श्रीअरविन्द के पत्र

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Sri Aurobindo

Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Letters On Yoga - Parts 2,3 Vol. 23 1776 pages 1970 Edition
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 PDF     Integral Yoga
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Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द के पत्र 578 pages 1972 Edition
Hindi Translation
Translator:   Chapsip Tripathi  PDF    LINK

वि- पांच

 

कर्मके द्वारा साधना


 

कर्मके द्वारा साधना

 

     साधारण जीवनका जो कर्म होता है वह अपने ही किसी उद्देश्य और अपनी ही किसी इच्छाकी पूर्त्तिके लिये किसी बौद्धिक या नैतिक नियमकी अधीनतामें किया जाता है और कभी-कभी वह किसी बौद्धिक आदर्शसे भी संस्पृष्ट होता है । गीताके योगमें कर्मका ब्रह्मार्पण, वासनाजय, निरहंकार और निष्काम कर्म, भगवान्की भक्ति, विश्वचैतन्यके साथ योग, सब प्राणियोके साथ एकत्व बुद्धि और भगवानके साथ एका- आत्मता है । हमारे इस योगमें इन सब बातोंके साथ अतिमानसिक ज्योति और शक्ति- के अवतरण (इसके अंतिम उद्देश्य) और प्रकृतिके रूपांतरको भी जोड़ दिया गया है ।

 

*

 

     मनुष्य सामान्यतया प्राण-सत्ताके साधारण हेतुओंसे, आवश्यकतावश, धन या सफलता या सामाजिक स्थिति या शक्ति-सामर्थ्य या यशकी कामनाके हेतु अथवा कर्म- की प्रवृत्ति और अपनी क्षमताओंको अभिव्यक्त करनेके आनन्दके हेतु कर्म करते हैं आंतर अपने धधक चलाते हैं, तथा वे अपनी क्षमता, कर्म करनेकी शक्ति और अच्छे या बुरे भाग्यके अनुसार, जो कि उनके स्वभाव और उनके कर्मका परिणाम होता है, सफल या विफल होते हैं । जब कोई योग ग्रहण करता है और अपना जीवन भगवान्को समर्पित करना चाहता है तो प्राण-सत्ताके इन साधारण हेतुओंकी अब पूर्ण और मुक्त क्रीड़ा नही होती । उनके स्थानमें दूसरे हेतुक, मुख्यतया चैत्य और आध्यात्मिक हेतुक रखना होता है जो साधकको पहलेकी जैसी ही शक्तिके साथ, अब अपने लिये नही बल्कि भगवानके लिये, कर्म करनेमें समर्थ बनायेगा । यदि साधारण प्राणिक हेतु या प्राणिक शक्ति अब मुक्त रूपमें काम न कर सके और फिर भी उसके स्थानमें कोई अन्य वस्तु न रखी गयी हों तो कर्ममें प्रयुक्त प्रबेग या शक्ति हासको प्राप्त हो सकती है अथवा अब वाह सफलता ले आनेवाली शक्ति नही रह सकती । परन्तु सच्चे साधक- के लिये यह कठिनाई केवल अस्थायी ही हो सकती है; परन्तु उसे अपनी चेतनामें या अपने मनोभाव में विद्यमान दोष-त्रुटिको देखना होगा और उसे दूर करना होगा । तब स्वयं भागवत शक्ति उसके माध्यमसे कार्य करेगी और उसकी क्षमता तथा प्राणिक शक्तिका उपयोग अपने उद्देश्योंके लिये करेगी । तुम्हारा जहांतक प्रश्न है, सच पूछा जाय तो तुम्हारे चैत्य पुरुष तथा तुम्हारे मनके एक भागने तुम्हें योगकी ओर खींचा है और वे इसके लिये पहलेसे उद्यत थे, परन्तु तुम्हारे प्राणिक स्वभावने अथवा कम- से-कम उसके एक बहुत बड़े भागने अभीतक चैत्य क्रियाकी धारामें अपनेको नही रखा है । अभीतक सक्रिय प्राण-प्रकृतिने अपना पूर्ण और अविभक्त आत्मार्पण नही किया है ।

 

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       कर्ममें प्राणके आत्मार्पणके  कुछ लक्षण ये हैं:-- यह बोध (महज विचार- या अभीप्सा नही) कि समस्त जीवन और कर्म श्रीमाँके हैं और इस आत्मार्पण और समर्पणमें प्राण-प्रकृतिका तीव्र हर्ष । इसके फलस्वरूप शांत-स्थिर परितृप्ति और कर्म तथा उसके र्व्याक्तेगत परिणामोंके प्रति अहैजन्म आसक्तिका तिरोधान, परन्तु उसके साथ-हीं-साथ कर्ममें तथा भागवत उद्देश्यसे अपनी क्षमताओंके उपयोग- मे महान् हर्ष ।

 

    यह अनुभव होते रहना कि प्रत्येक मुहूर्त्त भागवत शक्ति हमारे कर्मोंके पीछे क्रिया- शील है और पथप्रदर्शन कर रही है ।

 

    एक अटूट श्रद्धा-विश्वास जिसे कोई परिस्थिति या घटना भंग न कर सके । यदि कठिनाइयां आती हैं तो वे मानसिक संदेह या तामसिक स्वीकृतिको नही जगाती; बल्कि इस सुदृढ़ विश्वासको उत्पन्न करती हैं कि सच्चा आत्मार्पण होनेपर भागवत शक्ति कठिनाइयोंको हटा देगी, और इस विश्वासके साथ-साथ इस उद्देश्यसे साधक उनकी ओर और अधिक मुडेगा और उनपर निर्भर करेगा । जब साधकमें पूर्ण श्रद्धा और आत्मार्पणके भाव होता है तो उस समय दिव्य शक्तिको ग्रहण करनेकी क्षमता भी आती है जो मनुष्यसे यथार्थ कार्य कराती है और सही पद्धति ग्रहण कराती ३ और तब परिस्थितियां अनुकूल हों जाती हैं और परिणाम दिखायी देने लगता है ।

 

   इस स्थितिपर पहुँचनेमें लिये आवश्यक चीज है सतत अभीप्सा करते रहना, पुकारते रहना और आत्मदान करना ओर अपने अन्दरकी या चारों ओरकी जो सब चीज़ें पथमें बाधा डालती हैं उन सबका परित्याग करनेका संकल्प बनाये रखना । कठिनाइयां तो आरंभमें, और परिवर्तनके लिये जितने अधिक समयकी आवश्यकता होगी उतने समयतक बराबर ही होंगी; परन्तु उनका सामना यदि मुस्थिर श्रद्धा, संकल्प तथा धैर्यके साथ किया जाय तो वे विलीन होनेको बाध्य होंगी ।

 

    वह साधारण कर्मयोग है जिसमे साधक स्वयं अपना कार्य चुनता है पर उसे भगवान्को अर्पित करता है -- 'वह कर्म उसे दिया गया है' का तात्पर्य यह है कि वह अपने मन या हृदय या प्राणके किसी आवेगके वश उस ओर चालित हुआ है और यह अनुभव करता है कि उस आवेगके पीछे कोई वैश्व शक्ति अथवा वैश्व भगवत्-शक्ति विद्यमान. है और वह अपनेको यह देखनेका प्रशिक्षण देनेका प्रयास करता है कि सभी कर्मोंके पीछे ?? दिव्य शक्ति विद्यमान रहकर उसके और दूसरोंके अन्दर वैश्व उद्देश्यको सिद्ध करती है ।

 

    एक बार जब वह प्रत्यक्ष समर्पणके आदर्शको ग्रहण कर लेता है तो उसे प्रत्यक्ष परिचालन या पथप्रदर्शन प्राप्त करना होता है - यही कारण है कि वह जिसे महज मानसिक, प्राणिक या भौतिक आवेग समझता हैं जो उसकी अपनी या वैश्व प्रकृति- से आते है, उन सबको वह त्याग देता है । निस्सन्देह, आत्मसमर्पणका पूर्ण अर्थ तो

 

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केवल उस समय प्रकट होता है जब वह तैयार हों जाता है ।

 

     मैं नहीं समझता कि जो पथ तुमने चूना है उसपर कोई मार्गदर्शन देना मेरे लिये संभव है - कम-से-कम जो ब्यौरा तुम्हारे पत्रमें है उससे अधिक सुनिश्चित ब्यौरा हुए बिना कोई भी निश्चित बात कहना मेरे लिये कठिन हैं ।

 

     जिस जीवनधारा और कर्मको तुमने चूना है उसको तबतक बदलनेकी कोई आवश्यकता नही जबतक कि तुम यह अनुभव करते हों कि वही तुम्हारे स्वभावका पथ है या तुम्हारी आंतर सत्ताद्वारा तुम्हें प्राप्त आज्ञा है अथवा, किसी कारणवश, वह तुम्हें अपना समुचित धर्म प्रतीत होता है । ये ही तीन कसौटियां है और इनसे भिन्न मैं नही जानता कि गीताके योगके लिये कोई बंधी-बंधाई आचरणविधि या -कर्म या जीवनकी पद्धति निर्धारित की जा सकतीं है । सच पूछा जाय तो जिस भावना या चेतनाके साथ कर्म किया जाता है वही सबसे अधिक महत्वपूर्ण तै, बाहरी रूप वाभित्र स्वभाववाले लोंगोंके लिये बहुत अधिक बदल सकता है । जबतक मनुष्य यह सुनिश्चित अनुभव नहीं प्राप्त कर लेता कि भगवती शक्तिने मेरे कार्यको अपने हाथोंमें ते लिया हे और वही उन्हें कर रही है तबतक ऐसी हीं बात है, उसके बाद यह भगवती शक्ति हीं यह निर्णय करती है कि क्या करना चाहिये या नही करना चाहिये ।

 

   सभी आसक्तियोंको जीतना अवश्य ही कठिन होगा और यह विजय एक दीर्घ साधनाके फलस्वरूप ही आ सकती है अन्यथा नहीं - जबतक कि आंतरिक आध्या- त्मिक अनुभवमें तेजोसे व्यापक वृद्धि न हो जो कि गीताकी शिक्षाका सारमर्म है । फला- कांक्षाका नाश, स्वयं कर्मके प्रति आसक्तिका अन्त, सभी प्राणियों, सभी घटनाओंके प्रति, यश या अपयश, प्रशंसा या निंदा, सौभाग्य या दुर्भाग्यके प्रति समभावकी वृद्धि, अहंभावके विनाश, जो कि समस्त आसक्तियोंको अभावके लिये आवश्यक हुए, केवल तभी पूर्ण रूपसे सिद्ध हों सकते हैं जब कि समस्त कर्म भगवानके प्रति स्वाभाविक यज्ञ बन जाय, हृदय उनके प्रति समर्पित हों जाय और साधकको सभी वस्तुओं और सभी प्राणियोंमे भगवानका निश्चित अनुभव हों । यह चैतन्य या अनुभव सत्ताके सभी भागों और गतिविधियोंमें, 'सर्वभाव', अवश्य होना चाहिये, केवल मन या विचार- मे ही नही होना चाहिये, उस समय सभी आसक्तियोंको झड़ जाना आसान हो जाता है । मैं यहां गीताके योगमार्गकी बात कह रहा हूँ, क्योंकि सन्यासी जीवनमें मनुष्य इसी उद्देश्यको अन्य रूपसे प्रान्त करता है, वह त्याग और अव्यवहारके द्वारा आसक्ति- की वस्तुओंसे विलग हो जाता है और उसके फलस्वरूप स्वयं आसक्ति भी नष्ट हो जाती है !

 

*

 

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    में उसे बस अधिक-से-अधिक यही सुझाव दे सकता हूँ कि उसे किसी प्रकारके कर्मयोगका अभ्यास करना चाहिये - अपने छोटे-से-छोटेसे लेकर बडे-से-बडे सभी कर्ममें परम प्रभुको स्मरण करे, उन्हें अचंचल मनसे तथा अहंभाव या आसक्तिसे रहित होकर करे तथा उन्हें यज्ञके रूपमे परम प्रभुको समर्पित करे । वह संसार और उसकी शक्तियोंके पीछे विद्यमान भागवत शक्तिकी उपस्थितिको भी अनुभव करनेका प्रयास या अभीप्सा कर सकता है, अज्ञानकी निम्रतर प्रकृति तथा उच्चतर दिव्य प्रकृति- के बीच,--जिसका स्वभाव है पूर्ण स्थिरता, शांति, शक्ति, ज्योति और आनन्द -, विभेद कर सकता है एव निम्रतरसे उच्चतरमें धीरे-धीरे ऊपर उठा लिये जाने और पहुँचा दिये जानेकी अभीप्सा कर सकता है ।

 

    यदि वह इसे कर सके तो वह कभी-न-कभी अपनेको भगवानके प्रति समर्पित कर देंने तथा पूर्णत: आध्यात्मिक जीवन यापन करनेके योग्य बन जायगा ।

 

*

 

    जो पथ उसके लिये स्वाभाविक प्रतीत होता है वह है कर्मयोग और इसलिये बह जो गीताकी शिक्षाके अनुसार जीवन यापन करनेकी चेष्टा कर रहा है वह ठीक ही कर रहा है, क्योंकि गीता ही इस पथकी महान् पथप्रदर्शिका है । अहंजन्य क्रिया- ओंसे तथा व्यक्तिगत कामनासे परिष्कृत होना और जो ज्योति प्राप्त है उसका ठीक- ठीक अनुसरण करना इस पथके लिये प्रांरभिक प्रशिक्षण है, और जहांतक उसने इन चीजोंका अनुसरण किया है, वह ठीक पथपर ही रहा है, परन्तु अपने कर्मके लिये शक्ति और प्रकाश मांगनेको अहंकारजन्य क्रिया नहीं समझना चाहिये, क्योंकि वे व्यक्तिके आंतरिक विकासके लिये आवश्यक हैं ।

 

    स्पष्ट ही, एक अधिक व्यवस्थित तथा अधिक ताव साधना अपेक्षित है अथवा, किसी भी हालतमें, अटूट अभीप्सा और अधिक सतत रूपसे केंद्रीय लक्ष्यके साथ संलग्न रहना बाहरी वस्तुओं और बाहरी क्रियाओंके बची भी पक्का अनासक्तिभाव तथा सतत पथप्रदर्शन ला सकता है 1 इस योगमार्गकी परिपूर्णता, सिद्धि -- मे पृथक् कर्ममार्गकी अथवा आध्यात्मिक कर्मकी बात कह रहा हूँ - उस समय आना आरंभ करती है जब मनुष्य सुस्पष्ट रूपमे दिव्य पथप्रदर्शक तथा पथप्रदर्शनके विषयमें सज्ञान होता है और जब वह यह अनुभव करता है कि दिव्य शक्ति उसे यत्र बनाकर तथा दिव्य कर्मका भागीदार बनाकर कार्य कर रही है ।

 

*

 

   तुम्हें लिखे गये उसके पत्रसे यह पता चलता है कि वह अपनी साधनामें एक बहुत उपयुक्त पद्धतिका अनुसरण करता रहा है और उसने कुछ अच्छे परिणाम उप- लब्ध किये हैं । इस प्रकारके कर्मयोगका पहला पग है कर्ममें अहकेद्रित स्थिति, निम्र-

 

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तर प्राणिक प्रतिक्रियाओं तथा कामनाके तत्त्वका कम हों जाना और अन्तमें उनसे मुक्ति मिल जाना । उसे निश्चय हीं इस पथपर चलते रहना चाहिये जबतक कि वह उसके अन्त जैसी किसी वस्तुपर नही पहुँच जाता । किसी हालतमें मैं उसे उस पथसे विचलित करना नही पसन्द करुंगा ।

 

    जब मैनई व्यवस्थित साधनाकी बात कही थी तब मेरी दृष्टिमें जो बात थी वह यह थी कि एक ऐसी पद्धतिको स्वीकार किया जाय जो चेतनाके संपूर्ण भावको एक ऐसा सामान्य रूप देगी जिससे कि केवल ब्यौरोंपर कार्य करनेके बदले एक ही साथ उसकी समस्त क्रियाओंको ग्रहण कर लिया जाय -- यद्यपि वह क्रिया भी बराबर आवश्यक होती है । मैं यहां उदाहरणके रूपमें प्रकृति और पुरुषको पृथक् करनेकी साधनाका उल्लेख कर सकता हूँ; सचेतन पुरुष प्रकृतिकी समस्त क्रियाओंसे पृथक् होकर पीछे अवस्थित हों जाता है, उन्हें साक्षी और ज्ञाताके रूपमें और अन्तमें अनु- मति देनेवाले (अथवा न देनेवाले) के रूपमे तथा विकासकी उच्चतम अवस्थामें ईश्वर, विशुद्ध संकल्प और समस्त प्रकृतिके प्रभुके रूपमें निरीक्षण करता है।

 

    तीव्र साधनासे मेरा मतलब था किसी ऐसी महान् निश्चित अनुभूतिपर पहुंचने- का प्रयास करना जो समूची क्रियाके लिये एक दृढ आधार हों सके । मैं देख रहा हुए कि वह कभी-कभी किसी विशाल स्थिरताकी झाँकी मिलनेकी बात कह रहा है. । चेतनामें इस विशाल स्थिरताका स्थायी रूपसे अवतरण होना एक ऐसी अनुभूति हैं जिसकी बात मै सोच रहा था । ऐसे समयोंपर जो वह इसे अनुभव करता है वह यह बात सूचित करता प्रतीत होता है कि उसमें इसे ग्रहण करने और बनाये रखनेकी क्षमता हो सकती है । यदि ऐसा घटित हों या प्रकृति-पुरुषकी अनुभूति प्राप्त हों तो सारी साधना एक प्रबल और स्थायी आधारपर, एक विशुद्ध मानसिक प्रयासके बदले जो सर्वदा कठिन मोर धीमा होता है, एक नवीन और संपूर्णत यौगिक चेतनाके साथ आगे बचेगी । परन्तु मैं इन चीजोंको उसपर लादना नही चाहता; वों अपने समयपर आती हैं और उनकों असमय मत्थे मठ देनेसे उनका बराबर शीघ्र आना संभव नहीं होता । उसे आत्मशुद्धि और आन्म-प्रस्तुतिके अपने प्रारंभिक कार्यको ही जारी रखने दो ।

 

*

 

    यदि मैंने तुम्हें पत्र नही लिखा है तो इसका कारण यह है कि जो कुछ मैंने तुम्हें पहले लिखा था उसमें कोई चीज जोड़ना योग्य नही थी । मैं यह आश्वासन नही दे सकता कि एक निश्चित समयके भीतर तुम एक ऐसा परिणाम पा लोगे जो तुम्हें संसार- मे एक अधिक प्रबल शक्तिके साथ जानेंमें अथवा योगमें सफल होनेमें समर्थ बना देगा । योगके विषयमें तुम स्वयं कहते हो कि इसके लिये अभी तुम्हारा सारा मन तैयार नहीं है और समूचे मनके बिना साधनामें सफलता पाना मुश्किलसे संभव होता हैं । दूसरे- कैंप लिये. सच पूछा जाय तो साधनाका यह कार्य ही नही है कि वह संसारमें जाकर साधा-

 

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रण जीवन बितानेके लिये मनुष्यको तैयार करे । केवल एक चीज है जो ? दिशा- मे कार्य कर सकती है जो ऐसी चीजमें तुम्हें सहायता देगी जो कि वह (साधारण जीवन) नही है, पर फिर भी संपूर्ण योग नही हैं जिसके लिये तुम कहते हों कि तुम पूरे रूपमें तैयार नही हों । वह है कर्मयोगक भाव ग्रहण करना जैसा कि गीता उसका वर्णन करती हे -- एक विशालतर चेतनाको प्राप्त करनेकी अभीप्सा करते हुए अपने- आपको और अपने दुःख-संतापको भूल जाओ, एक महत्तर शक्तिको संसारमें कार्य करते हुए अनुभव करो और किसी करणीय कार्यके लिये, चाहे वह जितना भी छोटा कर्म क्यों न हो, स्वयं उसका यत्र बन जाओ । परंतु चाहे जो भी मार्ग करो न हों, उसे तुम्हें पूर्ण रूपसे स्वीकार करना होगा और उसमें अपनी संपूर्ण संकल्पशक्ति नियुक्त कर देनी होगी -- एक विभक्त औद चंचल संकल्पशक्तिको द्वारा तुम किसी चीजमें, न तो जीवनमें और न योगमें, सफलताकी आशा नही कर सकते ।

