Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
परिशिष्ट
आर्यभाषाके उद्गम
प्रास्ताविक
उन्नीसवीं शताब्दी जिन अनेकों आशाजनक प्रारंभोंकी साक्षी थी, उनमेंसे संभवत: संस्कृति और विज्ञानके जगत्में इतनी अधिक उत्सुकतासे किसीका स्वागत नहीं किया गया जितना तुलनात्मक भाषाशास्त्रके विजयी प्रारंभका । किन्तु शायद अपने परिणामोंमें इससे अधिक निराशाजनक भी कोई नहीं रहा । निःसंदेह भाषाशास्त्री अपने अनुशीलनकी दिशाको बड़ा महत्त्व देते हैं,-उसकी सब त्रुटियोंके होते हुए भी इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं,--और वे इसे विज्ञानका नाम देनेपर बल देते हैं, किन्तु वैज्ञानिकोंकी सम्मति इससे बिल्कुल भिन्न है । जर्मनीमें-जो विज्ञान और भाषाशास्त्र दोनोंकीही राजधानी हे- 'भाषाशास्त्र' यह शब्द निंदा वा अप्रतिष्ठाका सूचक पद बन गया है और भाषाशास्त्री इसका प्रतिवाद करनेकी स्थितिमें नहीं हैं । भौतिक विज्ञान अत्यंत युक्तियुक्त और सावधानतापूर्ण विधियोंसे चला है और उसने एक निर्विवाद परिणामसमूहको जन्म दिया है जिसने अपने विस्तार और दूरगामी परिणामोंसे जगत्में क्रांति उत्पन्न कर दी है और अपने विकासके युगको न्यायपूर्वक आश्चर्यजनक शताब्दीकी उपाधिका अधिकारी बना दिया है । तुलनात्मक भाषाशास्त्र अपने उद्गमोंसे कदाचित् ही एक कदम आगे बढ़ा हो, शेष सब तो आनुमानिक और चातुर्यपूर्ण विद्याका पुंज रहा है, जिसमें जितनी प्रतिभा हैं उतनी ही अनिश्चितता और अप्रामाणिकता भी । रनाँ जैसे एक महान् भाषाशास्त्रीको भी जिसने अपना जीवन-कार्य इतनी असीम आशाओंसे आरंभ किया था, आगे चलकर उन ''क्षुद्र आनुमानिक विज्ञानों''के लिए विरोधसूचक (वेद प्रकट करना पड़ा जिनमें उसने अपने जीवनकी समस्त शक्तियां लगा दी थीं । इस शताब्दीके शब्दशास्त्रविषयक अनुसंधानोंके आरंभमें,---जब संस्कृतभाषाका आविष्कार हो चुका था, जब मैक्समूलर अपने ''पिता, पाटैर, पातैर, फाटॅर, फादर'' इस घातक सूत्रके कारण हर्षसे फूला नहीं समाता था,-ऐसा लगता था कि भाषाविज्ञान प्रकट होने ही वाला है । किन्तु शताब्दीभरके परिणामस्वरूप प्रसिद्ध विचारक निश्चित रूपसे कह सकते हैं कि भाषाविज्ञानका विचार ही एक कोरी कपोल-कल्पना है । इसमें संदेह नहीं कि तुलनात्मक भाषाशास्त्रके विरोधी पक्षको अत्युक्तिसे स्थापित
२५९
किया गया है । यदि इसने भाषाविज्ञानकी खोज नहीं भी की तो भी इसने कमसे कम हमारे पूर्वजोंकी कुछ एक केवल कल्पनामूलक, निरंकुश और लगभग नियमरहित निरुक्तिओंको उखाड़ फेंका है ! इसने प्रचलित भाषाओंके परस्पर-संबंधों और विज्ञान, इतिहास तथा उन प्रक्रियाओंके विषयमें हमें अधिक न्यायसंगत विचार प्रदान किये हैं, जिनके द्वारा पुरानी भाषाएँ ह्रासको प्राप्त होकर ऐसा मलवा बन गई हैं जिसमेंसे भाषाका एक नया रूप अपनेको गढ़ता है । सबसे बड़ी बात यह है कि इसने हमें यह दृढ़मूल विचार दिया है कि भाषाविषयक हमारे अनुसंधानोंका उद्देश्य होना चाहिये भाषाके नियमों और विधानोंकी खोज, न कि व्यक्तिगत निर्वचनोंके अंदर स्वच्छंद और निरंकुश उछल-कूद । मार्ग तैयार कर दिया गया है । हमारे मार्गकी बहुत-सी कठिनाइयोंको साफ कर दिया गया है । तथापि वैज्ञानिक भाषाशास्त्रका अस्तित्व अभी तक भी नहीं है । भाषाविज्ञान की खोजकी ओर कोई वास्तविक पहुँच और भी कम हुई है ।
क्या इसका तात्पर्य यह है कि भाषाविज्ञानकी खोज ही असंभव ? कमसे कम भारतमें, जिसकी महान् वैज्ञानिक प्रणालियाँ सुदूर प्रागैतिहासिक कालतक जाती हैं, हम सुगमतासे यह विश्वास नहीं कर सकते कि प्रकृतिकी नियंत्रित व व्यवस्थित प्रक्रियाएँ ध्वनि और वाणीके सब व्यापारोंके मूलमें नहीं हैं । यूरोपीय भाषाशास्त्रको सत्यका मार्ग मिला ही नहीं, क्योंकि अपूर्ण, गौण और प्रायः भ्रामक सूत्रोंको पकड़ने और बढा-चढ़ाकर दिखानेके अत्यधिक उत्साह और आतुर जल्दबाजीने इसको ऐंसी पगडंडियोंमें ला घसीटा है जो किसी विश्रांति-स्थान पर नहीं पहुँचातीं; किन्तु फिर भी कहीं-न-कहीं मार्ग है अवश्य । यदि वह है तो उसे खोजा भी जा सकता है । आवश्यकता है केवल यथार्थ सूत्रकी और एक ऐसी मानसिक स्वतंत्रताकी भी जो पक्षपातोंके नीचे न दबकर और विद्वानोंके कट्टर सिद्धांतोंसे विचलित न होकर उस सूत्रका अनुसरण कर सके । सबसे बड़ी बात यह है कि यदि भाषाशास्त्रको तुच्छ आनुमानिक विज्ञानोंमें गिने जानेसे मुक्त होना है-जिनमें रनाँको भी उसका वर्गीकरण करनेको विवश होना पड़ा-तो उसे उतावलीभरे व्यापक सिद्धान्त बनाने, हलके और धृष्टतापूर्ण अनुमान करने, चतुराइओंके पीछे दौड़ने, कुतूहलपूर्ण एवं विद्वत्ताभरी परिकल्पनाको तुष्ट करनेकी आदत को दूढ़तापूर्वक छोड़ना पड़ेगा; क्योंकि ये सब शब्दजाल- पूर्ण पांडित्यके छद्मगर्त हैं, और इन्हें मानवजातिकी रद्दीकी टोकरीमें फेंकना पड़ेगा, इनकी गणना ऐसे आवश्यक खिलौनोंमें करनी होगी जिनको हमे शिशुगृहमेंसे निकलनेके पश्चात् उपयुक्त कबाड़खानेमें डाल देना चाहिए । आनु-
२६०
मानिक विज्ञानका अर्थ है मिथ्या विज्ञान, क्योंकि निश्चित, गंभीर और सिद्ध करने योग्य आधार और पद्धतियाँ, जो अनुमानोंसे मुक्त हों, विज्ञानकी मुख्य गर्त है । जहाँ साक्षी पर्याप्त न हो या परस्परविरुद्ध समाधान तुल्यरूपसे संभव हों, वहाँ विज्ञान खोजके प्रथम पगके रूपमें आनुमानिक प्राक्-कल्पनाओंको मान्यता दे देता है । किन्तु हमारे मानवीय अज्ञानको दी गई इस छूटका दुरुपयोग, ज्ञानकी सुनिश्चित उपलब्धियोंके रूपमें सारहीन अनुमानों को रवड़ा कर देंने की आदत भाषाशास्त्रका अभिशाप है । एक विज्ञानको जिसमें नौ-दशांश भाग अटकलपच्चू ही है, मानवीय प्रगति की इस अवस्थामें अपनी डींगें हांकने और अपनेको मानवजातिके मनपर लादनेकी चेष्टा करनेका कोई अधिकार नहीं । इसके लिए उचित मनोभाव है नम्रता, इसका मुख्य कार्य है सदा ही निश्चिततर आधारोंको और अपने अस्तित्वके अधिक न्यायसंगत औचित्य को ढ़ूंढ़ना ।
इस प्रस्तुत कृतिका लक्ष्य ऐसे ही दृढ़तर और निश्चिततर आधारकी खोज करना है । यह यत्न सफल हो सके--इसके लिए पहले-पहल यह आवश्यक है कि भूतकालमें जो भूलें की गई हैं उनका निरीक्षण करके उन्हें दूर किया जाए । भाषाशास्त्रियोंने संस्कृतभाषाकी महत्त्वपूर्ण खोजके पश्चात् जो पहली भूल की वह अपनी प्रारंभिक उथली खोजोंके महत्त्वको बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की थी । प्रथम दृष्टिके उथले होनेकी संभावना रहती ही है, आरंभिक सर्वेक्षणसे निकाले प्रत्यक्ष प्रमाणोंको सुधारनेकी आवश्यकता होती ही है । तो यदि हम उनसे इतने चकाचौंध हो जाते या उनके प्रवाहमें इतने बह जाते है कि उन्हें अपने भावी ज्ञानकी असली कुंजी, उसका केंद्रीय आधार उसका मूल आदर्शमंत्र बना लेते हैं, तो हम अपने लिए घोर निराशाओंको तैयार करते हैं । तुलनात्मक भाषाशास्त्रने, जो इस भूलका दोषी है, एक छोटेसे सूत्र का संकेत पकड़ लिया है और गलतीसे उसीको एक बड़ा या मुख्य संकेत समझ लिया है । जब मैक्समूलरने अपने आकर्षक अध्ययन-अनुशीलनमें जगत्के सम्मुख ''पिता, पाटैर, पातैर, फाटॅर, फादर'' इस महान् और घनिष्ठ संबंधका ढोल बजाया था, तब वह एक प्रकारसे नवीन विज्ञानका दिवाला पीटनेकी तैयारी कर रहा था । वह इसे पीछे विद्यमान अधिक सच्चे सूत्रों एवं अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्योंसे परे ले जा रहा था । इस दुर्भाग्यपूर्ण सूत्रके संकुचित आधारपर अत्यन्त असाधारण और शानदार पर नि:सार भवन खड़े किये गए । सर्वप्रथम, प्राचीन और नवीन भाषाओंके भाषाशास्त्रीय वर्गीकरणके आधारपर सभ्य मानवजातिको आर्य, सेमेटिक, द्राविड़ और तुरानी प्रजातिओंमें विस्तृत रूपसे विभक्त कर दिया गया ।
२६१
अधिक बुद्धिसंगत और सावधानतापूर्वक किए गए विचारने हमें दिखा दिया है कि भाषाकी समानता रक्तकी समानता या मानववंश-संबंधी एकताका प्रमाण नहीं है । क्योंकि फ्रांसीसी अपभ्रष्ट और सानुनासिक लैटिन बोलते हैं इससे वे लैटिन जातिके नहीं बन जाते, और न ही बल्गे- रियाके लोग रक्तकी दृष्टिसे इस कारण स्लैव बन आते हैं कि उग्रो-फिनिश जातियोंको सभ्यता और भाषामें पूरी तरहसे स्लैव बना दिया गया है । एक अन्य प्रकारके वैज्ञानिक अनुसंधानोंने इस उपयोगी और सामयिक निषेधका समर्थन किया है । उदाहरणार्थ, भाषाशास्त्रियोंने भारतीय जातियोंको भाषागत भेदोंके बलपर उत्तरीय आर्यजनति और दिक्षिणात्य द्रविड़जातिमें विभक्त कर दया है, किन्तु गंभीर निरीक्षण एक ही शारीरिक जातिरूप दर्शाता है जिसमें कन्याकुमारीसे लेकर अफ़गानिस्तान तक संपूर्ण भारतमें छोटे-मोटे भेद व्याप्त हैं । इसलिए भाषाको मानववंशके घटक तत्त्व के रूपमें स्वीकार नहीं किया जाता । हो सकता है कि भारतकी प्रजातियाँ विशुद्ध द्राविड़ हों, यदि सचमुच द्राविड़ जाति जैसी कोई सत्ता है या कभी रही है; अथवा हो सकता है कि वे सभी विशुद्ध आर्य हों, यदि सचमुच आर्य प्रजाति जैसी कोई सत्ता है या कभी थी; अथवा वे सभी एक मिश्रित प्रजाति हो सकती हैं जिनके स्वभावक प्रधान स्वर एक ही हो, किन्तु जो भी हो, भारतकी बोलियोंका संस्कृत और तामिल परिवार की भाषाओंमें विभाजन इस समस्यामें कुछ भी महत्त्वका नहीं । किन्तु आकर्षक व्यापक सिद्धान्तों और अत्यधिक लोकप्रिय भूलोंकी शक्ति इतनी अधिक है कि सारा संसार इस भारी भूलको लगातार दोहराता हुआ भारत-यूरोपीय प्रजातियोंकी चर्चा करता चला जाता है, आर्यजातिके साथ उनके संबंधका दावा करता या उसका खंडन करता रहता है और असत्यके इस आधारपर बहुत दूरगामी, राजनैतिक अथवा मिथ्या-वैज्ञानिक परिणामोंकी रचना करता चला जाता है ।
किन्तु यदि भाषा मानव-वंशविज्ञानविषयक अनुसन्धानका युक्तियुक्त घटक नहीं है, तो भी इसे एकसमान सभ्यताओंके प्रमाणके रूपमें प्रस्तुत किया जा सकता है और प्राचीन सभ्यताओंके लिए उपयोग और विश्वस-नीय मार्गदर्शकके रूपमें इसका उपयोग किया जा सकता है । आर्यवंशोंके तितर-बितर होनसे पूर्वकी प्राचीन आर्य-सभ्यताका चित्र खींचनेके लिए शब्दोंके अर्थोके बलपर बहुत ही विशाल, पांडित्यपूर्ण और कष्टसाध्य यत्न किये गए हैं । वैदिक विद्वानोंने इस आनुमानिक भाषाशास्त्रके आधारपर ओर वेदोंकी एक शानदार एवं चातुर्यपूर्ण और आकर्षक किन्तु सर्व था कल्पित और अविश्वसनीय व्याख्याके आधारपर भारतमे एक प्राचीन, अर्धजगली
२६२
