Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
तीसरा अध्याय
आधुनिक मत
सायणने वेदकी कर्मकाण्डपरक व्याख्यापर जो अंतिम प्रामाणिकताकी मुहर लगा दी थी उसे कई शताब्दियों बाद एक विदेशी संस्कृतिकी वेदोंके प्रति जिज्ञासाने आकर तोड़ा । वेदकी प्राचीन घर्मपुस्तफ उस पाण्डित्य के हाथमें आयी जो परिश्रमी, विचारमें साहसी, अपनी कल्पनाकी उड़ानमें प्रतिभाशाली, अपने निजी प्रकाशोंके अनुसार सच्चा, परन्तु फिर भी प्राचीन रहस्यवादी कवियोंकी प्रणालीको सझनेके अयोग्य था । क्योंकि यह उस पुरातन स्वभावके साथ किसी प्रकारकी भी सहानुभूति नहीं रखता था, वैदिक अलंकारों और रूपकोंके अंदर छिपे हुए विचारोंको समझनेके लिये अपने वैदिक या आत्मिक वातावरणमें इसके पास कोई मूलसूत्र नहीं था । इसका परिणाम दोहरा हुआ है, एक ओर तो वैदिक. व्याख्याकी समस्याओंपर जहां अधिक स्वाघीनताके साथ वहाँ अघिक सूक्ष्मता, पूर्णता और सावघानताके साथ विचार और दूसरी ओर इसके .बाह्य. भौतिक अर्थकी चरम अतिशयोक्ति तथा इसके असली. और आन्तरिक रह्स्यका अविकल विलोप ।
अपने विचारोंकी साहसिक दृढ़ता तथा अनुसंघान या आविष्कारकी स्वाधीनताके होते हुए भी योरोपके वैदिक पाण्डित्यने वस्तुत: सब जगह अपने-आपको सायणके भाष्यमें रक्खे हुए परम्परागत तत्त्वोंपर ही अवलंबित रखा. है और इस समस्या पर सर्वथा स्वतन्त्र विचार करनेका प्रयत्न नहीं किया है । जो कुछ इसने सायणमें और ब्राह्मणप्रग्रन्थोंमें पाया, उसीका इसने आधुनिक सिद्धांतों और आधुनिक विज्ञानोंके प्रकाशमें लाकर विकसित कर दिया है । भाषाविज्ञान, गाथाशास्त्र और इतिहासमें प्रयुक्त होनेवाली सुलनात्मक प्रणालीसे निकाले हुए गवेषणापूर्ण निगमनोंके द्वारा, प्रतिभाशाली कल्पनाकी सहायतासे विद्यमान विचारोंको विशाल रूप देकर और इघर उघर बिखरे हुए उपलब्ध निर्देशोंको एकत्रित करके इसने वैदिक गायाशास्त्र, वैदिक हतिहास, वैदिक सभ्यताके एक पूर्ण वादको खड़ा कर लिया है, जो अपने ब्योरेकी बातों तथा पूर्णताके द्वारा मोह लेता हैं और अपनी प्रणालीकी ऊपरसे दिखाई देनेवाली निश्चयात्मकताके द्वारा इस वास्तविकतापर पर्दा डाले रखता है कि यह भव्य-भवन अधिकतर कल्पनाकी रेतपर खड़ा हुआ है ।
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वेदके विषयमें आधुनिक सिद्धांत इस विचारसे प्रारम्भ होता है कि वेद एक ऐसे आदिम, जंगली और अत्यधिक बर्बर समाजीक स्तोत्र-संहिता है, जिसके नैतिक तथा धार्मिक विचार असंस्कृत थे, जिसकी सामाजिक रचना असभ्य थी और अपने चारों ओरके जगत्के विषयमें जिसका दृष्टिकोण बिलकुल बच्चोंका सा था । इस विचारके लिये उत्तरदायी है सायण । यज्ञ-यागको सायणने एक दिव्य ज्ञानका अंग तथा एक रहस्यमय प्रभावो-त्पादकसे युक्त स्वीकार किया था, योरोपियन पाण्डित्यने इसे इस रूपमें स्वीकार किया, कि यह उन प्राचीन जंगली शान्तिकरणसंबन्घी यज्ञ-बलिदानोंका श्रम-साधित विस्तृतरूप था, जो काल्पनिक अतिमानुष व्यक्ति-सत्ताओंको समर्पित किये जाते थे, क्योंकि ये सत्ताएँ लोगोंद्वारा की गयी इनकी पूजा या उपेक्षाके अनुसार हितैषी अथवा विद्वेषी हो सकती थीं ।
