श्रीअरविन्द के पत्र

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Sri Aurobindo

Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) Letters On Yoga - Parts 2,3 Vol. 23 1776 pages 1970 Edition
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 PDF     Integral Yoga
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Letters on subjects including 'The Object of Integral Yoga', 'Synthetic Method and Integral Yoga', 'Basic Requisites of the Path', 'The Foundation of Sadhana', 'Sadhana through Work, Meditation, Love and Devotion', 'Human Relationships in Yoga' and 'Sadhana in the Ashram and Outside'. Part II includes letters on following subjects: 'Experiences and Realisations', 'Visions and Symbols' and 'Experiences of the Inner and the Cosmic Consciousness'. Sri Aurobindo wrote most of these letters in the 1930s to disciples living in his ashram.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo श्रीअरविन्द के पत्र 578 pages 1972 Edition
Hindi Translation
Translator:   Chapsip Tripathi  PDF    LINK

विभाग आठ

 

योगमें मानवीय संबंध


योगमें मानवीय संबंध

 

        ऐसा मालूम होता है कि इस योगके सिद्धांतको तुमने नही समझा है । पुराने योगने पूर्ण त्यागकी, यहांतक कि स्वयं जागतिक जीवनको भी छोड़ देनेकी माय की थीं । पर, उसके बदले, इस योगका लक्ष्य है एक नया और, रूपांतरित जीवन प्राप्त करना । परंतु उतनी ही कठोरताके साथ यह आग्रह करता है_ कि मन, प्राण और शरीर- भैंसे वासना और आसक्तिको पूर्णरूपेण निकाल फेंका जाय । इसका उद्देश्य है जीवन- को आत्माके सत्यमें पुन: प्रतिष्ठित करना ओर उस उद्देश्यकी सिद्धिका ! हम जो कुछ हैं और मन, प्राण तथा शरीरसे जो कुछ करते हैं उस सबके मूलकों मनसे ऊपरकी एक महत्तर चेतनामें उठा ले जाना । इसका अर्थ यह है कि उस नये जीवनमें हमारे सभी संबंध एक आध्यात्मिक घनिष्ठताके ऊपर प्रतिष्ठित होने चाहिये और एक ऐसे सत्यपर प्रतिष्ठित होने चाहिये जो हमारे वर्तमान सबधोको सहारा देनेवाले किसी भी सत्यसे एकदम भिन्न हों । जिन सब चीजोंको लोग स्वाभाविक स्नेह-संबंध कहा करते हैं उन सबको उच्चतर पुकार आनेपर त्याग देनेके लिये हमें तैयार रहना चाहिये । अगर वे कभी रखे भी जायं तो फिर केवल एक परिवर्तनके साथ ही रखे जा सकते हैं जो उन्हें एकदम रूपांतरित कर देगा । पर, वे त्याग दिये जायंगे अथवा रखे जायंगे और परि- वर्त्तित किये जायंगे इसका निर्णय व्यक्तिगत कामनाओंके द्वारा कदापि नहीं करना होगा बल्कि ऊपरके सत्यके द्वारा करना होगा । सब कुछ योगके परम प्रभुके हाथोंमें छोड़ देना होगा ।

 

        जो शक्ति इस योगमें कार्य करती है वह सर्वांगपूर्ण स्वभाववाली है और अंतमें खोटी या बड़ी ऐसी किसी चीजको बर्दाश्त नहीं करती जो सत्य और उसकी प्राप्तिके लिये बाधा साबित हों ।

 

*

 

      व्यक्तिगत संबंध योगका कोई अंग नही है । जब मनुष्य भगवानके साथ एकत्व प्राप्त कर लेता है, केवल तभी दूसरोंके साथ कोई सच्चा आध्यात्मिक संबंध हों सकता

 

*

 

         सभी साम्ग्कोंको एक-दूसरेसे अलग रहना होगा तथा एक-दूसरेके विरुद्ध तलवार खींच रखनी होगी - यह स्वयं एक पूर्वनिर्धारित धारणा है जिसका त्याग करना

 

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ही होगा । यौगिक जीवनका, विधान सामंजस्य है, संघर्ष नहीं । यह पूर्वनिर्धारित धारणा संभवत: उस प्राचीन भावनासे उत्पन्न होती है जिसका लक्ष्य होता है निर्वाण; परंतु यहांपर लक्ष्य निर्वाण नहीं है । यहां लक्ष्य है जीवनमें भगवान्को ससिद्ध करना, अभिव्यक्त करना और उसके लिये एकत्व और सामाजिकताका होना अनिवार्य है ।

 

         योगका आदर्श यह है कि सब कुछ भगवानके अन्दर और उनके इर्दगिर्द केंद्रित होना चाहिये और साधकोंका जीवन उसी सुदृढ़ नींवके ऊपर स्थापित होना चाहिये, उनके व्यक्तिगत संबंधोंको भी केंद्र भगवान् ही होने चाहियें । अधिकंतु सभी संबंध प्राणगत आधारसे उठाकर आध्यात्मिक आधारपर चले जाने चाहियें और प्राणगत आधारको केवल आध्यात्मिक आधारका एक रूप और यंत्र बन जाना चाहिये -- इस बातका अर्थ यह है कि साधकोंके आपसमें कोई भी संबंध क्यों न हों उनमेसे समस्त ईर्ष्या, कलह, घृणा, असंतोष, विद्वेष तथा अन्य अशुभ प्राणगत भावोंको निकाल फेंकना चाहिये, क्योंकि ये सब चीजे आध्यात्मिक जीवनका अंग नहीं बन सकती । इसी तरह समस्त अहंकारपूर्ण प्रेम और आसक्तिको भी दूर होना होगा - उस प्रेमको जो केवल अहंकारकी तृप्तिके लिये ही प्रेम करता है, और, जैसे ही अहंकार आहत और असंतुष्ट हो जाता है वैसे ही प्रेम करना बंद कर देता है, यहांतक कि द्वेष और घृणातकका पोषण करता है । सच पूछो तो प्रेमके पीछे एक सच्चा, सजीव और स्थायी एकत्व अवश्य रहना चाहिये । निःसंदेह यह मानी हुई बात है कि काममूलक अपवित्रता जैसी चीजों भी अवश्य दूर होनी चाहिये ।

 

       यही है आदर्श, पर इसकी सिद्धिके मार्गका जहांतक सबद है, वह विभिन्न लोगोंके लिये अलग-अलग हों सकता है । एक मार्ग वह है जिसमें साधक एकमात्र भगवानका ही अनुसरण करनेके लिये अन्य सभी चीजोंका त्याग कर देता है । इसका मतलब जैसे यह नही है कि वह संसार और जीवनसे विरक्त हो जाय वैसे ही यह भी नहीं है कि वह किसी ब्यक्तिसे विरक्त हो जाय । इसका बस मतलब है अपने केंद्रीय लक्ष्यमें डूब जाना, इस भावनाके साथ कि जब एक बार वह लक्ष्य प्राप्त हो जायगा तब सच्चे आधारके ऊपर सब प्रकारके संबंध स्थापित करना दूसरोंके साथ हृदय और आत्मा और जीवन- मे, आध्यात्मिक सत्य और भगवानसे सचमुचमें युक्त हो जाना आसान हो जायगा । दूसरा मार्ग है जंहापर अभी मनुष्य है वहींसे आगेकी ओर चलना, मुख्यत. भगवान्को खोजते हुए चलना और बाकी सभी चीजोंको उसीके अधीन करना, पर उन्हें अलग नही रख देना, बल्कि उनमें जो कुछ रूपांतरित होनेके योग्य है उसे क्रमश: और अधिकाधिक रूपांतरित करनेकी चेष्टा करना । इस तरह जैसे-जैसे आंतर सत्ता शुद्ध होती जाती है वैसे-वैसे वे सभी चीज़ें जो संबधके अंदर वांछित नही होती-काममूलक अपवित्रता, ईर्ष्या, क्रोध, अहंकारपूर्ण मांग -- दूर होती जाती हैं और उनके स्थानमें आ जाता है अंतरात्माके साथ अंतरात्माका एकत्र और भगवान्की डोरीके द्वारा सामाजिक जीवन- एक साथ बंध जाना ।

 

      यह बात नही है कि साधकमंडलके बाहरके लोगोंके साथ हम संबंध नही रख सकते, पर वहां भी, अगर आध्यात्मिक जीवन भीतरमें वर्द्धित हो रहा हो तो वह निश्चय

 

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ही उस संबंधपर अपना प्रभाव डालेगा और साधककी ओर उसे अप्यात्मभावापत्र बनायेगा । और उस संबंधमें ऐसी कोई आसक्ति नही होनी चाहिये जो संबंधको भग- वान्के लिये एक बाधा अथवा प्रतिद्वंद्वी बना दे । परिवार आदिके प्रति जो आसक्ति होती है वह प्रायः ही इस प्रकारकी होती हैं और, अगर ऐसी होती है तो, वह साधकके अंदरसे दूर हो जाती है । यह एक अनिवार्य आवश्यकता है जिसे, मैं समझता हूँ, अंत्य- धिक नही मानना चाहिये । परंतु यह सब, धीरे-धीरे किया जा सकता है, वर्तमान संबंधोंको काट देना कुछ लोगोंके लिये आवश्यक होता है, यह सभी लोगोंके लिये आवश्यक नही होता । रूपांतर, वह चाहे कितना ही धीरे-धीरे क्यों न हो, अनिवार्य है; जहांपर काट देना ही यथार्थ कर्तव्य है, वहां काटना आवश्यक है ।

 

      पुनश्च :- यहां मुझे फिरसे यह भी कह देना होगा कि प्रत्येक प्रसंग अलग-अलग होता है -- सबके लिये एक ही नियम न तो व्यावहारिक होता है न व्यवहार्य । प्रत्येक मनुष्यके लिये उसकी आध्यात्मिक उन्नतिकी दृष्टिसे जो कुछ आवश्यक है बस वही वांछनीय वस्तु है और उसे ही दृष्टिमें रखना चाहिये ।

 

*

 

         भगवानका सामीप्य प्राप्त करनेके लिये मानवी स्नेह और सहानुभूतिसे रहित होनेकी आवश्यकता नहीं । प्रत्युत, दूसरोंसे समीपता तथा एकताका बोध तो उस दिव्य चेतनाका ही एक अंग है जिसमें साधक भगवान्की समीपता तथा भगवानके साथ एकताका अनुभव करता है । निःसंदेह, समस्त संबंधोंका पूर्ण परित्याग माया- वादीका अंतिम लक्ष्य दु, ओर तपस्यामूलक योगमें संसार तथा इसके जीवित प्राणियोंसे मैत्री, प्रीति एवं आसक्तिके सब संबंधोंका नितांत उच्छेद मोक्षकी ओर प्रगति करनेका आशाजनक चिह्न समझा जायगा । परंतु मेरे विचारमें, वहां भी प्राणिमात्रके साथ एकत्व तथा अनासक्तिपूर्ण आध्यात्मिक सहानुभूतिका अनुभव, कम-से-कम, बौद्धोंकी करुणाके समान, मोक्ष या निर्वाणकी ओर अंतिम झुकाव होनेसे पहलेकी अवस्था हेच । इस योगमें दूसरोंके साथ ऐक्यका अनुभव, प्रेम, सार्वभौम हर्ष तथा आनन्द मुक्ति एवं सिद्धिका मौलिक अंग हैं और ऐसी मुक्ति एवं सिद्धि हीं हमारी साधनाका ध्येय है ।

 

 

         दूसरी ओर मानवसमाज, मानवीय मैत्री, प्रेम, स्नेह और समवेदनाका भाव, -- पूरी तरहसे या निरपवाद रूपमें तो नहीं, पर अधिकतर एवं साधारणत:-- प्राणिक आधारपर स्थित होते हैं और होते हैं अपने अहं-रूपी केंद्रसे धारित । प्रायः, मनुष्य दूसरोंसे प्रेम करनेमें सुख अनुभव होनेके कारण, दूसरोंके संपर्कसे तथा परस्पर आत्म- सत्ताओंके एक्-दूसरेमें व्याप्त होनेसे अहंका विस्तार होनेमें सुख अनुभव होनेके कारण, और अपने व्यक्तित्वके परिपोषक प्राणिक आदान-प्रदानके उल्लासके कारण हीं दूसरों- से प्रेम करते हैं -- इससे भिन्न और कही अधिक स्वार्थपूर्ण अन्य हेतु भी होते हैं जो इस मुख्य चेष्टामे मिल-जुल जाते हैं । निस्संदेह, उच्चतर आध्यात्मिक, आंतरात्मिक, मानसिक, प्राणिक तत्व भी आ घुसते हैं या घुस सकते हैं; किंतु सारी-की-सारी वस्तु,

 

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अपने सर्वोत्तम रूपमें भी, बहुत अधिक मिश्रित होती है । इसीलिये एक विशेष अवस्था- मे, प्रत्यक्ष कारणसे या उसके बिना, जगत्, जीवन, मानवसमाज, मानवीय संबंध और परोपकार (जो अन्य सबके समान ही अहं-आक्रांत होता है) फीक पड़ने लगते हैं । कभी-कभी कोई दिखावटी कारण होता है, जैसे--स्थूल प्राणकी निराशा, दूसरोंका हमें प्रेम करना छोड़ देना अथवा यह अनुभव कि हमारे प्रेमपात्र व्यक्ति या साधारणतया सभी लोग वैसे नहीं हैं जैसा कि हम उन्हें समझते थे । फिर और भी कितने ही कारण हों सकते हैं । पर प्रायः आंतर सत्ताके किसी भागकी निराशा हीं कारण होती है जिसका रूप मनमें प्रकट या अच्छी तरह प्रकट नहीं हुआ होता, क्योंकि मन उन चीजोंसे किसी ऐसी वस्तुकी आशा रखता था जिसे वे नही दे सकती । जो लोग आध्यात्मिक जीवनकी ओर मुड़ते या प्रेरित होते हैं उनमेंसे बहुतोंके साथ ऐसा ही होता है । कुछ व्यक्तियोंमें यह निराशा वैराग्यका रूप धारण करती है जो उन्हें वैरागियोंकीसी उदासीनताकी ओर प्रेरित करता है तथा मोक्षके लिये तीव्र संवेग प्रदान करता है । अपने लिये हम जिस चीजको आवश्यक मानते हैं वह यह है कि मिलावट दूर हो जानी चाहिये और चेतनाको उस शुद्धतर स्तरपर (केवल आध्यात्मिक तथा आंतरात्मिक हीं नही बल्कि शुद्धतर एवं उच्चतर मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक चेतनाके स्तरपर भी) प्रतिष्ठित करना चाहिये जिसमे यह मिश्रण है ही नहीं । वहां व्यक्ति एकत्व, प्रेम, सहानुभूति तथा मैत्रीका सच्चा आनन्द अनुभव करेगा । यहीं आनन्द अपने मूल रूपमे आध्यात्मिक तथा स्वयंभू है पर प्रकृतिके अन्य भागोंद्वारा अपनेको प्रकट करता है । यदि ऐसा ही होना हों तो स्पष्ट हैं कि एक .परिवर्तन आवश्यक है । इन क्यिाओंके पुराने रूपकों नष्ट होकर अपना स्थान नयी तथा उच्चतर आत्माको दे देना होगा ताकि यह उन क्रियाओंद्वारा अपने-आपको तथा भगवान्को प्रकट तथा चरितार्थ करनेका अपना पथ प्रशस्त करे - यहीं इस विषयका आंतर सत्य है ।

 

           अतः मैं समझता हूँ कि जिस अवस्थाका तुमने वर्णन किया है वह संक्रमण तथा परिवर्तनका काल हे । ऐसी अवस्थाएं या गतियों शुरू-शुरूमें प्रायः अभावात्मक ही हुआ करती हैं । वैसे ही तुम्हारी यह अवस्था भी प्रारंभमें अभावात्मक है और इसका प्रयोजन है नयी भावात्मक वस्तुके लिये स्थान खाली करना ताकि वह प्रकट होकर इसमें निवास करे और इसे भर दे । परंतु उस रिक्त स्थानकी पूर्ति करनेवाली वस्तुका कोई चिरस्थायी या कम-से-कम पर्याप्त या पूर्ण अनुभव प्राणको नहीं है, अतः वह केवल अभाव ही महसूस करता है तथा इसमे शोक मानता है जब कि सत्ताका एक अन्य भाग, यहांतक कि प्राणका भी एक अन्य भाग लुप्त होती हुई वस्तुको जाने देनेके लिये तैयार होता है तथा उसे रखनेको तरसता नहीं । यदि प्राणकी यह गति न होती (जो तुममें बहुत प्रबल, विस्तृत और जीनेके लिये उत्कंठित रहीं है) तो, इन वस्तुओंका विरोप कम-से-कम शून्यताके प्रथम भानके पश्चात् शांति, विश्राम और महत्तर वस्तुओंकी निस्तब्ध प्रतीक्षाके भावको ही जन्म देता । रिक्त स्थानको भरनेके लिये जो वस्तु सबसे पहले अभिप्रेत हे उसका संकेत तुम्हें उस शांति तथा हर्षके रूपमें मिला जो तुम्हें शिवके स्पर्शके तीरपर अनुभूत हुआ - स्वभावत: हीं, यहीं इतिश्री नहीं हो जायगी

