Letters on the integral yoga, other spiritual paths, the problems of spiritual life, and related subjects.
Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.
भाग दो और भाग तीन
विभाग- एक
पूर्णयोगका लक्ष्य
इस योगका लक्ष्य है भागवत उपस्थिति और चैतन्यमें प्रवेश करना और उसके द्वारा अधिकृत होना, एकमात्र भगवानके लिये भगवान्को प्रेम करना, अपनी प्रकृति- में भगवान्की प्रकृतिके साथ समस्वर होना और अपने संकल्प तथा कर्म तथा जीवनमें भगवानका यंत्र बन जाना । इसका उद्देश्य कोई महान् योगी या अतिमानव बनना नहीं है (यद्यपि ऐसा हो सकता है ) अथवा अहंकी शक्ति, दंभ या सुखके लिये भगवान्- को पकड़ लेना नहीं है । यह मोक्षके लिये भी नहीं है यद्यपि इससे मुक्ति प्राप्त होती है और दूसरी सभी चीज़ें भी मिल सकती हैं, पर ये सब चीज़ें हमारा उद्देश्य नहीं होनी चाहियें । एकमात्र भगवान् ही हमारे लक्ष्य हैं ।
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इस योगमार्गमें महज अतिमानव बननेकी भावनासे आना प्राणिक अहं- भावका कार्य होगा जो इसके अपने उद्देश्यको ही व्यर्थ कर देगा । जो लोग अपनी सलग्नताओंके सम्मुख इस लक्ष्यको रखते हैं वे निश्चित रूपसे आध्यात्मिक रूपमें तथा अन्य रूपमें कष्टको प्राप्त होते हैं । इस योगका लक्ष्य है, सर्वप्रथम, अपने पृथकात्मक अहंको भागवत चेतनामें निमज्जित करके उसमें प्रवेश कर जाना (प्रासंगिक रूपसे ऐसा करनेपर मनुष्य अपने सच्चे व्यक्तिगत आत्माको पा लेता है जो सीमित, व्यर्थ और स्वार्थी मानव अहं नहीं हे बल्कि भगवानका एक अंश है ) और, द्वितीयत : मन, प्राण और शरीरको रूपांतरित करनेके लिये पृथ्वीपर अतिमानसिक चेतनाको उतार लाना । अन्य सब चीजों इन दो लक्ष्योंके केवल परिणाम हो सकती हैं,. योगका मुख्य लक्ष्य नहीं हो सकतीं ।
ऐसा लगता है कि योगके विषयमें तुमने कुछ गलत भावनाएं बना रखी हैं जिनमें- से तुम्हें बाहर निकल आना चाहिये, क्योंकि वे खतरनाक हैं और प्रत्येक साधकको उन्हें निकाल बाहर करना चाहिये :
1. योगका लक्ष्य श्रीअरविन्द या श्रीमाताजीके ' 'जैसा' ' बनना नहीं है । जो लोग इस विचारका पोषण करते हैं बड़ी आसानीसे आगेके इस विचारपर पहुँच जाते हैं कि वे उनके बराबर और यहांतक कि उनसे अधिक बड़े बन सकते हैं । यह केवल अपने अहंका पोषण करना है ।
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2. योगका उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना या दूसरोंसे अधिक शक्तिशाली बनना अथवा सिद्धियां प्राप्त करना अथवा महान् या आश्चर्यजनक या चमत्कारपूर्ण कार्य करना नहीं है।
3. योगका उद्देश्य कोई महान् योगी या अतिमानव होना नहीं है । यह योगको अहंकारपूर्ण ढंगसे ग्रहण करना है और इससे कोई भलाई नहीं हो सकती । इससे पूरी तरह बचो ।
4. अतिमानसिक चेतनाके विषयमें बातें करना और उसे अपने अन्दर उतारने- की बात सोचना सबसे अधिक खतरनाक हे । यह महान् कार्य करनेकी पूर्ण लालसा उत्पन्न कर सकता और समतोलता नष्ट कर सकता है । साधकको जो चीज पानेकी चेष्टा करनी है वह है - भगवान्की ओर पूर्ण उद्घाटन, अपनी चेतनाका चैत्य रूपांतर, आध्यात्मिक रूपांतर । चेतनाके उस परिवर्तनके आवश्यक घटक हैं - स्वार्थहीनता, निष्कामभाव, विनम्रता, भक्ति, समर्पण, स्थिरता, सभता, शान्ति, अचंचल सद्हृदयता । जबतक उसमें चैत्य और आध्यात्मिक रूपांतर नहीं हो जाता, अतिमानसिक बननेकी बात सोचना एक मूर्खता है और एक उद्धत मूर्खता है ।
यदि इन सब अहंकारपूर्ण विचारोंको प्रश्रय दिया जया तो ये केवल अहंकी ही अतिरंजित कर सकते, साधनाको नष्ट कर सकते और गंभीर आध्यात्मिक विपत्ति- योंमें ले जा सकते हैं । इन बातोंका पूर्ण रूपमें परित्याग कर देना चाहिये ।
निस्सन्देह, तुम (महान् हुए बिना योग ) कर सकते हो । महान् होनेकी कोई आवश्यकता नहीं हे । इसके विपरीत, विनम्रता सबसे पहली आवश्यकता है, क्योंकि जिस ब्यक्तिमें अहंकार और गर्व है वह परमोच्च सत्यको नहीं प्राप्त कर सकता ।
स्वयं पुस्तकका जहांतक प्रश्न है, दुर्भाग्यवश मैं तेलुगु भाषासे अनभिज्ञ हूँ और मूल पुस्तक नहीं पढ़ सकता । परन्तु अंग्रेजीमें जो वर्णन है उससे मैंने उसके सारांशकी थोड़ीसी धारणा बनायी है । मैं समझता हूँ कि मुख्य रूपमें यह पूर्णयोग और मेरे संदेश- का एक वर्णन और समर्थन है; मेरी समझमें तुमने सही रूपमें इसके दो प्रमुख तत्वोंका वर्णन किया है - पहला, जगत्को भगवती शक्तिकी एक अभिव्यक्तिके रूपमें स्वीकार करना, एक भूल या मिथ्या माया मानकर त्याग न करना, और दूसरा, इस अभिव्यक्तिका स्वरूप है एक आध्यात्मिक विकास जिसमें योगके द्वारा मन, प्राण, शरीरको रूपांतरित करके आध्यात्मिक, तथा अतिमानसिक पूर्णत्वके यंत्र बनाया जा सकता है । विश्व कोई भौतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक तथ्य है, जीवन केवल शक्तियोंकी एक कोई अथवा कोई मानसिक अनुभव नहीं हे, बल्कि प्रच्छन्न आत्माके
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क्रमविकासका एक क्षेत्र है । जब यह सत्य पकड़ा जायगा और हमारे जीवनकी प्रेरक?- शक्ति बनाया जायगा तथा इस प्रभावशाली सिद्धिका मार्ग आविष्कृत होगा केवल तभी अपनेसे परेकी किसी वस्तुमें मानव-जीवन अपनी चरितार्थता और रूपांतरको प्राप्त करेगा । सिद्धिका पथ एक पूर्णयोगमें प्राप्त करना होगा, अपनी सत्ताके सभी अंगोमे भगवान्के साथ एकत्व प्राप्त करना होगा और उसके फलस्वरूप उनके सभी अभी संघर्षरत तत्त्वोंको बदलकर एक उच्चतर दिव्य चेतना और सत्ताके साथ सुसमं- जस कर देना होगा ।
योगके जिस मार्गका यहां अनुसरण किया जाता है उसका उद्देश्य अन्य योग- मार्गोंसे भिन्न है,-क्योकि इसका लक्ष्य केवल सामान्य अज्ञ जगच्चेतनासे ऊपर उठकर भागवत चेतनामें पहुँच जाना ही नहीं है, प्रत्युत उस भागवत चेतनाकी अतिमानसिक शक्तिको मन, प्राण और शरीरके अज्ञानके अन्दर उतार लाना, इन्हें रूपांतरित करना, यहां इस पृथ्वीपर भगवान्को प्रकट करना तथा जड़-पार्थिव प्रकृतिमें एक दिव्य जीवन- का निर्माण करना इसका लक्ष्य है । यह बड़ा ही दुर्गम लक्ष्य है और कठिन योगसाधन है; बहुत लोगोंको, या प्रायः सभी लोगोंको यह असम्भव ही प्रतीत होगा । साधारण अज्ञ जगच्चेतनामे जो शक्तियां जमकर बैठी हुई हैं वे इसके विरुद्ध हैं, इसे अस्वीकार करती हैं और इसकी सिद्धिमें बाधा ही डालनेका प्रयत्न करती हैं, और साधक स्वयं भी देखेगा कि उसके अपने मन, प्राण और शरीर इसकी प्राप्तिमें कितनी जबर्दस्ती बाधाएं उपस्थित कर रहे हैं । यदि तुम इस लक्ष्यको सर्वात्मना स्वीकार कर सको, इसके लिये सभी कठिनाइयोंका सामना कर सको, भूतकालमें जो कुछ हुआ है उसे और उसके बंधनोको पीछे छोड़ सको और इस दिव्य संभावनाके लिये सब कुछ छोड देनेके लिये, तथा आगे जो कुछ भी हो उसके लिये, तैयार हो जाओ, तो ही यह आशा कर सकते हो कि इस योगसाधनाके पीछे जो महत्सत्य छिपा हुआ है उसे स्वानुभवसे ढूँढकर प्राप्त कर सको ।
