Letters on the integral yoga, other spiritual paths, the problems of spiritual life, and related subjects.
Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.
विभाग दो
समन्वयात्मक पद्धति और पूर्णयोग
समन्वयात्मक पद्धति और पूर्ण. योग
अब 'अ' के प्रश्नके विषयमें-यह केवल भक्तिका योग नहीं है; यह एक पूर्ण योग है अथवा कम-से-कम वैसा होनेका दावा करता है, जिसका अर्थ है, समस्त सत्ताको उसके सभी भागोंके साथ भगवान्की ओर मोड देना । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इसमें ज्ञान और कर्म तथा साथ ही भक्ति भी होनी चाहिये, और इसके अलावा, इसमें प्रकृतिके पूर्ण परिवर्तनको, पूर्णताकी खोजको भी सम्मिलित करना चाहिये जिसमें कि प्रकृति भगवान्की प्रकृतिके साथ एक हो सके । केवल हृदय ही वह वस्तु नहीं है जिसे भगवान्की ओर मुड़ना और बदलना है, बल्कि मनको भी-अतएव ज्ञान आवश्यक है, और संकल्प-शक्ति तथा कर्म एवं सृष्टिकी क्षमताको भी-अतएव कर्म भी आवश्यक है । इस योगमें अन्य योगोंकी पद्धतियां ली गयी हैं -- जैसे इस प्रकृति- पुरुषकी पद्धति- को, परन्तु अन्तिम लक्ष्यमें एक प्रकारका अन्तर रखते हुए । पुरुष प्रकृतिसे पृथक् होता है, पर उसका परित्याग करनेके लिये नहीं, बल्कि स्वयं अपनेको और प्रकृतिको जाननेके लिये तथा अब और उसकी कठपुतली बने रहनेके लिये नहीं बल्कि प्रकृतिका ज्ञाता, प्रभु और धारक बननेके लिये; परन्तु वैसा बन जानेपर या वैसा बनते समय भी मनुष्य वह सब भगवान्को अर्पित कर देता है । कोई ज्ञानसे या कर्मसे या भक्तिसे अथवा परिपूर्णताके हेतु आत्मशुद्धि (प्रकृतिके परिवर्तन ) की तपस्यासे आरम्भ कर सकता है और बाकीको परवर्त्ती क्रियाके रूपमें विकसित कर सकता है अथवा कोई सबको एक ही क्रियाके अन्दर युक्त कर सकता हूँ । सबके लिये कोई एक नियम नहीं है, यह व्यक्तित्व और प्रकृतिपर निर्भर करता है । आत्मसमर्पण योगकी प्रमुख शक्ति है, परन्तु समर्पणका क्रमवर्द्धमान होना अनिवार्य है; आरम्भमें ही पूर्ण समर्पण करना सम्भव नहीं है, बल्कि सत्तामें उस पूर्णत्वके लिये महज एक संकल्प हो सकता है,-- वास्तवमें पूर्ण समर्पण करनेमें समय लगता है; फिर भी सच पूछा जाय तो जब समर्पण पूर्ण हो जाता है केवल तभी साधनाकी पूर्ण बाढका आना सम्भव होता है । ऐसा समय आनेतक व्यक्तिगत प्रयास अवश्य जारी रहना चाहिये और समर्पणके यथार्थ रूपकों निरन्तर बढ़ते रहना चाहिये । साधक भागवत शक्तिकी क्रियाशक्तिका आवाहन करता है और एक बार जब वह शक्ति सत्तामें आना आरम्भ कर देती है तो सबसे पहले वह व्यक्तिगत प्रयासको सहायता करती है, फिर धीरे-धीरे समस्त क्रियाको अपने हाथमें ले लेती है, यद्यपि साधककी अनुमति सर्वदा आवश्यक बनी रहती है । जैसे- जैसे शक्ति कार्य करती है, वह साधकके लिये आवश्यक विभिन्न पद्धतियोंको, ज्ञानकी, कर्मकी, अध्यात्मभावापन्न कर्मकी, प्रकृतिके रूपांतरकी प्रक्रियाओंको ले आती है । यह भावना कि उन्हें एक साथ युक्त नहीं किया जा सकता, एक भूल है ।
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साधनाका उद्देश्य है चेतनाको भगवान्की ओर उद्घाटित करना और प्रकृति को रूपांतरित करना । इसे करनेका एक उपाय है मनन या ध्यान, पर यह केवल एक उपाय है; भक्ति दूसरा उपाय है; कर्म एक और उपाय है ! योगीगण सिद्धिके प्रथम उपायके रूपमें चित्तशुद्धिकी शिक्षा दिया करते थे और उसके द्वारा उन्हें सन्तका सन्त- भाव और ज्ञानीका शान्त-भाव प्राप्त होता था, पर जिस चीजको हम प्रकृतिका रूपांतर कहते हैं वह उससे कहीं बड़ी चीज है, और यह रूपांतर केवल मनन-ध्यानसे नहीं साधित होता, इसके लिये कर्म आवश्यक है, कर्मयोग अनिवार्य है ।
ध्यान, समर्पित कर्म या भगवद्भक्तिके द्वारा साधारण मनसे बाहर निकलकर आध्यात्मिक चेतनामें प्रवेश किया जा सकता है । हमारे योगका लक्ष्य केवल निष्क्रिय शान्ति या मनकी लवलीनता प्राप्त करना ही नहीं है बल्कि शक्तिशाली आध्यात्मिक कर्म करना है, और इसलिये इसके लिये कर्म अनिवार्य है, अतिमानसिक सत्यका जहांतक प्रश्न है, वह तो एक दूसरी ही बात है; वह तो केवल भगवान्के अवतरण और परा- शक्तिकी क्यिापर निर्भर करता है तथा वह किसी पद्धति या नियमसे बंधा हुआ नहीं है !