 

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बल्कि यह तो केवल श्रीगणेश होगा । यह नये आत्मभाव तथा नयी चेतनाके लिये और महत्तर प्रकृतिकी कियाके लिये आधार होगा । जैसा मैं तुम्हें बता चुका हूँ, गभीर आध्यात्मिक स्थिरता तथा शांति हीं स्थायी भक्ति एवं आनन्दकी एकमात्र दृढ भित्ति हैं । उस नयी चेतनामें दूसरोंके साथके संबंधोंको लिये नया ही आधार होगा । कारण, वैराग्यपूर्ण शुष्कता या संसर्ग-शून्य एकाकिता तुम्हारा आध्यात्मिक भविष्य नही हो सकती क्योंकि यह तुम्हारे स्वभावसे संगत नही है । तुम्हारा स्वभाव तो हर्ष, विशालता, विस्तार, प्राणशक्तिकी व्यापक गतिके लिये बना है । अतएव निरुत्साहित मत होओ, शिवकी पावन क्यिाकी प्रतीक्षा करो ।

 

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         मैन बराबर ही कहा है कि भागवत या आध्यात्मिक कर्मके लिये प्राण अनिवार्य है - इसके बिना जीवनमें कोई पूर्ण अभिव्यक्ति, कोई उपलब्धि नही हो सकती -- यहांतक कि साधनामें भी कोई अनुभूति मुश्किलसे हो सकती है । जब मैं प्राणिक मिश्रण या प्राणके बाधा-विघ्र, विद्रोह आदिकी चर्चा करता हूँ तब मैं वास्तवमें अस- सुकृत बाह्य प्राणकी बात करता हूँ जो कामना, अहंकार और निम्रतर आवेगोंसे भरा होता है । मैं वही बात मन और शरीरके विषयमें भी कह सकता था यदि वे बाधा देते या विरोध करते, पर ठीक-ठीक इस कारण कि प्राण इतना अधिक शक्तिशाली और अपरिहार्य होता है, इसकी बाधा, इसका विरोध या सहयोग देनेकी अस्वीकृति अत्यत अद्भुत रूपमें प्रभावशाली होती हैं और इसकी अशुद्ध मिलावटें साधनाके लिये अधिक खतरनाक होती हैं । यही कारण हैं कि मैं सर्वदा अशुद्ध प्राणके खतरोंपर और वहां प्रभुत्व प्राप्त करने तथा शुद्धि करनेपर आग्रह करता रहा हूँ । इसका कारण यह नही कि मैं संन्यासियोंकी तरह प्राण और उसकी जीवनी-शक्तिको उसके एकदम स्वभाववश हीं निन्दा करने और परित्याग करनेकी वस्तु मानता हूँ ।

 

       स्नेह, प्रेम, प्यार आदि अपने स्वभावमें चैत्य है,--प्राणमें ये होते हैं क्योंकि चैत्य पुरुष प्राणके माध्यमसे अपनेको प्रकट करनेका प्रयास कर रहा है । सच पूछा जाय तो भावात्मक सत्ताके माध्यमसे चैत्य पुरुष सबसे अधिक आसानीसे प्रकट होता है, क्योंकि वह ठीक उसके पीछे हृदय-केंद्रमें अवस्थित रहता है । परंतु वह चाहता है कि ये चीज़ें शुद्ध हो । यह बात नहीं कि वह प्राण और शरीरके माध्यमसे होनेवाली बाह्य अभिव्यक्तिका त्याग करता है, बल्कि चैत्य पुरुष अंतरात्माका ही रूप होनेके कारण स्वभावत: ही अंतरात्माका अंतरात्माके प्रति होनेवाले आकर्षणको अनुभव करता है, अंतरात्माके साथ अंतरात्माके एकत्वको ठीक उन्हीं वस्तुओंके जैसा अनुभव करता है जो अंतरात्माके लिये अत्यंत स्थायी और ठोस होती हैं । मन, प्राण और शरीर अभिव्यक्तिके साधन हैं और अभिव्यक्तिके बहुत मूल्यवान् साधन हैं, पर अंतरात्माके लिये आंतरिक जीवन सबसे पहली वस्तु, गभीरतम सत्य है और इन सबको उसके अधीन रखना होगा और उसके द्वारा प्रसीमित रखना होगा - उसकी अभिव्यक्ति,

 

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 उसके यंत्र और प्रणालीके रूपमें रखना होगा । मैं नही समझता कि मैं आंतरिक वस्तु- ओंपर, चैत्य और आध्यात्मिक वस्तुओंपर आग्रह करके मैं कोई नयी बात, अद्भुत या न समझमें आने योग्य बात कह रहा हू । इन चीजोंपर आरंभसे हीं सर्वदा अधिक जोर दिया जाता रहा है और जितना ही अधिक मनुष्य विकसित होता है उतना ही इनका महत्व बढ़ जाता है । मेरी समझमें नहीं आता कि आंतरिक जीवनपर, अंत- रात्मा और आत्मापर इस प्रारंभिक आग्रहके बिना योग करना कैसे संभव हो सकता है । प्राणपर प्रभुत्व जमाने, उसको आध्यात्मिक और चैत्य चेतनासे कम महत्त्वपूर्ण और अधीनस्थ बनानेपर जोर डालना भी कोई नवीन, विचित्र या अतिरंजित बात नही है । इन बातोंपर किसी भी प्रकारके आध्यात्मिक जीवनके लिये सर्वदा जोर डाला जाता रहा है; यहांतक कि जो योग, वैष्णव मतकी कुछ पद्धतियोंकी तरह, प्राणका व्यवहार करनेका अत्यधिक प्रयत्न करते हैं, वे भी इसके पवित्रीकरण तथा भगवान्- के प्रति इसके पूर्ण समर्पणपर आग्रह करते हैं । भगवान्से संबंधित सभी अनुभूतियां आंतरिक अनुभूतियां हैं, केवल, यहांपर अंतरात्मा भावात्मक सत्ताके ज़रिये अपने- आपको अर्पण करता है । अंतरात्मा या चैत्य पुरुष कोई अश्रुतपूर्व या अबोध्य वस्तु नही हे ।

 

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            मानव-प्रेम स्पष्ट ही अविश्वसनीय है, क्योंकि यह बहुत अधिक स्वार्थपरता और कामनापर आधारित है, यह अहंभावकी एक लौ है जो कभी मलिन और कुहासाच्छत्र कभी अधिक स्पष्ट और गहरे रंगसे रंगा होता है - कभी सहजवृत्ति और आदतपर आधारित तामसिक, कभी राजसिक और हृदयावेग या प्राणिक आदान- प्रदानके लिये चीख-पुकारसे पोषित होता है, कभी अधिक सात्त्विक होता तथा निष्काम होने या अपनी दृष्टिमें वैसा प्रतीत होनेका प्रयास करता है । परंतु मूलतः यह किसी व्यक्तिगत आवश्यकता या किसी-न-किसी प्रकारके आंतरिक या बाह्य प्रतिफलपर निर्भर करता है और जब वह आवश्यकता पूरी नहीं होती या प्रतिफल समाप्त हों जाता है या नही प्राप्त होता तो यह अधिकांश समय कम हो जाता या मर जाता या भूतकालकी आदतके केवल एक धीमे या विक्षुब्ध अवशेषके रूपमें बना रहता है अथवा अपनी तृप्ति- के लिये अन्यत्र मुंड जाता हे । यह जितना ही अधिक तीव्र होता है, उतना ही अधिक यह अखाडियों, संघर्षों, कलहों, सभी प्रकारके अहंकारपूर्ण उपद्रवों, स्वार्थपरताओं, अवैध मांगों, यहांतक कि क्रोध और घृणाके विस्फोटों और मतभेदोंके द्वारा विक्षुब्ध होनेको बाध्य होता है । यह बात नहीं कि ये स्नेह टिक नही सकते -- तामसिक सहजस्फूर्त्त स्नेह व्यक्तियोंको पृथक् करनेवाली प्रत्येक चीजके बावजूद अभ्यासवश टिकते हैं, जैसे, कुछ पारिवारिक स्नेह; कभी-कभी सारे उपद्रवों और असामंजस्यों और तीक्या मतभेदोंके बावजूद राजसिक स्नेह टिक सकते हैं, क्योंकि एकको दूसरेकी एक प्राणिक आवश्यकता होती है और उसके कारण वह चिपका रहता है अथवा दोनों-

 

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को वह आवश्यकता होती है और वे निरन्तर अलग होते और वापस आते और वापस आते और अलग होते हैं या झगडेसे मेलकी ओर और मेलसे झगड़ेकी ओर जाते हैं; सात्विक स्नेह बहुधा कर्तव्यबोधसे लेकर आदर्शभावनातकके कारण या किसी दूसरे अवलंबके कारण टिकते हैं पर वे अपनी उत्सुकता या तीव्रता या तेजस्विताको खो सकते हैं । परंतु उसमें सच्ची दृढ़ता केवल तभी आती हे जब मनुष्य-प्रेममें चैत्य तत्त्व इतना पर्याप्त प्रबल हों जाता है कि वह बाकीपर अपना रंग चढ़ा सके या उनपर प्राधान्य स्थापित कर सके । उस कारणसे मित्रता अन्य सभी मानवीय स्नेहभावोंकी अपेक्षा बहुत अधिक बार अत्यत स्थायी होती है या हो सकतीं है, कारण उस संबंधमें प्राणका कम हस्तक्षेप होता है और यद्यपि वह अहकी एक लौ होती है, वह एक स्थिर और शुद्ध अग्नि बन सकती है जो सर्वदा अपनी गर्मी और ज्योति देती रहे । परंतु विश्वसनीय मित्रता लगभग सर्वदा बहुत थोडेसे लोगोंमें ही होती है; स्नेहशील, नि:स्वार्थभावसे विश्वासपात्र मित्रोंके एक झुंडका होना तो इतना विरल व्यापार हे कि इसे निश्चित रूपमे एक भ्रम माना जा सकता हैं. । पर जो हों, मानवीय स्नेहका चाहे जो भी मूल्य हों, इसका एक अपना स्थान है, क्योंकि इसके द्वारा चैत्य पुरुषको वे भावात्मक अनुभूतियां प्राप्त होती हैं जिनकी उसे तबतक आवश्यकता होती .जबतक वह आपात- दृष्टके स्थानमें सच्ची, अपूर्णके स्थानमे पूर्ण, मानवीयके स्थानमें दिव्य अनुभूतियोंके सामने उपस्थित करनेके लिये तैयार नही हो जाता । जिस तरह चेतनाको उच्चतर स्तरपर ऊपर उठना है वैसे ही हदयकी क्रियाओंको भी उस उच्चतर स्तरतक ऊपर उठना होगा और अपने आधार और स्वभावको बदलना होगा । योगका स्वरूप है समस्त जीवन और चेतनाको भगवान्में स्थापित करना, इसलिये प्रेम और स्नेहको भी भगवान्में बद्धमूल करना होगा ओर भगवानके अन्दर प्राप्त आध्यात्मिक और चैत्य एकत्व उनका आधार होना चाहिये -- अन्य सभी चीजोंको एक ओर छोड़कर सबसे पहले भगवान्को प्राप्त करना या एकमात्र भगवान्को पानेका प्रयत्न करना उस परिवर्तनका सीधा पथ है । इसका अर्थ है कोई आसक्ति न होना -- आवश्यक रूपसे इसका अर्थ यह नही हे कि स्नेहको अस्नेहमें या ठंडी उदासीनतामे बदल दिया जाय । परंतु संभवतः '' यह चाहता हैं कि उसके अपने प्राणिक भावावेग जैसे वे हैं -- ज्योंके त्यों -- भगवान्में ले लिये जायं -- उसे कोशिश करने दो और आलोचनाओं तथा भाषणोंके द्वारा उसे परेशान मत करो) यदि ऐसा किया जा सकता है तो उसे स्वयं अपने लिये इसका पता लगा लेना होगा ।

 

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       वास्तवमें इसका कारण तुम्हारा स्वभाव या दुर्भाग्य नही है कि तुम्हारा प्राण दूसरोंके साथके संबंधोंसे जो तुष्टि पाना चाहता था वह नही प्राप्त कर पाता । ये संबंध कभी पूरा या स्थायी संतोष नहीं दे सकते । यदि ये देते, तो फिर कोई कारण ही न होता कि मनुष्य कभी भगवान्को पानेका प्रयास करता । वह साधारण पार्थिव

 

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जीवनसे ही संतुष्ट बना रहता । सच पूछा जाय तो जब भगवान् प्राप्त हों जाते हैं और चेतना सत्य-चेतनामें ऊपर उठ जाती है केवल तभी दूसरोंके साथ सच्चा संबंध स्थापित हो सकता है ।

 

        जब मैंने यह कहा था कि इसमें कोई हानि नही है तो मेरा मतलब यह था कि जो कुछ तुम्हारे मनमें है उसे अपने ही अन्दर घूमते रहने देनेकी अपेक्षा उसे श्रीमाताजी- को बता देना अधिक अच्छा है । परंतु एक बार जब कह दिया तो फिर सब कुछ मनसे बाहर निकाल दिया जाना चाहिये और मनको अपनी स्थिरता फिरसे प्राप्त कर लेनी चाहिये ।

 

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        ये क्रियाएं मनुष्यकी अज्ञ प्राणिक प्रकृतिका अंग हैं । जिस प्रेमको मनुष्य परम्परा एक-दूसरेके प्रति अनुभव करता है वह भी सामान्यतया अहंजन्य प्राणिक प्रेम होता है और ये अन्य क्रियाएं, दावा, भाग, ईर्ष्या, मान-अभिमान, क्रोध इत्यादि, उसकी सामान्य सहायक हैं । इनके लिये योगमें कोई स्थान नही है -- न सच्चे प्रेम, चैत्य या दिव्य प्रेममें ही स्थान है । योगमें सभी प्रेम भगवान्की ओर मुंड जाने चाहिये और मनुष्य या दूसरी वस्तुओंकी ओर केवल भगवानके पात्रोंके रूपमें - मान-अभिमान तथा शेष चीजोंके लिये उसमें कोई स्थान नही होना चाहिये ।

 

*

 

          वह सब निस्संदेह प्रेम नही है, बल्कि आत्मप्रेम है । ईर्ष्या आत्मप्रेमका महज एक कुत्सित रूप है । यहीं बात लोग नही समझते -- ये यह भी समझते हैं कि मांग और ईर्ष्या और आहत अभिमान प्रेमके चिह्न हैं अथवा कम-से-कम उसके स्वाभाविक अनुचर हैं ।

 

*

 

          उच्चतर प्राणकी क्रिया सामान्य प्राणकी क्रियासे कहीं अधिक परिमार्जित और अपनी गतिमें अधिक विशाल होती है । वह ईद्रियबोध और कामनाकी अपेक्षा हृद्गगत भावोंपर अधिक बल देती है, पर वह मांग तथा अधिकारकी कामनासे शून्य नहीं होती ।

 

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        जो संबंध मानवजीवनमें साधारण प्राण-प्रकृतिके अंग होते हैं उनका आध्या-

 

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त्मिक जीवनमें कोई मूल्य-महत्त्व नहीं - वे बल्कि प्रगतिमें बाधा डालते हैं; क्योंकि उस जीवनमें मन और प्राण भी पूर्णत: भगवान्की ओर मुंड जाने चाहियें । परंतु, साधना- का उद्देश्य है आध्यात्मिक चेतनामें प्रवेश कर जाना और प्रत्येक चीजको एक नवीन आध्यात्मिक आधारपर स्थापित करना जो केवल तभीह्मे सकता है_ जब कि साधक भगवानके साथ पूर्ण एकता स्थापित कर लेता है । इस बोच सबके ?? शांत शुभ कामना बनाये रखना होगा, पर प्राणिक ढंगके रिश्ते-नाते सहायता नहीं करत - क्योंके वे चेतनाको नीचे एक प्राणिक आधारपर बनाये रखते हैं और उसे उच्चतर स्तरकी ओर ऊपर उठनेसे रोकते हैं ।

 

*

 