इस योगकी साधनाका कोई बंधा हुआ मानसिक अभ्यासक्रम या ध्यानका कोई निश्चित प्रकार अथवा कोई मंत्र या तंत्र नहीं है । बल्कि यह साधना साधकके हृदयकी अभीप्सासे आरम्भ होती है; साधक अपने ऊर्ध्वस्थित या अंतःस्थित आत्माका ध्यान करता है, अपने-आपको भागवत प्रभावकी ओर, हमारे ऊपर स्थित भागवत शक्ति और उसके कार्यकी ओर तथा हृदयमें विद्यमान भागवत उपस्थितिकी ओर उद्घाटित कर देता है और जो कुछ इन बातोंके लिये विजातीय है उस सबका परित्याग कर देता है । केवल श्रद्धा, अभीप्सा तथा आत्मसमर्पणके द्वारा ही यह सत्योद्घाटन हो सकता
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तुममें स्पष्ट ही एक पुकार है और योग-साधनाके योग्य हो सकते हो; परन्तु योगके विभिन्न पथ हैं और प्रत्येक व्यक्तिके सामने एक अलग लक्ष्य और उद्देश्य होता है । सभी मार्गोंमें ये बातें समान रूपसे पायी जाती हैं कि मनुष्यको अपनी कामनाएं जीतनी चाहियें, जीवनके सामान्य सम्बन्धोंको एक किनारे छोड़ देना चाहिये और अनिश्चयताकी स्थितिसे शाश्वत निश्चयतामें चले जानेकी कोशिश करनी चाहिये । मनुष्य अपने स्वप्न और नींद, भूख और प्यास आदिको भी जीतनेकी कोशिश कर सकता है । परन्तु मेरे योगका यह कोई अंग नहीं है कि मनुष्य संसारके साथ या जीवनके साथ कोई सरोकार न रखे या इंद्रियोंको मार डाले और अपने कर्म पूर्णत: बन्द कर दे । मेरे योगका यह लक्ष्य ही है कि मनुष्य अपने जीवनमें दिव्य सत्यका प्रकाश, बल और आनन्द तथा उसकी सक्रिय निश्चयताओको उतारकर उसका रूपांतर करे । यह योग संसार- का त्याग करनेवाले संन्यासका योग नहीं है, बल्कि दिव्य जीवनका योग है । तुम्हारा उद्देश्य, दूसरी ओर, केवल समाधिमें प्रवेश करने और उसके अन्दर सांसारिक जीवन- के साथके अपने सभी सम्बन्धोंको त्याग देनेपर प्राप्त हो सकता है ।
संन्यासी होना अनिवार्य नहीं है -- यदि कोई ऊपरी चेतनामें रहनेके बजाय आंतरिक चेतनामें रहना सीख जाय, अपने अंतरात्मा या सच्चे व्यक्तित्वको ढूँढ सके जो कि उपरितलीय मन और प्राणकी शक्तियोंसे आच्छन्न है और अपनी सत्ताको अति- चेतन सद्वस्तुकी ओर उद्घाटित कर सके तो यह पर्याप्त है । परन्तु ऐसा करनेमें कोई तबतक सफल नहीं हो सकता जबतक कि वह अपने प्रयासमें पूर्णरूपेण सच्चा और एकमुखी न हो ।
दूसरे प्रश्नका जहांतक सम्बन्ध है, श्रीअरविन्दके मिशनमें हाथ बंटाना इस बातपर निर्भर करता है कि मनुष्यमें एक कठिन योग करनेकी क्षमता हो अथवा उस आदर्शके लिये अपना जीवन लगा देनेकी पुकार हो और अहंकारकी मांगों या प्राणिक कामनाओंका कोई विचार न हो; अन्यथा इसके विषयमें नहीं सोचना ही अधिक अच्छा है ।
हाँ, जबतक बाहरी प्रकृति रूपांतरित नहीं हो जाती, मनुष्य जितना ऊँचा उठना संभव हो उतना ऊंचा उठ सकता है और बहुत वड़ी-बडी अनुभूतियां प्राप्त कर सकता है - परन्तु बाह्य मन अज्ञानका ही यंत्र बना
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यदि प्राण अभी अशुद्ध भी हो तो भी मानसिक-आध्यात्मिक स्तरपर एक प्रकार- की अनुभूतियां प्राप्त करना सर्वदा सम्भव है । उस समय मानसिक पुरुष और प्रकृति- का एक प्रकारका पार्थक्य साधित हो जाता है और उसके फलस्वरूप एक ज्ञान प्राप्त होता है जिसका जीवनपर कोई रूपांतरकारी प्रभाव नही पड़ता । परन्तु इन जोगियों- का सिद्धांत यह है कि बस आत्माको जाननेकी जरूरत है; जीवन और जीवनमें जो कुछ मनुष्य करता है उससे कुछ आता-जाता नहीं । क्या तुमने उस योगीकी कहानी नहीं पडी है जो अपनी रखेलके साथ आया था और जिससे रामकृष्णने पूछा था: ' 'इस तरह क्यों जीवन बिताते हो?'' उसने उत्तर दिया, ' 'सब कुछ माया है, इसलिये जब- तक मैं ब्रह्मको जानता हूँ तबतक मैं जो कुछ भी करूं उससे कुछ आता-जाता नहीं । '' यह सच है कि रामकृष्णने उत्तर दिया: ' 'मैं तुम्हारे वेदान्तपर मूकता हूँ, '' परन्तु तर्क- की दृष्टिसे उस योगीका भी एक पक्ष था -- क्योंकि, यदि समस्त जीवन और कर्म माया हो और केवल नीरव ब्रह्म ही सत्य हो - तो फिर!
ब्राह्मी स्थितिमें मनुष्य आत्माको अस्पृष्ट और शुद्ध अनुभव करता है पर प्रकृति अपूर्ण बनी रहती है । साधारण संन्यासी उसकी कोई परवाह नहीं करता, क्योंकि उसका उद्देश्य प्रकृतिको पूर्ण बनाना नहीं है: बल्कि उससे अपनेको पृथक् कर लेना है ।
शान्ति आवश्यक आधार है पर शान्ति पर्याप्त नहीं है । यदि शान्ति प्रबल और स्थायी हो तो वह आंतर सत्ताको मुक्त कर सकती है जो बाह्य क्रियाओंका एक स्थिर और अचंचल साक्षी बन सकती है । यही संन्यासीकी मुक्ति है । कुछ प्रसंगोंमें वह बाहरी सत्ताको भी मुक्त कर सकती है और पुरानी प्रकृतिको बाहर पारिपार्श्विक चेतना- में फेंक सकती है, परन्तु यह भी मुक्ति है, रूपांतर नही है ।
उन्होंने (प्राचीन योगोंने ) आत्मसाक्षात्कारको लक्ष्य बनाया और दिव्यभावा- पन्न बननेकी कोई परवाह नहीं की, सिवाय तांत्रिक और कुछ अन्य लोंगोंके । परन्तु इन सब पथोंमें भी बल्कि लक्ष्य अन्य किसी चीजकी अपेक्षा संत और सिद्ध बनना ही था ।
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चेतनाका स्तर अनुभूतिकी शक्ति और ज्योतिर्मयता और पूर्णतामें बहुत अधिक अन्तर ला देता है । मानसिक साक्षात्कार अधिमानसिक या अतिमानसिक साक्षात्कारसे बहुत भिन्न होता है यद्यपि अनुभूत सत्य एक ही हो सकता है । उसी तरह जडतत्त्वको ब्रह्म जाननेका फल भी प्राण, मन, अतिमन या आनन्दको ब्रह्म जानने- के फलसे बहुत भिन्न होता है । यदि भगवान्को मनके द्वारा प्राप्त करना ठीक वही चीज हो जो उच्चतर लोकोंमें उन्हें पाना हो तो फिर इस योगका जरा भी कोई अर्थ नहीं रह जायगा -- फिर अतिमानसतक ऊपर आरोहण करने या उसे नीचे उतार लानेकी कोई आवश्यकता नहीं होगी ।
भगवान्के साथ पूर्ण एकत्व प्राप्त करना अन्तिम लक्ष्य है । जब किसीको किसी प्रकारका सतत एकत्व प्राप्त हों जाता है तो उसे योगी कहा जा सकता है, पर एकत्व- को पूर्ण बनाना होगा । कुछ योगी ऐसे होते हैं जिन्हें आध्यात्मिक स्तरपर एकत्व प्राप्त होता है, दूसरे ऐसे होते ऐ जो मन .और हृदयमें युक्त होते हैं, कुछ दूसरे प्राणमें भी युक्त होते हैं । हमारे योगमें हमारा लक्ष्य है भौतिक चेतनामें और आतेमानसिक लोकमें भी युक्त हो जाना ।
