Letters on the integral yoga, other spiritual paths, the problems of spiritual life, and related subjects.
Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.
विभाग नौ
साधना--आश्रममें और बाहर
साधना -- आश्रममें और बाहर
इस आश्रमकी स्थापनाका उद्देश्य वह नही है जो साधारणतया ऐसी संस्थाओं- की स्थापनाका हुआ करता है । संसारकी त्यागनेके लिये नही, बल्कि एक दूसरे आकार और प्रकारके जीवनके विकासके लिये अभ्यासके क्षेत्र तथा केंद्रके रूपमें इसका निर्माण हुआ है । यह जीवन अंतमें उच्चतर आध्यात्मिक चेतनासे परिचालित होगा और अधिक महान् आध्यात्मिक जीवनको मूर्त्तिमान् करेगा । ऐसा कोई सामान्य नियम नही हे कि किस अवस्थामें कोई व्यक्ति साधारण जीवनको छोड़कर इसमे प्रवेश कर सकता है । प्रत्येक प्रसंगमें यह व्यक्तिगत आवश्यकता और प्रेरणा और इस ओर पग उठानेकी संभावना या औचित्यपर निर्भर करता है ।
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यह आश्रम दूसरे आश्रमोंकी तरह नहीं है - यहांके सदस्य संन्यासी नही हैं; वास्तवमें यहां योगका एकमात्र लक्ष्य मोक्ष नहीं है । यहां जो कुछ किया जा रहा है वह एक कार्यकी तैयारी है - ऐसे कार्यकी जो यौगिक चेतना और योगशक्तिपर स्थापित होगा, और जिसका दूसरा कोई आधार नहीं हो सकता । इस बीच, प्रत्येक सदस्यसे यहां यह आशा की जाती है कि वह इस आध्यात्मिक तैयारीके अंगके रूपमें त्राश्रममे कुछ कार्य करेगा ।
कठिनाई यह है कि उसमें सांसारिक जीवनके प्रति केवल वैराग्य प्रतीत होता है, पर उसे कोई ज्ञान नहीं है या इस योगके लिये उसमें कोई विशेष पुकार नही हैं, और यह योग और यहांका जीवन साधारण योग तथा साधारण आश्रमोंके जीवनसे बिलकुल भिन्न वस्तुएं हैं । दूसरे जगहोंकी तरह यहांका जीवन ध्यानपरायण निवृत्तिका जीवन नहीं है । इसके अतिरिक्त, उसको बिना देखे और निकटसे यह बिना जाने कि वह कैसी हो कुछ भी मांग करना हमारे लिये असंभव है । आजकल हम बहुत थोडेसे लोगोंके सिवा आश्रममें अधिक सदस्य भर्त्ती करना नहीं चाहते ।
कुछ लोंगोंके लिये यहां रहे बिना ' 'जीवनका उत्सर्ग करना' ' सर्वथा संभव है ।
यह आभ्यंतरिक भावका तथा भगवान्के प्रति सत्ताके पूर्ण उत्सर्ग कर देनेका प्रश्न
हम नही समझते कि ('अ' का आकर आश्रममें रहना) इस अवस्थामें उपयोगी होगा । आश्रममें आ जानेपर कठिनाइयां समाप्त नहीं हो जाती-तुम जहां भी रहो, तुम्हें उनका सामना करना और उन्हें जीतना होगा । कुछ विशेष प्रकृतिवाले लोंगोंके लिये प्रारंभसे आश्रममें निवास करना उपयोगी होता है - दूसरोंको बाहर रहकर तैयारी करनी होती है ।
मैंने तुम्हारे पत्रको पढा है और विचार किया है और यह निश्चय किया है कि तुम्हें बह सुयोग दिया जाय जिसे तुम मांग रहे हो - तुम आरंभ करनेके लिये आश्रम- मे दो या तीन महीने रह सकते हो, और यह देखो कि आया यही वास्तवमें वह स्थान और मार्ग है जिसे तुम खोज रहे थे और हम भी तुम्हारी आध्यात्मिक संभावनाओंका अधिक निकटसे निरीक्षण करके यह निर्णय कर सकते हैं कि किस तरह उत्तम रूपमे हम तुम्हें सहायता कर सकते हैं और आया यह योग तुम्हारे लिये सबसे अच्छा हे या नहीं ।
कई कारणोंसे यह परीक्षण आवश्यक है, पर विशेषत: इस कारण कि यह योग- साधना कठिन है और बहुत अधिक लोग यथार्थमें उन मांगोंको पूरा नहीं कर सकते जिन्हें यह प्रकृतिसे चाहता है । तुमने लिखा है कि तुमने मेरे अन्दर एक ऐसे व्यक्तिको देखा जिसने बुद्धिकी पूर्णताके द्वारा, उसको अध्यात्मभावापत्र और दिव्यभावापत्र करके सिद्धि पायी; पर वास्तवमें देखा जाय तो मैं मनकी पूर्ण नीरवताके द्वारा पहुँचा और मेरे मनमें जिस किसी अध्यात्मभावापत्र और दिव्यभावापत्र स्थितिको प्राप्त किया वह उस नीरवतामें एक उच्चतर अति-बौद्धिक ज्ञानके अवतरित होनेसे प्राप्त किया । स्वयं वह पुस्तक, ' 'गीता-प्रबंध' ', मनकी उसी नीरवतामें, बौद्धिक प्रयासके बिना और ऊपरसे आनेवाले इस ज्ञानकी अबाध क्रियाके द्वारा लिखी गयी थी । यह महत्त्वपूर्ण बात है, क्योंकि इस योगका सिद्धांत मानव-प्रकृतिको, जैसी कि यह है, पूर्ण बनाना नही है, बल्कि एक आंतरिक चेतनाकी क्यिाकी द्वारा सत्ताके सभी भागोंका चैत्य और आध्यात्मिक रूपांतर साधित करना हे और फिर एक उच्चतर चेतनाके द्वारा करना है जो उनपर क्रिया करती है, उनकी पुरानी क्रियाओंकी दूर फेंक देती है या उन्हें अपनी ही प्रतिमूर्त्तिमें बदल देती है और इस तरह निम्रतरको उच्चतर प्रकृतिमें परिवर्त्तित कर देती है । यह बुद्धिकी उतनी अधिक पूर्णता नहीं है जितना कि यह उसका अतिक्रमण है, मनका एक रूपांतर है, ज्ञानके एक विशालतर और महत्तर तत्त्वको उसके स्थानमें
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साधना - आश्रममें और बाहर 345 ला बिठाना है - और यही सत्ताके बाकी सभी अंगोंके साथ करना हैं ।
यह एक धीमी और कठिन प्रक्रिया है; पथ लंबा है और आवश्यक आधारको भी स्थापित करना मुश्किल हैं । पुरानी वर्तमान प्रकृति विरोध करती और बाधा देती है और एकके बाद एक और बार-बार कठिनाइयां उठती हैं जबतक कि वे जीत नहीं ली जाती । इसलिये इस विषयमें निस्सदिग्ध होना आवश्यक है कि अंतिम रूपमें इसपर चलनेका निर्णय करनेसे पहले मनुष्य यह जान लें कि यही वह पथ हैं जिसपर चलनेके लिये उसे आह्वान प्राप्त है ।
यदि तुम चाहो, हम तुम्हें परीक्षणका अवसर देनेके लिये तैयार हैं जिसे तुम चाहते हो । तुम्हारा उत्तर पानेपर श्रीमाताजी आश्रममें तुम्हारे ठहरनेकी आवश्यक व्यवस्था करेंगी ।
सत्ताके पूर्ण आध्यात्मिक जीवनके लिये तैयार हों जानेसे पहले सांसारिक जीवन- का त्याग करना लाभदायी नही होता । ऐसा करनेका अर्थ है अपनी सत्ताके विभिन्न अंगोंमें संघर्ष खड़ा कर देना और उसे इतनी तीव्रतातक उभार देना कि उसे सहन करने- के लिये प्रकृति तैयार न हों । तुम्हारे अन्दरके प्राणिक तत्वोंके अंशत: अनुशासन तथा जीवनके अनुभवका सामना करना होगा, जब कि आध्यात्मिक लक्ष्यको अपनी दृष्टके सामने रखना होगा तथा कर्मयोगका भावनाके साथ धीरे-धीरे उसके द्वारा जीवनको परिचालित करनेका प्रयास करना होगा ।
बस, यही कारण है कि हमने तुम्हारे विवाहका समर्थन किया ।
नहीं, आश्रममें रहना पर्याप्त नही है; मनुष्यको श्रीमाताजीकी ओर उद्घाटित होना होगा और मनको त्याग देना होगा जिसके साथ वह संसारमें खेल रहा था ।
यहा कोई औपचारिक दीक्षा नहीं है, स्वीकृति ही पर्याप्त हे, पर मैं सामान्यतया तबतक स्वीकार नहीं करता जबतक कि मैं अथवा श्रीमाताजी उस व्यक्तिको नही देख लेती अथवा जबतक कि कोई स्पष्ट चिह्न नहीं होता कि वह इस योगके लिये निर्दिष्ट हैं । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जो लोग शिष्य होना चाहते हैं वे स्वीकृतिसे पहले स्वप्त या सूक्ष्मदर्शनमे मुझे देख चुके होते हैं ।
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जो कुछ तुम कहते हो वह सही है । यह मनोभाव कि भगवान्को साधककी आवश्यकता है और साधकको भगवान्की आवश्यकता नहीं है, एकदम गलत और मूर्खतापूर्ण है । जब लोग यहां स्वीकृत होते हैं तो उन्हें एक महान् भागवत करुणाका, एक महान् कार्यका यत्र होनेका सुयोग प्रदान किया जाता है । यह मानना कि इस या उस ब्यक्तिकी सहायताके बिना भगवान् अपना कार्य ' 'नहीं कर सकते' ', निश्चय हीं अत्यंत अहंकारपूर्ण और अयुक्तिसंगत बात है । उन्हें गीताकी यह युक्ति याद करनी चाहिये कि ' 'ऋतेदुपि त्वाम्' ', ' 'तेरे बिना भी' ' कार्य संपत्र हों सकता है और यह कि ' 'निमित्तमात्रं भव' ' -- ' 'उसका निमित्त बनो । ''
मैं प्रणाम आदिकी बात नही सोच रहा था जिसका कि बड़ा जीवत महत्व है, बल्कि उन पुरानी रीतियोंकी बात सोच रहा था जो बनी हुई हैं यद्यपि अब उनका कोई मूल्य नही है -- उदाहरणार्थ, मृतकोंका श्राद्ध । फिर यहां ऐसी प्रथाएं हैं, जिनका इस योगके साथ कोई संबंध नही है -- उदाहरणार्थ, जो ईसाई ईसाई प्रथाओंसे या मुसलमान नमाजसे या हिन्दू संध्यावदनसे पुराने ढंगसे चिपके रहते हैं, वे बहुत शीघ्र देखेंगे कि वे या तो समाप्त हों रहीं हैं या उनकी साधनाके मुक्त विकासके लिये एक बाधा हों रही है ।
II
