Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
छठा अध्याय
अग्नि और सत्य
ऋग्वेद अपने सब भागों (मंडलों ) में एकवाक्यता रखता है । इसके दस मंडलोंमेंसे हम कोई-सा लें, उसमें हम एक ही तत्त्व, एक ही विचार, एक-से अलंकार ओर एक ही से वाक्यांश पाते हैं । ऋषिगण एक ही सत्यके द्रष्टा हैं और उसे अभिव्यक्त करते हुए वे एकसमान भाषाका प्रयोग करते हैं । उनका स्वभाव और व्यक्तित्व भिन्न-भिन्न है, कोई-कोई अपेक्षाकृत अघिक समृद्ध, सूक्ष्म और गंभीर अर्थोंमें वैदिक प्रतीकवादका प्रयोग करनेकी प्रवृत्ति रखते हैं; दूसरे अपने आत्मिक अनुभवको अधिक सादी और सरल भाषामें प्रकट करते हैं, जिसमें विचारोंकी उर्वरता, कवितामय अलंकारकी अधिकता या भावों की गंभीरता और पूर्णता अपेक्षया कम होती हैं । अघिकतर एक ॠषिके सूक्स विभिन्न प्रकारके हैं, वे अत्यधिक सरलतासे लेकर बहुत ही महान् अर्थगौरव तक श्रुंखलाबद्ध हैं । अथवा एक ही सूक्तमें चढ़ाव-उतार देखनेमें आते है; वह यक्षके सामान्य प्रतीककी बिलकुल साघारण पद्धतियोंसे शुरू होता है और एक सघन तथा जटिल विचार तक पहुँच जाता है । कुछ सूक्त बिलकुल स्पष्ट हैं और उनकी भाषा लगभग आधुनिक-सी है, दूसरे कुछ ऐसे हैं जो पहले-पहल अपनी दीखनेवाली विचित्र-सी अस्पष्टतासे हमें गड़बड़में डाल देते है । परंतु वर्णनशैलीकी इन विभिन्नताओं से आध्यात्मिक अनुभवोंकी एकताका कुछ नहीं बिगड़ता, न ही उनमें कोई ऐसा पेचीदापन है जो नियत परिभाषाओं और सामान्य सूत्रोके ही कहीं बदल जानेके कारण आता हो । जैसे मेघातिथि काण्व के गीतिभय स्पष्ट वर्णनोंमें वैसे ही दीर्धतमस् औचध्यकी गंभीर तथा रहस्यमय शैल ीमें, और जैसे वसिष्ठकी एकरस समस्वरताओंमें वैसे ही विश्वामित्रके प्रभावोत्पादक शक्तिशाली सूक्तोंमें हम ज्ञानकी वही दृढ़ स्थापना और दीक्षितोंकी पवित्र विधियोंका वही सतर्कतायुक्त अनुवर्तन पाते हैं ।
वैदिक रचनाओंकी इस विशेषतासे यह परिणाम निकलता है कि व्याख्याकी वह प्रणाली भी जिसका मैंने उल्लेख किया है एक ही ऋषिके छोटे-से सूक्त-समुदायके द्वारा वैसी ही अच्छी तरह उदाहरण देकर पुष्टकी जा सकती है जैसे कि दसों मंडलौंसे इकटठे किये हुए कुछ सुक्तोंके द्वारा । यदि
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मेरा प्रयोजन यह हो कि व्याख्याफी अपनी इस शैलीको जिसें मैं दे रहा हूँ इतनी अच्छी तरह स्थापित कर दूं कि इसपर किसी प्रकारकी आपत्तिकी कोई संभावना न रहे, तो इससे कहीं अधिक व्यौरेवार और बड़े प्रयत्नकी आवश्यकता होगी । सारे-के-सारे दसों मंडलोंकी एक आलोचनात्मक परीक्षा अनिवार्य होगी । उदाहरणके लिये, वैदिक पारिभाषिक शब्द 'ॠतम', सत्य, के साथ मैं जिस भावकों. जोड़ता हूँ अथवा प्रकाशकी गौओंके प्रतीककी मैं जो व्याखया करता हूँ उसे ठीक सिद्ध करनेके लिये मेरे लिये यह आवश्यक होगा कि मैं उन सभी स्थलोंको, चाहे वे किसी भी महत्त्वके हों, उद्घृत करूं जिनमें सत्यका विचार अथवा गौका अलंकार आता है और उनकी आशय व प्रकरणकी दृष्टिसे परीक्षा करके अपनी स्थापनाकी पुष्टि करूं । अथवा यदि मैं यह सिद्ध करना चाहूँ कि वेदका इन्द्र असलमें अपने आध्यात्मिक रूपमें प्रकाशयुक्त मनका अधिपति है, जो प्रकाशयुक्त मन 'द्यौ:' या आकाश द्वारा निरूपित किया गया है, जिसमें तीन प्रकाशमान लोक, 'रोचना' हैं, तो मुझे उसी प्रकारसे उन सूक्तोंकी जो इन्द्रको संबोधित किये गये है और उन सन्दर्भोंकी जिनमें वैदिक लोक-संस्थानका स्पष्ट उल्लेख मिलता है, परीक्षा करनी होगी । और वेदके विचार ऐसे परस्पर-ग्रथित और अन्योन्याश्रित हैं कि केवल इतना करना भी पर्याप्त नहीं हो सकता, जबतक कि अन्य देवताओंकी तथा अन्य महत्त्वपूर्ण आध्यामिक परिभाषाओंकी जिनका सत्यके षिचारके साथ कुछ सम्बन्ध है और उस मानसिक प्रकाशके साथ सम्बन्ध है जिसमेंसे गुजरकर मनुष्य उस सत्य तक पहुँच पाता है, कुछ आलोचनात्मक परीक्षा न कर ली जाय । मैं अच्छी तरह समझता हूँ कि अपनी स्थापनाको प्रमाणित करनेका ऐसा कार्य किये जानेकी आवश्यकता है और वैदिक सत्यपर, वेदके देवताओंपर तथा वैदिक प्रतीकोंपर अपने अनुशीलन लिखकर इसे पूरा करनेकी मैं आशा भी रखता हूँ । परन्तु उस उद्देश्यके लिये किया गया प्रयत्न इस कार्यकी सीमासे बिल्कुल बाहरका होगा जिसे इस समय मैंने अपने हाथमें लिया है और जो केवल यहीं तक सीमित है कि मैं अपनी प्रणालीका सोदाहरण स्पष्टीकरण करूं और मेरी कल्पनासे जो परिणाम निकलते है उनका संक्षिप्त वर्णन करूँ ।
