दौड़ती है जैसा कि सामान्य मानवीय चेतना करती है -- फिर वह सैकड़ों ऊलजलूल विचारों, भावनाओं और आवेगोंके द्वारा आक्रांत नही होती, बल्कि उसका अपने ऊपर प्रभुत्व होता है, वह केंद्रित और सुसमंजस होती है ।

 

२४२


III

 

   साधारणतया दो अवस्थाओंमेंसे किसी एकमें ही जप फल प्रदान करता है ( 1) यदि जप अर्थपर ध्यान रखकर किया जाता है, साधकके मनमें कोई ऐसी चीज होती है जो उस देवताके स्वभाव, शक्ति, सौंदर्य, मोहिनी शक्तिपर एकाग्र होती है जिसे जपका मंत्र व्यक्त करता है और जिसे चेतनाके अन्दर लें आना अभिप्रेत होता है । यह मानसिक पद्धति है, अथवा ( 2) यदि जप हदयसे उठता है या इसे सजीव बनानेवाली एक प्रकारकी भक्तिके भाव या बोध मात्रकों हृदयमें झंकृत करता है । यह हदयकी भावप्रधान पद्धति है । इस तरह जपको या तो मनका या प्राणका सहारा या पोषण मिलना ही चाहिये । पर जपसे मन यदि शुष्क हो जाय और प्राण चंचल हों उठे तो इसका अर्थ है कि उसे यह सहारा और पोषण नही मिल रहा है । अवश्य ही एक तीसरी पद्धति भी है, वह है स्वयं मंत्र या नामकी शक्तिपर निर्भरता । उस अवस्थामें साधकको तबतक जप करते रहना होता है जबतक कि वह शक्ति पर्याप्त रूपमें आंतरिक सत्तापर अपने प्रकपनोको जमा न दे जिसमें कि एक सुनिश्चित क्षणमें वह एकाएक दिव्य उप- स्थिति या दिव्य स्पर्शकी ओर उद्घाटित हों जाय । परंतु इस फलके लिये यदि संघर्ष किया जाय या आग्रह किया जाय तो फिर इस फलके आनेमें बाधा पड़ती है, क्योंकि इसके आनेके लिये यह आवश्यक हव कि मनके भीतर एक प्रकारकी अचंचल ग्रहणशीलता हों । यही कारण है कि मैत्री बार-बार मनकी अचंचलतापर इतना अधिक जोर दिया था, इस बातपर जोर नही दिया था कि इसके लिये अत्यधिक श्रम या प्रयास  जाय । मेरा उद्देश्य यह था कि चैत्य पुरुष और मनको समय दिया जाय कि वे ग्रहण- शीलताकी आवश्यक स्थितिको विकसित करें -- यह ग्रहणशीलता उतनी ही स्वा- भाविक होनी चाहिये जितनी कि वह उस समय होती है जब मनुष्य कविता या संगीत- की अंतःप्रेरणाको ग्रहण करता है । फिर यही कारण एक मैं नहीं चाहता कि तुम कविता लिखना बंद कर दो -- यह सहायता करता है और तैयारीके कार्यमें बाधा नहीं पहुँचाता, क्योंकि यह ग्रहणशीलताकी और अवस्थामें विद्यमान भक्तिको बाहर निकालनेकी समुचित अवस्थाको विकसित करनेका साधन है । अपनी सारी शक्तिको जप या ध्यानमें खर्च कर देना एक प्रकारका कठिन श्रम है जिसे जारी रखना सफल ध्यान करनेके अभ्यस्त व्यक्तिके लिये भी कठिन होता है -- जिसे केवल उन समयों- मे ही जारी रखना संभव होता हैं जब कि उत्परसे अनुभूतियोंकी अबाध धारा प्रवाहित होती रहती है ।

 

*

 

    ॐ मंत्र है, यह ब्रह्म-चैतन्यके तुरीयसे लेकर बाह्य या भौतिक स्तरतकके चारों लोकोंको अभिव्यक्त करनेवाला शब्द-प्रतीक है । मंत्रका कार्य है आंतर चेतनामें ऐसे प्रकपनोको पैदा करना जो उसे (चेतनाको) उस वस्तुकी सिद्धिके लिये तैयार करते

 

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हैं जिसका प्रतीक वह मंत्र होता है और जिसके विषयमें यह वास्तवमें माना जाता है कि स्वयं वह मंत्र उसे अपने अन्दर वहन करता है । अतएव मंत्र थे को चेतनाका इस प्रकार उद्घाटन करा देना चाहिये कि वह सभी स्थूल-भौतिक वस्तुओंमें, आंतरिक सत्ता और अतिभौतिक जगतोंमें, हमारे लिये अभी अतिचेतन ऊपरके कारण-लोकमेंऔर अंतमें समस्त विश्व-सत्तासे ऊपर स्थित चरम मुक्त परात्परतामें एकमेव चैतन्यको देख और अनुभव कर सके । जो लोग इस मंत्रका उपयोग करते हैं उनका मुख्य लक्ष्य साधारणतया अंतिम अनुभूति ही होती है ।

 

      इस योगमें कोई निश्चित मंत्र नही है, मंत्रोंपर कोई विशेष जोर नहीं दिया जाता, यद्यपि साधकको यदि कोई मंत्र सहायक प्रतीत हों या जबतक सहायक मालूम हो तबतक वह उसका उपयोग कर सकता है । यहांपर बल्कि जोर दिया जाता है चेतनामें अभीप्सा रखनेपर और मन, हृदय, संकल्पशक्ति, समस्त सत्ताकी एकाग्रतापर । यदि कोई मंत्र इस कार्यके लिये उपयोगी प्रतीत होता है तो साधक उसका उपयोग करता है । ॐ मंत्रका यदि ठीक-ठीक (यंत्रवत् नही) उपयोग किया जाय तो यह अवश्य ही ऊपर- की ओर और बाहर (विश्व-चेतना) की ओर उद्घाटित होने तथा साथ ही ऊपरकी चेतनाके अवतरित होनेमें सहायता कर सकता है ।

 

*

 

    साधारणतया इस साधनामें व्यवहृत होनेवाला एकमात्र मंत्र है श्रीमांका मंत्र या मेरे और माताजीके नामका मंत्र । हृदयमें और मस्तकमें दोनों जगह एकाग्रता की जा सकती है दोनोंका अपना अलग-अलग फल हैं । पहली चैत्य पुरुषको उद्घाटित करती है और भक्ति, प्रेम तथा श्रीमाताजीके साथ एकत्व, हृदयमें उनकी उपस्थिति तथा प्रकृतिके अंदर उनकी शक्तिकी क्रियाको ले आती है । दूसरी आत्मोपलब्धिके लिये, जो कुछ मनसे ऊपर है उसका ज्ञान पानेके लिये, चेतनाके शरीरसे ऊपर उठनेके लिये और उच्चतर चेतनाके शरीरके अंदर उतारनेके लिये मनको उद्घाटित करती

 

*

 

   भगवानके नामका जप सामान्यतया संरक्षण पानेके लिये, पूजा करनेके लिये, भक्ति बढ़ानेके लिये, आंतरिक चेतनाको उद्घाटित करनेके लिये, भगवानके उसी स्वरूपका साक्षात्कार करनेके लिये किया जाता है । इस कार्यके लिये अवचेतनके अंदर कार्य करना जितना आवश्यक है उसके लिये नाम अवश्य ही फलदायी हों सकता

 

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नाम जपमें एक महान् शक्ति है ।

 

*

 

    चाहे जिस किसी नामको क्यों न पुकारा जाय, जो शक्ति प्रत्युत्तर देती है वह स्वयं श्रमों हैं । प्रत्येक नाम भगवानके एक विशेष पक्षको सूचित करता है और उस भाव-पक्षसे सीमित होता है; परंतु श्रीमाताजीकी शक्ति सर्वव्यापक है ।

 

*

 

    मैंने उबसाते साथ नाम-जप करनेके लिये प्रोत्साहित नही किया, क्योंकि वह मुझे प्राणायाम जैसा लगा । प्राणायाम बहुत शक्तिशाली चीज है, पर वह यदि अव्यवस्थित रूपमें किया जाय तो उससे बाधाएं खड़ी हों सकती है और यहांतक कि अत्यधिक लोंगोंके शरीरमें रोग भी हो सकते है ।

 

*

 

   गायत्रीकी शक्ति है भागवत सत्यकी ज्योति । यह ज्ञानका मंत्र है ।

 

*

 

   गायत्री मंत्र सत्ताके सभी लोकोंमें सत्यकी ज्योतिको ले आनेका मंत्र है ।

 

*

 

   गायत्री-जपको या जिस पद्धतिका अभी तुम अनुसरण कर रहे हो उसको छोड़ने- की आवश्यकता नही । हृदयमें एकाग्र होना एक पद्धति है, सिरमें (या ऊपर) एकाग्र होना दूसरी पद्धति है, दोनोंको इस योगमें शामिल किया गया है और जिस व्यक्तिको जो पद्धति सबसे अधिक आसान या स्वाभाविक प्रतीत हों उसे उसीका अभ्यास करना चाहिये । हृदयमें एकाग्र होनेका उद्देश्य है वहांके केंद्र (हत्पद्य) को उद्घाटित करना, हृदयमें भगवती माताकी उपस्थितिको अनुभव करना और अपने अंतरात्मा या चैत्य पुरुषके विषयमें जो कि भगवानका अंश है, सचेतन होना । मस्तकमें एकाग्र होनेका उद्देश्य है भागवत चेतनामें ऊपर उठ जाना और सभी चक्रोंमें श्रीमाताजीकी ज्योति या उनकी शक्ति या आनन्दको उतार लाना । यह आरोहण और अवरोहणकी क्रिया तुम्हारे जपकी प्रक्रियामें अंतर्निहित है और इसलिये उसे छोड़नेकी आवश्यकता नही ।

 

    मस्तकमें सत्यलोकके अनुरूप एक स्तर है पर एक विशेष अवस्थामें चेतनाको

 

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ऊपर वैश्व चेतनाके उसी स्तरमें जानेके लिये मुक्तभावसे मस्तकसे ऊपर उठना होता

 

*

 

    ऐसा माना जाता हैं कि इस (प्रणव जप) मे एक अपनी शक्ति है यद्यपि वह शक्ति उसके अर्थपर ध्यान किये बिना पूरी तरह कार्य नही कर सकती । परंतु मेरा अनुभव यह  कि इन बातोंका कोई अकाटच नियम नही है और सबसे अधिक निर्भर करता हे चेतनाके ऊपर या साधककी प्रत्युत्तर देनेकी शक्तिके ऊपर । कुछ लोगोंके प्रसंगमें इसका कोई फल नही होता, कुछ लोगोंके प्रसंगमें ध्यान किये बिना भी इसका बहुत शीघ्र और शक्तिशाली फल होता है -- दूसरोंके लिये कोई फल पानेके लिये ध्यान आवश्यक होता है ।

 

*

 

    गीताके श्लोकोंका उपयोग जपकी तरह किया जा सकता है, यदि उस सत्यको उपलब्ध करना लब्ध है जिसे वे श्लोक धारण करते हैं । यदि ' ' के पिताने उस उद्देश्य- सिद्धिके लिये गीता-शिक्षाके सारको वहन करनेवाले मुख्य-मुख्य श्लोकोंको एकत्रित किया है तो यह बहुत ठीक है । सारी बात निर्भर करती है श्लोकोंके चुनाव- पर । सच पूछो तो गीताके कुछ श्लोकोंको एक साथ रख देनेसे गीताकी शिक्षाका सुसबद्ध संक्षिप्त रूप आसानीसे नही तैयार किया जा सकता, परंतु इस प्रकारके उद्देश्य- के लिये वैसा करना आवश्यक नही है, इसका उद्देश्य तो बस मूल सत्योंको एक साथ रख देना हो सकता है -- किसी बौद्धिक व्याख्याके लिये नन्हों बल्कि अनुभूतिको पकड़नेके लिये जो कि जपका उद्देश्य है । मैंने इस पुस्तकको नही पढा है, इसलिये मैं नही जानता कि कितनी दूरतक यह अपने उद्देश्यको पूरा करती है ।

 

 *

 

    जब कोई नियमित रूपसे किसी मंत्रका जप करता है तो बहुत बार जप अपने- आप भीतरमें होना आरंभ हों जाता है, इसका मतलब है कि आंतरिक सत्ताके द्वारा जप होने लगा है । इस ढंगसे जप अधिक फलदायक बन जाता है ।

 

*

 

     स्वभावत: ही, जिस नामपर मनुष्य एकाग्र होता है वह अपने-आप चलता रहेगा, यदि कोई वैसा करता है । परंतु नीदमें श्रीमांको पुकारना आवश्यक रूपसे कोई जप

 

२४६


नही है -- वास्तवमें आंतर सत्ता कठिनाईके समय या आवश्यक होनेपर बहुधा श्रीमां- को पुकारती है ।

 

*

 

    बहुतसे लोगोंको मंत्र ध्यानमें प्राप्त होते हैं । वेदमें ऋषियोंका कहना है कि अंतर्दर्शन और अतर्ज्ञानके द्वारा उन्होंने सत्यको सुना -- ' 'कवय: सत्यभूत. '' -- वेद इसीलिये श्रुति कहलाते हैं कि वे अंतःकरणमें सुनकर प्राप्त किये गये थे ।

 

२४७

विभाग छ:

 

ध्यानके द्वारा साधना


ध्यानके द्वारा साधना

 

      तुम्हारे प्रश्न. एक बहुत विशाल क्षेत्रको पूराका पूरा समाविष्ट कर लेते हैं । अतएव यह आवश्यक हे कि कुछ संक्षेपमें, किन्हीं प्रधान बातोंका स्पर्शमात्र करते हुए उनका उत्तर दिया जाय ।

 

           1 ध्यानका ठीक-ठीक अर्थ क्या है?