          पूरक आत्मा और विवाहके विषयमें जो तुम्हारा प्रश्न है उसका उत्तर देना आसान है; आध्यात्मिक जीवनका मार्ग तुम्हारे लिये एक दिशामें है और: विवाह बिल- कुल दूसरी तथा उलटी दिशामें । पूरक- आत्मा- विषयक सारी-की-सारी चर्चा बनावटी आवरण है जिससे मन निम्र प्राणिक प्रकृतिकी भावनात्मक, संवेदनात्मक तथा भौतिक कामनाओंको ढकनेकी चेष्टा करता है । तुम्हारे अंदरकी यह प्राणिक प्रकृति हीं ऐसा प्रश्न करती है और यह अपनी कामनाओं और मांगों तथा तुम्हारे अंतःस्थ सत्य अंतरात्माकी पुकार - इन दोनोंका मेल मिलनेवाली उत्तर पसंद करेगी । परंतु इसे यहांसे ऐसे किसी असंगत मेलकी अनुमतिकी आशा नहीं करनी चाहिये । अतिमानसिक योगका मार्ग सुस्पष्ट है । इन चीजोंके साथ रियायत करना इस मार्गका अंग नहीं है । तुम जो यथासंभव आध्यात्मिक पर्देके आडूमें, पारिवारिक तथा वैवाहिक जीवनके ऐश-आराम तथा भोगविलासकी एवं साधारण उत्तेजनात्मक इच्छाओं और स्थूल विषयवासनाओके उपभोगकी लालसाकी पूर्ति करना चाहते हों वह इस मार्गका अंग नहीं है,--बल्कि ये चेष्टाए जिन शक्तियोंको विकृत करती तथा जिनका दुरुपयोग करती हैं उन्हें शुद्ध तथा रूपांतरित करना हीं इस मार्गका अंग है । ये मानवीय और पाशविक तृष्णाएं कोई ऊंची वस्तु नहीं हैं, ऊंची वस्तु है दिव्य आनन्द जो इनके ऊपर और परे है । इन हीन कामनाओंमें आसक्त होनेसे आनन्दके अवतरणमें बाधा पहुँचती है । साधकके अंदर प्राणिक पुरुषकी अभीप्साको इसी आनन्द की कामना करनी चाहिये ।

 

*

 

            मानवीय प्राणिक आदान-प्रदान साधनाका सच्चा अवलंब नही हों सकता और, इसके विपरीत, यह निश्चित रूपसे उसे हानि पहुँचाता और विकृत करता है, चेतनाको आत्मप्रतारणाकी ओर ले जाता तथा भावात्मक सत्ता तथा प्राण-प्रकृतिको गलत रास्तेपर मोड देता है ।

 

३०७


           पारिवारिक बंधनके विषयमें तुम जो कुछ लिखते हों वह बिलकुल ठीक है । यह एक अनावश्यक आदान-प्रदानकी क्रियाकी सृष्टि करता है और भगवान्की ओर पूरी तरह मुड़नेके पथमें बाधा डालता है । योग आरंभ करनेके बाद अपने संबंधोको किसी भौतिक मूलस्रोतपर या भौतिक चेतनाके अभ्यासोंपर कम आधारित करना चाहिये और अधिकाधिक साधनाके आधारपर स्थापित करना चाहिये -- साधारण तरीकेसे अथवा प्राचीन दृष्टिकोणसे संबंध नही स्थापित करना चाहिये, बल्कि वह संबंध होना चाहिये साधकोंके साथ एक साधकका, दूसरोंके साथ इस भावसे संबंध होना चाहिये मानो सभी ऐसे आत्मा है जो एक हीं पथसे यात्रा कर रहे हैं अथवा सभी श्रीमाताजीके बच्चे है ।

 

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          जब कोई आष्यात्मिक जीवनमें प्रवेश करता है तो पारिवारिक बंधन, जो सामान्य प्रकृतिकी चीज है, विलीन हों जाता है -- मनुष्य सभी पुरानी वस्तुओंके प्रति उदासीन हों जाता है । यह उदासीनता एक प्रकारकी मुक्ति है । वास्तवमें इस चीजके अन्दर कठोरताके भावके होनेकी बिलकुल आवश्यकता नहीं । प्राचीन भौतिक स्तेहसंबंधोंसे बंधे रहनेका अर्थ होगा सामान्य प्रकृतिसे बंधे रहना और वह चीज आध्यात्मिक प्रगति- मे बाधा पहुँचायेगी ।

 

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       माता-पिताके प्रति आसक्ति साधारण भौतिक प्रकृतिकी वस्तु है -- भागवत प्रेमके साथ इसका कोई सरोकार नही ।

 

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            यह भाव (बच्चेकी अपने पालन-पोषणके लिये अपने पिताका ऋणी अनुभव करना) मानवसमाजका एक विधान है, 'कर्म'का कोई विधान नहीं है । बच्चेने पिता- से उसे जगत्में ले आनेके लिये नहीं कहा था -- और, यदि पिताने अपने निजी सुखके लिये ऐसा किया है तो वह बच्चेके पालन-पोषणके लिये बस कम-से-कम ही कर सकता है । ये सभी सामाजिक संबंध हैं (और सच पूछो तो यह पिताके प्रति बालकका एक- पक्षीय ऋण बिलकुल नहीं है), पर वे चाहे जो हों, जैसे ही कोई आध्यात्मिक जीवन ग्रहण करता है, वे समाप्त हो जाते हैं । क्योंकि आध्यात्मिक जीवन बाहरी भौतिक संबंधपर बिलकुल आश्रित नहीं होता; वास्तवमें एकमात्र भगवानपर हीं मनुष्यको उस समय उसे आधारित करना चाहिये ।
 

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३०८


भगवान्की ओर मुड जानेपर आंतरिक सत्ता स्वभावत: ही पुराने प्राणिक संबंधों और बाहरी क्रियाओं तथा संस्पर्शोंसे अलग हट जाता है जबतक कि वह बाहरी सत्ताके अन्दर एक नीवन चेतना नहीं ले आता ।

 

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       जिस क्रियाकी तुम बात करते हों वह चैत्य नहीं बल्कि भावात्मक है । सच पूछो तो तुम प्राणिक-भाविक शक्तिको प्रकट करते और नष्ट करते हों । यह इसलिये भी हानिकारक है कि जहाँ तुम एक ओर किसी पुराने प्राणिक संबंध या इन लोगोंके साथके बंधनको त्यागनेका प्रयत्न करते हों, वहां तुम इस क्रियाके द्वारा दूसरे ढंगसे उनके साथ प्राणिक संबंध पुनः स्थापित करते हों । यदि तुम्हारी पहली क्रियामें कोई चीज गलत थी तो यह दोषको दूर करनेका बिलकुल गलत तरीका है ।

 

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       निश्चय ही, किसी व्यक्तिके विरुद्ध कोई हिंसापूर्ण भावना रखे बिना त्याग करना कहीं अधिक अच्छा होगा, क्योंकि हिंसाभाव प्राणकी किसी विशेष दुर्बलताका चिह्न हैं जिसे अवश्य सुधारना चाहिये -- और किसी दूसरे कारणसे नहीं । परित्याग शांतिपूर्ण, दृढ़तापूर्ण, आत्मसुनिश्चित और निर्णायक होना चाहिये, उस समय वह मौलिक तथा फलदायक हों जाता है ।

 

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        जैसे-जैसे भगवानके प्रति प्रेम बढ़ता हैं वैसे-वैसे अन्य चीज़ें मनको सताना बद करती जाती हैं ।

 

       भगवानके प्रति प्रेम जब किसी भागको अधिकृत करता है तो उसका प्रभाव उस भागको भगवान्की ओर मोड देता है -- जैसा कि तुम इसको '' श्रीमाँके ऊपर एकाग्रता' ' कहते हो -- और अंतमें सब कुछ सत्ताके इस केंद्रीय झुकावके चारों ओर एकत्रित और सुसमंजस हो जाता है । कठिनाई होती है सत्ताके यंत्ररूप भावोंके बिषयमें जिनके अंदर पुराने विचार अभ्यासवश बार-बार उठते रहते हैं । यदि एकाग्रता बढ्ती रहे तो यह चीज मनकी परिधिपर होनेवाली कम महत्त्वपूर्ण चीज हा जाती है और अतमें झुककर उन चीजोंके आनेके लिये स्थान खाली कर देती है जो नयी चेतनासे संबंधित होती हैं ।

 

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      आंतरिक एकाकीपनको केवल भगवान्के साथ एकत्वकी आंतरिक अनुभूति प्राप्त करके ही दूर किया जा सकता है । कोई भी मानवीय संपर्क इस शून्य स्थानको नही भर सकता । उसी तरह, आध्यात्मिक जीवनके लिये मानसिक और प्राणिक संबंधोंको ऊपर नही, बल्कि दिव्य चेतना तथा भगवान्के साथ एकत्वके ऊपर दूसरोंके साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिये । जब कोई भगवान्को अनुभव करता तथा दूसरोंको भगवान्में अनुभव करता है तो फिर वास्तविक सामंजस्य आता है । उससे पूर्व जो कुछ हों सकता है वह है किसी सामान्य दिव्य लक्ष्यकी भावना और सबके श्रीमाताजीके बच्चे होनेके बोधपर स्थापित सद्भावना और एकता...... । सच्ची सुसमंजसता केवल किसी चैत्य या किसी आध्यात्मिक आधारपर ही स्थापित हो सकती है ।

 

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    भगवानके साथ अकेले रहना साधककी समस्त अनुकूल परिस्थितियोंमें सर्वोत्तम है, क्योंकि यही वह स्थिति है जिसमें वह आंतरिक रूपमे भगवान्के सर्वाधिक निकट आता हैं और समस्त सत्ताको अपने हृदय-कक्ष तथा विश्बमदिरके अंदर एकत्वमें परिणत कर सकता है । इसके अतिरिक्त, सबके साथ वास्तविक एकताका प्रारंभ और आधार यही है, क्योंकि यह उस एकताको उसके सच्चे आधारपर, भगवानपर स्थापित करता है, क्योंकि वास्तवमें भगवान्में ही साधक सबके साथ मिलता और युक्त होता है, और अब अपने मानसिक और प्राणिक अहंकारके अनिश्चित आदान- प्रदानकी स्थितिमें नही रहता । अतएव एकाकीपनसे भय मत करो, बल्कि श्रीमां पूरा भरोसा रखो और उनकी शक्ति तथा कृपाके सहारे अपने पथपर आगे बढ़ते जाओ ।

 

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         साधकका प्रेम भगवान्के प्रति ही होना चाहिये । जब उसमें वह प्रेम पूर्ण रूपमे होता है केवल तभी वह दूसरोंको ठीक प्रकारसे प्यार कर सकता है ।

 

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       अपनेको किसी भी बाहरी व्यक्तिके हाथोंमें सौंप देनेका अर्थ होता है साधनाके वातावरणसे बाहर चले जाना और बाह्य सांसारिक शक्तियोंके हाथोंमें अपनेको सौंप देना ।

 

      कोई साधक किसी विशेष व्यक्तिके लिये प्यारकी चैत्य भावना रख सकता है, सभी प्राणियोंके प्रति वैश्व प्रेमकी भावना रख सकता है, परंतु अपने-आपको तो उसे केवल भगवान्के हाथोंमें ही अर्पित करना होगा ।

 

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३१०


यह नही कहा जा सकता कि ये संपर्क सामान्य रूपसे अच्छे हैं या बुरे । यह व्यक्ति, उसके प्रभाव तथा अन्य बहुत-सी बातोंपर निर्भर करता है । सामान्यतया ये सारे संपर्क पुरानी प्रकृतिकी बाकी चीजोंके साथ-साथ भगवान्के प्रति समर्पित हो जाने चाहियें, ताकि जो कुछ भागवत सत्यके साथ सामंजस्य रखता हो केवल वही तुम्हारे अंदर शेष रह सके और उसके कार्यके लिये रूपांतरित हो सके । दूसरे लोगोंके साथके समस्त संबंध पुरानी प्रकृतिके अन्दरके संबंध नहीं, बल्कि भगवान्के अंदरके संबंध होने चाहिये ।

 

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        एक ऐसा भी प्रेम है जिसमें हृदयावेग बढ्ती हुई एकता तथा ग्रहणशीलताके साथ भगवान्की ओर मुड जाता है । जो कुछ वह भगवान्से प्राप्त करता है उसे वह दूसरोंपर उंडेल देता है - पर उन्मुक्त होकर, और बदलेमें कुछ भी न चाहते हुए । यदि तुम ऐसा करनेमें समर्थ हो तो यही प्रेम करनेका सर्वोत्तम और सर्वाधिक संतोष- प्रद मार्ग है ।

 

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          व्यक्तिगत संबंध तभी स्थापित होता है जब एक-दूसरेके प्रति अनन्य पारस्परिक झुकाव होता है । इस योगमें व्यक्तिगत संबंधोंका नियम यह है: ( 1) समस्त व्यक्तिगत संबंध साधक और भगवान्के एकमात्र संबंधमें विलीन हो जायें, ( 2) समस्त व्यक्ति- गत (चैत्य-आध्यात्मिक) संबंध भगवती मासे आयें, उन्हींके द्वारा निर्धारित हों और एकमात्र भगवती मांके साथके संबधके ही अंग हों । जहांतक व्यक्तिगत संबंध इस दुहरे नियमका पालन करता है और किसी प्रकारकी भौतिक तुष्टि अथवा प्राणिक विकृति या मिश्रणको नहीं फटकने देता वहांतक वह रह सकता है । लेकिन अतिमानस चूँकि अभीतक आधिपत्य नहीं जमा सका है, अपितु वह सिर्फ अवतरणकी स्थितिमें है और अभी भी प्राणिक और भौतिक स्तरपर संघर्ष चल रहा है, हमें बहुत अधिक सावधानी बरतनी चाहिये, जैसी सावधानी कि उस समय आवश्यक नहीं होगी जब कि अतिमानसिक रूपांतरण वहां पहलेसे सिद्ध हो चुका होगा । दोनों (व्यक्तियों) को श्रीभगवती मांपर पूर्णत: निर्भर होकर उनके साथ सीधा संबंध स्थापित करना होगा और यह देखते रहना होगा कि वह बना रहे तथा उसकी परिपूर्णतामें कोई वस्तु हानि न पहुँचाये अथवा तनिक भी उसे विच्छिन्न न करे ।

 

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      यहां साधक और साधिकाके बीच केवल वही संबंध स्वीकार्य है जो कि एक

 

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साधक और साधकके बीच अथवा एक साधिका और साधिकाके बीच होता है - एक मित्रताका संबंध जो कि योगके एक ही पथके अनुगामियोंके बीच और श्रीमाताजीके बच्चोंके बीच होता है ।

 

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       इस योगमें पुरुष और नारीके बीच स्वतंत्र और स्वाभाविक यौगिक संबंध - जो कि एक साधक और साधिकाके बीच होना चाहिये -- रखनेमें सफलता प्राप्त करनेका एक ही तरीका है कि दोनों लेशमात्र भी यह विचार किये बिना मिल सकें कि एक नारी है और दूसरा पुरुष । वे दोनों बस मानव हैं, दोनों साधक हैं, दोनों भग- वान्की सेवाके लिये प्रयत्नशील हैं और दोनों हीं एकमात्र भगवान्की खोजमें हैं, अन्य किसीकी खोजमें नही । बस, इसी भावको अपने अन्दर पूर्ण रूपसे बनाये रखो और तुम देखोगे कि कोई भी कठिनाई तुम्हारे पास नहीं फटकेगी ।

 

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       इसका तात्पर्य यह है कि तुम्हें एक-दूसरेके साथ साधकों-जैसा संबंध रखना चाहिये जिसमें मैत्रीपूर्ण सद्भाव हों, परंतु उसमें प्राणिक ढंगका कोई विशेष संबंध न हो । यदि कोई ऐसा व्यक्ति है जिससे कि तुम ऐसे प्राणिक संबधके जगे बिना न झिल सको तो उस दशामें उससे मिलना-जुलना वांछनीय नहीं है ।

 

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     सब कुछको भगवान्की ओर मोड देनेका जहांतक प्रश्न है, वह पूर्णताका परामर्श तो उन व्यक्तियोंके लिये है जो साथमें कोई भी बोझ ढोनेकी इच्छा नही रखते, अन्यथा पुरुष-पुरुषके बीच और नारी-नारीके बीच अथवा पुरुष और नारीके बीच मैत्री वर्जित नहीं है, बशर्त्ते कि वह सच्ची वस्तु हों और उसके अन्दर काम-भाव न उदय हों तथा साथ ही वह किसीको लक्ष्यसे दूर न हटा ले जाय । यदि प्रमुख लक्ष्य शक्तिशाली हों तो बस इतना हीं पर्याप्त है..... । जब मैंने व्यक्तिगत संबंधकी बात कही थीं तब निश्चय ही मेरा ।तात्पर्य कोरी तटस्थतासे कदापि नहीं था, क्योंकि तटस्थतासे कोई संबंध नहीं बनता, अपितु वह एकदम सबंधहीनताको ही प्रश्रय देती है । यह आवश्यक नहीं है कि भावात्मक मैत्री बाधक हीं हों ।

 

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        निश्चय ही पुरुष-पुरुष अथवा नारी-नारीके बीच मैत्री रखना पुरुष और नारीके

 

३१२


बीच मैत्री रखनेकी अपेक्षा अधिक आसान है, क्योंकि वैसी स्थितिमें सामान्यतया काम- भावनाका प्रवेश नहीं होता । पुरुष और नारीकी मैत्रीमें किसी भी क्षण छिपकर या सीधे तीरपर कामुक प्रवृत्ति आ सकती है और बेचैनी उत्पन्न कर सकतीं हैं । किंतु पुरुष और नारीके बीच कामरहित पवित्र संबंधका होना असंभव नही है, ऐसी मैत्री हो सकती है और सदैव होती रही है । एकमात्र आवश्यकता यह है कि निम्र प्राण चोर दरवाजेसे भीतर न झांके या उसे प्रवेश न करने दिया जाय । पुरुष और नारीके स्वभावमें प्रायः एक सामंजस्य या आकर्षण या साम्य होता है जो किसी प्रकट या गुप्त निम्र-प्राणिक (यौन) आधारकी अपेक्षा किसी अन्य आधारपर आश्रित होता है । कभी-कभी यह प्रबल रूपसे मानसिक अथवा चैत्य अथवा उच्च-प्राणिक आधार और कभी-कभी इन तत्वोंके मिश्रणपर निर्भर करता है । ऐसी स्थितिमें मित्रता स्वाभाविक होती है और दूसरे तत्वोंके अंदर आकर इसे विच्छिन्न करने या नीचेकी ओर खींच लानेकी संभावना कम होती है ।

