श्रीअरविन्द के पत्र

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Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Letters On Yoga - Parts 2,3 Vol. 23 1776 pages 1970 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द के पत्र 578 pages 1972 Edition
Hindi Translation
Translator:   Chapsip Tripathi  PDF    LINK

विभाग सात

 

प्रेम और भक्तिके द्वारा साधना

 

प्रेम और भक्तिके द्वारा  साधना

 

    भागवत प्रेम, सौंदर्य तथा आनन्दको संसारके अंदर ले आना, निस्संदेह, हमारे योगका सर्वोच्च शिखर और सार-तत्व हैं । परंतु यह मुझे सर्वदा तबतक असंभव प्रतीत होता है जबतक कि इसके आधार, आश्रय तथा रक्षकके तौरपर भागवत सत्य -- जिसे कि मैं अतिमानसिक सत्य कहता हुए -- तथा उसकी भागवत शक्ति न अव- तरित हों । अन्य स्थितिमें स्वयं प्रेम भी इस वर्तमान चेतनाकी गडबडियोंसे अंधा होकर अपने मानवीय पात्रोमें ठोकर खा सकता है और, अगर ऐसा  हों तो, मनुष्य- की निम्रतर प्रकृतिकी स्सलनशीलताके कारण वह अस्वीकृत, परित्यक्त या शीघ्र हीं भ्रष्ट और विनष्ट हो सकता है । परंतु जब भागवत प्रेम भागवत सत्य और शक्तिकी उपस्थितिमें आता है तब वह पहले किसी परात्पर और विश्वव्यापी तत्त्वके रूपमें अवतरित होता है और उस परात्परता तथा विश्वव्यापकतामेंसे भागवत सत्य एवं संकल्पके अनुसार व्यक्तियोंपर क्रिया करता है । फलस्वरूप वह उस व्यक्तिगत प्रेम- की अपेक्षा कही अधिक विशाल, महान्, विशुद्ध व्यक्तिगत प्रेमको उत्पन्न करता है जिसकी कल्पना कोई मानवीय मन या हृदय इस समय कर सकता है । वास्तवमें जब कोई इस अवतरणका अनुभव कर लेता है तभी वह संसारमें भागवत प्रेमके जन्म और कर्म- का यंत्र बन सकता है ।

 

*

 

     मैं ठीक-ठीक यह नही समझता कि तुमने जो भागवत प्रेमके नीचे अवचेतनातकमें स्थापित हो जानेकी बात कही है उससे तुम्हारा मतलब क्या है । कौनसा प्रेम? भग- वान्के लिये अंतरात्माकी प्रेम? अथवा भागवत प्रेम और आनन्दका तत्त्व जो वह उच्चतम वस्तु है जिसे प्राप्त किया जा सकता है? पिछले भागवत प्रेम और आनन्द- को नीचे अवचेतनातकमे स्थापित करनेका मतलब हैं समग्र सत्ताका संपूर्ण रूपांतर और इसे अतिमानसिक रूपांतरके परिणामके रूपमे ही किया जा सकता है, अन्यथा नही, और वह रूपांतर अभी बहुत दूर है । दूसरा, भगवानके लिये अंतरात्माका प्रेम तत्वत इस समय भी स्थापित किया जा सकता है, परंतु इसे समूची सत्तामें जीवत और पूर्ण बनानेका अर्थ होगा चैत्य रूपांतरका ससिद्ध हों जाना और आध्यात्मिक रूपांतरका भी भली भांति प्रारंभ हों जाना ।

 

*

 


श्रीमाताजीने तुम्हें यह नही कहा था कि प्रेम कोई भाव नही है, वरन् यह कहा था कि भागवत प्रेम कोई भाव नहीं है - और यह बहुत भिन्न बात है । मानवीय प्रेम भाव, तीव्रावेग तथा कामनासे बना होता है - ये सभी प्राणिक क्रियाएं हैं, और इस कारण मानवीय प्रेम मानवीय प्राणगत प्रकृतिकी दुर्बलताओंसे बद्ध होता है । भाव, अपने सभी दोषों और संकटोंके होते हुए भी, मानवीय प्रकृतिमे एक अत्युत्तम और अनिवार्य वस्तु है,--वैसे ही जैसे मानसिक विचार मानवीय स्थितिमें अपने निजी क्षेत्रमें अत्युत्तम और अनिवार्य वस्तुएं हैं । परंतु हमारा लक्ष्य है मानसिक विचारोंको पार कर जाना तथा उस अतिमानसिक सत्यके प्रकाशमें पहुँच जाना जो चितनात्मक विचारके सहारे नही, प्रत्युत प्रत्यक्ष दृष्टि और तादात्म्यके सहारे स्थित होता है । इसी प्रकार हमारा लज्जा है भावसे परे जाकर भागवत प्रेमकी उच्चता, गम्भीरता एवं तीवतामें पहुँच जाना और वहां आंतरिक चैत्य हदयके द्वारा भगवानके साथ वह असीम एकत्व अनुभव करना जहांतक प्राणमय भावोंकी जोशीली छलाँगें नही पहुँच सकतीं अथवा जिसे वे अनुभव नही कर सकतीं ।

 

    जैसे अतिमानसिक सत्य हमारे मानसिक विचारोंका कोई उदात्तीकरणमात्र नही है, वैसे हीं भागवत प्रेम मानवीय भावोंका कोई उदात्तीकरणमात्र नही है; वह एक भिन्न गुण, क्रिया और सारतत्त्वसे युक्त एक भिन्न प्रकारकी चेतना है ।

 

*

 

      यह ( भागवत प्रेम) स्वयं-सत् है और बाह्य संपर्क या बाह्य अभिव्यक्तिपर निर्भर नही करता । आया वह अपने-आपको बाहरमें अभिव्यक्त करेगा या नही अथवा वह किस प्रकार अपने-आपको बाहरमें प्रकट करेगा यह उस आध्यात्मिक सत्यपर निर्भर करता है जिसको हमें अभिव्यक्तकरना है।

 

*

 

     भागवत प्रेम संभवत. भौतिक स्तरपर, मानवजाति जैसी है उसके कारण, अभी उतनी पूर्णता और स्वच्छन्दताके साथ अभिव्यक्त नहीं हो सकता जितनी पूर्णता और स्वच्छन्दताके साथ वह अन्य स्थितिमें अभिव्यक्त होगा । परंतु इस कारण भागवत प्रेम मानवीय प्रेमसे कम घनिष्ठ या तीव्र नहीं हो जाता । वह विद्यमान है और प्रतीक्षा कर रहा है कि उसे समझा जाय और स्वीकार किया जाय तथा इस बीच वह समस्त साहाथ्य दे रहा है जिसे तुम उस चेतनामें अपनेको ऊपर उठाने और विस्तारित करनेके लिये ग्रहण कर सको जिससे इन कठिनाइयों और इन गलतफहमियोंका बार-बार घटित होना अब और संभव नहीं होगा - वह अवस्था प्राप्त हों जायगी जिसमें समग्र और पूर्ण एकत्व प्राप्त करना संभव होता है ।

 

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    और मैं यह भी कह दूँ कि, मानव-प्रेम और दिव्य प्रेमका जहांतक प्रश्न है, मैंने पहलेको उस वस्तुके रूपमें स्वीकार किया था जहांसे हमें प्रस्थान करना है और दूसरे- पर पहुँचना है, मानव-प्रेमको निर्मूल नहीं करना है, बल्कि उसे अधिक तीव्र करना और रूपांतरित करना है । फिर मेरी दृष्टिमें, भागवत प्रेम कोई वायवीय, शीतल और दूरस्थ वस्तु नहीं है, बल्कि एक ऐसा प्रेम हैं जो संपूर्णत: तीव्र, घनिष्ठ और एकत्व. सामीप्य तथा आनन्दोल्लाससे परिपूर्ण है एव अपनी अभिव्यक्तिके लिये समस्त प्रकृति- का उपयोग करता है । निश्चय हीं, यह वर्तमान प्राणगत प्रकृतिकी अस्तव्यस्तताओ तथा अव्यवस्थाओंसे रहित है जिसे वह किसी संपूर्णत उष्ण, गभीर और तीव्र वस्तुमें बदल देगा; परंतु यह माननेका कोई कारण नहीं कि वह किसी भी ऐसी वस्तुको खो देगा जो प्रेम-तत्वके अंदर सत्य और सुखकर है ।

 

*

 

     प्रेम उदासीन नहीं हो सकता-क्योंकि उदासीन प्रेम जैसा कोई भाव अस्तित्व ही नही रखता, किंतु उस उद्धरणमें श्रीमाताजीने जिस प्रेमका उल्लेख किया है वह एक बड़ी ही पवित्र, निश्चित एवं स्थिर वस्तु है । वह न तो अग्निकी तरह भभक उठता है और न ईंधन समाप्त होनेपर बूझ ही जाता है, बल्कि सूर्यके प्रकाशके समान स्थिर, सर्वग्राही तथा स्वयं-सत् होता है । एक ऐसा दिव्य प्रेम भी होता है जो वैयक्तिक है, परंतु यह साधारण मानवीय व्यक्तिगत प्रेमके समान नही होता जो दूसरे व्यक्तिके प्रतिदानपर निर्भर करता हों । यह वैयक्तिक तो होता है पर अहंपूर्ण नहीं होता । यह एक- की वास्तविक सत्तासे दूसरेकी वास्तविक सत्तामें संचरण करता है । परंतु इसे उप- लब्ध करनेके लिये सामान्य मानवी दृष्टिकोणसे छुटकारा पाना आवश्यक होता है ।

 

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    अब पहले साधनामें मानवी प्रेमको लें । अंतरात्माको भगबानकी ओर मोड़ने- वाला प्रेम अनिवार्यत: दिव्य होना चाहिये; पर अभिव्यक्तिका करण प्रारभमें चूँकि मानव प्रकृति होती है, इसलिये यह मानवी प्रेम तथा भक्तिका रूप ग्रहण कर लेता है । परंतु जैसे-जैसे चेतना गहन बनती, महत्तर होती और परिवर्त्तित होती है, उसमें वह महत्तर शाश्वत प्रेम विकसित होता और स्पष्ट रूपसे मानवी प्रेमको दिव्य प्रेम बना देता है । पर स्वयं मानवी प्रेममें कई प्रकारकी प्रेरक शक्तियां हैं । एक चैत्य मानवी प्रेम होता है जो व्यक्तिके अन्दर गहराईसे उद्भूत होता है और आंतरसंत्ताके उसके साथ, जो इसे दिव्य हर्ष और मिलनेके लिये पुकारता है, संपर्कमें आनेका परिणाम होता है । यह, एक बार आत्म-सचेतन हो जानेपर, चिरस्थायी, स्वयं सत, बाह्य तुष्टियोपर अनाश्रित, बाह्य कारणोंसे कम न होनेवाला, निःस्वार्थ, मांग या सौदा न करनेवाला बल्कि सरल तथा स्वाभाविक रूपसे आत्मदान करनेवाला, गलतफहमियों, खित्रतओं,

 

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कलह तथा क्रोघमें न प्रवृत्त होनेवाला धार न उनसे खंडित होनेवाला बल्कि सदा सीधे आंतरिक मिलनकी ओर बढ़नेवाला होता है । यही चैत्य प्रेम दिव्य प्रेमके निकटतम है और अतएव प्रेम ओर भक्तिका यही उचित और सर्वोत्तम रूप है । परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि सत्ताके अन्य अंग, प्राणिक तथा भौतिक भी, अभिव्यक्तिके साधनके रूपमें नहीं बर्त्ते जायंगे अथवा वे प्रेमके पूरे विकासमें तथा इसके पूर्ण अर्थमें, यहांतक कि दिव्य प्रेममें भी भाग नहीं लेंगे । इसके विपरीत, वे दिव्य प्रेमके साधन हैं तथा इसकी पूर्ण अभिव्यक्तिमें बहुत बड़े अंग हो सकते हैं । इसमें संदेह नही कि उनकी क्रिया उचित 'होनी चाहिये, न कि गलत । स्वयं प्राणमें भी दो प्रकारके प्रेम होते हैं । एक तो आनंद, विश्वास और त्यागसे पूर्ण, उदार, स्वार्थहीन, वदान्य तथा आत्मार्पणमें बहुत ही पूर्ण होता है । यह चैत्य प्रेमसे बहुत मिलता-जुलता है और उसका पूरक बनने तथा दिव्य प्रेमको अभिव्यक्त करनेका साधन बननेके लिये बहुत उपयुक्त होता है । चैत्य प्रेम अथवा दिव्य प्रेम कोई भी, अपनी अभिव्यक्तिमें, भौतिक साधनोंकी, जहां-कही वे पवित्र, शुद्ध एवं संभव होते हैं, उपेक्षा नहीं करता । अवश्य हीं वह ऐसे साधनोंपर निर्भर नही करता और उनके न मिलनेपर क्षीण नही होता, विद्रोह नहीं करता अथवा बत्ती काट देनेपर बूझ जानेवाली मोमबत्तीकी तरह मर नहीं जाता । हां, बह उनका उपयोग जब भी कर सकता है, आनन्द और आभारपूर्वक करता है । भौतिक साधनों- का उपयोग दिव्य प्रेमकी प्राप्ति एवं आराधनाके लिये किया जा सकता है और किया जाता भी है । उन्हें केवल मानवीय दुर्बलताको थोडी छूट देनेके लिये ही स्वीकार नहीं किया गया है और न यही सत्य है कि चैत्य पद्धतिमें इन साधनोंका कोई स्थान नही है । इसके विपरीत, ये भगवान्तक पहुंचने, प्रकाशकों पाने तथा चैत्य संबंधोंको मूर्त्ति- मान करनेके माध्यम हैं । जबतक इनका उपयोग समुचित भावके साथ और एक सत्य हेतुक लिये होता हो इनका अपना स्थान है । ये साधन केवल तभी अनुपयुक्त सिद्ध होते तथा विपरीत प्रभाव डालते हैं जब या तो इनका दुरुपयोग किया जाता है या इन्हें समुचित ढंगसे नहीं ग्रहण किया जाता क्योंकि ये उदासीनता और जड़तासे अथवा विद्रोह या शत्रुतासे अथवा किसी स्थूल वासनासे कलुषित होते हैं ।

 

      किंतु प्राणमय प्रेमका एक दूसरा भी प्रकार है जो मानव-प्रकृतिका अधिक सामान्य तरीका है । यह अस्मिता और कामनाका तरीका हैं । यह प्राणमय लालसाओं, इच्छाओं और मांगोंसे पूर्ण होता है । इसकी प्रगति इसकी मांगोंकी पूर्त्तिपर निर्भर करती है । यदि यह अपनी अभिलषित वस्तुको नहीं प्राप्त करता अथवा कल्पना भी कर लेता है कि इसके साथ उपयुक्त सलूक नही किया जा रहा है - क्योंकि यह सब प्रकारकी कल्पनाओं, मिथ्या धारणाओं, ईर्ष्या-द्वेषों और गलतफहमियोंसे भरा होता है - तो यह तत्काल दुःखी, मर्माहत एवं क्रुद्ध हो उठता है, सब प्रकारकी दुरव- स्थाओंसे त्रस्त अनुभव करता है तथा अंतमें अवरुद्ध होकर समाप्त हो जाता है । ऐसा प्रेम अपनी प्रकृतिमें अत्यंत अस्थायी एवं अविश्वसनीय होता है तथा दिव्य प्रेमका आधार नही बनाया जा सकता ।... इसीलिये हम इस निम्र-प्राणस्तरीय मानवीय प्रेमको अनुत्साहित करते हैं और चाहते हैं कि लोग यथासंभव शीघ्रसे शीघ्र अपनी

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प्रकृतिसे इसे बहिष्कृत कर दे । प्रेममें तो हर्ष, मिलन, विश्वास, आत्मदान और आनंद- का प्रस्कुटन होना चाहिये --परंतु यह निम्रस्तरीय प्राणमय प्रेम केवल कष्ट, विपत्ति, निराशा, भ्रमभंग राव वियोगक हीं कारण होता हे । इस प्रेमका रंचमात्र अंश भी शांतिके आधारोंको हिला देता है और आनन्दकी ओर ले जानेके बदले मनुष्यको शोक असंतोष और निरानन्दमें गिरा देता है ।

 

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 जो प्रेम भगवान्की ओर लगाया जाता हैं वह साधारण प्राणगत भाव नही होना चाहिये जिसे मनुष्य प्रेम कहते हैं, क्योंकि वह प्रेम नही हो बल्कि केवल प्राणगत कामना है, स्वायत्त करनेकी सहजवृत्ति है, अधिगत करने और एकाधिकार जमानेका आवेग है । यहीं नही कि वह दिव्य प्रेम नहीं है, अपितु उसे योगमें थोड़ीसी मात्रामें भी नही मिलने देना चाहिये । भगवानके प्रति सच्चा प्रेम है आत्मदान -- मांगसे मुक्त, नमन और समर्पणसे पूर्णत: युक्त; वह प्रेम कोई दावा नही करता, कोई शर्त्त नही लादता, कोई मोल-तोल नही करता, ईर्ष्या या अभिमान या क्रोधकी जबर्दस्तियोंमें रत नही होता - क्योंकि ये चीज़ें उसकी बनावटमें ही नही हैं । उसके बदलेमें भगवती माता भी अपने-आपको दे देती हैं, किंतु स्वतंत्र रूपसे -- और वह चीज आंतरिक दानके रूपमें अपने-आपको प्रकट करती है - तुम्हारे मन, तुम्हारे प्राण, तुम्हारी भौतिक चेतना- मैं उनकी उपस्थिति होती है, उनकी शक्ति तुम्हें दिव्य प्रकृतिमें नवजन्म देती, तुम्हारी सत्ताकी सभी गतियोंको ऊपर उठाती और उन्हें पूर्णता एवं कृतार्थताकी ओर लें जाती इ, उनका प्रेम तुम्हें परिव्याप्त कर लेता और तुम्हें अपनी गोदामें लेकर भगवान्की ओर ले जाता है । यही प्रेम है जिसे अपने सब भागोंमें, एकदम अन्नमय भागतकमे, अनुभव करने और प्राप्त करनेकी अभीप्सा तुम्हें अवश्य करनी चाहिये, और इस प्रेम- की कुछ भी सीमा नही है, न समयमें और न परिपूर्णतामें । अगर कोई सच्चे तीरपर इसकी अभीप्सा करता और इसे पा लेता है तो किसी और दावेकी या किसी हताश कामनाकी कोई गुंजाइश नही रहनी चाहिये । और यदि कोई सच्चे भावसे अभीप्सा करता है तो वह इसे निश्चित रूपसे प्राप्त करता हैं, ज्यों-ज्यों प्रकृति शुद्ध होती जाती है और अपना अपेक्षित परिवर्तन करती जाती है त्योंत्यो वह इसे अधिकाधिक प्राप्त करता जाता है ।

 

      अपने प्रेमको समस्त स्वार्थपूर्ण दावों और कामनाओंसे म्उक्त रखो, तुम देखोगे कि उसके उत्तरमें तुम्हें वह सब प्रेम प्राप्त होने लगा है जिसे तुम सहन और हजम कर सकते हो ।

 

     फिर यह भी समझ लो कि आध्यात्मिक उपलब्धि सबसे पहले होनी चाहिये, जो काम करना है वह पहले होना चाहिये, न कि दावों और इच्छाओंकी मूर्त्ति । जब भागवत चेतना अपने अतिमानसिक प्रकाश और शक्तिके साथ उतर आयेगी और भौतिक सत्ताको रूपांतरित कर देगी केवल तभी अन्य वस्तुओंको प्रमुख स्थान दिया

 

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जा सकता है - और तब भी कामनाकी तृप्ति नही करनी होगी, बल्कि भागवत सत्यको चरितार्थ करना होगा -- प्रत्येकके अंदर तथा 'सर्व' के अंदर और उस जीवन- के अंदर जिसे इस सत्यको अभिव्यक्त करना है । दिव्य जीवनमें सब कुछ भगवानके लिये होता है, न कि अहंके लिये ।

 

    भ्रांतियां दूर करनेके लिये मुझे शायद दो-एक बातें और कह देनी चाहियें । प्रथम, भगवानके प्रति जिस प्रेमकी मैं चर्चा कर रहा हूँ वह केवल आंतरात्मिक प्रेम ही नहीं है; वह प्रेम है व्यक्तिकी सारी सत्ताका, जिसमें प्राण और प्राणमय भौतिक सत्ता १ भी आ जाती है,-ये सभी आत्मोत्सर्गके लिये एक समान समर्थ होती हैं । दूसरे, यह मान लेना भूल होगा कि अगर प्राण प्रेम करे तो अवश्य ही वह ऐसा प्रेम होगा जो अपनी कामनाकी तृप्तिकी मांग करेगा और उसे शर्त्तके रूपमें लादेगा; यह सोचना गलत होगा कि वह या तो अवश्य ऐसा ही होगा या प्राणके लिये आवश्यक है कि वह अपनी ' 'आसक्ति' ' से बचनेकी खातिर अपने प्रेमके पात्रसे सर्वथा दूर हट जाय । प्राण अपने निस्संकोच आत्मदानमें उतप्त ही पूर्ण हों सकता है जितना प्रकृतिका अन्य कोई भी भाग; जब यह अपने प्रियतमके लिये अपने-आपको भुला देता है तब कोई भी भाग इसकी अपेक्षा अधिक उदार नही हो सकता । प्राण और शरीर दोनोंको सच्चे तरीके- से - सच्चे प्रेमके तरीकेसे, अहंकी इच्छाके तरीकेंसे नही -- अपने-आपको उत्सर्ग कर देना चाहिये।