मैंने कभी प्राचीन योगोंके सत्यको अस्वीकार नहीं किया है - मुझे स्वयं वैष्णव भक्ति और ब्रह्ममें निर्वाणकी अनुभूति प्राप्त हुई थी; मैं उनके अपने क्षेत्रमें और उनके अपने उद्देश्यके लिये उनके सत्यको-जहांतक उनका अनुभव जाता है वहां तक उनके सत्यको - स्वीकार करता हूँ -- यद्यपि मैं किसी भी रूपमें अनुभवपर आधारित मानसिक दर्शनशास्त्रोके सत्यको स्वीकार करनेके लिये बाध्य नहीं हूँ । मैं उसी तरह यह देखता हूँ कि मेरा योग अपने निजी क्षेत्रमें - मेरी समझमें एक विशालतर क्षेत्रमें - और अपने निजी उद्देश्यके लिये सत्य है । पुराने योगोंके उद्देश्य है जीवनसे अलग होकर भगवान्की ओर जाना - सो, स्पष्टत:, आओ, कर्मका त्याय कर दे । इस नये योगका उद्देश्य है भगवान्तक जाना और जो कुछ जीवनमें प्राप्त हुआ है उसके पूर्णत्वकी ले आना - उसके लिये, कर्मयोग अनिवार्य है । मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें कोई रहस्यकी बात नहीं है या कोई वस्तु किसीको चकरा देने- वाली नहीं है - यह युक्तिसंगत औr अवश्यम्भावी है । केवल तुम कहते हो कि यह चीज असंभव है; परन्तु यही बात है जो प्रत्येक चीजके विषयमें उसके पूरी हो जाने- के पहले कही जाती है ।
मैं यहां ध्यान दिला दूँ कि कर्मयोग कोई नया नहीं बल्कि एक बहुत पुराना योग है; गीता कल नहीं लिखी गयी थी और कर्मयोग गीतासे पहले था । तुम्हारा जो यह
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विचार है कि गीतामें कर्मोका समर्थन केवल इस तरह किया गया है कि कर्म एक अ- परिहार्य जंजाल है, अतएव यह कहीं अधिक अच्छा है कि इसका उत्तमसे उत्तम उपयोग किया जाय, यह वास्तवमें जल्दबाजीमें किया गया तथा अपक्व विचार है । यदि यही सब कुछ होता तो गीता एक रचना होती और उसके ऊपर दो जिल्दोंमें मेरा लिखना अथवा संसारका उसे एक महानतम शास्त्रके रूपमें, विशेषकर आध्यात्मिक प्रयत्नके भीतर कर्मोंके स्थानकी समस्या सम्बन्धी उसकी व्याख्याके लिये, मान देना मुश्किलन उचित सिद्ध होता । निस्सन्देह, उसमें इससे बहुत अधिक है । जो हो, तुम्हारा यह सन्देह कि क्या कर्म सिद्धितक ले जा सकते हैं अथवा यों कहें कि इस सम्भावनाकी तुम्हारी सुस्पष्ट और पूर्ण अस्वीकृति उन लोगोंके अनुभवका खंडन करती है जिन्होंने इस कल्पित अमम्भाव्यताको उपलब्ध कर लिया है । तुम कहते हो कि कर्म चेतनाको नीचे गिरा देता है, तुम्हें अन्दरसे बाहरकी ओर खींच लाता है - हां, यदि तुम भीतरसे कर्म करनेके बदले उसमें अपनेको बहिर्मुखी बनानेकी अनुमति देते हो; परन्तु वही चीज है जिसे मनुष्यको नहीं करना सीखना है । चिंतन और अनुभव भी मनुष्यको उसी रूपमे बहिर्मुखी बना सकते हैं; परन्तु आंतर चेतनामें रहते हुए उसके साथ चिंतन, अनुभव और कर्मको दृढ़तापूर्वक जोड़ना और बाकी बस्तुओंको एक साधन बनाना ही एक समस्या है । कठिन? भक्ति भी तो आसान नहीं है और अधिकांश लोगोंके लिये निर्वाण उससे भी अधिक कठिन है ।
मैं नहीं समझता कि तुम मानबहितवाद, क्यिाशीलतावाद, लोकोपकारी सेवा आदि चीजोंको क्यों इसमें घसीट रहे हो । इनमेंसे कोई भी चीज मेरे योगका अंग नहीं है अथवा कर्मकी मेरी परिभाषाके साथ सुसमंजस नहीं है, अतएब ये मुझे प्रभावित नहीं करतीं । मंनई कभी यह नहीं सोचा कि राजनीति या गरीबोंको खिलाना या अन्दर- सुन्दर कविताएं लिखना सीधे वैकुंठ या ब्रह्मके पास ले जायगा । यदि बात ऐसी होती तो एक ओर रमेशदत्त और दूसरी ओर बोदलेयर सबसे पहले उच्च- तमको प्राप्त करेंगे और वहां हमारा स्वागत करेंगे । सच पूछो तो स्वयं कर्मका स्वरूप अथवा महज कर्मण्यता नहीं बल्कि उसके पीछे विद्यमान चेतना और ईश्वरमुखी संकल्प बे चीज़ें है जो कर्मयोगका सारतत्त्व हैं, कर्म तो प्रभुके साथ एकत्व प्रश्न करनेका केवल आवश्यक साधन है, अज्ञानकी इच्छा और शक्तिसे निकलकर प्रकाशके विशुद्ध संकल्प और शक्तिमें जानेका पथ है ।
अन्तमें, ऐसा क्यों मानते हो कि मैं ध्यान अथवा भक्तिके विरुद्ध है? यदि तुम भगवान्की ओर जानेके साधनाके रूपमें किसी एकको या दोनोंको ग्रहण करो तो उसमें मुझे तनिक भी आपत्ति नहीं है । केवल मैनई कोई कारण नहीं देखा कि कोई कर्मोंपर आक्यण करे और उन लोगोंके सत्यको अस्वीकार करे जिन्होंने, जैसा कि गीता कहती है, कर्मोके द्वारा पूर्ण सिद्धि और भगवान्के साथ अपनी प्रकृतिका एकत्व, 'संसिद्धिम् स्वाधर्म्यम्' प्राप्त किया है (जैसे जनक और दूसरोंने किया है ) - महज इस कारण कि उसने स्वयं उनके गभीर रहस्यको नहीं जान सका है अथवा अभी नहीं जान सका है कारण मैंने कर्मोका समर्थन क्रिया है !
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कर्मसे मेरा अभिप्राय वह कर्म नहीं है जो अहंता और अज्ञानतामें, अंहताकी तुष्टिके लिये और राजसी कामनाके आवेशमें किया जाता है । अहंकार, रज और काम अज्ञानकी मुहरछाप हैं, इनसे विमुक्त होनेकी इच्छाके बिना कर्मयोग हो ही नहीं सकता ।
कर्मयोगसे मेरा अभिप्राय परोपकार या मनुष्यजातिकी सेवा अथवा उन सब नैतिक या मनःकल्पित बातोसे नहीं है जो मनुष्यका मन कर्मके गभीरतर तत्त्वके स्थान- में लाकर बैठाया करता है ।
कर्मसे मेरा अभिप्राय वह कर्म है जो भगवान्के लिये किया जाय, भगवान्से अधिकाधिक युक्त होकर किया जाय -- एकमात्र भगवान्के लिये किया जाय, और किसी चीजके लिये नहीं । अवश्य ही आरम्भमें यह सहज नहीं है जैसे गभीर ध्यान और ज्योतिर्मय ज्ञान या सच्चा प्रेम और भक्ति भी आरम्भमें सहज नही हैं । परन्तु ध्यान, ज्ञान, प्रेम, भक्तिकी तरह कर्म भी यथावत् सद्भाव और सद्वृत्ति तथा यथार्थ संकल्पके साथ आरम्भ होना चाहिये, तब बाकी सब अपने-आप होगा ।
