वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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दसवां अध्याय

 

 अश्वी देव--आनन्दके अधिपति

 

ऋग्वेद, मण्डल 4, सूक्त 45

 

एष स्य भानुरुदियर्ति युज्यते रथ: परिज्या दिवो अस्य सानवि ।

पृक्षासो अस्मिन् मिथुना अधि त्रयो दृतिस्तुरीयो मधुनो वि रप्शते ।।१।।

 

(एष स्व: भानुः उदियर्ति) देखो, वह प्रकाश उदित हो ण है और (दिव: अस्य सानवि) इस द्यौके उच्च धरातलपर (परिज्मा रथ: युज्यते) सर्वव्यापी रथको नियुक्त किया जा रहा है; (अस्मिन् अधि) इसके अंदर (त्रय: मिथुना: पृक्षास:) तीन युगलोंमें तृप्तिप्रद आनंद [ रखे गये हैं] और (तुरीय:, मधुन: दृति:) चौथी, शहदकी खाल (विरप्शते) परिस्रवित हो रही है ।।1 ।।

 

उद् वां पृक्षासो मधुमन्त ईरते रथा अश्वास उषसो व्युष्टिषु ।

अपोर्णुवन्तस्तम आ परीवृतं स्वर्ण शुक्रं तन्वन्त आ रज: ।।२।।

 

हे अश्वी देवो ! (वां पृक्षास: मधुमन्त उदीरते) तुम्हारे आनंद शहदसे भरपूर होकर ऊपरको उठते हैं, (रथा: अश्वास:) रथ और घोड़े (उषस: वयुष्टिषु) उषाके विपुल प्रकाशोंमें  [ऊपरको उठते हैं] और वे (आ परीवृतं तम:) हर तरफ घिरे हुए अधकारके पर्देको (अप-ऊर्णुवन्त:) पक तरफको समेट देते हैं और (रज:) निम्न लोकको (स्व: न शुक्रं आ तन्वन्त) प्रकाशमान द्यौ-जैसे चमकीले रूपमें फैला देते हैं ।। 2।।

 

मध्व: पिबतं मधुपेभिरासभिरुत प्रियं मधुने युञ्जाथां रथम् ।

वर्तनिं मधुना जिन्वथस्पथो दृतिं वहेथे मधुमन्तमश्विना ।।३।।

 

(मधुपेभि: आसभि:) शहद पीनेवाले मुखोंसे (मध्व: पिबतम्) शहदका पान करो (उत) और (मधुने) शहदके लिये (प्रियं रथं युञ्जाथाम्) अपने प्रिय रथको नियुक्त करो । (मधुना) शहदसे (वर्तनिं) गतियोंको और (पथ:) उनके मार्गोंको (आ जिन्वथ:) तुम आनंदयुक्त करते हों; (अश्विना) हे अश्वी देवो ! (मधुमन्तं दृतिं वहेथे) शहदसे भरपूर खालको तुम धारण करते हो ।।3।।

 

हंसासो ये वां मधुमन्तो अस्रिधो हिरण्यपर्णा उहुव उषर्बुधः ।

उदप्रुतो मन्दिनो मन्दिनिस्पृशो मध्वो न मक्ष: सवनानि गच्छय: ।।।।

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(हंसास: ये वाम् उहुव:) वे हंस जो तुम्हें वहन करते हैं (मधुमन्त:) शहदसे भरे हैं, (हिरण्यपर्णा:) सुनहरे पंखोंवाले हैं, (उषर्बुधः) उषाके साथ जागनेवाले हैं, (अस्रिध:) ऐसे हैं जिन्हें चोट नहीं पहुँचती (उद-प्रुतः) वे जलोंको बरसाते हैं, (मन्दिन:) आनंदसे परिपूर्ण हैं (मन्दि-निस्पृश:) और उसे स्पर्श किये हुए हैं जो आनंदवान है । (भक्षः मध्व: न) मधुमक्खियाँ जैसे मधुके स्रावके पास जाती हैं, वैसे तुम (सवनानि गच्छथ:) सोम-रसोंकी हवियोंके पास जाते हो ।।4।।

 

स्वध्वरासो मधुमन्तो अग्नय उस्रा जरन्ते प्रति वस्तोरश्विना ।

यन्निक्तहस्तस्तरणिर्विचक्षण: सोमं सुषाव मधुमन्तमद्रिभि: ।।5।।

 

(मधुमन्त: अग्नय:) शहदसे परिपूर्ण अग्नियाँ (स्वध्यरास:) यज्ञको सुचारु रूपसे वहन कर रही हैं, और वे (अश्विना) हे अश्वी देवो ! (प्रति वस्तो:) प्रतिदिन (उस्रा जरन्ते) तुम्हारी ज्योतिकी याचना कर रही हैं, (यत्) जब कि (निक्तहस्त:) पवित्र हाथोंवाले, (विचक्षण:) पूर्ण दर्शनसे युक्त, (तरणि:) पार कराके लक्ष्यपर पहुँचानेवाली शक्तिसे युक्त मनुष्यने (अद्रिभि:) सोम निचोड़नेके पत्थरोंसे (मधुमन्तं सोमं सुषाव) मधुयुक्त सोमरसको निचोड़ लिया है ।।5।।