अपनी प्रणालीका स्पष्टीकरण करनेके लिये मैं चाहता हूँ कि प्रथम मंडलके पहले ग्यारह सूक्त मैं लूं और दिखाऊं कि किस प्रकारसे आध्यात्मिक व्याख्याके कुछ केन्द्वभूत विचार किन्हीं महत्त्वपूर्ण संदर्भोंमेंसे या अकेले सूक्तोंमेंसे निकलते है और किस प्रकार गम्भीरतर विचारशैलीके प्रकाशमें .उन सन्दर्भोंके आसपासके प्रकरण और सूक्तोंका सामान्य विचार एक बिल्कुल नया ही रूप धारण कर लेते हैं ।
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ऋग्वेदकी संहिता जैसी कि हमारे हाथमें है, दस भागों या मण्डलोंमें क्रमबद्ध है । इस क्रमविभाजनमें दो प्रकारका नियम दिखाई देता है । इन मण्डलोंमेंसे ६ मण्डल ऐसे हैं, जिनमें प्रत्येकके सूक्तोंका ऋषि एक ही है, या एक ही ऋषि-परिवारका कोई ॠषि है । इस प्रकार दूसरे मण्डलमें मुख्यतया गृत्समद ॠषिके सूक्त हैं, ऐसे ही तीसरे और सातवें मण्ड लके सूक्तोंके ऋषि क्रमसे ख्यातनामा विश्वामित्र और वशिष्ठ हैं । चौथा मण्डल वामदेव ऋषिका तथा छठा भरद्वाजका है । पांचवां अत्रि-परिवारके सूक्तोंसे व्याप्त है । इन मण्डलोंमें से प्रत्येकमें अग्निको संबोधित किये गये सूक्त सबसे पहिले इकट्ठे करके रख दिये गये हैं, उसके बाद वे सूक्त आते है जिनका देवता इंद्र है, अन्य देवताओं-बृहस्पति, सूर्य, ऋभुगण, उषा आदि--के आवाहनोंसे मण्डल समाप्त होता है । नवाँ मण्डल सारा ही अकेले सोम- देवताको दिया गया है । पहले, आठवें और दसवें मण्डलमे भिन्न-भिन्न ऋषियोंके सूक्तोंका संग्रह है, परन्तु प्रत्येक ऋषिके सूक्त सामान्यत: उनके देवताओंके क्रमसे इकट्ठे रखे गये हैं, सबसे पहले अग्नि आता है, उसके पीछे इंद्र और अन्तमें अन्य देवता । इस प्रकार प्रथम मण्डलके प्रारम्भमें विश्वामित्रके पुत्र मधुच्छन्दस् ऋषिके दस सूक्त हैं और ग्यारहवाँ सूक्त जेतृका है, जो मधुच्छन्दस् का पुत्र है । फिर भी यह अन्तिम सूक्त शैली, प्रकार और भावमें उन दसके जैसा ही है,. जो इससे पहिले आये हैं और इसलिये इन ग्यारहों सूक्तोंको इकट्ठा मिलाकर इन्हें एक ऐसा सूक्तसमुदाय समझा जा सकता है जो भाव और भाषामें एक-सा है ।
इन वैदिक सुक्तोंको क्रमबद्ध करनेमें विचारोंके विकासका भी कोई नियम अवश्य काम कर रहा है । प्रारम्भके मण्डलका रूप ऐसा रखा गया प्रतीत होता है कि अपने अनेक अंगोंमें वेदका जो सामान्य विचार है वह निरन्तर अपने आपको खोलता चले, उन प्रतीकोंकी आड़में जो स्थापित हो चुके हैं और उन ऋषियोंकी वाणी द्वारा अपने-आपको खोलता चले जिनमें प्रायः सभीको विचारक और पवित्र गायकका उच्च पद प्राप्त है और जिनमें-से कुछ तो वैदिक परम्पराके सबसे अधिक यशस्वी नामोंमेंसे हैं । न ही यह अकस्मात् हो सकता है कि दसवें या अन्तिम मण्डलमें जिसमें ॠषियोंकी अघिक विविधता भी पायी जाती है, हमें वैदिक विचार अपने अन्तिम विकसित रूपोंमें दिखाई देता है और ऋग्वेदके उन सूक्तोंमेंसे जो भाषाकी दृष्टिसे अधिकसे-अधिक आधुनिक है, कुछ इसी मण्डलमें हैं । पुरुष-यज्ञका सूक्त और सृष्टिसम्बन्धी महान् सूक्त हम इसी मण्डलमें पाते हैं । साथ
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ही, आधुनिक विद्वान् यह समझते हैं कि इसोमें उन्होंने वेदान्तिक दर्शनक, ब्रह्यवादका, मूल उद्भव खोज निकाला है ।