 

        यह सोचना भी गलत है कि केवल प्राण-सत्तामें ही प्यारकी गरमाहट है और चैत्य सत्ता ज्योति-शिखासे रहित कोई शीतल वस्तु है । सुस्पष्ट, स्वच्छ सद्भाव एक बहुत अच्छी और वांछनीय वस्तु है । लेकिन वही चीज चैत्य प्रेम नही हे । प्रेम तो प्रेम है, वह मात्र सद्भाव नही है । चैत्य प्रेममें प्राणकी ही तरह अथवा उससे भी अधिक तीव्र गरमाहट और लौ हों सकती है । बस, यह एक विशुद्ध अग्नि है जो अहजन्य कामनाओंकी तुष्टिपर अथवा जिस ईंधनका वह आलिंगन करती है उसे स्वाहा कर जानेपर निर्भर नहीं करती । यह एक शुभ्र लौ है, न कि लाल । लेकिन शुभ्र लौ अपनी ऊष्णतामें लालकी अपेक्षा हीनतर नहीं है । यह सत्य है कि चैत्य प्रेम मानवीय संबंधों और मानवीय प्रकृतिमे सामान्यतया पूर्ण रूपसे सक्रिय नही हो पाता; जब वह भगवान्- की ओर उन्मुख किया जाता है तभी उसकी उमंग और उसका उल्लौस अधिक आसानीसे अपनी पूर्णताको प्राप्त होते हैं । मानवीय संबंधमें चैत्य प्रेमके साथ ऐसे दूसरे तत्त्व आ मिलते हैं जो तुरत उसका प्रयोग करनेकी चेष्टा करते हैं और उसे ढक देते हैं । वह अपनी पूर्ण प्रगाढ़ता और तीव्रताको बाहर प्रकट करनेका अवसर केवल बिरले क्षणोंमें ही पाता है । अन्यथा वह केवल एक तत्त्वाशरूपमें प्रवेश करता है, किंतु फिर भी मूलत: प्राणिक प्रेममें वही समस्त उच्चतर गुणोंका दान करता है समस्त उत्कृष्ट मधुरता, कोमलता, निष्ठा, आत्मदान, आत्मत्याग, अंतरात्माका अंतरात्मातक पहुँचना, आदर्श- रूपमें विचारोंका उन्नयन आदि जो सब गुण मानवीय प्रेमको स्वयं उसके परे उठा लें जाते हैं, चैत्य पुरुषसें ही आते है । यदि वह अन्य तत्वोंके - मानवीय प्रेमके मानसिक, प्राणिक तथा शारीरिक तत्त्वोंके अधिकृत, शासित और रूपांतरित कर सकता तो प्रेम पृथ्वीपर द्वैत जीवनके अन्दर यथार्थ वस्तुका, आत्मा और उसके उप- करणके पूर्ण एकत्वका कोई प्रतिबिंब या प्रस्तुति-रूप हों सकता । परंतु उसके कुछ अपूर्ण रूप भी दुर्लभ हैं ।

 

      हमारी दृष्टि यह हे कि योगमें प्रकृतिकी संपूर्ण लौके लिये साधारण बात है भग- वान्की ओर मुड जाना और शेष चीजोंको सच्चे आधारकी प्रतीक्षा करनी चाहिये;

 

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साधारण चेतनाकी बालू और कीचडपर उच्चतर चीजोंका निर्माण करना सुरक्षित नही है । पर इसीलिये मैत्री या संग-साथका बहिष्कार करना आवश्यक नहीं है, किन्तु इन्हें पूर्णतया केंद्रीय अग्निके अधीन हों जाना चाहिये । यदि कोई इस बीच भगवान्के साथके संबंधको ही अपना एकमात्र तल्लीनकारी लक्ष्य बना ले तो यह सर्वथा स्वा- भाविक है और इससे साधनाको पूरा-पूरा बल मिलता है । चैत्य प्रेम तब अपना पूर्णत्व प्राप्त करता है जब कि वह दिव्यतर चेतनाकी, जिसकी हम खोज क्ले रहे हैं, आभा बन जाता है । उससे पहले अपनी प्रकाशमयी पूर्ण सत्ता और स्वरूपको व्यक्त करना उसके लिये कठिन हैं ।

 

       पुनश्च: मन, प्राण और शरीर यथार्थतः अंतरात्मा और आत्माके यंत्र हैं; जब वे केवल अपने लिये कार्य करते हैं तब वे अज्ञानमयी और अपूर्ण चीजें ही पैदा करते हैं -- यदि वें चैत्य पुरुष और आत्माके सचेतन यंत्र बना दिये जायं तो वे अपनी दिव्यतर सार्थकताको प्राप्त कर लेते है । इस योगमें हम जिस चीजको रूपांतर कहते हैं उसमें यहीं भाव निहित है ।

 

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       मैत्री अथवा स्तेह-संबंधका योगमें बहिष्कार नहीं किया गया है । भगवान्के साथ मित्रताका होना तो साधनाका एक स्वीकृत संबंध है । साधकोंके बीच मित्रता- का संबंध होता है और श्रीमाताजी उसे प्रोत्साहित करती हैं । बस, हम चाहते यह हैं कि मित्रताके उन संबंधोंको उस आधारकी अपेक्षा कहीं अधिक सुदृढ़ आधारपर स्थापित किया जाय जिसपर कि मानवीय मैत्री-संबंधोंका अधिकांश भाग अस्थिर रूपसे स्थापित होता है । यथार्थतः इस कारण कि हम मैत्री, बंधुत्वभाव, प्रेमको पवित्र चीजे मानते हैं, इसलिये हम यह परिवर्तन चाहते है -- कारण हम प्रत्येक क्षण अहंकारकी क्रियाओंद्वारा इन्हें भंग होते हुए तथा वासनाओं, ईर्ष्या-द्वेषों, प्रतारणाओके द्वारा, जिनकी ओर प्राणकी प्रवृत्ति होती है, इन्हें अशुद्ध और नष्ट-भ्रष्ट होते हुए देखना नही चाहते -- वास्तवमें हम इन्हें सच्चे रूपमें पवित्र और सुदृढ़ बनाना चाहते हैं और इसलिये इनकी जड़ अन्तरात्मामें जमा देना, इन्हें भगवान्की आधार-शिलापर स्थापित करना चाहते हैं । हमारा योग कोई वैराग्यपूर्ण योग नही है, इसका लक्ष्य पवित्रता तो है, पर कठोर तपस्या नही है । मैत्री और प्रेम उस सुर-संगतिके अनिवार्य स्वर हैं जिसे पानेकी हम अभीप्सा करते हैं । यह कोई मिथ्या स्वत्व नही हैं, क्योंकि हमने देखा है कि अपूर्ण अवस्थाओंमें भी, जब अनिवार्य तत्वका थोड़ासा अंश भी एकदम मूलमें विद्यमान रहता है, तो यह चीज संभव होती है । यह कठिन है और पुरानी बाधाएं अभी भी हठपूर्वक चिपकी हुई हैं? परंतु कोई भी विजय लक्ष्यके प्रति सुदृढ़ निष्ठा हुए बिना और दीर्घ प्रयासके बिना नही प्राप्त हों सकतीं । लगातार प्रयास करते रहनेके सिवा और कोई उपाय नहीं है ।

 

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       योगमें मित्रता बनी रह सकती है, पर आसक्तिको अथवा किसी ऐसे तल्लीन- कारी स्तेह-संबंधको अवश्य दूर हो जाना होगा जो मनुष्यको साधारण जीवन और चेतनाके साथ बांध रखे ।

 

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          सभी प्रकारकी आसक्ति साधनाके लिये बाधक है । तुम्हें सबके प्रति सद्भाव, सबके लिये चैत्य करुणा रखनी चाहिये, पर कोई प्राणिक आसक्ति नही रखनी चाहिये ।

 

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        यदि तुम अपनी करुणाके लिये बदलेकी आशा करते हो तो तुम निराश होनेको बाध्य हों । जो लोग प्रेम या करुणा केवल उसीके लिये, किसी बदलेकी आशाके बिना, प्रदान करते हैं, केवल वे ही इस अनुभवसे बचते हैं । कोई संबंध भी केवल तभी किसी सुदृढ़ आधारपर स्थापित किया जा सकता है जब कि वह आसक्तिसे मुक्त हों अथवा जब वह दोनों ओर प्रधानतया चैत्य हों ।

 

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        एक मौलिक चैत्य सद्भावना है जो सबके लिये एक जैसी होती है; परंतु किसी एक या दूसरेके प्रति एक विशेष प्रकारकी चैत्य सद्भावना भी हो सकती है ।

 

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        नहीं - चैत्य प्रेम विवेकको बहिष्कृत नही करता ।

 

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        यह इस बातपर निर्भर करता है कि तुम चैत्य ' 'प्रेम' ' का क्या अर्थ लेते हो । मनुष्य सभी प्राणियोंके लिये चैत्य सद्भाव रख सकता है; यह न तो लिंगभेदपर निर्भर करता है और न इसमें कोई कामुकताकी बात है ।

 

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       संसारमें भी पुरुष और नारीके बीच ऐसे संबंध हुए हैं जिनमें कामवासना हस्त- क्षेप न कर सकी-- वे विशुद्धतः चैत्य संबंध थे । इसमें संदेह नहीं कि ऐसे संबंधमें

 

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लिग-भेदकी चेतना तो रहेगी, पर वह उस संबधके अन्दर कामना या बाधाके स्रोतके रूपमें नहीं आयेगी । परंतु म्बभावत: ही इस स्थितिके संभव होनेसे पहले एक प्रकारके चैत्य विकासका होना आवश्यक होता है ।

 

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       इसकी सीमाओंकी परिभाषा करना अथवा इसे पहचानना कठिन है । क्योंकि यदि किसी दूसरे व्यक्तिके प्रति चैत्य प्रेम हो तो भी यह मनुष्यमें प्राणिक प्रेमके साथ इतना मिलजुल 'जाता है कि यह एक अत्यंत सामान्य बात हो गयी है कि लोग प्राणिक प्रेमको चैत्य स्वभावका प्रेम मानकर उसका समर्थन करते हैं । हम कह सकते हैं कि चैत्य प्रेम अपनी मौलिक पवित्रता और नि:स्वार्थभावके द्वारा पहचाना जाता है - परंतु प्राणिक प्रेम, जब वहचाहे, इस गुणका बहुत भड़कीला अनुकरण कर सकता है ।

 

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       हमारा अनुभव यह है कि जब दोनों भगवान्के इर्दगिर्द केंद्रित सत्यचेतनामें होते हैं केवल तभी भगवान्के अन्दर यथार्थ मिलनकी कुछ संभावना होती है । अन्यथा, जो व्यक्तिगत संबंध वहां बनता है उसके साथ या तो नैराश्य और विच्छेद आता है अथवा ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं जो विशुद्ध नहीं होती ।

 

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        परंतु मानवीय प्राणिक स्नेहका यही स्वभाव है, यह संपूर्ण स्वार्थपरता है जो प्रेमका छद्यवेश लिये रहता है । कभी-कभी जब उसमें कोई प्रबल प्राणिक आवेग, आवश्यकता या बंधन होता है तो व्यक्ति दूसरेके स्नेहको ( अपने प्रति) बनाये रखनेके लिये कुछ भी करनेको तैयार रहता है । पर जब उस क्रियामें चैत्य भाव प्रवेश करनेमें समर्थ होता है केवल तभी वहां सच्चा निःस्वार्थ स्नेह होता है अथवा कम-से-कम उसका कोई तत्त्व विद्यमान होता है ।

 

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         जिस व्यापारकी तुम चर्चा करते हो वह मानव-प्रकृतिके लिये स्वाभाविक है । लोग प्रीतिकी किसी विशेष भावनाके कारण, अपने स्वभावके किसी भाग और दूसरेके स्वभावके किसी भागके बीच मेल या आकर्षण होनेके कारण परस्पर आकर्षित होते हैं या एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिकी ओर आकर्षित होता है । प्रारंभमें यह केवल अनुभूत होता है; मनुष्य दूसरेके स्वभावके अंदर जो कुछ उसके लिये अच्छा या सखकारक

 

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होता है उस सबको देखता है और यहांतक कि शायद उन गुणोंका भी उसपर आरोप करता है जो उसमें नही होते या उतने अधिक नही होते जितना कि वह सोचता है । परंतु अधिक घनिष्ठ परिचय होनेपर स्वभावके अन्य भाग अनुभूत होते हैं जिनके साथ उसके स्वभावका कोई मेल नहीं होता - संभवत विचारोंका संघर्ष होता है या भाव- नाओमें विरोध होता है या दो अहकारोंका द्वंद्व होता है । यदि वहां घना प्रेम या स्थायी प्रकारका मैत्री-भाव होता है तो मनुष्य संपर्ककी इन कठिनाइयोंको जीत सकता और एक प्रकारका सामंजस्य या मेल-मिलाप स्थापित कर सकता है; परंतु बहुधा यह चीज वहां नही होती अथवा विरोध इतना तीव्र होता है कि मेल-मिलापकी प्रवृत्तिको वह निष्फल कर देता है अथवा अहंकार इतना घायल हो जाता है कि वह पीछे हट जाता है । तब मनुष्यके लिये यह बिलकुल संभव हों जाता है कि वह दूसरेके दोषोंको बहुत अधिक देखना या अतिरंजित रूपमें देखना आरंभ करे अथवा वह दूसरेके ऊपर बुरे या दुःखदायी प्रकारकी बातोंका आरोप करता है जौ उसमें नही होती । ऐसी स्थितिमें समूचा दृष्टि- कोण बदल सकता है, सद्भावना कुभावनामें, स्नेह स्नेहहीनतामे, यहांतक कि शत्रुता या विद्वेषमें बदल सकता है । यह मनुष्य-जीवनमें सर्वदा घटित हों रहा है । इसके विपरीत भी घटित होता है, पर कम आसानीसे -- अर्थात् कुभावनासे सद्भावनामें, विरोध- भावसे सांमजस्यमें परिवर्तन । पर, निस्संदेह, यह आवश्यक नही कि किसी व्यक्तिके प्रति बुरा मत या बुरी भावना केवल इसी कारण उत्पन्न हों । ऐसा कई कारणोंसे, सहज-स्वाभाविक नापसंदगी, ईर्ष्या, विरोधी हितों आदि-आदिके कारण भी घटित होता है ।

 

        मनुष्यको दूसरोंके प्रति शांत-स्थिर-भावसे; उनके गुणों या दोषोंपर अत्यधिक बल दिये बिना, किसी कुभावना या गलतफहमी या अविचारके बिना, शांत-स्थिर मन और दृष्टिसे ताकनेकी चेष्टा करनी चाहिये ।

 

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        यही वह तरीका हैं जिसे प्राणिक प्रेम साधारणतया तब ग्रहण करता है जब कि वहां कोई प्रबल चैत्य शक्ति उसे सुधारने और धारण करनेके लिये विद्यमान नही होती । प्रथम प्राणिक आवेशके समाप्त हो जानेके बाद दो अ अहकारोंका विरोध प्रकट होना आरम्भ हो जाता है और आपसी संबंधोंमें अधिकाधिक तनाव बढ़ता जाता है -- एक या दोनोंके लिये, दूसरेकी माँगें उसके प्राणिक भोगके लिये असह्य हों जाती हैं, निरंतर झुँझलाहट बनी रहती है और मांग एक बोझ या जुआ प्रतीत होने लगती है । स्व- भावतो: ही साधनाके जीवनमें प्राणिक साधकोंके लिये कोई स्थान नही है - वे हमारी प्रकृतिके पूर्णत भगवान्की ओर मुड़नेमें रुकावट डालनेवाली बाधाएं हैं ।

 

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उस समय अपनी सत्ताके सभी भागोंमें अचंचलता तथा तीव्र अभीप्साका तुम्हें अनुभव प्राप्त हुआ । अपने आंतरिक ध्यानमें तुम्हें परिणामस्वरूप श्रीमाताजीके साथ संपर्क अनुभूत हुआ और उसके बाद तुम्हारी आंतर सत्ता ऊर्ध्वस्थित शांति, विशाल- ता और ज्योतिके लोकोंकी ओर ऊपर उठी और फिर हृदयस्थित अपने केंद्रीय स्थानमें वापस आ गयी ।

 