 

आकेनिपासो अहभिर्दविध्वत: स्वर्ण शुक्रं त्न्वन्त आ रज: ।

सूरश्चिदश्वान् युयुजान ईयते विश्वाँ अनु स्पधया चेतथस्पथ: ।।6।।

 

(आके-निपास:) उनके समीप होकर सोमरसको पीती हुई हे [अग्नियाँ ] (अहभि:) दिनोंको पाकर (दविध्वत:) अश्वारू हो जाती हैं और दौड़ने लगती हैं, और (रज: स्व: न शुक्रम् आ तन्वन्त) निम्न लोकको प्रकाशमान द्यौ-जैसे चमकीले रूपमें विस्तृत कर देती हैं । (सूर: चित्) सूर्य भी (अश्वान् युयुजान: ईयते) अपने घोड़ोंको जोतकर चल पड़ता हैं; (स्वधया) प्रकृतिकी आत्मनियमनकी शक्तिके द्वारा तुम (चेतथ:) सचेतन होते हों, और (विश्वान् पथ: अनु) सब रास्तोंपर चलते हो ।1

 

प्र वामवोचमश्विना धियंधा रथ:  स्वश्वो अजरो यो अस्ति ।

येन सद्यः परि रजांसि याथो हषिष्मन्तं तरणिं भोजमच्छ ।।7।।

 

(अश्विना) हे अश्वी देवो ! (धियंधा: [अहं] प्र-अवोचम्) अपने अंदर विचारको धारण करते हुए मैंने उसका वर्णन किया है (य: वाम्) जो तुम्हारा (अजर:) क्षीण न होनेवाला, (स्वश्व:) पूर्ण घोड़ोंसे खींचा जानेवाला (रथ: अस्ति) रथ है,-(येन) जिस रथके द्वारा, तुम (सद्यः)

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 1. अथवा,  तुम (विश्वान् पथ: अनुचेतथ:) क्रमश: सब रास्तों का ज्ञान प्राप्त करते दो |

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 एकदमसे (रजांसि परियाथ:) सब लोकोंको पार कर जाते हो, (भोजम् अच्छ) उस आनंदको पानेके लिये [ पार कर जाते हो ] जो (हविष्मत्सम्) हवियोंसे सभृद्ध है और जो (तरणिम्) पार कराके लक्ष्यको प्राप्त करा देनेवाला है ।।7।।

 

 

भाष्य

 

ऋग्वेदके जो सूक्त दो प्रकाशमान युगल-देवों (अश्विनौ) को संबोधित किये गये हैं वे ऋभू देवतावाले सूक्तोंकी तरह प्रतीकात्मक शब्दोंसे भरे पड़े हैं और वे तबतक नहीं समझे जा सकते जबतक उनके प्रतीकवादका कोई दृढ़ सूत्र हाथ न लग जाय । अश्विनोंको कहे गये इन सूक्तोंके तीन मुख्य अंग ये हैं, एक तो उनके रथ, उनके घोड़ों तथा उनकी तीव्र सर्व- व्यापी गतिकी प्रशंसा, दूसरे उनका मधुका अन्वेषण करना तथा मधुका आनंद लेना और वे तृप्तिप्रद आनंद जिन्हें वे अपने रथमें लिये रहते हैं, तीसरे, सूर्यके साथ, सूर्यकी लड़की सुर्याके साथ तथा उषाके साथ उनके घनिष्ठ संबंधका होना ।

 

अश्वी देव अन्य देवोंकी तरह सत्य-चेतनासे, ऋतम्से उतरते हैं; वे द्यौसे, पवित्र मनसे, पैदा या अभिव्यक्त होते हैं; उनकी गति सभी लोकोंको व्याप्त करती है,--उनकी क्रियाका प्रभाव शरीरसे शुरू होकर प्राणमय सत्ता और विचारके द्वारा पराचेतन सत्यतक पहुँचता हैं । वस्तुत: यह समुद्रसे, सत्ताकी अनिश्चित अवस्थासे, शुरू होता है, अब वह (सत्ता) अवचेतनके अंदरसे उद्भूत हो रही होती है और दे (अश्वी) आत्माको इन जलोंकी बाढ़के ऊपर (पोतकी तरह) ले चलते हैं और इसकी समुद्र- यात्रामें इसे जलमें डूब जानेसे रोकते हैं । इसलिये वे नासत्या हैं अर्थात् गतिके अधिपति, यात्रा या समुद्रयात्राके नेता ।

 