परन्तु उन्हें (अपरम्परागत मार्गोंके योगियोंको ) भला ( अतिमानसके अवतरण- का ) कोई दबाव क्यों अनुभव करना चाहिये जब कि वे अपनी प्राप्त अनुभूतिसे संतुष्ट थे? वे आध्यात्मिक मनमें रहते हैं और मनका स्वभाव है पृथक् करना -- यहां भगवान्के किसी उच्च स्वरूप या स्थितिको पृथक् कर लेना और बाकी सबको छोड़कर केवल उसीको पानेकी चेष्टा करना । सभी आध्यात्मिक दर्शनशास्त्र और योगमार्ग ऐसा हो करते है । यदि वे परे जाते हैं तो वे 'केवल' ब्रह्मतक जाते हैं -- और मन पूर्ण ब्रह्मकी कल्पना केवल इसी रूपमें कर सकता है कि वह कोई अकल्पनीय वस्तु है, 'नेती नेती' । अधिकंतु, समाधिमे जानेके लिये वे एक एकाकी विचारपर एकाग्र होते हैं और वे उसी चीजको पाते हैं जिसे वह विचार व्यक्त करता है -- समाधि-अवस्था अपने स्वरूपमें बस उसी भावनाके ऊपर एक अनन्य एकाग्रता है । अतएव यह चीज भला किसी दूसरी वस्तुकी ओर उन्हें क्यों खोलेगी? केवल थोडेसे लोग ही ऐसे होते हैं जो इतनी पर्याप्त मात्रामें नमनीय होते हैं कि अपनेकी सीमित करनेवाली साधनाकी इस स्थितिसे बच सकें - उन्हें यह अनुभव होता है कि अनुभूतिका कोई अन्त नहीं है, जब वे एक शिखरपर पहुँचते हैं तो उसके परे वे दूसरा शिखर देखते हैं । इससे अधिक देखनेके लिये साधकको अतिमानसके साथ सज्ञान जाग्रत् संपर्क प्राप्त करना या कम-से-कम उसकी झाकि प्राप्त करनी -- और इसका
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अर्थ है आध्यात्मिक मनसे परे चले जाना ।
इस योगका एकदम सिद्धात ही यह है कि एकमात्र चेतनाका अतिमानसीकरण होनेपर ही -- जिसका मतलब है मनसे ऊपर अतिमनमें चला जाना और अतिमनका प्रकृतिके अन्दर उतर आना -- अन्तिम रूपांतर साधित किया जा सकता है । अतएव, यदि कोई मनुष्य मनसे ऊपर अतिमनमें नहीं उठ सकता और अतिमनका अवतरण नहीं करा सकता तो न्यायत: यह योग करना असम्भव हो जाता है । प्रत्येक मनुष्य तत्वतः भगवान्के साथ एक है और अपनी व्यक्तिगत सत्तामें भगवान्का एक अंश है, अतएव उसके अतिमानसिक बननेमें कोई अलंध्य बाधा नहीं है । परन्तु इसमें संदेह नही कि अपने आधारमें मानसिक होनेके कारण किसी मानव-प्रकृतिके लिये केवल अपने एकाकी प्रयाससे अज्ञानका अतिक्रमण करना तथा अतिमानसतक ऊपर उठना या उसका अवतरण कराना असम्भव है, परन्तु भगवान्को समर्पण करनेपर इसे सिद्ध किया जा सकता है । मनुष्य अपनी निजी चेतनाके द्वारा उसे पार्थिब प्रकृतिमें उतार लाता है और 'इस तरह दूसरोंके लिये मार्ग खोल देता है, परन्तु इस परिवर्तनको प्रत्येक चेतनाके अन्दर दुहराना होता है तभी वह व्यक्तिके अन्दर फलोत्पादक बनता है ।
योगका उद्देश्य है अपनी चेतनाको भगवान्की ओर खोलना और अधिकाधिक आंतर चेतनामें निवास करना तथा वहींसे बाहरी जीवनपर कार्य करना, उसे प्रभावित करना, अपने अन्तरतम हृत्युरुषको सामने ले आना और हृत्युरुषकी शक्तिसे अपनी सारी सत्ताको इस तरह शुद्ध और परिवर्तित करना जिसमे कि वह रूपांतरके लिये तैयार हो सके तथा भागवत ज्ञान, संकल्प और प्रेमके साथ युक्त हो सके । दूसरे, भौतिक चेतनाका विकास करना अर्थात् अपने आधारके सभी स्तरोंको वैश्वभावापन्न बनाना, विश्वपुरुष तथा विश्वशक्तियोका ज्ञान प्राप्त करना और अधिमानसतक चेतनाके सभी स्तरोंमें भगवान्के साथ युक्त होना । तीसरे, अधिमानसके परे जो परात्पर भगवान् हैं उनके साथ अतिमानस-चेतनाके द्वारा सम्बन्ध स्थापित करना, अपनी चेतना और प्रकृतिको अतिमानसभावापन्न बनाना तथा क्रियाशील भागवत सत्यकी सिद्धि और पार्थिव प्रकृतिमें इसके रूपांतरकारी अवतरण के लिये अपने-आपको एक यंत्र बनाना ।
हमारे लिये भगवान्के तीन रूप ' -
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1. वह विश्वात्मा और विश्वपुरुष है जो सभी वस्तुओं और जिबोंके पीछे विद्यमान है और जिससे और जिसमें विश्वके अन्दर सब कुछ प्रकट हो रहा है - यद्यपि यह अभी अज्ञानके अन्दर होनेवाली अभिव्यक्ति है ।
2. वह हमारे अन्दर विद्यमान हमारी निजी सत्ताके आत्मा और प्रभु हैं जिनकी हमें सेवा करनी है और जिनकी इच्छाको हमें अपनी सभी गतिविधियोंमें अभिव्यक्त करना सीखना है जिसमें कि हम अज्ञानसे बाहर निकलकर ज्योतिमें वर्द्धित हो सकें ।
3. भगवान् परात्पर सत्ता और आत्मा हैं, समस्त आनन्द और ज्योति और दिव्य ज्ञान तथा शक्ति हैं, और उसी उच्चतम भागवत सत्ता और उसकी ज्योतिकी ओर हमें ऊपर उठना हूँ एवं उसके सत्यको अधिकाधिक अपनी चेतना और जीवनमें नीचे उतार लाना है ।
सामान्य प्रकृतिमें हम अज्ञानमें रहते हैं और भगवान्को नहीं जानते । साधारण प्रकृतिकी शक्तियां अदिव्य शक्तियां हैं क्योंकि वे अहंकार, कामना और अचेतनताका एक पर्दा बुनती हैं जो भगवान्को हमसे ढक देता है । जो उच्चतर और गभीरतर चेतना जानती और ज्योतिर्मयी रूपसे भगवान्में निवास करती है उसमें जानेके लिये हमें निम्नतर प्रकृतिकी शक्तियोंसे छुटकारा पाना होगा और भगवती शक्तिकी क्रिया- की ओर उद्घाटित होना होगा जो हमारी चेतनाको भागवत प्रकृतिकी चेतनामें रूपांतरित कर देगी ।
भगवान्सम्बन्धी यही परिकल्पना है जिससे हमें आरम्भ करना होगा - इसके सत्यका साक्षात्कार केवल तभी हो सकता है जब हमारी चेतना उद्घाटित और परिवर्त्तित हो जायगी ।
परात्पर, विश्वगत और व्यक्तिगत भगवान्के बीचका यह विभेद मेरा अपना आविष्कार नहीं है, न यह भारत या एशियाकी ही देशी उपज है - यह, इसके विपरीत एक स्वीकृत यूरोपियन शिक्षा है जो कैथोलिक चर्चकी गुह्य परम्परामें प्रचलित है, जहां यह त्रिमूर्त्ति पिता, पुत्र और पवित्रात्मा - की प्रामाणिक व्याख्या है, और यह यूरोपीय गुह्य अनुभवको भी बहुत ज्ञात है । साररूपमें यह सभी आध्यात्मिक साधनाओंमें पायी जाती है जो भगवान्की सर्वव्यापकताको स्वीकार करती हैं - भारतीय वैदान्तिक अनुभवमें यह है और मुसलमानी योगमें है (केवल सूफी मतमें नहीं, बल्कि अन्य भतोंमें भी ) - मुसलमान लोग दो या तीन नहीं बल्कि भगवान्के बहुतसे स्तरोंकी बात त्री कहते हैं और उनके बाद ही कोई परात्परतक पहुँचता है । स्वयं इस भावनाका जहांतक प्रश्न है, निश्चय ही देश और कालके अन्दर स्थित व्यक्ति और विश्व और जो कुछ इस विश्व-व्यवस्थाको या किसी भी विश्व- व्यवस्थाको अतिक्रांत करता है, उसके बीच एक अन्तर है । एक वैश्व चेतना है जिसका अनुभव बहुतोंको हुआ है और जो अपने प्रसार और कर्ममें व्यक्तिगत चेतनासे एकदम
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मित्र है के क कोई चेतना विश्वसे परे, अनन्त तथा यथार्थतः शाश्वत है, मात्र, कालमें ही विस्तारित नहीं है, तो वह भी अवश्य ही इन दोसे भिन्न होगी । और यदि भगवान् इन तीनोंमें हैं या अपनेको अभिव्यक्त करते हैं तो क्या यह बुद्धिगम्य नहीं है कि अपने रूपमें, अपनी क्रियामें, वह अपनेको इतना अधिक भिन्न बना सकते हैं कि, यदि हमें अनुभवके समस्त सत्यको एक साथ मिला-जुला न देना हो, यदि हमें किसी अनिर्वचनीय वस्तुके महज निश्चल अनुभवसे ही अपनेको सीमित न करना हो तो हम भगवानके त्रिविध स्वरूपकी चर्चा करनेको बाध्य हैं?