इस भावके साथ किये जानेवाले कर्म भक्ति या ध्यान जैसे ही अव्यर्थ होते हैं । काम, रजस् और अहंकारके त्यागसे स्थिरता और पवित्रता आती है जिसमें शाश्वती शान्ति उतर सकती है; अपना संकल्प भगवत्संकल्पपर उत्सर्ग करनेसे, अपनी इच्छा भगवदिच्छामे निमज्जित करनेसे अहंभावका अन्त होता है और साधककी चेतना विश्वचेतनाके अन्दर प्रसारित हो जाती है या विश्वके भी ऊपर जो कुछ है उसके अन्दर उठ जाती है; प्रकृतिसे पुरुषकी पृथक् सत्ता अनुभूत होती है और बाह्य प्रकृतिके बंधनों- से मोक्ष होता है; अपने आंतर स्वरूपका साक्षात्कार होता है और बाह्य स्वरूप केवल करण-स्वरूप देख पड़ता है; यह प्रतीति होती है कि वैश्व शक्ति हमारा कार्य करती है और आत्मा या पुरुष निरीक्षक या साक्षी है पर मुक्त है; उस समय ऐसा लगता है कि हमारे सब काम विश्वजननी या परम माता या भागवती शक्तिने अपने हाथोंमें ले लिये हैं और वही हृदयके पीछेसे नियंत्रण करती और कर्म करती हैं । अपने सब संकल्प और कर्म निरन्तर भगवान्को निवेदित करते रहनेसे प्रेम और भक्ति-अर्चना बढ्ती है और हत्युरुष आगे आ जाता है । ऊर्ब्बस्थित शक्तिको निवेदित करनेसे, हमें क्रमश: अपने ऊपर उसकी सत्ता अनुभूत हो सकती हे और हम अपने .अन्दर उसका अवतरण, तथा उत्तरोत्तर प्रवर्द्धमान चैतन्य और ज्ञानकी ओर अपना उद्घाटन अनुभव कर सकते हैं । अन्तमें कर्म, भक्ति और ज्ञान तीनों एक स्रोत होकर चलते हैं और आत्मपरि- पूर्णता संभावित होती हे -- अर्थात् वह कार्य बनता हूँ जिसे हम लोग प्रकृतिका दिव्यी- करण कहते हैं ।
ये सब बातें अवश्य ही एकदम एक साथ नहीं होती; साधककी अवस्था और पात्रताके अनुसार अल्पाधिक मंद गतिसे, अल्पाधिक पूर्णताकी साथ आती हैं । भग- वत्साक्षात्कारका कोई ऐसा सीधा सरल राजमार्ग नहीं है कि चले नही कि पहुँच गये ।
यही वह गीतोक्त कर्मयोग है जिसे मैंने इस रूपमें सर्वांगीण आध्यात्मिक जीवन- की सिद्धिके लिये संवर्द्धित किया है । इसकी प्रतिष्ठा अटकल या तर्कपर नही
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प्रत्युत स्वानुभवपर हुई हे । इसमें ध्यानका बहिष्कार नहीं और भक्तिका तो कदापि ? नहीं; क्योंकि भगवान्के प्रति स्वात्मार्पण करना, सर्वस्व भगवान्पर उत्सर्ग करना इस कर्मयोगका सारतत्त्व है और यह तो तत्वतः भक्तिकी ही एक क्रिया है । अवश्य ही इसमे उस ध्यानका बहिष्कार है जो जीवनसे भागता है अथवा उस भावाच्छादित भक्तिका भी बहिष्कार है जो अपने ही आंतर स्वप्तमें बन्द रहती और इसीको योगकी संपूर्ण साधना मान बैठती है । कोई चाहे तो घंटों केवल ध्यानमें अथवा आंतर अचल अर्चन-पूजन और हर्षातिशयमें एकदम निमग्न बैठा रह सकता है, पर पूर्णयोग इतना ही नहीं है ।
मैंने भक्तिका कभी निषेध नहीं किया है । और मुझे यह भी याद नहीं कि किसी समय मैनि ध्यानका निषेध किया है । मैंने अपने योगमें भक्ति और ज्ञानको उतना ही प्राधान्य दिया है जितना कि कर्मको । हां, इनमेंसे किसी एकको शंकर या चैतन्य- के समान अनन्य रूपसे सर्वोपरि नहीं माना है ।
साधनाके सम्बन्धमें जो कुछ कठिनाई तुम्हें या किसी भी साधकको मालूम होती है वह यथार्थमें ध्यान और भक्ति और कर्मके परस्परविरोधका प्रश्न नही है । कठिनाई है मनकी अवस्थाके सम्बन्धमें कि किस वृत्तिसे, किस ढंगसे (या इसका और जो चाहो नाम रखो ) यह भक्ति अथवा ध्यान या कर्म किया जाय ।
कर्म करते हुए यदि तुमसे सतत भगवतरमरण नहीं होता तो कोई विशेष क्षति नहीं । अभी, आरम्भमें स्मरण और समर्पण तथा अन्तमें कृतज्ञता निवेदन ही काफी है । अथवा अधिक-से-अधिक, काम करते-करते जहां रुक जाओ, वहां स्मरण कर लेना । इस सम्बन्धमें तुम्हारा जो ढंग है वह मुझे कुछ कष्टकर और कठिन मालूम होता है -- मालूम होता है कि तुम मन-बुद्धिके जिस अंशको कर्ममें लगाते हो उसी अंशसे स्मरण भी करनेका प्रयत्न करते हो । मैं नहीं समझता कि यह सम्भव है । काम करते हुए जो लोग सतत स्मरण करते हैं (इस प्रकार स्मरण किया जा सकता है ), वे प्रायः अपनी मन-बुद्धिके पश्चाद्भागसे स्मरण करते हैं अथवा ऐसा भी होता है कि क्रमश: अभ्याससे ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है कि जिससे मनुष्य एक साथ दो प्रकारका विचार या दो प्रकारकी चेतना रख सके -- एकको आगे रखे जिसके द्वारा कर्म हो, और दूसरी अन्तःस्थित रहे जो साक्षी-रूपसे देखे और स्मरण करे । एक और तरीका है जो बहुत कालतक मेरा तरीका था -- इसमें यह अवस्था रहती है कि कर्म अपने- आप होता रहता है, उसमें अपने वैयक्तिक विचार या मानसिक क्रियाके दखल देनेकी कोई आवश्यकता नहीं होती और अपना चैतन्य भगवान्में चुपचाप पड़ा रहता है । पर यह बात प्रयत्नसे उतनी साध्य नहीं है जितनी कि अति सरल अविराम अभीप्सा और आत्मसमर्पणेच्छासे साध्य है, अथवा चेतनाकी राई ऐसी गतिसे भी साध्य है जिससे अंतस्सत्ता करण-सत्तासे पृथक ज्ञात होता है । अभीप्सा और समर्पणके भावसे, उपस्थित
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कार्यको करनेके लिये, दिव्य महती शक्तिका आवाहन करना भी एक प्रक्यिा है जिससे कार्य अद्भुत रीतिसे सुसंपन्न होता है, यद्यपि इस प्रक्रियाको साधनेमें कुछ लोगोंको बहुत समय लगता है । अपनी मन-बुद्धिके प्रयाससे कुछ करनेके बदले अंतःस्थित या ऊर्ध्वस्थित शक्तिसे कार्य करानेके कौशलको जानना साधनाका एक बहुत बडा रहस्य है । मेरे कहनेका यह अभिप्राय नहीं कि मन-बुद्धिका प्रयास अनावश्यक है अथवा उसके द्वारा कुछ नहीं होता - बात इतना ही है कि यदि मन-बुद्धि हर कामको अपने ही भरोसे करे तो आध्यात्मिक महावीरोके सिवा और सबके लिये यह प्रयास कष्टप्रद ही होता है । न मेरे कहनेका यह अभिप्राय है कि यह दूसरी प्रक्रिया वह संक्षिप्त मार्ग है जिसकी हम कामना करते हैं । इस रास्तेको तै करनेमें भी, जैसा कि मैनई ऊपर कहा, बहुत समय लग सकता है । धीरता और संकल्पकी दृढ़ता साधनाकी प्रत्येक प्रक्रियामें ही आवश्यक हैं ।
