Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
सोलहवाँ अध्याय
अंगिरस् ऋषि
'अंगिरस्' नाम वेदमें एकवचनमें या बहुवचनमे-अधिकतर बहुवचनमें--बहुत जगह आया है । पैतृक नाम या गोत्रसूचक नामके तौरपर 'आंगिरस' यह शब्द भी कई जगह बृहस्पति देवताके विशेषणके तौरपर वेदमें आया है । पीछेसे अंगिरस् ( भृगु तथा अन्य मंत्रद्रष्टा ऋषियोंकी तरह ) उन वंशप्रव्रर्तक ऋषियोंमें गिना जाने लगा था जिनके नामसे वंश तथा गोत्र चले और पुकारे जाते थे, जैसे 'अंगिरा:' से आगिरस, 'भृगु' से भार्गव । वेदमें भी ऐसे ऋषियोंके कुल हैं, जैसे अत्रय:, भृगव:, कण्वा: । अत्रियोंके एक सूक्तमें ( 5.11 .6 ) अगिरस् ऋषियोंको अग्नि (पवित्र आग ) को खोज निकालने-वाले कहा गया है, एक दूसरेमें ( 10.46.9 ) भृगुओंको ।1 बहुधा सात आदिम अंगिरसोंका वर्णन इस रूपमें हुआ है कि वे मनुष्य पुंरखा हैं, 'पितरो मनुष्या: ', जिन्होंने प्रकाशको खोज निकाला, सूर्यको चमकाया और सत्यके स्वर्लोकमें चढ़ गये । दशम मण्डलके कुछ सूक्तोंमें अंगिरसोंको कव्यभुक् पितरोंके तौरपर यम ( एक देवता जो कि पीछे के सूक्तोंमें ही प्रधानतामें आया है ) के साथ संबंधित किया गया है, वहाँ ये अंगिरस्-गण देवताओंके साथ बर्हिपर बैठते हैं और यज्ञमें अपना भाग ग्रहण करते हैं ।
यदि अगिरस् ऋषियोंके विषयमें संपूर्ण तथ्य इतना ही होता तो इन्होंने गौओंके खोजनेमें जो भाग लिया है उसकी व्याख्या करना बड़ा आसान था; बल्कि उसकी व्याख्यामें कुछ खास कहनेकी जरूरत ही न थी, तब तो इतना ही है कि ये पूर्वपुरुष हैं, वैदिक धर्मके संस्थापक हैं, जिन्हें इनके वंशजोंने आंशिक रूपसे देवत्व प्रदान कर दिया है और जो उत्तरी ध्रुवकी लंबी रात्रिमें से उषा और सूर्यकी पुन:प्राप्तिके कार्यमें या प्रकाश और सत्यकी विजयमें देवोंके साथ सतत रूपसे संबन्धित हैं । परन्तु इतना ही सब कुछ नहीं है, वैदिक गाथा इसके और गम्भीर पहलुओंका भी वर्णन करती है ।
पहिले तो यह कि अगिरस् केवल देवत्वप्राप्त मानुष पितर ही नहीं हैं
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1. बहुत संभव है, अंगिरस् ऋषि अग्निकी ज्वलत् (अंगार ) शत्तियां हैं और भृगुगण सूर्यकी सौर शशक्तियां हैं ।
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किन्तु वे हमारे सामने इस रूपमें भी दिखाये गये हैं कि वे द्युलोकके द्रष्टा हैं ( दिव्य ऋषि हैं ), देवताओंके पुत्र हैं वे द्यौके पुत्र हैं और असुरके, बलाधिपतिके वीर हैं या शक्तियाँ हैं । 'दिवस्युत्रासो असुरस्य वोरा:' यह एक ऐसा वर्णन है जो, अगिरसोंके संख्यामें सात होनेके कारण, तत्सदृश ईरानियन गाथाके अहुरमज्द ( Ahura Mazda ) के सात देवदूतोंका शायद केवल आकस्मिक रूपसे, पर प्रबलतासे स्मरण करा देता है और फिर ऐसे संदर्भ भी हैं जिनमें अंगिरस् बिल्कुल प्रतीकात्मक हो गये दीखते हैं, वे मूल अग्निके पुत्र और शक्तियाँ हैं, वे प्रतीकभूत प्रकाश और ज्वालाकी शक्तियाँ हैं और वे उस सात मुखवाले, अपनी नौ और अपनी दश प्रकाश-किरणोंवाले एक अगिरस्में, नवग्वे अङ्गिरे दशग्वे सप्तास्ये, एकीभूत भी हो जाते हैं जिसपर और जिस द्वारा उषा अपने संपूर्ण आनन्द और वैभवके साथ खिल उठती है । ये तीनों स्वरूपवर्णन एक ही और उन्हीं अंगिरसोंके प्रतीत होते हैं, क्योंकि इनमें उनके विशेष गुण और उनके कार्य अन्य फर्कके होते हुए भी अभिन्न ही रहते हैं ।
अगिरस्ं ऋषि दैव भी हैं और मनुष्य भी हैं, उनके इस प्रकार दुहरे स्वरूपवाले होनेकी व्याख्या दो बिलकुल विपरीत तरीकोंसे की जा सकती है । हो सकता है कि वे मूलत: मनुष्य-ऋषि रहे हों और उनके वंशजोंने उन्हें देवताका रूप दे दिया हो और इस देवत्वापादनमे उन्हें दिव्य कुल-परम्परा तथा दिव्य व्यापार भी दे दिये गये हों; या फिर वे मूलत: अर्धदेव हों, प्रकाश और ज्वालाकीं शक्तियाँ हो, जिनका मनुष्य-जातिके पितरों तथा उसके ज्ञानके आविष्कारकोंके रूपमें मानुषीकरण हो गया हो । ये दोनों ही प्रक्रियाएँ प्राथमिक गाथाविज्ञानमें स्वीकार की जाने योग्य हैं । उदाहरणार्थ, ग्रीक कथानकके कैस्टर ( Castor ) और पोलीडूसस ( Polydeuces) और उनकी बहिन हे हेलेन ( Helen ) मानुष प्राणी थे, यद्यपि ये जुस ( Zeus ) के पुत्र थे, और मृत्युके बाद ही देव हुए । परन्तु बहुत सम्भावना यह है कि ये तीनों मूलत: ही देव थे-लगभग निश्चयसे कहा जा! सकता है कि युगल, घोड़ेपर चढ़नेवाले, समुद्रमें नाविकोंकी रक्षा करनेवाले कैस्टर और पोलीडूसस वैदिक अश्विनौ हैं जो घुड़सवार हैं जैसा कि 'अश्विन्' यह नाम ही बताता है, अद्भुत रथपर चढ़नेवाले हैं, युगल भी हैं समुद्रमें 'भूज्यु' की रक्षा करनेवाले हैं, अपार जलराशिपर से पार तरानेवाले, उषाके भाई है; और कैस्टर एवं पोलीडूससकी बहन हेलेन उषा है या वह देवशुनी 'सरमा' ही है जो दक्षिणाकी तरह उषाकी शक्ति, लगभग उसकी मूर्त्ति (प्रतिमा) है | पर इनमेंसे कुछ भी मानें इसके आगे एक और विकासक्रम
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हुआ है, जिसके द्वारा ये देव या अर्धदेव आध्यात्मिक व्यापारोंसे युक्त हो गये हैं, शायद उसी प्रक्रिया द्वारा जिससे ग्रीकधर्ममें Athene, उषा, का ज्ञानकी देवीके रूपमें परिवर्तन तथा Apollo, सूर्य, का दिव्य गायक और द्रष्टाके, भविष्यवाणी और कविताके प्रेरक-देवके रूपमें परिवर्तन हो गया ।