योगसाधना करते हुए इन तीनों सम्भव अनुभूतियोंके साथ व्यवहार करनेके हमारे तरीकोंमें बहुत बड़ा सक्रिय अंतर होता है । यदि हम भगवान्को, अपने व्यक्ति- गत आत्माके रूपमें नहीं बल्कि केवल उस रूपमें अनुभव करें जो अभी गुप्त रूपमें मेरी समस्त व्यक्तिगत सत्ताको चलाता है और जिसे मैं परदेसे बाहर सामनेकी ओर ले आ सकता हूँ, अथवा यदि मैं अपने अंगोंमें उस देवकी मूर्तिका निर्माण कर सकूँ तो यह है तो एक उपलब्धि पर है एक सीमित उपलब्धि । यदि मैं विश्व-देवको अनुभव करूं, उसके अन्दर समस्त व्यक्तिगत आत्माको खो दूँ तो यह है तो एक बहुत विशाल उपलब्धि, पर मैं विश्व-शक्तिकी महज एक प्रणाली बन जाता हूँ और मेरे लिये कोई भी व्यक्तिगत या दिव्यत: व्यक्तिगत ससिद्धि नहीं रह जाती । यदि मैं केवल परात्पर अनुभूतिमें ऊपर निकल जाऊं तो मैं अपनेको और संसारको, दोनोंको ही परात्पर ब्रह्ममें खो देता हूँ । दूसरी ओर, यदि इनमेसे कोई भी चीज स्वयं अपने-आपमें मेरा उद्देश्य न हो, बल्कि भगवान्को उपलब्ध करना और संसारमें उन्हें अभिव्यक्त करना भी हो, इस उद्देश्यके लिये अभीतक अव्यक्त दिव्य शक्ति - जैसे अतिमानस - को उतार लाना हो तो इन तीनोंका ही सामजस्यीकरण अपरिहार्य हो जाता है । मुझे उसे नीचे उतार लाना है, और कहांसे मैं उसे उतरंग,-क्योंकि वह विश्व-व्यवस्थाके अन्दर अभीतक व्यक्त नहीं है,-यदि अव्यक्त परात्परसे उसे न उतारू, जहांतक मुझे जाना होगा और जिसे प्राप्त करना होगा? मुझे उसे विश्व-व्यवस्थाके अन्दर उतार लाना होगा और, यदि ऐसा हो तो, मुझे विश्वगत भगवान्को प्राप्त करना होगा और विश्वात्मा तथा विश्व-शक्तियोंके विषयमें सचेतन होना होगा । परन्तु मुझे उसे यहां मूर्तिमान् करना है,-अन्यथा यह केवल एक प्रभावके रूपमें ही छूट जायगा और कोई भौतिक जगत्में स्थापित वस्तु नहीं होगा, और एकमात्र व्यक्तिके अन्दर विद्यमान भगवान्के द्वारा ही ऐसा किया जा सकता है ।
ये हैं आध्यात्मिक अनुभवकी गतिशील शक्तियां और यदि भागवत कर्मको पूरा होना है तो मैं इन्हें अगीकारकरनेको बाध्य हूँ ।
भगवान्से हम जो कुछ पा सकते हैं केवल उसीके लिये भगवान्को चाहना स्पष्ट ही उचित मनोभाव नहीं है; परन्तु इन चीजोंके लिये उन्हें चाहना यदि एकदम मना
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होता तो संसारमें अधिकांश लोग उनकी ओर बिलकुल न मुड़ते । मैं समझग है सकूं लिये इसकी स्वीकृति दी गयी है जिसमें कि वे प्रारम्भ कर सकें - यदि उनमें श्रद्धा हो तो वे जो कुछ चाहते हैं वह पा सकते है और यह समझ सकते हैं कि इसे जारी रखना अच्छा है । फिर एक दिन अचानक उन्हें यह विचार सूझ सकता हे कि आखिर एकदम यही एकमात्र करणीय नहीं है, इससे भी अच्छा तरीका और अच्छा भाव है जिसके साथ हम भगवानके पास जा सकते हैं । यदि वे वह चीज न पायें जिसे वे चाहते हैं और फिर भी भगवानके पास आयें और उनपर विश्वास रखें तो फिर यह सूचित करता है कि वे तैयार हो रहे हैं । आओ, हम इसे अप्रस्तुत लोगोंके लिये एक प्रकारका शिशु- विद्यालय समझे । परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वह आध्यात्मिक जीवन नहीं है, यह केवल एक प्रकारका प्रारम्भिक धार्मिक पथ है । आध्यात्मिक जीवनके लिये तो नियम है कि दे दो और मांगो मत । परन्तु साधक भगवती शक्तिसे अपने स्वास्थ्यको बनाये रखनेके लिये या फिरसे प्राप्त करनेके लिये सहायता करनेकी प्रार्थना कर सकता है यदि वह इसे अपनी साधनाके अंगके रूपमें करे जिसमें कि उसका शरीर आध्यात्मिक जीवनके लिये समर्थ और योग्य हो सके और भागवत कर्मके लिये एक सक्षम यंत्र बन सके ।
आओ, पहले हम इस बिलकुल अप्रासंगिक विचारको एक ओर अलग रख दें कि यदि भगवानके साथ एकत्व प्राप्त होनेपर शाश्वत निरानंद या यंत्रणा प्राप्त हो तो हम क्या करेंगे । ऐसी किसी चीजका अस्तित्व ही नहीं है और इसे व्यर्थ बहसके बीच घुसेड़ देनेसे प्रमुख प्रश्न मेघाच्छन्न हो जाता है । भगवान् आनंदमय हैं और जो आनन्द वह देते हैं उसके लिये मनुष्य उन्हें खोज सकता है; परन्तु उनमें दूसरी बहुतसी चीजे भी हैं और मनुष्य उनमेंसे किसी भी चीजके लिये उन्हें खोज सकता है, जैसे शान्तिके लिये, मुक्तिके लिये, ज्ञानके लिये, शक्तिके लिये, दूसरी किसी भी चीजके लिये जिसके प्रति वह आकर्षण या अन्तःप्रेरणा अनुभव करे । किसीके लिये यह कहना बिलकुल सम्भव है कि ' 'मुझे तो भगवान्से शक्ति प्राप्त कर लेने और उनका कार्य या उनका संकल्प सिद्ध करने दो और मैं संतुष्ट 'हूँ, यद्यपि शुक्तिका प्रयोग करनेसे कष्ट भी क्यों न उठाना पडे । '' आनन्दको एक अत्यन्त महान् या उल्लासपूर्ण वस्तु समझकर उससे कतराना और केवल या अधिकांशत: शान्ति, मुक्ति, निर्वाणको पानेकी चेष्टा करना सम्भव है । तुम आत्मपरिपूर्णताकी बात करते हो,-मनुष्य परात्परको भगवान् नहीं बल्कि अपना उच्चतम आत्मा समझ सकता है और उस उच्चतम आत्मामें अपनी सत्ताकी परिपूर्णता पानेका प्रयास कर सकता है; परन्तु परम सुख, परमोल्लास, आनन्द- को उसे आत्मा माननेकी आवश्यकता. नहीं -- मनुष्य उसे मुक्ति, विशालता, ज्ञान, शान्ति, शक्ति, स्थिरता, पूर्णताका आत्मा मान सकता है - सम्भवतः अत्यंत शांत- स्थिर जिसे किसी - एक हिलोर भी इतना भंग न करे कि ल कृ० आये । अतएव
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यदि कोई कुछ प्राप्त करनेके लिये ही भगवानके पास आता है तो यह सत्य नहीं हे कि मनुष्य अन्य किसी वस्तुके लिये नहीं बल्कि केवल आनन्द पानेके लिये ही भगवानके पास आ सकता अथवा उनके साथ एकत्व प्राप्त करनेका प्रयास कर सकता है ।
यह बात तो एक ऐसी चीजको अंतर्भूत करती है जो तुम्हारे सारे तर्कको ही नष्ट- भ्रष्ट कर देगी । क्योंकि ये भागवत प्रकृतिके विभिन्न रूप, उसकी शक्तियां, भाग- वत सत्ताके स्तर हैं,--परन्तु भगवान् स्वयं कोई निरपेक्ष वस्तु हैं, कोई स्वयंसत् सत्ता हैं, अपने रूपोंसे सीमित नहीं है,-अद्भुत और अनिर्वचनीय हैं, उन (रूपों ) के कारण उनका अस्तित्व नहीं है, बल्कि उनके कारण उन (रूपों ) का अस्तित्व है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि वह अपने रूपोंके द्वारा आकर्षित. करते हैं तो वह अपने नितांत निरपेक्ष आत्मस्वरूपके द्वारा और भी अधिक आकर्षित कर सकते हैं जो उनके किसी रूपसे कहीं अधिक मघुर, शक्तिसंपन्न और गभीर है । उनकी शांति, आनन्दोल्लास, ज्योति, स्वातन्त्र्य, सौन्दर्य अद्भुत और अनिर्वचनीय हैं, क्यग़ेंके वह स्वयं ही जादुई ढंगसे, रहस्यमय रूपसे, चरम रूपसे अद्भुत और अनिर्वचनीय हैं । तब हम उन्हें उनके आश्चर्यमय और अकथनीय स्वरूपके लिये उनकी खोज कर सकते. हैं और केवल उनके किसी एक या दूसरे रूपके लिये ही नहीं कर सकते । उसके लिये बस आवश्यक बात यह है कि सर्वप्रथम, हमें उस बिडपर पहुँच जाना होगा जहां चैत्य पुरुष अपने अन्दर भगवान्के लिये यह खिंचाव अनुभव करता है और, द्वितीयत:, हमें उस बिन्दुपर पहुँच जाना होगा जहां मन, प्राण और दूसरी प्रत्येक चीज भी यह अनुभव करती है कि यही वह चीज थी जिसका अभाव वह अनुभवकरती थी और आनन्दके लिये जो उपरितलीय खोज थी या अन्य जो कुछ था वह सब केवल प्रकृतिको उस सर्वोच्च चुंबककी ओर खींचनेका एक बहाना था ।