आर्यसभ्यताका उल्लेखनीय, सूक्ष्म और मोहक चित्र खींचा है । इन चकाचौंध करनेवाली रचनाओंको भला हम कितना महत्त्व दे सकते हैं ? कुछ भी नहीं, क्योंकि इनका कोई सुनिश्चित वैज्ञानिक आधार ही नहीं है । तीन संभावनाएँ हैं--वे रचनाएँ सत्य और अंतिम हो सकती हैं, वे आंशिक रूपमें सत्य हो सकती हैं जिनमें फिर भी गंभीर संशोधनकी आवश्यकता रहेगी, वे सर्वथा असत्य हो सकती हैं और संभव है कि इस विषयपर मानवीय ज्ञानके अंतिम परिणाममें उनका कोई चिह्न भी शेष न रहे । इन तीन संभावनाओंमेंसे किसी एकका निर्धारण करनेका हमारे पास कोई साधन नहीं । वेदके जिस दृढ़प्रतिष्ठित (कर्मकाण्डीय) अनुवादका इस समय इस कारण राज्य चला रहा है कि आलोचनात्मक दृष्टिसे और सूक्ष्मता (?) के साथ उसकी अभी परीक्षा ही नहीं की गई, उसपर निश्चय ही अविलंब प्रबल आक्रमण और शङ्का की जायगी । किंतु एक बातकी विश्वासपूर्वक आशा की जा सकती है कि चाहे कभी भारतपर उत्तर दिशासे सूर्य और अग्निके पुजारियों द्वारा आक्रमण किया गया हो, उसे उपनिवेश बनाया गया हो या उसे सभ्य बनाया गया हो, तो भी उस आक्र-मणका जो चित्र भाषाशास्त्रके विद्वानोंने ऋग्वेदके आधारपर समृद्ध रूपसे खींचा है वह एक आधुनिक दंतकथा सिद्ध होगा, न कि प्राचीन इतिहास । और यदि मान भी लिया जाय कि प्राचीन कालमें भारतमें एक अर्धजंगली आर्य सभ्यता थी तो भी वैदिक भारतके आश्चर्यजनक रूपसे विस्तृत आधुनिक वर्णन भाषाशास्त्रीय मृगमरीचिका और मायाजाल ही सिद्ध होंगे । ठीक इसी प्रकार प्राचीन आर्य सभ्यताके अधिक विस्तृत प्रश्न को तबतक स्थगित रखना होगा जबतक हमारे पास अघिक प्रामाणिक सामग्री एकत्र न हो जाए । वर्तमान वाद सर्वथा भ्रामक है क्योंकि यह इस बातको मानकर चलता है कि समान शब्दोंका अंतर्निहित अर्थ है समान सभ्यता,-यह मान्यता अति और न्यूनता दोनों दोषोंकी अपराधिनी है । इसमें अतिशयोक्तिका दोष है; उदाहरणके रूपमें, यह युक्ति नहीं दी जा सकती कि क्योंकि रोमनिवासी व भारतीय किसी पात्रविशेषके लिए एक ही शब्दका प्रयोग करते हैं इसलिए उनके एक दूसरेसे पृथक् होनेसे पहले उनके पूर्वजोंके पास वह पात्र समान रूपसे विद्यमान था । हमें सबसे पहले दो प्रजातियोंके पूर्वजोंके संपर्कका इतिहास ज्ञात होना चाहिए; हमें इस बातका निश्चय होना चाहिये कि वर्तमान कालमें प्रचलित रोमन शब्द उस मौलिक लैटिन शब्दसे नहीं लिया गया जो भारतीयोंके पास नहीं था । हमें इम बातका निश्चय होना चाहिए कि रोमनिवासियोंने हमारे आर्य पूर्वजोंके साथ कभी किसी प्रकारका तादात्म्य, संबंध और संपर्क स्थापित किए बिना उस शब्दको
२६३
ग्रीक व केल्ट लोगोंसे संक्रमण द्वारा नहीं लिया था । इसी प्रकार अन्य अनेक संभावित समाधानोंके विरुद्ध हमें दृढ़रुपसे सुरक्षित रहना चाहिए जिनके विषयमें भाषाशास्त्र हमें कोई निषेधात्मक या विधेयात्मक आश्वासन नहीं दे सकता । भारतीय शब्द 'सुरंग' ग्रीक 'स्युरिंग्स (Surinx)' माना जाता है । इसके आधारपर हम यह युक्ति नहीं दे सकते कि ग्रीक और भारतीय अपनी जुदाईसे पूर्व सुरंग बनानेकी एक ही कलासे संपन्न थे अथवा यहाँ तक कि भारतीय, जिन्होंने ग्रीससे इस शहरको उधार लिया,--मेसिडो-नियाके इंजिनियरोंसे भूमिगत खुदाईके विषयमें ज्ञान प्राप्त करनेसे पहले इस विषयमें कभीं कुछ भी नहीं जानते थे । टेलिस्कोप (Telescope) के लिए बंगाली शब्द दूरबीन है, जिसका उद्गम यूरोपीय नहीं । इससे हम यह परिणाम नहीं निकाल सकते कि यूरोपीयोंके संपर्कमें आनेसे पूर्व बंगालियोंने दूरबीनका आविष्कार स्वतंत्र रूपसे किया था । तथापि लुप्त संस्कृतियोंके आनुमानिक पुनरुत्थानके कर्योंमें भाषाशास्त्री जिन सिद्धांतोंसे परिचालित प्रतीत होते हैं उनके आधारपर जिन परिणामोपर हम पहुँचेंगे वें ठीक यही हैं । यहाँ हमारे पास अपनी परिकल्पनाओंको सुधारनेके लिए ऐतिहासिक तथ्योंका ज्ञान है, किन्तु प्रागैतिहासिक युगोंके संबन्धमें भूलसे बचावके लिये इस प्रकारका कोई साधन नहीं । वहाँ तो ऐतिहासिक सामग्रीका सर्वथा अभाव है और हमें शब्दों और उनके भ्रामक संकेतोंकी दयापर छोड़ दिया जाता है । किन्तु भाषाओंके उलटफेरपर थोड़ासा भी विचार, विशेषकर भारतमें अग्रेजीभाषाका हमारी साहित्यिक भाषाओंपर जो प्रभाव पड़ा उससे उत्पन्न भाषासंबधी विचित्र तथ्योंका किञ्चित् अध्ययन, वह पहला धावा जिसके द्वारा अंग्रेजी शब्दोंने, बातचीत और पत्रव्यवहारमें, हमारे सामान्य देशी शब्दोंको भी अपने हितमें निकाल बाहर करनेका यत्न किया और वह प्रतिक्रिया जिसके द्वारा प्रदेशीय भाषाएँ यूरोपीयों द्वारा प्रचालित नयी धारणाओंको व्यक्त करनेके लिए अब नया संस्कृत शब्द ढूंढ़ रही हैं-ये सब चीजें किसी भी विचारशील मनको, यह विश्वास दिलानेके लिए पर्याप्त होंगी कि इन भाषाशास्त्री संस्कृति-पुनरुद्धारकोंकी स्थापनाएँ कितनी अविवेक-मय और कैसी अत्युक्तिपूर्ण और तर्कहीन हैं । उनके वे निष्कर्ष केवल अतिशयोक्तिके ही नहीं अपितु न्यूनताके भी दोषी हैं । वे इस सुस्पष्ट तथ्यकी सतत उपेक्षा करते हैं कि प्रागैतिहासिक और प्राक्-साहित्यिक कालोंमें प्रारंभिक भाषाओंके शब्दकोष एक शताब्दीसे दूसरी शताब्दीमें इतने परिवर्तित हो जाते होंगे कि हम उच्च कोटिकी प्राचीन और आधुनिक साहित्यिक भाषाओंसे लिए गये भाषासंबंधी विचारोंसे उसकी कल्पना भी
२६४
नहींके बराबर ही कर सकते हैं । मैं विश्वास करता हूँ कि यह मानव- विज्ञानका सुप्रतिष्ठित तथ्य है कि अनेक जंगली भाषाओंके शब्दकोष एक पीढ़ीसे दूसरी पीढ़ीमे बदल जाते हैं । इसलिए यह पूर्णतया संभव है कि सभ्यताके वे उपकरण और संस्कृतिके वे विचार जिनके लिए दो आर्यभाषाओंमें समान शब्द विद्यमान नहीं हैं, अपनी जुदाईसे पूर्व साझी संपत्ति रहे हों; क्योंकि संभव है कि उनमेंसे प्रत्येकने एक दूसरेसे अलग होनेके पश्चात् गढ़े हुए नये शब्दके प्रयोगके लिए प्रारंभिक साझे शब्दका त्याग कर दिया हो । भाषाका चमत्कार साझे शब्दोंके संरक्षणमें है न कि उनके लुप्त होनेमें ।
इसलिए मैं नृवशविज्ञानके सभी निष्कर्षोंको, -- शब्दोंके आधारपर उनका प्रयोग करनेवाले मनुष्यों वा प्रजातियोंकी संस्कृति और सम्यता-विषयक सभी परिकल्पनाओं व अनुमानोंको, चाहे वे परिकल्पनाएँ कितनी भी प्रलोभक क्यों न हो, चाहे वे अनुमान कितने ही आकर्षक, मनोरंजक और संभाव्य क्यों न हों जिन्हें अपने अध्ययनकी प्रक्रियामें निकालनेके लिए हम प्रलुब्ध होते है,-भाषाशास्त्रके क्षेत्रसे जैसा कि मैं उसे समझता हूँ, बहिष्कृत करता हूँ, और मेरा ऐसा करना उचित ही है । भाषाशास्त्रीका नृवंश-विज्ञानसे कोई संबंध नहीं । भाषाशास्त्रीका समाजशास्त्र, मानवविज्ञान और पुरातत्त्वविज्ञानसे भी कोई सरोकार नहीं । उसका एकमात्र प्रयोजन शब्दोंके इतिहाससे है, और साथ ही विचारकी प्रतिनिधि-भूत ध्वनियाँ जिन रूपोंको प्रकट करती हैं उनके साथ विचारोंके संबंधके इतिहाससे है; अथवा इससे ही होना चाहिये । अपने आपको कठोरतापूर्वक इस क्षेत्र तक ही सीमित करके, एक ऐसे आत्म-त्यागके द्वारा जिससे वह अपने कुछ नीरस और धूलिमिश्रित मार्गपर सब असंबद्ध विक्षेपों और हर्षोंका परित्याग कर दे, वह अपने असली कार्यपर एकाग्रता बढ़ा सकेगा और उन प्रलोभनोंसे बच सकेगा जो उसे महान् अन्वेषणोंसे दूर ले जा सकते हैं । वे अन्वेषण इस बुरी तरह खोजे जा रहे ज्ञानक्षेत्रमें मानवजातिकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
किन्तु भाषाओंके परस्पर घनिष्ठ सादृश्य, कमसे कम, भाषाशास्त्र के प्रयासोंका एक उपयुक्त क्षेत्र हैं । तथापि यहाँ भी मैं यह माननेको विवश हूँ कि यूरोपके विद्वानोंने अध्ययनके इस विषयको भाषाशास्त्र के उद्देश्योंमे प्रथम स्थान देनेमें एक बड़ी भूल की है । क्या हमें सचमुच पूरा निश्चय है कि हम जानते हैं कि दो भिन्न-भिन्न भाषाओंमे,-उदाहरणार्थ, इतनी भिन्न जैसी लैटिन और संस्कृत, संस्कृत और तामिल, तामिल और लैटिन हैं,--मूलकी समानता और विषमताका अर्थ क्या है ? लैटिन, ग्रीक और संस्कृतको भगिनी आर्यभाषाएँ माना जाता है । तामिलको इनसे ड्तर
२६५
और द्राविड़ मूलकी मानकर पृथक् रखा जाता है । यदि हम इस बातकी जाँच करें कि यह भिन्न और प्रतिकूल व्यवहार किस आधारपर निर्भर है तो हम पाएँगे कि मूलकी समानता दो मुख्य कारणोंसे मानी जाती है, साधारण और परिचित शब्दोंका एकसरीखा समुदाय तथा व्याकरण- विषयक रूपों और प्रयोगोंकी काफी अधिक समानता । हम फिरसे उसी प्रारंभिक सूत्रपर वापिस आते हैं--पिता (pita), पाटैर (pater), पातैर (pater), फाटॅर (vater), फादर (father) । यह पूछा जो सकता है कि भाषासबंधी बंधुत्वका निश्चय करनेके लिए और क्या कसौटी पाई जा सकती है ? संभवतः कोई नहीं, किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि एक जरा-सा निष्पक्ष विचार हमें इसके लिये आधार प्रदान करेगा कि इस क्षुद्र आधारपर अत्यन्त विश्वासके साथ भाषाओंका वर्गीकरण करनेसे पहले हमें रुककर बहुत देर तक तथा गंभीरतासे विचार कर लेना चाहिये । यह स्वीकार किया जाता है कि समान शब्दोंके एक बड़े समूहको ररवनामात्र बंधुत्वको स्थापित करनेके लिए पर्याप्त नहीं । यह संपर्क अथवा सहनिवाससे अधिक किसी चीजकी स्थापना नहीं कर सकता । तामिलके समृद्ध शब्दकोषमें संस्कृत शब्दोंका बड़ा भारी समुदाय है, किन्तु इस कारणसे यह संस्कृत-संबद्ध भाषा नहीं बन जाती । उभयनिष्ठ शब्द वे होने चाहियें जो साधारण और परिचित विचारों और पदार्थोंको प्रकट करनेवाले हो, जैसे, पारिवारिक संबंध, संख्याएँ, सर्वनाम, आकाशीय पदार्थ, 'होना', 'रखना'-संबंधी विचार इत्यादि,--वे शब्द जो मनुष्योंके, विशेषत: आदिम आदमियोंके मुखोंमें बहुत सामान्य रूपसे रहते हैं और इसलिए, क्या हम यूं कहें कि, जिनमें परिवर्तन की बहुत कम संभावना हो सकती है ? पिताको संबोधित करते हुए संस्कृतभाषा 'पितर्'का प्रयोग करती है, ग्रीकभाषा पाटैर (patêr), लैटिन पातैर ( pater) का, किन्तु तामिल कहती है 'अप्पा' । माताको संबोधित करते हुए संस्कृत 'मातर्'का प्रयोग करती है, ग्रीक मेटेर (mêter), लैटिन मातैर (māter) किन्तु तामिल अम्माका । 'सात' संख्याके लिए संस्कृत 'सप्तन्' या 'सप्त'का प्रयोग करती है, ग्रीक हेप्टा (hepta), लैटिन सेप्ता (septa) का, किन्तु तामिल एळु (elu) का । उत्तम पुरुषके लिए संस्कृत कहती है 'अहम्', ग्रीक एगौ या एगौन (agô या egôn), लैटिन एगो (ego), किन्तु तामिल नान्का प्रयोग करती है । सूर्यके लिए संस्कृत कहती है सूर या सूर्य, ग्रीक हेलियोस (helios), लैटिन सौल (sol) किन्तु तामिल भाषा ञायिर् (ñāyir) । होनेके विचारके लिए संस्कृतमें शब्द है अम्,
अस्मि, ग्रीकमे आयनाई और आयमी (einai और eimi), लैटिनमें ऐस्स और सुम (esse और sum) किन्तु तामिलमें इरु (iru) । इस प्रकार भेदका आघार आकर्षक स्पष्टताके साथ सामने आ जाता है । इस विषयमें कोई संदेह ही नहीं । संस्कृत, ग्रीक और लैटिन भाषासंबंधी एक परिवारके साथ संबंध रखती हैं, जिसे हम अपनी सुविधाके अनुसार 'आर्य' या भारोपीय (भारत-यूरोपीय) परिवारके नामसे कह सकते हैं और तामिलका संबंध दूसरे परिवारसे है जिसके लिए द्राविड़से बढ़कर सुविधा-जनक कोई शब्द नहीं मिल सकता ।
यहाँ तक तो ठीक है । ऐसा प्रतीत होता है कि हम एक दृढ़ आधारपर खड़े हैं और हमारे पास ऐसा नियम है जिसे लगभग वैज्ञानिक परिशुद्धताके साथ प्रयोगमें लाया जा सकता है । किन्तु जब हम कुछ और आगे जाते हैं, तो यह उज्ज्वल आशा कुछ धूमिल हो जाती है, हमारी दृष्टिके क्षेत्रमें सदेहका कुहरा छाने लगता है । माता-पिता तो समान हैं पर अन्य पारि-वारिक संबंधी भी तो हैं ! गृहकी पुत्रीके विषयमें जो प्रारंभमें दूध दोहनेवाली होती थी, आर्य-परिवारकी भगिनी-भाषाओंमें भेदभावका किंचित् आरंभ दिखाई देने लगता है । संस्कृतभाषी पिता उसे 'दुहितर्', हे दूध दुहनेवाली, इस पुराने रूढ़ ढंगसे पुकारता है; ग्रीक, जर्मन और अंग्रेज माता-पिता भी इसी रीतिका अनुसरण करते हुए उसे क्रमश: थुगाथैर (thugather), तोक्सतर (tochter), और डाँटर (daughter) इन शब्दोंसे संबोधित करते हैं, किन्तु लैटिनने अपने पशुपालकोंके-से विचारोंका परित्याग कर दिया है, उसे दुहिताका कोई ज्ञान नहीं और वह फिलिया (filia) शब्दका प्रयोग करती है जिसका दुग्ध-पात्रके साथ किसी प्रकारका भी कल्पनीय संबंध नहीं और सजातीय भाषाओंके पुत्री-विषयक भिन्न-भिन्न शब्दोंसे भी कोई संबंध नहीं । तब क्या लैटिन एक मिश्रित भाषा थी जिसने पुत्रीत्वके बिचारके लिए अनार्य भाषा-भंडारमे से शब्द ग्रहण किया ? किन्तु यह तो एक अकेला और नगण्य अंतर है । जब हम और आगे चलकर पुत्रवाचक शब्दपर आते हैं तो पाते हैं कि इन आर्य भाषाओंमें निराशा-जनक अंतर दिखाई देता है और वे एकता का आभास तक त्याग देती हैं । संस्कृत कहती है 'पुत्र', ग्रीक कहती है हुइऔस (huios), लैटिन कहती है फिलियुस (filius) । तीन भाषाएँ तीन शब्दोंका प्रयोग करती हैं, जिनमें परस्पर कोई भी संबंध नहीं । इससे हम वस्तुत: इस निष्कर्षपर नहीं पहुँच सकते कि पितृत्व और मातृत्वके विचारके संबंधमें तो ये भाषाएँ आर्य भाषाएँ थीं, परंतु पुत्रत्व एक द्राविड़ विचार है जैसे