तुमने जो कुछ लिखा है उससे पता चलता है कि तुम्हें कर्मके विषयमें एक भ्रांत धारणा है । आश्रममें कर्मका उद्देश्य मानवजातिकी सेवा या उसके एक भाग, जिसे आश्रमके साधक कहते है, की सेवा नही है । यह इसलिये भी नही है कि इससे या तो लोगोंको एक सुखपूर्ण सामाजिक जीवन पानेके लिये और साधकोंके बीच भावुकताओं तथा आसक्तियोका प्रवाहित .होनेके लिये और प्राणिक क्रियाओंकी अभिव्यक्तिके लिये, चाहे कुछको साथ या सबके साथ मुक्त प्राणिक आदान-प्रदानके. लिये सुअवसर प्राप्त हों । यहांका कर्म भगवान्की सेवाके रूपमे और भगवान्के प्रति आंतरिक उद्घाटन- के लिये, एकमात्र भगवान्को समर्पण करनेके लिये, अहंकार तथा सभी साधारण प्राणिक क्रियाओंका त्याग करनेके लिये, चैत्य उत्कर्ष, नि:स्वार्थभावके, आज्ञाकारिता, सभी मानसिक, प्राणिक या सीमित व्यक्तित्वके दूसरे-दूसरे स्वाग्रहके त्यागके लिये एक क्षेत्र- के रूपमें अभिप्रेत है । आत्मपुष्टीकरण लक्ष्य नही है, समष्टिगत प्राणिक अहंकी रचना करना भी उद्देश्य नही हैं । भगवान्के साथ एकत्व प्राप्त कर उसमें तुच्छ अह- को डूबा देना, शुद्धीकरण, समर्पण, अपनी व्यक्तिगत भावनाओं और व्यक्तिगत अनु- भवोंपर आधारित अपने निजी अज्ञानपूर्ण आत्म-निर्देशनके स्थानमे भागवत पथ- प्रदर्शनको लें आना अर्थात् अपनी निजी संकल्प-शक्तिको भागवत संकल्प-शक्तिके
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यदि कोई यह अनुभव करता हों कि मनुष्य तो समीप हैं और भगवान् दूर और मानव-प्राणियोकी सेवा और प्रेमके द्वारा वह भगवान्की खोज करता है, न कि भग- वान्की प्रत्यक्ष सेवा और प्रेमके द्वारा, तो वह एक गलत सिद्धांतका अनुसरण कर रहा है - क्योंकि वह तो मानसिक, प्राणिक और नैतिक जीवनका सिद्धांत है, न कि आध्या- त्मिक जीवनका ।
["सर्वभूतके अन्दर भगवानका प्रेम तथा सब वस्तुओंमें उसकी क्रियाओंका निरंतर बोध होते रहना और उसे स्वीकार करना । '' साधारण कर्मयोगका लिये यह बिलकुल ठीक है जो विश्वात्माके साथ युक्त होनेको अपना लक्ष्य मानता हैं और अधिमानसतक जाकर एकाएक रुक जाता है -- परंतु यहां एक विशेष कार्य करना है और केवल स्वयं अपने लिये नही बल्कि पृथ्वीके लिये एक नयी सिद्धि प्राप्त करनी है । शेष संसारसे पृथक् अवस्थित होना आवश्यक हे जिसमें कि हम एक नवीन चेतना- को उतार लानेके लिये साधारण चेतनासे अपनेको पृथक् कर सकें ।
यह बात नही कि सबके प्रति प्रेम रखना साधनाका अंग नहीं है, परंतु इसे तुरत सबके साथ मिलने-जुलनेका रूप नही ले लेना चाहिये - यह केवल एक सामान्य, और जब आवश्यक हों तो, एक सक्रिय सार्वजनीन सदिच्छाके रूपमें प्रकट हों सकता हे, परंतु बाकी चीजोंके लिये इसे पृथ्वीके लिये उसके सभी प्रभावोंके साथ उच्चतर चेतनाको नीचे उतार लानेके इस प्रयासके अन्दर एक छिद्र ढूंढ निकालना होगा । सभी चीजोंमें भगवान्की क्रियाको स्वीकार करनेकी जो बात है, वह यहां भी आवश्यक है इस अर्थमें कि इसे अपने संघर्षों और कठिनाइयोंके पीछे भी देखना होगा, पर मनुष्यके स्वभावको और संसारको, जैसा कि यह है, स्वीकार नहीं करना होगा -- हमारा लक्ष्य हे एक अधिक दिव्य क्रियाकी ओर आगे बढ़ना जो अभी जो कुछ है उसके स्थानमें एक महत्तर और सुन्दरतर अभिव्यक्तिको स्थापित करेगी । यह भी दिव्य प्रेमका ही एक कार्य है ।
हमारे अपने दृष्टिकोणके बारेमें; वह यह है कि साधारण जीवन इस अर्थमें माया है, यह नही कि यह एक भ्रम-भ्रांति है, क्योंकि इसकी सत्ता है और बहुत यथार्थ है, पर यह एक अज्ञान है, एक ऐसी वस्तु है जो आध्यात्मिक दृष्टिसे जो कुछ मिथ्यात्व है उसीके ऊपर स्थापित है । अतएव इससे बचना युक्तिसंगत है अथवा यों कहें कि हम उसके साथ थोड़ा संपर्क रखनेको बाध्य हैं पर हम उसे जहांतक संभव है वहांतक कम करते हैं, इतना कम जितना कि हमारे उद्देश्यके लिये उपयोगी है । हमें जीवनको मिथ्या-
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त्बसे मोडकर आध्यात्मिक सत्यमें, .अज्ञानके जीवनसे आध्यात्मिक ज्ञानके जीवनमें ले जाना है । परंतु जबतक हम इसे स्वयं अपने लिये करनेमें सफल नही हों जाते, तबतक यह अधिक अच्छा है कि संसारके अज्ञानमय जीवनसे हम अपनेको अलग रखें, अन्यथा यह संभव है कि हमारी नन्हीसी धीरे-धीरे वर्द्धित होनेवाली ज्योति इसके चारों ओर विद्यमान अंधकारके समुद्रोंमें निमज्जित हों जाय । जैसा कि अभी यह है, यह प्रयास काफी कठिन है - यदि हम संसारसे पृथक् न होते तो यह दसगुना अधिक कठिन हों जाता ।
यहांका कार्य और संसारमें किया गया कार्य निस्संदेह एक ही चीज नही हैं । वहांका कार्य किसी भी तरह विशिष्ट रूपमें कोई दिव्य कर्म नहीं है - वह संसारका सामान्य कर्म है । परंतु फिर भी मनुष्य उसे एक प्रशिक्षणके रूपमें ले सकता है और कर्मयोगकी भावनाके साथ कर सकता है - महत्त्वपूर्ण बात स्वयं कर्मका स्वरूप नहीं है, बल्कि जिस भावके साथ वह किया जाता है उसका है । वह गीताकी भावनाके साथ, कामनाके बिना, अनासक्तिके साथ, तिरस्कारके बिना किया जाना चाहिये, और किया जाना चाहिये यथासंभव पूर्ण रूपमें, परिवारके लिये या पदोत्रतिके लिये या उच्चाधिकारियोंके खुश करनेके लिये नही किया जाना चाहिये, बल्कि महज इस कारण किया जाना चाहिये कि यह वह कार्य है जो संपन्न करनेके लिये अपने हाथोंमें सौंपा गया है । यह आंतरिक प्रशिक्षणका एक क्षेत्र है, और कोई चीज नही । इसके द्वारा मनुष्यको ये चीज़ें सिखनी होंगी: समता, निष्कामभाव, आत्मोत्सर्ग । कर्म वह चीज नहीं है जिसे उसीके तई किया जाय, बल्कि वह चीज है जिसे हम इसलिये करते हैं और इस ढंगसे करते हैं ?? हम उसे भगवान्को उत्सर्ग कर दें । इस भावसे करनेपर, इसका कोई महत्व नही कि वह कार्य क्या है । यदि कोई इस भांति आध्यात्मिक भावसे अपनेको प्रशिक्षित करे तो जो कोई भी विशिष्ट कार्य (जैसे कि आश्रमके कार्य) प्रत्यक्ष रूपमें भगवान्के लिये करनेको उसे किसी भी दिन दिया जायगा, वह उसे यथार्थ ढगसे करनेके लिये तैयार हों जायगा ।
स्पष्ट ही यहांका जीवन उस स्थानका जीवन नही है जहां मन और प्राण संतुष्ट और चरितार्थ होनेकी या भड़कीला जीवन बितानेकी आशा कर सकते हैं । सच पूछो तो जब कोई अंतरमें निवास करता है केवल तभी जीवन संतोषजनक होता है...... । परंतु जो व्यक्ति सुनिश्चित आंतरिक जीवन जीता है उसके लिये जीवनमें कोई नीरसता नही आती । अंतरमें साक्षात्कार पाना ही प्रथम उद्देश्य होना चाहिये; उसके बाद ही उसके परिणामस्वरूप, पुरानी सत्ता और चेतनाके आधारपर नहीं, बल्कि सच्ची
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आंतरिक सत्ता और एक नवीन चेतनाके आधारपर भगवानका कार्य संपन्न हो सकता है । तबतक कर्म और जीवन ' 'आत्म-परिपूर्णता' ' नहीं अथवा पुराने आधारपर स्थापित एक चमकीला और मजेदार प्राणिक जीवन नही, बल्कि साधनाका एक साधन- मात्र हो सकते हैं ।
यहां ऐसी कोई चीज नहीं जो मानवीय प्राण-प्रकृतिकी सेवा करे; यहांका कार्य छोटा, नीरव, बाहरी जगत् तथा उसकी परिस्थितियोंसे पृथक् है और इसका महत्व केवल आध्यात्मिक आत्मोत्रतिके क्षेत्रके रूपमें ही है । यदि कोई मात्र आध्यात्मिक आशयसे परिचालित हों और आध्यात्मिक चेतना रखता हों तो वह इस कार्यमें हर्ष और दिलचस्पी अनुभव कर सकता है । अथवा यदि, अपनी मानवीय कमियोंके बावजूद, कर्मीका झुकाव मुख्यतः आध्यात्मिक प्रगतिकी और आत्मपरिपूर्णताकी ओर हो तो भी वह इस कार्यमें दिलचस्पी ले सकता है और इस खोज तथा अपनी अहंकार- पूर्ण मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृतिके शुद्धीकरणके लिये इसकी उपयोगिताको समझ सकता एवं साथ हीं भगवान्की सेवाके रूपमें इसमें हर्ष प्राप्त कर सकता है ।
यह बिलकुल हीं उपयोगी होनेका कोई प्रश्न नहीं है - यद्यपि तुम्हारा कार्य, जब तुम इसमें अपनेको प्रयुक्त करते हों, बहुत उपयोगी होता है । कर्म साधनाका अंग है, आrर साधनामें उपयोगिताका प्रश्न नहीं उठता, बह तो वस्तुओंका एक बाहरी व्याबहारिक मानदंड है,-यद्यपि बाहरी सामान्य जीवनमें भी उपयोगिता एकमात्र मानदंड नही है । प्रश्न है भगवान्के प्रति अीप्साका, इस बातका आया वही जीवन तुम्हारा केंद्रीय लक्ष्य है, तुम्हारी आंतरिक आवश्यकता है या नही । स्वयं अपने लिये साधना करना दूसरी बात है -- कोई उसे ग्रहण कर सकता या उसे छोड़ सकता है । यथार्थ साधना भगवान्के लिये होती है - यह अंतरात्माकी आवश्यकता है और कोई यदि अवसानक क्षणोंमें यह सोचता भी हो कि वह उसे छोड़ सकता हे तो भी, वह उसे छोड़ नहीं सकता ।