तुम्हारा यह तर्क कि चूँकि हम जानते हैं कि भगवान्के साथ प्राप्त एकत्व आनन्द प्रदान करेगा, इसलिये अवश्य ही हम आनन्दके लिये उस एकत्वकी खोज करते है, सही नहीं है और न उसमें कोई बल हे । जो व्यक्ति किसी रानीको प्यार करता हे वह यह जान सकता है कि यदि वह उसके प्रेमका प्रत्युत्तर देगी तो उसे शक्ति, पद प्रतिष्ठा, धन प्राप्त होगा और फिर भी यह आवश्यक नहीं कि वह शक्ति, पद-प्रतिष्ठा और धनके लिये ही उसका प्रेम चाहे । वह उसे उसीके लिये प्यार कर सकता है । और यदि वह कोई रानी न भी होती तो वह उसे उसी तरह प्यार कर सकता; उसे किसी भी प्रकारका प्रतिफल पानेकी कोई आशा नहीं हो सकती और फिर भी वह उसे प्यार कर सकता, उसकी पूजा कर सकता, उसीके लिये जी सकता, उसीके लिये मर सकता है महज इस कारणसे कि वह वह है । ऐसा घटित हुआ है और मनुष्योंने स्त्रियोंको भोग या उत्तरकी किसी आशाके बिना प्यार किया है, उम्र हो जाने और सौन्दर्यके चले जानेके बाद भी सतत और तीव्र रूपमें प्यार किया है । देशभक्त अपने देशको केवल तभी प्यार नहीं करते जब वह समृद्ध, शक्तिशाली और महान् होता है तथा उसके पास उन्हें देनेके लिये बहुत होता है । देशके प्रति प्रेम उस समय अत्यन्त तीव्र आबेग्पूर्ण, अनन्य हुआ है जब देश गरीब, पतित, दु :खी था , देनेके लिए उसके पास कुछ
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न था, वरन् उसकी सेविका पुरस्कार था हानि उठाना, मार खाना, उत्पीड़न, कारावास, और मृत्यु । फिर भी यह जानते हुए कि वे उसे स्वतंत्र नहीं देखेंगे मनुष्य उसके लिये जिये हैं, मरे है और उसकी उन्होंने सेवा की है - केवल उसके लिये यह सब किया है, न कि जो कुछ वह दे सकता था उसके लिये । मनुष्योंने सत्यको केवल उसके तई प्रेम किया है और सत्यका जो कुछ भी अंश वे खोज सकते या पा सकते थे उसके लिये उन्होंने दरिद्रता, अत्याचार और मृत्युको स्वीकार किया । यहांतक कि वे सर्वदा उसकी खोज- से ही संतुष्ट रहे, उन्होंने उसे नहीं पाया, और फिर भी अपनी खोजकोकभी नहीं छोड़ा । इसका अर्थ क्या है? यही कि मनुष्य, देश, सत्य तथा इनके अतिरिक्त दूसरी चीजों- को भी उन्हींके लिये प्यार किया जा सकता है और अन्य किसी चीजके लिये नहीं, किसी परिस्थिति अथवा सहवर्ती गुण अथवा परिणामरूप भोगके लियेनहीं, बल्कि किसी निरपेक्ष वस्तुके लिये कर सकता है जो या तो उनके अन्दर या उनके रूप और परिस्थितिके पीछे विद्यमान होती है । भगवान् एक पुरुष या स्वी, एक भूभाग या एक मत, सम्मति, आविष्कार या सिद्धान्तसे कहीं अधिक हैं । वह सभी व्यक्तियोंके परेके व्यक्ति हैं, सभी आत्माओंके स्वधाम और स्वदेश हैं, वह सत्य हैं जिसके केवल अपूर्ण रूप सभी सत्य हैं । और तब क्या उन्हें केवल उन्हींके नहीं नहीं प्यार किया जा सकता और खोजा जा सकता, उसी तरह और उससे भी अधिक जिस तरह कि इन सब चीजोंको इनके घटिया रूपों और प्रकृतिमें भी मनुष्योंने प्यार किया और खोजा है?
तुम्हारी तर्कणा जिस चीजकी अवहेलना करती है वह वह चीज है जो मनुष्य और उसकी खोजके अन्दर और साथ ही भगवान्के अन्दर निरपेक्ष है या वैसा होनेकी प्रवृत्ति रखती है -- कुछ ऐसी चीज है जिसकी व्याख्या मानसिक युक्ति-तर्क या प्राणिक प्रयोजनसे नहीं की जा सकती । एक प्रयोजन तो है, पर प्राणिक कामनाका नहीं, अन्त- रात्माका एक प्रयोजन है । एक मुक्ति है पर मनकी नहीं, बल्कि आत्माकी मुक्ति है । एक मांग भी है, पर वह मांग है जो अन्तरात्माकी सहज-स्वाभाविक अभीप्सा है, प्राण- की कोई लालसा नहीं । यही वह चीज है जो पूरा-पूरा आत्मदान करनेपर ऊपर आ जाती है, उस समय ऊपर आ जाती है जब ' 'मैं इस वस्तुके लिये तुम्हें चाहता हूँ, मैं उस वस्तुके लिये तुम्हें चाहता हूँ' ' बदलकर महज यह रह जाता है कि ' 'मैं तुम्हारे लिये तुम्हें चाहता हूँ । '' यही वह भगवान्में विद्यमान आश्चर्यजनक और अनिर्वचनीय निरपेक्ष वस्तु है जिसे ' अ' सूचित करता है जब वह यह कहता है कि ' 'न तो ज्ञान, न यह, न वह, बल्कि कृष्ण । '' उसका आकर्षण निस्सन्देह एक निश्चित विधान है, हमारे अन्दरका आत्मा महत्तर आत्माकी अनिवार्य पुकारके कारण भगवान्की ओर खिंच जाता है, अन्तरात्मा अपनी पूजाके विषयकी ओर वर्णनातीत ढंगसे खिंच जाता है क्योंकि यह अन्यथा हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह यह है और वह ( भगवान् ) वह हैं । इसके विषयमें बस इतना ही कहा जा सकता है ।
मैंने यह सब केवल यह समझानेके लिये लिखा है कि जब मैं भगवान्के लिये, अन्य किसी चीजके लिये नहीं, भगवान्को खोजनेकी बात कहता हूँ तब मेरा मतलब क्या होता है - जहांतक कि यह समझने योग्य है । समझने योग्य हो या न हो
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आध्यात्मिक अनुभवका यह एक अत्यन्त प्रधान तथ्य है । आत्मदानका संकल्प केवल इसी तथ्यकी एक अभिव्यक्ति है । परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मैं यह आपत्ति करता हूँ कि तुम आनन्दकी मांग मत करो । तुम उसकी मांग अवश्य करो जबतक कि उसकी मांग करना तुम्हारी सत्ताके किसी भागकी एक आवश्यकता है -- क्योंकि ये ही वे चीज़ें हैं जो भगवान्की ओर ले जाती हैं जबतक कि निरपेक्ष आंतर पुकार, जो कि सब समय विद्यमान रहती है, ठेलकर उपरितलपर नहीं आ जाती । परन्तु वास्तवमें यही वह चीज है जिसने आरम्भसे ही खींचा है और पीछेकी ओर विद्यमान है - यह सुनिश्चित आध्यात्मिक विधान है, भगवान्को पानेकी अन्तरात्माकी निरपेक्ष आवश्यकता है ।
मैं नहीं कहता कि कोई आनन्द नहीं होना चाहिये । स्वयं आत्मदान ही एक बड़ा गंभीर आनन्द है और जो कुछ वह लाता है वह अपने पीछे एक अवर्णनीय आनन्द वहन करता है - और यह अन्य किसी पद्धतिकी अपेक्षा इस पद्धतिसे अधिक शीघ्र आता है और मनुष्य लगभग यq कह सकता है कि ' 'निःस्वार्थ आत्मदान ही सर्वोत्तम नीति है '' केवल मनुष्य इसे नीतिके रूपमें नहीं करता । आनन्द उसका परिणाम है, पर यह परिणामके लिये नहीं किया जाता, बल्कि स्वयं आत्मदानके लिये और स्वयं भग- वान्के लिये किया जाता है - एक सूक्ष्म भेद है, मनको ऐसा प्रतीत हो सकता है, पर बहुत सच्चा भेद है ।