          दूसरोंके प्रति भावनाओंकी असमानता, पसंदगी और नापसंदगी, मानवीय प्राण-प्रकृतिमें बद्धमूल है । इसी कारण कुछ लोग अपने निजी प्राणिक स्वभावके साथ सामंजस्य स्थापित करते हैं, दूसरे नहीं करते; फिर प्राणिक अहंकार भी है जो आघात पानेपर अथवा, जब उसकी अभिरुचियों या उसकी इस भावनाके अनुसार कि लोगोंको क्या करना चाहिये, कार्य नही होते या लोग कार्य नहीं करते तो, नाराज हों जाता है । ऊपर आत्मामें एक प्रकारकी आध्यात्मिक शांति और समता है, सबके प्रति एक प्रकार- का सद्भाव या एक विशेष अवस्थामें भगवान्के सिवा सभी लोगोंके प्रति एक प्रकारकी स्थिर अचंचलता है, चैत्य पुरुषमें मूलत: सबके प्रति एक प्रकारकी सम करुणा या प्रेम है, पर किसीके साथ विशेष संबध भी हों सकते हैं -- परंतु प्राण-पुरुष सर्वदा असम होता है और पसंदगियों तथा नापसंदगियोसे भरा होता है । साधनाके द्वारा प्राणको अचंचल बनाना होगा, उसे ऊर्ध्वस्थित आत्मासे सब वस्तुओंके प्रति उसका अचंचल सद्भाव और समत्व तथा चैत्य पुरुषसें उसकी सामान्य करुणा या प्रेम ग्रहण करना होगा । यह होगा, पर इसके होनेमें समय लग सकता है । इस बीच तुम्हें उन भावनाओंको और बलशाली बनाना होगा जिन्हें तुमने अपने पत्रमें व्यक्त किया है, -- क्योंकि वे सच्ची चैत्य भावनाएं हैं,-- और वे इस लक्ष्यको प्राप्त करनेमें तुम्हें सहायता देंगी । तुम्हें क्रोध, असहिष्णुता या नापसंदगीकी समस्त आंतरिक और बाह्य क्रियाओंसे मुक्त हो जाना चाहिये । यदि कार्य गलत हों जायं या गलत रूपमे किये जायं तो तुम्हें महज यह कहना चाहिये कि ' 'श्रीमाताजी जानती हैं' ' और तुम्हें चुपचाप कार्य करते रहना चाहिये या यथासंभव उत्तम रूपमें बिना संघर्षके कराते रहना चाहिये । कुछ समय बाद हम तुम्हें बतायेंगे कि श्रीमाताजीकी शक्तिका व्यव- हार कैसे किया जाता है जिसमें कि कार्य अधिक अच्छे ढंगसे हों, परंतु सबसे पहले तुम्हें एक अचंचल प्राणके अंदर अपनी आंतरिक स्थितिको प्राप्त करना होगा, क्योंकि केवल वैसा होनेपर हीं उस शक्तिका व्यवहार यथासंभव 1 पूर्ण सफलताके साथ किया जा सकता

 

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         कर्म सर्वदा मौनावस्थामें ही उत्तम रूपमें संपन्न होता है, हा, यदि स्वयं कर्मके लिये हीं यदि बोलनेकी आवश्यकता हों तो बात दूसरी है । बातचीतको छुट्टीके समयके

 

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लिये रख छोड़ना ही सबसे उत्तम हे । अतएव कर्मके समय तुम्हारे चुप रहनेपर कोई व्यक्ति आपत्ति नहो करेगा ।

 

बाकी जो बात है कि तुम्हें क्या करना चाहिये, सों तुम्हें दूसरोंके प्रति अपना समुचित मनोभाव बनाये रखना चाहिये और वे लोग चाहे जो कुछ भी कहें या करें, तुम्हें विक्षुब्ध, उत्तेजित या क्रुद्ध नही होना चाहिये - दूसरे शब्दोंमें, समता तथा सार्वजनीन सद्भाव बनाये रखो जो योगके साधकके लिये उचित हे । यदि तुम ऐसा करो और फिर भी दूसरे लोग विक्षुब्ध या क्रुद्ध हों जायं तो तुम उसकी परवाह न करो, क्योंकि तब तुम उनकी अनुचित प्रतिक्रियाके लिये उत्तरदायी नही होंगे ।

 

*

 

         मैंने तुम्हारा पत्र पढा है और अब मैं समझ रहा हूँ कि तुम्हें कौनसी बातें दुष्कर प्रतीत हों रही हैं - परंतु वे हमें इतनी गंभीर बातें नही प्रतीत होती कि उन्हें यथार्थ- मे अशांतिका कारण समझा जाय । वे तो उस प्रकारकी असुविधाएं हैं जो उस समय सर्वदा आती हैं जब बहुतसे लोग एक साथ रहते और कार्य करते हैं । वे दो मनों या दो संकल्पोंके बीच गलतफहमी होनेके कारण पैदा होती हैं, दोनों ही अपने रास्तेपर खिचते हैं और यदि दूसरा अनुसरण नही करता तो आहत या दुखी अनुभव करते हैं । इसका एकमात्र इलाज है चेतनाका परिवर्तन - क्योंकि जब कोई एक गभीरतर चेतनामें पैठ जाता है, सर्वप्रथम, वह इन बातोंका कारण समझ जाता है और विक्षुब्ध नही होता,- वह एक प्रकारकी समझ-शक्ति, धैर्य और सहिष्णुता उपार्जित करता है जो उसे झुँझलाहट तथा अन्य प्रतिक्रियाओंसे मुक्त कर देती हैं । यदि दोनों या सभी चेतनामें वर्द्धित हों तो उससे एक-दूसरेके दृष्टिकोणोंको मनसे समझनेकी शक्ति उत्पन्न होती है जो सामजस्य लें आना तथा निर्विघ्र कार्य करना अधिक आसान बनाती है । बस, यही चीज है जिसकी खोज हमें आंतरिक परिवर्तनके द्वारा करनी चाहिये -- उस सामंजस्यको बाहरसे, बाहरी उपायोंके द्वारा उत्पन्न करना उतना आसान नही है, क्योंकि मानव-मन अपनी समझमें बड़ा कठोर-होता है और मानवीय प्राण अपने निजी कर्ममार्गपर आग्रह शील होता है । बस, अपना मुख्य संकल्प यह बना लो - अपने अंदर तुम वर्द्धित होंगे और स्पष्टतर तथा गभीरतर चेतनाको आने दोगे तथा यह शुभ- च्छा बनाओगे कि यही परिवर्तन दूसरोंके अंदर आये जिसमें कि संघर्ष और गलत- फहमीके स्थानमें औदार्य तथा सामजस्य उत्पन्न हों ।

 

*

 

        देखो, मैं पहले ही कह चुका हूँ कि झगड़ा करना, आघात पहुँचाना साधनाका अंग नही हैं जिन विरोधों और संघर्षके तुम चर्चा करते हो वे, ठीक जैसा कि बाहरी. जगत्में होता है, प्राणिक अहंकारके संघर्षण हैं । वैर-विरोध, घृणा, नापसंदगी,

 

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लड़ाई-झगड़े आदिको उसी तरह साधनाका अंग नही कहा जा सकता जिस तरह कामा- वेग या काम-क्रियाओंको साधनाका अंग नही कहा जा सकता । मेल-मिलाप, सद्- भाव, सहिष्णुता, समता आदि साधकके साथ साधकके संबंधका आवश्यक आदर्श हैं । मनुष्य किसीके साथ मिलने-जुलनेके लिये बाध्य नहीं है, पर यदि कोई अपने- आपमें अलग रहता है तो ऐसा साधनाके कारणोंसे ही होना चाहिये, अन्य उद्देश्योंसे नहीं; अधिकंतु, यह किसी बडप्पनकी भावना या दूसरोंके प्रति घृणाभावके बिना होना चाहिये...... । यदि कोई देखे कि किसी भी कारणसे दूसरोंके संग-साथमें रहनेसे उस (पुरुष या स्त्री) मे अवांछनीय प्राणिक वृत्तियां उदित होती हैं तो वह (पुरुष या स्त्री) अवश्य ही उस सग-साथसे, सावधानीके लिये, तबतक अलग रह सकता है जबतक कि वह (पुरुष या स्त्री) इस कमजोरीको जीत नही लेता । परंतु अलग रहनेका दिखावा करना या सार्वजनिक रूपसे आघात पहुँचाना आवश्यकताओंके अंदर सम्मिलित नही है और भावनाओंको धोखा देनेकी आदतको भी उसी तरह जीतना चाहिये ।

 

*

 

          ये परिणाम कोई दंड नही हैं, अहंमन्यताके वशवर्त्ती होनेके ये स्वाभाविक परिणाम हैं । सभी झगड़े अहंमन्यतासे उत्पन्न होते हैं जो अपने ही मतको आगे रखता है और अपने ही महत्त्वको प्रस्थापित करता है, यह समझता है कि वही सही हैं और अन्य सभी लोग गलत हैं और इस तरह क्रोध और आघातका बोध आदि उत्पन्न करता है । इन सब चीजोंको प्रश्रय नही देना चाहिये, बल्कि तुरत इनका परित्याग कर देना चाहिये ।

 

*

 

      मैं तुमसे यह कहूँगा कि तुम क्रोध या अन्य किसी वृत्तिको उठने न दो या उनकी प्रेरणासे आचरण मत करो । इन सब चीजोको दूर हटा दो और यह समझो कि अंदर - शांति पाना और भगवान्की खोज करना ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण बात हैं -- ये झगड़े तो महज अहंकारके विस्फोट हैं । बस, एक दिशामें मुड जाओ, पर उसके बाद सबके लिये एक शांत सद्भाव बनाये रखो ।

 

*

 

        यदि तुम ज्ञान प्राप्त करना या सबको भाईके रूपमे देखना या शांति पाना चाहते हो तो तुम्हें अपने विषयमें, अपनी कामनाओं, भावनाओं, अपने प्रति लोगोंके व्यवहार आदिके विषयमें कम सोचना चाहिउये तथा भगवान्के विषयमें अधिक सोचना चाहिये - अपने लिये नही, भगवान्के लिये जीवन धारण करना चाहिये ।

 

*

 

३२०


      अब तुमने समुचित मनोभाव धारण कर लिया है,'और तुम यदि इसे बनाये रखो तो सब कुछ अच्छे ढंगसे चलेगा । सच पूछो तो तुम भगवती माताके पास योगके लिये आये हों, न कि पुराने ढंगके जीवनके लिये । फिर तुम्हें इस स्थानको एक आश्रम समझना चाहिये, न कि एक साधारण संसार, और दूसरोंके साथके अपने व्यवहारमें क्रोध, स्वा- ग्रह और अभिमानको जीतनेका प्रयत्न. करना चाहिये, चाहे तुम्हारे प्रति उनका मनो- भाव या व्यवहार जैसा भी क्यों न हों; क्योंकि जबतक तुम्हारे ये मनोभाव रहेंगे तबतक योगमें प्रगति अपनेमें तुम्हें कठिनाई होगी ।

 

*

 

        झगड़े और संघर्ष यौगिक स्थितिके अभावके प्रमाण हैं और जो लोग गंभीरता- पूर्वक योग करना चाहते हैं उन्हें इन चीजोंसे बाहर निकलना सीखना होगा । जब संघर्ष या विवाद या झगड़ेका कोई कारण न हो तो रार न करना काफी आसान है; परंतु जब कारण हों और दूसरा पक्ष असहिष्णु और युक्तिविहीन हों तो मनुष्यको अपनी प्राण-प्रकृतिसे ऊपर उठनेका सुअवसर प्राप्त होता है ।

 

*

 

      तुम्हारे प्रश्नकी जहांतक बात हैं, वास्तवमें प्राण-प्रकृतिका भावुक अंश ही लोगों- के साथ झगड़ता हे और उनके साथ बात करना अस्वीकार करता है और यही भाग है जो उस भावके विरुद्ध प्रतिक्रिया होनेपर बोलना और संबंध स्थापित करना चाहता है । जबतक मनुष्यमें इनमेंसे कोई वृत्ति विद्यमान है, दूसरीका होना भी संभव है । जब तुम इस भावुकतासे मुक्त होते हों और अपनी समस्त पवित्र वृत्तियोंका भगवान्की ओर मोड देते हो, केवल तभी ये अस्थिर अवस्थाएं दूर होती हैं और उनके स्थानमें सबके प्रति एक अचंचल शुभेच्छा आ जाती है ।

 

*

 

       दो मनोभाव हैं जिन्हें कोई साधक रख सकता है. उनकी मित्रता या शत्रुताका कोई विचार न कर सबके प्रति स्थिर समताका भाव अथवा एक प्रकारकी सामान्य सदिच्छाका भाव ।

 

*

 

       दूसरोंके दोषोंकी बहुत अधिक चर्चा मत करो । वह सहायक नहीं होता । अपने मनोभावमें सर्वदा अचंचलता और शांतिको बनाये रखो ।

 

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      यह बिलकुल ठीक है । जो लोग सहानुभूति दिखाते हैं केवल वे ही सहायता कर सकते हैं - निश्चय हीं साधकको घृणाके बिना दूसरोंके दोषोंको देखनेमें समर्थ भी होना चाहिये । घृणा दोनों पक्षोंको हानि पहुँचाती है, सहायता किसीकी नही करती ।

 

*

 

       देखने और निरीक्षण करनेमें कोई हानि नहीं यदि सहानुभूति और निष्पक्षताके साथ वैसा किया जाय - सच पूछा जाय तो अनावश्यक रूपसे टीका-टिप्पणी करने, दोष ढूँढने, दूसरोंको दोषी ठहराने (बहुधा बिलकुल गलत रूपमें) की प्रवृत्ति ही अपने और दूसरोंके लिये बुरा वातावरण पैदा करती है । और भला यह कठोरता और सुनिश्चित दोषारोपण किसलिये ' क्या प्रत्येक मनुष्यमें अपने निजी दोष नही हैं - उसे भला दूसरोंमें दोष निकालने और उन्हें दंड देनेके लिये इतना उत्सुक क्यों रहना चाहिये? कभी-कभी मनुष्यको विचार करना पड़ता है पर उसे जल्दबाजीमें या दोष निकालनेकी भावनाके साथ नही करना चाहिये ।

 

*

 

        स्वयं अपने-आप उन्हीं दोषोंसे बचनेमें पटु होनेकी अपेक्षा कहीं अधिक मनुष्य दूसरोंके कार्यकी कटु आलोचना करने और उनसे यह कहनेमें समर्थ होता है कि कार्य कैसे करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये । निस्संदेह, बहुत बार उन्हीं दोषों- को मनुष्य दूसरोंमें अधिक आसानीसे देख लेता है जो स्वयं उसमें होते हैं पर जिन्हें वह देखनेमें असमर्थ होता हे । ये तथा अन्य दोष, जैसे दोषोंकी तुमने अंतमें चर्चा की हे, मानव-स्वभावके सामान्य दोष हैं और थोड़े लोग ही इनसे बचते हैं । मानव-मन वास्तव- मे अपने विषयमें सचेतन नहीं होता - यही कारण है कि योगमें मनुष्यको सर्वदा यह खोजना और देखना होता है कि अपने अन्दर क्या है तथा अधिकाधिक सज्ञान होना होता है ।

 

*

 

          यह सामान्य जीवनका कोई प्रश्न नहीं है । सामान्य जीवनमें मनुष्य सर्वदा गलत रूपमें विचार करते हैं, क्योंकि वे मानसिक मानदंडों तथा साधारणतया परंपरा- गत मानदंडोंसे विचार करते हैं । मानव-मन सत्यका नही बल्कि अज्ञान और भूल- भ्रातिका यंत्र है ।

 

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३२२


         सच पूछो तो प्रत्येक ब्यक्तिका तुच्छ अहं ही दूसरोंके ' 'वास्तविक या अवास्तव- विकट' ' चुटियोंको खोजना और उनके विषयमें बातचीत करना पसंद करता है - और इससे कुछ नही आता-जाता कि वे वास्तविक हैं या अवास्तविक; अहंको उनके विषयमें राय देनेका कोई अधिकार नहीं हैं, क्योंकि उसे सत्य दृष्टि या यथार्थ भाव नही प्राप्त है । वास्तवमें एकमात्र शांत, अनासक्त, धीर-स्थिर, सर्व-करुणामय और सर्व-प्रेममय आत्मा ही प्रत्येक जीवके बल और दुर्बलताको ठीक-ठीक देख सकता और उनका विचार कर सकता है ।

 

*

 

       हां, सब सही है । निम्र प्राणको दूसरोंकी कमियोंको ढूँढ्नेमें एक हीन और तुच्छ सुख मिलता है और इस तरह मनुष्य अपनी निजी तथा आलोचनाके विषय दोनों- की प्रगतिमें बाधा पहुँचाता है ।

 

*

 

         गपशप करनेकी वृत्ति सदैव ही एक बाधा होती है ।

 

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       जब साधक अपने प्रति होनेवाली साधारण मानवीय प्राणिक मांगोंके विरुद्ध अपने पथपर दृढ बना रहता है तो उसके विरुद्ध उन लोगोंके द्वारा ऐसी निंदाओं (पत्थर आदि कहना) का होना एकदम सामान्य बात है । परंतु इस बातसे तुम्हें विचलित नही होना चाहिये । साधारण प्राणिक मानव-प्रकृतिके पंकिल पथोंपर नरम और दुर्बल मिट्टी होनेकी अपेक्षा भगवान्के मार्गपर एक पत्थर होना कही अधिक अच्छा है ।

 

*

 

        वास्तवमें इस बातका कोई महत्व नही कि दूसरे तुम्हारे विषयमें क्या सोचते हैं, बल्कि महत्व इस बातका है कि तुम स्वयं क्या हों ।

 

*

 

      कभी-कभी दुर्भावनापूर्ण (उचित दा सुविचारित नही) आलोचना भी अपने कुछ पक्षोंमें सहायक हो सकती है, यदि कोई उसके अनौचित्यसे प्रभावित हुए बिना उसपर ध्यान दे सके ।

 

*

 

३२३


      स्वभावत: ही, प्रशंसा ओर निंदाका वह प्रभाव पंडू सकता है (मानव-स्वभाव लगभग अन्य किसी चीजकी अपेक्षा, यहांतक कि यथार्थ लाभ या हानिकी भी अपेक्षा कहीं अधिक इन चीजोंके प्रति संवेदनशील है), जबतक कि उसमें समता न स्थापित हों गयी हो अथवा किसी व्यक्तिके ऊपर इतना पूर्ण उसे विश्वास और प्रसन्नतापूर्ण निर्भरता न हो गयी हो कि प्रशंसा और निंदा दोनों उसके स्वभावके लिये सहायक हों । कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें योगके बिना भी इतना संतुलित मन होता हे कि वह निंदा- स्तुतिको शांतभावसे ग्रहण करता और बह जिस योग्य होता है उसका विचार करता

 

III

 

       दूसरोंको सहायता' करनेकी भावना अहंभावका ही एक सुदृम रूप है ! एकमात्र भगवान ही सहायता कर सकते हैं ! मनुष्य उनका यंत्र हो सकता है! परंतु तुमको सबसे पहले एक योग्य और यंत्र बनना  सीखना होगा !