सायणसे अंगीकृत ऐतिहासिक तत्त्वको उसने तुरन्त ग्रहण कर लिया और मंवोमें आये प्रशंगोंके नये अर्थ और नयी व्याख्याएँ करके उसे विस्तृत रूप दे दिया । ये नये अर्थ और नयी व्याख्याएँ इस प्रबल अभिलाषाको लेकर विकसित की गयी! थीं कि वेदमन्त्र उन बर्बर जातियोंके प्रारम्भिक इतिहास, रीतिरिवाजों तथा उनकी संस्थाओंका पता देनेवाले सिद्ध हो सकें | प्रकृतिवादी तत्त्वने और भी अधिक, महत्त्वका हिस्सा लिया । वैदिक देवताओंका अपेने बाह्य रूपोंमें स्पष्टतया. किन्हीं प्राकृतिक, शक्तियोंके साथ तद्रूताका जो सम्बन्ध है उसका प्रयोग उसने इस रूपमें किया कि उससे आर्यन गाथाशास्रोंके तुलत्मक अध्ययनका प्रारम्भ किया गय ; अपेक्षया कम प्रघान देवतओंमेसे कुछ की, जैसे सूर्य-शक्तियोंकी, जो कुछ संदिग्ध दद्रुपता है, वह इस रूपमें दिखाई गयी कि उससे प्राचीन गाथ-निर्माण किये जानेकी पद्धतिका पता चलता है और तुलनात्मक. गाथाशास्त्रकी बड़े परिश्रमसे बनायी हुई जो सूर्य-गाथा तथा नक्षत्र-गाथा की कल्पनायें हैं, उनकी नींव डाली गयी ।
इस नये प्रकाशमें वेद-रूपी स्तोत्र-ग्रन्थकी. व्याख्या इस रूपमें की जाने लगी है कि यह प्रकृतिका एक अर्ध-अंधविश्वासयुक्त तथा अर्ध-कवितायुक्त रूपक है, जिसमें साथ ही महत्त्वपूर्ण नक्षत्र-विद्यासंबन्धी तत्त्व भी है | इनसे जो अवशिष्ट बचता है उसमें से कुछ अंश तो उस समयका इतिहास है और कुछ अंश यज्ञबलिदानविषयक कर्मकाण्डके नियम और धिधिथाँ हैं, जो रहस्यमय नहीं हैं, बल्कि केवलमात्र. जंगलीपन तथा, अन्ध-विश्वाससे भरी हुई हैं
पश्चिमी. पण्डितोंकी वेदविषयक यह व्याख्या आदिमि मानवसंस्कृति-सम्बन्धी और निपट जंगलीपनसे हाल हीमें हुएु उत्थान-संबंधी उनकी वैज्ञानिक
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कल्पनाओंसे पूरी. तरह मेल खाती है, जो कल्पनाएँ संपूर्ण 18वीं शताब्दीमें प्रचलित रही हैं और अब भी प्रधानता रखती है । परन्तु हमारे ज्ञानकी वृद्धिने इस पहले-पहलके और अत्यन्त जल्दबाजीमें किये गये सामान्य अनुमानको अब अत्यधिक हिला दिया है । अब हम जानते हैं कि कई सहस्र वर्ष पूर्व मिश्रमें, खाल्दियामें, ऐसीरियामें अपूर्व सम्यताएं विद्यमान थीं और अब इसपर आमतोरसे लोग सहमत होते जा रहे हैं कि एशियामें तथा भूमध्य तटवर्ती जातियोंमें जो सामान्य उच्च संस्कृति थी, ग्रीस और भारत उसके अपवाद नहीं थे ।
इस संशोधित ज्ञानका लाभ यदि वैदिक कालके भारतीयोंको नहीं मिली है तो इसका कारण उस कल्पनाका अभीतक बचे रहना है जिससे योरोपियन पाण्डित्यने शरुआत की थी, अर्थात् यह कल्पना कि वे तथाकथित आर्यजातिके थे और पुराने आर्यन ग्रीक लोगों, कैल्ट लोगों तथा. जर्मन लोगोके साथ-साथ संस्कृतिके उसी स्तरपर थे जिसका वर्णन हमें होमरकी कविताओंमें, प्राचीन नौर्स संतोंमें तथा प्राचीन गौल ( Gaul ) और टयूटनों ( Teuton ) के रोमन उपाखयानोंमें किया गया मिलता है । इसीसे उस कल्पनाका प्रादुर्भाव हुआ है कि ये आर्यन जातियां उत्तरकी बर्बर जातियां थीं जो शीतप्रधान प्रदेशोंसे आकर भूमध्यतटवर्ती योरोपकी और द्राविड़ भारतकी प्राचीन तथा समृद्ध सभ्य जातियोंके अन्दर आ घुसी थीं |
परन्तु वेदमें वे निर्देश जिनसे इस हालके आर्यन आक्रमणकी कल्पना निर्माण हुआ है, संख्यामे बहुत ही थोड़े हैं और अपने अर्थमें अनिश्चित हैं । वहाँ ऐसे कीसी आक्रमणका वास्तविक उल्लेख कहीं नहीं मिलाता । वहुतसे प्रममाणोंसे यह प्रतीत होता है कि आर्यो और अनार्योंके बीचका भेद जिसपर इतना सब कुछ निर्भर है कोई जातीय भेद नहीं, बल्कि सांस्कृतिक भेद था1 ।
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1. यह कहा जाता है कि गौर वर्णवाले और उमरी हुई नाशिकवाले आर्यों के प्रतिकूल दस्युओंका वर्णन इस रूपमें आता है कि वे काली त्वचावाले और बिना नासिकावाले ( अनस्) हैं | परन्तु इनमें जो पहला सफेद और कालेका भेद है, वह तो निश्चय ही 'आर्य देवों' तथा 'दासशक्तिओं' के लिये क्रमशः 'प्रकाश' और 'अन्धकार' से युक्त होनेके अर्थमें प्रवृक्त किया गया है । और दूसरेके विषयमें पहली बात यह है कि 'अनस्' शब्दका अर्थ 'बिना नासिका'वाला नहीं है । पर यदि इसका यह अर्थ होता, तो भी यह द्राविढ़ जातियोंके लिये तो कमी भी प्रयुक्त नहीं हो सकता था, क्योंकि दक्षिणात्य लोगोंकी नासिका अपने होनेके वैसा ही अच्छा प्रमाण दे सकती है, जैसा कि उत्तर देशोंमें आर्यों की शुण्डाकार उमरी हुई कोई भी नाक दे सकती है ।