वे मनुष्यकी सहायता उस सत्यके द्वारा करते हैं जो उन्हें विशेषत: उषाके साथ, सत्यके अधिपति सूर्यके साथ और उसकी लड़की सूर्याके साथ साहचर्यसे प्राप्त होता है, पर वे अपेक्षाकृत अघिक स्वाभाविक रूपसे अपने विशेष गणके तौरपर सत्ताके आनंद द्वारा उसको सहायता करते हैं । वे आनंदके अधिपति, शुभस्पती, हैं; उनका रथ या उनकी गति अपने सभी स्तरोंमें सत्ताके आनंदकी तृप्तियोंसे परिपूर्ण है, वे उस खालको धारण किये हैं जो परिस्रवित होते हुए मधुसे भरी हैं; वे मधुका, मधुरताका, अन्वेषण करते हैं और सब वस्तुओंको उस (मधु) से भर देते हैं । इसलिये वे आनंदकी कार्यसाधक शक्तियाँ हैं, उस आनंदकी जो सत्य-चेतनाके अंदरसे निःसृत होता है और अपने-आपको तीनों लोकोंमें विविध रूपसे अभिव्यक्त

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 करके मनुष्यको उसकी यात्रामें अवलम्ब देता है । इसलिये उनकी क्रिया सभी लोकोंमें होती है । वे मुख्यतया घुड़सवार या घोड़ेको हाँकनेवाले, अश्विन्, हैं जैसा कि उनका नाम सूचित करता है,--वे मनुष्यके प्राणबलको यात्राकी चालकशक्तिके तौरपर प्रयुक्त करते हैं; पर साथ ही वे विचारके अंदर भी कार्य करते हैं; और उसे वे सत्यतक पहुँचा देते हैं । वे शरीरको स्वास्थ्य, सौंदर्य, संपूर्णता प्रदान करते हैं; वे दिव्य भिषक् हैं । सब देवोंमें वे मनुष्यके पास आनेके लिये और उसके लिये सुख व आह्लादको विरचित करनेके लिये सबसे अघिक तैयार रहते हैं,  आगमिष्ठा, शुभस्पती । क्योंकि यही उनका विशिष्ट और पूर्ण कार्य है । वे मुख्यतः शुभके, आनंदके, अधिपति हैं, शुभस्पती ।

 

अश्विनोका यह स्वरूप प्रस्तुत सूक्तमें वामदेव द्वारा एक सतत बलके साथ दर्शाया गया है । प्राय : प्रत्येक ऋचामें, सतत पुनरुक्तिके साथ, मधु, मधुमान्, शब्द आ जाते हैं । यह सत्ताकी मधुरताका सूक्त है; यह सत्ताके आनंदका एक गीत है ।

 

वह महान्, प्रकाशोंका प्रकाश, सत्यका सूर्य, सत्य-चेतनाका उजाला जीवनकी गतिमेंसे ऊपर उठ रहा है, उस प्रकाशपूर्ण मनको, स्वःको, रचनेके लिये उठ रहा है जिसमें निम्न त्रिगुणित लोक अपने विकासकी पूर्णताको प्राप्त होता है । एष स्य: भानुः. उदियर्ति । मनुष्यके अंदर इस सूर्यका उदय हो जानेसे अश्विनोंकी पूर्ण गति संभव हो जाती है; क्योंकि सत्य द्वारा ही सिद्ध आनंद, द्युलोकीय आनंद प्राप्त होता है । इसलिये अश्विनोंका रथ इस द्यौकी ऊँचाईपर, इस देदीप्यमान मनके उच्च धरातल या स्तरपर जोता जा रहा है । वह रथ सर्व व्यापी हैं; उसकी गति सब जगह पहुँचती है; उसका वेग हमारी चेतनाके सब स्तरोंपर स्वतंत्रतापूर्वक संचरित होता है । युज्यते रथ : परिज्मा दिवो अस्य सानवि ।

 

अश्विनोंकी पूर्ण सर्वव्यापी गति सत्ताके आनंदकी सभी संभव तृप्तियोंकी पूर्णताको ले आती है । इस बातको प्रतीकात्मक रूपमें वेदकी भाषामें यह कहकर व्यक्त किया गया हैं कि उनके रथके अंदर तृप्तियाँ, पृक्षास:, तीन युगलोंमें उपलब्ध होतीं हैं, पृक्षास: अस्मिन् मिथुना अधि त्रय: । कर्मकांडी व्याख्यामें 'पृ क्षास :' शब्दका अनुवाद इसके सजातीय शब्द प्रयःकी तरह 'अन्न' किया गया है । इसका धात्वर्थ हैं आनंद, परिपूर्णता, तृप्ति और इसमें 'स्वादुता' या तृप्तिप्रद भोजनका भौतिक अर्थ तथा आनंद, भोग या तृप्तिका आध्यात्मिक अर्थ दोनों हो सकते हैं । फिर तृप्तियाँ या स्वादुताएँ जो अश्विनोके रथमें लायी जाती हैं तीन युगलोंमें है; अथवा

