Letters on the integral yoga, other spiritual paths, the problems of spiritual life, and related subjects.
Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.
विभाग तीन
साधन-पथकी मौलिक आवश्यकताएं
योगके लक्ष्यतक पहुँचना सर्वदा कठिन होता है, पर यह लक्ष्य अन्य किसी भी लक्ष्यसे अधिक कठिन है, और यह केवल उन्हीं लोगोंके लिये है जिनमें पुकार है, क्षमता है, प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक खतरेका, यहांतक कि असफलताके खतरेका भी मुकाबला करनेकी इच्छा है, और संपूर्ण निःस्वार्थभाव, निष्कामभाव और समर्पण-भावकी ओर
आगे बढ़नेका संकल्प है ।
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इस योगका अभिप्राय केवल ईश्वरका साक्षात्कार पाना नहीं है, बल्कि आंतरिक और बाह्य जीवनको पूर्णत: उत्सर्ग कर देना और परिवर्त्तित कर देना है जिसमें कि वह दिव्य चेतनाको अभिव्यक्त करनेक्रे योग्य हो जाय तथा भागवत कर्मका अंग बन जाय । इसका तात्पर्य है एक आंतरिक अनुशासनका अनुसरण जो महज नैतिक तथा भौतिक तपस्याओंसे भी अधिक कठिन और कठोर है । इस पथपर जो कि अधिकांश योगमार्गोंसे बहुत अधिक विशाल और श्रमसाध्य हे, तबतक किसीको पग नहीं रखना चाहिये जबतक कि वह अपने अन्दरकी चैत्य पुकार तथा अन्ततक जानेकी अपनी तैयारी-के विषयमें निस्सदिग्ध न हो ।'
तैयारीसे मेरा मतलब क्षमता नहीं बल्कि इच्छुकता हे । यदि सभी कठिनाइयोंका सामना करने तथा अन्ततक जानेका संकल्प अपने अन्दर हो तो पथको ग्रहण किया जा सकता है, फिर कोई बात नहीं चमहे जितना भी लम्बा समय क्यों न लगे ।
साधारण जीवनसे नितांत अशांत असंतोष ही इस योगके लिये पर्याप्त तैयारी नहीं हूँ । आध्यात्मिक जीवनमें सफलता पानेके लिये एक सुनिश्चित आंतरिक पुकार, प्रबल संकल्प तथा महान् दृढ़ताका होना आवश्यक है ।
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मानसिक सिद्धान्तोंका कोई मौलिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि मन ऐसे सिद्धांतों- को बनाता या स्वीकार करता है जो सत्ताकी प्रवृत्तिका समर्थन करते हैं । महत्वपूर्ण बात है तुम्हारे अन्दरकी वह प्रवृत्ति और पुकार ।
यह ज्ञान कि एक परात्पर सत्, चित् और आनन्द है जो न महज एक नकारात्मक निर्वाण या निष्क्रिय और निराकार ब्रह्म है, बल्कि सक्रिय है, यह बोध कि इस भागवत चेतनाको केवल परे ही नहीं बल्कि यहां भी प्राप्त किया जा सकता है, और फलस्वरूप योगके लक्ष्यके रूपमें दिव्य जीवनको स्वीकार करना -- यह सब मनसे सम्बन्ध नहीं रखता । यह कोई मानसिक सिद्धातका प्रश्न नहीं है - यद्यपि मन-बुद्धिके द्वारा भी इस दृष्टिकोणका, यदि अधिक अच्छे रूपमें नहीं तो, उसी रूपमें समर्थन किया जा सकता है जिस रूपमें किसी भी दूसरे सिद्धान्तका किया जा सकता है,--बल्कि अनुभवका और, अनुभव आनेसे पहले, अन्तरात्माकी श्रद्धाका प्रश्न है जो अपने साथ मन और प्राणका भी समर्थन ले आती है । जो व्यक्ति उच्चतर ज्योतिके संपर्कमें है और जिसे अनुभव प्राप्त है वह इस मार्गका अनुसरण कर सकता है, चाहे अनुसरण करनेमें निम्रतर अंगोंके लिये यह जितना भी कठिन क्यों न हो; जिस व्यक्तिको इसका स्पर्श मिल गया है, यद्यपि अभी अनुभव नहीं मिला है, पर जिसमें पुकार है, पूर्ण श्रद्धा है, अन्तरात्माके समर्थनका दबाव हे, वह भी इसका अनुसरण कर सकता है ।
कोई आदर्शवादी धारणा या धार्मिक विश्वास या भावावेग आध्यात्मिक ज्योति प्राप्त करनेसे बिलकुल भिन्न वस्तु है । कोई आदर्शवादी विचार तुम्हें आध्यात्मिक ज्योतिकी प्राप्तिकी ओर मोड सकता है, पर वह स्वयं वह ज्योति नहीं है । परन्तु यह सच है कि ' 'जहां आत्मा चाहता है वहीं बहता है (प्रकट होता है ) । '' हम प्रायः किसी भी परिस्थितिसे आध्यात्मिक चीजोंका भावात्मक प्रबेग या स्पर्श या मानसिक अनु- भूति प्राप्त कर सकते हैं, जैसे कि विल्वमंगलने अपनी वारागणा उपपत्नीके शब्दोंसे उसे पाया था । स्पष्ट ही, यह इसलिये र्घाटेत होता है कि कोई चीज कहींपर तैयार होती है,-यदि तुम चाहो तो कह सकते हो कि, चैत्य सत्ता अपने सुयोगकी ताकमें रहती है तथा मन, प्राण या हृदयमें कहीं कोई झरोखा खोल देनेका कोई सुअवसर ग्रहण करती है ।
नितांत आदर्शवादका प्रभाव केवल तभी हो सकता है जब कि व्यक्तिके मनमें प्रबल संकल्पशक्ति हो जो उसका अनुसरण करनेके लिये प्राणको बाध्य करनेमें समर्थ हो ।
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भगवान्में अपने-आपको गर्क कर देनेकी प्रब्रुती बहुत ही विरल वस्तु है । सामान्यतया कोई मानसिक भावना, कोई प्राणिक प्रबेग या कोई बिलकुल अपर्याप्त कारण होता है जो इस चीजको आरम्भ करता है -- अथवा एकदम कोई कारण नहीं होता । एक मात्र सत्य वस्तु होती है गुह्य चैत्य प्रबेग जिसके विषयमें उपरितलीय चेतनाको कोई ज्ञान नहीं होता अथवा मुश्किलसे कुछ ज्ञान होता है ।
सच्चे अन्तरात्मा, चैत्य पुरुषके बारेमें जो कुछ तुम लिखते हो वह बिलकुल ठीक है । परन्तु जब लोग अन्तरात्माकी चर्चा करते है तो वे उसका भिन्न-भिन्न अर्थ लेते हैं । कभी-कभी उसका अभिप्राय उस चीजसे होता है जिसे मैंने 'आर्य' में कामनामय आत्माका नाम दिया है,--यह है प्राणमय चेतना जिसमें अभीप्साए, कामनाएं, सब प्रकारकी अच्छी-बुरी भूखे, स्थूल और सूक्ष्म भावावेग, मनके आदर्शात्मक भावों और चैत्यके दबावोंसे प्रभावित सनसनीदार प्रवृत्तियों मिली-जुली होती हैं । किन्तु कभी- कभी यह चीज चैत्य प्रेरणाके अधीन रहनेवाला मन और प्राण भी होती है । चैत्य, जबतक परदेमें रहता है तबतक, उसे मन और प्राणके द्वारा ही व्यक्त होना होता है और वहां उसकी अभीप्साओंके साथ प्राणिक तथा मानसिक चीजें मिलजुल जाती एवं उसपर अपना रंग चढ़ा देती हैं । इस प्रकार, परदेके पीछे विद्यमान चैत्य प्रेरणा मनके अन्दर भगवान्का ज्ञान प्राप्त करनेके विचारकी भूखके रूपमें प्रकट हो सकती है, जिसे यूरोपके लोग ईश्वरके लिये बौद्धिक प्रेम कहते हैं । प्राणके अन्दर वह भगवान्- की चाह या उत्कट लालसाके रूपमें प्रकट हो सकती है । वह चीज प्राणकी प्रकृतिके कारण, उसके अशांत आवेगों, कामनाओं, उत्सुकताओ, विक्षुब्ध भावावेगों, खिन्नता- ओं, अवसादों तथा निराशाओंके कारण बहुत कष्ट ला सकती है । पर, जो हो, सब कोई भगवान्की ओर विशुद्ध चैत्य मार्गसे नहीं जा सकते, कम-सें-कम तुरत -फुरत तो नहीं ही जा सकते,--मन और प्राणकी चेष्टाएं प्रायः आरम्भमें आवश्यक होती हैं और आध्यात्मिक दृष्टिसे भगवान्के प्रति असंवेदनशील होनेकी अपेक्षा अधिक अच्छी होती हैं । इन दोनों अवस्थाओंमें यह अन्तरात्माकी पुकार, अन्तरात्माकी प्रेरणा ही होती है; हां, मन या प्राणकी प्रकृतिके दबावमें पड़कर केवल यह एक रूप या रंग ले लेती है ।
यह बहुत स्पष्ट है कि ' अ' में आध्यात्मिक अनुभवकी ओर एक सहसा उद्घाटन हो गया है -- आश्चर्यजनक रूपमें सहसा उद्घाटन, ऐसा लग सकता है, परन्तु बहुधा उसी रूपमें वह घटित होता है, विशेषकर यदि बाहर में तो शंकाशील मन हो और अन्दरमें अनुभूतिके लिये तैयार अंतरात्मा हो । ऐसे प्रसंगोंमें वह बहुत बार एक आघात
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लंगनेके बाद भी आता है जैसे उसके भाईकी बीमारीसे आया हूँ, परन्तु में स्म्व्भता हॅ कि उसका मन पहले ही मुंड चुका था और उसने ही उसकी तैयारी की थी । यह अचानक और बार-बार होनेवाला प्रत्यक्षीकरण भी यह सूचित करता है कि उसके अन्दर एक क्षमता है जिसने उन द्वारोंको भंग कर दिया है जो उसे अन्दर बन्द रखते है - यह अति- भौतिक दर्शनकी क्षमता है । ' 'कॅन्सीक्रेशन' ' ( आत्मनिवेदन ) शब्दका आना भी इन अनुभवोंका एक सुपरिचित व्यापारहै -- यही वह चीज है जिसे मैं चैत्य पुरुषकी वाणी कहता हूँ; यह उसके अपने ही अन्तरात्मासे मनके लिये एक संकेत है कि अन्तरात्मा उससे क्या कराना चाहता है । अब उसे इसको स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि यह आवश्यक है कि प्रकृति, बाह्य मनुष्य स्वीकार करे जिसमें कि वह प्रभावशाली हो सके । वह ( अपने जीवन-मार्गकी ) एक मोडपर खडा है और उसे उस मार्गका संकेत दिया गया है जिसे उसकी आंतरिक सत्ता, अन्तरात्मा उससे अनुसरण कराना चाहता है - परन्तु, जैसा कि मैं कहता हूँ, उसके मन और प्राणकी सहमति आवश्यक है । यदि वह आत्मनिवेदन करनेका निश्चय कर सके तो आत्मनिवेदनका संकल्प करना चाहिये, भगवान्के प्रति अपनेको उत्सर्ग करना चाहिये तथा सहायता और पथप्रदर्शनके लिये पुकारना चाहिये । यदि वह तुरन्त ऐसा न कर सके तो वह प्रतीक्षा करे और देखें, पर वह अपनेको, मानो, जो अनुभूति आरम्भ हुई है उसके जारी रहने और विकसित होनेके लिये खुला रखे, जबतक कि यह उसकी अपनी अनुभूतिमें निश्चित रूपमें अनिवार्य न बन जाय । वह सहायता प्राप्त करेगा और, वह यदि उस विषयमें सचेतन बन जाय, तो फिर आगे कोई प्रश्न ही नहीं रह सकता - पथमें आगे बढ़ना उसके लिये आसान हो जायगा ।
योगकी ओर मुड़नेके लिये उसपर डाला हुआ तुम्हारा प्रभाव अच्छा था, पर वह उसकी प्राणिक प्रकृतिको परिवर्त्तित करनेकी शक्ति नहीं रखता था । कोई मान- वीय प्रभाव -- जो केवल मानसिक और नैतिक ही हो सकता है -- वैसा नहीं कर सकता; तुम देख सकते हो कि वह जैसा पहले था ठीक वैसा ही है । वैसा केवल तभी हो सकता है जब कि उसका अन्तरात्मा भगवान्की ओर मुडो जाय । प्रुथका ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है -- उसपर चलना भी होगा, अथवा, यदि कोई वैसा न कर सके तो उसे अपनेको उसपर ले जाने देना होगा । मानवीय प्राणिक और भौतिक बाह्य प्रकृति एकदम अन्ततक बाधा देती है, परन्तु यदि अन्तरात्मा एक बार पुकार सुन लेता है तो वह, शीघ्रतासे या देरसे, अवश्य पहुँच जाता है ।
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जिन लोगोंके अन्दर भगवानके लिये सच्ची पुकार होती है, उनके सामने मन या प्राण चाहे कैसी भी कठिनाइयां क्यों न उपस्थित करें, चाहे जो भी आक्रमण क्यों न आयें अथवा उनकी प्रगति चाहे धीमी और दुःख पूर्ण ही क्यों न हो,-यहांतक कि यदि वे पीछे भी हट जायं अथवा कुछ कालके लिये पथसे पतित भी हो जायं तो भी अन्तमें उनका चैत्य पुरुष सर्वदा ही विजयी होता है और भागवत साहाथ्य प्रभावशाली सिद्ध होता है । उसीपर विश्वास रखो और पथपर डटे रहो -- फिर लक्ष्यतक पहुँचना सुनिश्चित है ।
तुम्हारे प्रश्ननका उत्तर मैं पहेले ही दे चुका हूँ । तुम इस कारण आये कि तुम्हारा अन्तरात्मा भगवान्की खोज करनेके लिये प्रचालित हुआ था । यह सत्य है कि तुम्हारे प्राणका कुछ भाग उन लोगोंसे प्रबल रूपमें आसक्त है जिन्हें तुमने पीछे छोड़ा है, पर इससे तुम्हारे अन्तरात्माकी खोज झूठी नहीं हो जाती । यदि प्राणिक कठिनाइयोंका होना और बने रहना यह साबित करता हो कि साधक अयोग्य है और उसके लिये कोई संभावना नहीं, तो आश्रममें केवल एक या दो - और शायद वे भी नहीं - कसौटी- पर उतरेंगे । शुष्कताका अनुभव और अभीप्सा न कर पाना भी कोई प्रमाण नहीं है । प्रत्येक साधक ऐसे खालीपनके कालोमेंसे और यहांतक कि लम्बे कालोमेसे गुजरते हैं । मैं कुछ लोगोंके ओर संकेत कर सकता हूँ जिनकी गिनती अत्यन्त ' 'उन्नत' ' साधकों- में की जाती है और फिर भी जो अभीतक पारिवारिक सहजप्रवृत्तिसे पूर्णतः मुक्त नहीं हुए हैं । अतएव इन प्रतिक्रियाओंके कारण, जो अभी भी तुममें बनी हुई हैं, विचलित होना बिलकुल अयुक्तिसंगत हे । ये प्रतिक्रियाएं आती हैं और चली जाती हैं, परन्तु अन्तरात्माकी आवश्यकता स्थायी होती है, उस समय भी जब वह आच्छन्न और निस्तब्ध होती है, और वह बराबर बनी रहेगी और बार-बार प्रकट होगी ।
जो लोग यहां आये वे सभी भगवानके लिये सज्ञान खोजके साथ नहीं आये । वास्तवमे उनका मन इसे नहीं जानता था, उनका अंतरस्थ अन्तरात्मा ही उन्हें यहां ले आया । तुम भी उसी तरह और श्रीमाताजीके साथ तुम्हारे अन्तरात्माका जो संबंध है उसके कारण आये । एक बार यहां आ जानेपर भगवान्की शक्ति मानव-प्रकृति- पर कार्य करती है जबतक कि अन्तरस्थ अन्तरात्माके लिये पर्देसे बाहर निकल आने- का पथ नहीं खुल जाता । भगवानके लिये सचेतन खोज स्वयं अपने-आप प्रकृतिके अज्ञानके साथ होनेवाले संघर्षको नहीं रोकता; एकमात्र श्रीमाताजीको आत्मदान कर देनेपर ही मनुष्य वैसा कर सकता है ।
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जब किसी ब्यक्तिका इस पथपर आना पूर्वनिर्दिष्ट होता है तो सभी परि- स्थितियां मन और प्राणके समस्त स्खलनोंके द्वारा किसी-न-किसी रूपमें उसे उस ओर ले जानेमें सहायता करती हैं । सच पूछा जाय तो उसके अन्दर विद्यमान उसका चैत्य पुरुष तथा ऊर्ध्वस्थित भागवत शक्ति ही उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये मन तथा बाह्य परिस्थिति दोनोके उलट-फेरोका व्यवहार करती हैं ।
जब अन्तरात्माका आगे बढ़ना अभिप्रेत होता है और उस तरहकी कोई बाहरी कमजोरी होती हे तो उसके विरुद्ध बाहरी सत्ताको सहायता करनेके लिये परिस्थितियां उस तरह आती ही हैं जिसका मतलब है कि पीछेकी ओर कोई वास्तवमें सच्ची अभीप्सा अवश्य होगी; अन्यथा ऐसा नहीं घटित होता ।
आध्यात्मिक भवितव्यता सदा बनी रहती है - वह अवरुद्ध हो सकती या कुछ समयके लिये लुप्त हो गयी-सी प्रतीत हो सकती है, पर वह कभी विनष्ट नहीं होती ।
आध्यात्मिक सुयोग कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे इस भावनाके साथ हलके रूपमें दूर फेंक दिया जाय कि किसी दूसरे समय सब ठीक हो जायगा -- दूसरे समयके विषयमें कोई उतना निश्चित नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त, ये चीजे एक चिह्न छोड़ जाती हैं और उस चिह्नके स्थानपर पुनरावृत्ति हो सकती है ।
ज्योतिका दर्शन और जगन्नाथके रूपमें भगवानका दर्शन ये दोनों ही चीजे यह सूचित करती हैं कि उसमें योग करनेकी क्षमता है और उसकी आंतर सत्ताके लिये भगवान्की पुकार हो गयी है । परन्तु क्षमता ही पर्याप्त नहीं है; भगवान्की खोज करनेका संकल्प भी होना चाहिये तथा प्रुथका अनुसरण करनेका साहस और आग्रह भी होना चाहिये । यह पहली वस्तु है जिसे निकाल फेंकना होगा और दूसरी है बाहरी सत्ताकी गमसिकता जिसने उसे उस पुकारका प्रत्युत्तर देनेसे रोक रखा है ।
वह ज्योति भागवत चैतन्यकी ज्योति है । इस योगका लक्ष्य है सबसे पहले इस चेतनाके साथ संपर्क स्थापित करना और फिर उसकी ज्योतिमें निवास करना और उस ज्योतिको प्रकृतिका रूपांतर करने देना जिसमें कि 'ल भगवानके
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साथ प्राप्त एकत्वमें निवास कर सके तथा प्रकृति दिव्य ज्ञान, दिव्य शक्ति और दिव्य आनन्दकी क्रियाका क्षेत्र बन जाय ।
यदि वह इसी चीजको अपने जीवनका चरम उद्देश्य बना ले और बाकी सभी चीजोंको इसी एक उद्देश्यके अधीन कर देनेके लिये तैयार हो जाय तो केवल तभी वह ऐसा करनेमें सफल हो सकता है । अन्यथा इस जीवनमें वह केवल थोड़ीसी तैयारी ही कर सकता है - एक प्रकारका प्रारंभिक संपर्क प्राप्त कर सकता और अपनी प्रकृतिके किसी अंगमें थोड़ासा आध्यात्मिक परिवर्तन ला सकता है ।
सभी लोग अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार कोई-न-कोई योग कर सकते हैं यदि उनमें उसे करनेकी इच्छा हो । परन्तु ऐसे थोडेसे लोग होते हैं जिनके विषयमें यह कहा जा सकता है कि वे इस योगके अधिकारी हैं । केवल कुछ लोग ही क्षमताका विकास कर सकते हैं, दूसरे नहीं कर सकते ।
कोई व्यक्ति साधनाके योग्य नहीं होता - अर्थात् कोई व्यक्ति एकमात्र अपनी निजी क्षमताके बलपर उसे नहीं कर सकता । बस, प्रश्न है अपने-आपको इस प्रकार तैयार करना जिसमें कि अपनी निजी नहीं, बल्कि दिव्य शक्ति पूर्ण रूपमें अपने अन्दर आ जाय जो इस कार्यको, हमारी अनुमति और अभीप्सा रहनेपर, पूरा कर सकती है ।
यह कहना कठिन है कि कोई विशिष्ट गुण मनुष्यको योग्य बनाता है अथवा उसका अभाव अयोग्य । किसीमें प्रबल कामावेग, शंका-संदेह, विद्रोह-भाव हो सकता है और फिर भी अन्तमें वह सफल हो सकता है, जब कि दूसरा व्यक्ति असफल हो सकता है । यदि किसीके अन्दर मौलिक सच्चाई हो, सभी चीजोंके बावजूद अन्ततक चले जानेका संकल्प हो और सरल-निश्छल बने रहनेकी तत्परता हो तो साधनामें यही सबसे उत्तम सुरक्षा देनेवाली वस्तु होती है ।
जब कोई सच्ची (यौगिक ) चेतनामें प्रवेश करता है तो तुम देखते हो कि सब कुछ किया जा सकता है, यदि अभी केवल जरा-सा प्रारम्भ ही क्यों न किया गया हो; प्रारम्भ करना पर्याप्त है, क्योंकि दिव्य शक्ति, भागवत बल-सामर्थ्य .' विद्यमान
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है । वास्तवमें देखा जाय तो बाहरी प्रकृतिकी क्षमतापर सफलता निर्भर नही करती, (बाह्य प्रकृतिके लिये संपूर्ण आत्मातिक्रमण असम्भव रूपमें कठिन प्रतीत होता है ), परन्तु आंतरिक सत्ताके बलपर और आंतरिक सत्ताके लिये सब कुछ सम्भव है । मनुष्यको केवल आंतरसंत्ताके साथ संपर्क स्थापित करना होगा और आंतरिक सहायता- से बाह्य दृष्टि और चेतनाको परिवर्त्तित करना होगा । यही साधनाका कार्य है और सच्चाई, अभीप्सा तथा धैर्य होनेपर उसका आना सुनिश्चित है ।
तुम्हें यह समझ लेना चाहिये कि ये मनोभाव ऐसे आक्रमण है जिनका तुम्हें तुरन्त परित्याग कर देना चाहिये -- क्योंकि ये और किसी चीजपर नहीं, बल्कि अपने ऊपर अविश्वास तथा असमर्थताके सुझावोंपर अवलंबित होते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता, क्योंकि सच पूछा जाय तो तुम अपनी क्षमता और योग्यताके बलपर नहीं बल्कि भगवान्की कृपा तथा अपनेसे कहीं महत्तर किसी दिव्य शक्तिकी सहायतासे ही साधनाके लक्ष्यको सिद्ध कर सकते हो । तुम्हें इस बातको याद रखना होगा और जब ये सूचनाएं आयें तो इनसे अपनेको पृथक् कर लेना होगा, कभी भी इन्हें न तो स्वी- कार करना होगा या न इनके वशमें होना होगा । किसी साधकमें यदि प्राचीन ऋषियों और तपस्वियोंका सामर्थ्य या विवेकानन्दका बल भी हो तो भी वह अपनी साधनाके प्रारम्भिक वर्र्षोमें लगातार अच्छी स्थिति या भगवान्के साथ एकत्च या अटूट पुकार या अभीप्साकी ऊंचाईको बनाये रखनेकी आशा नहीं कर सकता । समस्त प्रकृतिको अध्यात्मभावापन्न बनानेमेलम्बा समय लगता है और जबतक यह नहीं हो जाता तबतक उतार-चढ़ाव अवश्य होगा । एक प्रकारके सतत विश्वास और धैर्यको विकसित करना होगा - प्राप्त करना होगा - जरा भी कम नहीं जब कि परिस्थितियां प्रतिकूल हों -- क्योंकि जब वे अनुकूल होती हैं, विश्वास और धैर्यको बनाये रखना आसान होता है ।
यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि जिन गुणोंकी चर्चा तुम करते हो वे आध्यात्मिक पथकी ओर जानेमें सहायक होते हैं, जब कि जिन दोषोंको तुम गिनाते हो उनमेंसे प्रत्येक इस पथका एक बहुत बड़ा रोड़ा है 1 आध्यात्मिक प्रयासके लिये सच्चाईका होना विशेष रूपसे अत्यन्त आवश्यक है और कुटिलता एक स्थायी बाधा है । सात्त्विक प्रकृतिको आध्यात्मिक जीवनके लिये सदासे अत्यन्त उपयुक्त और अनुकूल माना जाता रहा है, जब कि राजसिक प्रकृति अपनी कामनाओं और आवेगो- के द्वारा भाराक्रात रहती है । और, आध्यात्मिकता एक ऐसी चीज है जो द्वन्द्वोंसे परे होती है, और इसके लिये सबसे अधिक आवश्यकता होती है एक सच्ची ऊर्ध्वमुखी
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अभीप्साकी । यह अभीप्सा राजसिक मनुष्यमें भी उठ सकती है और सात्विक मनुष्य- में भी । यदि यह उठती है तो उसके द्वारा राजसिक मनुष्य ठीक उसी तरह अपनी दुर्बलताओं और: कामनाओं और आवेगोंसे ऊपर उठकर भागवत पवित्रता और ज्योति और प्रेमतक पहुँच सकता है जैसे कि दूसरा अपने पुण्योंसे ऊपर उठकर वहां पहुँच सकता है । अवश्य ही, यह केवल तभी हो सकता है जब कि वह अपनी निम्र प्रकृतिको जीत ले और अपने अन्दरसे उसे निकाल फेंके; क्योंकि, वह यदि फिरसे उसमें गिर जाय तो यह सम्भव है कि वह पथसे पतित हो जाय अथवा कम-से-कम, जबतक वह गिरावटकी स्थिति बनी रहे तबतक, उसके कारण अपनी आंतरिक प्रगति करनेसे रुका रहे । पर तो. भी, धार्मिक और आध्यात्मिक इतिहासमें प्रायः ही बडे-बडे पापियोंका महान् सन्तों- में, कम गुणशाली या गुगाहीन मनुष्योंका आध्यात्मिक विज्ञासुओं और ईश्वर-प्रेमियों- में परिवर्तन होता रहा है -- जैसे, यूरोपमें सन्त ऑगस्टीन, भारतमें चैतन्यके जगाई और मधाई, विल्वमंगल तथा अनेक दूसरे लोग । भगवान्का गृह किसी व्यक्तिके लिये बन्द नहीं रहता जो सच्चाईके साथ उसके दरवाजोंको खटखटाता हूँ, चाहे पहले उसमें जितनी भी भूल-भ्रांतियां और दोष-त्रुटियां क्यों न रही हो । मानवीय गुण और मानवीय दोष हमारे अन्दर विद्यमान दिव्य तत्त्वके सफेद और काले आवरण हैं जिन्हें यदि एक बार वह तत्व भेद दे तो इन दोनोंके भीतरसे वह आत्माकी ऊंचाइयोंकी ओर प्रज्वलित हो सकता है ।
भगवान्के सम्मुख विनम्रता भी आध्यात्मिक जीवनका एक अपरिहार्य गुण है, और आध्यात्मिक घमंड, दंभ या मिथ्याभिमान और अपने-आपपर ही भरोसा सर्वदा नीचेकी ओर धकेलते हैं । परन्तु भगवान्पर विश्वास और अपनी आध्यात्मिक भवि- तव्यतापर विश्वास ( अर्थात् यह भाव कि चूँकि मेरा हृदय और अन्तरात्मा भगवान्- को खोजते हैं मैं उन्हें प्राप्त करनेमें असफल नहीं हो सकता ) -ये मार्गकी कठिनाइयोंको देखते हुए बहुत आवश्यक हैं । दूसरोंके प्रति पृणा-भाव रखना अनुचित है, विशेष- कर इस कारण कि भगवान् सबके अन्दर विराजमान हैं । स्पष्ट ही मनुष्योंकी क्रियाए और अभीप्साएं तुच्छ और मूल्यहीन नहीं हैं, क्योंकि समस्त जीवन ही अन्तरात्माका अन्धकारसे निकलकर ज्योतिकी ओर अग्रसर होना है । परन्तु हमारा मनोभाव यह है कि मनुष्यजाति मनद्वारा गृहीत सामान्य उपायोंसे, राजनीति, सामाजिक सुधार, लोकोपकार आदिके द्वारा अपनी सीमाओंसे बाहर नहीं जा सकती -- ये चीजे केवल सामयिक या स्थानिक ओषधियां हो सकती हैं । निस्तार पानेका एकमात्र सच्चा उपाय है चेतनाका परिवर्तन, होनेकी एक महत्तर, विशालतर और विशुद्धतर पद्धति- मे परिवर्तन, और उसी परिवर्तनपर आधारित जीवन और कर्म । अतएव उसी चीज- की ओर समस्त शक्तियोंको मोड देना चाहिये जब एक बार आध्यात्मिक जागृति पूर्ण हो जाय । इसका अर्थ अवहेलना करना नही है, बल्कि जो उपाय निष्फल ज्ञात हुए हैं उनके बदते मात्र फलदायी साधनोंको पसन्द करना है ।
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इसे इस प्रकार रखा जा सकता है; परन्तु पुण्यात्मा और पापी कहना गलत वर्णन है; क्योंकि यह सही नहीं है कि पुण्यात्मा लोग पापियोंकी अपेक्षा अधिक दुःख भोगते हैं । बहुतेरे पापी ऐसे मनुष्य हैं जो भगवान्की ओर मुड़नेकी तैयारी कर रहे हैं और बहुतेरे पुण्यात्मा लोगोंको अभी अनेक जन्मोंका चक्कर काटना पड़ेगा और उसके बाद ही वे भगवान्की ओर जानेकी बात सोचेंगे ।
श्रद्धा, सच्चाई, अभीप्सा, भक्ति इत्यादि जैसे गुण पूर्णताका निर्माण करते हैं जिसे फूलोंकी हमारी भाषामें सूचित किया गया है । साधारण भाषामें इसका अर्थ कुछ और होगा जैसे पवित्रता, प्रेम, दया, विश्वस्तता और अन्य गुणोंका एक समूह ।
हृत्युरुषको सामने ले आओ और उसे वहीं बनाये रखो तथा उसकी शक्तिको मन, प्राण और शरीरके ऊपर प्रयुक्त करो जिसमें वह अपनी अनन्य अभीप्सा, श्रद्धा- विश्वास और समर्पणके बलको, तथा प्रकृतिमें जो कुछ दोष हो, जो कुछ अहंकार और प्रमादकी ओर झुका हुआ हो,. ज्योति और सत्यसे दूर चला गया हो, उसे तुरन्त और प्रत्यक्ष रूपमें पहचान लेनेके अपने सामर्थ्यको उनके मन, प्राण और शरीरके ) अन्दर संचारित कर सके ।
अहंकारके जितने भी रूप हों उन सबको निकाल बाहर करो; उसे अपनो चेतना- की प्रत्येक क्रियामेंसे दूर कर दो ।
विश्वव्यापी चेतनाको विकसित करो । अपने अहं-केन्द्रित द्राष्टका विशालताम नैर्व्यक्तिकतामे, विश्वगत भगवान्की अनुभूतिमें, विश्वशक्तियोकी प्रत्यश प्रतीतिमें और जागतिक अभिव्यक्ति, विश्वलीलाकी सत्योपलब्धि तथा रहस्यबोधमें विलीन हो जाने दो ।
अहंकारके स्थानमें अपनी सत्य-सत्ताको प्राप्त करो, जो भगवान्का अंश है, विश्वजननीसे उत्पन्न हुआ है और इस अभिव्यक्तिका यंत्र है । परन्तु भगवान्का एक अंश, एक यंत्र होनेका जो यह बोध है वह सब प्रकारके गर्व, अहंबोध या अहंकारके दावोंसे या श्रेष्ठत्वस्थापन, मांग या वासनासे रहित होना चाहिये । कारण, यदि ये सब चीजे वहां हों तो यह समझना होगा कि वह यथार्थ वस्तु नहीं है ।
बहुत लोग साधना करते समय अपने मन, प्राण और शरीरमें ही निवास करते हैं और वे मन, प्राण और शरीर कभी-कभी या कुछ अंशमें ही उच्चतर मन और प्रबुद्ध मनके द्वारा उद्भासित होते हैं; किन्तु अतिमानसिक परिवर्तनके लिये प्रस्तुत होनेके के लिये यह आवश्यक है कि ( जैसे ही व्यक्ति-विशेषके लिये इसका समय आ जाय ) संबोधि और अधिमानसकी ओर आत्मोद्घाटन किया जाय, जिसमें ये हमारी समस्त
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सत्ता और सारी प्रकृतिको अतिमानसिक रूपांतरके लिये तैयार कर दें । चेतनाको शान्तिके साथ विकसित और विस्तृत होने दो,' फिर इन सब बातोंका ज्ञान तुम्हें अधि- काधिक होता जायगा ।
स्थिरता, विवेक- बुद्धि, अनासक्ति ( किन्तु उदासीनता नहीं ) -ये सब अत्यन्त आवश्यक हैं, क्योंकि इनके जो विरोधी भाव हैं वे रूपांतरके कार्यमें बहुत अधिक बाधा पहुँचाते हैं । अभीप्सामें तीव्रता होनी चाहिये, परन्तु इसे इन सब चीजोंके साथ-साथ रहना चाहिये । न तो जल्दबाजी होनी चाहिये, न जड़ता; न तो राजसिक अति- उत्सुकता होनी चाहिये न तामसिक निरुत्साह - एक धीर-स्थिर, अविराम पर शांत आवाहन और क्रिया होनी चाहिये । सिद्धिको छीनने-झपटने या पकड़ लेनेकी वृत्ति नही होनी चाहिये, बल्कि उसे भीतरसे या ऊपरसे अपने-आप आने देना चाहिये और उसके क्षेत्र, उसकी प्रकृति, उसकी सीमाओंका ठीक-ठीक निरीक्षण करते रहना चाहिये ।
श्रीमांकि शक्तिको अपने अन्दर कार्य करने दो, परन्तु इस विषयमें सावधान रहो कि कहीं तुम्हारे वर्धित अहंकारकी कोई क्रिया या सत्यके रूपमें सामने आनेवाली कोई अज्ञानकी शक्ति उसके साथ मिलजुल न जाय या उसका स्थान स्वयं ग्रहण न कर ले । विशेष रूपसे इस बातकी अभीप्सा करो कि तुम्हारी प्रकृतिमेंसे समस्त अन्धकार और अचेतनता दूर हो जायं ।
ये ही प्रधान शर्त्त हैं जिनका पालन करनेपर मनुष्य अतिमानसिक रूपांतरके लिये तैयार हो सकता हे; परन्तु इनमेंसे किसी भी शर्त्तको पूरा करना आसान नहीं है, और जब पूर्ण रूपसे इन सबका पालन होगा तभी यह कहा जा सकता है कि प्रकृति तैयार हो गयी है । यदि साधनाका यथार्थ भाव (जो चैत्य भाव होता है, अहकारशून्य होता है, एकमात्र भागवत शक्तिकी ओर ही उद्घाटन है ) स्थापित हो जाय तो फिर साधना- की क्रिया बहुत अधिक तेजीके साथ आगे बढ़ सकती है । इस यथार्थ भावको ग्रहण करना और बनाये रखना, अपने अन्दर होनेवाले परिवर्तनको बढ़ाते रहना - बस इतना करना ही साधककी ओरसे सहायता करना है और इसे वह कर सकता हूँ, और सर्वांगीण परिवर्तनकी सहायताके लिये उससे बस इसी एक चीजकी मांग की जाती है ।
मैं समझता हूँ कि तुम्हारे पत्रका उत्तर देनेका सर्वोत्तम तरीका यह होगा कि उसमें सन्निहित प्रश्नोंको अलग-अलग लिया जाय । तुमने जो यह निष्कर्ष निकाला है कि अ-प्राव्य प्रकृतिके लिये योग करना असम्भव है, इसीसे मैं आरम्भ करूंगा ।
मैं ऐसे निर्णयके लिये कोई कारण नहीं देख पाता; यह समस्त अनुभवके विपरीत है । यूरोपके लोगोंने शताब्दियोंसे सफलता पूर्वक आध्यात्मिक साधनाओंका अभ्यास किया है जो पूर्वीय योगसे मिलती-जुलती थीं और उन्होंने आध्यात्मिक जीवनकी उन रीतियोंका भी अनुसरण किया है जो उनके यहां पूर्वसे आयी थीं । उनका अ-पूर्वीय स्वभाव उनके मार्गमें बाधक नहीं हुआ । प्लोटिनसके और उनसे गृहीत यूरोपियन