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सूक्तोंकी भाषा स्पष्ट तौरपर संकेत करती है कि एक विशेष प्रकारकी पूजा या आध्यात्मिक संस्कृति ही आर्योंका भेदक चिह्न थी-प्रकाशकी और उसकी शक्तियोंकी पूजा तथा एक आत्म:नियन्त्रण जो 'सत्य' के संवर्धन और अमरताकी अभीप्सा, ॠतम् और अमृतम्, पर आश्रित था । किसी जातीय भेदका कोई भी विश्वसनीय निर्देश वेदमे नहीं मिलता । यह हमेशा सम्भव है कि इस समय भारतमें बसनेवाले जन-समुदायका प्रघान भाग उस एक नयी जातिका वंशज हो जो अघिक उत्तरीय अक्षोंसे आयी थी--या यह भी हो सकता है, जैसा कि श्रीयुत तिलकने युक्तियों द्वारा सिद्ध करनेका यत्न किया है कि उत्तरीय ध्रुवके प्रदेशोंसे आयी थी, परन्तु वेदमें इस विषयमें कुछ नहीं है, जैसे कि देशकी वर्तमान जातिविज्ञान-सम्बन्घी1 मुखाकृतियोंमें भी यह सिद्ध करनेके लिये कोई प्रमाण नहीं है कि यह आर्योंका नीचें उतरना वैदिक सूक्तोंके कालेके आसपास हुआ अथवा यह गौरवर्णवाले बर्बर लोगोंके एक छोटेसे समुदायका सभ्य द्राविड़ प्रायद्वीपके अन्दर शनै: प्रवेश था ।
यह, मानकर भी कि कैल्ट, ट्युटन, ग्रीक तथा भारतीय संस्कृतियां एक ही साधारण सांस्कृतिक उद्वामको सूचित करती हैं, हमारे पास अनुमान करनेके जो आधार हैं उनसे यह निश्चित परिणाम नहीं निकलता कि प्राचीन आर्य संस्कृतियाँ अविकसित तथा; जंगली थीं ।
उनके बाहरी जीवममें तथा जीवनके संगठनमें एक विशुद्ध तथा उच्च सरलताका होना, जिन देवतओंकी वे पूजा किया केरते थे उनके प्रति अपने चिचांरमें तथा अनके साथ अपने सम्बन्धोंमें एक निश्चित भूर्तरूपता तथा स्पष्ट मानवीय परिचयका होना, आर्य सभ्यताके स्वरूपको उससे अधिक शानदार और भौतिकवादी मिश्र-खाल्दियन (Egypto-ehaldean) सभ्यतासे तथा इसके गम्भीरता दिखानेवाले और गुह्यता रखनेवाले घर्मोंसे भिन्न करता है । परन्तु ( आर्य संस्कृतिकी ) वे विशेषताएं एक उच्च आन्तरिक संस्कृतिके साथ असंगत. नहीं हैं । इसके विपरीत. एक महान्
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1. मारतमें हम प्राय: भारतीय जातियोंके उन पुराने भाषाविज्ञानमूलक विमागोंसे और मिस्टर रिसले ( Mr. Risley) की उन कल्पनाओंसे ही परिचित हैं, जो पहिलेके किये गये उन्हीं साधारणीकरणों पर आश्रिति हैं । परन्तु अपेक्षाकृत अधिक उन्नत जाति-विज्ञान अब सभी शब्द्व्युत्पत्ति-सम्बधी कसौटियोंको माननेसे इन्कार करता है और इस विचारकी ओर अपना झुकाव रखता है कि भारतके एक ही प्रकारकी जाति निवास करती थी ।
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आध्यात्मिक परम्पराके चिह्न हमें वहां बहुतसे स्थलोंपर मिलते हैं और वे इस साधारण कल्पणका प्रतिषेष करते है ।
पुरानी कैल्टिक जातियोंमें निश्चय ही कुछ उच्चतम दार्शनिक विचार पाये जाते थे और वे अबतक उन विचारोंपर अंकित उस आदिम रस्यमय तथा अन्तर्ज्ञानमय विकासके परिणामको सुरक्षित रखे हुए हैं, जिसे ऐसे चिरस्थायी परिणामोंको पैदा करनेके लिये चिरकालसे स्थिर और अत्यघिक विकसित हो चुकना चाहिये था । यह बहुत सम्भव है कि ग्रीसमें हैलेनिक रूप ( Hellenic Type ) को उसी तक और्फिफ और ऐलुसीनियन ( orphic and eleusinian ) प्रभावोंके द्वारा ढाला गया हो और ग्रीक गाथा-शास्त्र, जैसा कि यह सूक्ष्म आध्यात्मिक निर्देशोंसे भरा हुआ हमें प्राप्त हुआ है, और्फिक शिक्षाकी ही वसीयत हो ।