वेदमें यह संभव है कि एक और ही प्रवृत्ति काम कर रही हो--अर्थात् उन प्राचीन रहस्यवादियोंके मनोंमें प्रधानतया विद्यमान, सतत और सर्वत्र पायी जानेवाली प्रतीकवादकी प्रवृत्ति या आदत । हर एक बात, उनके अपने नाम, राजाओं और याजकोंके नाम, उनके जीवनकी साधारणसे साधारण परिस्पितियाँ--ये सब प्रतीकोंके रूपमें ले आयी गयी थीं और वे प्रतीक उनके असली गुप्त अभिप्रायोंके लिये आवरणका काम देते थे । जैसे वे 'गौ' शब्दकी द्वचर्थकताका उपयोग करते थे, जिसका अर्थ 'किरण' और 'गाय' ये दोनों होते थे, जिसमें गाय ( उनके पशुपाल-जीवनसम्बन्धी संपत्तिके मुख्य रूप ) की मूर्त प्रतिमा उसके छिपे हुए अभिप्राय आन्तरिक प्रकाशके लिये (जो उनकी उस आध्यात्मिक संपत्तिका मुख्य तत्त्व था ) जिसकी वे अपने देवोंसे प्रार्थना करते थे आवरण बन सके, वैसे ही वे अपने नामोंका भी उपयोग करते थे, उदाहरणार्थ, गोतम 'प्रकाशसे अधिक-से-अधिक भरा हुआ', गविष्ठिर 'प्रकाशमें स्थिर', एवं ऊपरसे देखनेमें जो निजी दावा या इच्छा-सी प्रतीत होती है, उसके नीचे वे अपने विचारमें रहनेवाले विस्तृत और व्यापक अभिप्रायको छिपाये होते थे । इसी प्रकार वे बाह्य तथा आन्तर अनुभूतियोंका भी, थे चाहे अपनी हों या दूसरे ऋषियोंकी, उपयोग करते थे । यज्ञस्तम्भके साथ बाँधे गये शुन:शेपकी प्राचीन कथामें यदि कुछ सत्य है तो, जैसा कि हम अभी देखेंगे, यह बिल्कुल निश्चित है कि ऋग्वेदमें यह घटना या गाथा एक प्रतीकके रूपमें प्रयुक्त की गयी है । शुन:शेप है मानवीय आत्मा जो पापके त्रिविध बन्धनसे बद्ध है और अग्नि, सूर्य तथा वरुणकी दिव्य शक्तियों द्वारा वह इससे उन्मुक्त होता है । इसी प्रकार कुत्स, कण्व, उशना काव्य जैसे ऋषि भी किन्हीं आध्यात्मिक अनुभूतियों तथा विजयोंके प्रतीक या आदर्श बने हैं और उस स्थितिमें इन्होंने देवताओंके साथ स्थान प्राप्त किया है । तो फिर इसमें कुछ आश्चर्यकी बात नहीं कि सात अगिरस् ऋषि भी इस रहस्यमय प्रतीकवादमें, अपने परंपरागत या ऐतिहासिक मानुष स्वरूपका सर्वथा त्याग किये बिना ही, दिव्य शक्तियों और आध्यात्मिक जीवनके जीवन्त बल बन गये हों । तो भी हम यहां इन अटकलों और अनुमानोंको एक तरफ छोड़ देंगे और इनफी जगह इस परीक्षामें प्रबृत्त होंगे कि अंगिरसोंके व्यक्तित्वके उपर्युक्त तीन तत्त्वों या पहलुओंके तथा
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अन्धकारमेसे सूर्य और उषाको फिरसे प्राप्त करनेके अलंकार में क्या-क्या भाग रहा है ।
सबसे पहिल हमारा ध्यान इस बात पर जाता है कि वेदमें अगिरस् शब्द विशेषणके तौरपर प्रयुक्त हुआ है, अधिकतर उषा और गौओंके रूपरू के प्रकरणमें । दूसरे, यह अग्निके नामके तौरपर आया है, इन्द्रके विषयमें कहा गया है कि वह अंङ्गिरस् बन जाता है और बृहस्पतिको भी अगिरस् या आंगिरस पुकारा गया है, जो स्पष्ट ही केवल भाषालंकारके तौरपर या गाथात्मक तौरपर नहीं कहा गया है बल्कि विशेष अर्थ सूचित करनेके लिये और इस शब्दके साथ जो आध्यात्मिक या दूसरे भाव जुड़े हुए हैं उनको लक्षित करनेके लिये ही ऐसा कहा गया है । यहाँ तक कि अश्विन् देव भी सामूहिक रूपसे अगिरस् करके संबोधित किये गये हैं । इसलिए यह स्पष्ट है कि अगिरस् शब्द वेदमें केवल ऋषियोंके एक कुलके नामके तौरपर नहीं किन्तु इस शब्दके अन्दर निहित एक विशिष्ट अर्थको लेकर प्रयुक्त हुआ है । यह भी बहुत संभव है कि यह शब्द जब एक संज्ञा, नामके तौरपर प्रयुक्त किया गया है तब भी इसके अन्तर्निहित भावको स्पष्ट गृहीत करते हुए ही ऐसा किया गया है, बहुत संभव तो यहाँ तक है कि वेदमें आनेवाले नाम ही, यदि हमेशा नहीं तो सामान्यतया, अपने अर्थपर बलप्रदानपूर्वक प्रयुक्त किये गये हैं, विशेषतया देवों, ऋषियों और राजाओंके नाम । वेदमें इन्द्र शब्द सामान्यतया एक नामके तौरपर प्रयुक्त हुआ है तो भी हम वेदकी शैलीकी कुछ अर्थपूर्ण झांकियाँ पाते हैं जैसे कि उषाका वर्णन करते हुए उसे 'इन्द्रतमा, अङ्गिरस्तमा' कहा गया है, --'सबसे अधिक इन्द्र', 'सबसे अधिक अगिरस्'; और पणियोको 'अनिन्द्रा:' अर्थात् इन्द्ररहित वर्णित किया गया है । ये स्पष्ट ही ऐसे शब्दप्रयोग हैं जो इन्द्र या अंगिरससे निरूपित होनेवाले व्यापारों, शक्तियों या गुणोंसे युक्त होने या इनसे रहित होनेके भाव को सूचित करनेके अभिप्रायसे किये गये हैं । तो हमें अब यह देखना है कि वे अभिप्राय क्या हैं और अंगिरस् ऋषियोंके गुणों या व्यापारोंपर उन द्वारा क्या प्रकाश पड़ता है ।
'अङ्गिरस्' शब्द अग्निका सजातीय है, क्योंकि यह जिस धातु 'अगि' (अंग ) से निकला है वह अग्निकी धातु 'अग्'का केवल सानुनासिक रूप है । इन धातुओंका आन्तरिक अर्थ प्रतीत होता है प्रमुख या प्रबल अवस्था, भाव, गति, क्रिया, प्रकाश ।1 और इनमेंसे अन्तिम अर्थात् 'प्रदीप्त या
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1. प्रमुख या प्रबल अवस्थाके लिये संस्कृत शब्द है 'अग्र' जिसका अर्थ होता है अगला या शिखर और ग्रीकमें 'अगन' जिसका अर्थ है 'अधिकतासे' । प्रमुख भावके लिये