२६७
कि कई आधुनिक प्रामाणिक लेखकोंके अनुसार वास्तुकला, अद्वैतवाद और बहुतसे अन्य सभ्य विचार भी द्राविड़ हैं । क्योंकि लैटिनमें बच्चे या पुत्रके लिए एक साहित्यिक शब्द है...1जिसके साथ हम जर्मन सौन (sohn), इंग्लिश सन (son) और अधिक दूरस्थ रूपमें ग्रीक हुइऔस(huios) का संबन्ध जोड़ सकते हैं । तब इस भेदकी व्याख्या हम इस कल्पनाके आधारपर करते हैं कि इन भाषाओंमें मूलत: पुत्रके लिए एक समान शब्द था, बहुत संभवत: वह 'सूनु' था, जिसे इनमेंसे बहुतोंने, कम-से-कम भाषामें, छोड़ दिया । संस्कृतने इसका प्रयोग उत्कृष्ट साहित्यकी भाषाको सौंप दिया । ग्रीकने उसी धातुसे बना एक अन्य रूप अपना लिया । लैटिनने उसे बिलकुल खो दिया, और उसके स्थानपर फिलियुस (filius) शब्दको ला बिठाया, जैसे कि उसने दुहिताके स्थानपर फिलिया (filia) शब्दको ग्रहण कर लिया है । मालूम होता है कि अत्यंत सामान्य शब्दोंमें भी इस प्रकारकी तरलता प्रचलित रही है । ग्रीकने भ्राताके लिए प्रयुक्त मूल शब्द फ्राटौर (phrator) को खो दिया जिसे उसकी भगिनियोंने सभाल रखा है, और उसके स्थानपर वह आडेल्फोस (adelphos) का प्रयोग करने लगी हैं जिसके सदृश कोई शब्द अन्य आर्य भाषाओंमें नहीं है । संस्कृतने एककी संख्याके लिए सामान्य शब्द उनूस (unus), आएन (ein), वन (one) का परित्याग कर दिया है और इनके स्थानपर 'एक' शब्दका प्रयोग किया है जो अन्य किसी आर्य भाषामें नहीं पाया जाता । अन्य पुरुषके सर्वनामके विषयमें भी इन सब भाषाओंमें भेद है । चंद्रके लिए ग्रीकमें सेलेने (selene), लैटिनमें लुना (luna) और संस्कृतमें 'चंद्र'का प्रयोग होता है । किन्तु जब हम इन तथ्योंको स्वीकार करते हैं तो हमारे वैज्ञानिक आधारका बहुत ही आवश्यक भाग रिस-रिस कर बह जाता है और हमारा भवन धराशायी होने लगता है । क्योंकि हम इस घातक तथ्यपर वापिस आते हैं कि अत्यधिक सामान्य शब्दके विषयमें भी प्राचीन भाषाएँ अपने मूल शब्दकोषको खोने लगी थीं और एक दूसरीसे इतनी परे हटने लगी थीं कि यदि इस प्रक्रियाको प्राचीन साहित्य द्वारा न रोका जाता तो इनके परस्पर-संबंधका स्पष्ट प्रमाण सारेका सारा सहज ही लुप्त हो जाता । संयोगवश, प्राचीन और अविच्छिन्न संस्कृत साहित्यका अस्तित्व ही हमें आर्य भाषाओंकी मूलभूत एकताको स्थापित करनेके योग्य बनाता है । यदि संस्कृतके प्राचीन ग्रंथ विद्यमान न होते और व्यावहारिक
_________
1. यहाँ शब्द मूल पाण्डुलिपिमें सुपाठय नहीं ।
२६८
संस्कृतके साधारण शब्द ही बचे रहते तो इन संबंधोंके विषयमें किसको निश्चय हो सकता ? अथवा कौन विश्वासके साथ अपने साधारण घरेलू शब्दोंवाली बोलचालकी बंगालीको तेलगू या तामिलकी अपेक्षा अधिक निश्चित रूपसे लैटिनके साथ संबद्ध कर सकता ? तब हमें कैसे यह निश्चय हो सकता है कि आर्यभाषाओंके साथ स्वयं तामिलके विसंवादका कारण प्राचीन काल में उसका उनसे पृथक् हो जाना और प्राक्साहित्यिक युगोंमें उसके शब्दकोषका अत्यधिक परिवर्तन ही नहीं हैं ? इस अनुसंधानके पिछले भागमें मैं इस कल्पनाके लिए कुछ आधार प्रदान कर सकूँगा कि तामिलके संख्यावाचक शब्द प्राचीन आर्य शब्द है जिनका संस्कृतने परित्याग कर दिया है, किन्तु जिनका चिह्न वेदोंमें अब भी पाया जाता है अथवा जो विभिन्न आर्यभाषाओंमें बिखरे पड़े एवं अंतर्हित हैं और इसी प्रकार तामिल सर्वनाम भी प्रारंभिक आर्य नामधातु हैं जिनके चिह्न भाषाओंमें पाये जाते हैं । मैं यह दिरवानेमें भी समर्थ होऊँगा कि विशुद्ध तामिल समझे जानेवाले बड़े शब्द-परिवार आर्य शब्द-परिवारके साथ सामूहिक रूपमें एकरूप हैं, यद्यपि एक-एक करके नहीं । किन्तु तब हम युक्तिपूर्वक इस निष्कर्षपर पहुँचनेपर विवश होते हैं कि समान विचारों और पदार्थोंके लिए समान शब्दकोशका अभाव आवश्यक रूपसे उद्गमके भिन्न-भिन्न होनेका प्रमाण नहीं है । व्याकरण-संबंधी रूपोंकी भिन्नता ? किन्तु क्या हमें इस बातका निश्चय है कि तामिल रूप अपने ही समान पुराने ऐसे आर्य रूप नहीं है जो तामिल बोलीकी प्राचीन तरलताके कारण अपभ्रंश-रूपको प्राप्त हो गए हैं परन्तु सुरक्षित हैं । उनमेंसे कई आर्य भाषाओंके समान हैं किन्तु संस्कृतके लिए वे अपरिचित हैं और इसलिए कइयोंने इससे यह निष्कर्ष भी निकाला है कि आर्यभाषाएँ मूल रूपमें अनार्य बोलियाँ थीं जिनपर विदेशी आक्रांताने भाषागत अधिकार कर लिया । यदि ऐसा हों तो भला हम अनिश्चयताकी किन दलदलोमें नहीं फँस जाते ? वैज्ञानिक आधारकी हमारी छाया, भाषापरिवारोंका हमारा निश्चित वर्गीकरण शृन्यताके परिवर्तनशील प्रकोष्ठोंमें विलुप्त हो गये हैं ।
एक अधिक परिपक्व विचार भाषाशास्त्रियोंके द्वारा स्थिर किये गये सिद्धान्तपर जो भीषण अनर्थ ढाता है बह केवल इतना ही नहीं है । हमने तामिलके सामान्य शब्दोंमें और उन शब्दोंमे जो 'आर्य' बोलियोंमें समान रूपसे पाये जाते हैं, भारी विषमता पाई है । किन्तु इन विषमताओंको हमें कुछ अधिक गहराईसे देखना चाहिये । पिताके लिए तामिल शब्द 'अप्पा' है, पिता नहीं । संस्कृतमें इससे मिलता-जुलता कोई शब्द नहीं
२६९
हैं, किन्तु ''अपत्यम्'' (पुत्र), अप्त्यम् और अप्न (संतान) --इनमें हम अप्पा शब्दका एक रूप पाते हैं जिसे हम शब्द-विपर्यय कह सकते हैं । ये तीन शब्द निश्चित रूपसे एक संस्कृत धातु 'अप'का निर्देश करते हैं जिसका अर्थ है उत्पन्न करना या सृजन करना, जिसके लिए और भी साक्ष्य प्रचुर मात्रामें पाया जा सकता है । हमें यह कल्पना करनेसे क्या चीज रोक सकती है कि पिताके अर्थमें अप्पा शब्द इस धातुसे बने (कर्तृवाचक) एक प्राचीन आर्य शब्दका तामिल रूप है, जो इसीसे बने (कर्मवाचक) अपत्य शब्दके सदृश है । तामिलमें माताके लिए 'अम्मा' शब्द है माता नहीं; किन्तु संस्कृतमें अम्मा कोई शब्द नहीं । संस्कृतमें माताके लिए सुप्रसिद्ध शब्द है 'अम्बा', तामिलके अम्माको अम्बाका पर्याय आर्य रूप समझनेसे हमे कौन रोक सकता है ? यह अम्बा शब्द 'अम्ब' उत्पन्न करना, इस धातु से बना है जिससे पिताके वाचक अम्ब तथा अम्बक, माताके वाचक अम्बा, अम्बिका और अम्बी तथा घोड़े या किसी भी जानवरके बच्चेका वाचक अम्बरीष --ये शब्द निकले हैं । संस्कृतका एक उत्कृष्ट कोटिका शब्द सोदर तामिलमें भाई के लिए सामान्य व्यावहारिक शब्द है और उत्तरकी उपभाषामें प्रयुक्त भाई और संस्कृतमें प्रचलित 'भ्राता'का स्थान लिए हुए है । 'अक्का' जो संस्कृतमें कई विभिन्न रूपोंमें प्रचलित है तामिलमें बड़ी बहनके लिए प्रयुक्त होनेवाला बातचीतका शब्द है । इन सब उदाहरणोंमें हम देखते हैं कि एक लुप्त वा उच्च साहित्यिक संस्कृत शब्द तामिलमें बोलचालका साधारण शब्द है, जैसे कि हम देखते हैं कि उच्च साहित्यिक शब्द 'सूनु' बोलचालकी जर्मनमें सौन (sohn) और अंग्रेजीमें सन (son) के रूपमें प्रकट हुआ है । अविभक्तके अर्थमें एक आर्य शब्द 'अदल्भ' जो निश्चय ही एक उच्च कोटिका साहित्यिक शब्द है पर अब लुप्त हो चुका है, बोलचालकी ग्रीकमें भ्राताके वाचक आडेल्फोस (adelphos) के रूपमें दिखाई देता है । इन तथा इस प्रकारके अन्य अनेकानेक उदाहरणोंसे जो इस कृतिके दूसरे खंडमें प्रकाशित होंगे, हम क्या परिणाम निकालें ? क्या यह कि तामिल ग्रीक और जर्मनकी तरह एक आर्य उपभाषा है ? निश्चय ही नहीं; --इसके लिए साक्ष्य पर्याप्त नहीं है; किन्तु यह कि किसी अनार्य भाषाके लिए यह संभव है कि वह अपने अत्यंत सामान्य और परिचित शब्दोंके स्थानपर आर्य शब्दोंको प्रचुरता और स्वतंत्रतासे ले ले और अपनी सहज-स्वाभाविक अभिव्यक्तिको खो दे । किन्तु फिर हम कठोर तर्क द्वारा इस निष्कर्षपर पहुँचनेके लिए बाधित होते हैं कि जैसे सामान्य और घरेलू
२७०
शब्दोके लिए एकसमान शब्दकोषका अभाव विभिन्न उद्गमका कोई निश्चित प्रमाण नही, ऐसे ही इन शब्दोंके लिए लगभग समान शब्दकोषका होना भी समान उद्धवका निश्चित प्रमाण नहीं । ये चीजें अधिक-से-अधिक एक घनिष्ठ संपर्क या पृथक् विकासको सिद्ध करती हैं, इससे अधिक कुछ भी सिद्ध नहीं करती और न अपने आपमें इससे अधिक कुछ सिद्ध कर ही सकती हैं । तब किस आधारपर हम भिन्न-भिन्न भाषापरिवारोंका भेद और वर्गीकरण करें ? क्या हम बिलकुल निश्चयात्मक रूपसे कह सकते हैं कि तामिल एक अनार्य भाषा है अथवा ग्रीक, लैटिन और जर्मन आर्य-भाषाएँ हैं ? व्याकरण-संबंन्धी रूपों और 'प्रयोगों' (?) के संकेतसे हम जिन भाषाओंकी तुलना कर सकते हैं उनके द्वारा उत्तराधिकारमें प्राप्त शब्दोकी भिन्नता वा एकरूपतासे उत्पन्न सामान्य प्रभावसे क्या हम ऐसा कह सकते हैं ? किन्तु इनमेंसे प्रथम प्रमाण बहुत ही तुच्छ और अनिश्च-यात्मक है, दूसरा भी बहुत अधिक परीक्षणात्मक, अनिश्चित और प्रवंचना-पूर्ण परख है । दोनों वैज्ञानिकताके ठीक विपरीत हैं; विचार करनेसे ज्ञात होगा कि दोनों हमे बहुत ही लंबी और अत्यंत मूलगामी भूलोंकी ओर ले जा सकते हैं । ऐसे सिद्धांतकें आधारपर निष्कर्ष निकालनेकी अपेक्षा यह अच्च्छा है कि हम कोई भी निष्कर्ष निकालनेसे पृथक् रहें और एक अघिक समग्र और लाभदायक आरंभिक प्रयासकी ओर बढ़ें ।
मैं यह निष्कर्ष निकालता हूँ कि भाषाविज्ञान-विषयक अनुसंधानके इतिहासमें हमने अभीतक इतना कच्चा और दुर्बल आधार तैयार किया है कि उसपर वैज्ञानिक नियमों और वैज्ञानिक वर्गीकरणोंका बड़ा भवन खड़ा करना उतावलीपूर्ण होगा । हम अभी उन मानव भाषाओंके, जो बोलचाल, अभिलेख वा साहित्यके रूपमें अबतक विद्यमान हैं, गंभीर और अनिश्चित वर्गीकरणपर नहीं पहुँच सकते । हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे विभाजन लोकप्रिय तो हैं किन्तु वैज्ञानिक नहीं, वे ऊपरी साम्योंपर आधारित है न कि विज्ञानके लिए उपयुक्त एकमात्र सही आधारपर, जो यह है कि भिन्न-भिन्न भाषा-जातियोंका गर्भावस्थासे लेकर अंतिम रूपतक जो विकास होता है उसका अध्ययन किया जाए, अथवा यदि आवश्यक सामग्रीके अभावके कारण यह संभव न हो तो, इससे विपरीत दिशामें अनुशीलन करते हुए उनके अंतिम रूपोसे उनके गर्भ-रूपोंतक पहुँचकर और गहरे खोदकर भाषाके गुप्त मूल गर्भोंको खोज निकाला जाय । एक सच्चे वैज्ञानिकका भाषाशास्त्रके तुच्छ, आनुमानिक मिथ्या-विज्ञानपर आक्षेप-न्यायसंगत ही है । इसे एक अधिक स्वस्थ पद्धति और अधिक महान्
२७१