 

*

 

      दूसरोंको सहायता करनेकी भावना अहंभावका एक भ्रम है । वास्तवमें जब श्रीमाताजी नियुक्त करतीं तथा अपनी शक्ति देती हैं केवल तभी मनुष्य सहायता कर सकता है और उस दशामें भी कुछ सीमाओंके भीतर ही कर सकता है ।

 

*

 

       समस्त परिवर्तन भीतरसे, भागवत शक्तिकी अनुभूत अथवा गुह्य सहायताके द्वारा आना चाहिये; वास्तवमें उसके प्रति अपना आंतरिक उद्घाटन होनेपर हीं मनुष्य सहायता ग्रहण कर सकता है, दूसरोंके साथ मानसिक, प्राणिक या भौतिक संपर्क होने- पर नहीं ग्रहण कर सकता ।

 

*

 

       निस्संदेह, यह सापेक्षिक और आशिक सहायता होती है, पर यह कभी-कभी उपयोगी होती है । सच्ची सहायता केवल अंतरसे भागवती शक्तिकी कियाके फलस्वरूप तथा पुरुषकी अनुमति होनेपर आ सकती है । निस्संदेह, यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो वास्तवमें सहायता करता है, यह नहीं सोचता कि वह सहायता कर रहा है । फिर सहायताके साथ यदि ' 'प्रभाव' ' स्थापित करनेका भाव जुड़ा हुआ हो तो वह प्रभाव मिश्रित हो सकता है और यदि यंत्र शुद्ध न हो तो सहायता और साथ

 

३२४


ही हानि भी पहुँचा सकता है ।

 

*

 

      हां, मानव चरित्रके साथ सर्वदा ऐसा ही होता है - मनुष्य पीछे कोई ऐसा अभिप्राय या कोई भावना रखकर एक-दूसरेकी सहायता करना चाहते हैं जो अहंभावसे उत्पन्न होती है ।

 

      हां, जब कोई किसी उच्चतर चेतनामें निवास करता है केवल तभी इससे भिन्न होता है ।

 

*

 

     माता-सदृश महत्त्वाकांक्षाकी वास्तविक त्रुटि - कम-से-कम जिस रूपमें यह उस (स्त्री) की तरह बहुतोंमें प्रकट होती है - यह है कि यह एक अहंजन्य क्यिाको, एक बड़ा पार्ट खेलने, अपने उत्पर निर्भरशील लोगोंको पाने, मातृवत् प्रतिष्ठा पाने आदि-आदिकी कामनाको छिपाये रखती है । मानव-परोपकारवादका अधिकांश वास्तवमें इसी अहं-आधारपर खड़ा होता है । यदि कोई इससे मुक्त हो जाय तो सहायता करनेका संकल्प विशुद्ध सहानुभूति तथा चैत्य भावकी कियाके रूपमें अपना यथार्थ स्थान पा सकता है ।

 

*

 

       तुम्हें '' के विचारोंके बिषयमें न तो अदिक परेशान होनेकी आवश्यकता है न उन्हें महत्त्व देनेकी । उनका एकमात्र सत्य यह है कि यदि कोई सावधान न हो तो साधनाकी क्रियाओंके अन्दर भी बड़ी आसानीसे प्राणिक मिलावट आ जाती है । इससे बचनेका एकमात्र उपाय है सब कुछ भगवान्की ओर मोड देना और भगवान्से ही सब कुछ आहरण करना और आसक्ति, अहंकार तथा कामनासे मुक्त हो जाना । दूसरे साधकोंके साथके अपने संबंधमें न तो कठोरता और रुक्षता होनी चाहिये और न आसक्ति और भाबुकतापूर्ण झुकाव ।

 

*

 

        मातृवत् भावनाका जहांतक प्रश्न है - इसे भी अन्य प्रत्येक चीजकी तरह रूपांतरित करना होगा । ये सभी संबंध जव अरूपांतरित होते हैं तो इनका खतरा यह होता है कि ये सूक्ष्म रूपमें अहंभावके सहायक हों सकते हैं । इससे बचनेके लिये, अपनेको महज एक यंत्र बना लेना होगा, पर यंत्र होनेका अहंकारतक वहां नही होना चाहिये, और फिर उसे अपने मूलस्रोतका ज्ञान होना चाहिये, उसे कार्यपर या किसी संबंधपर आग्रह नही करना चाहिये, बल्कि जव बह यह अनुभव कर सके कि वह अपेक्षित है तब उपयोगी होनेके लिये महज उसका अनुसरण करे । इसके अलावा, इस विषयमें

 

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भी उसे सावधान रहना चाहिये कि उसके द्वारा यथार्थ शक्तियोंके अतिरिक्त दूसरी कोई शक्ति न आवें, केवल वे ही आवें जो उच्चतर चेतना तथा सहायताके साथ सु- समंजस हों । यदि कोई इस भावना तथा इस सावधानीके साथ सर्वदा कार्य करे तो यदि भूलें हों भी जायं तो कोई हर्ज नही - वर्द्धमान चेतना उन्हें सुधार देगी और कही अधिक पूर्ण कियाकी ओर प्रगति करेगी ।

 

*

 

        निस्संदेह, दूसरोंकी सहायता करनेकी असुविधा यह है कि साधक उनकी चेतना तथा उनकी कठिनाइयोंके संपर्कमें आता है और फिर उसकी चेतना अधिक बहिर्मुखी भी हों जाती है ।

 

*

 

      हां, यह (किसी भी व्यक्तिके पथभ्रष्ट हों जानेपर उसके साथ सहानुभूति रखना) खतरनाक है, क्योंकि इससे तुम उस व्यक्तिको पथभ्रष्ट करनेवाली विरोधी शक्तिके संपर्कमें आ जाते हों और वह शक्ति तुरत तुम्हें भी स्पर्श करने, सुझाव देने तथा एक प्रकारके स्पर्शज या संक्रामक रोगके द्वारा भ्रष्ट करनेका प्रयत्न करती है ।

 

*

 

        सहानुभूति दिखानेपर तुम संपर्क प्राप्त करते हो और जो कुछ दूसरेमें है उसे ग्रहण करते हो -- अथवा तुम फिर अपनी शक्तिका कुछ अंश दे सकते या अपने भीतरसे जाने देते या खींच लेने देते हो जो दूसरेके पास चला जाता हे । वास्तवमें वह प्राणगत सहानुभूति है जिसका यह परिणाम होता है; शांत-स्थिर आध्यात्मिक या चैत्य शुभेच्छा इन प्रतिक्रियाओंके नही उत्पन्न करती ।

 

*

 

        परंतु, मुझे भय है, दूसरोंकी कठिनाइयोंको अपने ऊपर लेना किसीके भी लिये एक भारी बोझ होगा और इस पद्धतिकी फलोत्पादकतामें मुझे संदेह है । मनुष्य बहुत अधिक लाभदायी रूपमें जो कुछ कर सकता है वह यह है कि यदि उसके पास शक्ति- सामर्थ्य १ तो वह अपनी शक्ति-सामर्थ्य दूसरेको दे दे, यदि उसके पास शांति है तो दूसरेपर शांति बरसा दे आदि । यह कार्य बह अपनी शक्ति या शांति खोये बिना कर सकता है - यदि ऐसा समुचित ढंगसे किया जाय ।

 

*

 

३२६


    इस मामलेमें दो मनोभावोंका होना संभव है और इनमेंसे प्रत्येकके बारेमें कुछ कहा जा सकता हैं । '' के मनोभावके विषयमें बहुत कुछ कहा जा सकता है - सबसे पहले, जबतक किसी व्यक्तिकी अपनी निजी सिद्धि पूर्ण नही हों जाती, तबतक वह जो सहायता देगा वह सर्वदा थोडी संदिग्ध और अपूर्ण होगी और, दूसरे, अनुभवी योगी- योंने इतने अधिक बार जोरदार शब्दोंमें कहा है कि दूसरोंको सहायता देनेके लिये उनकी कठिनाइयोंको अपने ऊपर लें लेनेमें खतरा है । परंतु जो हो, पूर्णताके लिये प्रतीक्षा करना सर्वदा संभव नहीं है ।

 

*

 

      बिना हिचकिचाये मन और हृदय दोनोंमें दूसरेका मंगल चाहना ही सर्वोत्तम सहायता है जो मनुष्य दूसरेको दे सकता है ।

 

*

 

         यदि तुम्हारे पति अपने जीवनके संकटमय कालसे गुजर रहे हैं और अस्वस्थता भोग रहे हैं और उनके प्रति तुम्हें सहानुभूति है तो फिर भी उनके लिये सबसे अच्छा यही है कि तुम अपने-आपको शांत करो और संकटकाल पार करनेमें उन्हें सहायता देनेके लिये भगवान्को पुकारों । साधारण जीवनतकमें अशांति और अवसाद उस व्यक्तिके लिये अनुपयुक्त वातावरण पैदा करते हैं जो बीमार या कठिनाइयोंमेंसे होता है । एक बार जब तुम साधिका बन गयी तब, चाहे स्वयं तुम्हारे लिये हो अथवा जिन लोगोंके प्रति अभी भी तुम्हारी सहानुभूति है उन लोगोंको सहायता देनेके लिये हो, भागवत संकल्पशक्तिपर भरोसा रखने और ऊपरसे सहायताके लिये आह्वान करनेका सच्चा आध्यात्मिक मनोभाव ही सर्वदा सर्वोत्तम तथा अत्यत फलदायी पथ होता है ।

 

*

 

         तुमने भगवान्के हाथोंमें जो कुछ या जिस किसीको सौंप दिया है, उस वस्तु या मनुष्यके लिये अब न तो तुम्हारे अंदर कोई आसक्ति होनी चाहिये और न दुश्चिन्ता, बल्कि सब कुछ भगवानपर छोड़ देना चाहिये जिसमें कि जो कुछ सर्वोत्तम हों उसे बह करें ।

 

*

 

       यह बहुत अच्छा है कि जिस अवस्थाका तुम वर्णन करते हो वह स्थापित हो गयी है - यह एक बड़ी प्रगति है । प्रार्थनाओंकी जहांतक बात है, प्रार्थना करनेका कार्य

 

३२७


और जो मनोभाव वह ले आती है, विशेषकर दूसरोंके लिये की गयी निःस्वार्थ प्रार्थनाका कार्य, स्वयं तुम्हें उच्चतर दिव्य शक्तिकी ओर खोल देता है, यद्यपि जिसके लिये प्रार्थना की जाती है उस ब्यक्तिमें कोई तदनुसार परिणाम नहीं भी दिखायी देता । उसके विषयमें कोई भी सुनिश्चित बात नहीं कही जा सकतीं, क्योंकि परिणाम आवश्यक रूपसे उन व्यक्तियोंपर निर्भर करता है, इस यातपर निर्भर करता हैं कि आया वे खुले हैं या नहीं अथवा ग्रहणशील हैं या नहीं अथवा उनके अंदरकी कोई वस्तु प्रार्थनाद्वारा उतारी गयी किसी शक्तिको प्रत्युत्तर दे सकती है या नहीं ।

 

IV

 

       अपने संपर्कोंको सीमित करनेमें समर्थ होना अवश्य ही एक महान् साहाथ्य है, बशर्त्ते कि इसे अति दूरतक न खींचा जाय । जो हो, मैं यहां इतना कह १ कि सीमित संपर्कोंके होनेपर भी अवांछित लहरें भीतर घुस सकती हैं - यह सावधानताका एक उपाय है पर यह तुम्हें पूर्णत: सुरक्षित नहीं बना देता । दूसरी ओर, पूर्ण रूपसे अलग हो जानेपर मनुष्य दूसरे छोरपर पहुँच जाता है और उसके भी अपने खतरे हैं । सच पूछो तो ध्यान हटानेवाली, उद्विग्न करनेवाली, बहिर्मुखी बनानेवाली आदि-आदि ' 'वस्तु' ' से पूर्ण संरक्षण केवल तभी मिल सकता है जब कि अंतरमें चेतना वर्द्धित हो । इस तरह कुछ कालके लिये अपने अन्दर निमग्न हो जाना और संपर्कको सीमित कर देना एक सहायक उपाय हों सकता है यदि उसका व्यवहार विवेकपूर्ण तरीकेसे किया जाय ।

 

*

 

       यह सच है कि सभी परिस्थितियोंमें, यहांतक कि अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी, मनुष्यको आंतरिक स्थितिको बनाये रखनेका प्रयत्न करना चाहिये; पर उसका तात्पर्य यह नहीं है कि उस दशामें भी, अनावश्यक रूपसे, प्रतिकूल अवस्थाओं- को स्वीकार करना होगा जब कि उनको बने रहने देनेका कोई समुचित कारण न हों । विशेषत:, स्नायुमंडल और शरीर अत्यधिक श्रम नहीं सहन कर सकते,- मन भी तथा उच्चतर प्राण भी नहीं सह सकते; तुम्हारी थकावट एकमेव भागवत चेतनामें बने रहनेके श्रमके कारण आयी तथा साथ-ही-साथ अपनेको साधारण चेतनाके दीर्घ संपकोंके प्रति अत्यधिक खोले रखनेके कारण आयी । आत्मरक्षणकी कुछ मात्राकी आवश्यकता होती है जिसमें कि चेतना निरंतर सामान्य वातावरणके अन्दर नीचे या बाहरकी ओर न खींच जाय अथवा शरीरको उन कार्योमें जबर्दस्ती नियुक्त कर देनेके कारण थकावट न हो जो तुम्हारे लिये बिजातीय बन चुके हैं । जो लोग योगाभ्यास करते हैं बे बहुधा इन कठिनाइयोंसे बचनेका लिये एकांतकी शरण लेते हैं; यह यहां अनावश्यक है, परंतु साथ-ही-साथ तुम्हें इस प्रकारके निरर्थक श्रमके अधीन अपनेको

 

३२८


सर्वदा खींच ले आने देनेकी कोई आवश्यकता नहीं है ।

 

*

 

        तुम बिलकुल ठीक कहते हो । दूसरोंके साथ न मिलनेपर मनुष्य उस परीक्षणसे बच जाता है जिसे दूसरोंके साथका संपर्क चेतनाके ऊपर लादता है और इन परिस्थिति- योंमें प्रगति करनेका मौका खो देता है । जब मनुष्य केवल प्राणको प्रश्रय देनेके लिये, गपशप करने, प्राणिक क्यिाओं आदिका आदान-प्रदान करनेके लिये किसीसे मिलता- जुलता है तो वह आध्यात्मिक दृष्टिसे लाभदायक नही होता; परंतु सब प्रकारके मिलने- जुलने और संपर्कसे विरति भी वांछनीय नही है । जव चेतना सचमुच पूर्ण एकांतवास- की आवश्यकता समझती है केवल तभी ऐसा एकांतवास किया जा सकता है और उस दशामें भी वह एकांत पूर्ण तो हों सकता है पर अखंड नहीं हो सकता । क्योंकि अखंड एकांतवासमें मनुष्य विशुद्ध रूपमे आत्मनिष्ठ जीवन बिताता है और बाहरी जीवन- तक आध्यात्मिक प्रगतिको प्रसारित करने तथा पूर्णत: उसकी परीक्षा करनेका सुअवसर वहां नहीं होता ।