सामर्थ्य होनी चाहिये, यह बात सामर्थ्यवानोंके लिये तो ठीक ही है - पर अभीप्सा और उस अभीप्साको प्राप्त होनेवाली भागवती दया सर्वथा अलीक कल्पनाएं नहीं हैं; आध्यात्मिक जीवनके ये महान् और प्रत्यक्ष अनुभव हैं ।
रूपान्तरके कार्यमें बाह्य चेतनाको भी शामिल करना इस योगमें अत्यन्त आवश्यक है -- इसे ध्यानके द्वारा नहीं किया जा सकता । ध्यान केवल आंतरिक सत्तापर ही क्रिया कर सकता है । अतएव कर्म सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है - बस, इसे करना चाहिये समुचित मनोभावके साथ और सत्य चेतनामें रहकर, फिर यह भी उतना ही फलदायी होता है जितना कि किसी प्रकारका ध्यान हो सकता है ।
कर्मको जारी रखनेसे भीतरी अनुभव और बाहरी विकासमें समतोलता बनाये रखनेमें सहायता मिलती है; अन्यथा एकपक्षीयता और परिमाण तथा संतुलनका अभाव विकसित हो सकता है । इसके अतिरिक्त, भगवान्के लिये कर्म करनेकी साधना- को जारी रखना आवश्यक है, क्योंकि अन्तमें यह साधकको आंतरिक प्रगतिको बाहरी प्रकृति और चीवनमें ले आनेकी शक्ति प्रदान करता है तथा साधनाको सर्वांगपूर्ण बनाये रखनेमें सहायता करता है ।
साधनाकी कोई भी अवस्था ऐसी नहीं है जिसमें कर्म करना असम्भव हो, पथमें कोई स्थल ऐसा नहीं है जिसमें कर्म करनेका आधार न हो और कर्म करना भगवद्-
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ध्यानसे विसंगत जानकार त्याग देना पड़े ! आधार तो सदा है ही ; यह आधार है भगवान्का अवलंब और समस्त सत्ताका, संकल्पका और समस्त शक्तियोंका भगवान्- की ओर उद्घाटित होना, भगवान्को समर्पित हो जाना । इस भावसे किया हुआ प्रत्येक कर्म योगसाधनाका साधन बनाया जा सकता है । व्यक्तिविशेषके लिये कहीं- कहीं कुछ समय ध्यान-निमग्न होना और उतने समयके लिये कार्यको स्थगित रखना या उसे गौण बना देना आवश्यक हो सकता है; पर यह किसी-किसी ब्यक्तिकी ही बात है और वह निवृत्ति भी कुछ समयके लिये ही होती है । कर्मका सर्वथा परित्याग और पूर्णतया अपने-आपमें ध्याननिमग्न होना क्वचित् प्रसंगमें ही समुचित हो सकता है; क्योंकि इससे अतिशय एकदेशीय ऑर केवल मनोमयी अवस्था ही बनती है जिसमें साधक एक ऐसे मध्य जगत्में रहता है जहां केवल आंतरिक अनुभव होते हैं, पर बाह्य सत्यमें या जो परम सत्य है उसमें उसकी दृढ भूमि नहीं होती और आंतरिक अनुभवका वह ठीक उपयोग नहीं होता जिससे परम सत्य तथा बाह्य जीवनकी उपलब्धिके बीच सुदृढ़ सम्बन्ध और फिर दोनोंकी एकता स्थापित हो ।
कर्म दो प्रकारका हो सकता है - एक वह कर्म जो साधनाके लिये प्रयोगका क्षेत्र है जिसमें समस्त सत्ता और उसके कर्म क्रमसे अधिकाधिक सामंजस्यको प्राप्त हों और दिव्य बनें, और दूसरा वह कर्म जो भगवान्की सिद्ध अभिव्यक्ति है । पर इस पिछले कर्मका समय तो तभी आ सकता है जब भगवत्साक्षात्कार पूर्णतया पार्थिव चैतन्यमें आ जाय; तबतक जो भी कर्म होगा वह प्रयत्न और प्रयोगका ही क्षेत्र होगा ।
कर्म अपने-आपमें केवल एक प्रकारकी तैयारी है और उसी तरह ध्यान भी अपने- आपमें एक तैयारी है; परन्तु जब कर्म सतत-वृद्धिशील यौगिक चेतनाके साथ किया जाता है तो वह ध्यानकी तरह ही सिद्धिका साधन बन जाता है... । मैं समझता हूँ कि मैंने यह नहीं कहा है कि कर्म केवल 'तैयार करता है । ' ध्यान भी प्रत्यक्ष संस्पर्श प्राप्त करनेके लिये तैयार करता है । यदि हम केवल तैयारीके रूपमें तो कार्य करें और फिर निश्चल ध्यानमग्न संन्यासी बन जायं तब मेरी समूची आध्यात्मिक शिक्षा ही मिथ्या हो जाती है और अतिमानसकी सिद्धिका अथवा ऐसी किसी चीजका जो भूतकालमें नहीं की गयी है, कोई उपयोग नहीं रह जाता.. -... ।
इस भावके मूलमें जो अज्ञान विद्यमान है वह है यह मान बैठना कि मनुष्यको या तो केवल कर्म ही करना चाहिये या केवल ध्यान ही । उस दृष्टिमें या तो कर्म ही साधन है या ध्यान .ही साधन है; दोनों साधन नहीं हो सकते । जहांतक मुझे याद है, मैनई कभी नही कहा है कि ध्यान नहीं करना चाहिये । कर्म और ध्यानके बीच इस प्रकार एक खुली या निर्णीत प्रतियोगिता खड़ी करना विभेदकारी मनकी एक चालाकी है और इसका सम्बन्ध प्राचीन योगोंसे है । कृपया याद रखिये कि मैं सदासे एक पूर्ण- योगकी घोषणा करता आ रहा हूँ जिसमें ज्ञान, भक्ति और कर्म- चेतनाकी ज्योति,
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आनन्द और प्रेम, कार्यके संकल्प और सामर्थ्य--भगवान्के ध्यान, अर्चन और क्यँ का अपना स्थान है । ध्यान कर्म-योगसे अधिक महान् नहीं हे और न कर्म ज्ञानयोगसे अधिक महान् है - दोनों ही एक जैसे हैं ।
दूसरी बात - अपनी निजी अत्यन्त सीमित अनुभूतिके आधारपर, दूसरों- की अनुभूतिकी अवहेलना करते हुए, तर्क करना और उसपर योगके विषयमें एक विशाल सिद्धांत बना लेना एक भूल है । यही अधिकांश लोग करते हैं, परन्तु यह पद्धति स्पष्ट ही दोषपूर्ण है । तुम्हें कर्मके द्वारा कोई भी प्रमुख अनुभव नहीं हुआ है और तुमने यह सिद्धांत बना लिया है कि ऐसी अनुभूतियोंका होना असम्भव है । परन्तु जिन बहुतसे लोगोंको - दूसरी जगह और यहां आश्रममें भी - ये अनुभूतियां हुई है उनके विषयमें क्या कहा जाय?