 

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    गीताकी भावनाके अनुसार साधना करनेके लिये किसी कर्मको उसका क्षेत्र बनाया जा सकता है ।

 

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    तुमने कर्मके लिये शक्तिका उपयोग किया, और जबतक तुमने उस कर्ममें संलग्न रहना पसन्द किया तबतक उसने तुम्हें सहायता की । प्रथम महत्त्वकी बात किये गये कर्मका धार्मिक या अ-धार्मिक स्वरूप नहीं है बल्कि वह आंतरिक मनोभाव है जिसके साथ उसे किया जाता है । यदि मनोभाव प्राणिक हो और चैत्य न हों तो मनुष्य अपने- को कर्ममें झोंक देता है और आंतरिक संपर्क खो देता है । यदि वह चैत्य होता है तो आंतरिक संपर्क बना रहता है, मनुष्य शक्तिको सहारा देते हुए या कर्म करते हुए अनु- भव करता है और साधनामें प्रगति होती रहती है ।

 

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 ऐसे लोग हैं जिन्होंने श्रीमाँकी शक्तिको अपने अन्दर क्रियाशील अनुभव करते हुए वकीलका कार्य किया है और उसके द्वारा वे आंतरिक चेतनामें विकसित हुए हैं । दूसरी ओर, धार्मिक कार्य अपने स्वभाव था प्रभावमें एकदम बाह्य और प्राणिक हों सकता है ।

 

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१७२


       परन्तु मैं कह सकता हूँ कि प्राचीन आध्यात्मिक भारतमें व्यापारको जितनी बुरी या दूषित वस्तु माना जाता था उससे जरा भी अधिक बुरी या दूषित वस्तु मैं नहीं समझता । यदि मैं समझता तो मुझे ' ' से अथवा बंबईमें पूर्वअफिकाकेसाथ व्यापार करनेवाले अपने शिष्योंसे धन न मिल पाता; और न तब मैं उन्हें अपना धंधा करते रहनेके लिये प्रोत्साहित ही कर पाता बल्कि तब मुझे उनसे यह कहना होता कि इसे छोड़ और केवल अपनी आध्यात्मिक उन्नतिकी ओर ध्यान दो । हम कैसे ' ' की आध्यात्मिक ज्योतिकी खोज और उनके मिलमें सामंजस्य बैठाऊं? क्या मुझे उनसे यह नहीं कह देना चाहिये कि अपने मिलको स्वयं उसीके भरोसे और शैतानके हाथ- मे छोड़ दो और किसी आश्रममें जाकर ध्यान करो? यदि स्वयं मुझे भी व्यापार करनेका आदेश मिला होता जैसा कि मुझे राजनीति करनेका आदेश मिला था, तो मैं जरा भी आध्यात्मिक या नैतिक मनस्तापके बिना उसे किया होता । सब कुछ निर्भर करता है उस भावपर जिसके साथ कोई कार्य किया जाता हैं, उन सिद्धातोंपर जिनपर वह कार्य आधारित होता है और उस व्यवहारपर जिसकी ओर वह कार्य प्रयुक्त होता है । मैंने राजनीतिक कार्य किया है और अत्यन्त उग्र प्रकारका क्रांतिकारी राजनीति, 'घोर कर्म', किया कु, और मैंने युद्धका समर्थन किया है और उसमें लोगोंको भेजा है, यद्यपि राजनीति सर्वदा या बहुधा कोई बहुत निर्दोष कार्य नहीं होती और न युद्धका ही कोई आध्यात्मिक कर्म कहा जा सकता है । परन्तु कृष्ण अर्जुनको अत्यन्त भयंकर प्रकारका युद्ध करनेके लिये पुकारते हैं और उसके उदाहरणके द्वारा मनुष्योंको प्रत्येक प्रकारका मानवीय कर्म, 'सर्वकर्माणि', करनेके लिये प्रोत्साहित करते हैं । क्या तुम दृढ़तापूर्वक यह कहते हों कि कृष्ण कोई आध्यात्मिक पुरुष नही थे और अर्जुनको दी हुई उनकी सलाह गत्ता थी या सिद्धांततः गलत थी? कृष्ण तो और आगे जाते और यह घोषित करते हैं कि यदि कोई मनुष्य अपनी मूल प्रकृति, स्वभाव और क्षमताद्वारा अधिप्रेरित कर्मको समुचित ढंगसे और समुचित मनोभावके साथ तथा अपने और उस कर्मके धर्मके अनुसार करे तो वह भगवान्की ओर अग्रसर हों सकता है । वह ब्राह्मण और क्षत्रियकी तरह हीं वैश्यके कर्म और धर्मका समर्थन करते हैं । उनकी दृष्टिमें मनुष्यके लिये यह बिलकुल संभव दु कि वह व्यापार करे, धन कमाये, लाभ अर्जन करे और फिर भी आध्यात्मिक पुरुष बना रहे, योगका अभ्यास करे, आंतरिक जीवन प्राप्त करे । गीता निरन्तर आध्यात्मिक मुक्तिके साधनके रूपमें कर्मोका समर्थन करती और भक्ति तथा ज्ञानके साब-साथ कर्मोंके योगका निर्देश देती है । परन्तु कृष्ण इस उच्चतर विधानको भी सबसे ऊपर स्थान देते हैं कि कर्म बिना कामनाके, किसी फल या पुरस्कारके प्रति आसक्ति रखे बिना, किसी अहंकारपूर्ण मनोभाव या उद्देश्य- के बिना, भगवान्की पूजाके रूपमें, उनको अर्पित यज्ञके रूपमें करना होगा । इन चीजोंके प्रति यही परंपरागत भारतीय मनोभाव है ? सभी कर्म किये जा सकते हैं यदि वे धर्मके अनुसार किये जायं और, यदि उन्हें समुचित ढंगसे किया जाय तो वे भग- वान्को प्राप्त करनेसे या आध्यात्मिक चना तथा आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करनेसे नही रोकते ।

 

१७३


     निस्संदेह, एक संन्यासी-भाव भी है जो बहुतोंके लिये आवश्यक है और आध्या- त्मिक परंपरामें जिसका अपना स्थान है । मैं स्वयं भी यह कहूँगा कि कोई व्यक्ति यदि त्यागभावके साथ जीवन नहीं बिता सकता अथवा निःस्व वैरागीके जीवनके जैसे दरिद्र जीवनका अनुसरण नहीं कर सकता तो वह आध्यात्मिक दृष्टिसे पूर्ण नही हो सकता । स्पष्ट ही, धन और धन कमानेकी लालसाका उसके स्वभावमें उसी तरह अभाव होना चाहिये जिस तरह भोजनके लोभ या दूसरे किसी लोभका अभाव होना चाहिये तथा इन चीजोंकी समस्त आसक्तिका परित्याग उसकी चेतनासे हो जाना चाहिये । परन्तु मैं जीवनकी सन्यासी -पद्धतिको आध्यात्मिक परिपूर्णताके लिये अनिवार्य अथवा उसके साथ अभिन्न नहीं मानता । एक आध्यात्मिक आत्मप्रभुत्वका मार्ग है और भगवानके प्रति आध्यात्मिक आत्मदान तथा आत्मसमर्पणका मार्ग है जिसमें कर्मके बीच भी या किसी प्रकारके कर्मका या सभी प्रकारके कर्मका, जिसकी मांग भगवान् हमसे करते हैं, अहंकार और कामनाका त्याग किया जा सकता है । यदि ऐसा न होता तो भारतमें जनक या विदुर जैसे महान् आध्यात्मिक पुरुष न हुए होते और फिर कोई कृष्ण भी न हुए होते अथवा कृष्ण वृंदावन और मथुरा और द्वारकाके स्वामी अथवा राजा और योद्धा और कुरुक्षेत्रके सारथी न हुए होते । बल्कि एक अधिक महान् संन्यासी हुए होते. । भारतीय शास्त्र और भारतीय परंपरा, महाभारत तथा अन्य ग्रंथोंमें भी, जीवन- के त्याग रूप आध्यात्मिकता तथा कर्ममय आध्यात्मिक जीवन दोनोंको स्थान देती है । कोई यह नही कह सकता कि केवल एक ही भारतीय परंपरा है और जीवन तथा सब प्रकारके कर्मोंको, 'सर्वकर्माणि' को, स्वीकार करना अभारतीय, यूरोपियन या पाश्चात्य और अनाध्यात्मिक है ।

 

*

 

      कर्मके अन्दर सभी प्रकारके कार्य सम्मिलित हैं; कर्म है वह कार्य जो किसी निश्चित उद्देश्यकी ओर प्रयुक्त होता है और विधिवत् तथा नियमित रूपसे किया जाता है । सेवा है वह कार्य जो श्रीमाँकी उद्देश्यपूर्त्तिके लिये और उनके निर्देशके अनुसार किया जाता है ।

 

II

 

           ' ' को यह परामर्श देनेका कोई अर्थ नही कि वह तुम्हें ले न जाय और तुम्हें पहले भगवान्को प्राप्त करने दे । क्या मनुष्यको भगवान्की सेवा करनेसे पहले उन्हें प्राप्त कर लेना होगा अथवा क्या भगवान्की सेवा करना उनको प्राप्त करनेका एक उपाय नही है? जो हो, सेवा और भगवत्प्राप्ति दोनों ही पूर्णयोगका लिये आवश्यक हैं और हम इन दोनोंके बीच किसी एकाकी प्राथमिकताका कोई कठोर नियम नही निर्धारित कर सकते ।

 

*

१७४


     तुम्हारा उद्देश्य केवल अपनी आंतरिक उन्नति और संरक्षणके लिये योगाभ्यास करना नही बल्कि भगवानके लिये कुछ कर्म करना भी है ।

 

*

 

    जिस कर्मसे आध्यात्मिक शुद्धि होती है वह कर्म तो केवल वही कर्म है जो निर्हेतुक होकर किया जाता है, जिसमें प्रसिद्धि या मान्यता अथवा लोकप्रतिष्ठाकी कोई इच्छा नही होती, जिसमें अपने मनोरथों, प्राणगत लालसाओं और आवश्यकताओं या भौतिक अभिरुचियोंका कोई आग्रह नही होता, जिसमें कोई अतिमान या अहमन्यता या अपनी मानप्रतिष्ठाका कोई दावा नही होता, जो केवल भगवानके लिये और भगवान्की हीं आज्ञासे किया जाता है । अहंभावके साथ जो कोई भी काम किया जाता है वह अज्ञानी जगतके लोगोंके लिये चाहे जितना भी अच्छा हों, योगके साधकके लिये किसी भी कामका नही है ।

 

*

 

    निस्संदेह, कर्मका आध्यात्मिक फल आंतरिक मनोभावपर निर्भर करता हैं । सच पूछा जाय तो महत्त्वपूर्ण बात हैं कर्ममें प्रउक्त पूजाका भाव । यदि कोई इसके साथ-साथ कर्ममें श्रीमाँको स्मरण कर सकें या किसी विशेष एकाग्रताके द्वारा श्रीमांकी उपस्थितिको अथवा कर्मको सहारा देनेवाली या संपन्न करनेवाली शक्तिको अनुभव कर सकें तो वह आध्यात्मिक परिणामको और भी अधिक बढ़ा देती है । परन्तु कोई यदि निराशा, अवसाद या संघर्षके क्षणोंमें ये चीजे न भी कर सके तो भी पीछेकी ओर प्रेम या भक्ति बनी रह सकतीं है जो कि कर्मकी मूल प्रेरक शक्ति थी और वह निराशाके पीछे बनी रह सकती और अन्धकारका काल बीतनेपर सूर्यकी तरह फिरसे प्रकट हो सकतीं है । सभी साधनाएं ऐसी ही हैं और इसी कारण किसीको अंधकारके क्षणोके कारण निरुत्साहित नही होना चाहिये, बल्कि यह समझना चाहिये कि मूल प्रबेग वहां विद्यमान हे और इसलिये अंधकारके मुहूर्त्त यात्राके बीचमें आनेवाली केवल एक अवातर वस्तु है जो एक बार समाप्त हो जानेपर किसी महत्तर प्रगतिकी ओर ले जायगी ।

 

*

 

 निर्दोष सेवक बननेकी शर्त्त है -- सभी अहंकारजन्य प्रयोजनोंसे मुक्त रहना, वाणी और कर्ममें सत्यताके लिये सावधान रहना, स्वैरता और स्वमताग्रहसे शून्य होना, और सभी बातोंमें जाग्रत् और सचेत रहना ।

 

*

 

१७५


     शक्ति पानेके लिये खींच-तान नहीं होनी चाहिये, कोई महत्वाकांक्षा, शक्तिका कोई अहंकार नहीं होना चाहिये । जो शक्ति या शक्तियां आती हैं उन्हें अपनी नहीं, बल्कि भगवान्की उद्देश्यसिद्धिके लिये भगवान्की देन समझना चाहिये । इस विषय- मे सावधान रहना चाहिये कि कही उनका महत्वाकाक्षा या स्वार्थके लिये दुर्व्यवहार न हों, किसी प्रकारका अभिमान या मिथ्याभिमान न रहे, कोई बड्णनकी भावना, कोई यंत्र बननेकी चाह या अहंकार न हों, बल्कि केवल यह भावना रहे कि किसी भी तरह प्रकृति एक सरल और शुद्ध चैत्य करण बन जाय जिसमें वह भगवान्की सेवाके योग्य हों ।

 

*

 

    जिस भाव और चेतनासे कोई कर्म किया जाता है वही उसे यौगिक कर्म बनाता है -- कर्म अपने-आपमें वैसा नहीं होता ।

 

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   आत्मसमर्पण किसी विशेष कर्मपर नही निर्भर करता जिसे तुम करते हों, बल्कि उस भावपर निर्भर करता है जिसके साथ सभी कर्म, चाहे जिस प्रकारके वे क्यों न हों, किये जाते हैं । कोई भी कार्य जो भगवानके प्रति यज्ञके रूपमें, कामना या अहंकारसे रहित होकर, मनकी समता और सौभाग्य या दुर्भाग्यके प्रति स्थिर प्रशांतिके साथ, भगवानके लिये न कि अपने किसी व्यक्तिगत लाभ, पुरस्कार या परिणामके लिये, और इस चेतनाके साथ कि सच पूछा जाय तो सभी कर्म भागवत शक्तिके हैं, अच्छी तरह और सावधानीके साथ किया जाता है वही कर्मके द्वारा आत्मसमर्पणका साधन होता

 

*

 

 निस्संदेह, बडेपन और छोटेपनकी भावना आध्यात्मिक सत्यके लिये एकदम विजातीय है.. । आध्यात्मिक दृष्टिसे न तो कोई चीज बड़ी है और न छोटी । ऐसी भावनाएं साहित्यिक लोगोंकी भावनाओंकी जैसी हैं जो यह समझते हैं कि कविता लिखना एक उच्च कार्य है और जूता बनाना या भोजन पकाना छोटा और नीच कार्य । परन्तु सब कुछ परमात्माकी दृष्टिमें एक जैसा है -- और वास्तवमें केवल उस आंतरिक भावनाका ही मूल्य है जिसके साथ कार्य किया जाता है । यही बात किसी विशेष कर्मके विषयमें भी लागू होती है; सच पूछा जाय तो कोई भी चीज बड़ी या छोटी नहीं है।

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१७६


   मैं इतना और जोड़ सकता हूँ कि विशालतर चेतनामें मनुष्य तुच्छ और उच्च वस्तुओंके साथ व्यवहार कर सकता है, पर वह उनके साथ एक विशालतर तथा गभीर- तर, सूक्ष्मतर और यथार्थतर दृष्टिका द्वारा व्यवहार करता है जो दृष्टि अधिकाधिक विचक्षण और ज्योतिर्मयी चेतनासे आती हे जिससे कि तुच्छ वस्तुओंसे संबंधित विचार भी अपने-आपमें तुच्छ या नगण्य नही रह जाते बल्कि अधिकाधिक उच्चतर ज्ञानका अंग बन जाते हैं ।

 

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     लगभग प्रत्येक कलाकारके (बहुत विरल हीं अपवाद हों सकते हैं) प्राणिक- भौतिक भागमें सार्वजनिक पुरुषका कृउछ अंश होता है जिसके कारण वह श्रोताओंसे प्राप्त प्रोत्साहन, सामाजिक अनुमोदन, संतुष्ट मिथ्याभिमान, प्रशंसा और प्रसिद्धिके लिये लालायित होता हे । यदि तुम योगी होना चाहते हों तो यह सब पूर्ण रूपसे चला जाना चाहिये, --तुम्हारी कला तुम्हारे अपने अहंकी नही, और किसी व्यक्ति या वस्तुकी नही, बल्कि ?? भगवान्की सेवा होनी चाहिये ।

 

*

 

    यदि तुम लोगोंकी प्रत्याशा और आभार-बोधसे मुक्त रहना चाहते हों तो निस देह किसीसे कुछ न लेना ही सर्वोत्तम हैं, क्योंकि लेनेपर मांगकी भावना अवश्य रहेगी । यह बात नही कि यदि तुम कुछ भी नहीं लोगे तो यह सब चीज़ें बिलकुल नही रहेगी, पर तुम अब उनसे बेध नही रहोगे ।

 

     गानेके विषयमें तुमने जो लिखा है वह पूर्णत. सही है । तुम केवल तभी उत्तम रूपमे गाते हों जब तुम अपनेको भूल जाते हो और उसकी उत्तमताकी आवश्यकता या उससे पड़नेवाली छापकी बात सोचे बिना उसे भीतरसे प्रकट होने देते हो । बाहरी गायकको अवश्य हीं भूतकालमें विलीन हो जाना चाहिये -- केवल तभी भीतर्रो गायक उसका स्थान ले सकता है ।

 

*

 

   अब तुम्हारे गानेकी बातपर आवें, मै सौदर्यबोधात्मक दृष्टिकोणसे किसी नयी सुरष्टिकी बात नहीं कह रहा था, बल्कि आध्यात्मिक परिवर्तनकी दृष्टिसे कह रहा था -- वह क्या रूप लेगा यह उस चीजपर निर्भर करना चाहिये जिसे तुम अपने अन्दर गभीरतर आधारके स्थापित होनेपर प्राप्त करोगे ।

 

   मैं गानेको एकदम बन्द कर देनेकी कोई आवश्यकता नही देखता, मेरा केवल यह मतलब था,--मैनई जो कुछ तुम्हें लिखा हैं, केवल अभी नही बल्कि पहले भी, उसका

 

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यह युक्तिसंगत निष्कर्ष है,-कि आंतरिक परिवर्तनपर सबसे पहले ध्यान देना चाहिये और बाकी चीज़ें उसीसे उत्पन्न होनी चाहिये । यदि श्रोताओंके सम्मुख गाना तुम्हें आंतरिक स्थितिसे बाहर खींच लाता हे तो तुम उसे बन्द कर सकते हो और अपने लिये तथा भगवानके लिये गा सकते हों जबतक कि तुम, श्रोताओंके सम्मुख रहते हुए भी, उन्हें भूल जानेके योग्य नही बन जाते । यदि तुम असफलतासे दुखी और सफलतासे उत्तेजित होते हो तो उसे भी तुम्हें जीतना होगा ।

 

*

 