यह कहना मेरा आशय नहीं था कि आनन्दके लिये अभीप्सा करना गलत है । मैंने बस यह सूचित करना चाहा था कि आनन्दको स्थायी रूपसे अधिकृत करनेकी (इसकी सूचनाएं, सार्थ, निम्र प्रवाह पहले भी मनुष्य प्राप्त कर सकता है ) शर्त्त क्या है; इसके लिये प्रमुख शर्त्त है चेतनाका परिवर्तन, शान्ति, ज्योति आदिका आना, वह सब चीज़ें जो सामान्य प्रकृतिसे अध्यात्मभावापन्न प्रकृतिमें जाना संभव बनाती हैं । और ऐसी बात होनेके कारण यह अधिक अच्छा है कि चेतनाके इस परिवर्तनको साधना- का प्रथम उद्देश्य बनाया जाय । दूसरी ओर, जो चेतना आनन्दको धारण करनेमें अभी समर्थ नहीं है उसमें तुरत सतत आनन्दके लिये दबाव डालनेसे, उससे भी अधिक इसके स्थानपर निम्रतर (प्राणिक.) हर्षों और सुखोंको बैठानेसे इन आध्यात्मिक अनु- भवोंका प्रवाह बहुत अच्छी तरह बन्द हो सकता है जो वस्तुत: अविच्छिन्न आनन्दोल्लास- को संभव बनाते हैं । परन्तु निश्चय ही मेरा यह कहनेका आशय कभी नहीं था कि आनन्दको प्राप्त करना नहीं है या यह आग्रह करनेका नहीं था कि तुम निरानंद ब्रह्म- की ओर जाओ । इसके विपरीत, मैंने यह कहा था कि आनन्द योगका मुकुट है, जिसका अर्थ निस्सदिग्ध यह है कि यह उच्चतम सिद्धिका एक अंग हूँ ।
जो कुछ मनुष्य सच्चाईके साथ और निरन्तर भगवान्से चाहता है उसे भगवान् अवश्य देते हैं । तब यदि ' आनन्द चाहो और लगातार. तो तम अन्तमें
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उसे अवश्य प्राप्त करोगे । बस, एकमात्र प्रश्न यह है कि तुम्हारी खोजकी प्रमुख शक्ति क्या होनी चाहिये, कोई प्राणिक मांग अथवा कोई चैत्य अभीप्सा जो हृदयके भीतरसे प्रकट हो और मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक चेतनातक अपनेको संचारित कर दे । चैत्य अभीप्सा सबसे बड़ी शक्ति है और सबसे छोटा पथ बनाती है -- और इसके अलावा, हमें अधिक शीघ्र या देरसे उस पथपर आना ही होगा ।
भगवान्को प्राप्त करना निस्सन्देह आध्यात्मिक सत्य और आध्यात्मिक जीवन- की खोज करनेका प्रथम कारण है; यही एकमात्र अपरिहार्य चीज है और बाकी सब इसके बिना कुछ नहीं है । भगवान् जब एक बार प्राप्त हो जाते हैं तो फिर उन्हें अभि- व्यक्त करना है,--अर्थात्, सबसे पहले अपनी निजी सीमित चेतनाको भागवत चेतना- में रूपांतरित करना है, अन्त शान्ति, ज्योति, प्रेम शक्ति, आनन्द में निवास करना है, अपने मूल स्वभावमें वही बन जाना है और, उसके परिणामस्वरूप, अपनी सक्रिय प्रकृतिमें उसीका पात्र, प्रणालिका, यंत्र बन जाना है । एकत्वके तत्त्वको जड़-भौतिक स्तर पर क्रियामें ले आना या मानवताके लिये कार्य करना सत्यका एक मानसिक अशुद्ध रूपा- तर है - ये चीज़ें आध्यात्मिक प्रयासका पहला सच्चा लक्ष्य नहीं हो सकती । हमें आत्मा- को, भगवान्को प्राप्त करना चाहिये, फिर उसके बाद ही हम यह जान सकते हैं कि कौनसा काम आत्मा या भगवान् हमसे चाहते हैं । तबतक हमारा जीवन और कर्म भगवान्को पानेमें केवल एक सहाथ्य या साधन हो सकते हैं और इनका कोई दूसरा उद्देश्य नहीं होना चाहिये । हम जैसे-जैसे आंतरिक चेतनामें वर्द्धित होते हैं, अथवा जैसे- जैसे भगवानका आध्यात्मिक सत्य हमारे अंदर वर्द्धित होता है, हमारा जीवन और कर्म भी निस्सन्देह अधिकाधिक उसीसे प्रवाहित होने चाहियें, उसके साथ एक हो जाने चाहियें । परन्तु पहत्नेसे ही अपनी सीमित मानसिक धारणाओंके द्वारा यह निश्चय कर लेना कि उन्हें कैसा होना चाहिये, भीतर आध्यात्मिक सत्यके विकासकों बाधा पहुँचाना है । जैसे-जैसे वह वर्द्धित होगा हम भागवत ज्योति और सत्यको, भागवत शक्ति और बलको भागवत पवित्रता और शान्तिको अपने कार्य करते हुए, हमारे कर्मों और साथ ही हमारी चेतनाके साथ व्यवहार करते हुए, हमें भगवान्की मूर्त्ति- में पुनर्गठित करनेके लिये उनका व्यवहार करते हुए, कूडे-करकटको हटाते हुए, उसके स्थानमें आत्माके विशुद्ध सोनेको स्थापित करते हुए अनुभव करेंगे । जब हमारे अन्दर सदा-सर्वदा भागवत उपस्थिति बनी रहती है और चेतना रूपांतरित होती है, केवल तभी हमें यह कहनेका आrधेकार होता है कि हम भौतिक स्तरपर भगवान्को अभि- व्यक्त करनेके लिये तैयार हैं । किसी मानसिक आदर्श या सिद्धांतको पकड़े रहने और उसे आंतरिक क्रियापर आरोपित करनेपर किसी मानसिक अनुभवसे अपने-आपको सीमित कर देनेका या भगवान्के साथ पूर्ण संपर्क और एकत्वके अन्दर अपनी सच्ची वृद्धि तथा अपने जीवनमें होनेवाले भगवान्की इच्छाके उन्मुक्त तथा प्रगाढ़ प्रवाहको
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अधूरा रूप प्रदान करके उन्हें अवरुद्ध करने या यहांतक कि मिथ्या बना देनेका खतरा उत्पन्न हो जाता है । यह वस्तुओंको ठीक-ठीक समझनेमें होनेवाली एक ऐसी भूल है जिसकी ओर आजका मन विशेष रूपसे झुका हुआ है । एकमात्र आवश्यक वस्तुसे हमें दूर हटानेवाली इन गौण वस्तुओंको सामने रखनेकी अपेक्षा दिव्य शान्ति या ज्योति या आनन्दके लिये, जिन्हें भगवान्की उपलब्धि प्रदान करती है, भगवान्की ओर जाना बहुत अधिक अच्छा है । भौतिक जीवन तथा साथ ही आंतरिक जीवनका भी दिव्य- करण उस वस्तुका अंग है जिसे हम भागवत योजनाके रूपमें देख रहे हैं, पर यह केवल आंतरिक उपलब्धिका बहू बहि:प्रवाह होनेपर ही ससिद्ध हो सकती है जो एक ऐसी चीज है जो भीतरसे बाहरकी ओर वर्द्धित होती है, किसी मानसिक सिद्धांतको क्रियान्वित करनेसे नहीं संसिद्ध हो सकती ।