जौ हो, यह सिद्धांत मत बनाओ कि मैं सिद्धिके एकमात्र साधनके रूपमें कर्मको सबसे ऊंचा स्थान दे रहा हूँ । मैं केवल उसे अपना समुचित स्थान दे रहा हूँ ।
तुम यह भूल जाते हो कि मनुष्य अपने स्वभावमें विभिन्न होते हैं और इसलिये प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी तरीकेसे साधनामें आयेगा -- एक कर्मके द्वारा, एक भक्ति- के द्वारा, एक ध्यान और ज्ञानके द्वारा - और जो लोग ऐसा करनेमें समर्थ हैं वे एक साथ इन सबके द्वारा । अपने निजी पथका अनुसरण करना तुम्हारे लिये एकदम उचित है, चाहे दूसरोंका सिद्धांत जो कुछ भी क्यों न हो - पर दूसरोंको भी अपने प्रुथका अनुसरण करने दो । अन्तमें सब लोग एक साथ एक ही लक्ष्यपर मिल सकते हैं ।
जो कुछ तुमने पहले अनुभव किया था वह तुम्हारी मानसिक सत्ता और चेतनामें था, यहां आनेके बाद तुम स्पष्ट ही अपनी बाहरी और स्थूल चेतनामें निकल आये हो, यही कारण है कि तुम अनुभव करते हो मानो जो कुछ तुमने पाया था वह चला गया । वह केवल भौतिक चेतनाके अन्धकारसे छिप गया है और गया नही, है ।
साधनाका जहांतक प्रश्न है, मैं समझता हूँ, उससे तुम्हारा मतलब किसी प्रकार- की एकाग्रताका अभ्यास आदि है । क्योंकि कर्म भी साधना हे, यदि समुचित मनोवृत्ति और भावनाके साथ किया जाय । आंतरिक एकाग्रताकी साधनाके रूप हैं:
1. चेतनाको हृदयमें स्थिर कर देना और वहां भगवती मातासम्बन्धी विचार, उनकी मूर्त्ति या नामपर, तुम्हारे लिये जो सबसे आसान हो, एकाग्रताका अभ्यास करना ।
2. हृदयकी इस एकाग्रताके द्वारा क्रमश: और धीरे-धीरे मनको अचंचल बनाना ।
3. हृदयमें श्रीमाताजीकी उपस्थिति तथा मन, प्राण और कर्मपर उनके
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परन्तु मनको शांत-स्थिर बनाने और आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करनेके लिये यह आवश्यक है कि पहले प्रकृतिको शुद्ध और प्रस्तुत किया जाय । इसमें कभी-कभी बहुत वर्ष लग जाते हैं । इसके लिये सबसे आसान तरीका है समुचित मनोवृत्तिके साथ काम करना -- अर्थात् कामना या अहंकारके बिना काम करना, जब कामना, मांग या अहंकार आये तब उसकी समस्त क्रियाओंका त्याग करना, भगवती माताकी पूजाके रूपमें काम करना, काम करते हुए उनका स्मरण करना तथा उनसे यह प्रार्थना करना कि वह अपनी शक्तिको प्रकट करें और कार्यको अपने हाथोंमें ले लें जिसमें कि उसमें भी और केवल आंतरिक नीरवतामें ही नहीं, तुम उनकी उपस्थिति और क्रियाको अनुभव कर सको ।
प्रार्थना और ध्यानका योगमें बहुत अधिक मूल्य है । परन्तु प्रार्थनाको भावा- वेग या अभीप्साके शिखरपर हृदयकी गहराईसे फूट निकलना चाहिये । जप या ध्यान एक जीवन्त वेग लेकर आता है जो अपने अन्दर हर्ष और उस वस्तुकी ज्योतिको वहन करता है । यदि वे यांत्रिक रूपसे या किसी ऐसी चीजके रूपमें किये जाते हैं जिसका करना अनिवार्य हो ( अटल कठोर कर्तव्यके रूपमें! ) तो फिर उनमें मनुष्यकी रुचि कम होने लगती है और वे नीरस बनते जाते हैं तथा इस कारण फलहीन बन जाते हैं... । तुम एक परिणाम उत्पन्न करनेके लिये उसके एक साधनके रूपमें बहुत अधिक जप कर रहे थे, कहनेका मतलब, अत्यधिक एक उपाय, एक पद्धतिके रूपमें कर रहे थे जिससे वह कार्य पूरा हो जाय । यही कारण था कि मैं यह चाहता था कि तुम्हारे अन्दर मानसिक अवस्थाएं विकसित हो जायं, चैत्य पुरुषका, मनका विकास हो जाय, क्योंकि जब चैत्य पुरुष सामने होता है तब प्रार्थनाके अन्दर, अभीप्सा और खोजके अन्दर जीवनी-शक्ति तथा हर्षका अभाव नहीं होता भक्तिकी अविच्छिन्न धारामें कोई रुकावट नहीं उत्पन्न होती एवं जब मन शान्त और अन्तर्मुखी और ऊर्ध्वमुखी होता है तो ध्यान करनेमें कोई कठिनाई तथा रुचिका अभाव नहीं होता । इसके अलावा, ध्यान वह पद्धति है जो ज्ञानके द्वारा और ज्ञानकी ओर ले जाती है, यह ( ध्यान ) मस्तककी वस्तु है न कि हृदयकी और इसलिये यदि तुम ध्यान करना चाहो तो तुम ज्ञानसे घृणा नहीं कर सकते । हृदयमें एकाग्र होना ध्यान नहीं है, यह भगवान्के लिये, प्रेमास्पद- के लिये एक पुकार है । यह योग भी केवल ज्ञानका योग नहीं है, ज्ञान इसका केवल एक साधन है, पर इसका आधार है आत्मदान, समर्पण, भक्ति, इसकी मूल-भित्ति हृदयमें है और इस मूलभित्तिके बिना कोई चीज स्थायी रूपसे नहीं की जा सकती । यहां ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो जप करते है या करते रहे हैं और जिन्होंने अपनी साधनाका आधार भक्तिको बनाया है; ऐसे लोग अपेक्षाकृत कम ही हैं जिन्होंने ' 'मस्तक' ' का ध्यान किया है; सामान्यतया प्रेम, भक्ति और कर्म ही आधार '; कितने लोग
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भला ज्ञानके बलपर आगे बढ़ सकते हैं! बहुत ही थोड़े!