यहांका कार्य इसलिये नहीं है कि कोई अपनी क्षमता दिखावे या गदप्रतिष्ठा पाथेय श्रीमाताजीका भौतिक सान्निध्य पानेका एक साधन बनावे, बल्कि यह पूर्ण- योगके कर्मयोग-भागके लिये एक क्षेत्र और एक सुयोग है, यथार्थ यौगिक ढंगसे कार्य करना, सेवाके द्वारा आत्मोत्सर्ग करना, व्यावहारिक रूपमें निरबार्थता ग्रहण करना,
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आज्ञापालन, विवेकशीलता, अनुशासन, भगवान् और भगवान्के कार्यको सर्वप्रथम तथा अपने-आपको अंतमें रखना, समस्वरता, धैर्य, सहनशीलता आदि-आदि सीखनेके लिये है । जब कार्यकर्त्ता इन चीजोंको सीख लेंगे और अहंकेंद्रित होना, जैसे कि अभी तुम अधिकांश लोग हों, बंद कर देंगे तभी काम करनेका वह समय आयेगा जिसमें वास्तवमें क्षमता दिखायी जा सकती है, यद्यपि उस समय भी क्षमताका प्रदर्शन एक गौण घटना होगा और कभी भी मुख्य तथ्य या दिव्य कर्मका उद्देश्य नही हो सकता ।
प्रत्येक व्यक्तिके लिये कलाकार या लेखक होने या कोई सार्वजनिक ढगका कार्य करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । 'अ' और 'ब' मे अपनी-अपनी निजी क्षमताएं हैं और वर्तमानके लिये यह पर्याप्त है कि वे अपनेको श्रीमाताजीके कार्यके लिये उपयोगी बनानेके लिये प्रशिक्षण ग्रहण करें । दूसरोंमें महान् क्षमताएं हैं जिन्हें वे आश्रमके तुच्छ तथा हीन कार्यमें व्यवहार करनेमें संतुष्ट हैं और किसी बड़े कार्यमें जनताके सम्मुख आनेकी परवा नहीं करते । अभी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऊपरसे सत्य-चेतनाको पाया जाय, अहंसे मुक्त हुआ जाय (जिसे अभीतक किसीने नहीं किया है) और भगवती शक्तिका यंत्र बनना सीखा जाय । उसके बाद हीं अभिव्यक्ति हो सकती है, उससे पहले नही ।
जिसे राजनीति कहा जाता है वह अत्यंत राजसिक, दोषपूर्ण और सभी प्रकारके अहंजनित आशयोंकी खिचड़ी है । हमारा पथ है परिवर्तनके लिये पार्थिव चेतनाके ऊपर आत्माका दबाव डालना ।
नहीं, यह (राजनीति) किसीको एक कार्यके रूपमें नही दी गयी है । लोग उसे इसलिये जारी रखते हैं कि उनमें उसके लिये एक मानसिक दिलचस्पी है या उन्हें एक अभ्यास पड़ गया है जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते, यह ठीक चाय पीने या उस ढंगकी अन्य किसी चीजकी प्राणिक आदत-जैसी चीज है । यही नही कि राजनीति किसीको एक कार्यके रूपमें केवल हैं नही गयी है बल्कि जहांतक संभव हो राजनीतिक आलोचनाको भी निरुत्साहित किया गया है ।
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परंतु इसमें संदेह नही कि एकमात्र राजनीति ही प्राणके लिये संभावनीय कार्य नहीं है - दूसरे सैकड़ों कार्य हैं । जब कभी कोई वस्तु उत्पन्न, निर्मित, संगठित, उपलब्ध करने तथा जीतनेके लिये होती है तो उस समय प्राण ही वह शक्ति हैं जो अपरिहार्य होती है ।
मैंने यह नियम बना लिया है कि मैं राजनीतिके विषयमें कुछ नही लिखूंगा । फिर एसेम्बली-जैसी सभामें क्या किया जाय, यह प्रश्न परिस्थितियोंपर निर्भर करता है, उस परिस्थितिकी व्यावहारिक आवश्यकताओंपर निर्भर करता है जो तेजीसे बदल सकती है । एक. ऐसी सभाका कार्य आध्यात्मिक ढंगका नही होता । वैसे तो सभी प्रकारके कार्य पीछे न्त्रिद्यमान आध्यात्मिक चेतनाके द्वारा किये जा सकते है, पर जबतक मनुष्य बहुत दूरतक आगे नहीं बढ़ जाता, वह वास्तवमें स्वयं उस कार्यकी आवश्यकताओं तथा उसके विशिष्ट स्वरूपके द्वारा ही निश्चित रूपमें परिचालित होता है । चूँकि तुम इस दलमें सम्मिलित हुए हो, उसका कार्यक्रम अवश्य ही तुम्हारा अपना कार्यक्रम होना चाहिये और तुम्हें जो करना हैं वह यह है कि तुम उस दलमें उस समस्त ईमान- दारी, दक्षता और नि:रबार्थभावको ले आओ जिसे लानेके तुम योग्य हों । तुमने कोई पद स्वीकार न करके अच्छा ही किया है, क्योंकि तुमने प्रतिज्ञा की है । जो हों, कोई साधक जब राजनीतिमें प्रवेश करता है तो उसे स्वयं अपने लिये नही, बल्कि देशके लिये कार्य करना चाहिये । यदि वह पद स्वीकार करता है तो उसे तभी उसे स्वीकार करना चाहिये जब कि वह उसके द्वारा देशके लिये कुछ कार्य करनेमें समर्थ हों और तबतक स्वीकार नहीं करना चाहिये जबतक कि उस पदके लिये वह अपने चरित्र और योग्यता और उपयुक्तताको सिद्ध नहीं कर देता । तुम्हें एक उच्च आदर्शपर चलना चाहिये जो तुम्हें अपने विरोधियोंसे भी सम्मान दिलाये और मतदाताओंके चुनावको उचित सिद्ध करे ।
प्रचारका जहांतक संबंध है, मैंने यह देखा है कि यह हमारे लिये पूर्णत: अनुपयोगी है -- यदि उसका कोई प्रभाव हो भी तो वह बहुत सामान्य और निरर्थक हीं प्रभाव होगा और उसके लिये उठाये गये कष्टके उपयुक्त नही होगा । यदि सत्यको फैलना है तो वह स्वयं अपनी ही चालसे फैलेगा, ये चीज़ें अनावश्यक हैं ।
सुप्रसिद्ध या अप्रसिद्ध होनेका आध्यात्मिक दृष्टिसे तनिक भी महत्व नही है ।
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यह केवल प्रचारकी भावना है । हमारा कोई ऐसा दल या मठ-मंदिर या धर्ममत नहीं है जो अनुयायियों या नये शिष्योंकी तलाश किया करता है । सच्चे दिलसे योगका अनुसरण करनेवाला एक मनुष्य भी हजारों सुप्रसिद्ध मनुष्योंसे अधिक मूल्यवान् है ।
ऐसे अनुभवोंमें होनेवाला भय एक ऐसी चीज है जिससे साधकको अवश्य मूर्त होना चाहिये; यदि कोई खतरा हो तो श्रीमाताजीको पुकारना पर्याप्त है, पर वास्तवमें वहां कोई खतरा नही होता -- क्योंकि संरक्षण वहां विद्यमान होता है ।
यह सही है कि यहां कई लोग ऐसे है जो बाहरसे आनेवाले लोंगोंके पीछे-पीछे दोहते हैं, विशेषत. यदि वे प्रसिद्ध या प्रतिष्ठित हों । यह मनुष्य-स्वभावकी एक मामूली कमजोरी है और, मानवस्वभावकी अन्य कमजोरियोंकी तरह, साधक इस कमजोरी- से भी छुटकारा पानेके इच्छुक नही प्रतीत होते । इसका कारण यह है कि वे पर्याप्त रूपमें अन्तरमें निवास नहीं करते, इसलिये जब कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु या महत्त्वपूर्ण (या वैसा माना जानेवाला) व्यक्ति बाहरसे आता है तो उनका प्राण उत्तेजित या आकर्षित हों जाता है ।
' अ' या अन्य लोग क्या सोचते या कहते हैं, आखिरकार उसका बहुत अधिक मूल्य नही है, क्योंकि हम अपने कामके लिये उनपर नही, बल्कि केवल भागवत संकल्प- शक्तिपर निर्भर करते हैं । कितने ही लोगोंने ( बाहरके लोगोंने) हमारे बारेमें और हमारे विरुद्ध सभी प्रकारकी बातें कही और सोची हैं, उससे तनिक भी हमारे या हमारे कार्यके ऊपर कभी प्रभाव नही पड़ा हे; उसका बहुत ही गौण महत्व है ।
III
एक ऐसे आश्रममें, जो 'अ' के कथनानुसार, आध्यात्मिक और अतिमानसिक योगकी एक ' 'प्रयोगशाला' ' है, यह आवश्यक ही नही वरन् अनिवार्य है कि नाना प्रकार- के मनुष्य मानवजातिके प्रतिनिधिके रूपमें उपस्थित हों, क्योंकि रूपांतरकी समस्याको अनुकूल और प्रतिकूल सभी प्रकारके तत्त्वोंके साथ निपटना है । सच तो यह है कि एक हीं मनुष्यमें ये दोनों चीज़ें मिलीजुली रहती हैं । यदि केवल सात्त्विक और सुसंस्कृत मनुष्य ही योगके लिये आयें, ऐसे मनुष्य जिनमें प्राणिक कठिनाइयां बहुत अधिक न हों तो, चूँकि पार्थिव प्रकृतिके प्राणिक तत्त्वकी कठिनाईका सामना करके उसे जीता नही गया है, इसलिये यह खूब संभव है कि रूपांतरका प्रयास असफल हों जाय । कुछ अवस्थाओंमें यहांतक भी हो सकता हैं कि मानसिक, प्राणिक और शारी-
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रिक तत्त्वोंके ऊपर एक अधिमानसिक स्तर भी आ उपस्थित हो और वह उन्हें प्रभावित करने लगे । परंतु यह मानव-सत्ताका अतिमानसिक या सर्वोच्च रूपांतर नही होगा । आश्रमवासी साधक सभी कोनोंसे आये हुए हैं और सभी प्रकारके हैं, और यह स्वा- भाविक ही है ।