 

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     साधारणतया जब लोग प्राणिक घनिष्ठताकी चर्चा करते हैं तो उनका मतलब किसी अत्यंत बाहरी वस्तुसे होता है जिसे नीचे उतार लानेकी आवश्यकता नही होती क्योंकि यह तो मानव-जीवनकी एक सामान्य वस्तु है । यदि वह भगवानके साथ आंतरिक प्राणिक घनिष्ठता हों तो निःसंदेह वह एकत्वको अधिक पूर्ण बनाती है, बशर्त्ते कि वह चैत्य चेतनापर आधारित हो ।

 

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 यदि भगवानके लिये मनुष्यके प्रेममें प्राण भी सहयोग दे तो वह उस प्रेममें साहस, उत्साह, तीव्रता, पूर्णता, ऐकांतिकता, आत्मत्यागका भाव, समस्त प्रकृतिका संपूर्ण और आबेग्पूर्ण आत्मदान लें आता है । सच पूछा जाय तो भगवानके प्रति प्राणिक आवेग ही आध्यात्मिक वीरों, विजेताओं या हुतात्माओंको  उत्पन्न करतो है ।

 

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    मेरे विचारमें '' प्रेम '' शब्द '' सद्भाव' ' से कुछ अधिक तीव्र वस्तुको अभि

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व्यक्त करता है, सद्भावमें तो महज सामान्य पसंदगी या चाह सम्मिलित हों सकते हैं । पर चाहे प्रेम हों या सद्भाव, मानवीय भाव सदा ही या तो अहंकारपर आधारित होता है या उससे अत्यधिक मिला-जुला होता है, इसीलिये यह पवित्र नही होता । उपनिषदमें कहा है, ' 'व्यक्ति पलीको उसके पली होनेके कारण प्यार नही करता । '' - ( और इसी प्रकार बच्चों, मित्र आदिको भी) - ' 'बल्कि अपने स्वार्थके लिये वह पलीको प्यार करता है । '' साधारणतया बदलेकी, किसी प्रकारके लाभ अथवा आदानकी अथवा विशिष्ट मनोमय, प्राणमय या अन्नमय सुख एवं तृप्तिकी आशा व्यक्ति- को अपने प्रियसे होती ही है । इन आशाओंको हटा दो और प्रेम बहुत शीघ्र दब जायगा, क्षीण हो जायगा या लुप्त हो जायगा अथवा क्रोध, उपालंभ, उपेक्षा या पृणातकमे परि- वर्त्तित हों जायगा । पर इस प्रेममें एक अभ्यासका तत्त्व भी होता है, ऐसा तत्त्व जो प्रिय ब्यक्तिकी उपस्थितिको एक प्रकारसे अनिवार्य बना देता है, क्योंकि वह सदासे साथ रहा है -- और यह भाव कभी-कभी इतना दृढ होता है कि आपसमें स्वभावके पूर्ण वैषम्य, घोर विरोध तथा मृणातकके होनेपर भी बना रहता है और विरोधकी ये खाइयां भी दोनों व्यक्तियोंको पृथक् नहीं होने देती । कुछ लोगोंमें यह भावना कुछ हल्की होतीं है और कुछ समय बाद व्यक्ति अलग रहनेका अभ्यासी हो जाता है अथवा किसी दूसरेको स्वीकार कर लेता है । इसके अतिरिक्त, बहुधा एक प्रकारका स्वाभाविक आकर्षण या अनुरक्ति -- मानसिक, प्राणिक या भौतिक - भी होती है जो प्रेमको अधिकतर दृढ़ता प्रदान करती हे । अंतमें, उच्चतम अथवा गहनतम प्रेममें चैत्य तत्त्व होता हे जो अंतरतम हृदय एवं अंतरात्मासे उद्भूत होता है । यह एक प्रकारका आत- रिक मिलन अथवा आत्मार्पण होता है अथवा कम-से-कम इसे खोजता है, यह एक संबद या उत्प्रेरणा होता है जो अन्य अवस्थाओं अथवा तत्त्वोंसे स्वतंत्र होता है, जो स्वयं-सत् होता है और किसी मानसिक, प्राणिक अथवा शारीरिक सुख, संतुष्टि, स्वार्थ या अभ्यास- के लिये नहीं होता । किंतु मानवीय प्रेममें विद्यमान यह चैत्य तत्त्व, यदि कहीं होता भी है तो, सामान्यतया दूसरे तत्त्वोंके साथ इतना मिश्रित, उनसे इतना दबा हुआ और उनमें इतना छिपा हुआ होता है कि अपनेको फलीभूत करने अथवा अपनी स्वाभाविक पवित्रता और पूर्णता प्राप्त करनेका अवसर उसे नहीं मिलता । अतएव जिसे हम प्रेम कहते हैं वह कभी एक चीज होता है तो कभी दूसरी और बहुधा एक अव्यवस्थित मिश्रण होता है और इसीलिये तुम्हारे इस प्रश्ननका कि अमुक-अमुक अवस्थामें प्रेमका क्या अर्थ होगा, उत्तर देना लगभग असंभव हो जाता है । यह परिस्थितियों एवं व्यक्तियोंपर निर्भर करता है ।

 

     जब प्रेम भगवान्की ओर प्रवृत्त होता है तब भी इसमें यह सामान्य मानवी तत्त्व वर्तमान रहता है । व्यक्ति बदलेमें कुछ चाहता है और यदि बह वस्तु मिलती प्रतीत नहीं होती तो प्रेम क्षीण होने लगता है; स्वार्थ भी होता है, मानवकी अभिलाषाओंकों पूरा करनेवाले भगवान्की चाह भी होती है और यदि माँगें पूरी नहीं होतीं तो भगवान्- के प्रति मान-अभिमान पैदा होता है, विश्वास जाता रहता है, उत्कण्ठा नष्ट हो जाती है आदि-आदि । परंतु भगवानके प्रति सच्चा प्रेम अपने स्वभावमें ऐसा नहीं होता,

 

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बल्कि चैत्य एवं आध्यात्मिक होता है । चैत्य तत्त्व ब्यक्तिकी अंतरतम सत्ताकी, आत्मा- प्रण, प्रेम, भक्ति, अंतर्मिलनके लिये, सबसे बड़ी आवश्यकता है जो भगवान्द्वारा ही पूर्णत: संतुष्ट हो सकती है । आध्यात्मिक तत्त्व सत्ताकी अपने उच्चतम और पूर्ण आत्म-भाव तथा भगवानसे (जो कि सत्ता और चेतना और आनन्दके स्रोत हैं) संपर्क लाभ करने, उसमें लीन, उससे एकीभूत होनेकी मांग है । ये दोनों एक ही वस्तुके दो पक्ष हैं । मन, प्राण एवं शरीर इस प्रेमके पोषक एवं संग्राहक बन सकते हैं, पर वे पूर्णत: ऐसे तभी बनेंगे जब वे परिवर्त्तित होकर चैत्य एवं आध्यात्मिक तत्त्वोंके साथ एकरस ' हो जायंगे और अहंके निम्रतर आग्रहोंको अब अपने अंदर नही लें आयेंगे ।

 

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    भला तुम किसी असाधारण वस्तुकी चाह क्यों करते हों? अंतरात्माका प्रेम सत्य, सरल और पूर्ण वस्तु है -- बाकी चीज़ें केवल तभी अच्छी होती हैं जब वे अंत- रात्माके प्रेमको प्रकट करनेका माध्यम होतीं हैं ।

 

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      बाह्य सत्ताको भी अहंसे रहित होकर चैत्य पुरुषकी पद्धतिसे प्रेम करना सीखना होगा । यदि यह अहंपूर्ण प्राणिक ढंगसे प्रेम करता है तो यह केवल अपने लिये और साधनाके लिये और श्रीमाताजीके लिये कठिनाइयां ही पैदा करता है ।

 

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     श्रीमाताजीके साथ बालक जैसा संबंध वह है जो संपूर्ण, सरल और एकनिष्ठ विश्वास प्रेम और निर्भरताका संबंध है ।

 

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    जब तुम भगवानके पास आते हो, आंतरिक रूपसे भगवान्की ओर झुक जाओ और अन्य चीजोंसे अपनेको प्रभावित न होने दो ।

 

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    जिस चीजका वह वर्णन करता है वह है निज भावावेगों या उमंगोंकी तृप्तिके लिये अहंकी प्राणमय मांग; यह माया है । यह सच्चा प्रेम नही है, क्योंकि सच्चा प्रेम मिलन और आत्मदानकी स्पृहा करता है और ऐसा ही प्रेम व्यक्तिको भगवानके प्रति

 

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निवेदित करना चाहिये । यह प्राणिक (तथाकथित) प्रेम केवल दुख और निराशा ही लाता है । यह सुख नहीं लाता, यह कभी संतुष्ट नही होता । यदि इसे, जो चीज यह मांगता है वह, दे भी दी जाय तो भी यह उससे कदापि संतुष्ट नहीं होता ।

 

    प्राणमय मांगकी इस मायासे छुटकारा पाना पूर्णत: संभव हे, यदि कोई पाना चाहता हो; किंतु छुटकारा पानेकी इच्छा अवश्यमेव सच्ची होनी चाहिये । अगर उसकी इच्छा सच्ची हो तो वह निःसंदेह सहायता और संरक्षण प्राप्त करेगा । उसे प्राणिक केंद्रके स्थानपर चैत्य केंद्रको अपना आधार बनाना होगा ।

 

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    प्राणमय प्रेमका यह सामान्य स्वभाव है कि यह स्थायी नहीं होता अथवा, यदि यह स्थायी होनेका प्रयत्न करता है तो यह संतोष नहीं देता, क्योंकि यह एक वासना है जिसे प्रकृतिने एक क्षणिक उद्देश्यकी पूर्त्तिके लिये मनुष्यमें प्रक्षिप्त किया है । अतएव एक अस्थायी उद्देश्यके लिये तो यह काफी अच्छा है और इसका सामान्य स्वभाव यह है कि जब यह प्रकृतिके प्रयोजनको यथेष्ट मात्रामें पूरा कर चुकता है तो यह क्षीण होने लगता है । मनुष्यजातिमें, चूँकि मनुष्य अधिक जटिल प्राणी है, प्रकृति अपनी इस प्रवृत्तिको बल देनेके लिये कल्पना और आदर्शवादकी सहायता लेती है, इसे एक प्रकारके उमंगका, सौन्दर्य और सजीवता और गौरवका भाव प्रदान करती है, पर कुछ समय बाद वह सब कुछ मद पंड जाता हे । यह प्रेम टिक नही सकता, क्योंकि इसकी ज्योति और शक्ति संपूर्ण रूपसे उधार ली हुई होती हैं, इस अर्थमें उधार ली हुई होती हैं कि वे परेकी किसी वस्तुकी प्रतिबिंब होती हैं, उस प्रतिबिंबक प्राणमय वस्तुकी अपनी निजी शक्तियां नहीं होती जिसका उपयोग कल्पना अपने प्रयोजनके लिये करती है । सच पूछा जाय तो मन और प्राणमें कुछ भी स्थायी नही होता, वहां सब कुछ एक प्रवाह- मात्र होता है । एकमात्र वस्तु जो स्थायी है वह है अंतरात्मा, आत्मा । अतएव प्रेम केवल तभी स्थायी हो सकता या संतोष दे सकता है यदि वह अंतरात्मा और आत्मापर आधारित हो, यदि उसका मूल वहां हो । पर उसका अर्थ है अब प्राणमें न रह अपने अंतरात्मा और आत्मामें रहना।

 

     प्राणको अपने आग्रहोंको छोड़नेमें कठिनाई इसलिये होती इ कि वह बुद्धि या ज्ञानके द्वारा नही, बल्कि सहजप्रेरणा, आवेग और सुखेच्छासे शासित होता है । यह पीछे इस कारण हटता है कि वह निराश हो जाता है, वह अनुभव करता है कि निराशा सर्वदा पुनरावर्तित होती रहेगी, परंतु वह यह नहीं समझता कि सारी चीज ही अपने- आपमें एक माया है अथवा, यदि समझता है तो, वह शिकायत करता है कि उसे ऐसा ही होना चाहिये । जहां वैराग्य सात्तविक होता है, निराशासे उत्पन्न नहीं होता बल्कि महत्तर और सत्यतर वस्तुओंको प्राप्त करनेकी भावनासे उत्पन्न होता है वहां यह कठि- नाई नही होती । परंतु प्राण अनुभवसे सीख सकता है, इतना सीख सकता है कि वह मायामरीचिकाके सौंदर्यके लिये पश्चात्ताप करनेसे मुँह मोड ले । इसका वैराग्य

 

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भी सात्त्विक और निश्चयात्मक हों सकता है ।

 

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    प्राणगत प्रेमका आकर्षण चाहे जितना भी हो, एक बार जब वह छूट जाता है और मनुष्य एक उच्चतर स्तरपर पहुँच जाता है तब उस प्रेमको एक बहुत वडी चीजके रूपमे, जैसा कि मनुष्य उसे पहले समझता था, नहीं देखना चाहिये । उसे इस प्रकार अतिरंजित मूल्य देनेका अर्थ है उस उच्चतर वस्तुके प्रति होनेवाले आकर्षणसे अपनी चेतनाको पीछे हटा रखना जिसके साथ उस प्रेमका एक क्षण भी मुकाबला नही किया जा सकता । अगर कोई मनुष्य एक निम्न कोटिकी भूतकालकी बातके प्रति इस प्रकार- की अतिरंजित भावना बनाये रखे तो फिर इससे निश्चय ही एक उच्चतर भविष्यके लिये समस्त व्यक्तिका विकास साषित करना अधिक कठिन हो जायगा । निःसंदेह श्रीमाताजीकी यह इच्छा नहीं १ कि कोई भी मनुष्य प्राचीन प्राणगत प्रेमके प्रति अनु- रागपूर्ण आदरकी भावनाके साथ पीछेकी ओर नजर ले जाय । वस्तुओंके किसी भी सच्चे मूल्यांकनके अंदर वास्तवमें बह ' 'इसनी थोडी' ' सी चीज ही थी । यह बिलकुल हीं मुकाबला करनेका प्रश्न नहीं है और न एकके प्राणगत अनुरागको निर्मूल कर दूसरेके प्राणगत अनुरागको अत्यधिक मूल्य देनेका प्रश्न है । यह समस्त बात ही अपने मूल्यमें अवश्य क्षीण होती जानी चाहिये और भूतकालकी धुंधली रचनाओंके अंदर वापस चली जानी चाहिये जिनका अब कोई भी महताब नही है ।

 

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     तुम्हारी कठिनाई यह है कि तुम्हारे प्राणने अभीतक प्रेमके स्वयंभू आनन्दका रहस्य, प्रेमके अपने विशुद्ध सत्यके आनन्दका, निरपेक्ष रूपमें 'उसके आंतरिक सौंदर्यके, तथा अंतरकी चिरंतन आनन्दानुभूतिका रहस्य नहीं पाया है; वह अभीतक इसके अस्तित्वमें विश्वास हीं नहीं कर सका है । लेकिन बह उसकी ओर बढ़ रहा है और यह अविश्वासकी स्थिति शायद इस गतिकी एक अवस्था थी-भगवानके साथ एकात्म होनेकी जो पवित्रतम भावानुभूति है उसकी जानेके पथपर एक शुचितर प्राणिक भावानु- भ्तिकी खोज करनेकी अवस्था थी ।

 

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      मानवीय प्रेमके विपरीत, भागवत प्रेम गभीर, विशाल और प्रशांत होता है । इसके विषयमें सज्ञान होने तथा इसका प्रत्युत्तर देनेके लिये मनुष्यको अचंचल और विशाल होना चाहिये । उसे समर्पित हों जानेको ही अपना संपूर्ण लक्ष्य बना लेना चाहिये जिसमें वह एक पात्र और यंत्र बन सके - स्वयं उसमें जिस वस्तुको भरनेकी

 

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आवश्यकता है उस भागवत प्रज्ञा और प्रेमपर छोड़ देना चाहिये । उसे अपने मनमें इस बातका भी निश्चय कर लेना चाहिये कि वह यह आग्रह नहीं करेगा कि अमुक समय- के भीतर उसे अवश्य प्रगति करनी चाहिये, विकसित होना चाहिये, सिद्धि प्राप्त कर लेनी चाहिये । साधनामें जो भी समय लगे, उसे प्रतीक्षा करने, प्रयास जारी रखनेके लिये तैयार रहना चाहिये और अपने समूचे जीबनको केवल एकमेव वस्तु, स्वयं भग- वान्को पानेकी अीप्सामें और उनकी ओर उद्घाटनमें बदल देना चाहिये । अपने- आपको दे देना ही साधनाका रहस्य है, मांग करना और उसे प्राप्त करना नही । जितना ही अधिक मनुष्य अपनेको दे देता है उतना ही अधिक ग्रहण करनेकी सामर्थ्य बढ्ती हैं । परंतु उसके लिये समस्त अधीरता और विद्रोहको दूर भगाना होगा; न पाने, सहायता न आने, प्यार न पाने, यहांसे चले जाने, जीवनका या आध्यात्मिक प्रयासका परित्याग कर देनेके सभी सुझावोंका त्याग कर देना चाहिये ।

 

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    यदि प्रेम अखंड और पूर्ण हो तथा उसके साथ कोई भी प्राणगत मांग कभी न जुडी हुई हों तो विद्रोहके सुझाव नही आ सकते ।

 

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    कोई व्यक्ति अपने स्वभावमें दिव्य बन जानेपर ही दिव्यभावके साथ प्रेम कर सकता है; दूसरा कोई पथ नही है ।

 

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   प्रेम अपने-आपमें पर्याप्त है - इसे अंधेकी लाठीकी आवश्यकता नही होती । इस विषयमें वह श्रद्धा तथा अन्य प्रत्येक दिव्य शक्तिके जैसा ही है ।

 

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    मानव-प्रेम अधिकांशमें प्राणिक और भौतिक होता है जिसे कुछ मानसिक समर्थन प्राप्त होता है - यह एक स्वार्थहीन, उच्च और शुद्ध रूप और अभिव्यक्तिको केवल तभी प्राप्त हो सकता है जब कि इसे चैत्यका स्पर्श प्राप्त हो । यह सच है, जैसा कि तुम कहते हों, कि यह अधिकांश अवसरोंपर अज्ञान, आसक्ति, आवेग और कामना- का एक मिश्रण होता है । पर यह चाहे जो कुछ हो, जो मनुष्य भगवानके पास पहुँचना चाहता है उसे कभी मानव प्रेमों और आसक्तियोका बोझ अपने ऊपर नही लादना चाहिये, क्योंकि वे उसके लिये कितनी ही बेड़िया तैयार कर देते हैं और उसके पगोंको

 

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आगे बढ़नेसे रोकते हैं तथा उसे प्रेमके एकमात्र चरम विषयके ऊपर अपने हृदयावेगोंको एकाग्र करनेके बदले अन्य दिशामें मोड देते हैं ।

 

     अवश्य ही चैत्य प्रेम नामकी एक चीज है जो शुद्ध, मांगसे रहित, आत्मदानमें सच्ची है, परंतु जब मनुष्य एक-दूसरेके प्रति आसक्त होते हैं तब वह साधारणतया उतनी शुद्ध नही रह पाती । जव कोई साधना करता हो तब उसे इस चैत्य प्रेमके मिथ्याभिमानसे खूब सावधान रहना चाहिये - क्योंकि यह अधिकांश में किसी प्राणगत आकर्षण या आसक्तिके अधीन होनेके लिये एक आवरण और समर्थन होता है ।

 

    विश्व-प्रेम आध्यात्मिक होता है और वह स्थापित होता है सर्वत्र विद्यमान एक- मेवाद्वितीय और श्रीभगवान्के बोधपर तथा व्यक्तिगत चेतनाके आसक्ति तथा अज्ञानसे मुक्त होकर एक विशाल विश्वगत चेतनामें परिवर्त्तित हो जाने पर ।

 

   भागवत प्रेम दौ प्रकारका होता है - समस्त सृष्टि तथा जीवोंके लिये, जो स्वयं उसीक्रे अंग हैं, दिव्य प्रेम, तथा प्रेमी साधकोंका प्रेम और प्रेमास्पद भगवानके लिये प्रेम, इसमें वैयक्तिक और निवैंयक्तिक दोनों प्रकारके तत्त्व होते हैं, परंतु इसमें जो वैयक्तिक तत्त्व होता है वह सब प्रकारके निम्रतर तत्त्वोंसे अथवा प्राणगत और भौतिक सहजवृत्तियोके बधनसे मुक्त होता है ।

 