आत्मानुशासनको अपनाकर, भड़कीली ऊपरी समानताओंको त्यागकर और अपेक्षाकृत अधिक सावधानतापूर्ण, जिज्ञासाभरी और धैर्यपूर्ण अनुसंधान- प्रणाली अपनाकर इस आक्षेपको दूर करना होगा । इसलिए कितना भी आकर्षक प्रलोभन क्यों न हो, उथले अध्ययनकर्ताको तथ्य कितने भी प्रबल क्यों न दिखाई दें, इस प्रस्तुत कृतिमें मैं भिन्न-भिन्न भाषाओंकी समानताओं या सम्बन्धोंके आधारपर, प्रारंभिक मानवीय सभ्यताओंके स्वरूप और इतिहासके सम्बन्धमें भाषाशास्त्रके साक्ष्यके आधारपर अनुमान करनेके समस्त प्रयत्नका परित्याग करता हूँ, अथवा अन्य जो कोई भी विषय कठोर रूपसे मेरे विषयकी चारदीवारीके भीतर नहीं आता उसका भी मैं परित्याग करता हूँ । मेरा विषय है मानवीय भाषाका उद्गम, वृद्धि एवं विकास, जैसा कि वह साधारणतया संस्कृतके नामसे प्रसिद्ध भाषा और तीन अन्य प्राचीन भाषाओंके भ्रूण-विज्ञानसे हमारे समक्ष प्रकट होता है । उन तीनमेंसे दो, लैटिन और ग्रीक, मर चुकी है और एक तामिल जीवित है । तीनों प्रत्यक्ष ही कम-से-कम इसके (संस्कृतके) सम्पर्कमें आ चुकी है । मैंने सुविधाके लिए अपनी रचनाको 'आर्यभाषाके उद्गम (The origins of Aryan Speech )' नाम दिया है । किन्तु मैं यह चाहूँगा कि यह बात स्पष्ट रूपसे समझ ली जाय कि इस परिचित गुणवाचक नामके प्रयोगसे मैं एक क्षणके लिए भी अपने इस सर्वेक्षणके अंतर्गत इन चार भाषाओंके परस्पर-सम्बन्ध अथवा इनके बोलनेवाले लोगोंके प्रजातिगत मूलके विषयमें अपनी कोई सम्मति नहीं प्रकट करना चाहता, नाहीं मैं संस्कृतभाषी लोगोंके नृकुल-सम्बन्धी उद्गमोंके विषयमें कोई सम्मति प्रकट करना चाहता हूँ । मैं 'संस्कृत' शब्दका भी प्रयोग दो कारणोंसे नहीं करना चाहता था, एक तो इसलिए कि यह केवल 'सुसंस्कृत या शुद्ध'का वाचक शब्द है जो स्त्रियों और साधारण लोगों द्वारा बोली जानेवाली भाषाओंसे भिन्न प्राचीन भारतीय साहित्यिक भाषाका द्योतक है और दूसरे इसलिए कि मेरा क्षेत्र उत्तरीय हिंदुओंकी उच्चकोटिकी भाषाकी अपेक्षा कुछ अधिक विस्तृत है । मैं अपने निष्कर्षोंका आधार संस्कृत-भाषाकी साक्षीपर रखता हूँ जिसमे मुझे ग्रीक, लैटिन और तामिल भाषाके उन भागोंकी सहायता प्राप्त होती है जो संस्कृत शब्द-परिवारोंके सजातीय हैं । और 'आर्यभाषाके उद्गम'से मेरा अभिप्राय विशेषतया मानवमाषाके उद्गमसे है, जैसा कि उसे उन लोगोने प्रयुक्त और विकसित किया जिन्होंने ड्न शब्द-परिवारों, इनके तनों और प्ररोहोंका निर्माण किया । मैं आर्य शब्दका यहाँ जिस रूपमें प्रयोग कर रहा हूँ उसका तात्पर्य इसमे अधिक कुछ नहीं ।
२७२
ऐसी खोजबीनके समय यह स्पष्ट है कि एक प्रकारका भाषाविषयक भ्रूणविज्ञान प्रथम आवश्यक वस्तु है । दूसरे शब्दोंमें, जिस अनुपातमें, हम आधुनिक और सभ्य मनुष्यों द्वारा प्रयोगमें लायी जानेवाली सुघटित मानवीय भाषाके प्रतीयमान तथ्योंसे अपनेको दूर रखेंगे, जिस अनुपातमें हम अधिक प्राचीन और आदिम भाषाओंकी रचनाके प्रथम धातुओं और आरंभिक रूपोंके समीप पहुँचेंगे, क्षसी अनुपातमें हम वस्तुत: फलप्रद खोजें करनेका अवसर प्राप्त करेंगे । जैसे कि रूपान्वित बाह्य मनुष्य, पशु और पौधोंके अध्ययनसे विकासके महान् सत्योंकी खोज नहीं हों सकती अथवा, यदि उनकी खोज हों भी जाय, तो उन सत्योंको स्थिर रूपसे निश्चित नहीं किया जा सकता, जैसे कि घड़े-घड़ाए जन्तुसे उसके अस्थिपंजर और अस्थि-पंजरसे भ्रूणकी ओर पीछेतक जानेसे ही इस महान् सत्यकी स्थापना हो सकी कि जड़ प्रकृतिमें भी यह महान् वैदान्तिक सूत्र लागू होता है कि विश्व-पुरुषकी इच्छासे एक बीजसे बहुतसे रूपोंके विकास द्वारा जगत् निर्मित होता है, एकं बीजं बहुधा य: करोति, ऐसी ही बात भाषाके सम्बन्धमें भी है । यदि मानवभाषाका उद्गम और एकता खोजकर स्थापित की जा सकती है, यदि यह दिखाया जा सकता है कि उसका विकास निश्चित नियमों और प्रक्रियाओं द्वारा शासित था तो उसके प्राचीनतम रूपोंतक पीछे जाकर ही मूलकी खोज करनी होगी और इसके प्रमाणोंको स्थापित करना होगा । आधुनिक भाषा अधिकांशमें एक निश्चित और लगभग कृत्रिम-सा रूप है, ठीक-ठीक जीवावशेष तो नहीं, किन्तु एक ऐसा जीव-संस्थान है जो गतिरोध और पाषाण-रूपकी ओर जा रहा है । इसके अध्ययनसे जो विचार हमें सूझते हैं, उनके विषयमें यह सहज ही कल्पना की जा सकती है कि वे हमें बिलकुल भटकानेवाले हैं । आधुनिक भाषामें शब्द एक निश्चित एवं रूढ़ प्रतीक है, प्रथावश उसके साथ हम जो अर्थ जोड़नेके लिए विवश हैं वह किसी भी ज्ञात उचित कारणसे उसका अर्थ होता नहीं । हम अंग्रेजीके 'वुल्फ' (wolf) शब्दसे एक विशेष प्रकारके पशुका अर्थ ग्रहण करते हैं । किन्तु इस अर्थके लिए हम क्यों इस ध्वनिका प्रयोग करते हैं, किसी अन्यका नहीं, इस विषयमें हम, इसके अतिरिक्त कि यह एक ऐतिहासिक विकासका नियमरहित तथ्यमात्र है, कुछ भी नहीं जानते और नाहीं सोचनेकी परवाह करते हैं । कोई भी अन्य ध्वनि इस प्रयोजनके लिए हमारे लिए समान रूपसे अच्छी होगी, बशर्ते कि हमारी रूढ़िबद्ध मनोवृत्तिको, जो हमारे वातावरणमें व्याप्त है, उसे अनुमति देनेके लिए प्रेरित किया जा सके । जब हम प्राचीन भाषाओंकी ओर पीछेतक
२७३
जाते हैं और, उदाहरणार्थ, यह देखते हैं कि भेड़ियेके लिए प्रयुक्त संस्कृत शब्द (वृक )का मूलार्थ ''फाड़ना'' है, केवल तभी हमें भाषाके विकासके कम-से-कम एक नियमकी झाँकी मिलती है । और फिर आधुनिक भाषामें हमें वाक्यके निश्चित अंग मिलते हैं--संज्ञा, विशेषण, क्रिया, क्रियाविशेषण; ये हमारे लिए पृथक्-पृथक् शब्द हैं, चाहे इनके रूप एकसमान भी हों । जब हम फिर अधिक प्राचीन भाषाओंकी ओर पीछेतक जाते हैं केवल तब ही हम इस आश्चर्यजनक और प्रकाशप्रद तथ्यकी झाँकी पाते हैं कि अत्यंत आधारभूत रूपोंमें एक अकेला एकमात्रिक शब्द संज्ञा, विशेषण, क्रिया और क्रियाविशेषण--इनका समान रूपसे काम देता था, और बहुत संभवत: मनुष्य भाषाके अपने प्राचीनतम प्रयोगमें इन भिन्न-भिन्न शब्दोंके बीच अपने मनमें बहुत ही कम भेद करता था अथवा किसी प्रकारका सचेतन भेद करता ही नहीं था । आधुनिक संस्कृतमें हम 'वृक' शब्दका प्रयोग 'भेड़िया' अर्थकी सूचक एक संज्ञाके रूपमें ही देखते हैं । वेदमें इसका अर्थ केवल 'फाड़ना' वा 'फाड़नेवाला' है, वहाँ इसका प्रयोग संज्ञा अथवा विशेषणके रूपमें बिना विशेष भेदके किया जाता हे । संज्ञा-रूपमें जब इसका प्रयोग होता है तब भी इसमें विशेषण-जैसी बहुत कुछ स्वतंत्रता होती है और यह भेड़िया, राक्षस, शत्रु, विध्वंसक शक्ति अथवा किसी भी फाड़नेवाली वस्तुके लिए स्वतंत्र रूपसे प्रयुक्त किया जा सकता है । हम वेदमें यह पाते हैं कि यद्यपि वहाँ ई (e) और तेर (ter) से बनने-वाले लैटिन क्रियाविशेषणके अनुरूप क्रियाविशेषणात्मक शब्द पाये जाते हैं तो भी स्वयं विशेषणका ही निरंतर एक विशुद्ध विशेषणके रूपमें और धातुरूप और उससे सूचित क्रियाके साथ संबद्ध रूपमें प्रयोग किया जाता है । यह प्रयोग क्रिया-विशेषणों और क्रियाविशेषणात्मक या उपसर्गात्मक पदावलियों या गौण क्रियाविशेषणात्मक खंडवाक्योंके आधुनिक प्रयोगसे मिलता-जुलता है । इससे भी अधिक विलक्षण बात हम यह पाते हैं कि संज्ञा और विशेषणपदोको प्रायः क्रियाओंके रूपमें भी प्रयुक्त किया जाता है तथा उनके साथ द्वितीया वि:भक्तिमें कर्मका प्रयोग किया जाता है, जो धातुगत क्रियासंबंधी विचारपर आश्रित होता है । इसलिए हम यह खोज निकालनेके लिए प्रस्तुत हैं कि आर्यभाषाके अत्यंत सरल और सबसे प्राचीन रूपोंमें शब्दका प्रयोग बिलकुल तरल था । उदाहरणार्थ, 'चित्' जैसे शब्दका प्रयोग 'जानना', 'जाननेकी क्रिया', 'जानता है', 'जाननेवाला', 'ज्ञान' या ज्ञानपूर्वक',--इन अर्थोंमें समान रूपसे किया जा सकता था, और वक्ताको इस बातका कोई स्पष्ट विचार नहीं आता था कि वह ऐसे लचकीले शव्दका
२७४
किस विशेष भावमें व्यवहार कर रहा है । और फिर आधुनिक भाषाओंमें निश्चितताकी यह प्रवृत्ति,--शब्दोंका प्रयोग स्वयं विचारको जन्म देनेवाले जीवित तत्त्वोंके रूपमें नहीं अपितु केवल विचारोंके प्रतिरूपो और प्रतीकोंके रूपमें ही करनेकी यह प्रवृत्ति,--अनेक भिन्न-भिन्न अर्थोंके लिए एक ही शब्दके प्रयोगपर कठोर प्रतिबन्ध लगानेकी प्रवृत्तिको और साथ ही एक ही पदार्थ अथवा विचारकी अभिव्यक्तिके लिए अनेक भिन्न-भिन्न शब्दोंका प्रयोग न करनेकी प्रवृत्तिको जन्म देती है । जब हम श्रमिकों द्वारा अपनी इच्छासे और संगठित रूपमें कार्य बंद कर देनेके भावको सूचित करनेके लिए 'strike' (स्ट्राइक) इस शब्दको पा लेते हैं तो हम संतुष्ट हों जाते हैं । हम बड़ी उलझनमें पड़ जायँगे यदि हमें इस शब्द, और इसी भावको प्रकट करनेवाले, समान रूपसे प्रचलित अन्य पन्द्रह शब्दोंमेंसे किसी एकका चुनाव करना पड़े । हम और भी अधिक कठिनाई अनुभव करेंगे यदि एक ही शब्दके अर्थ प्रहार, सूर्यकिरण, क्रोध, मृत्यु, जीवन, अंधकार, आश्रय, घर, भोजन और प्रार्थना--ये सब हो सकते हों । तथापि ठीक यही तथ्य-- मैं फिर कहता हूँ कि यही अत्यंत ध्यानाकर्षक और प्रकाशप्रद तथ्य-- हम भाषाके प्राचीन इतिहासमें पाते हैं । पीछेकी संस्कृतमें भी एक ही शब्दके प्रत्यक्षतः-असंबद्ध अर्थोंका आश्चर्यजनक भंडार देखनेमें आता है । किन्तु वैदिक संस्कृतमें तो यह आश्चर्यजनकसे कहीं अधिक कुछ है और आर्य सूक्तोंका बिलकुल ठीक-ठीक और निर्विवाद अर्थ निश्चित करनेके लिए किये गये आधुनिक विद्वानोंके किसी भी प्रयत्नके मार्गमें यह गंभीर बाधा उपस्थित करता है । इस कृतिमें मैं यह परिणाम निकालनेके लिए प्रमाण दूँगा कि और भी अधिक प्राचीन भाषामें यह स्वतंत्रता इससे कहीं अधिक थी, प्रत्येक शब्द अपवाद-रूपमें ही नहीं अपितु साधारण नियमके रूपमें अनेक भिन्न-भिन्न अर्थोंका द्योतक हो सकता था, और प्रत्येक पदार्थ या विचार अनेक शब्दोंसे और प्रायः ही, पृथक्-पृथक् धातुसे निष्पन्न पचासतक भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा प्रकट किया जा सकता था । हमारे विचारोंके अनुसार इस प्रकारकी अवस्था केवल नियमरहित गड़बड़झालेकी ही होगी जो भाषाके किसी नियम अथवा भाषाविज्ञानकी किसी भी संभावनाके विचारतकका खंडन कर डालेगी । किन्तु मैं यह दिखाऊँगा कि यह असाधारण स्वतंत्रता और नमनीयता मानव भाषाकी प्रारंभिक प्रवृत्तियोंके असली स्वरूपसे ही अनिवार्य रूपमें प्रकट हुई और ठीक उन्हीं नियमोंके परिणामके रूपमें प्रकट हुई जो इसके आदिकालीन विकासको शासित करते थे ।
२७५
इस प्रकार आधुनिक भाषामें एक विकसित वाणीके कृत्रिम प्रयोगसे पीछेकी ओर जाकर और अपने अधिक प्राचीन पूर्वजों द्वारा प्रयुक्त आदिम भाषाके स्वाभाविक प्रयोगके समीप पहुँचकर हमें दो आवश्यक चीजें प्राप्त होती हैं । हम ध्वनि और उसके अर्थमें रूढ़िगत निश्चित संबंधके विचारसे मुक्त हो जाते हैं और यह देखते हैं कि एक विशेष ध्वनिसे एक विशेष पदार्थको इसलिए सूचित किया जाता है, कि किसी कारणसे यह ध्वनि उस पदार्थकी एक विशेष और उल्लेखनीय क्रिया या विशेषताको प्राचीनतर मानव मनके सम्मुख विशेष रूपसे प्रस्तुत करती थी । आजकलके कृत्रिम और जटिल प्रकृतिवाल्रे मनुष्यके समान प्राचीन मानव अपने मनमें यह नहीं कहता था ''देखो, यहाँ हैं एक हिंस्र मांसाहारी पशु जिसकी चार टाँगे है, जो कुत्तेकी जातिका है, जो झुंडमें शिकार करता है और मेरे मनमें जिसका संबंध विशेष रूपसे रूसदेश, शीत ऋतु, हिम और घासके मैदानके साथ है, आओ उसके लिए हम एक उपयुक्त नाम ढूँढ़े ।'' उसके मनमें भेड़िएके विषयमें आजकी अपेक्षा बहुत कम विचार थे, वैज्ञानिक वर्गीकरणके विचारोमें वह कतई व्यस्त नहीं था । भेड़िएके साथ अपने संपर्कके स्थूल तथ्यमें वह बहुत अधिक ग्रस्त था । इस मुख्य और सर्वाधिक आवश्यक तथ्यको चुनकर ही वह अपने साथीके संमुख, ''यहाँ है एक भेड़िया'' ऐसा न कहकर, केवल यह है ''एक फाड़नेवाला'', अयं वृकः, इन शब्दोंमें चिल्ला उठा । अब प्रश्न यह रहता है कि किसी अन्य शब्दकी अपेक्षा 'वृक' शब्द ही फाडनेका भाव क्यों सूचित करता था । संस्कृत-भाषा हमें एक कदम पीछे ले जाती है, किन्तु अभी अंतिम कदमतक नहीं । यह कार्य वह हमें यह दिखाकर करती है कि बने-बनाए 'वृक:' शब्दसे हमारा कोई वास्ता नहीं, हमारा वास्ता है 'वृच' शब्दसे, उस 'वृच' धातुसे जिसके अनेक प्ररोहोंमेंसे 'वृक' केवल एक है । क्योकि, दूसरा मोह, जिससे मुक्त होनेमें यह हमें सहायता देती है, यह है--एक विकसित शब्दका किसी विचारकी उस एक सुनिश्चित छायाके साथ आधुनिक संबंध जिसे प्रकट करनेके लिए हमने इसके पुनः-पुन: प्रयोगके द्वारा इसे प्रचलित किया है । 'डिलिमिटेशन (delimition)' यह शब्द और वह जटिल अर्थ (सीमानिर्धारण) जिसे यह प्रकट करता है हमारे लिए एक साथ जुड़े हुए हैं । हमें यह स्मरण करनेकी आवश्यकता नहीं कि यह शब्द 'लाइम्स (limes)' से बनता है जिसका अर्थ सीमा है और एकमात्रिक 'लाइम् (lime)' शब्द, जो 'डिलिमिटेशन' का मेरुदण्ड है, अपने-आपमें भावके मूलभूत सारको हमारे सामने प्रकट नहीं करता । किन्तु मैं समझता हूँ यह दिखाया जा