योगकी प्रक्रियामें, जब एक-एक स्तरपर सामूहिक रूपमें - यद्यपि आवश्यक रूपसे एक-एक ब्यक्तिपर नहीं - क्रिया की जाती है तो उसकी सब कठिनाइयां उठ खड़ी होतीं हैं । इससे आश्रमकी उन बहुतसी बातोंका कारण समझमे आ जायगा जिनके यहां होनेकी आशा लोगोंको नहीं होती । जब ''प्रयोगशाला' ' मे प्रारंभिक कार्य समाप्त हों जायगा तो स्थिति अवश्य बदल जायगी ।
इसके अतिरिक्त, आश्रमवासियोंमें साधारण प्रकारके मानवीय मेलजोलपर अधिक जोर नहीं दिया गया है, क्योंकि वह लक्ष्य नहीं है (यद्यपि पारस्परिक सद्भाव, समादर एव सौजन्य तो सदैव होना ही चाहिये) । लक्ष्य तो है एक नयी चेतनामें एकत्व लाभ करना । हर-एकके लिये सबसे मुख्य चीज है अपनी साधना करना, उस नवीन चेतनातक पहुँचना तथा वहां एकत्वकी उपलब्धि करना ।
साधकोंमें जो कोई भी दोष क्यों न हों, उन्हें ऊपरकी दिव्य ज्योतिसे हीं दूर करना होगा --. सात्विक नियम केवल उन्हीं प्रकृतियोंमें परिवर्तन ला सकता है जिनका झुकाव सात्विक नियमकी ओर हो ।
यदि उसकी श्रद्धा साधकोंकी पूर्णतापर निर्भर करे तो स्पष्ट हीं वह एक यथार्थत निर्बल वस्तु होगी । ऐसा नही माना जाता कि साधक और साधिकाए पूर्ण हैं । सच पूछा जाय तो एकमात्र सिद्धोंके विषयमें हीं कोई दावा कर सकता है कि वे पूर्ण हैं और फिर भी ऐसा दावा मानसिक मानदडके अनुसार नहीं किया जां सकता... । उसकी श्रद्धा अन्य चीजकी अपेक्षा अधिक मानसिक प्रतीत होती है, और मानसिक श्रद्धा आसानी - से भंग हो सकतीं है ।
बहुत अधिक अपना 'स्व' बन जानेके लिये आंतरिक जीवनकी एक विशेष सामर्थ्य- की आवश्यकता होती हे । एकांतवासको किसी प्रकारकी इसकी विपरीत स्थितिके साथ बदल देना अधिक अच्छा हों सकता है । परंतु प्रत्येक अवस्थाके अपने लाभ और अपनी हानियां हैं और केवल जागृत रहने तथा एक आंतरिक स्थिति बनाये रखनेपर ही कोई हानियोंसे बच सकता है ।
इस योगमें आत्मनिवेदन तथा आत्मदानका सामान्य सिद्धांत सबके लिये एक- जैसा है, परंतु आत्म-निवेदन तथा आत्मदानका मार्ग प्रत्येक व्यक्तिका अपना होता
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है । 'अ' ने जो मार्ग अपनाया है वह 'अ' के लिये अच्छा है, ठीक जिस तरह कि तुमने जो मार्ग लिया है वह तुम्हारे लिये ठीक है, क्योंकि वह तुम्हारी प्रकृतिके अनुकूल है । यदि यह नमनीयता तथा विविधता न होती, यदि सबको एक ही नमूनेके अनुसार गढ़ना आवश्यक होता तो योग एक कठोर मानसिक मशीनरी हो जायगा, न कि जीवन्त शक्ति ।
जब तुम अपनी अंतश्चेतनामेसे गा सकते हो जिसमें तुम अनुभव करते हों कि माताजी तुम्हारे सभी कर्म चला रही हैं तो, कोई कारण नही कि तुम्हें वैसा क्यों नही करना चाहिये । क्षमताओंका विकास करना, जब उसे योगका अंग बनाया जा सके तो, वह केवल स्वीकार्य ही नहीं अपितु समीचीन भी है । मनुष्य केवल अपना अंत- रात्मा ही नहीं बल्कि अपनी समस्त शक्तियां भगवान्को समर्पित कर सकता है ।
विशालतर आध्यात्मिक दृष्टके लिये यह कुछ कठिन है कि वह तुम्हारे प्रश्नका उस ढंगसे उत्तर दे जैसे तुम चाहते हो और जैसे प्रत्येक मानव (मनोमय प्राणी) चाहता है, अर्थात् ऐसा निर्णयात्मक उत्तर दे कि ' 'तुम्हें ऐसा करना चाहिये' ' या ' 'तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये' ' - विशेषकर जब ' 'तुम्हें' ' का प्रयोग ' 'सबको' ' के अर्थमें किया जाय । क्योंकि आंतर आध्यात्मिक विषयोंमें जहां अ लक्ष्यकी समानता होती है, जहां प्रयत्नकी सर्व-सामान्य स्थूल रूपरेखाएं भी होती हैं, वहां ब्योरेकी बातोंमें कोई एक ही सार्वभौम नियमावली नही होती जो सभी जिज्ञासुओंपर लागू हों सके । तुम पूछते हो ' 'क्या अमुक-अमुक वस्तु हानिकर नहीं है ''' परंतु जो वस्तु एकके लिये हानिकारक है वह किसी दूसरेके लिये हितकारक हो सकती है, जो वस्तु किसी अवस्था- विशेषमें सहायक है, वह एक और अवस्थामें बाधक हों सकती हैं, जो चीज किसी एक परिस्थितिमें हानिकारक है वही किसी दूसरी परिस्थितिमें सहायक हों सकती है, जो काम किसी विशेष भावनासे करनेपर अमंगलकारी हों सकता है, वही एक बिलकुल भिन्न भावनासे करनेपर अनुपकारी या यहांतक कि लाभदायी भी हो सकता है.... । इस प्रसंगमें कितनी ही बातें विचारणीय हैं, भावना, परिस्थिति, व्यक्ति, प्रकृतिकी. आवश्यकता एवं बनावट, अवस्था आदि-आदि । इसीलिये यह बार-बार कहा जाता है कि गुरुको प्रत्येक शिष्यसे उसकी विभिन्न प्रकृतिके अनुसार बरतना चाहिये और तदनुरूप उसकी साधनाका पथप्रदर्शन करना चाहिये । यदि सभीके लिये साधनाकी एक ही प्रणाली हों तो भी प्रत्येक स्थलपर यह हरएकके लिये भिन्न-भिन्न होती है । यह भी एक कारण है जिससे हम कहते हैं कि भगवान्की कार्यशैली मनरो नही समझी जा सकती, क्योंकि मन बंधे-बंधाये नियमों और मापदंडोंके अनुसार कार्य करता है, जब कि आत्मा समष्टिसंबंधी सत्य तथा व्यष्टिसंबंधी सत्य देखती है और अपनी व्यापक एवं गहन दुष्टिके अनुसार नाना प्रकारसे कार्य करती है । यह भी एक कारण है जिससे हम कहते हैं कि कोई भी अपनी निजी मानसिक निर्णय-शक्तिसे श्रीमाताजीके कार्यों तथा उनके कार्यके हेतुओंको नही समझ सकता. ये तो विशालतर चेतनामें प्रवेश
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कर लेनेपर ही समझमें आ सकते हैं जिस चेतनासे श्रीमाताजी सभी चीज़ें देखती और उनपर क्रिया करती हैं । यह बात मनको चकरानेबाली है क्योंकि वह तो अपने क्षुद्र पैमानेका ही प्रयोग करता है; परंतु इस विषयका सत्य यही है ।
इस प्रकार तुम देखोगे कि यहां कोई मानसिक नियम नहीं है, वरन् प्रत्येक उदाहरणमें पथप्रदर्शनका निर्धारण आध्यात्मिक हेतुओंसे किया जाता है जो स्वभावत: लचीले होते हैं । बस, और कोई विचारणा नहीं, और कोई नियम नहीं । संगीत, चित्र- कला, काव्य तथा अन्य अनेक प्रवृत्तियां जो मन और प्राणसे संबंध रखती हैं, आध्यात्मिक विकासके या कर्मके अंगके रूपमें तथा आध्यात्मिक प्रयोजनके लिये बरती जा सकती हैं यह उस भावनापर निर्भर करता तै जिससे ये चीज़ें की जाती हैं ।
भला श्रीमाताजीको प्रत्येक व्यक्तिके साथ एक ही तरीकेसे व्यवहार करनेके लिये बाध्य क्यों होना चाहिये? ऐसा करना उनके लिये एक अत्यत बेकार बात होगी ।
यह सत्य बात नहीं है कि जो कुछ मैं लिखता हूँ वह सब प्रत्येक व्यक्तिके लिये एक समान अर्थ रखता है । तब तो इसका मतलब यह होगा कि हरएक व्यक्ति एक समान है और साधक-साधकके बीच कोई अंतर नही है । यदि ऐसा होता तो प्रत्येक व्यक्ति एक तरहसे प्रगति करता, एक-सी अनुभूतियां पाता और प्रगति करनेके लिये एक ही क्रम और एक हीं अवस्थाओंसे गुजरते हुए एक ही समय लेता । मगर बात बिलकुल ही ऐसी नहीं हे । इस प्रसंगमें साधारण नियम उस व्यक्तिके लिये निर्धारित किये गये थे जिसन्ए कोई प्रगति नही की थी - परंतु प्रत्येक चीज इस बातपर निर्भर करती है कि प्रत्येक व्यक्ति योगका किस प्रकार प्रारंभ करता है ।
जो बात दूसरे व्यक्तिके लिये लिखी गयी है उसे अपने लिये व्यवहारमें प्रयुक्त करना सर्वदा निरापद नहीं होता । प्रत्येक साधक अपने-आपमें एक स्वतंत्र विषय हैं और कोई सर्वदा या बहुधा किसी मानसिक नियमको लेकर कठोरतापूर्वक उन सब लोगोंपर लागू नहीं कर सकता जो योगाभ्यास कर रहे हैं । मैंने ' अ' को जो कुछ लिखा था वह 'अ' के लिये अभिप्रेत था और उसके प्रसंगमें उपयुक्त था, परंतु मान लो कि किसी ऐसे साधकका प्रश्न होता जो 'अ' से भिन्न एकदम अलग ( अनगढ़) प्राणिक स्वभाववाला व्यक्ति होता तो मैं शायद कोई ऐसी बात उससे कहता जो संभवत. उसके एकदम विपरीत प्रतीत होती, जैसे, '' अपनी निम्रतर प्राणिक प्रवृत्तियोंपर जमकर बैठ जाओ,
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भोजनकी अपनी लालसाको निकाल बाहर करो - यह तुम्हारे मार्गमें एक गंभीर बाधा बनकर बैठी है; तुम्हारे लिये अपने इस भागमें जंगली पशु बने रहनेकी जगह, जैसे कि तुम अभी हों, अपनी आदतोमे सन्यासी होना कही अधिक अच्छा होगा । '' जो मनुष्य अपनी भावनाकी तीव्रताके कारण पर्याप्त भोजन या नीदया विश्राम नहीं लेता, उससे मैं कह सकता हूँ, ' 'अधिक खाओ, अधिक सोओ, अधिक विश्राम लो, अपनेको अत्यधिक थका मत दो अथवा अपनी तपस्यामें संन्यासी-भाव मत ले आओ । '' विपरीत प्रकारकी अति करनेवाले दूसरे ब्यक्तिसे मैं एक विपरीत भाषामें ही बोल सकता हूँ । प्रत्येक साधकका अपना एक निजी स्वभाव या उसकी प्रकृतिका एक झुकाव है और दो साधकोंके योगकी गति, जहां उन दोनोंके बीच कुछ सादृश्य भी हों भी, कदाचित् हीं ठीक-ठीक एक जैसी होती है ।