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     चैत्य प्रेम विशुद्ध तथा असंपूर्ण मांगोंसे शून्य आत्मदानके भावसे पूर्ण होता है, पर: यह मानवीय है और भूल कर सकता एवं कष्ट भोग सकता है । भागवत प्रेम उससे कही अधिक विशाल और गभीर वस्तु है तथा ज्योति और आनन्दसे भरपूर रहता है ।

 

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 भगवानका प्रेम वह है जो ऊपरसे आता है और भागवत एकत्व तथा उसके आनंद से मानव-सत्ताके ऊपर बरसता है -- चैत्य प्रेम भागवत प्रेमका एक रूप है जिसे वह मानव-चेतनाकी आवश्यकता और संभावनाओंके अनुसार मनुष्य-सत्ताके अंदर ग्रहण करता है ।

 

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     अंतरात्माका प्रेम और हर्ष भीतरसे चैत्य पुरुष से आते हैं । जो ऊपरसे आता है वह उच्चतर चेतनाका आनन्द होता है

 

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यदि प्रेम अपने उद्देश्यमें चैत्य हो तो वह सर्वदा एकत्वका बोध ले आता है अथवा कम-से-कम सत्ताके एक आंतरिक घनिष्ठ सामीप्यका बोध प्रदान करता है । भाग- वत प्रेम एकत्वपर आधारित होता है और चैत्य प्रेम भागवत प्रेमसे निःसृत होता है ।

 

 अगर चैत्य पुरुष भगवानके साथ युक्त हो जाय तो बह पृथक् नहीं हो सकता । पृथक्करणका अर्थ है एकत्वका अभाव । चैत्य अनुभूति है अनेकमेंसे एककी एकत्वके अंदर अनुभूति ( अंश और समग्र); यह समुद्रमें पानीकी एक बूंदकी तरह लय हो जाने- की अनुभूति नही है - क्योंकि तव तो किसी प्रेम या भक्तिका होना संभव नहीं होगा जबतक कि बह प्रेम स्वयं अपने लिये, भक्ति स्वयं अपने लिये ही न हो ।

 

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    मनुष्य अपनी प्रकृतिके व्यष्टिभावापन्न होनेके कारण अनिवार्यत: पृथक् होते हैं और वसा संपर्क स्थापित कर सकते हैं । चैत्य पुरुषमें मनुष्य चैत्य सहानुभूतिके द्वारा एकत्वका बने प्राप्त करता है, पर एकीभूत हो जानेका अनुभव नही प्राप्त करता, क्योंकि चैत्य व्यष्टिभावापन्न अंतरात्मा है और इसे सबसे पहले भगवानके साथ संयुक्त होना होगा और उसके बाद ही वह भगवानके द्वारा अन्योंके साथ संयुक्त हो सकता हैं । आध्यात्मिक अनुभूतिमें दो बिलकुल विपरीत विधाएं हैं - एक तो वह है जिसमें मनुष्य भगबानमें लीन हो जानेके लिये जगत्की समस्त बाह्य वस्तुओं तथा समस्त स्थूल स्थाओंसे अपनेको अलग कर लेता है और दूसरी वह है जिसमे मनुष्य सर्वमें आत्मा या भगवान्को अनुभव करता है और उस अनुभूतिके द्वारा विश्वके साथ एकत्वकी उपलब्धि करता है ।

 

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     जो प्रेम आध्यात्मिक स्तरोंसे संबंधित होता है बह भिन्न प्रकारका होता है - चैत्य पुरुषमें अपना निजी अधिक व्यक्तिगत प्रेम, भक्ति, समर्पणभाव होता है । उच्चतर या आध्यात्मिक मनका प्रेम अधिक वैश्व और निर्व्यक्तिक होता हैं । उच्चतम दिव्य प्रेमको अभिव्यक्त करनेके लिये इन दोनोंको एक साथ युक्त हो जाना चाहिये ।

 

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  वैश्व प्रेम सर्वदा वैश्व ही होता है - चैत्य प्रेम व्यक्तिभावापत्र हों सकता है ।

 

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    विश्व-प्रेम सबके साथ एकात्म होनेकी अनुभूतिपर निर्भर करता है । इस अनु- भूतिके बिना भी सबके लिये चैत्य प्रेम या सहानुभूति होसकती है ।

 

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   संबुद्ध मानस और अधिमानस साधारणतया मन की अपेक्षा कही अधिक भागवत प्रेमके सत्यके प्रति उद्घाटित होता है तथा प्रेमको विश्वव्यापी बनानेमें भी 'अधिक सक्षम होता है -- उन लोकोंमें प्रेम अपनी तीव्रावस्थामें मानसिक भागोंकी अपेक्षा अधिक स्थिर और कम अहं-बद्ध होता है । परंतु मनमें यदि चैत्य और आध्या- त्मिक प्रेम वर्द्धित हों तो मन भी उनकी तरहका प्रेम प्राप्त कर सकता है ।

 

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    मैं '' के प्रश्नको बिलकुल ही नही समझता । क्या वह यह पूछना चाहता हैं कि मनुष्य स्वयं दूसरोंके प्रति वैश्व प्रेम अनुभव करनेसे पहले सभी जिबोंके प्रति भाग- वत प्रेमको जान सकता है या नहीं? यदि उसका आशय यही है तो निश्चय ही मनुष्य स्वयं वैश्व प्रेम प्राप्त करनेसे पहले भागवत प्रेमके विषयमें सज्ञान हों सकता है -- वह अपने अंदर भगवानके साथ 'संपर्क प्राप्त करके भागवत प्रेमके विषयमें सचेतन हों सकता है । स्वभावत: हीं उसकी सज्ञानता प्राप्त होनेपर मनुष्यके अंदर सबके लिये वैश्व प्रेमका विकास हों जाना चाहिये । परंतु उसका आशय यदि वह प्रेम है जो दिव्य है, निम्रतर वृत्तियोंसे कलंकित नही है, तो यह सही है कि जबतक मनुष्यको शांति, पवित्रता, अहंसे मुक्ति, विशालता और वैश्व चेतनाकी ज्योति जो कि वैश्व प्रेमका आधार है, नही प्राप्त हो जाता तबतक उस प्रेमको पाना कठिन है जो सभी प्रकारके दोषों, सीमाओं तथा सामान्य मानवीय प्रेमके दागोंसे मुक्त है । जितना ही अधिक मनुष्य विश्वभावापत्र होता जाता है उतना हीं वह इन चीजोंसे मुक्ति पाता जाता है ।

 

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    अपने मूलमें सर्वके साथ एकत्वबोध एक ऐसी वस्तु है जो स्वयंसत् और आत्म- तुष्ट है और जिसे अभिव्यक्त होनेकी कोई आवश्यकता नही होती । जब यह प्रेमके रूपमें प्रकट भी होता है तो यह एक ऐसी वस्तु होता है जो विशाल और विश्वव्यापी, तीव्र होनेपर भी अक्षुब्ध और सुदृढ़ होता है । यह आधारभूत वैश्व एकत्वके अंदर विद्यमान रहता है । एक उपरितलीय विश्व-चेतना भी है जो वैश्व शक्तियोकी क्रीडाकी चेतना है -- यहा कोई भी चीज उठ सकती है, कामवासना भी । सच पूछा जाय तो इसी भागको पूर्णत चैत्यभावापन्न बनानेकी आवश्यकता है अन्यथा मनुष्य न तो इसे अधिकृत कर सकता, न बनाये रख सकता और न उचित ढंगसे इसके साथ

 

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व्यवहार कर सकता है ।

 

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    मनमें एकमेवकी उपलब्धि होनेपर मनमें एक प्रकारकी मुक्ति आती है या आनी चाहिये, परंतु यह संभव है कि प्राण और शरीर अपने आवेगके अधीन रहकर अपनी सामान्य वृत्तियोंका बनाये रखें -- क्योंकि वे अपने कार्यके लिये केवल अंशत: ही मनपर निर्भर करते हैं । वे यहांतक कि उसे बहा भी ले जा सकते हैं, 'हरन्ति प्रसव मनः ', अथवा वे मनके तर्क-वितर्क तथा असम्मतिके बावजूद भीकार्य कर सकते हैं । रोमन कवि इसे इस प्रकार कहता है: ' 'मैं उत्तमको देखता हूँ और उसका अनुमोदन करता हूँ, पर निकृष्टता अनुसरण करता हूँ' ' - गीताकी भाषामें कहा गया है, ' 'अनिच्छन्नपि बलादिव नियोजित: । '' अतएव यह आवश्यक है कि इस उपलब्धिको अपनी शांति और पवित्रताकी शक्तिके साथ ठोस रूपमें प्राण और शरीरतकमें उतर आना चाहिये जिससे कि प्राणिक क्रियाएं जब उठनेकी चेष्टा करें तो इसके द्वारा उनका मुकाबला किया जा सके और इसके स्वाभाविक दबावके कारण वे बने रखनेमें असमर्थ हो जायं ।

 

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     जबतक समूची चेतना सदिग्ध पदार्थसे शुद्ध न हों जाय और एकत्वकी अनुभूति चरम पवित्रताके साथ सुस्थापित न हों जाय तबतक सर्व-प्रेमको अभिव्यक्त होने देना उचित नही है । सच पूछा जाय तो इसे अपने अंदर धारण किये रहनेसे यह स्वभावका एक सच्चा अंग बन जाता है और अभी भी आनेवाली अन्य अनुभूतियोंके साथ युक्त हो जानेपर सुस्थापित और शुद्ध हों जाता है । अभी तो तुम्हें उसका महज एक प्राथमिक स्पर्श प्राप्त हुआ है और प्रकट करके उसका अपव्यय करना बहुत नासमझी होगी । कामकेंद्र और प्राण आसानीसे सक्रिय हो सकते है - मैं बहुत अच्छे योगियोंके उदाहरण जानता हूँ..... जिनमें विश्वप्रेम बदलकर विश्वकाम बन गया । ऐसी बात यूरोप और पूर्व दोनों जगहोंमें बहुतोंके साथ घटित हुई है । परंतु इसके अतिरिक्त भी इसे बाहर फेंक देनेकी अपेक्षा इसे ठोस और पुष्ट बनाना सर्वदा उत्तम है । जब साधना आगे बढ़ जाती है और प्रेमको आलोकित करने और पथ दिखानेके लिये ऊपरसे ज्ञान आता है तो फिर बात दूसरी हो जाती है । मैं जो समस्त रूपांतरित प्राणिक क्रिया- ओंके त्यागपर इतना बल देता हूँ यह अनुभवपर आधारित है - मेरे तथा दूसरोंके अनुभवपर तथा चैतन्यके वैष्णव आन्दोलन जैसे प्राचीन योगोंके अनुभवपर आधारित है जो (मैं प्राचीन बौद्ध सहज धर्मकी कोई चर्चा नहीं करता) अत्यधिक भ्रष्टाचारके कारण हीं समाप्त हो गया । विश्वप्रेमके जैसा कोई विशाल आन्दोलन केवल तभी चलाया जा सकता है जब कि प्रकृतिका क्षेत्र इसके लिये पक्के रूपमें तैयार कर लिया गया हों । दूसरोंके साथ तुम्हारे मिलने-जुलनेमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है, पर केवलn

 

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जाग्रत् मन और संकल्पके द्वारा सतत सतर्कता और संयम बनाये रखकर हीं ऐसा करना चाहिये ।

 

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     बोध ही प्रकृतिका रूपांतर करनेके लिये पर्याप्त नहीं है । आष्यात्मिक भाषामें 'पश्यति: ' का अर्थ केवल बोध नही है । बोध मनकी चीज है और मानसिक बोध पर्याप्त नहीं है - वास्तवमें सारी सत्तामें यथार्थ और सक्थि उपलब्धिका होना आवश्यक है । अन्यथा इन तीन चीजोंमेंसे कोई चीज घटित हों सकती हे । ( 1) मन एकरचका बोध प्राप्त करता है पर प्राणपर उसका कोई असर नही पड़ता, वह अपने आवेगोंके अनुसार चलता रहता है, क्योंकि प्राण विचार या तर्कके द्वारा नहीं बल्कि प्रवृत्ति, आवेग, कामना-शक्तिके द्वारा परिचालित होता है -- वह युक्तितर्कका उपयोग केवल अपनी प्रवृत्तियोंमें समर्थनके लिये ही करता है । अथवा, प्राण यह भी कह सकता है, ' 'सब कुछ एक ही सद्वस्तु है, इसलिये इससे कुछ नही आता- जाता कि मैं क्या करता हूँ । भला मैं अपने निजी तरीकेसे दूसरोंके साथ एकत्व प्राप्त करनेका प्रयास क्यों न करुँ?'' ( 2) यदि मनको अनुभव प्राप्त है, पर प्राण उसमें भाग नहीं लेता या उसे विकृत करता है तो फिर प्राण अपने निजी तरीकेपर आग्रह क्रूर सकता है अथवा मनको अपन साथ खींच भी ले जा सकता है । जैसा कि गीता कहती है, इंद्रियां (प्राण) ऐसे मुनिके मनको भी खींच ले जाती हैं जो देखता है, जैसे कि वायु तूफानी समुद्रपर जहाजको बहा ले जाती है । ( उ) आंतर सत्ताको प्रबल रूपमें अनुभूति प्राप्त हो सकतीं है और वह एकत्वमें, स्थिरता और शांतिमें निवास कर सकतीं है, पर बाह्य सत्ताके भीतरी भाग कामना आदिकी प्रतिक्रियाएं अनुभव कर सकते है । ऐसी हालतमें प्रतिक्रियाएं अधिक छिछली होती हैं; परंतु फिर भी जबतक वे बद नहीं हों जाती तबतक परित्याग करते रहना आवश्यक है । जब समग्र सत्ता स्थिरता, शांति, मुक्ति, एकत्व आदिकी ठोस अन्उभूतिमें निवास करती है तब कामनाएं झड़ जाती हैं और परित्यागकी आवश्यकता नही रहती, क्योंकि अब कोई चीज त्याग करनेके लिये नही रह जाती ।

 

*

 

 मानसिक अनुभूति (एकमेव आत्माकी अनुभूति) यह परिणाम ( मोह और शोकसे मुक्ति) नहीं ले आती, आध्यात्मिक अनुभूति ले आती है । वैदान्तिक अनुभव- मे,' 'देखने' ' का अर्थ ' 'हो जाना' ' भी है, मनुष्य वह एक आत्मा है, उसके साथ तदात्म है - प्रकृतिके सभी कर्म उसे उसी एक आत्माके ऊपर होनेवाली क्रिया प्रतीत होते हैं जिससे वह आत्मा स्वयं प्रभावित नहीं होता । इसलिये वहां न तो मोह होता हे और न शोक । ऐसा तभी होता है जब मनुष्य इस अनुभवको रख पाता है और जब

 

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यह पूर्ण होता है । यदि किसी व्यक्तिको यह अनुभव केवल किसी आंतरिक वस्तुके रूपमे ही प्राप्त होता है और प्राणकी क्रियाएं ऊपरी तलपर चलती रहती हैं तो भी ये क्रियाएं बाह्य और निस्सार मालूम होती हैं, वास्तवमें स्वयं अपने साथ उनका कोई सरोकार नहीं होता - अंतरस्थ आत्मा अस्पृष्ट, स्थिर, शोकरहित, शांत बना रहता है । यदि प्राण भी इस चेतनामें रूपांतरित हो जाय तो फिर ऊपरी तलपर भी शोकका होना असंभव हों जाता है ।

 

*

 

    सक्रिय प्रेम सबकी ओर एक समान नही जा सकता - उससे तो अधिकांश लोगोंकी तैयारी न होनेके कारण एक बड़ी गड़बड़ी और अस्तव्यस्तता उत्पन्न हों जायगी । केवल निष्क्रिय अक्षर वैश्व प्रेम हीं एक समान सबके लिये प्रयुक्त हों सकता है -- वह प्रेम जो हदयकी स्थिर विशालताके अंदर आता है जो मनकी स्थिर विशालता- से, जिसमें कि समता और अनंत शांति विद्यमान रहती है, मिलती-जुलती है ।

 

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    मनुष्य सबके साथ बातचीत कर सकता हे जबतक कि वैसा न करनेका उसके पास कोई कारण न हो । सबके साथ एकत्वका बोध एक आंतरिक अनुभव है, पर वह सबके साथ एक ही व्यवहार करनेके लिये बाध्य नही करता..... । यह वही हाथी ब्रह्म और महावत ब्रह्मकी पुरानी कहानी है । एक मौलिक अनुभूति है और फिर लीला- का विषमताए भी हैं -- दोनोंको अपने ध्यानमें रखना होगा ।

 

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    वास्तवमें यह प्राणिक प्रयास है जिसमें प्राण बदलेमें कुछ पानेकी अव्यक्त भावना- के साथ अपनेको उंडेल देता है । एकत्चर्कौ चेतना समस्त जीवनके पीछे विद्यमान रहनेवाली एक वस्तु हे और स्नेहके सभी रूप निस्संदेह उसीसे आते हैं, पर चेतन रूपमें नही., और जब प्राण प्रेमकी शक्तिकी क्रियाको अपने हाथमें ले लेता है जिसके यथार्थ या दिव्य स्वरूपके ??? वह अचेतन होता है तब वे रूप बदल जाते, कई चीजोंके साथ मिल जाते और विकृत हो जाते हैं ।

 

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 ठीक-ठीक यही चीज थीं जिसे '' ने करना चाहा था -- इस या उस व्यक्तिके संबंधमें प्रेमको अभिव्यक्त करना । परंतु वैश्व प्रेम व्यक्तिगत नही होता - उसे चेतना

 

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की एक शर्त्तके रूपमें अपने अंदर धारण कर रखना होता है जिसका परिणाम भागवत संकल्पके अनुसार होता है अथवा जो उस संकल्पके द्वारा आवश्यकता होनेपर व्यवहृत होता है । पर अपने व्यक्तिगत संतोष अथवा दूसरोंके संतोषके लिये उसे चारों ओर व्यक्त करते फिरना केवल उसे नष्ट करना और उसे खो देना है ।

 

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 पहले जब कभी हदयका उद्घाटन हुआ तो तुमने उसे प्राणिक भोगोंके साथ जोड़ना आरंभ कर दिया और भगवान्की ओर प्रेमको मोड़ने और उसकी मौलिक पवित्रताको बनाये रखनेकी जगह उसे तुमने औरोंकी ओर मोड़ा - वैसे ही जब उच्चतर चेतना नीचे उतरी तो उसे भी तुमने मानसिक क्रियाओंमें बिखेर दिया । इस बार वे दोनों चीज़ें अधिक विशुद्ध रूपमें आ रहीं थीं, पर अभी भी यह खतरा है कि मान- सिक और प्राणिक शक्तियां कहीं उन्हें पकड़ न लें और तब संभव है कि उन दोनोंका आना रुक जाय या समाप्त हो जाय । अतएव इस बार तुम्हें सावधान रहना चाहिये और किसी प्रकारकी मानसिक बिज्यूतिको न आने देना चाहिये ।

 

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    एक दार्शनिकके रूपमें मैनई मैक टैगर्ट (Mc. Taggart) का नाम सुना है, पर उनके विचारों तथा उनके लेखोसे मैं संपूर्णत: अपरिचित हूँ; अतएव किसी निश्चय- ताके साथ तुम्हें उत्तर देना मेरे लिये थोड़ा कठिन है । यदि उन विचारों और वाक्यों- को विचारकके देखनेकी संपूर्ण पद्धतिकी पृष्ठभूमिमें रखकर न देखा-समझा जाय, पृथक्-पृथक् देखा जाय तो आसानीसे गलतफहमी हो सकती है । फिर, जय कोई आध्यात्मिक जिज्ञासु या योगी (कभी-कभी) दर्शनकी भाषामें कुछ कहता है और कोई बौद्धिक विचारक (कभी-कभी या अंशत:) रहस्यवादकी भाषामें बोलता है तो दोनोंके दृष्टिकोण और पद्धतिमें सर्वदा बहुत अंतर होता है । एक तो आध्यात्मिक या गुह्य अनुभवसे अथवा कम-से-कम अंतर्ज्ञानात्मक अनुभवसे आरंभ करता ३ और उसे तथा अन्य आध्यात्मिक या अंतर्ज्ञानात्मक सत्यके साथके उसके संबंधको मनकी अपर्याप्त तथा अत्यंत अमूर्त्त भाषामें प्रकट करनेका प्रयत्न करता है । वह विचार और अभिव्यंजनाके पीछे किसी आध्यात्मिक या अंतर्ज्ञानात्मक अनुभवको खोजता है जिसकी ओर वह संकेत कर सके और, यदि वह किसी ऐसे अनुभवको नही पाता तो वह, विचार चाहे बौद्धिक दृष्टिसे जितना भी सुन्दर हो, अथवा अभिव्यंजना चाहे बौद्धिक दृष्टिसे जितनी भी अर्थपूर्ण हो, उन दोनोंको ही आध्यात्मिक तत्त्वसे शून्य होनेके कारण सारहीन अनुभव करनेको इच्छुक होता है । बौद्धिक विचारक भावना- ओ तथा मानसभावापन्न अनुभवोंसे और अन्य मानसिक या बाह्य व्यापारोंसे आरंभ करता है तथा उनके अंदर या पीछे विद्यमान मूल सत्यतक पहुँचनेका प्रयास करता है ।