२७६
सकता है कि वैदिक कालमें भी 'वृक' शब्दका प्रयोग करते हुए मनुष्योंके मनमें 'वृच' धातुका अर्थ प्रमुख रूपमें रहता था और यह धातु ही उनके मनके लिए भाषाका कठोर एवं निश्चित महत्त्वपूर्ण भाग था । पूरा शब्द अभीतक तरल अवस्थामें था और वह अपने प्रयोगके लिए अपने मूल धातुके द्वारा जगाए गये सहकारी संस्कारोंपर निर्भर करता था । यदि ऐसा ही हो तो हम आंशिक रूपसे यह देख सकते हैं कि क्यों शब्द अपने अर्थमें तरल रहे । बोलनेवालेके मनमें धातुकी ध्वनि द्वारा जगाए गये विशेष विचारके अनुसार उनका अर्थ परिवर्तित होता था । हम यह भी देख सकते हैं कि क्यों स्वयं यह धातु भी न केवल अपने अर्थोंमें अपितु अपने प्रयोगमें भी तरल अवस्थामें था और क्यों बने-बनाए और विकसित शब्दमें भी, वेदमें पाई जानेवाली भाषाकी अपेक्षाकृत अर्वाचीन अवस्थामें भी संज्ञारूप, विशेषणात्मक क्रियारूप और क्रियाविशेषणात्मक प्रयोगोंमें भेद अत्यंत अपूर्णतासे किया जाता था, वे बहुत ही कम कठोर और पृथक्-पृथक् होते थे, एक दूसरेसे बहुत ही अधिक मिले-जुले रहते थे । हम भाषाकी निर्धारक इकाईके रूपमें सदा धातुपर ही पहुँचते हैं । हमारे संमुख खोजका विशेष विषय यह है कि भाषाविज्ञानका आधार क्या है, इस विषयमे हम प्रगतिके एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थलपर आ पहुँचे हैं । हमें यह जाँच करनेकी आवश्यकता नहीं कि 'वृक'का अर्थ 'फाड़नेवाला' क्यों था ! इसके स्थानपर हम यह जाँच करेंगे कि प्राचीन 'आर्य'भाषा-भाषी प्रजातियोंके लिए 'वृच' ध्वनिका क्या अर्थ था और इसके अंदर हम जिस एक वा जिन अनेक विशेष अर्थोंको सचमुचमें निहित पाते हैं, वे अर्थ इसके क्यों होते थे । हमें यह पूछनेकी आवश्यकता नहीं कि डोलाब्रा (dolabra) का अर्थ लैटिनमें कुल्हाड़ा क्यों है, दल्मि (dalmi) का अर्थ संस्कृतमे इन्द्रका वज्र क्यों है, दलप (dalapa) और दल (dala) शस्त्रोंके लिए क्यों प्रयुक्त होते हैं या क्यो 'दलनम्' का अर्थ 'ध्वंस करना' है, अथवा ग्रीकमें गुफाओं और घाटियोंवाले स्थानको डेल्फी (delphi) नाम क्यों दिया गया है । किन्तु हम अपने-आपको उस निर्मायक मूलधातु 'दल्'के स्वरूपकी खोजतक ही सीमित रख सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप ये सब भिन्न-भिन्न पर सजातीय प्रयोग उत्पन्न हुए हैं । इसका यह तात्पर्य नहीं कि इन सब शब्दोंमें हम जो भेद देखते हैं उनका कोई महत्त्व नहीं किन्तु उनका महत्त्व गौण और अवान्तर है । वस्तुत: हम भाषाके उद्गमोंके इतिहासको दो भागोंमें विभक्त करे सकते हैं, एक तो भ्रूणसंबंधी जिसके विषयमें अनुसंधानको प्रथम महत्त्व देकर
२७७
तत्काल आरंभ करना चाहिये, और दूसरा संरचनात्मक जो अपेक्षया कम मह्त्त्वपूर्ण है और इसलिए जिसे उत्तरकालीन और सहायक अनुसंधानके लिए रख छोड़ा जा सकता है । पहलेमें हम भाषाके धातुओंपर ध्यान-पूर्वक दृष्टि डालते हैं और यह जिज्ञासा करते हैं कि 'वृच'का अर्थ 'फाड़ना' और 'दल्'का अर्थ 'विभक्त करना' अथवा 'कुचलना' कैसे हों गया । क्या ऐसा मनमाने ढंगसे हो गया अथवा प्रकृतिके किसी नियमकी क्रियासे ? दूसरेमें हम उन विकारों व आगमोंपर ध्यान देते हैं जिनसे वे धातु बढ़ते-बढ़ते शब्दों, शब्दसमुदायों, शब्दपरिवारों और शब्दवंशोके रूपमें परिणत हो जाते हैं और हम इस बातपर भी ध्यान देते हैं कि क्यों उन विकारों और आगमोंका अर्थ और शब्दपर वह प्रभाव पड़ा जिसे, हम देखते हैं कि, उन्होंने डाला है, क्यों 'अन' (ana) प्रत्यय 'दल्' धातुको एक विशेषण वा संज्ञा बना डालता है, और आब्र (ābra), भि (bhi), भ (bha), डेल्फोय (delphoi) दल्भाह (dalbhāh), आन् (ग्रीक औन्, ôn) और अन (ana) -इन विविध प्रत्ययोंका मूलस्रोत और तात्पर्य क्या है ।
प्राचीन भाषामें निर्मित शब्दकी अपेक्षा धातुका यह उच्चतर महत्त्व भाषाके उन अंतर्हित तथ्योंमेंसे एक है जिनकी उपेक्षा विज्ञानके रूपमें भाषा-शास्त्रकी वैज्ञानिक विफलताके मुख्य कारणोंमेंसे एक सिद्ध हुई है । मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुलनात्मक भाषाविज्ञानके प्रथम प्रवर्तकोंने एक घातक भूलकी जब निर्मित शब्दमें ही अत्यधिक तल्लीनतासे भ्रांत होकर उन्होंने पिता (pitā), पाटैर (patêr), पातैर (pater), फाटॅर (vater), फादर (father) --इन सब शब्दोके संबंधको अपने विज्ञानकी कुंजी या मूलमंत्र निर्धारित किया और इसके आधारपर तर्क कर वे सब प्रकारके युक्त या अयुक्त परिणाम निकालने लगे । सच्चा मूलमंत्र या सच्चा परस्पर-संबंध इस दूसरे सामंजस्यमे मिलता है--दल्भि (dalbhi), दलन (dalana), डोलाब्रा (dolabra), डोलोन (dolon)1 , डेल्फी (delphi), जो समान मातृ-धातु, समान शब्द-परिवारों, समान शब्दवंशों, संबद्ध शब्दजातियोके विचारकी ओर, अथवा, जैसा कि हम उन्हें कहते है, भाषाओके विचारकी ओर ले जाता है । और यदि इस बातको भी ध्यानमें रखा जाता कि इन सब भाषाओंमें 'दाल्'का अर्थ बहाना या कपट भी है और इसके कुछ दूसरे एकसमान या सजातीय अर्थ भी हैं
_____________
1. डोलोस (dolos), धूर्तता; डोलोन ( dolon), छुरा; डुलोस (doulos) दास ।
२७८
और एक ही ध्वनिके इन विविध कह महत्वपूर्ण अर्थोंमें प्रयोगके कारणकी खोजके लिए कुछ यत्न किया जाता तो वास्तविक भाषाविज्ञानकी आधार-शिला रखी जा सकती थी । प्रासंगिक रूपसे हम संभवत: प्राचीन भाषाओंके वास्तविक संबंध और तथाकथित आर्यजातियोंकी एक-सी मनो- वृत्तिकी भी खोज कर लेते । हम कुल्हाड़ेके लिए लैटिनमें 'डोलाब्रा (dolabra)' शब्द पाते हैं । ग्रीक अथवा संस्कृतमे कुल्हाड़ेके लिए हमें इससे मिलता-जुलता कोई शब्द नहीं मिलता । इसके आधारपर यह तर्क करना कि आर्यपूर्वजोंने अपनी जुदाईसे पूर्व एक शस्त्रके रूपमें कुल्हाड़ेका आविष्कार नहीं किया था और नाहीं उसे अपनाया था, निरर्थक और तमसाच्छन्न अनिश्चितताओं और अविवेकपूर्ण अनुमानोंके क्षेत्रमें उतरनेके समान होगा । किन्तु जब हम इस बातको देख चुकते हैं कि लैटिनमें डोलाब्रा (dolabra), ग्रीकमें डोलोन (dolon), संस्कृतमे दल, दलप और दल्भि--ये सभी 'दल्', विभक्त करना इस धातुसे स्वतंत्रतापूर्वक विकसित विभिन्न रूप थे और इन सबका प्रयोग इसी प्रकारके शस्त्रके लिए होता था, तो हम एक फलप्रद और समुज्ज्वल निश्चयपर पहुँच जाते हैं । हम एकसमान या आदिकालीन मनोवृत्तिको काम करते हुए देखते हैं । हम यह देखते हैं कि कुछ ऐसी प्रक्रियाएँ है जो दीखनेमें तो स्वतंत्र और विशृंखल हैं पर वस्तुत: नियमबद्ध हैं, जिनके द्वारा शब्दोंका निर्माण हुआ था । हम यह भी देखते हैं कि बिलकुल समान, अभिन्न, निष्पन्न शब्दोंका संग्रह नहीं, अपितु किसी विशेष पदार्थ या विचारकों प्रकट करनेके लिए एक धातुका चुनाव और उसी धातुकी अनेक संतानोमेंसे किसी एकका चुनाव ही आर्य-भाषाओंके शब्दकोषके साझे तत्त्व और उन विशाल तथा स्वतंत्र भेद- प्रभेदोंका रहस्य था जिन्हें हम वहाँ वस्तुत: पाते हैं ।
मैं इस कृतिमें जिस प्रकारका अनुसंधान करनेका विचार रखता हूँ उसका स्वरूप दिखानेके लिए मैं काफी कुछ कह चुका हूँ । हमारे संमुख जो समस्या है उसके असली स्वरूपसे ही, जिन प्रक्रियाओंसे भाषाका उद्धव और निर्माण हुआ उनसे ही, हमारे अनुसंधानका यह स्वरूप आवश्यक रूपमें उद्भूत होता है । भौतिक विज्ञानोंमें अध्ययनकी एक सरल और सजातीय सामग्री हमारे सामने होती है, क्योंकि शक्तियाँ या कार्यरत उपादान कितने भी जटिल क्यों न हों, वे सब एक प्रकृतिके होते हैं और नियमोंकी एक ही श्रेणीका अनुसरण करते हैं । सब उपादान भौतिक आकाशके स्पंदनसे विकसित रूप ही होते हैं, सब शक्तियाँ इन्हीं आकाशीय स्पंदनोंकी शक्तियाँ होती हैं जिन्होंने या तो अपने को पदार्थोंके इन औपचारिक घटकोंके रूपमें
२७९
ग्रथित कर लिया होता है और जो उनमें क्रियारत होती हैं या फिर बाहरसे उनपर अब भी स्वतंत्रतापूर्वक कार्य कर रही होती हैं । किन्तु मानसिक विज्ञानोंमें हमारे संमुख विजातीय सामग्री और विजातीय शक्तियाँ वा शक्तियोंकी क्रियाएँ होती हैं । पहले हमें एक भौतिक सामग्री और माध्यमसे व्यवहार करना होता है, जिसकी प्रकृति और कार्यका अध्ययन अपने आपमें हमारे लिए काफी सुगम और अपनी क्रियामें पर्याप्त-नियमित होगा बशर्ते कि वहाँ वह दूसरा तत्त्व अर्थात् मानसिक साधन विद्यमान न हो जो अपने भौतिक माध्यम और सामग्रीमें तथा उसपर कार्य करता है । हम एक क्रिकेटकी गेंद को आकाशमें उड़ता देखते हैं । हम क्रिया और स्थिति-विज्ञानके उन तत्त्वोंको जानते हैं जो उसकी उड़ानके अंदर और उपर कार्य करते है ओर काफ़ी सुगमतासे हम न केवल यह बतला सक्ते हैं कि वह किस दिशामें उड़ेगी बल्कि यह भी कि वह कहाँ गिरेगी । हम एक पक्षीको हवामे उड़ता देखते हैं,-क्रिकेटकी गेंद-जैसे एक स्थूल पदार्थको उसा भौतिक माध्यममेंसे उड़ता देरवते हैं; किन्तु न हम यह जोनते हैं कि वह किस दिशामें उड़ेगा और न यह कि वह कहाँ उतरेगा । सामग्री वही है, एक दृश्य भौतिक पदार्थ, माध्यम वही है, भौतिक वायुमंडल, कुछ अंश तक शक्ति भी वही है जो जड़ प्रकृतिमें अंतर्निहित है, भौतिक प्राणशक्ति, जैसा कि हमारे दर्शनशास्त्रमें इसे कहा जाता है । किन्तु एक और अभौतिक शवितने इस भौतिक शक्तिको अधिकारमें कर रखा है, वह इसके अंदर और इसके ऊपर कार्य कर रही है और जहाँ तक स्थूल माध्यम अनुमति देता है वहाँ तक वह उसके द्वारा अपनेको चरितार्थ कर रही है । यह शक्ति मानसिक शक्ति है और इसकी उपस्थिति क्रिकेटकी गेदमे पाई जानेवाली शुद्ध या व्यूहाणविक (molecular) प्राणशसक्तिको पक्षीमें पाई जानेवाली मिश्रित या स्नायविक शक्तिमें बदलनेके लिए पर्याप्त है । किन्तु यदि हम अपने मानसिक प्रत्यक्षों को इतना विकसित कर सकें कि पक्षीके उड़नेके समय उसे अनुप्राणित करनेवाली प्राणिक शक्तिके बलको निर्णय द्वारा आंकने या गणना द्वारा मापनेमें समर्थ हों तो भी हम उसकी उड़ानकी दिशा वा उद्देश्यका निश्चय नहीं कर सकेंगे । कारण यह है कि उसमें केवल शक्तिका ही भेद नहीं है, अभिकरण या साधनका भी भेद है । वह साधन वा अभिकरण है निरे भौतिक पदार्थमें रहनेवाली शक्ति, मानसिक संकल्पकी शक्ति जो न केवल अंतर्निवास करती है अपितु कुछ अंशतक स्वतंत्र भी है । पक्षीकी उड़ानमें एक सोद्देश्य संकल्प होता है; यदि हम उस संकल्पको देख सकें तो हम यह निर्णय कर सकते हैं कि वह किस दिशामें उड़ेगा