फिर, जो सत्य निर्धारित किये गये हैं उनका प्रयोग करनेमें यह आवश्यक होता है कि उन्हें उनका यथार्थ अर्थ प्रदान जाय । यह बिलकुल ठीक है कि ' 'हमारे पथमें साधकका मनोभाव जबर्दस्ती दबानेका, 'निग्रह का मनोभाव नही होता' '; किसी मानसिक नियम या सिद्धांतको अनुसार अविश्वासित प्राणसत्ताका दमन करनेका मनोभाव भी नहीं है । परंतु इसका यह भी मतलब नहीं है कि प्राणको अपने निजी रास्तेपर हीं चलते रहना होगा और अपनी मौजके अनुसार काम करना होगा । वास्तव- मे, दमन वह पथ नही है, बल्कि एक आंतरिक परिवर्तन है जिसमें निम्रतर प्राणको एक ऐसी उच्चतर चेतना राह दिखाती, प्रकाश देती और रूपांतरित करती है जो प्राणिक कामनाके विषयोंसे अनासक्त होतीं है । परंतु इस चीजको वर्द्धित होने देनेके लिये एक मनोभाव ग्रहण करनेकी आवश्यकता है जिसमें निम्रतर प्राणकी मांगोंकी तुष्टिको क्रमश: घटता हुआ महत्व हीं दिया जाना चाहिये, उनपर एक प्रकारकी प्रभुता, 'संयम', स्थापित करनी चाहिए इन चीजोंके किसी भी कोलाहलसे ऊपर रहना चाहिये, ऐसी चीजोंको, जैसे भोजनको, उनके समुचित स्थानमें सीमित कर देना चाहिये । निम्रतर प्राणका भी अपना स्थान है, उसे कुचलना या मार डालना नही है, बत्वि[ उसे बदल देना है, ' 'दोनों छोरसे उसे कब्जेमें कर लेना है' ' ऊपरी छोरपर उसपर प्रभुत्व और नियंत्रण तथा निचले छोरपर उसका समुचित उपयोग होना चाहिये । मुख्य बात है आसक्ति और कामनासे छुटकारा पाना; वास्तवमें उसके बाद ही संपूर्णत: यथार्थ उपयोग संभव होता है । फिर किस यथार्थ उपायसे, किस कर्मसे, किन प्रक्यिाओंके द्वारा निम्र प्राणके ऊपर यह प्रभुत्व स्थापित होगा - यह निर्भर करता है प्रकृतिपर, विकासक्यिाके दबावपर, योगकी प्रकृत क्रियावलीपर ।
वास्तवमें महत्त्वपूर्ण बात यह नहीं है कि कोई चीज खायी जाय या न खायी जाय; महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किस प्रकार वह या कोई भी खाद्य पदार्थ तुम्हें प्रभावित करता है, तुम्हारी आंतरिक अवस्था क्या है और किस प्रकार इस तरहकी कोई भी लिप्तता, रसोई-पानी या खाने-पीनेमे संलग्न रहना, ' उस ( आंतरिक अवस्था) की प्रगति और परिवर्त्तनके पथको रोकता है या नहीं रोकता, यौगिक साधनाके रूपमें तुम्हारे लिये सबसे उत्तम क्या है । तुम्हारे लिये एक नियम मैं निर्धारित कर सकता हूँ, ' 'ऐसी कोई
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बात मत करो, मत कहो या मत सोचों जिसे तुम श्रीमाताजीसे छिपाना चाहो । '' और यह बात उन आपत्तियोंका उत्तर दे देती है जो ' 'इन छोटी-छोटी बातों' ' की ओर श्रीमाताजीका ध्यान दिलानेके विरुद्ध तुम्हारे अन्दर उठी थीं - तुम्हारे प्राणसे, ठीक है न? तुम्हें भला यह क्यों समझना चाहिये कि श्रीमाताजीको इन बातोंसे परेशानी होगी । और वह उन्हें तुच्छ समझेंगे? यदि ' 'समस्त' ' जीवनको ही योग बन जाना है तो उसमें कौनसी चीज है जिसे तुच्छ या महत्त्वहीन कहा जाय? यदि श्रीमाताजी उत्तर न भी दें तो तुम्हारे कार्य और आत्मविकाससे संबंधित किसी भी विषयको समुचित मनोभावके साथ उनके सम्मुख रखनेका तात्पर्य है उनके संरक्षणके अधीन, परम सत्यके प्रकाशमें, उस दिव्य शक्तिकी किरणोंके नीचे उसे रखना जो रूपांतरके लिये कार्य कर रही है - क्योंकि जिस बातकी ओर उनका ध्यान खींचा जाता है उसके ऊपर वे किरणें तुरत पड़ना और कार्य करना आरंभ कर देती हैं । जब तुम्हारे अन्दरकी आत्मा इसे करनेके लिये तुम्हें प्रेरित करती है तब तुम्हारे अन्दरकी कोई चीज जो इसे न करनेकी सलाह देती हौ यह दिव्य ज्योतिकी किरण तथा दिव्य शक्तिकी क्यिासे बचनेका प्राण- का भलीभाँति एक उपाय हो सकता है ।
मानव-प्रकृतिके साथ मानसिक कठोर नियमोंके अनुसार व्यवहृत होनेवाली मशीनकी तरह व्यवहार नहीं करना चाहिये - उसके जटिल अभिप्रायोंको कार्या- न्वित करनेके लिये एक महान् नमनीयताको जरूरत होती है ।
IV
हां, साधारण जीवनतकमें प्राण और अहंकारके ऊपर एक प्रकारका संयम होना चाहिये - अन्यथा जीवन-निर्वाह असंभव हों जायगा । बहुतसे पशु भी, जो दल बनाकर रहते हैं, कठोर नियमोंका पालन करते और अहंकी क्यिापर एक प्रकारका संयम स्थापित करते हैं मोर उनमेंसे जो पशु उन नियमोंका उल्लंघन करते हैं उन्हें एक बुरे समयका सामना करना पड़ता है । यूरोपके लोग विशेष रूपसे इस बातको समझते है और यद्यपि वे अहंभावसे भरपूर होते हैं फिर भी जब सम्मिलित कार्य या सामूहिक जीवनका कोई प्रश्न होता १ तो, यदि यह भीतर-हीं-भीतर बड़बड़ाता भी है तो भी, वे इसे नियंत्रणमें रखनेमें सिद्धहस्त होते हैं; यही उनकी सफलताका रहस्य है । परंतु योग-जीवनमें, निश्चय ही, अहंको संयममें रखनेका प्रश्न नहीं है, बल्कि प्रश्न है उससे छुटकारा पानेका और एक उच्चतर तत्त्वतक ऊपर उठनेका, इसीलिये बहुत अधिक प्रबल रूपमें तथा लगातार किसी प्रकारकी मांगको निरुत्साहित किया जाता है ।
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जिस नियमको प्रत्येक व्यक्ति अपनी मर्जीके अनुसार बदल सकता है बह कोई नियम नहीं है । जिन सब देशोंमें सुसंगठित कार्य सफलतापूर्वक संपन्न किया जाता हैं (भारत उनमें नहीं है), वहां नियम होते हैं और कोई भी उन्हें भंग करनेकी बात नहीं सोचता, क्योंइग्क यह माना जाता है कि विना अनुशासनके कर्म (या जीवन भी) बहुत शीघ्र एक अस्तव्यस्त वस्तु और अराजकतापूर्ण असफलता बन जायगा । भारतके महान् दिनोंमें प्रत्येक चीज नियमके अधीन रखी गयी थीं, यहांतक इश्क फला और काव्य भी, योग भी । यहां वास्तवमें किसी भी यूरोपियन संस्थानकी अपेक्षा नियम बहुत कम कठोर हैं । नियमोंके चौखटेके भीतर भी व्यक्तिगत विवेक पर्याप्त क्रीड़ा कर सकता हैं - परंतु विवेकका व्यवहार सावधानीके साथ करता चाहिये, अन्यथा वह कोई स्वेच्छाचारी या अस्तव्यस्त वस्तु बन जाता है ।
श्रीमाताजी सभी साधकोंके चारों ओर अपना संरक्षण रखती हैं, परंतु दे यदि अपने हीं कर्म या मनोभावके कारण उस संरक्षणके घेरेसे बाहर चले जायं तो उसके अवांछनीय परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं ।
( अनुशासन : इसका अर्थ है सत्यके एक मानदंडके अनुसार या कर्मके एक नियम या विधान (धर्म) के अनुसार या किसी उच्च अधिकारके आज्ञापालनके रूप- मे या अपनी मनमौज, प्राणिक आवेगों और कामनाओंके अनुसार नहीं बल्कि मुक्ति और बौद्धिक संकल्पके द्वारा आविष्कृत उच्चतम सिद्धांतोंके अनुसार कार्य करना । योगमें गुरु या भगवानका आज्ञापालन तथा गुरुद्वारा घोषित सत्यके विधानका अनुसरण करना अनुशासनकी आधारभूमि है ।
तुम गाडीको घोडेके आगे रखते हो । यह शर्त्त लगाना उचित पथ नहीं हैं कि तुम जो कुछ चाहते हो यह यदि पा जाओ तो तुम आज्ञाकारी और प्रसन्न होगे । अपितु सर्वदा आज्ञाकारी और प्रसन्न बने रहो और तम तुम जो कुछ चाहते हो उसे तुम्हारे पास आनेका मौका मिलेगा: ।
कर्मकी यथाक्रम व्यवस्था करनेके लिये नियम अनिवार्य हैं; क्योंकि क्रम और
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व्यवस्थाके विना कोई भी काम समुचित रूपमें संपन्न नहीं हो सकता, सब कुछ संघर्ष, अस्तव्यस्तता और अव्यवस्थामें परिणत हो जायगा ।
दूसरोंके साथके ऐसे सभी व्यवहारोंमें तुम्हें प्रश्नके केवल अपने ही पक्षको नहीं बल्कि दूसरे पक्षको भी देखना चाहिये । तुम्हारे अन्दर कोई क्रोध, तीव्र निन्दा या भर्त्सनाका भाव नहीं होना चाहिये, क्योंकि थे चीज़ें दूसरी ओर केवल क्रोध और प्रतिशोधकी भावना हीं उत्पन्न करती हैं । मैं यह बात इसलिये लिख रहा हूँ कि तुम स्वयं अपने-आपसे ऊपर उठने और अपने प्राणपर अधिकार जमानेकी चेष्टा कर रहे हो और जप कोई ऐसा करना चाहता है तो बह इन चीजोंमें अपने प्रति अत्यंत कठोर नहीं हो सकता । यह भी कहीं अधिक अच्छा है कि मनुष्य अपनी निजी भूलोंके प्रति तो कठोर और दूसरोंकी भूलोंके प्रति उदार हों ।