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 इस वाक्यांशका सीधा-सादा यह अर्थ हो सकता है कि वे हैं तो तीन पर एक दूसरेके साथ घनिष्ठतासे संबद्ध हैं । कोई भी अर्थ हो, संकेत तीन प्रकारके आनंदभोगों या तृप्तियोंकी तरफ है जो हमारी प्रगतिशील चेतनाकी तीन गतियों या तीन लोकोंसे संबंध रखती हैं,-शरीरकी तृप्तियाँ, प्राणकी तृप्तियाँ, मनकी तृप्तिर्याँ । यदि वे तीन युगलोंमें हैं तो यह समझना चाहिये कि प्रत्येक लोकपर आनंदकी द्विगुणित क्रिया होती है जो अश्विनोंके द्विगुणरूप और सम्मिलित युगलरूपके अनुरूप है । स्वयं वेदमें ही इस देदीप्यमान तथा आनंदमय युगलके बीचमें भेद कर सकना तथा यह मालूम कर सकना कि प्रत्येक अलग-अलग किसका द्योतक हैं, बड़ा कठिन है । ऐसा कोई संकेत हमारे पास नहीं है जैसा तीन ऋभुओंके विषयमें हमें मिलता है । किंतु शायद इन दो डिओस्कुरोई (Dioskouroi), दिवो नपाता, द्यौकें पुत्रोंके ग्रीक नाम अपने अंदर सूत्र रखे हुए हैं । कैस्टोर  ( Kastor) जो बड़ेका नाम है 'काशितृ' प्रतीत होता है जिसका अर्थ है चमकीला; (Poludeukes )1 संभवत: 'पुरुदंसस्' हो सकता है जो वेदमें अश्विनोके विशेषणके तौरसे आनेवाला एक नाम है, जिसका अर्थ हैं 'विविध क्रियावाले' । यदि यह ठीक है तो अश्विनोंकी युगलरूप उत्पत्ति शक्ति और प्रकाश, ज्ञान और संकल्प, चेतना और बल, गौ और अश्यके सतत आनेवाले वैदिक द्वैतकी ही स्मारक है । अश्विनों द्वारा हमें प्राप्त करायी गयी सभी तृप्तियोंमें ये दो तत्त्व इस तरह मिले हुए हैं अलग नहीं किये जा सकते; जहाँ रूप प्रकाश या चेतनाका है वहाँ शक्ति और बल उसमें सम्मिलित हैं; जहाँ रूप शक्ति या बलका है वहाँ प्रकाश और चेतना उसमें सम्मिलित हैं ।

 

किंतु तृप्तियोंके ये तीन रूप ही वह सब नहीं हैं जिसे उनका रथ हमारे लिये धारण किये है; उसके अंदर कुछ और भी है, एक चौथी चीज है, शहद ( मधु) से भरी एक खाल है और उस खालमेंसे वह शहद फूट निकलता है और प्रत्येक तरफ प्रवाहित हो पड़ता है । दृति: तुरीय: मथुन: वि रप्शते । मन, प्राण और शरीर ये तीनस्तर हैं, हमारी चेतनाका एक तुरीय अर्थात् चौथा स्तर हैं पराचेतन, सत्य-चेतना । अश्विन् एक खालको, दृतिको, शाब्दिक अर्थ लें तो काटी हुई या विदारित की हुई

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1. Poludeukes  का' K अक्षर मूल 'शु' अक्षरका संकेत करता है; उस अवस्थामें नाम

   'पुरुदंसस्'के बजाय 'पुरुदंरास्' होंना चाहिये था; किन्तु कई ऊष्मा अक्षरोंके बीचमें

   आर्यन भाषाओंकी आरंभिक परिवर्तनशील अवस्थामें, परस्पर रस प्रकारके परिवर्तन

   प्रायः हो जाते थे ।

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 वस्तुको, सत्य-चेतनाके अंदरसे लायी हुई एक आंशिक रचनाको, पराचेतन आनंदके मधुको रखनेके लिये अपने साथ लाते हैं; पर वह इसे अपने अंदर नहीं रख सकती; ह अपराजेय रूपसे प्रचुर और असीम मधुरता फूटकर निकल पड़ती है और सब जगह प्रवाहित हो पड़ती है और हमारी सारी सत्ताको आनंदसे सिंचित करने लगती है । ( देखो, मंत्र पहला)

 

उस मधु द्वारा तृप्तियोंके तीन युगल-मानसिक, प्राणिक, शारीरिक--इस सर्वव्यापी, चारों तरफ उमड़कर बहती हुई प्रचुरतासे संसिक्त कर दिये जाते हैं और वे इसकी मधुरतासे परिपूर्ण, मघुमन्तः, हो जाते हैं । और ऐसे होकर वे एकदम ऊपर की तरफ गति करने लग पड़ते हैं । इस निम्न लोककी हमारी सब तृप्तियाँ दिव्य आनंदका संस्पर्श पाकर, पराचेतनकी तरफ, सत्यकी तरफ, आनंदकी तरफ आकृष्ट होकर, किसी भी प्रकार अवरुद्ध न होती हुई ऊपरकी तरफ चढ़ने लगती हैं । और क्योंकि गुप्त रूपसे या खुले रूपसे, सचेतन रूपसे या अवचेतन रूपसे सत्ताका आनंद ही हमारी क्रियाओंका, हलचलोंका नेता होता है, अत: उन तृप्तियोंके साथ--इन देवोंके सब रथ और घोड़े उसी वेगसे, ऊपरको बढ़नेवाली ऊर्ध्व- मुखी गति करने लगते हैं । हमारी सत्ताकी सभी विविध गतियाँ, शक्तिके सभी रूप जो कि उन्हें प्रेरणा देते हैं सब-के-सब ऊपर अपने घरकी तरफ आरोहण करते हुए सत्यके प्रकाशका अनुसरण करने लग जाते हैं । उद् वां पृक्षास: मधुमन्त: ईरते, रथा: अश्वास: उषस: व्युष्टिषु ।