तुमने चैत्य कियाके द्वारा तथा अहंकारको ढूँढने और त्याग करनेके प्रयासके द्वारा जो प्रगति की थी उसकी चर्चा मैंने एकदम गंभीरताके साथ की थी । मैंने तुम्हें पहले भी लिखा था और उस पद्धतिका अनुमोदन प्रबल रूपमें किया था । हमारे योग- में वह पथ भक्ति और समर्पणका है - क्योंकि चैत्य क्रिया ही सतत और विशुद्ध भक्तिभावको ले आती और अहंकारको दूर करती है जिससे समर्पण करना सम्भव होता है । ये दोनों चीजे वास्तवमें एक साथ चलती हैं ।
दूसरा पथ, जो कि ज्ञानका पथ है, मस्तकमें ध्यान करना है जिससे वहां ऊपरकी ओर उद्घाटन होता है, मन अचंचल या निश्चल-नीरव होता है तथा उच्चतर चेतना- की शांति आदिका सामान्यतया तबतक अवतरण होता है जबतक कि वह सत्ताको आवेष्टित नहीं कर लेती और शरीरमें नहीं भर जाती तथा सभी क्रियाओंको अपने हाथमें लेना आरम्भ नहीं कर देती । परन्तु इसके लिये निश्चल-नीरवता और एक प्रकारकी साधारण क्रियाओंकी शून्यतामेंसे गुजरना होता है - वे बाहर फेंक दी जाती हैं और विशुद्धतः उपरितलीय कर्मके रूपमें की जाती हैं - और तुम निश्चल- नीरवता और शून्यताको बहुत अधिक नापसन्द करते हो ।
तीसरा पथ वह है जो कर्मयोगके दो पथोंमेंसे एक है और वह है प्रकृतिंसे पुरुष- को, बाहरी सक्रिय सत्तासे आंतरिक नीरव सत्ताको पृथक् कर लेना, जिससे साधकको दो चेतनाएं अथवा एक द्विविध चेतना प्राप्त हो जाती है, एक तो पीछेसे ध्यानपूर्वक निरीक्षण और अवलोकन करती है तथा अन्तमें दूसरीको, जो सम्मुख भागमें सक्रिय होती है, नियंत्रित और परिवर्त्तित करती है । परन्तु इसका भी अर्थ होता है एक प्रकार- की आंतरिक शांति और नीरवतामें निवास करना और क्रियाओंके साथ ऐसा बर्ताव करना मानों वे ऊपरी तलकी कोई चीज हों । कर्मयोगको आरम्भ करनेका दूसरा पथ: है भगवानके लिये, भगवती माताके लिये कर्मोंको करना और अपने लिये न करना, उन्हें तबतक अर्पित और निवेदित करते रहना जबतक कि साधक ठोस रूपमें यह न अनुभव करने लगे कि भागवती शक्तिने क्रियाओंको अपने हाथमें ले लिया है और उसके लिये उन्हें कर रही है ।
यदि मेरे योगका कोई रहस्य या चाभी है जिसे कि तुम कहते हो कि तुमने नहीं पाया है, वह उन्हीं पद्धतियोमें निहित है -- और, वास्तवमें, स्वयं इनमें कोई भी चीज इतनी रहस्यपूर्ण, असम्भव अथवा यहांतक कि नवीन नहीं है । सच पूछा जाय तो केवल पीछेकी अवस्थामें होनेवाला आगेका विकास तथा इस योगका लक्ष्य ही नवीन हैं । परन्तु आरम्भिक अवस्थाओंमें किसीको उसके साथ सरोकार रखनेकी कोई आवश्यकता नहीं, यदि कोई मानसिक ज्ञानके एक विषयके रूपमें वैसा करना चाहे तो बात दूसरी है ।
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ध्यान भगवान्को पानेका एक साधन है और एक महान् पथ है, पर इसे एक छोटा रास्ता नहीं कहा जा सकता - क्योंकि अधिकांश लोगोंके लिये यह एक लम्बी और अत्यन्त कठिन, यद्यपि एक बहुत ऊंची चढ़ाई है । यह पथ किसी भी तरह छोटा नहीं हो सकता जबतक कि यह कोई अवतरण न कराये, और उस हालतमें भी केवल एक आधारही शीघ्रतासे स्थापित होता है; उसके बाद ध्यानको उस आधारपर बड़े परिश्रम- के साथ एक बड़ी रचना खड़ी करनी होती है । ध्यान बड़ा आवश्यक है पर उससे सम्बन्धित कोई छोटी बात नहीं है ।
कर्म बहुत अधिक सरल पथहै बशर्त्ते कि मनुष्यका मन भगवान्से प्थक् होकर कर्मपर ही निबद्ध न हो । लक्ष्य भगवान् ही होने चाहियें और कर्म केवल एक साधन हो सकता है । कविता आदिका उपयोग अपनी आतर सत्ताके साथ सम्पर्क बनाये रखनेके लिये किया जाता है और वह सब अन्तरतमके साथ सीधा संपर्क करनेकी तैयारी करनेमें ल्हायक होता है, पर मनुष्यको बस वहीं ठहर नहीं जाना चाहिये, उसे यथार्थ वस्तुतक अवश्य चले जाना चाहिये । यदि कोई एक साहित्यिक व्यक्ति या कवि या चित्रकार होनेकी बात सोचे और वैसा होना ही बस पर्याप्त हो तो यह कोई यौगिक मनोभाव नहीं है । इसी कारण कभी-कभी मैंने यह कहा है कि हमारा उद्देश्य योगी होना,महज कवि, चित्रकार वगैरह होना नहीं है ।
प्रेम, भक्ति, समर्पण, चैत्य उद्घाटन ही भगवान्की ओर जानेके छोटे रास्ते हैं - अथवा हो सकते हैं; क्योंकि यदि प्रेम और भक्ति अति - प्राणिक हों तो यह सम्भावना है कि आनन्दानुभूति और विरह, अभिमान, निराशा आदिके बीच झूलना पड़े, जिससे रास्ता छोटा नहीं बल्कि लम्बा, टेढा-मेढा हो जाता है - सीधी उड़ान नहीं होती' - भगवान्की ओर दौड़नेके बदले मनुष्य अपने ही अहंकारके चारों ओर चक्कर काटता है ।
मैंने सर्वदा ही यह कहा है कि साधनाके रूपमें किया गया कर्म - किया गया, तात्पर्य, भगवान्से प्रवाहित एक शक्तिके रूपमें किया गया और भगवान्को समर्पित कर्म अथवा भगवानके लिये किया गया कर्म या भक्तिभावनासे किया गया कर्म साधना- का एक प्रबल साधन है और ऐसा कर्म विशेष रूपसे इस योगके लिये आवश्यक है । कर्म, भक्ति और ध्यान योगके तीन सहायक हैं । कोई चाहे तो तीनोंके या दोके याकर्मके द्वारा साधना कर सकता है । कुछ लोग ऐसे होते हैं जो निर्धारित पद्धतिसे, जिसे लोग ष्यान कहते हैं, ध्यान नहीं कर सकते, पर वे कर्मके द्वारा या भक्तिके द्वारा या एक साथ दोनोंकी द्वारा प्रगति करते है । कर्म और भक्तिके द्वारा मनुष्य एक ऐसी चेतना विकसित कर सकता है जिसमें अन्तमें स्वाभाविक रूपसे ध्यान करना और अनुभव प्राप्त करना सम्भव हो जाता है ।
'ल का जो ' विचार कि साहित्यका अनुशीलन करनेकी किसी रहस्यपूर्ण