कुछ भी हो, विश्वामित्रके पुत्र तथा पौत्रके ये सूक्त जिनसे ॠग्वेद प्रारम्भ होता है आश्चर्यजनक उकृष्टताके साथ वैदिक समस्वरताके प्रथम मुख्य स्वर निकालते हैं । अग्निको सम्बोधित किया गया पहला सूक्त सत्यके केन्द्रभूत विचारको प्रकट. करता है और यह विचार दूसरे व तीसरे सूक्तोंमें और भी दृढ़ हो जाता है, जहाँ अन्य देवताओंके साथमें इंद्रका आवाहन किया गया है । शेष आठ सूक्तोंमें जिनमें अकेला इन्द्र देखता है, एक (छठे ) को छोड्कर जहां वह मरुतोंके साथ मिल गया है, हम सोम और गौके प्रतीकोंको पाते हैं, प्रतिबन्धक वृत्रको और इन्द्रके उस अपने महान् कृत्यको पाते हैं जिसके द्वारा वह मनुष्यको प्रकाशकी ओर ले जाता है और उसकी उन्नतिमें जो विध्न आते हैं उन्हें हटाकर परे फेंक देता है । इस कारण ये सूक्त वेदकी अध्यात्मपरक व्याख्याके लिये निर्षयकारक महत्व के हैं ।
अग्निके सूक्तमें पाँचवीं ॠचासे लेकर आठवीं तक ये चार ॠचायें हैं, जिनमें आध्यात्मिक आशय बड़े बलके साथ. और बड़ी स्पष्टताके साथ प्रतीक-के आवरणको पार करके बाहर निकल रहा है--
अग्निर्होता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रंवस्तम: ।
देवो देवेभिरा गमत् ।।
यदङ् दाशुषे त्यमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत् सत्यमङ्गर: ।।
जप त्याग्ने दिवेदिवे गोषायस्तर्षिया वयम् ।
नमो भरन्त एमसि ।।
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्षमानं स्वे दमे ।।
इस संदर्भमें हम पारिभाषिक शब्दोंकी एक माला पाते ह जिसका सीधा ही एक अध्यात्मपरक आशय है, अथवा वह स्पष्ट तौरसे इस योग्य है कि उसमेंसे अध्यात्मपरक आशय निकल सके और इस शब्दावलिने अपनी इस रंगतसे सारे-के-सारे प्रकरणको रंगा हुआ है । पर फिर भी सायण इसकी विशुद्ध कर्मकाण्डपरक व्याख्या पर ही आग्रह करता है और यह देखना मजेदार है कि वह इसतक कैसे पहुंचता है । पहले वाक्यमें हमें 'कवि' शब्द मिलता है जिसका अर्थ दृष्टा है और यदि हम 'ॠतु'का अर्थ यज्ञ-कर्म ही
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मान ले तो भी परिणामत: इसका अभिप्राय होगा-''अग्नि, यह ॠत्विक् जिसका कि कर्म या यज्ञ द्रष्टाका है ।" और यह ऐसा अनुवाद है जो तुरन्त यज्ञको एक प्रतीकका रूप दे देता है और अपने-आपमें इसके लिये पर्याप्त है कि वेदको और भी गम्भीर रूपसे समझनेमें बीजका काम दे सके । सायण अनुभव करता है कि उसे इस कठिनाईको जिस किसी प्रकारसे भी परे हटाना चाहिये और इसलिये वह 'कवि' में जो द्रष्टाका भाव है, उसे छोड़ देता है और इसका एक दूसरा ही नया-सा अप्रचलित अर्थ कर देता है1 । आगे फिर वह व्याख्या करता है कि 'अग्नि 'सत्य' है, सच्चा है, क्योंकि वह यज्ञके फलको अवश्य देता है । 'श्रवस्'का अनुवाद सायण करता है "कीर्ति'', अग्निकी अत्यन्त ही चित्र-विचित्र कीर्ति है । निश्चय ही यहां इस शब्दको घन-संपत्तिके अर्थमें लेना अधिक उपयुक्त होता, जिससे 'सत्य'- की उपयुक्त व्याख्याकी असंगति दूर हो जाती । तब हम पांचवीं ऋचाका यह फलितार्थ निकालेंगे--''अग्नि जो होता है, यज्ञोंमें कर्मशील है, जो (अपने फलोंमें ) सच्चा है--क्योंकि उसकी ही यह अत्यन्त विविध संपत्ति है, वह देव अन्य देवोंके साथ आये ।''
भाष्यकार सायणने छठी ॠचाका एक बहुत अनुपयुक्त और बेजोड़-सा अन्वय कर डाला है और इसके विचारको बदलकर विल्कुल तुच्छ रूप दे दिया है, जो ॠचाके प्रवाहको सर्वथा तोड़ देता है । '' (विविध सम्पत्तियोंके रूपमें ) वह भलाई जो तू हवि देनेवालेके लिये करेगा, वह तेरी ही होगी । यह सच है, हे अंगिर:2 ।'' अभिप्राय यह है कि इस सचाईके बारेमें कोई सन्देह नहीं है कि अग्नि यदि धन-दौलत देकर हवि देनेवालेका भला करता है तो बदलेमें वह भी उस अग्निके प्रति नये-नये यज्ञ करेगा और इस प्रकार यज्ञकर्त्ताकी भलाई अग्निकी हीं भलाई हो जाती है । यहां फिर इसका इस रूपमें अनुवाद करना अधिक अच्छा होता-- "वह भलाई जो तू हवि देनेवाले के लिये करेगा, वह तेरा वह सत्य है, हे अंसिर:'', क्योंकि इस प्रकार हमें एकदम एक अधिक स्पष्ट आशय और अन्वय पता लग जाता है और यज्ञिय अग्निदेवताके लिये जो 'सत्य', सच्चा यह विशेषण लगाया है उसका स्पष्टी-