सामान्य परम्पराके साथ इसकी संगति तभी लग सकती है; यदि यह सिद्ध हो जाय कि शुरुसे आखिरतक सारी-की-सारी भारतीय सभ्यता उन प्रवृत्तियों और विचारोंका विस्तार रही है, जिन्हें हमारे अन्दर वैदिक पुरुषाओं, 'पितरोंने' बोया था । ये प्राचीन संस्कृतियाँ अबतक हमारे लिये आघुनिक मनुष्यके मुख्य रूपोंका, उसके स्वभावके मुख्य अंगोंका, उसके विचार, कला और घर्मकी मुख्य प्रवृत्तियोंका निर्धारण करती हैं । अत: इन संस्कृतियोंकी असाघारण जीवन-शक्ति किसी आदिम जंगलीपनसे निकली हुई नहीं हो सकती । ये एक गभीर और प्रबल प्रागैतिहासिकि विकासके परिणाम हैं ।
तुलनात्मक गाथाशास्त्रने मानवीय उन्नतिकी इस महत्त्वपूर्ण अवस्थाकी उपेक्षा करके मनुष्यके प्रारम्भिक परम्पराओं-सम्बन्धी ज्ञानको विकृत कर दिया है । इसने अपनी व्याख्याका आघार एक ऐसे सिद्धान्तको बनाया है जिसने प्राचीन जंगलियों और प्लेटो या उपनिषदोंके बींचमें और कुछ भी नहीं देखा ।. इसने यह कल्पना की है कि प्राचीन., धर्मोकी नींव जंगली लोगोंके उस .महान् आश्चर्यपर पड़ी हुई है, जो उन्हें तब हुआ जब कि उन्हें अचानक ही इस आश्चर्यजनक तथ्यका बोघ हुआ कि उषा, रात्रि और सूर्य जैसी अद्भुत वस्तुएँ विद्यमान हैं, और उन्होंने उनकी सत्ताको एक असंस्कृत, जंगली और काल्पनिक तरीकेसे शब्दॉमें प्रकट करनेका यत्न किया । और इस बच्चोंकेसे आश्चर्यसे उठकर हम अगले ही कदममें छलांग मारकर ग्रीक दार्शनिकों तथा चैदान्तिक ॠषियोंके गम्भीर सिद्धांतोंतक पहुँच जाते हैं । तुलनात्मक गाथाशात्र्य यूनानी भाषा-विज्ञोंकी एक कृति है, क्सिके द्वारा गैरयूनानी बातोंकी व्याख्या की गयी है और वह भी एक ऐसे
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दृष्टिबिन्दुसे जिसका स्वयं आघार ही ग्रीक मनको गजल तौरसे समझनेपर है । इसकी प्रणाली कोई घीरतापूर्ण वैज्ञानिक अन्येषण होनेकी अपेक्षा कहीं अघिक कवितामय कल्पनाका एक प्रतिभासूचक खेल है ।
इस प्रणालीके परिणामोंपर यदि हम दृष्टि डालें, तो हम वहां रूपकोंकी और उनकी व्याख्याओंकी एक असाघारण गड़बड़ पाते हैं जिनमें कहीं भी कोई संगति या सामञ्जस्य नहीं है । यह ऐसे विस्तृत वर्णनोंका समुदाय है जो एक दूसरेमें प्रवेश कर रहे हैं, गड़बड़ीके साथ एक दूसरेके मार्गमें आ रहे हैं, एक दूसरेके साथ असहमत हैं तो भी उसके साथ उलझे हुए हैं और उनकी प्रामाणिकता निर्भर करती है केवल उन काल्पनिक अटकलोंपर जिन्हें ज्ञानका एकमात्र साघन समझकर खुली छुट्टी दे दी गयी है । यहाँतक कि इस असंगतिको इतने उच्च पदपर पहुँचा दिया गंया है कि इसे सच्चाईका एक मानदण्ड समझा गया है, क्योंकि प्रमुख विद्वानोंने यह गम्भीरतापूर्वक युक्ति दी है कि अपेक्षाकृत अघिक तर्कसम्मत और सुव्यवस्थित परिणामपर पहुँचनेवाली कोई प्रणाली इसी कारण खण्डित और अविश्वसनीय साबित हो जाती है कि उसमें संगति पायी जाती है, क्योंकि ( वे कहते हैं ) यह अवश्य मानना चाहिये कि गड़बड़ीका होना प्राचीन गाथाकवितात्मक योग्यताका एक आवश्यक तत्त्व ही था । परन्तु ऐसी अवस्थामें कोई भी चीज तुलनात्मक गाथा-विज्ञानके परिणामोंमें नियन्त्रण करनेवाली नहीं हो सकती और एक कल्पना वैसी ही ठीक होगी, जैसी कोई दूसरी; क्योंकिैं इसमें कोई युक्ति नहीं है कि क्यों असंबद्ध वर्णनोंके किसी एक विशेष समुदायको उससे भिन्न प्रकारसे प्रस्तुत किये गये असम्बद्ध .वर्णनोंके किसी दूसरे समुदायकी अपेक्षा अघिक ऋमगइछ?ाक. समझा जावे ।