तुमने पूछा है कि मानसिक खोजको जीवंत आध्यात्मिक अनुभवमें परिणत करनेके लिये कोनसी साधनका अन्रुसरण करना चाहिये । सबसे पहली आवश्यकता है अपने अन्दर अपनी चेतनाको एकाग्र करनेका अभ्यास करना । साधारण मानव- मन ऊपरी सतहपर क्रिया करता है जो यथार्थ आत्माको छिपा देती है । परन्तु हमारे भीतर एक दूसरी, एक प्रच्छन्न चेतना है जो उपरितलीय चेतनाके पीछे है और जिसमें हम यथार्थ आत्मा तथा प्रकृातेके एक वृहत्तर और गभीरतर सत्यके विषयमे सचेतन हो सकते हैं, आत्माका साक्षात्कार कर सकते और प्रकृतिको मुक्त तथा रूपांतरित कर सकते हैं । ऊपरी मनको स्थिर- अचंचल बनाना और अपने भीतर निवास करना आरम्भ करना इस एकाग्रताका लक्ष्य है । उपरितलीय चेतनासे भिन्न इस सत्य- चेतनाके दो मुख्य केंद्र हैं, एक तो हृदयमें (स्थूल हृदयमें नहीं, बल्कि वक्षस्थलके मध्यमें अवस्थित हत्केंद्रमें ) है और दूसरा मस्तकमें है । हृदयमें एकाग्र होनेपर भीतरकी ओर उद्घाटन होता है और इस अन्तर्मुखी उद्घाटनका अनुसरण करने और गहराई- में जानेपर मनुष्य अन्तरात्मा या चैत्य पुरुषके, ब्यक्तिमें विद्यमान दिव्य तत्त्वके विषयमें सज्ञान होता है । जब यह पुरुष अनावृत हो जाता है, तो वह आगेकी ओर आना, प्रकृति- पर शासन करना, उसे और उसकी सभी क्रियाओं और गतिविधियोंको परम सत्यकी ओर, भगवान्की ओर मोड़ना, और जो कुछ ऊपर है उस सबको उसके अंदर उतार लाना आरम्भ करता है । वह भागवत उपस्थितिका ज्ञान प्रदान करता है, उच्चतम देवताके प्रति सत्ताका आत्मोत्सर्ग सिद्ध करता है, और हमारी प्रकृतिके अन्दर एक महत्तर शक्ति और चेतनाका अवतरण कराता है जो हमारे ऊपर प्रतीक्षा कर रही हैं । भगवान्के प्रति अपने-आपको उत्सर्ग करनेकी भावना तथा इस अंतर्मुखी उद्घाटन और हृदयमें भागवत उपस्थितिकी अभीप्साके साथ हृत्केंद्रमें एकाgg होना पहला पथ है और, यदि यह करना सम्भव हो तो, स्वाभाविक प्रारम्भ है; क्योंकि इसका परिणाम जब एक बार प्राप्त हो जाता है तो दूसरे पथसे आरम्भ करनेकी अपेक्षा वह आध्यात्मिक पथको बहुत अधिक आसान और सुरक्षित बना देता है ।
वह दूसरा पथ है मस्तकमें, मनोमय केंद्रमें एकाग्र होना । यह यदि उपरितलीय मनमें निश्चल-नीरवता ले आता है तो यह हमारे भीतर एक आंतर, विशालतर, गभीर-
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तर मनको खोल देता है जो आध्यात्मिक अनुभव और आध्यात्मिक ज्ञान ग्रहण करने- में अधिक सक्षम होता है । परन्तु एक बार यहां एकता हो जानेपर मनुष्यको अपने निश्चल-नीरव मानसिक चेतनाको ऊपर उन सबकी ओर खोलना चाहिये जो मनसे ऊपर है । कुछ समय बाद मनुष्य यह अनुभव करता है कि चेतना ऊपर उठ रही है और अन्तमें वह उस आवरणके परे चली जाती है जिसने अबतक उसे शरीरमें आबद्ध कर रखा है और सिरसे ऊपर एक ऐसा केंद्र प्राप्त कर लेती है जहां वह अनन्तके अन्दर मुक्त हो जाती है । वहां वह विश्वात्मा, भागवत शान्ति, ज्योति, शक्ति, ज्ञान, आनन्द- के संपर्क में आना, उन्हीं में प्रवेश करना और वे ही बन जाना, प्रकृतिके अन्दर इन चीजों- का अवतरण अनुभव करना आरम्भ कर देती है । मनमें स्थिरता प्राप्त करने और ऊपर आत्मा तथा भगवान्को उपलब्ध करनेकी अभीप्सा रखते हुए मस्तकमें एकाग्र होना एकाग्रताका दूसरा तरीका है । परन्तु यह स्मरण रखना आवश्यक है कि मस्तक- में चेतनाको एकाग्र करना केवल इस बातकी तैयारी है कि चेतना ऊपरके केंद्रमें आरोहण कर जाय; अन्यथा, मनुष्य अपने निजी मनमें और उसकी अनुभूतियोंमें ही आबद्ध हो सकता है अथवा अधिक-से-अधिक आध्यात्मिक परात्परतामें निवास करनेके लिये उसके अन्दर ऊपर उठनेके बदले ऊपरके परम सत्यका केवल एक प्रतिबिंब ही उपलब्ध कर सकता है । कुछ लोगोंके लिये मनमें एकाग्र होना अधिक आसान होता है, कुछ लोगोंके लिये हृदय-केंद्रमें एकाग्र होना आसान होता है; कुछ लोग दोनों स्थानोंमें बारी-बारीसे एकाग्र होनेमें समर्थ होते हैं -- पर, यदि कोई इसे कर सके तो, हृदय- केंद्रसे प्रारम्भ करना अधिक वांछनीय है ।
साधनाका दूसरा पक्ष प्रकृतिकी, मनकी, प्राणात्मा या प्राणशक्तिकी, भौतिक सत्ताकी क्रियाओंसे सम्बन्ध रखता है । यहांपर सिद्धांत यह है कि प्रकृतिको इस प्रकार आंतरिक उपलब्धिके साथ समस्वर कर देना चाहिये कि साधक दो प्रतिकूल भागोंमें विभक्त न हो जाय । यहां कई साधनाएं या प्रक्रियाएं सम्भव हैं । एक है सभी क्रियाओं- को भगवान्के प्रति समर्पित कर देना और आंतरिक पथप्रदर्शन तथा साधककी प्रकृति- को अपने हाथोंमें ले लेनेके लिये एक उच्चतर दिव्य शक्तिका आवाहन करना । यदि अन्दरकी ओर अन्तरात्माका उद्घाटन हो जाय, यदि चैत्य पुरुष सामने आ जाय तो फिर कोई बडी कठिनाई नही रह जाती -- उस समय उस उद्घाटनके साथ-साथ आता है चैत्य विवेक, लगातार सूचनाओंका आना, अन्तमें एक प्रकारका प्रशासन जो सभी अपूर्णताओंको प्रकट करता और धीरे-धीरे तथा धैर्यपूर्वक दूर: करता है, समु- चित मानसिक तथा प्राणिक क्रियाओंको ले आता और भौतिक चेतनाका भी पुन- निर्माण करता है । दूसरी पद्धति है मन, प्राण और भौतिक सत्ताकी क्रियाओंसे अना- सक्त होकर पीछे हट आना, उनकी क्रियाओंको व्यक्तिके अन्दर सामान्य प्रकृतिकी केवल अभ्यासगत रचना समझना जो विगत क्रियाओंद्वारा हमपर थोप दी गयी है, उन्हें अपनी सच्ची सत्ताका कोई अंग 'न समझना; जितने अंशमें मनुष्य ऐसा करनेमें सफल होता है उतने अंशमें वह अनासक्त होता जाता है, मन और उसकी क्रियाओंको अपना निजी स्वरूप नहीं समझता, प्राण और उसकी क्रियाओंको अपना निजी स्वरूप
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नहीं मानता, शरीर और उसकी क्रियाओंको अपना निजी स्वरूप नहीं स्वीकार करता, वह अपने भीतर स्थित एक आंतर पुरुष - आंतर मत, आंतर प्राण, आंतर शरीर -- निश्चल-नीरव, शांत, मुक्त, अनासक्त पुरुषके बिषयमें सचेतन हो जाता है जो ऊपरके यथार्थ आत्माको प्रतिबिम्बित करता और उसका प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन सकता हूँ; इसी आंतरिक नीरव पुरुषसें निःसृत होता है उन सब चीजोंका परित्याग जो त्याग करने योग्य होती हैं, केवल उन्हीं चीजोंका ग्रहण जो रखने योग्य और रूपांतरित होने योग्य हो सकती हैं, पूर्णत्वकी प्राप्तिका एक आंतरिक संकल्प अथवा प्रकृतिके परिवर्तन- के लिये पग-पगपर जो कुछ करना आवश्यक है उसे करनेके लिये भागवत शक्तिका आवाहन । यह मन, प्राण और शरीरको भी अंतरतम चैत्य सत्ताकी ओर और उसके पथप्रदर्शक प्रभाव अथवा उसके प्रत्यक्ष पथप्रदर्शनकी ओर उद्घाटित कर सकता है । अधिकांश प्रसंगोंमें ये दोनों पद्धतियां एक साथ प्रकट होतीं और कार्य करती है तथा अन्नमें घुलमिलकर एक ही पद्धति बन जाती हैं । परन्तु दोनोमेसे किसी एकसे, जो अत्यन्त स्वाभाविक ओर करनेमें आसान महसूस हो, आरम्भ किया जा सकता है ।
अन्तमें, सभी कठिनाइयोंमें, जहां व्यक्तिगत प्रयास अवरुद्ध हो जाता है, गुरुकी सहायता हस्तक्षेप कर सकती और सिद्धिके लिये जो कुछ भी आवश्यक हो अथवा जो कुछ तत्कालिक स्थितिमें आवश्यक हो, उसे सपन्न कर सकती है । -
यह योग, अन्य किसी भी वस्तुको नहीं, एकमात्र भागवत सत्यकी खोज करने और उसे मूर्त्तिमान करनेकी अभीप्सामें ही जीवनको संपूर्ण रूपसे उत्सर्ग कर देनेकी मांग करता है । जिस बाहरी उद्देश्य और कर्मके साथ परम सत्यकी खोजका कोई संपर्क नहीं उसके तथा भगवान्के बीच अपने जीवनको विभक्त कर देना इस योगमें स्वीकार्य नहीं है । इस तरहकी कोई मामूलीसे मामूली चीज भी योगमें सफलताका आना असंभव बना देती है ।