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जलता हुआ प्रकाश' इस अर्थसे ही 'अग्नि, आग, 'अंगार' (दहकता कोयला, अंगारा) और 'अंगिरस्' शब्द बने हैं । अतः अगिरस्का अर्थ होना चाहिये ज्वालामय या दीप्त । वेदमें और ब्राह्मण-ग्रंथोंकी परंपरामें भी अगिरस् मूलत: अग्निसे निकट-संबद्ध माने गये हैं । ब्राह्मणोंमें यह कहा गया है कि अग्नि आग है, अगिरस् अंगारे हैं, पर स्वयं वेदका निर्देश ऐसा प्रतीत होता है कि वे (अंगिरस् ) अग्निकी ज्वालाएँ हैं या ज्योतियाँ हैं । ऋ 10.62 में अगिरस् ऋषियोंकी एक ऋचामें उनके बारेमें कहा गया है कि वे अग्निके पुत्र हैं और अग्निसे उत्पन्न हुए हैं वे अग्निके चारों ओर और विविध रूपवाले होकर सारे द्युलोकके चारों ओर उत्पन्न हुए हैं ।१ और फिर इससे अगली पंक्तिमें इनके विषयमें सामुदायिक रूपसे एकवचनमें बोलते हुए कहा है--'नवग्यो नु दशग्यो अङ्गिरस्तम: सचा देवेषु मंहते' अर्थात् नौ किरणोवाला, दश किरणोंवाला सबसे अधिक अगिरस् (यह अंगिरस्-कुल ) देवोंके साथ या देवोंमें समृद्धिको प्राप्त होता है । इन्द्रकी सहायतासे ये अगिरस् गौओं और घोड़ोंके बाड़ेको खोल देते हैं, ये यज्ञ करनेवालोंको रहस्य-मय आठ कानोवाला गो-समूह प्रदान करते हैं और उसके द्वारा देवताओंमें 'श्रवस्' अर्थात् दिव्य श्रवण या सत्यकी अन्तःप्रेरणा उत्पन्न करते हैं (10.62. 5,6,7 ) । तो यह काफी स्पष्ट है कि अंगिरस् ऋषि यहाँ दिव्य अग्निकी प्रसरणशील ज्योतियाँ हैं जो द्युलोकमें उत्पन्न होती हैं, इसलिये ये दिव्य ज्वालाकी ज्योतियाँ हैं न कि किसी भौतिक आगकी । ये प्रकाशकी नौ किरणोंसे और दश किरणोंसे संनद्ध होते हैं, अगिरस्तम बनते हैं अर्थात् अग्निकी, दिव्य ज्वाला की जाज्वल्यमान अर्चियोंसे पूर्णतम होते हैं और इसलिये कारागारमें बन्द प्रकाश और बलको मुक्त करनेमें तथा अतिमानस (विज्ञानमय ) ज्ञानको उत्पन्न करनेमें समर्थ होते हैं ।
चाहे यह स्वीकार न किया जाय कि प्रतीकपरक यही अर्थ ठीक है,
ग्रीक शब्द 'अगपे' है जिसका अर्थ है प्रेम और शायद संस्कृत 'अंगना' अर्थात् स्त्री । इसी तरह प्रमुख गति तथा क्रियाके लिये मी इसी प्रकारके कई संस्कृत, ग्रीक तथा लेटिनके शब्द हैं ।
1. ते अङ्गिरस: सूनवस्ते अग्ने: परि अज्ञिरे ।।5।|
ये अग्ने: परि जज्ञिरे विरूपासो दियस्परि ।
नवग्वो नु दशग्यो अङ्गिरस्तम: सचा देवेषु मंहते ।।6।।
इन्द्रेण युवा नि: सृजन्त वाधतो व्रजं गोमप्तन्तमश्विनम् ।
सहस्र मे ददतो अष्टकर्ष्य: श्रवो देवेष्वक्त ।।7।।
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पर यह तो स्वीकार करना होगा कि यहाँपर कोई प्रतीकात्मक अर्थ ही है । ये अंगिरस् कोई यज्ञ करनेवाले मनुष्य नहीं हैं, किंतु द्युलोकमें उत्पन्न हुए अग्निके पुत्र हैं, यद्यपि इनका कार्य बिल्कुल मनुष्य अगिरसोंका है जो पितर हैं, (पितरो मनुष्या: ); ये विविध रूप लेकर उत्पन्न हुए हैं ( विरूपास: ) । इस सबका यही अभिप्राय हो सकता है कि ये अग्निकी शक्तिके विविध रूप हैं । प्रश्न होता है कि किस अग्निके, क्या यज्ञशालाकी ज्वालाके, सामान्य अग्नि-तत्त्व के या फिर उस दूसरी पवित्र ज्वालाके जिसका वर्णन किया गया है 'द्रष्टृ-संकल्पसे युक्त होता' या 'जो द्रष्टाका कार्य करता है, सत्य है, अन्त:प्रेरपाओंके विविध प्रकाशसे समृद्ध है' ( अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तम:) । यदि यह अग्नि-तत्त्व है तो अगिरस्से सूचित होनेवाली जोज्वल्यमान चमक सूर्यकी चमक होनी चाहिये अर्थात् अग्नि-तत्त्वकी वह आग जो सूर्यकिरणोंके रूपमें प्रसृत हो रही है और इन्द्रसे, आकाशसे संबद्ध होकर उषाको उत्पन्न करती है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई भौतिक व्याख्या नहीं हो सकती, जो अगिरस् गाथाकी परिस्थितियों तथा विवरणोंसे संगत हो । परंतु यह भौतिक व्याख्या अगिरस्-ऋषियोंसंबंधी अन्य वर्णनोंका कुछ भी स्पष्टीकरण नहीं दे सकती कि वे द्रष्टा हैं, वैदिक सूक्तोंके गायक हैं, कि वे जैसे सूर्यकी और उषाकी वैसे बृहस्पतिकी भी शक्तियाँ हैं ।
वेदका एक और संदर्भ है, ( 66.3, 4,5 )1 जिसमें इन अंगिरस् ऋषियोंका अग्निकी ज्वालामय अर्चियोंके साथ तादात्म्य बिल्कुल स्पष्टतया और अभ्रान्त रूपसे प्रकट हो जाता है । ' ( शुचे अग्ने ) हे पवित्र और चमकीले अग्नि ! (ते ) तेरे ( शुचय: भामास: ) पवित्र और चमकीले प्रकाश (वातजूतास:) वायुसे प्रेरित होकर (विष्यक् ) चारों तरफ (चिचरन्ति ) दूर-दूर तक पहुँचते हैं; (तुविम्रक्षास: ) प्रबलतासे अभिभूत करनेवाले (दिव्या नवग्वा:) दिव्य2 नौ किरणोवाले ( वना3 धृषता रुजन्तः वनन्ति ) वनोंको बलपूर्वक तोड़ते-फोड़ते हुए उनका उपभोग करते हैं । ( 'वना
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1. वि ते विश्वग्वातजूतासो अग्ने भामास: शुचे शुचयश्चरन्ति ।
तुविम्रक्षासो दिव्या नवग्वा वना वनन्ति घृषता रुजन्तः ।।३।।
थे ते शुकास: शुचय: शुचिष्म: क्षां वपन्ति विषितासो अश्वा: ।
अध भ्रमस्स उर्विया वि भाति यातयमानो अधि सानु पृश्ने: ।।४।।
अध जिह्वा पापतीति प्रवृष्णो गोषुयुषो नाशनिः सृजाना ।
2. नवग्वाका दिव्य विशेषण ध्यान देने योग्य है ।
3.वना'का अर्थ सायणने 'यज्ञिय अग्निक लिये लक्कड़' ऐसा किया हैं ।