तुलनात्मक गाथा-विज्ञानकी मीमांसाओंमें ऐसा बहुत कुछ है जो उपयोगी है, परन्तु इसके लिये कि इसके अघिकतर परिणाम युक्तियुक्त, और स्वीकार करने लायक हो सके, इसे, एक अपेक्षाकृत अघिक घैर्यसाध्य और संगत प्रणालीका प्रयोग करना चाहिये और अपना संगठन एक सुप्रतिष्ठित घर्म-विज्ञान (Science of Religion) के अंगके रूपमें ही करना चाहिये । हमें यह अवश्य स्वीकार करना चाहिये कि प्राचीन घर्म कुछ ऐसे विचारोंपर आश्रित सघटित संस्थान थे, जो कम-से-कम उतने ही संगत थे जितने की हमारे घर्मविश्वासोंके आघुनिक संस्थानोंको बनानेवाले विचार हैं । हमें यह भी मानना चाहिये कि घार्मिक संप्रदाय औंर दार्शनिक विचारके प्रहिलेके संस्थानोंसे लेकर वादमें आनेवाले अंस्थानोंतक,. सर्वथा बुद्धिगम्य, क्रमिक विकास ही हुआ है । इस भावनाके साथ जब हम प्रस्तुत सामग्रीका विस्तृत
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और गंभीरं रूपसे करेंगेौ तथा मानवीय विचार और विश्वासके सच्चे विकासका अन्वेषण करेंगे, तभी हम वास्तविक सत्यतक पहूँच सकेंगे ।
ग्रीक और संस्कृत नामोंको केवलमात्र तद्रुप्ता और इन बातोंका चातुर्य-पूर्ण अन्वेषण कि हैरेकलकी चिंता (Heracle's pyre) अस्त होते हुए सूर्या प्रतीक है या पारिस (Paris) और हैलन (Helen) वेदके 'सरमा' और 'पणियों'के ही ग्रीक अपभ्रंश हैं, कल्पना-प्रद्यान मनके लिये एक रोचक मनोरज्जनका बिषय अवश्य है, परन्तु अपने-आपमें ये बातें किसी गंभीर परिणामपर नहीं .पहुँचा सकतीं, चाहे यह भी सिद्ध क्यों न हो जाय कि ये ठीक हैं । न ही वे ऐसी ठीक ही हैं कि उनपर गंभीर सन्देहकी गुज्जाइश न हो, क्योंकि उस अधूरी तथा कल्पनात्मक प्रणालीका, जिसके द्वारा सूर्य और नक्षत्र-गाथाकी व्याख्याएँ की गयी हैं, यह एक दोष है कि वे एक-सी ही सुगमता और विश्वासजनकताके साथ किसी भी, और प्रत्येक ही मानवीय परम्परा, विश्वास या इतिहासकी वास्तविक धटना1 तक के लिये प्रयुक्त की जा सकती हैं । इस प्रणालीको लेकर, हम कभी. भी निश्चयपर नहीं पहुंच सकते कि कहां हमने वस्तुतः किसी सत्यको जा पकड़ा है और कहाँ हम केवलमात्र बुद्धिचातुर्यकी बातें सुन रहे हैं ।
तुलनात्मक भाषाविज्ञान ( comparative philology ) सचमुच हमारी कुछ सहायता कर सकता है, परन्तु अपनी वर्तमान अवस्थामें वह भी बहुत ही थोड़ी निश्चयात्मकताके साथ हमारी सहायता कर सकता है । उन्नीसवीं शताब्दीसे पहले भाषाशास्त्रका जो ज्ञान हमारे पास था उसकी अपेक्षा आज आधुनिक भाषाविज्ञानने बड़ी भारी उन्नति कर ली है । इसने इसमें एकमात्र कल्पना या मनमौजके स्थानपर एक नियम और प्रणालीकी भावनाको ला दिया है । इसने हमें भाषाके शब्दरूपोंके अध्ययनके विषयमें और शब्दव्युत्पत्ति-विज्ञानमें क्या सम्भव है और क्या सम्भव नहीं, इस विषयमें अपेक्षया अधिक ठीक विचारोंको दिया है | इसने कुछ नियम निर्धारित कर दिये हैं, जिनके अनुसार कोई भाषा शनै:शनै: बदलते-बदलते दूसरीमें आ जाय करती है और वे नियम इस बातमें हमारा पथ-प्रदर्शन करते हैं कि एक ही शब्द या उससे सम्बन्थित दूसरे शब्द,. जैसे कि वे भिन्न-भिन्न परन्तु सजातीय भाषाओंके परिवर्तित रूपोंमें दिखाई देते हैं,
१. उदाणार्थ, एक बड़ा विद्वान् हमें यह निश्चय दिलाता है कि ईसा और उसके 12 देवदूत सूर्य और 12 महीने हैं । नेपोलियनका चरित्र समस्त आख्यान-यरंपरा या इतिहासमें सबसे अधिक पूर्ण सूर्यगाथा है |