 

भारतीय शब्द 'ध्यान की भावनाको अभिव्यक्त करनेके लिये अंगरेजीमें दो शब्दोंका व्यवहार किया जाता है मेडिटेशंन (Meditation) और कण्टेफ्लेशन ( इ(Contemplation) । जब मनुष्य अपने- मनको किसी एक ही विषयको स्पष्ट करनेवाली किसी एक ही विचार-धारापर एकाग्र करता हैं तो उसे ही वास्तवमें 'मेडिटेशंन' कहते हैं । परंतु जब मनुष्य किसी हा_क ही विषय, मूर्त्ति, भावना आदिपर मनकी दृष्टि लगा देता है जिससे एकाग्रताकी शक्तिकी सहायतासे उसके मनमें स्वभावत: ही उस विषय, मूर्त्ति या भावनाका ज्ञान उदित हों जाता है तो वही कहलाता है 'कट्टे- म्प्लेशन' । ये दोनों ही चीज़ें ध्यानके दो रूप हैं, क्योंकि ध्यानका मूल स्वरूप हीं है मानसिक एकाग्रता, फिर वह एकाग्रता चाहे विचारपर की जाय या किसी दृश्यपर या ज्ञानपर. ।

 

    इनके अलावा ध्यानके अन्य रूप भी हैं । अपने एक लेखमें विवेकानन्दने यह सलाह दी है कि अपने विचारोंसे पीछे खड़े हो जाओ, उन्हें अपने मनमें, जैसे वे आवें, आने दो और महज उनका निरीक्षण करो तथा देखो कि वे क्या हैं । इस क्रियाको आत्म- निरीक्षणात्मक एएकाग्रता कह सकते हैं ।

 

     यह क्रिया एक दूसरी क्रियाकी ओर ले जाती है, हम अपने सभी विचारोंको अपने मनसे बाहर निकाल देते हैं और इस तरह उसे एक प्रकारसे शुद्ध, सजग और खाली बनाकर छोड़ देते हैं जिसमें कि उसपर दिव्य ज्ञान प्रकट हों और अपनी छाप डाल दे 1 साधारण मानव-मनके निम्नतर विचार उसे क्षुब्ध न करें और उसकी छाप वैसी ही स्पष्ट हों जैसी कि काले तख्तेपर सफेद खरिया मिट्टीकी लिखावट होती है । तुम देखोगे कि गीता इस प्रकार सभी मानसिक विचारोंके त्यागको योगकी एक पद्धति कहती है और इसी पद्धतिको पसंद करती हुई प्रतीत होती है । इसे हम मुक्तिदायक ध्यान कह सकते हैं, क्योंकि इस ध्यानसे चिंतनकी यांत्रिक क्रियाकी दासतासे मन मुक्त हो जाता है । मनको यह छूट मिल जाती है कि वह चाहे सोचे या न सोचे, यदि चाहे और जब चाहे तो ही सोचे, अथवा अपने विचारोंका चुनाव कर सके अथवा चिंतनके परे जाकर सत्यका शुद्ध दर्शन प्राप्त करे जिसे हमारे दर्शनमे 'विज्ञान' कहा गया है ।

 

    इन सब ध्यानोंमेंसे पहला (मेडिटेशन) मानव-मनके लिये सबसे अधिक सुगम तरीका है, पर अपने परिणामोंमें यह अत्यन्त परिमित है । दूसरे प्रकारका ध्यान

 

२१९


( कण्टेफ्लेशन) अधिक कठिन है, पर पहलेसे अधिक शक्तिशाली हे । आत्मनिरीक्षण- की पद्धति तथा विचार-शृंखलासे मुक्ति - ये दोनों सबसे अधिक कठिन हैं, परंतु अपने परिणामकी दृष्टिसे सबसे अधिक विशाल और महान् हैं । मनुष्य अपनी रुझान और सामर्थ्यके अनुसार इनमेंसे किसी एक पद्धतिको चून सकता है । पूर्ण पद्धति है इन सबका उपयोग करना, प्रत्येकको उसके निजी स्थानमें और उसके निजी उद्देश्यसे व्यव- हत करना । परंतु इसके लिये आवश्यकता है सुदृढ़ विश्वास और अटूट धैर्यकी तथा योगमें अपने-आपको नियुक्त करनेके संकल्पकी महान् शक्तिकी ।

 

    2. ध्यानके लिये कौनसा बिषय या कौनसे विचार होने चाहियें?

 

     जो कुछ तुम्हारे स्वभाव और उच्चतम अभीप्साके साथ सबसे अधिक मेल खाता हों वही ध्यानका विषय है । परंतु तुम यदि मुझसे कोई निरपेक्ष उत्तर पूछो तो मैं यही कहूँगा कि ध्यानके लिये सबसे उत्तम विषय सदा ही ब्रह्म हे और जिस भावनापर मनको जमाना चाहिये यह भावना यह है कि भगवान् सबमें हैं, सब भगबानमें हैं और सब कुछ भगवान् ही है । मूलत: इस बातसे कुछ भी नहीं आता-जाता कि वह भगवान् निराकार है या साकार, अथवा प्रत्येकृदृष्टिसे, एकमेवाद्वितीय ब्रह्म है । परंतु जिसे मैंने सर्वोत्तम भावना पाया है वह है - सर्व खल्विदं ब्रह्म -- यह सब कुछ ब्रह्म ही है, क्योंकि यह उच्चतम भावना है और इसमें अन्य सभी सत्य निहित हैं, चाहे वे सत्य इस जगतके हों या अन्य जगतोंके अथवा समस्त इंद्रियग्राह्य सत्ताके परेके ।

 

        'आर्य' पत्रिकाके तीसरे अंकमें, ईशोपनिषद्की ब्याख्याकी दूसरी किश्तके अंत- मे, 'सर्व' विषयक इस दर्शनका विवरण तुम्हें मिलेगा और उससे तुम्हें इस विचारकों समझनेमें सहायता मिल सकती है । '

 

        3. आंतरिक और बाह्य अवस्थाएं जो ध्यानके लिये अत्यत आवश्यक हैं । वास्तवमें कोई भी अनिवार्य बाहरी अवस्थाएं नही हैं, पर ध्यानके समय एकांत और निर्जन स्थानमें रहना तथा शरीरका शातस्थिर रहना सहायक होता है, कभी- कभी नये साधकके लिये प्रायः आवश्यक होता है । परन्तु साधकको बाहरी अवस्था- ओंसे बंधा हुआ नही रहना चाहिये । एक बार जब ध्यान करनेकी आदत पंडू जाय तब फिर ऐसी अवस्था बना लेनी चाहिये जब सभी परिस्थितियोंमें, लेटकर, बैठकर, घूमकर, अकेलेमें, दुकेलेमें, नीरवतामें या शोरगुलके बीच आदि-आदि सभी अवस्था- ओमें ध्यान करना संभव हों जाय ।

 

    सबसे पहली आवश्यक आंतरिक अवस्था है ध्यानके विघ्नोंके विरुद्ध अर्थात् मनकी भाग-दौड, विस्मृति, नींद, शारीरिक और स्नायविक अधीरता और चंचलता आदि-आदिके विरुद्ध साधकके संकल्पकी एकाग्रता ।

 

     दूसरी आवश्यक अवस्था यह है कि जिस आंतरिक चेतना (चित) लें विचार और भावावेग उठते हैं उसकी पवित्रता और शांति निरन्तर बढ़ती रहे अर्थात् '

 

      श्रीअरविन्दकी अंगरेजी पुस्तक 'ईश उपनिषद्' (सन् १९६५ संस्करण), पृष्ठ ३५ देखिये ।

 

२२०


बह विक्षुब्धकारी सभी प्रतिक्रियाओं, जैसे, क्रोध, दुःख, अवसाद, सांसारिक घटनाओं- के विषयमें दुश्चिता आदि, ३ एकदम मुक्त हों । मानसिक परिपूर्णता और नैतिक तत्त्व सदा एक-दूसरेसे घनिष्ठ रूपमे जुड़े होते हैं ।

 

*

 

    एकाग्रताका मतलब है चेतनाको एक साथ एकत्र कर लेना और उसे चाहे एक बिदुपर केंद्रित कर लेना अथवा किसी एक वस्तुकी ओर, जैसे, भगवान्की ओर मोड देना । उस समय किसी एक ही बिदुपर नहीं, बल्कि पूरी सत्ताभरमें एकत्रित अवस्था- का बोध हों सकता है । ध्यानमें इस प्रकार एकत्रित होना आवश्यक नहीं है, मनुष्य महज एक विषयका चिंतन करते हुए शांत-स्थिर बना रह सकता है और यह निरीक्षण कर सकता है कि चेतनाके अन्दर कौनसी चीज आती है और फिर उसके साथ समुचित व्यवहार कर सकता है ।

 

*

 

      एकाग्रताका तात्पर्य है एक स्थान या एक वस्तुपर और महज एक अवस्थामें चेतनाको जमा देना । ध्यान प्रसारित हों सकता है, उदाहरणार्थ, उस समय मनुष्य भगवानके विषयमें विचार कर सकता है, प्रभाव ग्रहण कर सकता है और विवेक कर सकता है, यह देख सकता है कि प्रकृतिमें क्या हों रहा है और उसपर क्यिा कर सकता है इत्यादि-इत्यादि ।

 

*

 

      हमारे योगमें एकाग्रता उसे कहते हैं जब चेतना किसी विशेष स्थितिमें ( जैसे, शांतिमें) अथवा क्रियामें ( जैसे, अभीप्सा, संकल्प, श्रीमाताजीके साथ संपर्क, श्रीमाताजी- का नाम-स्मरण) आदिमें लवलीन होती है । ध्यान उसे कहते हैं जब आंतर मन वस्तु- ओंको उनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेके लिये देखता रहता है ।

 

       अब एकाग्रताकी बात लें । साधारणतया चेतना चारों ओर फैली हुई, छतरी हुई होती है और इस या उस दिशामें, इस विषय या उस वस्तुकी ओर, जो असंख्य होते हैं, दौड करती है । जव कोई ऐसा काम करना होता है जो स्थायी स्वभावका होता है तो सबसे पहले मनुष्यको इस पूरी छितरी चेतनाको पीछे खींचकर एकाग्र करना होता है । तब, कोई यदि ध्यानसे देखे तो उसे पता चलेगा कि बह चेतना किसी एक

 

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स्थान और किसी एक कार्य, विषय या वस्तुपर एकाग्र होनेके लिये बाध्य हों जाती है -- जैसे उस समय होती है जब तुम कविता लिखते होते हों या कोई वनस्पति-शास्त्री किसी पुष्पका अध्ययन करता होता है । एकाग्रताका स्थान सामान्यतया कहीं मस्तिष्कमें होता है यदि उसका विषय कोई विचार हों, हृदयमें होता है यदि उसका विषय कोई भावना हो । यौगिक एकाग्रता महज इसी चीजका एक विस्तारित और घनीभूत रूप होती हैं । यह एकाग्रता किसी वस्तुपर की जा सकती है जैसे कोई मनुष्य एक चमकते बिंदुपर त्राटक करता हैं - उस समय मनुष्यको इस प्रकार एकाग्र होना होता है ताकि वह केवल उस बिंदुको ही देखे और उसके अतिरिक्त उसमें दूसरा कोई विचार न हों । फिर यह एकाग्रता एक विचार या एक शब्द या एक नामपर, भगवान्- विषयक एक विचारपर,  शब्दपर, कृष्ण नामपर अथवा एक संग विचार और शब्द- पर या विचार ओर नामपर की जा सकती है । परंतु इसके अतिरिक्त योगमें मनुष्य एक विशिष्ट स्थानमें भी एकाग्रताका अभ्यास करता है । योगका एक प्रसिद्ध नियम है दोनों भौंहोंके बीच एकाग्र होना, आंतर मन, गुह्य दर्शन और संकल्पका केंद्र इसी स्थानपर है । इस एकाग्रताके लिये जिस विषयको तुम चुनते हों उसीका तुम उस स्थानमे चिंतन करते हो अथवा वहांसे उसकी प्रतिमूर्त्ति देखनेकी चेष्टा करते हों । यदि तुम ऐसा करनेमें सफल हो जाते हों तो कुछ दिन बाद तुम यह अनुभव करने लगते हो कि तुम्हारी सारी चेतना उस स्थानमें केंद्रित हों गयी है -- अवश्य ही उस समयके लिये । कुछ दिन इसका अभ्यास करनेके बाद और बहुधार ऐसा अनुभव करना आसान और स्वाभाविक हों जाता है ।

 