तुम्हें अपने अन्दर पैठ जाना होगा और आध्यात्मिक जीवनके प्रति पूर्ण आत्मोत्सर्ग कर देना होगा । यदि तुम योगमें सफल होना चाहते हो तो तुम्हें अपनी सभी मानसिक अभिरुचियोंसे चिपकना छोड़ देना होगा, प्राणिक लक्ष्यों और हितों और आसक्तियोके प्रति संपूर्ण आग्रहको दूर भगाना होगा एवं परिवार, मित्रगण और देशके प्रति अहंकारयुक्त लगावको तोडू देना होगा । जिस किसी चीजको बहिर्गामी शक्ति या कर्मके रूपमें आगे आना हो उसे पहले उपलब्ध सत्यसे आना चाहिये न कि निम्रतर मन या प्राणिक आशयोंसे, भागवत संकल्पसे आना चाहिये न कि व्यक्तिगत इच्छा या अहंकी अभिरुचियोंसे ।
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यह आध्यात्मिक प्रयासका एक सर्वस्वीकृत सिद्धांत है कि साधकको बिना कुछ बचाये सब कुछ होम देनेके लिये तैयार रहना चाहिये जिसमे कि वह एक अध्यात्म-भावापन्न चेतनाके द्वारा भगवान्तक पहुँच जाय । यदि उसका लक्ष्य मानसिक, प्राणिक और भौतिक स्तरपर ही आत्मबिकास करना हो तो बात दूसरी है -- वह जीवन तो अहंकार जीवन है जिसमें अन्तरात्मा अविकसित या अर्द्ध-विकसित अवस्थामें पीछे रख दिया जाता हे । परन्तु आध्यात्मिक साधक जिस एकमात्र विकासकी चेष्टा करता है वह है चैत्य और आध्यात्मिक चेतनाका विकास और वह भी केवल इसलिये कि वह भगवान्को प्राप्त करने और उनकी सेवा करनेके लिये आवश्यक है, स्वयं उस विकासकी खातिर नहीं । जिस मानसिक, प्राणिक और भौतिक विकासको अथवा अंतर्निहित शक्तियोंके उपयोगको आध्यात्मिक जीवनका एक अंग और भगवान्के लिये एक यंत्र बनाया जा सकता है, केवल उन्हींके इस शर्त्तपर रखा जा सकता है कि वे रूपांतरके लिये आत्मसमर्पण करें ओर आध्यात्मिक आधारपर उनका पुनर्गठन किया जाय । परन्तु उन्हें स्वयं अपने लिये अथवा अहंके खातिर अथवा अपनी निजी अधिकृत वस्तु या अपने निजी उद्देश्यके लिये व्यवहृत वस्तु समझकर नहीं, बल्कि केवल भगवानके लिये रखना चाहिये ।
जेम्स के वक्तव्यका जहांतक प्रश्न है, वह निस्सन्देह सत्य है, सिवा उतने अंशमें जितनेमें कि राजनीतिज्ञ अपनी छुट्टीके समयोंको शौकके रूपमें अन्य चीजोंमें लगा सकता है, पर वह यदि एक राजनीतिज्ञके रूपमें सफल होना चाहे तो उसे अपनी श्रेष्ठतम शक्तियोंको राजनीतिमें ही लगाना चाहिये । विपरीत क्रममें, यदि शेक्सपियर और न्यूटनने अपनी शक्तियोंका कुछ अंश राजनीतिमें खर्च किया होता तो वे काव्य और विज्ञानमें वैसी ऊंचाईतक जानेमें समर्थ नहीं हुए होते अथवा यदि वे हुए भी होते तो बहुत कम ही कुछ कर पाये होते । प्रमुख शक्तियोंको एक ही 'वस्तुपर एकाग्र करना होता हे; दूसरी चीज़ें अवकाशके समयकी केवल गौण कार्य ही हो सकती हैं अथवा वे कार्यकी अपेक्षा मन बहलावा या दिलचस्पीकी चीज़ें हो सकती है जो सामान्य मनोविकासको बनाये रखनेके लिये उपयोगी हों ।
सब कुछ इस बातपर निर्भर करता है कि जीवनका लक्ष्य क्या है । जिस व्यक्ति- का लक्ष्य उच्चतम आध्यात्मिक सत्य और दिव्य जीवनकी खोज करना और प्राप्त करना है उसके लिये, मैं नहीं समझता कि, किसी विश्व-विद्यालयके ओहदेका कोई विशेष महत्व हो सकता है, और न मैं यह देखता हूँ कि इन दोनों चीजोंमें कोई व्याव- हारिक संबंध ही हो सकता है । यदि लक्ष्य एक लेखक और मात्र बौद्धिक स्तरपर चिंतन करनेवालेका जीवन हो जिसमें कोई उच्चतर उडान या गभीरतर अन्वेषण न हो तो फिर बात दूसरी हो सकती है । मैं नहीं समझता कि इस प्रकारके कार्यमें अपनेको लगानेसे जो तुमने इनकार कर दिया है उसका कारण कोई दुर्बलता है 1 बल्कि यों कहा जा सकता है कि तुम्हारी प्रकृतिका कोई तुच्छ भाग, और सो भी कोई गभीरतम या प्रबलतम भाग नहीं, उससे अथवा उस वातावरणसे संतुष्ट होता जिसमें कि वह काम किया गया होता ।
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ऐसे विषयोंमें चिंतनशील मन नहीं बल्कि प्राण-पुरुष ही -- प्राणशक्ति और कामनामय प्रकृति या कम-से-कम उसका कोई भाग ही -- साधारणतया मनुष्योंके कार्य और चुनावको निश्चित करता हे, जब कि कोई ऐसी बाहरी आवश्यकता या दबाव नहीं होता जो कि बाध्य करता या मुख्यत: निर्णयको प्रभावित करता है । मन केवल उसकी व्याख्या करनेवाला, समर्थन करनेवाला और योजना बनानेवाला कार्य- कर्त्ता होता है । तुम्हारे साधना ग्रहण कर लेनेके कारण तुम्हारी प्राण-सत्ताके इस भागपर ऊपरसे और भीतरसे दबाव पडा है जिसने प्राचीन कामनाओं और प्रवृत्तियों- के प्रति उसके झुकावको, उसकी पुरानी लीकोको, उन सब चीजोंको निरुत्साहित कर दिया है जिन्होंने पहले उसकी दिशाका निश्चय किया होता; यह प्राण, जैसा कि बहुधा उसका एक आरम्भिक परिणाम होता है, नीरव और उदासीन हो गया है । यह अब प्रबल रूपसे साधारण जीवनकी ओर धावित नहीं होता; अभीतक इसने चैत्य केंद्र और उच्चतर मानसिक संकल्पसे या उनके द्वारा कोई पर्याप्त प्रकाश और प्रेरणा नहीं ग्रहण किया है जिससे कि वह कोई नया प्राणिक गतिविधि ग्रहण करे और एक नवीन जीवनके पथपर तेजीसे दौड़ पड़े । यही उस उदासीन-भावका कारण है जिसकी तुम चर्चा करते हो तथा उसीसे भविष्य धुँधला दीखता है ।
यदि तुम्हारा अन्तरात्मा सर्वदा रूपांतरके लिये अभीप्सा करता है तो बस उसीका अनुसरण तुम्हें करना होगा । भगवान्को खोजना या यों कहें कि भगवानके किसी रूपकों चाहना -- क्योंकि यदि किसीमें रूपांतर साधित न हो तो वह संपूर्ण रूपसे भगवान्को उपलब्ध नहीं कर सकता -- कुछ लोंगोंके लिये पर्याप्त हो सकता है, पर उन लोंगोंके लिये नहीं हो सकता जिनके अन्तरात्माकी अभीप्सा पूर्ण दिव्य परि वर्तन साधित करनेकी हे ।
कृष्ण और शिव और शक्तिके बीच 'अ' के अन्तःकरण की हिचकिचाहट पर मैं अपनी हंसी रोक नहीं सकता । यदि कोई भगवानके एक रूप या दो रूपोंसे आकर्षित हो तो यह बिलकुल ठीक है, परन्तु वह यदि एक साथ ही अनेक रूपोंकी ओर आकर्षित हो तो उसे इसके लिये संतप्त होनेकी आवश्यकता नहीं । जिस मनुष्यका कृउछ विकास हो चुका है उसकी प्रकृतिमें आवश्यक रूपसे कई पक्ष होते हैं और यह बिलकुल स्वा- भाविक है कि भगवानके विभिन्न रूप उसमें विद्यमान विभिन्न व्यक्तित्वोंको आकर्षित या शासित करें: वह उन सबको स्वीकार कर सकता और उन्हें एकमेव भगवान् तथा एकमेव आद्याशक्तिके अन्दर समन्वित कर सकता है जिनकी ये सभी अभिव्यक्तियां
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