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किन शब्दोके तद्रूप हैं । तथापि यहाँ आकर .इसके लाभ रुक जाते हैं । वे ऊँची-ऊँची आशाहँ जो इसकी उत्पत्तिके समय थीं, इसकी प्रौढ़ताके द्वारा पूर्ण नहीं हुई हैं । भाषाके विज्ञानकी रचना कर सकनेमें यह असफल रहा है और अब भी हम इसके प्रति उस क्षमायाचनापूर्ण वर्णनको प्रयुक्त करनके लिये बाध्य हैं, जो एक प्रमुख भाषाविज्ञानवेत्ताने अपने अत्यधिक प्रयासके कुछ दशकोंके पश्चात् प्रयुक्त किया था, जब वह अपने परिणामोंके विषयमें यह कहनेके लिये बाध्य हुआ था कि "हमारे क्षुद्र कल्यनामूलक विज्ञान," । परन्तु कोई कल्पनामूलक विज्ञान तो विज्ञान ही नहीं हो सकता । इसलिये ज्ञानके अघिक यथार्थ और सूक्ष्मतया विशुद्ध रूपोंका अनुसरण करनेवाले लोग तुलनात्मक भाषाविज्ञानको 'विज्ञान' यह नाम देनेसे सर्वथा इन्कार करते हैं और यहाँतक कि वे भाषा-सम्बन्धी किसी विज्ञानकी संभवनीयतासे ही इन्कार करते हैं ।
सच तो यह है कि भाषाविज्ञानसे जो परिणाम निकले हैं उनमें अभीतक कोई वास्तविक निश्चयात्मकता नहीं है, क्योंकि सिवाय एक या दो नियमोंकें, जिनका प्रयोग बिल्कुल सीमित है, उसमें कहीं भी कोई निश्चित आधार नहीं है । कल हम सबको यह विश्वास था कि वरुण और औरेनस (ouranos) --ग्रीक आकाश--एक ही हैं, आज यह समानता, यह कहकर दोषयुक्त ठहरा दी गयी है कि, इसमें भाषा-विज्ञान-सम्बन्धी गलती है, कल यह हो सकता है कि इसे फिरसे मान लिया जाय । 'परमे व्योमन्', एक वैदिक मुहावरा है, जिसका कि हममेंसे अधिकांश "उच्चतम आकाशमें" यह अनुवाद करेंगे, परन्तु श्रीयुत टी० परम शिव अय्यर अपने बौद्धिक चमफ-दमकसे युक्त और आश्चर्यजनक ग्रंथ ''दि ॠक्स" (ऋग्वेदके मंत्र ) में हमें बताते हैं कि इसका अर्थ है "निम्नतम गुहामें" क्योंकि 'व्योमन्'का अर्थ होता है ''विच्छेद, दरार" और शाब्दिक अर्थ हैं, ''रक्षा (ऊमा) का अभाव" और जिस युक्ति-प्रणालीका उन्होंने प्रयोग किया है वह आधुनिक विद्वान्की प्रणालीके ऐसी अनुरूप है कि भाषाविज्ञानी इसे यह कहकर अमान्य नहीं कर सकता कि ''रक्षाके अभाव" का अर्थ दरार होना संभव नहीं है और यह कि मानवीय भाषाका निर्माण ऐसे नियमोंके अनुसार नहीं हुआ है ।
यह इसीलिये है क्योंकि भाषा-विज्ञान उन नियमोंका पता लगानेमें असफल रहा है जिन नियमोंपर भाषाका निर्माण हुआ है, या यह कहना अघिक ठीक है कि जिन नियमोंसे भाषाका शनै:शनै: विकास हुआ है; और दूसरी ओर इसने एकमात्र कल्पना और बुद्धिकौशलकी पुरानी भावनाको पर्याप्त रूपमें कायम रखा है और संदिग्ध अटकलोंकी ठीक इस प्रकारकी
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(जैसी की अय्यरने दिखलाई है ) बौद्धिक चमक-दमकसे ही भरा पड़ा है । लेकिन तब हम इस परिणामपर पहुँचते हैं कि हमें इस बातके निर्णयमें सहायता देनेके लिये इसके पास कुछ नहीं है कि वेदका 'परमे व्योमन्' उच्चतम आकाश'की ओर निर्देश करता हैं या 'निम्नतम खाईकी
ओर । यह स्पष्ट है कि ऐसा अपूर्ण भाषा-विज्ञान वेदका आशय समझनेके किये कहीं-कहीं एक उज्ज्वल सहायक तो हो सकता है, परन्तु एक निश्चित पथ-प्रदर्शक कभी नहीं हो सकता ।
यह बात वस्तुत: हमें माननी चाहिये कि वेदके संबंधमें विचार करते हुए योरोपियन पाण्डित्यको, योरोपमें हुई वैज्ञानिक प्रगतिके साथ उसका जो सम्बन्ध है उसके कारण, आम जनताके मनोंमें कुछ अतिरिक्त प्रतिष्ठा मिल जाती है । पर सत्य यह है कि स्थिर, निश्चित और यथार्थ भौतिक विज्ञानोंके तथा जिनपर वैदिक पाण्डित्य निर्भर करता है ऐसी इन विद्वत्ताकी दूसरी उज्ज्वल किन्तु अपरिपक्व शाखाओंके बीच एक बड़ी भारी खाई है ! वे (भौतिक-विज्ञान ) अपनी स्थापनामें सतर्क, व्यापक सिद्धान्त बनानेमें मंद, अपने परिणामोंमें सबल हैं और ये (विद्वत्ताकी दूसरी शाखाएँ ) कुछ थोड़ेसे स्वीकृत तत्त्वोंपर विशाल और, व्यापक सिद्धांतोंको बनानेके लिये बाध्य हुई है और किन्हीं निश्चित निर्देशोंको न दे सकनेकी अपनी कमीको अटकलों और कल्पनाओंके अतिरेक द्वारा पूरी करती हैं । ये ज्वलन्त प्रारम्भोंसे तो भरी पड़ी हैं, पर किसी सुरक्षित परिणामपर नहीं पहुँच सकतीं । ये विज्ञान (पर चढ़ने ) के लिये प्रारंभिक असंस्कृत मञ्च अवश्य हैं, पर अभीतक विज्ञान नहीं बन पायी हैं |