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वनन्ति' शब्द अत्यंत अर्थपूर्ण रूपसे इस. ढके हुए अभिप्रायको दे रहे हैं कि 'उपभोग-योग्य वस्तुओंका उपभोग करते हैं' । ) ।3। (शुचिष्म:) ओ पवित्र प्रकाशवाले ! (ये ते शुक्रा: शुचय: ) जो तेरे चमकीले और पवित्र प्रकाश (क्षां ) सम्पूर्ण पृथ्वीको (वपन्ति)1 आक्रान्त या अभिभूत करते हैं (विषितास: अश्वा:) वे तेरे सब दिशाओंमें दौड़नेवाले घोड़े हैं । (अथ ) तब (ते भ्रम: ) तेरा भ्रमण (पृश्ने:) चित्रविचित्र रंगवाली [मरुतोंकी माता, पृश्नि गौ]की (सानो: अधि ) उच्चतर भूमिकी तरफ (यातयमान: ) यात्राका मार्ग दिखलाता हुआ (उर्विया विभाति ) विस्तृत रूपमें चमकता है । ।4। (अध ) तब (जिह्वा ) तेरी जीभ (प्रपापतीति ) ऐसे लपलपाती है (गोषुयुधो वृष्ण: सृजाना अशनि: न ) जैसे गौओंके लिये युद्ध करनेवाले वृषासे छोड़ा हुआ वज्र ।5।' यहाँ अगिरस् ऋषियोंकी ज्वालाओं (भामासः, शुचय: ) से जो स्पष्ट अभिन्नता है उसे सायण 'नवग्वा:' का अर्थ 'नवजात किरणें' करके टालना चाहता है । परंतु यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यहाँके 'दिव्या: नवग्वाः' तथा 10.62 में वर्णित 'अग्निके पुत्र, द्युलोकमें उत्पन्न होनेवाले नवग्वाः' एक ही हैं, इनका भिन्न होना संभवित नहीं है । यदि इस अभिन्नताके लिये किसी पुष्टिकी जरूरत है तो यह उपर्युक्त संदर्भमें आये इस कथनसे और भी पुष्ट हो जाती है कि नवग्वोंकी क्रिया द्वारा होनेवाले अग्निके इस भ्रमणमें उसकी जिह्वा इन्द्रके (गौओंके लिये लड़नेवाले और वृषा इन्द्रके ) अपने हाथोंसे छूटे हुए वज्रका रूप धारण करती है और यह तेजीसे लपलपाती हुई आगे बढ़ती है, निःसंदेह द्युलोककी पहाड़ी में अंधकारकी शक्तियोंपर आक्रमण करनेके लिये ही आगे बढ़ती है; क्योंकि अग्नि और नवग्वोंका प्रयाण (भ्रमण ) यहाँ इस रूपमें वर्णित किया गया है कि यह पृथ्वी पर घूम चुकनेके उपरान्त पहाड़ीपर (सानु पृश्ने: ) चढ़ना है ।
यह स्पष्ट ही ज्वाला और प्रकाशका प्रतीकात्मक वर्णन है--दिव्य ज्वाला पृथ्वीको दग्ध करती है और फिर वह द्युलोककी विद्युत् तथा सौर शक्तियोंकी दीप्ति बनती है; क्योंकि वेदमें अग्नि जहाँ जलमें उपलब्ध होनेवाली तथा पृथ्वीपर चमकनेवाली ज्वाला है वहाँ वह सूर्यकी ज्योति तथा विद्युत् भी है । अगिरस् ऋषि भी, अग्निकी शक्तियाँ होनेके कारण, अग्निके इस अनेकविध स्वरूप व व्यापारको ग्रहण करते हैं । यज्ञ द्वारा प्रदीप्तकी गयी दिव्य ज्वाला इन्द्रको विद्युत्की सामग्री भी प्रदान करती है, विद्युत्की, वज्रकी,
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1. 'ज्ञां वपीन्त'का अर्थ सायणने 'पृथ्वीके वालोंको मूंडते है'ऐसा किया है |
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'स्वर्य अश्मां'की जिसके द्वारा वह अंघकारकी शक्तियों का विनाश करता है और गौओंको, सौर ज्योतियोंको, जीत लेता है ।
अग्नि, अंगिरसोंका पिता, न केवल इन दिव्य ज्वालाओंका मूल और उद्गम-स्थान है किन्तु वह स्वयं भी वेदमें पहिला अंगिरस् (प्रथमो अंगिरा: ) अर्थात् परम और आदिम अंगिरा वर्णित किया गया है । इस वर्णन द्वारा वैदिक कवि हमें क्या अभिप्राय जताना चाहते हैं ? वह हम अच्छी तरह समझ सकते हैं यदि हम उन वाक्योंमेंसे कुछ एक पर जरा दृष्टिपात करें जिनमें इस प्रकाशमान और ज्वालायुक्त देवताको 'अंगिरा:' विशेषण दिया गया है । पहिले तो यह कि यह दो बार अग्निके एक अन्य नियत विशेषण 'सहस: सूनुः ऊर्जो नपात्' ( बलके पुत्र या शक्तिके पुत्र ) के साथ संबद्ध होकर आया है । जैसे 8 .60.2 में संबोधित किया गया है 'हे अगिर:, बलके पुत्र' ( सहस: सूनो अङ्गिर: )1 और 8 .84..4 में 'हे अग्ने ! अगिर: ! शक्तिके पुत्र ! ' ( अग्ने अङ्गिइर ऊर्जो नपात् ) ।2 और 5. 11 .633 में कहा गया है ''तुझे हे अग्ने ! अंगिरसोंने, गुप्त स्थानोंमें स्थापित तुझे ( गुहा हितं ) प्राप्त कर लिया, जंगल-जंगलमें ( वने-वने, अथवा यदि हम उस छिपे हुए अर्थके संकेतको स्वीकार करें जिसे हम 'वना वनन्ति' इस शब्दावलि में पहिले देख चुके हैं तो 'प्रत्येक उपभोग्य पदार्थमें' ) स्थित तुझको । सो तू मथा जाकर ( मथ्यमान ) एक महान् शक्ति होकर उत्पन्न होता है, तुझे वे बलका पुत्र कहते हैं, हे अगिर: !'' तो इसमें संदेहका अवकाश नहीं कि यह बलका विचार अगिरस् शब्दकी वैदिक धारणामें एक आवश्यक तत्त्व है और, जैसा कि हम देख चुके हैं, यह इस शब्दके अर्थका एक भाग ही है । अग्नि, अंगिरस् जिन धातुओंसे बने हैं उन 'अग्', 'अगि ( अंग् ) ' में बलका भाव निहित है; अवस्थामें, क्रियामें, गतिमें, प्रकाशमें, अनुभवमें प्रबलता इन धातुओंके अर्थका अन्तर्निहित गुण है । बलके साथ-साथ इन शब्दोंमें प्रकाशका अर्थ भी है । अग्नि, पवित्र ज्वाला, प्रकाशकी ज्वलन्त क्ति है औंर अगिरs भी प्रकाशके ज्वलन्त बल हैं ।
परंतु किस प्रकाशके, भौतिक या आलंकारिक ? हमें यह कल्पना नहीं
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1. अच्छा हि त्वा सहस: सूनो अङ्गि:र: स्रुचश्चरन्त्यध्वरे ।
ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्निं यज्ञेषु पूर्थ्यम् ।। ( ऋ ० 8.6०.2 )
2. कया ते अग्ने अङ्गिर ऊर्जो नपादुपस्तुतिम् । वराय देव मन्यवे । । ( ऋ. 8.84.4)
3. त्यामग्ने अड़िरसो गुहा हितम् अन्यविन्दन् शिश्रियाणं वने वने ।
स जायसे मथ्यमानः सहो महत् त्यामाहु: सहसत्युत्र अङ्गिर ।। ( ॠ. 5. 11 .6 )