    यह बात नही कि जो कुछ तुम नापसन्द करते हो उसे ही तुम्हें करना होगा, बल्कि तुम्हें नापसन्द करना बंद कर देना होगा । जो कुछ तुम पसन्द करते हों केवल उसे ही करना अपने प्राणको प्रश्रय देना तथा प्रकृतिके ऊपर उसीका शासन बनाये रखना है -- क्योंकि वही चीज, अपनी पसन्दगी और नापसन्दगीसे शासित होना रूपांतर- रित स्वभावका यथार्थ तत्त्व है । किसी भी चीजको समताके साथ करनेमें सक्षम होना कर्मयोगका सिद्धांत है और उसे प्रसन्नताके साथ करना क्योंकि वह श्रीमांके लिये किया जाता है, इस योगका यथार्थ चैत्य और प्राणिक अवस्था है ।

 

*

 

     एक ही कार्यको सर्वदा उत्साहके साथ करते रखनेमें सक्षम होना चाहिये और उसके साथ-ही-साथ एक क्षणकी नोटिसपर अन्य कोई चीज करने या अपने क्षेत्रको बढ़ानेके लिये तैयार रहना चाहिये ।

 

*

 

    हों! यह चेतनाके एक प्रकारके प्रसारण और तीवीकरणपर निर्भर करता है जिससे सभी कार्यकलाप, केवल अपने-आपमें नही बल्कि उनमें नियुक्त चेतनाके कारण, रोचक बन जाते हैं, और ऊर्जाकी तीव्रताके कारण, ऊर्जाकी व्यवहारमें, तथा कर्मको, चाहे वह कोई भी कर्म क्यों न हो, पूर्ण रूपसे करनेमें आनन्द मिलता है ।

 

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 साधारणतया, मेरा मतलब है उनकी अपरिवर्त्तित स्थितिमें, निम्रतर अंग उस समय अनुरक्त और उत्साहित हों जाते हैं जब अहं स्वार्थके साथ मिल जाता है । परन्तु जब वे अधिकाधिक परिवर्त्तित और शुद्ध होंगे, उनके अन्दर विशुद्ध उत्साह भी आ सकता है और फिर वे योगसिद्धिके लिये अत्यन्त अनिवार्य शक्तियां बन सकते

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है

 

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       प्राणके लिये या मनके लिये भी किसी नयी वस्तुसे ऊर्जस्वी अनुभव करना स्वा- भाविक है - परन्तु भौतिक स्तरके लिये निरन्तर दुहराया गया कार्य ही आधार है - अतएव साधकको कम-से-कम उसमें सर्वदा एक स्थायी स्थिर रुचि लेनेमें समर्थ होना होगा । परंतु इस प्रसंगमें मैं समझता हूँ कि जब उसने तुम्हें देखा था तब श्रीमान तुम्हारे पास एक विशिष्ट शक्ति भेजी थी ।

 

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      शरीरका कुछ अंश कार्य किये बिना नही रह सकता, दूसरा भाग ( अधिक जड़) इसे एक यातना समझता है । परन्तु जो चीज कर्मकी शक्ति और आनन्द प्रदान करती है वह शरीर नहीं बल्कि प्राण है ।

 

     कर्मसंबंधी दो मनोवृत्तियोंके बीच परिणामोंमें, भेद होनेका कारण यह है कि पहली वृत्ति तो है प्राणिक हर्षकी वृत्ति, जब कि दूसरी है चैत्य अचंचलताकी वृत्ति । प्राणिक हर्ष, यद्यपि साधारण मानवजीवनके लिये बहुत उपयोगी वस्तु है, एक उत्तेजित, उत्सुक, स्थिर आधारसे रहित चंचल वस्तु है - यही कारण है कि यह हर्ष बहुत जल्द थक जाता है और बना नहीं रह सकता । प्राणिक हर्षकी जगह अचंचल सुस्थिर चैत्य आनन्दको ला बिठाना होगा और मन तथा प्राणको बहुत स्वच्छ और बहुत शांति- पूर्ण बनाये रखना होगा । जब कोई इस आधारपर कार्य करता है तो प्रत्येक चीज सुखपूर्ण और आसान बन जाती है, उस समय श्रीमांकि शक्तिका स्पर्श बना रहता है और थकावट अथवा अवसाद नहीं आता ।

 

 III

 

     चेतनामें चीजोंके पक्का हो जानेसे पहले, कर्म करनेपर चेतना अवश्य बाहर- की ओर खिंच जाती है जबतक कि कोई अपने द्वारा कार्य करनेवाली '' अपनेसे महत्तर दिव्य शक्ति' ' को अनुभव करना अपनी साधना नही बना चुका हो । मैं समझता हूँ कि यहीं कारण है कि शकरके अनुयायियोंने कर्मको अपने स्वभावमें ही अज्ञानका कार्य तथा सिद्धिकी अवस्थाके साथ असंगत समझा । परन्तु वास्तविक बात यह हैं कि इसकी तीन अवस्थाएं हैं ( 1) जिसमें कर्म तुम्हें एक निम्रतर तथा बाह्य चेतनामें

 

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ले आता है जिससे कि तुम्हें पीछे अपने अनुभवको पुन: प्राप्त करना होता है । ( 2) जिसमें कर्म तुम्हें बाहर ले आता है, पर अनुभूति पीछे (या ऊपर) विद्यमान रहती हे, कर्म करते हुए अनुभूत नही होती, पर ज्योंही कर्म बन्द होता है तुम उसे ठीक वैसे ही अनुभव करते हों जैसे वह पहले थी । ( 3) जिसमें कर्मसे कोई फर्क नही पड़ता, क्योंकि अनुभूति या आध्यात्मिक अवस्था स्वयं कर्मके अन्दर बनी रहती है । ऐसा लगता है कि इस बार तुमने न  ( 2) को अनुभव किया है ।

 

*

 

    यह एक विशेष स्थितिको सूचित करता है जब चेतना कभी कर्ममें होती है और जब कर्ममें नहीं होती तो अपने-आपमें समाहित होती है । पीछे एक ऐसी स्थिति आती है जब सच्चिदानंद स्थिति कर्ममें भी बनी रहती है । फिर इससे भी आगेकी एक स्थिति है जब दोनों मानो एकरूप हों जाते हैं, पर वह अतिमानसिक स्थिति है । दो स्थितियां हैं नीरव ब्रह्म और सक्रिय ब्रह्मकी और वे बारी-बारीसे आ सकती ( पहली स्थिति), एक साथ रह सकतीं ( दूसरी स्थिति) और एक साथ घुलामिला सकती हैं (तीसरी स्थिति). ।

 

    निस्सन्देह, यह (उच्चतम सच्चिदानन्दकी अनुभूति) कर्ममें अनुभूत हो सकती है । हाय राम! यदि यह न हों पाता तो भला पूर्णयोग कैसे संभव हों सकता है?

 

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     यह उद्धरण चेतनाकी उस स्थितिका वर्णन करता है जब मनुष्य सभी वस्तुओं- के मध्य रहता हुआ भी सबसे पृथक् होता है और सब कुछ असत्य, माया अनुभूत होता है । उस समय कोई पसन्दगी या कामना नही होती क्योंकि चीजे इतनी अधिक असत्य होती हैं कि उनकी कामना नही होती और न एकके बदले दूसरेको पसन्द करनेकी वृत्ति होती है । परन्तु, उसके साथ-ही-साथ, मनुष्य संसारसे भागनेकी या कोई कर्म न करने- की कोई आवश्यकता अनुभव नहीं करता, क्योंकि मायासे मुक्त होनेके कारण वह कर्म या सांसारिक जीवनसे भाराक्रांत नही होता, वह बद्ध या अंतर्ग्रस्त नही होता । जो लोग संसारसे भाग जाते हैं या कर्मका त्याग करते हैं (संन्यासीगण) वे इसलिये ऐसा करते हैं कि वे अंतर्ग्रस्त या बद्ध हो जायेंगे; वे संसारको असत्य मानते हैं, पर वास्तवमें जबतक ये लोग इसमें रहते हैं यह उनकों एक सद्वस्तुके रूपमें भाराक्रांत करता है । जब कोई वस्तुओंकी सत्यताके भ्रमसे मुक्त हों जाता है तब वे उसको भाराक्रांत नही कर सकती अथवा बिलकुल ही बांध नहीं सकती ।

 

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१८०


     करता? वह भला कोई चीज क्यों करना चाहता जब कि वह शाश्वत शांति या आनन्दमें या भगवानके साय एकत्वमें निवास करता था? अगर कोई व्यक्ति आध्यात्मिक हो और प्राण तथा मनके परे चला गया हो तो उसे निरन्तर कोई चीज ' 'करते रहने' ' की आवश्यकता नही होती । आत्माको स्वयं अपने अस्तित्वका हीं आनन्द प्राप्त होता है । वह कुछ न करनेके लिये स्वतंत्र हे और प्रत्येक चीज करनेके लिये स्वतंत्र है - पर इसलिये नहीं कि वह कर्मसे बद्ध है और उसके बिना अस्तित्व रखनेमें असमर्थ है ।

 

*

 

      परन्तु जीवनमुक्त कोई बन्धन नहीं अनुभव करता । सभी कार्य-कर्मोंमें वह अपनेको पूर्ण रूपसे स्वतंत्र अनुभव करता है, क्योंकि कर्म वह स्वयं व्यक्तिगत रूपमें (उसमें सीमित अहंवाद नहीं होता) नही करता, बल्कि कर्म तो उसके द्वारा वैश्व शक्ति करती है । कर्मकी सीमाएं वे ही होती हैं जिन्हें स्वयं वैश्व शक्ति अपने निजी कर्ममें निर्धारित करती है । वह स्वयं परात्परके साथ एकत्व-प्राप्तिकी स्थितिमें रहता है और वह परात्पर विश्वके परे है और कोई सीमा अनुभव नहीं करता । कम- से-कम इसी रूपमें यह अधिमानसमे अनुभूत होता है ।

 

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    यदि अहंकार और कामना गुणोंसे भिन्न चीजे हैं तो फिर अहंकार और कामना- के बिना गुणोंका कार्य हो सकता है और इसलिये आसक्तिके बिना हो सकता है । अनासक्त मुक्त योगमें इन गुणोंके कर्मका यही स्वरूप है । यदि यह संभव न हो तो योगियोंके अनासक्त होनेकी चर्चा करना निरर्थक होगा, क्योंकि तब तो उनकी सत्ताके एक भागमें अभी भी आसक्ति बनी रहेगी । यह कहना कि वे पुरुष-भागमें अनासक्त होते हैं, पर प्रकृति-भागमें आसक्त होते हैं, इसलिये वे अनासक्त होते हैं, निरर्थक बकवास करना है । आसक्ति आसक्ति है, फिर वह सत्ताके किसी भी भागमें क्यों न हों । अनासक्त होनेके लिये मनुष्यको केवल कहीं अपने भीतर नीरव अन्तरात्मामें ही नही, बल्कि सर्वत्र, अपने मानसिक, प्राणिक और भौतिक कर्ममें अनासक्त होना होगा ।

 

*

 

     मुक्तावस्थामें केवल आंतर पुरुष ही अनासक्त नहीं बना रहता - आंतर पुरुष सर्वदा ही अनासक्त रहता है, केवल मनुष्य साधारण स्थितिमें उसके विषयमें सचेतन नहीं होता । प्रकृति भी गुणोंकी क्रियासे विक्षुब्ध नहीं होती या उससे आसक्त नही होती - मन, प्राण, शरीर (जो कुछ भी प्रकृति है वही) अचंचलता, अविक्षुब्ध शांति

 

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और अनासक्ति पुरुषकी भांति अनुभव करना आरंभ करते हैं, पर यह अचंचलता होती है, सब कर्मोका अवसान नहीं । यह स्वयं कर्मके अन्दर प्राप्त अचंचलता होतीं है । यदि बात ऐसी न होती तो 'आर्य'में छपा मेरा यह वक्तव्य मिथ्या हों जायगा कि कामना- रहित या मुक्त कर्म भी हो सकता है जिसपर मैनई मुक्त कर्मकी संभावनाको स्थापित किया था । समस्त सत्ता, पुरुष-प्रकृति, (कोई कामना या आसक्ति न होनेके कारण) गुणोंके कर्मके अन्दर भी अनासक्त हो सकती है ।

 

    बाह्य सत्ता भी अनासक्त हो जाती है - सारी सत्ता कामना या आसक्तिसे रहित हो जाती है और फिर भी कर्म करना संभव होता है । कामनाके बिना कर्म करना संभव है, आसक्तिके बिना कर्म करना संभव है, अहंकारके बिना कर्म करना संभव है !

 

 *

 

    संभवतः तुम यह समझते हों कि कर्म और प्रकृति एक ही चीज हैं और जहां कोई कर्म नही है वहां कोई प्रकृति नही हो सकती! पुरुष और प्रकृति सत्ताकी पृथक्- पृथक् शक्तियां हैं । यह बात नही है कि पुरुष? निष्क्रियता और प्रकृति  कर्म है, अत- एव जब सब कुछ निश्चल है तब कोई प्रकृति नही है और जब सब कुछ सत्रिय है तब- कोई पुरुष नही है । जब सब कुछ सक्रिय होता है तब भी पुरुष सक्रिय प्रकृतिके पीछे विद्यमान रहता है और जब सब कुछ निश्चल-निष्क्रिय होता है तब भी वहां प्रकृति होती है, पर प्रकृति निश्चेष्ट होती है ।

 

*

 

    प्रकृति वह शक्ति है जो कार्य करती है । शक्ति कार्यरत हो सकतीं या निष्क्रिय हो सकतीं है, पर जब बह निश्चल होती है तब वह उतनी ही अधिक एक शक्ति होती है जितनी वह कर्म करते समय होती है । त्रिगुणा शक्तिका कार्य हैं, वे स्वयं शक्तिमें ही विद्यमान हैं । समुद्र हैं और उसकी लहरें हैं, पर लहरें समुद्र नहीं हैं और जब लहरें नही होती और समुद्र शांत-स्थिर होता है तब बह समुद्र होना बन्द नही कर देता ।

 

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    सत्व प्रभुत्व रखता है, रजस् गतिकारक क्रियाके रूपमें सत्वके शासनके अधीन तबतक कार्य करता है जबतक कि तमसु विश्रामकी आवश्यकताको नही लादता । यही सामान्य बात है (मुक्तावस्थामें) । परन्तु यदि तमस अधिकार जमा ले और कर्म दुर्बल हों जाय अथवा रजs अधिकार जमा ले और कर्म अत्यधिक मात्रामें हों तो भी न तो पुरुष और न प्रकृति ही विक्षुब्ध होती है, सारी सत्तामें एक मौलिक स्थिरता

 

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बनी रहती है और कर्म ऊपरी तहपर उठनेवाली एक तरंग या भंवरसे अधिक कोई चीज नहीं होता ।

 

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    यह (उपरितलीय कर्मसे पृथक् होना पुरुषकी अपेक्षा) प्रकृतिके लिये अधिक कठिन है, क्योंकि इसकी साधारण क्रीड़ा है उपरितलीय सत्ताकी क्रीड़ा । इसे उससे पृथक् होनेके लिये अपनेको दो भागोंमें विभक्त करना होता है । इसके विपरीत, पुरुष अपने स्वभावमें ही नीरव और पृथक् होता है - अतएव उसे केवल अपने मूल स्व- रूपमें पीछे चेत जाना होता है ।

 

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     जब प्रकृति मुक्त होती है तो वह अपनेको दो भागोंमें विभक्त कर देती है - ( 1) आंतर शक्ति जो अपने कर्मसे मुक्त (रजसू, तमस आदिसे मुक्त) होती हैं; ( 2) बाह्य प्रकृति जिसे वह व्यवहृत करती और बदलती रहती है ।

 

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     यदि चेतना और ऊर्जा एक ही चीज हैं तो फिर उनके लिये दो अलग-अलग शब्द प्रयुक्त करनेसे कोई लाभ नही होगा । उस अवस्थामें, यह कहनेके बदले कि ' 'मैं अपने दोषोंके विषयमें सचेतन हूँ, '' हम कह सकते हैं कि ' 'मैं अपने दोषोंके विषयमें ऊर्जस्वी हूँ । '' यदि कोई मनुष्य तेज दौड रहा है तो उसके विषयमें तुम कह सकते हों कि ' 'वह महान् स्फूर्ति ( या ऊर्जा) के साथ दौड रहा है । '' क्या तुम समझते हों कि जब तुम यह कोह कि ' 'वह महान् चेतनाके साथ दौड रहा है, '' तो उसका अर्थ भी वही होगा? चेतना वह चीज है जो वस्तुओंसे अवगत होती हे -- ऊर्जा कर्ममें प्रयुक्त एक शक्ति है जो कार्य करती है । चेतनामें ऊर्जा हों सकती है और वह उसे अपने अन्दर रख सकतीं या बाहर प्रयुक्त कर सकती है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वह ऊर्जाकी लिये केवल एक दूसरा शब्द है, और जब ऊर्जा बाहर जाती है तो उसे भी बाहर चले जाना होगा और वह पीछे नही हट सकती और कर्मरत ऊर्जाका निरीक्षण नही कर सकती । तुम्हारे अन्दर पर्याप्त मात्रामें तमs है, पर इसका तात्पर्य यह नही कि तुम और तमs एक ही चीज हों और जब तम उठता है और तुम्हें पछाड़ देता है तब स्वयं तुमही उठते और अपने-आपको पछाड़ देते हो ।

 

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    निश्चय ही, मन और आंतर सत्ता चेतना हैं । जो मनुष्य अपने अन्दर अधिक गहराईतक नही पैठे हैं उनके लिये मन और चेतना समानार्थक शब्द हैं । केवल जब मनुष्य चेतनाके वर्द्धित होनेपर अपने विषयमें अधिक सज्ञान होता है तो वह चेतनाके विभिन्न स्तरों, प्रकारों, शक्तियोंको, मानसिक, प्राणिक, भौतिक, चैत्य, आध्यात्मिक आदिको देख सकता है । भगवानका वर्णन सत्, चित्, आनन्दके रूपमें, यहांतक कि एक चैतन्यके रूपमें किया गया है जो एक शक्ति या ऊर्जाको, दिव्य शक्तिको प्रकट करता है जो संसारका सृजन करती है । मन एक प्रकारकी परिवर्त्तित चेतना है जो एक मान- सिक ऊर्जाको अपने अन्दरसे प्रकट करती है । परन्तु भगवान् अपनी ऊर्जासे पीछे हटकर अवस्थित हो सकते और उसे कार्य करते हुए निरीक्षण कर सकते हैं, वह साक्षी पुरुष हो सकते और प्रकृतिके कार्योंको देख सकते हैं । स्वयं मन भी ऐसा कर सकता है -- मनुष्य अपनी मानस-चेतनामें पीछे हटकर अवस्थित हो सकता, मानसिक ऊर्जाको कार्य करते हुए, सोचते हुए, योजना बनाते हुए आदि-आदि देख सकता है; समस्त अतर्निरीक्षण इसी तथ्यपरक आधारित है कि मनुष्य अपने-आपको इस प्रकार एक चेतना ( जो निरीक्षण करती है) और एक ऊर्जा (जो कार्य करती है) मे विभक्त कर सकता है । ये बिलकुल प्रारंभिक बातें हैं और ऐसा माना जाता है कि इन्हें प्रत्येक व्यक्ति जानता है । कोई भी व्यक्ति महज थोडेसे अभ्याससे इसे कर सकता है; जो भी व्यक्ति अपने विचारों, भावनाओं, कार्योंको अवलोकन करता है उसने ऐसा करना बिलकुल प्रारंभ कर दिया है । योगमें हम इस विभाजनको पूर्ण बना देते है, बस इतनी ही बात है ।

 

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    यह (चेतना) अपने स्वभावसे ही मानसिक और अन्य क्रियावलियोंसे अनासक्त नही होती । यह अनासक्त हो सकती है, यह अतर्ग्रस्त हो सकतीं हे । मानव-चेतनामें सामान्यतया यह सर्वदा अंतर्ग्रस्त होती हे, परन्तु इसने अपनेको अनासक्त करनेकी शक्ति विकसित कर लें है - यह एक ऐसी चीज है जिसे करनेमें निम्रतर सृष्टि अक्षम प्रतीत होती है । जैसे-जैसे चेतना विकसित होती है, यह अनासक्त होनेकी शक्ति भी विकसित होती है ।

 

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     नही, साधनाके बिना योगका लक्ष्य नही प्राप्त किया जा सकता । स्वयं कर्म- को साधनाके अंगके रूपमे ग्रहण करना होगा । परन्तु स्वभावत: ही जब तुम कर्म कर रहे हो तब तुम्हें कर्मकी ही बात सोचनी होगी जिसे तुम एक यंत्ररूप यौगिक चेतना- से तथा भगवान्की स्मृतिके साथ करना सीखोगे ।

 

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इसका कारण यह है कि ऊर्जा कर्ममें प्रयुक्त की गयी है । परन्तु जैसे-जैसे शांति और संपर्क बढ़ते हैं वैसे-वैसे एक द्विविध चेतना विकसित हो सकती है -- एक तो कर्ममें संलग्न होगी, दूसरी पीछेकी ओर, निश्चल-नीरव और साक्षी होगी अथवा भग- वानिकी ओर मुंडी होगी - इस चेतनामें अभीप्सा बनी रह सकतीं है जब कि बाहरी चेतना कर्मकी ओर मुंडी रहती ै !