इससे यह परिणाम निकलता है कि वेदकी व्याख्याकी सम्पूर्ण समस्या अबतक एक खुला क्षेत्र है जिसमें किसी भी सहायक कृतिका, जो इस समस्यापर प्रकाश डाल सके, स्वागत किया जाना चाहिये । इस प्रकारकी तीन कृतियोंका उद्धव भारतीय विद्वानोसे हुआ है । उनमें दो योरोपियन अनुसन्धानके पद-चिह्नों या प्रणालियोंका अनुसरण करती हैं, फिर भी उन नयी कल्पनाओंको प्रस्तुत करती हैं जो यदि सिद्ध हो जाएँ तो मंत्रोंके बाह्य अर्थके विषयमें हमारे दूष्टिकोणको बिल्कुल बदल दें । श्रीयुत तिलकने "वेदमें आर्योंका उत्तरीय-ध्रुवनिवास"(Arctic Home in the Vedas) नामक पुस्तकमें योरोपियन पाण्डित्यके सामान्य परिणामोंको स्वीकार कर लिया है, परन्तु वैदिक उषाकी, वैदिक गौओंके अलंकारकी और मंत्रोंके नक्षत्र-विद्या-सम्बन्धी तत्त्वोंकी नवीन परीक्षाके द्वारा यह स्थापना की है की, कम-से-कम इस बातकी अधिक सम्भावना तो है ही की
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आर्यजातियहाँ प्रारम्भ्में, हिम-युगमें, उत्तरीय ध्रुवके प्रदेशोंसे उतरकर आयीं ।
श्रीयुत टी० परम शिव अय्यरने और भी अधिक साहसके साथ योरोपियन पद्धतियोंसे अपनेको जुदा करते हुए यह सिद्ध करनेका यत्न किया है कि सारा-का-सारा ऋग्वेद आलंकारिक रूपसे उन भू-गर्भ-संबंधी घटनाओंकों वर्णन है, जो उस समयमें हुई जब चिरकालसे जारी हिम-संहतिका विनाश समाप्त हुआ और उसके पश्चात् भौमिक विकासके उसी युगमें हमारे ग्रहका नवीन जन्म हुआ था । यह कठिन है कि श्रीयुत अय्यरकी युक्तियों और परिणामोंको सामूहिक रूपमें स्वीकार कर लिया जाय, परन्तु यह तो है कि कम-से-कम उसने वेदकी 'अंहि-वृत्र' की महत्त्वपूर्ण गाथापर और सात नदियोके विमोचनपर एक नया प्रकाश डाला है । उसकी व्याख्या प्रचलित कल्पना (theory) की अपेक्षा कहीं अधिक संगत और सम्भव है, जब कि प्रचलित. कल्पना मंत्रोंकी भाषासे कदापि पुष्ट नहीं होती । तिलकके ग्रंथके साथ मिलाकर देखनेसे यह इस प्राचीन धर्मशास्त्र वेदकी एक नवीन बाह्य व्याख्याके लिये प्रारम्भ-बिन्दुका काम दे सकती है और इससे उस बहुतसे अंकका स्पष्टीकरण हो जायगा जो अबतक अव्याख्येय बना हुआ है, तथा यह हमारे लिये यदि प्राचीन आर्यजगत्की वास्तविक भौतिक परिस्थितियोंको नहीं तों कम-से-कम उसके भौतिक प्रारम्भोंको तो नया रूप प्रदान कर देगी न |
तीसरी भारतीय सहायता तिथिमें अपेक्षया कुछ. पुरानी है, परन्तु मेरे वर्तमान प्रयोजनके अघिक नजदीक है । यह है वेदको फिरसे एक सजीव धर्म-पुस्तकके रूपमें स्थापित करनेके लिये आर्यसमाजके संस्थापक स्वामी दयानन्दके द्वारा किया गया अपूर्व प्रयत्न । दयानन्दने पुरातन भारतीय भाषा-विज्ञानके स्वतन्त्र प्रयोगको अपना आघार बनाया, जिसे उन्होंने निरुक्तमें पाया था । स्वयं संस्कृतके एक महाविद्वान् होते हुए उन्होंने उनके पास जो सामग्री थी, उसपर अद्भूत शक्ति और स्वाघीनताके साथ विचार किया । विशेषकर प्राचीन संस्कृत-भाषाके अपने उस विशिष्ट तत्त्वका उन्होंने रचनात्मक प्रयोग किया जो सायणके ''घातुओंकी अनेकार्थता" इस एक वाक्यांशसे बहुत अच्छी तरहसे प्रकट हो जाता है । हम देखेंगे कि इस तत्त्वका, इस मूल-सूत्रका ठीक-ठीक अनुसरण वैदिक ऋषियोंकी निराली प्रणाली समक्षनेके लिये बहुत अधिक महत्त्व रखता है ।..