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कर लेनी चाहिये कि वैदिक कवि इतनी अपक्व तथा जंगली बुद्धिवाले थे कि वे सभी भाषाओंमें सामान्यरूपसे पाये जानेवाले ऐसे स्पष्ट आलंकारिक वर्णन कर सकनेमें भी असभर्थ थे जिनमें भौतिक प्रकाश आलंकारिक रूपसे मानसिक तथा आत्मिक प्रकाशका, ज्ञानका, आन्तरिक-प्रकाश-युक्तताका वर्णन करनेको प्रयुक्त किया जाता है । वेद बिल्कुल साफ कहता है 'द्युमतो विप्रा:' अर्थात् प्रकाशयुक्त ज्ञानी और 'सूरि' शब्द (जिसका अर्थ होता है ऋषि ) व्युत्पत्ति-शास्त्रके अनुसार 'सूर्य' से संबद्ध है और इसलिये मूलत: इसका अर्थ अवश्य ' प्रकाशयुक्त' ऐसा होना चाहिये । 1.31.11 में इस ज्वालाके देवके विषयमें कहा गया है, 'हे अग्ने ! तू प्रथम अगिरस् हुआ है, ऋषि, देवोंका देव, शुभ सखा है । तेरी क्रियाके नियममें ( व्रतमें ) मरुत् अपने चभकीले भालोंके साथ उत्पन्न होते हैं, जो क्रान्तदर्शी हैं और ज्ञानके साथ कर्म करनेवाले हैं ।' तो स्पष्ट है कि 'अग्नि अंगिरा:' में दो भाव विद्यमान हैं, ज्ञान और क्रिया; प्रकाशयुक्त अग्नि और प्रकाशयुक्त मरुत् अपने प्रकाश द्वारा ज्ञानके द्रष्टा, ऋषि, 'कवि' हुए हैं । और ज्ञानके प्रकाश द्वारा शक्तिशाली मरुत् अपना कार्य करते हैं क्योंकि वे अग्नि के ' व्रतमें'--उसकी क्रियाके नियममें--उत्पन्न हुए हैं या आविर्भूत हुए हैं । क्योंकि स्वयं अग्नि हमारे सम्मुख इस रूपमें वर्णित कियां गया है कि वह द्रष्टृ-संकल्पवाला है, 'कविक्रतु:' है, क्रियाका वह बल है जो अन्त:प्रेरित या अतिमानस ज्ञानके ( श्रवस् के ) अनुसार कार्य करता है, कारण 'कवि' शब्द द्वारा यह ( अन्त:प्रेरित या अतिमानस ) ज्ञान ही अभिप्रेत होता है न कि बौद्धिक ज्ञान । तो यह. 'अग्नि अगिरस्'-नामक महान् बल, 'सहो महत्', इसके सिवाय और क्या है कि यह दिव्य चेतनाका ज्वलन्त बल है, पूर्ण सामंजस्यमें कार्य करनेवाले प्रकाश और शक्तिके अपने दोनों युगल गुणोंसे युक्त दिव्य चेतनाकी जाज्वल्य-मान शक्ति है ठीक ऐसे ही जैसे कि मरुतोंका वर्णन किया गया है कि वे 'कवयो यिद्मनापस:' हैं, क्रान्तदर्शी हैं, ज्ञानके साथ कार्य करनेवाले ? इस परिणामपर पहुँचनेके लिये तो हम युक्ति देख ही चुके हैं कि उषा दिव्य प्रभात है न कि केवल भौतिक सूर्योदय, कि उसकी गौएँ या उषा तथा सूर्य की किरणें उदय होती हुई दिव्य चेतनाकी किरणें व प्रकाश हैं और कि इसलिये सूर्य ज्ञानके अधिपतिके रूपमें प्रकाशप्रदाता है और कि 'स्व:', द्यावा-पृथिवीके परेका सौर लोक, दिव्य सत्य और आनन्दका लोक है, एक शब्दमें
1. त्यमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्दैवो देवानामभव: शिव: सखा ।
तव व्रते कवयो विद्मनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टय: ।। ( ऋ. 1.31. 1 )
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कहें तो यह कि वेदमें प्रकाश व ज्योति ज्ञानका, दिव्य सत्यके प्रकाशनका प्रतीक है । अब हमें यह परिणाम निकालनेके लिये भी युक्ति प्राप्त हो रही है कि ज्वाला-जो प्रकाशका ही एक दूसरा रूप है--दिव्य चेतना ( अतिमानस सत्य ) के बलके लिये वैदिक प्रतीक है. ।
एक दूसरी ऋचा ( 6.11. 3 ) में आया है, 'वेपिष्ठो अङ्गिरसां यद्ध विप्र:' अर्थात् ''अंगिरसोंमें सबसे अधिक प्रकाशयुक्त द्रष्टा'' । यह किसकी तरफ निर्देश है यह स्पष्ट नहीं है । सायण 'वेपिष्ठो विप्र:' इस विन्यासकी तरफ ध्यान नहीं देता, जिससे 'वेपिष्ठः'का अर्थ एकदम स्पष्ट तौरसे स्वयमेव निश्चित हो जाता है कि 'विप्रतम, सबसे अधिक द्रष्टा, सबसे अधिक प्रकाश-युक्त' । सायण यह कल्पना करता है कि यहाँ भारद्वाज, जो इस सूक्तका ऋषि है, स्वयं अपने-आपकी स्तुति करता हुआ अपनेको देवोंका 'सबसे बड़ा स्तोता' कहता है । पर यह निर्देश शंकनीय है । यहाँ अग्नि ही 'होता' है, पुरोहित है (देखो पहिले दूसरे मन्त्रोंमें 'यजस्व होत:', 'त्वं होता' ), अग्नि ही देवोंका यजन कर रहा है, अपने ही तनूभूत देवोंका ( 'तन्वं तय 'स्वां', दूसरा मन्त्र ), मरुतों, मित्र, वरुण, द्यौ और पृथिवीका यजन कर रहा है ( पहिला मन्त्र ) । क्योंकि इस ऋचामें कहा है--
' ( त्वे हि ) तुझमें ही ( धिषणा ) बुद्धि ( धन्याचित् ) यद्यपि यह धन्या है, धनसे पूर्ण है तो भी ( देवान् प्रवष्टि ) देवोंको चाहती है, ( गृणते जन्म यजष्यै )१ मंत्रगायकके लिये [दिव्य] जन्म चाहती है जिससे वह देवोंका यजन कर सके; ( यज्ञ विप्र: अङ्गिरसां बेपिष्ठ: रेभ:) जब कि, विप्र, अगिरसोंमें विप्रतम [ सबसे अधिक प्रकाशयुक्त] स्तोता ( इष्टौ मषु च्छन्द: भनति ) यज्ञमें मघुर छन्द उच्चारण करता है ।' इससे लगेगा कि अग्नि ही स्वयं विप्र है, अंगिरसोंमें वेपिष्ठ ( विप्रतम ) है । या फिर दूसरी तरफ यह वर्णन बृहस्पतिके लिये उपयुक्ततम लगेगा ।
क्योंकि बृहस्पति भी एक अगिरस् है और वह है जो अगिरस् बनता है । जैसा कि हम देख चुके हैं, वह प्रकाशमान पशुओंके जीतनेके कार्यमें अगिरस् ऋषियोंके साथ निकटतया संबद्ध है और वह संबद्ध है ब्रह्मणस्पतिके तौर पर, ब्रह्मन् ( पवित्र वाणी या अन्त:प्रेरितं वाणी ) के पतिके तौर पर; क्योंकि उसके शब्द द्वारा ( रवेण ) बल टुकड़े-टुकड़े हो गया और गौओंने इच्छाके साथ रंभाते हुए उसकी पुकारका उत्तर दिया । अग्निकी शक्तियोंके तौर
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1. धन्धा चिद्धि त्ये धिषणा वष्टि प्र देवान् जन्म गुणते यजध्यै ।
वेपिष्ठो अङ्गिरसां यद्ध थिप्र:मधु च्छदो भनति रेभ इष्टौ ।। (ॠ. 6. 11 .3 )