हां, बिलकुल ठीक । जय मनुष्यमें चैत्य बोध और आध्यात्मिक विवेककी कमी होती है तभी वह इस तरह बातें करता और आज्ञाकारिताके महत्त्वकी उपेक्षा करता है । सच पूछो तो उसका मन, जो चिंतनके अपने निजी तरीकेका अनुसरण करना चाहता हैं और उसका प्राण, जो अपनी कामनाओंके लिये स्वतंत्रता चाहता है, दोनों इस ढंगसे तर्क करते हैं । यदि तुम आध्यात्मिक पथप्रदर्शकके द्वारा निर्धारित नियमोंका अनुसरण न करो अथवा उस व्यक्तिकी आज्ञाका पालन न करो जो तुम्हें भगवान्की ओर ले जा रहा है तो भला तुम किस वातका और किस ब्यक्तिका अनुसरण करना चाहते हो? केवल व्यक्तिगत मनकी भावनाओं और प्राणकी कामनाओंका? परंतु ये चीजे कभी योगमें सिद्धिकी ओर नहीं ले जातीं । वास्तवमें किन्हीं विशेष प्रभावों और उनके संकटोंसे बचानेके लिये तथा आश्रममें आध्यात्मिक विकासके अनु- कूल समुचित वातावरण बनाये रखनेके लिये ही नियम बनाये गये हैं; उनका अनुसरण करना आवश्यक है जिसमें कि साधक अपने मन तथा प्राणसे पृथक् हो सकें और दिव्य सत्यका अनुसरण करना सीख सकें ।
इस तरहके नियमोंका उद्देश्य है साधनाके अनुशासनके अधीन आनेमें प्राण और शरीरको सहायता करना और उन्हें अपनी मनमौजों, आवेगों, सुखासक्तियोंमें बिच्छुरित न होने देना; परंतु उनका पालन सरल ढंगसे होना चाहिये, बड़प्पनकी किसी भावना या वैराग्यके दंभके साथ नहीं, बल्कि महज एक सामान्य दैनंदिन कार्यके रूपमें होना चाहिये । यह भी सच है कि उन्हें अत्यधिक मानसिक कठोरताका आधार भी बनाया जा सकता हैं - मानों 'अपने-आपमें, वे महान् महत्त्वकी चीजों हों और केवल एक साधन न हों । अपने समुचित स्थानमें उन्हें रख देने और यथार्थ भावके
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साथ करनेपर वे अपने उद्देश्यके लिये बहुत उपयोगी हो सकते हैं ।
अधिकांश लोग यह चाहते हैं कि बातें उनकी इच्छाके अनुसार किसी बाधाके बिना या निरपेक्ष रूपमें होनी चाहियें । पूर्णताकी चर्चा करना निरर्थक है । जब प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये स्वयं एक कानून बन जाता है तो उसे पूर्णता नहीं कहते । पूर्णता कामनाओंका परित्याग करने तथा एक उच्चतर संकल्प-शक्तिके प्रति आत्मसमर्पण करनेपर आती है ।
यदि मैं ऐसी बातें कहूं जिन्हें मानव-प्रकृति आसान और स्वाभाविक महसूस करे तो बे अवश्य ही शिष्योंके लिये बहुत सुखदायी होंगी, पर फिर आध्यात्मिक लक्ष्य या प्रयासके लिये वहां कोई स्थान नही रह जायगा । आध्यात्मिक लक्ष्य और पद्धति- या आसान या स्वाभाविक नहीं होतीं (उदाहरणार्थ, जैसे कि लड़ाई-झगड़ा, काम- वासनाकी पूर्त्ति, लोभ-लालसा, आलस्य और सब प्रकारकी अपूर्णताओमें संतोष आदि आसान और स्वाभाविक हैं) और यदि लोग शिष्य बनाते हैं तो यह माना जाता है कि वे आध्यात्मिक लक्ष्यों और प्रयासोंका अनुसरण करेंगे, चाहे वे जितने कठिन और सामान्य स्वभावसे परे हों और ऐसी चीजों हों जो आसान और स्वाभाविक होती है!
बाहरी जगत्में एक प्रकारका मानसिक और सामाजिक संयम है और अन्य वस्तुओंमें तल्लीनता भी है । यहां तुम अपनी निजी चेतनाके साथ एकाकी छोड़ दिये जाते हों और तुम्हें मानसिक और बाह्य संयमके स्थानमें आत्माका एक आंतरिक आत्म- संयम स्थापित करना होता है।
यह कोई दोषतुटि या दंडका प्रश्न नहीं है - यदि हमें लोगोंको उनकी त्रुटि- योंके लिये दोषी ठहराना और दंड देना हो तथा एक न्यायालयकी तरह साधकोंके साथ व्यवहार करना हो तो कोई साधना संभव नहीं हो सकती । मैं नहीं समझता कि हमारे विरुद्ध तुम्हारा .दोषारोपण कैसे न्यायसंगत सिद्ध हो सकता है । साघकोंके प्रति हमारा एकमात्र कर्तव्य है उनकी. आध्यात्मिक सिद्धिकी ओर उन्हें ले जाना - हम किसी
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परिवारके मालिककी तरह व्यवहार नहीं कर सकते - पारिवारिक झगड़ोंमें हस्त- क्षेप करके एकका समर्थन और दूसरेके ऊपर अपना दबाव नहीं डाल सकते । चाहे जितने आधीक बार 'अ' क्यों न ठोकर खाया, हमें उसे हाथ पकड़कर ले चलना होगा, फिरसे ऊपर उठाना होगा और फिर एक बार उसे भगवान्की ओर चलाना होगा । हमने सर्वदा यही तुम्हारे साथ भी किया है । परंतु हमने कभी उसके ऊपर की गयी तुम्हारी किसी मांगका समर्थन नहीं किया । हमें सर्वदा इस विषयका निपटारा इसी भांति करना होगा मानो बह विषय उसके और भगवान्के बीच हों । तुम्हारे लिये, मात्र एक चीजपर हमने जो आग्रह किया है, और वह भी तुम्हारी पूरी सहमतिके साथ और उसे करनेमें सहायता प्राप्त करनेके लिये हमसे की गयी तुम्हारी प्रार्थनाके बाद, वह यह है कि तुम उसके साथ अपने प्राणिक संबंधको एकदम काट दो और अब आगे उस संबधके ऊपर किसी चीजको स्थापित न करो । फिर भी अब तुम हमें यह लिखते हो कि, चूँकि हमने तुम्हारे कार्यका, जो कुछ तुमने 'अ' से कहा था उस कार्यका,-- कोई बात नही कि बह क्या था,-समर्थन नहीं किया है, तुम हमें सदाके लिये त्याग रहे हों ।
मैं तुमसे अवश्य कहूँगा कि तुम अपने श्रेष्ठतर आत्मभावमें और अपनी सत्य- चेतनामें वापस आ जाओ और प्राणिक आवेशकी इन वृत्तियोंको झाडू फेंकों जो तुम्हारे अंतरात्माके अनुपयुक्त हैं । तुमने बार-बार श्रीमाताजीके प्रति अपने प्रेमकी बात, जो आनन्द तुम्हें उनसे प्राप्त हुआ है उसकी तथा अनेक आध्यात्मिक अनुभवोंकी बात लिखी हैं । उसे याद करो और यह याद करो कि वही तुम्हारा वास्तविक पज्य और तुम्हारी यथार्थ सत्ता है और दूसरी किसी चीजका कोई मूल्य नहीं । अपनी यथार्थ स्थितिमें वापस आ जाओ और निम्रतर प्रकृति तथा उसके अंधकार और अज्ञानको वध फेंको ।
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सच पूछो तो कोई ऐसा व्यक्ति यहां नही रखा गया है जिसे जानेकी इच्छा हों या जिसने जानेका निर्णय किया हो -- यद्यपि आध्यात्मिक जीवनका सिद्धांत कुछ समयके लिये भी पुराने जीवनमें वापस चले जानेके विरुद्ध है, विशेषकर जब कि साधक- मे एक गभीरतर लगन हो और नवीन चेतनाका सुदृढ़ आधार पानेका वह प्रयास करता हों -- क्योंकि साधारण वातावरण और परिस्थितियां और अभिप्राय कार्यको नष्ट कर देते तथा प्रगतिको पीछे धकेल देते हैं ।
जब किसी साधकके आंतरिक और बाह्य सत्ताके बीच उतना तीक्या भेद नही होता तो ऐसी स्थितिमें सर्वदा साधकको ही अपना चुनाव करना होता है । वापस
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आनेका जहांतक प्रश्न है, बहुतसे लोग वे बाहर चले गये थे वापस आ गये हैं, दूसरे नही आये हैं - क्योंकि बाहर जानेपर बराबर यह खतरा रहता है कि मनुष्य उन शक्तियोंके प्रवाहमें प्रवेश कर जाय तो वापस आना असंभव बना देती हैं । जो भी निर्णय तुम लो, वह स्पष्ट और सज्ञान होना चाहिये - अन्यथा तुम बाहर जा सकते हो और जैसे ही तुम वहां पहुँचोगे, वापस आना चाहोगे और फिर यहां आ जानेके बाद बाहर जाना चाहोगे; यह बात स्वीकार्य नहीं होगी ।
यह बात अच्छी तरह जानी-समझी है कि जब ( आश्रमसे चले जानेकी अनु- मति दी जाती है तो इसका मतलब यह नहीं कि उस परीक्षणके बुरी तरह असफल होनेकी संभावना नही है । परंतु वह परीक्षण आवश्यक होता है यदि अहंभाव या बाहरी सत्ताका खिंचाव तथा अंतरात्माका खिंचाव भी अत्यधिक तीव्र हो गया हों और अन्य प्रकारसे समाधान आनेकी कोई संभावना न हों अथवा बाह्य सत्ता अनुभव लेनेके लिये आग्रहशील हो ।
सच पूछो तो जब बाह्य सत्ता विशेष रूपसे दिव्य सत्यका परित्याग कर देती है और अपना जीवन बितानेका आग्रह करती है और आध्यात्मिक जीवनका विधान अस्वीकार कर देती है तभी ( आश्रमसे बाहर जानेका परीक्षण अपरिहार्य हो जाता है । मैंने कभी ऐसा नही कहा है कि वह समर्थन करने योग्य है ।
कुछ लोगोंमें यह ( आश्रमसे चले जानेका प्रवेग अत्यंत प्रबल होता है; उन्हें जाना ही होगा और स्वयं अनुभव लेना होगा । परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि जो कोई व्यक्ति, जब कभी कोई कठिनाई अनुभव करेगा, उसे यहांसे चले जाना होगा । उनकी स्थिति असामान्य होती है ।
अपनी प्रकृतिके कठिनतर अंगोंपर विजय पाना, जैसी कि तुम कल्पना करते हो, इतना असंभव नही है । एकमात्र आवश्यकता है तबतक निरंतर प्रयास जारी रखनेकी जबतक कि यह विरोध भंग नही हो जाता और चैत्य पुरुष, जो न तो अनुपस्थित है और न अनभिव्यक्त, दूसरोंपर आधिपत्य जमानेमें समर्थ नहीं हों जाता । यह कार्य