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रहस्यवादियोंके मार्ग और अनुभव, जैसा कि अभी हालमें सिद्ध किया गया है, एक प्रकारके भारतीय योगसे मिलते-जुलते हैं । विशेषकर, ईसाई मतके प्रचारित होने- के समयसे, यूरोपियन लोगोंने इसके रहस्यवादी साधनाओंका अनुसरण किया है जो तत्त्वतः साधनाओंसे अभिन्न थीं, चाहे वे अपने रूपों, नामों और प्रतीकोंमें जितना अधिक भिन्न क्यों न रही हों । यदि प्रश्न स्वयं भारतीय योगका, उसके अपने विशिष्ट रूपोंमें, हो तो भी अनुभव इस अनुमानित अयोग्यताका खंडन करता है । प्राचीन युगोंमें पश्चिमके यूनानी और सीथियन तथा पूर्वके चीनी, जापानी और कम्बो- डियन लोगोंने बिना किसी कठिनाईके बौद्ध और हिन्दु साधनाओंका अनुसरण किया; वर्तमान कालमें पाश्चात्य लोंगोंकी एक बहुत बड़ी संख्याने वेदान्त या वैष्णव या अन्य भारतीय आध्यात्मिक साधनाओंको ग्रहण किया है और इस अयोग्यता अथवा अनुप- युक्तताकी शिकायत कभी न तो शिष्योंकी ओरसे की गयी है और न गुरुओंकी ओरसे । और, मैं नहीं समझता कि इस प्रकारकी कोई अलंध्य खाई क्यों होनी चाहिये; क्योंकि पूर्वके आध्यात्मिक जीवन तथा पश्चिमके आध्यात्मिक जीवनके बीच कोई मौलिक भेद नहीं है । जो कुछ भेद है वह सदा नामों, रूपों और प्रतीकोंका रहा है अथवा किसी एक या दूसरे लक्ष्यपर अथवा आंतरिक अनुभवके किसी एक या दूसरे पक्षपर अधिक जोर दिया जाता रहा है । इस विषयमें भी बहुधा जिन भेदोंका आरोप किया जाता है वे या तो वास्तवमें नहीं हैं या उतने बड़े नहीं हैं जितने कि प्रतीत होते हैं । मैंने एक ईसाई लेखकको (जो इन बौद्धिक तुच्छ विभेदोंके विषयमें तुम्हारे मित्र ऐंगस ( की आपत्तिमें हिस्सा बंटाता हुआ नहीं प्रतीत होता ) यह आरोप लगाते हुए देखा है कि हिन्दु आध्यात्मिक चिंतन और जीवन केवल परात्परको स्वीकार करता और उसीका अनुसरण करता है और सर्वव्यापी भगवान्की उपेक्षा करता है, जब कि ईसाई मत भगवान्के दोनों स्वरूपोंको उचित स्थान देता है; परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो भारतीय आध्यात्मिकताने, नाम और रूपसे परे उच्चतम दिव्य तत्वपर अन्तिम जोर देनेपर भी, संसारके अन्दर परिव्याप्त भगवान् और मनुष्य-प्राणीके अन्तरस्थ भगवान्- . को पूरी-पूरी मान्यता और स्थान प्रदान किया है । यह सच है कि भारतीय आध्यात्मिकताके पीछे एक विशालतर और सूक्ष्मतर ज्ञान विद्यमान है । इसने सैकड़ों भिन्न-भिन्न पथोंका अनुसरण किया है, भगवान्की ओर जानेके प्रत्येक प्रकारके मार्गों- को स्वीकार किया है और इस तरह वह उन क्षेत्रोंमें प्रवेश करनेमें समर्थ हुई है जो पाश्चात्य साधनाके कम विस्तृत क्षेत्रसे बाहर हैं । परन्तु इससे मौलिक तत्वोंमें कोई अन्तर नहीं आता, और सच पूछा जाय तो केवल मौलिक तत्त्वोंका ही विशेष मूल्य है ।
ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय योगका अभ्यास करनेकी बहुतेरे पश्चिमी लोगोंकी योग्यताकी तुम्हारी व्याख्या यह है कि उनके यूरोपियन और अमेरिकन शरीरमें हिन्दू स्वभाव है । तुम कहते हो कि जैसे गांधीजी आंतरिक रूपमें एक नैतिकता- वादी पाश्चात्य और ईसाई हैं, वैसे ही आश्रमके पाश्चात्य सदस्य अपने दृष्टिकोणमें मूलतः हिन्दू हैं । परन्तु यह हिन्दू दृष्टिकोण ठीक-ठीक है क्या वस्तु? मैनई स्वयं उनके अन्दर. चीज ' देखी जिसका वर्णन इस प्रकार किया जाय और
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न माताजीने ही देखा है । मेरा अपना अनुभव तुम्हारी व्यास्याका पूर्णत: खंडन करता है । मैं बहन निवेदिताको अच्छी तरह जानता था (वह बहुत वषोंतक राजनीतिक क्षेत्रमें एक साथिनी और सहकर्मिणी थीं ) और बहन क्रिस्टीनसे मिला था,-ये दोनों विवेकानन्दकी दो घनिष्ठ यूरोपियन शिष्याएं थीं । दोनों ही अपने अन्तरतम प्रदेश- तक पाश्चात्य थीं और हिन्दू दृष्टिकोणका कुछ भी अंश उनमें नहीं था; यद्यपि बहन निवेदितामें, जो एक आयलैंडकी महिला थीं, एक ऐसी शक्ति थी कि वह एक तीव्र सहानुभूतिके द्वारा अपने चारों ओरके लोगोंकी जीवन-पद्धतिके अन्दर प्रवेश कर जाती थीं, पर उनका अपना स्वभाव अन्ततक अ-प्राव्य ही बना रह गया, फिर भी उन्हें वेदांतकी धारामें आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करनेमें कोई कठिनाई नहीं हुई । यहां, इस आश्रममें मैंने इसके उन सदस्योको देखा है जो पश्चिमसे आये हैं (मैं विशेष रूपसे उन लोगोंको समाविष्ट करता हूँ जो यहां बहुत दिनोंसे. रह रहे हैं ), वे अपने समस्त गुणोंमें विशेष रूपमें पाश्चात्य हैं और उनमें पश्चिमी मन तथा प्रकृतिकी सभी कठि- नाइयां भी हैं तथा उन्हें अपनी कठिनाइयोंके साथ ठीक वैसे ही निपटना पडा है, जैसे कि भारतीय सदस्योंकी अपने स्वभाव और शिक्षाद्वारा उत्पन्न सीमाओं और बाधाओं- के साथ संघर्ष करनेके लिये बाध्य होना पडा है । निःसंदेह, उन्होंने योगकी शर्त्तोंको तत्त्वतः स्वीकार किया है, पर जब वे आये तब उनमें हिन्दु दृष्टिकोण नहीं था और मैं नहीं समझता कि उन्होंने उसे प्राप्त करनेका प्रयास ही किया । वे भला वैसा क्यों करते? सच पूछा जाय तो योगमें हिन्दू दृष्टिकोण या पाश्चात्य दृष्टिकोणका कोई मौलिक महत्च नहीं है, बल्कि मह्त्त्व है चैत्य पुरुषके झुकावका और आध्यात्मिक लगनका और ये चीजे सर्वत्र एक जैसी हैं ।
आखिरकार, यौगिक दृष्टिसे भारतके साधकों और पश्चिममें जन्मे हुए .साधकों- के बीच क्या विभेद है? तुम कहते हो कि भारतीयके लिये उसका आधा योग हो चुका रहता है,--प्रथम, इस कारण कि उसका चैत्य पुरुष बहुत अधिक प्रत्यक्ष रूपमें परात्पर भगवान्की ओर उन्मुक्त रहता है । विशेषणको छोड़ देनेपर भी, (क्योंकि ऐसे बहुत- से लोग नहीं होते जो स्वभावत: ही परात्परकी ओर आकर्षित हों, अनेक लोग अधिक आसानीसे साकार भगवान्को, यहां अंतर्यामी भगवान्को खोजते हैं, विशेषकर यदि वे उन्हें किसी मानव-शरीरमें प्राप्त कर सकें ); यहां भारतमें निस्संदेह कुछ सुविधा है । इसका कारण महज यह है कि भारतमें आध्यात्मिक खोजका वातावरण और साधना तथा अनुभूतिकी एक दीर्घ परम्परा प्रबल रूपमें बनी हुई है, जब कि यूरोपमें यह वाता- वरण नष्ट हो गया है, परम्परा खंडित हो गयी है, ओर दोनोंको फिरसे निर्मित करना होगा । यहां मूलभूत शंका-सन्देहका अभाव है जो इतना अधिक यूरोपियन लोगों या, इतना और जोड़ दें कि, यूरोपियन भाववाले भारतीयोंके मनको आक्रांत करता है, यद्यपि इससे भारतीय साधकोंमें व्यावहारिक तथा अत्यन्त फलदायक प्रकारके सन्देह- की महान् क्रिया बन्द नही हो जाती । परन्तु जब तुम किसी गभीरतर भावमें अपने सजातीय मानव-प्राणियोके प्रति उदासीनताकी चर्चा करते हो तो मैं उसका अर्थ समझनेमें अपनेको असमर्थ पाता । मेरा अपना अनभब '' कि व्यक्तियोंके प्रति -
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माता, पिता, स्त्री, बच्चों, मित्रोंके प्रति -- कर्तव्यकी या सामाजिक सम्बन्धकी दृष्टिसे ही नहीं, वरन् हृदयके घनिष्ठ बन्धनके द्वारा -- यूरोपमें भी लोग बिलकुल उतने ही प्रबल रूपमें आसक्त होते हैं और बहुत बार तो और भी अधिक तीव्र रूपमें; यह योगपथमें सबसे अधिक बाधा डालनेवाली एक शक्ति है, कुछ लोग तो इस आकर्षण- के सामने हार मान जाते हैं और अनेक लोग, यहांतक कि उन्नत साधक भी, इसे अपने खून तथा अपने प्राणिक तंतुसे बाहर निकाल फेंकनेमें असमर्थ होते है । दूसरोंके साथ एक ' 'आध्यात्मिक' 'अथवा ' 'चैत्य' ' सम्बन्ध स्थापित करनेका आवेग भी -- जो बहुत सामान्य रूपमें एक प्राणिक मिलावटको छिपाये रखता है और जो मिलावट कि उन्हें अपने एकमात्र लक्ष्यसे विचलित करती है -- प्रायः निरन्तर दिखायी देनेवाला एक लक्षण है । यहां पाश्चात्य और पौर्वात्य मानव स्वभावमें कोई अन्तर नहीं है । केवल भारतकी शिक्षा दीर्घकालसे यह रही है कि सब कुछ भगवान्की ओर मोड देना चाहिये और दूसरी प्रत्येक चीजको या तो त्याग देना चाहिये या एक गौण और सहायक क्रिया- में बदल देना चाहिये अथवा उसके उन्नयनके द्वारा केवल भगवान्की खोजका प्रथम पग बना देना चाहिये । निस्सन्देह यह चीज भारतीय साधकको, यदि तुरत अनन्य- चित्त बननेमें नहीं तो भी अपनेको अधिक पूर्णताके साथ लक्ष्यकी ओर मोड देनेमें सहायता करती है । उसके लिये लक्ष्य सर्वदा एकमात्र भगवान् ही नहीं होते, यद्यपि यही सबसे ऊंची स्थिति मानी जाती है; परन्तु वह मुख्यतया और प्रथमत: आसानीसे भगवान्को अपने आदर्शके रूपमें ग्रहण करता है ।
योगसाधनाके अपने पथमें -- कम-से-कम इस योगकी साधनामें -- भारतीय साधकको अपनी निजी कठिनाइयां होती हैं, जो पश्चिमी साधकको कम मात्रामें होती हैं । पाश्चात्य प्रकृतिकी कठिनाइयां वे हैं जो आसन्न अतीतके यूरोपीय मनकी प्रमुख प्रवृत्तिसे उत्पन्न होती हैं । उसकी सामान्य बाधाएं ये हैं -- मौलिक शंका उठानेकी बहुत अधिक तत्परता और मनमें सन्देहवादी बना रहना; स्वभावकी आवश्यकताके रूपमें मानसिक क्रियाओंको जारी रखनेका अभ्यास, जिससे पूर्ण मानसिक नीरवता प्राप्त करनेमें अधिक कठिनाई होती हे; सक्रिय जीवनकी समृद्धिसे उत्पन्न. बाहरी वस्तुओंकी ओर एक प्रबल झुकाव (जब कि भारतीय साधक सामान्यतया अवसन्न या निगृहीत प्राणशक्तिसे उत्पन्न दोषोंसे अधिकतर पीड़ित रहते हैं ); मानसिक और प्राणिक स्वमतस्थापनकी आदत और कभी-कभी आक्रामक रूपसे जागृत स्वातंन्यका भाव जो किसी महत्तर ज्योति और ज्ञान, यहांतक कि भागवत प्रभावके प्रति भी किसी प्रकारके पूर्ण आंतरिक समर्पणको कठिन बना देता है । परन्तु ये चीजें पश्चिमी लोगों- में सार्वजनीन नहीं हैं, और ये, दूसरी ओर, बहुतसे भारतीय साधकोंमें भी विद्यमान हैं; विशिष्ट भारतीय स्वभावकी कठिनाइयोंकी तरह ही ये भी सत्ताके यथार्थ स्वभाव- की चीजे नहीं हैं, बल्कि ऊपरी रचनाएं हैं । ये अन्तरात्माके मार्गमें स्थायी रूपसे रोड़ा नहीं अटका सकतीं, बशर्त्ते कि अन्तरात्माकी अभीप्सा प्रबल और सुदृढ़ हो, आध्यात्मिक लथ्य ही साधकके जीवनकी प्रमुख वस्तु हो । ये ऐसी रुकावटें हैं जिन्हें अन्दरकी अग्नि आसानीसे भस्म कर सकती है यदि इनसे अ पानेका संकल्प प्रबल, और यदि
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बाहरी प्रकृति दीर्घ कालतक इनसे चिपकी रहे और इनका समर्थन करे तो भी जिन्हें वह अन्तमें निश्चय ही - यद्यपि कम आसानीसे. - जला देगी, बशर्त्ते कि वह अग्नि, केंद्रीय संकल्प, गभीरतर प्रवेग सब कुछके पीछे हो और यथार्थ तथा सच्चाईयुक्त हो ।
तुमने जो यह निष्कर्ष निकाला है कि भारतीय योग करनेमें अ-पूर्वीय लोग असमर्थ होते हैं, यह केवल तुम्हारी अपनी कठिनाइयोंके अत्यन्त अवसादपूर्ण तीव्र बोधकी उपज है; तुमने उतनी ही बड़ी और कठिनाइयोंको नहीं देखा है जिन्होंने दूसरोंको दीर्घ कालतक परेशान किया है या अभी भी कर रही हैं । न तो भारतीयोंके लिये और न यूरोपियनोंके लिये ही योगका मार्ग निर्विघ्र और सुगम हो सकता है; इसे देखनेके लिये उनकी साधारण मानव-प्रकृति विद्यमान है ही । प्रत्येक मनुष्यको अपनी निजी कठिनाइयां महान् और चरम और यहांतक( कि लगातार और अटल बनी रहनेके कारण असमाधेय प्रतीत होती हैं और विषाद तथा निराशाकी सकटावस्थाओको लम्बे कालतक बनाये रखती हैं । पर्याप्त श्रद्धा बनाये रखने या तुरत अथवा लगभग तुरत प्रतिक्रिया करने तथा इन आक्रमणोंको रोक देनेके लिये पर्याप्त चैत्य दृष्टि प्राप्त करनेकी शक्ति मुश्किलसे सौमें दों-तीन व्यक्तियोंको प्राप्त होती हे । परन्तु मनुष्यको अपने मनमें यह दृढ धारणा नहीं बैठा लेनी चाहिये कि मैं अक्षम हूँ अथवाइस धारणाके वशीभूत नहीं हो जाना चाहिये; क्योंकि ऐसे मनोभावके लिये कोई वास्तविक कारण नहीं है और अनावश्यक रूपसे यह मार्गको अधिक कठिन बना देता है । जहां भी कोई अन्त- रात्मा है जो एक बार जागृत हो गया है, वहां निस्सन्देह अन्तरमें एक क्षमता है जो सभी ऊपरी दोषोंसे प्रबल हो सकती और अन्तमें विजयी हो सकती है ।
यदि तुम्हारा निर्णय सत्य हो तो इस योगका संपूर्ण लक्ष्य ही एक व्यर्थकी चीज हो जायगा । क्योंकि हम किसी एक जाति या एक राष्ट्र या एक महाद्वीपके लिये अथवा किसी ऐसी उपलब्धिके लिये कार्य नहीं कर रहे हैं जिसे प्राप्त करनेकी क्षमता केवल भारतीयोंको अथवा केवल पौर्वात्योको ही हो । फिर हमारा लक्ष्य यह भी नहीं है कि हम एक धर्मकी या किसी दार्शनिक मतकी या किसी योगमार्गकी स्थापना करें, बल्कि हमारा लक्ष्य है आध्यात्मिक विकास और अनुभवके एक ऐसे क्षेत्र और एक ऐसे पथका निर्माण करना जो एक ऐसे महत्तर सत्यको नीचे उतार लायगा जो मनसे अतीत तो होगा पर मानव-आत्मा और चेतनाके लिये दुष्प्राप्य नहीं होगा । जो लोग उस सत्यकी ओर आकर्षित होंगे वे सब उसे प्राप्त कर सकेंगे, चाहे वे भारतके हों अथवा अन्यत्र कहींके, चाहे पूर्वके हों या पश्चिमके । सभी लोग अपनी व्यक्तिगत या सामान्य मानवीय प्रकृतिमें महान् कठिनाइयोंका अनुभव कर सकते हैं; परन्तु सच पूछा जाय तो उनका भौतिक जन्म या उनका जातीय स्वभाव वह वस्तु नहीं है जो उनकी मुक्तिकी एक अलंप्य बाधा बन सके ।
II
बस, एक ही अनिवार्य शर्त्त है, सच्चाई ।
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'सच्चा' महज एक विशेषण है जिसका अर्थ यह है कि मनुष्यका संकल्प सच्चा संकल्प होना चाहिये । यदि तुम सिर्फ यह सोचते हो कि ' 'मैं अभीप्सा करता हूँ' ' और ऐसी चीजे करते हो जो उस अभीप्साके साथ मेल नहीं खातीं; अथवा अपनी कामना- ओंका अनुसरण करते हो या अपनेको विपरीत प्रभावोंकी ओर उद्घाटित करते हो तो फिर वह सच्चा संकल्प नहीं है ।
यह सच है कि केंद्रीय. सच्चाई ही पर्याप्त नहीं है, वह तो बस एक प्रारम्भ और आधार है; सच्चाईको, जैसा कि तुम कहते हो, सारी प्रकृतिभरमें फैल जाना चाहिये । परन्तु फिर भी, यदि मनुष्यमें द्विविध प्रकृति (केंद्रीय सामजस्यकारी चेतनाके. बिना ) न हो तो यह आधार सामान्यतया वैसा घटित होनेके लिये पर्याप्त होता है ।
जब सब कुछ एकमेव परम सत्यके साथ अथवा उसकी अभिव्यक्तिके साथ मेल रखता है तो उसे ही समस्वरता या सामंजस्य कहते हैं ।
प्राणसत्तामें सच्चाई ले आना अत्यन्त कठिन है और अत्यन्त आवश्यक है
तुम कहते हो कि तुम्हारी प्रकृतिमें सच्चाई नहीं है । यदि सच्चाईके अभावका मतलब यह हो कि सत्ताका कोई भाग उस उच्चतम ज्योतिके अनुसार, जिसे कि साधक प्राप्त कर चुका है, जीवन बितानेमें या आंतरिक सत्ताके साथ बाह्य सत्ताको एकरूप करनेमें अनिच्छुक है तो यह भाग सदा ही सबके अन्दर कुटिल होता है । एकमात्र पथ है आंतर सत्तापर बल देना और उसमें चैत्य तथा आध्यात्मिक चेतनाको विकसित करना, जबतक कि वह चेतना उसमें उतर न आये और बाहरी सत्तासे भी अन्धकार- को बाहर न निकाल दे ।
मैंने ऐसा कभी नहीं कहा है कि प्राणको भगवत्प्रेममें कोई भाग नहीं लेना है, केवल यह कहा हे कि उसे चैत्य पुरुषके प्रकाशमें अपने-आपको शुद्ध तथा उन्नत करना होगा । मनुष्य-मनुष्यके बीचके स्वांनुरागी प्रेमके परिणाम अन्तमें इतने तुच्छ और
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विपरीत होते हैं - उसीको मैं साधारण प्राणिक प्रेम कहता हूँ - कि मैं भगवान्की ओर जानेके प्रयासके लिये भी प्राणके अन्दर कोई शुद्धतर, महत्तर और उच्चतर वस्तु चाहता हूँ ।
मनुष्य सर्वदा मिश्रित होता है और उसकी प्रकृतिमें गुण और दोष एक साथ इस प्रकार मिलेजुले होते हैं कि उन्हें अलग करना प्रायः असम्भव होता है । मनुष्य जो कुछ होना चाहता हैं अथवा दूसरे उसमें जो कुछ देखना चाहते हैं अथवा कभी-कभी वह अपनी प्रकृतिके एक भागमें जो कुछ होता है या किसी विशेष संपर्कमें जो कुछ होता है उससे वह वास्तविक रूपमें या अन्य संपर्कोंमें अथवा अपनी प्रकृतिके दूसरे भागमें बहुत भिन्न हो सकता है । पूर्ण रूपसे सच्चा, निर्भीक, उच्च वस्तुओंके प्रति उद्घाटित होना मानव-प्रकृतिके लिये कोई आमान उपलब्धि नहीं है । सच पूछा जाय तो एकमात्र आध्यात्मिक प्रयासके द्वारा ही कोई इस चीजको उपलब्ध कर सकता है -- और पैसा प्रयास करनेके लिये आवश्यकता होती है कठोर अन्तर्निरीक्षणात्मक आत्मदर्शन- की शक्तिकी, निर्दय होकर अपने अन्दर पर्यवेक्षण करने और छानबीन करनेकी शक्ति- की जिसे पानेमें बहुतसे साधक और योगी भी समर्थ नहीं होते । वास्तवमें एकमात्र आलोकदायिनी भागबती कृपा-शक्ति ही साधकके सम्मुख उसका स्वरूप उद्घाटित .करती और उसमें जो कुछ दोषपूर्ण है उसे रूपांतरित करती है और तभी मनुष्यमें वैसा करनेकी शक्ति आती है । और उस समय भी ऐसा केवल तभी सम्भव होता है जब साधक स्वयं अपनी अनुमति देता और भागवत क्रियाके लिये सम्पूर्ण रूपसे अपने-आपको दे देता है ।
यदि 'अ' की साधनाको अन्ततक निरन्तर एक बृत्तके अन्दर चक्कर नहीं काटते रहना है अथवा अन्तमें असफल होना और चूर-चूर होकर नष्ट नहीं हो जाना है तो: कुछ चीजोंको सरल और निष्कपटभावसे, आत्मसमर्थन किये बिना समझ लेना उसके लिये नितांत आवश्यक है ।,
इस योगका लक्ष्य है प्राण, मन और शरीरसे परेके एक उच्चतर भागवत सत्यकी ओर उद्घाटित होना और इन तीनोंको उसकी प्रतिमूर्त्तिमें रूपांतरित करना । परन्तु वह रूपांतर तबतक ससिद्ध नहीं हो सकता और स्वयं वह सत्य अपने अभ्रांत भावमें, पूर्ण ज्योति और यथार्थ आकारमें नहीं जाना जा सकता जबतक इग्क समूचा आधार मूलत: तथा धैर्यपूर्वक शुद्ध नहीं कर दिया जाता, और जो कुछ मानसिक रचनाओं, प्राणसत्ताकी कामनाओं तथा भौतिक चेतना और भौतिक सत्ताके अतीत है उसे ग्रहण करनेके लिये नमनीय और सक्षम नहीं बना दिया जाता ।
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उसकी अत्यन्त सुस्पष्ट बाधा, जिस बाधा से उसे अबतक जरा भी छुटकारा नहीं मिला है वह है प्रबल राजसिक-प्राणिक अहंकार जिसके लिये उसका मन समर्थन और आश्रय खोजता है । प्राणिक अहंकारके लिये योगका जामा पहनने, और यह कल्पना करनेसे अधिक अनुकूल कोई चीज नहीं है कि मैं मुक्त, दिव्य, अध्यात्मभावापन्न, सिद्ध और इस तरहकी बाकी सभी चीजे हूँ अथवा उस परिणतिकी ओर आगे बढ़ रहा हूँ, जब कि वास्तवमें इस प्रकारकी कोई चीज वह नहीं करता होता, बल्कि ठीक वही पुराना व्यक्ति नये आकारोंमें होता है । यदि मनुष्य एकनिष्ठ सच्चाईके साथ आत्म- निरीक्षण न करे तो इस चक्रसे बाहर निकलना असम्भव है ।
आत्मप्रतारक प्राणिक अहंके निष्कासनके साथ-साथ वह वस्तु भी अवश्य जानी चाहिये जो उसके साथ रहती है, सामान्यतया मनके भागोंमें रहती है, जैसे मानसिक उद्दण्डता, अपने बड़प्पनका झूठा बोध और ज्ञानका आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन । सब प्रकार- के बहानों और सब प्रकारके मिथ्याभिमानोका अवश्य परित्याग होना चाहिये; मनुष्य जो कुछ नहीं है वही होनेका सब प्रकारका बहाना अपने प्रति और दूसरोंके प्रति करना, अथवा मनुष्य जो कुछ नहीं जानता उसे जाननेका बहाना करना, और अपनी निजी आध्यात्मिक स्थितिसे अधिक ऊंचा होनेकी सभी प्रकारकी भावना इस सबका त्याग होना चाहिये ।
प्राणिक अहंकारके सम्मुख है भौतिक सत्तामें तमस्का भद्दापन और भारीपन तथा चैत्य और आध्यात्मिक परिमार्जनका अभाव । उसे अवश्य दूर करना होगा अन्यथा वह सर्वदा प्राण-सत्ता एवं मनके वास्तविक तथा पूर्ण परिवर्तनके मार्गमें बाधा डालता रहेगा ।
जबतक ये चीजे मौलिक रूपमें परिवर्त्तित नहीं हो जाती; तबतक मानसिक और प्राणिक भागोंमें महज अनुभूतियां पाने या क्षणस्थायी और निराधार स्थिरता स्थापित करनेसे अन्तमें कोई लाभ नहीं होगा । सत्तामें कोई भी मौलिक परिवर्तन नहीं होगा, केवल एक स्थितिसे दूसरीमें निरन्तर जाते रहना, कभी-कभी बाधाओंका वापस आना तथा सर्वदा उसी दोषका बने रहना अध्यायके अन्ततक चलता रहेगा ।
इन चीजोंसे छुट्टी पानेकी एकमात्र शर्त्त है सत्ताके समस्त अंगोंमें पूर्ण केंद्रीय सच्चाईका होना, और इसका अर्थ है परम सत्यपर पूरा-पूरा आग्रह करते रहना और परम सत्यके सिवा किसी वस्तुपर आग्रह न करना । तब मनुष्य अपनी निर्दय आलोचना करनेके लिये तत्पर रहेगा तथा ज्योतिकी ओर खुलनेके लिये जागृत रहेगा, जब मिथ्या- पन अपने अन्दर आयेगा तब एक प्रकारकी बेचैनी होगी और ये सब चीजे अन्तमें समूची सत्ताको शुद्ध कर देंगी ।
उपर्युक्त दोष लगभग प्रत्येक साधकमें विभिन्न मात्राओंमें प्रायः ही पाये जाते हैं, यद्यपि कुछ साधक ऐसे होते हैं जिन्हें ये दोष स्पर्श नहीं करते । इनसे छुटकारा मिल सकता है, यदि साधकमें अपेक्षित सच्चाई विद्यमान हो । परन्तु ये यदि सत्ताके केंद्रीय भागोंको अधिकृत कर लें ओर साधकके मनोभावको दूषित कर दें तो फिर साधक निरन्तर ' प्रकट या प्रच्छन्न रूपमें इनका समर्थन करता, मन सदा कपटरूप
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देने और समर्थन करनेके लिये सन्नद्ध रहेगा तथा आत्म-समालोचना करनेके गुण- रूपी सर्चलाइट एवं चैत्य पुरुषके विरोधोंसे बचनेकी चेष्टा करेगा । इसका मतलब है कम-मे-कम इस जीवनके लिये योगसाधनामें असफल हो जाना ।
यह बिलकुल स्वाभाविक है कि जबतक सब कुछ स्वच्छ नहीं हो जाता तबतक हमारे मनोभावमें बहुत अधिक मिलावट बनी रहे -- साधारण प्रकृति कर्मसे चिपकी रहती है और रूपांतरका कार्य एकाएक पूर्ण रूपसे संपन्न नहीं हो सकता । आवश्यकता बस इस बातकी है कि आधारभूत चेतना दृढ़तापूर्वक भगवान्में स्थापित हो जाय, तब बाकी भागोंकी मिलावट दिखायी पड़ेगी और उसे दृढ़तापूर्वक कार्यान्वित किया जा सकेगा । ऐसा बाहरी रूपमें और आंतरिक रूपमें करना एक महान् उन्नति है ।
एक साधारण ईसाईके लिये पूर्णत: एकरूप बन जाना, सभी अंगोंमें एकभावापन्न बन जाना बहुत कठिन है; क्योंकि ईसाकी शिक्षा यूरोपीय शिक्षा-दीक्षा तथा समाजके द्वारा शिक्षित किसी बुद्धि-प्रधान और प्राणप्रधान मनुष्यकी चेतनाकी अपेक्षा एकदम किसी दूसरे स्तरकी शिक्षा है । वह बौद्धिक और प्राणप्रधान व्यक्ति जब कोई पादरी या पुरोहित होता हे तब भी उससे कभी यह मांग नहीं की जाती कि वह जो कुछ उपदेश देता है उसका अभ्यास वह पूरी सच्चाईके साथ अपने जीवनमें करे । परन्तु सच्चे श्रद्धा-विश्वास या सत्यदर्शनके एकमात्र केंद्रसे विचार करना, अनुभव करना और कार्य करना कहीं भी मानवप्रकृतिके लिये कठिन होता है । एक सामान्य हिन्दु आध्या- त्मिक जीवनको सबसे ऊंचा मानता है, संन्यासीका आदर करता है, भक्तके द्वारा प्रभावित होता है; पर अपने परिवारका कोई आदमी यदि आध्यात्मिक जीवन यापन करनेके लिये संसार छोड़ देता है तो कितना आसू बहाया जाता, तर्क-वितर्क किया जाता, प्रति- वाद किया जाता और शोक प्रकट किया जाता है! यदि उसकी स्वाभाविक मृत्यु हो गयी होती तो उस समय जो कुछ होता उससे भी प्रायः बुरी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है । यह सचेतन मानसिक असद्हृदयता नहीं है-- वे पंडितोंकी तरह तर्क करेंगे और यह सा बेत करनेके लिये शास्त्रकी दुहाई देंगे कि तुम भूल कर रहे हो; यह अचेतनता है, एक प्रकारकी प्राणिक असच्चाई है जिसके विषयमें वे सचेतन नहीं हैं और जो तार्किक मनका व्यवहार पापकर्मके एक साथीके रूपमें करती है ।
यही कारण है कि हम इस योगमें सच्चाईपर इतना अधिक बल देते हैं - और इसका अर्थ है अपनी समस्त सत्ताको एक परम सत्य, एकमात्र भगवान्की ओर सचेतन रूपसे मोड देना । पर यह मानवीय प्रकृतिके लिये एक अत्यन्त कठिन कार्य है, कठोर तापस-जीवन या कट्टर धार्मिकतासे भी बहुत अधिक कठिन है । धर्म स्वयं इस प्रकार-
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की पूर्ण सुसमंजस सच्चाई नहीं प्रदान करता - महज चैत्य पुरुष और एकनिष्ठ आध्यात्मिक अभीप्सा ही यह सच्चाई प्रदान कर सकती हैं ।
III
अभीप्सा परम सत्यके पूर्ण अवतरण तथा जगत्में मिथ्यात्वके ऊपर विजयके लिये होनी चाहिये ।
जो लोग यहां आते है उनमें एक अभीप्सा और एक सम्भावना होती है -- उनके चैत्य पुरुषकी कोई चीज उन्हें प्रेरित करती है और अगर वे उसका अनुसरण करें तो वे लक्ष्यपर पहुँच जायेंगे; परन्तु वह चीज अन्तर्मुखीनता नही है । अन्तर्मुखीनताका मतलब है सत्ताका निम्रतर वस्तुओंसे हटकर भगवान्की ओर मुड जाना ।
अभीप्सा बादमें अन्तर्मुखीनता ला सकती है, पर वह स्वयं अन्तर्मुखीनता नहीं है!
श्रीमाताजीने तीन विभिन्न चीजोंकी बात कही: अन्तर्मुखीनता, अन्तरात्माका निश्चित रूपमें भगवान्की ओर मुंड जाना,-भगबान्की आंतरिक उपलब्धि,-- प्रकृतिका रूपांतर । पहली दो चीजे तेजीसे और अकस्मात् रूपसे और सर्वदाके लिये घटित हो सकती हे, पर तीसरी चीजके होनेमें बराबर ही समय लगता है और वह एक ही क्षणमें, एक ही बारमें नहीं हो सकती । मनुष्य रूपांतरकी ब्योरेकी किसी-न-किसी चीजके दुत परिवर्तनके विषयमें सज्ञान हो सकता है, पर वह भी एक दीर्घ क्रियाका द्रुत परिणाम होता है ।
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आत्मार्पण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी चेतनाको भगवान्के प्रति आत्मदान कर देनेके लिये प्रशिक्षित करता है । परन्तु अन्तर्मुखी-भाव चेतनाकी एक स्वाभाविक क्यिा होता हे । यह भाव भीतरसे और ऊपरसे प्राप्त स्पर्शके द्वारा आता है और उसका परिणाम भी होता है । आत्मार्पण मनुष्यको उस स्पर्शके प्रति उद्घाटित होनेमें सहायता कर सकता है अथवा वह स्पर्श स्वयं अपने-आप भी आ सकता है । परंतु अन्तर्मुखीभाव अभीप्सा और तपस्याकी एक दीर्घ प्रक्रियाकी परिणतिके रूपमें भी आ सकता है । इन विषयोंका कोई अटल नियम नहीं है ।
यदि चैत्य पुरुष सामने आ जाय तो अन्तर्मुखीभाव आसान हो जाता है अथवा तुरत आ जाता है अथवा अन्तर्मुखीभाव चैत्य पुरुषको सामने ले आ सकता है । यहां भी, फिर, कोई निश्चित नियम नहीं है ।
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यह दोनों तरहसे हो सकता है, एक स्पर्श होता है और अनुभूति भी होती है और चैत्य पुरुष उसके परि।गामस्वरूप अपना समुचित स्थान ग्रहण करता है अथवा चैत्य पुरुष सामने आ सकता है और प्रकृतिको अनुभूतिके लिये तैयार कर सकता है ।
रूपांतर क्रमश: होनेवाली चीज है, पर निस्सन्देह अनुभूति पहले अवश्य हो जानी चाहिये, उसके बाद ही रूपांतरके उद्देश्यका सिद्ध होना सम्भव होता है ।
तुम जो कुछ कहते हो वह बिलकुल सही है । हृदयसे उठनेवाली सरल, सीधी और सच्ची पुकार तथा अभीप्सा एकमात्र प्रधान वस्तु है और क्षमताओंकी अपेक्षा कहीं अधिक आवश्यक और प्रभावशाली होती है । फिर चेतनाको अन्दरकी ओर मोड देना, उसे बहिर्मुखी न बने रहने देना -- आंतरिक पुकार, आंतरिक अनुभव, आंतरिक उपस्थितिके पास पहुँचना बहुत महत्वपूर्ण है ।
जो सहायता तुम मांगते हो वह तुम्हें प्राप्त होगी । अभीप्साको बढ़ने दो और आंतरिक चेतनाको एकदम खुल जाने दो ।
शान्ति, पवित्रता, निम्र प्रकृतिसे मुक्ति, ज्योति, शक्ति, आनन्द, दिव्य प्रेम, भागवत सेवा आदिके लिये अभीप्सा करनेका क्या ' 'कारण' ' है? ये चीजे अपने- आपमें बहुत अच्छी हैं और मानवीय प्रयासका उच्चतम सम्भव लक्ष्य हैं ।
हो, यही है पथ -- अभीप्साकी तीव्रता अनुभूतिकी तीव्रता ले आती है और जब बार-बार तीव्र अनुभूति होती है तो परिवर्तन आता है ।
अभीप्सा भगवान्के लिये पुकार है,--संकल्प प्रकृतिके ऊपर सचेतन शक्तिका दबाव है ।
अभीप्साके लिये शब्दोंकी कोई आवश्यकता नहीं है । यह शब्दोंमें व्यक्त हो सकती या अव्यक्त रह सकती है ।
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अभीप्साको विचारके रूपमें होनेकी कोई आवश्यकता नहीं -- यह भीतरकी एक भावना हो सकती है जो उस समय भी बनी रहती है जब कि मन कर्ममें निरत रहता रहता है !