 

      यह अच्छी बात है कि जो कुछ घटित हुआ उसके प्रति तुम्हें शीघ्र समुचित मनो- भाव प्राप्त हो गया; यह चीज चेतनामें प्राप्त एक अच्छी प्रगतिको सूचित करती है ।

 

*

 

        बह (लोंगोंके साथ मिलना-जुलना, हंसना-बोलना, हंसी-मजाक आदि) एक प्रकारका प्राणिक प्रसरण है, यह प्राणिक सामर्थ्य नहीं हे - यह प्रसरण खर्चीला भी है । क्योंकि जब इस प्रकारका मिलना-जुलना होता है तो जो लोग प्राणिक रूपसे प्रबल होते हैं वे उससे शक्ति पाते हैं पर जो प्राणिक रूपसे दुर्बल होते हैं वे अपनी शक्ति खो देते और अधिक कमजोर हो जाते हैं ।

 

*

 

        मैं समझता हूँ, सबके ऊपर लागू होने योग्य कोई नियम नही बनाया जा सकता । कुछ. ऐसे लोग हैं जो प्राणके फैलावकी प्रवृत्ति रखते हैं, दूसरे लोग ऐसे होते हैं जो एकाग्र- ताकि प्रकृति रखते हैं । ये दूसरे प्रकारके लोग अपने निजी प्रयत्नकी तीव्रताके अन्दर तल्लीन होते हैं और निश्चय हीं उससे ये प्रगतिकी एक महान् शक्ति संग्रह करते हैं और शक्तिके उस व्यय और क्षतिसे बच जाते हैं जो अधिक संपर्क रखनेवाले लोगोंको प्राय. हीं उठाना पड़ता हैं; फिर साथ ही दूसरोंकी प्रतिक्यिाओंकी ओर ये कम खुले होते हैं ( यद्यपि इनसे सर्वथा वचा नहीं जा सकता) । दूसरे लोगोंको, जो कुछ उनके अन्दर है, उसको प्रदान करनेकी आवश्यकता होतीं है और वों जो कुछ उनके पास है उसका

 

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उपयोग करनेसे पहले पूर्ण पूर्णत्व प्राप्त करनेके लिये प्रतीक्षा नही कर सकते । यहां- तक कि उन्हें प्रगति करनेके लिये देने और लेनेकी आवश्यकता हों सकती हैं । बस, एक हीं बात है कि उन्हें दोनों प्रवृतियोमें समतोलता बनाये रखनी चाहिये, जितना अधिक वितरित करनेके लिये बे एक तरफसे खुले हैं उतना हीं अधिक अथवा उससे भी अधिक ऊपरसे ग्रहण करनेके लिये एकाग्र होना चाहिये ।

 

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           '' का प्राण बहुत प्रबल और विस्तरणशील है, अतएव यह बिलकुल स्वसा भाविक हैं कि यदि वह किसीको पसंद करे तो वह उसके साथ मिलकर उसपर इस प्रकार- का प्रभाव डाल सकता है । परंतु मैं नहीं समझता कि जो कुछ वह देता या ग्रहण करता है उसके विषयमें वह सचेतन है; यह अधिक अपने-आप होनेवाले कार्यके जैसा है । वह केवल देनेका ही अभ्यासी नही है यद्यपि, एक प्रबल आत्मलीन प्राणके विपरीत एक प्रबल विस्तारशील प्राणके लिये, ग्रहण करने और देंने दोनोंकी आवश्यकता होती है!

 

*

 

       यह एक स्वभावका विषय है । कुछ लोग कहीसे जो कुछ आता है उस सबके प्रति चैत्य रूपमें और प्राणिक रूपमें संवेदनशील और प्रतिक्रियात्मक होते हैं; दूसरे लोग ठोस स्तायुवाले तथा आक्रमणके लिये प्राचीर-वेष्टित होते. हैं । यह बिलकुल ही प्रबलता या दुर्बलताका प्रश्न नहीं है । पहली कोटिके लोगोंको जीवन तथा जीवनके प्रति उत्तरका एक महत्तर बोध होता है; वे जीवनमें अधिक दुःख भोगते हैं और उससे (जीवनसे) अधिक प्राप्त करते हैं । यह ग्रीक और रोमन लोगोंके बीचका अंतर है । अहंकारके बिना भी यह विभेद बना रहता है, क्योंकि यह स्वभावका अंतर है । योग- मे प्रथम कोटिके लोग प्रत्येक चीजको प्रत्यक्ष रूपमें अनुभव करने तथा घने अनुभवके द्वारा ब्योरेके साथ प्रत्येक चीजको जाननेमें अधिक सक्षम होते हैं; यही उनकी महान् सुविधा है । दूसरे लोगोंको जाननेके लिये मनका व्यवहार करना पड़ता है और उनकी पकड़ कम घानी होती है ।

 

*

 

       यह सही है कि अधिक घनिष्ठ रूपमें दूसरोंसे मिलने-जुलनेसे आंतरिक स्थिति नीचे गिर जाती है, यदि उनमें समुचित मनोभाव न हों और वे बहुत अधिक प्राणमें निवास करें । सभी संपर्कोंके तुम्हें बस यही करना है कि तुम अपने भीतर बने रहो, अनासक्त भाव बनाये रखो और कर्म तथा दूसरोंकी गति-विधियोंमें जो कठिनाइयां

 

३३०


उठे उनसे अपनेको उद्विग्न मत होने दो, बल्कि तुम स्वयं यथार्थ वृत्ति बनाये रखो । दूसरोंको ' 'सहायता' ' करनेकी कामना द्वारा आक्रांत मत होओ -- स्वयं अपनी आत- रिक स्थितिमें रहते हुए यथार्थ कार्य करो और यथार्थ बात बोलो तथा उनके पास भग- वान्के यहांसे सहायता आने दो । कोई भी व्यक्ति वास्तवमें सहायता नहीं कर सकता - एकमात्र भागवत कृपा- शक्ति ही कर सकती है ।

 

*

 

        यह (सामंजस्य, आनन्द और प्रेम) तुममें है और जब यह ऐसा होता है वाता- वरणमें फैल जाता है -- परंतु स्वभावत: ही केवल वे ही लोग उसमें हिस्सा बंटा सकते हैं जो खुले हुए और प्रभावके प्रति संवेदनशील हैं । फिर भी जिसके अंदर शांति या प्रेम है ऐसा प्रत्येक व्यक्ति वातावरणमें उसके बढ़ानेके लिये एक सहायक प्रभाव बन सकता है ।

 

*

 

       जब कोई मनुष्य कुछ समय बातचीत आदि करते हुए दूसरेके साथ रहता है, तब वहां सदा थोड़ा प्राणिक आदान-प्रदान होता है, जबतक कि वह दूसरेसे जो कुछ सहज रूपमें यासज्ञान रूपमें आता है उसका परित्याग नहीं कर देता । यदि कोई व्यक्ति संवेदनशील हों तो दूसरेकी ओरसे एक प्रबल छाप या प्रभाव पंडू सकता है । फिर, जब वह किसी दूसरे व्यक्तिके पास जाता है तो यह संभव है कि बह उस प्रभावको उसकी ओर हस्तांतरित कर दे । यह एक ऐसी चीज है जो बराबर घटित हो रही है । परंतु यह चीज हस्तांतरित करनेवालेके ज्ञानके बिना घटित हो रही है । जब मनुष्य सचेतन होता है जो वह इसे घटित होनेसे रोक सकता है ।

 

*

 

       दूसरे व्यक्तिके साथ बात करके अवसन्न हो जाना किसी व्यक्तिके लिये बिलकुल संभव है । बातचीत करनेका अर्थ है एक प्रकारका प्राणिक आदान-प्रदान, सो ऐसा सदा घटित हो सकता हैं । आया एक विशेष प्रसंगमें उन्होंने ठीक-ठीक निरीक्षण किया है या नही यह दूसरा विषय है ।

 

*

 

        हां, यही है कसौटी । जब कोई अन्य लोगोंके साथ व्यवहार करता है तो सर्वदा ही उनकी ओर चेतनाका एक प्रसारण हों सकता है अथवा चेतनामें उनको ग्रहण किया

 

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जा सकता है, पर उसका तात्पर्य आसक्ति नहीं है - आसक्तिके लिये तो कुछ अधिक चीज आवश्यक है, व्यक्तिके ऊपर उसके प्राणकी एक पकड़ या उसके प्राणपर ब्यक्तिकी पकड़ आदि आवश्यक है ।

 

*

 

        वास्तवमें मुख्य रूपसे तुम्हें एक आंतरिक सतर्कता रखनी चाहिये । उसके साथ-ही-साथ यदि तुम भडिके अन्दर बेचैनी अनुभव करते हों तो उससे बचना अधिक अच्छा हे - सिवा संगीतके समय, यदि तुम अपनेको सुरक्षित अनुभव करो । ऐसे लोगोंकी भिड़, जो विशुद्ध रूपमें सामाजिक आदान-प्रदानमे व्यस्त रहते हैं, निश्चित रूपसे चेतनाके एक निम्रतर स्तरपर होती है जिसमें अवांछनीय शक्तियां घूम-फिर सकती हैं, यदि वहां कोई उनकी ओर खुला हुआ हो, और जो व्यक्ति चेतनाकी रोसी स्थितिमें है जो उच्चतर चीजोंकी ओर उद्घाटित तो है पर अभीतक सुदृढ़ तथा आत्म- साहाथ्यकारी शांतिमें स्थापित नहीं हुआ है तो वह उससे अलग रहनेपर ही अधिक सुरक्षित होता है ।

 

       साधनामें यह माना जाता है कि मनुष्य बाहरी शक्तियोंको अपनेसे दूर रखेगा अथवा कम-से-कम उन्हें अपने आर आक्रमण नहीं करने देगा । यदि मनुष्य किसी कठिनाईका समुचित भावके साथ सामना करता और उसे जीत लेता है तो स्वभावत: ही वह प्रर्गाते करता है, परंतु यह सचेतन सत्ताके अन्दर विरोधी शक्तियों या प्रभावोको घुसने देनेसे भिन्न वस्तु है । किसी व्यक्तिको उन्हें निमंत्रित नही करना चाहिये,-त्रै तो बिना निमंत्रणके ही वैसा करनेके लिये अत्यंत तत्पर रहते हैं । मनुष्य सभी शक्तियों- को, यहांतक कि बुरीसे बुरी, अत्यंत अंधकारपूर्ण और घोर विरोधी शक्तियोंका भी निरीक्षण कर सकता और उनके विषयमें सचेतन हों सकता है, बशर्त्ते कि वह सावधान रहे और उनकी सूचनाओंपर सब प्रकारसे विश्वास करना या उनका पोषण करना अस्वीकार कर दे तथा चेतना और प्रकृतिके अन्दर एक स्थान पानेकी उनकी समस्त मांगका प्रत्याख्यान कर दे । परंतु सब लोग प्रारंभिक अवस्थाओंमें ऐसा नही कर सकते ।

 

           चेतनाकी विच्छित्रता तथा साधना दो चीजे हैं जो एक साथ नहीं चल सकती । साधनामें मनुष्यको मन तथा उसके सभी कार्योंपर संयम स्थापित करना होता है, विच्छित्रतामें, इसके विपरीत, मनुष्य मनद्वारा अधिकृत और अपहृत होता है । वह अपने मनको अपने विषयपर नही लगा सकता । यदि मन सर्वदा विच्छिन्न रहे तो तुम पढ्नेमें या अन्य किसी कार्यमें एकाग्र नहीं हो सकते, तुम किसी कार्यके योग्य नही हो सकते, संभवत: स्त्रियोंके साथ बातचीत करने, मिलने-जुलने, झूठा प्यार दिखाने तथा इसी प्रकारके धधोंके सिवा और कुछ नहीं कर सकते ।

 

*

 

३३२


      तुम यह समझनेमें भूल करते हो कि अ', '', और '' की साधना सभी दिशा- ओमें उनके मनके दौड़नेके कारण क्षतिग्रस्त नही होती । यदि उन्होने एकाग्रभावके साथ योगसाधना की होतीं तो वे पथपर बहुत दूर आगे चले गये होते - यहांतक कि '', जिसमें प्रभूत ग्रहणशीलता है और जो प्रगति करनेके लिये उत्सुक है, जितना वह आगे बढ़ा है उससे तीनगुना अधिक आगे बढ़ गया होता । परंतु तुम्हारी प्रकृति, जो कुछ वह करती है उसमें, बड़ी तीव्र है और इसलिये सीधे रास्तेकी पकड़ लेना उसके लिये बिलकुल स्वाभाविक पंथ था । स्वभावत: ही, जब एक बार उच्चतर चेतना स्थापित हो चुकी और प्राण तथा शरीर दोनों साधनाके हेतु स्वयं अपने-आप चलनेके लिये पर्याप्त रूपमे तैयार हो गये तो अब कठोर तपस्याकी आवश्यकता नहीं रही । परंतु जबतक ऐसा नही हों जाता तबतक हम इसे बहुत उपयोगी और सहायक तथा बहुतसे प्रसंगोंमें अनिवार्य समझते हैं । परंतु, जब प्रकृति इच्छुक नहीं होती तो हम इसके लिये आग्रह नहीं करते । मैं यह भी देखता हूँ कि जो लोग सीधी धारामें आ जाते हैं, ( अभी ऐसे लोग बहुत नहीं हैं), वे स्वयं अपने ही मनको विच्छिन्न करनेवाले इन संबंधों और धंधोंको त्यागनेकी प्रवृति ग्रहण कर लेते हैं तथा अपने-आपको पूर्णत: साधनामें झोंक देते हैं ।

 

*

 

       हां, निश्चय ही, विच्छित्रता एक आंतरिक किया है । परंतु कुछ बाहरी चीजे चेतनाके विच्छिन्न होनेमें सहायता करती हैं और यदि कोई व्यक्ति '' की तरह यह कहता है कि '' की तरह अपने संगी-समाधियोंके साथ इधर-उधर भटकनेसे उसकी चेतना विच्छिन्न नही होती तो मैं कहूँगा कि वह या तो सच नहीं बोलता अथवा अपने- आपको धोखा देता है । यदि कोई सर्वदा आंतरिक चेतनामें रहे तो बाहरी कार्य करते रहनेपर भी उसका मन विच्छिन्न नही हो सकता - अथवा, यदि वह सब समय और सब काम करते हुए भगवान्के विषयमें सज्ञान रहता है तो फिर चेतनामें विच्छिन्न हुए बिना वह समाचारपत्र पट सकता या बहुत अधिक पत्र-व्यवहार कर सकता है । परंतु उस स्थितिमें भी, यद्यपि चेतनामें कोई विच्छित्रता नही होती, फिर भी अखबार पढ़ते समय या पत्र लिखते समय उसकी चेतनाकी तीव्रता उस समयकी अपेक्षा कम घानी होती है जब वह अपना कोई भी भाग बिलकुल बाह्य वस्तुओंमें नही संलग्न करता । वास्तवमें जब चेतना एकदम सिद्ध हो जाती है केवल तभी यह विभेद दूर होता हे । परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि मनुष्यको बाहरी कार्य बिलकुल नहीं करना चाहिये, क्योंकि तब उसे दोनों चेतनाओंको युक्त करनेकी शिक्षा नहीं प्रान्त होतीं । परंतु हमें यह स्वीकार करना चाहिये कि कुछ चीजों चेतनाको अवश्य विच्छिन्न करतीं या उसे नीचे गिराती या उसे दूसरोंकी अपेक्षा अधिक बहिर्मुखी बनाती हैं । विशेषकर किसी व्यक्तिको स्वयं अपने-आपको यह धोखा नहीं देना चाहिये या अपने-आपसे यह झूठा दिखावा नहीं करना चाहिये कि उसकी चेतना उनके द्वारा विच्छिन्न नही होती जब की

 

३३३


वास्तवमें वह होती है । उन लोगोंका जहांतक प्रश्न है जो दूसरे लोगोंको योगके प्रति आकर्षित करना चाहते हैं, मैं कहूँगा कि यदि वे अपने-आपको आंतरिक लक्ष्यके अधिक निकट खींच लें जाय तो वह एक बहुत अधिक फलदायक क्रिया होगी । और अतमें वह चीज बहुतसे पत्र लिखनेकी अपेक्षा बहुत अधिक लोगोंको और कही अधिक अच्छे ढगसे ' 'खींच' ' लें आयगी ।

 

*

 

       यही कारण है कि हम बाहरके रिश्तेदारों आदिके साथ पत्र-व्यवहार करनेके पक्षमें नहीं हैं । जबतक तुम बाहर या नीचे उनके अपने स्तरपर नही आ जाते जो कि स्पष्ट ही योगकी दृष्टिसे वांछनीय नही है, तबतक उनके साथ संपर्कका कोई बिंदु नही प्राप्त होता । मैं नहीं समझता कि पत्रिके द्वारा बहुत अधिक अंतः प्रेरणा भेजी जा सकती है क्योंकि उनकी चेतना बिलकुल ही तैयार नही है । शब्द अधिकसे अधिक उनके मनोंके केवल ऊपरी भागको छू सकते हैं; वास्तवमें महत्त्वपूर्ण है शब्दोंके पीछे विद्यमान कोई वस्तु, पर उसके प्रति वे उद्घाटित नही हैं । यदि उनमें आध्यात्मिक वस्तुओंके प्रति पहलेसे कोई रुचि हो तो बात अलग है । पर उस हालतमें भी बहुधा यह कहीं अधिक अच्छा है कि उन्हें इस मार्गमें खीचनेकी जगह उन्हें अपने निजी गुरुका अनुसरण करने दिया जाय ।