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1. ''कविशब्दोऽत्र क्रांतवचनो न तु मेधाविनाम्'' । -सायण
2. ''हैं भग्ने, त्वं, दाशुषे हविर्दत्तवते यजमानाय, तत्प्रौत्यर्थ, यद् भद्र वित्त-गृह-प्रजा-पशुरुपं कल्याणं करिष्यसि तद् मर्द तवेत् तवैवै सुखहेतुरिति शेष: । हे अङ्गिरोऽग्ने ! एतश्च सत्वं, त्वत्र विसंवादोऽस्ति, यजमानस्य वित्तादिसम्यत्तैौ सत्यामुत्तक्स्चनुष्ठानेन अग्नेरेव सुखं भवति |" -सायण
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करण हो आता है । वही अग्निका सत्य है कि वह यज्ञकर्ताके लिये निश्चित रूपसे बदलेमें भला ही करता है ।
सातवीं ॠचा कर्मकाण्डपरक व्याख्यामें कोई कठिनाई उपस्थित नहीं करती, सिवाय इस अद्भूत वाक्यांशके कि "हम नमस्कारको धारण करते हए .आते है ।'' सायण यह स्पष्टीकरण करता है कि वहां घारण करनेका अभिप्राय सिर्फ 'करना' है, और वह इस ॠचाका अनुवाद इस प्रकार करता है--"तेरे पास हम प्रतिदिन, रातको और दिनमें, बुद्धिके साथ, नमस्कारको .करते हुए आते है1 । ''आठवीं ॠचामें 'ॠतस्य'को वह सत्यके अर्थमें लेता है ओर इसकी व्याख्या यह करता है कि इसका अभिप्राय है यंज्ञकर्मके सच्चे फल । ''तेरे पास हम आते है, जो तू दीप्यमान है, यज्ञोंका रक्षक है, सर्वदा उनके सत्यका ( अर्थात् उनके अवश्यम्भावी फलका ) द्योतक है, अपने घरमें बुद्धिको प्राप्त हो रहा है1 ।'' यहां फिर, यह अधिक सरल और अधिक अच्छा होता कि 'ॠतम्'को यज्ञके अर्थमें लिया जाता और इसका अनुवाद यह किया जाता--"तेरे पास, जो तू. यज्ञमें प्रदीप्त हो रहा है, यज्ञ (ॠत) का रक्षक है, सदा प्रकाशमान है, अपने धरमें वृद्धिको प्राप्त हो रहा है ।'' अग्निका ''अपना घर", भाष्यकार कहता है, यज्ञशाला है, और वस्तुत: ही इसे संस्कृतमें प्रायः 'अग्नि-गृह' कहते हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उस संदर्भ तकका जो पहले-पहल देखने पर आध्यात्मिक अर्थकी एक बड़ी भारी सम्पत्तिको देता हुआ लगता है, हम थोड़ा-सा ही जोड़-तोड़ करके एक विशुद्ध कर्मकाण्डपरक, किन्तु.. बिल्कुल अर्थ-शून्य, आशय गढ़ सकते हैं । तो भी यह काम कितनी ही निपुणताके साथ क्यों न किया जाय इसमें दोष और कमियां रह ही जाती हैं और उनसे इसकी कृत्रिमताका पता लग जाता है । हम देखते हैं कि हमें 'कवि'के उस सीघे अर्थको दूर फेंक देना पड़ा है जो इसके साथ सारे वेदमें जुड़ा हुआ है और इसके मत्ये एक अवास्तविक अर्थको मढ़ना पड़ा है । या तो हमें 'सत्य' और 'ऋत' इन दो शब्दोंका एक दूसरेसे सम्बद्धविच्छेद करना पड़ा है जब कि वेदमें ये दोनों शब्द अत्यन्त सम्बद्ध पाये जाते हैं या ॠतको
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1. "है अग्ने, वयमनुष्ठातारो दिवेदिवे प्रतिदिनं, दोषायस्त: रात्रावहिन च घिया यद्च्छा, नमो मरन्त: नमस्कारं सम्पादयन्त:, उप समीपे त्वा एमसित्वामा-गच्छाम:" |--सयाण
2. "कीदृशं" त्वां ? राजन्तं दीप्यमानं अव्व्रणां राक्षसकृतहिंसारहितनां यज्ञानां, गोपां रक्षकम् ॠृतस्यसत्यस्य अवश्यम्माविन: कर्मफ़ल्स्य , दीदिविं पुन्ये भृज्ञे वा धोताकं,......, स्वे दमे स्वकीवगृहे यज्ञशालायां हविर्मिवर्धमानम्'' ।-सायण
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जबर्दस्ती कोई नया अर्थ देना पड़ा है और शुरूसे, अन्त तक हमने उन सब स्वाभाविक निर्देशोंकी उपेक्षाकी है जिनके लिये ऋषिकी भाषा हमपर दबाव डालती है |