 

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    मनुष्य ठीक उसी समय अभीप्सा और कर्म दोनों कर सकता है तथा और भी बहुतसी चीज़ें कर सकता है जब कि चेतना योगके द्वारा विकसित होती रहती है ।

 

*

 

     नही - वास्तवमें यदि वह आंतरिक निमग्नता हो तो केवल तभी वह बाधा उपस्थित करेगी । परन्तु मेरा जो तात्पर्य है वह है एक प्रकारसे उस चीजमें पीछे हट आना जो नीरव और अंतरस्थ साक्षी है और जो कर्ममें लिप्त नही है, फिर भी निरीक्षण करती और उसपर अपना प्रकाश डालती है । इस तरह हम देखते हैं कि सत्ताके दो भाग हैं एक आंतर भाग जो निरीक्षक और साक्षी और ज्ञाता है, दूसरा भाग जो कार्य- वाहक और यंत्र और कर्त्ता है । यह चीज केवल मुक्ति ही नहीं बल्कि शक्ति भी देती है -- और इस आंतर सत्तामें मनुष्य मानसिक क्रियावली माध्यमसे नही बल्कि सत्ताके सारतत्वके माध्यमसे एक प्रकारके आंतरिक स्पर्श, बोध, ग्रहणशीलताके द्वारा भगवानके संपर्कमें आ सकता है तथा कर्मकी यथार्थ अंतः प्रेरणा या अंतर्ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।

 

*

 

     यदि मनुष्य किसी ऐसी चेतनाको अनुभव करता है जो कर्मसे सीमित नही हे, जो पीछे रहकर कर्म करनेवाली वस्तुको सहारा देती है तो यह अधिक आसान है । यह चीज सामान्यतया या तो सुस्थिर और विस्तारित होती हुई विशालता और नीरव- ताके द्वारा अथवा उस दिव्य शक्तिका अनुभव होनेपर आती है जो हम स्वयं नही हैं और जो कर्ताके द्वारा कार्य करती है ।

 

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    श्रीमाताजी तुम्हारे पुस्तक लिखनेको नापसंद नहीं करती - चाहे वह कविता हो या छोटी कहानियां या उपन्यास । वस, हमने यह अनुभव किया कि इस प्रकार

 

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उसमें संपूर्ण तल्लीन हो जाना और उससे अभिभूत हों जाना तुम्हारी आध्यात्मिक स्थितिके लिये अच्छा नही है और यह चेतनाको एक सुदृढ़ आध्यात्मिक सामंजस्यके अन्दर उसके समुचित स्थानमें रखनेके बदले अधिकांश समय उसके अग्रभागमें एक हीन- तर वस्तुको रखता है और यहांतक कि उसके संपूर्ण अग्रभागको अधिकृत कर लेता है ।

 

*

 

      यदि तुम चाहो तो (उपन्यास लिखनेकी) चेष्टा कर सकते हों । कठिनाई यह है कि उपन्यासकी विषय-वस्तु अधिकांशत: बाह्य चेतनासे संबध रखती है जिससे कि चेतना आसानीसे नीचे गिर सकती या बहिर्मुखी हो सकती है । इसके अलावा, जब मनुाव्य बाह्य कर्ममें मनको लगाता है तो आंतरिक स्थितिको बनाये रखना कठिन होता है । यदि तुम अपने अन्दर एक सुदृढ़ स्थिति प्राप्त कर सको तो फिर चेतनाको विक्षुब्ध किये बिना या नीचे गिराये बिना कोई भी कार्य करना संभव होगा ।

 

*

 

    यह चेतनाकी नमनीयतापर निर्भर है । कुछ लोग ऐसे ही होते हैं, वे इतने निमग्न हों जाते हैं कि उससे बाहर आना या अन्य कोई काम करना पसंद नहीं करते । एक प्रकारका संतुलन बनाये रखना आवश्यक है जिससे कि मौलिक चेतना एक एकाग्र- तैसे दूसरीमे आसानीसे मुड़नेमें समर्थ बनी रहे ।

 

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   कर्ममें तल्लीन होना अवांछनीय नही है -पर अंतर्मुखी होनेकी कठिनाई केवल अस्थायी हो सकती हे । भौतिक चेतनाकी एक प्रकारकी नमनीयता, जो अवश्य आयेगी, एक एकाग्रतासे दूसरीमें मुड़ना आसान बनाती है ।

 

*

 

    कर्म करते समय जिस बाधाकी तुम चर्चा करते हो यह और अपर्याप्त ग्रहण- शीलता और संपर्कको बनाये रखनेकी अयोग्यता - ये सब बातें भौतिक चेतनाके किसी भागके कारण हों सकती हैं जो अभी भी दिव्य ज्योतिकी ओर खुला नही हे -- संभवत कोई चीज प्राणिक-भौतिक और जड़ भौतिक अवचेतनामें होगी जो भौतिक मनके अपने संपूर्ण रूपमें मुक्त और संवेदनशील होनेमें बाधक होती है ।

 

    ऊपरसे आनेवाली शक्तिसे मिलनेके लिये नीचेसे अभीप्साको ऊपर उठानेमे कोई हर्ज नही है । बस, तुम्हें इस बातकी सावधानी रखनी होगी कि नीचेसे किसी

 

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कठिनाईको पहले न उठाया जाय जिसे दूर करनेके लिये अवतरण करनेवाली शक्ति तैयार नही है ।

 

   जब तुम ध्यान करते हो तब अपनी चेतनाको खो देनेकी कोई आवश्यकता नही है । वास्तवमें मुख्य बात है चेतनाको विस्तारित करना और परिवर्त्तित करना । यदि तुम्हारा मतलब अन्दर पैठनेसे है तो तुम उसे चेतना खोये बिना कर सकते हो ।

 

*

 

     यह भौतिक चेतनाकी एक प्रकारकी जड़ता है जो इसे उस चीजकी लीकमें इसे बन्द कर देती है जिसे वह करती है और इस कारण यह उसके अन्दर आबद्ध हो जाती है और स्मरण करनेके लिये स्वतंत्र नही होती ।

 

*

 

     जिन सब कठिनाइयोंका तुम वर्णन करते हों वे बिलकुल स्वाभाविक चीज़ें हैं और अधिकांश लोगोंमें होती हैं । जब मनुष्य ध्यानमें शांत-अचंचल बैठता है तब याद करना और सचेतन रहना उसके लिये अपेक्षाकृत सहज होता है; परन्तु जब उसे कर्म- मे व्यस्त रहना पड़ता है तो यह कठिन होता है । स्मरण होते रहना और कर्ममें सचेतन रहना यह धीरे-धीरे आनेकी चीज है, तुम्हें इसे एकदम तुरत-फुरत पानेकी आशा नही करनी चाहिये, कोई व्यक्ति इसे एकदम तुरत-फुरत नहीं पा सकता । यह दो तरिकों- से आता हुए,--पहले, यदि कोई व्यक्ति प्रत्येक बार कोई कार्य करते समय श्रीमाताजी- को स्मरण करते रहने और उन्हें कर्म अर्पित करनेका अभ्यास करता है (काम करते हुए सब समय नही, परन्तु प्रारम्भमें या जब कभी वह स्मरण कर सके), तो यह धीरे- धीरे आसान और प्रकृतिके लिये स्वाभाविक हों जाता है । दूसरे, ध्यान करनेसे एक आंतरिक चेतना विकसित होना आरंभ करती है जो, कुछ समय बाद, तुरत या एका- एक नही, अधिकाधिक अपने-आप स्थायी हों जाती है । मनुष्य इसे कार्य करनेवाली बाहरी चेतनासे पृथक् एक चेतना अनुभव करता है । प्रारंभमें जब मनुष्य कर्म करता रहता है तब इस पृथक् चेतनाको अनुभव नही करता परन्तु जैसे ही वह कर्म बन्द कर देता है वह अनुभव करता है कि वह सब समय वहां विद्यमान थी और पीछेसे निरीक्षण कर रही थी; कुछ दिन बाद स्वयं कर्मके समय भी अनुभूत होने लगती है, मानो व्यक्ति- की सत्ताके दो भाग हों - एक तो निरीक्षण करता और पीछेसे सहारा देता हो और श्रीमाताजीको स्मरण करता और उन्हें अर्पित करता हो तथा दूसरा कर्म कर रहा हो, जब ऐसा होता है तब यथार्थ चेतनासे कर्म करना अधिकाधिक आसान होता जाता है । . यही बात और सब बाकी चीजोंके विषयमें भी है । आंतर चेतनाका विकास होनेपर जिन सब चीजोंकी तुम चर्चा करते हो वे सब ठीक हो जायंगी । उदाहरणार्थ, सत्ताके एक भागमें तो कर्मके लिये उत्साह है, पर दूसरा स्थिरताका दबाव अनुभव

 

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करता है और कर्मके लिये उतना इच्छुक नहीं है । तुम्हारा मनोभाव उस चीजपर निर्भर करता है जो उस समय ऊपर आ जाती है - यहीं बात सब लोगोंके साथ घटित होती है । दोनोंको संयुक्त करना कठिन है, पर एक समय आता है जब वे अवश्य समन्वित हो जाती हैं - एक चीज तो आंतरिक एकाग्रतामें संतुलित पडी रहती है जब कि दूसरेको उसकेकर्म करनेके प्रयासमें वह सहारा देती है । स्वभावका रूपांतर करना, सत्ताकी इन सब विरोधी चीजोंको समन्वित करना साधनाका काम है । इस- लिये इन चीजोंको अपने अन्दर देखकर तुम्हें निरुत्साहित होनेकी आवश्यकता नही । मुश्किलन कोई आदमी ऐसा होगा जिसने अपने अन्दर इन चीजोंको न पाया हो । यह सब कुछ आंतरिक दिव्य शक्तिकी क्रियाके द्वारा व्यवस्थित हो सकता है, बस इसके लिये साधककी सतत अनुमति और पुकार बनी रहनी चाहिये । स्वयं अपने-आप शायद वह इस कार्यको न कर सके, परन्तु अन्दरमें भगवती शक्तिका कार्य होनेपर सब कुछ संपन्न हों सकता है ।

 

*

 

    आरंभमें आंतरिक स्थितिको बाह्य कर्मकी तल्लीनता और दूसरोंके साथ मिलने- जुलनेके कार्यके साथ संयुक्त करना थोड़ा कठिन होता है । परन्तु एक समय आता है जब आंतर सत्ताके लिये यह संभव हो जाता हे कि यह श्रीमाताजीके साथ पूर्ण एकत्व बनाये रखे जब कि कर्म उस एकाग्रीभूत एकत्वसे निःसृत होता है और अपने ब्यौरेमें इतनी आसानीसे परिचालित होता है जिससे कि चेतनाका कुछ भाग बाहरी प्रत्येक चीजपर ध्यान दे सकता है, यहांतक कि उसपर एकाग्र हो सकता हे और फिर भी श्रीमाताजीपर अपनी आंतरिक एकाग्रताको अनुभव कर सकता है ।

 

*

 

    यह बहुत अच्छा लक्षण है कि पूरे कार्यके बावजूद भी पीछेकी ओर आंतरिक क्रिया अनुभूत हुई और वह निश्चल-नीरवता स्थापित करनेमें सफल हुई । साधक- के लिये अन्तमें एक समय .ऐसा आता है जब चेतनता और गभीरतर अनुभव पूरे कर्म- के बीच या नीदमें, बातचीत करते समय या किसी भी प्रकारकी क्रियाशीलतामें भी घटित होते रहते हैं ।

 

*

 

प्रारंभमें कर्मके बीच (श्रीमांकि) उपस्थितिकी स्मृति बनाये रखना आसान नही होता; परन्तु कोई यदि कर्मके समाप्त होनेके तुरत बाद उपस्थितिके बोधकों पुन: जगा ले तो यह बिलकुल ठीक है । समय आनेपर कर्मके बीच भी उपस्थितिका

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बोध होना स्वाभाविक बन जायगा ।

 

*

 

   साधनामें दुःखी होना आवश्यक या अनिवार्य नही है, पर ऐसा होता है क्योंकि तुम्हारी आंतरिक प्रकृति अपने लिये भागवत उपस्थितिका स्पर्श अपरिहार्य अनुभव करती है और जब वह उसे नही अनुभव करती तो दुःखी होती है: उसे सर्वदा अनुभव करनेके लिये अंतरमें एक प्रकारकी सतत अनासक्तिका होना आवश्यक है जो तुम्हें अपने भीतर बने रहने दे ओर प्रत्येक कार्य भीतरसे ही करने दे । यह चीज अधिक आसानीसे शांत-स्थिर कार्यों और शांत-स्थिर संपर्कोंके समय की जा सकती है । क्यों- कि सच पूछा जाय तो अचंचलता और अंतर्मुखीनता ही भागवत उपस्थितिको अनुभव करनेकी क्षमता देती हैं ।

 

*

 

     तुम्हें सर्वदा भीतरसे कार्य करना सीखना चाहिये -- अपनी आंतर सत्तासे कार्य करना सीखना चाहिये जो भगवानके संपर्कमें रहती है । वाद्य सत्ता महज एक यंत्र होनी चाहिये और उसे बिलकुल ही अपनी वाणी, बिचार या क्रियाको विवश या अभिप्रेरित नहीं करने देना चाहिये ।

 

*

 

     कार्य, बातचीत, पढ़ना, लिखना आदि सब कुछ शांतिके साथ, यथार्थ चेतनाके अंगके रूपमे भीतरसे किया जाना चाहिये -- सामान्य चेतनाकी अस्तव्यस्त और चंचल कियाके द्वारा नहीं किया जाना चाहिये ।

 

*

 

    मनुष्य कर्म कर सकता और भीतर शांत-स्थिर बना रह सकता है । स्थिरता- का अर्थ यह नहीं है कि मन शून्य हों जाय या कोई कार्य बिलकुल किया हीं न जाय ।

 

*

 

    शक्तिका दबाव होना बिलकुल ठीक है, परन्तु वास्तवमें आंतरिक नीरवता और कर्मके बीच कुछ भी असंगत नहीं है । सच पूछा जाय तो उनके इस सम्मिलनकी ओर ही साधनाको अग्रसर होना चाहिये ।

 

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IV

 

    भगवान्की इच्छाको जाननेके लिये अचंचल मनकी आवश्यकता होती है । भग- वान्की ओर मोडे हुए अचंचल मनमें भागवत इच्छाका और उसे कार्यान्वित करनेके यथार्थ पथका अंतर्बोध (उच्चतर मन) आता है ।

 

*

 

    जब मन शुद्ध और चैत्य पुरुष प्रमुख होता हैं तब मनुष्य यह अनुभव करता है कि कौनसी चीज भागवत इच्छाके अनुकूल है और कौन उसके विरुद्ध ।

 

*

 

     एक बार जब मानसिक नीरवता प्राप्त हों जाती है तो उसके अन्दर मानसिक विचारोंकी स्थानमें कर्मसंबंधी कुछ दर्शन और अतर्ज्ञान आ सकता है ।

 

*

 

     यह अच्छा है कि तुम सब समय अपने-आपको निरीक्षण करने, गतिविधियों- को देखने तथा यह माननेमें सक्षम थे कि नयी चेतनाका हस्तक्षेप निरंतर और स्वा- भाविक रूपमें हों रहा था । एक बादकी स्थितिमें निस्संदेह मनमें भी यह पथ-प्रदर्शन पाने लगोगे कि जो कुछ तुम करना चाहते हो उसे कैसे कर सकते हो । स्पष्ट ही तुम्हारा मन अत्यधिक सक्रिय था -- साथ-ही-साथ दूसरोंके मन भी -- और इसलिये तुमने अपने उद्देश्यको, दर्शकोंकी अत्यधिक भिंड होनेके कारण, खो दिया । जो भी हो -

 

*

 

     कर्मोंके चैत्य होनेके लिये, चैत्य पुरुष सम्मुख भागमें होना चाहिये । साक्षी पुरुष अपनेको पृथक् कर सकता है, पर प्रकृतिको बदल नहीं सकता । परन्तु साक्षी पुरुष होना प्रथम पग है । उसके बाद पुरुषके संकल्पका कार्य श्रीमांकि शक्तिका यत्र बन जाना चाहिये । यह संकल्प एक यथार्थ चेतनापर स्थापित होना चाहिये जो यह देखती है कि प्रकृतिके अन्दर क्या अशुद्ध, अज्ञानपूर्ण, स्वार्थपूर्ण, अहंकारपूर्ण तथा कामना- से परिचालित है और उसे ठीक कर देती है ।

 

*

 

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    यदि सत्य-कमोंकी चेतनाको पाना बहुत अधिक चाहते हों और उसके लिये अभीप्सा करते हो तो वह इन कई तरीकोंमेंसे किसी एकके द्वारा प्राप्त हो सकती है

 

    1. तुम अपनी गतिविधियोंको इस ढंगसे देखनेकी आदत या क्षमता प्रान्त कर सकते हो कि तुम कर्मके प्रवेगको आते हुए देख लो और उसके स्वरूपको भी देख सको ।

    2 एक ऐसी चेतना आ सकती हैं जो कोई भूल बिचार या कर्मकी प्रवृत्ति या अनु- भव होते ही बेचैनी अनुभव करे ।

.    3 जब तुम अनुचित कार्य करने जा रहे हों तब तुम्हारे अन्दरकी कोई चीज तुम्हें सावधान कर सकती और रोक सकती है ।

 

*

 

         (भगवान्द्वारा निरन्तर परिचालित होते रहना) इसके लिये पहली चीज है सतत अभीप्सा करते रहना -- दूसरी है अपने अन्दर एक प्रकारकी निस्तब्धता बनाये रखना और बाह्य कर्मसे पीछे हटकर निस्तब्धतामें आ जाना और एक प्रकारकी श्रवणक्षम प्रतीक्षाके भागमें रहना, शब्द सुननेके लिये नहीं बल्कि आध्यात्मिक बोध या चेतनाका निर्देश पानेके लिये प्रतीक्षा करना जो चैत्य पुरुषके भीतरसे आता है ।

 

 *

 