२८०
और कहाँ उतरेगा, हाँ, इसमें यह शर्त सदा आवश्यक है कि वह अपने संकल्पमे परिवर्तन न कर ले । क्रिकेटकी गेंद भी एक मानसिक अभिकर्ता द्वारा एक उद्देश्यके साथ फेंकीं जाती हैं । किन्तु वह अभिकर्ता गेंदसे बाहर होने और उसके अंदर न रहनेके कारण, जब वह गेंद एक बार किसी दिशामें विशेष बलके साथ प्रेरित कर दी जाती है तो वह उस दिशाको बदल नहीं सकती ओर नाहीं उस शक्तिका अतिक्रम कर सकती है, जब तक वह अपनी उड़ानमें आनेवाले किसी नये पदार्थ के द्वारा मोड़ न दी जाए या आगे धकेल न दी जाए । स्वयं वह स्वतंत्र नहीं है । पक्षी भी एक मानसिक अभिकर्ताके द्वारा, उद्देश्यके, साथ किसी विशेष दिशामें, अपनी उड़ानमे प्राणिक शक्तिके किसी विशेष बलके साथ प्रेरित किया जाता है । यदि उसे चलानेवाली मानसिक इच्छामें कोई परिवर्तन न हो तो उसकी उड़ानका क्रिकेटकी गेंदकी उड़ानकी तरह संभवत: अनुमान और निर्धारण किया जा सके । उसे रास्तेमें टकरानेवाले किसी पदार्थके द्वारा भी मोड़ा जा सकता है, उदाहरणार्थ मार्गके किसी वृक्ष या संकटके द्वारा अथवा मार्गसे बाहरके किसी आकर्षक पदार्थके द्वारा । किन्तु उसके अंदर एक मानसिक शक्ति निवास करती है और हमें कहना चाहिये कि वह यह चुननेमें स्वंतत्र है कि वह इधर-उधर मुड़ जाएगा या नहीं, वह अपने मार्गपर निरंतर चलता रहेगा या नहीं । किन्तु इस बातमें भी वह स्वतंत्र है कि वह बिना किन्हीं बाह्य कारणोंके अपने आरम्भिक उद्देश्यमें परिवर्तन कर ले, अपने अंदर उतप्न्न्न होनेवाली प्राणिक शक्तिकी मात्राको घटा या बढ़ा ले और उसे कर्ममें प्रयुक्त करे,. उसे किसी ऐंसी दिशामें और ऐसे लक्ष्यके लिए लगाए जो उसकी उड़ानके प्रारंभिक उद्देश्यसे बिलकुल विजातीय हों । हम उन भौतिक और प्राणिक शक्तियोंका, जिन्हें यह पक्षी काममें लाता है, अध्ययन कर सकते और उनका अनुमान कर सकते हैं । किन्तु हम पक्षीकी उड़ानका कोई विज्ञान तब तक नहीं बना सकते जब तक हम जड़ प्रकृति और उसकी शक्तिके पीछे नहीं जाते और इस सचेतन अभिकर्ताकी प्रकृतिका तथा उन नियमोंका ( यदि वे कोई हों तो) अध्ययन नहीं कर लेते जो' इसकी प्रतीयमान स्वतंत्रताको निर्धारित, निराकृत या मर्यादित करते हैं ।
भाषाविज्ञान एक ऐसे ही मानसिक विज्ञानको बनानेका प्रयत्न है,-- क्योंकि भाषाके ये दो पक्ष है; इसकी सामग्री भौतिक है अर्थात् वे ध्वनियाँ हैं जो वायुके स्पंदनों पर मानव जिह्वाकी क्रियासे बनती हैं; जो शक्ति इसका प्रयोग करती है वह प्राणिक है, मस्तिष्ककी एक व्यूहाणविक प्राणक्रिया है जो वाणी-संबंधी अभिकरणोंका प्रयोग करती है और स्वयं मानसिक शक्तिसे0
२८१
प्रयुक्त और आपरिवर्तित होती है,वह एक प्राणिक आवेग है जो संवेदनकी स्थूल सामग्रींमेंसे विचारकी स्पष्टता और सुनिश्चितताको प्रकट करने या बाहर लानेके लिए प्रयुक्त होता है । इसका प्रयोग करनेवाला अभिकर्ता एक मानसिक संकल्प है । जहाँ तक हम देख सकते हैं बह उस उद्देश्यके लिए शाब्दिक ध्वनियोंके संपूर्ण क्षेत्रके प्रयोगको परिवर्धित वा निर्धारित करनेमें स्वतंत्र है, किन्तु वह अपनी भौतिक सामग्रीकी सीमाओंके अंदर ही स्वतंत्र है न कि उनके बाहर । मेरा उद्देश्य इस समय सामान्य रूपसे मानव भाषाके उद्गमोंका नहीं, अपितु आर्यभाषाके उद्गमोंका अध्ययन करना है । हमारे सामने विचारार्थ प्रस्तुत किसी मानव भाषाके निर्माणका शासन करने-वाले नियमोंपर पहुँचनेके लिये, हमें पहले उस विधिकी परीक्षा करनी होगी जिससे अभिकर्ता द्वारा वाचिक ध्वनिके उपकरणोंका निर्धारण और प्रयोग किया गया है, दूसरे हमें उस विधिकी भी परीक्षा करनी होगी जिसके द्वारा प्रकट किये जानेवाले किसी विशेष विचार तथा उसे प्रकट करनेवाली विशेष-ध्वनि या ध्वनियोंके संबंधको निर्धारित किया गया है । भाषामें ये दो तत्त्व सदा ही अवश्य विद्यमान होते हैं, एक तो भाषाकी संरचना, उसके बीज, उसके मूल धातु, उसका निर्माण और विकास, और दूसरा उसकी संरचनाके उपयोग का मनोविज्ञान ।
आर्यभाषाओंमें सें केवल संस्कृत ही एक ऐसी भाषा है जिसकी वर्तमान संरचना आर्य संरचनाके इस मौलिक नमूनेको अब तक सुरक्षित रखे हुई है । केवल इस प्राचीन भाषामें ही हम, पूर्ण रूप से सभी आदिकालीन रूपोंमें तो नहीं पर इसके प्रारंभिक आवश्यक भागोंमें, एवं रचनाके नियमोंमें इस भाषा-संस्थानके ढांचों, अवयवों और आतड़ियोको देरवते हैं । तो फिर संस्कृत-भाषाके इस अध्ययनसे ही, विशेष रूपसे अन्य आर्यभाषाओंमें से अधिक नियमित और समृद्ध रचनावाली भाषाओंसे हम जो प्रकाश पा सकते हैं उसकी सहायतासे ही, हमें भाषाके मूल स्रोतोंकी खोज करनी होगी । जो संरचना हम संस्कृतमें पाते हैं वह असाधारण प्रारंभिक सादगीसे युक्त है, साथ ही वह निर्माणकी असाधारण रूपसे गणितसंबंधी और वैज्ञानिक नियमिततासे भी संपन्न है । हमें संस्कृतमें चार विवृत ध्वनियां या शुद्ध स्वर मिलते हैं, अ, इ, उ, ऋ, और उनके दीर्घ रूप भी मिलते हैं, आ, ई, ऊ, ऋ (यहाँ हमें एक विरले स्वर लृका भी उल्लेख करना होगा पर क्रियात्मक प्रयोजनोंके लिए हम इसे छोड़ सकते हैं) । इन स्वरोंकी परिपूर्ति होती है दो अन्य विवृत ध्वनियोंसे, उन दौ ध्वनियोंको वैयाकरण अशुद्ध स्वर वा 'इ' और 'उ'के विकार मानते हैं, उनका ऐसा मानना बहुत संभवत: ठीक है । वे स्वर हैं 'ए' और 'ओ',
२८२
इनमेंसे प्रत्येकका और आगे विकार होकर 'ऐ' और 'औ' बनते हैं । फिर हम संवृत ध्वनियों या व्यंजनोंके पांच समरूप वर्ग पाते हैं,-कण्ठय (क्, ख्, ग्, ध् ,ड़), तालव्य (च्, छ्, झ्, ञ्ज, ), मूर्धन्य (ट्, ठ्, ड्, ढ, ण्) जो अंग्रेजी दन्त्य वर्नोंके समान हैं; शुद्ध दन्त्य (त्, थ्, द्, ध्, न्,) जो केल्टिक तथा यूरोपीय दन्त्य अक्षरोंसे मिलते-जुलते हैं, जिन्हें हम आयरिश, फ्रेंच, स्पैनिश या इटालियनमें पाते हैं, और ओष्ठय (प्, ब, भ, म्) । इनमेंसे प्रत्येक वर्गमें एक कठोर ध्वनि (अघोष वर्ण क्, च्,ट्, त्, प्) भी विद्यमान है जिसकी अपनी एक महाप्राण ध्वनि हैं (ख्, छ्, ठ्, थ्, फ्) और इनसे मिलती-जुलती ध्यनियाँ (ग्, ज्, ड्, द्,ब्) भी हैं जिनके साथ उनकी महाप्राण ध्वनियाँ (ध्, झ्, ढ्, ध्, भ्) हैं और साथमें एक वर्ग अनुनासिकोंका भी है (ङ्, ञू., ण्, न्, म्), किन्तु इन अनुनासिक अक्षरोंमें पिछले तीन की ही पृथक् सत्ता और महत्ता है, शेष तो सामान्य अनुनासिक ध्वनि (म्, न्) के विकाररूप हैं जो अपने वर्गके दूसरे व्यंजनोंके साथ संयुक्त रूपमें ही पाये जाते हैं और संयोगके द्वारा ही जन्म लेते हैं । मूर्धन्य-वर्ग भी एक विलक्षण वर्ग है, मूर्धन्य वर्णोंका दन्त्य अक्षरोंके साथ ध्वनि और प्रयोगमें इतना घनिष्ठ संबंध है कि उन्हें मौलिक पृथक् वर्गकी अपेक्षा लगभग दन्त्याक्षरोंका कुछ परिवर्तित रूप ही माना जा सकता है । अन्तमें हम इन साधारण स्वरों और व्यंजनोंके अतिरिक्त चार तरल वर्णों (य्, र, ल् व्) से बना एक वर्ग पाते है जिन्हें स्पष्टत: ही अंतस्थ वर्ण माना जाता है,य् इ का अंतस्थ रूप हैं, व् उ का, र् ऋ का, ल्, लृ का,--र् और ल् का यह अंतस्थ स्वरूप ही इस बातका कारण है कि लैटिन छंद:शास्त्रमें उन्हें सदा व्यंजनका पूरा महत्त्व नहीं दिया जाता । उदाहरणार्थ, उनका अंतस्थ स्वरूप ही इस बातका भी कारण है कि वोलुअरिस (volueris) में यु (u) को विकल्पसे ह्रस्व और दीर्घ माना जाता है । साथ ही हम तीन ऊष्म अक्षर श्, ष्, स् भी पाते हैं जिनमेंसे श तालव्य,ष मूर्धन्य और स दन्त्य है । इसके बाद हम पाते हैं शुद्ध महाप्राण ह् । मूर्धन्य-वर्ग और परिवर्तनशील अनुनासिकोंके संभावित अपवादको छोड़कर मैं समझता हूँ कि इसमे कदाचित् ही संदेह हो सकता है कि संस्कृत वर्णमाला आर्योंकी भाषाके आदिकालीन वाचिक यंत्रका प्रतिनिधित्व करती है । इसका नियमित, सम-मित और प्रणालीबद्ध स्वरूप प्रत्यक्ष ही है और वह हमें इसमें किसी वैज्ञानिक बुद्धिकी सृष्टिको देखनेके लिए प्रलोभित कर सकता है; यदि हम यह न जानते हों कि प्रकृतिमें, उसकी विशुद्ध भौतिक क्रियाके एक विशेष अंशमें, ठीक ऐसी ही नियमितता, सममितता और निश्चितता है और
२८३
मन, कमसे कम अपनी प्राचीनतर बौद्धिकभाव-रहित क्रियामें जब मनुष्य संवेदन, आवेग ओर उतावले बोधसे अधिक परिचालित होता है, अनिय- मितता एवं मनमौजके तत्त्वको ही लानेकी ओर झुकाव रखता है, न कि किसी महान् प्रणाली और सममितताकी ओर । पूर्ण और निरपेक्ष रूपसे तो नहीं, परतु भाषासंबंधी उपलब्ध तथ्यों और कालोंकी सीमाके भीतर हम यह भी कह सकते हैं कि सममितता और अचेतन वैज्ञानिक नियमितता जितनी ही अधिक होगी, भाषाकी अवस्था उतनी ही अधिक प्राचीन होगी । भाषाकी उन्नत अवस्थाओंमें निरंतर बढ़ता हुआ वर्णलोप, तरलता, मनमाना परिवर्तन एवं उपयोगी ध्वनियोंका विलोप देखनेमें आता है; साथ ही यह भी दिखाई देता है कि एक ही ध्वनि कभी अस्थायी रूपमें और कभी स्थायि रूपमें छोटे-छोटे और अनावश्यक परिवर्तनोंमेसें गुजरती हुई पृथक्-पृथक् अक्षरोंकी महत्ताको प्रतिष्ठित करती है । इस प्रकारका परिवर्तन, जो स्थायी होनेमें सफल नहीं होता, वेदमें देखा जा सकता हैं, जहँ कोमल मूर्धन्य ड् तरल मूर्धन्य ळ् में आपरिवर्तित हो जाता है । यह ध्वनि पीछेकी संस्कृतमें लुप्त हो गई है किन्तु तामिल और मराठीमें इसने अपनेको स्थिर रखा है । ऐसा है वह सरल उपकरणे जिसके द्वारा संस्कृतभाषाकी भव्य और अभिव्यंजक सुस्वरताएँ निर्मित हुई हैं ।
प्राचीनतर आर्यों द्वारा शब्दोंके निर्माणके लिए इस उपकरण (अक्षरमाला) का प्रयोग समान रूपसे सममित, प्रणालीबद्ध और वाचिक अभिव्यक्तिके भौतिक तथ्योंसे घनिष्ठतया संबद्ध रहा है । इन अक्षरोका प्रयोग अनेक बीजध्वनियोंके रूपमें किया गया है । इनसे आदिम धातु बनते हैं । वे चार स्वरोंके अथवा कभी-कभी उनके विकारसे बने संयुक्त स्वरोंके एक-एक व्यंजनके साथ सरल संगोगसे बनाये जाते हैं । इस प्रक्रियामें दो पराश्रित अनुनासिकों ङ ओर ञ् और मूर्धन्य अनुनासिकको छोड़ दिया जाता है । इस प्रकार द् को आधारभूत ध्वनिके रूपमें लेकर प्राचीन आर्यलोग अपने लिए धातु-ध्र्वनियोंको बनानेमें समर्थ हुए और उनका उन्होंने धातु-गत विचारोंको प्रकट करनेके लिए संज्ञाओं, विशेषणों, क्रियाओं या क्रियाविशेषणोंके रूपमें बिना किसी भेदके प्रयोग किया, यथा द, दा, दि, दी, दु, दू, दृ, दृका । इनमेंसे सबके सब धातु पुथक् शब्दोंके रूपमें नहीं टिक पाये । किन्तु जो टिके रहे वे अपने पीछे प्रायः शक्तिशाली संतानोंको छोड़ गये, जो अपने जनकके अस्तित्वकी साक्षी अपने अंदर सुरक्षित रखे हुए हैं । विशेष-कर लघु अ से बने धातु बिना एक भी अपवादके प्रयोगमें अप्रचलित हो गए । इसके अतिरिक्त, आर्य यदि चाहते तो दे दै, दो दौ--इन आपरि
२८४