तो अब हमें इस सिद्धान्तको छोड़कर इसके स्थान पर दूसरे सिद्धान्तका अनुसरण करना चाहिये । और ईश्वर-प्रेरित मूल वेदके शब्दोंको उनका आध्यात्मिक मूल्य पूर्ण रूपसे देना चाहिये । 'ॠतु' का अर्थ संस्कृतमें कर्म या क्रिया है, विशेषकर यज्ञ-रूप कर्म, परन्तु इसका अर्थ वह शक्ति या बल (ग्रीक क्रटोस 'Kratos') भी होता है जो क्रियाको साघित करनेमें समर्थ हो | आध्यात्मिक रूपमें यह शक्ति जो क्रियाको साघित करनेमें समर्थ हो | आध्यात्मिक रुपमे यह शक्ति, जो क्रियाको साधित करनेमें समर्थ होती है, संकल्प है | इस शब्दका अर्थ मन या बुद्धि भी हो सकसा है और सावण स्वीकार कूरता है कि इसका एक संभव अर्थ विचार या ज्ञान भी है । ' श्रंवस्' का शाब्दिक अर्थ सुनना है और इस मुख्य अर्थसे ही इसका आनु-षंगिक अर्थ ' कीर्ति' लिया गया है । पर अध्यात्मरूपसे, इसमें जो सुननेका भाव है वह संस्कृतमें एफ दूसरे ही भावको देता है, जिसे हम ' श्रवण', 'श्रुति', श्रुत-- 'इश्वरीय ज्ञान-; या अंत:प्रेरणासे प्राप्त होनेवाले ज्ञान--में पाते हैं । 'दृष्टि' 'श्रु ति', दर्शन और श्रवण, स्वत: प्रकाश और अन्त:स्फुरणा---ये उस अतिमानस सामर्थ्यकी दो शक्तियाँ है जिसका संबंध सत्यके, 'ऋतम् के प्राचीन वैदिक विचारसे है । कोषकारोंने ' श्रवस्' शब्दको इस अर्थमें नहीं दिखाया है,परन्तु 'वैदिक ॠचा, एक वदिक सूक्त, वेदके ईश्वरप्रेरित शब्द' इस अर्थमें यह शब्द स्वीकार किया गया है । इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि किसी. सस्यमें यह.. शब्द अन्त:प्रेरित ज्ञानके या किसी ऐसी वस्तुके भोक्ता देता था जो अन्त:स्कूंरित हुई हो, चाहे वह शब्द हो या ज्ञान हो | तो इस अर्थको, कम-से-कम अस्थायी तौर पर ही सही, हमें प्रस्तुत संदर्भमें लगानेका, अधिकार. है, क्योंकि दूसरा कीर्तिका अर्थ इस प्रकरणमें बिलकुल असंगत और निरर्थक लगता है ।. फिर नमस् शब्दका भी आध्यात्मिक आशय लेना' चाहिये, क्योंकि इसका शाब्दिक अर्थ है ''नीचे झुकना'' और इसका प्रयोग देवताके प्रति की .गयी सत्कारसूचक नम्रताकी क्रियाके लिये होता है जो भौतिक रूपसे शरीरको दण्डवत् करके की जाती है । इसलिये जब ऋषि "विचार द्वारा अग्निके लिये नम: धारणा करने" की बात कहता है तो इसपर हम मुश्किलसे ही संदेह कर सकते हैं कि वह 'नमस्' को आध्यात्मिक तौर पर आन्तरिक नमस्कारके, देवताके प्रति हृदयसे नत हो जाने या आत्म-समर्पण करनेके अर्थमें प्रयुक्त कर रहा है ।
तो हम उपर्युक्त चार ॠचाओंका यह अर्थ पाते हैं-----
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''अग्नि, जो यज्ञका होता है, कर्मके प्रति जिसका संकल्प दृष्टाका-सा है, जो सत्य है, नानाविध अन्तःप्रेरणाका जो महाघनी है, वह देव देवोंके साथ आवे ।''
"वह भलाई जो तू हवि देनेवालेके लिये करेगा, वही तेरा वह सत्य है, हे अंगिर: ! ''
"तेरे प्रति दिन-प्रतिदिन, हे अग्ने ! रात्रिमें और प्रकाशमें, हम विचारके द्वारा अपने आत्म-समर्पणको घारण करते हुए आते हैं ।"
"तेरे प्रति, जो तू यज्ञोंमें देदीप्यमान होता है (या जो यज्ञों पर राज्य करता है ), सत्यका और इसकी ज्योतिका संरक्षक है, अपने घरमें बढ़ रहा है ।''
हमारे इस अनुवादमें यह त्रुटि है कि हमें 'सत्यम्' और 'ऋंतम्' दोनोंके लिये एक ही शब्द प्रयुक्त करना पड़ा हैं, जब कि, जैसे कि हमें 'सत्यम् ऋतुम् बृहत्'. इस सूत्रमें देखनेसे पता चलता है, वैदिक विचारमें इन दोनों शब्दोंके ठीक-ठीक अर्थोमें अंतर था ।
तो फिर यह अग्निदेवता कौन है जिसके लिये ऐसी रहस्यमयी तेजस्विताकी भाषा प्रयुक्त की गयी है, जिसके साथ इतने महान् और गंभीर :कार्यमें का संबंघ जोड़ा गया है ? यह सत्य का संरक्षक कौन है जो अपने कार्यमें इस सत्यका प्रकाशरूप है, कर्ममें जिसका संककल्प जो अपनी समृद्धतया विविघ अन्तःप्रेरणाओं पर शासन करनेवाली दिव्य बुद्धिसे युक्त है ? वह सत्य क्या वस्तु है जिसकी वह' रक्षा? करता है ? और वह भद्र क्या है जिसे वह उस हवि देनेवालेके लिये करता है जो उसके पास सदा, दिनरात, बिचारमें हविरूपसे नमन और आत्म-समर्पणको धारण किए हुए आता है ? क्या यह सोना है और घोड़े हैं, और गौएं हैं जिन्हें वह लाता है, अथवा ये कोई अधिक दिव्य ऐश्वर्य हैं ?