      अन्दरसे अनुभव करनेका जहांतक प्रश्न है, यह अन्दर पैठनेकी योग्यतापर निर्भर करता है । कभी-कभी तो यह अनुभव भक्तिसे या अन्यथा चेतनाके अधिक गभीर होनेपर अपने-आप आता है, कभी-कभी यह अभ्याससे आता है -- यह मानो अपनी बात कह देने और उत्तर सुननेकी जैसी बात है - निस्सन्देह, सुनना यहाँ एक रूपका- लकार है पर इसे अन्य प्रकारसे व्यक्त करना कठिन है -- इसका मतलब यह नही है कि उत्तर आवश्यक रूपसे शब्दोंके रूपमें आता है, चाहे वे उच्चारित हों या अनुच्चता- रित, यद्यपि कभी-कभी या कुछ लोगोंके पास शब्दोंमें भी आता है; यह कोई भी आकार ले सकता है । बहुतोके प्रधान कठिनाई है यथार्थ उत्तरके विषयमें निस्सदिग्ध होनेकी । उसके लिये यह आवश्यक है कि अपने अन्दर गुरुकी चेतनाके साथ संपर्क स्थापित करने- की क्षमता हो -- वह भक्तिके द्वारा सबसे उत्तम रूपमें आती है । अन्यथा, अभ्यासके द्वारा अन्दरसे अनुभव प्राप्त करनेका प्रयत्न एक नाजुक और जटिल कार्य हों सकता है । बाधाएँ हैं : ( 1) प्रत्येक चीजके लिये बाहरी साधनोंपर निर्भर करनेकी आम आदत, ( 2) अहं, जो यथार्थ उत्तरकी जगह अपने सुझाव देता है, ( 3) मानसिक क्रियाशीलता; ( 4) भीतर घुस आनेवाली अनिष्टकर वस्तुए । मेरी रायमें तुम्हें इसके लिये उत्सुक नही होना चाहिये, बल्कि आंतरिक चेतनाके विकास- पर निर्भर करना चाहिये । ऊपर जो कुछ कहा गया है वह केवल सामान्य व्याख्याके रूपमे कहा गया है ।

 

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     कर्ममें उद्घाटित होना वही बात है जो चैतन्यमें उद्घाटित होना है । जो शक्ति तुम्हारे ध्यानकी अवस्थामें चेतनामें कार्य करती है और उसकी ओर तुम्हारे उद्घाटित होनेपर सब प्रकारके बादल और अस्तव्यस्तताको दूर कर देती है, वही शक्ति तुम्हारे कर्मको भी हाथमें ले सकती है और न केवल उस कर्मके दोषोंसे तुम्हें सज्ञान कर सकती है, बल्कि तुम्हारे अन्दर यह उद्बोध करा सकती है कि आगे क्या करना होगा, और जो कुछ करना होगा उसके करनेमें तुम्हारी मन-बुद्धि और तुम्हारे हाथोको निर्देश कर सकती है । यदि तुम अपने कर्ममें इस प्रकार उसकी ओर अपने-आपको खोल दो तो तुम उसके इस निर्देशकों अधिकाधिक अनुभव करोगे, यहांतक कि, तुम अपने सब कर्मो- के पीछे माताज़ीकी कर्मशक्तिको अनुभव करोगे ।

 

 *

 

     बाहरी जीवनके मामलोंमें भागवत शक्तिको ग्रहण करनेमें समथे होने तथा उस शक्तिको अपने द्वारा कार्य करने देनेके लिये तीन आवश्यक शर्त्ते हैं

 

        ( 1) प्रशांति, समता -- जो कुछ भी घटित हो उससे विचलित न होना, मन- को स्थिर और दृढ बनाये रखना, शक्तियोंकी क्रीडाको देखते रहना पर अपने-आप शांत-स्थिर बने रहना ।

 

        ( 2) पूर्ण श्रद्धा-विश्वास -- यह श्रद्धा-विश्वास कि जो कुछ सर्वोत्तम है वही घटित होगा, पर यह श्रद्धा भी कि यदि कोई अपनेको सच्चा यत्र बना सके तो फल वही होगा जिसे भागवत ज्योतिद्वारा परिचालित उसकी इच्छा-शक्ति कर्तव्य कर्मके रूपमें देखती है ।

 

       ( उ) ग्रहणशीलता - भागवत शक्तिको ग्रहण करनेकी और उसकी तथा उसके अन्दर श्रीमाताजीकी उपस्थितिको अनुभव करनेकी शक्ति तथा उसे कर्म करने देना, अपनी दृष्टि, संकल्प और कर्मको परिचालित करने देना । यदि इस शक्ति और उपस्थितिको अनुभव किया जा सके तथा इस नमनीयताको कर्मरत चेतनाका अभ्यास बनाया जा सके,-पर एकमात्र भागवत शक्तिके प्रति नमनीयताको, और उसमें किसी विजातीय तत्त्वको मिलाते बिना,--तो अन्तिम परिणाम सुनिश्चित है ।

 

 *

 

 जो कुछ तुम्हारे अन्दर घटित हुआ वह यह सूचित करता है कि उस स्थितिको प्राप्त करनेकी क्या-क्या शर्त्ते हैं जिसमें भागवत शक्ति अहंका स्थान ले लेती है और मन, प्राण तथा शरीरको यंत्र बनाकर कर्मका परिचालन करती है । भगवान्द्वारा चालित और एकमात्र उन्हीद्वारा चालित उनका यंत्र बननेके लिये अन्य कोई नही, बल्कि ये शर्त्ते हैं कि मनमें ग्रहणशील नीरवता हो, मानसिक अहंका विलोप हो जाय और मनोमय पुरुष अपनी स्थितिसे हटकर साक्षीकी स्थितिमें आ जाय, हमारी सत्ता

 

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भागवत शक्तिके घनिष्ठ संपर्कमें आ जाय और एकमात्र उसी एक प्रभावके अधीन आ जाय तथा और किसी अन्य प्रभावको स्वीकार न करे ।

 

   मनकी निश्चल-नीरवता स्वयं अपने-आप अतिमानसिक चेतनाको नही लें आती; मानव मन और अतिमानसके बीच चेतनाकी बहुतसी अवस्थाएं या लोक या स्तर हैं । निश्चल-नीरवता मनको तथा सत्ताके बाकी भागको महत्तर वस्तुओंकी ओर, कभी तो वैश्व चेतनाकी ओर, कभी शोथ आत्माकी अनुभूतिकी ओर, कभी भग- वान्की उपस्थिति या शक्तिकी ओर, कभी मानव मनकी चेतनासे किसी उच्चतर चेतनाकी ओर खोल देती है; इनमेंसे किसी चीजके घटित होनेके लिये मनकी निश्चल- नीरवता अत्यंत अनुकूल अवस्था है । इस योगमें पहले व्यक्तिगत चेतनाके ऊपर और फिर उसके अन्दर भागवत शक्तिके अवतरित होने और वहां उस चेतनाको रूपांतरित करनेके लिये उसके कार्य करने, उसे आवश्यक अनुभूतियां देंने, इसके समस्त दृष्टिकोण और गतिविधियोंको बदल देने, यह जबतक अंतिम ( अतिमानसिक) रूपांतरके लिये तैयार नही हो जाती तबतक इसे धीरे-धीरे एक-एक स्तर पार कराते हुए ले जानेके लिये यह अत्यंत अनुकूल अवस्था (एकमात्र अवस्था नहीं) है ।

 

*

 

     जो कुछ घटित हुआ है वह एक ऐसी चीजों है जो बहुधा घटित होती है, और, उसके विषयमें जो तुम्हारा वर्णन है उसीके अनुसार, उसने तुम्हारे अन्दर सर्वदा घटित होनेवाली अवस्थाओंको उत्पन्न किया है । सबसे पहले, तुम प्रार्थना करने बैठ गये, -- उसका अर्थ है ऊर्ध्वकी ओर एक पुकार, यदि मैं उसे इस प्रकार प्रकट कर सकूं । उसके बाद आयी प्रार्थनाके प्रत्युत्तरके प्रभावशाली होनेके लिये आवश्यक अवस्था -- ' 'धीरे-धीरे एक प्रकारकी विश्रांतिकी स्थिति आयी, '' दूसरे शब्दोंमें, चेतनाकी प्रशांतावस्था आयी जिसका आना आवश्यक है, वास्तवमें उसके आनेके बाद हीं जिस दिव्य शक्तिको कार्य करना होता है वह कार्य कर सकतीं है । उसके बाद फिर दिव्य ऊर्जा या शक्तिका प्रवाह आया, ' 'ऊर्जाकी बाQ और शक्ति-सामर्थ्यका बोध तथा चमक- दमक' ' आदि आये, और अत प्रेरणा और अभिव्यजनाके प्रति सत्ताकी स्वाभाविक एकाग्रता हों गयी, दिव्य शक्तिका कार्य हुआ ।

 

     प्राण भौतिक स्तरपर कार्यसिद्धिका साधन है, इसलिये सभी कर्मोंके लिये उसका कार्य और शक्ति आवश्यक हैं; उसके बिना, केवल मन यदि प्राणका सहयोग लिये बिना और उसे यत्र बनाये बिना कार्यमें प्रेरित करे तो बहुत कठिन और विरक्तिजनक श्रम और प्रयत्न करना पड़ता है और ऐसे परिणाम निकलते हैं जो सामान्यतया बहुत उत्तम प्रकारके बिलकुल नही होते । कर्मके लिये आदर्श स्थिति वह है जब कि विशेष ऊर्जाके अन्दर चेतनाकी एक स्वाभाविक एकाग्रता हों और वह संपूर्ण चेतनाकी एक प्रकारकी आरामदायक विश्रांति तथा प्रशांतिपर आधारित हों । अन्य क्रियावलियों- द्वारा उत्पन्न मनका विक्षेप विश्रांति तथा एकाग्र ऊर्जाकी इस समतोलताको भग कर

 

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देता है,-थकावट भी इसे भग कर देती या नष्ट कर देती है । अतएव सबसे पहले करने योग्य कार्य यह है कि सहारा देनेवाली इस विश्रांतिकी अवस्थाको वापस ले आया जाय और इसे साधारण तीरपर कर्मको बन्द करके तथा विश्राम करके लें आया जाता है । जो अनुभव तुम्हें हुआ था उसके स्थानपर एक विश्रांतिकी अवस्था आयी जो तुम्हारी प्रार्थनाकी स्थितिके उतरनें ऊपरसे आयी तथा एक ऊर्जा आयी और वह भी ऊपरसे ही आयी । यह ठीक वही सिद्धांत है जैसा कि साधनामें होता है,--यही कारण है कि हम चाहते हैं कि लोग अपनी चेतनाको अचंचल बनाये जिसमें कि उच्चतर शांति उसमें उतर सके और उस शांतिके आधारपर एक नवीन शक्ति ऊपरसे उतर सकें । वास्तवमें प्रयासके कारण अतः प्रेरणा नही आयी । अतः प्रेरणा ऊपरसे एकाग्र- ताकि एक स्थितिके उत्तरमे आती है जो एकाग्रता स्वयं उसके लिये एक पुकार होती हैं । उसके विपरीत, प्रयास चेतनाको थका देता है और इस कारण सर्वोत्तम कर्मके लिये उपयोगी नही है, बसकेवल इतनी बात है कि कभी-कभी--सर्वदा कदापि नही -- प्रयास अन्तमें अंतःप्रेरणाको खींचनेकी स्थितिमें पहुँच जाता है और उस कारण कुछ उत्तर आता है, पर यह सामान्यतया उतनी अच्छी और फलदायी अतः प्रेरणा नहीं होती जितनी कि वह अतप्रेरणा जो उस समय आती है जब ऊर्जाकी अपने कार्य- मे सहज और तीव्र एकाग्रता होती हे । प्रयास और ऊर्जाका व्यय आवश्यक रूपमें एक ही वस्तु नहीं है,--ऊर्जाका सर्वोत्तम व्यय वह है जब ऊर्जा तनिक भी प्रयासके बिना सहज रूपमें प्रवाहित होतीं है,--जब अतप्रेरणा या ऊर्जा ( कोई भी ऊर्जा) अपने- आप कार्य करती है और मन, प्राण और यहांतक कि शरीर भी उज्जवल यंत्र होता है और ऊर्जा तीव्र एवं सुखकर क्रियाके अंदर -- लगभग श्रमहीन श्रमके अन्दर प्रवाहित होती हैं ।

 

*

 

    यह सच है कि तुम्हारी ओरसे कोई प्रयास हुए बिना दिव्य शक्ति फलदायी रूप- मे कार्य कर सकती हैं । उसके कार्यके लिये प्रयासकी नही, बल्कि सत्ताकी अनुमति- की आवश्यकता होती है ।

 

*

 

 हां, यही योगकी भावना है - कि समुचित निष्क्रिय भाव ग्रहण करनेपर मनुष्य अपने-आपको अपने सीमित आत्मभावसे किसी महत्तर वस्तुकी 'ओर खोलता है, और प्रयास केवल उस स्थितिको पानेके लिये उपयोगी होता है । सामान्य जीवन- मे भी व्यक्ति वैश्व शक्तिके हाथका महज एक यत्र होता है, यद्यपि वह जो कुछ करता है उस सबका श्रेय उसका अहंकार ले लेता है ।

 

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    चूँकि तुमने अपनेको दिव्य शक्तिकी ओर खोला है और क्रियाशक्तिके लिये अपने- को एक प्रणाली बना दिया है, इसलिये यह बिलकुल स्वाभाविक है कि जब तुम यह कार्य करना चाहते हो तो शक्ति प्रवाहित हों और उस ढगसे कार्य करे जिसे चाहा जाता था अथवा उस ढगसे कार्य करे जो आवश्यक है और उस परिणामके लिये करे जो आवश्यक हों । जब मनुष्य अपने-आपको एक प्रणाली बना देता है, शक्ति यंत्रकी सीमा- ओ या अयोग्यताओंसे आवश्यक रूपमें बंधी नहीं होती; यह उनकी उपेक्षा कर सकती तथा स्वयं अपनी शक्ति-सामर्थ्यसे कार्य कर सकती है । ऐसा करते समय यह महज एक माध्यमसे रूपमें मानव-उपकरणका व्यवहार कर सकती है और काम पूरा होते हीं उसे वह पहले जैसा था ठीक वैसा ही, अपने साधारण क्षणोंमें ऐसा अच्छा कर्म करने- मे अयोग्य, छोड़ सकती है; परन्तु यह अपनी क्रियाके द्वारा उपकरणको सुधार सकती है, उसे आवश्यक अतर्बोधात्मक ज्ञान और कियाका अभ्यस्त बना सकती है जिसमें कि वह स्वेच्छापूर्वक शक्तिकी क्रियाको अपने अधिकारमें ले ले । क्रियाशैलीका जहां- तक प्रश्न है, दो अलग-अलग चीज़ें हैं, एक तो बौद्धिक ज्ञान जिसका प्रयोग मनुष्य करता है और दूसरा अंतः प्रेरणात्मक संज्ञान जो स्वयं अपने अधिकारसे, जब वास्तवमें यह कर्मीद्वारा अधिकृत नहीं होता तो भी, कार्य करता है । उदाहरणार्थ, बहुतसे कवियों- को छन्दसबधी या भाषाविषयक शैलीका मामूलीसा ज्ञान ही होता है और वे यह नही बता सकते कि वे कैसे लिखते है या उनकी सफलतामें कौनसे गुण और तत्व है, परन्तु तो भी वे ऐसी चीजे लिखते हैं जो छंद और भाषाकी दृष्टिसे पूर्ण होते हैं । तक- नोकका बौद्धिक ज्ञान, निश्चय ही, सहायता करता है बशर्त्ते कि कोई उसे महज एक उपाय या कोई कठोर बंधन ही न बना दे! कुछ कलाएं ऐसी हैं जो तकनीकी ज्ञानके बिना अच्छी तरह नही की जा सकती, उदाहरणार्थ, चित्रकला, मूर्त्तिकला आदि ।

 

   जो कुछ तुम लिखते हों वह इस अर्थमें तुम्हारा अपना है कि तुम उसकी अभि- व्यंजनाके यत्र बने हों -- यही बात प्रत्येक कलाकारके या कर्मीके विषयमें है, यद्यपि, इसमें संदेह नही कि, साधनाके लिये यह आवश्यक है कि यह स्वीकार किया जाय कि यथार्थ शक्ति तुम्हारी अपनी नही थी और तुम केवल एक यत्र थे जिसपर उस (शक्ति) ने अपना स्वर बजाया ।

 

    सृजनका आनन्द अहंका सुख नहीं है जो उसे व्यक्तिगत रूपसे कार्य अच्छी तरह करनेसे था कोई व्यक्ति होनेसे प्राप्त होता है, वह तो कोई बाहरी वस्तु है जो कर्म और सृजनके उल्लासके साथ अपने-आपको संलग्न कर देती है । दिव्य आनन्द एक महत्तर शक्तिके फूट पडनेसे आता है, उसके द्वारा अधिकृत और व्यवहृत होनेके पुलकते आता है, आवेशसे, चेतनाको ऊपर उठानेके, उसे आलोकित कर देनेके उल्लाससे और उसके अधिक महान् और अधिक ऊंचे कर्मसे आता है और फिर उस सौन्दर्य, शक्ति या पूर्णत्व- का भी आनन्द होता है जो सृष्ट होता है । कहातक मनुष्य उसे अनुभव करता है यह निर्भर करता है उस समयकी उसकी चेतनाकी अवस्थापर, प्राणकी प्रकृति तथा उसकी क्रियापर; निश्चय ही, कोई योगी ( अथवा प्रबल और स्थिर मनवाले कुछ लोग भी) उस आनन्दमें बह नही जाता, वह उसे धारण करता और निरीक्षण करता है और मन,

 

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प्राण या शरीरके माध्यमसे महज कोई उत्तेजना उसके प्रवाहके साथ नहीं मिल जाती । स्वभावत: ही समर्पण या आध्यात्मिक उपलब्धि या दिव्य प्रेमका आनन्द उससे बहुत महान् वस्तु है, पर सृजनके आनन्दका भी अपना स्थान है ।

 

*

 

      यह देखना कि कर्म वास्तवमें अच्छी तरह किया गया है या नहीं और श्रीमाताजी- के लिये किये गये कर्मका आनन्द अनुभव करना । ' 'मैं' ' से मुक्त हो जाओ । यदि कर्म अच्छी तरह किया गया है तो उसे वास्तवमें दिव्य शक्तिने किया १ और तुम्हारा भाग बस इतना ही था कि तुम एक अच्छे या बुरे यंत्र थे ।

 

*

 

 वास्तवमें (कर्ममें) रस होना चाहिये, पर वह तब आता है जब दिव्य शक्तिका सक्रिय भावमें अवतरण होता है ।

 

*

 

     जो कुछ तुम घटित होते हुए देखते हो वह सभी कर्मोंमें होनेवाला आम अनुभव है । श्रीमाताजी कहती हैं कि इसका कारण यह तथ्य हैं कि कर्म आरंभ? करते समय यह अंतर्ज्ञान उपलब्ध होता है कि क्या करना चाहिये और प्रारंभमें मन उसके लिये एक प्रणालिकाके रूपमें काम करता है और सब कुछ अच्छी तरह चलता है । बादमें चलकर मन अपने हिसाबसे काम करना आरंभ कर देता है,--साधारणतया साधक- का इस ओर: ध्यान ही नहीं जाता जबतक कि वह बहुत सचेत और अपने-आपको सूक्ष्म रूपसे देखनेका अभ्यस्त न हो - और अ अंतःप्रेरणाके बिना अपने मामूली साधनों- से कार्य करने लगता है । यह चीज कविता और संगीत जैसे कामोंमें बहुत स्पष्ट रूपमे अनुभूत होती है -- क्योंकि वहां मनुष्य अंतःप्रेरणाको आते हुए अनुभव करता है और उसे न आते हुए तथा साधारण मनके साथ मिलजुल जाते हुए अनुभव करता है । जबतक वह आती रहती है तबतक तो प्रत्येक चीज आसानीसे और उत्तम रूपमें संपन्न होती है, पर ज्योंही मन हस्तक्षेप करना या उसके स्थानमें काम करना आरंभ करता है, कार्य कम अच्छे रूपमें संपन्न होता है । रसोई बनाने जैसे कार्यमें मनुष्य प्रत्यक्ष रूप- मे और सुस्पष्ट रूपमें अंतःप्रेरणाको अनुभव नहीं करता, संभवत: एक प्रकारकी प्रसन्न- चित्तता, प्रत्यक्ष ज्ञानशक्ति और आत्मविश्वासको अनुभव करता है - उसी तरह जब भौतिक मन सक्रिय होता है तो मनुष्य' उस ओर ध्यान नही देता । कविता जैसी चीजमें मनुष्य फिरसे अंतः प्रेरणा आनेतक लिखना छोड़ सकता हे, पर रसोई बनानेमें वह वैसा नहीं कर सकता, कामको उसी समय तुरत समाप्त करना होगा । मैं समझता

 

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हूँ कि इस विषयमें केवल तभी सुधार किया जा सकता है जब मनुष्य अपने भीतर अधिक सचेतन हो, जैसा कि साधनामें मनुष्य करता है, जब कि मनुष्य निम्रतर मानसिक क्रियाशीलताकी गलत क्रियाको देखने लगे और अपने संकल्पके द्वारा पुन: यथार्थ अत:- प्रेरणा और ज्ञानको नीचे उतारकर उसका प्रतीकार करने लगे ।

 

*

 

    श्रीमाताजी संकेत दे सकती हैं और संभावनाओंको उद्घाटित कर सकती हैं, परन्तु मन यदि हस्तक्षेप करे और यदि उनका अनुसरण न किया जाय तो फिर क्या किया जा सकता हे?