     मैं समझता हूँ कि यह बात स्पष्ट हो गयी है । अब, इस योगमें, यही चीज तुम्हें करनी होती हैं, पर आवश्यक रूपसे भौंहोंके बीचके उसी विशिष्ट स्थानपर नहीं, बल्कि मस्तकके किसी भी स्थानमें अथवा छातीके केंद्रमें जहां शरीरशास्त्री हदयका स्थान बतलाते है । यहां किसी वस्तुपर एकाग्र होनेके बदले तुम मस्तकमें एक संकल्पपर एकाग्र होते हों, ऊपरसे शक्तिके अवतरणके लिये एक पुकारपर एकाग्रता होते हो, अथवा जैसे कि कुछ लोग करते हैं, एक अदृश्य ढक्कनके खुल जाने और ऊपरसे चेतनाके अव- तरित होनेपर एकाग्र होते हों । हृदय-केंद्रमें साधक किसी अभीप्सापर, किसी उद्- घाटनके लिये, वहां भगवान्की सजीव मूर्त्तिकी उपस्थितिके लिये अथवा और जो भी उसका उद्देश्य होता है उसके लिये एकाग्रताका अभ्यास करता हैं । वहां, हृदय-केंद्रमें किसी नामका जप भी किया जा सकता है, पर, यदि ऐसा करना हों तो, उसके साथ- साथ उस नामपर एकाग्रता भी होना चाहिये और नामका जप स्वयं हृदय-केंद्रमे ही होता रहना चाहिये ।

 

      यहांपर यह प्रश्न किया जा सकता है कि जब इस तरह किसी एक स्थानमें एकाग्रता की जाती है तो चेतनाके बाकी हिस्सेका क्या होता है? हां, बाकी हिस्सा या तो शांत-नीरव हों जाता है जैसा कि किसी भी एकाग्रतामें होता हैं, अथवा, यदि शांत- नीरव नहीं होता तो उस हालतमें विचार या अन्य चीज़ें इस तरह घूम-फिर सकती हैं मानो बाहरकी ओर हों, पर एकाग्र भाग उनकी ओर ध्यान नही देता या उनकी ओर

 

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नहीं देखता । ऐसा तब होता है जब एकाग्रता पर्याप्त रूपमें सफल होती है ।

 

   जबतक मनुष्य अभ्यस्त न हो जाय तबतक उसे आरंभमें लंबे समयतक एकाग्रताका अभ्यास करके अपनेको थका नही देना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें मनके क्लांत हों जानेके कारण एकाग्रता अपना मूल्य-महत्त्व और शक्ति खो बैठती है । उस समय एकाग्रताका अभ्यास करनेके बदले मनुष्यको विश्रांतिका लिये अपनेको शिथिल अवस्थामें छोड़ देना चाहिये और ध्यान करना चाहिये । जब एकाग्रताकी अवस्था सहज-स्वाभाविक बन जाय केवल तभी मनुष्य धीरे-धीरे लंबे समयतक एकाग्रताका अभ्यास कर सकता है ।

 

    साधक तीन केंद्रोंमेंसे किसी एकमें एकाग्र हों सकता है जहां एकाग्र होना उसके लिये सबसे आसान हों और जो सबसे अधिक परिणाम देता हों । हृदय-केंद्रमें होनेवाली एकाग्रताकी क्षमता यह है कि वह उस केंद्रको खोल देती है और अभीप्सा, प्रेम, भक्ति और समर्पणकी शक्तिके द्वारा उस पर्देको हटा देती है जो अंतरात्माको ढकता और छिपाता है तथा अंतरात्मा या चैत्य पुरुषको सम्मुख भागमें ले आती है जिसमें कि वह मन, प्राण और शरीरपर शासन करे और उन सबको भगवान्की ओर पूर्णतः मोड दे और उद्घाटित कर दे और जो कुछ उस मोड और उद्घाटनका विरोध करता है उस सबको दूर हटा दे ।

 

     यहीं वह चीज है जिसे इस योगमें चैत्य रूपांतर कहा जाता है, सिरके ऊपर किये जानेवाली एकाग्रताकी सामर्थ्य यह है कि वह शांति, निश्चल-नीरवता, शरीर-बोधसे मुक्ति, मन और प्राणके साथ तादात्म्य प्रदान करती है और निम्रतर (मानसिक, प्राणिक, भौतिक) चेतनाके लिये ऊर्ध्वस्थ उच्चतर चेतनासे मिलनेके लिये ऊपर उठनेका रास्ता. खोल देती है और उच्चतर ( आध्यात्मिक प्रकृतिकी) चेतनाकी शक्तियोंके लिये मन, प्राण और शरीरमें उतर आनेका मार्ग खोल देती है । यही वह चीज है जिसे इस योग- मे आध्यात्मिक रूपांतरका नाम दिया गया है । यदि कोई इस क्रियासे आरंभ करता है तो ऊपरसे आनेवाली दिव्य शक्तिका अवतरण सभी केंद्रोंको (निम्रतम केंद्रतकको) खोलनेके लिये तथा चैत्य पुरुषको बाहर ले आनेके लिये होता हे; क्योंकि जबतक यह कार्य नहीं संपन्न हों जाता तबतक यह संभावना है कि निम्रतर चेतनाकी ओरसे बहुत अधिक कठिनाइयां ओर संघर्ष आयें और ऊपरसे होनेवाली भागवत क्रियाको वह चेतना बाधा दे, उसके साथ मिल-जुल जाय या यहांतक कि उसे अस्वीकार कर दे । यदि चैत्य पुरुष एक बार सक्रिय हों जाय तो यह संघर्ष और ये कठिनाइयां बहुत अधिक कम की जा सकतीं हैं ।

 

    दोनों भृकुटियोंके मध्यमें किये जानेवाली एकाग्रताकी शक्ति यह है कि वह वहां- के केंद्रको खोल देती है और आंतर मन और दृष्टिको तथा आंतर या यौगिक चेतनाको एव उसकी अनुभूतियों और शक्तियोंको  कर देती है । यहांसे भी साधक ऊपरकी ओर उद्घाटित हों सकता है और निम्रतर केंद्रोंमें भी कार्य कर सकता है; परंतु इस प्रकियाका खतरा यह है कि साधक अपनी मानसिक-आध्यात्मिक रचनाओमे आबद्ध हों सकता है और उनमेंसे बाहर निकलकर मुक्त और सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक अनुभव

 

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और ज्ञान तथा सत्ता और प्रकृतिके सर्वांगपूर्ण परिवर्तनकी स्थितिमें नहीं पहुँच सकता ।

 

*

 

    जब कोई किसी विचार या शब्दपर एकाग्र होता है तब उसे उस शब्दमें निहित मूल भावनापर ध्यान जमाना होता है और यह अभीप्सा रखनी होती है कि जिस चीज- को बह शब्द व्यक्त करता है वह अनुभूत हो ।

 

*

 

   इस समय वह मूल अध्याय मेरे सामने नही है; परंतु जिन वाक्योंको तुमने उद्- धृत किया है,' उससे मालूम होता है कि वह भावना अ मानसिक भावना है । उदाहरणार्थ, वैदांतिक ज्ञानमार्गमें मनुष्य सर्वव्यापी ब्रह्मकी भावनापर एकाग्र होता है - वह एक वृक्षकी ओर या दूसरी आसपासकी वस्तुकी ओर इस भावनाके साथ ताकता है कि ब्रह्म वहां विद्यमान हैं और वृक्ष या दूसरी वस्तु महज उसका एक रूप है । कुछ समय बाद जब एकाग्रता समुचित प्रकारकी हों जाती है तब मनुष्य एक उपस्थिति, एक सत्ताका अनुभव करना आरंभ करता है और स्थूल वृक्षका रूप एक बाहरी खोल बन जाता है और बह उपस्थिति, या सत्ता ही एकमात्र सद्वस्तुके रूपमें अनुभव होने लगती है । भावना तब विलीन हों जाती है, वह उस वस्तुका साक्षात् दर्शन बन जाता है जो भावनाके स्थानमें आ जाती है - उस समय अब भावनाके ऊपर एकाग्र होनेकी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, मनुष्य एक गभीरतर चेतनाके द्वारा देखने लगता हैं -- ' 'स पश्यति । '' यहांपर यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि भावनाके ऊपर की गयी यह एकाग्रता महज चिंतनकी, मनकी क्यिा नहीं है - यह भावनाके स्व स्वरूप- पर एक प्रकारसे आंतरिक रूपसे ध्यानस्थ होना है ।

 

*

 

   अगर तुम कभी तो हृदयमें और कभी मस्तकके ऊपर ध्यान एकाग्र करो तो इसमें कोई हर्ज नहीं । परंतु इन दोनों स्थानोंपर एकाग्र होनेका अर्थ यह नही है कि किसी

 

    '''यह एकाग्रता भावनासे आरंभ होती है......, क्योंकि भावनाके द्वारा हीं मनोमय सत्ता समस्त अभिव्यक्तिके परे उस चीजतक चली जाती है वों अभिव्यक्त की गयी होती है, उस चीज- तक जाती है जिसका महज एक यंत्र यह भावना होती है । भावनापर एकाग्र होकर मनोमय सत्ता, वों कि हम अभी हैं, हमारी मानसिक सीमाको तोड़ देती है और चेतनाकी उस स्थितिपर, सताकी उस स्थितिपर, चेतन सत्ताकी शक्तिकी और चेतनन्दत्ताके आनन्दकी उस स्थितिपर पहुंच जाती १ जिसके अनुरूप वह भावना होती है और जिसका यह एक रूपक, क्यिा और छंद होती दु ।''

 

- ( ''योग-समन्वय'') आर्य, वर्ष, 1 पृष्ठ ४६५)

 

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एक विशिष्ट स्थानपर अपने ध्यानको जमाये रखा जाय । तुम दोनोंमेंसे किसी एक स्थानपर अपनी चेतनाको ले जाकर वहां जम जाओ और फिर वहां किसी स्थानपर नहीं वरन् भगवानपर एकाग्र होओ । इसे, चाहे आंखें बंद करके या खोल करके, जैसा कि सबसे अधिक तुम्हारे अनुकूल हो उसके अनुसार, किया जा सकता है ।

 

    तुम सूर्यपर ध्यान जमा सकते हों, पर भगवानपर ध्यान एकाग्र करना सूर्यपर एकाग्र होनेसे कही अधिक अच्छा है ।

 

*

 

     अधिकांश लोग चेतनाका मतलब मस्तिष्क या मन समझते हैं, क्योंकि बौद्धिक चिंतन और मानसिक दर्शनका वही केंद्र है । परंतु चेतना केवल उस तरहके चिंतन या दर्शनमे सीमित नहीं है । चेतना तो हमारी सत्तामें सर्वत्र विद्यमान है और उसके कई केंद्र हैं, जैसे, आंतरिक एकाग्रताका केंद्र मस्तिष्कमें नही वरन् हृदयमें है,--प्राणिक वासनाओंका उद्भव-केंद्र उससे भी और नीचे है ।

 

    योगके लिये चेतनाको एकाग्र करनेके दो प्रमुख स्थान हैं जो मस्तकमें और हृदय- मे हैं - इन्हें मानस-केंद्र और चैत्य-केंद्र कह सकते हैं ।

 

*

 

   मस्तिष्कको एकाग्र करना बराबर ही एक प्रकारकी तपस्या है और आवश्यक रूपसे थकावट ले आता है । जब मनुष्य मस्तिष्क-मनसे पूर्णतया ऊपर उठ जाता है केवल तभी मानसिक एकाग्रताकी थकावट दूर होती है ।

 

*

 

    पढ़ने या चिंतन करते समय यौगिक एकाग्रता करनेका उत्तम स्थान है मस्तक- का शीर्ष-स्थान या उससे भी और ऊपर ।

 

*

 

    एकाग्रतापूर्ण ध्यानके लिये स्वाभाविक मुद्रा है निश्चल होकर बैठ जाना - खड़ा होना और घूमते रहना सक्थि अवस्थाएं हैं । जब मनुष्य अपनी चेतनामें स्थायी स्थिरता और निश्चेष्टता प्राप्त कर लेता है केवल तभी घूमते-फिरते या कोई काम करते हुए एकाग्र होना और ग्रहणशील होना आसान होता है । जब चेतना अपने अंदर सिमटकर अपने सार-तत्वमें निष्क्यि हो जाती है तो वही अवस्था एकाग्रताकी समुचित स्थिति होती है और उसके लिये सबसे उत्तम मुद्रा है शरीरकी बैठी हुई स्थितिमें

 

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समाहित निश्चलता । ऐसा लेटकर भी किया जा सकता है पर वह आसन अत्यधिक निष्क्रिय हे और उसमें अंतरमें समाहित होनेकी अपेक्षा जड़ बन जानेकी प्रवृत्ति पैदा होती है । यही कारण है कि योगी लोग सर्वदा बैठकर आसन लगाते है । मनुष्य घूमते हुए, खड़े होकर, सोकर ध्यान करनेका अभ्यास डाल सकता है, परंतु बैठकर ध्यान करना सबसे पहली स्वाभाविक स्थिति है ।

 

*

 

    जब तुम अकेले होओ या शांत-स्थिर होओ केवल तभी गभीर रूपमे एकाग्र होना अच्छा है । उस समय तुम्हें बाधा देनेवाला कोई बाहरी शब्द नही होना चाहिये ।