 

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साधारणतया वह एक मानसिक विविक्त विचारणापर ही आकर अथवा किसी ऐसी चीजके एक गौण मानसिक अनुभवपर ही आकर रुक जाता है जो अपने स्वरूपमें मानसिकसे भिन्न होती हे । परंतु कहीं उसमें यदि सच्चा रहस्यवादी हो तो वह, कभी- कभी, कम-से-कम परेकी चमकों और झाकियोंतक पहुँच जायगा । क्या इस पद्धति- की विवशता वह चीज नही है ( मेरा मतलब है बौद्धिक दर्शनकी पद्धतिकी अक्षमता, शब्द और विचारके अंदर उसका स्थिर हों जाना, जब कि पूर्ण रहस्यवादीके लिये शब्द और विचार केवल उरायोगी रूपक अथवा अर्थद्योतक क्षणिक दीप्तिया हैं) जिसने मैक टैगर्टको अपने अंदरके रहस्यवादीको प्रकट करनेसे रोका है, जैसे कि वह बहुतोंको रोकती है श यदि आलोचक सही है तो, यही कारण है कि मैक टैगर्ट इतना गूढू और नीरस है, जब कि उसके विचारोंमें जो कुछ सुंदर और प्रभावशाली है वह संभवत: कोई ऐसी ज्योति होगी जो अभिव्यंजनाके अयोग्य साधनोंके बालवृंद,--जिसके लिये दार्शनिक विचारक हमारी निंदा करते है,-भीतरसे चमकती है । परंतु, इस थोडी लंबी चेतावनीके अधीन, मैं उन उद्धत वाक्यों या संक्षिप्त विचारोंपर विचार प्रकट करनेका प्रयास करूँगा जिन्हें तुमने अपने पत्रद्वारा मेरे सामने रखा है ।

 

        "चरम सद्वस्तुमें आत्माओंका मुख्य कार्य प्रेम', : मुझे यह बात थोडी अतिरिक्त प्रतीत होती है । यदि ' 'मुख्य कार्य' ' के बदले ' 'एक मौलिक शक्ति' ' कहा गया होता तो चल सकता था । स्वयं मैं यह कहूँगा कि आनन्द और एकत्व चरम सद्वस्तुकी मौलिक स्थितियां हैं, और आनन्द और एकत्वकी अत्यंत विशिष्ट सक्रिय शक्तिके रूप- मे प्रेमको मुख्य रूपसे उनकी क्रियाओंको सहारा देना तथा रंग प्रदान करना चाहिये; परंतु क्रियाएं अपने-आपमें एक ही मुख्य प्रकारकी नही बल्कि स्वभावमें बहुविध हों सकती है ।

 

    ' 'उदारता और सहानुभूति' '. मानसिक अनुभवमें उदारता और सहानुभूति- को प्रेमसे पृथक् करना होगा; परंतु मुझे ऐसा लगता है कि विभाजक मनके परे, जहां एकत्वका सच्चा बोध आरंभ होता हे, ये अपनी क्रियाकी एक उच्चतर तीव्रतापर पहुँच- कर प्रेमके विशिष्ट गुण बन जाती हैं । उदारता प्रेमद्वारा आरोपित एक तीव्र दबाव बन जाती है जिसमें कि सर्वदा प्रेमास्पदकी भलाई करनेका प्रयास किया जाय, सहानुभूति प्रेमवश उत्पन्न यह अनुभूति बन जाती हे कि हम प्रेमास्पदकी सभी गतिविधियों तथा उससे संबंधित सभी चीजोंको अपनी सत्ताके अंगके रूपमें ग्रहण करते हैं, अपने अन्दर धारण करते हैं और उनमें हिस्सा बंटाते हैं ।

 

       ' 'प्रेम सत्य है और उसका कारण चाहे महान् हो या तुच्छ वह अपनेको पूर्णतः सत्य सिद्ध करता है' ' : यह बात मानव-व्यवहारमें बहुधा सत्य नही उतरती; क्योंकि वहां प्रेमकी भवितव्यता और उसका औचित्य साधारणतया बहुत कुछ ( यद्यपि सर्वदा नहीं) उसके कारण या उद्देश्यके स्वरूपपर निर्भर करता है । क्योंकि प्रेमका उद्देश्य यदि इस अर्थमें तुच्छ हो कि वह एकत्वके बोधकी सक्यि उपलब्धिके लिये, जो कि मैक टैगर्टके कथनानुसार प्रेमका सारतत्त्व है, एक अनुपयुक्त यंत्र हो तो प्रेमके अपनी चरितार्थतामें असफल होनेकी संभावना है । हां, निस्संदेह, यदि यह प्रेम केवल होने-

 

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से ही संतुष्ट हों, अपने निजी मौलिक ढंगसे अपने-आपको प्रेमास्पदपर खपा देनेसे ही संतुष्ट हो, अपने-आपको खपा देनेके किसी बदलेकी, किसी पारस्परिक एकीकरणकी आशा न करे तो बात दूसरी है । फिर भी, तत्त्वतः प्रेमका जो वर्णन है वह सत्य हो सकता है: परंतु उस स्थितिमें वह वर्णन इस तथ्यकी ओर संकेत करेगा कि प्रेम अपने मूलमें राका स्वयं-सत् शक्ति है, एक निरपेक्ष, एक परात्पर (जैसा कि मैंने कहा है) वस्तु है, और वह अपने विषयोंपर निर्भर नहीं करता - वह एकमात्र अपने-आपपर अथवा एक- मात्र भगवानपर निर्भर करता है; कारण वह भगवान्की एक स्वयं-सत् शक्ति है । यदि वह स्वयं-सत् न होता तो वह अपने विषयोंके स्वभाव या प्रतिक्रियासे कदापि स्वतंत्र न होता । यह अंशत: वह चीज है जिसे मैं परात्पर प्रेम कहता हूँ - यद्यपि यह उसकी परात्परताका केवल एक रूप है । वह स्वयंभू परात्पर प्रेम सबके ऊपर फैल जाता है सर्वत्र धारण करने, आलिंगन करने, युक्त होने, सहायता करने, प्रेम और आनन्द और एकत्वकी ओर उठा ले जानेके लिये मुंड जाता है और इस तरह विश्वव्यापी दिव्य प्रेम बन जाता है; अपने-आपको पानेके लिये, सक्रिय एकत्वको प्राप्त करनेके लिये अथवा यह? जीवका भगवानके साथ मिलन सिद्ध करनेके लिये जब यह किसी एक या दूसरे- पर तीव्र रूपसे एकाग्र हो जाता है तो यह व्यक्तिगत दिव्य प्रेम बन जाता है । परंतु दुर्भाग्यवश मानव मन, मानव प्राण और मानव शरीरमें आकर यह कई प्रकारके अशुद्ध रूप ग्रहण कर लेता है; यहां प्रेमका दिव्य तत्त्व सहज ही नकली रूपोंके साथ मिलजुल जाता है, धीमा हों जाता, प्रच्छन्न हो जाता अथवा विभाजन और अज्ञानसे प्रसूत टेढी- मेढी क्रियाओंमें खो जाता है ।

 

          ' 'प्रेम और आत्मसम्मान' ' : यह सुननेमें बड़ा उच्च प्रतीत होता है, पर साथ ही रुक्ष भी प्रतीत होता है, प्रेमिके अंदरका यह ' 'भाव' ' बहुत '' भावपूर्ण' ' नही प्रतीत होता, यह मानो किन्हीं भावमय तरगोंके प्रवाहसे बहुत ऊपर गगनचुबी न्यायवाक्योंका व्यवहार करना है । इस अर्थमें या किसी गभीरतर अर्थमें प्रेमसे आत्मसम्मानका भाव उदित हों सकता है, पर यह उसी भांति ज्ञानमें, शक्ति-सामर्थ्यमें अथवा अन्य किसी भी चीजमें भाग बेंटानेपर आ सकता है जिसे मनुष्य उच्चतम श्रेय अथवा उच्चतमका सारतत्त्व समझता है । परंतु प्रेमका भाव, प्रेमकी आराधना एक बिलकुल भिन्न, यहांतक कि एक विपरीत भावको भी उत्पन्न कर सकती है । विशेषकर भगवानके अथवा जिसे वह दिव्य समझता है उसके प्रेममें भक्त प्रेमास्पदके लिये तीव्र आदरभाव अनुभव करता है. उसे ऐसा बोध होता हैं मानो वह कोई महान् मह्त्वकी, सौंदर्यकी या मूल्यकी वस्तु हों और अपने लिये उसमें यह प्रबल धारणा होती है ?? बह अपने प्रेमास्पदके मुक़ाबिले बड़ा अयोग्य हैं और वह जिसकी आराधना करता है उसके जैसा बन जानेकी उसमें तीव्र आकांक्षा होती है । प्रेमके उमड़नेपर बहुत बार ऐसा जरूर होता है कि साधक एक प्रकारके आनन्दोल्लास, अंतरमें एक प्रकारके उत्कर्षसाधन, अपने स्वभावमें नवीन शक्तियों और उच्च या सुन्दर संभावनाओं या प्रकृतिमें प्रकारकी तीव्रताके आनेका बोध प्राप्त करता हैं, पर यह चीज ठीक आत्मसम्मान- का बोध नही है । एक गभीरतर आत्मसम्मानके भावका आना संभव है जो एक सच्चा

 

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भाव है, जिसमें साधक एक पूजाकी वस्तुके रूपमें अथवा परम प्रेमास्पदकी आंतरिक उपस्थितिके स्वयं मंदिरके रूपमें अपने अंतरात्माके, यहांतक कि मन, प्राण और शरीर- के मूल्य-महत्त्व और पवित्रताको भी अनुभव करता है ।

 

     ये प्रतिक्रियाएं घनिष्ठ रूपमे इस तथ्यसे संबंधित हैं कि प्रेम, जब यह इस नामके योग्य होता है, सर्वदा मिलनकी, एकत्वकी खोज होता है, परंतु अपने गुह्य आधारमें भी यह भगवान्की एक खोज है, भले ही कभी-कभी यह केवल एक अस्पष्ट टटोलना ही होता है । अपनी गहराईमें प्रेम स्वयं अपने अंदर विद्यमान भागवत संभावना अथवा सद्वस्तुका प्रेमास्पदके अंदर विद्यमान भागवत संभावना या सद्वस्तुके साथ एक संपर्क है । सच पूछा जाय तो इस गुणकों स्थापित करने या बनाये रखनेकी अक्षमता ही मानव-प्रेमको या तो क्षणस्थायी बना देती या इसके पूर्ण अर्थवत्तासे शून्य बना देती है अथवा मानव आधारकी क्षमताके अनुसार एक क्षीण, एक कम उल्लासपूर्ण क्रियामें डूब जानेका दंड दे देती है । परंतु वहां मैक टैगर्ट अपनी संरक्षक शर्त्त उपस्थित करते हैं, ' 'जब मैं प्रेम करता हूँ, मैं दूसरेको उस रूपमें नही देखता जैसा कि वह अभी है ( और इसलिये वह वास्तवमें नही है )र, बल्कि जैसा कि वह वास्तवमें है ( अर्थात्, जैसा वह होगा) । '' इसका बकिा अंश जिसमे वह कहता है कि '' अपने सारे दोषोंके साथ दूसरा किसी प्रकार अनंत रूपसे भला है --कम-से-कम अपने मित्रके लिये, ' ?मुझे अत्यत मार्नासेक वक्तगा प्रतीत होता है जो आध्यात्मिक आंतर मूल्योंकी दृष्टिसे बहुत निश्चित रूपसे कुछ भी नहो व्यक्त करता । परंतु उद्धत सूत्र भी आद्योपांत सुस्पष्ट नहीं है । मेरी समझमे उसका अर्थ कुछ-कुछ वही है जिसे विवेकानन्दने आपातदृष्ट मनुष्य और सच्चे मनुष्यके बीचका भेद कहा है; अथवा यह कुछ हदतक वेदांतके एक प्राचीन गुरु, याज्ञवल्लके इस कथनके साथ मिलता-जुलता है कि अस्त्रीक लिये स्त्री ( अथवा, मित्र,-- क्योंकि स्त्री सूचीकी ।केवल पहली वस्तु है) प्रिय नही है, बल्कि आत्मा (महत्तर आत्मा, अंतरस्थ जीवात्मा) के लिये वह प्रिय है । '' परंतु याज्ञवल्लने, एकमेव (बहु नही) ब्रह्मका साधक होनेके कारण उस बातको स्वीकार न किया होता जो मैक टैगर्टके वाक्यमें निहित है, उन्होंने कहा होता कि मनुष्यको परे जाना होगा और अतमें स्त्री या मित्रमें अवस्थित आत्माको नहीं खोजना होगा -- यद्यपि कुछ समय उसे वहां खोजा गया हे -- बल्कि आत्माको उसकी अपनी आत्मसत्तामें खोजना होगा । जो हो, ऐसा तगना है कि यहा यह स्पष्ट घोषणा की गयी है कि वास्तवमें मनुष्य नही (जो कुछ कि वह अभी है) बल्कि अंतरस्थ भगवान् अथवा भगवानका एक अंश ( तुम चाहो तो इसे ईश्वर कहो अथवा केवल ब्रह्म कहो) प्रेमका विषय है । परंतु योगी मैक टैगर्टकी तरह उस ' 'होगा' ' से संतुष्ट नही होगा - किसी अप्राप्त अनतके लिये सांतके प्रेममें बंधा रहना स्वीकार नही करेगा । वह तो यह आग्रह करेगा कि भगवान् अपने-आपमे जो कुछ हैं उनकों अथवा अभिव्यक्त भगवान्को प्राप्त करनेके लिये, उनकी पूर्ण उपलब्धिके लिये दौड पड़ा जाय, वह अपने-आपसे अचेतन, अनभि- व्यक्त या केवल सुदूर संभावनाका रूपमें विद्यमान भगवान्से संतुष्ट नहीं रहेगा ।

 

    इसमें ऐसा स्थल हैं जहां इष्ट देवताके साथ सादृश्यकी बात, जैसा कि तुम सूचित

 

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करते हो, ठोक नहीं उतरती  क्योंकि इष्ट देवता, जिसपर साधक एकाग्र होता है, भगवानका एक सचेतन व्यक्ति-रूप होता है जो साधकके निजी व्यक्तित्वकी आवश्यकताकों पूरा करता है और उसे एक प्रतिनिधि मूर्त्तिके अंदर यह दिखाता है कि भगवान् क्या है अथवा कम-से-कम अपने द्वारा उसे परब्रह्मका संकेत देता है । दूसरी ओर, जब मैनई भागवती शक्तिके अपनी तप-क्रियामें आत्मलीन होनेकी बात कही तब मैं यह समझानेकी चेष्टा कर रहा था कि भागवत वैश्व अभिव्यक्तिके अन्दर इस आपात- दृष्ट निश्चेतन जडतत्त्वके प्रादुर्भावकी संभावना है । मैंने कहा था कि सम्मुखीन क्रिया- के अंदर भगवानका कुछ अंश ऐसा था जिसने अपनेको इतनी अधिक एकाग्रताके साथ स्थूल आकारमें फेंक दिया कि वह गति और आकार बन गया जिसे शक्तिकी गतिउत्पत्र करती है और उसके पीछे उस सबको रख देती है जो वह नहीं था,-ठीक जैसे कि, बल्कि कही अधिक मात्रामें और कही अधिक स्थायित्वके साथ, एक मनुष्य जो कुछ करता, देखता या बनाता है उसमें एकाग्रता कर सकता और अपने निजी अस्तित्वको भूल सकता है । स्वयं मनुष्यमें भी, जो निश्चेतन नहीं है, यह एक दूसरे रूपमें दिखायी देता है; उसकी सामनेकी सत्ता यह नहीं जानती कि उपरितलीय व्यक्तित्व और कर्म- के पीछे क्या है, जैसे अभिनेताकी सत्ताका जो भाग भूमिका अदा करनेवाला बनता है वह अभिनेताके पीछे विद्यमान अधिक स्थायी 'स्व' को पूर्णतया भूल जाता है । परंतु दोनों ही अवस्थाओंमें पीछेकी ओर एक वृहत्तर 'स्व है, ' 'निश्चेतन वस्तुओंमें एक चेतन सत्ता' ' है, जो स्वयं अपने विषयमें तथा जीव-रूपमें दृष्ट आत्मविस्मृत सम्मुखीन आकारके विषयमें सचेतन होता हैं । क्या मैक टैगर्ट इस अंतरस्थ सचेतन भगवान्को स्वीकार करते हैं? वह इस परम (प्त०?81?णै०) या वास्तविक आत्माको बहुत कम हीं महत्त्व देते हैं जो, जैसा कि वह फिर भी देखते हैं, अवास्तव या कम वास्तव बाह्य रूपमें विद्यमान है । उन्होंनें भगवान्को अस्वीकार इसलिये किया है कि उनका मन और प्राणिक स्वभाव मित्रके ऊपर, जैसा कि वह है, आग्रह करता है, यद्यपि उनका उच्चतर मन उनका मित्र जो कुछ होगा उसके विचारकी सहायतासे उस आग्रहसे बचनेकी कोशिश कर सकता है । अन्यथा उनके प्रतिपाद्य विषयमें जो यह विशाल- काय अतिरंजना है कि जीवनमें एकमात्र यथार्थ वस्तु है मित्रका प्रेम और भगवानको अवसर देनेकी जो अनिच्छा है और यह डर है कि कही वह मित्रको उठा न ले जाय और उसके स्थानमें भगवान्को न रख जाय, इसे समझना कठिन है ।

 

      मैं बिलकुल नहीं समझ पाता कि आखिर 'परम' (absolute) के विषयमें उनकी परिकल्पना क्या है । यह कैसे कहा जा सकता है कि भिन्न-भिन्न आत्माओंका समाज (?) समष्टिरूपसे 'परम' (absolute) है? यदि इसका मतलब यह हों कि जहां सज्ञान मुक्त आत्माओंका एक संघ होता है वहां भगवान् उपस्थित रहते है और उनकी एक विशेष अभिव्यक्तिका होना संभव होता है,--तो यह बात समझमे आने योय है । अथवा, यदि समाजका अर्थ केवल यह हों कि समस्त पृथक्-पृथन् आत्माओंका जोड़ या समष्टि ही भगवान् है और ये पृथक्-पृथक् आत्मा भगवानके अंश हैं तो यह भी समझमें आने योग्य ( सर्वेश्वरवादी) समाधान है । केवल, वह

 

२७२


 'परम' की अपेक्षा कोई दिव्य 'सर्व' अथवा किसी प्रकारका विश्वात्मा या ब्रह्म होगा । यदि कोई 'परम' हों - जिसे बौद्धिक रूपसे स्वीकार करनेके लिये हम बाध्य नही हैं, हां, बस उच्चतर मनकी कोई वस्तु अनिवार्य रूपसे उसकी मांग करती प्रतीत होती है या यह अनुभव करती है कि वह है -- तो वह निश्चय ही अपनी निजी परम सत्तामें विराजमान होगा,--निर्मित नही होगा, अपनी सत्ताके लिये विभिन्न आत्माओंकी समष्टिपर निर्भर नही होगा, बल्कि स्वयं-सत् होगा । बुद्धिके लिये ऐसा 'परम' एक अवर्णनीय 'क्ष' ( अज्ञात वस्तु) है जिसे वह नही समझ सकती, बल्कि जब रहस्यवादी या आध्यात्मिक अनुभव काफी दूरतक आगे जाता है तो वह अतमें उसके पास पहुँचा देता है और अनुभवका दरवाजा चाहे जो हो जिससे कि हम उसकी प्रथम झाकि पाते हैं, वह वहां होता ही है भले ही हम उस आरभिक अनुभवमें उसे पूर्णत: भी न पकड़ सकें ।

 