अभीप्साका तात्पर्य हे शक्तियोंको पुकारना । जब शक्तियां प्रत्युत्तर दे देती हैं तब शान्त-स्थिर ग्रहणशीलताकी, एकाग्र पर स्वतःस्फूर्त्त ग्रहणशीलताकी एक स्वा भाविक स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
हमें भगवान्के लिये अभीप्सा करनी चाहिये और उन्हें ही समर्पण करना चाहिये तथा यह कार्य उनपर छोड़ देना चाहिये कि एक बार आधारके पूर्ण हो जानेपर उसके लिये जो कुछ सत्य और उचित हो उसे वह करें ।
यह उस स्तरपर निर्भर है जहां साधक पहुँच चुका है । व्यक्तिगत अभीप्सा तबतक आवश्यक है जबतक साधक उस अवस्थामें नहीं पहुँच जाता जिसमें सब कुछ अपने-आप आता है ओर केवल एक प्रकारका ज्ञान तथा आरोहण उसके आत्मबिकास के लिये आवश्यक होता है ।
' 'खींचनेका भाव' ' साधारणतया स्वयं अपने लिये चीजे प्राप्त करनेकी कामनासे आता है -- अभीप्सामें एक प्रकारके आत्मदानका भाव होता है जिसमें कि उच्चतर चेतना अवतरित हो और अधिकार जमा लें--जितनी ही अधिक तीव्र पुकार होती है उतना ही अधिक आत्मदानका भाव भी होता है ।
इसमें सन्देह नहीं कि जो कुछ तुम करते हो, यहांतक कि साधनाका जो तुम्हारा प्रयास है उस सबमें कामनाकी मिलावटका होना ही तुम्हारी कठिनाई है । कामना धैर्यहीन प्रयत्नकी क्रिया ले आती है' और जब कठिनाई अनुभूत होती है और परिणाम तुरत नहीं आता तथा अन्य विभ्रांत और घबड़ा देनेवाली भावनाएं आती हैं तो निराशा- की प्रतिक्रिया और. उत्पन्न करती । अभीप्साको कामनाका एक रूप नहीं
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लेना एक आवश्यकताका बोध, और भगवान की ओर मुड़ने और उन्हें खोजनेके लिये एक शान्त सुस्थिर संकल्प होना चाहिये । निश्चय ही कामनाकी इस मिलावटसे पूर्णत: बच जाना आसान नहीं है -- किसी भी व्यक्तिके लिये आसान नहीं है; परन्तु मनुष्यमें जब ऐसा करनेका संकल्प होता है तो अवलंब देनेवाली दिव्य शक्तिकी सहायज्ञतासे इसे भी संसिद्ध किया जा सकता हैं ।
यदि अच्छी कामनाएं हैं तो बुरी कामनाएं भी आयेंगी । संकल्प और अभीप्सा- के लिये तो साधनामें एक स्थान है, पर कामनाके लिये नहीं है । यदि साधकमें कामना है तो उसमें आसक्ति, मांगकी भावना, लालसा, समत्वका अभाव, न पानेपर शोक अवश्य रहेंगे और ये सब चीजे अयौगिक हैं ।
मनुष्यको जो कुछ उसे मिलता है उससे संतुष्ट रहना चाहिये और ?? भी शांत- रूपसे, बिना संघर्षके, और अधिक पानेके लिये अभीप्सा करनी चाहिये - जबतक सब कुछ नहीं आ जाता । कोई कामना, कोई संघर्ष नहीं -- बस, होनी चाहिये अभीप्सा, श्रद्धा, उद्घाटन -- और भागवत कृपा ।
कियाका जहांतक प्रश्न है, यह इस बातपर निर्भर है कि तुम उस शब्दका क्या तात्पर्य लेते हो । कामना बहुधा अत्यधिक प्रयास करनेमें प्रवृत्त करती है जिसका अर्थ अधिकांशत: होता है बहुत अधिक श्रम और तनाव तथा क्लांतिके साथ सीमित परिणाम और कठिनाई या असफलता आनेकी दशामें निराशा, अविश्वास या विद्रोह; अथवा वह शक्तिको खीचनेकी प्रवृत्ति प्रदान करती है । शक्तिको खींचा जा सकता है, परन्तु यौगिक दृष्टिसे प्रबल तथा अनुभवप्राप्त लोंगोंके सिवा, यह सर्वदा खतरनाक होता है, यद्यपि यह बहुधा बहुत फलदायी हो सकता है; खतरनाक, सबसे पहले, इस कारण होता है कि इसके कारण तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सकती है. या यह विपरीत या अशुभ या मिश्रित शक्तियोंको उतार सकता है जिनमेंसे समुचित शक्तियोंको पहचाननेके लिये साधकको पर्याप्त अनुभव नहीं होता । अथवा, यह भगवान्के अबाध दान और यथार्थ पथप्रदर्शनके स्थानमें अनुभव करनेकी साधककी अपनी सीमित शक्ति- को या उसकी मानसिक और प्राणिक रचनाओंको बैठा देता है । हर प्रसंगमें बात अलग होती है, प्रत्येक ब्यक्तिका साधनाका अपनी निजी पथ होता हुँ । परन्तु तुम्हारे लिये मैं जो परामर्श देना चाहता हूँ वह है निरन्तर उद्घाटित रहना, शांतभावसे लगा-
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तार अभीप्सा करना, अति-उत्सुकताका न होना, प्रसन्नतापूर्ण विश्वास और धैर्य बनाये रखना ।
सच पूछा जाय तो चैत्य पुरुष ही सच्ची अभीप्सा प्रदान करता है -- यदि प्राण- सत्ता शुद्ध हो और चैत्यके अधीन हो तो वह तीव्रता देती है -- परन्तु वह यदि अशुद्ध हो तो वह अधीरताके साथ राजसिक तीव्रता तथा अवसाद और नैराश्यकी प्रतिक्रियाएं ले आती है । आवश्यक स्थिरता और समताका जहांतक प्रश्न है, उन्हें मनके भीतरसे होकर ऊपरसे आना चाहिये ।.
वह चैत्य अभीप्सा, चैत्य अग्नि है । जहां प्राण हस्तक्षेप करता है वहां परिणाम- के लिये अधीरता होती है और यदि परिणाम तुरन्त न हो तो असंतोष होता है । वह अवश्य बन्द होना चाहिये !
ऐसा करना ऊपरी तलके असंस्कृत प्राण-भागके स्वभावमें है । सच्चा प्राण भिन्न प्रकारका होता है, शांत-स्थिर और शक्तिशाली तथा भगवानके प्रति समर्पित एक समर्थ यन्त्र होता है । परंतु उसके सामने आनेके लिये सबसे पहले आवश्यक हूँ मनमें ऊपरकी ओर यह सुदृढ़ स्थिति प्राप्त कर लेना - जब चेतना वहां रहती है और मन स्थिर, स्वतन्त्र और विशाल होता हूँ तो सच्चा प्राण आगे आ सकता है ।
अधीरता और उद्विग्न अशांति प्राणसे आती हैं जो उन चीजोंको अभीप्सामें भी ले आता है । अभीप्सा होनी चाहिये तीव्र, स्थिर और प्रबल (यह सच्चे प्राणका भी स्वभाव है ) और उसे अशान्त तथा अधीर नहीं होना चाहिये,-केवल तभी वह स्थायी हो सकती है ।
एक तीव्र पर अचंचल अभीप्सा हो सकती है जो आंतर सत्ताकी समस्वरताको भंग नहीं करती ।
आसन और प्राणायाम करनेका कोई लाभ नहीं । तीव्र आवेगकी आगमें जलनेकी कोई आवश्यकता नहीं । बस, आवश्यकता है एकाग्रता तथा अटूट अभीप्सा- की सामर्थ्यको धैर्यपूर्वक प्राप्त करना जिसमें कि जिस नीरवताकी तुम चर्चा करते हो वह हृदयमें स्थापित हो सके तथा अन्य अंगोंमें भी फैल जाय । फिर भौतिक मन तथा अवचेतना शुद्ध और अचंचल हो सकती हैं ।
यह समझना भूल है कि व्याकुलताका सतत अभाव इस बातका चिह्न है कि भगवान्के लिये अभीप्सा या आकांक्षा सच्ची नहीं है । सच पूछा जाय तो भक्तियोग- के किन्हीं विशिष्ट व्यावर्तक मार्गोंमें ही निरन्तर व्याकुलता या क्रंदन या हाहाकार (यह अन्तिम अधिकांशत: चैत्यकी अपेक्षा प्राणिक ही होता है ) का होना आवश्यक नियम मना जाता हे । यहां (इस योगसे: ) यद्यपि चैत्य उत्कंठा कभी-कभी या बहुधा तेज तरंगोंके रूपमें आ सकती है, पर जो कुछ आधारके रूपमें आता है वह सत्ताका एक शान्त-अचंचल भाव होता है और उस अचंचलभावमें अधिकाधिक सत्यका निरन्तर बोध होता हे, भगवान्के लिये खोजकी वृत्ति तथा भगवान्की आवक्यकताका बोध होता है जिससे सब कुछ उसी ओर अधिकाधिक मुड जाता है । इसी स्थितिमें अनुभव तथा वर्द्धनशील उपलब्धि आती हैं । चूँकि तुम्हारे अन्दर उद्घाटन बढ़ रहा है इसलिये तुम्हें श्रीमाताजीके उपस्थिति (आकारसे परे ) का यह आभास हो रहा है । जैसे- जैसे यह आंतरिक उपलब्धि बढ़ती है वैसे-वैसे भौतिक आकारमें विद्यमान उनकी उपस्थिति अपना पूर्ण मूल्य प्राप्त करती है ।
प्रार्थनाएं विश्वाससे भरी होनी चाहियें और वहां शोक या विलाप नहीं होना चाहिये ।
स्वभावत: ही जितनी अधिक एकमुखी अभीप्सा होती है उतनी ही तेजीसे प्रगति होती है । कठिनाई तब आती है जब या तो प्राण अपनी कामनाओंके साथ या भौतिक चेतना अपनी पुरानी अभ्यासगत क्रियाओंके साथ बीचमें आ जाती है -- जैसा कि वे लगभग प्रत्येक व्यक्तिके साथ करती हैं । ऐसे ही समयमें नीरसता और स्वाभाविक अभीप्सामें कठिनाई आती हैं । यह नीरसता समस्त साधनाओंकी एक चिरपरिचित बाधा है । परन्तु साधकको डटे रहना चाहिये और निरुत्साहित नहीं होना चाहिये । यदि कोई इन निष्फल कालोंमें भी अपने संकल्पको स्थिर बनाये रखे तो वे निकल जाते
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हैं और उनके निकल जानेके बाद अभीप्सा और अनुभवकी एक महत्तर शक्तिका आना सम्भव हो जाता है ।
यह तामसिक शक्तियोंका एक सुझाव हे जो कठिनाईपर बल देती और उसे उत्पन्न करती हैं और भौतिक चेतना उसे स्वीकार करती है । वास्तवमें अभीप्सा करना कभी कठिन नहीं होता । परित्याग तुरत फलदायी न भी हो सके पर परित्यागका और अस्वीकृतिका संकल्प बनाये रखना सर्वदा ही सम्भव होता है ।
निस्सन्देह, सच्ची और प्रबल अभीप्साकी आवश्यकता है, पर यह सच नहीं है कि सच्ची चीज तुम्हारे अन्दर नहीं है । यदि यह न होती तो दिव्य शक्ति कभी तुम्हारे अन्दर कार्य न कर पाती । परंतु यह सच्ची चीज चैत्य पुरुषमें और- तुम्हारे हृदयमें बैठी थी और जब कभी ये ध्यानमें सक्रिय हुए तभी वह प्रकट हुई । परन्तु पूर्णताके लिये क्रियाको नीचे भौतिक चेतनामें आना पडा और वहां स्थिरता और उद्घाटन ले आना पड़ा । भौतिक चेतना प्रत्येक ब्यक्तिमें ही अपने स्वभावमें सर्वदा थोडी जड़ होती है और उसमें सतत प्रबल अभीप्साका होना स्वाभाविक नहीं है, इसे वहां उत्पन्न करना होता है । परन्तु सबसे पहले वहां उद्घाटन, शुद्धीकरण और दृढ स्थिरता होनी चाहिये, अन्यथा र्भातिक प्राण प्रबल अभीप्साको अति-उत्सुकता और अधीरता- में बदल देगा अथवा उसे वैसा मोड देनेका प्रयत्न करेगा । अतएव परेशान मत होओ यदि तुम्हें अपनी प्रकृतिकी स्थिति अत्यन्त उदासीन और शांत प्रतीत हो, उसमें पर्याप्त अभीप्सा और गतिविधि न हो । यह प्रयति करनेका एक आवश्यक मार्ग है बाकी चीजे अवश्य आयेंगी ।
तुम अभी भी मध्यवर्त्ती कालोंको सहन करनेमें कठिन महसूस कर रहे हो जब कि सब कुछ निश्चल हो जाता है और ऊपरी सतहपर कुछ भी नहीं संपन्न होता । परन्तु ऐसे मध्यवर्त्ती काल सबके लिये आते हैं और इनसे बचा नहीं जा सकता । तुम्हें इस सुझावका पोषण नहीं करना चाहिये कि ऐसा होनेका कारण यह है कि तुम्हारे अन्दर अभीप्साका अभाव है या कोई दूसरी अयोग्यता है, और यदि तुममें सतत तीव्र अभीप्सा होती तो ऐसे काल नहीं आते और अनुभूतियोंकी एक अविरल धारा बनी रहती । बातऐसी नहीं है । यदि अभीप्सा होती तो भी मध्यवर्त्ती काल आते । यदि वैसे समयों- में भी मनुष्य अभीप्सा कर सके तो वह और भी अच्छा है - परन्तु मुख्य बात हे शांति-
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के साथ उनका सामना करना और चंचल, अवसन्न या निराश न होना । सतत अग्नि केवल तभी प्रज्वलित रह सकती है जब कि मनुष्य एक विशेष स्थितिको प्राप्त कर ले, वह स्थिति है जब कि मनुष्य अपने अन्दर सर्वदा अपने चैत्य पुरुषमें सचेतन रूपमें निवास करता है, परन्तु उसके लिये मन, प्राण और शरीरकी यह समस्त तैयारी आवश्यक है । क्योंकि यह अग्नि चैत्य पुरुषकी अग्नि है और मनुष्य सर्वदा महज मनके प्रयासके बलपर उसपर कब्जा नहीं कर सकता । चैत्य पुरुषको पूर्णत: मुक्त करना होगा और इसी चीजको पूरी तरह सम्भव बनानेके लिये दिव्य शक्ति कार्य कर रही है !
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श्रद्धा (Faith) - सक्रिय संपूर्ण विश्वास और स्वीकृति ।
विश्वास (Belief)इ - केवल बौद्धिक स्वीकृति ।
प्रतीति (Conviction ) - ऐसी बातोंपर आधारित बौद्धिक विश्वास जो अच्छे कारण प्रतीत हों ।
निर्भरता ( Reliance)- किसी चीजके लिये किसी दूसरेपर, उसपर भरोसा होनेके कारण, आश्रित होना ।
भरोसा(Trust)- दूसरेकी सहायता मिलनेकी सुनिश्चित आशाका भाव तथा उसके वचन, चरित्र आदिपर निर्भरता ।
विश्वासिता (Confidence ) - भरोसा के कारण उत्पन्न संरक्षणका भाव ।
श्रद्धा सारी सत्तामें होनेवाला एक भाव है, विश्वास (belief)इ मानसिक होता है, प्रतीति (Conviction ) का अर्थ है किसी व्यक्तिपर या भगवानपर भरोसा (Trust ) अथवा अपनी खोज या प्रयासके परिणामके विषयमें निश्चयताका भाव ।
मानसिक श्रद्धा सन्देहका विरोध करती है और यथार्थ ज्ञानकी ओर उद्घाटित होनेमें सहायता करती है; प्राणिक श्रद्धा विरोधी शक्तियोंके आक्रमणोंको रोकती या उन्हें हराती है तथा यथार्थ आध्यात्मिक संकल्प और कर्मकी ओर खुलनेमें सहायता करती है; भौतिक श्रद्धा मनुष्यको समस्त भौतिक अंधता, तामसिकता या दुःख-क्लेश- के भीतर स्थिर बनाये रखती है तथा यथार्थ चेतनाके आधारकी ओर खुलनेमें सहायता करती है; चैत्य श्रद्धा भगवानके प्रत्यक्ष स्पर्शकी ओर खोल देती है तथा एकत्व एवं ' समर्पण-भाव ले आनेमें सहायता करती है ।
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मानसिक श्रद्धा बहुत सहायक होती है, पर यह एक ऐसी चीज है जो सर्वदा क्षणिक रूपसे डिग सकती या बिलकुल मेघाच्छन्न हो सकती है - जबतक कि उच्चतर चेतना और अनुभव सदाके लिये स्थिर नहीं हो जाते । आच्छादित हो जानेपर भी जो चीज बनी रहती है वह है आंतर सत्ताकी अभीप्सा या किसी उच्चतर वस्तुकी आवश्यकताका बोध, जो कि अंतरात्माकी श्रद्धा है । वह भी कुछ समयके लिये आच्छादित हो सकती है पर वह फिर प्रकट होती है -- उसपर ग्रहण तो लगता है पर वह विनष्ट नहीं होती ।
यही सच्चा संकल्प है । यदि अन्य चेतनाकी लहरें इसे ऊपरी सतहपर ढक भी दें तो इसे अपने अन्दर अटल-अचल बनाये रखो । यदि कोई अपने अन्दर इस प्रकार किसी श्रद्धा या सकल्पको जमा ले तो वह बना रहता है और यदि कुछ कालके लिये मन आच्छादित भी हो जाय या संकल्प धीमा पंड जाय तो भी मनुष्य उसे पुन: अपने- आप उस जहाजकी तरह निकलते हुए देखता है जो लहरोके आच्छादनसे बाहर निकलता और अदम्य रूपसे अपनी यात्रापर समस्त उलट-फेरोंके भीतरसे होता हुआ तबतक आगे बढ्ता रहता है जबतक कि वह बन्दरपर नहीं पहुँच जाता ।
इस उक्ति ( '' अन्ध श्रद्धा' ' ) का कोई यथार्थ अर्थ नहीं है । मैं समझता हूँ कि इससे उनका तात्पर्य होता है कि वे प्रमाण के बिना विश्वास नहीं करेंगे । परन्तु प्रमाण पानेपर जो निर्णय लिया जाता है वह श्रद्धा नहीं है, वह तो ज्ञान है अथवा वह एक मानसिक राय है । श्रद्धा एक ऐसी वस्तु है जिसे मनुष्य प्रमाण या ज्ञानसे पहले अपनाता है और यह ज्ञान या अनुभूतिपर पहुँचनेमें सहायता पहुँचाती है । इस बातका कोई प्रमाण नहीं है कि ईश्वरका अस्तित्व है, पर मुझे यदि ईश्वरमें विश्वास हो तो मैं भगवान्का अनुभव प्राप्त कर सकता हूँ ।
श्रद्धा-विश्वास अनुभवपर नहीं निर्भर करता; वह तो एक ऐसी चीज है जो अनुभवके पहलेसे विद्यमान रहती है । जब कोई योग आरम्भ करता है तो वह साधारणतया अनुभवके बलपर नहीं आरम्भ करता बल्कि श्रद्धा-विश्वासके बलपर करता है । यह बात केवल योग और आध्यात्मिक जीवनके लिये ही नहीं वरन् साधारण 'मीवमफे लिये भी ऐसी. ही है । सभी कर्मशील व्यक्ति, ज्ञानके आविष्कर्त्ता, उद्घाटन और स्त्रष्टा श्रगविश्वाससे ही आरम्भ करते हैं और, जबतक प्रमाण नहीं मिल जाता ३थाकार्थ?पूरा नहीं हो आता तबतक वे निराशा, असफलता, प्रमाणाभाव, अस्वीकृतिके
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बावजूद भी अपना प्रयास जारी रखते है, क्रयोकी उनमें चीजों ऐसी होती है जो उनसे कहती है कि यही सत्य है, यही वह चीज है जिसका अनुसरण करना होगा और जिसे पूरा करना होगा । रामकृष्णसे जब यह पूछा गया कि क्या अन्ध-श्रद्धा रखना अनुचित नहीं है तब उन्होंने तो यहांतक कह डाला कि अन्ध-श्रद्धा ही तो रखनी चाहिये, क्योंकि श्रद्धा या तो अन्धी होती है अथवा वह श्रद्धा ही नहीं होती, बल्कि कोई अन्य चीज होती है, जैसे युक्तिपूर्ण अनुमान, प्रमाणसिद्ध प्रतीति या निरूपित ज्ञान ।
श्रद्धा-विश्वास अंतरात्माकी किसी ऐसी चीजके विषयमें गवाही है जो अभी अभि- व्यक्त, उपलब्ध या अनुभूत नहीं हुई है, परन्तु फिर भी जिसे हमारे अन्दरका 'ज्ञाता', सभी लक्षणोंका अभाव होनेपर भी, सत्य या अनुसरण करने अथवा प्राप्त करने योग्य परम वस्तु अनुभव करता है । यह चीज उस समय भी हमारे अन्दर बनी रह सकती है जब मनमें कोई दृढ विठवास न हो, यहांतक कि जब प्राण संघर्ष करता, विद्रोह करता और अस्वीकार करता हो । ऐसा कौन आदमी है जो योगाभ्यास करता हो और जिसके सामने निराशा और असफलता और अविश्वास और अन्धकारके काल, बहुत लम्बे- लम्बे काल न आते हों? परन्तु कोई चीज उसमें ऐसी होती है जो उसे सहारा देती है और उसके बावजूद भी बनी रहती है, क्योंकि वह अनुभव करती हे कि जिस चीजका वह अनुसरण कर रही थी वह अब भी सत्य है और इसे वह अनुभव ही नहीं करती बल्कि, उससे कहीं अधिक, वह इसे जानती है । योगकी मौलिक श्रद्धा, जो अन्तरात्मा- में निहित होती है, यह है कि भगवन् हैं और भगवान ही वह एकमात्र वस्तु हैं जिसकी खोज करनी चाहिये - जीवनमें दूसरी कोई चीज ऐसी नहीं जो उसकी तुलनामें प्राप्त करने योग्य हो । जबतक यह श्रद्धा किसी मनुष्यमें है तबतक वह आध्यात्मिक जीवनके लिये निर्दिष्ट है और मैं कहूँगा कि यदि उसकी प्रकृति बाधा-विघ्रोंसे पूर्ण और अस्वीकृतियों तथा कठिनाइयोंसे ठसाठस भरी हुई हो तो भी, और यहांतक कि यदि उसे अनेक वर्षोंतक संघर्ष करना पड़े तो भी, आध्यात्मिक जीवनमें सफलता पाना उसके लिये सुनिश्चित है ।
बस, यही श्रद्धा तुम्हें अपने अन्दर विकसित करनेकी आवश्यकता है -- युक्ति- तर्क और साधारण समझके साथ मेल खानेवाली यह श्रद्धा उत्पन्न करनेकी आवश्यकता है कि यदि भगवान्का अस्तित्व है और उन्होंने ही तुम्हें इस पथपर बुलाया है (जैसा कि स्पष्ट है ), तो निश्चय ही पीछेकी ओर तथा आदिसे अन्ततक सर्वदा भागवत पथ- प्रदर्शन मौजूद रहेगा और सभी कठिनाइयोंकी बावजूद तुम अपने लक्ष्यपर अवश्य पहुँचोगे । असफलताका सुझाव देनेवाली विरोधी शक्तियोंकी वाणियोंको अथवा उनको प्रतिध्वनित करनेवाली अधीरता, प्राणिक जल्दबाजीकी वाणियोंको नहीं सुनना चाहिये, इस बातपर विश्वास नहीं करना चाहिये कि चूँकि महान् कठिनाइयां मौजूद है इसलिये सफलता नहीं मिल सकती अथवा जब अभीतक भगवान् नहीं दिखायी पडे तब वह कभी दिखायी नही पड़ेंगे, बल्कि इस मनोभावको ग्रहण करना चाहिये जिसे किसी महान् और कठिन लक्ष्यपर अपना मन एकाग्र करनेपर प्रत्येक व्यक्ति ही ग्रहण करता है और जो यह कहता है कि ' 'सभी कठिनाइयोंके होते हुए भी मैं तबतक
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प्रयत्न करता रहूँगा- जबतक कि सफल नहीं हो जाता' ', और जिसमें गवान्में विश्वास रखनेवाला इतना और जोड़ देता है कि ' 'भगवान् हैं और उन्हें पानेका मेरा प्रयास कभी विफल नहीं हो सकता । जबतक मैं उन्हें पा नहीं लेता तबतक मैं प्रत्येक चीजके भीतर- से होता हुआ आगे बढ़ता रहूँगा । ''
तुम्हारा जो यह कहना है कि श्रद्धाके लिये अनुभवका होना जरूरी है और अनुभव- के बिना कोई श्रद्धा नहीं हो सकती, यह मानव मनोविज्ञानका पूर्णत: खंडन करता है । हजारों लोगोंको उन्हें अनुभव होनेसे पहले ही श्रद्धा होती है । ' 'अनुभव बिना विश्वास नहीं' ' का सिद्धांत आध्यात्मिकताके लिये या उसी कारण मानव-कर्मके क्षेत्रके लिये विनाशकारी होगा । सन्तों या भक्तोंको भगवान्का अनुभव होनेसे बहुत पहले भग- वान्में श्रद्धा-विश्वास होता है - कर्मी मनुष्यको भी उसके हेतुके सफलतासे मंडित होनेसे बहुत पहले उसमें विश्वास होता है, अन्यथा अपनी उद्देश्यसिद्धिके लिये हार, असफलता और घातक खतरेके बावजूद निरन्तर संघर्ष करनेमें वह समर्थन हुआ होता । मैं नहो समझता कि सच्ची श्रद्धासे ' अ' का क्या तात्पर्य है । मेरे लिये श्रद्धा बौद्धिक विश्वास नहीं है बल्कि अन्तरात्माका एक कार्य है । जब मेरा विष्वास डोल जाता, असफल हो जाता, नष्ट हो जाता है तो मेरा अन्तरान्मा अटल बना रहता और ह्ठपूर्वक्( जोर देता रहता है कि ' 'यही पथ है, दूसरा नहीं; जिस सत्यको मैंने अनुभव किया है बस वही सत्य है चाहे मन जो कुछ भी क्यों विश्वाम करे । '' दूसरी ओर, अनुभूतियां आवश्यक रूपसे श्रद्धा नहीं प्रदान करतीं । एक साधकने मुझे लिखा है, ' 'मैं अनुभव करता हूँ कि श्रीमाताजीके कृपाशक्ति मेरे अन्दर उतर रही हे, पर मैं इसपर विश्वास नहीं कर सकता क्योंकि यह मेरी प्राणिक कल्पना हो सकती है । '' एक दूसरे साधकको वर्षों लगातार अनुभव होते हैं, पर पीछे गिर जाता है क्योंकि, वह कहता है, उसने '' श्रद्धा खो दी' ' है । ये सब चीजें मेरी कल्पनाएं नहीं हैं,ये यथार्थ बातें हैं और स्वयं अपनी कहानी बताती है ।
निश्चय ही, मेरा मतलब किसी नैतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक परिवर्तनसे था - नैतिक मनुष्य गलेतक अहंकारसे भरा हो सकता है, ऐसे अहंकारसे जो उसकी अपनी ही साधुता और पवित्रतासे वर्द्धित होता है । अहंकारसे मुक्त होना आध्यात्मिक दृष्टिसे मूल्यवान् हे, क्योंकि तब मनुष्य अपने व्यक्तिगत. 'स्व' में अब केंद्रित नहीं रहता, बल्कि भगवान्में केंद्रित हो सकता है । और वही भक्तिकी शर्त्त भी है.?.... ।
. मैं नहीं समझता कि हृद्गत भावावेगके विषयमें 'अ' की क्या आपत्ति है; इसका भी बप्रता स्थान है, केवल इसे सर्वदा बाहरकी ओर प्रक्षिप्त नहीं रहना चाहिये, बल्कि ?एरा ओर प्रेरित होना चाहिये जिसमें कि चैत्य सत्ताके द्वार पूर्णत: उन्मुक्त हो सकें । तुम जो कुछ कहते हो बह पूरी तरह सही हो - मुझे प्रसन्नता है कि तुम इतने तेजस्वी ऐइ? आदिकर्ता हो निश्चय. ही यहचैत्य रूपांतरका फल है । अहंकार एक बहुत
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विलक्षण वस्तु है और अपने-आपको छिपानेके अपने तरीकेमें और यह बहाना करनेमें कि यह अहंकार नहीं है, यह सबसे अधिक विलक्षण है । यह भगवान्की सेवा करनेकी अभीप्साके पीछे भी सर्वदा छिपा रह सकता है । एकमात्र पथ है इसे इसके सभी पर्दों और गुप्त स्थानोंमें ढूँढकर बाहर निकाल देना । तुम्हारा यह विचार भी ठीक है कि यही वास्तवमें योगका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अंग है । राजयोगका यह कार्य ठीक ही है कि उसने सबसे आगे शुद्धीकरणको रखा है - जैसे मेरा कार्य भी ठीक ही है कि मैंने 'योग-समन्वय' में एकाग्रताके साथ-साथ इसे सबसे आगे रखा है । तुम्हें बस अपने चारों ओर नजर दौड़ाकर इतना देख लेनेकी आवश्यकता है कि अनुभूतियां और यहांतक कि सिद्धियां भी मनुष्यको लक्ष्यतक नहीं ले जा सकती यदि यह कार्य पूरा न हो - किसी भी मुहूर्त्त प्राणके अभीतक अशुद्ध तथा अहंसे भरपूर होनेके कारण वे व्यर्थ हो सकती हैं ।
चैत्य पुरुषके प्रति समर्पण करनेकी मांग नहीं की जाती, समर्पण भगवान्को करना होता है । मनुष्य श्रद्धाके बलपर भगवान्की ओर जाता है; ठोस अनुभव साधनाके फलस्वरूप आता है । अपनी चेतनाको अनुभवके लिये तैयार करनेका कोई प्रयास किये बिना कोई मनुष्य प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करनेकी मांग नहीं कर सकता ।
यदि मनुष्य पुकार अनुभव करता है तो वह उसका अनुसरण करता है - यदि उसमें कोई पुकार नहीं है तो फिर भगवान्को खोजनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । आरम्भ करनेके लिये श्रद्धा पर्याप्त है - यह भावना एक मानसिक भूल है कि मनुष्य- को खोज करनेसे पहले समझ लेना और ठीक-ठीक जान लेना चाहिये; यदि यह बात सच हो तो यह सभी साधनाओंको असम्भव बना देगी - ठीक-ठीक ज्ञान केवल साध- नाके परिणामस्वरूप ही आ सकता है, उनकी प्रारंभिक वस्तुके रूपमें नहीं आ सकता ।
मैंने एक प्रबल केंद्रीय और, सम्भव हा_ए तो, पूर्ण श्रद्धाकी बात कही थी, क्योंकि तुम्हारा मनोभाव मुझे ऐसा प्रतीत हुआ था कि तुम केवल पूर्ण प्रत्युत्तरकी परवाह करते हो - अर्थात् उपलब्धिकी, सान्निध्यकी परवाह करते और अन्य सभी चीजों- को एकदम असंतोषजनक मानते हो,-और तुम्हारी प्रार्थना तुम्हें वह चीज नहीं उपलब्ध करा रही है । परन्तु साधारणतया प्रार्थना स्वयं अपने-आपमें तुरत वह चीज नहीं उपलब्ध कराती - केवल तभी कराती है जब कि केंद्रमें ज्वलन्त श्रद्धा या सत्ताके सभी भागोंमें पूर्ण श्रद्धा होती है । परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिन लोगोंकी श्रद्धा उतनी प्रबल अथवा समर्पण पूर्ण नही है, वे लक्ष्यपर नहीं पहुँच सकते, बल्कि साधारण तीरपर उन्हें तबतक पहले धीमें पगसे चलना होता तथा अपनी प्रकृतिकी
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कठिनाइयोंका सामना करना होता है जबतक कि अध्यवसाय या तपस्याके द्वारा उनके अन्दर पर्याप्त उद्घाटन नहीं हो जाता । डगमगानेवाली श्रद्धा तथा धीमे और आशिक समर्पणमें भी कुछ शक्ति होती है और उनका भी फल होता है, अन्यथा एकमात्र कुछ बिरले लोग ही साधना करनेमें समर्थ होते । केंद्रीय श्रद्धासे मेरा मतलब है वह श्रद्धा जो पीछेकी ओर विद्यमान अन्तरात्मा अथवा केंद्रीय पुरुषमें हो, वह श्रद्धा जो उस समय भी बनी रहती है जब कि मन सन्देह करता, प्राण निराश हो जाता तथा शरीर गिर जाना चाहता है, और जो आक्रमणके समाप्त हो जानेपर पुनः प्रकट होती और फिरसे पथपर चलनेकी प्रेरणा देती है । यह प्रबल और प्रदीप्त हो सकती है, यह निष्प्रभ और देखनेमें दुर्बल हो सकती है, पर यह यदि प्रत्येक समय आगे चलते रहनेका आग्रह करती हे तो यह यथार्थ वस्तु है । अवसाद और अन्धकार और निराशाके दौरोंका आना साधनाके मार्गकी एक परम्परा है- पूर्वीय या पश्चिमीय सभी योगोंमें उनका होना मानो एक नियमसा हो गया है । मैं स्वयं उन सब चीजोंको पूरी तरह जानता हूँ - परन्तु मेरा अनुभव मुझे यह बोध प्रदान करता है कि उनका होना एक अनावश्यक परम्परा है और यदि कोई चाहे तो इनसे छुटकारा मिल सकता है । यही कारण है कि जब कभी वे तुम्हारे अन्दर या दूसरोंमें आती हैं तो मैं उनके सामने श्रद्धाका सिद्धांत खड़ा करनेका प्रयास करता हूँ ! यदि वे फिर भी आती हैं तो मनुष्यको यथासम्भव शीघ्रताके साथ उनमेंसे गुजर जाना होता और सूर्यालोकमें वापस आ जाना होता है । समुद्रका तुम्हारा स्वप्त पूर्ण रूपसे सही स्वप्त था - अन्तमें साधकके अन्दर कृपाकी स्थितिके आनेको और उसके साथ स्वयं कृपाके आगमनको तूफान और बाढ़ नहीं रोकते । इसी चीजको, मैं समझता हूँ, तुम्हारे अन्दरकी कोई चीज सर्वदा चाह रही है - कृपाशक्तिका अतिमानसिक चमत्कार, कोई चीज जो तपस्या, आत्मपरिपूर्णता तथा दीर्घ परिश्रमकी मांगसे घबड़ाती है । हां, वह आ सकती है, वह यहां बहुतोंके पास वर्षपर वर्ष नितांत असफलता, कठिनाईया भयंकर संघर्षोंके बाद आयी है । परंतु यह सामान्यतया उसी तरह -- धीरे-धीरे बढ़ती हुई कृपाशक्तिके रूपमे नहीं -- बहुत कठिनाईके बाद आती है, एकदम तुरत नहीं आती । यदि तुम प्रत्युत्तरके आपात- दृष्ट अभावके बावजूद इसके लिये प्रार्थना करते रहो ए तो वह अवश्य आयेगी । जबतक हम परम सत्यको नहीं जान लेते (मनद्वारा नहीं बल्कि अनुभवद्वारा, चेतनाके परिवर्तनके द्वारा ) तबतक अपनेको सहारा देने तथा सत्यको पकड़े रहने के लिये हमें अन्तरात्माकी श्रद्धाकी आवश्यकता होती हे - परन्तु जब हम ज्ञान- में निवास करते हैं, यह श्रद्धा ज्ञानमें परिवर्त्तित हो जाती है ।