 

 *

 

    ध्यानके बाद कुछ समयतक नीरव और एकाग्र बने रहना निस्संदेह बहुत अच्छा मद्य । ध्यानको हलके रूपमें लेना भूल है -- वैसा करनेसे मनुष्य जो कुछ ग्रहण कर चुका है उसे या उसके अधिकांश भागको धारण करनेमें असमर्थ होता अथवा बिखेर देता है ।

 

*

 

   तुम गहरी अंतर्मुखीनता और स्थिरताकी अवस्थामें प्रवेश कर जाते हों । परंतु कोई यदि हठात् इस अवस्थासे बाहर निकलकर साधारण चेतनामें वापस आ जाय तो उसे थोड़ा स्नायविक धक्का लग सकता है अथवा कृउछ समयके लिये हदयकी धड़कन आरंभ हों सकतीं है जैसा कि तुमने वर्णन किया है । इस अतर्मुखीनतासे बाहर आने और आंखें खोलनेसे पहले कुछ क्षणोंतक शांत-स्थिर बने रहना सदा हीं अत्युत्तम होता है ।

 

    कर्मके विषयमें तुम्हारी नवीन भावना बिलकुल सही है, यह नवीन शांतिका ही अंश है और यह सूचित करती है कि तुम्हारी चेतना अधिक संतुलित और मुक्त हों रही है । आलस्यको आनेकी संभावना नहीं है ।

 

    जो खुला मैदान तुमने देखा वह निश्चल-नीरव आंतरिक चेतनाका, मुक्त, उल्वल, सुस्पष्ट और स्थिर चेतनाका प्रतीक है ।

 

    जो चीज़ें तुम देखते हो वे अधिकांशत: उस क्रियाके चिह्न बे जो तुम्हारे अन्दर चल रही है । इस बातका कोई भय नहीं कि वे चेतनापर कोई प्रभाव न डालनेवाले केवल सूक्ष्मदर्शन ही रहेंगी । तुम्हारी चेतना अबतक बहुत परिवर्त्तित हों चुकी है और फिर भी आगे आनेवाले और भी महत्तर परिवर्तनका यह केवल प्रारंभ ही है ।

 

*

 

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    बहिर्मुखी क्रियाओंके विषयमें तुमने जो कुछ देखा वह निश्चय ही कल्पना नही था । यह उनकी क्रियाका एक सच्चा और सही अनुभव और दर्शन था । उनसे अपने- को पृथक् अनुभव करना और उन्हें देखना यथार्थ आंतरिक अवस्था है जो अन्तमें उनसे एकदम मुक्त हो जानेके लिये आवश्यक है ।

 

  एकाग्रता बहुत उपयोगी और आवश्यक है -- मनुष्य जितना ही अधिक ( निस्संदेह, शरीरको थकाये बिना उसकी क्षमताकी सीमाओंके भीतर) एकाग्र होता. है उतनी ही अधिक योगकी शक्ति बढ्ती है । परंतु तुम्हें कभी-कभी ध्यानके असफल होने- के लिये भी तैयार रहना चाहिये और उससे घबड़ा नही जाना चाहिये - क्योंकि ध्यानकी यह अस्थिरता प्रत्येक व्यक्तिके साथ घटित होती है । इसके कई कारण होते हैं । परंतु अधिकतर कोई भौतिक वस्तु होती है जो हस्तक्षेप करती है, अथवा जो कुछ आया हैं या किया गया है उसे आत्मसात् करनेके लिये समय लेनेकी शरीरकी आवश्यक- ता होती है । कभी-कभी तामसिकता या जड़ता होती है जो ऐसे कारणोंसे, जिनका तुमने वर्णन किया है अथवा दूसरे कारणोंसे आती है । सबसे उत्तम बात यह है कि जबतक शक्ति फिरसे कार्य नही करने लग जाती तबतक शांतस्थिर बना रहा जाय और अधीर या उदास न हुआ जाय ।

 

*

 

    संभव है कि किसी साधकके ध्यानका कोई निश्चित समय न हो और फिर भी वह साधना कर सकता है

 

*

 

    अनुभूति और उसके बादकी भावना दोनोंका अपना सत्य मग्न । आरंभमें बहुत दीर्घ कालतक प्रयास करके भी एकाग्र होना आवश्यक है, क्योंकि अभी प्रकृति, चेतना तैयार नही होती । पर उस अवस्थामें भी एकाग्र होनेकी क्रिया जितनी अधिक अचंचल और स्वाभाविक हों उतना ही अच्छा है । परंतु चेतना और प्रकृति जब तैयार हों जाती हैं तब एकाग्रताका अभ्यास सहज-स्वाभाविक बन जाना चाहिये और सब समय बिना प्रयासके आसानीसे करना संभव होना चाहिये । अंतमें जाकर तो यह सत्ताकी स्वाभाविक और स्थायी अवस्था बन जाती है - उस समय यह अब एकाग्रता नही रह जाती, बल्कि भगबानमें जीवकी ससिद्ध स्थिति बन जाती है ।

 

    यह सही है कि एकाग्र होना और उसके साथ-हीं-साथ कोई बाहरी कार्य करना आरंभमें संभव नहीं होता । पर वह भी संभव हो जाता है । चाहे तो चेतना दो भागों- मे विभक्त हों जाती है, एक, आंतरिक भाग तो गवान्में स्थित होता है और दूसरा, बाहरी भाग बाहरी कार्य करता है,--अथवा संपूर्ण चेतना ही उस प्रकार भगबानमें स्थित होती है और शक्ति निष्क्रिय यंत्रके द्वारा कार्य करती ।

 

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     स्वभावत: ही यदि ध्यान स्वाभाविक हो जाय तो थकावट नहीं आती । परन्तु अभीतक यदि उसकी क्षमता न हो तो बहुतसे लोग बिना तनावके उसे जारी नहीं रख सकते जो कि थकावट ले आता है ।

 

*

 

    यदि मन थक जाय तो स्वभावत: ही एकाग्र होना कठिन हो जाता है - जबतक कि तुम मनसे पृथक् नहीं हो जाते ।

 

*

 

    तुम्हें मनसे भी अपनेको पृथक् करना होगा । तुम्हें मानसिक, प्राणिक और भौतिक स्तरोंमें भी (केवल ऊर्ध्वमे ही नहीं) एक चेतनाको अनुभव करना होगा जो न तो मन, प्राण है और न शरीर 1

 

*

 

    प्रयासका मतलब है खिंचाव उत्पन्न करनेवाला प्रयत्न । ऐसा कर्म भी हो सकता है जिसमें एक संकल्प हो पर जिसमें कोई खिंचाव या प्रयास न हो ।

 

    खींच-तान (एकाग्रताके लिये संघर्ष) और एकाग्रता एक ही चीज नहीं हैं । खींचतानका तात्पर्य है एक प्रकारकी अति-उत्सुकता और प्रयासमें जोर-जबर्दस्ती; परंतु एकाग्रता अपने स्वभावमें शांत-स्थिर और अविचल होती हे । यदि मनुष्यमें चंचलता या अति-उत्सुकता हों तो यह कहना होगा कि उसमें एकाग्रता नही है ।

 

*

 

   सच पूछो तो तुमने बिना पथप्रदर्शनके जो व्यक्तिगत रूपसे प्रयास किया उसीके कारण तुम कठिनाइयों में जा पड़े तथा ऐसी उत्तप्त स्थितिमें पहुँच गये जहां तुम ध्यान वगैरह कर ही नही सके । मैनई तुमसे कहा कि प्रयास बंद कर दो और शांत बने रहो और तुमने वैसा किया भी । मेरा आशय यह था कि जब तुम शांत रहोगे तो श्रीमीकी शक्तिके लिये तुम्हारे अंदर कार्य करना, एक अच्छी आरंभिक अवस्थाको स्थापित करना और प्राथमिक अनुभूतियों एक धारा खोल देना संभव होगा । इस चीजका होना आरंभ भी हों गया था; पर तुम्हारा मन यदि फिरसे सक्थि हों जाय और अपने लिये साधनाकी व्यवस्था करनेका प्रयत्न करे तो विख्त-बाधाओंके आनेकी संभावना है । भागवत पथप्रदर्शन तभी उत्तम रूपमें काम करता है जब चैत्य पुरुष खुला हुआ और सामने होता है (तुम्हारा चैत्य पुरुष खुल रहा था), पर वह उस समय भी कार्य

 

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कर सकता है जब साधक उस विषयमें सचेतन न हो अथवा जब उसके परिणामोंके कारण ही वह उसे जानता हों । निर्विकल्प समाधिका जहांतक प्रश्न है, यदि उसे कोई चाहे भी तो उसे केवल उसके लिये तैयार की हुई चेतनामें एक लबी साधना करनेपर ही पा सकता है -- अभी उसकी चर्चा करनेसे कोई लाभ नही जब कि आंतरिक चेतना- ने यौगिक अनुभूतिकी ओर केवल उद्घाटित होना अभी-अभी आरंभ किया है !

 

 *

 

     यदि ध्यानमें यह कठिनाई आती है कि सब प्रकारके विचार भीतर घुस आते हैं तो यह विरोधी शक्तियोंके कारण नहीं बल्कि मानव-मनकी सामान्य प्रकृतिके कारण होता है ! सभी साधकोंको यह कठिनाई होती है और बहुतोंके साथ तो यह बहुत लंबे अर्सेतक लगी रहती है । इससे छुटकारा पानेके कई रास्ते हैं । उनमेंसे [रक रास्ता है विचारोंका निरीक्षण करना और यह देखना कि मानव-मनका स्वभाव क्या है जिसे ये विचार हमें दिखाते है, पर इन विचारोंको कोई अनुमति न देना और इन्हें तबतक दौड़ते रहने देना जबतक कि ये निस्तब्ध नही हों जाते -- यही वह पथ है जिसे विवेका- नदने अपने राजयोगमें बताया है । दूसरा हे विचारोंकी ओर इस प्रकार देखना मानो वे अपने न हों, उनसे पीछे साक्षी पुरुषकी तरह खड़ा हों जाना और अनुमति देना अस्वी- कार कर देना -- उस समय विचारोंको इस प्रकार देखा जाता है मानों वे बाहरसे, प्रकृतिसे आते हों, और फिर उनके विषयमें यह समझना चाहिये कि वे मनोमय देशमें से गुजरनेवाले यात्री हैं जिनके साथ हमारा कोई संबद्ध नहीं और जिनमें हम कोई रुचि नही रखते । ऐसा करनेपर साधारणतया यह होता है कि कुछ समय बाद मन दो भागोंमें बट जाता है, एक भाग वह होता हे जो मनोमय साक्षी होता है, जो देखता है और पूर्णत: अनुद्विग्न और शांत होता है । दूसरा भाग वह होता है जो निरीक्षणका विषय होता है, प्रकृति-भाग होता है जिसमें विचार घूमते-फिरते या जिसमेंसे होकर गुजर जाते है । कुछ दिन बाद हम प्रकृति-भागको भी नीरव या शांत-स्थिर करनेका प्रयास कर सकते है । एक तीसरा पथ भी है, एक सक्रिय पद्धति है जिसमे मनुष्य यह देखनेकी चेष्टा करता हैं कि विचार कहांसे आते है और उसे पता चलता है कि स्वयं अपने अंदरसे वे नही आते बल्कि मानो मस्तकके बाहरसे आते हैं । यदि कोई उन्हें बाहरसे आते हुए देख सके तो, उनके भीतर प्रवेश करनेसे पहले ही, उन्हें एकदम दूर फेंक देना होता है । यह शायद सबसे अधिक कठिन पद्धति है और सब इसे नही कर .सकते । पर यदि इसे किया जा सके तो यह नीरवता प्राप्त करनेका सबसे छोटा और सबसे अधिक शक्तिशाली पथ है ।

 

*

 

   मन सर्वदा क्रियाशील रहता है, पर हम पूरी तरह यह नहीं देखते कि यह क्या

 

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कर रहा है, बल्कि हम अपनेको सतत चिंतनकी धारामें बहा ले जाने देते है । जब हम एकाग्र होनेका प्रयास करते हैं, यह स्वनिर्मित यांत्रिक चिंतनकी धारा हमारी निरीक्षण- क्रियाके लिये स्थायी बन जाती है । योगके प्रयासके लिये यह प्रथम सामान्य बाधा है (दूसरी है ध्यानके समय नींदका आना) ।

 