      तुम कहते हो कि तुम्हारे अपने अनुभवमें यह ऐसा था मानो सांतके अंदर अनंत- का विस्फोट हों -- एक महत्तर शक्तिका विस्फोट हो जो नीचे तुम्हारे ऊपर उतर आयी हों अथवा अपने पास तुम्हें ऊपर उठा ले गयी हों । निस्संदेह, यहीं वह चीज है जो आध्यात्मिक अनुभवमें सर्वदा घटित होती है -- और यही कारण है कि मैं इसे 'परात्पर' कहता हूँ । यह ऐसी हीं एक अवतरित होनेवाली और ऊपर उठानेवाली दिव्य शक्तिके रूपमें अथवा अवतरणशील और उन्नयनकारी प्रेम -- अथवा ज्योति, शांति, आनन्द, चैतन्य, उपस्थिति आदिके रूपमे प्रकट होती है । यह सांतके अंदर होनेवाली अपनी अभिव्यक्तिसे सीमित नही होती,--मनुष्य इसे, शांति, शक्ति, प्रेम, ज्योति या आनन्द या उपस्थितिको, जिसमें ये सब होते हैं, स्वयंसत् अनतके रूपमें अनु- भव करता है, यहां इसके विषयमें जो हमारा प्रथम दर्शन होता है उससे निर्मित या सीमित वस्तु नही है । मित्रोंके प्रति मैक टेगर्टका प्रेम ही उनके लिये एकमात्र यथार्थ वस्तु बना रहा, मैं मान सकता हूँ कि उन्हें यह झांकी नहीं प्राप्त हुई थी । परंतु एक बार जब यह विस्फोट, यह अवतरण और उन्नयन, घटित हो जाता है तो वह अतमें एक यथार्थ वस्तु बन जानेके लिये बाध्य होता है, क्योंकि एकमात्र उसीके द्वारा बाकी चीजे अपने निजी स्थायी महत्तर सत्यको प्राप्त कर सकतीं हैं । यही वह भागवत चेतना- का अवतरण और उसके अंदर आरोहण या उन्नयन है जिसकी चर्चा हम अपने योगमें करते हैं । अन्य सभी वस्तुएं केवल तभी ठीक उतरती, सफल होती और अपनेको चरितार्थ करती हैं जब कि वे इस दिव्य अनुभूतिका या उसकी अभिव्यक्तिका एक अंग बननेके लिये ऊपर उठ सकती हैं, और, वैसा करनेके लिये उन्हें एक महान् रूपांतर और सिद्धिको स्वीकार करना होगा । परंतु केंद्रीय उपलब्धि ही एकमात्र केंद्रीय लक्ष्य होनी चाहिये और वास्तवमें एकमात्र वह उपलब्धि ही अन्य चीजोंको संपादित करेगी, उन सब चीजोंको संपादित करेगी जो उसका अंग बननेके लिये अभिप्रेत हैं, दिव्यता संभव हैं ।

 

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II 

 

     भक्तिका स्वभाव है उस सत्ताकी आराधना, पूजा करना और उसके प्रति आत्म- दान करना जो हमसे महत्तर है; प्रेमका स्वभाव है सामीप्य यामिलनकाअनुभव करना या उसके लिये प्रयत्न करना । आत्मदान दोनोंका ही गुण है; ये दोनों ही योगमें आवश्यक हैं और जब ये दोनों एक-दूसरेको सहारा देते हैं तो दोनों हीं अपनी पूर्ण शक्ति- को प्राप्त करते हैं ।

 

*

 

    भक्ति कोई अनुभूति नही है, यह हृदय और अंतरात्माकी एक अवस्था है । यह वह अवस्था है जो चैत्य पुरुषके जागृत और प्रमुख होनेपर आती है ।

 

 

    अहैतुकी भक्तिके मार्गमें प्रत्येक वस्तु भक्तिका साधन बनायी जा सकती है - उदाहरणार्थ, काव्य तथा संगीत केवल काव्य और संगीत तथा भक्तिकी अभिव्यंजनामात्र ही नही रहते, बल्कि ये स्वयं प्रेम एवं भक्तिका अनुभव करानेवाले साधन बन जाते हैं । स्वयं ध्यान भी मानसिक एकाग्रताका प्रयत्न ही न रह प्रेम और उपासना और पूजाका एक प्रवाह बन जाता है ।

 

*

 

    इस योगमें केवल आंतरिक पूजा और व्यान करनेकी हीं कोई सीमा नही बांध दी गयी है । चूँकि यह समस्त सत्ताका योग है, केवल आतर सत्ताका ही योग नही है, ऐसा कोई प्रतिबंध अभीष्ट नहीं हो सकता । विभिन्न धर्मोंके पुराने रूप झड़ जा सकते हैं, पर समस्त रूपोका न होना साधनाका नियम नहीं है ।

 

 ये मनद्वारा निर्मित अतिरंजनाएं हैं जिनमें सत्यके एक पक्षको ग्रहण किया जाता और दूसरे पक्षोंकी अबहेलना की जाती है । आंतरिक भक्ति मुख्य वस्तु है और उसके बिना भाती?संबंधी बाह्य बातें महज एक बाह्यांचार और कर्मकांड बन जाती हैं, पर बाह्य बातोंका भी अपना स्थान और उपयोग है. जब कि वे ऋजु और सच्ची हो ।

 

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    बाह्य पूजाका तात्पर्य क्या है ' यदि वह विशुद्ध रूपमे बाह्य हों तो निस्संदेह वह निम्रतम रूप है परंतु उसे यदि सच्ची चेतनासे किया जाय तो वह उपासनाको महत्तम संभावनीय परिपूर्णता प्रदान कर सकतीं है जिसमें शरीर और अत्यंत बाहरी चेतना भी पूजाके भाव और कार्यमें भाग लेनेका अवसर प्राप्त कर सकती है ।

 

*

 

    फोटो तो महज एक बाहन है -- परंतु तुम्हें यदि यथार्थ चेतना प्राप्त है तो तुम उसमें जीवत सत्ताका कुछ अंश ले आ सकते हों या उस सत्ताके विषयमें अभिज्ञ हों सकते हो जिसका वह चित्र है और उसे उसके साथ संपर्क स्थापित करनेका साधन बना सकते हों । यह ठीक मंदिरमें स्थापित मूर्त्तिमें प्राणप्रतिष्ठा करनेकी जैसी बात है ।

 

*

 

     जो कुछ तुम कहते हो वह निस्संदेह सही है, पर यह कही अधिक अच्छा है कि उस अवलंबको न हटा दिया जाय जो अभी वैसे लोगोंकी श्रद्धाके लिये वहां है जिन्हें वैसे अवलंबोंकी आवश्यकता होती है । ये सूक्ष्म दर्शन और म्र्त्तियां और अनुष्ठान इसकी लिये हैं । यह एक आध्यात्मिक सिद्धांत है कि किसी श्रद्धाको या श्रद्धाके आधार- को तबतक नहीं हटाना चाहिये जबतक कि उसे रखनेवाले लोग उसके स्थानमें किसी विशालतर और पूर्णतर वस्तुको ले आनेमें समर्थ न हों ।

 

    यदि प्राणप्रतिष्ठाके द्वारा कोई शक्तिशाली दिव्य सत्ताका अवतरण हों तो वह सत्ता उसे उतारनेवाले व्यक्तिके शरीर छोड़ देनेके बहुत बादतक वहां विद्यमान रह सकती है । साधारणतया यह सत्ता धर्माध्यक्षकी भक्ति और उन लोंगोंके सच्चे वि- श्वास और पूजाके बलपर बनी रहती है जौ उस मंदिरमें उपासन करने आते है । ये लोग अयोग्य हों तो यह संभव है कि वह दिव्य उपस्थिति वापस चली जाय ।

 

*

 

       देखना कई प्रकारका होता है । एक तलीय देखना होता है, जिसमें देखी हुई सत्ताकी एक मूर्ति एक क्षण अथवा कुछ समयके लिये निर्मित या ग्रहण की जाती है । ऐसा देखना कोई परिवर्तन नहीं लाता, जबतक कि आंतरिक भक्ति इसे परिवर्तनका साधन न बनाये । परंतु जीवंत मूर्त्तिकी उसके किसी भी रूपमें - अपनेमें-मानों हृदयमें भी ग्रहण किया जा सकता है; इसका प्रभाव तात्कालिक हो सकता है, या यह आध्यात्मिक विकास- की एक अवधिका श्रीगणेश कर सकता है । फिर अपनेसे बाहर, न्यूनाधिक वस्तुनिष्ठ और सूक्ष्म-भौतिक अथवा भौतिक प्रकारका भी देखना होता है !

 

   रही मिलनेकी बात, सो स्थायी मिलन अंतरमें होता है और बह वहां ममि कालमें

 

२७५


रह सकता है; बाह्य मिलन या स्पर्श बहुधा स्थायी नही होता । कुछ लोग हैं, जो जब पूजा करते हैं बहुधा हीं या सदैव संस्पर्श अनुभव करते हैं । देवता उनके लिये चीजमें, अथवा पूजित मूर्त्तिमें,प्राणवंत हो उठ सकता है, उस ( चित्र अथवा मूर्त्ति) के द्वारा चल- फिर और कार्य कर सकता है । अन्य लोग उनकी (देवताकी) सतत उपस्थितिका अनुभव कर सकते हैं - बाहर, सूक्ष्म-भौतिक रूपमे -- अपने साथ-साथ अथवा अपने ही कमरेमें रहते हुए । किंतु कभी-कभी यह कुछ समयके लिये हीं होता है । अथवा वे सत्ताको अपने पास अनुभव कर सकते हैं, बहुधा किसी शरीरमें देख सकते हैं (यद्यपि यदा-कदाके अतिरिक्त स्थूल रूपमें नहीं), उसका स्पर्श अथवा आलिंगन अनुभव कर सकते हैं, सदा उससे आलाप कर सकते हैं -- यह भी एक प्रकारका मिलन है । सबसे महान् मिलन वह है जिसमे हम देवताका सतत अनुभव करते हैं, अपनेमें निवास करते हुए, संसारकी प्रत्येक वस्तुमें निवास करते हुए, समस्त जगत्को अपने- आपमें धारण किये हुए, अस्तित्वके साथ एक, तथापि परम रूपमें संसारसे परे । किंतु संसारमें भी हम और कुछको नहीं, उन्हींको देखते, उन्हींको सुनते और उन्हींको अनु- भव करते है, यहांतक कि इन्द्रियों भी मात्र उन्हींकी गवाही देती हैं । और इनमेंसे वे विशेष वैयक्तिक अभिव्यक्तियां भी बाद नही हैं, जो '' और उनके गुरुको प्रदान की गयी थी । मिलनेके जितने अधिक प्रकार हों, उतना ही अच्छा है ।

 

*

 

     हम किसी भी इंद्रियके द्वारा अथवा चेतनाके अंदर किसी बोधके द्वारा अभि- व्यक्तिको ग्रहण कर सकते हैं -- पूर्ण बाह्य अभिव्यक्तिके अंदर दर्शन, श्रवण, स्पर्श आदि सब कुछ हो सकता है ।

 

*

 

     मेरा मतलब था कि मनुष्य भागवत चेतनाको एक निर्व्यक्तिक आध्यात्मिक स्थितिके रूपमें, शांति, ज्योति, हर्ष तथा भागवत उपस्थितिके अनुभवसे शून्य विशाल- ताके रूपमें अनुभव कर सकता है । भागवत उपस्थितिका अनुभव एक ऐसी सत्ताके रूपमें होता है जो उस ज्योति आदिका सजीव स्रोत और सारतत्त्व है, अतएव एक ऐसे 'पुरुष'के रूपमें होता है जो केवल एक आध्यात्मिक अवस्था ही नही है । श्रीमाताजीकी उपस्थिति और भी अधिक ठोस, सुनिश्चित और व्यक्तिभावापत्र होती हैं - वह किसी ऐसे ब्यक्तिकी उपस्थिति नही होती जो अपरिचित हो, किसी शक्ति या सत्ताकी हों, बल्कि वह एक ऐसे ब्यक्तिकी उपस्थिति होती है जो परिचित, घनिष्ठ, प्रिय होता है, जिसके प्रति मनुष्य अपनी सारी सत्ताको जीवंत ठोस रूपमें समर्पित कर सकता है । मूर्त्तिका होना अनिवार्य नहीं है, यद्यपि वह सहायक होती है -- उसके बिना भी अपने भीतर उपस्थितिका अनुभव हो सकता है ।

 

*

 

२७६


     यदि भगवान्की उपस्थिति स्थापित हों जाय तो इसका अर्थ है कि सत्ता रूपांतर- के लिये तैयार हो गयी है और वह स्वाभाविक रूपमे होता रहता है ।

 

*

 

     आदेश और दर्शन साधनाकी एक अवस्थाके तत्त्व हैं; घनिष्ठतर मिलनकी अवस्था तब भी बहुत दूर होती है । मन और प्राण दर्शनके द्वारा भगवानका संस्पर्श और आदेशके द्वारा पथका निर्देशन चाहते हैं । अपने योगमें हमारा लक्ष्य भगवानके अखंड मिलन और सान्निध्य तथा नियंत्रणकी अनुभूतिको सब समय बनाये रखना है । परंतु मन और प्राणके स्तरपर वह प्रायः अघूरी रहती है, और उसमें भ्रांतिकी काफी गुंजायश होती है । कर्ममें इस प्रकारके भागवत मिलनका संपूर्ण सत्य तो अतिमानसिक रूपांतरकी सिद्धि हो जानेपर ही प्राप्त हों सकता है ।

 

III

 

     तुम्हारी यह धारणा भ्रमात्मक है कि मैं भक्तिके विरुद्ध हूँ या भावमय भक्ति- के विरुद्ध हूँ - ये दोनों बातें वास्तवमें एक-सी ही हैं, क्योंकि भावके बिना भक्ति हो ही नहीं सकती । बल्कि ठीक तथ्य यह है कि योगविषयक अपने लेखोमें मैंने भक्तिको सर्वोच्च स्थान प्रदान किया है । किसी समय मैनई अगर ऐसा कुछ कहा भी है जिससे इस गलतफहमीका कारण समझमें आ सके तो वह तो उस अपवित्र भावुकताके विरुद्ध है जो, मेरे अन्भवानुसार, संतुलनका अभाव, विक्षुब्ध और सामंजस्यहीन भावाभि- व्यक्ति या यहांतक स्कइ ?प्रतिक्रियाएतक उत्पन्न करती ओर अपनी परकातामे स्तायुविकाररूपी परिणाम भी ले आती है । परंतु पवित्रीकरणके लिये आग्रह करनेका अर्थ यह नही कि मैं सच्चे वेदन और भावको भी निंदनीय ठहराता हूँ, जैसे मन या संकल्प- की पवित्रताके लिये आग्रह करनेका अर्थ यह नही होता कि मे विचार और संकल्पको निन्दा मानता हूँ । बल्कि इसके विपरीत, भाव जितना अधिक गहरा होता है, भक्ति भी उतनी हीं अधिक तीव्र होती है, सिद्धि और रूपांतरकी शक्ति भी उतनी हीं महान् होती है । सच पूछा जाय तो अधिकांश समय भावकी तीव्रतासे ही हत्युरुष जागता है और भगवान्की ओर ले जानेवाले आंतरिक द्वार उद्घाटित होते हैं ।

 

*

 

     हृदयको सुखा देना इस योगका अंग नहीं है; बल्कि हृदय भावोंको भगवान्की ओर मोड़ना होगा । ऐसे अनतिदीर्घ काल आ सकते हैं जिनमें हृदय शांत रहे, साधारण अनुभवोंसे विमुख हों और ऊपरसे भावप्रवाहके आनेकी प्रतीक्षा करे; परंतु ऐसी स्थिति- यां सूखेपनकी स्थितियां नहीं बल्कि नीरवता और शांतिकी स्थितियां हैं । इस योगमें

 

२७७


जबतक चेतना ऊपर नहीं उठती तबतक वास्तवमें हृदयको एकाग्रताका प्रमुख केंद्र होना चाहिये ।

 

 *

 

     योगमें हृद्गत भाव आवश्यक होता है और सच पूछा जाय तो केवल अतिरंजित भावुकता ही छोटी-छोटी बातोंके कारण, जिन्हें हमें अतिक्रम करना है, निराशाके गर्त्तमे डाल देती है । इस योगका सच्चा आधार हीं है भक्ति और यदि कोई अपनी भावात्मक सत्ताको मार डाले तो फिर भक्ति हो ही नही सकती । अतएव भावात्मक सत्ताको योगसे बहिष्कृत करनेकी कोई संभावना नही हो सकती ।

 

*

 

    भावावेग योगके लिये एक अच्छी वस्तु है, परंतु भावावेगजन्य कामना सहज ही विक्षोभका एक कारण तथा एक बाधा बन जाती है ।

 

    अपने भावावेगोंको भगवान्की ओर मोड दो, उनकी शुद्धिके लिये अभीप्सा करो, तब वे योगमार्गकी सहायक बन जायेंगे और फिर कभी दुःख-कष्टका कारण नही होंगे ।

 

     भावावेगको मार डालना नही, वरन् उसे भगवान्की ओर मोड देना ही योगका यथार्थ मार्ग है ।

 

     परंतु उसे शुद्ध-पवित्र, आध्यात्मिक शांति और उल्लासके ऊपर प्रतिष्ठित तथा आनन्दमें परिवर्त्तित हों जानेके योग्य बन जाना होगा । मन ब्योर प्राणके भागोंमें समता और स्थिरता तथा हृदयमें तीव्र चैत्य भाव पूर्णतया साथ-साथ रह सकते हैं । अपनी अभीप्साके द्वारा हृदयमें चैत्य अग्निको जगाओ जो धीर-स्थिर रूपसे भगवान्की ओर जलती रहती है - यही भावावेगमयी प्रकृतिको मुक्त और चरितार्थ करनेका एकमात्र पथ है ।

 

*

 

      वास्तवमें केवल साधारण प्राणिक भावावेग ही शक्तिका अपव्यय करते और एकाग्रता तथा शांतिको भंग करते हैं और उन्हें ही निरुत्साहित करनेकी आवश्यकता है । भावावेग अपने-आपमें कोई बुरी वस्तु नहीं हैं; वे तो प्रकृतिका एक आवश्यक अंग हैं और चैत्य भावावेग तो साधनाका एक अत्यन्त बलशाली सहायक है । जो चैत्य भावावेग भगवानके प्रति प्रेमके कारण आसू अथवा आनन्दका आसू ले आता है उसे कभी दबाना नही चाहिये । उसमें जब कोई प्राणिक वस्तु मिल जाती है तो केवल वही साधनामें बाधाविघ्र उपस्थित करती है ।

 

*

 

२७८


भावात्मक (भक्ति) चैत्य भक्तिकी अपेक्षा अधिक बाह्य वस्तु है -- यह बाह्य अभिव्यक्तिकी प्रवृत्ति रखती है । चैत्य भक्ति अंतर्मुखी होती है और संपूर्ण आंतर और बाह्य जीवनको नियंत्रित करती है । भावात्मक भक्ति तीव्र हो सकती है पर वह न तो अपने आधारमें उतनी सुदृढ़ होती है और न उतनी पर्याप्त शक्तिशाली ही कि जीवन- की समूची दिशाको परिवर्त्तित कर दे ।

 

*

 

    यह बिलकुल ठीक है कि ऊपर जानेपर मनुष्य सभी समस्याओंसे बाहर निकल जाता है, क्योंकि अब उनका अस्तित्व हीं नहीं रहता, परंतु समस्याएं यहां नीचे विद्य- मान हैं और इतनी अधिक हल न की हुई समस्याओं तथा समाधानकी मांगके रहते हार सदा ऊपर रहना कठिन है । परंतु ठीक जिस तरह मनुष्य अत्यंत ऊपर जा सकता है, उसी तरह वह भीतर गहराईमें भी जा सकता है और वास्तवमें इस भीतरकी गहराई मे जानेकी आवश्यकता है । जो घटित हुआ वह भावात्मक सत्ताके ऊपरी तलपर था और यदि मनुष्य महज वही ठहर जाय तो भावात्मक सत्ताकी कठिनाइयां आ सकतीं हैं, परंतु करनेकी चीज यह है कि मनुष्य वहां ऊपरी तलपर ही न ठहर जाय बल्कि भीतर गहराईमें पैठ जाय । क्योंकि भावात्मक सत्ताके ऊपरी तलके पीछे, हृदयकेंद्रके पीछे गहराईमें चैत्य पुरुष विद्यमान है । एक बार जब मनुष्य चैत्य पुरुषतक पहुँच जाता है तो फिर ये चीजे उसे नही छूती; उस समय उसके अंदर विद्यमान रहती है आंतरिक शांति और आह्लाद, अविक्षुब्ध अभीप्सा, श्रीमाताजीकी उपस्थिति या सान्निध्य ।

 

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     प्रेम, शोक, विषाद, निराशा, भावोल्लास आदि आवेगोंमें इनके अपने लिये ही आसक्त होना और इनके प्रति एक प्रकारका मानसिक और प्राणिक अत्याग्रह रखना हीं भावुकता है । वास्तवमें गहरे भावके अंदर शांति, नियंत्रण, पावन संयम और मर्यादा आदि होने चाहियें । हमें अपने भावों और अपनी संवेदनाओंका क्रीडा-कडक नहीं, प्रत्युत सदैव उनका नियंता होना चाहिये ।

 

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     जब चेतना इन सब चीजोंमें लिप्त होती है और भावात्मक हर्षावेशमें अथवा दुःख-कष्टमें लोटती-पोटती है तो उसे ही भावुकता कहते हैं । एक दूसरे प्रकारकी भावुकता भी है जिसमें मन प्रेम, वेदना आदि भावोंके बोधमें सुख अनुभव करता है और उनके साथ खेलता है, परंतु वह कम तीव्र और अधिक छिछली भावुकता होती है ।

 

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२७९


     मनके द्वारा साधनाविषयक अभिज्ञता प्राप्त करना अनिवार्य नही है । अगर भक्ति मौजूद है, और हदयकी नीरवतामें अभीप्सा इ, अगर भगवानके प्रति सच्चा प्रेम है, तो तुम्हारी प्रकृतिका उन्मीलन स्वतः हीं हों जायगा, तुम्हें सच्ची अनुभूति मिलेगी और तुम्हारे अंतरमें माताजीकी शक्ति कार्य करने लगेगी, एव आवश्यक ज्ञान स्वतः ही आ जायगा ।

 