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करना ही होगा चाहे तुम यहां रहो या न रहो और चले जानेपर इस कठिनाईके बढ़ने और अंतिम परिणामको खतरेमें डालनेकी ही संभावना है - इससे तुम्हें सहायता नहीं मिल सकती । एकमात्र यहीं, क्योंकि यहां श्रीमाताजीकी प्रत्यक्ष उपस्थिति विद्य- मान है, इस संघर्षका, चाहे यह जितना भी विकट क्यों न हों, समाधान पाने और इसे सफलतापूर्वक समाप्त किये जानेका सुअवसर और निश्चयता प्राप्त है ।
सामान्यतया यह चीज ऐसे ही घटित होती है -- जब कोई संसारसे बाहर आता है तो जो शक्तियां संसारपर राज्य करती हैं, अपनी अशांतिपूर्ण क्रियाके अंदर तुम्हें फिरसे वापस खींच ले जानेके लिये अपनी पूरी शक्ति लगा देती हैं ।
यह अवश्य ही आश्चर्यजनक बात है । अधिकांश लोग यहांके वातावरणमें रहनेके बाद सामान्य वातावरणको नही सहन कर सकते । यदि वे बाहर जाते हैं तो जबतक वे वापस नहीं आते, बड़े परेशान रहते हैं । 'अ' की चाची भी, जो यहां केवल कुछ महीनोतक ही रही थीं, इसी ढंगकी बात लिखती है । परंतु जब लोग 'ब' और 'स' की तरह मिथ्यात्वके कब्जेमें चले जाते हैं तो वे असंस्कृत प्राण-प्रकृतिके अन्दर प्रक्षिप्त हो जाते हैं और फिर वातावरणके अंतरको नही अनुभव करते ।
सभी योग कठिन हैं, क्योंकि प्रत्येक योगमें लक्ष्य है भगवान्को प्राप्त करना, संपूर्ण रूपसे भगवान्की ओर मुड जाना और उसका तात्पर्य है प्रकृतिकी सामान्य गति- विधियोंसे मुँह मोड़कर उसके परेकी किसी वस्तुकी ओर मुड जाना । परंतु मनुष्य जब सच्चाईके साथ अभीप्सा करता है तब उसे शक्ति दी जाती है जो अंतमें कठिनाइग्गें- को जीत लेती और लक्यपर पहुँच जाती है ।
श्रीमाताजी उन साधकोंकी चर्चा कर रहीं थी जो आश्रमके जीवन और वाता- वरणमें प्रवेश कर चुके हैं और यहां जो कुछ है उसका स्पर्श अपनी चैत्य सत्ताके ऊपर अनुभव कर चुके हैं । वह बात उन लोगोंपर लागू नहीं होती जो यहां बाहरी दुनियासे आये तो हैं, पर फिर भी वहींसे संबंध रखते हैं । 'अ' की प्रकृतिके सभी संबंध अभी भी बाहरी जीवनके साथ ही थे; उसका प्राण आश्रमजीवनके साथ बिलकुल ही मेल नही बैठा पाया था और सर्वदा उस जीवनमें रहनेके विचारसे कतराता था । उसने अपने चैत्य पुरुषको वह संबंध बनाने और उस प्रभावको आत्मसात् करनेके लिये जरा भी समय नही दिया जिससे उसके चैत्य पुरुषमें यह भावना घर कर जाती कि यही ( आश्रम)
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उसका सच्चा घर है । लोग इस ढंगसे यहां आ सकते और कुछ दिन ठहर सकते तथा बिना किसी कठिनाईके चले जा सकते हैं, जैसा कि बहुतोंने किया है । यहांसे जानेंमें कठिनाई या बेचैनीका अनुभव करना, दूसरी ओर, इस बातका द्योतक है कि अंतरात्मा यहां अपनी जड़ जमा चुका है और यहांसे अपनेको उखाड़ ले जानेमें दुख-कष्टका अनु- भव करता है । कुछ लोगोंको जो ऐसे हैं, यहांसे जाना पड़ा पर वे शांति अनुभव नही करते और सर्वदा यह सोचा करते हैं कि किस तरह शीघ्रसे शीघ्र आश्रम वापस जाया जाय ।
दूसरोंको अहंभाव या आसक्तिसे रहित होकर सहायता करना या आध्यात्मिक वातावरण और आध्यात्मिक जीवनको छोड़ना एक बात है, पर व्यक्तिगत आसक्ति- द्वारा या दूसरोंकी सहायता करनेकी आवश्यकताके वश बाहरी जीवनकी ओर खिच जाना दूसरी बात है ।
यहां ( आश्रम से चले जानेमें असमर्थता चैत्य पुरुषसे आ सकती है जो, एक खास स्थितिमें आनेके बाद, दूसरे अंगोंको हटाने देना अस्वीकार करता हो अथवा यह प्राणसे आ सकतीं हैं जिसमे अब साधारण जीवनकी ओर: कोई खिंचाव नही है और जो यह जानता है कि वह वहां कभी संतुष्ट नही होगा । सामान्यतया प्राणके उच्चतर भाग ऐसे होते हैं जो इस प्रकार क्रिया करते हैं । जो चीज अभी भी उस ओर मुड़नेमें समर्थ है वह संभवत: भौतिक प्राण है जिसकी पुरानी वृत्तियां शांत नहीं हुई हैं ।
तुम्हें यह देखनेमें सक्षम होना चाहिये था..... .कि अशांतिका कारण स्वयं तुममें है, न कि बाहरी परिस्थितियोंमें । सच पूछो तो पारिवारिक संबंधोंके प्रति तुम्हारी प्राणिक आसक्ति और सामान्य सामाजिक विचार और भावनाएं तुम्हारे अन्दर उठ खड़ी हुई हैं और कठिनाइयां उत्कल कर रही है । यदि तुम योगाभ्यास करना चाहते हों तो जबतक तुम संसारमें हों तबतक तुम्हें भगवानपर मन जमाकर और परिपार्श्वसे आबद्ध हुए बिना वहां रहनेमें समर्थ होना चाहिये । जो व्यक्ति ऐसा करता है वह अपने इर्दगिर्दके लोगोंको संसारसे आसक्त और बद्ध ब्यक्तिकी अपेक्षा सौगुना अधिक सहायता कर सकता है ।
श्रीमाताजीके लिये तुम्हें यहां रहनेके लिये कहना संभव नही है, जब कि तुम स्वयं अपने मन और प्राणमें यहांसे जानेके लिये उत्सुक हो । सच पूछो तो स्वयं तुम्हारे भीतरसे किसी एक बातके लिये सुस्पष्ट संकल्प आना चाहिये ।
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आश्रमसे बाहरकी अपेक्षा आश्रमके वातावरणमें दिव्य उपस्थितिको अनुभव करना अधिक आसान है । पर यह केवल एक प्रांरभिक कठिनाई है जिसे मनुष्य निरंतर पुकार करते रहनेपर और प्रभावके प्रति अपनेको सतत उद्घाटित करके जीत सकता है ।
वातावरणमें दिव्य शक्ति विद्यमान है, पर तुम्हें समुचित ढगसे उसे ग्रहण करना होगा -- आत्मदान, उद्घाटन और विश्वासके साथ । बाकी सब कुछ उसीपर निर्भर करता है ।
सच बात यह है कि यहांसे एक प्रबल शक्ति बाहर जा रही है और यह स्वभावत. हीं केंद्रमें प्रबलतम है ! परंतु वहां इसका प्रभाव कैसा पड़ता हे यह इस बातपर: निर्भर करता है कि इसे कोई कैसे ग्रहण करता हे । यदि इसे सरल विश्वास, श्रद्धा, उद्घाटन, निर्भरताके साथ ग्रहण किया जाय तो यह पूर्ण संरक्षणके रूपमें कार्य करती है । परंतु यह एक दूर स्थानमें भी इसी भांति कार्य कर सकती है । वास्तवमें मकान नहीं, बल्कि आंतरिक सामीप्य महत्त्वपूर्ण है ।
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जब किसी व्यक्तिको सामान्य धंधों और परिस्थितियोंमें रहना पड़ता है तो आध्यात्मिक जीवनके लिये अपनेको तैयार करनेका सर्वोत्तम उपाय यह है कि वह इस श्रद्धाके साथ गीतामें वर्णित 'समता' अर्थात् संपूर्ण समत्व और अनासक्तिको संवर्द्धित करे कि भगवान् हैं और भागवत संकल्पशक्ति सभी चीजोंमें कार्यरत है यद्यपि अभी अज्ञानके एक जगत्की परिस्थितियोंके अधीन कार्य कर रही है । इसके परे है दिव्य ज्योति और आनन्द जिसकी ओर जानेका प्रयास जीवन कर रहा १, पर उनके अवतरण- का सर्वोत्तम पथ और व्यक्तिगत सत्ता और प्रकृतिमें उसका आधार है इस आध्यात्मिक समतामें वर्द्धित होना । उसीसे अप्रिय और असंतोषजनक वस्तुओंसे संबंधित तुम्हारी कठिनाईका भी समाधान हों जायगा । सभी असुखद अवस्थाओंका सामना समताके इस भावके साय करना चाहिये ।
जब कोई संसारमें ही रह रहा है तो वहां वह आश्रमकी तरह हीं नही रह सकता उसे दूसरोंसे मिलना-जुलना पड़ता है तथा कम-से-कम बाहरी तीरपर दूसरोंसे
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सब प्रकारके साधारण संबंध बनाये रखना होता है । मुख्य बात है अंतश्चेतनाको भगवान्की ओर खोले रखना तथा उसमें विकसित होना । जय कोई ऐसा करेगा तो, साधनाकी आंतरिक तीव्रताके अनुसार, न्यूनाधिक वेगसे, दूसरोंके प्रति उसका मनो- भाव बदल जायगा । सब कुछ अधिकाधिक भगवान्में दीख पड़ेगा और भाव तथा कर्म आदिका निर्धारण अधिकाधिक तुम्हारे अन्दरकी वर्धमान चेतनासे होगा, न कि केवल पुरानी बाह्य प्रतिक्यिाओंसे ।
अपने संबंधियों और दूसरोंसे जिस कठिनाईको तुम अनुभव करते हों वह सर्वदा वही कठिनाई होती है जो उस समय एक बाधाके रूपमें हस्तक्षेप करती है जब कि मनुष्य- को साधारण या अननुकूल परिस्थितियोंमें साधनाका अभ्यास करना पड़ता है । इससे बचनेका एकमात्र पथ है स्वयं अपने अन्दर अपनी आंतर सत्तामें निवास करनेमें सक्षम होना - जो तब संभव होता है जब संवेदनशीलता और उज्ज्वलता, जिनकी चर्चा तुमने अपने पत्रमें की हे, बढ्ती और स्वाभाविक बन जाती हैं, क्योंकि तब तुम निरंतर अपनी आंतर सत्ताके विषयमें सज्ञान रहते हों और उसमें निवास भी करते हों - बाह्य सत्ता एक यंत्र बन जाती है, बाहरी जगत्में संपर्क और कर्मका एक साधन बन जाती है । उस समय लोंगोंके साथ बंधन या आवश्यक प्रतिक्रियासे मुक्त संबंध स्थापित करना संभव हों जाता है - मनुष्य उस समय भीतरसे अपनी निजी प्रतिक्रिया या प्रतिक्रिया- शून्यताको निर्धारित कर सकता है; उस समय बाहरी संबंधोंसे एक प्रकारकी मौलिक मुक्ति प्राप्त हो जाती है - आवश्यक हीं, यदि कोई उसका वैसा होना पसंद करे ।