   ऐसे समय करने योग्य सबसे उत्तम बात यह अनुभव करना है कि यह विचार- धारा हम स्वयं नही हैं, सचमुचमें हम स्वयं विचार नही कर रहे हैं, बल्कि विचार ही मनमें चल रहे हैं । वास्तवमें प्रकृति ही अपनी विचार-शक्तिके द्वारा हमारे अन्दर 'विचारोंका यह सब भंवर उठा रही है । हमें पुरुष-रूपसे उससे पीछे साक्षीभावके साथ खड़ा होना चाहिये, उस कार्यको देखना चाहिये, पर उसके साथ अपनेको एकात्म करना अस्वीकार कर देना चाहिये । दूसरी बात है एक प्रकारके नियंत्रणका प्रयोग करना और विचारोंका त्याग कर देना -- यद्यपि कभी-कभी ए_कदम अनासक्तिकी क्रियासे हीं चिंतनाभ्यास बंद हो जाता है या ध्यानके समय कम हों जाता है और पर्याप्त नीरवता आ जाती है या कम-से-कम अचंचलता आ जाती है जिसके कारण आनेवाले विचारोंका त्याग करना, और अपने-आपको ध्यानके विषयपर एकाग्र करना आसान हों जाता है । यदि कोई इतना सचेत हों जाय कि विचारोंको बाहरसे, विश्व-प्रकृतिसे आते हुए देख सके तो वह उनके मनमें आनेसे पहले ही उन्हें बाहर फेंक सकना है : इस प्रकार मन अंतमें निश्चल-नीरव हों जाता है । यदि इनमेंसे कोई भी बात न हों सके तो परित्यागका सतत अभ्यास करना आवश्यक हो जाता है -- विचारोके साथ कोई संघर्ष या कुश्ती नहीं होनी चाहिये, बल्कि केवल शांत रूपसे अपने-आपको पृथक् करना चाहिये और उन्हें अस्वीकार करना चाहिये । प्रारंभमें हीं सफलता नहीं आती, परंतु अनुमति जब निरंतर हटा ली जाती है तो यंत्रकी तरह चलनेवाला भंवर अतमें बद हों जाता है और मरना आरंभ कर देता है और तब साधक इच्छापूर्वक आंतरिक स्थिरता या नीरवता प्राप्त कर सकता है ।

 

    यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि, कुछ विरल लोंगोंके प्रसंगको छोड़कर यौगिक प्रक्रियाओंको फल तुरत नहीं प्राप्त होता और साधकको तबतक अपने संकल्प- धैर्यको प्रयुक्त करना चाहिये जबतक कि वे फल नही देने लगती, जिसके आनेमें कभी- कभी, यदि बाहरी प्रकृतिमें बहुत अधिक बाधा-विरोध हो तो, लंबा समय लग जाता

 

    जबतक तुम्हें उच्चतर आत्माका बोध या अनुभव नही प्राप्त हुआ है तबतक तुम उसपर अपने मनको कैसे जमा सकते हों? तुम केवल उस आत्माकी भावनापर एकाग्र हो सकते हों अथवा कोई भगवानके या भगवती माताके विचारपर या किसी मूर्तिपर या उस भक्तिभावनापर एकाग्र हो सकता है जो हृदयमें भागवत उपस्थिति- को पुकारती है अथवा शक्तिको मन, प्राण और शरीरमें कार्य करने, चेतनाको मुक्त करने तथा आत्मसाक्षात्कार प्रदान करनेके लिये पुकारती हे । यदि तुम आत्माकी भावनापर एकाग्र होओ तो इसे तुम्हें इस कल्पनाके साथ करना चाहिये कि आत्मा मनसे और उसके विचारोंसे, प्राण और उसके अनुभवोंसे तथा शरीर और उसकी

 

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क्रियाओंसे भिन्न कोई वस्तु है -- कोई ऐसी चीज है जो इन सब चीजोंके पीछे अवस्थित है, ऐसी चीज है जिसे तुम ठोस तीरपर सत-चितके रूपमें, इस सबसे पृथक् फिर भी इन चीजोंमें अंतर्ग्रस्त हुए बिना मुक्त रूपमे इन सबमें परिव्याप्त अनुभव करोगे ।

 

    जो कुछ तुम पढो उस सबको यदि प्रयोगमें लानेका प्रयास करोगे तो तुम्हारे नये-नये प्रारभोंका कोई अंत नहीं होगा । विचारोंका त्याग करके विचारोंको बद किया जा सकता हैं और नीरवताके अन्दर अपने-आपको पाया जा सकता है । कोई विचारोंको अबाध दौड़नेके लिये छोड़ सकता और उनसे अपनेको पृथक् कर सकता तथा इस प्रकार इस कार्यको कर सकता है । दूसरे और भी कई रास्ते हैं । ' ' की पुस्तकमें वर्णित पथ मुझे अद्वैत-ज्ञानीकी पद्धति प्रतीत होता है जिसमें शरीर, प्राण और मनसे अपनेको, ' 'मैं शरीर नही हूँ, मैं प्राण नही हूँ, मैं मन नही हूँ' ' आदि विवेकके द्वारा तबतक पृथक् किया जाता है जबतक मनुष्य मन, प्राण और शरीरसे पृथक् आत्माको नहीं प्राप्त कर लेता । यह भी इसे करनेका एक पथ हे । फिर प्रकृति और पुरुषका पृथक्करण भी तबतक किया जा सकता है जबतक कि साधक केवल साक्षी नही बन जाता और साक्षी-चैतन्यके रूपमें अपनेको सभी क्रियाकलापोंसे पृथक् नही अनुभव करने लगता । इनके अतिरिक्त और भी पद्धतियां है ।

 

*

 

    मनको एकत्र करनेकी पद्धति आसान पद्धति नही है । यह कही अधिक अच्छा है कि विचारोंका निरीक्षण किया जाय और अपनेको उनसे पृथक् किया जाय जबतक कि अपने अन्दर विद्यमान एक शांत-स्थिर प्रदेशका बोध न प्राप्त हों जाय जिसमे कि वे विचार बाहरसे आते हैं ।

 

 *

 

    भौतिक मनकी भिनभिनाहटके लिये उपाय यह है कि जरा भी उद्विग्न हुए बिना उसका चुपचाप परित्याग करते रहो; अंतमें हताश होकर वह पीछे हट जायगा और सिर हिलाते हुए कहेगा, ' 'यह पट्टा मेरे लिये अत्यंत शांत-अचल और बलवान् है । '' बराबर दो चीज़ें ऐसी होती हैं जो उठ सकती और नीरवताको भग कर सकती हैं -- प्राणिक सुझाव तथा भौतिक मनकी यत्रवत् बार-बार होनेवाली क्रियाएं । दोनोंको दूर करनेका उपाय है शांतिपूर्वक परिवर्जन करना । हमार अंदर एक पुरुष है जो प्रकृतिको यह आदेश दे सकता है कि उसे क्या आने देना चाहिये और क्या बाहर छोड़ देना चाहिये, परंतु उसका संकल्प एक प्रबल, शांत संकल्प है, यदि साधक कठिनाइ-

 

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योंके, कारण घबड़ा जाय या चंचल हों जाय तो फिर पुरुषका संकल्प वैसे हीं सफलता- पूर्वक कार्य नहीं कर सकता जैसे कि वह अन्य स्थितिमें करता ।

 

    सक्रिय उपलब्धि संभवत. तब प्राप्त होगी जब कि उच्चतर चेतना पूर्ण रूपसे प्राणके अन्दर उतर आयेगी । जब वह मनमें आती है तब वह पुरुषकी शांति और मुक्ति ले आती है तथा वह ज्ञान भी लें आ सकती है । परन्तु जब वह प्राणमें आती है तभी सक्थि उपलब्धि उपस्थित होतीं और सजीव होती है ।

 

*

 

    यांत्रिक मनकी क्रियासे अपने-आपको पृथक् करनेकी क्षमता प्राप्त करना सबसे पहली आवश्यकता है; ऐसा कर लेनेपर, जब वह क्रिया होती है तब भी, मनकी स्थिरता और शांतिको उससे अविचलित बनाये रखना बहुत आसान होता है ।

 

    यदि शांति और निश्चल-नीरवताका नीचे उतरना जारी रहता है तो सामान्य- तया दें इतनी तीव्र हो जाती है कि कुछ समय बाद भौतिक मनको भी अभिभूत कर लेती है ।

 

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    वास्तवमें हुआ यह कि सक्रिय मन अधिक स्थिर हों गया जिससे भौतिक मनकी क्रियाएं अधिक स्पष्ट हो गयी -- ऐसा ही बहुधा घटित होता है । ऐसी अवस्थामें हमारा कर्तव्य है इन क्रियाओंसे अपने-आपको पृथक् कर लेना और उनकी ओर अब और ध्यान दिये बिना एकाग्र होना । फिर उन क्रियाओंका स्थिरतामें डूब जाना या विलीन हों जाना संभव हों जाता है ।

 

 *

 

    यही यांत्रिक मनका स्वभाव है -- उसकी किसी संवेदनशीलता कारण ऐसा नही हुआ है । चूँकि मनके अन्य भाग अधिक नीरव और संयमके अधीन हैं, केवल इसी कारण यह क्रिया अधिक प्रमुख दिखायी देती है और अधिक स्थान ले रही है । यदि कोई इसका लगातार परित्याग करता रहे तो यह सामान्यतया क्षीण हों जाती है !

 

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     तुम संभवत उनकी (यांत्रिक मनके विचारोंकी) ओर बहुत अधिक ध्यान दे रहे हों । यह बिलकुल संभव हैं कि मनुष्य एकाग्र होवे और यांत्रिक त्रियाकी ओर

 

१३२


देखे बिना उसे जारी रहने दे ।

 

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 जो कुछ तुम प्रस्ताव करते हों उसके विषयमें मैं बिलकुल निस्सदिग्ध नही हूँ । इसमें संदेह नहीं कि मानसिक चेतना थकी होनेपर भी अपने पुराने अभ्यासवश बाहर- से विचारोंको ग्रहण करती जाती है - वह उन्हें चाहती हों ऐसी बात नही, पर विचारों- को आनेका अभ्यास है और मन उन्हें यंत्रवत् भीतर आने देता है तथा अभ्यासवश उनकी ओर ध्यान देता है । योगमें जब अनुभूतियां आना आरंभ करती हैं और मन या तो सर्वदा एकाग्र रहना या शांत-स्थिर रहना चाहता है तो उस समय बराबर ही यह एक प्रधान कठिनाई होती है । कुछ लोग तो वही करते हैं जो तुमने प्रस्ताव किया है और कुछ समय बाद या तो मनको एकदम शांत कर देनेमें सफल होते हैं या ऊपरसे निश्चल-नीरवता नीचे उतरती है और मनको शांत कर देती है । परंतु साधक जब इसे करनेका प्रयास करता है तब अकसर विचार बहुत अधिक सक्रिय हों उठते है और नीरवता ले आनेकी प्रक्रियाका विरोध करते हैं और यह सब बड़ा कष्टदायक होता है । अतएव बहुतसे लोग धीरे-धीरे चलना पसंद करते हैं; वे मनको थोडा-थोडा करके स्थिर होने देते हैं, स्थिरताको फैलने तथा अधिक समयतक बने रहने देते हैं जब कि अंतमें जाकर अवांछित विचार जाते हैं अथवा पीछे हट जाते हैं और मन भीतरसे या ऊपरसे आनेवाले ज्ञानके लिये खाली छोड़ दिया जाता है ।

 

     तुम्हें संभवत: इसे करनेकी कोशिश करनी चाहिये और देखना चाहिये कि क्या परिणाम होता है -- यदि विचार बहुत अधिक आक्रमण करें और परेशान करें तो तुम बद कर सकते हो - यदि मन शीघ्र या अधिकाधिक शांत होता हों तो जारी रख सकते हो ।

 

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    जितना ही अधिक चैत्य बाहरी सत्तामें फैलता है उतनी ही अधिक ये सब चीज़ें (अवचेतन मनकी यांत्रिक क्रियाएं) शांत होती हैं । यही सबसे उत्तम तरीका है । मनको शांत करनेके जो सीधे प्रयास होते हैं वे कठिन तरीके होते हैं ।

 

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 एकाग्रता करनेमें सबसे अधिक सहायक चीज है अपने मनमें श्रीमाताजीकी स्थिरता और शांतिको ग्रहण करना । यह तुम्हारे ऊपर विद्यमान है -- केवल मन और उसके केंद्रोंको उसकी ओर खुलनेकी आवश्यकता है । यहीं चीज है जिसे श्रीमाताजी शामके ध्यानके समय तुम्हारे ऊपर ठेलती हैं।

 

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   चित् हे विशुद्ध चेतना, जैसे, सत्-चित्-आनन्दमें ।

 

   चित्त है मानसिक-प्राणिक-शारीरिक चेतनाओंका मिश्रित रूप और इसीमेंसे विचार, भावावेग, संवेदन, प्रवेग आदिकी क्रियाएं उत्पन्न होती हैं । पांतजलि योग- पद्धतिमें इन्ही सबको एकदम शांत कर दिया जाता है जिसमें कि चेतना निश्चल हों जाय और समाधिमें चली जाय ।

 

   हमारे योगमें दूसरी तरहकी क्रिया होती है । साधारण चेतनाकी क्रियाओंको निश्चल बना देना होता है और उस निश्चलताके अंदर उच्चतर चेतना और उसकी शक्तियोंको उतार लाना होता है जो कि प्रकृतिका रूपांतर कर देंगी ।

 

*

 

     यदि तुम चित्तवृत्तियोंका दमन कर दो तो फिर तुम्हारे अंदर चित्तकी एकदम कोई क्रिया ही नही होगी । सब कुछ तबतक निश्चल बना रहेगा जबतक तुम दमनको दूर नहीं कर दोगे अथवा सब कुछ इतना शांत-निश्चल बना रहेगा कि निश्चलताके सिवा वहां और कोई चीज ही नही रह सकेगी ।

 

      यदि तुम उन्हें स्थिर कर दो तो चित्त भी स्थिर हों जायगा, वहां चाहे जो भी क्रिया या गतिशीलता हों वह उस स्थिरताको विचलित नही करेगी ।