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    भगवान् और परम सत्यके सर्वदा ही दो पक्ष होते हैं -- सव्यक्तिक और निर्व्यक्तिक और यह समझना भूल है कि केवल निर्व्यक्तिक ही यथार्थ या प्रमुख है, क्योंकि वह सत्ताके एक भागमें एक प्रकारकी शून्य अपूर्णता लें आता है और केवल एक ही पक्ष- को संतोष प्राप्त होता है । निर्व्यक्तिकताका संबंध बुद्धि और निष्क्रिय आत्मासे है, सथ्यक्तिकताका संबद अंतरात्मा और हृदय और सक्रिय सत्तासे है । जो लोग साकार भगवान्की अवहेलना करते हैं वे राका ऐसी वस्तुकी अवज्ञा करते हैं जो बहुत गभीर और आवश्यक है ।

 

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     हदयके विशुद्धतर आवेगोंका अनुसरण करना एक ऐसी वस्तुका अनुसरण करना है जो कम-से-कम उतनी ही मूल्यवान् है जितनी कि सत्य क्या हों सकता है इस विषय- की अपनी धारणाओंके प्रति मनकी निष्ठा है ।

 

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     इसका कारण विश्लेषणप्रवण मनकी सक्रियता है, उसके सक्रिय होनेपर एक प्रकारकी नीरसताका अनुभव हमेशा हीं होता है । उच्चतर मन या सहज-अतबोंध अपने साथ अधिक स्वाभाविक और संपूर्ण ज्ञान लाता हैं -- वही सच्चे ज्ञानका आरंभ है, और उसमें ररेसा प्रयत्न भी नहीं करना होता । जिस भक्तिका तुम अनुभव कर रहे हों वह आंतरात्मिक है, पर उसपर प्राणका गहरा रंग है; और मन तथा प्राण ही भक्ति और ज्ञानके बीच विरोध खड़ा कर दत हैं । प्राणको, जिसकी रुचि सिर्फ भावमें है, मानस ज्ञान सूखा और नीरस मालूम होता है; और मन भक्तिको एक अध भावावेग मानता है, इसे यह संपूर्णतया आकर्षक तभी मालूम होती है जब वह उसके स्वरूपका विश्लेषण कर लेता और उसे समझ लेता है । इस विरोधका अवसान तब होता है जब अंतः पुरुष और उच्चतर स्तरका ज्ञान मिलकर प्रधान रूपमें कार्य करते हैं । अंत:- पुरुष अपमे भाव और भक्तिके पोषक इस ज्ञानका स्वागत करता है, और उच्चतर विचार- की चेतना भक्तिमें सुखका अनुभव करती है ।

 

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२८०


    यंत्रसम और कृत्रिम भक्ति नामकी कोई वस्तु नही हो सकती - या तो भक्ति होगी अथवा नहीं होगी । भक्ति तीव्र या अतीव, पूर्ण या अपूर्ण, कभी प्रकट और कभी प्रच्छन्न हों सकती है, पर यत्रसम या कृत्रिम भक्ति तो एक विरोधोक्ति है ।

 

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    भोजन और बाह्य वस्तुओंके प्रति तुम्हारा नवीन मनोभाव यथार्थ मनोभाव, चैत्य मनोभाव है और वह यह सूचित करता है कि अब चैत्य पुरुष प्राणिक-भौतिक तथा साथ ही प्राण-प्रकृतिके अन्य भागोंको नियंत्रित करने लगा है ।

 

    अब हदयकी बात लें, इस योगमें भगवानके लिये व्याकुलताकी वृत्ति, रोना, शोक करना, व्यग्र होना आदि आवश्यक नही हे । प्रबल अभीप्सा अवश्य होनी चाहिये, तीव्र उत्कंठा भी अच्छी तरह रह सकती है, तीव्र प्रेम और मिलनकी आकांक्षा रह सकती है; परंतु वहां शोक या विक्षोभ नही होना चाहिये । तुम अपने हृदयमें जो अचंचलता और नीरवता अनुभव करते हो वह नीचे आनेके लिये उच्चतर चेतनाके दबावका परिणाम है । वह चीज सर्वदा ही मन और हृदयमें स्थिरता ले आती है और जब उच्च- तर चेतना उतरती है तो महान् शांति और निश्चल-नीरवता ले आती है । निश्चल-नीरव मन और हृदयमें यथार्थ मनोभाव अवश्य होना चाहिये और तब तुम्हें यह बोध आता है कि तुम श्रीमाताजीके बच्चे हों, उनके प्रति श्रद्धा-विश्वास तथा उनके साथ युक्त होने- की आकांक्षा भी तुम अनुभव करते हों । उसके साथ-साथ, जो कुछ आनेवाला है उसके लिये एक अभीप्सा अथवा नीरव प्रतीक्षाका भाव भी रह सकता है । वह अभीप्सा भी तुम्हारे अन्दर विद्यमान प्रतीत होतीं है । इसलिये सब कुछ अच्छा है ।

 

     जैसा कि मैनई बहुधा लिखा है, इस योगमें दो प्रकारके रूपांतर हैं । पहला रूपांतर तब आता है जब चैत्य पुरुष सामने आता है ओर प्रकृतिको नियंत्रित और परिवर्त्तित करता है । यही चीज तुम्हारे अंदर बरी तेजीके साथ घटित हुई है; इसे अपनी पूर्णता- तक जाना होगा, पर यह स्वाभाविक रूपमे जायगी । दूसरा रूपांतर वह है जब मस्तक- के ऊपरसे श्रीमाताजीकी चेतनाका अवतराग होता हैं और उससे समस्त सत्ता और प्रकृतिका रूपांतर होता है । यह चीज भी तुम्हारे अंदर अब अपनी तैयारी कर रही है । दबावका, हृदय आदिमें नीरवता आनेका यहीं कारण है । इस बार ऊपर जाने- पर जो तुम्हें अनुभूति हुई वह उस ऊर्ध्वस्थ उच्चतर चेतनामें अवस्थित उच्चतर सत्ता- की विशालताका अनुभव थी और उस उच्चतर चेतनाके भीतरसे ज्योति नीचे उतर रही थीं । वह विशालता और वह ज्योति पीछे तुम्हारे अंदर उतरेगी और तुम्हारी चेतना उस ज्योति और विशालता तथा उनके अंदर जो कुछ है उस सबमें परिवर्त्तित हों जायगी ।

 

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      विरह आत्माकी खोजमें प्राण-स्तरपर होनेवाली एक संक्रमणकालीन अनु. भूति है - कोई कारण नहीं कि साधनाकी बिलकुल प्राथमिक अवस्थामें यह अनुभूति होनेकी संभावना न हो । जो उपलब्धियां बिना किसी बेचैनीके, विशुद्ध आनन्दमें होती हैं वे अधिक विकसित साधनाका फल होती हैं ।

 

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    विरहका विशुद्ध भाव चैत्य भाव होता है - पर उसमें यदि राजसिक या ताम- सिक गतियां (जैसे, अवसाद, विलाप, विद्रोह आदि) अंदर घुस आये तो फिर वह तामसिक या राजसिक बन जाता है ।

 

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    विछोहकी वेदना प्राणकी वस्तु है, चैत्य पुरुषकी नहीं; चैत्य पुरुषमें कोई वेदना नहीं होती और इसलिये उसे व्यक्त करनेकी कोई आवश्यकता नही होती । चैत्य पुरुष श्रद्धा, हर्ष और विश्वासके साथ सर्वदा भगवान्की ओर मुंडा रहता है - जो भी अभीप्सा उसमें होती है वह विश्वास और आशासे भरपूर होती है ।

 

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     मान-अभिमान (कोप) की वृत्तिसे तुम जितनी जल्दी छुटकारा पा जाओ उतना ही अच्छा है । जो मान-अभिमानमें रत होता है वह अपनेको विरोधी शक्तियोंके प्रभाव- के अधीन कर देता है । मान-अभिमानका सच्चे प्रेमके साथ कोई सबब नही । यह भी, ईर्ष्याकी तरह, प्राणिक अहंकारका एक अंग है ।

 

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     योगका यथार्थ उद्देश्य हीं है चेतनामें परिवर्तन लाना - एक नवीन चेतनाको प्राप्त करके या अंतरस्थ सत्य-सत्ताकी प्रच्छन्न चेतनाको अनावृत करके और धीरे- धीरे उसे अभिव्यक्त और पूर्ण बनाकर मनुष्य सबसे पहले भगवानका संस्पर्श और फिर उनके साथ एकत्व प्राप्त करता है । आनन्द और भक्ति उस गभीरतर चेतनाके अंग हैं और जब मनुष्य उस चेतनामें निवास करता है और उसमें वर्द्धित होता है केवल तभी वह आनन्द और भक्ति चिरस्थायी हो सकती है । जबतक ऐसा नहीं होता तबतक मनुष्य आनन्द और भक्तिकी केवल अनुभूतियां प्राप्त वार सकता है, पर सतत और स्थायी स्थिति नहीं प्राप्त कर सकता । परंतु भक्तिकी अवस्था और निरंतर-वर्द्धमान समर्पणकी स्थिति सभी मनुष्योंको साधनाकी प्रारंभिक अवस्था-

 

२८२


में नही प्राप्त होतीं, इस स्थितिके उद्घाटित होनेसे पहले बहुतोंको, निस्संदेह अधि- काश लोगोंको, शुद्धि और तपस्याकी एक लंबी यात्रा पार करनी होती है, और इस प्रकारके अनुभव, जो आरंभमें बहुत कम और बिखेर होते हैं और पीछे बार-बार आते हैं, उनकी प्रगतिके सूचक चिह्न होते हैं । यह किन्हीं विशेष अवस्थाओंपर निर्भर करता है जिनका योग करनेकी उच्चतर या हीनतर क्षमताके साथ कोई संबंध नहीं, बल्कि, जैसा कि तुम कहते हों, भागवत प्रभाव-रूपी सूर्यकी ओर खुलनेकी हदयकी प्रवृत्तिके साथ है ।

 

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    हां, यही चीज घटित हुई, परंतु भक्ति और प्रेमका प्रवाह भी एक ऐसी चीज है जो जितनी हीं अधिक बार आती या जितना ही अधिक जागृत होती है उतना ही अधिक वह अवश्यमेव सत्ताके सभी भागोंमें भर जाती और उनपर अपना प्रभाव डालती है ।

 

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   तुम्हें जो एक वस्तुके स्थानमें दूसरी चीजके आनेका अनुभव हुआ वह बिलकुल सही था । बहुत हदतक रूपांतरका कार्य प्राचीन उपरितलीय (निम्र) आत्मभावको हटाकर और उसकी गतिविधियोंको बाहर फेंककर और उनके स्थानमें एक नवीन गभीरतर आत्मभाव और उसकी सच्ची क्रियाको बैठाकर हीं आगे बढ़ता है ।

 

    यदि उच्चतर भाव, भक्ति आदि तुम्हें कभी-कभी एक प्रभाव या रग जैसे प्रतीत होते हैं तो इससे कोई हर्ज नही । जब तुम अपनेको बाह्य शरीर या बाह्य प्राण या बाह्य मनमें अनुभव करते हो तब वे ऐसा ही दिखते हैं । ये भाव वास्तवमें तुम्हारे अंतरतम आत्माके, तुम्हारे अंतरात्माके, तुम्हारे अंदर विद्यमान चैत्य पुरुषके भाव हैं और जब तुम अपनी चैत्य चेतनामें रहते हों तो वें यथार्थ और स्वाभाविक बन जाते हैं । परंतु जब तुम्हारी चेतना हट जाती है और अधिक बहिर्मुखी हो जाती है तो अंतरात्मा या भागवत चैतन्यकी ये क्रियाएं भी स्वयं बाहरी, महज एक प्रभावके जैसी प्रतीत होती हैं । जो हो, तुम्हें निरंतर उनकी ओर उद्घाटित होना होगा और तब वे अधिकाधिक तुम्हारे अंदर स्थिरताके साथ घुसती जायंगी अथवा क्रमागत तरंगों या बाढोंके रूपमे आयेंगी और तबतक चलती रहेंगी जबतक कि वे तुम्हारे मन, प्राण और शरीरमें भर नही जाती । तब तुम उन्हें केवल यथार्थ वस्तुके रूपमें ही नही बल्कि अपनी वास्तविक सत्ता आत्माके अंग तथा अपनी प्रकृतिके सच्चे उपादानतत्त्वके रूपमे अनुभव करोगे ।

 

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    यदि हम केवल भावात्मक सत्ताकी भक्तिको प्रोत्साहित न करें क्योंकि निम्रतर

 

२८३


प्राण अभी संयमके अधीन नही है और भिन्न रूपसे कार्य करता है तो भक्ति भला कैसे बढ़ेगी और निम्रतर प्राण कैसे परिवर्त्तित होगा? जबतक अंतिम रूपमे प्रकृति निर्मल और सुसमंजस नही हो जाती तबतक सदा ही सत्तामें परस्पर विरोधी चीज़ें विद्यमान रहेंगी । परंतु यह कोई कारण नही कि किसी भी प्रकार उत्तम क्रियाओंकी क्रीड़ा दबा दी जाय-इसके विपरीत, ये ही चीज़ें हैं जिन्हें अर्जित करना और बढ़ाना चाहिये

 

 IV

 

     वैष्णव भावना और भक्तिको संपूर्ण हदयसे तुम्हारे स्वीकार कर लेनेकी बात वास्तवमें चौंका देनेवाली बन जाती है जब उसके साथ यह आग्रह जोड़ दिया जाता है कि जबतक कोई भगवानका अनुभव नही प्राप्त कर लेता तबतक वह उन्हें अपना प्रेम नही दे सकता । भला भक्तिके लिये भक्तिके आनन्दकी अपेक्षा वैष्णव मनोभाव- मे और कौनसी चीज अधिक प्रसिद्ध हे? वह मनोभाव चिल्ला-चिल्लाकर कहता है, ' 'मुझे भक्ति दो, चाहे और जो भी चीज मुझसे दूर क्यों न रखो । यदि तुम्हारे साथ मिलन प्राप्त करनेमें बहुत देर हों, यदि तुम्हारे अभिव्यक्त होनेमें विलंब हों तो भी मेरी भक्ति, तुम्हारे लिये मेरी खोज, मेरी पुकार, मेरे प्रेम, मेरी पूजाको सर्वदा बने रहने दो । '' कितने सतत रूपसे भक्तने गाया है, '' अपने सारे जीवन मैं तुम्हें ढूँढ़ता रहा हूँ और फिर भी तुम नही मिले हों, परंतु फिर भी मैं ढूँढ्ता हूँ और ढूँढूना, प्रेम करना और पूजा करना बन्द नही कर सकता । '' यदि भगवान्को पहले अनुभव किये बिना उनकों प्रेम करना वास्तवमें असंभव होता तो ऐसा भला कैसे होता? सच पूछा जाय तो तुम्हारा मन गाडीको हीं घोडोंसे आगे रखता प्रतीत होता है । मनुष्य सबसे पहले आग्रह अथवा जोशके साथ भगवान्की खोज करता है और उसके बाद ही उन्हें पाता है, कुछ लोग दूसरोंसे जल्दी पाते हैं, पर अधिकांश लोग दीर्घकालकी खोजके बाद ही पाते हैं । कोई उन्हें पहले पाकर फिर उनकी खोज नही करता । उनकी एक झांकी भी बहुधा केवल दीर्घ और तीव्र खोजके बाद ही मिलती है । मनुष्यको भगवानके लिये प्रेम होता है अथवा किसी हदतक उन्हें पानेकी हदयकी थोडी आकांक्षा होती है और उसके बाद ही वह ईश्वर-प्रेमको, हदयकी आकांक्षक प्रति उनके उत्तरको, परम हर्ष और आनन्दके उनके प्रत्युत्तरको जानता है । कोई भगवान्से यह नही कहता, ' 'पहले तुम अपना प्रेम दिखाओ, अपने अनुभवोंको मेरे ऊपर बरसाओ, मेरी मांग पूरी करो, फिर मैं देखूँगा कि जबतक तुम मेरे प्रेमके योग्य हों तबतक मैं तुम्हें प्यार कर सकता हूँ या नही । '' सच पूछा जाय तो निश्चय ही साधकको पहले खोजना और प्यार करना होगा, अन्वेषण करते रहना होगा,' अन्वेषित के लिये आतुर बन जाना होगा - केवल तभी पर्दा खिसकता है और ज्योति प्रकट होती हे और परमप्रियका मुखमंडल प्रत्यक्ष होता है और केवल वही मरुभूमिकी उसकी लबी यात्राके बाद जीवको संतुष्ट कर सकता है ।

 

२८४


पर फिर तुम कह सकते हों, ' 'हा, पर मैं प्यार करता होऊं या नही, मैं चाहता जरूर हूँ, मैंने सदा ही चाहा है और अब मैं और भी अधिक चाहता हूँ, पर मैं पाता कुछ नही हूँ । '' हां, पर चाहना हीं सब कुछ नही हैं । जैसा कि अब तुमने देखना आरंभ किया है, कुछ शर्ते हैं जिन्हें पूरा करना होगा - हदयकी शुद्धिकी तरह । तुम्हारी प्रस्थापना यह थी कि ' 'जब एक बार मैं भगवान्को चाहता हूँ तो भगवान्को अवश्यमेव मेरे सामने प्रत्यक्ष होना चाहिये, मेरे पास आना चाहिये, कम-से-कम मुझे अपनी झांकियां देनी चाहिये, यथार्थ, ठोस, वास्तविक अनुभूति देनी चाहिये न कि महज अस्पष्ट चीज़ें जिन्हें मैं न तो समझ सकूं न मूल्य दे सकूं । ईश्वरकी करुणा-शक्तिको उसके प्रति जो मेरी पुकार है उसका उत्तर अवश्य देना चाहिये, चाहे मैं अभी उसके योग्य होऊं या नहीं -अन्यथा करुणा-शक्ति नामकी कोई वस्तु नही है । '' ईश्वरकी करुणा-शक्ति निस्संदेह कुछ लोगोंके लिये वैसा कर सकतीं है, पर भला यह '' अवश्य' ' कहांसे आ टपकता है ' यदि ईश्वरको ऐसा अवश्य करना चाहिये, तो फिर वह अब ईश्वरकी करुणा नही रह जाती, बल्कि वह ईश्वरका कर्तव्य या दायित्व या ठेका या संधि हों जाता है । भगवान् हदयके भीतर झांकते हैं और उस क्षण वह पर्देको हटा देते हैं जिसे वह वैसा करनेका यथार्थ क्षण समझते हैं । तुमने इस भक्ति-सिद्धातपर जोर दिया है कि केवल उनका नाम पुकारनेकी जरूरत है और उन्हें अवश्य उत्तर देना चाहिये, उन्हें तुरत वहां उपस्थित हों जाना चाहिये । शायद, पर किसके लिये यह सत्य है? निस्संदेह, एक विशेष प्रकारके भक्तके लिये जो नामकी शक्तिको अनुभव करता है, उसमें प्रियतमके लिये आतुरता है और उसे वह अपनी पुकारमें भी शामिल करता है । यदि कोई ऐसा हों तो तुरत उत्तर आ सकता है -- यदि नही हे तो उसे वैसा बनना होगा, तब उत्तर अवश्य आयेगा । परंतु कुछ लोग वर्षों नाम-जप करते रहते हैं और उसके बाद ही उत्तर आता है । स्वयं रामकृष्णने कुछ महीनोंके बाद पाया था, पर कैसे महीनों । और उन्हें उसे पानेसे पहले कैसी स्थितिमेंसे गुजरना पड़ा! फिर भी उन्हें शीघ्र सफलता मिली क्योंकि उनका हृदय पहलेसे ही पवित्र था - और वह दिव्य आवेग उसमें था ।

 

    निस्संदेह भक्त नही बल्कि ज्ञानी पहले अनुभवकी मांग करता है । वह कह सकता है, ' 'मैं अनुभवके बिना कैसे जान सकता हूँ?'' पर वह भी तोता पुरीकी तरह तीस वर्षोंतक भी खोजता रहता हे, सुनिश्चित उपलब्धि पानेका प्रयत्न करता रहता है । वास्तवमें बुद्धिप्रधान, तार्किक मनुष्य हीं यह कहता है, ' 'यदि भगवान् है तो वह पहले अपनेको मेरे सम्मुख सिद्ध करे, तब मैं विश्वास करूँगा, तब मैं उसका अन्वेषण करनेके लिये कोई गंभीर और दीर्घ प्रयास करूँगा और देखूँगा कि वह कैसा है । ''

 

   इस सबका मतलब यह नही है कि अनुभव साधनाके लिये अनावश्यक है -- मैनई अवश्य ही ऐसी बेमतलब बात नहीं कही होगी । मैंने जो कहा है वह यह है कि अनु- भव आनेसे पहले भगवानके प्रति प्रेम और उनकी खोज हो सकतीं हे और सामान्यतया रहती हे -- यह चीज एक सहजवृत्ति है, अंतरात्मामें अंतर्निहित एक उत्कंठा है और ज्योंही अंतरात्माका कोई आवरण दूर होता है या दूर होना आरंभ करता है, वह ऊपर आ जाती है । दूसरी बात मैंने यह कही है कि ' 'अनुभूतियों' 'के