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पर ये अंगिरस् ऋषि उसकी तरह ही कविक्रतु हैं, वे दिव्य प्रकाशसे युक्त हैं और उसके द्वारा दिव्य शक्तिके साथ काम करते हैं; वे केवल ऋषि ही नहीं हैं किंतु वैदिक युद्धकेवीर है, 'दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीरा: (3-53-7 )', अर्थात् द्यौके पुत्र हैं, बलाधिपतिके वीर हैं, वे हैं (जैसा 6.75.91 में वर्णित है ) 'पितर जो माधुर्य (आनन्दके जगत् ) में बसते हैं, जो विस्तृत जीवनको स्थापित करते हैं, कठिन स्थानोंपर विचरते हैं, शक्तिवाले हैं, गम्भीर२ हैं, चित्र सेनावाले हैं, इषुबलवाले हैं, अजेय हैं, अपनी सत्तामें वीर हैं, विशाल हैं, शत्रुसमूहका अभिभव करनेवाले हैं', पर साथ ही वे हैं (जैसा कि अगली ऋचामें उनके विषयमें कहा गया है) 'ब्राह्यणास: पितर: सोम्यासः' अर्थात् वे दिव्य वाणी (ब्रह्म ) वाले हैं और इस वाणीके साथ रहनेवाले अन्त:प्रेरित ज्ञानसे युक्त है3 । यह दिव्य वाणी है 'सत्य मन्त्र', यह है विचार (बुद्धि ) जिसके सत्य द्वारा अगिरस् उषाको जन्म देते हैं और खोये हुए सूर्यको द्युलोकमें उदित करते हैं । इस दिव्य वाणी (ब्रह्य ) के लिये दूसरा शब्द जो वेदमें प्रयुक्त होता है वह है 'अर्क', जिसके अर्थ दोनों होते हैं मन्त्र और प्रकाश, और जो कभी-कभी सूर्यका भी वाचक होता है । इसलिये यह है प्रकाशकी दिव्य वाणी (ब्रह्म ), वह वाणी (ब्रह्म ) जो उस सत्यको प्रकाशित करती है जिसका कि सूर्य अधिपति है, और सत्यके गुह्य स्थानसे इसका उद्भूत होना सूर्य द्वारा अपनी गोरूप ज्योतियोंकी वर्षा करनेसे संबद्ध है, सो हम 7.36.1 में पढ़ते हैं 'सत्यके सदनसे ब्रह्म उद्भूत हो, सूर्यने अपनी रश्मियों द्वारा गौओंको उन्मुक्त कर दिया है ।'
प्र ब्रह्यैतु सदनाद् ऋतस्य, वि रश्मिभि: ससृजे सूर्यो गा: ।
इस (ब्रह्म )को भी वैसे ही प्राप्त करना, अधिगत करना होता है जैसे स्वयं सूर्यको और इसकी प्राप्तिके लिये भी (अर्कस्य सातौ) देवोंको अपनी सहायता वैसे ही देनी होती है, जैसे सूर्यकी प्राप्ति (सूर्यस्य सातौ) और स्व: की प्राप्ति के लिये (स्वर्षातौ ) ।
1. स्वादुषंसद: पितरो वयोधा: कृच्छे्श्रित: शक्तीवन्तो गभीराः ।
चित्रसेना इषुबला अमृध्रा: सतोवीरा उरवो व्रातसाहा: । । (ऋ० 6.75.9 )
2. तुलनोय: 10.62 में किया गया अंगिरसोंका यह वर्णन कि ये अग्निके पुत्र हैं, रूप
में विभिन्न है. पर ज्ञानमें गम्भीर हैं-'गम्भीर- वेपस:' । (मंत्र 5)
3. वेदमें ब्राह्मण शब्दका यही अर्थ प्रतीत होता है । यह तो निश्चित है कि जातसे
ब्राह्यण या पेशेसे पुरोहित इसका अमिप्राय बिलकुल नहीं है । यहां पितर योद्धा भी हैं,
और विप्र भी । चार वर्णोंका वर्णन ॠग्वेदमें एक ही जगह आया है, उस गंभीर पर
अपेक्षाकृत पीछेकी रचना पुरुषसूक्त में |
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इसलिये आङ्गिरा न केवल अग्नि-बल है किंतु बृहस्पति-बल भी है । बृहस्पतिको अनेक वार 'आंगिरस' करके पुकारा गया है जैसे कि, 6.73.1 में-
यो अद्रिभित् प्रथमजा ऋताया वृहस्पतिराङ्गिरसो हविष्मान् ।
'बृहस्पति, जो पहाड़ीको ( पणियोंकी गुफाको ) तोडनेवाला, प्रथम उत्पन्न हुआ, सत्यवाला, आंगिरस और हविवाला है' और 10.47.6 में हम बृहस्पति का आंगिरस रूपमें और भी अधिक अर्थपूर्ण वर्णन पाते हैं ।
प्र सप्तगुमृतषीतिं सुमेधां बृहस्पतिं मतिरच्छा जिगाति ।
य आङ्गिरस: नमसोपसधः............
'बिचार ( बुद्धि ) बृहस्पतिकी तरफ जाता है, सात किरणोंवाले, सत्य धारणावाले, पूर्ण मेधावालेकी तरफ, जो आंगिरस है, नमस्कार द्वारा पास पहुँचने योग्य ।' 2. 23. 18 में भी गौओंकी उन्मुक्ति और जलोंकी उन्मुक्तिके प्रकरणमें बृहस्पतिको 'अंगिर:' संबोधित किया गया है ।
तव श्रिये व्यजिहीत पर्वतो गयां गोत्रमुदसृजो यदङ्गर: ।
इन्द्रेण युजा तमसा परीवृतं बृहस्पते निरपामौब्जौ अर्णवम् ।।
तेरी विभूतिके लिये पर्वत जुदा-जुदा फट गया जब कि, हे अंगिर: ! तूने गौओंके बाड़ेको ऊपर उन्मुक्त कर दिया, इन्द्रके साथमें, हे बृहस्पति ! तूने जलोंके पूरको बलपूर्वक खोल दिया जो अन्धकारसे सब तरफसे आवृत था ।'
हम यहाँ प्रसंगवश इस बातकी तरफ भी ध्यान दे सकते हैं कि जलोंकी उन्मुक्ति जो वृत्रगाथाका विषय है कितनी घनिष्ठताके साथ गौओंकी उन्मुक्तिके साथ संबद्ध है जो अगिरस् ऋषियोकी और पणियोंकी गाथाका विषय है तथा यह कि वृत्र और पणि दोनों ही अंधकारकी शक्तियाँ हैं । गौ सत्यकी, सच्चे प्रकाशकर्त्ता सूर्यकी (सत्यं तत्...सूर्य ) ज्योतियाँ हैं; और वृत्रके आवरक अंधकारसे उन्मुक्त हुए जलोंको कभी सत्यकी धाराएँ ( ॠतस्य धारा: ) कहा गया है तो कभी 'स्वर्वती: अप:' अर्थात् स्वःके, प्रकाशमय सौर लोकके जल ।
तो हम देखते हैं कि प्रथम तो अगिरस् अग्निकी-द्रष्टृसंकल्पकी-शक्ति है, वह ऋषि है जो प्रकाश द्वारा, ज्ञान द्वारा काम करता है । वह अग्निके पराक्रमकी ज्वाला है; उस अग्निके जो महान् शक्तिके रूपमें यज्ञका पुरोहित होनेके लिये और यात्राका नेता बननेके लिये जगत्में उत्पन्न हुआ है, अग्नि जो कि वह पराक्रम है जिसके विषयमें वामदेव ( 4.1.1 ) देवोंसे प्रार्थना करता है कि वे उसे यहाँ मर्त्योंमें अमर्त्यके तौरपर स्थापित करें, वह बल है जो महान कार्य (अरति) को संपन्न करता है । फिर स्थानपर
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अंगिरस् बृहस्पतिकी शक्ति है या कम-से-कम बृहस्पतिकी शक्तिसे युक्त है, वह बृहस्पति जो सत्य विचारनेवाला और सात किरणोंवाला है, जिसकी प्रकाशमय सात किरणें उस सत्यको धारण करती हैं जिसे वह विचारता है ( सप्तधीति ),- और जिसके सात मुख उस शब्द ( मन्त्र ) को जपते हैं जो सत्यका प्रकाश करता है, वह देव जिसके विषयमें ( 4.50.4-5 में ) कहा गया है-
बृहस्पति: प्रथमं जायमानो महो ज्योतिष: परमे व्योमन् ।
सप्तास्यस्तुविजातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत् तमांसि ।।
स सुष्टुभा स ऋक्वाता गणेन वलं रुरोज फलिगं रवेण ।.......