 

   यदि तुम उन्हें संयमित कर लो या उनपर प्रभुत्व स्थापित कर लो तो जब तुम चाहोगे तब चित्त निश्चल-निष्क्रिय हों जायगा और जब तुम चाहोगे तब सक्रिय हों जायगा, और उसकी क्रिया ऐसी हों जायगी कि जिस चीजसे तुम छुटकारा पाना चाहोगे वह चली जायगी, जिस चीजको तुम यथार्थ और उपयोगी समझोगे बस वही आयगी ।

 

*

 

    नीरवताकी स्थितिमें चला जाना आसान नही है । ऐसा करना केवल तभी संभव होता है जब समस्त मानसिक-प्राणिक क्रियाओंको बाहर निकाल दिया जाता है । इससे अधिक आसान है अपने अंदर निश्चल-नीरवताको अवतरित होने देना, अर्थात् अपनेको उसकी ओर उद्घाटित करना और उसे उतरने देना । ऐसा करनेका तरीका और उच्चतर शक्तियोंका अपने अंदर आवाहन करनेका तरीका एक ही है । यह तरीका है ध्यानके समय अचंचल बने रहना । उस समय मनके साथ संघर्ष नही करना चाहिये अथवा शक्तिको या निश्चल-नीरवताको नीचे बीच लानेका मानसिक प्रयास नही करना चाहिये बल्कि उसके लिये केवल नीरव संकल्प और अभीप्सा बनाये रखना चाहिये । अगर मन सक्रिय हो तो हमें पीछेकी ओर हटकर और अंदरसे उसके लिये कोई अनुमति दिये बिना उसका तबतक अवलोकन करना सीखना चाहिये जबतक कि उसकी अभ्यासगत या यंत्रवत् क्रियाएं भीतरसे प्राप्त सहारेके अभावमें नीरव हो जाना न आरंभ कर दे । यदि मन अत्यंत हठी हों तो अधिक जोर लगाये या संघर्ष किये

 

 

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बना दृढ़तापूर्वक परित्याग करते रहना ही एकमात्र करणीय कार्य हैं ।

 

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    किसी चीजको अतिरंजित न करना ही अच्छा है । सच पूछा जाय तो मानसिक क्रियावलीसे छुटकारा पाना उतना अधिक आवश्यक नही है जितना कि उसे सम्रुचित रूपमे बदल देना. । जिस चीजको हमें अतिक्रम करना और परिवर्त्तित करना है वह है बौद्धिक तर्क-युक्ति जो चीजोंको केवल बाहरसे, विश्लेषण और अनुमानके द्वारा देखती है -- जब वह ऐसा नही करती तब प्राय. शीघ्रतासे दृष्टिपात करती और कहती है, ' 'यह बात ऐसी दू' ' अथवा ' 'यह बात ऐसी नही है । '' किंतु तुम तबतक इसका अति- क्रमण और परिवर्तन नही कर सकते जबतक कि पुरानी मानसिक क्रिया थोडी स्थिर नही हों जाती । स्थिर मन अपने विचारमें नही उलझता अथवा उनसे दूर नही भाग- ता; वह पीछे खड़ा हों जाता हैं, अपनेको पृथक् कर लेता है और उनके साथ अपना तादात्म्य किये बिना तथा उन्हें अपना बनाये बिना गुजर जाने देता है । वह साक्षी मन बन जाता हे और आवश्यक होनेपर विचारोंका निरीक्षण करता है, परंतु साथ ही उनसे मुँह मोड लेने और अंदरसे तथा ऊपरसे ग्रहण करनेमें समर्थ होता है । निश्चल- नीरवता अच्छी चीज है, पर पूर्ण निश्चल-नीरवता अपरिहार्य नही है, कम-से-कम इस स्थितिमें । मैं नही समझता कि मनको शांत-स्थिर करनेके लिये उसके साथ कुश्ती करनेसे कोई विशेष लाभ है, साधारणतया उस खेलमें मनकी ही जीत होती है । वास्तवमें पीछे हटना, अपनेको पृथक् कर लेना, किसी अन्य चीजकी, बाहरी मनके विचारोंसे भिन्न दूसरी चीजकी बात सुननेकी शक्ति पा लेना ही अधिक आसान पथ है । इसके साथ-ही-साथ मनुष्य मानो ऊपरकी ओर अपनी दृष्टि उठा सकता है, अपनेसे ठीक ऊपर स्थित एक शक्तिकी कल्पना कर सकता ओर उसे नीचे पुकार सकता है अथवा चुपचाप उसकी सहायताकी प्रतीक्षा कर सकता है । इसी ढंगसे बहुतसे लोग इसे करते हैं जबतक कि मन धीरे-धीरे स्थिर नहीं हों जाता या अपने-आप नीरव नही हों जाता अथवा ऊपर- से निश्चल-नीरवता उतरना आरंभ नहीं कर देती । परंतु यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि अवसाद या निराशाको बीचमें न आने दिया जाय क्योंकि तुरत-फुरत सफलता नही मिली; ऐसा करनेसे तो बस कार्य कठिन ही हों सकता है ओर जिस किसी प्रगतिके लिये तैयारी हो रही है वह रुक सकती है ।

 

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     नीरव मन योगसाधनाका एक परिणाम है, साधारण मन कभी नीरव नही होता.. । मनीषियों और दार्शनिकोंका मन नीरव नही होता । उनका मन सक्रिय होता है; अवश्य हीं वे अपने मनको एकाग्र करते हैं और इसलिये सामान्य असंबद्ध मानसिक क्रिया बंद हो जाती है और जो विचार उठते हैं या प्रवेश करते और रूप ग्रहण

 

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करते हैं वे उनके विषय या कार्यसे सामंजस्य रखते हुए बंधे रहते हैं । परंतु यह बात समूचे मनके नीरव हो जानेसे एकदम भिन्न है ।

 

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    जब मन ध्यानमें या पूर्ण निश्चल-नीरवतामें नहीं होता, किसी-न-किसी वस्तु- के साथ -- चाहे अपनी निजी भावनाओं या कामनाओं या अन्य लोगों या वस्तुओं या बातचीत आदिके साथ - सर्वदा सक्रिय रहता है ।

 

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    इसे ध्यान नही कहा जाता -- यह तो चेतनाकी एक विभक्त अवस्था है । जब- तक चेतना वास्तवमें तल्लीन नहीं हो जाती और ऊपरी विचार बस ऐसी चीज़ें नहीं बन जाते जो मनमें आती, स्पर्श करती और निकल जाती हैं, तबतक इसे मुश्किलसे ध्यान कहा जा सकता है । मैं नहीं समझता कि किस तरह आंतरिक सत्ता तल्लीन हो सकती है और साथ हीं अन्य प्रकारके सारे विचार और सारी कल्पनाएं उपरितलीय चेतनामें घूमती-फिरती रह सकतीं हैं । मनुष्य पृथक् रह सकता और विचारों तथा कल्पनाओंको, उनसे प्रभावित हुए बिना, गुजरते हुए देख सकता है, पर उसे ध्यानमें डूब जाना या तल्लीन हो जाना नहीं कहा जा सकता ।

 

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     यह बिलकुल स्वाभाविक है कि आरंभमें जब तुम एकाग्र होनेके लिये बैठ तब केवल स्थिरता और शांतिकी अवस्था बनी रहे । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब कभी तुम बैठा यह अवस्था बनी रहे और उसके लिये बराबर ही दबाव बना रहे । पर दूसरे समय इसके परिणामस्वरूप प्रारंभमें केवल एक प्रकारकी मानसिक अचंचलता और विचारोंसे मुक्तिकी अवस्था विद्यमान रहती है । बादमें जब शांतिकी अवस्था आंतरिक सत्तामें एकदम जम जाती है -- क्योंकि जब कभी तुम एकाग्र होते हों तब आंतरिक सत्तामें ही प्रवेश करते हो - तब वह बाहर आना और बाहरी सत्तापर भी शासन करना आरंभ करती है जिससे कि स्थिरता और शांति उस समय भी बनी रहती है जब मनुष्य कार्य करता है, दूसरोंसे मिलता-जुलता है, बातचित करता या अन्य कार्य करता है । क्योंकि, उस समय बाहरी चेतना चाहे कुछ भी क्यों न करे, आंतरिक सत्ता भीतर शांत अनुभूत होती है - अवश्य हीं मनुष्य अपनी आंतरिक सत्ताको ही अपना सच्चा स्वरूप समझता है और बाहरी सत्ताको एक ऐसी ऊपरी चीज समझता है जिसके द्वारा आंतरिक सत्ता जीवनके ऊपर क्रिया करती है ।

 

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   सुख-शातिका अनुभव अंदर बहुत गहराईमें और बहुत दूर होता हे क्योंकि वे चीज़ें चैत्य सत्तामें होती हैं और चैत्य सत्ता हमारे अंदर बहुत गहराईमें है और मन तथा प्राणके द्वारा आच्छादित है । जब तुम ध्यान करते हों तो चैत्यकी ओर उद्घाटित होते हों, अपने भीतर गहराईमें विद्यमान अपनी चैत्य चेतनाके विषयमें सचेतन होते हो और इन चीजोंको अनुभव करते हों । यदि तुम चाहो कि ये सुख, शांति और प्रसन्न- ता तीव्र और स्थायी हों जायं तथा सारी सत्तामें और शरीरमें भी अनुभूत हों तो तुम्हें अपने अंदर और अधिक गहराईमें पैठना होगा और चैत्य चेतनाकी संपूर्ण शक्तिको शरीरमें लें आना होगा । यह कार्य अधिक आसानीसे तभी किया जा सकता है जब कि इस सच्ची चेतनाकी पानेकी अभीप्सा रखकर नियमित रूपसे एकाग्रता और ध्यान- का अभ्यास किया जाय । यह कार्य कर्मके द्वारा भी किया जा सकता है, आत्मोत्सगैके द्वारा, अपने विषयमें कुछ सोचे बिना और हृदयमें सर्वदा श्रीमाँके प्रति आत्मार्पणका भाव बनाये रखकर एकमात्र भगवानके लिये कर्म करके भी इसे किया जा सकता है । परंतु पूर्ण रूपसे ऐसा करना आसान नहीं है ।

 

*

 

     यदि उच्चतर ध्यान या ऊपर बने रहना मनुष्यको उदास बना देता है, साधनामें उसे किसी प्रकारका संतोष या शांति नही मिलती तो, मैं जहाँतक समझ सकता हूँ, इसके केवल दो ही कारण हैं -- अहंभाव या तामसिकता ।

 

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    यह बिलकुल स्वाभाविक है कि यौगिक साहित्य पढ़ते समय मनुष्य ध्यान करना चाहे - यह आलस्य नहीं है ।

 

    मनका आलस्य तो है ध्यान न करना, जब कि चेतना उसे करना चाहती हो ।

 

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   यह यथार्थ बात नही है कि जब मनुष्यमें धूमिलपन या तामसिकता होती है तो वह एकाग्रता या ध्यान नहीं कर सकता । यदि किसीकी आंतरिक सत्तामें इसे करनेका दृढ संकल्प हो तो वह इसे. कर सकता है ।

 

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 जब कोई ध्यान करनेकी कोशिश करता है तब भीतर पैठनेके लिये, जाग्रत् (बाह्य) चेतना खो देनेके लिये तथा अंदरमें, आंतरिक चेतनाकी गहराईमें जागृत

 

२३७


होनेका दबाव पड़ता है । परंतु आरंभमें मन ऐसा समझता है कि यह दबाव निद्रामें डूबनेके लिये है, क्योंकि निद्रा हीं एकमात्र आंतरिक चेतनाकी वह स्थिति है जिसका उसे अभीतक अभ्यास रहा है । इसलिये योगमें ध्यान करनेपर आरंभमें जो बहुधा कठिनाई होती है वह है नींद । परंतु कोई यदि लगातार प्रयास करता रहे तो धीरे- धीरे नदी एक आंतरिक सचेतन स्थितिमें बदल जाती है ।

 

*

 

    जब कोई ध्यान करनेका प्रयत्न करता है तब उस तरह नींद नही आती । जहां वैसा करना संभव हो, इसे एक सज्ञान आंतरिक तथा अंतर्मुखी स्थितिमें बदलकर और, जहां संभव न हों, ग्रहण करनेके लिये उद्घाटित एक अचंचल एकाग्रीभूत जाग्रतावस्था- मे ( बिना प्रयास) बने रहकर, इस नींदकी स्थितिमें सुधार करना चाहिये ।

 

*

 

    नही, यह नींद नही है । बल्कि जब दबाव अंतर्मुखी होने (समाधिमें जाने) की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है तो. भौतिक सत्ता इसे निद्राके भावमें बदल देती है, क्योंकि उसे निद्राके द्वारा अंदर पैठनेके सिवा और किसी चीजका अभ्यास नही होता ।

 

 *

 