 

*

 

    तुम्हें भला उन्हीं चीजोंके लिये क्यों प्रयास करना चाहिये जिनके लिये दूसरे करते हैं? जिस कार्यको करनेके लिये मनुष्य अतप्रेरणा अनुभव करता है वही उसके लिये सर्वोत्तम है ।

 

V

     साधनाके कालमें मनुष्य वैश्व प्राण-शक्तिको आहरण करना सीख सकता है और उससे अपनी शक्तियोंको परिपूरित कर सकता है । परन्तु साधारणतया सर्वोत्तम पथ है अपने-आपको श्रीमाताजीकी शक्तिकी ओर उद्घाटित करना और उसके विषय- मे यह जानना कि वह समस्त आधारको धारण कर रही और चला रही है अथवा उसमें प्रवाहित हो रही है तथा कर्मके लिये आवश्यक शक्ति दे रही है, वह कर्म चाहे मानसिक, प्राणिक या शारीरिक हो ।

 

    स्वभावत: हीं वर्तमान वैश्व शक्तियोंके ऊपर एक उच्चतर शक्ति है और यह वह शक्ति है जो प्रकृतिका रूपांतर करेगी और मानसिक, प्राणिक तथा शारीरिक शक्तियोंको अपने हाथमें लेकर उन्हें स्वयं अपनी ही जैसी शक्तियोंमें परिवर्त्तित कर देगी ।

 

*

 

     यह एक दिव्य शक्ति है जो आती और कर्ममें प्रवृत्त करती है और उतने ही यथार्थ रूपमें आध्यात्मिक जीवनका एक अंग है जितने यथार्थ रूपमे दूसरी शक्तियां हैं । यह एक विशेष शक्ति है जो कर्मीके सत्तापर अधिकार जमा लेती है और उसके द्वारा अपने- आपको चरितार्थ करती है । किसीके अन्दर इस प्रकार पूर्ण शक्तिके साथ कार्यका

 

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होना पूर्णतया लाभदायक है । बस, एक क्षई बात है कि शक्तिसे अधिक कार्य नही होना चाहिये - अर्थात् किसी प्रकारकी थकावटसे अथवा भौतिक तमस्में लौट पड़नेसे बचना चाहिये ।

 

    आत्मनिवेदनका जहांतक प्रश्न है, अपने-आपको अर्पित करनेके लिये सर्वदा संकल्प करो और जब तुम्हारे लिये संभव हो (मेरा मतलब है कर्मके प्रसंगमें), स्मरण करो और प्रार्थना करो । इसका अर्थ है एक विशेष प्रकारका मनोभाव स्थिर कर लेना । पीछे चलकर, दिव्य शक्ति अतरके अधिक गहरे आत्मदानको खोल देनेके लिये इस चाभीका लाभ उठा सकती हैं ।

 

*

 

     ऊपरसे आनेवाली शक्ति उच्चतर चेतनाकी शक्ति है । पीछेसे आनेवाली शक्ति आवश्यकताके अनुसार मानसिक, प्राणिक या भौतिक शक्तिके रूपमें कार्य करती है । जब हमारी सत्ता उसकी ओर खुली होती है और उसकी क्रियाके प्रति एक प्रकारकी निष्क्रियता होती हैं तो वह व्यक्तिगत क्रियाशीलताका स्थान ले लेती है और व्यक्ति उसके कार्यका एक साक्षीभर होता है ।

 

*

 

      मैं उस शक्तिकी बात नहीं कह रहा था जो ऊपरसे नीचे आती है, बल्कि पीछे- से आनेवाली उस शक्तिकी बात कर रहा था जो मन और शरीरको यंत्र बनाकर उनके द्वारा कार्य करती है । बहुत बार जब मन और शरीर जड़-निष्क्रिय होते हैं, उनका कार्य फिर भी पीछेसे आनेवाले इस प्रवेगके द्वारा चलता रहता है ।

 

*

 

     योगके साधारण क्रममें उस भौतिक बलका स्थान एक यौगिक बल या यौगिक प्राण-शक्ति ले लेती है जो शरीरको बनाये रखती और उससे कार्य कराती है, परन्तु इस शक्तिके अभावमें शरीर बल-सामर्थ्यसे शून्य, जड़ और तामसिक हो जाता है । इस स्थितिको केवल तभी सुधारा जा सकता है जब कि समूची सत्ता अपने प्रत्येक स्तरमें योग-शक्तिकी ओर -- यौगिक मन.-शक्ति, यौगिक प्राण-शक्ति, यौगिक शरीर- शक्तिकी ओर - उद्घाटित हों जाय ।

 

*

 

      हां, यदि सर्वदा यथार्थ चेतना बनी रहे तो कोई थकावट नहीं आयेगी ।

 

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      जब तुम यह कार्य करते थे तब तुम्हारे अन्दर शक्ति मौजूद थी और सत्य चेतना प्राण और शरीरमे भरी हुई थी - उसके बाद विश्राम करनेपर साधारण भौतिक चेतना ऊपर आ गयी और वह साधारण प्रतिक्रियाओंको - थकावट, कूल्हे और जांघके दर्द आदिको - वापस ले आयी ।

 

*

 

    जब तुम थक जाते हो तो अधिक परिश्रम करके अपनेको अत्यधिक मत थका दो बल्कि विश्राम करो - केवल अपना साधारणसा कार्य करो; अशांतिके साथ सब समय कुछ-न-कुछ करते रहना उसे दूर करनेका पथ नही है । वास्तवमें जब थका- वटका ऐसा बोध हों तो आवश्यकता इस बातकी है कि बाहर और भीतर स्थिर-अचंचल रहा जाय । सदा ही एक बल तुम्हारे समीप विद्यमान रहता है जिसे तुम अपने अन्दर पुकार सकते हों और इन चीजोंको दूर कर सकते हो, परन्तु उसे ग्रहण करनेके लिये तुम्हें शांत-स्थिर बने रहना सीखना होगा ।

 

*

 

     हा, अत्यधिक परिश्रम करके थक जाना भूल है, क्योंकि बादमें उसकी एक प्रति- क्रिया होती है । यदि अपने अन्दर शक्ति है तो सबकी सब शक्तिको खर्च नही कर देना चाहिये, कुछ शक्तिको जमा करके रखना चाहिये जिससे कि शरीरके स्थायी बलकी वृद्धि हो ।

 

*

 

      अत्यधिक परिश्रम जडताको ऊपर ले आता है । प्रत्येक ब्यक्तिकी प्रकृतिमें जड़ता विद्यमान है बस, प्रश्न है उसकी अधिक या कम क्रियाका ।

 

*

 

      यदि बहुत अधिक कार्य किया जाता है तो कमोंकी दिलचस्पीके होनेपर भी कर्म- का स्तर गिर जाता है ।

 

*

 

     आलस्यको अवश्य दूर हो जाना चाहिये - परन्तु मेरी समझमे कभी-कभी तुमने दूसरी ओर बहुत अधिक खींचा है । पूरी शक्तिसे काम करनेमें समर्थ होना

 

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आवश्यक है -- पर कर्म न करनेमें सक्षम होना भी आवश्यक है ।

 

    सामान्य बातचीतके विषयमें तुम जो कुछ कहते हो वह बिलकुल सही है और जो तुम यह कहते हो कि वह सब बन्द हो जाना चाहिये, वह वास्तवमें सत्य चेतना प्राप्त करनेके लिये बहुत आवश्यक है ।

 

 *

 

    यदि शरीर ऐसी स्थितिमें है और कार्य इस तरहकी प्रतिक्रियाएं इसमें उत्पन्न करता है तो इसे जबर्दस्ती मजबूर करने तथा इसपर अतिश्रमका बोझ डालनेसे कोई लाभ नहीं । यह कही अधिक अच्छा है कि स्नायु-संस्थान और शरीरके कोषोंमें निरन्तर स्थिरता, शांति, ज्योति और शक्ति उतारकर धीरे-धीरे बाहरी प्राकृत सत्ताको शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाय । शरीरको बलपूर्वक विवश करनेपर उसका उद्देश्य पूर्ण रूपसे विफल हों सकता है । संभवतः तुम्हारी साधना अत्यंत एकांतिक रूपसे आंतरिक और आत्मनिष्ठ रही है; परन्तु बात यदि ऐसी है, तो इस स्थितिको एक क्षणमें नही सुधारा जा सकता । अतएव तुम्हारे लिये यह अधिक अच्छा है कि तुम अभी भारी शारीरिक कार्य मत करो ।

 

 *

 

    यह (थकावटका कारण) शायद कोई कामना अथवा प्राणिक अभिरुचि है -- प्राणकी पसन्दगी और नापसन्दगी है । जो कार्य तुम्हें दिये जायं उन सबको तुम्हें श्रीमाताजीके कार्यके रूपमें अनुभव करना चाहिये और हर्षके साथ करना चाहिये और अपनेको श्रीमांकि शक्तिकी ओर खोलना चाहिये जिसमे वह तुम्हारे द्वारा कार्य करे ।

 

 VI

 

    निस्संदेह, तुम प्रगति करते रहे हो, परन्तु श्रीमाताजीने तुमसे जो यह कहा था और प्रत्येक आदमीसे कहती हैं कि सच्चा कलाकार होनेके लिये वर्षों लगातार कठिन परिश्रम करनेकी आवश्यकता होतीं है, वह सही है । परन्तु तुम्हारी भूल यह है कि तुम इन चीजोंपर बड़ा बल देते हों और उनमें कोई रुकावट या कठिनाई आनेपर निरु- उत्साहित हो जाते हों । एकमात्र करणीय बात यह है कि जो कुछ नीचे उतर रहा है उसकी ओर चेतनाको खोला जाय, अन्दर परिवर्तनको घटित होने दिया जाय जिसमें कि चेतना भागवत उपस्थितिसे भरपूर शांति, ज्योति, शक्ति और आनन्दकी चेतना बन जाय । जब ऐसा हों जायगा तब भगवान् तुम्हारे द्वारा जो कार्य कराना चाहते हैं अथवा तुम्हारे अन्दर जो कुछ विकसित करना चाहते हैं वह एक ऐसी तीव्रता और पूर्णताके साथ संपत्र

 

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या विकसित हो जायगा जैसा अभी होना असंभव है । सर्वप्रथम एकमात्र आवश्यक चीज होनी चाहिये, बाकी सब कुछ अभी एकमात्र आवश्यक वस्तुके विकासके लिये अभ्यासका क्षेत्र है ।

 

*

 

   फेंच लिखनेके संबंधमें, तुम्हें अभिव्यक्त होनेवाली चीजोंके विषयमें इतना अधिक नही सोचना चाहिये - इससे कुछ आतप जाता नही कि आया दूसरोंने वही चीज़ें लिखी हैं और अधिक अच्छे रूपमें उन्हें लिखा है या नही । तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिये महज पूर्ण रूपसे फ्रेंच लिखना सीख लेना, फ्रेंच भाषाका एक माध्यमके रूपमें पूरा व्यव- हार कर सकना । आया शक्ति कोई चीज तुम्हारे द्वारा भविष्यमें अभिव्यक्त करना चाहती है या नहीं, यह एक ऐसी बात है जिसे तुम्हें भगवदिच्छापर छोड़ देना चाहिये, एक बार यदि सच्ची चेतनाके साथ अपनेको भगवानके हाथोंमें दे दो तो वह यह जानेगे कि तुम्हारे द्वारा क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये और चाहे जो उप- करणत्व तुम उनके हाथोंमें दे सकोगे उसका वह पूरा उपयोग करेंगे ।

 

*

 

     जैसा कि मैं पहले हीं कह चुका हूँ, सभी विषयोंमें, कर्म और अध्ययन तथा योग- द्वारा होनेवाली आंतरिक प्रगतिमें, वही चीज़ें आवश्यक होती हैं यदि तुम पूर्णता चाहो -- मनकी अचंचलता, दिव्य शक्तिके विषयमें सचेतन होना, उसकी ओर उद्घाटित होना, अपने अन्दर उसे किया करने देना । पूर्णताको लक्ष्य बनाना बहुत अच्छा है, पर मनकी चंचलता उसे प्राप्त करनेका पथ नही है । अपनी अपूर्णताओंपर ही जोर देते रहना और सर्वदा यह सोचते रहना कि कैसे किया जाय और क्या किया जाय - यह भी पथ नहीं है । अचंचल बने रहो, अपनेको खोलो, चेतनाको विकसित होने दो -- दिव्य शक्तिको कार्य करनेके लिये पुकारों । जैसे-जैसे ये चीज़ें बेढंगी और जैसे- जैसे शक्ति कार्य करने लगेंगी, वैसे-वैसे तुम केवल यही नहीं समझने लगोगे कि क्या अपूर्ण है, बल्कि उस क्रियाको भी जानने लगोगे जो तुम्हें (एक हीं पगसे नही, बल्कि धीरे-धीरे) अपूर्णतासे बाहर निकाल लें जायगी और उस समय तुम्हें केवल उस क्रिया- का अनुसरणभर करना होगा ।

 

    यदि अत्यंत देरतक काम करके या अशांतिके साथ कार्य करके अपनेको अत्यधिक थका दोगे तो उससे तुम्हारा स्नायुमंडल, प्राणिक-भौतिक भाग, अस्तव्यस्त या दुर्बल हों जायगा, और अवांछित शक्तियोंकी क्यिाकी ओर तुम उद्घाटित हों जाओगे । कार्य करना पर शांतिके साथ कार्य करना ही यथार्थ पथ है जिसमें कि सतत प्रगति होती रहे ।

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    जो कठिनाई तुम अनुभव करते हो वह बहुत अधिक इस कारण आती है कि तुम सर्वदा अपने मनमें सभी बातोंके लिये दुश्चिता करते रहते हों, सोचते रहते हो कि ' 'यह गलत है, यह मेरे अन्दर या मेरे कार्यमें दोष है' ' और, उसके परिणामस्वरूप, ' 'मैं अयोग्य हूँ, मैं बुरा हूँ, मेरे द्वारा कुछ भी नहीं हों सकता । '' तुम्हारा कसीदेका कार्य, 'लेप-शेड' आदि बराबर ही बहुत अच्छे होते हैं, और फिर भी तुम सदा यह सोचते रहते हों कि ' 'यह खराब काम है, वह दोषपूर्ण है' ' और इस प्रकार अपनेको विभ्रांत करते और उलझनमें जा फंसते हों । स्वभावत: ही तुम कभी-कभी भूल कर देते हों, पर अधिक भूल उस समय करते हों जब इस तरह दुश्चिता करते हों, जब कार्य सरल ढंग- से और विश्वासके साथ करते हों तब उतनी भू लें नहीं होती।

 

     चाहे काम हों या साधना, यह अधिक अच्छा है कि स्थिर-भावसे चला जाय, दिव्य शक्तिको कार्य करने दिया जाय और उसे ठीक-ठीक कार्य करने देनेके लिये यथा- शक्ति प्रयास किया जाय, परन्तु इस प्रकार अपनेको पीड़ा पहुँचाये बिना और निरंतर हर प्रश्नपर शांतिपूर्वक संदेह करते हुए न किया जाय । चाहे जो भी दोष हो वे बहुत जल्द दूर हो जाते, यदि तुम बहुत अधिक उन्हींका स्वर न अलापा करते । क्योंकि इतना अधिक उन्हींपर ध्यान जमाये रहनेसे तुम अपने ऊपर तथा शक्तिकी ओर खुले रहनेकी अपनी क्षमतापर विश्वास खो देते हो - बो क्षमता कि सर्वदा विद्यमान है -- और शक्तिके कार्यके पथमें अनावश्यक कठिनाइयां खड़ी कर देते हों ।

 

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     काममें होनेवाली भूलोंके विषयमें दुश्चिता मत करो । बहुधा तुम कल्पना करते हो कि तुमने बुरे ढंगसे कार्य किया है जब कि तुमने उन्हें बहुत अच्छे ढंगसे किया होता है; परन्तु, यदि भूलें हों भी तो उनके लिये उदास होनेकी कोई बात नही । चेतना- को वर्द्धित होने दो -- एकमात्र दिव्य चेतनामें हीं नितांत परिपूर्णता है । जितना अधिक तुम भगवान्को समर्पण करोगे उतना ही अधिक तुम्हारे अन्दर पूर्णताके आने- की संभावना होगी।

 

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      ऐसी भूलोंको बहुत अधिक महत्त्व मत दो अथवा उनके कारण परेशान मत होओ । ऐसी भूलें करना मनका स्वभाव ही है । एकमात्र उच्चतर चेतना ही इन सबको सुधार सकतीं है - मन प्रत्येक विशिष्ट कार्यमें बहुत दीर्घ प्रशिक्षणके बाद हीं निस्संशय हों सकता है और उसके बाद भी उसे कोई अनपेक्षित बात न घटे इसके लिये केवल सावधान हीं रहना होगा । तुम जितना अच्छा कर सको करो, बाकी चीजोंके लिये उच्चतर चेतनाको विकसित होने दो जबतक कि वह भौतिक मनकी सभी क्रिया- ओंको आलोकित न कर सके ।

 

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     कर्मका कौशल तब आयेगा जब भौतिक मन और शरीर उद्घाटित हों जायंगे । अभी उसके लिये व्याकुल होनेकी कोई आवश्यकता नहीं । अपनी शक्ति और योग्यता- भर काम करो और उसके लिये व्याकुल मत होओ ।

 

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   जब काम हों रहा हों तब केवल अपने कामकी बात सोचों, उससे पहले और उसके बाद नही ।

 

   अपने मनको उस कामपर वापस मत लें जाओ-जो समाप्त हो चुका है । वह भूत- कालकी चीज है और दुबारा उसमें संलग्न होना शक्तिका अपव्यय है ।

 

    जो कार्य आगे करना है उसकी आशामें अपने मनको श्रम मत करने दो । जो शक्ति तुम्हारे अन्दर कार्य कर रही हैं वह उसके अपने समयपर उसकी चिंता करेगी ।

 

