श्रीअरविन्द के पत्र

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Sri Aurobindo

Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Letters On Yoga - Parts 2,3 Vol. 23 1776 pages 1970 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द के पत्र 578 pages 1972 Edition
Hindi Translation
Translator:   Chapsip Tripathi  PDF    LINK

विभाग चार

 

साधनाका आधार


साधनाका आधार

 

    अगर मन चंचल हों तो योगकी नींव डालना संभव नही । सबसे पहले यह आवश्यक है कि मन अचंचल हो । और व्यक्तिगत चेतनाका लय कर देना भी इस योगका प्रथम उद्देश्य नही है, बल्कि प्रथम उद्देश्य है व्यक्तिगत चेतनाको एक उच्चतर आध्यात्मिक चेतनाकी ओर खोल देना और इसके लिये भी जिस बातकी सबसे पहले आवश्यकता हैं वह है मनकी अचंचलता ।

 

*

 

   सबसे पहली बात जो साधनामें करनी है वह है मनमें एक सुस्थापित शान्ति और निश्चल-नीरवताको प्राप्त करना । अन्यथा तुम्हें अनुभूतियां तो हों सकती हैं, पर कुछ भी स्थायी नहीं होगा । एकमात्र निश्चल-नीरव मनमें ही सत्य-चेतनाका निर्माण किया जा सकता है ।

 

    अचंचल मनका अर्थ यह नही है कि उसमें कोई विचार या मनोमय गतियों एक- दम होगी ही नही, बल्कि यह अर्थ है कि ये सब केवल ऊपर-ही-ऊपर होंगी और तुम अपने अन्दर अपनी सत्य सत्ताको इन सबसे अलग अनुभव करोगे, जो इन सबको देखती तो है पर इनके प्रवाहमें बह नही जाती, जो यह योग्यता रखती हैं कि इन सबका निरीक्षण करे और निर्णय करे तथा जिन चीजोंका त्याग करना हो उन सबका त्याग करे एवं जो कुछ सत्य चेतना और सत्य अनुभूति हो उन सबको ग्रहण और धारण करे ।

 

   मनका निष्क्रिय होना अच्छा है, पर इस विषयमें सावधान रहो कि तुम केवल सत्यके सामने तथा भागवत शक्तिके संस्पर्शके सामने ही निष्क्रिय भाव रखते हो । अगर तुम निम्र प्रकृतिकी सुझायी हुई बातों और उसके प्रभावके प्रति वैसा निश्चेष्ट भाव बनाये रहोगे तो तुम अपनी साधनामें उन्नति नहीं कर सकोगे अथवा तुम ऐसी विरोधिनी शक्तियोंके पंजेमें पंड जाओगे जो तुम्हें योगके सच्चे मार्गसे बहुत दूर ले जा सकती हैं ।

 

    श्रीमॉका सामने यह अभीप्सा करो कि तुम्हारे मनमें यह अचंचलता और शान्ति सुप्रतिष्ठित हों और तुम्हें बाह्य प्रकृतिके पीछे वर्तमान तथा ज्योति और सत्यकी ओर उन्मुख इस आंतर सत्ताका बोध निरन्तर बना रहे ।

 

  जो शक्तियां साधनाके मार्गमें बाधा पहुँचाती हैं वे निम्रतर मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृतिकी शक्तियां हैं । उनके पीछे मनोमय, प्राणमय और सूक्ष्म-भौतिक जगतोंकी विरोधी शक्तियां हैं । इन सबका मुकाबला केवल तभी किया जा सकता है जब मन और हृदय एकमात्र भगवान्की हीं अभीप्सामें एकाग्र और केंद्रित हो चुके

 

 


हों

 

*

 

   पहली सीढ़ी है अचंचल मन - निश्चल-नीरवता है उसके बादकी सीढ़ी, फिर भी अचंचलता वहां अवश्य रहनी चाहिये, और अचंचल मनसे मेरा मतलब यह है कि भीतर एक ऐसी मनोमयी चेतना होनी चाहिये जो यह देखती है कि विचार उसके पास आ रहे हैं और इधर-उधर मंडरा रहे हैं पर वह स्वयं यह नही अनुभव करती कि वह विचार कर रही है या उन विचारोके साथ तादात्म्य स्थापित कर रहीं है या उन्हें अपना समझ रही है । विचार, मानसिक गतियों उसके भीतरसे होकर ठीक उसी तरह गुजर सकती हैं जिस तरह पथिक कही बाहरसे एक शान्त प्रदेशमें आते हैं और उसमेंसे होकर चले जाते हैं -- अचंचल मन उन्हें देखता है अथवा उन्हें देखनेकी परवा भी नहीं करता, परन्तु, उन दोनों ही अवस्थाओंमें, वह न तो क्रियाशील होता है न अपनी अचंचलताको हीं खोता है 1 निश्चल-नीरवता अचंचलतासे कुछ अधिक चीज है, इसे प्राप्त करनेका उपाय है आभ्यंतरिक मनसे विचारोंको सर्वथा बाहर निकाल देना और मनको एकदम निशब्द बना देना या उसे हटाकर एकदम विचारोके बाहर रखना । परन्तु इससे भी अधिक आसानीसे इसकी स्थापना होती है ऊपरसे इसका अवतरण होनेपर - साधक इसे नीचे उतरती हुई, व्यक्तिगत चेतनामें प्रवेश करती हुई और उसे अधिकृत करती हुई या उसे चारों ओरसे घेरती हुई अनुभव करता है और तब उसकी व्यक्तिगत चेतना विशाल निर्व्यक्तिक निश्चल-नीरवतामें अपने- आपको विलीन करनेमें प्रवृत्त होती है ।

 

*

 

    मनको ऐसे ढंगसे अचंचल बना देना कि कोई विचार न आये आसान नहीं है और साधारणतया इसमें समय लगता है । अत्यन्त आवश्यक बात है मनमें अचंचलता- का अनुभव करना जिसमें कि यदि विचार आयें तो वे मनको विक्षुब्ध न करे अथवा अधि- कृत न करें या उसे अपने पीछे-पीछे न चलायें, बल्कि मात्र उसके भीतरसे गुजर आय । सबसे पहले मन गुजरते हु  विचारोंका साक्षी होता है और उनका चिंतक नही होता, पोछे वह इस योग्य हों जाता है कि वह विचारोंका निरीक्षण न करे वरन् उन्हें बिना देखे गुजर जाने दे और अपने अन्दर एकाग्र हो अथवा उस वस्तुपर एका हों जिसे बह बिना कठिनाईके चून लेता है ।

 

   दो प्रधान वस्तुएं है जिन्हें साधनाके आधारके रूपमें प्राप्त करना होगा - चैत्य पुरुषका उद्घाटन तथा ऊर्ध्वस्थित आत्माका साक्षात्कार । चैत्य पुरुषके उद्- घाटनके लिये श्रीमाताजीपर एकाग्र होना और उनकों आत्मनिवेदन करना सीधा पथ है । भक्तिके बढ़नेका जो तुम अनुभव करते हों बह चैत्य विकासका प्रथम लक्षण

 

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है । श्रीमाताजीकी उपस्थिति या शक्तिका बोध या उनकी स्मृति और यह अनुभव कि वह तुम्हें सहारा दे रहीं और बल दे रही हैं -- यह दूसरा लक्षण है । अन्तमें, अत- रस्य अंतरात्मा अभीप्सा करनेमें सक्रिय होना आरम्भ -करता है और चैत्य ज्ञान मनको समुचित विचारोंकी ओर, प्राणको समुचित गतिविधियों और अनुभवोंकी ओर ले जाने लगता है, उन सब चीजोंको दिखाने और परित्याग करने लगता है जिन्हें त्याग देना है और समस्त सत्ताको, उसकी सभी गतिविधियोंमें, एकमात्र भगवान्की ओर मोड़ने लगता है । आत्मसाक्षात्कारको लिये मनमें शान्ति ओर निश्चल-नीरवताका होना पहली शर्त्त है । उसके बाद साधक मुक्ति, स्वातम्ब, विशालताका अनुभव करना, एक निश्चल-नीरव, प्रशान्त, किसी वस्तु या सभी वस्तुओंसे अस्पृष्ट, सर्वत्र और सब- मे विद्यमान, भगवानके साथ संयुक्त या एकाकार चेतनासे निवास करना आरम्भ करता है । दूसरी अनुभूतियां भी मार्गमें आती हैं या आ सकती हैं, जैसे कि आंतरिक सूक्ष्म-दृष्टिका उद्घाटन, भीतर दिव्य शक्तिके कार्य करनेका बोध और क्रियाकी विभिन्न गतियों और घटनाओंका बोध आदि । साधक चेतनाके ऊपर उठने तथा ऊपरसे दिव्य शक्ति, शान्ति, आनन्द या ज्योतिके अवतरित होनेके विषयमें भी सचेतन हों सकता

 

*

 

   निश्चल-नीरवता सदा ही अच्छी होती हैं, पर मनकी अचंचलतासे मेरा मतलब यह नही है कि मन बिलकुल ही निश्चल-नीरव हों जाय । मेरा मतलब यह है कि मन सब प्रकारकी हलचल और बेचैनीसे मुक्त हों, धीर-स्थिर, शान्त और प्रसन्न हों जिसमे वह अपने-आपको उस शक्तिकी ओर खोल सकें जो प्रकृतिका रूपांतर करेगी । प्रधान बात यह है कि बेचैन करनेवाले विचारों, विकृत अनुभवों, भावनाओंकी उलझनों तथा दुःखदायी वृत्तियोंके मनपर निरन्तर आक्रमण करते रहनेकी जो आदत पडू जाती है उससे छुटकारा पाया जाय । ये सब चीजे प्रकृतिमें विक्षोभ उत्पन्न करती हैं, उसे आच्छादित करती हैं ओर दिव्य शक्तिके लिये कार्य करना कठिन बना देती है । जब मन अचंचल और शान्त होता है तब दिव्य शक्ति अधिक आसानीसे अपना काम कर सकती है, तुम्हारे लिये यह संभव होना चाहिये कि तुम अपने अन्दरकी उन सब चीजों- को विना घबडाये या अवसन्न हुए देख सको जिनका परिवर्तन करना आवश्यक है और तब परिवर्तन और भीं अधिक आसानीसे हों सकता है ।

 

*

 

    शून्य मन और स्थिर मनमें भेद यह है कि जब मन शून्य हो जाता है तब उसमें कोई विचार नही रहता, कोई धारणा नहीं रहती, किसी प्रकारकी कोई मानसिक क्रिया नही होतीं, केवल वस्तुओकी एक मूलगत प्रतीति होती है, उनके विषयमें

 

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कोई बंधी-बधाई भावना नहीं होती । किन्तु स्थिर मनमें मनोमय सत्ताका सार-तत्त्व ही शान्त हो जाता है, इतना शान्त हों जाता है कि कोई भी चीज उसे विचलित नहीं करती । यदि विचार आते या क्रियाएं होती है तो वे मनमेसे बिलकुल ही नही उठती, बल्कि वे बाहरसे आती हैं और ठीक वैसे ही मनमेंसे गुजर जाती हैं जैसे पक्षियोंका दल निर्वात आकाशमेंसे होकर गुजर जाता है । वह गुजर जाता है, कही कोई हलचल नही मचाता, कही कोई चिह्न नही छोड़ जाता । यदि हज़ारों आकृतियां या अत्यन्त प्रचंड घटनाएं भी मनके भीतरसे होकर गूजरें तो भी उसकी शान्त अचंचलता बनी रहती है, मानो उस मनकी रचना ही एक शाश्वत और अविनाशी शान्तिके तत्त्वसे हुई हों । जिस मानने इस स्थिरताको प्राप्त कर लिया है वह कार्य करना आरम्भ कर सकता है, यहांतक कि तीव्रता और शक्तिशालिताके साथ कार्य कर सकता है, पर फिर भी वह अपनी मूलगत निस्तब्धताको बनाये रखेगा - वह अपने भीतरसे कुछ भी नही उत्पन्न करेगा, बल्कि ऊपरसे जो कुछ आयेगा उसे वह ग्रहण करेगा और उसे एक मानसिक रूप प्रदान करेगा, उसमें अपनी ओरसे कुछ भी नही मिलायेगा, और यह सब वह धीर-स्थिर ओर अनासक्त होकर करेगा, यद्यपि करेगा सत्यके आनन्दके साथ तथा सत्यके आत्मप्राकटचकी सुखदायी शक्ति और ज्योतिके साथ ।

 

*

 