वर्तित धातुभूत ध्वनियोंको भी बना सकते थे । स्वरात्मक आधारोंको भी धातु-ध्वनियों और धात्वीय शब्दोंके रूपमें प्रयुक्त किया गया क्योंकि भाषाकी प्रकृति इसकी अनुमति देती थी । किन्तु स्पष्टतः ही, भाषाका यह सारतत्त्व यद्यपि आदिम जंगली लोगोंके लिए पर्याप्त हो सकता था फिर भी यह मानव भाषाकी अपने आपको विस्तृत करनेकी प्रवुत्तिको तृप्त करनेके लिए अपने क्षेत्रमें बहुत सीमित है । इसलिए हम देरवते हैं कि आदिम धातुमें कोई एक व्यंजन-ध्वनि और जोड़र इससे द्वितीय कोटिकी धातु-ध्वनियों और धातु-शब्दोंका एक वर्ग विकसित हो जाता है । वह जोड़ी गई व्यंजन-ध्वनि पहलेसे विद्यमान धातु-गत विचारमें एक आवश्यक अथवा स्वाभाविक आपरिवर्तन कर देती है । इस प्रकार, अब लुप्त हो चुके आदिम 'द' धातुके आधारपर यह संभव था कि चार कण्ठय, लघु, द्वितीयस्थानीय धातु, दक्, दख्, दg, दध् और साथ ही चार दीर्घ धातु, दाक्, दाख्, दाग्, दाध् बन जाएँ जिन्हें या तो पृथक् शब्द माना जा सकता है या लघु धातुके दीर्घ रूप । इसी प्रकार आठ तालव्य, आठ मूर्धन्य जो अपने दो सानुनासिक रूपों, दण्, दाण्के साथ दस बन जाते हैं, दस दन्त्योष्ठच, छ: ऊष्म और दो महाप्राण द्वितीयस्थानीय धातु भी बन सके । यह भी संभव था कि इनमेंसे किसी भी रूपको सानुनासिक बना दिया जाय, उदाहरणार्थ, दङक्, दड:ग्, दङध्क, दङघ्को प्रचलित कर दिया जाय । यह कल्पना अस्वा-भाविक नहीं प्रतीत होनी कि ये सब धातु आर्योंकी भाषाके अतिप्राचीन रूपौंमें विद्यमान थे । किन्तु हमारे प्रथम साहित्यिक अभिलेखोंका समय आने तक इनमेंसे बहुतसे नष्ट हो गए, कुछ अपने पीछे थोड़ी या अधिक संतति छोड गए, दूसरे अपने निर्बल वंशजोके साथ ही नष्ट हो गए । यदि हम आदिम आधारभूत धातु 'म' का एकाक़ी उदाहरण लें तो हम पाते हैं कि 'म' तो स्वयं मर चुका है किंतु वह अपने म, मा, मन्, मतः, मतम्,-- इन नामिक रूपोंमें विद्यमान है । 'मक्' केवल अपने सानुनासिक रूप 'मङक्' और अपने वंशजों 'मकर', 'मकुर', 'मकुल' इत्यादिमें और अपनी तृतीय-स्थानीय रचनाओं अर्थात् मक्क् और मक्ष्में ही बच रहा है । 'मख्' अपने रूपों मुख्, मड;ख्मे एक धात्वीय शब्दके रूपमें अभीतक बचा हुआ है । 'मग्' और 'मधू' अपने वंशजों और सानुनासिक रूपो 'मड;ग्' और 'मड;ध'के रूपमेंही विद्यमान हैं । 'मच' अभी भी जीवित है, परंतु अपने सानुनासिक रूप 'मञ्च्' को छोड़कर नि:सतान है । 'मछ्' अपनी संतति सहित मर चुका है; मज् अपने वंशजों और सानुनासिक रूप 'मञ्ज' के रूपमें ही जीवित है; 'मझ्' बिलकुल लुप्त हो चुका है । दीर्घ रूपोंमें हम
२८५
'मा' और 'माक्ष्' को पृथक् धातुओं और शब्दोंके रूपमें तथा 'माक्', 'माख्', 'माध्', 'माच्' और 'माछ'को उनके महत्त्वपूर्ण अंगोंके रूपमें पाते हैं । परन्तु ऐसा प्रतीत होगा कि ये सब धातु दीर्घ रूपवाले किसी पृथक् धातुसे नहीं बने अपितु अधिकतर लघु धातुको दीर्घ करने से बने हैं । अन्तमें तीसरे दर्जेके धातु कम नियमित रूपमें किन्तु फिर भी कुछ स्वतंत्रताके साथ बनाये गये हैं । वे पहले या दूसरे वर्गके धातुकी बीजध्वनिमें अंतस्थ अक्षरको जोड़कर बनाये गये हैं और इस प्रकार वे हमें 'ध्यै', 'ध्वन्', 'सृ', 'ह्राद्' जैसे धातु प्रदान करते हैं । अथवा, जहाँ किन्हीं अन्य व्यंजनोंका मेल संभव था वहाँ वे उन्हें मिलाकर बनाये गये हैं और इस प्रकार वे हमें 'स्तु', 'श्चु', 'ह्राद्' आदि जैसे धातु देते हैं । या फिर वे दूसरे वर्गके धातुके अंतिम अक्षरमें अन्य व्यंजनके योगसे बनाये गये हैं और इस प्रकार वे हमें 'वल्ल्', 'मज्ज्' इत्यादि रूप प्रदान करते हैं । ये शुद्ध धातुरूप हैं । परन्तु स्वरको गुण या वृद्धि करके, उदाहरणार्थ, स्वर 'ऋ' को अर् और 'ऋ' को 'आर्' में बदलकर, एक प्रकारके अवैध, तीसरे दर्जेके धातु बनाए जाते हैं, हमें वैकल्पिक रूप 'ऋक्' और 'अर्च ' वा 'अर्क्' प्राप्त होते हैं । इसी तरह 'चृष्' और 'चृ' का स्थान 'चर्ष' और 'चर्' ले लेते हैं, वे 'चृष्' और 'चृ' अब मर चुके हैं । 'मृज्' और 'मर्ज्' इत्यादि रूप भी इसी प्रकार बनते हैं । साथ ही हम व्यंजनके परिवर्तनोंकी कुछ एक प्राचीन प्रवृत्तियाँ भी पाते है च् छ्, ज्, झ्, इन तालव्य वर्णोको त्यागकर इनके स्थान पर क् और ग् करनेकी आरंभिक प्रवृत्ति पाई जाती है । यह प्रवृत्ति लैटिनमें पूर्ण रूपसे चरितार्थ हुई किन्तु संस्कृतमें आधी पूरी होकर बीचमें ही रोक दी गई । गुण करनेका सिद्धांत भाषाके भौतिक निर्माण और उसके मनोवैज्ञानिक विकासके अध्ययनमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, विशेषकर इसलिए कि यह संरचनाकी स्पष्टतामें, जो अन्यथा स्फटिक- सम उज्ज्वल थी, और निर्माणकी पूर्ण यांत्रिक नियमिततामें संशय और संभ्रमका प्रारंभिक तत्त्व ला घुसाता है । गुणनामक स्वर या आपरिवर्तन, या तो 'इ'के स्थानपर 'ए', 'उ' के स्थानपर 'ओ' करनेसे निष्पन्न होता है, जिससे हमें 'वी' से विभक्ति-रूप 'वेओ' ('वे:'), 'जनु'से विभक्तिरूप 'जनो:' मिलता है; अथवा वह गुणनामक स्वर या आपरिवर्तन विशुद्ध अर्ध-स्वरकी ध्वनि 'इ'के स्थान पर शुद्ध अंतस्थ य्, 'उ' के स्थानपर व्, ऋ के स्थानपर 'र्' अथवा कुछ अशुद्ध रूपमें रा करके अपना कार्य करता है जिससे कि हमें 'वि'से धातुजन्य रूप 'व्यन्तः', 'शू,से अश्व:, 'वृ' या 'वृह' से संज्ञापद 'व्रह' मिलते हैं, अथवा यह गुणरूपी आपरिवर्तन स्वरसहित अंतस्थ ध्वनि अर्थात्
२८६
इ के स्थानपर 'अय', उ के स्थानपर 'अव्', ऋके स्थानपर 'अर्', लृ के स्थान पर 'अल्' करके अपना कार्य करता है जिससे हमें 'वि' से संज्ञा 'वयस्', 'श्रु' से 'श्रवस्' और 'सृ' से 'सरस्', 'ल्क्रृप्' से 'कल्प'-ये शब्द प्राप्त होते हैं । लघु रूप स्वरध्वनि अ, इ, उ, ऋ, लृ को सरल ढंगसे गुण करनेसे बने हैं । इनके अतिरिक्त, स्वरका एक दीर्घ विकार या वृद्धि, अर्थात् दीर्ध करनेके नियमका विस्तार, भी हम पाते हैं जो हमें दीर्घ रूप प्रदान करता है । इस नियमसे हमें इ सें ऐ अथवा 'आय्', उ से औ अथवा 'आव्' ऋ से 'आर्', लृ से 'आल्' प्राप्त होता है जब कि अ की कोई वास्तविक वृद्धि नहीं होती, केवल आ के रूपमें उसे दीर्घ हो जाता है । ध्वनि-विकासके सरल स्वरूपसे यह जो प्रारम्भिक विचलन होता है उससे उत्पन्न होनेवाली मुख्य अव्यवस्था यह है कि एक नियमित द्वितीय कोटिके धातु और गुण करनेसे बने अनियमित धातुके बीच प्रायः ही अनिश्चितता रहती है । उदाहरणार्थ, हम एक नियमित धातु 'अर्' पाते हैं जो आदिम धातु अ से निकलता है और एक अवैध धातु 'अर्' पाते हैं जो आदिम धातु 'ऋ' से निकलता है । हमारे सामने 'कल' और 'काल' दो रूप हैं जिन्हें यदि उनकी संरचनाके आधारपर ही परखा जाए तो वे या तो क्लृ से निकल सकते हैं या कल् से । हमारे पास 'अयुस्' और 'आयुस्' शब्द हैं, उन्हें भी यदि इसी प्रकार केवल संरचनासे परखा जाए तो, या तो वे 'अ' और 'आ' इन धातु-रूपोंसे निकल सकते हैं, या 'उ' और 'इ' इन धातु-रूपोंसे । संस्कृतमें व्यंजनसंबधी मुख्य आपरिवर्तन संरचनात्मक हैं और वे समान व्यंजनोंको आत्मसात् करनेकी क्रियासे साधित होते हैं । एक कठोर ध्वनि कोमल ध्वनिके साथ मिलने पर कोमल हो जाती है, एक कोमल ध्वनि कठोर ध्वनिके साथ मेल होनेसे कठोर बन जाती है । महाप्राण अक्षर किन्हीं विशेष व्यंजनाके संयोगमें आनेपर अपने अनुरूप अल्पप्राण ध्वनिमें बदल जाते हैं और बदलेमें अपने साथी वर्णको भी बदल देते हैं, जैसे, 'लभ्' धातुसे 'लप्स्यते' और 'लब्धुम्' बनते हैं जो लभ्-स्यते और लभ-तुम्के स्थानापन्न रूप हैं, व्यूह्से व्यूढ बनता है जो व्यूह.तका स्थान ले लेता है । पारस्परिक आपरिवर्तनकी ये कुछ एक सूक्ष्म, पर आसानीसे पहचानमें आनेवाली प्रवृत्तियाँ अपने आपमें कई छोटे-मोटे और गौण संदेहोंको हमारे सामने लाती हैं । संस्कृतमें, इम प्रवृत्तियोंके पीछे चलनेकी इस प्रवृत्तिसे परे वस्तुत: अपभ्रंश- जनक एकमात्र प्रवृत्ति यह है कि, तालव्य वर्णोके परिवारके लोपका आवेग निरुद्ध हो गया है । यह प्रवृत्ति इतनी दूर चली गई है कि 'केतु' जैसे रूपोंको भारतीय वैयाकरण बिलकुल गलत ढंगसे 'चित्' धातुसे निकलाn
२८७
मान सकते हैं न कि 'कित्' से, जो इसका स्वाभाविक जनक है । परन्तु, वस्तुतः, एकमात्र सच्चे तालव्य आपरिवर्तन वे हैं जो संधिमें होते है, जो किसी शब्दके अन्तमें अक्षरोंके किन्हीं विशेष सयोगोंमे च् के स्थान पर क् औट ज्के स्थानपरग कर देते हैं, यथा 'लज्न'के स्थानपर 'लग्न', 'वच्तृ'के स्थानपर 'वक्तृ', 'वच्व' के स्थानपर 'वक्व', 'वच्' धातुसे सजापद 'वाक्य', लिट् लकार (परोक्ष भूत) के रूप 'चिकाय' और 'चिक्ये' । इन विकार-जन्य संयोगोंके साथ-साथ हमे कई नियमित रूप भी मिलते हैं, जैसे, यज्ञ, वाच्य, चिचाय और चिच्ये । यहॉ तक कि यह भी संदेहास्पद है कि क्या 'चिकाय' और 'चिक्ये'--ये रूप अधिक ठीक तौरपर 'कि' धातुसे नहीं बने हैं, इसकी अपेक्षा कि ये उस जनक धातु 'चि' के वास्तविक वंशज हों, जिसके घोंसलेमें इन्होंने आश्रय पाया है ।
विभिन्नताके इन तत्वोंको दृष्टिमें ला चुकनेपर हम इस स्थितिमें पहुँच गये हैं कि भाषाके पुष्पित होनेकी दूसरी अवस्थाका अनुसंधान करें, धातुकी अवस्थासे उस अवस्था तक जाएँ जिसमें हम एक स्वाभाविक संक्रमण द्वारा भाषाके संरचनात्मक विकास तक जा पहुँचते हैं । अबतक हमने एक एसी भाषाको पाया है जो सादेसे सादे और अधिकसे अधिक नियमित तत्वोंसे बनी है, बीज-ध्वनियाँ, आठ स्वर और उनके विकार वा परिवर्तित रूप जो सख्यामें चार है; व्यंजनों और अनुनासिकोंके पांच वर्ग, तरल अक्षरों या अंतस्थोंका एक चतुष्टय; तीन ऊष्मवर्ण; इनमेंसे प्रत्येक पर आधारित एक महाप्राण; इन सबके प्रथम विकास, प्राथमिक और जनक धातु; उदाहरणार्थ, बीज-ध्वनि व् से प्राथमिक धातुसमूह व, वा, वि, वी, वृ, वु और सभवतः वु, वू, वे, वै, वो, वौ; प्रत्येक प्राथमिक धातुके चारों ओर उनका द्वितीयस्थानीय धातुओंका परिवार, यथा, प्राथमिक 'व' धातुके चारों ओर उसका परिवार अर्थात् वक्, वख्, वग्, वध्, वच, वछ्, वज्र, वझ्, वट्, वड्, वढ्, वण्, वत्, वथ्, वद्, वध्, वन्, वप्, वफ्, वब्, वभ्, वम् और सभवतः वय्, वर्, वल्, वव्, वश्, वष्, वस्, वह्, ,--इस वर्गके आठ या इसमे अधिक परिवारोंके मिलनेसे एक धातु-गोत्र बनता है, तृतीय-स्थानीय आश्रित धातुओं, जैसे, वञ्च, वङ्ग्, वल्द्, वल्ग्, वंश्, वंक्, व्रज् इत्यादिकी एक परि-वर्तनशील संख्या भी इस गोत्रके अंतर्गत है । इस प्रकारके चालीस गोत्र प्राथमिक भाषाका संपूर्ण क्षेत्र होंगे । जिस प्रकार मानव समाजके प्राथमिक संविधानमें प्रत्येक मनुष्य एक साथ ही नाना कार्य करता है उसी प्रकार भाषाके प्राथमिक स्वरूपमे प्रत्येक शब्द संज्ञा, क्रिया, विशेषण व क्रियाविशेषण-- इन सबके विभिन्न कार्योंको एक साथ पूरा करेगा, वाच्यका परिवर्तन, हाव-भाव
२८८
का प्रयोग और नैसर्गिक प्रवृत्तिका तीव्र वेग--ये सब शब्दोंके सूक्ष्म भेद- प्रभेदोंमें पाई आनेवाली सुकुमारता और सुस्पष्टताके अमावको पूरा करते हैं । यह स्पष्ट है कि इस प्रकारकी भाषा एक छोटेसे क्षेत्रमें सीमित होती हुई भी एक बड़ी सादगी से एवं निर्माणकी यांत्रिक नियमिततासे संपन्न होगी, अपने लघु क्षेत्रमें प्रकृतिकी स्वचालित प्रणालियों द्वारा एक पूर्ण ढंगसे बनी होगी और मानव-जातिकी प्रथम भौतिक और संवेगात्मक आवश्यकताओंको वाणीका रूप देनेके लिए पर्याप्त होगी । किन्तु बुद्धिकी बढ़ती हुई औगें उसे, समय आनेपर, उसके नये विकास और रूपोंके अधिक जटिल कुटनके लिए बाध्य कर देंगी । ऐसे विकासमें प्रथम उपकरण, आवश्यकता, मह्त्त्व ओर कालकी दृष्टिसे प्रथम साधन होगा-क्रिया, कर्त्ता और कर्ममें अधिक औपचारिक रूपसे भेद करनेका आवेग, और इसलिए संज्ञाके भाव और क्रियाके भावमें एक प्रकारका औपचारिक भेद स्थापित करनेका आवेग, चाहे वह प्रारंभमें कितना ही अस्पष्ट क्यों न हों । सभवत: इसके साथ-साथ उसी समय दूसरा आवेग भी होगा अर्थात् क्रियाकी विभिन्न दिशाओं और अर्थसंबंधी छायाओंमें संरचनात्मक दृष्टिसे भेद करनेका आवेग,--क्योंकि संभव है कि एक परिवारके भिन्न-भिन्न धातुरूपोंका प्रयोग पहलेसे ही इस उद्देश्यसे किया जाता हो--और साथ ही आधुनिक भाषामें कालसूचक रूपों, वाच्यों और. क्रियाभावों ( लोट्, लिङ् आदि लकारों) को स्थापित करनेका आवेग । तीसरा आवेग होगा--नानाविध विभेदक शब्दोंमें, जैसे कि लिंग और वचनमें और क्रियाके साथ स्वयं कर्त्ता और कर्मके नाना संबंधोमें औपचारिक भेद करना, कारकरूपों और एकवचन, द्विवचन और बहुवचनके रूपोंको स्थापित करना । प्रतीत होता है कि विशेषण और क्रियाविशेषणके किए विशेष रूपोंका सविस्तार निर्माण संरचनात्मक विकासके कार्योंमें पीछेका कार्य रहा होगा, इनमें से क्रियाविशेषणके रूपोंका विस्तार तो वस्तुत: सबसे पीछेका कार्य रहा होगा, क्योंकि प्राचीन मनोवृत्तिमें इन भेदोंकी आवश्यकता सबसे कम महत्त्वपूर्ण थी ।