    मनके ये दो अभ्यास भूतकालकी क्रियापद्धतिसे संबंध रखते हैं जिसे रूपांतर- कारी शक्ति दूर करनेके लिये दबाव डाल रही है और भौतिक मन जो उनमें बने रहनेका हठ करता है वही तुम्हारे अतिश्रम और थकानका कारण है । यदि तुम याद रख सको कि जब मनके कार्यकी आवश्यकता हों केवल तभी अपने मनको कार्य करने दोगे तो अतिश्रमका भाव कम हो जायगा और विलीन हो जायगा, निस्संदेह, यह उस स्थिति- से पहलेकी मध्यवत्तीं क्रिया है जब कि अतिमानसिक क्रिया भौतिक मनको अधिकृत कर लेगी और इसके अन्दर ज्योतिकी स्वाभाविक क्रिया ले आयेगी ।

 

VII

 

    हाँ, स्पष्ट ही, यह कर्मका एक महान् उपयोग हैं कि यह स्वभावकी परीक्षा करता है और साधकको उसकी बाहरी सत्ताके दोषोंके सामने ला खड़ा करता हे जो अन्यथा उसकी दृष्टिसे बच जाते ।

 

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     कर्म केवल तभी महत्त्वपूर्ण होते हैं जब वे प्रकृतिके अंदर विद्यमान वस्तुओंको व्यक्त करते हैं । तुम्हारे कर्मोंके अन्दरकी जो सब चीज़ें योगके साथ समस्वर नहीं हैं उनके विषयमें तुम्हें सचेत रहना होगा और उनसे मुक्त होना होगा । परन्तु उसके लिये आवश्यकता इस बातकी है कि तुम्हारी अपनी हीं चेतना, चैत्य चेतना भीतरसे निरीक्षण करे और जो कुछ अवांछनीय दिखायी दे उसे दूर फेंक दे ।

 

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    यह कही अधिक अच्छा होगा कि दोषोंसे छुटकारा पानेके लिये साधनाके रूपमें

 

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कर्म किया जाय, बजाय इसके कि कर्म न करनेके कारणके रूपमें दोषोंके स्वीकार किया जाय । इन प्रतिक्रियाओंको स्वीकार करनेके बदले,-मानो वे तुम्हारी प्रकृति- के अपरिवर्तनीय विधान हों,--तुम्हें अपने मनमें यह संकल्प करना चाहिये कि अब उन्हें नही आना चाहिये - श्रीमाताजीकी शक्तिकी सहायताका आवाहन करना चाहिये जिसमें वह प्राणको शुद्ध कर दे और उन दोषोंके एकदम निर्मूल कर दे । यदि तुम विश्वास करो कि शरीरमें कठिनाई अवश्य आयेगी तो स्वभावत: ही वह अवश्य आयेगी; बल्कि अपने मनमें इस भावना और संकल्पको जमा दो कि उसे नहीं आना चाहिये और वह नहीं आयेगी । यदि वह आनेकी चेष्टा करे तो उसका त्याग कर दो और अपने पाससे उसे दूर फेंक दो ।

 

    यह मानव-प्राणकी एक बहुत बड़ी अ है - प्रशंसाओको उनके अपने लिये चाहना और उनके अभावमें हतोत्साह हो जाना और यह समझना कि इसका मतलब हे कि कोई क्षमता है हीं नहीं । इस ससारमें मनुष्य जो कुछ करता है उसे अज्ञान और अपूर्णताके साथ आरम्भ करता है -- मनुष्यको अपनी भूलें जाननी हैं और पाठ सीखना है, मनुष्यको भूलें करनी हैं और उन्हें सुधारकर कार्य करनेका सही रास्ता ढूंढ निकालना है । इस संसारमें कोई मनुष्य कभी इस विधानसे बच नहीं सका है । अतएव मनुष्य- को दूसरोंसे सब समय प्रशसाकी आशा नही करनी है, बल्कि जो चीज सही और सुसंपा- दंत है उसके लिये प्रशंसा और भूल-भ्रातियों तथा गतियोंके लिये टीका-टिप्पणीकी आशा करनी है । जितना हीं अधिक मनुष्य आलोचनाको सह सकता और अपनी भूलें देख सकता है, उतनी ही अधिक उसके अपनी क्षमताकी पूर्णतातक पहुँचनेकी संभावना है । विशेषकर जब मनुष्य बहुत छोटा होता है -- बालिग होनेसे पहले -- वह आसानीसे पूर्ण कर्म नही कर सकता । कवियों और चित्रकारोंके जिस कार्य- को बाल-कृति कहते हैं - जो कार्य वे अपने प्रारंभिक वर्षोंमें करते है वह बराबर अपूर्ण होता है, वह एक आशा होता हैं और उसमें कई गुण होते हैं -- पर वास्तविक पूर्णता और उनकी शक्तियोंका पूरा प्रयोग पीछे आता है । वे स्वयं इस बातको अच्छी तरह जानते हैं, पर वे लिखते जाते या चित्र बनाते जाते हैं, क्योंकि वे यह भी जानते हैं कि ऐसा करनेसे वे अपनी शक्तियोंको विकसित कर लेंगे ।

 

    दूसरोंके साथ तुलनाका जहांतक प्रश्न है, उसे नहीं करना चाहिये । प्रत्येक व्यक्तिको अपना निजी पाठ सीखना है, अपना निजी कार्य करना है और उसे स्वयं उसीसे मतलब रखना चाहिये, न कि अपनी तुलनामें दूसरोंकी अधिक या कम प्रगतिसे । यदि वह आज पीछे है तो भविष्यमें अपनी पूरी योग्यता पा सकता है और वास्तवमें अपनी शक्तियोंकी उस भावी पूर्णताके लिये हीं उसे परिश्रम करना चाहिये । तुम अभी बालक हो और अभी तुम्हें प्रत्येक चीज सिखनी है -- तुम्हारी क्षमताएं अभी केवल कलीकी स्थितिमें हैं, तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी और उनके पूरी तरह खिल जानेके लिये कार्य

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करना होगा -- और यदि इसमें किसी संतोषजनक और पूर्ण वस्तुतक पहुँचनेमें कई महीने या वर्ष भी लग जायं तो तुम्हें चिंता नही करनी चाहिये । वह अपने उचित समयपर आयेगी और जो कार्य तुम अभी करते हो वह बराबर ही उस ओर जानेका एक पग है ।

 

     परन्तु आलोचनाका तथा दोषोंको दिखानेका स्वागत करना सीखो -- जितना ही अधिक तुम ऐसा करोगे उतनी ही तेजीसे तुम आगे बढ़ोगे ।

 

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    जो व्यक्ति चित्र बनाना या बाजा बजाना या लिखना सीख रहा है और जो लोग पहलेसे ये चीज़ें जानते हैं उनके द्वारा अपनी भूलोंको सुझाया जाना पसन्द नही करता - वह भला बिलकुल ही कैसे सीख सकता या तकनीककी किसी पूर्णतातक कैसे पहुँच सकता हे?

 

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     हम तुम्हारे विचारका समर्थन नही कर सकते -- आश्रममें पहलेसे ही काफी बुद्धिजीवी लोग हैं और कमरा-बंद बुद्धिजीवी ही वह जाति नही है जिसके अनुचित प्रचारकों प्रोत्साहित करनेके लिये हम प्रवृत्त हैं । बाहरी कर्म ठीक वह चीज है जो प्रकृतिमे साम्यभाव बनाये रखनेके लिये आवश्यक है और इस उद्देश्यसे तुम्हें निश्चय हीं इसकी आवश्यकता है । फिर तुम्हारा भोजन-गृहमें उपस्थित रहना भी अनिवार्य है । अन्य बातोंका जहांतक प्रश्न है, '' या '' से क्रुद्ध होनेकी जगह तुम्हें अपने अन्दर इन चीजोंका कारण ढूँढना चाहिये -- यही साधकके लिये सदा सच्चा नियम रहा हे । कभी-कभी तुम उच्च स्थितिमें रहते हों और तब सारी बातें बहुत अच्छे ढंगसे चलती है; परन्तु कभी-कभी तुम बिलकुल ही ऊंची स्थितिमें नही रहते और तब ये सब गलतफहमियां उठती हैं । अतएव इसका उपाय है सर्वदा अपनी उच्चतम स्थिति- मे रहना - सदा अपने कमरेमें न रहना, बल्कि अपनी सर्वोत्तम स्थितिमें रहना और इसलिये निरंतर अपने सच्चे स्वरूपमें रहना ।

 

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    तुम्हारी कठिनाई उठती है उस प्राण-प्रकृतिकी एक प्रकारकी अत्यधिक असहिष्णुतासे जो बड़े प्रबल रूपमें कर्ममें सामंजस्यका कोई अभाव या विरोध अथवा कोई अवांछित घटना अनुभव करती है और, जब वह चीज आती है, वह उसे मानो व्युक्तिगत विरोध मान बैठती है और दूसरी ओर भी ठीक वैसी हीं भावना उठती है और इस कारण कठिनाई स्थायी हों जाती है तथा संघर्ष उत्पन्न करती है । सच पूछा

 

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जाय तो कठिनाई बहुधा परिस्थितियोंसे उत्पन्न होती है, जैसे, गृहनिर्माण-विभाग बहुत कम कार्यकर्त्ता होने और कामकी भीडके कारण अपने सभी आदमियोंको काम- मे लगा देनेसे तुम्हारे साथ व्यवस्था करनेमें पहलेकी अपेक्षा अधिक कठिनाई अनुभव कर सकता है । अथवा वह लोगोंके किसी प्रसंगमें अपने दृष्टिकोणसे, जो तुम्हारे दृष्टिकोणसे मेल नहीं खाता, कार्य करनेके कारण उत्पन्न हो सकती है । अथवा, वह उस व्यक्तिके कारण उठ सकती है जो अपने विचारोंका अनुसरण करता है, जो कुछ सुविधाजनक और लाभदायी होता है उसकी दृष्टिसे चलता है और इस तरह तुम्हारे विरुद्ध पड़ता है । इन सब चीजोंमें कोई व्यक्तिगत भावना नही रखनी चाहिये और यह सबसे उत्तम है कि किसी व्यक्तिगत भावनाकी ओर दृष्टि न दी जाय और उस दृष्टि- कोणसे उन्हें न देखा जाय । आवश्यक बात यह है कि सर्वदा सभी बातोंमें शांत दृष्टि और सुस्पष्ट दर्शन-शक्ति अपनायी जाय - स्वयं अपने हीं दृष्टिकोणसे नही देखना चाहिये जो अतमें .सही हों सकती है और फिर भी ब्यौरेमें जिसमें सुधार करनेकी आवश्यकता हों सकती है, बल्कि उस दर्शन-शक्तिसे देखना चाहिये जो दूसरोंके दृष्टि- कोणको भी देखती है, यह उदारभावसे, शांत और निर्व्यक्तिक भावसे देखनेकी शक्ति पूर्ण यौगिक चेतनाके लिये आवश्यक है । इसे प्राप्त कर लेनेपर मनुष्य उस बातपर दृढ़ताके साथ आग्रह कर सकता है जिसपर आग्रह करना आवश्यक है, पर उसके साथ- ही-साथ दूसरेकी बातका विचार करते हुए और उसे समझते हुए आग्रह करेगा जिससे व्यक्तिगत भावनाके एक प्रकारके संघर्षके अवसर दूर हो जाता है । स्वभावत: ही, यदि दूसरा अविवेकी हो तो वह फिर भी क्रोध कर सकता है, पर तब वह पूर्णत: उसका अपना दोष होगा और वह केवल उसीपर वापस जा पड़ेगा । बस, यहीपर हम कुछ परिवर्तनकी आवश्यकता अनुभव करते हैं । कर्मके लिये निष्ठा, विश्वस्तता, क्षमता, संकल्पशक्ति तथा अन्यान्य गुण तुममें पर्याप्त मात्रामें हैं -- पूर्ण शांति और समता एक ऐसी चीज है जिसे तुम्हें केवल अपनी आंतर सत्तामें ही नही जहां वह पहलेसे हीं हों सकती है, बल्कि अपने बाहरी स्नायविक भागोंमें भी पूर्ण रूपसे प्राप्त करना होगा ।

 

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   सर्वदा दोनों पक्षमें दोष होते हैं जो इस असामंजस्यको उत्पन्न करते हैं । तुम्हारी ओर, तुममें.... .दूसरोंके विषयमें अत्यंत कठोर निर्णय देनेकी प्रवृत्ति है, तुम सदा दूसरोंकी मूलों, दोषों, कमजोरियोंको देखने और उनपर बल देनेके लिये तैयार रहते हों और उनकी अच्छाइयोंको पूरी तरह नही देखना चाहते । इसके कारण तुम्हारे दृष्टिकोणमें उदारता नहीं आती जो कि होनी चाहिये और फिर ऐसी छाप पड़ती है कि तुम्हारे अन्दर कठोरता तथा उग्र आलोचनाकी वृत्ति है और दूसरी ओर विरोध ओर विद्रोहकी प्रवृत्ति पैदा करती है, जो, दूसरोंके मनमें जब यह नही होती तो भी, उनकी अवचेतनाके माध्यमसे कार्य करती है और इन सब प्रतिकूल क्रियाओंको उत्पन्न करती है । सबसे अच्छा तरीका यह है कि दूसरोंके अंदर जो कुछ अच्छा है उसका

 

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लाभ उठाया जाय, अपनी दृष्टि सर्वदा उसीपर रखी जाय और उनकी भूलों और दोष- त्रुटियोंके साथ चतुराईसे व्यवहार किया जाय । यह पद्धति दृढ़ता और अनुशासन- की रक्षाका बहिष्कार नही करती, यहांतक कि जब कठोरता संगत हों तो कठोरता भि बरत सकती हे; परन्तु कठोरताका व्यवहार विरल होना चाहिये और दूसरे यह न अनुभव करें कि यह मानो तुम्हारा स्थायी स्वभाव हों ।

 

*

 

    अपने आंतरिक अनुभवों और उपरितलीय प्रतिक्रियाओंके बीचके विभेदका जो तुम्हारा अनुभव है वह यह सूचित करता है कि तुम अपनी प्रक्रतिके विभिन्न भागोंके विषयमें सचेतन हो रहे हों, जिनमेंसे प्रत्येकका अपना निजी स्वभाव है । वास्तवमें प्रत्येक मनुष्य विभिन्न व्यक्तित्वोंसे बना हे जो विभिन्न ढंगसे अनुभव करते और व्यव- हार करते हैं और उसका कार्य उनमेंसे किसी एकके द्वारा निर्धारित होता है जो उस समय प्रमुख होता है । जो भाग किसीके प्रति कोई विरुद्ध भावना नही रखता वह या तो चैत्य पुरुष होता है अथवा हृदयस्थ भावमय सत्ता, जो भाग क्रोधी और कठोर होता है वह उपरितलीय बाह्य प्राण-प्रकृतिका भाग होता है । यह क्रोध और कठोर- ता किसी ऐसी चीजके गलत रूप हैं जो अपने-आपमें मूल्यवान् है, प्राण-सत्तामें विद्य- मान संकल्प और कर्मशक्ति और सयमका एक प्रकारका बल है जिसके बिना कर्म नहीं किया जा सकता । आवश्यकता इस बातकी है कि क्रोधसे मुक्ति पायी जाय और किस परिस्थितिमें कौनसा कार्य करना उचित है इसका निर्णय करनेकी विकसित शक्तिके साथ-साथ किया शक्ति और अटल संकल्पको बनाये रखा जाय । उदाहरणार्थ, लोगों- को उस समय अपने निजी ढंगसे कार्य करने दिया जा सकता है जब उससे कार्य नष्ट न होता हों, जब वह उस चीजको करनेका उनका एकमात्र तरीका हों जिसको करना आवश्यक है; ६ जब उनका तरीका कर्मके अनुशासनके विरुद्ध हो तो उन्हें संयमित करना ही होगा, पर यह कार्य शांति और दयाभावके साथ करना चाहिये, न कि क्रोधके साथ । बहुत बार, यदि किसी ब्यक्तिने अपनी संकल्पशक्तिको यत्र बनाकर श्रीमांकि शक्तिको कर्मपर प्रयुक्त करनेकी नीरव शक्तिका विकास किया हों तो वह शक्ति अपने-आप पर्याप्त हों सकती है और कुछ भी कहनेकी आवश्यकता नही होती, क्योंकि वह व्यक्ति अपने-आप ही, मानो स्वयं अपनी ओरसे, अपने ढंगको बदल देता है ।

 

    भोजन न कर सकने और भोजनको अनावश्यक समझनेकी यह भावना एक प्रकारका सुझाव है जो कई लोंगोंके पास आ रहा है । इसका परित्याग करना चाहिये और आधारसे निकाल बाहर करना चाहिये, क्योंकि अपर्याप्त भोजन करनेके कारण शरीर दुर्बल हो सकता है । बहुधा प्रारंभमें मनुष्य दुर्बलता अनुभव नही करता, एक प्रकारकी प्राणिक शक्ति आती है और शरीरको बल प्रदान करती हैं, पर पीछे चलकर शरीर दुर्बल होता है । यह भावना कभी-कभी मनुष्यके बहुत भीतर पैठ जाने- पर भी आ सकती है और तब शारीरिक आवश्यकताओंके लिये कोई आग्रह नही रहता,

 

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पर इसे स्वीकार नही करना चाहिये । यदि इसका त्याग किया जाय तो यह विलीन हो सकती है ।

 

*

 

    किसी व्यक्तिको निरुत्साहित करना अनुचित है, परन्तु मिथ्या उत्साह देना अथवा किसी अनुचित वस्तुके लिये उत्साहित करना ठीक नहीं है । कठोरताका कभी- कभी उपयोग करना पड़ता है (यद्यपि उसका अत्यधिक उपयोग नहीं होना चाहिये) जब कि इसके बिना अनुचित बातपर होनेवाले हठीले आग्रहको सुधारा नही जा सकता । बहुत बार, यदि आंतरिक संपर्क स्थापित हो जाता है तो, और किसी चीजकी अपेक्षा नीरव दबाव अधिक फलदायी होता है । कोई अटल नियम नही स्थापित किया जा सकता, मनुष्यको हर प्रसंगमें निर्णय करना होगा और अच्छेसे अच्छेके लिये कार्य करना होगा !