 

''उषाके विपुल प्रकाशोमें'' वे ऊपर उठते हैं; क्योंकि उषा है सत्य का प्रकाश जो हमारी सत्ताके अन्धकारमें या उसकी अर्थ-प्रकाशित रात्रिमें पूर्ण चेतनाके दिनको लानेके लिये हमारी मानसिक सत्तापर उदित होता है । वह (उषा) आती है दक्षिणाके रूपमें, जो विशुद्ध अन्तर्ज्ञानात्मक विवेक-शक्ति (pure  intuitive discernment) है जिससे अग्नि, हमारे अंदरकी देव- शक्ति, परिपुष्ट होती है जब कि वह सत्यको पानेकी अभीप्सा करती है, या वह ( उषा) आती है सरमा, अन्वेषक अन्तर्ज्ञान-शक्ति (intution) के रूपमें जो अवचेतनकी गुफाके अंदर जा घुसती है जहाँ इन्द्रिय-क्रियाके कृपण अधिपतियों (पणियों) ने सूर्यकी जगमगाती गौओंको छिपा रखा है और वह इन्द्रको इसकी सूचना देती है । तब प्रकाशमान मनका अधिपति इन्द्र आता है और गुफाको तोड़कर खोल देता है और गौओंको ऊपर हाँक देता है, उदाजत्, ऊपर बृहत् सत्य-चेतना, देवोंके अपने घरकी तरफ । हमारी सचेतन सत्ता एक पहाड़ी ( अद्रि) है जिसमें उत्तरोत्तर अनेक धरातल और उच्चप्रदेश, सानूनि, हैं; अवचेतनकी गुफा

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 नीचे है; हम ऊपर सत्य और आनंदके देवत्वकी ओर चढ़ते हैं जहाँ अमरताके धाम हैं, यत्र अमृतास: आसते ।1

 

ऊपर उठी हुई तथा रूपांतरको प्राप्त हुई तृप्तियोंके अपने भार सहित, अश्विनोंके रथकी इस ऊर्ध्वमुखी गति द्वारा रात्रिका आवरण जो हमारी सत्ताके लोकोंको घेरे हुए है परे हटा दिया जाता है । ये सब लोक, मन, प्राण, शरीर, सत्यके सूर्यकी किरणोंके लिये खुल जाते हैं । हमारे अंदरका यह निम्न लोक, रज्, इसकी सभी शक्तियों तथा तृप्तियोंकी ऊर्ध्वारोही गति द्वारा विस्तृत होकर, प्रकाशमान अन्तर्ज्ञानशील मन, स्वःके रूपमें परिणत हो जाता है; स्व: सीधे तौरसे उच्च प्रकाशको ग्रहण करनेवाला है । मन, क्रिया, प्राणमय, आवेशात्मक और मूर्त्तभूत सत्ता-सब दिव्य सूर्यकी प्रभा और अन्तर्ज्ञान, शक्ति और प्रकाश,--तत् सवितुर्वरेष्यं भर्गो देवस्य2--से परिपूर्ण हो जाते हैं । निम्न मानसिक सत्ता उच्च देवकी आकृति तथा प्रतिमूर्तिमें रूपांतरित हो जाती है । अपोर्णुवन्त: तम: आ परीवृतं, स्व: न शक्रं तन्वन्त आ रज: । (देखो, मंत्र दूसरा)

 

यह ऋचा अश्विनोंकी पूर्ण तथा अंतिम गतिका वर्णन समाप्त कर देती है । चौथी ऋचामें ऋषि वामदेव अपने निजी आरोहण, अपनी निजी सोम-हवि, अपनी यात्रा और अपने यज्ञकी तरफ आता हैं; इसके लिये (तीसरे मंत्रमें) वह उनकी आनंदप्रद तथा प्रकाशप्रद क्रियाके लिये अपना अधिकार प्रतिपादित कर रहा है । अश्विनोंके मुख मधु पीनेके लिये बने हैं; तो उसके यज्ञमें उन्हें वह मधु पीना चाहिये । मध्य: पिबतं मधुषेभिः आसभि: । उन्हें मधुके लिये अपना रथ जोतना चाहिये, अपना वह रथ जो मनुष्योंका प्रिय है; उत प्रियं मधुने युञ्जाथां रथम् । क्योंकि मनुष्यकी गतिको, उसकी उत्तरोत्तर क्रियाशीलताको, उसके सब मार्गोंमें वे उसी आनंदके शहद और मधुसे आह्नादयुक्त करते हैं । आ वर्तनिं  मधुना जिन्वथ: पथ: । क्योंकि वे उस खालको धारण किये हैं जो शहदसे परिपूर्ण तथा इससे परिप्लावित हो रही है । दृतिं वहेथे मधुमन्त- ''भश्विना । अश्वीनोंकी क्रिया द्वारा मनुष्यकी आनंदकी तरफ होनेवाली प्रगति ही स्वयमेव आनंदप्रद हो जाती है; उसका सारा प्रयत्न और संघर्ष और श्रम एक दिव्य सुखसे भरपूर हो जाता है । जैसे वेदमें यह कहा गया है कि सत्य द्वारा सत्यकी तरफ प्रगति होती हैं, अर्थात् मानसिक