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जन्मजात शक्तिके द्वारा मनुष्य अपनेको गुणवान् और आत्मसंयत और पवित्र वना सकता है, इससे यह सब एकदम भिन्न है । यदि उसने मुझसे कर्म और साधनाके विषय- में प्रश्न पूछा होता तो मैंने उसे दूसरे ढंगसे उत्तर दिया होता । इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य और कला आंतर सत्ता - आंतर मन, आंतर प्राण -- के साथ प्रथम परिचय कराते हैं या करा सकते हैं; क्योंकि वहींसे वे आते हैं । और कोई यदि भक्ति- की कविताएं, भगवान्की खोज आदिक विषयकी कविताएं लिखता है या उसी प्रकार- के संगीतका निर्माण करता है तो इसका अर्थ है कि उसके भीतर कोई भक्त या जिज्ञासु_ है जो उस आत्माभिव्यक्तिके द्वारा अपना पोषण करता हूँ । परन्तु इस प्रकारके किसी दृष्टिकोणसे ' अ' ने प्रश्न नहीं रखा था और इस प्रकारके किसी दृष्टिकोणसे मैंने अपना उत्तर नहीं दिया था । उसने किसी विशिष्ट चरित्रनिर्मायक गुणके विषयमें लिखा था जिसे, ऐसा लगता था कि, उसने साहित्यपर आरोपित किया था ।
यह पूछनेसे एकदम कोई लाभ नहीं कि कौन या किस श्रेणीके लोग लक्ष्यपर पहले या अन्तमें पहुँचेंगे । आध्यात्मिक पथ कोई प्रतियोगिताका या दौडका क्षेत्र नहीं है कि इस बातका कोई मूल्य हो । यहां मूल्यवान् वस्तु है भगवान्के लिये व्यक्ति- की अपनी अभीप्सा, अपनी निजी श्रद्धा, समर्पण-भाव, निःस्वार्थ आत्मदान । दूसरों- को भगवान्के ऊपर छोड़ देना चाहिये जो प्रत्येकको उसकी प्रकृतिके अनुसार ले जायेंगे । ध्यान, कर्म, भक्तिमेंसे प्रत्येक सिद्धिकी ओर जानेके लिये प्राथमिक उपायके साधन हैं; ये सभी इस मार्गमें सम्मिलित किये गये है । यदि कोई कर्मके द्वारा अपनेको अर्पित कर सके तो यह आत्मदानका एक अत्यन्त शक्तिशाली साधन है - उस आत्मदान- का जो स्वयं भी साधनाका एक अत्यन्त सामर्थ्यशाली और अनिवार्य तत्व है ।
पथसे चिपके रहनेका मतलब है उसे बिना छोड़ या उससे बिना मुँह मोडे उसका अनुसरण करते रहना । यह समस्त सत्ताके, उसके समस्त भागोंमें, आत्मदान करने- का पथ है, चिन्तनशील मन और हृदयके, संकल्प और कर्मके, आंतर और बाह्य करणों- के निवेदनका पथ है, जिसमें कि भगवान्की उपलब्धि कर सके, अपने भीतर उनकी उपस्थितिका, चैत्य और आध्यात्मिक परिवर्तनका अनुभव कर सके । सभी प्रकारसे मनुष्य जितना अधिक अपनेको देता है, उतना ही अधिक अच्छा वह साधनाके लिये होता है । परन्तु सब लोग एक ही मात्रामें, एक ही तीव्रताके साथ, एक ही ढंगसे इसे नहीं कर सकते । दूसरे किस प्रकार इसे करते हैं या इसे करनेमें असफल होते हैं इसकी चिन्ता हमें नहीं करनी चाहिये -- बस, एक यही बात महत्वपूर्ण है कि हम स्वय इसे निष्ठाके साथ कैसे करते हैं ।
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यह कहना कि केवल कर्मके द्वारा मनुष्य साधनाकी धारामें प्रवेश करता है बहुत अधिक कहना है । मनुष्य ध्यान या भक्तिके द्वारा भी प्रवेश कर सकता है, परन्तु कर्म पूर्ण धारामें पैठ जानेके लिये और एक ओर बह न जानेके लिये और वही चक्कर न काटते रहनेके लिये आवश्यक है । निस्सन्देह सभी कर्म सहायक होते हैं बशर्त्ते कि उन्हें समुचित भावसे किया जाय ।
यहां कई ऐसे साधक है जो एकमात्र कर्मके द्वारा, श्रीमाताजीको समर्पित कर्म- के द्वारा अथवा ध्यानके लिये बहुत थोड़ा समय देते हुए मुख्यतः कर्मके द्वारा बहुत दूर- तक आगे बढ़ गये हैं । दूसरे प्रधानतया ध्यानके द्वारा पर कर्म भी करते हुए दूरतक आगे बढ़ गये हैं । जिन लोगोने केवल ध्यान करनेकी कोशिश की और कर्मसे घबड़ा पये ( क्योंकि वे उसे श्रीमाताजीको निवेदित नहीं कर सके ) वे सब 'अ' और 'ब' की तरह असफल ही हुए हैं । परन्तु एक या दो व्यक्ति एकमात्र ध्यानके द्वारा भी सफल हो सकते हैं, यदि यह उनके स्वभावमें हो या यदि उनमें तीव्र और अटल श्रद्धा और भक्ति हो । सब कुछ साधककी प्रकृतिपर निर्भर करता है ।
जहांतक 'पुराने मनुष्य' की बात है, मैं नहीं समझता कि कर्मी व्यक्तियोंकी बाहरी सत्ता दूसरोंकी अपेक्षा कम परिवर्त्तित हुई है । कुछ लोग तो ऐसे हैं जो जहां थे वही हैं या केवल थोड़ासा आगे बढ़े हैं, दूसरे ऐसे हैं जो बहुत अधिक परिवर्त्तित हार है -- कर्म्हे भी पूर्णतः रूपांतरित नही हुआ है, यद्यपि कुछ लोगोंके एक अचूक और पक्का आध्यात्मिक और चैत्य आधार प्राप्त कर लिया है । परन्तु यह बात एक समान उन कर्मियोंपर लागू होती है जो ध्यानमें समय नहीं बिताते और उन लोगोंपर भी जो एक लम्बा समय ध्यानमें बिताते हैं ।
प्रत्येक साधकको स्वयं उसपर और श्रीमाताजीपर छोड़ देना चाहिये जिसमें वह अपना यथार्थ पथ खोज ले और यह आवश्यक नहीं कि उसका वह पथ ठीक उसके पडोसीका ही पथ हो ।
साधनाकी उस धाराका जहांतक प्रश्न है जिसपर सबसे अधिक जोर दिया जाता है, वह निर्भर करती है प्रकृतिपर । कुछ लोग ऐसे होते हैं जो ध्यानके लिये नहीं बनाये गये हैं और केवल कर्मके द्वारा ही वे अपनेको तैयार कर सकते हैं; फिर ऐसे लोग भी हैं जो इसके विपरीत हैं । अहंकारके प्रचंड विकासकी जो बात है, वह चाहे किसी पथ- का अनुसरण करनेपर हो सकता है । मैंने इसे ध्यानी और कर्मी दोनोंमें विकसित होते हुए देखा है; ' अ' कहता है कि यह भक्तमें भी वैसे ही बढ़ता है । अतएव यह स्पष्ट है कि सभी भूमियौ इस नरगिस फुलके लिये अनुकूल हैं । ' 'साधनाकी कोई आवश्यकता' '
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के विषयमें, स्पष्ट ही जो कोई साधना नहीं करता वह परिवर्त्तित नहीं हो सकता प्रगति नहीं कर सकता । कर्म, ध्यान, भक्ति ये सभी चीजे साधनाके रूपमें ही करनी चाहियें ।
भला अपने व्यक्तिगत अनुभवके आधारपर, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, तर्क क्यों करते हो और उसे किसी सर्व-सामान्य सिद्धान्तमें क्यों बदल देते हो? बहुत अधिक लोग (शायद अधिकांश लोग ) इसे (कर्मद्वारा साधनाको ) सबसे अधिक आसान अनुभव करते हैं । बहुतसे लोग कर्म करते समय श्रीमांका चिन्तन करना आसान समझते हैं; परन्तु जब वे पढ़ते या लिखते हैं, उनका मन पढी या लिखी चीज- मेंडूब जाता है और वे बाकीसब कुछ भूल जाते हैं । मैं समझता हूँ कि अधिकांश लोंगा- के साथ यही घटित होता है । दूसरी ओर, भौतिक कार्य मनके अत्यंत बाहरी भागके द्वारा किया जा सकता और बाकी भागको स्मरण करने या अनुभव लेनेके लिये स्वतंत्र छोड़ा जा सकता है ।