     निश्चल-नीरव हो जाना, विचारोंसे मुक्त तथा निस्पंद हो जाना मनके लिये कोई बुरी बात नही है द् - कारण, प्रायः ही जब मन निश्चल-नीरव हों जाता है तब ऊपरसे एक सुविशाल शान्तिका पूर्ण अवतरण होता है और उस विशाल शान्तावस्था- मे उस शान्त आत्माका साक्षात्कार होता है जो मनसे ऊपर अपनी वृहत् सत्ताको सर्वत्र फैलाये हुए हैं । परन्तु इस अवस्थामें कठिनाई यह होती है कि जब यह शान्ति और मनकी निश्चल-नीरवता प्राप्त हो जाती है तब प्राणमय मन तेजीसे भीतर घुस आने और उस स्थानको अधिकृत करनेकी चेष्टा करता है अथवा उसी उद्देश्यसे यत्रवत्- चालित मन अपने तुच्छ अभ्यासगत विचारोंकी परंपराको जारी करनेकी कोशिश करता है । इस अवस्थामें साधकको चाहिये कि वह सावधानीके साथ इन सब आंग- तुकोंको दूर हटा दे तथा इन्हें एकदम शान्त कर दे जिसमें कम-से-कम ध्यानके समय मन और प्राणकी शान्ति और स्थिरता पूरी मात्रामें बनी रहे । अगर तुम दृढ और शान्त संकल्प बनाये रखो तो तुम इस कार्यको सबसे उत्तम रूपमें कर सकते हो । इस तरहका संकल्प उस पुरुषका संकल्प होता है जो मनके पीछे रहता है, जब मन शान्त हों जाता है, जब वह निश्चल-नीरव हो जाता है तब हम उस पुरुषको जान सकते हैं जो पुरुष भी निश्चल-नीरव है और प्रकृतिकी क्रियासे अलग है ।

 

   शान्त, धीर-स्थिर, आत्मप्रतिष्ठित होनेमें मनकी यह अचंचलता, बाह्य प्रकृति- से आंतर पुरुषकी यह पुथक्ला बहुत सहायक होती है, प्राय अनिवार्य होती थे । जबतक हमारी सत्ता विचारोके भवरमें फसी रहती ३ अथवा प्राणमय गतियोंके विक्षोभसे

 

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प्रभावित होती है तबतक हम इस तरह शान्त तथा आत्मप्रतिष्ठ नही हों सकते । इन सबसे अपने-आपको अलग करना, इनसे हटकर पीछे खड़ा होना, इन्हें अपने-आपसे पृथक् अनुभव करना अत्यन्त आवश्यक है ।

 

     वास्तबिक व्यक्तित्वको खोज निकालनेके लिये तथा अपनी प्रकृतिमें उसे मूर्त्तिमान् करनेके लिये दो चीजोंकी आवश्यकता है - पहली चीज है हदयके पीछे रहनेवाले अपने अन्तरात्माके विषयमें सचेतन होना तथा दूसरी है प्रकृतिसे पुरुषकी यह पृथकता । क्योंकि हमारा सच्चा व्यक्तित्व पीछे है और बाह्य प्रकृतिकी क्रियाओं- के द्वारा ढका हुआ है ।

 

     इसका कारण महज यह है कि तुम मानसिक और प्राणिक क्रियाओं तथा संबंधोंसे भरे हुए हो । साधकमें ऐसी शक्ति होनी चाहिये कि वह मन और प्राणको शान्त कर दे, यदि प्रारम्भमें सब समय वह शान्त न भी कर सके तो भी जब वह चाहे तब अवश्य कर दे -- क्योंकि सच पूछा जाय तो ये मन और प्राण ही चैत्य पुरुष तथा आत्मको ढक देते हैं और उनमेसे (चैत्य पुरुष और आत्मामेंसे) किसीको प्राप्त करने- के लिये मनुष्यको उनके (मन और प्राणके) पर्देके भीतरसे जाना होता हैं । परन्तु वे यदि बराबर सक्रिय हों और उनकी क्रियाओंके साथ यदि तुम सदैव एकात्म बने रहो तो पर्दा सर्वदा बना रहेगा । यह भी संभव है कि तुम इन क्रियाओंसे अपनेको पृथक् रखो और उनकी ओर इस प्रकार देखो मानो वे तुम्हारी अपनी क्रियाएं न हों बल्कि प्रकृतिकी कोई यांत्रिक क्रिया हों जिसे तुम एक निर्लिप्त साक्षीकी भांति देखते हों । उस समय मनुष्य एक आंतर सत्ताके विषयमें सज्ञान होता है जो पृथक् और शान्त होती है तथा प्रकृतिमें अंतर्ग्रस्त नही होती । यह आंतर मन या प्राण पुरुष हो सकता है, न कि चैत्य पुरुष, पर आंतरिक मनोमय ओर प्राणमय पुरुषकी चेतनाको प्राप्त करना सर्वदा ही चैत्य पुरुषके उद्घाटनकी ओर जानेका एक पग होता है ।

 

     हां, वाणीपर पूरा संयम प्राप्त करना कही अच्छा होगा -- यह अपने भीतर पैठने तथा सच्ची आंतर और यौगिक चेतना विकसित करनेका एक महत्त्वपूर्ण पग

 

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    पहले इस बातको स्मरण रखो कि साधनाको निर्विघ्र बनानेके लिये चंचल मन और प्राणकी शुद्धिसे उत्पन्न एक आंतरिक अचंचलताकी सबसे पहले आवश्यकता है । उसके बाद यह याद रखो कि बाहरी कर्म करते समय श्रीमांकि उपस्थितिका अनुभव करना हीं साधनामें बहुत कुछ अग्रसर होना है और इसे पर्याप्त आंतरिक उन्नति हुए बिना नही प्राप्त किया जा सकता । संभवत जिस बातको तुम इतना अधिक आवश्यक अनुभव करते हों पर जिसका ठीक-ठीक वर्णन नही कर पाते वह है इस बात- का सतत और स्पष्ट अनुभव होना कि श्रीमाँकी शक्ति तुम्हारे अन्दर कार्य कर रही है, ऊपरसे अवतरित हो रही है और तुम्हारी सत्ताके विविध स्तरोंको अधिकृत कर


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रही है । यह अनुभव प्रायः ही आरोहण और अवरोहणकी द्विविध गति आरंभ होने- के पहले हुआ करता है; समय आनेपर यह अनुभव तुम्हें भी अवश्य होगा । क्या बातोंके प्रत्यक्ष रूपमें आरंभ होनेमें बहुत लम्बा समय लग सकता है, विशेषकर उस अवस्थामें जब कि मनको बहुत अधिक क्रियाशील होनेका अभ्यास हो और निश्चल-नीरव होने- की आदत उसमें बिलकुल न हों । यह (मनकी) सक्रियता एक तरहका पर्दा डाल देती है और जबतक यह रहती है तबतक मनकी चंचल यवनिकाके पीछे बहुतसा कार्य करना पड़ता है और साधक यह समझता है कि कुछ भी नहीं हो रहा है जब कि उसे तैयार करनेके लिये वास्तवमें बहुतसा आरभिक कार्य होता रहता है । अगर तुम बहुत शीघ्र और सुस्पष्ट उन्नति करना चाहो तो यह केवल तभी हो सकता है जब तुम निरन्तर आत्मनिवेदनके द्वारा अपने हृत्युरुषको सामने ले आओ । इसके लिये तीव्र अभीप्सा करो, पर अधीरताको मत आने दो ।

 

 मनकी अचंचलताको बनाये रखो और अगर वह अचंचलता कुछ समयतक सूनी भी मालूम हो तो उसकी कोई परवा मत करो; हमारी चेतना बहुत बार एक पात्रकी तरह होती है जिसमेंसे मिश्रित तथा अवांछित वस्तुओंको निकाल देना पड़ता है और उसे कुछ समयतक खाली रखना पड़ता है, जबतक कि वह नवीन और यथार्थ, उचित और विशुद्ध वस्तुसे नहीं भर दी जाती । परन्तु उस समय एक बातसे बचना चाहिये और वह यह है कि कही उन्हीं पुरानी गधी चीजोंसे वह पात्र फिर न भर जाय । उतने दिन प्रतीक्षा करो, ऊपरकी ओर अपने-आपको खोले रखो, बड़ी धीरता और स्थिरताके साथ, अत्यधिक बेचैनी और व्याकुलताके साथ नहीं, शान्तिका आवाहन करो जिसमें उस निश्चल नीरवतामें वह उतर आये, और जब एक बार वहां शान्ति स्थापित हो जाय तब आनन्द और भागवत उपस्थितिका आवाहन करो ।

 

*

 

     यद्यपि आरम्भमें स्थिरता एक अभावात्मक वस्तु ही मालूम होती है, फिर भी उसे प्राप्त करना इतना कठिन है कि यदि उसकी भी प्राप्ति हो जाय तो यह मानना पड़ेगा कि साधनामें बहुत कुछ उन्नति हो गयी हैं ।

 

     वास्तवमें स्थिरता कोई अभावात्मक वस्तु नही है, यह तो सत्पुरुषका अपना स्वरूप है और भागवत चेतनाका भावात्मक आधार है । अन्य चाहे जिस वस्तुकी अभीप्सा की जाय, चाहे कोई वस्तु प्राप्त की जाय, पर इसे अवश्य बनाये रखना चाहिये; यहांतक कि ज्ञान, शक्ति और आनन्द अगर आते हैं और उन्हें यह आधार नहीं मिलता तो वे ठहर नहीं पाते और उन्हें तबतकके लिये वापस लौट जाना पड़ता है जबतक कि सत्पुरुषकी दिव्य पवित्रता और शान्ति वहां स्थायी रूपसे नहीं स्थापित हो जाती ।

 

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    भागवत चेतनाकी जो और दूसरी-दूसरी चीजे हैं उनके लिये अभीप्सा करो, परन्तु यह अभीप्सा स्थिर और गभीर होनी चाहिये । यह स्थिर होती हुई भी तीव्र हो जाती है, पर यह अधीर, अशान्त या राजसिक उत्सुकतासे भरी हुई नही होनी चाहिये ।

 

    केवल अचंचल मन और अचंचल सत्ताके अन्दर ही अतिमानस-सत्य अपनी सच्ची सृष्टिकी रचना कर सकता है ।

 

*

 

     सबसे पहले यह अभीप्सा तथा श्रीमाँसे प्रार्थना करो कि तुम्हारे मनमें अचंचलता स्थापित हो, तुममें शुद्धता, स्थिरता और शान्तिका निवास हों, तुम्हें प्रबुद्ध चेतना, प्रगाढ़ भक्ति, तथा समस्त आंतर और बाह्य कठिनाइयोंका सामना करनेके लिये और योगसाधनामें अन्ततक पहुँचनेके लिये बल और आध्यात्मिक सामर्थ्य प्राप्त हों । अगर चेतना जागृत हों जाय और वहां भक्ति तथा अभीप्साकी तीव्रता हों तो मनके लिये क्रमश: ज्ञानसंपन्न होना संभव हो जायगा, अवश्य हीं अगर वह अचंचल और शान्त होना सीख ले ।

 

*

 

     शान्त, असुब्ध और अचंचल होना साधनाकी नही बल्कि सिद्धिकी पहली शर्त्त है । केवल थोडेसे लोग' (बहुत थोड़े, सौमें एक, दो, तीन या चार साधक) ही ऐसे होते हैं जो इसे प्रारम्भसे ही प्राप्त कर सकते हैं । अधिकांश लोगोंको कहीं इसकी समीपतातक पहुँचनेमें पहले लंबे समयतक तैयारी करनी पड़ती है । उसके बाद भी जब वे शान्ति और स्थिरताको अनुभव करना आरम्भ करते हैं तो उसे स्थापित करने- मे समय लगता है -- वे काफी लंबे समयतक शान्ति और अशान्तिके बीच झूलते रहते हैं जबतक कि प्रकृतिके सभी भाग सत्य और शान्तिको स्वीकार नहीं कर लेते । अतएव तुम्हारे लिये यह मान लेनेका कोई कारण नहीं कि तुम प्रगति नही कर सकते अथवा लक्ष्यतक नहीं पहुँच सकते । तुम्हें अपनी प्रकृतिके एक भागमें बहुत कठिनाई महसूस हो रही हैं जो इन भावनाओंकी ओर खुले रहनेका, थीमाताजीसे पृथक्ल और सबधियोंसे आसक्त रहनेका अभ्यासी है, और उन्हें छोड़नेका लिये इच्छुक नही है - बस यहीं बात है । परन्तु प्रकृतिके उस भागमें प्रत्येक साधकके सामने - यहांके अत्यंत सफल साधकोंके भी सामने -- वैसी ही दुःसाष्य कठिनाइयां आती हैं । जब- तक वहां ज्योतिकी विजय नहीं हों जाती तबतक मनुष्यको सतत प्रयास करते रहना होता है ।

 

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     यदि शान्तिका अनुभव न भी हो तो साधकको आगे बढ़ते रहना चाहिये - अचंचलता और एकाग्रता आवश्यक हैं । उच्चतर स्थितियोंके विकसित होनेके लिये

 

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शान्ति बड़ी आवश्यक है ।

 

 ''peace ( पीस), Calm( कॉम), Quiet ( कबयट), Ssilence ( साइलेंस)'' -- इन शब्दोमेसे प्रत्येकका अर्थ अलग-अलग है, पर उनकी व्याख्या करना आसान नहीं हे ।