यह यज्ञकी अग्नि नहीं है जो इन सब कार्योको कर सके, न ही यह कोई भौतिक ज्वाला अथवा भौतिक ताप और प्रकाशका कोई तत्त्व हो सकेता है । तो भी सर्वत्र यज्ञिय अग्निके प्रतीकका अवलंबन किया गया है | यह स्पष्ट है कि हमारे सामने एक रहस्यमय प्रतिवाद है, जिसमें अग्नि, यज्ञ, होता, ये सब एक गंभीरतर शिक्षणके केवल बाह्य अलंकारमात्र हैं और फिर भी ऐसे अलंकार हैं जिनका अवलंबन करना और निरंतर अपने सामने रखना आवश्यक समझा गया था ।
उपनिषदोंकी प्राचीन वैदान्तिक शिक्षामें सत्यका एक विचार देखनेमें आता है जो अघिकतर सुत्रोंके द्वारा प्रकट किया गया है और वे सूत्र वेदकी
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ॠचाओंमेंसे लिये गये है, जैसे कि एक वाक्य जिसे हम पहले ही उद्धृत कर चुके हैं यह है, ''सत्यम् ऋतम् बृहत्"--सच, ठीक और महान् । वेदमें इस सत्यके विषयमें कहा गया है कि यह एक मार्ग है वो सुखकी ओर ले जाता है, अमरताकी ओर ले जाता है । उपनिषदोंमें भी यही कहा गया है कि सत्यके मार्ग द्वारा ही सन्त या द्रष्टा, ऋषि या कवि पार पहुंचता है, वह असत्यको पार कर लेता है, मर्त्य अवस्थाको पार करके अमर सत्तामें पहुंच जाता है । इसलिये हमें यह कल्पना करनेका अघिकार है कि यह एक ही विचार है जिसपर वेदमें और वेदान्तमें दोनों जगह चर्चा चल रही है ।
यह आध्यात्मिक विचार उस सत्यके विषयमें है जो दिव्य तत्त्वका सत्य है, न कि जो मर्त्य संवेदन और बाह्य रूपोंका सत्य है । वह 'सत्यम्' है, सत्ताका सत्य है, अपनी क्रियाके रूपमें वह 'ॠतम्' है, व्यापारका सत्य है,-- दिव्य सत्ताका सत्य जो मन और शरीर दोनोंकी सही क्रियाको नियमित करता है, वह 'बृहत्' है, अर्थात् सार्वत्रिक सत्य है जो असीममेंसे सीधा और अविकृत रूपसे निकलता है । वह चेतना भी, जो इसके अनुरूप होती है, असीम है । ऐन्द्रिय मनकी चेतना तो सीमा पर आघारित है, इसके विपरीत वह सत्यकी चेतना बृहत् अर्थात् विशाल है । एकको 'भूमा', विशाल कहा गया है, दूसरीको 'अल्प', छोटा । इस अतिमानस या सत्य-चेतनाका एक दूसरा नाम 'मह:' है और इसका अर्थ भी है 'महान्', 'विशाल' । और जिस प्रकार :इन्द्रियानुभव एवं बाह्य प्रतीतिके तथ्योंके लिये जो नाना प्रकारके मिथ्यात्वसे ( अनृतम्, अर्थात् असत्यसे या मानसिक तथा शारीरिक क्रियामें सत्यम्के अशुद्ध प्रयोगसे ) भरे होते हैं, हमारे पास उपकरण हैं इन्द्रियाँ, ऐन्द्रियमन ( मनस् ) और बुद्धि ( जो उनकी साक्षीके आधार पर कार्य करती है ), उसी प्रकार सत्य-चेतनाके लिये उसीके अनुरूप शक्तियां हैं--'दृष्टि', 'श्रुति, 'विवेक', सत्यका अपरोक्ष दर्शन, इसके शब्दका अपरोक्ष श्रवण, और जो ठीक हो उसकी अपरोक्ष विवेचन द्वारा पहिचान । जो कोई इस सत्य चेतनासे युक्त होता है या इस योग्य होता है कि ये शक्तियां उसमें अपनी क्रिया करें, वह ॠषि या 'कवि' है, सन्त या द्रष्टा है । सत्यके, 'सत्यम् ' और ऋतम्'क़े, इन विचारों को ही हमें वेदके इस प्रारम्भिक सूक्तमें लगाना चाहिये ।
अग्नि वेदमें हमेशा शक्ति और प्रकाशके द्विविध रूपमें आता है । यह वह दिव्य शक्ति है जो लोकोंका निर्माण करती है, वह शक्ति है जो सर्वदा पूर्ण ज्ञानके साथ क्रिया करती है, क्योंकि यह 'जातवेदस्' है' सब जन्मोंको जाननेवाली है, 'विश्वानि वयुवानी विद्वान्'-- यह सब व्यक्त रूपों या घटनाओंको
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जानती है अथवा दिव्य बुद्धिके सब रूपों और व्यापारोंसे यह युक्त है । इसके अतिरिक्त यह बार-बार कहा गया है कि अग्निको देवोंने मत्योंमें अमृत रूपसे स्थापित किया है, उसे मनुष्यमें दिव्य शक्तिके रूपमें, उस पूर्ण करनेवाली, सिद्ध करनेवाली शक्तिके रूपमें रखा है जिसके द्वारा वे देवता उस मनुष्यके अन्दर अपना कार्य करते है । इसी कार्यका प्रतीक यज्ञको बनाया गया है ।
तो आध्यात्मिक रूपसे अग्निका अर्थ हम दिव्य संकल्प ले सकते हैं, वह दिव्य संकल्प जो पूर्ण रुपसे दिव्य बुद्धिके द्वारा प्रेरित होता है । और असलमें यह संकल्प इस बुद्धिके साथ एक है, यह यह शक्ति है जिससे सत्य चेतना क्रिया करती है या प्रभाव डालती है । 'कविक्रतु' शब्दका स्पष्ट आशय है, वह जिसका क्रियाशील संकल्प या प्रभावक शक्ति द्रष्टाकी है, अर्थात् वह उस ज्ञानके साथ कार्य करता है जो सत्य-चेतनासे आनेवाला ज्ञान है और जिसमें कोई भ्रान्ति या गलती नहीं है । आगे जो विशेषण आये हैं वे इस व्याख्या को और भी पुष्ट करते हैं । अग्नि 'सत्य' है, अपनी सत्तामें सच्चा है; अपने निजी सत्यपर और वस्तुओंके सारभूत सत्यपर जो इसका पूर्ण अधिकार है उसके कारणसे इसमें यह सामर्थ्य है कि यह इस सत्यका शक्तिकी सब क्रियाओं और गतियोंमें पूर्णताके साथ उपयोग कर सकता है । इसके पास दोनों हैं 'सत्यम्' औंर'. 'ऋतम्' ।