निस्सन्देह, मैं प्रत्यक्ष आध्यात्मिक ज्ञानकी बात कह रहा हूँ । मानसिक ज्ञान श्रद्धाका स्थान नहीं ले सकता, जबतक मनुष्यमें केवल मानसिक ज्ञान है तबतक श्रद्धा- की आवश्यकता है ।
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श्रद्धा एक ऐसी वस्तु है जो ज्ञानसे पहले आती है, ज्ञानके बाद नहीं आती । यह सत्यकी एक ऐसी झांकी है जिसे मनने अभीतक ज्ञानके रूपमें नहीं पकड़ा हे ।
सच पूछा जाय तो बुद्धिके द्वारा कोई योगमें उन्नति नहीं कर सकता, बल्कि चैत्य और आध्यात्मिक ग्रहणशीलताके द्वारा करता है - जहांतक ज्ञान और सच्ची समझ- का प्रश्न है, यह साधनामें अन्तर्ज्ञानकी वृद्धिके साथ बढ़ती है, भौतिक मन-बुद्धिकी वृद्धि- के साथ नहीं बढ़ती ।
साधनामें चेतनाकी क्रियाके साथ सम्बन्ध रखनेवाली सूक्ष्म प्रकारकी चीजों- में मनुष्यको आंतरिक चेतनाके द्वारा अनुभव करना और निरीक्षण करना और जानना- समझना सीखना तथा चीजोंकी ओर नमनीय दृष्टि रखते हुए अन्तर्बोधके द्वारा निश्चय करना होता है -- नमनीय दृष्टि निर्धारित परिभाषाएं और नियम नहीं बनाती जैसे कि मनुष्य बाहरी जीवनमें बनाता है ।
भगवान्में, भगवान्की कृपा-शक्तिमें, साधनाके सत्यमें, मानसिक, प्राणिक और भौतिक कठिनाइयोंके ऊपर आत्माकी अन्तिम विजयमें, अपने पथ और गुरुमें तथा हेकेल या हक्सले या बेरट्रेण्ड रसेल के दर्शनशास्योंमें लिखी बातोंके भिन्न वस्तुओंको अनुभवमें श्रद्धा-विश्वास बनाये रखो, कारण, यदि ये चीजे सच्ची न होतीं तो फिर योगका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । मैं नहीं समझता कि शरीरके कोषाणुओंमें श्रद्धा पैदा करनेकी पद्धतिकी तुलना चन्द्रमाका एक कतला खानेके साथ कैसे की जा सकती है? किसी व्यक्तिको कभी चन्द्रमाका कोई कतला नहीं मिला, परन्तु कोषाणुओंमें श्रद्धा उत्पन्न करके अपनेको नीरोग कर लेना एक वास्तविक तथ्य है और प्रकृतिका एक विधान है और योगसे पृथक् भी इसकाप्रदर्शन बहुधा काफी मात्रामें हुआ है । श्रद्धाको तथा अन्य सभी चीजों- को पानेका तरीका है उन्हें प्राप्त करनेका आग्रह करना और जबतक वे प्राप्त न हो जायं तबतक अवसन्न होना या हताश होना या प्रयास छोड़ देना अस्वीकार कर देना - यही वह तरीका है जिससे सभी चीजे उस समयसे प्राप्त होती आयी हैं जिस समय इस कठिन धरतीपर चिन्तनशील तथा अभीस्तु जीवोंने निवास करना आरम्भ किया था । यह तरीका है सर्वदा उद्घाटित होना, सर्वदा ज्योतिकी ओर उद्घाटित होना
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और अन्धकारकी ओर अपनी पीठ फेर देना । यह तरीका है उन वाणियोंको अस्वी- कार करना जो लगातार यह कहती हैं कि ' 'तुमसे नहीं हो सकता, तुमसे नहीं होगा, तुम असमर्थ हो, तुम एक स्वप्नके हाथकी कठपुतली हो' '-क्योंकि ये शत्रुकी वाणिया हैं, ये अपने कर्कश चीत्कारके द्वारा मनुष्यको आगे आनेवाले परिणामसे अलग हटा देती हैं तथा उनके बाद अपने प्रतिपाद्य विषयके प्रमाणके रूपमें परिणामकी शून्यता- की ओर विजयोल्लासके साथ संकेत करती हैं । प्रयासमें कठिनाई का आना एक जानी- मानी बात है, परन्तु 'कठिनका अर्थ 'असम्भव' नहीं है - सच पूछो तो कठिन कार्य सदा ही संपन्न हुए हैं तथा कठिनाइयोंपर विजय पाना ही उन सब चीजोंका निर्माण करता है जो पृथ्वीके इतिहासमें बहुमूल्य समझी जाती हैं । आध्यात्मिक प्रयासमें भी बात यही होगी ।
तुम्हें बस इस राक्षसका वध करके दृढ़तापूर्वक प्रयास प्रारम्भ कर देना होगा और फिर तुम्हारे लिये दरवाजे खुल जायेंगे, जैसे कि उन बहुतेरे लोगोंके लिये खुल चुके हैं जिन्हें उनकी अपनी मानसिक या प्राणिक प्रकृतिने रोक रखा था ।
श्रद्धा दो प्रकारकी होती है:
एक श्रद्धा तो वह है जो मनुष्यमें समत्वभाव ले आती है और दूसरी वह है जो सिद्धि ले आती है ।
ये दोनों श्रद्धाएं भगवानके दो भिन्न-भिन्न भावोंसे मिलती-जुलती हैं ।
एक तो हैं परात्पर भगवान् और दूसरे हैं विश्वव्यापी भगवान् ।
सिद्धिका संकल्प है परात्पर भगवानका संकल्प ।
विश्वव्यापी भगवान् वह हैं जिनका सम्बन्ध वर्तमान परिस्थितियोंके अधीन वस्तुओंके यथार्थ कार्यान्वयनके साथ है । इसी विश्वव्यापी भगवानका संकल्प इस जगत्की प्रत्येक परिस्थिति, प्रत्येक गतिविधिमें अभिव्यक्त होती है ।
विश्वव्यापी भगवानका संकल्प, हमारी साधारण चेतनाके लिये, ऐसी कोई चीज नहीं है जो, वह जो कुछ करना चाहती हे उसे, एक स्वातन्त्र्य शक्तिके रूपमें करती है; वह संकल्प इन सभी सत्ताओं, जगत्में कार्य करनेवाली शक्तियों तथा इन शक्तियों- के विधान और उनके परिणामोफे भीतरसे कार्य करता हूँ - जब हम अपनेको खोलते और सामान्य चेतनासे बाह्रा निकल आते हैं केवल तभी हम उसे एक स्वातन्त्र्य शक्ति- के रूपमें हस्तक्षेप करते हुए एवं शक्तियोंकी साधारण क्रीडाका उल्लंघन करते हुए अनु- भव कर सकते हैं।
फिर हम यह भी देख सकते हैं कि शक्तियोंकी कडिमें भी तथा उनके कारण उत्पन्न विकृतियोंके बावजूद भी वैश्व संकल्प परात्पर भगवानके संकल्पकी अन्तिम सिद्धिको ले आनेके लिये कार्य कर रहा है ।
अतिमानसिक संसिद्धि परात्पर भगवानका संकल्प जिसे लोगोंको कार्या-
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न्वित करना है । जिन परिस्थितियोंके अधीन हम लोगोंको इसे कार्यान्वित करना है वे एक निम्नतर चेतनाकी परिस्थितियां हैं जिनमें वस्तुएं स्वयं हमारे अज्ञान, दुर्बलता- ओं तथा भूलोंके कारण, तथा साथ ही परस्पर-विरोधी शक्तियोंके संघर्षके कारण विकृत हो सकती हैं । यही कारण है कि श्रद्धा और समता दोनों अनिवार्य हैं ।
हम लोगोंको यह श्रद्धा रखनी होगी कि हमारे अज्ञान और भूल-भ्रांतियों और कमजोरियोंके बावजूद तथा विरोधी शक्तियोंके आक्रमणोंके बावजूद और ऊपरसे दीखनेवाली किसी तात्कालिक असफलताके बावजूद भागवत संकल्प हम लोगोंको प्रत्येक परिस्थितिके भीतरसे होते हुए, अन्तिम सिद्धिकी ओर ले जा रहा है । यह श्रद्धा हमें समता प्रदान करती हे; यह एक ऐसी श्रद्धा है जो, जो कुछ घटित होता है उसे, स्वीकार करती है, अवश्य ही अन्तिम रूपमें नहीं बल्कि एक ऐसी चीजके रूपमें स्वीकार करती है जिनमेंसे अपने मार्गपर हमें गुजरना हेंगा । एक बार जब समत्वभाव स्थापित हो जाता है तो फिर उससे पोषित होकर दूसरे प्रकारकी श्रद्धा भी स्थापित हो सकती है जिसे अतिमानसिक चेतनाकी किसी वस्तुके द्वारा शक्तिशाली बनाया जा सकता है और जो वर्तमान परिस्थितियोंको जीत सकती तथा जो कुछ घटित होगा एवं परात्पर भगवान्की ससिद्धिमे सहायक होगा उसको निर्धारित कर सकती है ।
जो श्रद्धा वैश्व भगवान्में होती है वह लीलाकी आवश्यकताके द्वारा अपनी कर्म-शक्तिमें सीमित होती है ।
इन सीमाओंसे पूर्णत: मुक्त होनेके लिये हमें परात्पर भगवान्को प्राप्त करना होगा ।
वैश्व शक्तियोंकी क्रियामें, विश्वगत संकल्प -- जैसा कि हम इसे नाम दे सकते हैं -- ऊपरसे देखनेमें हमारे कार्य या साधनाकी किसी सरल और सीधी धाराके अनु- कूल सर्वदा कार्य नहीं करता : वह बहुधा ऐसी चीजे उत्पन्न करता है जो ऐसी उथल- पुथल, अकस्मात् मोड प्रतीत होती हैं जो धाराको तोड़ देते या बदल देते हैं, जो विपरीत या विपर्यस्तकारी परिस्थिति प्रतीत होते हैं अथवा जो कुछ अस्थायी रूपसे सुनिश्चित या सुस्थापित हो चुका था उससे भ्रामक विव्युति प्रतीत होते हैं । बस, एकमात्र आवश्यक बात है समताको बनाये रखना तथा जीवन और साधनाके क्रममें जो कुछ घटित होता है उसमेंसे एक सुअवसर एवं प्रगतिके साधनका निर्माण करना । वैश्व शक्तियोंकी क्रीड़ा और संकल्पके पीछे -- उस क्रीडाका पीछे जिसमें अनुकूल और प्रतिकूल वस्तुओंका सर्वदा सम्मिश्रण होता है-एक उच्चतर गुप्त परात्पर संकल्प होता है और इसी संकल्पकी हमें प्रतीक्षा करनी चाहिये तथा उसीपर विश्वास रखना चाहिये; पर हमें यह आशा नहीं करनी चाहिये कि हम उसकी. क्रियाओंको सर्वदा समझ सकेंगे । मन चाहता है यह हो या वह, एक बार जब इसने रास्ता ले लिया तो इसे ही बनाये रखना चाहिये, पर जो कुछ मन चाहता है वह सर्वदा वह चीज बिलकुल नहीं होती
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जो एक वृहत्तर उद्देश्यके लिये अभिप्रेत होती है । यह ठीक है कि मनुष्यको अपनी साधनामें एक सुनिश्चित केंद्रीय लक्ष्यका अवश्य अनुसरण करना चाहिये और उससे अलग नहीं होना चाहिये, परन्तु किन्हीं बाह्य परिस्थितियों, अवस्थाओं आदि-आदिका निर्माण नहीं करना चाहिये मानो वे ही मौलिक वस्तुएं हों ।
तुम्हारे पिछले पत्रका प्रश्ननका इसके सिवा और कोई उत्तर नहीं हो सकता कि या तो एकमात्र एकनिष्ठ श्रद्धा या स्थिर संकल्प ही तुम्हें योगका खुला मार्ग दे सकता है । तुम जो सफल नहीं होते इसका कारण वास्तवमें यह है कि तुम्हारे विचार और तुम्हारा संकल्प निरन्तर परिवर्त्तित होते रहते अथवा अस्थिर रहते हैं । अपूर्ण श्रद्धाके होनेपर भी स्थिर मन और संकल्प अनुभूतितक ले जा सकते और अनुभूति प्रदान कर सकते हैं जिससे अनिश्चित श्रद्धा निश्चयतामें बदल जाती है ।
यही कारण है कि विभिन्न उपायोंसे सम्बन्धित तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर देना मेरे लिये कठिन हो रहा है । मैं कह सकता हूँ कि गीताका पथ स्वयं यहाके योगका एक अंग है और जिन लोगोंने इसका अनुसरण किया है, आरम्भ करनेके लिये अथवा प्रथम अवस्थाके रूपमें, उन्होंने इस योगका दूसरोंकी अपेक्षा अधिक सुदृढ़ आधार प्राप्त कर लिया है । इसलिये उसे कोई पृथक् या हीन वस्तु समझकर मृणाकी दृष्टिसे देखना कोई समुचित दृष्टिकोण नही है । परन्तु यह चाहे जो कुछ हो, तुम्हें स्वयं चुनाव करना होगा, कोई दूसरा व्यक्ति तुम्हारे लिये चुनाव नहीं कर सकता। जो लोग आते-जाते हैं, वे ऐसा करते हुए केवल तभी लाभान्वित हो सकते हैं यदि या क्योंकि उन्होंने ऐसा निर्णय किया है और उसपर दृढ रहते हैं; जब वे यहां होते हैं, केवल योगके लिये ही वे यहां आते हैं; जब वे दूसरी जगह होते हैं, वहां योगका संकल्प उनमें बना रहता है । तुम्हें निरन्तर तर्क-वितर्क करते रहनेकी आदतसे छुटकारा पाना होगा और यह देखना होगा कि आया योगकी प्रवृत्तिके बिना तुम रह सकते हो या नहीं -- यदि नहीं रह सकते तो फिर योगरहित साधारण जीवनकी बात सोचना निरर्थक है - तुम्हारा स्वभाव तुम्हें इसकी खोज करनेके लिये तब भी बाध्य करेगा जब कि तुम्हें सारे जीवन इसका अनुसरण करनेपर भी बहुत थोड़ा-सा फल प्राप्त होगा । परन्तु थोड़ासा फल होनेका मुख्य कारण है तुम्हारा मन जो सर्वदा रोडे अटकाता है और तुम्हारी प्राणिक दुर्बलता जो उसके तर्कोंको आधार प्रदान करती है । यदि तुम अपने संकल्पको अटल रूपसे स्थिर कर लो तो उससे तुम्हें एक सुयोग मिल जायगा -- और फिर चाहे तुम यहां रहकर उसका अनुसरण करो या अन्यत्र उससे केवल मामूली अन्तर पड़ेगा ।
मैंने तुम्हारे लिये गीताकी पद्धतिकी सलाह दी थी क्योंकि यहां योगके लिये जो उद्घाटन आवश्यक है वह तुम्हारे लिये अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है । तुम यदि कोई श्रमसाध्य प्रयासकी मांग अपनेसे न करो तो वह एक अधिक बड़ा सुअवसर होगा । पर जो हो, यदि ' साधारण जीवनमें वापस नहीं जा सकते तो, यहां विद्यमान दिव्य
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शक्तिके प्रति उद्घाटनके अभावमें, बस यही तुम्हारे लिये पथ प्रतीत होता है ।
यदि श्रद्धा तथा आत्मदानके लिये अटल और सतत संकल्प बना रहे तो यह एक- दम पर्याप्त है । ऐसा माना जाता है कि मनुष्य-स्वभावके लिये तबतक सन्देह, अन्धता या अभीतक अंसमर्पित वस्तुओंकी क्रियाके बिना सर्वदा रहना सम्भव नहीं है जबतक कि आंतरिक चेतना इन सबको असम्भव बना देनेके लिये पर्याप्त रूपसे विकसित न हो जाय । वास्तवमें यह इसलिये ऐसा है कि संकल्प आवश्यक है जिसमें कि दिव्य शक्ति साधकके मन और हृदयकी पूर्ण अनुमति और संकल्पके साथ इन चीजोंको दूर करनेका कार्य कर सके । इन चीजोंका परित्याग करनेका प्रयास करना तथा संकल्प- को स्थायी बनाना पर्याप्त है,-क्योंकी। यही प्रयास अन्तमें स्थायित्व ले आता है ।
तुम्हारे अनुभवमें नींदकी गहराई इसलिये अभिप्रेत थी कि तुम्हें भीतर गहराई- तक ले जाया जाय और, जैसे ही तुम वहां पहुँच गये, तुम चैत्यऔर आध्यात्मिक अवस्था- में प्रवेश कर गये जिसने सुन्दर मैदान तथा श्वेत ज्योति, शीतलता और शान्तिका रूप ले लियां । सीढी इस चैत्य और आध्यात्मिक स्थितिसे आध्यात्मिक चेतनाके ओर भी अधिक ऊंचे और ऊंचे स्तरोंमें बढ़नेका प्रतीक थी जहां ज्योतिका मूल स्रोत है । श्रीमाताजीका हाथ उनकी उपस्थिति और सहायताका प्रतीक था जो तुम्हें ऊपर उठायेंगी तथा सीढूीके शीर्ष-स्थानपर तुम्हें ले जायेंगी ।
श्रद्धा तामसिक और निष्फल हो सकती है, उदाहरणार्थ, 'मैं विश्वास करता हूँ कि श्रीमाताजी सब कुछ करेंगी, अतएव मैं कुछ नहीं करूँगा । जब वह चाहेंगी, मुझे रूपांतरित कर देंगी । '' यह सक्रिय नहीं बल्कि निष्क्रिय और जड़ श्रद्धा है । श्रद्धा, भगवानके ऊपर निर्भरता, भागवत शक्तिके प्रति आत्मसमर्पण और आत्मदान - ये सब आवश्यक और अनिवार्य हैं । परन्तु भगवानके ऊपर निर्भर रहनेके बहाने आलस्य और दुर्बलताको नहीं आने देना चाहिये तथा जो चीजे भागवत सत्यके मार्गमें बाधक होती हैं उनका निरन्तर त्याग होते रहना चाहिये । भगवानके प्रति आत्मसमर्पण करनेको, अपनी ही वासनाओं तथा निम्रतर प्रवृत्तियोंके प्रति या अपने अहंकार या अज्ञान और अन्धकारकी किसी शक्तिके प्रति, जो कि भगवानका मिथ्या रूप धारण करके आती है, आत्मसमर्पण करनेका एक बहाना, एक आवरण या एक अवसर नहीं बना देना चाहिये ।
मनुष्यको भगवान्पर निर्भर होना चाहिये ओर फिर भी कोई उपयुक्त बनाने वाली साधना करनी चाहिये - भगवान् साधनाके अनुपातमें नहीं बल्कि अन्तरात्मा तथा उसकी अभीप्साके अनुपातमें फल प्रदान करते हैं । (मेरा मतलब है अन्तरात्मा- की सच्चाई, भगवान्के लिये उसकी उत्कंठा तथा उच्चतर जीवनके लिये उसकी अभीप्सासे । ) फिर चिन्तित होनेसे - मैं यह बनूँगा वह बनूँगा, मैं क्या बनूँ आदि सोचते रहनेसे -- भी कोई लाभ नहीं होता । कहना चाहिये: ' 'मैं जो कुछ होना चाहता हूँ वह नहीं बल्कि जो भगवान् चाहते हैं कि मैं बनूँ वह बननेके लिये तैयारहूँ' ' -- बाकी सब कुछ उसी आधारपर चलते रहना चाहिये ।
तुमने फिर सही सिद्धांत पकड़ लिया है -- संपूर्ण श्रीमांका लिये हो जाना और पूर्ण रूपसे यह विश्वास बनाये रखना कि मनुष्यको बस उसी विश्वासके साथ चुपचाप चलते रहना है और जिन सब चीजोंके आनेकी आवश्यकता है वे सब आयेंगी तथा भग- वान् जो कुछ संपन्न करना चाहते हैं वह सब संपन्न हो जायगा । संसारके अन्दर होने- वाली क्रियाएँ मानव-मनकी समझके लिये अत्यन्त सूक्ष्म, विलक्षण और जटिल हैं -- जब ज्ञान ऊपरसे आता है और मनुष्य उच्चतर चेतनामें उठा लिया जाता है केवल तभी उनको समझनेकी शक्ति आ सकती हे । इस बीच मनुष्यको जिस चीजका अनुसरण करना है वह है उस श्रद्धा और प्रेमपर आधारित अन्तरस्थ गभीरतर चैत्य हृदयका आदेश जो कि एकमात्र सुनिश्चित पथप्रदर्शक नक्षत्र है ।
यह सब मैं पहले ही तुम्हें समझा चुका हूँ । यह बिलकुल ठीक है कि, अपने- आपपर छोड़ देनेपर, तुम कुछ भी नहीं कर सकते; यही कारण है कि तुम्हें उस शक्ति- के संपर्कमें रहना होगा जो यहां जो कुछ तुम अपने लिये नहीं कर सकते उसे तुम्हारे लिये कर देनेके लिये मौजूद है । तुम्हें जो एकमात्र चीज करनी है वह यह है कि तुम उस शक्तिको कार्य करने दो और अपने-आपको उसके पक्षमें बनाये रखो, जिसका अर्थ एवं उस शक्तिमें विश्वास बनाये रखना, उसीपर निर्भर करना, अपने-आपको उद्विग्न और परेशान न करना, उसे शान्तिपूर्वक याद करना, उसे शान्तिपूर्वक पुकारना और उसे चुपचाप कार्य करने देना । यदि तुम ऐसा करो तो बाकी सब कुछ तुम्हारे लिये कर दिया जायगा -- एकदम तुरन्त नहीं, क्योंकि बहुत कुछ साफ करना है, पर फिर भी लगातार और अधिकाधिक वह किया जायगा ।
भागवत करुणा और शक्ति सब कुछ कर सकती हैं, पर साधककी पूर्ण अनुमति होनेपर । वह पूर्ण अनुमति देना सीखना ही साधनाका संपूर्ण अर्थ हे । इसमे या तो मनके विचारों, प्राणकी कामनाओं या भौतिक चेतनाकी तामसिकताके कारण समय लग सकता है, परन्तु इन चीजोंको भागवत शक्तिकी सहायतासे या उसकी कियाका आवाह्न करके दूर करना होगा और ये दूर हो सकती हैं ।
किसी प्रकारके निरुत्साहको अपने ऊपर न आने दो और भागवत. कृपा शक्ति- पर किसी प्रकारका अविश्वास न रखो । जो भी कठिनाइयां तुम्हारे बाहर हों, जो भी दुर्बलताएं तुम्हारे अन्दर हों, यदि तुम अपनी श्रद्धा और अपनी अभीप्सापर दृढ़ता- पूर्वक डटे रहो तो गुह्य शक्ति तुम्हें निकाल ले जायगी और यहां वापस ले आयगी । यदि तुम विरोधों और कठिनाइयोंसे दवे हुए हो, यदि तुम लड़खड़ाते हो, यदि तुम्हारे लिये मार्ग बन्द प्रतीत होता है तो भी अपनी अभीप्साको पकड़े रहो; यदि कुछ समयके लिये श्रद्धा मेघाच्छन्न हो गयी है तो मन और हृदयमें हमारी ओर मुडो और बादल दूर हो जायेंगे । पत्रोंके रूपमें बाहरी सहायताका जहांतक प्रश्न है, हम उसे तुम्हें देने- के लिये पूर्णत: सन्नद्ध है...... । परन्तु पथपर डटे रहो -- फिर अन्तमें सारी चीजे अपने-आप खुल जायंगी और परिस्थितियां आंतरिक आत्माके सामने हार मान जायंगी ।
यह कठिनाई अवश्य ही अविश्वास और अवज्ञाके कारण आयी होगी । क्योंकि अविश्वास और अवज्ञा ठीक मिथ्याचारकी तरह हैं (वे स्वयं मिथ्यापन ही हैं और मिथ्या धारणाओं तथा प्रेरणाओंपर ही आश्रित होते है )? वे महाशक्तिके कार्यमें हस्तक्षेप करते हैं, साधकको उस शक्तिका अनुभव प्राप्त करनेमे या उस शक्तिको पूर्ण रूपसे कार्य करने देनेमें बाधा डालते हैं तथा भागवत संरक्षणकी शक्तिको क्षीण कर देते हैं । केवल अपनी अन्तर्मुखी एकाग्रताके समय ही नहीं, बल्कि अपने बाहरी कार्यों तथा विभिन्न प्रवृत्तियोंमें लगे रहनेपर भी तुम्हें उचित भाव बनाये रखना होगा । यदि तुम ऐसा कर सको और सब बातोंमें श्रीमांका पथप्रदर्शन स्वीकार करो तो तुम देखोगे कि तुम्हारी कठिनाइयां धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं अथवा तुम बड़ी आसानीसे उन्हें पार करते जा रहे हो और सभी चीज़ें क्रमश: सुगम होती जा रही हैं ।
तुम्हें अपने सभी कर्मों और क्रियाओंमें भी ठीक वही करना चाहिये जो तुम अपने ध्यानमें करते हो । श्रीमांकि ओर अपने-आपको उद्घाटित करो, अपने सभी कर्मोंके श्रीमांके पथप्रदर्शनपर छोड़ दो, शान्तिका, सहारा देनेवाली दिव्य शक्तिका तथा दिव्य संरक्षणका आवाहन करो और इसलिये कि ये सब अबाध गतिसे अपना कार्य कर सकें उन सब मिथ्या प्रभावोंका त्याग करो जो भ्रांत तथा असावधानी या
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अचेतनतासे पूर्ण क्रियाओंको उत्पन्न कर उनके मार्गमें बाधक हो सकती हैं ।
इस नीतिका अनुसरण करो और तुम्हारी समस्त सत्ता शान्तिके अन्दर, शरण- दायिनी शक्ति और ज्योतिके अन्दर एक, अखण्ड शासनके अधीन हो जायगी ।
उन्हें (श्रद्धा, समर्पण और समताको ) सत्ताके प्रत्येक भाग और अणु-परमाणु- में स्थापित करना होगा जिसमें कि कहीं भी किसी विपरीत स्पंदनकी कोई सम्भावना न रह सके ।
जो भी विरोधी वस्तुएं उपस्थित हों तुम्हें साहसके साथ उनका सामना करना चाहिये और वे विलुप्त हो जायंगी और सहायता प्राप्त होगी । श्रद्धा और साहस वे सच्चे भाव हैं जिन्हें सर्वदा जीवन और कर्ममें तथा आध्यात्मिक अनुभवमें भी बनाये रखना चाहिये ।
परीक्षाके क्षणोंमें भागवत संरक्षणमें विश्वास रखना और उस संरक्षणका आवा- हन करना चाहिये; सब समय यह विश्वास रहना चाहिये कि भगवान् जो कुछ चाहते हैं वही सबसे उत्तम है ।
जो कुछ तुम्हें भगवान्की ओर मोड़ता है उसे ही अपने लिये अच्छा समझकर स्वीकार करना चाहिये - वह सब तुम्हारे लिये बुरा है जो तुम्हें भगवान्से दूर हटा ले जाता है ।
तुम्हारे दु:ख-क्लेशका इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है कि तुम उनकी खटखटाहटको सुनने और दरवाजा खोल देनेके लिये इस प्रकार तैयार रहते हो । यदि तुम केवल भगवान्को चाहते हो तो यह बिलकुल निश्चित है कि तुम उनको पाओगे, परन्तु प्रत्येक क्षण यह सब शंका-सन्देह उपस्थित करना और व्यग्र होते रहना विलंब कराता तथा हृदय एवं आंखोंके सामने एक निकटवर्त्ती पर्दा डाल देता है । क्योंकि जब साधक कोई प्रगति करेगा तो प्रत्येक पगपर विरोधी शक्तियां पैरोंमें फंदा डाल देनेकी तरह इन सन्देहोंको फेंक देंगी और उसे लड़खड़ाहटके साथ बीचमें ही रोक देंगी -- ऐसा करना उनका धंधा ही है...... । हमें कहना यह चाहिये कि ' '?ँ, मैं केवल
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भगवान्को चाहता हूँ मेरी सफलता निश्चित है । मुझे बस पूरे विश्वासके साथ आगे बढ़ते जाना है और स्वय उनका हाथ गुप्त रूपसे मुझे उनकी ओर उनके अपने पथसे और उनके अपने समयपर ले जानेके लिये वहां मौजूद रहेगा । '' इसी चीजको तुम्हें अपने मंत्रके रूपमें सतत अपने पास रखना होगा । दूसरी किसी चीजपर मनुष्य शंका कर सकता है पर यह बात कि जो व्यक्ति केवल भगवान्को चाहता है वह उन्हें अवश्य पायेगा एकदम सुनिश्चित है तथा दो और दो चार होनेसे भी अधिक सुनिश्चित है । यही वह श्रद्धा है जिसे प्रत्येक साधकको अपने हृदयकी गहराईमें रखना चाहिये जो उसे प्रत्येक ठोकर और आघात और अग्निपरीक्षाके समय उसे सँभाले रखे । सच पूछो तो केवल मिथ्या विचार अभी भी तुम्हारे मनपर अपनी परछाईं फेंक रहे है जो तुम्हें इस श्रद्धाको बनाये रखनेसे रोकती है । उसे दूर धकेल दो और कठिनाईकी रीढ चूर-चूर हो जायगी ।
दिव्य ज्योतिकी विजयमें अटूट श्रद्धा-विश्वास बनाये रखो और स्थिर समत्वके साथ जड्तत्व तथा मानव व्यक्तित्वका सामना करो जबतक कि उनका रूपांतर नहो जाय ।
यह केवल एक आशा ही नहीं वरन् एक सुनिश्चित बात है कि प्रकृतिका पूर्ण रूपांतर साधित होगा ।
यदि बहुत अन्धकार है तो भी -- और यह जगत् उससे पूर्ण है और मनुष्यकी भौतिक प्रकृति भी -- तो भी सच्ची ज्योतिकी एक किरण अन्तमें दसगुने अन्धकार- के विरुद्ध भी विजयी होगी । इसपर विश्वास करो और इससे सर्वदा चिपके रहो ।
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समर्पणका अर्थ है अपने-आपको भगवान्के हाथोंमें सौंप देना - मनुष्य जो कुछ है या उसके पास जो कुछ है सब भगवान्को दे देना और किसी चीजको अपना निजी न समझना, अन्य किसीकी इच्छाका नहीं, केवल भगवान्की इच्छाका अनुसरण करना, अहंकारके लिये नहीं बल्कि भगवान्के लिये जीवन यापन करना ।
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समर्पणका तात्पर्य है संपूर्ण रूपसे श्रीमांके हाथोंमें आ जाना, आर अपने अहंकारके द्वारा या अन्यथा किसी भी तरह उनकी ज्योति, ज्ञान, संकल्प, उनकी शक्तिकी क्रिया आदिका विरोध न करना ।
तब यह समर्पणका संकल्प है । परन्तु समर्पण श्रीमाताजीके प्रति होना चाहिये -- शक्तिके प्रति भी नहीं, बल्कि स्वयं श्रीमाताजीके प्रति ।
इस सब जटिलताकी कोई आवश्यकता नहीं । यदि चैत्य पुरुष अभिव्यक्त हो तो वह अपने प्रति नहीं, बल्कि श्रीमाताजीके प्रति समर्पण करनेकी मांग करेगा ।
भगवान् उन लोगोंको अपने-आपको देते हैं जो बिना कुछ बचाये और अपनी सत्ताके सभी अंगोंमें अपने-आपको भगवानके हाथोंमें अर्पित कर देते हैं । उन्हींके लिये हैं शान्ति, ज्योति, शक्ति, आनन्द, स्वतन्त्रता, विशालता, ज्ञानकी ऊंचाइयां और आनन्दके सागर ।
यहां केवल आंतरिक अर्थ लिया गया है - इसका तात्पर्य कोई बाहरी महानता नहीं है । सभी प्रकारका आत्मदान अहंकारी दृष्टिमें अपनेको नीचे गिरा देना और- न्यून कर देना है । परन्तु वास्तवमें भगवानके प्रति किया गया आत्मदान सत्ताको वर्धित करता और महान् बनाता है - यही बात यहां कही गयी है ।
यदि कोई समर्पण न हो तो फिर समूची सत्ताका कोई रूपांतर भी नहीं हो सकता ।
यह श्रीमाताजीका पुस्तक ' 'वार्त्तालाप' ' के निम्रांकित उद्धरणकी व्याख्या है :
' 'समर्पण तुम्हारा हास नही करेगा,. बल्कि वह तुम्हारी वृद्धि करेगा; वह तुम्हारे व्यक्तित्व-को न घटायेगा न दुर्बल करेगा, न विनष्ट करेगा, यह उसे प्रबल और महान् बनायेगा । ''
(वार्त्तालाप, १म संस्करण, पृ २००) ।
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यदि कोई भगवान्को चाहे तो भगवान् स्वयं उसके हृदयको शुद्ध करनेका भार ले लेंगे, साधनाको विकसित करेंगे तथा आवश्यक अनुभूतियां प्रदान करेंगे; इस रूपमें घटित हो सकता और अवश्य होता है यदि कोई भगवानपर भरोसा और विश्वास तथा समर्पणकी इच्छा रखे । क्योंकि इस प्रकार भगवानके ग्रहण करनेका तात्पर्य है एकमात्र अपने निजी प्रयासपर निर्भर न कर अपनो-आपको भगवानके हाथोंमें सौंप देना और फिर इसका मतलब है भगवानपर भरोसा और विश्वास रखना तथा क्रमश: आत्मदान करते जाना । यही वास्तवमें वह साधनाका सिद्धांत है जिसका अन्उसरण मैंने किया था और यही योगकी केंद्रीय पद्धति है जिसकी मैंने परिकल्पना की है । मैं समझता हूँ कि यही वह चीज है जिसे श्रीरामकृष्णने अपनी रूपककी भाषामें बिल्लीके बच्चेकी पद्धति बतलायी थी । परन्तु सब लोग एकाएक इसका अनुसरण नहीं कर सकते; इस पद्धतिको अपनानेमें उन्हें समय लगता है - यह पद्धति सबसे अधिक तब विकसित होती है जब मन और प्राण शांत-स्थिर हो जाते हैं ।
समर्पणसे मेरा जो तात्पर्य है वह यही मन और प्राणका आंतरिक समर्पण है । निस्सन्देह, एक प्रकारका बाहरी समर्पण भी होता है: उन सभी चीजोंका अर्पण जो आत्माके साथ संघर्ष करती हैं अथवा साधनाकी आवश्यकताके. विपरीत पड़ती हैं, भगवान्की पूजा, उनके पथप्रदर्शनके पालन, चाहे प्रत्यक्ष रूपमें, यदि साधक उस स्थितिमें पहुँच चुका हो, अथवा चैत्य पुरुषके द्वारा, अथवा गुरुके मार्गदर्शनका अनु- सरण । मैं यह कह दूँ कि प्रायोपवेशन ( दीर्घकालतक उपवास ) का समर्पणके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है: यह अत्यन्त कठोर तपस्याका एक रूप है ओर, मेरी रायमें, अत्यधिक कठोर प्रकारका है, बहुधा खतरनाक भी होता है ।
आंतरिक समर्पणका सारतत्त्व है भगवान्पर भरोसा और विश्वास । साधक- का मनोभाव होता है: ' 'मैं भगवान्को चाहता हूँ, और किसी चीजको नहीं । मैं पूर्णत: अपनेको उन्हें दे देना चाहता हूँ और चूँकि मेरा अन्तरात्मा इसे चाहता है, इसके सिवा और कुछ नहीं हो सकता कि मैं उनका साक्षात्कार पाऊं और उन्हें उपलब्ध करूं । मैं इसके सिवा और कुछ नहीं चाहता,बस, मेरे अन्दर होनेवाला उनका कार्य मुझे उनके पास पहुंचा दे, उनका यह कार्य चाहे गुप्त हो या प्रकट, प्रच्छन्न हो या अभिव्यक्त । मैं अपने निजी समय और पथपर कोई आग्रह नहीं करता; वह सब कुछ अपने निजी समय और निजी पद्धतिसे करें; मैं उनपर विश्वास बनाये रखूंगी, उनकी इच्छाको स्वी- कार करुंगा, उनकी ज्योति, सान्निध्य और आनन्दके लिये दृढ़तापूर्वक अभीप्सा करूँगा, सभी कठिनाइयों और विलबोके भीतरसे गुजरूँगा, उन्हींपर निर्भर रहूँगा और कभी उनका सहारा नहीं छोडूंगा । मेरा मन शांत हो जाय और उनपर भरोसा करे और वह इसे ज्योतिकी ओर खोल दें; मेरा प्राण अचंचल हो जाय और केवल उन्हींके ओर मुडो जाय और वह इसे अपनी शांति और हर्षकी ओर खोल दें । सब कुछ उनके लिये हो और स्वयं मैं भी उनके लिये होऊं । जो कुछ हो, मैं इस अभीप्सा और आत्मदानके भावको बनाये रखूँगा और इस पूरे भरोसेके साथ आगे बढ़ता रहूँगा कि यह संपन्न हो जायगा । ''