 

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आरंभ होनेसे पहलें प्रकृतिको तैयार कर लेना (विशुद्ध हृदय आदि-आदि) अधिक अच्छा है, न कि उससे उलटी बात, और मैं इसे उन उदाहरणोंके आधारपर कहता हूँ जिनमें सच्ची अनुभूतिके लिये हृदय बार प्राणके तैयार होनेसे पहले ही अनुभूतियोंके कारण खतरा उत्पन्न हुआ है । अवश्य ही, बहुतसे लोगोंको सच्ची अनुभूति पहले प्राप्त होती है, कृपाका एक स्पर्श मिलता है, पर यह ऐसी चीज नहीं होती जो स्थायी हों और वहां सर्वदा रहती हों, बल्कि वह एक ऐसी चीज होती है जो स्पर्श करती, पीछे हट जाती और प्रकृतिके प्रस्तुत हो जानेकी प्रतीक्षा करती है । पर यह प्रत्येक मनुष्यके स्थल नही घटित होता, मेरी समझमें, अधिकसंख्यक लोंगोंके साथ भी नही घटित होता । मनुष्यको अंतरात्माकी अंतर्निहित उत्कंठासे आरंभ करना होता है, तब मंदिर- के प्रस्तुत होनेके लिये प्रकृतिके साथ संघर्ष होता है, फिर दिव्य विग्रहका उद्घाटन होता और अन्तमें देवालयमें देवताकी स्थायी उपस्थिति आ जाती है ।

 

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    प्राचीन योगी और जिज्ञासु जिस वस्तुके लिये सर्वप्रथम प्रार्थना करते थे वह थी शांति और जिस अवस्थाको वे भगवानके साक्षात्कारके लिये सर्वोत्तम घोषित करते थे वह थी मनकी अचंचलता और निश्चल-नीरवता - और इससे सदा ही परम शांतिकी प्राप्ति होती है । प्रसन्न और आलोकित हृदय आनन्दके लिये उपयुक्त आधार है, और यह भला कौन कहेगा कि आनन्द या जो कुछ उसे तैयार करता है, भागवत मिलनमे बाधक होता है? जहांतक निराशाका प्रश्न है, यह निश्चय ही, मार्गका घोर दुर्वह भार है । व्यक्तिको कभी-कभी इसमेंसे गुजरना होता है, जैसे ' 'पथिककी प्रगति  नामक कथाके ईसाई नायकको निराशाकी दलदल- भैंसे गुजरना पड़ा था । परंतु बार-बार इसीकी रट लगाते रहना बाधाके सिवा और कुछ नही हों सकता । गीता तो विशेष रूपसे कहती है: ' 'निराशारहित हदयसे ' अनिर्विण्णचेतसा' ( ६२३), योगका अभ्यास करो । '' मुझे खूब अच्छी तरह पता है कि दुख-दर्द एवं संघर्ष तथा घोर निराशा स्वाभाविक हैं, यद्यपि ये चीजे मार्गकी अवश्यंभावी चीजे नही हैं । ये स्वाभाविक इस कारण नही है कि ये सहायिका हैं, वरन् इसलिये हैं कि ये इस मानवीय प्रकृतिके अंधकारद्वारा हमपर लादी जाती हैं, जिस अधकारमेंसे संघर्ष करते हुए हमें प्रकाशकी ओर जाना है । मैं नही समझता कि तुमने रामकृष्ण और विवेकानन्दके जीवनकी जिन घटनाओंकी चर्चा की है उनके बारेमें वे यह सलाह देते कि ये दूसरोंके लिये अनुकरणीय दृष्टांत हैं - वे तो निश्चित रूपसे यही कहते कि श्रद्धा, धैर्य तथा अध्यवसाय हीं अधिक उत्तम मार्ग हैं । इन अशुभ घड़ी- योंके होते हुए भी अंततोगत्वा वे इसी मार्गपर डटे रहे. । जो हों, रामकृष्णने नारद और एक तपस्वी योगी तथा एक वैष्णव भक्तकी कहानी कहकर उससे मिलनेवाली शिक्षाका समर्थन किया था । मैं उसके सारांशकी रक्षा करते हुए उसे अपने शब्दोंमें रखता हूँ । नारद जब वैकुंठ जा रहे थे तो मार्गमें उनकी एक योगीसे भेंट हुई जो पहाड-

 

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पर घोर तपस्या कर रहा था । योगीने चिल्लाकर कहा, ' 'नारद महाराज! आप तो वैकुठ जा रहे हैं और वहां आप विष्णु भगवान्से मिलेंगे । मैं जीवनभर भीषण तप करता रहा हूँ, परंतु अभीतक मैंने उन्हें प्राप्त नही किया हैं । कृपया मेरे लिये उनसे केवल इतना पूछियेगा कि मैं उन्हें कब प्राप्त करूँगा । '' आगे चलकर नारद एक वैष्णव- से मिले, वह वैष्णव भक्त हरिकीर्तन कर रहा था और अपने कीर्तनके साथ-साथ नाच भी रहा था । वह भी चिल्लाकर बोला: ' 'हे नारदजी! आप मेरे प्रभु भगवान् हरिसे मिलेंगे । उनसे पूछियेगा कि कब मैं उनके पास पहुंचकर उनकी मुखछबि देखूँगा । '' लौटते हुए नारद मुनि पहले उस योगीके पास आये और बोले, ' 'मैनई विष्णुसे पूछा है । तुम उन्हें और छ: जन्मोंके बाद प्राप्त करोगे । '' योगीके मुखसे अत्यत दुःखभरी चीख निकल पडी. ' 'हाय-हाय! इतनी अधिक तपस्याएं! ऐसे विकट पुरुषार्थ! कितने कठोर हैं भगवान् विष्णु मेरे प्रति! '' इसके बाद नारदजी भक्तिसे मिले और बोले. ' 'तुम्हारे लिये मेरे पास कोई अच्छी खबर नही है । तुम्हें भगवानके दर्शन होंगे तो सही, पर एक लाख जन्मोंके बाद । '' परंतु भक्त अतिहर्षके मारे उछल पड़ा और चिल्लाने लगा: '' ओह! मैं अपने प्रभुवर हरिके दर्शन करूँगा । एक लाख जन्मोंके बाद मैं अपने प्रभुवर हरिके दर्शन करुंगा! भगवान्की कितनी महान् कृपा है! '' वह नये हर्षावेशमें साथ नाचने-गाने लगा । तब नारदजीने कहा, ' 'तुमने भगवान्को पा लिया है । आज हीं तुम्हें भगवानके दर्शन होंगे । '' हां, तो आप कहेगे, ' 'कैसी अत्युक्तिपूर्ण कहानी है और मानव प्रकृतिके कितने विपरीत! '' पर वास्तवमें यह उतनी विपरीत है नही और कम-से-कम हरिश्चंद्र तथा शिविका कहानियोंसे अधिक अतिशयोक्तिपूर्ण तो शायद नही है । फिर भी, मैं उस भक्तको आदर्शके रूपमे नहीं पेश करता, क्योंकि मैं स्वयं इसी जीवनमें साक्षात्कार करनेपर आग्रह करता हूँ, न कि छ: या लाख जन्मोंके बाद । परंतु इन कहानियोंकी मार्मिक बात है इनसे मिलनेवाली शिक्षा, और निस्संदेह जब रामकृष्णने यह कहानी कही थी तो वे इस बातसे अनभिज्ञ नही थे कि योगका एक ज्योतिर्मय मार्ग भी है । वे यहांतक कहते दिखते हैं कि वह बहुत शीघ्र पहुँचानेवाली तथा अधिक अच्छा मार्ग है । अतएव ज्योतिर्मय मार्गकी संभावनाकी बात मेरा निजी अनुसंधान या मौलिक आविष्कार नही है । तीस वर्षसे भी अधिक पूर्व मैनई योगकी जो पुस्तकें ण्हले-पहल पढो थी रत्रनमें अंधकारमय तथा ज्योतिर्मय पथका वर्णन था और यह भी बलपूर्वक कहा गया था कि इनमेंसे पिछला पहलेकी अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है ।

 

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     ठीक क्रिया है शुद्ध अभीप्सा और समर्पण । परंतु व्यक्तिको भगवान्से यह अनु- रोध करनेका अधिकार नही है कि वे अपनेको प्रकट करें ही । अभिव्यक्ति तो चेतनाकी आध्यात्मिक या आंतरात्मिक अवस्थाके या ठीक प्रकारसे किये गायें सुदीर्घ साधना- म्यासके उत्तरके रूपमें हीं संपत्र हों सकती है । अथवा, यदि यह उसके पूर्व या किसी प्रत्यक्ष कारणके बिना संपत्र हो तो वह कृपा है । परंतु व्यक्ति कृपाकी मांग नहीं कर

 

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सकता या उसे बाध्य नहीं कर सकता । कृपा तो स्वत:स्फूर्त्त वस्तु है जो भागवत चेतना- से उसकी सत्ताके स्वच्छन्द प्रवाहके रूपमें प्रसवित होतीं है । भक्त इसकी बाट जोहता है; पर वह पूरे विश्वासके साथ - जरूरत हो तो जीवनभर भी -- प्रतीक्षा करनेके लिये तैयार होता है - यह जानते हुए कि वह प्रान्त होगी ही । वह अपने प्रेम तथा समर्पणमें यह सोचकर कभी हेरफेर नहीं करता कि कृपा अभी या जल्दी क्यों नही प्राप्त होती । स्वयं तुमने भक्तोंके जो कितने ही पद गायें हैं उनकी भी यही भावना है । कुछ समय पूर्व मैन एक ऐसा ही गीत तुम्हारे मुखसे रिकार्डमें सुना था और वह अत्यंत सुंदर था और सुन्दरताके साथ गाया गया था -- ' 'चाहे मैंने तुम्हें पाया नहीं है पर, हे नाथ, फिर भी मैं तेरी उपासना करता हूँ ।

 

     तुम्हारी भगवत्प्राप्तिमें बाधा पहुँचानेवाली चीज है प्राणगत अधीरताका चंचल तत्व तथा भगवान्से तुम जो कुछ चाहते हों उनकी अप्राप्तिसे लगातार बार-बार पैदा होनेवाली दृढ निराशा । तुम्हारी निराशा एवं अधीरताभरी भावना यह है कि ' 'मैं इसे इतना चाहता हूँ, मुझे यह अवश्यमेव मिलना चाहिये, यह मुझसे क्यों रोककर रखा गया है?'' परंतु चाह चाहे कितनी भी प्रबल क्यों न हो, वह पानेके लिये कोई आदेश-पत्र नही है. इसके लिये इसके अतिरिक्त कुछ और भी अपेक्षित है । हमारा अनुभव यह कि अतिमात्र प्राणिक उत्सुकता, अत्यधिक आग्रह प्रायः मार्गमें बाधक ही होता है । यह एक प्रकारके विघ्र-बाधासमूहकी या चांचल्य एव विक्षोभके ऐसे बवंडरकी सृष्टि करता है जो भगवानके प्रवेशके लिये या अभीष्ट वस्तुके आगमनके लिये जरा-सा भी शांत अवकाश नही छोड़ता । वह इष्ट वस्तु प्राय. आती तो अवश्य है पर उस समय जब अधीरताका निश्चित रूपसे त्याग किया जा चुका हों और व्यक्तिको जो कोई भी चीज दी जाय (या, कुछ समयके लिये, न भी दी जाय) उसकी वह शांत- भावसे खुला रहकर प्रतीक्षा करे । परंतु जब तुम सच्ची भक्तिको और अधिक बढ़ाने के लिये मार्ग बना रहे होते हो तब कितनी ही बार इस प्राणिक तत्वका स्वभाव उमडकर अपना अधिकार जमा लेता है और की हुई उत्रतिको जहांका तहां रोक देता है ।

 

   अप्रसत्रताका भी अ उद्गम हे प्राण । कुछ अंशमें निराशा भी इसका कारण होती है, पर यहीं एकमात्र कारण नही है । क्योंकि यह अतीव सर्वसामान्य घटना है कि जब प्राणपर मन तथा आत्माका दबाव पड़ता है तो यह प्रायः सात्त्विक वैराग्यके स्थानपर राजसिक या तामसिक वैराग्य धारण कर लेता है । यह किसी भी वस्तुमें रस लेनेसे इनकार करता है, रूक्ष, उदासीन या अप्रसन्न हो जाता है । अथवा, यह कहता है, ' 'भला, जो सिद्धि प्रदान करनेका तुमने मुझे वचन दिया था वह मुझे क्यों नहीं मिलती? मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकता । '' इससे छुटकारा पानेका सबसे अच्छा तरीका यह है कि व्यक्ति इसका निरीक्षण करते हुए भी अपनेको इससे एकाकार न करे । यदि मन या मनका कोई भाग अनुमति दे या समर्थन करे तो, यह अवस्था डटी रहेगी या पुनः-पुन: आयेगी । यदि दुख अटल रूपसे आना ही हो तो जिस प्रकारके दुःखका तुमने अपने विगत पत्रमें वर्णन किया है वह अपेक्षाकृत वांछनीय है, वह विषाद जिसमें माधुर्य हों -- निराशा नामभर भी नही, सच्ची चीजके आनेके लिये आंत-

 

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रात्मिक स्पृहामात्र हों । शुद्ध तथा सच्ची भक्तिके बढ़नेपर ऐसी स्पृहा अवश्य उत्पन्न होगी ।

 

*

 

      जिस विकट स्थितिकी तुम चर्चा करते हों उससे निकालनेके पथका जहांतक प्रश्न है, मैं केवल एक ही पथ जानता हूँ मनको अचंचल बना देना जिससे ध्यान फलोत्पादक बन जाता है, हृदयको शुद्ध करना जिससे भागवत स्पर्श प्राप्त होता है और यथासमय भागवत उपस्थितिका बोध होता है, भगवानके सम्मुख नत रहना जो मन और प्राणको अहंभाव तथा अहंतासे मुक्त करता है --उस अहंतासे जो आत्माकी पद्धतियोंपर अपने निजी युक्ति-तर्कको थोपती है और उस अहंतासे जो आत्मसमर्पण करना अस्वी- कार करती या करनेमें असमर्थ होती है -- अंतरमें दृढ़तापूर्वक सतत पुकारते रहना और ऊर्ध्वस्थित भागवत करुणापर निर्भर रहना । ध्यान, जप, प्रार्थना या हदयकी अभीप्सा सभी सफल हो सकते हैं यदि उनके साथ ये चीज़ें अथवा कम-से-कम इनमेंसे कुछ चीज़ें विद्यमान हीं । मुझे पूरा विश्वास है कि जिस मनुष्यमें पुकार है वह यदि भगवान्की ओर ले जानेवाले पथका अनुसरण धैर्यपूर्वक करे तो वह लक्ष्यतक पहुँचनेमें असफल नही हो सकता ।

 

     मैने अवश्य हीं ऐसा कभी नही कहा है कि तुम्हें भगवानके प्रत्युत्तरकी चाह नहीं करनी चाहिये । मनुष्य उसीके लिये योग करता है । मैनई जो कुछ कहा है वह यह है कि उसे तुरत या किसी थोडेसे समयके भीतर पानेकी आशा नही करनी चाहिये अथवा उसके लिये आग्रह नहीं करना चाहिये । वह शीघ्र आ सकता या देरसे आ सकता है, पर वह आयेगा अवश्य यदि कोई श्रद्धाके साथ पुकारे । इसके लिये महज सच्चा होना ही जरूरी नही है बल्कि सब प्रकारसे श्रद्धासंपन्न होना जरूरी है । यदि मैं आग्रह करनेकी मनाही करता हूँ तो इसका कारण यह है कि मैनई सर्वदा ही यह देखा है कि यह चीज कस्निाइयां उत्पन्न करती है और दबाव तथा बेचैनी उत्पन्न होनेके कारण विलंब होता है -- जब आग्रहकी तुष्टि नही होती तो प्रकृतिमें यह दबाव और बेचैनी तथा प्राणमें निराशाए और विद्रोह उत्पन्न होते हैं । भगवान् सबसे अच्छे रूपमें जानते हैं और मनुष्यको उनकी विज्ञतापर विश्वास रखना चाहिये तथा उनके संकल्पके साथ अपने- आपको समस्वर बनाये रखना चाहिये । समयकी दीर्घता लक्ष्यपर पहुँचनेकी अंतिम अक्षमताका कोई सबूत नहीं है: यह बस इस बातका चिह्न है कि मनुष्यमें कोई ऐसी चीज है जिसे जीतना होगा, और यदि भगवान्को प्राप्त करनेका संकल्प हों तो उसे जीता जा सकता है ।

 

      यदि कोई एकदम जीवनसे पलायन कर जाना चाहे तो वह इसे केवल पूर्ण आत- रिक त्यागके द्वारा अथवा अपनेको परम ब्रह्मकी निश्चल-नीरवतामे डुबोकर अथवा उस भक्तिके द्वारा जो निरपेक्ष बन जाती हैं अथवा उस कर्मयोगके द्वारा जो अपनी निजी

 

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 इच्छा और कामनाओंको भगवानके संकल्पको अर्पित कर देता हे, कर सकता है । मैंने यह भी कहा है कि भगवत्कृपा किसी भी मुहूर्त्त एकाएक कार्य कर सकतीं है, पर उसके ऊपर मनुष्यका कोई अधिकार नही है, क्योंकि वह एक असीम संकल्प से आती है जिसे मनुष्य नहीदेख सकता । ठीक यही कारण है कि मनुष्यको कभी निराश नही होना चाहिये, इससे और फिर इस कारण भी निराश नही होना चाहिये कि भगवानके लिये की हुई कोई सच्ची अभीप्सा अंतमें असफल नही हो सकती ।

 

*

 

       आध्यात्मिक वस्तुओंका केवल एक ही युक्ति-तर्क है; वह यह कि जब भगवानके लिये कोई चाह, कोई सच्ची पुकार होती है तो वह एक दिन अपनी चरितार्थता प्राप्य करनेको बाध्य होती है । सच पूछा जाय तो जब कही कोई प्रबल. असच्चाई होती हे, किसी अन्य वस्तुके लिये - शक्ति, महत्त्वकांक्षी आदिके लिये - तीव्र लालसा होती है जो आंतरिक पुकारको व्यर्थ कर देती हे तो फिर वह युक्ति-तर्क लागू नहीं होता । तुम्हारे प्रसंगमें हदयके द्वारा, भक्तिके बढ़ जानेपर अथवा हदयकी आंतरात्मिक शुद्धि हो जानेपर उसके आनेकी ( पुकारके पूरा होनेकी) संभावना है; यही कारण है कि मैं तुम्हारे ऊपर चैत्य पथको ग्रहण करनेका दबाव डालता था ।

 

      इन भ्रांत भावनाओं और वेदनोंको अपने ऊपर शासन मत करने दो या अपने विषादकी स्थितिको अपने लिये निर्णय न देंने दो : उपलब्धिके लिये सुदृढ़ केंद्रीय संकल्प बनाये रखनेका प्रयत्न करो; तुम ऐसा कर सकते हो यदि तुम ऐसा करनेका निश्चय कर लो, इन चीजोंको करना असंभव नहीं है । तुम अनुभव करोगे कि आध्या- त्मिक कठिनाई अन्तमें मृगमरीचिकाकी तरह विलीन हो जाती हे । यह शारीर सत्ता- से संबंध रखती है और, जहां आंतरिक पुकार सच्ची होती है वहां, बाह्य चेतना भी सर्वदा टिक नही सकती. इसकी आपातदृष्ट घनता गल जायगी।

 

      निस्संदेह, तुम्हारा भक्तिकी याचना करना उचित है । क्योंकि मेरी समझमें तुम्हारी प्रकृतिकी यही सर्वप्रधान माँग है । उस विषयके लिये यह वह प्रबलतम चालक- शक्ति है जो साधनामें हो सकतीं है और उस सबके लिये सर्वोत्तम साधन है जिसे प्राप्त करना है । यही कारण है कि मैंने यह कहा था कि वास्तवमें हदयके माध्यमसे ही तुम्हें आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त होनी चाहिये ।

 

*

 

 जहांतक कृष्णके विषयमें प्रश्न है, क्यों न सरल-सीधे ढंगसे उनकी ओर आगे बढ़ा जाय? सरल भावसे बढ़नेका मतलब है उनपर विश्वास रखना । यदि तुम प्रार्थना करते हों तो विश्वास रखो कि वे सुनते हैं । यदि उत्तर आनेमें देर लगती हो तो विश्वास रखो कि वे जानते हैं और प्रेम करते हैं तथा समयका चुनाव करनेके बारमें

 