 

Peace( पीस) -- शांति

Calm, ( कॉम) - स्थिरता

Quiet( क्यायट) - अचंचलता

Silence ( साइलेंस) - निश्चल-नीरवता

 

     अचंचलता एक ऐसी अवस्था है जिसमें कोई बेचैनी या उथल-पुथल नहीं होती । स्थिरता और भी अचल अवस्था है जिसे कोई विक्षोभ प्रभावित नहीं कर सकता । शान्ति और भी अधिक भावात्मक अवस्था है, इसमें एक प्रकारकी सुस्थित और सुसमंजस विश्रांति और मुक्तिका बोध होता है ।

 

    निश्चल-नीरवता एक ऐसी स्थिति है जिसमें या तो मन या प्राणकी कोई क्रिया नही होती अथवा एक महान् प्रशान्ति होतीं है जिसका कोई ऊपरी तलकी क्रिया भेदन या परिवर्तन नहीं कर सकती ।

 

*

 

     अचंचलता कुछ-कुछ अभावात्मक स्थिति है -- यह विक्षोभका अभाव है । स्थिरता भावात्मक स्तब्धता है जो उपरितलीय विक्षोभके बावजूद भी बनी रह सकती है ।

 

     शान्ति है एक प्रकारकी स्थिरता जो गभीर होते-होते एक ऐसी चीज बन जाती है जो बहुत भावात्मक होती है और लगभग एक प्रकारका स्तब्ध तरंगहीन आनन्द बन जाती हैं ।

 

     निश्चल-नीरवता चिंतन अथवा अन्य क्रियाशीलताके प्रकंपी समस्त गतिका अभाव है ।

 

*

 

     स्थिरता प्रबल और भावात्मक अचंर्चलता है, सुदृढ़ और ठोस -- साधारण अचंचलता महज अभावात्मक स्थिति है -- महज विक्षोभका अभाव ।

 

     शांति गहरी अचंचलता है जहां कोई विक्षोभ नहि आ सकता -- ऐसी अचंचलता है जिसमें सुप्रतिष्ठित सुरक्षा और मुक्तिका बोध होता है ।

 

 

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    पूर्ण निश्चल - नीरवतामें या तो कोई विचार नही होते या विचार आते हैं, पर वे बाहरसे आनेवाली और निश्चल-नीरवताको भंग न करनेवाली किसी चीजके रूप- मे अनुभूत होते हैं ।

 

    मनकी निश्चल-नीरवता, मनकी शान्ति या स्थिरता तीन अलग-अलग चीजे हैं जो एक-दूसरेके बहुत समीप हैं और एक-दूसरेको लें आती हैं ।

 

*

 

     अचंचलता उस अवस्थाको कहते हैं जब मन या प्राण विक्षुब्ध, अशांत तथा विचारों और भावनाओंके द्वारा बहिर्गत या परिपूर्ण न हों । विशेषत. जब दोनों (मन और प्राण) ही अनासक्त होते और इन सबको एक उपरितलीय क्रियाके रूपमे देखते हैं तो हम कहते हैं कि मचा या प्राण अचंचल है।

 

    स्थिरता इससे अधिक भावात्मक स्थिति है, यह महज विक्षुब्धता, अति-क्रिया- शीलता या उपद्रवका अभाव नही है । जब एक सुस्पष्ट या महान् या प्रबल स्तब्धता विद्यमान होती है जिसे कोई चीज भंग नहीं करती या भंग नहीं कर सकती, तब हम कहते हैं कि स्थिरता स्थापित हों गयी है ।

 

*

 

    ये (स्तब्धता और निश्चलता) साधारण शब्द हैं, ये कोई विशेष यौगिक अर्थ नही रखते, साधारण अर्थ रखते हैं । अचंचलता, स्थिरता और शान्ति इन सबको स्तब्धता कहा जा सकता हे; निश्चल-नीरवता उस चीजसे मिलती-जुलती है जो निश्चलताका तात्पर्य हे ।

 

*

 

    यह मन और प्राणकी निश्चल-नीरवता हैं - यहां निश्चल-नीरवताका अर्थ केवल विचारोंका बन्द हों जाना नही है बल्कि मानसिक और प्राणिक उपादान-तत्त्व- का निष्कंप हो जाना हैं । इस निष्कपताकी गहराईकी विभिन्न मात्राएं होती हैं ।

 

*

 

    पहली हे व्यक्तिगत आधारकी सामान्य मौलिक स्थिरता -- दूसरी है वैश्व चेतनाकी मौलिक असीम स्थिरता, वह स्थिरता सर्वदा बनी रहती है, चाहे वह समस्त क्रियाओंसे पृथक् हों या उन्हें सहारा देती हो ।

 

    यह ऊर्ध्वस्थित आत्माकी स्थिरता है जो आत्मा नीरव, अक्षर और अनन्त है ।

 

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    शान्ति स्थिरताकी अपेक्षा अधिक भावात्मक स्थिति है - एक अभावात्मक स्थिरता भी हो सकती है जो विक्षोभ या उपद्रवका महज अभाव है, परन्तु शान्ति सर्वदा ही कोई भावात्मक वस्तु होती है जो स्थिरताकी तरह केवल मुक्तिका बोध नही ले आती बल्कि एक विशेष प्रकारकी प्रसन्नता अथवा स्वयं आनन्दको ले अति है ।

 

    एक भावात्मक स्थिरता भी होती है, एक ऐसी चीज जो उपद्रव मचानेवाली सभी वस्तुओंको विरुद्ध अडिग बनी रहती है, जो अभावात्मक स्थिरताकी तरह पतली और उदासीन नही होती बल्कि प्रबल और ठोस होती है ।

 

*

 

    शान्तिमें निश्चलताके बोधके साथ-साथ एक प्रकारकी सुसंगति होती है जो मुक्ति और पूर्ण संतुष्टिका बोध प्रदान करती है ।

 

*

 

   शान्ति निस्तब्धता और स्थिरता है - वह आनन्द नही है । अवश्य ही एक प्रकारका स्थिर आनन्द हो सकता है ।

 

*

 

   शान्ति मुक्तिका चिह्न है -- आनन्द सिद्धिकी ओर जाता है ।

 

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     यह आवश्यक नहीं कि शान्ति गभीर या हर्षहीन हों -- इसमें कोई भी चीज खिन्न नहीं होनी चाहिये -- परन्तु प्रसन्नता या हर्ष या हलकेपनका बोध जो शांतिके अन्दर आता है उसे निश्चित रूपसे कोई आंतरिक वस्तु, स्वतसिद्ध होनी चाहिये या अनुभूतिके गहरी होनेके कारण उत्पन्न होना चाहिये - तुम जिस ठहाकेकी बात करते हो उसकी तरह इसे किसी बाहरी कारणसे अथवा उसपर निर्भर करके, उदाहरणार्थ, किसी मजेदार, उल्लासकारी वस्तु आदिकी तरह प्रकट नही किया जा सकता ।

 

*

 

    हर्ष भी अन्दर गहराईमें होना चाहिये, तब शान्ति और आंतरिक चेतनाकी गहराइयोंके साथ उसका संघर्ष नहीं होगा ।

 

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     वे (शान्ति और धैर्य) एक साथ रहते हैं । सभी प्रकारके दबावोंके अधीन धैर्य बनाये रखकर तुम शान्तिका आधार स्थापित करते हो ।

 

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     यह (पवित्रता) एक तत्वकी अपेक्षा कही अधिक एक अवस्था है । शान्ति पवित्रता प्राप्त करनेमें सहायता करती है -- क्योंकि शान्तिके अन्दर विशुद्ध करने- वाले प्रभाव समाप्त हों जाते हैं और पवित्रताका सग्रतत्व है केवल भागवत प्रभावको प्रत्युत्तर देना और अन्य क्रियाओंके साथ कोई संपर्क न रखना ।

 

*

 

    पवित्रता है किसी दूसरे प्रभावको नही, बल्कि केवल भगवानके प्रभावको स्वी- कार करना ।

 

*

 

    पवित्रताका अर्थ है गंदगी या मिलावटसे मुक्त रहना । दिव्य पवित्रता वह चीज है जिसमें निम्रतर प्रकृतिकी गंदी अज्ञानपूर्ण क्रियाओंका कोई मिश्रण न हो । सादा- रणतया (सामान्य भाषाके अन्दर) पवित्रताका अर्थ माना जाता है कामवासनाके आवेग और प्रकोपसे मुक्त रहना ।

 

*

 

   चैत्यकी अपेक्षा भागवत पवित्रता एक अधिक विशाल और सर्वालिगनकारी अनुभूति हैं ।

 

*

 

     पवित्रता या अपवित्रता चेतनापर निर्भर हैं, भागवत चेतनाके अन्दर सब कुछ पवित्र है, अज्ञानमें सब कुछ अपवित्रताके अधीन है, केवल शरीर या शरीरका कोई भाग ही नहीं, बल्कि मन और प्राण और बम कुछ । केवल आत्मा और चैत्य पुरुष सर्वदा पवित्र बने रहते हैं ।

 

*

 

१४१


     पवित्र मनका अर्थ है वह मन जो अचंचल हों तथा निरर्थक या विघ्रकारी स्वभाववाले विचारोंसे मुक्त हों ।

 

*

 

    अचंचल मन वह मन है जो परेशान नही होता, अस्थिर नही होता और मान- सिक कार्यकी आवश्यकतासे सर्वदा स्पंदित होता रहता है ।

 

        तुम जिस चीजकी बात कर,रहे हों वह एकाग्र मन है, जो किसी चीज या किसी विषयपर एकाग्र है । वह एकदम भिन्न चीज है ।

 

*

 

    क्या तुम यह समझते हो कि अचंचल मन किसी वस्तुका त्याग नही कर सकता और केवल चंचल मन ही वैसा कर सकता है? सच पूछो तो अचंचल मन ही सर्वोत्तम रूपमें वैसा कर सकता है । अचंचल होनेका अर्थ जड़ और तामसिक होना नही है ।

 

*

 

    यह निरर्थक बात है । मनसे कुछ न करना ही अचंचल या नीरव होना नही है । निष्क्रियतामें तो मन यांत्रिक रूपमें सोचता रहता और किसी एक विषयपर एकाग्र होनेके बदले चारों ओर बिखरा होता है -- बस, यही बात है. ।

 

*

 

     निष्क्रिय शान्ति कुछ करती है - ऐसा नहीं माना जाता । सच पूछो तो जब पूर्ण ठोस रूपमे शान्ति उपस्थित हों जाती है तो केवल उसीके द्वारा समस्त विक्षोभ ऊपरी सतहपर अथवा चेतनाके बाहर ढेले दिया जाता है ।

 

*

 

 निष्क्रिय शान्तिका यह सामान्य स्वभाव नहीं है कि वह केवल निष्क्रियतामें ही एकाग्र हो सकतीं है । वह कर्ममें या कर्मके पीछे भी रह सकती और एकाग्र हों सकती है

 

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    सच पूछा जाय तो यह अचंचल और सहज-स्वाभाविक कर्म हीं विशिष्ट दिव्य कर्म है । आक्रामक कर्म, जैसा कि तुम कहते हो, केवल तब होता है जब वहां विग्रह और विरोध हो । परन्तु इसका मतलब यह नही कि अचंचल शक्ति तीव्र नही हों सकती । यह आक्रामककी अपेक्षा अधिक तीव्र हों सकती है, परन्तु इसकी तीव्रता केवल शांतिकी तीव्रताको बढ़ाती है ।

 

*

 

     हां, निश्चय ही, मानसिक शान्ति, प्राणिक शान्ति और भौतिक प्रकृतिकी शांति भी होती है । ऊपरसे जो शांति अवतरित होती है बह. उच्चतर चेतनाकी शांति होती

 

*

 

    यह एक ही शांति है - पर यह स्थूल रूपमे स्थूल पदार्थमें ठोस रूपमे भौतिक मन और स्तायु-सत्तामे, साथ ही आंतरिक रूपमे मन और प्राणमें अथवा सूक्ष्म रूपमे सूक्ष्म शरीरमें अनुभूत होती है ।

 

*

 

     निस्सन्देह, शांति, पवित्रता और निश्चल-नीरवता सभी स्थूल वस्तुओंसे अनु- भूत हो सकती हैं -- क्योंकि दिव्यात्मा सबके अन्दर विद्यमान है ।

 

*

 

     विश्व-ब्रह्मांडके पीछे जो विरा निश्चल-नीरवता विद्यमान है उसीपर विश्व- की समस्त गतिविधि अवलंबित है ।

 

    दिव्य निश्चल-नीरवतासे ही शान्ति आती है; जब शान्ति गभीर और गभीर होती जाती है तो वह अधिकाधिक निश्चल-नीरवता बनाती जाती है ।

 

    अधिक बाह्य अर्थमें निश्चल-नीरवता शब्दका प्रयोग उस स्थितिके लिये होता है जिसमे विचार या अनुभव आदिकी कोई क्रिया नही होती, केवल मनकी महान् निस्तब्धता बनी रहती है ।