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यही मनोभाव है जिसे मनुष्यको अपने अन्दर बढ़ाना चाहिये ' क्योंकि निश्चय ही इसे तुरत पूर्ण नहीं बनाया जा सकता -- मानसिक और प्राणिक क्रियाएं आडे आती हैं -- परन्तु कोई यदि इसके लिये संकल्प बनाये रखे तो यह सत्तामें विकसित होगा । बाकी चीज है पथप्रदर्शनका अनुसरण करना जब वह प्रकट हो, अपने मन और प्राणकी क्रियाओंको उसमें बाधा न डालने देना ।
मेरे कहनेका आशय यह नहीं है कि यही पथ एकमात्र पथ है और साधना अन्यथा नहीं की जा सकती -- दूसरे बहुत सारे पथ भी हैं जिनके द्वारा मनुष्य भगवान्की ओर जा सकता. है । परन्तु यह एकमात्र पथ है जिसे मैं जानता हूँ और जिससे प्रकृति- के तैयार होनेसे पहले ही भगवान्द्वारा साधनाका ग्रहण किया जाना प्रत्यक्ष तथ्य बन जाता है । दूसरे पथोंमें भागवत क्रिया समय-समयपर अनुभूत हो सकती है, पर वह अधिकांशमें तबतक पर्देके पीछे बनी रहती है जबतक सब कुछ तैयार नहीं हो जाता । कुछ साधनाओंमें भागवत क्रिया पहचानमें नहीं आती; वहां सब कुछ तपस्याके द्वारा करना आवश्यक होता है । कुछ साधनाओंमें दो चीजे मिलीजुली होती हैं; तपस्या अन्तमें प्रत्यक्ष साहाथ्य और हस्तक्षेपका आह्वान करती है । यह भावना और अनु- भव उस योगसे संबद्ध रखते हैं जो समर्पणपर आधारित होता है । परन्तु जिस भी पथका अनुसरण किया जाय, एकमात्र करणीय कार्य है एकनिष्ठ होना तथा अन्ततक प्रयास करते रहना ।
भगवान्द्वारा सब कृउछ किया जा सकता है,--हृदय और स्वभाव शुद्ध किये जा सकते, आंतरिक चेतना जागृत की जा सकती तथा पर्दे दूर किये जा सकते हैं,- यदि कोई भरोसे और विश्वासके साथ अपनेको भगवान्के हाथोंमें अर्पण कर दे और यदि कोई तुरत पूर्ण रूपसे ऐसा न कर सके तो भी, जितना अधिक वह ऐसा कर सकेगा उतना ही अधिक आंतरिक साहाथ्य और पथप्रदर्शन उसे प्राप्त होगा तथा उसके भीतर भगवानका अनुभव बढ़ेगा । यदि सन्देहशील मन कम सक्रिय हो जाय और विनम्रता तथा समर्पणका संकल्प बढ़े तो ऐसा करना पूर्णत: संभव हो सकता है । तब एकमात्र
इस वस्तुके सिवा किसी दूसरी शक्ति और तपस्याकी आवश्यकता नहीं होती । साधनाकी प्राथमिक अवस्थामें -- और 'प्राथमिक' से मेरा मतलब किसी छोटे अंशसे नहीं है -- प्रयत्न अपरिहार्य है । समर्पण तो ठीक है, पर समर्पण कोई ऐसा कार्य नहीं है जो एक दिनमें हो जाय । मनके अपने भाव और विचार हुआ करते हैं और वह उनसे चिपका रहता है; मानव-प्राण समर्पण में बाधक होता है, क्योंकि प्राण आरम्भिक अवस्थाओंमें जिसे समर्पण समझता है वह संशयग्रस्त आत्मदान है और उसमें प्राणकी मांग भी मिली होती है, भौतिक चेतना पत्थरकी तरह है और यह जिसे समर्पण समझती है वह प्रायः 'तमs', जड़त्वसे अधिक और कुछ नहीं होता । केवल एक हत्युरुष ही है जो जानता है कि समर्पण कैसे करना होता है और आरम्भ-
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में यह हत्युरुष तो प्रायः बहुत कुछ छिपा ही रहता है । जब हत्युरुष जागता है तब वह एकाएक और सच्चे रूपमें सारी सत्ताका समर्पण करा सकता है; क्योंकि फिर अन्य अंगोंकी जो कुछ कठिनाई होती है उसका उपाय तुरत हो जाता है और वह कठिनाई दूर हो जाती है । पर जबतक हत्युरुष नहीं जागता तबतक साधकका अपने पुरुषार्थ- से प्रयत्न करना अपरिहार्य है । अथवा यों समझो कि ऐसा प्रयत्न तबतक आवश्यक होता है जबतक कि भागवत शक्ति ऊपरसे उक्लावित होकर सत्तामें न उतर आये और साधना अपने हाथमें न ले ले - साधनाका अधिकाधिक भाग स्वयं ही न करने लग जाय जिसमें साधकके अपने प्रयत्नसे करनेका कार्यभाग बहुत ही थोड़ा शेष रहे - पर तब भी प्रयत्न न सही पर कम-से-कम अभीप्सा तथा सावधानता तो आवश्यक हैं ही जबतक कि मन, इच्छा, प्राण और शरीरको भागवत शक्ति पूर्णतया अधिकृत न कर ले । मैं समझता हूँ, इस विषयका विवेचन मैंने 'माता' पुस्तकके किसी अध्याय- में किया है ।
- दूसरी ओर, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पूर्ण समर्पणकी सच्ची और बलवती इच्छाके साथ ही योगारम्भ करते हैं । ये वे लोग हैं जो हृत्युरुषसे अथवा उस सुस्पष्ट एवं उद्बुद्ध मानस-इच्छासे नियंत्रित होते हैं जो जहां एक बार यह मान लेती है कि समर्पण ही साधनाका सिद्धान्त है वहां फिर उसके सम्बन्धमें और कोई बेमतलबकी बात नहीं चलने देती और आधारके अन्य अंगोंको अपने रास्तेपर चलनेके लिये बाध्य करती है । यहां भी प्रयत्न मौजूद है; पर यह इतना सन्नद्ध और स्वयंस्फूर्त होता है तथा इसमें यह भाव कि हमारे पीछे कोई महती शक्ति है, इतना प्रबल और स्वाभाविक होता है कि साधकको प्रायः भान ही नहीं रहता कि मैं कुछ भी प्रयत्न कर रहा हूँ, इसके विपरीत जहां मन या प्राणकी ऐसी इच्छा होती है कि वे अपनी इच्छाको ही लिये रहना चाहते हैं, अपनी स्वतन्त्र वृत्ति-प्रवृत्तिको छोड़ना नहीं चाहते, वहां तबतक संघर्ष और प्रयत्न ही चलता है जबतक कि आधाररूप यंत्र जो सामने है तथा भागवत शक्ति जो पीछे या ऊपर है, इन दोनोंके बीचकी दीवार टूट नहीं जाती । इस विषयमें कोई ऐसा नियम नहीं बताया जा सकता जो बिना किसी भेदके साधकमात्रपर समान रूपसे घट सके । मनुष्य-मनुष्यके स्वभावमें इतना अन्तर है कि किसी एक कठोर नियमसे सबका काम नहीं चल सकता ।
यह सम्भव नहीं कि साधक एकाएक व्यक्तिगत प्रयासके ऊपर जोर देना छोड़ दे - और न यह सर्वथा वाछनीय ही है; क्योंकि मानसिक जड़तासे व्यक्तिगत प्रयास कहीं अच्छा है ।
व्यक्तिगत प्रयासको उत्तरोत्तर भागवत शक्तिकी क्रियाके रूपमें रूपांतरित करना होगा । अगर तुम्हें भागवत शक्तिकी उपस्थितिका अनुभव होता हो तो तुम उसका अपने अन्दर अधिकाधिक करो जिसमें. = प्रयासको नियंत्रित करे,
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उसे अपने हाथमें ले ले, उसे एक ऐसी चीजमें रूपांतरित कर दे जो तुम्हारी न हो, बल्कि श्रीमाँकी हो । इस तरह व्यक्तिगत आधारमें कार्य करनेवाली शक्तियां भागवत शक्तिके हाथमें चली जायंगी -- अवश्य ही उनका इस प्रकार चला जाना हठात् नहीं, बल्कि धीरे-धीरे पूरा होगा ।
परन्तु अन्तःपुरुषकी स्थितिको प्राप्त करना आवश्यक है; उस विवेकका विकास अवश्य होना चाहिये जो यह ठीक-ठीक देख सके कि भागवत शक्ति क्या है, व्यक्तिगत प्रयास क्या है और निम्रतर विश्वशक्तियोसे आकर क्या-क्या चीजे इन दोनोंके साथ मिल गयी हैं । और, जबतक भागवत शक्तिके हाथमें आधारकी सारी शक्तियां नहीं चलो जाती -- जिसमें बराबर ही कुछ समय लग जाता है -- तबतक सर्वदा ही व्यक्तिगत प्रयास जारी रहना चाहिये, सत्य-शक्तिको निरन्तर स्वीकृति देते रहना चाहिये और प्रत्येक निम्रतर मिश्रणका निरन्तर त्याग करते रहना चाहिये ।
अभी तुम्हें व्यक्तिगत प्रयास छोड़ देनेकी आवश्यकता नहीं है, बल्कि इस बातकी आवश्यकता है कि तुम अपने अन्दर अधिकाधिक भागवत शक्तिका आवाहन करो और उसीके द्वारा अपने व्यक्तिगत प्रयासको नियंत्रित और परिचालित करो ।
साधनाकी प्रारम्भिक अवस्थाओंमें सब कुछ भगवान्के ऊपर छोड़ देना अथवा अपने व्यक्तिगत प्रयासकी आवश्यकता न समझ सब कुछ भगवान्से ही आशा करना युक्तिसंगत नहीं । ऐसा करना तभी संभव होता है जब हत्युरुष सामने हो और समस्त क्रियाके ऊपर अपना प्रभाव डालता हो ( और तब भी सतर्क रहने और निरन्तर अनु- मति देते रहनेकी आवश्यकता होती है ), अथवा आगे चलकर, योगकी अन्तिम अवस्था- ओमें ऐसा करना सम्भव होता है जब कि साक्षात् रूपमें या लगभग साक्षात् रूपमें अति- मानस-शक्ति साधककी चेतनाको अपने हाथमें ले लेती है; परन्तु यह अवस्था अभी बहुत दूर है । इनके अतिरिक्त अन्य सभी अवस्थाओंमें ऐसा मनोभाव रखनेसे प्रायः साधक निश्चलता और जड़ताको प्राप्त होता है ।
सत्ताके जौ भाग बहुत कुछ यंत्रवत् कार्य करते हैं वे ही वास्तवमें ऐसा कह सकते हैं कि हम निरुपाय हैं, विशेषत: शरीर (स्थूल-भौतिक ) चेतना स्वभावत: ही जड़ है और वह या तो मन और प्राणीकी शक्तियोंद्वारा या उच्चतर शक्तियोंद्वारा परिचालित होती है! परन्तु सभी साधकोंमें सर्वदा ही इतनी सामर्थ्य होती है कि वे अपने मनके संकल्प और प्राणके प्रवेगको भगवान्की सेवामें नियुक्त करें । अवश्य ही यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि इसका फल तुरत ही दिखायी देगा, क्योंकि निम्र प्रकृतिकी बाधा या विरोधी शक्तियोंका आक्रमण कुछ समयतक, यहांतक कि एक दीर्घ कालतक, आवश्यक परिवर्त्तनको रोक रखनेमें सफलता प्राप्त कर सकता है । ऐसी अवस्थामें साधकको तबतक अपने प्रयासमें लगे रहना चाहिये, अपने संकल्पको बराबर भगवान्के पक्षमें नियक्त करते. छ त्याग करने योग्य बरतुओंका
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त्याग करते रहना चाहिये, सत्य ज्योति और सत्य शक्तिकी ओर अपने-आपको खोले रखना चाहिये और उनका स्थिरता और दृढ़ताका साथ, बिना थकावटके, बिना अवसाद या अधीरताके आवाहन करते रहना चाहिये जबतक यह अनुभव न होने लगे कि भागवत शक्ति कार्य करने लगी है और बाधाएं दूर होने लगी हैं ।
तुम कहते हो कि तुम अपने अज्ञान और अन्धकारके विषयमें सचेतन हो । पर, यदि यह केवल साधारण सचेतनता हो तो यह पर्याप्त नहीं है । अगर तुम पूरे ब्यौरेके साथ, उनकी वास्तविक क्रियाओंमें, उनके विषयमें सचेतन होओ तो फिर आरम्भके लिये यह काफी है । तुम जिन भ्रांत क्रियाओंके विषयमें सचेतन हो चुके हो उनका तुम्हें दृढ़ताके साथ त्याग करना होगा और अपने मन और प्राणको भागवत शक्तिकी क्रियाके लिये एक शान्त और स्वच्छ क्षेत्र बनाना होगा ।
सक्रिय समर्पण उसे कहते हैं जब तुम अपना संकल्प भागवत संकल्पके साथ यूक्त कर देते हो, जो कुछ दिव्य नहीं है उसे त्याग देते हो और जो कुछ दिव्य है उसीको अनु- मति देते हो । निष्क्रिय समर्पण उसे कहते हैं जब सब कुछ पूर्ण रूपसे भगवान्पर छोड़ दिया जाता है -- उसे वास्तवमें बहुत थोड़े लोग ही कर सकते हैं, क्योंकि व्यवहारमें आकर बहू इस प्रकार बदल जाता है कि भगवान्को समर्पण करनेके बहाने तुम निम्र प्रकृतिको समर्पण कर देते हो ।
यहां दो सम्भावनाएं हैं, एक तो है व्यक्तिगत प्रयासके द्वारा शुद्धीकरण जिसमें लम्बा समय लग जाता है, दूसरी है भागवत कृपाशक्तिका प्रत्यक्ष हस्तक्षेप जिसका कार्य सामान्यतया बहुत तेज होता हे । दूसरीके लिये पूर्ण समर्पण और आत्मदानका होना आवश्यक है और फिर उसके लिये साधारण तीरपर यह आवश्यक है कि साधकका मन ऐसा हो जो एकदम अचंचल रह सके तथा भगवती शक्तिको कार्य करने दे, प्रत्येक पगपर अपने पूर्ण समर्थनके द्वारा उसे सहायता करे, पर अन्यथा स्थिर और अचंचल बना रहे । इस अन्तिम शर्त्तको, जो रामकृष्णद्वारा कथित बिल्लीके बच्चेके भाव- 'के साथ मिलती-जुलती है, बनाये रखना कठिन है । जिन लोगोंको अपने सभी कर्ममें अपने चितना और इच्छा-शक्तिके द्वारा बहुत सक्रिय बने रहनेका अभ्यास है, उन्हें उस कियाको शान्त करना तथा मानसिक आत्मदानके निश्चलताको अपनाना कठिन प्रतीत होता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि वे योग नहीं कर सकते अथवा आत्मदान नहीं कर सकते - केवल शुद्धि और आत्मदानके संपन्न होनेमें लम्बा समय लग जायगा और इसके लिये साधकमें धैर्य और अटूट लगन तथा अन्ततक डटे रहनेका संकल्प होना चाहिये ।
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इतने थोड़े समयमें पूर्ण समर्पण करना सम्भव नही,-क्योंकि पूर्ण समर्पणका अर्थ है अपनी सत्ताके प्रत्येक भागमेंसे अहंकी ग्रंथिको काट डालना और उसे मुक्त कर पूर्णरूपेण भगवान्को समर्पित कर देना । मन, प्राण और भौतिक चेतनाको ( यहां- तक कि इनके प्रत्येक भागको और प्रत्येक भागके समस्त क्यिाकलापको ) एकके बाद एक, अलग-अलग अपने-आपको समर्पित करना होगा, उन्हें अपने तरीकेको छोड़ना होगा तथा भगवान्के तरीकेको स्वीकार करना होगा । परन्तु साधक जो कुछ कर सकता है वह यह है कि वह आरम्भसे ही अपनी केंद्रीय चेतनामें एक संकल्प और आत्म- निवेदनका भाव उत्पन्न करे और आत्मदानको पूर्ण बनानेका जौ कोई अवसर उपस्थित हो उससे लाभ उठाते हुए, पग-पगपर जो कोई मार्ग सामने खुला मिले उसके द्वारा उस मूल भावको परिपूर्ण बनाये । जब एक दिशामें समर्पण हो जाता है तब वह अन्य दिशाओंके समर्पणको अधिक आसान और अधिक अनिवार्य बना देता हे; परंतु वह स्वयं अन्य ग्रंथियोंको न तो काटता ही है न ढीला ही करता है? और विशेषकर जो ग्रंथियां हमारे वर्तमान व्यक्तित्व और उसके अत्यन्त प्रिय रचनाओंके साथ घनिष्ठ रूपमें संबद्ध होती हैं वे, केंद्रीय संकल्पके स्थापित हो जाने तथा उस संकल्पके कार्यमें परिणत हो जानेकी पहली मुहर-छाप लग जानेपर भी, बहुत बार महान् कठिनाइयां उपस्थित कर सकती हैं ।
यह (समर्पणका भाव ) प्रारम्भमें एकदम पूर्ण नहीं हो सकता, पर यह सच्चा हो सकता है -- यदि केंद्रीय संकल्प सच्चा हो और साधकमें श्रद्धा और भक्ति हो । उसके अन्दर विपरीत क्रियाएं हो सकती हैं, पर ये दीर्घकालतक टिके रहनेमें असमर्थ होंगी और निम्रतर भागके समर्पणकी अपूर्णता खतरनाक ढंगसे हस्तक्षेप नहीं करेंगी ।
यह इस बातपर निर्भर करता है कि पूर्ण समर्पणका क्या तात्पर्य लिया जाता है - सत्ताके किसी भागोंमें उसका अनुभव या सत्ताके सभी भागोंमें उसका यथार्थ कार्य । पहला किसी भी समय बड़ी आसानीसे आ सकता है; केवल दूसरेको पूर्ण करनेमें समय लगता है ।
पूर्ण समर्पणको केवल ध्यानमें अनुभूत एक अनुभव ही नहीं होना चाहिये, बल्कि एक यथार्थ तथ्य होना चाहिये जो समस्त जीवनको, सभी विचारों, अनुभवों और कर्मोंको नियंत्रित करे । जबतक ', साधकके अपने संकल्प और प्रयासका
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उपयोग आवश्यक है, पर एक ऐसे प्रयासका उपयोग जिसमें समर्पणकी भावना भी मौजूद हो, साधकके संकल्प और प्रयासको सहायता देनेके लिये दिव्य शक्तिका आवाहन हो तथा सफलता या विफलतासे अविक्षुब्ध हो । जब दिव्य शक्ति साधनाका भार अपने हाथोंमें ले लेती है, तब निस्सन्देह प्रयास बन्द हो सकता है, पर फिर भी सत्ताकी सतत अनुमति और जागरूकताकी आवश्यकता होगी जिसमें कि साधक किसी भी समय किसी मिथ्या शक्तिको प्रवेश न करने दे ।
यह (यह विचार कि साधना किसी व्यक्तिके अपेक्षा स्वयं भागावान्दुरा की जाती है) एक सत्य है पर एक ऐसा सत्य है जो तबतक चेतनाके लिये प्रभावशाली नहीं बनता जबतक कि वह साक्षात् अनुभवमें नही आ जाता अथवा जितनी मात्रामें वह अनुभूत होता है उतनी ही मात्रामें सार्थक भी होता है 1 इसके कारण जो लोग रुक आते हैं वे ऐसे लोग होते हैं जो इस भावनाको स्वीकार तो करते हैं पर इसे अनुभव नहीं करते - अतएव उनमें न तो तपस्याका बल होता है और न भागवत करुणाका बल । दूसरी ओर, जो लोग इसका साक्षात्कार कर सकते हैं वे अपनी तपस्याके पीछे तथा उसके अन्दर भी भागवत शक्तिकी क्रियाको अनुभव' करते हैं ।
जो लोग कोई प्रयास नहीं करते,-प्रयासका अभाव अपने-आपमें एक कठि- नाई है - वे प्रगति नहीं करते ।
समर्पणकी बातें करने या संपूर्ण आत्मनिवेदनकी महज एक भावना या धीमी इच्छा रखनेसे कोई लाभ नही होगा; एक मौलिक और सर्वांगपूर्ण परिवर्तनकी प्रबल प्रवृत्ति अवश्य होनी चाहिये ।
केवल मानसिक मनोभाव ग्रहण कर लेनेसे यह कार्य नहीं किया जा सकता, यहांतक कि बहुतसे आंतरिक अनुभव प्राप्त कर लेनेसे भी नहीं हो सकता जो कि बाहरी मानवको वैसा ही छोड़ देते हैं जैसा कि वह पहले था । बस, इसी बाहरी मानवको उद्घाटित होना, समर्पित होना और परिवर्त्तित होना होगा । उसकी प्रत्येक छोटी- से-छोटी क्यिा, आदत, कार्यको समर्पित हो जाना होगा, उन्हें देखना, रोके रखना और दिव्य ज्योतिके सामने खोल देना होगा, भागवत शक्तिको उन्हें अर्पित कर देना होगा जिसमें उनके पुराने रूप और आशय नष्ट कर दिये जायं तथा उनका स्थान दिव्य सत्य एवं भगवती माताकी रूपांतरकारी चेतनाका कार्य ले लें
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यदि पूर्ण समर्पण न किया जाय तो बिल्लीके बच्चेका भाव ग्रहण करना सम्भव नही है,--वह महज तामसिक निष्क्रियताका रूप ले लेता और अपनेको समर्पणका नाम दे देता है । यदि प्रारम्भमें पूर्ण समर्पण करना सम्भव न हो तो इसका तात्पर्य है कि व्यक्तिगत प्रयास आवश्यक है ।
जो वृत्तियां यंत्रवत् चलती रहती हैं उनको मानसिक संकल्पके द्वारा बन्द करना बराबर ही अधिक कठिन होता है, क्योंकि वे किसी युक्ति-तर्क या मानसिक समर्थनके ऊपर बिलकुल हां निर्भर नही करती; बल्कि वें पारस्परिक संयोग या केवल यंत्रवत् क्रिया करनेवाली स्मृति या अभ्यासके ऊपर अवलंबित होती हैं ।
परित्यागका अभ्यास अन्तमें विजयी होता है, पर केवल व्यक्तिगत प्रयासके बलपर इसे करनेसे इसमें एक लम्बा समय लग सकता है । अगर तुम यह अनुभव कर सको कि भागवत शक्ति तुम्हारे अन्दर कार्य कर रही है तो फिर यह कार्य अधिक आसान हों जायगा ।
पथप्रदर्शिका दिव्य शक्तिको आत्मदान करनेमें तुम्हारे किसी भागको जड़ता या तामसिकता नही दिखानी चाहिये और न तुम्हारे प्राणके किसी भागको निम्रतर आवेग और वासनाके सुझावोका त्याग न करनेके लिये इस आत्मदानकी आड लेनी चाहिये ।
योगाभ्यास करनेके सदा ही दो पथ होते हैं -- एक है सजग मन और प्राणकी क्रियाके द्वारा साधना करना, जिसमें मन और प्राणकी सहायतासे साधक देखता है, निरीक्षण करता है, विचार करता है और निश्चित करता है कि क्या करना चाहिये या क्या नहीं करना चाहिये । अवश्य ही इस क्रियाके पीछे भी भागवत शक्ति विद्यमान रहती है और उस शक्तिका आवाहन कर उसे अपने अन्दर ले आया जाता है -- क्यों- कि, अगर ऐसा न किया जाय तो फिर कुछ भी विशेष कार्य नहीं हो सकता । फिर भी इस पथसे व्यक्तिगत प्रयास ही प्रधान होता है और वही साधनाके अधिकांश भार- को वहन करता है ।
दूसरा पथ है हृत्युरुषका-इस पथमें चेतना भगवान्की ओर उन्मुक्त रहती है, वह, केवल हृत्युरुषको ही नही उन्मुक्त करती और सामने ले आती, बल्कि वह मन, प्राण और शरीरको भी उन्मुक्त करती है, ज्योतिको ग्रहण करती है, इस बातका ज्ञान प्राप्त करती है कि क्या करना होगा, यह अनुभव करती और देखती है कि स्वयं भागवत शक्ति ही उसे कर रही है तथा भागवत क्रियाको स्वयं भी अपनी सजग और सचेतन सम्मति देकर एव उसका आवाहन कर निरन्तर सहायता करती रहती है ।
परन्तु जबतक चेतना पूर्णरूपेण उन्मुक्त होनेके लिये तैयार नहीं हो जाती, जबतक वह इस प्रकार पूर्णतः भगवानके अधीन नहीं हों जाती कि उसके सारे कर्मोंको प्रारम्भ भगवानके द्वारा ही होने लगे, तबतक बहुधा साधनामें इन दोनों मार्गोंका मिला-जुलाn
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रहना अवश्यंभावी होता है । किन्तु जब ऐसा हों जाता है तब साधकका सारा उत्तर- दायित्व चला जाता हैं और उसके कंधोंपर कोई व्यक्तिगत भार नही रह जाता ।
जबतक उच्चतर शक्तिकी पूर्ण उपस्थिति नही आ जाती ओर उसकी सचेतन क्रिया नही होने लगती तबतक व्यक्तिगत प्रयासकी कुछ मात्राका होना अपरिहार्य है । निस्सन्देह, स्वयं अपने लिये नही बल्कि वगाबानका लिये साधना करना ही सच्चा मनोभाव है ।
प्रत्येक वस्तु भगवानके लिये होनी चाहिये, यह भी । भगवानपर फल छोड़ने- का जहांतक प्रश्न है, यह इस बातपर निर्भर करता है कि इस वाक्यांशका तुम क्या अर्थ लेते हो । यदि इसका अर्थ है भागवत कृपापर निर्भरता और समता और निरन्तर अभीप्सा करते रहनेका धैर्य, तब तो यह बिलकुल ठीक है । परन्तु इसे इतनी दूर नहीं फैला देना चाहिये कि यह अभीप्सा और प्रयास करनेमे ढिलाई और उदासीनताको अन्तर्भुक्त कर ले ।
में नही समझता कि किसी प्रकारके समर्पणका यह अर्थ क्यों होगा कि जाकर सों जाया जाय या सभी बाहरी वस्तुओंसे, यहांतक कि श्रीमाताजीसे भी अपनेको बन्द कर दिया जाय । जो हो, जो समर्पण करना आवश्यक है वह है सज्ञान समर्पण, परन्तु उसके लिये कोई शातिहीन संघर्ष करने अथवा दोषों और कठिनाइयोंपर अत्यधिक बल देनेकी आवश्यकता नहीं है । श्रीमाताजीके मनोभावकी जो बात है, उसे समझने- के लिये तुम्हें अपने भीतर दृष्टि डालनी होगी; यदि तुम बाहरसे देखोगे तो तुम उसे समझ नही सकोगे ।
तुम्हारी साधनामें तपस्याकी प्रधानता है; क्योंकि' तुममें एक तीव्र और सक्रिय शक्ति है जो तुम्हें उसमें प्रवृत्त करती है । कोई भी पथ पूर्णतया आसान नहीं हैं, और समर्पणके पथसे कठिनाई है सच्चा और पूर्ण समर्पण करनेकी । एक बार जब पूर्ण समर्पण हो जाता है तो निश्चय ही इससे सारी बातें अधिक आसान हों जाती हैं -- यह बात नही कि सारी बातें तुरत-फुरत हों जाती हैं या फिर कोई कठिनाई ही नही
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रह जाती, बल्कि उस समय एक आश्वासन, एक' साहाथ्य ।प्राप्त होता है और उत्तेजना- का अभाव होता है जो चेतनाको विश्रांति तथा साथ हो बल देता है और अत्यन्त बुरे प्रकारकी बाधासे मुक्ति प्रदान करता है ।
हां, निश्चय ही तुम ठीक कह रहे हों । स्वयं समर्पणकी प्रक्रिया भी एक तपस्या है । केवल इतना ही नहीं, बल्कि वास्तवमें तपस्याकी द्विविध प्रक्यिा और निरन्तर वर्द्धमान समर्पण दीर्घकालतक तब भी बना रहता है जब कि पर्याप्त मात्रामें समर्पण- भावका होना प्रारम्भ हो चुका होता है । परन्तु एक समय आता है जब साधक दिव्य शक्तिकी उपस्थिति और क्रियाशक्तिको निरन्तर अनुभव करता है तथा अधिकाधिक यह अनुभव करता है कि वही सब कुछ कर रही है - इस प्रकार अनुभव करता है कि सबसे बुरी कठिनाइयां भी इस अनुभवको विक्षुब्ध नही कर पाती तथा व्यक्तिगत प्रयत्न अब आवश्यक नहीं होता, वरन् मुश्किलसे सम्भव भी होता है । यही भगवान्- के हत्थों प्रकृतिके पूर्ण समर्पणका चिह्न है । कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो इस अनुभव- के आनेसे पहले भी श्रद्धाके बलपर इस स्थितिको ग्रहण करते हैं और यदि श्रद्धा और भक्ति प्रबल हों तो वह स्थिति उन्हें अनुभव प्राप्त होनेतक सभी कठिनाइयोंमेंसे निकाल ले जाती है । परन्तु सब लोग प्रारम्भसे ही इस स्थितिको नहीं ग्रहण कर सकते - और कुछ लोगोंके लिये तो यह खतरनाक होगी, क्योंकि वे सम्भवतः किसी गलत शक्ति- के हाथोंमें अपनेको सौंप देंगे और उसे ही भगवान् समझेंगे । अधिकांश लोंगोंके लिये तपस्याके द्वारा समर्पण-भावको विकसित करना आवश्यक है ।
हां, यदि साधकको यह बोध होता हो कि उसकी सभी तपस्याओंके पीछे भागवत संकल्प विद्यमान है, उन्हें ग्रहण करता है और उनका फल प्रदान करता है तो यह कम- से-कम समर्पणका प्रथम रूप है ।
जय संकल्प और शक्ति केंद्रीभूत होते और मन, प्राण और शरीरको संयमित तथा परिवर्त्तित करनेके अथवा उच्चतर चेतनाको नीचे उतार लानेके अथवा किसी अन्य यौगिक उद्देश्य वा किसी महान् उद्देश्यके लिये अभ्यस्त होते हैं तो उसे ही तपस्या कहते हैं।
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भगवानके तरीके मानव-मनके तरीकों जैसे नहीं हैं या हमारे आदर्शोंके अनुरूप नही होते और उनके विषयमें निर्णय करना या भगवानके लिये यह निर्धारित करना कि उन्हें क्या करना या क्या नहीं करना चाहिये, असम्भव है, क्योंकि हम जैसा जान सकते हैं उससे कहीं अच्छा भगवान् जानते हैं । यदि हम जरा भी भगवानको मानते हैं तो यथार्थ बुद्धि और भक्ति दोनों ही मुझे सुस्पष्ट श्रद्धा और समर्पण-भावकी मांग करनेमें एकमत प्रतीत होती हैं।
भागवत क्रियाओंको समझनेके लिये साधकको भागवत चेतनामें प्रवेश करना चाहिये, जबतक ऐसा नहीं होता तबतक श्रद्धा और समर्पणभाव बनाये रखना ही एक- मात्र यथार्थ मनोभाव है । भला उस वस्तुके विषयमें मन कैसे निर्णय दे सकता है जो उसकी समस्त सीमाओंके परे है?
साधनाका सच्चा मनोभाव है अपने मन और प्राणिक इच्छाको भगवानके ऊपर आरोपित न करना, बल्कि भगवान्की इच्छाके अवगत होना और उसका अनुसरण करना । यह नहीं कहना कि ' 'यह मेरा अधिकार है, मेरी चाह, मांग, अभाव और आवश्यकता है, क्योंकि इसे मैं नहीं पाता?'' बल्कि अपने-आपको दे देना, समर्पण करना तथा जो कुछ भी भगवान् दें उसे हर्षके साथ ग्रहण करना, दुःख-शोक न मनाना या विद्रोह न करना सबसे अच्छा तरीका है । उस समय तुम जो कुछ ग्रहण करोगे बह तुम्हारे लिये समुचित वस्तु होगी ।
भगवान् उसे करनेके लिये (हमारी सभी सच्ची आवश्यकताओंको पूरी करनेके लिये) बाध्य नहीं हैं, बह पूरा कर सकते या नहीं भी कर सकते हैं; बह चाहे पूरा करें या न करें इससे उस व्यक्तिके लिये कोई अन्तर नहीं पड़ता जो उनके प्रति समर्पित हो चुका है । यदि उसमें अन्तर पड़ता हैं तो उसके समर्पणमें कोई हिचकिचाहट है और इसलिये बह पूर्ण समर्पण नहीं है ।
किसी मानद-प्राणीके लिये प्रारम्भमें समस्त अभिरुचियोंसे मुक्त हो जाना और जो कुछ भी भागवत इच्छासे आये उसे हर्षपूर्वक ग्रहण करना सम्भव नहीं है !
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प्रारम्भमें मनुष्य जो कर सकता है वह है इस सतत भावनाको उस समय भी बनाये रखना कि जो कुछ भगवान् चाहते हैं वह सदा सबसे अच्छेके लिये होता है जब कि मन यह नही देखता कि ऐसा कैसे हों सकता है, जिस चीजको वह अभी प्रसन्नतापूर्वक नहीं स्वीकार कर सकता उसे समर्पण-भावके साथ स्वीकार करना और इस तरह स्थिर समत्वपर पहुँचना जो उस समय भी हिलता-डुलता नहीं जब कि ऊपरी सतहपर बाह्य घटनाओंके प्रति क्षणिक प्रतिक्रियाकी अस्थायी क्रियाएं होती हैं । यदि यह भाव एक बार दृढ़तापूर्वक स्थापित हो जाय तो बाकी चीजे आ सकती हैं ।
समर्पणका सारतत्व है भागवत प्रभाव और पथप्रदर्शनको पूरे हदयसे स्वीकार करना, जब आनन्द और शान्ति उतंरे तब उन्हें बिना सन्देह या कुतर्कके स्वीकार करना और उन्हें वर्द्धित होने देना; जब दिव्य शक्ति काम करती हुई अनुभूत हो तो बिना विरोध उसे काम करने देना, जब सच्चा ज्ञान दिया जाय तब उसे ग्रहण करना और उसका अनुसरण करना, जब भागवत संकल्प प्रकट हो तो उसका यंत्र बन जाना ।
भगवान् पथ दिखा सकते हैं, पर वह चलनेको बाध्य नही करते । 'मनुष्य' नाम- धारी प्रत्येक मनोमय प्राणीको यह आंतरिक स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है कि वह चाहे तो भागवत पथप्रदर्शनको स्वीकार करे या न करे: भला अन्यथा किस प्रकार कोई सच्चा आध्यात्मिक विकास साधित हो सकता है?