जब हम इस बातकी परीक्षा करते हैं कि प्राचीन आर्यभाषा-भाषियोंने इन आवश्यकताओंकी पूर्तिका, भाषावृक्षके इस नवीन और समृद्ध विकासका प्रंबंध कैसे किया तो हम पाते हैं कि उनमें प्रकृति अपनी प्रथम क्रियाओंके सिद्धान्तके प्रति पूर्णतया सत्यनिष्ठ थी, और संस्कृतभाषाकी समस्त शक्ति-शाली संरचना उसकी मौलिक प्रवृत्तिको जरा-सा ही विस्तृत करके बनाई गई थी । यह विस्तार अ, इ, उ और ऋ--इन स्वरों तथा इनके दीर्घ रूपों और विकारोंको परसर्ग-रूप (enclitic) या आश्रयभूत ध्वनियोंके रूपमें
२८९
प्रयुक्त करनेकी सरल, आवश्यक ब अनिवार्य युक्तिके द्वारा पाला, पोसा और संभव बनाया गया था, इन ध्वनियोंको आगे चलकर कभी धातुओंके उपसर्गोंके रूपमें प्रयुक्त किया जाने लगा, किन्तु आरंभमें उनका प्रयोग केवल अनुबद्ध ध्वनियों (अनुबंधों )के रूपमें ही किया जाता था । जिस प्रकार आर्योंने प्राथमिक धातुध्वनियोंमें व्यंजन-ध्वनियाँ जोड़कर धातु बनाए थे, उदाहरणार्थ, व में द् और ल् जोड़कर उन्होंने वद् और वल् धातु बनाए थे, उसी प्रकार अब वे इस उपर्युक्त युक्तिकी सहायतासे संरचनात्मक ध्वनियाँ बनानेके लिए अग्रसर हुए । इनकी रचना उन्होंने विकसित धातुमें कोई-सी वैसी ही शुद्ध या अन्योंसे मिश्रित व्यंजनध्वनि जोड़कर की और उसमें परसर्गीय ध्वनिको या तो संबंधयोजक आश्रय या निर्माणकारी आश्रयके रूपमें या दोनों रूपोंमें प्रयुक्त किया; या फिर केवल परसर्गीय ध्वनिको एक सारभूत अनुबंधके रूपमें जोड़कर इनकी रचना की गई । इस प्रकार वद् धातुको लेकर उसमे त् व्यंजन जोड़कर वे इससे अपनी इच्छानुसार ये सब रूप बना सकते थे,--वदत्, वदित्, वदुत्, वदृत् या वदत, वदित, वदुत, वदृत, या वदति, वदिति, वदुति, वदृति या वदतु, वदितु, वदुतु, वदृतु, या फिर वदत्रि, वदित्रि, वदुत्रि, वदृत्रि; अथवा वे केवल परसर्गीय ध्वनिका प्रयप्रो करके वद, वदि, वदु, वदृ इन रूपोंको बना सकते थे या संयुक्त ध्वनियों,-त्र्, त्य्, त्व्, त्म्, त्न् का प्रयोग कर वदत्र, वदत्य, वदत्व, वदत्म, वदत्न-ऐसे रूप उत्पन्न कर सकते थे । सच पूछो तो हम इम सच संभाव-नाओंको किसी एक ही शब्दके दृष्टान्तमें वस्तुत: प्रयुक्त हुआ नहीं पाते और नाहीं पानेकी आशा कर सकते हैं । बुद्धिकी बौद्धिक समृद्धि और यथार्थताके विकाससे साथ मनकी संकल्प-क्रियामें भी तदनुरूप विकास होगा और मनकी यांत्रिक प्रक्रियाओंको पदच्युत करके उनके स्थानपर मनकी अधिक स्पष्ट और सचेतन रूपसे वरणात्मक प्रक्रियाएँ प्रतिष्ठापित हो जाएँगी । तो भी हम आर्योंके शब्द-राष्ट्रके धातुरूपी गोत्रों और परिवारोंके संपूर्ण क्षेत्रमें व्यवहारतः इन सभी रूपोंको बंटा हुआ अवश्य पाते हैं । हम एकमात्र परसर्गके जोड़नेसे बने सरल नामपदोंको प्रायः सर्वत्र ही समृद्ध रूपमें बंटा हुआ देखते हैं । प्राचीनतर आर्यभाषामें रूपोंकी समृद्धता परवर्ती साहित्यकी अपेक्षा कहीं अधिक है, उदाहरणार्थ, 'सन्' धातुसे हम वैदिक भाषामें सन्, सनि, सनु (जो संकुचित होकर स्नु बन गया है) पाते हैं किन्तु पीछेकी संस्कृतमें ये सच रूप लुप्त हो गये हैं । साथ ही हम वेदमें चरथ व चरुथ, रह व राह-जैसे रूपभेद पाते हैं, परन्तु परवर्ती संस्कृतमें चरथको त्याग दिया गया है, रह और राहको सुरक्षित रखा गया है, किन्तु उनके अर्थोंमें
२९०
कठोरतासे भेद किया गया है । हम बहुतसे संज्ञापदोंको अकारान्त संज्ञाके रूपमें, कुछको इकारान्त और कइओंको उकारान्त संज्ञाके रूपमें देखते हैं । हम पाते हैं कि सादे कठोर व्यंजनको महाप्राणकी अपेक्षा अधिक पसंद किया जाता है और फ् और भ् की अपेक्षा कोमल प् संरचनात्मक संज्ञामें अधिक बहुलतासे पाया जाता है किन्तु फ् और भ् ये दोनों भी पाये जाते हैं ,ब् की अपेक्षा प् अधिक बहुलतासे पाया जाता है, परंतु ब् भी आता है । हम देखते हैं कि कुछ व्यंजनोंको दूसरोंकी अपेक्षा अधिक पसंद किया जाता है, विशेषतया क्, त्, न्, स् को अपने आपमें या और व्यंजनोंके साथ संयुक्त रूपमें । हम कुछ अनुबद्ध रूपोंको, जैसे अस्, इन्, अन्, अत्, त्रि, वत्, वन् को संज्ञाओं और क्रियाओंके नियमित प्रत्ययोंका विधिबद्ध रूप दिया गया पाते हैं । हम द्विविध अनुबंध देखते हैं, 'जित्वं'-इस सादे शब्दके साथ-साथ हम जित्वर, जित्वन् आदि शब्द भी बना सकते हैं । संस्कृत-भाषाकी वर्तमान अवस्थाके पीछे हम सर्वत्र निर्माणका एक विस्तृत, स्वतंत्र और नैसर्गिक श्रम देखते या उसका अनुमान करते हैं, जिसके बाद वर्जन और वरणकी सकीर्णकारी प्रक्रिया आई । किन्तु संज्ञाकी संरचनाका संपूर्ण आधार एवं साधन सदा वही एक आदितत्त्व ही है और बना रहता है । उस तत्त्वका प्रयोग सरल या विषम रूपमें, मूलभूत स्वरों और व्यंजनोंमें कुछ परिवर्तन करके या कोई परिवर्तन किये बिना ही किया जाता है ।
क्रियाके विभिन्न रूपोंमें, कारककी रचनामें हम सदा एक ही सिद्धान्त पाते हैं । धातु मि, सि, ति इत्यादि और म्, य्, ह्, त, व जैसे प्रत्ययोंके योगसे क्रियारूप बनाता है (मि, सि आदि ऐसे रूप हैं जो प्रातिपदिकके रूपोंकी संरचनाके लिए भी प्रयुक्त होते हैं) । ये प्रत्यय या तो अकेले प्रयुक्त होते हैं अथवा अ, इ, या विरले ही उ--इन परसर्गोके सहारेके साथ । ये परसर्ग ह्रस्व, दीर्घ या आपरिवर्तित हो सकते हैं; इनसे हमें वच्मि, वद्नान्, वक्षि, वदसि, वदासि, वदत्, वदति, वदाति ऐसे रूप प्राप्त होते हैं । क्रियारूपोमें अन्य युक्तियोंका प्रयोग किया जाता हैं, जैसे कि सादे स्वर-रूपी परसर्गकी अपेक्षा न्, ना, नु या नि जैसे अनुबंध जोड़ना अथवा बढ़ा देना, कालसंबंधी अर्थके निश्चयमें सहायता करनेके लिए धातु के शुरूमें संलग्न (परसर्गीय) अ या आगमको जोड़ना, धातुके सारभागका नाना प्रकारसे द्वित्त्व करना इत्यादि । हम एक महत्त्वपूर्ण तथ्य देखते हैं कि यहाँ भी वैदिक संस्कृत अपने रूपभेदोंमे कहीं अधिक समृद्ध और स्वतंत्र है । संस्कृत अभी तक अधिक संकुचित, कठोर और चयनकारी है जब कि वैदिक संस्कृत भवति, भवः, भवते इन जैसे वैकल्पिक रूपोंका भी प्रयोग करती है । संस्कृत
२९१
भवतिको छोड़कर और सभी रूपोंको त्याग देती हैं । कारकोंके रूप क्रियारूपोंसे अपने सिद्धान्तमें या अपने आपमें भी भिन्न नहीं, केवल इस बातमें भिन्न है कि क्रियारूपोंके शुरूमें आगम या उपांग जोड़े जाते हैं; अस्, अम्, आस्, ओस्, आम्--ये सब तिङ्-विभक्तियाँ (क्रिया-प्रत्यय) भी हैं और सुप्-विभक्तियाँ (प्रातिपदिकोंके प्रत्यय) भी । किन्तु सारतः समस्त भाषा, अपने रूपों और विभक्तियोंके समेत, मनुष्यमें प्रकृतिद्वारा प्रयुक्त की गई ध्वनिनिर्माणकी एक ही समृद्ध युक्तिका, एक ही निश्चित सिद्धान्तका अवश्यंभावी परिणाम है । इस युक्ति या सिद्धान्तको प्रकृति आश्चर्यजनक- रूपसे-अल्प भेदोंके साथ, विस्मयजनक रूपसे निश्चित, अटल और लगभग निष्ठुर नियमितताके साथ, पर साथ ही रचनाकी एक स्वतंत्र और यहाँ तक कि निरर्थक आदिकालीन प्रचुरताके साथ प्रयोगमें लाती है । आर्योकी भाषाका यह विभक्तिमय स्वरूप स्वयं कोई आकस्मिक घटना नहीं, अपितु ध्वनिप्रक्रियाके प्रथम बीज-चयनका लगभग स्थूल रूपसे अनिवार्य परिणाम है, वैयक्तिक सत्ताके नियमके उस मूल, प्रत्यक्षतः-तुच्छ चुनावका अटल परिणाम है जो प्रकृतिकी समस्त, अनन्ततया-विविध नियमितताओंका आधार है । पहलेसे चुने हुए सिद्धान्तके प्रति निष्ठाका यदि एक बार पालन किया जाय तो शेष सब प्रयुक्त किये जानेवाले ध्वनि-उपकरणके असली स्वभावसे ओर उसकी आवश्यकताओंसे आपसे आप निकल आता है । इसलिए, भाषाके बाह्य रूपमें हम एक ऐसे नियमित प्राकृतिक नियमकी क्रिया देरवते हैं जो लगभग ठीक उसी प्रकारसे कार्य करता है, जिस प्रकार प्रकृति भौतिक जगत्में एक वनस्पति अथवा एक पशुजाति और उसकी उपजाति बनानेका कार्य करती है ।
भाषाके उद्धव और विकासका शासन करनेवाले नियमोंका बोध प्राप्त करनेमें हम एक कदम आगे बढ़ आये हैं । किन्तु वह कदम तब तक कुछ नहीं है या नहींके बराबर है जबतक हम एक विशेष अर्थका विशेष ध्वनिके साथ संबंध निर्धारित करनेमें एक इसी प्रकारकी नियमितताका, मनोवैज्ञानिक दृष्टिसे एक निश्चित प्रक्रियाके इसी प्रकारके शासनका पता नहीं लगा पाते । किसी मनमाने या बौद्धिक चुनावने नहीं, अपितु एक स्वाभाविक चुनावने सरल या संरचनात्मक ध्वनियोंके विकास और व्यवस्थाका उनके अपने समुदायों और परिवारोंके रूपमे निर्धारण किया है । क्या यह एक मनमाना या बौद्धिक चुनाव है अथवा स्वाभाविक चुनावका एक नियम है जिसने उनके अर्थोंका निर्धारण किया है ? यदि पिछला तथ्य ठीक हो और वह ठीक होना ही चाहिये, यदि भाषाका विज्ञान संभव
२९२
हो तो अर्थध्वनियोंकी इस विशिष्ट व्यवस्थाके होते हुए कुछ सत्य अनिवार्य रूपसे प्रकट होते हैं । उदाहरणार्थ, प्रथम : बीजध्वनि 'व्' के अंदर कोई ऐसा तत्त्व अंतर्निहित होना चाहिये जिसने इसे आरंभमें भाषाकी प्रथम स्वाभाविक अवस्थामें मनुष्यके मनमें आदिम भाषाकी प्राथमिक धातुओं व, वा, वि, वी, वु, वू, वृ, व्e के वास्तविक अर्थोंके साथ संबद्ध किया । द्वितीय : इन क्रियाओंके अर्थोंमें जो भेद हैं उनका निर्धारण मूलत: परिवर्तन-शील या स्वरात्मक तत्त्व अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ के अंदर निहित किसी स्वाभाविक अर्थसूचक प्रवृत्तिके द्वारा होना चाहिये । तीसरा : 'व्' पर आश्रित द्वितीयस्थानीय धातुओ-व, वच, वज्, वञ्., वम्, वल्, वप्, वह., वष, वस् इत्यादिके अर्थोंमें एक सर्वसामान्य तत्त्व होना चाहिये, और जहाँतक वे अर्थ प्रारंभमे भिन्न थे वहाँ तक वेएक भेदजनक तत्त्व अर्थात् क्रमश: च्, ज्, ञ्, म्,ल्, प, रह्, ष्,स् इन व्यंजनरूपी अनुबंधोंके परिणामस्वरूप ही भिन्न हुए होंगे । अन्तमें, भाषाकी संरचनात्मक अवस्थामें यद्यपि सचेतन चुनावकी वर्धमान शक्तिके परिणामस्वरूप विशेष शब्दोंके लिए विशेष अर्थोंके चुनावके क्षेत्रमें कुछ और निर्णायक तत्त्वोंने भी प्रवेश किया होगा, तो भी यह नहीं हो सकता कि मूलतत्त्व पूर्णतया निष्क्रिय हो गया हो । और वदन, वदत्र, वद इत्यादि जैसे रूप अपने अर्थके विकासमें प्रमुख रूपसे अपने सारभूत और साझे ध्वनितत्त्वके द्वारा शासित हुए होंगे, और कुछ अंशमें ही अपने परिवर्तनशील तथा गौणतत्त्वके द्वारा । संस्कृतभाषाकी परीक्षा द्वारा मैं यह दिखानेका यत्न करूँगा कि आर्योकी भाषाके विषयमें ये सब नियम वस्तुत: सत्य है और इनका सत्य भाषाके तथ्यों द्वारा संदेहकी लेशमात्र भी छायाके बिना प्रमाणित होता है अथवा बहुधा स्थापित भी होता है ।
२९३
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.