 

    परन्तु निश्चल-नीरवतामें कर्म हो सकता हे, स्थिर भावसे ठीक वैसे हीं जैसे कि वैश्व कर्म वैश्व निश्चल-नीरवतामें चलता रहता है ।

 

*

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     निष्क्रिय-नीरवता वह स्थिति है जिसमें आंतरिक चेतना शून्य और प्रशांत बनी रहती है, बाहरी चीजों और शक्तियोंके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करती ।

 

     सक्रिय निश्चल-नीरवता वह स्थिति है जिसमे एक महान् शक्ति होती हैं जो निश्चल-नीरवताको भंग किये बिना वस्तुओं और शक्तियोंपर फैल जाती है ।

 

*

 

     प्रयत्न, बाधा-विघ्र आदिसे सत्ताका विश्राम । आत्मा कर्मके भीतर भी आंतरिक रूपसे प्रशांत रहता है - शांति ही यह आध्यात्मिक विश्राम प्रदान करती है । तमs तो इससे अधःपतन है और अकर्मण्यतामें ले जाता है ।

 

*

 

    संपूर्णत: निश्चल-नीरव मनमें सामान्यतया बिना किसी सक्रिय गतिके भगवान्- के निष्क्रिय भावक अनुभव होता है । परन्तु उस स्थितिमें सभी उच्चतर विचार और अभीप्साएं और क्रियाएं उठ सकती है । अतएव उस समय कोई अखण्ड नीरवता नहीं होती बल्कि साधक पृष्ठभूमिमें एक मौलिक निश्चल-नीरवताका अनुभव करता है जो किसी भी क्रियासे विक्षुब्ध नही होती ।

 

*

 

     संभवत. तुम सर्वदा यह समझते हो कि चूँकि निश्चल-नीरवता चेतनामें विद्य- मान है इसलिये समूची चेतना अवश्य ही उससे एक समान प्रभावित रहेगी । परन्तु मानव-चेतना उस तरह एक टुकड़ेसे बनी हुई नहीं हैं 1

 

*

 

     यह संभव नही कि यह सहज-स्वाभाविक निश्छ्ल-नीरव स्थिति तुरत-फुरत सदाके लिये स्थायी हो जाय, पर यहीं चीज हे जिसे साधकमें बढ़ना चाहिये जबतक कि सतत आंतरिक निश्चल-नीरवता न स्थापित हों जाय -- ऐसी निश्चल-नीरवता जो किसी बाहरी क्रियासे या यहांतक कि आक्रमण या विघ्र डालनेके किसी प्रयाससे भी भग न हों सके ।

 

    जिस अवस्थाका तुम वर्णन करते हों वह निश्चित रूपसे इस आंतरिक निश्चल- नीरवताकी वृद्धिके सूचित करती है । इसे अन्तमें समस्त आध्यात्मिक अनुभव और कियाके आधारके रूपमें स्थापित हो जाना होगा । यदि कोई यह न जानें कि निश्चल- नीरवताके पीछे अपने अन्दर क्या कार्य चल रहा है तो इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता ।

 

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कारण. योगसाधनामें दो अवस्थाएं आती हैं - एक वह जिसमें सब कुछ नीरव होता हैं और साधकके मनमें कोई विचार, भावना या क्रिया नहीं होती जब कि वह दूसरोंकी तरह ही बाहरसे कार्य भी करता रहता है - दूसरी बहु अवस्था होती है जिसमें एक नवीन चेतना सक्रिय हों जाती है और ज्ञान, हर्ष, प्रेम तथा दूसरी-दूसरी आध्यात्मिक भावनाएं तथा आंतरिक क्रियाएं ले आती है, पर फिर भी उसके साथ-ही-साथ एक प्रकारकी मौलिक निश्चल-नीरवता या अचंचलता बनी रहती है । ये दोनों ही अवस्थाएं आंतरिक सत्ताके विकासके लिये आवश्यक हैं । अखण्ड निश्चल-नीरव स्थिति, जिसमें हल्कापन, सूनापन और मुक्तिका भाव होता है, दूसरी अवस्थाके आने- की तैयारी करती है और जब वह आती है तो उसे धारण करती हे ।

 

III

 

     हा, जो सुस्थिर शांति और शक्ति तीव्रता तथा समतोलता बनाये रखती है और जिसमेंसे प्रत्येक विजातीय वस्तु झड़ जाती है, वह योगका सच्चा आधार है ।

 

*

 

    निश्चय ही यह चीज ऐसी ही होनी चाहिये । इस चीजको अवश्य हीं इतनी दूरतक चले जाना चाहिये कि तुम इस शांति और विशालताको एकदम अपना स्वरूप अपनी चेतनाका स्थायी उपादानतत्व -- अपरिवर्तनीय रूपसे वहां विद्यमान अनु- भव करने. लगो ।

 

*

 

   यह निस्संदेह बहुत अच्छा है । शांति और निश्चल-नीरवताको अन्दर गहराई- मे बैठ जाना चाहिये, इतनी गहराईमें कि जो कुछ भी बाहरसे आये वह भीतर स्थापित स्थिरताको बिना विक्षुब्ध किये केवल ऊपरी सतहपरसे गुजर जाय । यह भी अच्छा है कि ध्यान स्वयं अपने-आप होता है - इसका अर्थ है कि योग-शक्तिने साधनाको अपने हाथमें लेना प्रारम्भ कर दिया है ।

 

*

 

 जब सत्ताके अन्दर सर्वत्र शांति पूरी तरह स्थापित हो जायगी तो ये चीजे (निम्र- तर प्राणकी प्रक्रियाएं) उसे विचलित करनेमे समर्थ नही होंगी । वे पहले ऊपरी तल- पर तरगोंके रूपमें आ सकती हैं, फिर केवल सूचनाओंके रूपमें आती हैं जिनकी ओर मनुष्य दृष्टि डालता है अथवा दृष्टि डालनेकी परवा नही करता, पर दोनों अवस्था-


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ओंमें वे बिलकुल भीतर नही पैठती, प्रभावित या विक्षुब्ध नहीं करती ।

 

    इसकी व्याख्या करना कठिन है, पर यह पर्वतकी जैसी एक चीज है जिसपर मनुष्य पत्थर फेंकता है -- यदि पूराका पूरा पर्वत सचेतन हों तो वह पत्थरोंका स्पर्श अनुभव कर सकता हे, पर वह चीज इतनी कम और ऊपरी होगी कि वह जरा भी प्रभावित नही होगा । अन्तमें वह प्रतिक्रिया भी विलीन हों जाती है ।

 

*

 

    यदि एक बार शांति या निश्चल-नीरवता पूर्णत. स्थापित हो जाय तो ऊपरी तलपर होनेवाली चाहे जितनी भी क्रियाएं उसे भंग या नष्ट नहीं कर सकती । वह विश्वकी समस्त गतिविधियोंको वहन कर सकती है और फिर भी वैसी हीं बनी रह सकतीं है ।

 

*

 

    निस्सन्देह । यदि ऊपरी सतहपर विक्षोभ हों तो भी आंतरिक सत्तामें एक सुप्रतिष्ठित शांतिको अनुभव करना बिलकुल स्वाभाविक बात है । वास्तवमें समस्त सत्तामें पूर्ण समता प्राप्त करनेसे पहले योगीकी यहीं सामान्य स्थिति है ।

 

*

 

    जब शांति और विशालता विद्यमान होतीं हैं तो भी ये चीजे (प्राणिक भौतिक अहजन्य क्रियाएं) ऊपरी तलपर तेरा सकती हैं और भीतर घुसनेकी चेष्टा कर सकती हैं -- केवल तब वे चेतनाको अधिकृत नही करती बल्कि उसे महज छूती हैं । इसीको पुराने योगी प्रकृतिकी बची-खुची यांत्रिक क्रियाएं मानते थे - उसके अन्ध अभ्यासका जारी रहना समझते थे जो आत्माकी वास्तविक मुक्तिके बाद भी बना रहता था । इसे हलके रूपमें लिया जाता था और महत्त्वपूर्ण नही माना जाता था -- परन्तु यह दृष्टिकोण हमारे योगके लिये मान्य नही है, क्योंकि इसका उद्देश्य केवल पुरुषकी मुक्ति नही है बल्कि प्रकृतिका भी पूर्ण रूपांतर है ।

 

*

 

   हां, अंतर्मुखी गति यथार्थ गति है । अपने अन्दर शांति और निश्चल-नीरवता- मे निवाम करना प्रथम आवश्यकता है । मैंने विशालताकी बात कही थी क्योंकि निश्चल-नीरवता और शांतिकी विशालतामें ही (जिसे योगीगण एक साथ ही व्यक्तिगत और विश्वगत आत्माका साक्षात्कार मानते हैं) आंतर और बाह्यको समन्वित करने-

 

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का आधार विद्यमान है । वह आयेगा ।

 

*

 

   जब शांति गहरी या विस्तृत होती है तो वह प्राय. आंतर सत्तामें होती है । सत्ता- के बाहरी अंग सामान्यतया अचंचलताकी एक विशेष सीमाके परे नही जाते -- वे केवल तभी गहरी शांति प्राप्त करते हैं जब कि वे आंतर सत्तासे आनेवाली शांतिके परिप्लावित हों जाते हैं ।

 

*

 

 हां, निश्चय ही -- शांति आंतर सत्तासे प्रारम्भ होती है -- यह आध्यात्मिक और चैत्य होती है पर यह बाहरी सत्तामें भर जाती है -- जब कह कार्यकलापमें विद्य- मान रहती है तो इसका तात्पर्य है कि या तो सामान्य चंचल मन, प्राण और शरीर आंतरिक शांतिकी बाढमें डूब गये हैं अथवा, एक अधिक उन्नत अवस्थामें, वे आशिक या पूर्ण रूपमे ऐसे विचारों, शक्तियों, भावावेगों, संवेदनोंमें पूर्णत. रूपांतरित हों गये हैं जिनके अपने एकदम उपादान-तत्त्वमें ही आंतरिक निश्चल-नीरवता और शांति विद्यमान है ।

 

*

 

   हमारी आंतरिक आध्यात्मिक उन्नति उतनी बाहरी अवस्थाओंपर नही निर्भर करती जितनी कि इस बातपर निर्भर करती है कि हम अपने भीतरसे उन अवस्थाओंके प्रति किस प्रकार प्रतिक्रिया करते हैं -- सदासे आध्यात्मिक अनुभूतिका यह चरम सिद्धांत रहा है । यही कारण है कि हम लोग इस बातपर जोर देते हैं कि साधक उचित भाव ग्रहण करे और उसे बराबर बनाये रखे, एक ऐसी आंतरिक स्थिति प्राप्त करे जो बाह्य परिस्थितियोंपर निर्भर न करती हो, जो एकदम आरंभमें हीं यदि आंतरिक प्रसन्नताकी स्थिति न हो सकती हो तो भी वह समता और स्थिरताकी एक अवस्था अवश्य हो, और वह जीवनके धक्कों और थपेड़ोके वशमे रहनेवाले ऊपरी मनमें निवास करनेके बदले अधिकाधिक अपने भीतर प्रवेश करे और भीतरसे ही बाहरकी ओर देखें । केवल इसी आंतरिक स्थितिके प्रतिष्ठित होनेपर साधक जीवन् तथा जीवनमें बाधा पहुँचानेवाली शक्तियोंसे कही अधिक बलवान बन सकता है और उनपर विजय पानेकी आशा कर सकता है ।

 

   भीतर अचंचल बने रहना, बाधा-विपत्ति या उत्थान-पतनसे विचलित या निरुत्साहित न हों पथपर चलनेके अपने संकल्पमें दृढ बने रहना -- यही वह पहली बात है जिसे इस योगमार्गमें सीखना पड़ता है । अन्यथा करनेसे चेतनाको अस्थिर

 

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होनेका अवसर मिल जाता है और अनुभूतिको बनाये रखनेमें कठिनाई होती है जिसकी तुमने शिकायत की हैं । यदि तुम अन्दरसे स्थिर और अचंचल बने रहो तो ही अनु- भूतिकी धाराएं एक हदतक अबाध गतिसे प्रवाहित हों सकती हैं - यद्यपि ऐसा कभी नही होता कि बीच-बीचमें व्याघात और उत्थान-पतनके काल बिलकुल न आते हों; पर इनका भी यदि ठीक तरहसे उपयोग किया जाय तो ये काल साधनामें व्यर्थ नष्ट हुए कालकी जगह अनुभूतिको पचाने और कठिनाइयोंको नष्ट करनेके काल बन सकते ?