    ऐसा लगता है कि तुम एक प्रकारकी समाधिमें भीतर चले जाते हों पर अभी सचेतन नही रहते (इसी कारण निद्राका भाव आता है) । '' सोया नही होता, बल्कि जब वह अन्दर पैठता है तो अपने शरीरपर उसका नियंत्रण नहीं रहता । बहुतसे योगियोंको यह कठिनाई होती है । ऐसी हालतमें वे एक ऐसी चीजका उद्भावन करते हैं जिसे दे अपनी ठोड़ीके नीचे डाल देते हैं ताकि वह ध्यानमें इस प्रकार अंदर घुसनेपर उनके मस्तक और उसके साथ-साथ उनके शरीरको पकड़े रखे ।

 

II

 

    समाधिके समय आंतर भनप्राण और शरीर हीं बाह्य सत्तासे पृथक् होते हैं और अब उससे आच्छादित नहीं रहते -- इसलिये वे पूर्ण रूपसे आंतरिक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं । उस समय बाह्य मन या तो निष्क्रिय हों जाता है या किसी रूपमे अनुभवको प्रतिबिंबित करता या उसमें भाग लेता है । समस्त मनोमयी सतासे केंद्रीय चेतनाके पृथक् हों जानेका मतलब है पूर्ण समाधिका अवस्था जिसमे अनुभवोंकी कोई स्मृति नहीं रहती ।

 

२३८


    परंपराके अनुसार निर्विकल्प समाधि महज वह समाधि है जहांसे मनुष्य गर्म लोहेसे दागने या आगसे जलानेपर भी नही जग सकता - अर्थात् ऐसी समाधि जिसमें मनुष्य पूर्ण रूपसे शरीरसे बाहर चला गया होता है । अधिक वैज्ञानिक भाषामें कहा जा सकता है कि यह वह समाधि है जिसमें चेतनाके अंदर कोई रचना या गति नही होती और योगी एक ऐसी स्थितिमें खो जाता है जहांसे वह अनुभवका कोई विवरण नही ले आ सकता, महज यही कह सकता है कि वह आनन्दमें था । ऐसा माना जाता है कि यह स्थिति सुषुप्ति या तुरीयमें पूर्णतः लीन हों जाना है ।

 

*

 

     निर्विकल्प समाधिका ठीक-ठीक अर्थ है पूर्ण समाधि जिसमे कोई विचार नही होता या चेतनाकी कोई गाते नहीं होती अथवा न तो बाहरी न भीतरी वस्तुओंका कोई ज्ञान रहता है -- सब कुछ खींचकर विश्वातीत परात्परमें चला जाता है । पर यहांपर इसका अर्थ ऐसा नही हों सकता -- यहां संभवतः अर्थ है मनसे परेकी चेतनामें समाधि ।

 

    तोड़ना और फिर गढ़ना प्राय. ही परिवर्तनके लिये आवश्यक होता है; परंतु जब एक बार मौलिक चेतना प्राप्त हों चुकती है तब कोई कारण नही कि यह सब कष्ट और उथल-पुथलके साथ किया जाय -- इसे शांतिके साथ किया जा सकता है । सच पूछो तो निम्रतर अंगोंको विरोध हीं कष्ट और उथल-पुथल उत्पन्न करता है !

 

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     सच्चिदानन्दमें डूब जाना एक ऐसी स्थिति हे जिसे निरूप्य समाधिके बिना जाग्रत् अवस्थामें प्राप्त कर सकता है -- विलयन केवल शरीरके नाशके बाद ही 'हों सकता है, बशर्त्ते कि मनुष्य उच्चतम स्थितिको प्राप्त कर चुका हो और संसारकी सहायता करनेके लिये यहां वापस आनेकी इच्छा नहीं करता ।

 

*

 

     यह तुम्हारी भौतिक चेतनाके स्वभावपर निर्भर करता है । जब शरीरमें चेतना- का अवतरण होता है तो मनुष्य सूक्ष्म-भौतिक चेतनाके विषयमें सज्ञान हो उठता है और वह ज्ञान समाधिमें बना रह सकता है -- ऐसा लगता है कि मनुष्यको शरीरका ज्ञान है पर वास्तवमें वह सूक्ष्म शरीर होता है न कि बाहरी स्थूल शरीर । परंतु मनुष्य और अधिक गहराईमें भी जा सकता है और फिर भी भौतिक शरीरके बारेमें और उसपर किया करनेके बारेमें भी सचेतन रह सकता है, पर बाहरी वस्तुओंके बारेमें नहीं रह सकता । अंतमें जाकर मनुष्य एक गभीर एकाग्रतामें निमग्न हों जा सकता

 

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है पर प्रबल रूपमें शरीरके विषयमें तथा उसमें शक्तिके अवतरणके बिषयमें सचेतन रह सकता है । इस अंतिम स्थितिमें बाहरी वस्तुओंका ज्ञान भी बना रहता है यद्यपि उनकी ओर ध्यान नही भी दिया जा सकता । इस अंतिम स्थितिको सामान्यतया समाधि नहीं कहा जाता, पर यह एक प्रकारकी जाग्रत् समाधि है । पूर्ण समाधिकी गभीर स्थितिसे लेकर पूर्ण जागृत चेतनामें होनेवाली शक्तिकी क्रियातककी सभी अवस्थाओंका उपयोग इस योगमें किया जाता है । साधकको सर्वदा पूर्ण समाधिपर ही जोर नही देना चाहिये, क्योंकि अन्य समाधियां भी आवश्यक हैं और उनके बिना पूर्ण परिवर्तन नही साधित हों सकता ।

 

    यह बड़ा अच्छा है कि उच्चतर चेतना और उसकी शक्तियां मस्तक और हदयके नीचेके भागोंमें अवतरित हो रही हैं । यह रूपांतरके लिये अत्यंत आवश्यक है । क्यों- कि निम्रतर प्राण और शरीर भी उच्चतर चेतनाके उपादानमें अवश्य परिवर्तित हों जाने चाहियें ।

 

*

 

     तुम जो अपने ध्यानसे बाहर आनेपर कुछ याद नहीं रख पाते इसका कारण यह है कि अनुभव आंतर सत्तामें घटित होता है और बाह्य सत्ता उसे ग्रहण करनेके लिये प्रस्तुत नहीं है । इससे पहले तुम्हारी साधना मुख्यतया प्राणिक लोकमें चल रही थी जो बहुधा सबसे पहले खुलता है और उस लोकके साथ शारीर चेतनाका संपर्क स्थापित करना आसान होता है क्योंकि वे दोनों स्तर एक-दूसरेके अधिक समीप हैं । अब ऐसा लगता है कि साधना भीतर चैत्य सत्तामें चली गयी है यह एक महान् प्रगति है और तुम्हें अभी अत्यंत बाह्य चेतनाके साथ संपर्क न होनेके कारण कोई चिंता करनेकी आवश्यकता नहीं । कार्य फिर भी चल रहा हैं और संभवत यह आवश्यक है कि ठीक अभी यह इसी भांति हो । पीछे चलकर यदि तुम समुचित मनोभाव सतत बनाये रखोगे तो वह बाहरी चेतनामें भी अवतरित होगी ।

 

*

 

     एक मध्यवर्ती समाधि होती है जो भिन्न प्रकारकी होती है -- उसमें योगीको सच्चिदानन्दकी संपर्क नही प्राप्त होता बल्कि निम्र प्राणिक लोककी सत्ताओंके साथ संपर्क प्राप्त होता है । उच्चतर प्रकारकी समाधिमें जानेकी शक्तिको विकसित करनेके लिये कुछ साधना करनेकी आवश्यकता होती है । पवित्रीकरणका जहांतक प्रश्न है, संपूर्ण पवित्रीकरण आवश्यक नहीं है, पर सत्ताके कुछ भागोंको उच्चतर वस्तुओंकी ओर अवश्य मुड जाना चाहिये ।

 

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     अंगरेजीमें 'ट्रांस' (Trance) शब्दका प्रयोग सामान्यतया केवल गभीरतर प्रकारकी समाधिके लिये होता है, परंतु, अन्य कोई शब्द न होनेके कारण, हमें इसका प्रयोग सब प्रकारकी समाधियोंके लिये करना होगा ।

 

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   समाधि कोई ऐसी चीज नही है जिसका त्याग कर दिया जाय -- बस, आवश्यक- ता है इसे अधिकाधिक सचेतन बनानेकी ।

 

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   भगवानके साथ संपर्क प्राप्त करनेके लिये समाधिमे रहना आवश्यक नहीं है ।

 

*

 

      इसके विपरीत, सच पूछो तो जाग्रत् अवस्थामें इस अनुभूतिको आना चाहिये और बने रहना चाहिये जिसमें कि यह जीवनका एक सत्य बन सके । यदि समाधिमे इसका अनुभव हों तो यह एक ऐसी अतिचेतन अवस्था होगी जो आंतरिक सत्ताके किसी भागते लिये ही सत्य होगी, समस्त चेतनाके लिये सत्य नही होगी । सत्ताके उद्घाटन और उसकी तैयारीके लिये समाधिमें होनेवाली अनुभूतियोंका उपयोग तो है पर जब उपलब्धि जाग्रत् अवस्थामें निरंतर होती रहती है केवल तभी वह वास्तवमें अपने अधि- कारमें होती है । अतएव इस योगमें जाग्रत् उपलब्धि और अनुभूतिको ही सबसे अधिक मूल्य प्रदान किया जाता है ।

 

     स्थिर चिर-विस्तरणशील चेतनामें रहकर कार्य करना एक साथ ही एक साधना और एक सिद्धि भी है ।

 

 *

 

    जो अनुभव तुम्हें हुआ वह निस्संदेह चेतनाका अंदर प्रवेश करना था जिसे साधारणतया समाधि कहा जाता है । परंतु इसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भाग है मन और प्राणकी निश्चल-नीरवता जो पूर्णत. शरीरतक भी विस्तारित है । इस नीरवता और शांतिकी क्षमताको प्राप्त करना साधनाकी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवस्था है । यह सर्वप्रथम ध्यानमें आती है और चेतनाषगे भीतरकी ओर समाधिमें फेंक दे सकती है, पर पीछे इसे जागृत अवस्थामें भी आना होगा और समस्त जीवन तथा कर्मके स्थायी आधारके रूपमे अपनेको स्थापित करना होगा । यही वह अवस्था है जिसमें आत्मा- का साक्षात्कार और प्रकृाताक आध्यात्मिक रूपांतर साधित होता है ।

 

२४०


     हा, उन्हें (उच्चतर सिद्धिकी सभी स्थितियोंके) पूरी क्रियाशीलताके अंदर प्राप्त किया जा सकता है । समाधि आवश्यक नही है -- उसका व्यवहार किया जा सकता है पर वह स्वयं अपने-आपमें चेतनाका परिवर्तन नही लें आ सकती जो कि हमारा उद्देश्य है, क्योंकि समाधि केवल आंतरिक आत्मनिष्ठ अनुभव ही प्रदान करती है जो बाहरी चेतनामें कोई अंतर पैदा करे ही यह आवश्यक नहीं है। ऐसे बहुतसे साधकों- के उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने समाधिमें बड़ी अच्छी-अच्छी अनुभूतियां पायी है पर उनकी बाहरी सत्ता पहलेकी जैसी ही बनी हुई है । जो कुछ अनुभूत होता है उसे बाहर लें आना और उसे आंतरिक तथा बाह्य सत्ता दोनोंके रूपांतरके लिये ए_क शक्तिमें परिणत करना आवश्यक है । परंतु यह कार्य समाधिमें गये बिना स्वयं जाग्रत् चेतनामें किया जा सकता है । अवश्य हीं एकाग्रताका अभ्यास करना अनिवार्य है ।

 

*

 

    दो अलग-अलग स्थितियां हैं -- एक तो वह है जिसे चेतना. एकाग्रताकी अवस्था- मे लेती है और दूसरी वह है जिसे वह विश्रामकी अवस्थामें लेती है । इनमेंसे दूसरी विश्रामकी स्थिति सामान्य चेतना है (सामान्य साधककी दृष्टिसे, पर शायद सामान्य जनकी सामान्य चेतना नही) और पहली एकाग्रताकी स्थिति वह है जो साधनामें चेतनाकी तपस्याके द्वारा प्राप्त होती है । जो साधक इतनी दूर जा चुका है उसके लिये अक्षरकी स्थितिमें प्रवेश करना और वहांसे अनुभवोंको देखना आसान है । वह एकाग्र हो सकता और अपनी सत्ताके प्रमुख पक्षोंमें एकत्व भी बनाये रख सकता हे, यद्यपि इसमे उसे अधिक कठिनाई हों सकती है -- पर शिथिलीकरणकी अवस्थामें वह शिथिल सामान्य चेतनामें आ गिरता है । वास्तवमें साधनाके द्वारा जो कुछ प्राप्त हुआ है वह जब साधारण चेतनाके लिये स्वाभाविक बन जाता है केवल तभी इससे बचा जा सकता है । जितने अंशमें इसे किया जाता है उतने अंशमें सत्यको केवल आंतरिक रूपमें अनुभव करना ही नही बल्कि उसे कार्यमें भी आअभिव्यक्त करना संभव होता है ।

 

*

 