इसके अतिरिक्त वह 'चित्रश्रवस्तम:' है; 'ॠतम्' से उसमें अत्यधिक प्रकाशमय और विविध अन्त:प्रेरणाओंकी पूर्णता आती है, जो उसे पूर्ण कार्य करनेकी क्षमता प्रदान करती है । क्योंकि ये सब विशेषण उस अअग्निके हैं जो 'होता' है, यज्ञ का पुरोहित है, जो हवि प्रदान करनेवाला है । इसलिये यज्ञके प्रतीकसे सूचित होनेवाले कार्य (कर्म या अपस्) में सत्यका प्रयोग करनेकी उसकी शक्ति ही अग्निको मनुष्य द्वारा यज्ञमें आहूत किये जानेका पात्र बनाती है । बाह्य यज्ञोंमें यज्ञिय अग्निकी जो महत्ता है उसके अनुरूप ही आभ्यन्तर यज्ञमें इस एकीभूत ज्योति और शक्तिके आन्तरिक बलकी महत्ता है । इस आभ्यन्तर यज्ञके द्वारा मर्त्य और अमर्त्यमें परस्पर संसर्ग और एक दूसरेके साथ आदान-प्रदान होता है । अन्य स्थलोंमें ऐसा वर्णन बहुतायतके साथ पाया जाता है कि अग्नि 'दूत' है, उस संसर्ग और अदान-प्रदानका माध्यम है ।
तो हम देखते हैं कि किस योग्यतावाले अग्निको यज्ञके लिये पुकारा गया है, ''वह देव अन्य देवोंके साथ आये ।'१ ''देवो देवेभि:'' इस पुनरुक्तिके द्वारा जो दिव्यताके विचारपर विशेष बल दिया गया 'है वह तब बिल्कुल साफ समझमें
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आने, लगता है जब हम अग्निके इस नियत वर्णनको स्मरण करते हैं कि वह मनुष्योंमें रहनेवाला देव है, मर्त्योंमें अमर्त्य है, दिव्य. अतिथि है । इसे हम पूर्ण आध्यात्मिक रंग दे सकते हैं यदि हम इसका यह अनुवाद करें, 'वह दिव्य शक्ति दिव्य शक्तियोंके साथ आये ।' क्योंकि वेदार्थकी बाह्य वृष्टिमें देवता भौतिक प्रकृतिकी सार्वत्रिक शक्तियां हैं जिन्हें अपना पृथक्- पृथक् व्यक्तित्व प्राप्त है, अतः किसी भी आन्तरिक दृष्टिमें ये देवता अवश्य ही प्रकृति की वे सार्वत्रिक शक्तियां, संकल्प, मन आदि होने चाहियें जिनके द्वारा प्रकृति हमारे अन्दरकी हलचलोंमें काम करती है । .
परन्तु वेदमें इन शक्तियोंकी साधारण मन:सीमित या मानवीय क्रियामें, 'मनुष्यत्', और इनकी दिव्य क्रियामें सर्वदा भेद किया गया है । यह कल्पना की गयी है कि मनुष्य देवताओंके प्रति अपने आन्तरिक यज्ञमें अपनी मानसिक क्रियाओंका सही उपयोग करे तो उन्हें वह उनके सच्चे अर्थात् दिव्य रूपमें रूपान्तरित कर सकता है, मर्त्य अमर बन सकता है । इस प्रकार ही ॠभुगण जो पहले मानव सत्ताएं थे या मानव शक्तियोके द्योतक थे, कर्मकी पूर्णताके द्वारा-'सुकृत्यया', 'स्वपस्यया--दिव्य और अमर शक्तियां बन गये । मानवका दिव्यको सतत आत्म-समर्पण और दिव्यका मानवके अन्दर सतत अवतरण ही यज्ञके प्रतीकसे प्रकट किया गया प्रतीत होता है ।
इस अमरताकी अवस्थाको जो इस प्रकार प्राप्त होती है आनन्द और परम सुखकी अवस्था समझा गया है जिसका आधार एक पूर्ण सत्यानुभव और सत्याचरण, 'सत्यम्' और 'ऋतम्' है । मैं समझता हूँ इससे अगली ॠचाको हमें अवश्य इसी अर्थमें लेना चाहिये । ''वह भलाई (सुख ) जो तू हवि देनेवालेके लिये करेगा, वह है तेरा वही सत्य हे अग्ने | '' दूसरे शब्दोंमें, इस सत्यका (जो इस अग्निका स्वभाव है ) सार है अभद्रसे मुक्ति, पूर्ण भद्र और सुखकी अवस्था जो 'ॠतम्'के अन्दर रहती है और जिसका मर्त्यमें सृजन होना निश्चित है, जब वह मर्त्य अग्निको दिव्य होता बनाकर उसकी क्रिया द्वारा यज्ञमें हवि देता है । 'भद्रम्'का अर्थ है कोई वस्तु जो भली, शिव, सुखमय हो, और स्वयं इसे अपने अन्दर कोई गम्भीर अर्थ रखनेकी आवश्यकता नहीं । परन्तु वेदमें हम इसे 'ॠतम्'की तरह एक विशेष अर्थमें प्रयुक्त हुआ पाते हैं ।
एक सूक्त ( 5-82) में इसका. इस रूपमें वर्णन किया गया है कि यह बुरे स्वप्न (दुःष्यप्न्यम् ) का 'अनृतम्' की मिथ्या-चेतनाका और 'दुरितम्' का, मिथ्या आचरणका विरोधी है1, जिसका अभिप्राय होता है कि यह सब
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1. परजावत् साविः सौभगम् | परा दू:श्वप्न्यं सुव || ( ॠ० 5-82-4)