दयानन्दकी मन्त्रोंकी व्याख्या इस विचारसे नियन्त्रित है कि वेद घार्मिक, नैतिक और. वैज्ञानिक सत्यका एफ पूर्ण ईश्वरप्रेरित ज्ञान है । वेदकी धार्मिक शिक्षा एकदेवातावादकी है और वैदिक देवता एक ही देवके भिन्न-भिन्न
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वर्णनात्मक नाम हैं, सत्य ही वे देवता उसकी उन शक्तियोंके सूचक भी हैं जिन्हें हम प्रकृतिमें कार्य करता हुआ देखते हैं, और वेदोंके आशयको सच्चे रूपमें समझकर हम उन सभी वैज्ञानिक सचाइयोंपर पहुँच सकते हैं जिनका आधुनिक अन्वेषण द्वारा आविष्कार हुआ है ।
इस प्रकारके सिद्धांतकी स्थापना करना स्पष्ट ही, बड़ा कठिन काम है । अवश्य ही ऋग्वेद स्वयं कहता है1 कि देवता एक ही विश्वव्यापक सत्ताके केवल भिन्न नाम और अभिव्यक्तियाँ हैं जो सत्ता अपनी निजी वास्तविकतामें विश्वकी अतिक्रमण किये हुए है; परन्तु मंत्रोंकी भाषासे देवताओंके विषयमें निश्चित रूपसे हमें यह पता लगता है कि वे न केवल एक देवके भिन्न-भिन्न नाम, किन्तु साथ ही उस देवके भिन्न-भिन्न रुप, शक्तियाँ और व्यक्तित्व भी हैं । वेदका एकदेवतावाद विश्वकी अद्वैतवादी, सर्व-देवतावादी और यहाँतक कि बहुदेवतावादी दृष्टियोंको भी अपने अन्दर सम्मिलित कर लेता है और यह किसी भी प्रकारसे आधुनिक ईश्वरवादका कटा-छँटा और सीधा-सा रूप नहीं है । यह केवल मूल वेदके साथ जबर्दस्ती करनेसे ही हो सकता है कि हम इसपर ईश्वरवादके इसकी अपेक्षा किसी कम जटिल रूपको मढ़ देनेमें कामयाब हो सकें ।
यह बात भी मानी जा सकती है कि प्राचीन जातियाँ भौतिक विज्ञानमें उसकी अपेक्षा कहीं अधिक उन्नत थीं जितना कि अभीतक स्वीकार किया जाता है । हमें मालूम है कि मिश्र और खाल्दियाके निवासी बहुतसे आविष्कार कर चुके थे जिन्हें विज्ञानने आधुनिक विज्ञानके द्वारा पुनराविष्कृत किया है और उनमेंसे बहुतसे ऐसे भी हैं जो फिरसे आविष्कृत नहीं किये जा सके हैं । प्राचीन भारतवासी, कम-से-कम कोई छोटे-मोटे ज्योतिर्विद् नहीं थे और वे सदा कुशल चिकित्सक थे । न ही हिन्दु वैद्यक-शास्त्र तथा रसायनशास्त्रका उद्धव विदेशसे हुआ प्रतीत होता है । यह संभव है कि भौतिक विज्ञानकी अन्य शाखाओंमें भी भारतवासी प्राचीन कालमें भी उन्नत रहे हों । परन्तु यह सिद्ध करनेके लिये कि वेदोंमें वैज्ञानिक ज्ञान बिल्कुल पूर्ण रूपमें प्रकट हुआ, जैसा कि स्वामी दयानन्दका कथन है, बहुत अधिक प्रमाणोंकी आवश्यकता होगीं ।
वह स्थापना जिसे मैं अपनी परीक्षाका आधार बनाऊँगा, यह है कि वेद द्विविध रूप रखता है और उन दोनों रूपोंको, यद्यपि वे परस्पर बहुत
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1. इन्द्रं मित्र वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद्रिप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: |। (ॠग्० 1-164-46)
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घनिष्ठताके साथ सम्बद्ध हैं, हमें पृथक्-पृथक् ही रखना चाहिये । ऋषियोंने अपनी विचारकी सामग्रीको एक समानान्तर तरीकेसे व्यवस्थित किया था, जिसके द्वारा वही-के-वही देवता एक साथ विराट् प्रकृतिकी आभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों शक्तियोके रूपमें प्रकट हो जाते थे और उन्होंने इसे एक ऐसी द्वचर्थक प्रणालीसे अभिव्यक्त किया जिससे एक ही भाषा दोनों रूपोंमें उनकी पूजाके प्रयोजनको सिद्ध कर देती थी । परन्तु भौतिक अर्थकी अपेक्षा आध्यात्मिक अर्थ प्रद्यान है और अपेक्षया अधिक व्यापक घनिष्ठताके साथ ग्रथित तथा अघिक संगत है । वेद मुख्यतया आध्यात्मिक प्रकाश और आत्म-साघनाके लिये अभिप्रेत है । इसलिये यही अर्थ है जिसे हमें प्रथम पुनरूजीवित करना चाहिये ।
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इस कार्यमें व्याख्याकी प्रत्येक, प्राचीन तथा आघुनिक, प्रणाली एक अनिवार्य सहायता देती है । सायण और यास्क बाह्य प्रतीकोंके कर्मकाण्डमय ढांचेको और अपनी परम्परागत व्याख्याओं तथा स्पष्टीकरणोंके बड़े भारी भण्डारको प्रस्तुत करते हैं । उपनिषदें प्राचीन ऋषियोंके आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारोंकी जाननेके लिये अपने मूलसूत्र हमें पकड़ाती हैं और आध्यात्मिक अनुभूति तथा अन्तर्ज्ञानकी अपनी प्रणालीको हमतक पहुंचाती है । योरोपियन पाण्डित्य. तुलनात्मक अनूसंधानकी एक आलोचनात्मक प्रणालीको देता है । वह प्रणाली यद्यपि अभीतक अपूर्ण है, तो भी जो साघन अबतक प्राप्य है उन्हें बहुत अधिक उन्नत कर सकती है और अन्तमें जाकर वह निश्चित रूपसे एक वैज्ञानिक निश्चयात्मकता तथा दृढ़ बौद्धिक आघारको दे सकेगी जो अबतक प्राप्त नहीं हुआ है । दयानन्दने ऋषियोंके भाष-सम्बन्धी रहस्यका मूलसूत्र हमें पकड़ा दिया है और वैदिक धर्मके एक केन्द्र्भुत. विचारपर फिरसे बल दिया है, इस विचारपर कि जगत्में एक ही देवकी सत्ता है और भिन्न-भिन्न देवता अनेक नामों और रूपोंसे उस एक देवकी ही अनेकरूपताको प्रकट करते हैं ।
मध्यकालीन भूतसे इतनी सहायता लेकर हम अब भी इस सुदूरवर्ती प्राचीनताका पुनर्निर्माण करनेमें सफलता प्राप्त कर सकते हैं और वेदके द्वारसे प्रागैतिहासिक ज्ञानके विचारों तथा सचाइयोंके अन्दर प्रवेश पा सकते हैं ।
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