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।. ॠ. 9.15.2.

   यह गायत्री (ॠ. 3.62.10)  का महत्त्वपूर्ण वाक्य है ।

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और भौतिक चेतनाके अंदर सत्यके नियमकी उत्तरोत्तर वृद्धिके द्वारा हम अंतमें मन और शरीरसे परे पराचेतन सत्यतक पहुँचते हैं वैसे ही यहां यह दर्शाया गया है कि आनंदके द्वारा आनंदकी तरफ प्रगति होती है,  अपने सब अंगोंमें, अपनी सब क्रियाओंमें दिव्य आनंदकी उत्तरोत्तर वुद्धिके  द्वारा हम पराचेतनात्मक आनंदतक पहुंचते हैं । (देखो, मंत्र तीसरा)

 

इस ऊर्ध्वमुखी गतिमें, अश्विंनोंके रथको खींचनेवाले घोड़े पक्षियों, हंसों, हंसास:के रूपमें बदल जाते हैं । पक्षी वेदमें प्रायःकर तो उन्मूक्त तथा ऊपरको उड़ती हुई आत्माका प्रतीक है, अन्य स्थलोंमें उन शक्तियोंका प्रतीक है जो उसी प्रकार उन्मुक्त होकर ऊपरको गति करती हैं, ऊपर हमारी सत्ताकी ऊँचाइयोंकी तरफ उड़ती हैं, व्यापक रूपमें एक स्वच्छन्द उड़ानके साथ उड़ती हैं, प्राणशक्तिकी, धोड़ेकी, अश्वकी सामान्य सीमित गति या यत्नसाध्य प्लुतगतिसे आबद्ध नहीं रहतीं । ऐसी ही हैं वे शक्तियां जो आनंदके इन अधिपतियोंके स्वच्छन्द रथको खींचती हैं,  जब कि सत्यका सूर्य हमारे अंदर उदित हो जाता है । ये पखोंवाली गतियाँ उस मधुसे भरपूर होती हैं जो उमड़कर परिस्रवित होती हुई खालमेंसे बरसता है, मधुमन्तः । वे आक्रान्त न होने योग्य, अस्रिधः, होती हैं, वे अपनी उड़ानमें किसी भी क्षतिको नहीं पातीं, या इसका यह अर्थ हो सकता है कि वे कोई भी मिथ्या या क्षतिपूर्ण गति नहीं करतीं । और वे सुनहरे पंखोंवाली, हिरष्यपर्णा:, होती हैं । सुवर्ण, सुनहरा, सूर्यके प्रकाशका प्रतीकरूप रंग हैं । इन शक्तियोंके पंख उसके प्रकाशमान ज्ञानकी परिपूर्ण, तृप्त, उपलब्धि- क्षम गति, पर्ण, ही होते हैं । क्योंकि ये वे पक्षी हैं जो उषाके साथ जागते हैं; ये वे पंखवाली शक्तियाँ हैं जो अपने घोंसलोंसे निकल पड़ती हैं जब कि उस द्यौकी पुत्री (उषा) के पैर हमारे मानवीय मनके स्तरोंपर, दिवो अस्य सानवि, दबाव डालते हैं । ऐसे हैं वे हंस जो इन तेज अश्वारोही युगलों (अश्विनो) को वहन करते हैं । हंसास: ये वां मधु-मन्त: , अस्रिध:, हिरष्यषर्णा: उहुव: उषर्बुधः ।

 

मधुसे भरी हुई ये पंखोंवाली शक्तियां अब ऊपर उठती हैं तब हमारे ऊपर आकाशके प्रचुर जलोंको, उच्च मानसिक चेतनाकी महान् वृष्टिको, बरसा देती हैं; वे प्रमोदसे, आनंदसे, अमृत-रसके मदसे परिप्लुत, भरपूर होती हैं; और वे उस पराचेतन सत्ताको स्पर्श करती हैं, उस पराचेतन सत्ताके साथ सचेतन संस्पर्शमें आती हैं, जो सनातनतया आनंदकी स्वामिनी है, सदा ही इसके दिव्य मदसे आनंदित है । उदप्रुत: मन्दिनः मन्दिस्पृश: । उन द्वारा खींचे जाकर वे आनंदके अधिपति (अश्विनौ) ऋषिकी सोमहविपर