एक खास हदतक प्रत्येक व्यक्तिको अपना चुनाव करनेकी स्वतन्त्रता प्राप्त है -- जबतक कि वह पूर्ण समर्पण नहीं कर देता -- और जिस तरह वह उस स्वतन्त्रता- का उपयोग करता है, उसे आध्यात्मिक या अन्य परिणामोंको ग्रहण करना पड़ता है । सहायता केवल दी जा सकती है, लादी नही जा सकती । मौन रहने, निश्छल भाव- से दोष स्वीकार न करनेका अर्थ है अपने निजी चलनेकी प्राणकी इच्छा । जब मनुष्यमें अब छिपावका भाव नहीं रह जाता, जब भगवानके प्रति भौतिक आत्मोद्- घाटन हों जाता है तो भगवान् हस्तक्षेप कर सकते हैं ।
इस जगतकी समस्त लीला ब्यक्तिकी एक विशिष्ट सापेक्षिक स्वतन्त्र इच्छापर आधारित है । यहांतक कि योगसाधनामें भी वह बनी रहती है और ब्यक्तिकी सम्मति पग-पगपर आवश्यक होती है -- यद्यपि भगवानको समर्पण करनेपर ही वह अज्ञान और पृथकतव ओर अहंसे छुटकारा पाता है, उसका यह समर्पण पग-पगपर एक स्व-
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तन्त्र समर्पण होना चाहिये ।
मनुष्य भगवानको इसलिये आत्मार्पण करता है कि वह पृथक्लके भ्रमसे मुक्त हो जाय - स्वयं आत्मार्पणका कार्य ही यह सूचित करता है कि सब कुछ भगवान्- का है ।
प्रारम्भमें आत्मसमर्पण आत्मज्ञानके द्वारा नहीं बल्कि कही अधिक प्रेम और भक्तिके द्वारा आता है । परन्तु यह सच है कि आत्मज्ञान होनेपर पूर्ण समर्पण करना अधिक सम्भव हो जाता है ।
समर्पण और प्रेम-भक्ति विपरीत वस्तुएं नही हैं - वे साथ-साथ रहती हैं । यह सच है कि आरम्भमें मन शानके द्वारा समर्पण कर सकता है पर इससे मानसिक भक्ति परिलक्षित होती है और, ज्योंही समर्पण-भाव हृदयतक पहुँचता है, भक्ति एक भावके रूपमे अभिव्यक्त होती है और भक्तिके भावके साथ प्रेम उदित होता है ।
उच्चतर मनकी अनुभूतिके अन्दर भक्ति और समर्पण-भाव हों सकता है पर यह जैसे चैत्य चेतनामें होता हे वैसे वह्रां अनिवार्य नही होता । उच्चतर मनमें मनुष्य ' 'ब्रह्म' ' के साथ अपने तादाम्यके विषयमें अत्यधिक सचेतन हो सकता है और तब वहां भक्ति या समर्पण-भावका स्थान नही होता ।
मनुष्य आत्मदान किये बिना ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त कर सकता है, क्योंकि उस समय वह निर्व्यक्तिक ब्रह्मकी ओर मुड़ता है । उसकी शर्त्त है सभी कामनाओंका तथा प्रकृतिके साथ सब प्रकारके तादात्म्यका परित्याग करना । मनुष्य भगवानके प्रति अपनी प्रकृतिका तथा साथ ही अन्तरात्माका आत्मदान कर सकता है और उसके द्वारा ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त कर सकता है, वह स्थिति केवल अभावात्मक ही नहीं वरन् भावात्मक भी होगी, वह केवल प्रकृतिसे मुक्ति नहीं वरन् स्वयं प्रकृतिकी भी मुक्तित
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होगी ।
ब्राह्मी-स्थिति अन्तरात्मामें शान्ति और मुक्तिकी एक अभावात्मक स्थिरता ले आती है । आत्मदान एक भावात्मक मुक्ति ले आता है जो प्रकृतिमें कर्मकी एक सबल शक्ति भी बन सकती है ।
यदि तुम केवल उच्चतर चेतनामें ही समर्पित हो, निम्रतर चेतनामें कोई शांति या पवित्रता नही है तो निश्चय हीं वह पर्याप्त नहीं है और तुम्हें सर्वत्र शान्ति और पवित्रताके आनेकी अभीप्सा करनी चाहिये ।
जब चैत्य पुरुष, हृदय तथा चिन्तनशील मन समर्पण कर चुके हैं तब बाकी बस समय और प्रंक्यिाका प्रश्न है - और फिर अशान्तिका कोई कारण नहीं । केंद्रीय और फलोत्पादक समर्पण किया जा चुका है ।
ऐसा कभी नहीं कहा जा सकता कि बहुत शीघ्र आत्मसमर्पण कर दिया गया । कुछ चीजोंके प्रतीक्षा करनेकी आवश्यकता हो सकती है, पर समर्पणके लिये नही ।
सच पूछा जाय तो पूर्ण समर्पणकी उस चेतनापर ही साधनाका चैत्य आधार स्थापित हों सकता है । एक बार जय यह चीज स्थापित हों जाती है तो फिर, चाहे जो भी कठिनाइयां अतिक्रम करनेके लिये बाकी हों, साधनाका मार्ग पूर्णतः सरल- सहज, सूर्यालोकित, फूलके खिल नेकी तरह स्वाभाविक बन जाता है । जो कुछ तुम अनुभव कर रहे हो वह इस बातका संकेत है कि तुम्हारे अन्दर क्या विकसित हो सकता है और क्या विकसित होना चाहिये ।
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जो कठिनाइयां उठती हैं वे यदि स्वयं प्रकृतिमें हैं तो यह अनिवार्य है कि वे उठे और प्रकट हों । समर्पण करना आसान नही है, प्रकृतिका एक बहुत बड़ा भाग इसका विरोध करता है । यदि मन समर्पण करनेका संकल्प बनाता है तो इन सब आंतरिक बाधाओंका प्रकट होना अनिवार्य है । ऐसे समय साधकको उन्हें देखना चाहिये और उनसे अपनेको पृथक् कर लेना चाहिये, अपनी प्रकृतिमेंसे उन्हें त्याग देना और अति- क्रम कर जाना चाहिये । इसमें बहुत लम्बा समय लग सकता है पर इसे करना आवश्यक है । बाहरी बाधाएं आंतरिक समर्पणको तबतक रोक नहीं सकतीं जबतक कि स्वयं प्रकृतिके अन्दरकी कोई बाधा उन्हें सहायता न करती हो ।
यह साधकपर निर्भर करता है । कुछ लोग पहले बाहरी क्रियाओंको समर्पित करना आवश्यक महसूस कर सकते हैं जिसमें कि वह आंतरिक समर्पण ले आये ।
प्राणका समर्पण करना सर्वदा कठिन होता है, क्योंकि विश्वव्यापी प्राणिक अज्ञानकी शक्तियां समर्पण करनेमें अनिच्छुक होती हैं । परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि प्राणमें समर्पण करनेकी कोई मौलिक अक्षमता है ।
एक बच्चेकी तरह बन जाना और अपने-आपको सम्पूर्णत दे देना तबतक असम्भव है जबतक कि चैत्य पुरुषका प्रभुत्व न हों और यह प्राणकी अपेक्षा अधिक बलशाली न हों ।
साधारण प्राण कभी समर्पण करनेके लिये इच्छुक नहीं होता । सच्चा अन्तर- तम प्राण अन्य प्रकारका होता है - भगवानके प्रति आत्मसमर्पण उसके लिये उतना ही आवश्यक होता है जितना चैत्य पुरुषके लिये ।
यदि प्राणकी मांगो या चित्कारोंके साथ किसी प्रकारका तादात्म्य हो तो वह अवश्य ही उस समयके लिये समर्पणको कम कर देता है ।
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तुमने जो अपनी प्रतिक्रियाका वर्णन दिया था उसीके आधारपर मैंने कहा था कि वहां प्राणकी कोई मांग थीं । विशुद्ध चैत्य या आध्यात्मिक आत्मदानमें इस प्रकार- की कोई प्रतिक्रिया नही होती, कोई विषाद या नैराश्य नही होता, मनुष्य यह नही कहता कि '' भगवान्की खोज करनेसे मुझे क्या लाभ हुआ है ''', कोई क्रोध, विद्रोह, अभिमान, चले जानेकी इच्छा नही होती - जैसा कि तुमने यहां वर्णन किया है - बल्कि पूर्ण विश्वास तथा सभी परिस्थितियोंमें भगवानसे चिपके रहनेका आग्रह होता है । इसी चीजको मैं चाहता था कि तुम बनाये रखो, यहीं एकमात्र आधार है जिसमे मनुष्य सभी कठिनाइयों और प्रतिक्रियाओंसे मुक्त रहता तथा सतत आगे बढ़ता रहता है !
पर ये सब भावनाएं क्या अन्तरात्माके आत्मदानका चिह्न हैं? यदि वहां प्राणका मिश्रण नही है तो फिर ये सब चीजे जब मैं तुम्हें पत्र लिखता हूँ तो कैसे आती हैं तथा मेरे लिखने और तुम्हें रास्ता दिखानेकी कोशिश करनेके परिणामस्वरूप कैसे आती हैं?
सत्ताके इस भागको जब उसका स्वभाव दिखा दिया जाता है औचेंर उससे बदलने- के लिये कहा जाता है तो उसकी पहली क्रिया यह होती हे कि वह विद्रोह कर बैठता हैं !
कठिन? हमारी साधनाका पहला सिद्धांत ही यह है कि समर्पण ही सिद्धिका उपाय है और जबतक मनुष्य अहंका या प्राणिक मांग और कामनाओंका पोषण करता है, पूर्ण समर्पण करना असम्भव है - आत्मदान अपूर्ण हे । हमने कभी इस बातको छिपाया नही है । यह कठिन हों सकता है और है भी; पर यह साधनाका ठीक सिद्धांत भी है । चूँकि यह कठिन है इसलिये इसे नियमित और धैर्यपूर्वक तबतक करते रहना होगा जबतक कि काम पूरा नहीं हो जाता ।
तुम्हें प्राणिक मिश्रणको, जब कभी वह दिखायी देता है, त्यागते रहना होगा । यदि तुम सतत उसका त्याग करते रहो तो वह अधिकाधिक अपनी शक्तिको खोता जायगा और विलीन हो जायगा ।
इसका तात्पर्य है कि अभीतक पुरानी क्रिया हठपूर्वक पर असंगत रूपसे तथा यत्रवत् बनी हुई है । वास्तवमें इसी ढगसे ये चीजे बनी रहनेका प्रयत्न करती हैं । परन्तु यह जानेके लिये बाध्य है यदि तुम इसे ताजा जीवन न प्रदान करो ।
मुझे इसमे कोई सन्देह नही - तुम्हें बस इस बातको सही रूपमे समझना होगा और फिर तुम तुरत समुचित स्थानपर पहुँच सकते हो ।
अधिकांश साधकोंमें इसी तरहके विचार हैं -- अथवा कभी-न-कभी थे । वे प्राणिक अहंसे उठते हैं जो या तो भगवानको नही चाहता अथवा. उन्हें अपनी निजी उद्देश्यसे चाहता है और स्वयं भगवानके उद्देश्यसे नही चाहता । जब बदलनेके लिये
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उसपर दबाव डाला जाता है अथवा जब उसकी कामनाएं पूरी नही की जाती तो वह आग-बबूला हों उठता है - यही इन सब चीजोंके मूलमें है । यही कारण कि इस योगमें हम समर्पणपर अधिक बल देते हैं - क्योंकि एकमात्र समर्पणके द्वारा (विशेष- कर प्राणिक अहंके समर्पणद्वारा) ही ये चीजे जा सकती हैं --- भगवानके लिये भगवानको स्वीकार करना चाहिये और किसी दूसरे उद्देश्यसे नही और भगवानके तरीके- से स्वीकार करना चाहिये और अपने निजी तरीकेसे अथवा अपनी निजी शर्त्तोपर नही ।
अब जो तुमने अनुभव करना आरम्भ किया है वह है हृत्युसषद्वारा प्रभावित तुम्हारे भौतिक (शारीर) स्तरका आत्मसमर्पण ।
तुम्हारे सभी अंग मूलतः समर्पित हों चुके हैं, परन्तु उन सभी अंगोंको और उनकी सभी क्रियाओंमें, पृथक्-पृथक् और सयुक्त रूपमें, हृत्युरुषोचित आत्मदानकी भावना- को धीरे-धीरे बढ़कर इस समर्पणको पूर्ण बनाना होगा ।
भगवानके द्वारा उपमुक्त होनेका अर्थ है पूर्ण रूपसे समर्पित हों जाना, जिसके फलस्वरूप साधक यह अनुभव करता है कि भागवत उपस्थिति, शक्ति, ज्योति, आनन्द- ने उसकी सारी सत्ताको अधिकृत कर रखा है, स्वयं उसने इन सब चीजोंको अपनी तृप्तिके लिये अधिकृत नही किया है । स्वयं अधिकार करनेकी अपेक्षा इस प्रकार समर्पित और भगवानके द्वारा अधिकृत होनेमें बहुत अधिक आनन्द मिलता है । साथ- ही-साथ इस समर्पणके फलस्वरूप अपनी सत्ता और प्रकृतिके ऊपर एक प्रकारका शांत और आनन्दप्रद प्रभुत्व भी प्राप्त होता है ।
मैंने कहा है कि यदि किसीके मन और हृदयमें समर्पण तथा एकत्वका तत्व विद्यमान है तो फिर इसे शरीर तथा अवचेतनाके अधिक अन्धकारपूर्ण भागोतक प्रसारित करनेमें कोई कठिनाई नहीं है । चूँकि तुम्हारे अन्दर यह केंद्रीय समर्पण-भाव और एकत्व है, तुम इसे आसानीसे सर्वत्र पूर्ण बना सकते हो । इसके लिये जो कुछ आवश्यक है वह है पूर्ण चेतना प्राप्त करनेके लिये स्थिर-भावसे अभीप्सा करना । तब अन्य भागोंकी तरह जड़-भौतिक और अवचेतन भागोंमें भी ज्योति प्रविष्ट हों जायगी और फिर वहां स्थिरता, विशालता तथा सभी प्रतिक्रियाओंसे मुक्त सुसमंजसता आ जायंगी जो अन्तिम परिवर्तनका आधार होगी
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एक ऐसी अवस्था है जिसमें साधक अपने अन्दर काम करनेवाली भागवत शक्ति या कम-से-कम उसके परिणामोंके विषयमें सज्ञान होता है और अपनी निजी मानसिक क्रियाओं ,प्राणिक चंचलता या भौतिक अन्धता और तामसिकताके द्वारा शक्तिके अव- तरणमें अथवा उसके कार्यमें बाधा नहीं डालता । इसे हीं कहते हैं भगवानके प्रति उद्घाटन । उद्घाटनका सर्वोत्तम पथ हे समर्पण; परन्तु जबतक समर्पणभाव नहीं है तबतक अभीप्सा और अचचलता इसे एक खास हदतक कर सकते हैं । समर्पणका अर्थ है अपने अन्दरकी प्रत्येक चीजको भगवानके हाथोंमें अर्पित कर देना, जो कुछ हम हैं और हमारे पास है सब कुछ उत्सर्ग कर देना, अपने ही विचारों, कामनाओं, अभ्यासों आदिपर आग्रह न करना, बल्कि दिव्य सत्यको ऐसा अवसर देना कि बह उनके स्थानमें अपने ज्ञान, संकल्प और कर्मको सर्वत्र स्थापित कर दे ।
उद्घाटन एक ऐसी चीज है जो संकल्प और अभीप्साकी सच्चाईके द्वारा अपने- आप घटित होती है । इसका अर्थ है उन उच्चतर शक्तियोंको ग्रहण करनेमें समर्थ होना जो श्रीमाताजीसे आती हैं ।
आत्मोद्घाटनका उद्देश्य है भगवान्की शक्तिको अपने अन्दर प्रवाहित होने देना, उसे ज्योति, शान्ति, आनन्द आदि लें आने देना तथा रूपांतरका कार्य करने देना । जब ब्यक्तिकी सत्ता इस प्रकार भागवत शक्तिको ग्रहण करती हैं और वह शक्ति उसके अन्दर कार्य करती है, अपने परिणाम उत्पन्न करती है ( चाहे वह व्यक्ति उसकी प्रक्रिया- से पूर्णतः सज्ञान हों या न हो), तो कहा जाता है कि वह व्यक्ति उद्घाटित है ।
ये मनके कार्य हैं, उद्घाटन चेतनाकी एक 'अवस्था' है जो उसे श्रीमाताजीकी ओर मोडे रखती है और तब केतना अन्य गतिविधियोंसे मुक्त होकर जो कुछ भगवान्- से आवे उसकी प्रतीक्षा करती और उसे ग्रहण करनेमें समर्थ होती है ।
सच पूछो तो श्रीमाताजीपर विश्वास रखनेपर आवश्यक उद्घाटन उस समय होगा जब तुम्हारी चेतना तैयार हो जायगी ।
सच पूछो तो एकमात्र ध्यानके द्वारा वह चीज नहीं आयेगी जो कि आवश्यक
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है । वह श्रीमाताजीके प्रति श्रद्धा और उद्घाटन होनेपर आयेगी ।
श्रीमाँकी ओर अपनेको खोले रखो, उन्हें सर्वदा स्मरण करो और उनकी शक्ति- को अपने अन्दर कार्य करने दो, अन्य सभी प्रभावोंका त्याग करो -- यही योगका नियम है ।
योगाभ्यासमें तुम्हारे लक्ष्यकी प्राप्ति केवल तभी होगी जब तुम अपनी सत्ताको श्रीमाँकी शक्तिकी ओर खोलोगे और लगातार समस्त अहंकार और मांग और कामना- का, भागवत सत्यको प्राप्त करनेकी अभीप्साके अतिरिक्त अन्य सभी उद्देश्योंका त्याग कर दोगे । यदि ऐसा ठीक-ठीक किया जाय तो भागवत शक्ति और ज्योति काम करना आरम्भ कर देंगी और तुम्हारे अन्दर शान्ति और समता, आंतरिक बल-वीर्य, विशुद्ध भक्ति तथा क्रमवर्द्धमान चेतना और आत्मज्ञान ले आयेंगी जो कि योगकी सिद्धिके लिये आवश्यक आधार हैं ।
इस योगका सारा सिद्धांत ही है भागवत प्रभावकी, ओर अपने-आपको उद्- घाटित करना । यह प्रभाव तुम्हारे सिरके ऊपर हीं वर्तमान है, यदि तुम एक बार इसके विषयमें सचेतन हो सको तो फिर तुम्हें इसका आवाहन कर अपने अन्दर इसे उतारमा होगा । वह मनके अन्दर ओर शरीरके अन्दर अवतरित होता है शान्तिके रूपमें, ज्योतिके रूपमें, कार्य करनेवाली एकशक्तिके रूपमें, भगवान्की साकार या निराकार उपस्थितिके रूपमें, आनन्दके रूपमें । जबतक यह चेतना नही प्राप्त होती तबतक साधकको श्रद्धा-विश्वास बनाये रखना होगा और आत्मोद्घाटनके लिये अभीप्सा करनी होगी । अभीप्सा, आवाहन और प्रार्थना एक हीं चीजके भिन्न-भिन्न रूप हैं और ये सभी फलदायक हैं, इनमेंसे जो भी रूप तुम्हारे पास आये या तुम्हारे लिये सबसे अधिक आसान हो उसीको तुम अपना सकते हों । दूसरा मार्ग है एकाग्रता- का, तुम अपनी चेतनाको हदयमें एकाग्र करो (कोई-कोई सिरमें या सिरके ऊपुर करते हैं) और हदयमें श्रीमॉका ध्यान करो और वहां उनका आवाहन करो । इनमें- से किसी एक मार्गका अथवा भिन्न-भिन्न समयोंपर दोनों मार्गोंका अनुसरण किया जा सकता हे - जिस समय जो मार्ग स्वभावत: तुम्हारे सामने आ आय अथवा जिसकी ओर तुम्हारी प्रवृत्ति हों जाय । पर, विशेषकर आरम्भमें, सबसे अधिक आवश्यक बात यह है कि अपने मनको अचंचल बनाया जाय, ध्यानके समय उन सभी विचारों
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और वृत्तियोंका त्याग किया जाय जो साधनाके लिये विजातीय हों । अचंचल मनमें ही अनुभूतिके आनेके लिये क्रमश: तैयारी होती जायगी । परन्तु सब कुछ यदि एक साथ ही न हों तो तुम्हें अधीर नहीं होना चाहिये, मनके अन्दर पूणे अचंचलता स्थापित करनेमे समय लगता है; जबतक चेतना तैयार न हों जाय तबतक तुम्हें अपने प्रयासमें लगे रहना चाहिये ।
इस योगमें सब कुछ इस बातपर निर्भर करता है कि साधक भागवत प्रभावकी ओर अपने-आपको उन्मुक्त कर पाता है या नही । अगर अभीप्सा सच्ची हों, और सभी बाधाओंके रहते हुए भी उच्चतर चेतनामें उठ जानेका धीर-स्थिर संकल्प हों तो किसी-न-किसी रूपमें यह उन्मुक्ति (आत्मोद्घाटन) साधकमें अवश्य आती है । पर मन, हृदय और शरीरके तैयार होने या न होनेकी अवस्थाके अनुसार इसके आनेमें कम या अधिक समय लग सकता है; अतएव साधकमें यदि पर्याप्त धैर्य न हों तो आरम्भ- मे आनेवाली कठिनाइयोंके कारण वह अपना प्रयास छोड़ सकता है । इस योगमें इसके अतिरिक्त और कोई पद्धति नहीं है कि साधक अपनी चेतनाकोएकाग्र करे, विशेष- कर हृदयमें एका करे और श्रीमांकि उपस्थिति और शक्तिकाआवाहन इसलिये करे कि वह उसकी सत्ताको अपने हाथमें लें लें और अपनी शक्तिकी क्रियाओंके द्वारा उसकी चेतनाको रूपांतरित करें । कोई चाहे तो अपने मस्तकमें या मृकुटिके बीच भी चेतनाको एकाग्र कर सकता है, परन्तु अधिकांश लोगोंके लिये इस तरह आत्मोद्- घाटन करना अत्यन्त कठिन होता है । जब मन शान्त-स्थिर हों जाता हे ओर एकाग्रता दृढ तथा अभीप्सा तीव्र हो जाती है तब अनुभूतिका होना आरम्भ हों जाता है । श्रद्धा- विश्वास जितना ही अधिक होता है उतनी ही शीघ्रतासे परिणाम भी प्राप्त होनेकी संभावना हों जाती है । शेष चीजोंके लिये साधकको केवल अपने हीं प्रयासपर नही निर्भर करना चाहिये, बल्कि भगवानके साथ एक संपर्क स्थापित करने तथा श्रमों- की शक्ति और उपस्थितिको ग्रहण करनेकी शक्ति प्राप्त करनेमें सफल होना चाहिये ।
तुम्हारा मन और चैत्य पुरुष आध्यात्मिक लक्ष्यपर एकाग्र है और भगवान्- की ओर खुले हैं -- यही कारण है कि दिव्य प्रभाव केवल मस्तक और हृदयतक नीचे आता है । परन्तु प्राण-पुरुष और प्रकृति और भौतिक चेतना निम्रतर प्रकृतिके प्रभाव- के अधीन हैं । जबतक प्राण और शरीर समर्पित नही हो जाते या स्वयं अपने-आप उच्चतर जीवनकी मांग नही करते, इस संघर्षके चलते रहनेकी सम्भावना है ।
प्रत्येक वस्तुको समर्पित कर दो, दूसरी सभी कामनाओं या हितोंका परित्याग कर दो, अपनी प्राण-प्रकृतिको खोलनेके लिये तथा अचंचलता, शान्ति, ज्योति और
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आनन्दको सभी केंद्रोंमें नीचे उतार लानेके लिये भगवती शक्तिका आवाहन करो । अभीप्सा करो और श्रद्धा तथा धैर्यके साथ परिणामकी प्रतीक्षा करो । पूर्ण सच्चाई तथा सर्वांगपूर्ण आत्मनिवेदन और अभीप्सापर ही सब कुछ निर्भर करता है ।
जबतक तुम्हारा कोई भी अंश जगतके अधिकारमें रहेगा तबतक जगत् तुम्हें सतायेगा । केवल उसी समय तुम जगतसे मुक्त हो सकते हो जब कि तुम पूर्ण रूपसे भगवानके हों जाओ ।
उद्घाटन सबके लिये एक जैसा ही होता है । इसका प्रारम्भ मन और हदयके उद्घाटनके साथ होता है, फिर मुख्य प्राणका उद्घाटन होता है -- जब यह उद्- घाटन निम्रतर प्राण और भौतिक स्तरतक पहुँचता है तो वह पूर्ण हो जाता है । परंतु उद्घाटनके साथ-साथ ऊपरसे आनेवाली वस्तुके प्रति पूर्ण आत्मदान भी अवश्य होना चाहिये; यही पूर्ण परिवर्तनकी शर्त्त हे । सच पूछा जाय तो अन्तिम अवस्था ही वास्तव- मे कठिन होती है और वहींपर सब लोग, जबतक विजयी नही हो जाते, ठोकरें खाते है !
सर्वदा भगवती शक्तिके साथ संपर्क बनाये रखो । तुम्हारे लिये बस इतना ही करना और भगवती शक्तिको अपना कार्य करने देना सबसे उत्तम बात है; जहां कही भी आवश्यक होगा वह निम्र शक्तियोंको अपने अधिकारमें ले लेगी और उन्हें शुद्ध कर देगी; अन्य समयोंमें वह उन सबको तुम्हारे अन्दरसे बाहर निकाल देगी और स्वयं तुम्हारे अन्दर भर जायगी । परन्तु तुम यदि अपने मनको हीं पथप्रदर्शन करने दोगे, तर्क-वितर्क करने और निर्णय करने दोगे कि क्या करना चाहिये तो भागवत शक्तिके साथ अपना संपर्क खो दोगे और निम्रतर शक्तियां अपने तई काम करना आरम्भ कर देंगी और सब कुछ अस्तव्यस्त हों जायगा तथा गलत क्रिया बन जायगा ।
1 अपने-आपको अधिकाधिक उत्सर्ग करो -- अपनी समस्त चेतनाको और जो कुछ उसमें घटित होता है उस सबको, अपने सभी कर्मो और क्रिओंको ।
2. यदि तुममें दोष और दुर्बलताएं हैं तो उन्हें परिवर्त्तित करने या विनष्ट कर देनेके लिये भगवानके सम्मुख रखो ।
3. मैनई जो कुछ तुमसे कहा था उसे करनेका प्रयास करो, हृदयमें एकाग्र होने- का अभ्यास करो जबतक कि वहां निरन्तर भगवान्की उपस्थितिका अनुभव न
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करने लगो ।
उद्घाटन और, जब कभी आवश्यक हों, निष्क्रियता होनी चाहिये, पर उच्चतम चेतनाके प्रति होनी चाहिये, जो कुछ भी आवे उसके प्रति नहीं ।
अतएव निष्क्रियताकी स्थितिमें भी एक प्रकारकी शान्त सजगता बनी रहनी चाहिये । अन्यथा या तो अनुचित क्रियाएं होने लगेंगी या तामसिकता आ घेरेगी ।
संयमके त्याग करनेका अर्थ होगा प्राणको खुले रूपमें क्रीड़ा करने देना और उसका तात्पर्य होगा सब प्रकारकी शक्तियोंको अन्दर प्रवेश करनेका अवसर प्रदान करना । जबतक अधिमानससे लेकर एकदम नीचेतक समस्त सत्तामें, प्रत्येक वस्तु- पर अतिमानसिक चेतनाका अधिकार नही हों जाता और वह सबके अन्दर प्रविष्ट नहीं हो जाती तबतक शक्तियोंकी एक अस्पष्ट क्रीड़ा चलती रहती है, और प्रत्येक शक्ति, अपने मूलमें वह चाहे जितना भी दिव्य, हों, ज्योतिकी शक्तियोंके द्वारा व्यव- हत हों सकती है अथवा, जब वह मन और प्राणके भीतरसे गुजरती है तब, अन्धकार- की शक्तियोंके द्वारा अवरुद्ध हो सकती है । सजगता, विवेक और संयमका तबतक परित्याग नहीं किया जा सकता जबतक कि पूर्ण विजय नहीं प्राप्त हों जाती और चेतना रूपांतरित नहीं हो जाती ।
हां, सजगतामें ढिलाई नहीं होनी चाहिये । यथार्थमें, जब सत्तामें स्वत: चालित ज्ञान और कर्म: स्थापित हो जाते हैं केवल तभी सतत सजगताकी आवश्यकता समाप्त होती है -- पर उस स्थितिमें भी उसका संपूर्ण रूपसे त्याग नही किया जा सकता जबतक कि पूर्ण ज्योति नहीं आ जाती ।
साधकके लिये तीन प्रधान संभावनाएं हैं - ( 1) भगवत्कृपाकी प्रतीक्षा करना और भगवानपर निर्भर करना । ( 2) अद्वैतवादियों और बौद्ध लोगोंकी तरह सब कुछ अपने-आप करना । ( 3) मध्यमार्गका अनुसरण करना, दिव्य शक्तिकी सहायता प्राप्त कर अभीप्सा और परित्याग आदि क्यिाओंके द्वारा आगे बढ़ते रहना ।
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प्रत्येक मन चरम दिव्य सत्यको पानेका अपना निजी पथ ग्रहण कर सकता है और वहां प्रत्येकके लिये एक प्रवेश-द्वार है तथा यहांतक जानेकी यात्राके लिये हजार मार्ग हैं । भगवत्कृपामें विश्वास करनेकी अथवा अपने उच्चतम आत्मासे भिन्न किसी परम देवको स्वीकार करनेकी कोई आवश्यकता नही-ऐसे योगमार्ग भी हैं जो इन चीजोंको नही स्वीकार करते । फिर, बहुतोके लिये किसी योगशैलीकी आवश्यकता नही होती - दे मन या हृदय या संकल्पके एक प्रकारके दवावके द्वारा मन या हृदय आदि तथा जो कुछ ठीक उसके परे है और उसका अ स्रोत है उसके बीचके पर्देको फाड़कर किसी सिद्धिको प्राप्त कर लेते हैं । पर्देके फटनेके बाद क्या घटित होता है यह साधक- की चेतनापर होनेवाली दिव्य सत्यकी क्रीडापर तथा साधककी प्रकृतिके झुकावपर निर्भर करता है । इसलिये ऐसा माननेका कोई कारण नहीं कि 'अ' को अपने स्व- रूपका साक्षात्कार उनके भीतरसे होनेवाले विकासके द्वारा अपने निजी तरीकेसे नहीं हुआ होगा, अगर उनका मन इस वर्णनपर आपत्ति करता है तो कह सकते हैं कि वह भागवत कृपासे नहीं हुआ होगा, पर, इतना कहा जा सकता है कि, उनके अन्तरस्थ आत्माकी सहज-स्वाभाविक कियाके द्वारा हुआ होगा ।
कारण, इस ' 'कृपाशक्ति' ' का जहांतक प्रश्न है, हम इसका वर्णन इसी ढंगसे करते हैं, क्योंकि हम अनन्त आत्मा या स्वयंभू सत्ताके अन्दर एक ऐसी उपस्थिति था एक सत्ता, एक चेतनाका अनुभव करते हैं जो निर्णय करती है,--यही वह सत्ता है जिसकी चर्चा हम भगवान् कहकर करते हैं,--यह कोई पृथक् पुरुष नहीं है, बल्कि वह एकमेव पुरुष है जिसका हमारा व्यक्तिगत आत्मा एक अंश या एक पात्र है । पर सबके लिये इसी रूपमें इसे मानना आवश्यक नही है । मान लें कि यह केवल सबका निर्व्यक्तिक आत्मा है, फिर भी इस आत्मा और इसके साक्षात्कारके विषयमें उपनिषद कहती है ' 'यह ज्ञान तर्क-बुद्धिद्वारा या तपस्याद्वारा या अत्यधिक विद्वत्ताद्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता, बल्कि जिन लोगोंको यह आत्मा चुनता है, उन लोंगोंके सामने वह अपने शरीरको प्रकट करता है । '' हां, यह वही चीज है जिसे हम भागवत कृपाके नामसे पुकारते हैं,-यह ऊपरसे या अन्दरसे होनेवाली एक क्रिया है जो मानसिक कारणोंसे स्वतन्त्र है और जो स्वयं अपनी गतिका निर्णय करती है । हम इसे भागवत कृपा कह सकते हैं; हम इसे अन्तरस्थ आत्मा कह सकते हैं जो उपरितलपर मनोमय यंत्रिके सम्मुख अभिव्यक्त होनेके लिये अपने समय और पद्धतिका चुनाव करता है; हम इसे आन्तर पुरुष या आन्तर प्रकृतिका आत्मसाक्षात्कार और ?त्मज्ञानमें प्रस्कु- टन कह सकते हैं । जिस प्रकार हमारे अन्दरकी कोई चीज इसकी ओर जाती है या यह स्वयं हमारे सामने प्रकट होता है उसी रूपमें मन इसे देखता है । परन्तु वास्तवमें यह वही एक वस्तु तथा प्रकृतिके अन्दर विद्यमान पुरुषकी वही एक पद्धति होता है ।
मैं भागवत कृपाके विषयमें कुछ कहना चाहूँगा - क्योंकि तुम ऐसा समझते
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प्रतीत होते हों कि उसे भागवत बुद्धिकी जैसी कोई चीज होनी चाहिये जो ऐसी पद्धइतयोंसे कार्य करती है जो मानव-बुद्धिकी पद्धतियोंसे बहुत भिन्न नही होती । परन्तु बात ऐसी नहीं हुए । फिर यह वैश्व भागवत करुणा भी नही है जो उन सबपर निष्पक्ष- भावसे कार्य करती है जो उसके पास आते हैं और सब प्रकारकी प्रार्थनाओंको स्वीकार करती है । यह न तो पुण्यात्माओंका वरण करती है और न पापियोंका परित्याग करती है । भागवत कृपा अत्याचारी। तारससके सोल।को सहायता करने आयी, दुश्चरित्र संत ऑगर्स्टीनके पास आयो, लोगनिन्दित जगाई-मधाईके पास, ' बिल्वमंगलके पास आयी और ऐसे बहुतसे लोगोंके पार्स आयी जिनके परिवर्तनने मान- वीय नैतिक बुद्धिकी शुचितावादको अच्छी तरह आघात पहुँचाया होगा; परन्तु वह पुण्यात्माओंके पास भी आयी - उसने उनको उनके धर्माभिमानसे मुक्त किया और वह उन्हें इन चीजोंसे परे एक शुद्धतर चेतनामें ले गयी । यह एक ऐसी शक्ति है जो किसी भी विधानसे, यहांतक कि वैश्व विधानसे भी श्रेष्ठ है - सभी आध्यात्मिक द्रष्टाओंने 'विधान' और 'कृपा' के बीच विभेद किया है । फिर भी यह विवेकशून्य नहीं है - केवल इसका अपना निजी विवेक है जो वस्तुओं, व्यक्तियों और समुचित समयों तथा अनुकूल अवसरोंको मनकी दृष्टि या किसी दूसरी सामान्य शक्तिकी दृष्टि- से भिन्न दृष्टिसे देखता है । व्यक्तिके अन्दर कृपाके आनेकी अवस्थाकी तैयारी बहुधा धने पर्देके पीछे ऐसे उपायोंसे होती है जिन्हें मनद्वारा नहीं समझा जा सकता और जब कृपाके आनेकी अवस्था आती है तो फिर कृपा अपने-आप कार्य करती है । ये तीन प्रकारकी शक्तियां हैं: ( 1) वैश्व विधान, कर्मका विधान या और कुछ; ( 2) भागवत करुणा जो विधानके जालके भीतरसे जितने लोगोंतक पहुँच पाती है उतने लोगोंपर कार्य करती है और उन्हें उनका सुअवसर प्रदान करती है; ( 3) भागवत कृपा जो अधिक हिसाब किये बिना कार्य करती है पर साथ ही दूसरोंकी अपेक्षा अधिक अदम्य रूपसे कार्य करती है । बस, प्रश्न यह हे कि क्या जीवनकी समस्त असंगतियोंके पीछे कोई ऐसी चीज है जो पुकारका प्रत्युत्तर दे सके और चाहे जितनी कठिनाईके साथ क्यों न हों, अपनेको तबतक खोले रख सके जबतक कि वह भागवत कृपाकी ज्योतिके लिये तैयार न हो जाय -- और वह 'कोई चीज कोई मानसिक और प्राणिक क्रिया नही होनी चाहिये बल्कि कोई आंतरिक 'कोई चिक होनी चाहिये जो आंतरिक आंख- के द्वारा अच्छी तरह देखी जा सके । यदि वह चीज है और जब वह सम्मुख भागमें क्रियाशील होती है, तो 'करुणा' कार्य कर सकती है, यद्यपि 'कृपा' की पूर्ण क्रिया तब भी प्रतीक्षा कर सकती और सुनिश्चित निर्णय या परिवर्तनका अनुगमन कर सकती है; क्योंकि यह किसी भावी कालके लिये स्थगित हों सकती है, क्योंकि सत्ताका कोई अंश या तत्त्व अभी भी आड़ आता हों, कोई ऐसी चीज हो जो अभी ग्रहण करनेके लिये प्रस्तुत न हो ।
परन्तु 'किसी भी चीजको', किसी भी विचार, किसी भी घटनाको अपने और भगवानके बीच बाधक क्यों बनने दिया जाय? जब तुम्हारे अन्दर पूरी अभीप्सा और प्रसन्नता है तो फिर भगवान् और अपनी अभीप्साके सिवा किसी चीजका विचार
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नहीं होना चाहिये, किसी चीजको महत्त्व नही देना चाहिये । यदि कोई भगवानको शीघ्रतासे, अखण्ड रूपमें, संपूर्ण रूपमें पाना चाहता हो तो उसका मनोभाव यही होना चाहिये, वही चरम, संपूर्ण-तल्लीनकारी विषय होना चाहिये, उसे ही ऐसा एकमात्र विषय बना देना चाहिये जिसमें दूसरी किसी चीजको हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये ।
भला भगवान्सम्बन्धी मानसिक विचारोंका, उन्हें क्या होना चाहिये, उन्हें कैसे कार्य करना चाहिये, उन्हें कैसे कार्य नहीं करना चाहिये आदि सम्बन्धित विचारों- का क्या मूल्य है-वे केवल रास्तेकी बाधाएं ही हों सकते हैं । एकमात्र भगवानका हीं महत्त्व है । जब तुम्हारी चेतना भगवानका आलिंगन करेगी तब तुम जान सकते हों कि भगवान् क्या हैं, उससे पहले नही । कृष्ण कृष्ण हैं, हम इस बातकी परवाह नहीं करते कि उन्होंने क्या किया या नहीं किया; एकमात्र उन्हें देखना, उनसे ? उनकी ज्योतिका, उपस्थितिका, प्रेमका और आनन्दका अनुभव करना ही महत्त्वपूर्ण बात है । ऐसा ही बराबर आध्यात्मिक अभीप्साके प्रसंगमें होता है -- यही आध्यात्मिक जीवन- का अ सिद्धांत है ।
'' भगवानका सामान्य कार्य है वस्तुओंके यथार्थ विधानके अन्दर निरन्तर हस्त- क्षेप करते रहना' ' -यह हों सकता या नहीं भी हों सकता पर हम सामान्यतया इसे भागवत कृपा नहीं कहते । भागवत कृपा कोई ऐसी चीज है जिसे मनसे नहीं समझा जा सकता, किसी ऐसी चीजसे बद्ध नहीं है जिसे बुद्धि शर्त्तके रूपमें स्थापित कर सके,- यद्यपि साधारणतया चैत्य पुरुषकी कोई पुकार, अभीप्सा, तीव्रता उसे जगा सकती है, फिर भी कभी-कभी उस पुकारके बिना भी किसी बाह्य कारणसे वह कार्य करती है ।
यह आवश्यक नहीं कि कृपा ऐसे ढंगसे कार्य करे जिसे मानव-मन समझ सके, वह साधारण तौरपर वैसा नहीं करती । वह अपने निजी ' 'रहस्यपूर्ण' ' ढंगसे कार्य करती है । सर्वप्रथम सामान्यतया वह पर्देके पीछेसे कार्य करती है, वस्तुओंको तैयार करती है, पर अपनेको प्रकट नही करती । फिर पीछे वह प्रकट हों सकती है, पर साधक यह अच्छी तरह नहीं समझता कि क्या हो रहा है; अन्तमें, जब वह समझने योग्य हो जाता है, वह अनुभव भी करता है और समझता भी है अथवा कम-से-कम वैसा करना आरम्भ करता है । कुछ लोग एकदम आरम्भसे ही या बहुत शीघ्र अनुभव करने और समझने लगते हैं; परन्तु यह सामान्य स्थिति नही है ।n
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मैं सामर्थ्य और कृपाके विषयमें जो कुछ कहता हूँ उसमें नहीं समझने लायक कुछ नहीं है । आध्यात्मिक अनुभूतिके लिये सामर्थ्यका भी एक मूल्य है, पर यह कहना कि केवल सामर्थ्यसे ही, अन्य किसी उपायसे नहीं, यह सिद्ध हो सकता है - यह घोर अतिरंजन है । कृपा कोई मनगढ़ंत कथा नहीं है, यह आध्यात्मिक अनुभवका एक तथ्य है । बहुतसे लोगोंने, जिन्हें विज्ञ और शक्तिशाली लोग महज 'नाचीज' समझेंगे, कृपाद्वारा सिद्धि पायी है; निरक्षर, मानसिक शक्ति या शिक्षणसे रहित, चरित्र या संकल्पकी ' 'शक्ति' ' से शून्य वे थे, फिर भी उन्होंने अभीप्सा की और अचानक अथवा शीर अतासे आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त कर ली, क्योंकि उनमें श्रद्धा थी अथवा क्योंकि वे सच्चे थे । मैं नहीं समझता कि जो तथ्य आध्यात्मिक इतिहासके यथार्थ तथ्य हैं और बिलकुल साधारण आध्यात्मिक अनुभवके तथ्य हैं उनके विषयमें वाद-विवाद क्यों किया जाय और उन्हें अस्वीकार क्यों किया जाय और इस प्रकार उनके विषयमें बहस क्यों की जाय मानो बे महज कल्पनाकी वस्तुएं हों?
