Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
अर्यमा
चार महान् सौर देवोंमेंसे तीसरा, अर्यमा, ऋषियोंके आवाहनोंमें सबसे कम मुख्य है । उसे कोई पृथक् सूक्त संबोधित नहीं किया गया और यदि
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1. वृष्टिं वां राधो अमृतत्वमीमहे । ऋ. 5.63.2
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उसका नाम बार-बार आता है, तो भी वह जहां-तहां बिखरी ऋचाओंमें ही । ऋचाओंका ऐसा कोई प्रबल समुदाय नहीं जिससे हम उसके कार्य-व्यापारोंके संबंधमें अपना विचार दृढ़तापूर्वक बना सकें अथवा उसके बाह्य स्वरूपका गठन कर सकें । बहुधा उसका आवाहन केवल उसके कोरे नामसे, मित्र और वरुणके साथ किया जाता है अथवा अदितिके पुत्रोंके बृहत्तर समुदायमें प्रायः सदा ही अन्य सजातीय देवोंके साथ संयुक्त रूपमें । फिर भी ऐसी छ:-सात आधी ऋचाएँ पाई जाती हैं जिनसे उसका एक मुख्य और विशिष्ट कार्य सत्यके अधिपतियोंके सामन्य विशेषणोंके द्वारा प्रकट होता है, वे विशे-षण ज्ञान, आनन्द, अनन्तता और शक्तिके द्योतक हैं ।
परवर्ती परंपरामें अर्यमाका नाम उन पितरोंकी सूचीमें शीर्षस्थान पर रखा गया है जिन्हें उनके उपयुक्त हविके रूपमें प्रतीकात्मक अन्न दिया जाता है, जिसे अन्त्येष्टि और श्राद्ध-संबंधी पौराणिक संस्कारोंमें पिंड कहा जाता है । पौराणिक परंपराओंमें पितरोंकी दो श्रेणियॉ हैं--दिव्य और मानवीय पितर, जिनमेंसे पिछले है हमारे पूर्वज, हमारे दिवंगत पितरोंकी आत्माएँ । परन्तु जिन पितरोंकी आत्माएँ स्वर्ग और अमरत्व प्राप्त कर चुकी हैं, उनके प्रसंगमें ही हमें अर्यमाके विषयमें विचार करना चाहिए । गीतामे श्रीकृष्णने पदार्थों और प्राणियोंमें विद्यमान सनातन देवकी मुख्य शक्तियों और विभूतियों को गिनाते हुए अपने विषयमें कहा है कि मैं कवियोंमें उशना, ऋषियोंमें भृगु मुनियोमे व्यास, आदित्योंमें विष्णु और पितरोंमें अर्यमा हूँ । यहाँ वेदमें पितर वे प्राचीन ज्ञानप्रदीप्त पुरुष हैं जिन्होंने ज्ञानका आविष्कार किया, पथका निर्माण और अनुसरण किया, सत्यको प्राप्त किया और अमरताको जीत लिया; उन थोड़ी-सी ऋचाओंमे, जिनमें अर्यमाका पृथक् व्यक्तित्व प्रकट हुआ है, उसकी स्तुति पथके प्रभुके रूपमें की गई है ।
उसका नाम अर्यमा व्युत्पत्तिकी दृष्टिसे 'अर्य', 'आर्य' और अरि इन शब्दोंका सजातीय है । इन शब्दोंके द्वारा उन मनुष्यों या जातियोंका विशेष निर्देश किया जाता हैं जो वैदिक संस्कृतिका अनुसरण करती हैं तथा उन देवताओंका भी निर्देश किया जाता है जो उनके युद्धों और उनकी अभीप्साओं में उनकी सहायता करते हैं । अतएव 'अर्यमा' नाम इन्हीं शब्दोंकी तरह विशेष अर्थका सूचक है । 'आर्य' है पथका यात्री, दिव्य यज्ञके द्वारा अमरता का अभीप्सु, प्रकाशका एक दीप्तिमान् पुत्र, सत्यके स्वामियोंका पुजारी, मान-वीय यात्राका विरोध करनेवाली अंधकारकी शक्तियोंके विरोधमें किए जानेवाले युद्धमें योद्धा । अर्यमा एक देवता है जिसकी दिव्य शक्तिपर इस आर्यत्वकी नींव निहित है । वही है यज्ञकी, अभीप्साकी, युद्धकी, पूर्णता और प्रकाश एवं