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 आते हैं जैसे मधुमक्सियां शहदके स्रावोंपर; मध्य: न मक्ष: सवनानी गच्छथ: । स्वयं मधुको बनानेवाले ये मधुमक्षिकाओंकी तरह, उस सब मधुका अन्वेषण करते रहते हैं जो उनके और अधिक आनंदके लिये उपकरणके तौरपर काम आ सकें ।  (देखो, मंत्र चौथा)

 

यज्ञमें सामान्य ज्ञानोद्दीपनकी गतिका वर्णन पहले यों किया जा चुका है कि वह अश्विनोंकी ऊर्ध्वारोही उड़ानका परिणाम है । उसीका वर्णन अब यों किया गया है कि वह अग्निकी ज्वालाओंकी सहायतासे की गई है । क्योंकि संकल्पाग्निकी, आत्माके अंदर जलती हुई दिव्य शक्तिकी, ज्यालाएँ भी उमड़कर प्रवाहित होती हुई मधुरतासे सिंचित हैं और इसलिये ये दिन-प्रतिदिन यज्ञ ( अध्वर) 1को उत्तरोत्तर अपने लक्ष्यपर ले जानेका अपना महान् कार्य पूर्णताके साथ करती हैं । उस उत्तरोत्तर प्रगतिके लिये वे अपनी ज्वालामयी जिह्वाओंसे, प्रकाशमान अश्विनोंके दैनिक मिलापकी याचना ( अभीप्सा) करती हैं, ये अश्वी अन्तर्ज्ञानात्मक ज्योतियोंके प्रकाशसे प्रकाशमान हैं और विद्योतमान शक्तिके अपने विचार द्वार2 उन ज्वालाओंको धारण करते हैं । स्वध्यरास: मघुमन्तः अग्नयः उस्रा जरन्ते प्रति वस्तो: अश्विना ।

 

ग्निकी यह अभीप्सा तब होती है जब यज्ञकर्त्ताने पवित्र हाथोंसे, एक पूर्णतया विवेकयुक्त अन्तर्दर्शन ( vision) के साथ, और अपनी आत्माकी उस शक्तिसे जो यात्राके अन्ततक पहुँचनेके लिये तत्पर है, सब बाधाओंको पार करके, सब विरोधोंको नष्ट-भ्रष्ट करके यज्ञके लक्ष्यतक पहुँच जानेके लिये सन्नद्ध है, सोम-रस निकालनेके पत्थरोंसे अमरताप्रद रस प्रस्रुत कर लिया होता हैं, और वह रस भी अश्विनोंके मधुसे परिपूर्ण हो चुका होता है । यत् निक्तहस्त: तरणि: विचक्षण: सोमं सुषाव मधुमन्तमद्रिभि: । क्योंकि वस्तुओमें निहित व्यक्तिका ( वैयक्तिक) आनंद अश्विनोंकी त्रिविध तृप्तियों द्वारा और, चौथे, सत्यसे बरसनेवाले आनंदके द्वारा ही मिलता है । यज्ञकर्त्ताके परिशुद्ध हाथ, निक्तहस्त:, संभवत: पवित्रीकृत भौतिक सत्ताके प्रतीक हैं3; शक्ति आती है पूर्ण किये गये प्राणमेंसे; स्पष्ट मानसिक दर्शनकी शक्ति विचक्षण:,

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1. 'अध्वर' शब्द जो यज्ञके लिये आता है, असलमें एक विशेषण है और पूरा मुहावरा है

   'अध्वर यज्ञ' अर्थात् यज्ञिय कर्म जो मार्ग पर यात्रा करता है, अथवा यज्ञ जिसका

   स्वरूप एक प्रगीत या यात्राका है। अग्नि, संकल्प, यज्ञका नेता है ।

    2. शवीरया धिया, ऋग्वेद 1. 3 .2

        3. तो भी हस्त या भुजा अधिकतर दूसरे ही प्रकारसे प्रतीक होते हैं, विशेषकर तम जब

           कि विचारका विषय इन्द्रके दो हाथ या दो भुजाएं होती हैं 1

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 सत्यसे प्रकाशित मनकी सूचक होती है । मन, प्राण और शरीरकी शर्तोंके पूरा होनेपर ही अश्विनोंकी त्रिविध तृप्तियोंके ऊपर मधु उमड़कर प्रवाहित होने लगता है । (देखो, मंत्र पाँचवाँ)

 