संसारका जीवन अपने स्वभावमें अशांतिका एक क्षेत्र है - समुचित रूपमें उसमेंसे गुजरनेके लिये मनुष्यको अपना जीवन और कर्म भगवान्को अर्पित करना होता है और अंतरस्थ भगवान्की शांतिके लिये प्रार्थना करनी पड़ती हैं । जब मन अचंचल हों जाता है तो मनुष्य भगवती माताको अपने जीवनको सहारा देते हुए अनुभव कर सकता है और प्रत्येक चीजको उनके हाथोंमें सौंप सकता है ।
जागतिक जीवनमें शांति पाना कभी आसान नही होता और वह कभी निरंतर नहीं बनी रह सकती, जबतक कि कोई अपने भीतर गहराईमें निवास न करे और बाह्य क्यिावलीको महज सत्ताका उपरितलीय पक्ष समझकर सहन न करे ।
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उसकी स्थितिमें जो एक वस्तु उसे साधनामें प्रविष्ट करा सकती है बह है सर्वदा भगवान्को स्मरण करना, अपनी कठिनाइयोंको ऐसी अग्निपरीक्षाएं समझना जिनमेंसे उसे गुजरना है, सतत प्रार्थना करना और भगवान्की सहायता और संरक्षण पानेकी इच्छा करना तथा अपने हृदय और चेतनाको उस सहायिका भागवत उपस्थितिकी ओर उद्घाटित करनेके लिये प्रार्थना करना ।
श्रीमाताजीके लिये सांसारिक मामलोंमें सहायता देनेका वचन देना संभव नही है । वह विशिष्ट प्रसंगोंमें ही हस्तक्षेप करती हैं । अवश्य ही कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने उद्घाटन और श्रद्धाके बलपर किसी भी सांसारिक कठिनाई या कष्टमें उनकी सहायता पाते हैं पर बह एक भिन्न बात है । वे सिर्फ श्रीमांको याद करते और पुकारते हैं और यथासमय कुछ परिणाम उत्पन्न होता है ।
आध्यात्मिक जीवनके लिये परिवार और सामाजिक जीवनका त्याग करनेकी जिस प्रवृत्तिकी तुम चर्चा करते हो वह विगत दो हजार वर्षों या उससे अधिक समयसे भारतकी एक परंपरा रही हे - मुख्यतया पुरुषोंमें, इसने स्यियोंकी बहुत छोटी संख्या- को ही छुआ है । यह याद रखना होगा कि भारतीय सामाजिक जीवनने लगभग पूर्ण रूपसे व्यक्तिको परिवारके अधीन कर रखा है । पुरुष और स्वियां अपनी स्वतंत्र इच्छा- के अनुसार विवाह नहीं करतीं । उनके विवाहकी व्यवस्था अधिकांशत: तभी कर दी जाती है जब वे अभी बच्चे ही रहते हैं । केवल इतना ही नहीं, बल्कि दीर्घकालसे समाज- का ढांचा लगभग एक लौह अचलता बन गया है जिसमें प्रत्येक व्यक्तिको अपने स्थानमें रख दिया जाता है और उसके अनुरूप बननेकी उससे आशा की जाती है । तुम निकासके पथ और साहसपूर्ण समाधानकी बात करते हो, पर इस जीवनमें न तो कोई समस्या है और न निकासका पथ, और समाधानके लिये कोई मांग भी नहीं है - साहसपूर्ण समाधान केवल वही संभव है जहां व्यक्तिगत इच्छाशक्तिको स्वतंत्रता प्रान्त हों, परंतु जहां एकमात्र समाधान (यदि कोई इस जीवनमें बना रहे) पारिवारिक इच्छाके प्रति आत्मसमर्पण करना है, वहां उस तरहकी कोई चीज संभव नही हो सकतीं । यह एक सुरक्षित जीवन है और सुखकर हों सकता है यदि कोई उसके साथ अपना मेल बैठा ले और उसके परे कोई असामान्य अभीप्सा न रखे अथवा सौभाग्यसे उसका परिपार्श्व अनुकूल हों; परंतु उसके पास असंगतियोंके लिये या उनसे बचनेके लिये अथवा किसी प्रकारकी व्यक्तिगत असफलतासे बचनेके लिये कोई उपाय नही है; वह किसी उपक्रम या मुक्त कर्म या किसी व्यक्तिवादके लिये बहुत थोड़ासा ही अवकाश छोड़ता है । व्यक्ति- के लिये बाहर निकलनेका एकमात्र पथ है उसका आंतर आध्यात्मिक या धार्मिक जीवन
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और बच निकलनेका स्वीकृत मार्ग है किसी प्रकारके संन्यासके द्वारा संसारका, पारिवारिक जीवनका परित्याग । संन्यासी, वैष्णव वैरागी या ब्रह्मचारी मुक्त होता है, ऐसे लोग परिवारके लिये मर चुके होते हैं और वे अपने आंतरिक आत्माके आदेशके अनु- सार जीवन बीता सकते है । यदि वे किसी संघ या आश्रममें प्रवेश कर जायं तो ही उन्हें उस संघके नियमोंका पालन करना पड़ता है, पर वह उनका अपना चुनाव होता है । समाजने अपने अन्दरसे बच निकलनेका यह द्वार स्वीकार कर लिया था, धर्मने इस विचारकों स्वीकार कर लिया था कि सामाजिक या सांसारिक जीवनसे अरुचि हों जाना संन्यासी या धार्मिक परिब्राजकका जीवन स्वीकार करनेका न्यायसंगत कारण है । परंतु यह बात मुख्यतः पुरुषोंके लिये थी; स्त्रियोको,-प्राचीन कालमें बौद्धोंमें जिनके पास अपने विहार थे और फिर उसके बाद वैष्णवोंको छोड़कर,-इस तरह बच निकलने- का थोड़ासा ही अवसर प्राप्त था जब कि कोई बहुत प्रबल आध्यात्मिक प्रबेग उन्हें परिचालित करे जो किसी अस्वीकृतिको न माने । संन्यासीद्वारा परित्यक्त पली और बच्चोंका जहांतक प्रश्न था, उसके लिये बहुत कम कठिनाई थीं, क्योंकि सम्मिलित परिवार उन्हें ग्रहण करनेके लिये अथवा यों कहें कि उनका भरण-पोषण जारी रखनेके लिये विद्यमान था ।
वर्तमान समयमें ऐसा हो गया है कि पुराना ढांचा तो बना हुआ है, पर आधुनिक विचारोंने असंगतिकी, बेचैनीकी एक अवस्था उत्पन्न कर दी है, प्राचीन पारिवारिक व्यवस्था टूट रही हे और स्त्रियों अधिक संख्यामें बच निकलनेकी वही स्वतंत्रता मांग रही हैं जो भूतकालमें पुरुषोंको सर्वदा प्राप्त थी । यह बात उन प्रसंगोंका कारण स्पष्ट कर देगी जिन्हें तुमने देखा है -- परंतु मैं नहीं समझता कि ऐसे प्रसंगोंकी संरूग अभी भी बहुत अधिक हो सकती है, यह एकदमयक नवीन व्यापार हे; आश्रमोंमें स्त्रियोंका प्रवेश पाना भी अपने-आपमें एक नवीन बात है । वास्तवमें एक ओर तो एक प्रकारका मानसिक और प्राणिक विकास हुआ है जिसका परिस्थितियोंके साथ मेल नहीं बैठता, सामाजिक नियमोंद्वारा लादे गये वैवाहिक संबंध अनुकूल नही होते और उनमें पति- पलीके बचि मेल-मिलापका कोई अवकाश नही होता, मनुष्यके आंतरिक जीवनके लिये एक विरोधी और असहिष्णु वातावरण विद्यमान है और दूसरी ओर आध्यात्मिक या धार्मिक पलायनमें आश्रय खोजनेकी भारतीय मनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है और इन सबके कारण मनमें अत्यंत दुःख उत्पन्न होता है । यह स्थिति इस नवीन विकासके कारणोंको पर्याप्त रूपमें सूचित करती हे । यदि समाज इसे रोकना चाहता है तो उसे अवश्य परिवर्त्तित होना होगा । व्यक्तियोंका जहांतक प्रश्न है, प्रत्येक प्रसंगका विचार उसके अपने गुण-दोषोंके अनुसार करना होगा; इस समस्याके अन्दर इतनी अत्यधिक जटिलता है और प्रकृति, अवस्था और अभिप्रायोंमें इतना अधिक वैभिज्य है कि कोई एक सर्वसामान्य नियम नही बनाया जा सकता ।
मैनई सामाजिक समस्याकी बात केवल मोटे तीरपर ही कही है । आश्रमके संचालनमें हमें बहुतसे ऐसे प्रार्थना-पत्र मिले हैं जो स्पष्ट ही जीवनकी कठिनाइयों और जिम्मेदारियोंका सामना करनेकी अनिच्छाके द्वारा प्रेरित थे - स्वभापत:
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ही हमने उनकी उपेक्षा की या उन्हें अस्वीकार कर दिया, पर ऐसे प्रार्थना-पत्र अधि- कांशत: पुरुषोंसे आये थे; केवल एक या दो स्त्रियोंने अभी हालमें ऐसे पत्र दिये थे । अन्यथा स्त्रियोंके साधारण तीरपर दुःखपूर्ण विवाह या कठिन परिस्थितियोंके कारण प्रार्थना-पत्र नही दिया है । अधिकांश विवाहित साधिकाएं योगाभ्यास पहले ही प्रारंभ कर देनेके कारण अपने पतियोंके पीछे या साथमें आयी हैं; दूसरी वैवाहिक जीवनकी जिम्मेदारियोंको यथेष्ट रूपमें पूर्ण करनेके बाद आयी हैं; दो या तीन स्त्रियोंके प्रसंगमें पतिसे विच्छेद हो गया था पर उनके यहां आनेसे पहले ही ऐसा हुआ था । कुछ उदाहरणोमें कोई बच्चा था हीं नहीं, दूसरोंमें बच्चे परिवारके साथ छोड़ दिये गयेंथे । ये सब प्रसंग वास्तवमें उस कोटिमें नही आते जिसका वर्णन तुम करते हों । कुछ साधकोंने पली और परिवारको पीछे छोड़ दिया है, पर मैं नही समझता कि किसी साधकके लिये जीवनकी कठिनाइयां उसके परिवारसे अलग होनेका कारण थी । बल्कि कारण यह विचार था कि उन साधकोंने अंतरकी पुकार अनुभव की और उसका अनुसरण करनेके लिये उन्हें सब कुछ छोड़ देना होगा ।
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