सामर्थ्य, यदि वह आध्यात्मिक हो तो, आध्यात्मिक सिद्धि ले आनेवाली एक शक्ति है; उससे भी महत्तर शक्ति है सच्चाई; सबसे महत्तम शक्ति है कृपा । मैंने अनगिनत बार कहा है कि यदि मनुष्य सच्चा हों, बहुत विलंब होने और अत्यधिक कठिनाइयां होनेपर भी, वह अन्ततक पहुँच जायगा । मैंने बार-बार भागवत कृपाकी बात कही है । मैंने कितनी ही बार गीताकी इस पंक्तिका हवाला दिया है -- ' 'अह त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्ष्ययिस्यामि मा शोच:-मैं तुम्हें समस्त पाप और बुराईसे मुक्त कर दूँगा, शोकमतकर ।
यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका कोई स्पष्ट उत्तर नही दिया जा सकता, क्योंकि, इसके दो पक्ष हैं और उनमेंसे दोनों सत्य हैं । भगवत्कृपाके बिना कुछ भी नही किया जा सकता, परन्तु पूर्ण भग छपाके प्रकट होनेके लिये साधकको स्वयं तैयारी करनी होगी । यदि सब कुछ भगवानके हस्तक्षेपपर निर्भर है तो फिर मनुष्य केवल एक कठ- पुतली है और साधनाका कोई उपयोग नहीं, और फिर न तो कोई शर्त्त है न कोई वस्तु- ओंका विधान-अतएव कोई विश्व नहीं है, बस हैं केवल भगवान् जो अपनी मर्जीके मुताबिक चीजोंको लुढ़काते रहते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि अन्तिम रूपसे यह कहा जा सकता है कि सब कुछ भागवत वैश्व कार्य है, पर यह होता हे व्यक्तियोंके द्वारा, शक्तियोंके द्वारा - प्रकृति माताकी शत्तोंके अधीन । विशेष हस्तक्षेप हो सकता है और होता भी है, पर सब कुछ विशेष हस्तक्षेप ही नहीं हों सकता । जिस अनुभवका तुमने वर्णन किया है वह सम्भवतः प्राण-लोकका है और इतने अचानक रूपमें और सुस्पष्ट रूपमें अनुभवोंका होना प्राण-जगत्की ही विशेषता है - परन्तु वे स्थायी नहीं होते, वे केवल तैयार करते हैं । जब मनुष्य मन और प्राण और शरीरके परे जो कुछ है उसके साथ संपर्क स्थापित कर लेता है और वहां ऊपर उठ जाता है तभी सामान्य-
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तया महान् स्थायी मौलिक अनुभूतियां आती हैं !
योग एक प्रकारका प्रयास, एक तपस्या है - यह केवल तभी प्रयास या तपस्या नहीं होता जब मनुष्य सच्चे रूपमें किसी उच्चतर क्रियाके प्रति समर्पण कर देता है और समर्पण-भावको बनाये रखता और उसे पूर्ण बनाता है । यह सब प्रकारके विवेक- विचार और संगतिसे शून्य कोई कल्पना-संगीत नहीं है अथवा महज कोई चमत्कार नही है । इसके अपने नियम-कानून और शर्त्ते हैं और मैं नही समझता कि तुम भगवान्- से यह मांग कैसे कर सकते हों कि वह प्रत्येक चीज किसी तीव्र चमत्कारके द्वारा पूरा कर दें ।
मैंने कभी नहीं कहा है कि यह योग एक सुरक्षित योग है -- कोई योग ऐसा नहीं है । प्रत्येक योगके अपने-अपने खतरे हैं जैसे कि मानव-जीवनके प्रत्येक महान् प्रयासमें होते हैं । परन्तु उन्हें पार किया जा सकता है यदि मनुष्यमें केंद्रीय सच्चाई हो और भगवानके प्रति सत्यनिष्ठा हों । ये दो आवश्यक शर्तें हैं ।
तपस्याके बारेमें ब्रह्मानन्द जो कुछ कहते हैं बह, निस्सन्देह, सत्य है 1 यदि कोई श्रम और तपस्या करनेको, मन और प्राणको संयमित करनेको प्रस्तुत न हो तो वह बड़े आध्यात्मिक उपलब्धियोंकी मांग नहीं कर सकता -- क्योंकि मन और प्राण सर्वदा ही अपने निजी राज्यको अधिक दिन बनाये रखनेके लिये, अपनी रुचियों और अरुचियोंको लादनेके लिये तथा उस दिनको टालनेके लिये कौशल और बहाने ढूंढ निकालेंगे जब कि उन्हें अन्तरात्मा और आत्माका अनुगत यंत्र और खुली प्रणाली बनना होगा । कभी-कभी भगवत्कृपा ऐसे परिणाम उत्पन्न कर सकती है जिसके हम अधिकारी न हों अथवा ऊपरसे देखनेमें अधिकारी न हों, पर हम अपने स्वत्व और विशेषाधिकारके रूपमें कृपाकी मांग नहीं कर सकते - क्योंकि, तब तो वह कृपा ही नहीं होगी । जैसा कि तुमने देखा है, कोई यह मांग नहीं कर सकता कि उसे तो बस पुकारना है और उत्तर अवश्य आना चाहिये । इसके अलावा, मैनई बराबर हीं देखा है कि भगवत्कृपाके हस्तक्षेप करनेसे पहले वास्तवमें एक लम्बी अदृश्य तैयारी होती रहती है, और फिर, उसके हस्तक्षेप करनेके बाद भी, मनुष्यको जो कुछ प्राप्त हुआ है उसे बनाये रखने और विकसित करनेके लिये पर्याप्त मात्रामें कार्य करनेकी आवश्यकता होती है - जैसे कि अन्य सभी विषयोंमें मनुष्यको तबतक करना पड़ता है जबतक पूर्ण सिद्धि नहीं आ जाती । उसके बाद, निस्सन्देह, परिश्रम समाप्त हों जाता है और मनुष्य एक सुनिश्चित स्थितिमें आ जाता है । अतएव किसी-न-किसी तपस्यासे बचा नही जा सकता।
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काल्पनिक बाधाओंके विषयमें भी तुम्हारा कथन सही है...... । यही कारण है कि हम सर्वदा ही मानसिक निर्माणों ओर प्राणिक रचनाओंको कोई मूल्य नहीं देते -क्योंकि वे मोर्चाबन्दियां हैं जिन्हें मन और प्राण भगवानदुरा अधिकृत होनेसे बचने- के लिये तैयार करते हैं । परन्तु सबसे पहली चीज है इन सब चीजोंके विषयमें सचेतन होना जैसे कि अब तुम हों गये हो,- गूढू रहस्य है इन सबको मार गिरानेके लिये, और कोरी स्लेट बनाने, सच्चे निर्माणके लिये स्थिरता, शान्ति और सहर्ष उद्- घाटनका आधार बनानेके लिये दृढ बने रहना ।
सर्वोत्तम संभव उपाय है भागवत कृपाको अपने अन्दर कार्य करने देना, कभी उसका विरोध न करना, कभी उसके प्रति अकृतश न होना और उसके विरुद्ध न हों जाना -- बब्बिा दिव्य ज्योति, शान्ति, एकत्व और आनन्दके लक्ष्यतक सर्वदा उसका अनुसरण करते रहना ।
थोड़े लोग ही ऐसे होते हैं जिनसे कृपाशक्ति विमुख होती है, पर अनेक होते हैं ऐसे लोग जो कृपाशक्तिसे विमुख हों जाते हैं ।
किसी भी पद्धतिसे समर्पण करना अच्छा है, पर स्पष्ट ही निर्व्यक्तिक भगवान् पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि उनके प्रति किया हुआ समर्पण अपने परिणाममें बाह्य प्रकृति- का कोई रूपांतर किये बिना आंतरिक अनुभवतक ही सीमित हो सकता है ।
हां, निर्व्यक्तिक (अरूप) भगवानके प्रति किया हुआ समर्पण सत्ताके अंगोंको त्रिगुणों और अहंभावके अधीन छोड़ देगा - क्योंकि निराकारत्वके अन्दर निष्क्रिय अंग मुक्त हों जायंगे पर सक्रिय प्रकृति फिर भी त्रिगुणोंकी क्रीडाके अंदर बनी रहेगी । बहुतसे लोग ऐसा समझते हैं कि वे अहंसे मुक्त हो गये हैं क्योंकि वे आकाररहित सत्ता- का बोध प्राप्त करते हैं । वे यह नहीं देखते कि ठीक पहलेकी तरह ही उनके कर्ममें अहंकारमय तत्व ज्योंके त्यों बने रहते हैं ।
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तुम निर्व्यक्तिककी बात इस तरह कर रहे हो मानो वह कोई व्यक्ति ( पुरुष) हो । निर्व्यक्तिक 'स: ' ( वह) नहीं है, वह तो 'तत्' है । वह 'तत्' भला कैसे मार्ग दिखा सकता या सहायता कर सकता है? निर्व्यक्तिक ब्रह्म निष्क्रिय, पृथक्, उदासीन है, विश्वमें जो कुछ घटित होता है उसके साथ उसका कोई सरोकार नहीं होता । बुद्ध- का शाश्वत भी वही चीज है । उसमें जो कुछ भी निर्व्यक्तिक सत्य या ज्योति है, उसे तुम्हें पाना होगा, उसका उपयोग करना होगा, उसे लेकर तुम जो कुछ कर सको उसे तुम्हें करना होगा । वह स्वयं तुम्हारा पीछा करनेका कष्ट नही उठाता । यह बौद्ध लोगोंकी भावना है कि अपने लिये प्रत्येक चीज तुम्हें स्वयं करनी होगी ।
गुरुके प्रति समर्पणको सब समर्पणोंसे श्रेष्ठ समर्पण कहा गया है, क्योंकि उसके द्वारा तुम केवल निराकारको ही नही बल्कि साकारको, केवल अपने अन्दर विद्यमान भगवानको ही नही, बल्कि अपने बाहर विद्यमान भगवानको समर्पण. करते हों; उससे तुम्हें अपने आत्मामें पीछे हटकर ही नहीं जहां कि अहंभाव है ही नही, बल्कि अपनी व्यक्तिगत प्रकृतिमें भी जहां कि वह शासन करता है, अहंको अतिक्रम करनेका सुयोग प्राप्त होता है । वह समग्र भगवानके प्रति -- 'समग्र माम्... .मानुषी तनु आश्रितम्' -के प्रति पूर्ण समर्पण करनेके संकल्पका चिह्न है । निस्सन्देह, इन सब बातोंके सत्य होनेके लिये उसे यथार्थ आध्यात्मिक समर्पण होना चाहिये ।
गुरुको सब भावों -- परात्पर, निर्व्यक्तिक, सव्यक्तिक - मे स्वीकार करना चाहिये ।
गुरु योगका पथप्रदर्शक होता है । जब भगवानको पथप्रदर्शकके रूपमें स्वीकार किया जाता है तब उन्हें गुरुके रूपमें स्वीकार किया जाता है ।
गुरु-शिष्यका सम्बन्ध उन अनेक सम्बन्धोंमेंसे केवल एक सम्बन्ध है जिन्हें मनुष्य भगवानके साथ स्थापित कर सकता हे, और इस योगमें, जिसका लक्ष्य अतिमानसिक सिद्धि है, इसे यह नाम देनेका प्रचलन नहीं है; बल्कि यहां तो भगवानको दिव्य ज्योति, ज्ञान, चैतन्य तथा आध्यात्मिक सिद्धिका मूलस्रोत, जीवंत सूर्य माना जाता है, और
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जो कुछ मनुष्य प्राप्त करता है वह सब वहींसे आता हुआ तथा सारी सत्ता भागवत हाथोंद्वारा पुनर्गठित होती हुई अनुभूत होती है । यह मानव गुरु-शिष्यके सम्बन्धसे, जो कि अधिकांशमें एक सीमित मानसिक आदर्श है, कहीं अधिक महान् और अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है । फिर भी, यदि मनको अभी भी अधिक परिचित मानसिक भावना- की आवश्यकता हो तो इसे तबतक रखा जा सकता है जबतक इसकी आवश्यकता है; केवल अपने अन्तरात्माको इससे बंध मत जाने दो और इसे भगवानके साथके अन्य सम्बन्धों तथा अनुभवके विशालतर रूपोंके अतप्रवाहको सीमित मत करने दो।
अतिमानसिक योगमें गुरु शब्दका प्रयोग करनेकी प्रथा नही है, यहां सब कुछ स्वयं भगवानसे आता है । परन्तु कोई व्यक्ति इसे चाहता है तो वह फिलहाल इसका प्रयोग कर सकता हैं ।
नही, भगवानके प्रति समर्पण और गुरुके प्रति समर्पण एक ही चीज नहीं हैं । गुरुको समर्पण करनेपर मनुष्य गुरुके अन्दर विद्यमान भगवानको समर्पण करता है -- यदि वह केवल एक मानव-सत्ता ही हो तो वह समर्पण निष्फल होता है । परन्तु भागवत उपस्थितिकी जो चेतना होती है वही गुरुको सच्चा गुरु बनाती है, इसलिये यदि शिष्य उनके प्रति यह समझकर भी समर्पण करे ?? वह जिसे समर्पण कर रहा है वह एक मनुष्य है तो वह उपस्थिति उस समर्पणको फलदायी बना देगी ।
सभी सच्चे गुरु एक ही चीज हैं, एकमेव गुरु हैं, क्योंकि सभी एकमेव भगवान् हैं । यह एक मौलिक और व्यापक सत्य है । परन्तु एक विभेदका सत्य भी है; भग- वान् विभिन्न व्यक्तित्वोंमें विभिन्न मनों, शिक्षाओं, प्रभावोंके साथ निवास करते हैं जिसमें कि वह विभिन्न शिष्योंको उनकी विशेष आवश्यकता, स्वभाव, भवितव्यताके साथ विभिन्न पथोंसे सिद्धिकी ओर ले जायं । क्योंकि सभी गुरु एक ही भगवान् हैं इसलिये इससे यह तात्पर्य नहीं निकलता कि यदि शिष्य अपने लिये मनोनीत गुरुको छोड़कर दूसरेका अनुसरण करता है तो वह अच्छा करता है । भारतीय परंपराके अनुसार प्रत्येक शिष्यसे गुरुके प्रति अटूट निष्ठाकी मांग की जाती है । ' 'सभी एक हैं' ' यह एक आध्यात्मिक सत्य है, पर तुम इसे अन्धाधुंध कर्ममें परिवर्त्तित नहीं कर सकते; तुम सभी व्यक्तियोंके साथ एक ही ढंगसे बर्ताव नही कर सकते क्योंकि वे एक ही ब्रह्म हैं; यदि कोई ऐसा करे तो उसका परिणाम व्यावहारिक रूपसे भयानक अव्यवस्था होगी ।
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यह एक कठोर मानसिक तर्क है जो कठिनाई उत्पन्न करता है पर आध्यात्मिक विषयों- मैं मानसिक तर्क सहज हीं भूल कर बैठता हे, अंतर्ज्ञान, श्रद्धा-विश्वास, नमनीय आध्या- त्मिक बुद्धि ही यहां एकमात्र पथप्रदर्शक होते हैं ।
श्रद्धाका जहांतक प्रश्न हे, आध्यात्मिक अर्थमें श्रद्धा कोई मानसिक विश्वास नही है जो हिलडुल सकता और बदल सकता है । यह मनमें वह रूप ले सकतीं है, पर वह विश्वास स्वयं श्रद्धा नही है, वह तो उसका केवल बाहरी रूप है । ठीक जिस तरह शरीर, बाहरी आकृति तो बदल सकती है पर आत्मा ठीक वही बना रहता है, वैसी ही बात यहां भी है । श्रद्धा अन्तरात्मामें विद्यमान एक निश्चयता है जो तर्क-बुद्धिपर, किसी एक या दूसरी मानसिक भावनापर, परिस्थितियोंपर, मन या प्राण या शरीरकी किसी एक या दूसरी क्षणिक अवस्थापर निर्भर नही करती । यह आच्छादित, अन्ध- कारग्रस्त हों सकती है, यह निर्वापित भी प्रतीत हो सकतीं है, पर यह तूफान या ग्रहण- के बाद फिर दुबारा प्रकट होती है; जब मनुष्य यह सोच लेता है कि वह सदाके लिये बूझ चुकी है तब भी वह अन्तरात्मामें जलती हुई दिखायी देती है । मन शका-सन्देहों- का एक चंचल सागर हों सकता है और फिर भी वह श्रद्धा भीतर विद्यमान रह सकती है और, यदि ऐसा हो तो, वह सन्देह-ग्रस्त मनको भी रास्तेपर बनाये रखेगी, जिससे कि वह अपने बावजूद भी अपने पूर्वनिर्दिष्ट लक्ष्यकी ओर बढ़ता जाता है । श्रद्धा आध्यात्मिक, दिव्य, आन्तरात्मिक आशंके विषयमें एक प्रकारकी निश्चयता हे, एक ऐसी चीज है जो उस समय भी उससे चिपकी रहती है जब कि वह आदर्श जीवनमें चरितार्थ नही होता, जब कि निकटतम तथ्य या चिरस्थायी परिस्थितियां उसका खंडन करती हुई प्रतीत होती हैं । यह मानव-जीवनका एक सामान्य अनुभव है; यदि यह बात ऐसी न होती तो मनुष्य परिवर्तनशील मनका एक खिलौना या परिस्थितियोंका एक खेल होता ।
मुझे ऐसा नही लगता कि 'अ' के पत्र प्रचलित विचारों ओर साधारण प्रवृत्तिके एक संक्षिप्त रेखांकनके रूपमें प्रशंसनीय हैं, बल्कि मुझे जो बात इसमें प्रशंसनीय प्रतीत हुई वह यह थी कि उस (लेखक) मे इन विचारों और प्रवृत्तियोंमें इतने पूर्ण रूपमें पीछे हट आनेकी और ज्ञानके (उसके लिये) एक नये और स्थायी स्रोतसे देखनेकी उसमें एक शक्ति है । यदि वह इन प्रचलित मानव गतिविधियोंमें हीं दिलचस्पी रखता होता और उन्हींके संपर्कमें रहा होता तो मैं नही समझता कि उसने उन विषयोंमें रोमां रोलां या अन्य लोगोंसे कुछ अधिक अच्छा किया होता । परन्तु उसे उन विषयोंकी योग- दृष्टि, शीर्ष-दृष्टि प्राप्त है और उसने जिस सुगमताके साथ यह करनेमें समर्थ हुआ हैं उसने मुझे आकर्षित किया है ।
उसने जो इतनी दूरतक प्रगति की है उसकी व्याख्या मैं इस प्रकार करुंगा कि उसने संपूर्ण रूपसे योगके सामान्य अधिकारके अर्थमें अपनी निजी योग्यताके द्वारा
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इतनी प्रगति नही की है बल्कि जिस तीव्रता और पूर्णताके साथ उसने अपने अन्दर भक्त और शिष्यका मनोभाव ग्रहण किया है उसके द्वारा की है । यह आधुनिक मनके लिये, चाहे वह यूरोपियन हों अथवा 'शिक्षित' ' भारतीय, एक विरल उपलब्धि है । क्योंकि आधुनिक मन, जब वह अन्य प्रकारका होना चाहता है तब भी, विश्लेषणकारी, सन्देहयुक्त और नैसर्गिक रूपसे ' 'स्वतंत्र' ' होता है, यह अपने पास आनेवाली दिव्य ज्योति और दिव्य प्रभावसे पीछे हट जाता है और उसके सम्मुख हिचकिचाता है; वह उनके अन्दर सहज सरलताके साथ यह चिल्लाता हुआ कूद नहीं जाता कि ' 'यहां मैं हूँ, मैं जो कुछ था या प्रतीत होता था वह सब झाडू फेंकनेके लिये तैयार हूँ, यदि इस प्रकार मैं 'तेरे' अन्दर प्रवेश कर सकूं, तू अपने ढगसे, भगवानके ढंगसे मेरी चेतनाका दिव्य सत्यके अन्दर पुनर्गठन कर । '' हमारे अन्दर कोई ऐसी चीज हे जो इसके लिये तैयार हैं परन्तु वहां यह तत्त्व है जो हस्तक्षेप करता है और अग्रहणशीलताका पर्दा तैयार करता है, मैं स्वयं अपने सम्बन्धमे और दूसरोंके सम्बन्धमें अपने निजी अनुभव- से यह जानता हूँ कि कितने लबे कालतक यह एक पथ बना सकता है जो, संभवतः हम लोंगोंके लिये जो संपूर्ण सत्यकी खोज करते हैं, कभी भीछोटा और आसान नही हो सकता, पर फिर भी, हम बहुत बार इधर-उधर भटकनेसे, रुक जानेसे, पीछे हटनेसे तथा विपथ- गामी होनेसे बच जा सकते हैं । मैं तो सबसे अधिक इस बातकी प्रशंसा करता हूँ कि 'अ' ने इतनी आसानीसे इस दुर्जेय बाधाको जीत लिया है ।
मैं नहीं समझता कि उसके गुरु किसी दृष्टिसे न्यून पड़ते हैं, पर जिस मनोभावको उसने ग्रहण किया है, गुरुकी दुर्बलताओंसे, यदि कोई हों, कुछ आता-जाता नही । सच पूछा जाय तो गुरुकी मानवीय त्रुटियां रास्तेमें बाधक नही हों सकती यदि साधकमें चैत्य उद्घाटन, विश्वास-भरोसा और आत्मसमर्पणभाव हों । गुरु अपने व्यक्तित्व या अपनी सिद्धिकी मात्राके अनुरूप भगवान्की प्रणाली या प्रतिनिधि या अभिव्यक्ति होता है, पर वह चाहे जो कुछ हो, साधक जब उसकी ओर खुलता है तो वह भगवान्- की ओर ही खुलता है, और यदि कोई चीज प्रणालीकी शक्तिके द्वारा निर्दिष्ट होती है तो कहीं अधिक वह ग्रहणशील चेतनाके अंतर्निहित और सहज-स्वाभाविक मनो- भावके द्वारा निर्दिष्ट होती है -- वह चीज एक ऐसा तत्व होती है जो उपरितलीय मनमें सरल विश्वास या प्रत्यक्ष शर्त्तरहित आत्मदानके रूपमें प्रकट होता है, और एक बार जब यह तत्त्व वहां आ जाता है तो मौलिक वस्तुएं उस ब्यक्तिसे भी प्राप्त की जा सकती हैं जो शिष्यसे भिन्न दूसरे लोगोंको एक निम्र कोटिका आध्यात्मिक स्रोत प्रतीत होता है, और बाकी चीजे, यदि गुरुका मानव-रूप उन्हें न भी दे सके तो, अपने-आप भगवान्की कृपासे साधकके अन्दर विकसित डोंगी । ऐसा प्रतीत होता है कि ' अ' ने प्रारम्भसे ही शायद यह चीज कर ली है; परन्तु आजकल अधिकाश लोगोंमे यह मनो- भाव बहुत अधिक हिचकिचाहट और ?और संघर्षके बाद कठिनाईसे आता प्रतीत होता है । में अपनी ही बात लूं, मैं अपने आंतरिक जीवनकी ओर अपने पहले निर्णायक मोडके लिये एक ऐसे ब्यक्तिका ऋणी हूँ जो बुद्धि, शिक्षा और क्षमतामें मुझसे अनन्तत: निम्र कोटिके थे और किसी भी प्रकार आध्यात्मिक दृष्टिसे पूर्ण और श्रेष्ठ नही थे,
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परन्तु, जब मैंने उनके पीछे एक शक्ति देखी और सहायताके लिये उनकी ओर मुडने- का निर्णय किया तो मैंने संपूर्णत: अपनेको उनके हाथोंमें छोड़ दिया और एक सहज-- स्वाभाविक निष्क्रियताके साथ उनके मार्गदर्शनका अनुसरण किया । वह स्वयं ही आश्चर्यचकित हों गये और दूसरोंसे बोले कि उन्होंने कभी पहले कोई दूसरा आदमी ऐसा नही देखा जो इतने पूर्ण रूपसे और बिना कुछ बचाये अथवा अपने सहायकके पथ- प्रदर्शनके प्रति कोई शंका-सन्देह उठाये बिना आत्मसमर्पण कर सका हो । परिणाम यह हुआ कि एक ऐसे मौलिक प्रकारके रूपांतरकारी अनुभवोंका तांता बँध गया कि वह उसे समझ नहीं सकें और उन्हें मुझसे यह कहना पड़ा कि मे भविष्यमें समर्पणभाव- की उसी पूर्णताके साथ अपने-आपको अन्तरस्थ गुरुके हाथोंमें छोड़ दूँ जिस पूर्णताके साथ मैंने मानव-प्रणालीके हाथोंमें छोडा था । मैं यह उदाहरण यह दिखानेके लिये दे रहा हूँ कि ये चीज कैसे काम करती हैं; ये समझे-बूझे तरीकेसे काम नही करतीं जिसे मानव-बुद्धि निश्चित करना चाहती है, बल्कि किसी अधिक रहस्यपूर्ण तथा महत्तर विधानके द्वारा कार्य करती हैं ।
तुम आध्यात्मिक क्षमतामें (स्वयं अपनेसे अथवा दूसरे गुरुओंसे) निम्र कोटिके किसी गुरुको स्वीकार कर सकते हों जिसमें बहुतसी मानवीय अपूर्णताएं मौजूद हों और फिर भी, यदि तुममें श्रद्धा, भक्ति, समुचित आध्यात्मिक योग्यता हो तो तुम स्वयं गुरुसे पहले भी उनके द्वारा भगवानका संस्पर्श प्राप्त कर सकते हों, आध्यात्मिक अनु- भूतियां, आध्यात्मिक सिद्धि उपलब्ध कर सकते हो । यहां: 'यदि' शब्दपर ध्यान दो, क्योंकि बह शर्त्त आवश्यक है; यह बात नही है कि प्रत्येक शिष्य प्रत्येक गुरुके साथ ऐसा कर सकता है । किसी मक्कारसे तुम उसकी मक्कारीके सिवा और कुछ नहीं प्राप्त कर सकते । गुरुके अन्दर कोई ऐसी वस्तु अवश्य होनी चाहिये जो भगवानके साथ संपर्क स्थापित करना संभव बनावे, कोई वस्तु होनी चाहिये जो उस समय भी काम करती हे जब कि वह अपने बाहरी मनमें उसकी क्रियाके विषयमें जरा भी सचेतन नहीं होता । यदि उसमें जरा भी कोई आध्यात्मिक वस्तु न हों तो वह गुरु नही है, केवल एक मिथ्या गुरु है । निस्सन्देह, दो गुरुओंके बची आध्यात्मिक उपलब्धिमें पर्याप्त विभिन्नताएं हों सकती हैं; परन्तु बहुत कुछ गुरु और शिष्यके आंतरिक सम्बन्ध- पर निर्भर करता है । कोई व्यक्ति किसी बहुत महान् आध्यात्मिक पुरुषके पास जा सकता है और उनसे कुछ भी प्राप्त नही कर सकता अथवा केवल थोड़ासा ही प्राप्त कर सकता है; परन्तु कोई व्यक्ति उससे कम आध्यात्मिक क्षमतावाले पुरुषके पास जा सकता और जो कुछ वह दे सकता है वह सब - और उससे अधिक भी - प्राप्त कर सकता है । इस वैषम्यके अनेक और सूक्ष्म कारण हैं; यहां उसके विषयमें विस्तार- पूर्वक कुछ कहनेकी आवश्यकता नही । यह बात प्रत्येक व्यक्तिके साथ अलग-अलग होती है । मैं समझता हूँ कि जो कुछ दिया जा सकता है उसे देनेके लिये गुरु सर्वदा
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तत्पर रहता है, यदि शिष्य ग्रहण कर सकता हो, अथवा संभवत, जब वह ग्रहण करने- के लिये तैयार हों जाता हों । यदि वह ग्रहण करना अस्वीकार करता है या अपने अन्दर अथवा बाहर इस प्रकार व्यवहार करता है कि ग्रहण करना असंभव हों जाता है अथवा यदि वह सच्चा नही होता या गलत मनोभाव ग्रहण कर लेता है तो बातें कठिन हों जाती हैं । परन्तु कोई यदि सरल-सच्चा और निष्ठावान् हों और उसका मनो- भाव सही हों तथा यदि गुरु कोई सच्चा गुरु हों तो फिर चाहे जितना समय लगे, मनुष्य आध्यात्मिक सिद्धि अवश्य प्राप्त करेगा ।
रामकृष्णने पहले स्वयं सिद्धि प्राप्त की और उसके बाद दूसरोंको देना प्रारंभ किया -- वैसे ही बुद्धको प्राप्त हुई । में दूसरोंके विषयमें नही जानता । निस्सन्देह, पूर्णताका अर्थ है अपने निजी पथसे सिद्धि प्राप्त करना । रामकृष्णने सर्वदा इस बातको एक नियमके रूपमे रखा कि किसीको तबतक दूसरोंका गुरु नही बनना चाहिये जबतक उसे पूर्ण अधिकार न प्राप्त हो जाय ।
दिव्य शक्तिकी क्रिया तपस्या, एकाग्रता और साधनाकी आवश्यकताका निषेध नही करती । बल्कि उसकी क्रिया इन चीजोंके प्रत्युत्तरके रूपमे अथवा इनकी सहा- यिकाके रूपमें आती है । यह ठीक है कि कभी-कभी दिव्य शक्ति उनके बिना भी किया करती है; यह बहुत बार उन लोगोमे प्रत्य्रुत्तर उत्पन्न करती है जिन्होंने अपनेको तैयार नहीं किया है और जो तैयार नहीं मालूम होते । परन्तु यह सर्वदा या सामान्यतया उस रूपमे कार्य नही करती, न यह कोई एक प्रकारका जादू है जो शून्यमें या बिना किसी पद्धतिके कार्य करता है । और न यह कोई मशीन है जो सभी व्यक्तियोंपर या सभी अवस्थाओं और परिस्थितियोंमें एक ही ढंगसे कार्य करती है, यह कोई भौतिक नही बल्कि आध्यात्मिक शक्ति है और इसके कार्यको नियमोंसे नही बांधा जा सकता ।
दिव्य गुरुकी शक्तिको एक ऐसे शिक्षककी शक्तिसे सीमित करनेकी जो बात है जो रास्ता तो दिखा देता है पर सहायता नहीं कर सकता या पथपर नही लें जा सकता, वह शुद्ध अद्वेतवादियों और बौद्धोंके मार्ग जैसे कुछ योग-मार्गोंके परिकल्पना है । शुद्ध अद्वैतवादी और बौद्ध लोग कहते हैं कि तुम्हें अपने-आपपर निर्भर करना होगा और कोई दूसरा तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता; परन्तु विशुद्ध अद्वैतवादी भी वास्तव- मे गुरुपर निर्भर करते हैं और बौद्धधर्मका प्रधान मंत्र बुद्धिके शरणागत होनेपर जोर देता है । दूसरे साधनमार्गोंके लिये तो, विशेषकर उन मार्गोंके लिये जो, गीताकी तरह, भगवान्के ' 'सनातन अंश' ' के रूपमें व्यक्तिगत जीवके सत्यको स्वीकार करते हैं अथवा जो यह विश्वास करते हैं कि भगवान् और भक्त दोनों सत्य हैं, गुरुकी सहायतापर, उसे
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एक अनिवार्य साधन समझकर, सर्वदा निर्भर किया गया है ।
बिबेकानन्दके अनुभवकी सत्यतापर जो आपत्ति की गयी है उसे मैं नही समझता: वह तो ठीक वही अनुभव था जो आत्माके चरम अनुभवके रूपमें उपनिषदोंमें वर्णित है । यह बात सत्य नही है कि समाघिमें प्राप्त अनुभवको जाग्रत् अबस्थामें भी नहीं बनाये रखा जा सकता ।
हां, यह प्राण-पुरुषका एक दोष है, अनुशासन माननेके संकल्पका अभाव है । अध्यापकसे सीखना होता है और उनकी शिक्षाके अनुसार कार्य करना होता है, क्यों- कि अध्यापक उस विषयको जानते हैं और यह भी जानते है कि उसे कैसे सीखा जाता है - ठीक जिस तरह कि आध्यात्मिक मामलोंमें गुरुका अनुसरण करना पड़ता है जिन्हें ज्ञान प्राप्त होता है और जो मार्गको जानते हैं । अगर कोई सब कुछ स्वयं अपने- आप सीखे तो सम्भावनाएं ऐसी हैं कि बह सब कृरछ गलत ही सीखेगा । भला गलत रूपमें सीखनेकी स्वतत्रतासे क्या लाभ? निस्सन्देह, यदि विद्यार्थी अध्यापककी अपेक्षा अधिक बुद्धिशाली हो तो बह अध्यापककी अपेक्षा कही अधिक सीख लेगा, ठीक जिस तरह कि कोई महान् आध्यात्मिक क्षमता रखनेबाला व्यक्ति उस सिद्धितक पहुँच सकता हे जो गुरुको प्राप्त नहीं है -- परन्तु फिर भी प्रारंभिक अवस्थाओंमें संयम और अनुशासन अपरिहार्य हैं ।
अबतक किसी मुक्त पुरुषने गुरुवादपर आपत्ति नहीं की है; साधारणतया केवल ऐसे लोग ही कोई गुरु स्वीकार करना अपनी प्रतिष्ठाके विरुद्ध समझते हैं जो मन या प्राणमें निवास करते हैं और जिनमे मनका अहंकार और प्राणका मद होता है ।
वह सब सस्ता योग है । गुरुका स्पर्श या कृपा किसी चीजको खोल सकती है, पर फिर भी कठिनाइयोंका सर्वदा समाधान करना होता है । सच बात यह है कि यदि साधकमें पूर्ण समर्पण-भाव हो जिसका मतलब है चैत्य पुरुषका प्राधान्य, तो ये कठिनाइयां किसी बधन या बाधाके रूपमे अब अनुभूत नही होती बल्कि केवल उपरितलीय अपूर्णताओके रूपमें अनुभूत होती हैं जिन्हें कृपाकी क्यिा दूर कर देगी ।n