जय यज्ञकर्ता इस प्रकार अपने यज्ञमें वस्तुओंके मधुपूर्ण आनंदोंको निचोड़कर प्रस्रुत कर चुकता है तब संकल्पाग्निकी ज्यालाएँ उन्हें समीपसे पान करने योग्य हो जाती हैं; वे इसके लिये बाध्य नहीं होतीं कि वे उन्हे थोड़ा-थोड़ा करके या कष्टके साथ चेतनाके दूरस्थ और कठिनतासे प्राप्य स्तरसे जाकर लावें । इसलिये एकदम और स्वच्छन्दतापूर्वक पान करके वे एक प्रफुल्लित शक्ति व तीव्रतासे परिपूर्ण हो जाती हैं और हमारी सत्ताके संपूर्ण क्षेत्रके ऊपर इधर-उधर तेजीसे गति करने और दौड़ लगाने लगती हैं ताकि निम्न चेतना स्वतंत्र तथा प्रकाशमान मनके जगमगाते लोककी प्रतिमाके रूपमें वितत तथा रचित हो जाय । आके-निपास: अहभि: दविध्वत:, स्व: न शुक्रं तन्वन्त आ रज: । यह पिछला वाक्यांश बिना किसी परिवर्तनके दूसरी ऋचामें आ चूका है; पर यहाँ चतुर्विध तृप्तिसे परिपूर्ण संकल्पाग्निकी ज्वालाएँ ही कार्य करती हैं । वहाँ देवोंकी स्वच्छन्द ऊर्ध्वगति केवल प्रकाशके संस्पर्श द्वारा और बिना प्रयत्नके हो गयी थी; यहां यज्ञमें मनुष्यका कठोर श्रम और अभीप्सा हैं । इसलिये यहाँ कार्य समय द्वारा, दिनों द्वारा ही पूर्णताको प्राप्त करता है--अहभि, दिनों द्वारा, अर्थात् सत्यकी क्रमसे आनेवाली उन उषाओं द्वारा जिनमेंसे प्रत्येक रात्रिपर अपनी विजयको लिये आती है, उन बहिनोंकी अविच्छिन्न परंपरा द्वारा जिनका दिव्य उषाके सूक्तमें हम उल्लेख देख चुके हैं । मनुष्य उस सबको एकदम पकड़ या धारण नहीं कर सकता जिसे प्रकाश उसके समीप लाता है; इसका लगातार दोहराये जाते रहना अपेक्षित है ताकि वह उस प्रकाशमें अपनी उत्तरोत्तर वृद्धि प्राप्त कर सके ।

 

पर केवल संकल्पकी अग्नियाँ ही निम्न चेतनाके रूपांतरके कार्यमें निरत नहीं हैं । सत्यका सूर्य भी अपने देदीप्यमान घोड़ोंको जोत देता है और गतिमान् हो जाता है; सूर: चिद् अश्वान् युयुजानः ईयते । अश्वी मी मानवीय चेतनाके लिये इसकी प्रगतिके सब मार्गोंका ज्ञान प्राप्त करते हैं, ताकि वह (चेतना) एक पूर्ण, समस्वर और बहुमुखी गति कर सके । यह गति अनेक मार्गोंमें आगेकी ओर बढ्ती हुई प्रकृतिकी उस स्वतःप्रवृत्त आत्मनियामक क्रिया द्वारा दिव्य ज्ञानके प्रकाशसे संयुक्त हों जाती है जिसे .वह (प्रकृति) तब धारण करती है जब संकल्प और ज्ञान एक पूर्णतः आत्मचेतनायुक्त तथा अन्तर्ज्ञानात्मक तौरसे पथ-प्रदर्शित क्रियाकी पूर्ण

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समस्वरताके साथ परस्पर आबद्ध हो जाते हैं । विश्वान् अनु स्वधया चेतथः पथ: । (देखो, मंत्र छठा)

 

वामदेव अपना सूक्त समाप्त करता है । वह देदीप्यमान विचारको उसकी उच्च प्रकाशमयताके सहित, दृढ़ताके साथ ग्रहण कर लेनेमें समर्थ हो चूका है और उसने शब्दकी आकृति बनानेवाली और स्थिरता देनेवाली शक्तिके द्वारा अपने अंदर अश्विनोंके रथको अर्थात् अश्विनोंके आनंदकी अमृत-गतिको अभिव्यक्त कर लिया है, आनंदकी उस गतिको जो म्लान नहीं होती, न पुरानी पड़ती हैं न समाप्त ही होती है,--यह आयुरहित और अक्षय, अजरः, होती है,--क्योंकि यह खींची जाती है पूर्ण तथा उन्मुक्त शक्तियों द्वारा न कि मानवीय प्राणके सीमित और शीघ्र क्षीण हो जाने- वाले, शीघ्र उच्छृंखल हो पड़नेवाले घोड़ों द्वारा । प्र वाम् अवोचम् अश्विना धियन्धा:, रथ: स्यश्व: अजर: प: अस्सि । इस गतिमें वे एक क्षणके अंदर निम्न चेतनाके सब लोकोंके आर-पार हो जाते हैं और इसे अपने तीव्र आनंदोंसे ढक देते हैं और इस प्रकार उस मनुष्यके अंदर जो अपनी सोम-रसकी हविसे परिपूर्ण होता है ऐसा विश्वव्यापी आनंद प्राप्त कर लेते हैं जिसे पाकर वे प्रबलताके साथ उसके अंदर प्रविष्ट होकर, मनुष्यको सब विरोधियोसे पार कराके महान् लक्ष्यतक ले जाते हैं । येन सद्य: परि रजांसि याथ: हविष्मन्तं सरणि भोजमच्छ । (देखो, मंत्र सातवाँ)

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