 

    बाह्य परिस्थितियोंकी अपेक्षा आध्यात्मिक वातावरण कही अधिक महत्त्व- पूर्ण है । यदि कोई साधक इसे प्राप्त कर सके और साथ ही अपने श्वास लेनेके लिये और उसीमें रहनेके लिये अपना निजी आध्यात्मिक वायुमंडल उत्पन्न कर सके तो यही उसकी उन्नतिके लिये समुचित अवस्था होगी ।

 

*

 

    तुम्हें समझ लेना चाहिये कि जहां अचंचल परिपार्श्व वांछनीय हैं, वहां सच्ची अचंचलता हमारे भीतर है और कोई दूसरा वह अवस्था तुम्हें नही दे सकता जिसे तुम चाहते हों ।

 

*

 

     अभीप्सा करो, समुचित मनोभावके साथ एकाग्र होओ और, फिर चाहे जो कठिनाइयां हों, जिस उद्देश्यको तुमने अपने सामने रखा है उसे तुम अवश्य प्राप्त करोगे ।

 

   पीछे जो शांति है और तुम्हारे अन्दर जो ' 'अधिक सत्य कोई वस्तु' ' है,उसीमें निवास करना तुम्हें सीखना होगा और यह अनुभव करना होगा कि वही वस्तु तुम स्वयं हो । और इसके अतिरिक्त और जो कुछ है उसे तुम्हें अपना वस्तिग्वक स्वरूप नही समझना होगा, बल्कि उसे बाहरी तलपर होनेवाली उन गतियोंका प्रवाह समझना होगा जो बराबर परिवर्त्तित होती रहती हैं या बार-बार घटित होतीं रहती हैं और जो वास्तविक स्वरूपका प्रकट होते ही निश्चित रूपसे बन्द हो जाती है ।

 

   इसका सच्चा प्रतिकार है शांति; कठिन कार्यमें लगकर मनको दूसरी ओर फेर लेनेसे केवल अस्थायी रूपसे ही कुछ चैन मिल सकता है - यद्यपि आधारके विभिन्न भागोंमें समुचित सामंजस्य बनाये रखनेके लिये कुछ कार्य करना आवश्यक है । अपने सिरके ऊपर और उसके इर्दगिर्द शांतिके अनुभव करना पहली सीढ़ी है । तुम्हें उस शांतिके साथ अपना संबद स्थापित करना होगा और उसे तुम्हारे अन्दर अवतरित होकर तुम्हारे मन, प्राण और शरीरमें भर जाना होगा तथा तुम्हें इस प्रकार घेर लेना होगा कि तुम उसीमें निवास करने लगो - क्योंकि तुम्हारे साथ भगवान्की उप- स्थितिके होनेका एकमात्रचिह्न यही शांति है, और अगर एक बार तुम इसे पा लो तो

 

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बाकी चीज़ें अपने-आप आना आरम्भ कर देंगी ।

 

    भाषणमें सत्यता और विचारमें सत्यता बहुत महत्त्वपूर्ण है । जितना ही अधिक तुम यह अनुभव करोगे कि मिथ्यात्व अपना अंश नहीं है, वह बाहरसे तुम्हारे अन्दर आता है, उतना ही अधिक उसका त्याग करना और उसे अस्वीकार करना तुम्हारे लिये आसान हो जायगा ।

 

   अपना प्रयास जारी रखो और जो कुछ अभी वक्र है बह सरल हो जायगा तथा भगवान्की उपस्थितिके सत्यको तुम निरन्तर जानने और अनुभव करने लगोगे और प्रत्यक्ष अनुभूतिके द्वारा तुम्हारी श्रद्धाकी सत्यता प्रमाणित हो जायगी ।

 

 *

 

   जब ज्योति और शांति प्राणमय और भौतिक चेतनामें भरी होती हैं तो यही चीज समस्त प्रकृतिकी यथार्थ क्रियाके आधारके रूपमें सदा बनी रहती है ।

 

   भीतर, ऊपर और अस्पृष्ट, आंतरिक चेतना और आंतरिक अनुभूतिसे परि- पूर्ण बने रहना,--जब आवश्यक हो तो एक या दो ब्यक्तिकी बातें ऊपरी चेतनासे सुन लेना, पर उससे भी अविक्षुब्ध रहना, न तो बाहरकी ओर खिंच जाना या आक्रांत होना - बस यही साधनाकी पूर्ण स्थिति है ।

 

*

 

   तुमने अपनी अवस्थाके बिषयमें जो कुछ लिखा है वह मोटे रूपमें सही मालूम होता है । निश्चय हीं तुम्हारे भीतर एक महत्तर स्थिरता और आंतर सत्ताकी स्वतंत्र- ता है जो वहां पहले नही थी । यही चीज तुम्हें समता प्रदान करती है जिसे तुम वहां अनुभव करते हो ओर कही अधिक गंभीर उपद्रवोंसे बचनेकी क्षमता भी प्रदान करती है । जब साधकको आंतरिक स्थिरताका यह आधार प्राप्त हो जाता है तो ऊपरी तल- की कठिनाइयों और अपूर्णताओंको घबडाहट, उदासी आदिके बिना दूर किया जा सकता है । बिना आक्रमणके दूसरोंके मध्य चले जानेकी शक्ति भी उसी कारणसे आती है ।

 

*

 

  दूसरे प्रश्नके विषयमें, उस विषयमें कोई सामान्य नियम नही है, परन्तु तुम्हारा मनोभाव तुम्हारे लिये यथार्थ मनोभाव है - क्योंकि तुममें पीछेकी ओर एक अधिक साधारण, तीक्या और व्यापक ढंगका सच्चा मनोभाव होनेके कारण तुम्हें क्षमताका कोई विशेष विकास करनेकी आवश्यकता नहीं है । जो लोग विशेष विकासकी आवश्यकता महसूस करते हैं वे वास्तवमें उसे मांगते हैं और उसे पाते हैं ।

 

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    यह निश्चल-नीरवता आंतरिक चेतनाकी निश्चल-नीरवता है और वास्तवमें इसी निश्चल-नीरवतामें, जो बाहरी वस्तुओंसे अविचलित रहती है, चेतनाकी सच्ची क्रिया निश्चल-नीरवताको भंग किये बिना आ सकती है - जैसे, यथार्थ बोध, संकल्प, अनुभव, कर्म । उस स्थितिमें मनुष्य श्रीमाताजीकी क्रियाको भी अधिक आसानीसे अनुभव कर सकता है । गर्मीका जहांतक प्रश्न है, यह अवश्य हीं 'अग्नि'की गर्मी होगी -- पवित्रीकरण और तपस्याकी अग्निकी गर्मी । जब आंतरिक किया होती रहती है तो बहुधा उस प्रकारका अनुभव होता है ।

 

    मनुष्योंके साथ व्यवहार करनेके विषयमें जो तुम अनुभव करते हों वह बिलकुल सही है । यह इन वस्तुओंकी ओर देखनेका चैत्य पुरुषका तरीका है ।

 

 *

 

     तुम्हारे पत्रमें उद्धत उस योगीके संदेशको मैंने फिरसे पढा है, परन्तु सदर्भसे पृथक् होनेके कारण उसका कोई अधिक या बहुत निश्चित तात्पर्य नही निकाला जा सकता । उसमें दो वक्तव्य हैं जो काफी स्पष्ट हैं:

 

       ' 'निश्चल-नीरवतामें ही है ज्ञान' ' -- मनकी निश्चल-नीरवतामे ही सच्चा ज्ञान आ सकता है, क्योंकि मनकी साधारण क्रियावली केवल बाहरी भावनाओं और प्रतिरूपोंकी सृष्टि करती है जो यथार्थ ज्ञान नही हैं । वाणोई साधारणतया बाह्य प्रकृति- की अभिव्यंजना होतीं है; अतएव ऐसी वाणी बोलनेमें अपने-आपको अत्यधिक व्यस्त करनेसे शक्तिका अपव्यय होता है और आंतर श्रवणमें बाधा पड़ती है जो श्रवण कि सच्चे ज्ञानका शब्द प्रदान करता है । '' श्रवण करनेपर तुम जो कुछ सोचते हो उसे जीत लोगे' ' का अर्थ संभवतः यह है कि नीरवताके अन्दर सच्ची विचार-रचानाएँ प्रकट होगी जो अपने-आपको कार्यान्वित और सिद्ध कर सकती है । विचार एक शक्ति बन सकता है जो अपने-आपको ससिद्ध करती है, परन्तु साधारण उपरितलीय चिंतन उस प्रकारका नहीं होता; उससे और कोई कार्य होनेकी अपेक्षा कही अधिक शक्ति- का अपव्यय होता है । सच पूछो तो जो विचार अचंचल या निश्चल-नीरव मनमें आता है उसीमें शक्ति होतीं हे ।

 

      ' 'कम बोलों और शक्ति प्रान्त करो' ' का भी मूलत. यही अर्थ है; केवल सत्यतर ज्ञान ही नही, बल्कि एक महत्तर शक्ति भी मनकी अचंचलता और निश्चल- नीरवता के अन्दर आती है जो ऊपरी सतहपर बुलबुले उठानेकी जगह, अपनी निजी गहराइयों- मे पैठ सकती और जो कुछ उच्चतर चेतनासे आता है उसे सुन सकती हे ।

 

    संभवत: उनका मतलब यही था; ये बातें उन सभी लोगोंको मालूम हैं जिन्हें योगका कुछ अनुभव प्राप्त है ।

 

*

 

१५०


    शांति बाह्य सस्पर्शोंकी समस्त पराधीनतासे मुक्त करती है -- यह वह चीज प्रदान करती है जिसे गीता 'आत्मरति' कहती है । परन्तु आरंभमें इसे अक्षुण्ण बनाये रखनेमें कठिनाई होती है जब कि दूसरोंके साथ संबंध स्थापित होता हैं, क्योंकि चेतना- को वाणीके रूपमे अथवा बाह्य आदान-प्रदानके रूपमे बाहरकी ओर दौड पड़नेकी या फिर सामान्य स्तरपर नीचे उतर आनेकी आदत होती है । अतएव साधकको जबतक यह स्थापित नही हों जाती तबतक बहुत सावधान रहना चाहिये । एक बार स्थापित हो जानेपर यह सामान्यतया अपनी रक्षा आप करती है, क्योंकि उच्चतर शांतिसे भरपूर चेतनाके लिये सभी बाहरी संपर्क उपरितलीय चीज़ें बन जाते हैं ।

 

*

 

     तुमने निश्चल-नीरव आंतरिक चेतनाको प्राप्त कर लिया है, परन्तु वह अशांति- से आच्छादित हो सकती है - अगली स्थिति यह हे कि स्थिरता और निश्चल-नीरवता आधारके रूपमें अधिकाधिक बाहरी चेतनामें स्थापित हो जायं...... । तब सामान्य शक्तियोंकी क्रीड़ा केवल ऊपरी सतहपर होगी और अधिक आसानीसे उनके साथ समुचित व्यवहार किया जा सकेगा ।

 

*

 

      यही सही रास्ता है - उच्चतर चेतनाकी शांतिको बनाये रखना । तब यदि प्राणिक अशांति उत्पन्न भी हों तो वह केवल ऊपरी सतहपर ही रहेगी । इससे साधना- का आधार तबतक बना रहेगा जबतक कि दिव्य शक्ति सच्चे प्राणको मुक्त नही कर लेती ।

 

*

 

   यदि तुम शांति प्राप्त कर लो तो प्राणको शुद्ध करना आसान हो जाता है । यदि तुम केवल शुद्ध और शुद्ध हीं करते रहो और अन्य कुछ भी न करो तो तुम बहुत धीरे- धीरे आगे बढ़ोगे - क्योंकि प्राण फिर गंदा होता जायगा और उसे तुम्हें सैकड़ों बार शुद्ध करना होगा । शांति एक ऐसी चीज है जो अपने-आपमें शुद्ध है, अतएव उसे प्राप्त करना अपने उद्देश्यको सिद्ध करनेका निश्चित पथ है । केवल गंदगीको देखना और उसे साफ करते रहना अभावात्मक पथ है ।

 

*

 

    जब तुम सर्वदा ''निम्रतर शक्तियों'', ''आक्रमणों'' और ''उनके द्वारा अधिकृत

 

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होनेकी बातों' ' आदिको ही सोचते रहोगे तो शांति और अचंचलताको कैसे प्राप्त करोगे? यदि तुम स्वाभाविक और शांत भावसे बस्तुओंकी ओर देख सको, केवल तभी तुम अचंचलता और शांति प्राप्त कर सकते हो ।

 

*

 

    तुमने अपने पहले प्रयासमें परिणाम प्राप्त करनेके लिये अतिउत्सुकता तथा अतिश्रमके किसी दोषको आने दिया होगा और उसीके कारण अवसाद और प्राणिक संघर्ष उत्पन्न हुआ होगा । इसके कारण जब चेतनाका पतन हुआ तो दुःखी, निराश और विभ्रांत प्राण ऊपरी सतहपर आ गया और प्रकृतिके विरोधी पक्षसे आनेवाले संदेह, निराशा और जड़ताके सुझावोंको पूरी तरह प्रवेश करनेका मार्ग दे दिया । मान- सिक चेतनाकी तरह ही तुम्हें प्राणिक और भौतिक चेतनामें भी स्थिरता और समता- का सुदृढ़ आधार स्थापित करनेका प्रयास करना चाहिये; अपने भीतर दिव्य शक्ति और आनन्दको पूरी तरह नीचे उतर आने दो, पर उतर आने दो सशक्त आधारमें जो उसे धारण करनेमे समर्थ हो - पूर्ण समता ही वह क्षमता और दृढ़ता प्रदान करती है ।