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प्रकारके पाप और कष्टका विरोधी है । इसलिये 'भद्रम्'1 'सुवितम्'का (सत्य आचरणका ) समानार्थक है, जिसका अर्थ है यह सब भलाई और सुख-कल्याण जो सत्यकी, 'ऋतक' की अवस्थासे सम्बन्ध रखता है । यह 'मयस्' है, सुख-कल्याण है, और देवताओंको, जो सत्य-चेतनाका प्रतिनिधित्व करते हैं, 'मयोभुवः' कहा गया है अर्थात् वे जो सुख-कल्याण लाते हैं या जो अपनी सत्तामें सुख-कल्याण रखते हैं । इस प्रकार वेदका प्रत्येक भाग, यदि वह अच्छी तरहसे समझ लिया जाय तो, प्रत्येक दूसरे भाग पर प्रकाश डालता है । इसमें परस्पर असंगति हमें तभी दीखती है जब इसपर पड़े हुए आवरणके कारण हम भटक जाते हैं ।
अगली ऋचामें, यह प्रतीत होता है कि फलोस्पादक यज्ञकी शर्त बतायी गयी है । वह यह है कि मानवके अंदर अवस्थित विचार (घी ) दिन-प्रतिदिन, रातको और प्रकाशमें नमन, आराधन और आत्मसमर्पणके साथ निरन्तर उस दिव्य संकल्प और प्रज्ञाका आश्रय ले जिसका प्रतिनिधि अग्नि है, रात और दिन, नक्तोषासा', भी वेदके अन्य सब देवोंकी तरह प्रतीकरूप ही हैं और आशय यह प्रतीत होता है कि चेतनाकी सभी अवस्थाओंमें, चाहे वे प्रकाशमय हों चाहे घुंधली, समस्त क्रियाओंकी दिव्य नियन्त्रणके प्रति सतत वशवर्तिता और अनुरूपता होनी चाहिये ।
क्योंकि चाहे दिन हो चाहे रात, अग्नि यज्ञोंमें प्रदीप्त होता है, वह मनुष्यके अन्दर सत्यका, 'ऋतम्'का रक्षक है और अंधकारकी शक्तियोंसे इसकी रक्षा करता है, वह इस सत्यका सतत प्रकाश है जो मनकी घुंघली और पर्याक्रान्त दशाओंमें भी प्रदीप्त रहता है । ये विचार जो इस प्रकार आठवीं ऋचामें संक्षेपसे दर्शाये गये हैं, ऋग्वेदमें अग्निके जितने सूक्त हैं उन सबमें स्थिर रूपसे पाये जाते हैं ।
अन्तमें अग्निके विषयमें यह कहा गया है कि वह अपने धरमें वृद्धिको प्राप्त होता है । अब हम अधिक देर तक इस व्याख्यासे सन्तुष्ट नहीं रह सकते कि अग्निका अपना घर वैदिक गृहस्थाश्रमीका 'अग्नि-गृह' है । हमें स्वयं वेदमें ही इसकी कोई दूसरी व्याख्या ढूंढनी चाहिये, और वह हमें प्रथम मंडलके 75वें सूक्तमें मिल भी जाती है ।
यजा नो मित्रावरुणा यजा देवां ॠतं वृहत् । अग्ने यक्षि स्वं दमम् । ऋ० १।७५।५
'यज्ञ कर हमारे लिये मित्र और वरुणके प्रति, यज्ञ कर देवोंके प्रति, सत्यके, बृहत्के प्रति हे अग्ने ! स्वकीय घरके प्रति यज्ञ कर देवोंके प्रति, सत्यके, बृहत् प्रति, हे अग्ने ! स्वकीय घरके प्रति यज्ञ कर |'
1. दुरितानि परा सुव | यढ़ू भद्रं तन्न आ सुव || (ॠ० 5-82-5)
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यहां 'ॠतं, बृहत्' और 'स्वं दमम्' यज्ञके लक्ष्यको प्रकट करते हुए प्रतीत होते हैं और ये पूर्णतया वेदके उस अलंकारके अनुरूप हैं जिसमें यह कहा गया है कि यज्ञ देवोंकी ओर यात्रा है और मनुष्य स्वयं एक यात्री है जो सत्य, ज्योति या आनंदकी ओर अग्रसर हो रहा है । इसलिये यह स्पष्ट है कि 'सत्यं', 'बृहत्' और 'अग्नि का स्वकीय घर एक ही है । अग्नि और अन्य देवताओके बारेमें बहुधा यह कहा गया है कि वे सत्यमें उत्पन्न होते हैं, 'ॠतजात', विस्तार या बृहत्के अन्दर रहते हैं । तो हमारे इस संदर्भका आशय यह होगा कि अग्नि जो मनुष्यके अन्दर दिव्य संकल्प और दिव्य शक्ति-रूप है, सत्य-चेतनामें जो इसका अपना वास्तविक क्षेत्र है, बढ़ता है, जहां मिथ्या बन्धन विस्तृत और असीममें, उरौ अनिवधे', टूटकर गिर जाते हैं ।
इस प्रकार वेदके प्रारम्भिक सूक्तकी इन चार ऋचाओंमें हमें वैदिक ॠषियोंके प्रधानभूत विचारोके प्रथम चिह्न देखनेको मिलते हैं,-अतिमानस और दिव्य सत्यचेतनाका विचार, सत्यकी शक्तियोंके रूपमें देवताओंका आवाहन, इसलिये कि वे मनुष्यको मर्त्य मनके मिथ्यारूपोंमेंसे निकालकर ऊपर उठायें, इस सत्यके अन्दर और इसके द्वारा पूर्ण भद्र और कल्याणकी अमर अवस्थाको पाना और दिव्य पूर्णताके साधनके रूपमें मर्त्यका अमर्त्यके प्रति आभ्यन्तर यज्ञ करना तथा उसके पास जो कुछ है एवं वह अपने आप जो कुछ है उसका उस यज्ञमें हवि-रूपसे उत्सर्ग कर देना । शेष सब वैदिक विचार अपने आध्यात्मिक रूपोंमें इन्हीं केंद्रभूत विचारोके चारों तरफ एकत्रित हो जाते हैं ।
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