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परम बुद्धिमान् हैं । इस बीच चुपचाप जमीन साफ करो ताकि जव वे आयें तो उन्हें कंकड़-पत्थर और झाड-झंखाडपर लड़खडाना न पड़े । यही मेरा सुझाव है और जो कुछ मैं कह रहा हूँ उसे मैं खूब समझता हूँ - क्योंकि तुम चाहे जो कहो, मुझे सब मानवी कठिनाइयां और संघर्ष खूब अच्छी तरह मालूम हैं और उनका इलाज भी मुझे मालूम है । इसी कारण मैं सदा ऐसी चीजोंपर जोर देता हूँ जो संघर्षों और कठिनाइयोंको बहुत कम तथा छोटा कर देगी,--आंतरात्मिक वृत्ति, श्रद्धा, पूर्ण और सरल विश्वास तथा भरोसा । स्मरण रहे कि ये वैष्णव योगके सिद्धांत हैं । निःसंदेह, एक और वैष्णव पद्धति भी है जो उत्कंठा तथा निराशा - तीव्र स्पृहा और विरह-वेदनाके बीच झूलती रहती है । तुम उसीका अनुसरण करते दीखते हो और मैं इस बातसे इत्कार नही करता कि मनुष्य इससे लक्ष्यपर पहुँच सकता है जैसे बह प्रायः किसी भी विधिसे पहुँच सकता है यदि वह उसका सच्चाईके अनुकरण करे । परंतु तब, जो लोग उसका अनुसरण करते हैं दे विरहमे -- परम प्रेमी भगवानके वियोग तथा उनकी मनमौजमें भी रस अनुभव करते हैं । उनमेंसे कुछने यह गाया है कि उन्होंने अपने जीवनभर उनकी खोज की है पर सदा ही वह उनकी दृष्टिसे ओझल हो गये हैं और इस चीजमें भी उन्हें रस मिलता है और वे खोजना कभी नहीं छोड़ते । परंतु तुम्हें इसमें कुछ रस नहीं मिलता । अतएव तुम मुझसे यह आशा नहीं कर सकते कि मैं तुम्हारे लिये इसका समर्थन करुँ । कृष्णकी खोज अवश्य करो, परंतु खोजों इस दृढ निश्चयके साथ कि तुम अवश्य उन्हें पाओगे; विफलताकी आशा लेकर खोकै मत करो अथवा अधबीचमें छोड़ बैठनेकी किसी भी संभावनाको अपने. अंदर मत घुसने दो ।

 

*

 

         मुझे कृष्णकी पूजा या वैष्णव मत्तकी भक्तिके लिये जरा भी आपत्ति नहीं है, और न वैष्णव भक्ति और मेरे अतिमानसिक योगमें कोई विरोध है । सच पूछा जाय तो अतिमानसिक योगका कोई विशेष और ऐकांतिक रूप नहीं है; सभी मार्ग अति- मानसकी ओर ले जा सकते हैं, ठीक जैसे कि सभी मार्ग भगवान्तक पहुँचा सकते हैं ।

 

     यदि तुम लगातार प्रयास करते रहो तो तुम जिस स्थायी भक्ति और जिस उप- लब्धिको पाना चाहते हो उसे पानेमें तुम असफल नही होंगे । परंतु तुम्हें कृष्णपर पूर्ण रूपसे यह भरोसा रखना सीखना होगा कि जब वह समझेंगे कि सब कुछ तैयार हों गया है और यथार्थ समय आ गया है तब वह उसे अवश्य देंगे । यदि वह चाहते हैं कि तुम अपनी अपूर्णताओं और अशुद्धियोंको पहले दूर करो तो वह आखिरकार समझ- मे आने योग्य बात है । मैं नहीं समझता कि तुम इसे करनेमें क्यों सफल नहीं हों सकते, अब जब कि तुम्हारा ध्यान इतने सतत रूपसे इसकी ओर आकृष्ट किया जा रहा हे । उन्हें साफ-साफ देखना और उन्हें स्वीकार करना पहला पग है, उन्हें त्याग करनेका प्रबल संकल्प बनाये रखना दूसरा पग है, उनसे अपने-आपको

 

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संपूर्णत: पृथक् कर लेना जिसमे कि यदि वे प्रवेश भों करे तो यह मानो विजातीय तत्त्वों- का आना हों, अब वे तुम्हारी सामान्य प्रकृतिके अंग न रहें बल्कि बाहरसे आनेवाली सूचनाएँ हों -- यह अंतिम पग है; यहांतक कि, एक बार देखे जाने और त्यागे जानेके बाद वे अपने-आप झड़ जा सकती और विलीन हो सकतीं है, परंतु अधिकांश लोगोंके लिये इस प्रक्रियामें काफी समय लगता है । ये चीज़ें तुम्हारी प्रकृतिकी ही अनूठा बातें नहीं है, ये विश्वव्यापी मानव-प्रकृतिके अंग हैं; पर वे विलीन हों सकती हैं, अवश्य होती हैं और अवश्य होगी ।

 

*

 

        अब उस प्रश्नपर आयें जो तुम्हें परेशान करता है । वास्तवमें यह प्रश्न इस कारण उठता है कि भक्तकी भावना और आलोचककी आलोचनाके बीच तुम्हारे मनमें कुछ भ्रम है । निस्संदेह, भक्त कृष्णको इसलिये प्यार करता है कि कृष्ण प्रिय हैं, और किसी कारणसे नहीं करता; बस यही है उसकी भावना और उसकी सच्ची भावना । उसे इस विषयमें अपना सिर खपानेके लिये समय नही होता कि उसके अंदरकी किस चीजने उसे प्रेम करनेके योग्य बनाया है । यह तथ्य कि वह प्रेम करता है उसके लिये पर्याप्त होता है और उसे अपने भावोंका विश्लेषण करनेकी आवश्यकता नही होती । उसके लिये कृष्णकी कृपा रहती है उनके प्रेमयोग्य होनेमें, भक्तके सम्मुख उनके प्रकट होनेमें) उनकी पुकारमें, वंशीकी ध्वनिमें । यह हदयके लिये पर्याप्त है, अथवा यदि इसके अतिरिक्त और कोई चीज हो तो वह होतीं है यह उत्कंठा कि दूसरे या सब लोग उस वंशीको चुनें, उस मुखमंडलका दर्शन करे, इस प्रेमके समस्त सौंदर्य और परमानन्दको अनुभव करे ।

 

      सच पूछो तो भक्तका हृदय नही बल्कि आलोचकका मन यह प्रश्न उठाता है कि यह क्या बात है कि गोपियोंको ही पुकारा गया और उन्होंने तुरत प्रत्यूउत्तर दिया और दूसरोंको -- उदाहरणार्थ, ब्राह्मण स्त्रियों -- नही बुलाया गया और उन्होंने तुरत प्रत्युत्तर नही दिया । एक बार जब मन प्रश्न उठाता है तो इसके दो उत्तर संभव होते है. बिना किसी कारण महज कृष्णकी इच्छासे ऐसा होता है, यह वह चीज हे जिसे मन उनका निरपेक्ष दिव्य चुनाव या उनकी निरंकुश दिव्य मनमौज अथवा जिस हदयकी पुकार हुई हैं उसकी तैयारी कहेगा और यह ठीक उस चीजके समान है जिसे लोग अधिकार-भेद कहते हैं । तीसरा उत्तर होगा : परिस्थितियोंका वश ऐसा होता है, जैसे, ' ' के कथनानुसार '' आध्यात्मिक क्षेत्रको बंद सुरक्षित स्थानके रूपमें परिवे- ष्टितकर रखना । '' परंतु परिस्थितियां भला भगवत्कृपाको कार्य करनेसे कैसे रोक सकती हैं? परिवेष्टित कर देनेके बावजूद भी वह कार्य करती है ईसाई, मुसलमान भीं कृष्णकी कृपाशक्तिको प्रत्युत्तर देते हैं । बाघ और भूत-पिशाच भीं यदि उन्हें देख लें, उनकी वंशीध्वनि सुनें तो उन्हें प्यार करने लगेंगे? हां, पर कुछ लोग क्यों उसे सुनते और उन्हें देखते हैं पर दूसरे नही सुनते और देखते? यहां दो विकल्प हमारे

 

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सामने आ उपस्थित होते हैं कृष्णकी कृपा उन्हें पुकारती है जिन्हें वें पुकारना चाहते है और उनके चुनाव या त्यागके लिये कोई निश्चयात्मक कारण नहीं होता, बस यह सब उनकी कृपा है अथवा उनकी कृपाका पीछे हट आना या कम-से-कम विलंबित होना है अथवा वह ऐसे हृदयोंको पुकारते हैं जो स्पंदित होनेके लिये तैयार होते हैं और उनकी पुकार होते ही उछल पड़ते हैं -- और उस स्थितिमें भी वह यथार्थ मुहूर्त आनेतक प्रतीक्षा करते हैं । यह कहना कि यह बाहरी विशेषता या योग्यताके दिखावेपर नही निर्भर करता, निस्संदेह सत्य है, हों सकता है कि कोई चीज उसे आवृत्त करनेवाली बहुतसी कठोर परतोंके बावजूद जागृत होनेके लिये तैयार हों गयी हों, हों सकता है कि कोई वस्तु कृष्णके लिये दृश्य हो और हम लोंगोंके लिये न हो । संभवत: उसी स्थानमे बहुत दिन पहले वंशी बजनी शुरू हों गयी थी, पर कृष्ण कठोर परतोंको गलानेमें व्यस्त थे जिसमें कि जगानेवाले सुरके बढ़नेपर जब हृदय उछल पड़े तब फिर वे चीज़ें उसे अपने नीचे न दबा दे । गोपियोंने सुना और वे जंगलमे दौड कर चली गयी, दूसरी स्त्रियों नही गयी, --अथवा, क्या उन्होंने यह समझा कि यह केवल कोई ग्राभ्य संगीत है अथवा कोई गवार ग्वाला-प्रेमी अपनी प्रेमिकाके लिये वशी बजा रहा हैं कोई ऐसी पुकार नही है जिसे सुशिक्षित और सुसंस्कृत या धार्मिक लोग भगवान्की पुकार समझमें? आखिरकार कुछ बातें अधिकार-भेदक विषयमें भी कहने योग्य हैं । परंतु, इसमें संदेह नही कि, उन्हें व्यापक अर्थमें समझना होगा । कुछ लोगोंमें कृष्णकी वंशी पहचाननेका अधिकार हों सकता है, कुछको ईसाकी पुकार पहचाननेका, कुछको शिवकानृत्य पहचाननेका -- प्रत्येकका भागवत पुकारके उत्तरका अपना निजी ढंग और उसकी प्रकृतिका निजी उत्तर होगा । अधिकारको मनके कठोर शब्दोंमे नही व्यक्त किया जा सकता यह एक आध्यात्मिक और सूक्ष्म वस्तु है, आह्वानकारी और आहूतके बीच- की कोई गुह्य और गुप्त वस्तु है ।

 

          गर्वसे फूले मस्तकका जहांतक प्रश्न है, भगवत्कृपाका सिद्धांत निस्संदेह, उसके घटित होनेमें सहायक नही होता, यद्यपि मैं यह कल्पना कर सकता हूँ कि उक्त मस्तकने कभी कृपाका अनुभव नही किया था बल्कि केवल अपने निजी अहंके महत्त्वको अनुभव किया था । गर्वसे फूलनेका भाव व्यक्तिगत प्रयासके मार्गमें भी उसी प्रकार आ सकता है जैसे कि भगवत्कृपाकी लालसासे आ सकता है । मूलतः इसका कारण इन दोनोंमेंसे कोई नही हे, बल्कि इसका कारण इस प्रकारकी सूजनकी एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है ।

 

*

 

         राधा अनन्य भगवत्प्रेमकी प्रतिमा हैं - ऐसा अनन्य भगवत्प्रेम जो प्रेमीके ऊर्ध्वतम आध्यात्मिक सत्तासे लेकर शरीर सत्तातक सर्वांगमें परिपूर्ण और अखंड हो, जिसमें कि निरपेक्ष आत्मदान और पूर्ण समर्पण हो और जो शरीरमें तथा अत्यंत जड़ प्रकृतिमे परमानन्द भर दे ।

 

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       राधा-कृष्णकी प्रतिमा देखनेपर काम-वृत्तिके उठनेका कारण यह है कि प्राचीन समयमें राधा-कृष्ण-भक्तिपंथके साथ उसका संबंध था । परंतु वास्तवमें प्रतिमाके साथ उसका कोई संबंध नहीं । उसका सच्चा रूपक मानवीय कामजन्य आकर्षण नहीं होगा, बल्कि अंतरात्मा, चैत्य पुरुष, भागवत पुकारको सुनना और पूर्ण प्रेम तथा समर्पणभावमें विकसित होना होगा जिससे सर्वोच्च आनन्द प्राप्त होता है । यही चीज है जिसे राधा और कृष्ण अपने दिव्य एकत्वके द्वारा मानव-चेतनामें उत्पन्न करते हैं और इसी रूपमें तुम्हें इसे मानना चाहिये और प्राचीन कामवृत्तिके संबंधको दूर फेंक देना चाहिये ।

 

*

 

         गोपियां, शब्दके यथार्थ अर्थमें, सामान्य जन नही हैं, वे आध्यात्मिक प्रेमभावके मूर्त्त रूप हैं, अपने प्रेमके चरम रूप, व्यक्तिगत भक्ति और निःशेष आत्मदानके नाते असामान्य हैं । जिस किसी ब्यक्तिमें ये चीज़ें होती है, उसकी स्थिति अन्य विषयोमें ( शिक्षा, प्रस्तुत करनेकी शक्ति, विद्वत्ता, बाह्य पवित्रता आदि) चाहे जितनी नगण्य क्यों न हों, वह आसानीसे कृष्णकी खोज कर सकता और उन्हें पा सकता है, यहीं मुझे गोपियोंके रूपकका तात्पर्य प्रतीत होता है । निस्संदेह, इसके और भी बहुतसे तात्पर्य हैं - यह उन अनेकोंमेंसे केवल एक तात्पर्य है ।

 

*

 

         निश्चय ही, कृष्णके नामके साथ बहुत अधिक मनमौजपन, कठिन व्यवहार और लीला-वृत्ति जुडी हुई है जिसका मूल्य वे लोग सर्वदा तुरत-फुरत नही समझ पाते जिनके साथ वह खेल करते हैं । परंतु उनकी मनमौजमें एक युक्ति-तर्क है और साथ हीं उनकी एक गुह्य पद्धति है, और जब वह उससे बाहर निकल आते हैं और तुम्हारे साथ भला बननेकी उनकी इच्छा हो जाती है तो उनमें एक प्रकारका चरम आकर्षण, मनोहरता और मोहिनी-शक्ति आ जाती है जो, उनके लिये तुमने जो कुछ कष्ट झेल है, उसका बदला चुका देती है और बदलेसे भी कहीं अधिक चुकाती है ।

 

*

 

           भला कृष्ण घोडेपर क्यों नहीं चढ़ेंगे यदि वह वैसा करना चाहें? उनके कार्यों और आदतोंको मानव मन अथवा अपरिवर्तनीय परंपरा नही निर्धारित कर सकतीं । विशेषकर कृष्ण स्वयं अपने-आपमें एक विधान हैं । संभवत: उस स्थानपर जानेके लिये उन्हें जल्दी थी जहां वह वंशी बजाना चाहते थे ।

 

*

 

२९४


      यदि कृष्ण सर्वदा और स्वभावत: रुक्ष और दूरस्थ हों (हे भगवान्! क्या अजीब खोज है - सभी मनुष्योंके कृष्ण!), तो मनुष्यकी भक्ति और अभीप्सा कैसे उनके पासतक जा सकती है -- वह और यह ( मानव भक्ति आदि) शीघ्र ही उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवकी तरह हो जायेंगे, अधिकाधिक हिममय होते जायेंगे, सर्वदा एक- दूसरेके सम्मुख होंगे पर बीचमें पृथ्वीका उभार होनेके कारण एक-दूसरेको देखेंगे नही । फिर, यदि कृष्ण मानव भक्तको नहीं चाहते होते और उसी तरह भक्त उन्हें न चाहता होता तो फिर उन्हें कौन पा सकता था? - तब तो वह सर्वदा शिवकी तरह हिमालय- की बर्फके ऊपर बैठे रहते । परंतु इतिहास उनका दूसरा ही वर्णन देता है और साधारण- तया उनपर अत्यधिक स्नेहपूर्ण और क्रीड़ाप्रिय होनेका आरोप लगाया जाता है ।

 

*

 

       मैं नहीं समझता कि '' जिस चीजको कृष्णकी ज्योति कहता है उससे संबंधित तुम्हारे प्रश्ननका उत्तर मैं दे सकता हूँ । निश्चय ही यह वह चीज नहीं है जिसे सामान्यत: ज्ञान समझा जाता है । उसके कहनेका मतलब भागवत चेतनाकी ज्योति या उससे आनेवाली ज्योति हो सकता है अथवा उसके कहनेका मतलब कृष्णकी ज्योतिर्मय सत्ता हो सकता है जिसमें सभी चीज़ें अपने परम सत्यके अंदर विद्यमान रहती हैं - ज्ञानका सत्य, भक्तिका सत्य, परमोल्लास और आनन्दका सत्य, सभी चीज़ें वहां हैं ।

 

       फिर दिव्य ज्योतिकी एक प्रकारकी अभिव्यक्ति भी है -- उपनिषदों ज्योति- र्ब्रह्मकी, ज्योतिरूप ब्रह्मकी बात कहती हैं । बहुत बार साधक अपने ऊपर और अपने चारों ओर ज्योतिका एक प्रवाह अनुभव करता है अथवा ज्योतिकी एक धाराको अपने केंद्रोंमें यहांतक कि अपनी सारी सत्ता और शरीरतकमें अधिकार जमाते हुए तथा प्रत्येक कोषमें प्रविष्ट होते हुए और उसे आलोकित करते हुए अनुभव करता है तथा उस ज्योति- मे साधककी आध्यात्मिक चेतना वर्द्धित होती है और वह उसकी सभी या बहुतसी क्रिया- ओ और अनुभूतियोंके ओर उद्घाटित होता है । प्रसंगत, मेरे सामने रामदासकी पुस्तक 'विजन' (दर्शन) की एक आलोचना पडी है जिसमें एक ऐसे ही अनु- भबका वर्णन है जो राम मंत्रका जाप करनेसे प्राप्त हुआ था, पर, यदि मैं ठीक-ठीक समझ रहा हूँ, एक लंबी और कठोर तपश्चर्याके बाद प्राप्त हुआ था । ' 'मंत्रके अपने- आप बंद हों जानेके बाद उन्होंने एक छोटीसी वृत्ताकार ज्योति अपनी मानस-दृष्टिका सामने देखी । इससे उनके अन्दर आनन्दकी सिहरन अनुभूत हुई । यह अनुभव कुछ दिनोंतक जारी रहा, फिर बिजलीकी चमककी जैसी उनकी आंखोंके चौंधिया देने- वाली एक ज्योतिका अनुभव उन्हें हुआ और उस ज्योतिने अंतमें उन्हें आच्छादित और परिव्याप्त कर लिया । अब उनके शारीरिक ढांचेके रध-रंध्रमे एक अनिर्वचनीय आनन्दका संचार हो गया । '' यह चीज सर्वदा इस प्रकार नही आती -- अधिकांशत: यह धीरे-धीरे या लंबे व्यवधानके बाद आती है, आरंभमें, चेतनापर तबतक कार्य करती है जबतक चेतना तैयार नही हो जाती ।

 

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      हम भी यहां कृष्णकी ज्योतिकी बात कहते हैं - मनमें कृष्णकी ज्गोति, प्राणमें कृष्णकी ज्योति आदि । परंतु यह एक विशिष्ट ज्योति है - मनमें यह सुस्पष्टता लाती है, अंधकार, मानसिक भ्रांति और विकृतिसे मुक्ति देती है; प्राणमेंसे यह सभी खतरनाक पदार्थोको निकाल देती और जहां वे होते हैं वहां विशुद्ध और दिव्य प्रसन्नता और हर्ष ले आती है ।

 

        परंतु हम अपनेको सीमित क्यों करे, केवल एक चीजपर आग्रह क्यों करें और दूसरी प्रत्येक चीजको बाहर क्यों निकाल दें? चाहे भक्तिसे या ज्योतिसे या आनन्दसे या शांतिसे या चाहे किसी भी दूसरे उपायसे क्यों न मनुष्य भगवान्की प्रारंभिक अनु- भूति प्राप्त करे, मुख्य बात है उस्मेपाना और उसे प्राप्त करानेवाले सभी उपाय अच्छे !

 

         यदि कोई भक्तिपर आग्रह करता है तो वह भक्तिसे ही प्राप्त होती है और अपने पूर्ण रूपमें भक्ति और कोई चीज नहीं, सिर्फ संपूर्ण आत्मदान है । परंतु तब सभी ध्यानों, सभी तपस्याओं, प्रार्थना या मंत्रके सभी साधनोंका अन्त यही होगा और वास्तवमें जब कोई उस साधनामें पर्याप्त रूपमें अग्रसर हों चुकता है तब भागवत कृपा अवतरित होती है और अनुभूति आती है और तबतक विकसित होती रहती है जबतक कि पूर्ण नही हों जाती । परंतु उसके आगमनका मुहूर्त्त एकमात्र भगवान्की प्रज्ञाके द्वारा चूना जाता है और मनुष्यमें इतना बल अवश्य होना चाहिये कि वह उस समयके आनेतक चलता रहे, क्योंकि जब सब कुछ वास्तवमें तैयार हो जाता है तब वह आनेमें कभी नहीं चूकती ।

 

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