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मेरे विचारमें रामकृष्णका यह वचन साधनामें घटित होनेवाली किसी निश्चित विशिष्ट घटनाको व्यक्त करता है और किसी व्यापक और पूर्ण अर्थमें इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती, क्योंकि उस अर्थमे उसके लिये सत्य होना कठिन है । सभी कठिनाइयां एक मुहूर्त्तमें दूर हो जाती हैं? अच्छा, विवेकानन्दको तो आरम्भसे ही राम- कृष्णकी कूपा प्राप्त थीं, परन्तु मै समझता हू कि उनकी सदेह करनेकी कठिनाई कुछ दिनोंतक बनी रही और उनके जीवनके अन्ततक क्रोधको संयमित करनेकी कठिनाई बनी रही -- उसके कारण उन्हें कहना पड़ा कि जो कुछ मुझमें अप्यश है वह सब मेरे गुरुका दान है, पर ये चीजे ( क्रोद्ध वगैरह) मेरी अपनी संपत्ति हैं । परन्तु जो बात सत्य हों सकती है वह यह है कि गुरु और शिष्यके बीच एक विशिष्ट स्पर्शके द्वारा केंद्रीय कठिनाई विलीन हो सकती है । परन्तु कृपाका तात्पर्य क्या हैं? यदि यह गुरुकी साधारण अनुकंपा और कृपा है तो, हम समझेंगे कि, वह शिष्यके साथ बराबर ही विद्य- मान है, उनका- शिष्यको स्वीकार करना ही एक कृपाका कार्य दु और उनकी सहायता शिष्यके ग्रहण करनेके लिये बराबर ही विद्यमान है । परन्तु गुरुके माध्यमसे अथवा सीधे जो कृपाका, भागवत कृपाका स्पर्श मिलता है वह एक विशेष घटना होता है और उसके दो पक्ष होते है,--गुरु या भगवान्की कृपा, सच पूछा जाय तो दोनों हीं साथ एक पक्षमें होती हैं और दूसरी ओर शिष्यके अन्दर ' 'कृपाप्राप्तिकी स्थिति' ' होती है । ' 'कृपाप्राप्तिकी स्थिति' ' बहुधा एक लबी तपस्या या शुद्धीकरणके द्वारा तैयार होती है जिसमें कोई भी बात निश्चित रूपसे घटित होती हुई नहीं प्रतीत होती, अधिक-से- अधिक केवल कुछ स्पर्श या झांकियां या क्षणस्थायी अनुभ्तियां होती हैं, और कृपा एकाएक चेतावनी दिये बिना आ जाती है । यदि यही बात रामकृष्णके वचनमें कही गयी है तो यq सच है कि जब कृपा आती है तो मौलिक कठिनाइयां एक मुहूर्त्तमें दूर हो सकती हैं और सामान्यतया होती ही हैं । अथवा, कम-से-कम, कोई ऐसी चीज घटित होती है जो शेष साधनाको - चाहे उसमें जितना भी लम्बा समय क्यों न लगे -- निश्चित और सुरक्षित बना देती है ।
यह निर्णायक स्पर्श ' 'बिल्लीके बच्चे' ' जैसे लोंगोंके पास अत्यन्त आसानीसे आता है, उन लोंगोंके पास जिनके अन्दर चैत्य पुरुष और भावात्मक प्राणके बिच किसी स्थानपर गुरु या भगवानके प्रति समर्पणकी एक तीब्र और निर्णायक क्रिया होती है । मैंने देखा है कि जब यह किया होती है और साथ ही सचेतन केंद्रीय निर्भरता होती है जो मनको तथा प्राणके गेष भागको भी विवश करती है तब मौलिक कठिनाई समाप्त हो जाती है । यदि अन्य कठिनाइयां बनी रहती हैं तो वे कठिनाइयोंके रूपमें अनुभूत नही होती; बल्कि महज ऐसी चीजे प्रतीत होती हैं जिन्हें बस करना होता है और उनसे कोई परेशानी नही होती । कभी-कभी किसी तपस्याकी आवश्यकता नहीं होती -- मनुष्य बस अपनी बातें उस दिव्य शक्तिके सामने रख देता है जिसे वह मार्गदर्शन कराते
'' 'गुरुकी कृपासे सभी कठिनाइयां एक क्षणमें विलीन हो सकती हैं ठीक जैसे कि युगव्यापी
अन्धकारदियासलाई जलाते हो क्षण भरमें विलीन हो जाता है ।
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हुए या साधना करते हुए अनुभव करता है और उसकी क्रियाको अनुमति देता है, उसके विपरीत जो कुछ होता है उस सबका त्याग करता है, और फिर वह शक्ति जो कुछ दूर हटाना है उसे हटा देती है या जो कुछ बदलना है उसे बदल देती है, शीघ्रतासे या धीरे- धीरे -- परन्तु शीघ्रता या धीमेपनका कोई महत्व नही प्रतीत होता क्योंकि मनुष्य- को पूरा विश्वास रहता है कि वह अवश्य होगा । यदि तपस्याकी आवश्यकता होती है तो उसे एक प्रबल साहाथ्य इतने अधिक बोधके साथ किया जाता है कि तपस्याके अन्दर कोई चीज कठिन या कठोर नही होती ।
दूसरोंके लिये, ' 'बन्दरके बच्चे' ' जैसे लोगोंके लिये अथवा जो लोग अभी भी अधिक स्वतंत्र होते हैं, अपने निजी विचारोंका अनुसरण करते हैं, अपनी ?? साधना करते हैं, केवल कुछ शिक्षा या सहायता चाहते हैं, उनके लिये भी गुरुकी कृपा होती है, परन्तु वह साधकके स्वभावके अनुसार कार्य करती है और कम या अधिक मात्रामें उसके प्रयत्नकी प्रतीक्षा करती है; यह सहायता करती है, कठिनाई में मदद देती है, खतरेका समय रक्षा करती है, परन्तु शिष्य सर्वदा यह नही जानता अथवा संभवत: मुश्किलसे थोड़ासा जानता है कि क्या किया जा रहा है, क्योंकि वह स्वयं अपने-आपमें तथा अपने प्रयासमें निमग्न रहता है । ऐसे लोगोंमें उस निर्णायक आंतरिक क्रियाके, स्पर्शके आनेमें अधिक समय लग सकता है जो कि सब कुछ सुस्पष्ट कर देता है ।
परन्तु सबके साथ कृपा विद्यमान है ओर किसी-न-किसी तरह कार्य कर रही है और यह केवल तभी शिष्यका त्याग कर सकती है जब कि स्वयं शिष्य ही उसे छोड़ देता या त्याग देता है -- निर्णायक और अन्तिम विद्रोहके द्वारा, गुरुके परित्यागके द्वारा, सम्बन्धविच्छेद और अपनी स्वतन्त्रताकी घोषणाके द्वारा, अथवा विश्वास- घातके किसी कार्य या मार्गके द्वारा जो कि उसे उसके अपने चैत्य पुरुषसें ही विच्छिन्न कर देता है । परन्तु फिर भी, शायद अन्तिम स्थितिको छोड़कर -- यदि उसमें कोई अन्तिम हदतक चला जाय -- कृपाका वापस आना असम्भव नही होता ।
यहीं इस विषयमें मेरा अपना ज्ञान और अनुभव है परन्तु रामकृष्णके कथन- के पीछे क्या वस्तु निहित है और क्या उन्होंने स्वयं उसे एक सामान्य और निरपेक्ष वक्तव्यके रूपमें लिया था -- इस विषयमें मैं कुछ भी घोषणा नही करता ।
यह सदा ही कहा गया है कि शिष्य बनानेका अर्थ है स्वयं अपनी कठिनाइयों तथा साथ ही शिष्यकी कठिनाइयोंको अपने ऊपर लेना । निस्सन्देह, यदि गुरु शिष्य- के साथ एकाकार न हो जायं, उसे स्वयं अपनी चेतनामें न ले लें, उसे अपनेसे बाहर रखें और उसे केवल उपदेश देकर बाकी उसे अपने-आप करनेके लिये छोड़ दें तो इन परिणामोंकी संभावना बहुत कम हो जाती है, लगभग शून्य हो जाती है ।
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जब कोई सच्चाईके साथ समर्पणभावको ग्रहण करता है तो कोई भी चीज छिपायी नही जानी चाहिये जिसका साधनाके जीवनके लिये कोई मूल्य हो । दोष स्वीकार करनेसे बाधक तत्त्वोंको चेतनामेंसे निकाल बाहर करनेमें सहायता मिलती है और यह आंतरिक वातावरणको परिष्कृत करके गुरु और शिष्यके मध्य एक अधिक घनिष्ठ और अधिक अंतरंग और फलदायी सम्बन्ध उत्पन्न करता है ।
VI
साधना-पथके सभी विषयोंमें ऐसा ही होता है - परन्तु चाहे जितना लम्बा समय लगे मनुष्यको डटे रहना चाहिये, केवल इसी तरह मनुष्य लक्षपर पहुँच सकता
योगमें जिस शक्तिकी आवश्यकता होती है बह है बिना थके, उदास हुए, निरु- त्साहित या अधीर हुए तथा बिना प्रयास छोड़ या अपने लक्ष्य अथवा संकल्पका परि- त्याग किये श्रम, कठिनाई या असुविधामें गुजर जानेकी शक्ति ।
चाहे जो भी पद्धति व्यवहृत हो, दृढ़ता और अध्यवसाय आवश्यक हैं । क्योंकि चाहे जिस पद्धतिका व्यवहार क्यों न किया जाय, प्राकृतिक प्रतिरोधकी जटिलता उससे संघर्ष करनेके लिये वहां मौजूद रहेगी ।
इस योग जैसे योगमें धैर्यकी आवश्यकता होती है, क्योंकि इसका उद्देश्य है मौलिक हेतुओं तथा प्रकृतिके प्रत्येक भाग और ब्योरेका परिवर्तन करना । यह कहनेसे काम नहीं चलेगा कि ' 'कल मैनई अपने-आपको पूर्णत: श्रीमाताजीके हाथोंमें सौंप देनेका निश्चय किया, और देखो वह नहीं किया गया है, इसके विपरीत, सभी पुरानी विपरीत चीज़ें फिर एक बार वापस आ गयी हैं' । निस्सन्देह, जव तुम ऐसी स्थितिमें आ जाते हों जहां तुम इस प्रकारका संकल्प लेते हो, तो तुरन्त रास्तेमें बाधा डालनेवाली सभी चीज़ें अवश्य उठ खड़ी होती हैं - ऐसा निरपवाद रूपसे घटित होता है । ऐसे समय करनेकी चीज शू है कि पीछे हट आया जाय, निरीक्षण किया जाय और त्याग दिया जाय, अपने ऊपर इन चीजोंको अधिकार न जमाने दिया जाय, अपने केंद्रीय संकल्पको इनसे अलग रखा जाये और उनका मुकाबला करनेके लिये श्रीमाताजीकी शक्तिका
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आवाहन किया जाय; यदि कोई फंस ही जाय, जैसा कि बहुधा होता है, तो जितना शीघ्र संभव हो उतना शीघ्र उनसे छुटकारा पाया जाय और फिर आगेकी ओर बढ़ा जाय । यही चीज प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक योग करता चूंकि कोई व्यक्ति एक हीं झपटमें सब कुछ नहीं कर सकता इसलिये अवसन्न होना इस विषयके सत्यके एकदम विपरीत है ।
जो स्थिरता तुमने प्राप्त की है वह एक व्यक्तिगत गुण है परन्तु वह श्रीमाताजी- ३ साय अपना संपर्क बनाये रहनेपर निर्भर करता है - क्योंकि सच पूछो तो उनकी शक्ति हीं उसके पीछे तथा जो प्रगति तुम कर सकते हो उस सबके पीछे विद्यमान रहती है । उसी शक्तिपर निर्भर करना, अधिकाधिक पूर्णताके साथ उसकी ओर खुलना तथा केवल अपने लिये हीं नही बल्कि भगवानके लिये आध्यात्मिक उन्नति करनेका प्रयास करना सीखो - तव तुम अधिक आसानीसे आगे बढ़ोगे ।
यह निश्चित है कि भगवानके लिये तीव्र अभीप्सा होनेपर प्रगतिमें सहायता मिलती है,' परन्तु धैर्यकी भी आवश्यकता है । क्योंकि सच पूछो तो एक बहुत बड़ा परिवर्तन लानेकी आवश्यकता है और, यद्यपि उसमें महान् तीव्रताके क्षण आ सकते हैं, पर उस तरह सब समय कभी घटित नहीं होता । पुरानी चीज़ें यथासंभव अधिकसे अधिक चिपकी रहना चाहती हैं; जो नयी चीज़ें आती हैं उन्हें विकसित होना होता है और उन्हें आत्मसात् करने तथा प्रकृतिके लिये उन्हें स्वाभाविक बनानेमें चेतनाको समय लगता है ।
अपने मनमें इस थद्धा-विश्वासको सुदृढ़ बनाये रखो कि आवश्यक चीज की जा रही है और पूर्ण रूपमें की जायगी । इस विषयमें कोई सन्देह नहीं हो सकता ।
यह सच है कि बहुत धैर्य और दृढ़ताकी आवश्यकता है । तब दृढ और धैर्य- शील बनो और साधनाके लक्ष्यपर एकाग्र हो जाओ, पर उन्हें तुरत प्राप्त करनेके लिये अति-उत्सुक मत होओ । तुम्हारे अन्दर एक कार्य करना है और वह किया जा रहा , अटल श्रद्धा और विश्वासका मनोभाव रखकर उसके करनेमें सहायता करो । सदेह सबके अन्दर उठते हैं, वे मानवके भौतिक मनके लिये स्वाभाविक है - उनका त्याग करो । उसी तरह तुरत परिणाम पानेके लिये अधीरता और अति-उत्सुकताका होना मानवीय प्राणके लिये स्वाभाविक है; ये चीजे श्रीमाताजीमे दृढ विश्वास होनेपर ही विलीन होंगी । जिन भगवान्को तुम्हारा जीवन अर्पित है उनके रूपमें श्रीमाताजी- के प्रति प्रेम और विश्वासके साथ प्रत्येक विरोधी भावनाका सामना करो और तव दे विरोधी भावनाएं कुछ समय बाद फिर तुम्हारे पास नहीं आ पायेंगी ।
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अधीर होना सर्वदा हीं एक भूल है, यह सहायता नही करता बल्कि रुकावट डालता है । स्थिर प्रसन्न श्रद्धा और विश्वास ही साधनाका सर्वोत्तम आधार है; बाकी चीजोंके लिये अपने-आपको ग्रहण करनेके लिये सतत निर्बाध खोले रखना चाहिये और उसके साथ-साथ ऐसी अभीप्सा रहनी चाहिये जो तीव्र तो हों, पर सर्वदा शान्त- स्थिर और अटूट हो । पूर्ण यौगिक सिद्धि एकदम तुरत-फुरत नही आती, वह आधार- की एक दीर्घ तैयारीके बाद आती है जिसमें एक लम्बा समय लग सकता है ।
भागवत कृपाके विषयमें कोई संदेह नही हों सकता । यह पूर्ण रूपसे सत्य भी है कि यदि मनुष्य सच्चा हो तो वह भगवान्को पा सकता है । परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि वह तुरत, आसानीसे ओर अविलंब पा जायेगा । तुम्हारी भूल यही है, भगवानके लिये एक समय, पांच वर्ष, छ: वर्ष निश्चित कर देते हो, और सन्देह करते हो क्योंकि अभीतक उसका परिणाम नही दिखायी देता । कोई मनुष्य केंद्रमे सरल - सच्चा हों सकता है और फिर भी उससे बहुतसी ऐसी चीजे हों सकती हैं जिन्हें उप- लब्धि शुरू होनेसे पहले परिवर्त्तित करना जरूरी हो । उसकी सच्चाईको उसे निरन्तर प्रयास करते रहनेके योग्य बनाना चाहिये -- क्योंकि यह भगवान्की चाह है जिसे कोई चीज बुझा नहीं सकती -- न तो विलंब, न निराशा, न कठिनाई और न कोई दूसरी ही चीज ।
' 'में फिर कोशिश करूँगा' ' कहना पर्याप्त नही है; आवश्यक बस यह है कि निरन्तर प्रयास किया जाय - अविरत, विषादसे रहित हदयसे, जैसा कि गीता कहती है, ' अनिर्विण्णचेतसा । ' तुम साढे पांच वर्षोंकी बात करते हों मानो यह एक ऐसे उधसश्यके लिये बहुत लम्बा समय हो, परन्तु जो योगी इतने समयमे अपनी प्रकृति- का मूलत रूपांतर कर लेने और भगवानका ठोस निश्चित अनुभव प्राप्त कर लेनेमे समर्थ है, वह आध्यात्मिक पथपर सरपट दौडनेवाला एक विरल व्यक्ति ही माना जायेगा । किसीने कभी यह नहीं कहा है कि आध्यात्मिक परिवर्तन एक आसान कार्य है । सभी आध्यात्मिक साधक यह कहेगे कि यह कठिन है परन्तु सर्वप्रधान रूपसे करने योग्य है । यदि भगवानके लिये किसीकी चाह सर्वोच्च चाह बन जाय तो वह अवश्य ही बिना किसी मनस्तापके उसीके प्रति अपना समूचा जीवन अर्पित कर सकता है और समय, कठिनाई या परिश्रमके लिये शिकायत नहीं कर सकता ।
फिर, तुम अपने अनुभवोंको अस्पष्ट और स्वप्न-जैसे कहते हो । सबसे पहले आंतरिक जीवनमें छोटी-छोटी अनुूतियोंका अवहेलना करना विज्ञता, युक्तियुक्तता या सामान्य समझदारीका कोई अंग नहीं है । सच पूछा जाय तो साधनाके प्रारम्भमें और दीर्घ कालतक छोटी-छोटी अनुभूतियां ही एकके बाद एक आती हैं और, यदि उन्हें पूरा मूल्य दिया जाता है तो, क्षेत्रको तैयार करती हैं, प्रारंभिक चेतनाका निर्माण करती हैं तथा एक दिन वड़ी-बडी अनुतियोंके लिये दीवालें तोडकर रास्ता बनाती हैं)। परंतु
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तुम यदि इस महत्त्वाकाक्षापूर्ण भावनासे उनका तिरस्कार करो कि या तो तुम्हें बड़ी- बड़ी अनुभूतियां होनी चाहियें या कुछ नही होना चाहिये, तो इसमे कोई आश्चर्य नही कि वे कभी-कदाचित् दीर्घ कालमें एक बार आये और अपना काम न कर सके । अधि- कतु, तुम्हारी सभी अनुभूतियां तुच्छ नही थी । उनमेसे कुछेक शरीरमें स्थिरता लाने- वाला दिव्य शक्तिका अवतरण जैसा था -- जिसे तुम सुन्नत कहा करते थे -- जिसे आध्यात्मिक ज्ञान रखनेवाला कोई भी व्यक्ति उच्चतर शान्ति और ज्योतिके प्रति चेतनाके उद्घाटनका- प्रथम प्रबल पगके रूपमें स्वीकार किया होता । परन्तु वें चीजे तुम्हारी आशाओंके अनुरूप नहीं थी और तुमने उन्हें कोई विशेष महत्व नहीं ? । जहांतक अस्पष्ट और स्वप्त-सदृश होनेका प्रश्न है, तुम इसलिये ऐसा अनुभव करते हों कि तुम उनकी ओर और तुम्हारे अन्दर जो कुछ घटित होता है उस सबकी ओर बाहरी भौतिक मन और बुद्धिकी दृष्टिसे देखते ही जो केवल भौतिक वस्तुओको हीं सत्य और महत्त्वपूर्ण और सुस्पष्ट मान सकती है और उसके लिये आंतरिक घटनाए अवास्तव, अस्पष्ट और सत्यहीन वस्तुए है । आध्यात्मिक अनुभव स्वप्नों और सूक्ष्मदर्शनोंकी अवहेलना भी नही करता । यह उसे ज्ञात है कि इनमेंसे बहुतसी चीजे बिलकुल ही स्वप्न नही होती बल्कि किसी आंतरिक लोकका अनुभूतिया होती हैं और यदि आंतरिक लोकोंकी उन अनुभूतियोंको, जो बाह्य सत्ताके अन्दर आंतरिक आत्मा- के उद्घाटनकी ओर लें जाती है जिसमें कि आंतर आत्मा बाह्य सत्तापर प्रभाव डाले और उसे रूपांतरित करे, यदि सूक्ष्म चेतनाकी तथा समाधि-चेतनाकी अनुभूा?तेयोको स्वीकार न किया जाय तो भला जाग्रत् चेतना शरीर और शारीर मन तथा इद्रियोके सकीर्ण कारागारसे बाहर कैसे प्रसारित होगी? कारण, आंतरिक जागृत चैतन्य- से अस्पृष्ट भौतिक मनको वैश्व चैतन्य या शाश्वत ब्रह्मका अनुभव भी बहुत अच्छी तरह महज प्रातीतिक और अविश्वसनीय प्रतीत हों सकता है । वह सोचेगा. ' 'निस्सन्देह विलक्षण हैं, बल्कि मजेदार हैं, पर बहुत अघिक प्रातीतिक हैं, हैं न? भ्रम- भ्रौतियां है, हा! ', आध्यात्मिक साधकका पहला कार्य है बाहरी मनके दृष्टिकोण- से दूर भागना और आंतरिक व्यापारोंको आंतरिक मनसे देखना जिसके लिये वे बहुत शीघ्र शक्तिशाली और स्फूर्त्तिदायक सत्य बन जाते हैं । यदि कोई ऐसा करता है तो वह यह देखना प्रारम्भ करता है कि यहांपर सत्य और ज्ञानका एक विस्तृत क्षेत्र है जिसमे मनुष्य एक आविष्कारसे दूसरे आविष्कारकी ओर आगे बढ़ सकता और अन्तमे सबसे उच्च आविष्कारतक पहुँच सकता है । परन्तु बाहरी भौतिक मनको यदि भगवान् और आध्यात्मिकताके विषयमे थोडीसी कोई धारणा होती है तो वह आंतर सत्य और अनुभवकी ठोस भूमिसे मीलों दूरकी केवल जल्दबाजीभरी प्रागनुभव धारणा ही होती
मेरे पास अन्य विषयोंपर किसी हदतक विचार करनेके लिये समय नही है । तुम भगवान्की कठोर मागों और कड़ी शर्त्तोंकी चर्चा करते हों -- परन्तु कितनी कठोर माते और लौह शर्त्ते तुम भगवानपर डाल रहे हो! करीब-करीब तुम उनसे यह कहते हो, ' 'में पग-पगपर शंका करुंगा और तुम्हें अस्वीकार करुंगा, परन्तु तुम्हेंn
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अपनी निर्मूल उपस्थितिसे मुझे भर देना होगा; जय कभी मैं तुम्हारे या योगके विषय- मे सोचूँगा मैं विषाद और नैराश्यसे भरा रहूँगा, परन्तु तुम्हें मेरे विषादको अपने आह्नादपूर्ण अदम्य आनन्दसे परिप्लावित कर देना होगा; मैं केवल अपने बाहरी भौतिक मन और चेतनाके साथ ही तुम्हारे पास आऊंगा, पर तुम्हें उसके अन्दर मुझे वह शक्ति देनी होगी जो मेरी समूची प्रकृतिको तेजीसे रूपांतरित कर देगी । '' हां, मैं नहीं कहता कि भगवान् ऐसा नहीं करेंगे या नहीं कर सकेंगे, परन्तु यदि ऐसा चमत्कार संपन्न करना है तो तुम्हें उनको कुछ समय और संभावनाका बस एक हजारवां भाग देना होगा ।
भगवान् कठिन हो सकते हैं, पर उनकी कठिनाइयां जीती जा सकतीं हैं यदि कोई उनसे लगा रहे ।
यह साधना एक कठिन कार्य है और समयके लिये शिकायत नहीं करनी चाहिये; केवल अन्तिम अवस्थाओंमें हीं बहुत बड़ी और सतत तीव्र प्रगतिकी आशा असंदिग्ध रूपसे की जा सकती हैं ।
दिव्य शक्तिका जहांतक प्रश्न है, प्राणके शुद्ध और समर्पित होनेसे पहले शक्ति- के अवतरणके अपने खतरे हैं । उसके लिये पवित्रीकरण, ज्ञान, हृदयकी अभीप्साकी तीव्रता और शक्तिके जितने कार्यको वह सहन और आत्मसात् कर सके उतने कार्य- के लिये प्रार्थना करना अधिक अच्छा है ।
सर्वदा अपने अन्दर निवास करो और कार्योमें स्वयं ग्रस्त हुए बिना उन्हें करो, फिर कोई भी प्रतिकूल चीज घटित नहीं होगी, अथवा, यदि घटित हुई तो कोई गंभीर प्रतिक्यिा नही होगी ।
किसी भी कारणसे (आश्रम) छोड़नेका विचार, निस्सन्देह, निरर्थक और असंगत है । रूपांतरके लिये आठ वर्ष बहुत थोड़ा समग है । अधिकांश लोग अपने दोषोंके विषयमें सचेतन होने तथा परिवर्तनके लिये गंभीर संकल्प बनानेमें उतना या अधिक समय व्यय कर देते हैं -- और उसके बाद संकल्पको पूर्ण और अन्तिम
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सिद्धिमें परिवर्त्तित करनेमें एक लम्बा समय लग जाता है । जब-जब मनुष्य ठोकर खाता हैं, उसे अपने यथार्थ स्थानपर वापस आ जाना चाहिये और अभिनव संकल्पके साथ आगे बढ़ना चाहिये, ऐसा ही करनेसे पूर्ण परिवर्तन साधित होता है ।
श्रद्धा-विश्वासके लिये अभीप्सा करनेके सिवा मैं क्या तुमसे चाहता हूँ? हां, ठीक थोड़ीसी पद्धतिमें संपूर्णता और दृढ़ता! दो दिन अभीप्सा मत करो और फिर कूडेखानेमें चले जाओ, भूकंप तथा शोपेन हावरके सिद्धांतोंको विकसित करो और उसके साथ ही गधापन और उससे सबन्धित बाकी चीजोंका विकास करो 1 भग- वान्को पूरा खेलनेका अवसर दो । जब बह तुम्हारे अन्दर कोई चीज प्रज्वलित करें या प्रकाशकी तैयारी करें तो तुम विषादका गीला कंबल लेकर बीचमें मत आ जाओ और उस गरीब लौपर मत फेंकों । तुम कहोगे, ' 'यह तो महज एक मोमबत्ती है जो जलायी गयी है - बिलकुल ही और कोई चीज नहीं! '' परन्तु ऐसे मामलोंमें, जब कि मानव भन, प्राण और शरीरका अन्धकार दूर करना हो, सर्वदा एक मोमबत्तीसे ही प्रारम्भ होता है -- उसके बाद आता है दीपक और फिर उसके बाद सूर्य, परन्तु प्रारंभिक वस्तुको अपना परिणाम अवश्य उत्पन्न करने देना चाहिये और अवसाद, सन्देह तथा निराशाके मोटे तख्तोंके द्वारा उसके स्वाभाविक प्रभावोंसे अपनेको पृथक् नहीं कर लेना चाहिये । प्रारम्भमें, और बहुत लम्बे समयतक, साधारणतया अनु- भूतिया थोडी मात्रामें ही आती हैं और उनके बीच-बीचमें शून्य व्यवधान होते हैं- परन्तु, यदि उसकी प्रगति होने दी जाय, तो ये व्यवधान कम होते जायंगे, और क्वाण्टम सिद्धांत आत्माके न्यूटोनियन सातत्य सिद्धांतको स्थान दे देगा । परन्तु तुमने इसे कभी भी सच्चा अवसर नहीं प्रदान किया है । शून्य व्यवधानोंमें सदेह और इनकार आकर बस गये हैं और इसलिये अनुभूतिकी संख्याएं विरल हो गयी हैं, प्रारम्भ एक प्रारम्भ हीं बना रह गया हैं । दूसरी कठिनाइयोंका तुमने सामना किया और उन्हें त्याग दिया है, परन्तु इस कठिनाईको तुमने बहुत दिनोंतक बहुत अधिक दुलार किया है और यह मजबूत बन गयी है - इसका सामना सतत प्रयासके द्वारा करना होगा । मैं यह नहीं कहता कि कोई चीज आनेसे पहले समस्त शका-सदेहोको विलीन हो जाना होगा - उसका अर्थ होगा साधनाको असंभव बना देना, क्योंकि शंका-संदेह मनपर निरन्तर आक्रमण करते रहते हैं । मैं बस यह कहता हूँ कि आक्रामकको अपना साथी मत बनाओ, उसके लिये खुला दरवाजा मत छोडो और आरामदायक स्थानपर मत बैठाओ । सबसे बढ़कर, विषाद और नैराश्यके उस निरुत्साहित करनेवाले गीले कंबलके द्वारा अन्दर आनेवाले भगवान्को मत भगाओ!
अधिक गंभीरताके साथ इस बातको कहें तो - निश्चित रूपसे स्वीकार कर लो कि यह कार्य करना है, बस यही एकमात्र कार्य है वो तुम्हारे लिये या पृथ्यीके लिये बाकी है । इससे बाहर बैठ भूकंप और हिटलर और एक भग्नशील सभ्यता और, साधा-
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रण रूपमें कहें तो, गधापन और सर्वनाश । सर्वोपरि एकमात्र करणीय वस्तुकी ओर, उस वस्तुकी ओर जानेके लिये तर्क करो जिसे पूरा करनेमे सहायता देनेके लेये तुम भेजे गये हों । वह कठिन है और पथ लंबा है और जो प्रोत्साहन दिया गया है वह नगण्य है? तो क्या है? तुम्हें भला इतनी बड़ी चीजके आसान होनेकी क्यों आशा करनी चाहिये अथवा यह आशा क्यों करनी चाहिये कि या तो खूब तेजीसे सफलता मिलनी चाहिये या बिलकुल नही ? चाहिये कठिनाइयोंका सामना करना हीं होगा और जितनी अधिक प्रसन्नताके साथ उनका सामना किया जायगा उतने हीं शीघ्र वे विजित होंगी । एकमात्र करणीय बात है सफलताके मात्रकों पकड़े रखना, विजय- की निश्चयताको, इस सुदृढ़ संकल्पको बनाये रखना कि ' 'इसे मुझे प्राप्त करना ही होगा और इसे मैं जरूर प्राप्त करुंगा । '' असंभव ' असंभव नामकी कोई चीज नहीं है -- कठिनाइयां हैं और दीर्घ प्रयासकी चीजे हैं, पर असंभव चीजे नही हैं । जो कुछ करनेका दृढ संकल्प मनुष्य कर लेता है वह आज या कल अवश्य पूरा हों जाता है -- वह संभव हों जाता है । काली निराशाको दूर भगाओ और बहादुरीके साथ अपने योगको जारी .रखो । जैसे-जैसे अन्धकार दूर होगा, आंर्तारेक द्वार खुलते जायंगे ।
चाहे तपस्यासे हों या आत्मसमर्पणसे -- इससे कुछ नही आता-जाता, प्रधान बात बस यही है कि साधक लक्ष्यकी ओर अपनी दृष्टि बनाये रखनेमें दृढ रहे । एक बार जब उसने अपने पैर इस मार्गपर रख दिये तब फिर भला किसी तुच्छतर वस्तुके लिये वह कैसे इससे पीछे हट सकता है ' यदि साधक दृढ बना रहे तो फिर पत्तनोंसे कुछ भी नहीं आता-जाता, वह फिरसे उठता और आगे बढ़ता है । अगर वह अपने लक्ष्यपर दृढ बना रहे तो भगवान्की प्राप्तिके मार्गका अन्त विफलतामें नही हों सकता । और अगर तुम्हारे अन्दर कोई चीज ऐसी हो जो तुम्हें बराबर आगे चलनेके लिये प्रेरित करती हों -- वैसी चीज अवश्य ही तुममें है -- तो फिर पदस्सलन या पतन या श्रद्धा- विश्वासका भंग हों जानेसे अंतिम परिणाममें कोई अन्तर नही पंड सकता । जबतक संघर्ष समाप्त नहीं हों जाता और हमारे सामने सीधा, उन्मुक्त और निष्कंटक मार्ग नही दिखायी देता तबतक हमें अपने प्रयासमें निरन्तर लगे रहना चाहिये ।
तुम्हें बस शान्त-स्थिर और अपने पथका अनुसरण करनेमे दृढ बने रहना है और तुम अन्ततक पहुँच जाओगे । यदि तुम ऐसा करो तो परिस्थितियां अन्तमें तुम्हारी इच्छाके अनुसार रूप ग्रहण करनेको बाध्य होगी, क्योंकि तब वह इच्छा तुम्हारे अन्दर भगवान्की ही इच्छा होगी ।
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प्रांरभिक अवस्थाओंमें सर्वदा ही र्काठेनाइयां आती हैं और प्रगति रुक-रुककर होती है तथा जबतक सत्ता तैयार नही हो जाती, आंतरिक द्वारोंके खुलनेमें देर होती है । यदि तुम जब कभी ध्यान करते हों निश्चलताका अनुभव करते हो और आंतरिक ज्योतिकी झलके पाते हों तथा आंतरिक आवेग यदि इतना प्रबल हों जाता है कि बाहरी पकड़ ढीली होने लगती है और प्राणिक उत्पातोंकी शक्ति घोटने लगती है तो यह अपने- आपसे एक महान् प्रगति है । योगका मार्ग लम्बा है, भूमिका एक-एक इंच बहुत प्रति- रोधका सामना करके जीतना होता है तथा साधकको और किसी गुणकी उतनी अधिक आवश्यकता नही होती जितनी कि धैर्य और ऐकांतिक अध्यवसायकी और उसके साथ ऐसे श्रद्धा-विश्वासकी जो सभी कठिनाइयों, विलम्बों तथा आपातदृष्ट असफलताओं- मे स्थिर बना रहता है ।
जो मनुष्य एकरसतासे डरता है और कोई नयी वस्तु चाहता है वह योग नही कर सकता अथवा कम-से-कम यह योग नहीं कर सकता जिसमें अपार लगन और धैर्य- की आवश्यकता होती है । मृत्युका भय एक प्राणिक दुर्बलताको सूचित करता है जो योगकी क्षमताके भी विपरीत एवं । उसी तरह, जो व्यक्ति अपने प्राणावेगोंके आधि- सत्यके अधीन होता है वह भी योगको कठिन अनुभव करेगा और, जबतक उसे सच्ची आंतरिक पुकारका सहारा न प्राप्त हों और उसमें आध्यात्मिक चेतना तथा भगवान्- के साल एकत्व प्राप्त करनेकी सच्ची और प्रबल अभीप्सा न हों तबतक वह बहुत आसानीसे सांघातिक रूपमे पतित हों सकता है और उसका प्रयास निष्फल हों सकता
दृढ संकल्पकी आवश्यकता है और अटूट धैर्यके, इस या उस असफलतासे निरुत्साहित होनेकी नही । यह भौतिक प्रकृतिके अभ्यासका परिवर्तन है और इसके लिये ब्योरेवार एक लंबे धैर्यपूर्ण कार्यकी आवश्यकता होती है ।
आवश्यक परिवर्तन तथा नवीन जीवनके संबंधमें तुम्हारा मनोभाव यथार्थ भाव है । इसे सिद्ध करनेके ?? स्थिर जाग्रत् पर निरुद्वेग अध्यवसाय ही सर्वोत्तम पथ है ।
भीतर घनिष्ठताके पुन स्थापित होनेके लिये स्थिरता इतनी गहरी होनी चाहिये जिसमें कि चैत्य पुरुष भौतिक शरीरमें बाहर निकल आये जैसे कि उसने उच्चतर अगों-
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मे किया था ।
जिस मनुष्यमें जीवन और उसकी कठिनाइयोंका मुकाबला धैर्य और दृढ़ताके साथ करनेका साहस नहीं है वह कभी साधनाकी और भी अधिक वडी आंतरिक कठिनाइयोंको पार करनेमें समर्थ नहीं होगा । इस योगका एकदम पहला पाठ यह है कि अचंचल मनसे, अटूट साहस तथा भगवती शक्तिपर संपूर्ण निर्भरताके साथ जीवन तथा उसकी परीक्षाओंका सामना किया जाय ।
अचल-अटल बने रहो तथा एक दिशामें -- श्रीमाताजीकी ओर मुड़े रहो।
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