'बृहस्पतिने महान् प्रकाशमेंसे उच्चतम आकाशमें प्रथम उत्पन्न होकर,- बहुतसे रूपोंमें उत्पन्न होनेवाले, सात मुखवाले, सात रश्मिवाले बृहस्पतिने अपने शब्दसे अंधकारको छिन्न-भिन्न कर दिया । अपने ऋक् तथा स्तुभ् ( प्रकाशके मंत्र तथा देवोंके पोषक छंद ) वाले गण ( सेना ) द्वारा उसने वलको अपने शब्दसे भग्न कर दिया ।' इसमें संदेह नहीं किया जा सकता कि बृहस्पतिके इस गण या सेनासे (सुष्टुभा ऋक्वाता गणेन ) यहाँ अभिप्राय अगिरस् ऋषियोंसे ही है जो सत्य मंत्र द्वारा इस महान् विजयमें सहायता करते हैं ।
इन्द्रके लिये भी वर्णन आता है कि वह अंगिरस् बनता है या अगिरस्- गुणोंसे युक्त होता है ।1 'वह अंगिरसोंके साथ अंगिरस्तम होवे, वृषोंके साथ वृषा ( रश्मियों और 'अप:', जलोंके विचारसे, जो कि गौएँ, गाव:, धेनव: हैं, वृषा है पुंशक्ति या पुरुष, नृ ), सखाओंके साथ सखा होता हुआ, ऋक्वालोंके साथ ऋक्वाला वह यात्रा करनेवालोंके साथ (गातुभि:-जो आत्माएँ विशाल और सत्यस्वरूप तक पहुँचानेवाले मार्गपर अग्रसर होती हैं उनके साथ ) सबसे बड़ा है, वह इन्द्र हमारे फलने-फूलनेके लिये मरुत्वान् (मरुतोंसे संयुक्त ) होवे । ' यहाँ प्रयुक्त किये गये विशेषण सब अंगिरस् ऋषियोंके अपने निजी विशेषण हैं और यह कल्पना तथा आशाकी गयी है कि अंगिरस्त्स्व ( अंगिरसने ) को बनानेवाले जो संबंध या गुण हैं उन्हें इन्द्र अपनेमें धारण कर लेदे । इसी तरह ऋ. 3 .3 1. 7 में कहा है-
अगच्छदु विप्रतम: सखीयन् असूदयत् सुकृते गर्भमद्रि: ।
ससान मर्यो युवभिर्मखस्यन् अथाभवद् अङ्गिरा: सद्यो अर्चन् । ।
1. सो अड़ि:रोभिरङ्गिरस्तमो भूद् वृषा वृषभि: सखिभि: सखा सन् ।
ऋग्मिभिऋग्मी गातुभिर्ज्येष्ठो मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र उती ।। ऋ 1.100.4
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'सबसे अधिक ज्ञान-प्रकाशवाला (विप्रतम:, यह 6.11 .3 के 'वेपिष्ठो अङ्गिरसां विप्र:'का संवादी प्रयोग है ), मित्र होता हुआ (सखीयन्, अगिरस् महान् युद्धमें मित्र या साथी होते हैं ) वह चला ( अच्छत्, उस मार्ग पर-गासुभि:-जिसे सरमाने खोज निकाला था ), पहाड़ीने सुकर्म करनेवालेके लिये अपनी गर्भित वस्तु (गर्भम् ) को तुरंत प्रस्तुत कर दिया; जवानों सहित उस मर्दने (मर्यो युवभि:- युवा शब्द अजर-अक्षीण शक्तिके भावको भी प्रकट करता है ) संपत्ति की पूर्णताको चाहते हुए उसे अधिगत कर लिया (मखस्यन् ससान ), इस तरह एकदम स्तोत्र गाते हुए (अर्चन् ) वह अगिरस् हो गया ।'
यह इन्द्र जो अगिरस्के सब गुणोंको धारण कर लेता है, हमें स्मरण रखना चाहिए, स्व: का (सूर्य या सत्यके विस्तृत लोकका ) अधिपति है और यह हमारे पास नीचे उतर आता है अपने दो चमकीले घोड़ों (हरियों ) के साथ--जिन घोड़ोंको एक जगह 'सूर्यस्य केतू, पुकारा गया है अर्थात् सूर्यकी बोधकी या ज्ञानगत दृष्टिकी दो शक्तियाँ-इसलिये उतर आता है कि यह अंधकारके पुत्रोंके साथ युद्ध करे और महान् यात्रामें सहायता पहुँचावे । वेदके गुह्य अर्थके संबंधमें हम जिन परिणामोंपर पहुँचे हैं वे सब यदि ठीक हैं तो इन्द्र अवश्य ही दिव्य मनकी शक्ति (इन्द्र, पराक्रममूर्ति, शक्तिशाली1 देव ) होना चाहिये, उस दिव्य मनकी जो मनुष्यके अंदर जन्म ग्रहण करता है और वहाँ अपनी दिव्य पूर्णताकी प्राप्ति तक शब्द (ब्रह्म, मंत्र ) तथा सोमके द्वारा बढ़ता रहता है । यह वृद्धि प्रकाशके जीतने तथा बढ़नेके द्वारा जारी रहती है, बढ़ती जाती है, जबतक कि इन्द्र अपने-आपको पूर्णतया उस संपूर्ण प्रकाशमय गोसमूहके अधिपतिके रूपमें प्रकट नहीं कर देता जिसे वह 'सूर्यकी आँख'' द्वारा देखता है, जबतक कि वह ज्ञानके संपूर्ण प्रकाशोंका स्वामी दिव्य मन नहीं बन जाता ।
इन्द्र अगिरस् बननेमें मरुत्वान् होता है अर्थात् मरुतोंवाला या 'मरुत् हैं सहचारी जिसके ऐसा' बनता है, और ये मरुत्, आंधी और विद्युत्के चमकीले तथा रौद्र देव, वायुकी अर्थात् प्राण या जीवनके अधिष्ठातृ-देवकी जबर्दस्त शक्तिको और अग्नि अर्थात् द्रष्टृ-संकल्प की शक्तिको अपने अंदर एक किये हुए हैं । अतएव ये ऋषि, कवि हैं जो ज्ञानसे (अपना ) कार्य करते हैं (कवयो विद्मनापस: ), जब कि ये साथ ही युद्ध करनेवाली शक्तियाँ भी हैं जो दृढ़तया स्थापित वस्तुओंको, कृत्रिम बाधाओंको (कृत्रिभाणि
1. पर साथ ही शायद 'चमकीला ' मी ; जैसे इन्दु, चन्द्रमा; इन, तेजस्वी, सूर्य: इन्ध् प्रदीप्त करना ।
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रोधांसि ), जिनमें अन्धकारके पुत्रोंने अपने को सुरक्षित रूपसे जमा रखा है, द्युलोकके प्राणकी और द्युलोककी विद्यत्की शक्तिके द्वारा उखाड़ फेंकती हैं, और वृत्र तथा दस्युओंको जीतनेमें इन्द्रको सहायता देती हैं । गुह्य वेदके अनुसार ये मरुत् वे जीवन-शक्तियाँ प्रतीत होते हैं जो मर्त्य-चेतनाके अपने-आपको सत्य और आनन्द की अमरतामें बढ़ाने या विस्तृत करनेके प्रयत्नमें विचारके कार्य को अपनी वातिक या प्राणिक शक्तियों द्वारा पोषण प्रदान करती हैं । कुछ भी हो, उन्हें भी 6 .49. 11 में अगिरस्के गुणोंके साथ काम करतें हुए ( अङ्गिरस्वत् ) वर्णित किया गया है--'हे जवानो और ऋषियो तथा यज्ञकी शक्तियो, मरुतो ! ( दिव्य ) शब्दका उच्चारण करते हुए उच्च स्थानपर ( या पृथ्वीके वरणीय स्तरपर या पहाड़ी पर, ' अधि सानु पृश्ने:' जो बहुत संभवत: 'वरस्याम्'का अभिप्राय है ) आओ, शक्तियो जो कि बढ़ती हो, अगिरस्1 के समान ठीक-ठीक चलती हो ( मार्गपर, गातु ), उसको भी जो प्रकाशयुक्त नहीं है ( अचित्रम्, जिसने उषाके चित्र-विचित्र प्रकाशको नहीं पाया है उसे, हमारे साधारण अन्धकारकी रात्रिको ) प्रसन्नता देते हो ।'2 यहाँ हम अगिरस्-कार्यकी उन्हीं विशेषताओंको देखते हैं, अग्निकी नित्य जवानी और शक्ति ( अग्ने यविष्ठ ), शब्दको प्राप्त करना और उसका उच्चारण करना, ऋषित्व ( द्रष्टृत्व ), यज्ञके कार्यको करना, महान् मार्गपर ठीक-ठीक चलना जो जैसा कि हम देखेंगे, सत्यके शब्दकी ओर, बृहत् और प्रकाशमय आनन्दकी ओर ले जाता है । मरुतोंको ऐसा भी कहा गया है ( 10.78.5 ) कि मानो वे वास्तवमें ''अपने सामसूक्तों सहित अगिरस् हों, वे जो सब रूपोंको धारण करते हैं '', ( विश्वरूपा अङ्गिरसो न सामभि: ) ।