 

*

 

       यही कारण है कि इन चीजों (संबंघियोंके साथ पत्रव्यवहार) को बन्द कर देना अधिक अच्छा है । जो लोग अपने लोगोंके साथ पत्रव्यवहार जारी रखते हैं वे तुम्हारी तरह इस बातको नहीं अनुभव करते, पर, जो हों, यह एक तथ्य है कि वे उन प्रकंपनोंको बनाये रखते तथा बल प्रदान करते हैं जो उनके प्राणमें पुरानी शक्तियोंको सक्रिय बनाये रखते एवं अवचेतनामें उनका संस्कार बनाये रखते हैं ।

 

*

 

         प्रत्येक पत्रका अर्थ है उस व्यक्तिके साथ एक प्रकारका आदान-प्रदान, जो उसे लिखता है -- क्योंकि शब्दोंके पीछे कोई चीज रहती है, उसके व्यक्तित्वका कुछ अंश अथवा पत्र लिखते समय उसने जिन शक्तियोंको उत्पन्न किया या जो शक्तियां उसके चारों ओर थी उन सबका कुछ अंश होता है । हमारे विचार और भावनाएं भी शक्तियां हैं और दूसरोंपर प्रभाव डाल सकती हैं । मनुष्यको इन शक्तियोंकी गतिविधिके विषयमें सचेतन होना होता है और तभी वह अपनी मानसिक और प्राणिक रचनाओंको संयमित कर सकता तथा दूसरोंकी वैसी रचनाओंसे प्रभावित होना बन्द कर सकता है ।

 

*

 

३३४


    हां, किसीके बुरे और अच्छे बिचार दूसरोंपर बुरा या अच्छा प्रभाव डाल सकते हैं, यद्यपि वे बराबर नही डालते क्योंकि बे काफी शक्तिशाली नहीं होते -- पर फिर भी वही उनकी प्रवृति होती है । इसलिये जिन लोगोंको ज्ञान प्राप्त है उन्होंने सर्वदा हीं यह कहा है कि इस कारण दूसरोंके बुरे विचारोंसे हमें बचना चाहिये । यह सच है कि मनकी साधारण स्थितिमें दोनों प्रकारके बिचार एक समान मनमें उठते हैं,, परंतु मन और मानसिक संकल्प-शक्ति दोनों सुविकसित हों तो मनुष्य अपने विचारों तथा साथ हीं अपने  संयम स्थापित कर सकता है और बुरे विचारोंको अपनी क्रीड़ा करनेसे रोक सकता है । परंतु साधकके लिये यह मानसिक संयम हीं पर्याप्त नहीं है । उसे अचंचल मनको पाना होगा और मनकी नीरवतामें केवल भागवत विचार-शक्तियों अथवा अन्य दिव्य शक्तियोंको ग्रहण करना होगा और उनका क्रीड़ा-क्षेत्र और उपकरण बनना होगा !

 

      मनको निश्चल-नीरव बनानेके लिये इतना हीं पर्याप्त नही है कि ज्योंही कोई विचार आये उसे पीछे फेंक दिया जाय, वह तो केवल एक गौण क्रिया हो सकती है । मनुष्यको सभी विचारोंसे पीछे हट आना होगा और उनसे पृथक् हों जाना होगा, एक नीरव चेतना पानी होगी जो विचारोंको उनके आनेपर निरीक्षण करती छए, पर स्वयं अपने-आप विचार नही करती अथवा विचारोंके साथ तदात्म नही हो जाती । विचारों- को एकदम बाहरी चीजोंके रूपमें अनुभव करना होगा । वास्तवमें ऐसा करनेपर ही विचारोंका त्याग करना या मनकी स्थिरताको भंग किये बिना उन्हें गुजर जाने देना अधिक आसान होता है ।

 

         हर्ष या शोकसे, प्रसन्नता या अप्रसत्रतासे, लोग जो कुछ कहते या करते हैं उससे या किसी भी बाहरी चीजसे उद्विग्न न होना हीं वह चीज है जिसे योगमें समताकी रइस्थति, सभी बातोंमें समभाव कहते हैं । इस स्थितिको प्राप्त करनेमें समर्थ होना साधनाके लिये अत्यत महत्त्वपूर्ण है । मानसिक अचंचलता और नीरवताको तथा साथ हीं प्राणिक अचंचलता और नीरवताके आनेमें यह सहायता करता है । निश्चय ही इसका अर्थ यह है कि स्वयं प्राण और प्राणिक मन भी अब नीरव और अचंचल होने लगे हैं । चिंतनशील मन भी अवश्य अनुगमन करेगा ।

 

*

 

        किसीके विषयमें बातचीत करना बहुत अच्छी तरह उसपर प्रभाव डाल सकता है, यह प्राय. प्रभाव डालता हैं, क्योंकि यह बिचार या भावनाका एक शक्तिशाली रचना हों सकता है जो, इस प्रकार मूर्त्ति होकर, उसके पास पहुँच सकती है । पर मैं यह नही मानता कि महज यांत्रिक विचार या कु-विरचित कल्पनाएं ऐसा कर सकतीं हैं - कम-से-कम ऐसा बहुत कस ही हो सकता है और इसके लिये असाधारण अवस्था- ओंकी आवश्यकता होती है अथवा शक्तियोंकी एक ऐसी क्रीड़ा होनी चाहिये जिसमें एक तुच्छ वस्तुका भी मूल्य होता है ।

 

*

 

३३५


       नाभिसे नीचेका अंश निम्रतर प्राण है,-तुम्हारे अन्दर यह दूसरोंके अन्दरके उसी भागकी अवस्थाके प्रति अथवा संभवत: उनकी सामान्य अवस्थाके भी प्रति बहुत संवेदनशील हो गया है - जिससे कि यह एक प्रकारसे उसके साथ एकरूप हो जाता है या एक समुचित प्रतिक्यिा करता है । विकासके अन्दरकी यह एक अवस्था है जिसे अतिक्रम कर जाना होगा, क्योंकि निम्रतर प्राणको भी अपने अन्दर पूर्ण शांति पानी होगी और यह यदि दूसरोंकी अवस्थाको अनुभव भी करे तो उसे बिना किसी प्रति- क्यिा या तादात्म्यके अनुभव या ज्ञानके एक कार्यके रूपमें इसे करना होगा ।

 

*

 

       मेरी समझमें यह उस ब्यक्तिपर तथा उसके विषयमें तुम्हारी प्रतिक्रियाके ऊपर निर्भर करता है । यदि वह कामवासनाका प्रकंपन देता है या वह प्राणिक ऊर्जाका एक प्रयोगकर्त्ता है, तो उसकी ओर उद्घाटित होना अच्छा नहीं होगा । परंतु साधारण उपरितलीय आदान-प्रदानमें मनुष्य कोई चीज नहीं भी खो सकता अथवा जो कुछ खो जाता हां वह इतना कम होता है और इतने स्वाभाविक रूपमें उसकी मूर्त्ति हो जाती है कि उससे कुछ आता-जाता नहीं ।

 

*

 

      यह बिलकुल संभव है कि वह अचेतन रूपसे (प्राणिक शक्ति) खींचता हों, क्यों- कि वह प्राणिक रूपसे दुर्बल है और जो लोग प्राणिक रूपसे दुर्बल होते हैं वे अचेतन रूपसे और सहज-स्वाभाविक रूपमें अवश्य दूसरोंसे खिचते हैं ।

 

*

 

          जब लोग परस्पर मिलते-जुलते हैं तो उस समय प्राणिक शक्तियोंका कुछ आदान- प्रदान होता है जो बिलकुल अनिच्छापूर्वक होता है...... । शक्ति-शोषण एक विशेष व्यापार है - एक व्यक्ति ऐसा होता है जो दूसरोंकी प्राणशक्तिपर जीता है और उनके मूल्यपर फलता-फूलता है ।

 

*

 

        लोगोंने इस '' को देखनेके बाद जो थकान अनुभव की यह शक्ति-शोषणका एक चिह्न है, पर बहुत बार ऐसा अनुभव होता नहीं, पर मोटे तीरपर उसका एक बादका प्रभाव होता है । स्नायु धीरे-धीरे दोषपूर्ण हो जाती हैं - जिसे स्नायविक आवरण कहते हैं वह कमजोर हो जाता है अथवा किसीन्य-किसी रूपमें प्राणशक्ति दुर्बल हो

 

३३६


जाती है और एक असामान्य स्थितिमें - उत्तेजित होने और चिड़चिड़ी होनेकी स्थितिमें जा पहुंचती है । ऐसे बहुतसे तरीके हैं जिनसे वह प्रभाव प्रकट होता है । काम- शक्तिशोषण एक अलग ही बात है - कामजनित आदान-प्रदानमें सामान्य बात है देना और लेना, पर कामशक्तिशोषक दूसरेके प्राणको खा जाता है और कुछ भी नहीं देता या बहुत थोड़ा देता है ।

 

*

 

              उस सबकी तरह इतना सावधान रहना आवश्यक नहीं है । साधारण प्राणिक आदान-प्रदान हलके प्रकारके होते हैं । कोई भी व्यक्ति दूसरेके प्राणका आहरण नही कर सकता, और इसका बहुत यथार्थ कारण यह है कि यदि ऐसा हो तो जिस ब्यक्तिका प्राण अपहृत हुआ था वह मर जायगा । निःसंदेह यह संभव है कि कोई व्यक्ति दूसरेकी प्राणशक्तिको इस भांति चूस ले कि वह शिथिल या दुर्बल या मुरझाया हुआ रह जाय, पर वास्तवमें रक्तशोषक प्रेत जैसे लोग ही ऐसा करते हैं । यह भी संभव है कि कोई व्यक्ति अपनी प्राणशक्तियोको इतना अधिक दे डाले कि वह स्वयं कमजोर हो जाय या शक्तिको निःशेष कर दे; यह ऐसी बात है जो नही होनी चाहिये,-वास्तवमें जो लोग यह जानते हैं कि वैश्व प्राणशक्तिसे कैसे आहरण किया जाता है या निर्बाध आहरण कर सकते हैं और अपनी प्राण-शक्तियोंको फिरसे भर सकते हैं, केवल वे ही मुक्त रूपसे दे सकते हैं । अवश्य हीं सब लोग कुछ हदतक आहरण करते हैं, अन्यथा वे जीवित नहीं रहते, क्योंकि प्राणिक ऊर्जाका व्यय निरंतर हो रहा है और उसे फिरसे भरना होता है; परंतु अधिकांश लोगोंमें आहरण करनेकी क्षमता सीमित होती है और बिना थकावटके देनेकी क्षमता भी सीमित होती है ।

 

       परंतु आदान-प्रदानकी सामान्य क्रियाएं क्षतिशून्य होती हैं, बशर्त्ते कि उन्हें साधारण सीमाओंके अधीन रखा जाय । साधनामें जो चीज कठिनाई उत्पन्न करती है वह यह है कि मनुष्य आसानीसे अवांछित प्रभावोको खींच सकता या उन्हें दूसरोंपर प्रेषित कर सकता है । यही कारण है कि विशेष अवस्थाओंमें वार्तालाप, मेल-जोल आदिको सीमित करनेका बहुधा अनुमोदन किया जाता है । परंतु सच्चा उपाय है अंतरमें सचेतन होना, किसी अवांछनीय आक्रमण या प्रभावको जानना तथा उसका प्रत्याख्यान करनेमें समर्थ होना, बातचीत करने, मिलने-जुलने आदिके समय अपने चारों ओर रक्षाकवच बनाये रखनेमें सक्षम होना तथा केवल उसी वस्तुको भीतर घुसने देना जिसे मनुष्य स्वीकार कर सके और अन्य किसी चीजको घुसने न देना; इसके अतिरिक्त यह माप कर सकना कि कौनसी वस्तु मनुष्य सुरक्षित रूपमें दे सकता है और कौनसी चीज नहीं, दे सकता । जब मनुष्यको चेतना और अभ्यास होता है तो यह क्यिा लगभग स्वाभाविक बन जाती है ।

 

*

 

३३७


             नही, लोग इन चीजोंके विषयमें सचेतन नही होते, केवल थोडेसे लोग होते हैं । प्राणिक आदान-प्रदान तो होता है, पर वे इस बातको नही जानते - क्योंकि वे बाह्य (शरीर) मनमें निवास करते हैं और ये चीज़ें पीछेकी ओर घटित होती हैं । यदि वे आदान-प्रदानके बाद अधिक स्फूर्त्ति या अवसत्रता  थकावट अनुभव भी करते हैं तो वे इसका कारण बातचीत या संपर्कको नही मानते, क्योंकि आदान-प्रदान अचेतन होता है; जिस बाह्य मनमें वे रहते हैं वह इस विषयमें सचेतन नहीं होता ।

 

*

 

       इस (प्राणिक आदान-प्रदानके विषयमें सचेतन होने) की उपयोगिता निर्भर करती है शांतिपर आधारित एक आंतरिक शक्तिके विकासपर, जो शक्ति इन चीजोंपर क्रिया करेगी और इन्हें रोक देगी । जबतक मनुष्य अचेतन होता है तबतक अज्ञानाव- स्थामें वह उस क्यिामेंसे गुजरता है और तब चक्रसे बाहर जानेकी कोई संभावना नही होती, क्योंकि तब उसे कोई ज्ञान नहीं होता । सत्ताके अन्दर एक वर्धनशील आंतरिक विकासके साथ चेतनता आती है जो शांतिको, मुक्तिको एक आवश्यक वस्तु बना देती है - उसके साथ-साथ मनुष्य एक नवीन चेतनाकी एक उच्चतर शक्तिकी ओर खुलता है जो प्राणिक आदान-प्रदानका अंत कर देती है और प्राणिक तथा मानसिक जीवन- के लिये एक नवीन स्थितिका निर्माण करती है । यदि कोई वर्द्धित संवेदनशीलताके आते ही रुक जाता है और अधिक आगे नहीं बढ़ता तो अवश्य ही उसका कोई समुचित उपयोग नहीं रह जाता । ' ' और '' के जैसे कुछ लोग हैं जो 'गुल्म' ज्ञानमें इतना तल्लीन हो गये कि बे वहीं रुककर चक्कर काटने लगे और सब प्रकारकी भूलें करने लगे, क्योंकि आध्यात्मिक ज्योति उनमें नही थी । मनुष्यको वहां रुक नहीं जाना चाहिये, बल्कि आगे बढ़ जाना और परे आध्यात्मिक चेतनातक चले जाना चाहिये तथा उस महत्तर ज्योति, शक्ति और स्थितिको पाना चाहिये जिसे वह चेतना ले आती है!

 

*

 

      मैं नहीं समझता कि लोग इस गुह्य .व्यापारके विषयमें तनिक भी सज्ञान होते हैं । दौदेत  के जैसे कुछ लोग शक्तियोंके खर्च होने या फेंक जानेंका निरीक्षण कर सकते हैं, पर खींच जाने या दूसरोंके ऊपर उनके प्रभावको नहीं देख सकते । मानसिक आदान-प्रदानकी भावना सुपरिचित चीज हे, यद्यपि केवल उपरितलीय प्रकारके आदान-प्रदानको हीं लोग जानते हैं, मनके ऊपर मनके नीरव कार्यको नही जानते जो सर्वदा चलता रहता है, परंतु, प्राणिक संघातोंको केवल थोडेसे गुह्यविद्या- विशारद ही जानते हैं । यदि कोई बहुत सचेतन हो जाय तो वह अन्दर और चारों ओरसे काम करनेवाली शक्तियों, जैसे हर्ष या अवसाद या क्रोधकी शक्तियोंके विषयमें

 

३३८


सज्ञान हो सकता है ।

 

       अवश्य ही एक सुसंस्कृत और सुशिक्षित मनुष्यकी प्राणिक शक्ति तथा एक अनगढ़ और अज्ञ मनुष्यकी प्राणिक शक्तिके बीच भेद होना ही चाहिये । यदि और कुछ नही तो, उसकी प्राणशक्तिमें कही अधिक परिमार्जन और सूक्ष्मता तो होगी हीं और इसीलिये ऊर्जामें भी होगी । यदि अत्यधिक मद्यपान किया जाय तो वह ऊर्जाके मूल तत्त्व और गुणपर प्रभाव डालता है, पर संभवत. संयमित मद्यपान और धूम्रपान- का प्रभाव कम दिखायी देने लायक होगा । मैं नही समझता कि साधारण जीवनमें लोग स्पष्ट रूपमें देखते हैं, पर उन्हें बहुधा एक प्रकारकी सामान्य धारणा होती है जिसकी वे व्याख्या या विशेष वर्णन नहीं दे सकते ।

 

३३९

 









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