 

*

 

   यह कामके लिये बिलकुल जरूरी है; योग्यता और अनुशासन अपरिहार्य हैं । परंतु बाहरी साधनासे इन्हें केवल अंशत ही बनाये रखा जा सकता हैं -- वास्तवमें साधारण जीवनमें यह उच्चाधिकारीके व्यक्तित्वपर, सहायकोंके ऊपर उसके प्रभावपर, उसकी दृढ़ता, कौशल, उनके प्रति व्यवहारमें उसके सौजन्यपर निर्भर करता है । परंतु साधक एक गभीरतर शक्तिपर,। अपनी चेतनाकी शक्तिपर और उसके द्वारा कार्य करने- वाली शक्तिपर निर्भर करता है ।

 

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      इसे (सहयोगियोंको अनुशासनके अधीन रखना) समुचित भावके साथ करना होता है और सहयोगियोंको यह अनुभव होना चाहिये कि यह बात ऐसी है -- उनके साथ पूरी ईमानदारीके साथ व्यवहार किया जा रहा है और एक ऐसे व्यक्तिके द्वारा किया जा रहा है जिसमें सहानुभूति और अंतर्दृष्टि है और केवल कठोरता और कर्मठता ही नही है । यह एक प्राणिक कौशल और प्रबल और विशाल प्राणका प्रश्न है जो सर्वदा यह जान लेता है कि दूसरोंके साथ व्यवहार करनेका समुचित ढंग क्या है ।

 

*

 

     पूरे ब्यौरोंके साथ तुम्हारे पत्र पाकर हम बहुत प्रसन्न हुए हैं जो यह प्रतिपादित करते हैं कि तुमने साधनामें कितनी अधिक और तीव्र प्रगति की है । जो कुछ तुम लिखते हो

 

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वह एक सुस्पष्ट चेतनाको तथा निम्रतर प्राणमें एक नवीन कार्यारंभको सूचित करता है । वहां अधिकार जमानेकी वृत्ति तथा यत्र होनेके गर्वको स्पष्ट रूपमे देख लेनेका तात्पर्य है कि सत्ताका वह भाग समुचित रूपमें परिवर्त्तित होने जा रहा है, इन दोषों- के स्थानमें अब उनके सच्चे प्रतिरूपोंको -- सत्य और ऋतके लिये दूसरोंपर निष्काम भावसे कार्य करनेकी शक्ति तथा भगवानका प्रबल और विश्वस्त पर अहं- भावरहित यंत्र बननेकी क्षमताको ला बिठाना होगा । यह भी स्पष्ट है कि भौतिक स्तर प्रभावशाली रूपमे उद्घाटित हों रहा है; परन्तु उसमें जो सहजात भौतिक तथा प्राणिक-भौतिक गतियों हैं, शरीरमें भय, दुर्बलता, अस्वस्थ रहनेकी प्रवृत्ति आदि हैं उन्हें भी अवश्य चले जाना चाहिये । आहारकी जहांतक बात है, हलक प्रकारका भोजन जो शक्ति और भरणपोषणके लिये पर्याप्त हों, तुम्हारे लिये सर्वोत्तम है -- मांसाहार उपयुक्त नही है ।

 

    जो विशाल उद्घाटन तुम्हारे अन्दर आया है उसे विकसित होने दो और अपनी समूची सत्ताको जड़-भौतिक स्तरतक सच्ची चेतना और सच्ची शक्तिसे भर जाने दो ।

 

*

 

    तुम जानते हो कि कौनसी यथार्थ वस्तु करनेकी है - आवश्यक आंतरिक मनोभावको ग्रहण करना और बनाये रखना -- जब दिव्य शक्किए प्रति उद्घाटन हो जाता है और उससे कर्ममें सामर्थ्य, साहस और क्षमता आने लगती हैं तो बाहरी परिस्थितिका मुकाबला ? जा सकता तथा उन्हें सही दिशामें मोड़ा जा सकता है !

 

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    जब कभी कोई अवांछित चीज घटित होती है तो यह आवश्यक है कि...... भौतिक मन या स्नायुओंमें अस्तव्यस्तता या अशांतिका कोई प्रकंपन न आने दिया जाय । साधकको शांत-स्थिर बने रहना चाहिये तथा दिव्य ज्योति और शक्तिकी ओर खुले रहना चाहिये, तभी वह समुचित ढंगसे कार्य करनेमें समर्थ होगा ।

 

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   साधनाकी दृष्टिसे -- तुम्हें इन चीजोंके कारण तनिक भी अपनेको विक्षुब्ध नही होने देना चाहिये । जो कुछ तुम्हें करना है, जो कुछ करना उचित है, वह भागवत शक्तिकी सहायतासे पूर्ण शांतिके साथ किया जाना चाहिये । सफलतापूर्ण परिणाम पानेके लिये जो सब चीजे आवश्यक हैं वे की जा सकती हैं - जिनमें उन सब लोंगोंकी

 

२०९


सहायता उपलब्ध करना भी सम्मिलित है जो तुम्हें सहायता -देनेमें समर्थ हैं । परन्तु यह बाहरी सहायता यदि न आनेवाली हो तो तुम्हें विक्षुब्ध नही होना चाहिये, बल्कि अपने रास्तेपर शांतिपूर्वक अग्रसर होना चाहिये । यदि कही कोई कठिनाई या अ- सफलता हों जो तुम्हारी अपनी भूलके कारण न हों तो तुम्हें उद्विग्न नही होना चाहिये । शक्ति, अचल स्थिरता, जिन सब चीजोंके साथ तुम्हें व्यवहार करना है उनके साथ एकदम सीधा और समुचित व्यवहार -- बस, यही तुम्हारे कर्मका नियम होना चाहिये ।

 

 *

 

     इस समता तथा प्रतिक्रियाओंके अभावकी अवस्थाको बनाये रखना तथा उस स्थिर भूमिसे योगशक्तिको वस्तुओं और मनुष्योपर (अहंजन्य उद्देश्योंसे नही बल्कि कर्तव्य कर्मके लिये) प्रयुक्त करना योगीकी यथार्थ स्थिति है ।

 

*

 

    अचल-अटल, अक्षुब्ध बने रहो, निरुत्साहित हुए बिना अपना कार्य करो, दिव्य शक्तिको अपने लिये कार्य करनेके लिये पुकारों । तुम्हारे लिये यह परीक्षाका क्षेत्र है -- बाह्यकी अपेक्षा आंतरिक परिणाम अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

 

*

 

     द्विविध कार्य करनेकी आवश्यकता है, अधीनस्थोंकी अशुभ इच्छाको नष्ट करना और उच्चाधिकारियोंके मनको परिवर्त्तित करना -- एक अदृश्य कार्य करना है, क्योंकि रोसा लगता है कि दृश्य क्षेत्रमें वे बहुत अधिक अज्ञानकी शक्तियोंके अधिकारमें !

 

*

 

      तुम्हें अपने-आपको अदृश्य दिव्य शक्तिका यंत्र बनाना होगा - एक प्रकारसे उसे आवश्यक बिंदु और आवश्यक लक्ष्यपर प्रयुक्त करनेमें समर्थ होना होगा । परंतु इसके लिये समता पूर्ण होनी चाहिये -- क्योंकि दिव्य शक्तिका स्थिर और दीप्त उपयोग आवश्यक है । अन्यथा शक्तिका उपयोग, यदि अहंजन्य प्रतिक्रियाओंसे मुक्त हों तो, तदनुरूप अहंजन्य विरोध और संघर्ष खड़ा कर सकता है ।

 

*

 

२१०


    समताकी वृद्धि केवल पहली शर्त्त है । जब समताके आधारपर ज्ञानपूर्ण शक्ति- का उपयोग उनके आक्रमणको निष्फल करनेके लिये किया जा सकेगा तभी आक्रमणों- का आना असंभव होगा ।

 

*

 

      [विरोधी शक्तियोंका उन लोगोंपर बाहरी आक्रमण जो सहयोग देते हैं.] सर्वदा यही भौतिक स्तरपर उनकी चातुरीका एक अंग होता है । जब कोई उच्चतर शक्ति उनके विरुद्ध व्यवहृत की जायगी केवल तभी उन्हें हटाया जा सकेगा ।

 

*

 

     यही समताका यथार्थ आंतरिक मनोभाव है -- बाह्रमें चाहे जो भी घटित हों फिर भी अचल-अटल बने रहना । परंतु बाहरी क्षेत्रमें सफलता पानेके लिये (यदि तुम मानवीय साधनोंका, कूटनीति या दाव-पेचक उपयोग न करो) आवश्यकता है उस दिव्य शक्तिको चुपचाप संचारित कर देनेकी क्षमताकी जो मनुष्योंके मनोभाव और परिस्थितियोंको बदल सके और किसी बाहरी कार्यको तुरत करणीय और प्रभाव- शाली यथार्थ कार्य बना सके।

 

*

 

     साधकके लिये बाहरी संघर्ष, कठिनाइयां, विपत्तियां आदि अहं और राजसिक कामनाको जितने तथा पूर्ण समर्पणभाव प्राप्त करनेका केवल एक साधन हैं । जब- तक मनुष्य सफलता प्राप्त करनेका आग्रह करता है तबतक वह कम-से-कम अंशत: अहंके लिये कार्य कर रहा है; कठिनाइयां और बाहरी असफलताएं यह चेतावनी देनेके लिये आती हैं कि बात ऐसी है और पूर्ण समता ले आनेके लिये आती हैं । इसका मतलब यह नहीं है कि विजय पानेका सामर्थ्य प्राप्त करनेकी चीज नही है, बल्कि सच पूछा जाय तो तात्कालिक कर्ममें सफलता पाना ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात नहीं है; सबसे महत्त्वपूर्ण बात है महत्तर और महत्तर शुद्ध दृष्टि और आन्तरिक शक्ति ग्रहण करने तथा संचारित करनेकी योग्यता और इसे ही विकसित करना होगा । परन्तु इसे करना होगा बिलकुल ठंडे दिलसे और धैर्यपूर्वक, तत्काल विजय या असफलतासे न तो फूल उठना और न विक्षुब्ध होना होगा ।

 

*

 

     तुम्हें जो अनुभव करना है वह यह है कि तुम्हारी सफलता या विफलता, सबसे

 

 

२११


पहले और सर्वदा, तुम्हारे यथार्थ मनोभाव बनाये रखनेपर, तुम्हारे सच्चे चैत्य तथा आध्यात्मिक वातावरणमें बने रहनेपर तथा अपने द्वारा श्रीमाताजीकी शक्तिको कार्य करने देनेपर निर्भर करता है... ।

 

     यदि तुम्हारे पत्रोंके आधारपर विचार कर सकूँ तो कह सकता 'हूँ कि तुम उसकी सहायताको बहुत अधिक सत्य मान लेते हों और कार्यके संबंधमें अपने निजी विचारों और योजनाओ और शब्दोंपर सबसे प्रथम बल देते हो; परन्तु ये चीज़ें, चाहे अच्छी हों या बुरी, ठीक हों या गलत, यदि वे सच्ची दिव्य शक्तिके यत्र नही क्रैश तो असफल होने- के लिये बाध्य हैं. । तुम्हें बराबर एकाग्रचित्त बने रहना होगा, सर्वदा प्रत्येक कठि- नाईको समाधानके लिये उस शक्तिके सम्मुख पेश करना होगा जो यहांसे भेजी जा रही है, सर्वदा उसे हीं कार्य करने देना होगा तथा उसके स्थानपर अपनी निजी मन- बुद्धि और पृथक् प्राणिक इच्छा या आवेगको नही लें आना होगा.. ।

 

      अपने कार्यको जारी रखो, सफलताकी शर्त्तको कभी न भूलो । कर्ममें या अपनी भावनाओमें या योजनाओंमें अपने-आपको खो मत दो अथवा सच्चे मूलस्रोतके साथ सतत संस्पर्श बनाये रखना मत भूलो । अपने तथा शक्ति तथा श्रीमांकि उपस्थितिके बीच किसी व्यक्तिके मन या प्राणिक प्रभाव या इर्दगिर्दके वातावरणके प्रभावको अथवा साधारण मानवीय मनोवृत्तिको मत आने दो ।

 

*

 

    जो कार्य तुमने श्रीमाताजीके लिये अपने हाथमें लिया था उसे इतनी अच्छी तरह पूरा कर डालना -- सभी कठिनाइयोंको पार कर ऐसे सुन्दर परिणामपर समाप्त करना बड़ा संतोषजनक है.. । परन्तु श्रीमाताजीके लिये किया गया तुम्हारा कर्म सर्वदा वैसा ही होना -- पूर्ण, विवेकपूर्ण और'. कौशलपूणे, अटल विश्वाससे अंत:- प्रेरित तथा श्रीमाँकी शक्तिके प्रति उद्घाटित होना - सुनिश्चित है । जहां ये चीज़ें होती हैं वहां सफलताका आना सदा सुनिश्चित होता है ।

 

VIII

 

    भौतिक वस्तुओंमें व्यवस्थित सामंजस्य और संगठन निपुणता और पूर्णताका आवश्यक अंग हैं और यंत्रको जो भी कार्य दिया जाता है उसके लिये उसे सुयोग्य बनाते !

 

*

 

    कोई भौतिक जीवन सुव्यवस्था और ताल-छंदके बिना नही रह सकता । जब यह व्यवस्था बदलती है तब उसे किसी आंतरिक विकासके अनुसार बदलना चाहिये,

 

२१२


न कि किसी बाहरी नवीनताके लिये । सच पूछो तो ऊपरी निम्र-प्राण-प्रकृतिका ही एक विशेष भाग ऐसा होता हैं जो बराबर स्वयं अपने लिये बाहरी परिवर्त्तन तथा नवीन- ता खोजता रहताहै ।

 

   जब मनुष्यके अन्दर निरंतर विकास होता रहता है केवल तभी वह निरन्तर नवीनता भी पाता रह सकता है और जीवनमें स्थायी रस पा सकता है । इससे भिन्न दूसरा कोई संतोषजनक मार्ग नहीं है ।

 

*

 

     बातें बिगड़ जानेपर अधीर हों उठना एक गुणका - यथार्थता और व्यवस्था- पर आग्रह करनेके गुणका - विकार है । असल बात है गुणकों बनाये रखना और विकारसेछुटकारा पाना ।

 

*

 

    अत्यन्त भौतिक वस्तुओंमें तुम्हें उनसे व्यवहार करनेके लिये एक कार्यक्रम तै कर लेना होगा, अन्यथा सब कुछ अस्तव्यस्तता और क्रमहीनताका एक समुद्र बन जायगा । जबतक लोग बिना नियम उनके साथ समुचित रूपमें व्यवहार करनेके लिये पर्याप्त विकसित नही हैं तबतक स्थूल वस्तुओंकी व्यवस्थाके लिये सुनिश्चित नियम बनाना भी जरूरी है । परन्तु आंतरिक विकास और साधनाके मामलेमें प्रत्येक ब्यौरेमें निश्चित कोई योजना बना डालना और यह कहना असंभव है कि ' 'प्रत्येक बार तुम्हें यहां, वहां, इस ढंगसे, इस पथपर, और किसी पथपर नही ठहरना होगा । '' चीज़ें इतनी बंधी-बंधाई और कठोर हों जायंगी कि कुछ भी नहीं किया जा सकेगा; कोई भी यथार्थ और फलदायी किया नहीं हों सकेगी ।

 

*

 

     कर्ममें अवश्य ही कोई नियम और अनुशासन होना चाहिये और जहांतक संभव हो समयके विषयमें नियमितता बरतनी चाहिये ।

 

     कौनसा अच्छा कार्य है ओर कौनसा बुरा या कम अच्छा कार्य? सब श्रीमांके काम हैं और श्रीमाताजीकी दृष्टिमें एक समान हैं ।

 

*

 

     नियमित होनेकी योग्यता एक महान् शक्ति है, मनुष्य अपने समय और अपनी गतिविधियोंका स्वामी बन जाता है ।

 

२१३


     दृढ निश्चयका अर्थ है निश्चित समयमें किसी कार्यको पूरा कर देनेका प्रयास । वह कोई बंधनकारी ' 'प्रतिज्ञा' ' नहीं है कि कार्य उस समयतक पूरा हों जायगा । यदि वह पूरा न भी हों तो भी प्रयास जारी रखना होगा, ठीक उसी तरह मानो तिथि निश्चित हो चुकी हो ।

 

IX

 

   अत्यंत थोड़े समयमें भौतिक वस्तुओंको खुले तीरपर बरबाद करना और असावधानीके साथ नष्ट करना, शिथिलतावश अव्यवस्थित रखना, चाहे प्राणिक लोभ या तामसिक जड़ताके वश सेवा और सामग्रीका दुर्व्यवहार करना समृद्धिके लिये घातक है और धन-शक्तिको दूर भगा देता या निरुत्साहित करता है । ये चीज़ें दीर्घकालसे समाजमें प्रचलित हैं और, यदि बे बनी रहें तो, हमारे साधनोंमें वृद्धि होनेका भली- भांति अर्थ होगा उसी अनुपातमें वस्तुओंकी बरबादी, और कुव्यवस्थामें भी वृद्धि और उससे स्थूल-भौतिक सुयोग-सुविधा व्यर्थ हों जायगी । यदि कोई ठोस प्रगति करनी हों तो इसका इलाज अवश्य होना चाहिये ।

 

   स्वयं वैराग्यके ही लिये वैराग्य इस योगका आदर्श नही है, परंतु प्राणस्तरमें आत्मसंयम तथा भौतिक स्तरमें समुचित व्यवस्था उसके बड़े महत्त्वपूर्ण अंग हैं --- और यहांतक कि हमारे उद्देश्यके लिये सच्चे संयमके बेरोक अभावकी अपेक्षा वैराग्य- पूर्ण अनुशासन कहीं अधिक अच्छा है । भौतिक वस्तुओंपर प्रभुत्व पानेका अर्थ यह नही है कि प्रचुर मात्रामें उन्हें पाया जाय और उन्हें अधिक-से-अधिक बाहर फेंक दिया जाय अथवा जितनी तेजीसे वे आवें उतनी ही तेजीसे अथवा उससे भी अधिक तेजीसे उन्हें नष्ट कर दिया जाय । प्रभुत्वके अन्दर यह भी शामिल है कि वस्तुओंका समुचित और सावधानतापूर्वक व्यवहार किया जाय और उनके व्यवहारमें भी आत्मसंयम बनाये रखा जाय ।

 

*

 

     स्थूल वस्तुएं घृणा करनेके लिये नहीं हैं - उनके बिना इस स्थूल जगत्में कोई प्तंगवदोभव्यक्ति नही हों सकती 1

 

*

 

    प्रत्येक भौतिक वरतुमें एक चेतना है जिसके साथ मनुष्य संपर्क कर सकता है । प्रत्येक वस्तुकी, मकान, मोटरगाडी, साज-सामान आदिकी एक प्रकारकी व्यष्टि-सत्ता है । प्राचीन युगके लोग इसे जानते थे और इसलिये वे प्रत्येक भौतिक वस्तुमें एक आत्मा या '' अधिदेवता' ' देखते थे ।

 

२१४


तुम भौतिक वस्तुओंके विषयमें जो अनुभव करते हों वह ठीक द्रुँ - उनमें भी एक चेतना है, एक प्राण है जो मनुष्य और पशुका प्राण और चेतना नही है जिन्हें हम जानते हैं, पर और भी गुह्य और यथार्थ । यही कारण है कि हमें भौतिक वस्तुओं- के प्रति भी आदरभाव रखना चाहिये और समुचित रूपमें उनका व्यवहार करना चाहिये, कुव्यवहार और अपचय नहीं करना चाहिये, उनके साथ बुरा बर्ताव अथवा अचेतन कठोरताके साथ उनका उपयोग नही करना चाहिये । सभी चीजोंके चेतन या जीवंत होनेकी भावना तब आती है जब हमारी अपनी भौतिक चेतना - और केवल मन हीं नही -- अपनी अंधतासे जागती  और सभी वस्तुओंमें एकमेवके विषय- मे, सर्वत्र भगवानके विषयमें सचेतन होती है ।

 

*

 

    यह बहुत सही है कि भौतिक वस्तुओंके अन्दर एक चेतना होती है जो प्यारको अनुभव करती और प्रत्युत्तर देती है तथा असावधानीपूर्ण स्पर्श और कठोर व्यवहारके प्रति संवेदनशील होती है । इसे जानना या अनुभव करना और उनके विषयमें सावधान होना चेतनाकी एक महान् प्रगति है।

 

*

 

     भौतिक वस्तुओंको बुरी तरह इस्तेमाल करना और असावधानीवश तोड-फोड देना या नष्ट करना और कुव्यवहार करना यौगिक चेतनाको अस्वोकार करना है तथा जड़-भौतिक स्तरपर भागवत सत्यको उतार लानेमें एक महान् बाधा है ।

 

 *

 

     मैं समझता हूँ कि यह एक ऐसी भावना थी जो भौतिक मनके द्वारा आयी थी, जो भौतिक उपयोगका अनुसरण करने तथा अन्य सभी बोध ओर उद्देश्योंकी उपेक्षा करनेका सुझाव थी । तुम्हें भौतिक मनकी इन भावनाओं और सुझावोंसे सावधान रहना चाहिये तथा इनमेंसे किसीको विवेक तथा उच्चतर ज्योतिकी अधीनताके बिना स्वीकार नहीं करना चाहिये ।

 

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