यह सब कार्य और प्रगति तब संभव बतायी गयी है जब उषा आती है । उषाका भी 'अङ्गिरस्तमा' कहके और साथ ही 'इन्द्रतमां भी कहके वर्णन किया गया है । अग्निकी शक्ति, अगिरस्-शक्ति, अपने-आपको इन्द्रकी विद्युत्में तथा उषाकी किरणोंमें भी व्यक्त करती है । दो
1. यह ध्यान देने योग्य है कि सायण यहां इस विचारको पेश करने का साहस करता
है कि अंगिरसूका अर्थ है गतिशील किरर्ण (अंग्, गीत करना इस धातुसे ) या अंगिरस्
ॠषि । यदि वह महान् पंडित अपने विचारोंका और मी अषिक साहसके साथ
अनुसरण करता दुआ उनके तार्किक परिणाम तक पहुंचनेमें समर्थ होत, तो वह
आधुनिक वादका उसके मुख्य मूलभूत अंगोंमें पहलेसे ही पता पा लेता ।
2. आ युवानः कवयो यज्ञियासो मरुतो गन्त गृणतो वरस्वाम् ।
अचित्रं चिद्धि जिन्वाथा वृधन्त इत्या नक्षन्तो नरो अङ्गिरस्वत् ।
ऋ० 6 .4 9. 11
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ऐसे संदर्भ उद्धृत किये जा सकते हैं जो अगिरस्-शक्तिके इस पहलूपर प्रकाश डालते हैं । पहला है 7.79. 2-31 में--''उषाएँ अपनी किरणोंको द्युलोकके प्रांतों, छोरों तक चमकने देती हैं, वे उन लोगोंके समान मेहनत करती हैं जो किसी कामपर लगाये गये होते हैं । तेरी किरणें अन्धकारको भगा देती हैं, वे प्रकाशको ऐसे फैलाती हैं मानो कि सूर्य अपनी दो बाहुओंको फैला रहा हो । उषा हो गयी है ( या उत्पन्न हुई है ) इन्द्र-शक्तिसे अधिक-से-अधिक पूर्ण ( इन्द्रतमा ), ऐश्वर्योंसे समृद्ध; और उसने हमारे कल्याण-जीवनके लिये ( या भलाई और आनन्दके लिये ) ज्ञानकी अन्तःप्रेरणाओं, श्रुतियोंको जन्म दिया है । देवी, द्युलोककी पुत्री, अङ्गिरस-पनेसे अधिकसे अधिक भरी हुई ( अङ्गिइरस्तमा ) उषा अच्छे कामोंको करनेवालेके लिये अपने ऐश्वर्योंका विधान करती है ।'' वे ऐश्वर्य जिनसे उषा समृद्धिशालिनी है प्रकाशके ऐश्वर्य और सत्यकी शक्तिके सिवाय और कुछ नहीं हो सकते । इन्द्र-शक्तिसे अर्थात् दिव्य ज्ञानदीप्त मनकी शक्तिसे परिपूर्ण वह उषा उस दिव्य मनकी अन्त:प्रेरणाओं, श्रुतियोंको ( श्रवांसि ) देती है जो श्रुतियाँ हमें आनन्दकी तरफ ले जाती हैं । अपनेमे विद्यमान ज्वालामय, देदीप्यमान अगिरस्-शक्तिके द्वारा वह अपने खजानोंको उनके लिये प्रदान करती और विधान करती है जो महान् कार्यको ठीक ढंगसे करते हैं और इस प्रकार मार्गपर ठीक तरीकेसे चलते है- (इत्था नक्षन्तो अङ्गिरस्वत् ) ।
दूसरा संदर्भ 7-75 में है--''द्युलोकसे उत्पन्न हुई उषाने सत्यके द्वारा ( अन्धकारके आवरणको ) खोल दिया है और वह विशालता (महिमानम् ) को व्यक्त करती हुई आती है, उसने द्रोहों और अंधकार ( द्रुहस्तम: ) के तथा उस सबके जो अप्रिय (अजुष्टं ) है, आवरणको हटा दिया है, अगिरस्-पनेसे अधिक-से-अधिक परिपूर्ण वह ( महान् यात्राके ) मार्गोंको दिखलाती है ।१। आज हे उष: ! हमें महान् आनन्द की यात्राके लिये (महे सुव्रिताय ) जगाओ, सुखभोगकी महान् अवस्थाके लिये ( अपने ऐश्वर्यको ) विस्तारित करो, हममें अन्तःप्रेरित ज्ञानसे पूर्ण (श्रवस्युम् ), विविध दीप्तिवाले (चित्रम् ) धनको धारण कराओ, हे हम मर्त्योंमें मानुषि और देवि ! ।२। ये हैं दृश्य उषाकी दीप्तियाँ जो विविधतया दीप्त (चित्रा:) और अमर रूपमें
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1. व्यञ्जते दिवो अन्तेश्व्क्तून् विशो न युक्ता उषसो यतन्ते ।
सं वे गायस्तम आ वर्तयन्ति ज्योतिर्यच्छन्ति सवितेच बाहु ।।
अभूदुषा इन्द्रतमा मघोन्यजीजनत् सुविताय श्रवांसि ।
वि दिवो देवी दुहिता दधात्यअङ्गिरस्तमा सुकृते वसूनि || ॠ० 7.79.2-3
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आयी हैं, दिव्य कार्योंको जन्म देती हुई वे अपने-आपको प्रसारित करती हैं, अन्तरिक्षके कार्योंको उनसे भरती हुई,''--
जनयन्ता दैव्यानि व्रतानि, आपृणन्तो अन्तरिक्षा व्यस्थु:1 ।
हम फिर अगिरस-शक्तिको यात्रासे सम्बन्धित पाते हैं, अन्धकारको दूर करने द्वारा तथा उषाकी ज्योतियोंको लाने द्वारा इस यात्राके मार्गोंका प्रकाशित होना पाते हैं । पणि प्रतिनिधि हैं उन हानियोंके (द्रुह:, क्षतियाँ या वे जो क्षति पहुँचाते हैं ) जो दुष्ट शक्तियों द्वारा मनुष्यको पहुँचायी जाती हैं, अन्धकार उनकी गुफा है; यात्रा वह है जो प्रकाश और शक्ति और ज्ञानके हमारे बढ़ते हुए धनके द्वारा हमें दिव्य सुख और अमर आनन्दकी अवस्थाकी ओर ले जाती है । उषाकी अमर दीप्तियाँ जो मनुष्यमें दिव्य कार्यों (व्रतों ) को जन्म देती हैं और पृथ्वी तथा द्यौके बीचमें स्थित अन्तरिक्ष के कार्योंको ( अर्थात्, उन प्राणमय स्तरोंके व्यापारको जो वायुसे शासित होते हैं और हमारी भौतिक तथा शुद्ध मानसिक सत्ताको जोड़ते हैं ) उनसे (अपने दिव्य कार्योंसे ) आपूरित कर देती हैं वे ठीक ही अगिरस्-शक्तियाँ हो सकती हैं । क्योंकि वे ( अगिरस्) भी दिव्य कार्योंको अक्षत बनाये रखकर ( अमर्धन्तो दैव्या व्रतानि ) सत्यको प्राप्त करते और बनाये रखते हैं । निश्चय ही यह उनका (अंगिरसोंका ) व्यापार है कि वे दिव्य उषाको मर्त्य (मानुप्र ) प्रकृतिके अन्दर उतार लावें जिससे वह दृश्य ( प्रकट ) देवी अपने ऐश्वर्योंको उँडेलती हुई वहाँ उपस्थित हो सके, जो एक साथ ही देवी और मानुषी है, (देवि मर्तेषु मानुषि ), देवी जो मर्त्योंमें मानुषी होकर आयी है ।
1. व्युषा आवो दिविजा ऋतेनाऽऽविष्कृण्वाना महिमानमागात् ।
अप द्रुहस्तम आवरजुष्टमअङ्गिरस्तमा पथ्या अजीग: ।।
महे नो अद्य सुविताय बोध्युषो महे सौभगाय प्र यन्धि ।
चित्रं रयिं यशसं धेह्यस्मे देवि मर्तेषु मानुषि श्रवस्युम् ।।
एते त्ये भानवो दर्शतायाश्चित्रा उषसो अमृतास आगुः ।
चनयन्तो दैव्यानि व्रतान्यापृणन्तो अन्तरिक्षा व्यस्थुः ।। (ऋ 7.75.1-3)
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