 

*

 

     असफलताका कारण क्षमताका अभाव नहीं है बल्कि दृढ़ताका अभाव है -- प्राणकी एक प्रकारकी चंचलता तथा एक प्रकारकी तीव्र जल्दबाजी है जो पूरे ब्यौरे- की तथा सतत प्रयासकी परवा नहीं करती । तुम्हें आवश्यकता है आंतरिक नीरवता- की तथा ठोस सामर्थ्य और शक्तिकी जो इस आंतरिक नीरवतामें कार्य कर सके, प्राणको अपना यंत्र बना ले पर उसे उसके दोषोंके द्वारा कार्यको परिच्छिन्न न करने दे ।

 

*

 

      इसे (शांतिको) पहले नीचे हृदय और नाभि-केंद्रतक उतार लाना होगा । इससे एक विशेष प्रकारकी आंतरिक स्थिरता प्राप्त हो जाती है - यद्यपि वह पूर्ण नही होती । शांतिको पुकारनेका इसके सिवा और कोई दूसरा तरीका नहीं है कि उसके लिये अभीप्सा की जाय, एक प्रबल स्थिर संकल्प बनाया जाय और जिन भागोंमें शांति- का आवाहन करना हो उन भागोंमें जो सब चीज़ें भगवान्की ओर मुंडी हुई नहीं हैं उन सबका परित्याग किया जाय - यहां वे भाग हैं भावात्मक तथा उच्चतर प्राण ।

 

*

 

     स्वयं अपने-आपमें वैश्व-भाव प्राणको विक्षुब्ध होनेसे नहीं रोक सकता -

 

१५२


वास्तवमें जब समस्त सत्तामें, नीचे अत्यंत स्थूल भागतकमें पूर्ण समर्पणका भाव आ जाता है और शांतिका पूर्ण अवतरण हो जाता है तभी प्राणको विक्षुब्ध होनेसे रोका जा सकता हैं ।

 

*

 

    मन और प्राण सर्वदा ही स्थूल भागकी अपेक्षा कही अधिक वैश्व शक्तियोंके प्रति खुले होते हैं । परन्तु दे स्थूल भागकी अपेक्षा तबतक अधिक अशांत हों सकते हैं जबतक कि वे ऊपरसे आनेवाली शांतिके अधीन नही हो जाते ।

 

*

 

    ऊपरसे स्थिरता तुम्हारे पास आयी और उसने तुम्हारा संबंध ऊपरसे जोड़ दिया, और यदि तुम दृढ़तापूर्वक उसे पकड़े रहो तो तुम शांत-स्थिर बने रह सकोगे । परन्तु इन प्राणिक उपद्रवोंसे मुक्त होनेके लिये तुम्हें वही ऊपर विद्यमान दिव्य शक्ति और संकल्पको नीचे उतार लाना होगा अथवा कम-से-कम इस प्रकार उनके साथ .संबंध स्थापित करना होगा कि जब कभी तुम अज्ञानकी शक्तियोंके विरुद्ध उनका आवाहन करो तभी वे कार्य करें ।

 

*

 

    यौगिक स्थितिकी पहली नींव है सभी अवस्थाओंमें, सत्ताके सभी भागोंमें समता और शांतिका बने रहना । उसके बाद प्रकृतिके झुकावके अनुसार या तो ज्योति (अपने साथ ज्ञान वहन करती हुई) या शक्ति (अपने साथ बल-सामर्थ्य तथा बहुत प्रकारकी क्रियाशीलता वहन करती हुई) अथवा आनन्द (अपने साथ प्रेम तथा सत्ता- का आह्लाद वहन करते हुए) आ सकता है । परन्तु शांतिका आना पहली शर्त हैं जिसके विना दूसरी कोई वस्तु स्थायी नही हो सकती ।

 

*

 

    यह सही है कि साधकमें जो कुछ सबसे प्रबल है उसके द्वारा वह अत्यंत आसानी- से भगवान्की ओर खुल सकता है । परन्तु..... .शांति सबके लिये आवश्यक हैं, शांति और वर्द्धमान पवित्रताके बिना, यदि कोई उद्घाटित भी हो तो भी, उद्घाटनके कारण फरसे आनेवाली सभी वस्तुओंको पूर्णत: ग्रहण नहीं कर सकता । ज्योति भी सबके लिये जरूरी है - ज्योतिके विना ऊपरसे आनेवाली सभी चीजोंका पूरा लाभ नहीं उठाया जा सकता ।

 

१५३


    जब मन निश्चल-नीरव होता है तब वहां शांति विद्यमान रहती हे और उस शांतिके भीतर सभी वस्तुएं, जो दिव्य होती हैं, आती हैं । जब वहां मन नही होता तो वहां आत्मा होता है जो मनसे अधिक महान् है ।

 

*

 

   निश्चल-नीरवता ओर शांति स्वयं ही उच्चतर चेतनाका अंग है -- बाकी चीजे निश्चल-नीरवता और शांतिके अन्दर आती हैं ।

 

*

 

   यह वैष्णव भावना है कि वैदान्तिक शांति पर्याप्त नही है, भगवानका प्रेम और आनन्द अधिक मूल्यवान् हैं । परन्तु जबतक ये दो चीज़ें एक साथ नही रहती, अनुभूत प्रेम और आनन्द संभवत: तीव्र तो होते है पर स्थायी नहीं होते, और यह भी सच है कि ये आसानीसे मिश्रित हों जाते, दिग्भ्रात हो जाते अथवा किसी ऐसी चीजकी ओर मुंड जाते हैं जो सत्य वस्तु बिलकुल नहीं होती । शांति और पवित्रताको चेतनाके आधारके रूपमें अवश्य प्राप्त करना होगा, अन्यथा भागवत क्रीडाके लिये कोई सुदृढ़ आधार-भूमि नही प्राप्त हों सकती ।

 

*

 

    आखिरकार साधनाका सच्चा आधार तुम्हें मिल गया । यह स्थिरता, शांति और समर्पणभाव ही वह समुचित वातावरण है जिसमें बाकी सभी चीज़ें -- ज्ञान, शक्ति और आनन्द -- आती हैं । इस स्थितिको पूर्ण होने दो ।

 

     काममें लगे रहनेपर जो यह स्थिति नहीं बनी रहती, इसका कारण यह है कि यह अभी ठीक मनके क्षेत्रमें ही आबद्ध है और मननें भी उस निश्चल-नीरवताके दान- को अभी हालमें ही ग्रहण किया है । जब यह नयी चेतना पूर्ण रूपसे गठित हो जायगी और प्राणमय प्रकृति तथा भौतिक सत्तापर अपना पूर्ण अधिकार जमा लेगी (अभीतक निश्चल-नीरवतामें प्राणका स्पर्शमात्र किया है अथवा उसपर अपना एक प्रभावभर फैलाया है, उसे अभीतक अधिकृत नही किया है), तब यह दोष दूर हो जायगा ।

 

    तुमने अपने मनमें जो अभी शांतिकी अचंचल चेतना प्राप्त की है उसे केवल स्थिर ही नहीं होना होगा, बल्कि उसे विशाल भी होना होगा । तुम्हें उसे सर्वत्र अनुभव करना होगा, यह अनुभव करना होगा कि तुम स्वयं उसमें हो और सब कुछ उसमें है । यह अन्उभव भी कर्मके अन्दर स्थिरताको आधार बनानेमें सहायता करेगा ।

 

   तुम्हारी चेतना जितनी ही अधिक व्यापक होगी उतना ही अधिक तुम ऊपरसे

 

१५४


आनेवाली चीजोंको ग्रहण करनेमें समर्थ होंगे । उस समय ऊपरसे भागवत शक्ति अवतरित हों सकेगी और तुम्हारे आधारमें शांतिके साथ-साथ शक्ति और ज्योति- को लें आ सकेगी । अपने अन्दर जिस चीजको तुम संकीर्ण और सीमित अनुभव कर रहे हों वह तुम्हारा भौतिक (स्थूल) मन है; यह तभी विशाल बन सकता हैं जब कि ये विशालतर चेतना और ज्योति नीचे उतर आयेगी और तुम्हारी प्रकृतिको अधि- कृत कर लेगी ।

 

    जिस भौतिक तामसिकतासे तुम दुख पा रहे हों वह केवल तभी कम हों सकती और दूर हों सकती है जब आधारमें ऊपरसे शक्तिका अवतरण हो ।

 

    अचंचल बने रहो, अपने-आपको खोले रखो और भागवत शक्तिका आवाहन करो जिसमें वह स्थिरता और शांतिको स्थापित करें, चेतनाको प्रसारित करे और अभी उसमें जितनी ज्योति और शक्ति ग्रहण करने तथा धारण करनेकी क्षमता हो उतनी उसके अन्दर ले आयें ।

 

    इस विषयमें सावधान रहो कि कही अति-उत्सुकताका भाव न आ जाय, अन्यथा उससे, जितनी अचंचलता और समतुलता प्राण-प्रकृतिमे अबतक प्रतिष्ठित हो चुकी है, वह फिरसे भंग हो सकती है ।

 

    अंतिम परिणाममें विश्वास बनाये रखो और दिव्य शक्तिको अपना काम करने के लिये समय दो ।

 

*

 

 यदि अभीप्सा नही तो कम-से-कम जो कुछ आवश्यक है उसकी भावनाको ही बनाये रखो -- ( 1) यह भावना बनाये रखो कि नीरवता और शांति एक विशालता- मे बदल जायेगी जिसे तुम आत्माके रूपमें अनुभव करोगे -- (2) निश्चल-नीरव चेतना ऊपरकी ओर भी विस्तारित हो जायगी जिससे तुम अपने ऊपर उसके मूल- स्रोतको अनुभव कर सकोगे -- (3) सब समय शांति आदि विद्यमान रहेगी । ये चीजे सबकी सब तुरत आ जाय यह आवश्यक नही, पर तुम्हारे मनमें क्या चीज रहनी चाहिये यह समझ लेनेपर तामसिकताकी स्थितिमें कभी भी पतित होनेसे बचा जा सकता है ।

 

*

 

     विशालता और स्थिरता यौगिक चेतनाका आधार है और आंतरिक विकास तथा अनुभवके लिये सर्वोत्तम अवस्था है । यदि भौतिक चेतनामें विशाल स्थिरता स्थापित हों सके, एकदम शरीर तथा उसके समस्त कोषाणुओंको अधिकृत और परि- पूरित कर दे तो वह उसके रूपांतरका आधार बन सकता है; सच पूछा जाय तो इस विशालता और स्थिरताके बिना रूपांतर मुश्किलसे संभव होता है ।

 

१५५


यह यथार्थ मौलिक चेतना है जिसे तुमने अब प्राप्त किया है । तमs तथा निम्र- तर विश्व-प्रकृतिकी अन्य वृत्तियां भीतर आनेका प्रयास करनेके लिये तत्पर रहती हैं, परन्तु साधकको यदि आंतर सत्ताकी स्थिरता प्राप्त हों जो कि उन चीजोंको अपनी सत्ता एवं चैत्य पुरुषकी ज्योतिसे (जो कि तुरत उन्हें प्रकट कर देती और त्याग देती है) बाहरकी किसी चीजके रूपमें अनुभव कराती हौ तो इसीको सच्ची चेतना प्राप्त करना कहते हैं जो साधकको सुरक्षित रखती है, जब कि अधिक सुनिश्चित रूपांतरके कार्यकी तैयारी होती रहती हैं या वह कार्य संपन्न होता रहता है ।

 

   ऊपरसे दिव्य शक्ति, ज्योति, ज्ञान, आनन्द आदिका अवतरण होनेपर रूपांतर सिद्ध होता है । अतएव तुम्हारी यह भावना यथार्थ है कि तुम्हें ऊपरसे होनेवाले ज्योति- के अवतरणके लिये एक अचंचल अभीप्सा या प्रार्थनाके साथ अपने-आपको खोलना चाहिये । केवल यह अभीप्सा इस स्थिरता और विशालताके अन्दर होनी चाहिये, उसे इस स्थिरता और विशालताको तनिक भी भग नहीं करना चाहिये -- और तुम्हें परिणामके तुरत न आनेके लिये तैयार रहना चाहिये -- वह (परिणाम) तेजी- से आ सकता है, पर वह कुछ समय भी ले सकता है ।

 

*

 