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स्वर्गीय आनंदकी ओर यात्राकी यह शक्ति जिसके द्वारा पथका निर्माण किया जाता है, उसपर यात्राकी जाती हैं, समस्त प्रतिरोध और अंधकारको पार करते हुए उसके ज्योतिर्मय और सुखद लक्ष्य तक उसका अनुसरण किया जाता है ।
परिणामस्वरूप, अर्यमा अपने कार्यमें पथके नेताओं--मित्र और वरुणके गुणोंको अपनाता है । यही शक्ति उस प्रकाश और समस्वरताकी सुखद प्रेरणाओंको और उस पवित्र विशालताके अनंत ज्ञान और सामर्थ्यकी गतिको चरितार्थ करती है । मित्र और वरुणकी तरह वह मनुष्योंको पथ पर यात्रा-के लिए प्रेरित करता है, वह मित्रके पूर्ण आत्मप्रसादसे भरा हुआ है । वह यज्ञके संकल्प व कार्यकलापमें पूर्ण है । वह और वरुण मर्त्योंके लिए पथ-को विशेष रूपसे निर्धारित करते हैं । वह वरुणकी तरह एक ऐसा देव है जो अपने जन्मोंमें अनेकविध है, उसकी तरह वह मनुष्योंके हिंसकके क्रोधका दमन करता है । अर्यमाके महान् पथके द्वारा ही हम असत्य या अशुभ विचारवाली उन सत्ताओंको पार कर जायेंगे जो हमारे पथमें बाधाएँ डालती हैं । इन राजाओंकी माता अदिति और अर्यमा हमें सुखद यात्राके मार्गोंसे समस्त विरोधी शक्तियोंसे परे लें जाते हैं । जो मनुष्य मित्र और वरुणकी क्रियाओंके ऋजुपथकी खोज करता है और शब्द व स्तुतिकी शक्तिसे अपनी समस्त सत्ताके द्वारा उनके विवानका आलिंगन करता है, वह अर्यमाके द्वारा अपनी प्रगतिमें रक्षित होता है ।
परन्तु अर्यमाके कार्य-व्यापारको अत्यंत स्पष्ट करनेवाली ऋचा वह है जो उसका वर्णन इस प्रकार करती है, ''अर्यमा अक्षत मार्ग और अनेक रथों-वाला है जो विविध आकारोंवाले जन्मोंमें यज्ञके सप्तविध होता की तरह निवास करता है'' (ऋ. X.64.5)1 । वह मानवीय यात्राका देवता है जो उसे उसकी अदम्य प्रगतिमें आगे ले जाता है और जब तक यह दिव्य शक्ति हमारी नेत्री है तबतक शत्रुके आक्रमण इस प्रगतिको परास्त नहीं कर सकते, न इसे सफलतापूर्वक रोक ही सकते हैं । यह यात्रा हमारे विकासकी बहुविध गतिके द्धारा और अर्यमाके अनेक रथों द्वारा साधित होती है । यह मानवीय यज्ञकी यात्रा है जो अपनी क्रियामें सप्तविध शक्तिसे युक्त है, क्योंकि हमारी सत्तामें सात प्रकारके तत्त्व विद्यमान हैं जिन्हें उनकी सर्वांगीण पूर्णतामें चरितार्थ करना होता है । अर्यमा यज्ञीय कर्मका स्वामी है जो दिव्य जन्मके देवताओंके प्रति इस सप्तविध क्रियाकी भेंट देता है । हमारे अन्दर स्थित अर्यमा हमारी सत्ताके आरोही स्तरोंमें हमारे जन्मके विविध रूप विकसित करता है, इन आरोही स्तरोंके द्वारा अर्यमाके मार्गके
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1. अतूर्तपन्था: पुरुरथो अर्यमा सप्तहोता विषुरूपेषु जन्मसु । ऋ. X.64.5
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यात्री पितरोंने आरोहण किया था, और इन्हींके द्वारा अमरताके उच्चतम शिखर तक आरोहण करनेकी अभीप्सा आर्य आत्मामें होनी चाहिए ।
इस प्रकार अर्यमा अपने अन्दर मनुष्यकी उस संपूर्ण अभीण्सा और गतिविधि को समेटे हुए है जो अपनी दिव्य पूर्णताकी ओर उसके सतत आत्म-विस्तार एवं आत्म-अतिक्रमणमें लगी हुई है । अटूट मार्गपर अर्यमाकी सतत गतिसे मित्र, वरुण तथा अदितिके पुत्र मानवीय जन्ममें अपनेको चरितार्थ कर लेते हैं ।
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