    उच्चतर चेतना संकेंद्रित चेतना है -- भागवत एकत्वमें और भागवत संकल्प- को कार्यान्वित करनेमे संकेंद्रित है, वह बिखरी हुई नही है और न वह किसी -न-किसी मानसिक विचार या प्राणिक कामना या भौतिक आवश्यकताके पीछे हीं दौड़ती है जैसा कि सामान्य मानवीय चेतना करती है -- फिर वह सैकड़ों ऊलजलूल विचारों, भावनाओं और आवेगोंके द्वारा आक्रांत नही होती, बल्कि उसका अपने ऊपर प्रभुत्व होता है, वह केंद्रित और सुसमंजस होती है ।

 

२४२


III

 

   साधारणतया दो अवस्थाओंमेंसे किसी एकमें ही जप फल प्रदान करता है ( 1) यदि जप अर्थपर ध्यान रखकर किया जाता है, साधकके मनमें कोई ऐसी चीज होती है जो उस देवताके स्वभाव, शक्ति, सौंदर्य, मोहिनी शक्तिपर एकाग्र होती है जिसे जपका मंत्र व्यक्त करता है और जिसे चेतनाके अन्दर लें आना अभिप्रेत होता है । यह मानसिक पद्धति है, अथवा ( 2) यदि जप हदयसे उठता है या इसे सजीव बनानेवाली एक प्रकारकी भक्तिके भाव या बोध मात्रकों हृदयमें झंकृत करता है । यह हदयकी भावप्रधान पद्धति है । इस तरह जपको या तो मनका या प्राणका सहारा या पोषण मिलना ही चाहिये । पर जपसे मन यदि शुष्क हो जाय और प्राण चंचल हों उठे तो इसका अर्थ है कि उसे यह सहारा और पोषण नही मिल रहा है । अवश्य ही एक तीसरी पद्धति भी है, वह है स्वयं मंत्र या नामकी शक्तिपर निर्भरता । उस अवस्थामें साधकको तबतक जप करते रहना होता है जबतक कि वह शक्ति पर्याप्त रूपमें आंतरिक सत्तापर अपने प्रकपनोको जमा न दे जिसमें कि एक सुनिश्चित क्षणमें वह एकाएक दिव्य उप- स्थिति या दिव्य स्पर्शकी ओर उद्घाटित हों जाय । परंतु इस फलके लिये यदि संघर्ष किया जाय या आग्रह किया जाय तो फिर इस फलके आनेमें बाधा पड़ती है, क्योंकि इसके आनेके लिये यह आवश्यक हव कि मनके भीतर एक प्रकारकी अचंचल ग्रहणशीलता हों । यही कारण है कि मैत्री बार-बार मनकी अचंचलतापर इतना अधिक जोर दिया था, इस बातपर जोर नही दिया था कि इसके लिये अत्यधिक श्रम या प्रयास  जाय । मेरा उद्देश्य यह था कि चैत्य पुरुष और मनको समय दिया जाय कि वे ग्रहण- शीलताकी आवश्यक स्थितिको विकसित करें -- यह ग्रहणशीलता उतनी ही स्वा- भाविक होनी चाहिये जितनी कि वह उस समय होती है जब मनुष्य कविता या संगीत- की अंतःप्रेरणाको ग्रहण करता है । फिर यही कारण एक मैं नहीं चाहता कि तुम कविता लिखना बंद कर दो -- यह सहायता करता है और तैयारीके कार्यमें बाधा नहीं पहुँचाता, क्योंकि यह ग्रहणशीलताकी और अवस्थामें विद्यमान भक्तिको बाहर निकालनेकी समुचित अवस्थाको विकसित करनेका साधन है । अपनी सारी शक्तिको जप या ध्यानमें खर्च कर देना एक प्रकारका कठिन श्रम है जिसे जारी रखना सफल ध्यान करनेके अभ्यस्त व्यक्तिके लिये भी कठिन होता है -- जिसे केवल उन समयों- मे ही जारी रखना संभव होता हैं जब कि उत्परसे अनुभूतियोंकी अबाध धारा प्रवाहित होती रहती है ।

 

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    ॐ मंत्र है, यह ब्रह्म-चैतन्यके तुरीयसे लेकर बाह्य या भौतिक स्तरतकके चारों लोकोंको अभिव्यक्त करनेवाला शब्द-प्रतीक है । मंत्रका कार्य है आंतर चेतनामें ऐसे प्रकपनोको पैदा करना जो उसे (चेतनाको) उस वस्तुकी सिद्धिके लिये तैयार करते

 

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हैं जिसका प्रतीक वह मंत्र होता है और जिसके विषयमें यह वास्तवमें माना जाता है कि स्वयं वह मंत्र उसे अपने अन्दर वहन करता है । अतएव मंत्र थे को चेतनाका इस प्रकार उद्घाटन करा देना चाहिये कि वह सभी स्थूल-भौतिक वस्तुओंमें, आंतरिक सत्ता और अतिभौतिक जगतोंमें, हमारे लिये अभी अतिचेतन ऊपरके कारण-लोकमेंऔर अंतमें समस्त विश्व-सत्तासे ऊपर स्थित चरम मुक्त परात्परतामें एकमेव चैतन्यको देख और अनुभव कर सके । जो लोग इस मंत्रका उपयोग करते हैं उनका मुख्य लक्ष्य साधारणतया अंतिम अनुभूति ही होती है ।

 

      इस योगमें कोई निश्चित मंत्र नही है, मंत्रोंपर कोई विशेष जोर नहीं दिया जाता, यद्यपि साधकको यदि कोई मंत्र सहायक प्रतीत हों या जबतक सहायक मालूम हो तबतक वह उसका उपयोग कर सकता है । यहांपर बल्कि जोर दिया जाता है चेतनामें अभीप्सा रखनेपर और मन, हृदय, संकल्पशक्ति, समस्त सत्ताकी एकाग्रतापर । यदि कोई मंत्र इस कार्यके लिये उपयोगी प्रतीत होता है तो साधक उसका उपयोग करता है । ॐ मंत्रका यदि ठीक-ठीक (यंत्रवत् नही) उपयोग किया जाय तो यह अवश्य ही ऊपर- की ओर और बाहर (विश्व-चेतना) की ओर उद्घाटित होने तथा साथ ही ऊपरकी चेतनाके अवतरित होनेमें सहायता कर सकता है ।

 

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    साधारणतया इस साधनामें व्यवहृत होनेवाला एकमात्र मंत्र है श्रीमांका मंत्र या मेरे और माताजीके नामका मंत्र । हृदयमें और मस्तकमें दोनों जगह एकाग्रता की जा सकती है दोनोंका अपना अलग-अलग फल हैं । पहली चैत्य पुरुषको उद्घाटित करती है और भक्ति, प्रेम तथा श्रीमाताजीके साथ एकत्व, हृदयमें उनकी उपस्थिति तथा प्रकृतिके अंदर उनकी शक्तिकी क्रियाको ले आती है । दूसरी आत्मोपलब्धिके लिये, जो कुछ मनसे ऊपर है उसका ज्ञान पानेके लिये, चेतनाके शरीरसे ऊपर उठनेके लिये और उच्चतर चेतनाके शरीरके अंदर उतारनेके लिये मनको उद्घाटित करती

 

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   भगवानके नामका जप सामान्यतया संरक्षण पानेके लिये, पूजा करनेके लिये, भक्ति बढ़ानेके लिये, आंतरिक चेतनाको उद्घाटित करनेके लिये, भगवानके उसी स्वरूपका साक्षात्कार करनेके लिये किया जाता है । इस कार्यके लिये अवचेतनके अंदर कार्य करना जितना आवश्यक है उसके लिये नाम अवश्य ही फलदायी हों सकता

 

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नाम जपमें एक महान् शक्ति है ।

 

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    चाहे जिस किसी नामको क्यों न पुकारा जाय, जो शक्ति प्रत्युत्तर देती है वह स्वयं श्रमों हैं । प्रत्येक नाम भगवानके एक विशेष पक्षको सूचित करता है और उस भाव-पक्षसे सीमित होता है; परंतु श्रीमाताजीकी शक्ति सर्वव्यापक है ।

 

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    मैंने उबसाते साथ नाम-जप करनेके लिये प्रोत्साहित नही किया, क्योंकि वह मुझे प्राणायाम जैसा लगा । प्राणायाम बहुत शक्तिशाली चीज है, पर वह यदि अव्यवस्थित रूपमें किया जाय तो उससे बाधाएं खड़ी हों सकती है और यहांतक कि अत्यधिक लोंगोंके शरीरमें रोग भी हो सकते है ।

 

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   गायत्रीकी शक्ति है भागवत सत्यकी ज्योति । यह ज्ञानका मंत्र है ।

 

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   गायत्री मंत्र सत्ताके सभी लोकोंमें सत्यकी ज्योतिको ले आनेका मंत्र है ।

 

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   गायत्री-जपको या जिस पद्धतिका अभी तुम अनुसरण कर रहे हो उसको छोड़ने- की आवश्यकता नही । हृदयमें एकाग्र होना एक पद्धति है, सिरमें (या ऊपर) एकाग्र होना दूसरी पद्धति है, दोनोंको इस योगमें शामिल किया गया है और जिस व्यक्तिको जो पद्धति सबसे अधिक आसान या स्वाभाविक प्रतीत हों उसे उसीका अभ्यास करना चाहिये । हृदयमें एकाग्र होनेका उद्देश्य है वहांके केंद्र (हत्पद्य) को उद्घाटित करना, हृदयमें भगवती माताकी उपस्थितिको अनुभव करना और अपने अंतरात्मा या चैत्य पुरुषके विषयमें जो कि भगवानका अंश है, सचेतन होना । मस्तकमें एकाग्र होनेका उद्देश्य है भागवत चेतनामें ऊपर उठ जाना और सभी चक्रोंमें श्रीमाताजीकी ज्योति या उनकी शक्ति या आनन्दको उतार लाना । यह आरोहण और अवरोहणकी क्रिया तुम्हारे जपकी प्रक्रियामें अंतर्निहित है और इसलिये उसे छोड़नेकी आवश्यकता नही ।

 

    मस्तकमें सत्यलोकके अनुरूप एक स्तर है पर एक विशेष अवस्थामें चेतनाको

 

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ऊपर वैश्व चेतनाके उसी स्तरमें जानेके लिये मुक्तभावसे मस्तकसे ऊपर उठना होता

 

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    ऐसा माना जाता हैं कि इस (प्रणव जप) मे एक अपनी शक्ति है यद्यपि वह शक्ति उसके अर्थपर ध्यान किये बिना पूरी तरह कार्य नही कर सकती । परंतु मेरा अनुभव यह  कि इन बातोंका कोई अकाटच नियम नही है और सबसे अधिक निर्भर करता हे चेतनाके ऊपर या साधककी प्रत्युत्तर देनेकी शक्तिके ऊपर । कुछ लोगोंके प्रसंगमें इसका कोई फल नही होता, कुछ लोगोंके प्रसंगमें ध्यान किये बिना भी इसका बहुत शीघ्र और शक्तिशाली फल होता है -- दूसरोंके लिये कोई फल पानेके लिये ध्यान आवश्यक होता है ।

 

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    गीताके श्लोकोंका उपयोग जपकी तरह किया जा सकता है, यदि उस सत्यको उपलब्ध करना लब्ध है जिसे वे श्लोक धारण करते हैं । यदि ' ' के पिताने उस उद्देश्य- सिद्धिके लिये गीता-शिक्षाके सारको वहन करनेवाले मुख्य-मुख्य श्लोकोंको एकत्रित किया है तो यह बहुत ठीक है । सारी बात निर्भर करती है श्लोकोंके चुनाव- पर । सच पूछो तो गीताके कुछ श्लोकोंको एक साथ रख देनेसे गीताकी शिक्षाका सुसबद्ध संक्षिप्त रूप आसानीसे नही तैयार किया जा सकता, परंतु इस प्रकारके उद्देश्य- के लिये वैसा करना आवश्यक नही है, इसका उद्देश्य तो बस मूल सत्योंको एक साथ रख देना हो सकता है -- किसी बौद्धिक व्याख्याके लिये नन्हों बल्कि अनुभूतिको पकड़नेके लिये जो कि जपका उद्देश्य है । मैंने इस पुस्तकको नही पढा है, इसलिये मैं नही जानता कि कितनी दूरतक यह अपने उद्देश्यको पूरा करती है ।

 

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    जब कोई नियमित रूपसे किसी मंत्रका जप करता है तो बहुत बार जप अपने- आप भीतरमें होना आरंभ हों जाता है, इसका मतलब है कि आंतरिक सत्ताके द्वारा जप होने लगा है । इस ढंगसे जप अधिक फलदायक बन जाता है ।

 

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     स्वभावत: ही, जिस नामपर मनुष्य एकाग्र होता है वह अपने-आप चलता रहेगा, यदि कोई वैसा करता है । परंतु नीदमें श्रीमांको पुकारना आवश्यक रूपसे कोई जप

 

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नही है -- वास्तवमें आंतर सत्ता कठिनाईके समय या आवश्यक होनेपर बहुधा श्रीमां- को पुकारती है ।

 

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    बहुतसे लोगोंको मंत्र ध्यानमें प्राप्त होते हैं । वेदमें ऋषियोंका कहना है कि अंतर्दर्शन और अतर्ज्ञानके द्वारा उन्होंने सत्यको सुना -- ' 'कवय: सत्यभूत. '' -- वेद इसीलिये श्रुति कहलाते हैं कि वे अंतःकरणमें सुनकर प्राप्त किये गये थे ।

 

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