        'ठोस पत्थर' की तरह अपने-आपको बोध करनेका यह अनुभव इस बातको सूचित करता है कि तुम्हारी बाह्य सत्तामें - परन्तु मुख्यत: प्राणमय भौतिक सत्तामें -- एक प्रकारके ठोस सामर्थ्य और शांतिका अवतरण हुआ है । सर्वदा यही वह चीज होती है जो आधारका, पक्की नीवका काम करती है और इसीमें अन्य सभी चीजे (आनन्द, ज्योति, ज्ञान, भक्ति) भविष्यमें अवतरित हों सकती हैं और इसीके ऊपर निरापद रूपमे स्थित हों सकती या क्रिया कर सकती हैं । दूसरी अनुभूतिमें सूत्र पंडू जानेकीं जो बात तुमने लिखी है, उसका कारण यह है कि वहांपर गति अन्दरकी ओर थी, परन्तु यहांपर योगशक्ति बाहरकी ओर, पूर्ण जाग्रत् बाह्य प्रकृतिके अन्दर आ रही है जिसमें कि वह वहां योगको तथा योगके अनुभवको स्थापित करना आरम्भ करे । अतएव यहांपर वह सुन्न पड़नेकी बात नहीं है जो कि सत्ताके बाहरी अंगोसे चेतनाके पीछे हट आनेका चिह्न है ।

 

*

 

     शांतिसे भरपूर रहना, हृदय अचंचल रहना, दुःखसे विचलित न होना तथा हर्षसे उत्तेजित न होना बहुत अच्छी स्थिति है । आनन्दका जहांतक प्रश्न है, वह अपनी पूर्णतम तीवताके साथ पर कहीं अधिक स्थायी स्थिरताके साथ केवल तभी आ सकता है जब कि मन शांतिपूर्ण हों और हृदय सामान्य हर्ष और शोकसे मुक्त हो । यदि मन और हृदय अशांत, परिवर्तनशील, चंचल हों तो एक प्रकारका आनन्द आ सकता है,

 

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पर वह प्राणिक उत्तेजनाके साथ मिला-जुला होगा और स्थायी नही हों सकता । सब- से पहले साधकको अपनी चेतनामें शांति और स्थिरताको स्थापित कर लेना चाहिये, फिर उसे एक ठोस आधार मिल जायेगा जिसपर आनन्द फैल सकता है और अपने समयपर चेतना और प्रकृतिका एक स्थायी अंग बन सकता है ।

 

*

 

    शांतिकी एक महान् लहर ( अथवा समुद्र) और एक सुविशाल ज्योतिर्मयी सद्- वस्तुका निरंतर बोध - ये दोनों बातें स्पष्ट रूपमें परम सत्यकी उस मूलगत उपलब्धि- को सूचित करनेवाली हैं जो मन और अंतरात्मा उस गरम सत्यका प्रथम संस्पर्श होनेपर प्राप्त होती है । इससे अधिक अच्छे प्रारंभ या स्थापनाकी कामना नही की जा सकतीं -- यह उस चट्टानके समान है जिसके आधारपर बाकी सब कुछ निर्मित किया जा सकता है । निश्चय ही इसका अर्थ ' 'कोई एक उपस्थिति' ' नही है बल्कि इसका अर्थ है ' 'वह एकमात्र ( भागवत) उपस्थिति' ' -- और अगर इस अनुभूतिको किसी तरह अस्वीकार करके या इसके स्वरूपके विषयमें संदेह करके इसे दुर्बल बना दिया जाय तो यह एक बड़ी भारी भूल होगी ।

 

     इसकी कोई परिभाषा करनेकी कोई आवश्यकता नहीं और न किसीको इसे किसी एक रूपमें परिवर्त्तित करनेकी चेष्टा ही करनी चाहिये । क्योंकि यह उपस्थिति अपने स्वभावमें अनत है । अगर वह साधककी ओरसे निरंतर स्वीकृत होती रहे तो इसे अपना या अपने अन्दरसे जो कुछ अभिव्यक्त करना है उसे यह अनिवार्य रूपसे और स्वयं अपनी ही शक्तिसे करेगी ।

 

    यह बिलकुल ठीक है कि यह भगवानके यहांसे आयी हुई करुणा है और ऐसी करुणाका एकमात्र प्रतिदान है उसे स्वीकार करना, कृतज्ञ बने रहना और जिस शक्ति- ने चेतनाको स्पर्श किया है उसके प्रति अपने-आपको खोले रखना और इस तरह उसे सत्ताके अन्दर जो कुछ विकसित करना है उसे विकसित करने देना । प्रकृतिका सर्वांगीण रूपांतर एक क्षणमें नहीं किया जा सकता; इसमे दीर्घ समय लगेगा ही और यह विभिन्न स्तरोंको पार करता हुआ ही आगे बढ़ेगा । अभी जो अनुभूति तुम्हें हुई हैं वह केवल आरंभ है, दीक्षामात्र है, जिस नवीन चेतनामें उस रूपांतरका होना संभव होगा उसका आधारमात्र है । इस अनुभूतिका अनायास अपने-आप होना ही इस बातको प्रकट करता हे कि यह मनके, संकल्पके या भावावेशके द्वारा रचित कोई चीज नही है, यह एक ऐसे सत्यसे आयी है जो इन सबसे परे हैं ।

 

*

 

      यदि तुम अपने हृदयमें विशालता और स्थिरता और श्रीमाँके लिये प्रेम भी बनाये रखो तो सब कुछ सुरक्षित है, क्योंकि इसका अर्थ है योगका द्विविध आधार प्राप्त

 

१५७


कर लेना: ऊपरसे अपने साथ शांति, मुक्ति और प्रशांति लिये हुए उच्चतर चेतनाका अवतरण तथा चैत्य पुरुषका उद्घाटन जो सभी प्रयासों या सभी स्वाभाविक गति- विधियोंको यथार्थ लक्ष्यकी ओर मोडे रखता है ।

 

*

 

     अचंचलता और नीरवताको जो तुम अनुभव करते हों और उसके अन्दर जो प्रसन्नताका बोध है यह सब निस्सन्देह सफल साधनाका सच्चा आधार है । जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता है तो वह इस विषयमें निस्सदिग्ध हों सकता है कि साधना एक मज- बूत पायेपर खड़ी हों रही है । तुम्हारा यह समझना भी ठीक है कि यदि यह अचंचलता पूर्ण रूपसे स्थापित हो जाय तो जो कुछ भीतर छिपा हुआ है वह सब बाहर आ जायेगा । फिर यह भी सही है कि इस शांतिसे प्राप्त प्रसन्नता किसी भी बाहरी चीजसे प्राप्त प्रसन्नताकी अपेक्षा बहुत अधिक महान् है -- उसके साथ किसी चीजकी तुलना नही की जा सकतीं । बाह्य विषयोंके आकर्षणके प्रति उदासीन होना योगका एक प्रांरभिक नियम है, क्योंकि यह अनासक्ति आनर्त सत्ताको शांति तथा यथार्थ चेतनामें मुक्त करती है । जब मनुष्य सभी वस्तुओंमें भगवान्को देखता है केवल तभी योगके लिये वस्तु- ओंको एक मूल्य प्रान्त हो जाता है, परन्तु उस दिशामें भी वह मूल्य उनके अपने लिये नहीं होता या कामनाके विषयोंके रूपमें नही होता, बल्कि अंतरस्थ भगवानके लिये तथा भागवत कर्म एवं आभव्यक्तिके साधनके रूपमें होता है ।

 

IV

 

     समताका तात्पर्य है सभी परिस्थितियोंमें अपने भीतर अविचलित बने रहना ।

 

*

 

    समता सच्ची आध्यात्मिक चेतनाका प्रमुख अवलंब है और जब साधक किसी प्राणिक वृत्तिक भावना या वाणी या कर्ममें अपनेको बहा ले जाने देता हैं तब वह इसी समतासे भ्रष्ट होता है । समता ठीक वही चीज नही है जो सहनशीलता है,--यद्यपि इसमें कोई संदेह नही कि सुस्थिर समता मनुष्यकी सहनशीलता और धैर्यके शक्तिको बहुत अधिक, यहांतक कि असीम रूपमे बढ़ा देती है ।

 

   समताका अर्थ है अचंचल और स्थिर मन और प्राण, इसका अर्थ है घटित होने- वाली या कही गयी या तुम्हारे प्रति की गयी वस्तुओंसे स्पृष्ट या विचलित न होना, बल्कि उनकी ओर सीधी नजरसे देखना, व्यक्तिगत भावनाद्वारा सृष्ट विकृतियोंसे मुक्त रहना, और उस चीजको समझनेका प्रयास करना जो उनके पीछे विद्यमान हो, यह समझना कि वे क्यों घटित होती हैं, उनसे क्या शिक्षा लेनी चाहिये, हमारे अन्दर

 

१५८


ऐसी कौनसी चीज हैं जिसके विरुद्ध वे निक्षिप्त की गयी हैं और उनसे कौनसा आंतरिक लाभ उठाया जा सकता या उनकी सहायतासे कौनसी प्रगति की जा सकतीं है । इसका अर्थ है प्राणिक क्रियाओंके ऊपर आत्मप्रमुत्व,--क्रोध और असहिष्णुता और गर्व तथा साथ ही कामना और अन्य चीज़ें - इन्हें अपनी भावात्मक सत्तापर अधिकार नहीं जमाने देना और आंतरिक शांतिको भंग नही करने देना, जल्दबाजीमें और इन चीजोंके द्वारा प्रणोदित होकर न बोलना और न कार्य करना, सर्वदा आत्माकी एक स्थिर आंतर स्थितिमें रहकर कार्य करना और बोलना । इस समताको किसी पूर्णत: पूर्ण मात्रामें प्राप्त करना आसान नहीं है, परन्तु साधकको इसे अपनी आंतरिक स्थिति तथा बाह्य क्रियाओंका आधार बननेके लिये सर्वदा अधिकाधिक प्रयास करते रहना चाहिये ।

 

     समताका एक दूसरा अर्थ भी है -- मनुष्यों और उनकी प्रकृति और कर्म तथा उन्हें चलानेवाली शक्तियोंके विषयमें एक सम दृष्टिकोण बनाये रखना, यह चीज मनुष्यकी दृष्टि और विचारमें विद्यमान समस्त व्यक्तिगत भावनाको तथा यहांतक कि समस्त मानसिक पक्षपातको मनसे दूर हटाकर मनुष्य तथा उनकी प्रकृति आदिके सत्यको देखनेमें सहायता पहुँचाती है । व्यक्तिगत भावना सर्वदा विकृति उत्पन्न करती है और मनुष्योंके कामोंमें, केवल स्वयं कामोंको नहीं, बल्कि उनके पीछे विद्यमान उन चीजोंको दिखाती है जो प्रायः वहां नहीं होती । उसका परिणाम होता है गलत- फहमी और अ निर्णय जिससे बचा जा सकता था, उस समय सामान्य परिणाम लानेवालींचीजे बहुत बड़ा रूप ग्रहण कर लेती हैं । मैंने देखा है कि इसी चीजके कारण जीवनमें इस प्रकारकी आधीसे अधिक अनपेक्षित घटनाएं घटती हैं । परन्तु साधारण जीवनमें व्यक्तिगत भावना तथा असहिष्णुता सर्वदा ही मानव-स्वभावका अंग बनी रहती हैं और आत्मरक्षाके लिये आवश्यक हों सकतीं हैं, यद्यपि, मेरी रायमें, वाह भी, मनुष्यों और वस्तुओंके प्रति एक प्रबल, उदार और सम मनोभाव रखना आत्मरक्षा- का उससे बहुत अधिक अच्छा उपाय सिद्ध होगा । परन्तु एक साधकके लिये, उनको अतिक्रम करना और आत्माकी स्थिर शक्तिमें कही अधिक निवास करना उसकी प्रगति- का एक आवश्यक अंग है ।

 

     आंतरिक प्रगतिकी पहली शर्त्त यह है कि प्रकृतिके किसी भी भागमें जो कुछ भी गलत क्रिया हों या हो रहीं हो -- गलत विचार, गलत भावना,गलत वाणी,गलत कार्य हों उसे पहचाना जाय और गलतसे मतलब है वह चीज जो सत्यसे, उच्चतर चेतना और उच्चतर आत्मासे, भगवानके पथसे विरत हों । एक बार पहचान लेनेपर उसे स्वीकार करना चाहिये, उसपर मुलम्मा नहीं चढ़ाना चाहिये और न उसका समर्थन करना चाहिये,--उसे भगवानके प्रति अर्पित कर देना चाहिये जिसमे कि दिव्य ज्योति और भगवत्कृपा अवतरित हों और उसके स्थानमे सत्य चेतनाकी यथार्थ क्रिया स्थापित करें ।