तुम ध्यान किस चीजको कहते हो? आंखें बन्द करके एकाग्रताका अभ्यासकरने- को? परन्तु वह तो सच्ची चेतनाको नीचे उतार लानेकी केवल एक पद्धति है । सत्य चेतनाके साथ युक्त होना या उसके अवतरणको अनुभव करना ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण बात है । यदि परम्परागत पद्धतिके बिना वह (सत्यचेतना ) आ जाय, जैसा कि मेरे अन्दर वह सर्वदा ही आयी, तो यह और भी अच्छा है । ध्यान महज एक साधन या उपाय है, सच्ची क्रिया तो यह है कि मनुष्य जब चलता-फिरता, काम करता या बात- चित करता हो तो भी साधनाके भावमें बना रहे ।
सच पूछो तो ध्यान (मनके द्वारा चिन्तन ) नहीं, बल्कि एकाग्रता अथवा चेतना- को मोड देना महत्वपूर्ण है,-और बह कर्म में, लिखते समय, किसी प्रकारके कर्म में और चिन्तन-मननके लिये बैठे रहनेपर भी हो सकता है ।
ध्यान वही सबसे उत्तम होता है जब वह अपने-आप आता है । परन्तु कर्मको यदि ध्यानका स्थान लेना हो तो उसमें पूर्ण रूपसे एकाग्र हो जाना चाहिये ।
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कर्म और सृजनात्मक क्रियामें जो समय तुम लगाते 'हो उसके विषयमें तुम्हें परेशान होनेकी कोई आवश्यकता नहीं । जिन लोगोंमें एक विशाल सृजनक्षम प्राण होता है या कर्म करनेके लिये निर्मित प्राण होता हे वे साधारणतया सबसे अच्छी स्थिति- में तभी होते हैं जब कि उनके प्राणको उसकी गतिविधिसे अलग नहीं किया जाता और वे अंतर्मुखी ध्यानकी अपेक्षा उससे अधिक तेजीके साथ विकसित हो सकते हैं । आवश्यकता बस इस बातकी है कि कर्म समर्पित होना चाहिये जिसमें कि उससे वे अधि- काधिक वर्द्धित हो सकें और जब उन्हें भागवत शक्ति चलावें वे उसे अनुभव करने और उसका अनुसरण करनेके लिये तैयार हो सकें । यह समझना है कि सब समय अंतर्मुखी ध्यानमें बने रहना ही निश्चित रूपसे सर्वोत्तम अथवा योगका एकमात्र पथ है !
यदि कुछ लोगोंसे ध्यान करनेको नहीं कहा जाता तो फिर यह सबके लिये आवश्यक कैसे है? अधिक ध्यान उन लागोंज्ञ लिये है जो अधिक ध्यान कर सकते हैं । इसका यह अर्थ नहीं कि चूँकि अधिक ध्यान करना अच्छा है इसलिये किसीको और कोई चीज नहीं करनी चाहिये ।
मैंने यह राय नहीं दी हे कि तुम्हें केवल ध्यानके द्वारा ही उन्नति करनी है; परन्तु तुममें उसे करनेकी एक महान् क्षमता है और तुम उसके बिना पूरी-पूरी उन्नति नहीं कर सकते । इस योगमें किसी-न-किसी प्रकारका कोई काम सबके लिये आवश्यक है - यद्यपि किसी निश्चित प्रकारके श्रीमांका रूप लेना इसके लिये जरूरी नहीं है । परन्तु वर्तमान समयके लिये एकाग्रता और आंतरिक अनुभवके द्वारा प्रगति करना तुम्हारे लिये सबसे पहली आवश्यकता है ।
यही वह चीज है जिसे हम मनकी क्रियाशीलता कहते हैं जो बराबर ही एकाग्रता- के मार्गमें बाधक होती है और सन्देह उत्पन्न करने तथा शक्तियोंको तितर-बितर कर देनेकी कोशिश करती है ।
दो प्रकारसे इससे छुटकारा पाया जा सकता है, एक तो इसका त्याग करके और इसे बाहर फेंककर जब कि अन्तमें यह केवल एक बाहरी शक्ति ही रह जाती हे - दूसरे, भौतिक मनमें उच्चतर शांति और ज्योतिको नीचे उतारकर ।
उसे अपने कर्मको उत्सर्ग करना सीखना तथा उसके द्वारा श्रीमाताजी-
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की शक्तिको कार्य करते हुए अनुभव करना होगा । जो आंतरिक उपलब्धि विशुद्ध रूपसे निष्क्रिय होती है वह अर्ध-उपलब्धि होती है ।
परन्तु मैं एक विषयपर जोर दे दूँ कि भगवान्को प्राप्त करनेका केवल एक ही पथ हो यह आवश्यक नहीं । यदि कोई ध्यानकी सर्वसम्मत पद्धतिसे या जप जैसी पद्धति- योंसे भगवान्को प्राप्त करने, उन्हें अनुभव करने या उन्हें देखनेमें सफल नही होता अथवा अभीतक सफल नहीं हुआ है तो भी यह सम्भव है कि वह हृदयमें बार-बार भक्ति- को पुकारकर अथवा चेतनामें उसे निरन्तर अधिकाधिक वर्द्धित करके या भगवान्- के लिये कर्म करके और उनकी सेवामें अपनेको उत्सर्ग करके उस ओर प्रगति कर चुका हो । तुमने निश्चय ही इन दिशाओंमें प्रर्गाते की है, तुम्हारे अन्दर भक्ति बढ़ी है और तुमने सेवा करनेकी अपनी क्षमता भी प्रदर्शित की है । तुमने अपनी प्राण-प्रकृतिकी बाधाओंसे मुक्ति पानेकी भी चेष्टा की है और इस तरह कई कठिन दिशाओंमें सफलता- पूर्वक शुद्धि ले आनेका प्रयास किया है । आत्मसमर्पणका पथ निस्सन्देह कठिन है, पर यदि कोई सच्चाईके साथ उसपर डटा रहे तो कुछ सफलताका आना और अहं- पर आशिक विजय पाना या उसे घटा देना अवश्यंभावी है और उससे पथपर आगे बढ़नेमें बहुत अधिक सहायता मिल सकती है । मनुष्यको, जैसा कि गीता जोर देकर कहती है, निरुत्साहसे मुक्त चेतनाके साथ - 'अनिर्विण्णचेतसा' - योगके पथ- पर आगे बढ़ते जाना सीखना चाहिये । यदि कोई फिसल भी जाय तो उसे अपनी स्थिति- को सुधार लेना चाहिये; यदि कोई गिर भी जाय तो उसे उठ जाना चाहिये और निरुत्साहित न हो भागवत पथपर चल पड़ना चाहिये । मनोभाव यह होना चाहिये: ' '
यदि मैं भगवान्से चिपका रहूँ तो वह मुझसे वचनबद्ध हैं; चाहे जो भी घटित हो मैं उसे कभी बन्द नहीं करूँगा । ''
साधनाका अर्थ है योगाभ्यास करना । तपस्याका अर्थ है साधनाका फल पाने तथा निम्न प्रकृतिको जीतनेके लिये संकल्पशक्तिको एकाग्र करना । आराधनाका तात्पर्य है भगवान्की पूजा करना, उन्हें प्रेम करना, आत्मसमर्पण करना, उनको पाने- की अभीप्सा करना, उनका नाम-जप करना, उनसे प्रार्थना करना । ध्यान है चेतनाका भीतरमें केंद्रीभूत हो जाना, मनन-चिंतन करना, अन्दर समाधिमें चला जाना । ध्यान, तपस्या और आराधना ये सभी साधनाके अंग हैं ।
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