*

१५९


     समताके बिना साधनामें सुदृढ़ प्रतिष्ठा नही हो सकती । परिस्थितियां चाहें जितनी भी अप्रिय हों, दूसरोंका व्यवहार चाहे जितना भी नापसन्द हो, तुम्हें पूर्ण स्थिर- ताके साथ तथा किसी प्रकारकी क्षोभ उत्पन्न करनेवाली प्रतिक्रियाके बिना उन्हें ग्रहण करना सीखना चाहिये । इन्ही चीजोंसे समताकी परीक्षा होतीं है । -अब सब कुछ अच्छी तरह चलता रहता है और सभी मनुष्य तथा परिस्थितियां अनकल होती हैं तब तो स्थिर और सम बने रहना आसान होता है; परन्तु जब ये सब विपरीत हों जाते हैं तभी स्थिरता, शांति और समताकी पूर्णताकी जांच की जा सकती है, तभी उन्हें दृढूतर और पूर्णतर बनाया जा सकता है ।

 

*

 

      यह बहुत अच्छा है कि तुम्हें यह अनुभव प्राप्त हुआ है; क्योंकि इस प्रकारकी समतासे परिपूर्ण चेतना ही ठीक वह वस्तु है जिसे प्राप्त करना है और जो यथार्थ आधार है जिसपर श्रीमाँसे परिपूर्ण ठोस यौगिक चेतना निर्मित की जा सकतीं है । यदि इसे स्थापित किया जा सके तो साधनाकी अधिकांश तकलीफ़ें और कठिनाइयां दूर हों सकती हैं -- सभी आवश्यक परिवर्तन प्रगतिको रोक देनेवाले और भंग कर देनेवाले इन सब उपद्रवो और उलट-फेरोंके बिना, शांतिके साथ घटित हो सकते हैं । साथ ही उस चेतनाके अन्दर यह समझनेकी यथार्थ और स्पष्ट शक्ति वर्द्धित हो सकती है कि मनुष्य और वस्तुएं क्या हैं और बिना किसी संघर्षके उनके साथ कैसे व्यवहार किया जा सकता हैं और यह चीज हमारे कार्य-कर्मको बहुत अधिक आसान बना सकती है । एक बार जब यह चेतना आ जाती है तब वह निश्चित रूपसे बार-बार आती और बढ्ती रहती

 

*

 

    जो कुछ लोग कहते हैं या जो सूचनाएँ आती हैं उन्हें सुननेसे कोई लाभ नही । दोनों ही चीज़ें ऐसी हैं जिनसे प्रभावित न होना सीखना चाहिये । इन सब मामलोंमें एक प्रकारकी समताकी आवश्यकता होती है जिसमें कि साधकको सुदृढ़ स्थिति प्राप्त हों जाय । एकमात्र वस्तु जो महत्चपूर्ण है वह है भगवान्को प्राप्त करना ।

 

   यह (इंद्रियोंका यथार्थ कार्य) है वस्तुओंके दिव्य या सत्य रूपको ग्रहण करना और उनके प्रति नापसंदगी या कामनाके बिना एक सम आनन्दकी प्रतिक्रिया निक्षिप्त करना ।

 

*

१६०


   पूर्ण समता स्थापित होनेमें समय लगता है और यह तीन चीजोंपर निर्भर हैं - अन्तरात्माका एक आंतरिक समर्पणभावके द्वारा भगवान्को निवेदित हो जाना, आध्यात्मिक स्थिरता और शांतिका ऊपरसे अवतरित होना तथा समताका खंडन करनेवाली समस्त अहंकारपूर्ण, राजसिक तथा अन्य भावनाओंको सतत, दीर्घ कालतक और आग्रहपूर्वक परित्याग करते रहना ।

 

   सबसे प्रथम करणीय वस्तु हे हदयकी पूर्ण एकाग्रता तथा आत्मदान - आध्यात्मिक स्थिरता तथा समर्पणभावके। बढ़ते रहना वह स्थिति है जिसमें अहं, रजो- गुण आदिका परित्याग करना सफल होता है ।

 

*

 

   जब उच्चतर चेतनाकी शांति अवतरित होती है तो वह सर्वदा अपने साथ समता- की इस प्रवृत्तिको अपने साथ लें आती है, क्योंकि समताके बिना निम्रतर प्रकृतिकी लहरोंके द्वारा शांतिके आक्रांत होनेकी संभावना बराबर रहती है ।

 

*

 

   समता इस योगका एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है; यह आवश्यक है कि दुःख और कष्टमें भी समताको बनाये रखा जाय - और इसका अर्थ है दृढ़ता और स्थिरता- के साथ सहन करते रहना, बेचैन या विचलित अथवा अवसन्न या हताश न होना तथा भगवान्की इच्छापर अटल विश्वास रखकर अग्रसर होते रहना । परन्तु समताके अन्दर तामसिक स्वीकृतिके लिये कोई स्थान नही । उदाहरणार्थ, अगर साधना करते समय किसी प्रयासमें सामयिक विफलता हो जाय तो समता अवश्य बनाये रखनी चाहिये, उससे विचलित या हताश नहीं होना चाहिये, पर साथ हीं विफलताको भाग- बत इच्छाका चिह्न भी नहीं समझना चाहिये और न अपना प्रयास ही छोड़ना चाहिये । बल्कि इसके बदले तुम्हें उस विफलताका कारण और तात्पर्य खोज निकालना चाहिये और विश्वासके साथ विजयकी ओर आगे बढ़ना चाहिये । यहीं बात रोगके विषयमें भी कही जा सकती है - तुम्हें उससे दुःखित, विचलित या बेचैन नहीं होना चाहिये, पर साथ ही रोगको भगवदिच्छा समझकर स्वीकार भी नही करना चाहिये, बल्कि तुम्हें यह समझना चाहिये कि यह शरीरकी एक अपूर्णता है और जैसे तुम अपने प्राण- की अपूर्णताओं या मनकी मृर्लोको दूर करनेकी चेष्टा करते हों वैसे ही तुम्हें इस शरीर- की अपूर्णताको भी दूर करना है ।.

 

*

 

   यौगिक समता अंतरात्माकी समता है, एकमेव आत्माके, सर्वत्र विद्यमान एक-

 

१६१


मेव भगवानके ज्ञानपर आधारित समत्व है -- अभिव्यक्तिके अन्दर विद्यमान समस्त विभेदो, मात्राओं और विरोधोंके बावजूद एकतमका साक्षात्कार है । मानसिक समता- का तत्व विभेदों, मात्राओं और विरोधोंकी उपेक्षा करने अथवा उन्हें नष्ट कर देनेका प्रयास करता है, इस प्रकार कार्य करनेका प्रयत्न करता है मानों एक समान हो अथवा सबको एक समान कर देनेका प्रयास करता है । यह रामकृष्णके भानजे, हदयके जैसा है, जो रामकृष्णके स्पर्श पानेपर यह चिल्लाने लगा कि ' 'राम- कृष्ण, तुम ब्रह्म हो और मैं भी ब्रह्म हूँ, हम दोनोंमें कोई विभेद नही हे' ', परन्तु जब उसने शांत होना अस्वीकार कर दिया तब रामकृष्णने अपनी शक्ति ही वापस खींच ली । अथवा वह उस शिष्यके जैसा है जिसने महावतकी बात सुनना अस्वीकार कर दिया और जो यह कहते हुए हाथीके सामने खड़ा हों गया कि ' 'मैं ब्रह्म हूँ' ', जबतक कि हाथीने अपनी सुंड उसे उठाकर एक ओर नही रख दिया । जब उसने अपने गुरु- से शिकायत की तो गुरुने कहा, ' 'हां, परन्तु तुमने महावत ब्रह्मकी बात क्यों नहीं सुनी? यही कारण था कि हाथी ब्रह्मको तुम्हें उठाना पड़ा और हानिके पथसे अलग रखना पड़ा । '' अभिव्यक्तिके अन्दर सत्यके दो पक्ष हैं और तुम उनमेंसे किसीकी अवहेलना नहीं कर सकते ।

 

*

 

     निस्सन्देह, घृणा और अभिशाप समुचित मनोभाव नही हैं । यह भी सही है कि सभी वस्तुओं और सभी लोगोंको स्थिर और सुस्पष्ट दृष्टिसे देखना, किसी चीजमें अंतर्ग्रस्त न होना, अपने विचारोंमें निष्पक्ष रहना बिलकुल उचित यौगिक मनोभाव है । पूर्ण समताकी एक स्थितिको स्थापित किया जा सकता है जिसमे मनुष्य सबको, मित्र और शत्रु दोनोंको, एक जैसा देखता है, और जो कुछ मनुष्य करते हैं या जो कुछ घटित होता है उस सबसे विचलित नही होता । प्रश्न यह है कि क्या यही सब कुछ है जिसकी हमसे मांग की जाती है ' यदि ऐसा है, तो सामान्य मनोभाव यही होगा कि प्रत्येक चीजके प्रति तटस्थ उदासीनताका भाव रखा जाय । परन्तु जो गीता पूर्ण और अखंड समतापर प्रबल रूपसे जोर देती है वह यह भी कहती है कि ' 'युद्ध करो, शत्रुका नाश करो, विजय प्राप्त करो । '' यदि किसी प्रकारके सामान्य कर्मकी अपेक्षा नहीं की जाती, सिवा अपनी व्यक्तिगत साधनाके मिथ्यात्वके विरुद्ध सत्यके प्रति एक- निष्ठाकी आवश्यकता नहीं है, सत्यके लिये विजय प्राप्त करनेका कोई संकल्प नही है तो फिर उदासीनताकी समता पर्याप्त होगी । परन्तु यहां एक कार्य संपन्न करना है, एक दिव्य सत्यको स्थापित करना है जिसके विरुद्ध प्रभूत शक्तियां व्यूहबद्ध हैं, अदृश्य शक्तियां विद्यमान है जो अपने यंत्रिके रूपमें दृश्य वस्तुओं, व्यक्तियों तथा कार्योंका उप- योग कर सकती हैं । अगर कोई शिष्योंको, इस सत्यके अन्वेषकोंके दलमें सम्मिलित हो तो उसे सत्यका पक्ष लेना होगा, उन शक्तियोंके विरुद्ध खड़ा होना होगा जो इसपर आक्रमण करती हैं और इसको गला घोटकर मार डालना चाहती हैं । अर्जुनने दोनों-

 

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मे किसी पक्षमें खड़ा न होनेकी इच्छा की थी, आक्रामकोंके विरुद्ध भी शत्रुताका कोई कर्म करना अस्वीकार कर दिया था; पर जिस श्रीकृष्णने समतापर इतना अधिक बल दिया है उन्होंने उसके मनोभावकी बहुत जोरदार शब्दोंमें भर्त्सना की और उसी तरह शत्रुका साथ उसके युद्ध करनेपर भी आग्रह किया । उन्होंने कहा, ' 'समता बनाये रखो, और सत्य- को स्पष्ट रूपमें देखते हुए युद्ध करो । '' अतएव सत्यका पक्ष लेना और आक्रमण करने- वाले मिथ्यात्वके विरुद्ध कुछ भी अंगीकार करना अस्वीकार करना, बेहिचक विरोधी यों और आक्रामकोंके विरुद्ध तथा उनके प्रति विश्वासपात्र बने रहना समताके साथ मेल नही खाता । यह व्यक्तिगत और अहजन्य भावना है जिसे दूर झाडू फेंकना होगा; घृणा और प्राणिक दुर्भावनाका त्याग करना होगा । परन्तु आक्रामकों तथा शत्रुओं- के प्रति वफादार बने रहना और उनके साथ समझौता करना अस्वीकार करना अथवा उनकी भावनाओं और मांगोंको सहर्ष स्वीकार करना और यह कहना कि '' आखिर- कार, हमसे वे लोग जो कुछ मांगते हैं उसके साथ हम समझौता कर सकते हैं' ', अथवा उन्हें अपने साथी और अपने निज जन स्वीकार करना -- ये चीज़ें बहुत महत्व रखती हैं । यदि उनके आक्रमणसे उस कार्यको तथा उस कार्यको नेताओं और कर्मियोंको भौतिक रूपमें हानि होनेकी आशंका हों तो हम तुरत इसे समझ जायेंगे । परन्तु आक- मणि चूँकि कही अधिक सूक्ष्म प्रकारका है इसलिये क्या निष्क्रिय मनोभाव समुचित हो सकता है? यह भीतरी और बाहरी आध्यात्मिक युद्ध है; तटस्थ बने रहने और समझौता करनेसे अथवा निष्क्रिय बने रहनेसे भी हम शत्रु सेनाओंको आगे बढ़ने और सत्य तथा उसके बच्चोको कुचल डालनेका अवसर प्रदान कर सकते है । यदि तुम इस दृष्टिकोणसे इस बातको देखो तो तुम समझ जाओगे कि यदि आंतरिक आध्यात्मिक समता उचित है तो साथ ही सक्रिय वफादारी और दृढ़तापूर्वक सत्यका पक्ष लेना भी उचित है, और ये दोनों बातें बेमेल नही हो सकती ।

 

    अवश्य ही, मैंने एक सामान्य प्रश्नके रूपमें ही इसका विचार किया है, सभी विशेष प्रसंगों अथवा व्यक्तिगत प्रश्नोंको अलग छोड़ दिया है । यह एक कर्मका सिद्धांत है जिसे उसके समुचित प्रकाश और अनुपातमें देखना होगा ।

 

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