Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
भग
इस मार्गका लक्ष्य है दिव्य परमानन्द, सत्यका, हमारी सत्ताकी अनंतता-का अपरिमित हर्ष । भग देवता ही इस हर्ष और परमानन्दको मानव चेतनामें लाता है; बह मनुष्यके अन्दर दिव्य आनंदोपभोक्ता है । जीव-मात्रका लक्ष्य और ध्येय है--अस्तित्वका यह दिव्य उपभोग, इसकी खोज वह चाहे ज्ञानसे करे या अज्ञानसे, दिव्य सामर्थ्यसे करे अथवा अपनी अभी-तक अविकसित शक्तियोंकी दुर्बलतासे । ''बलशाली मनुष्य अपने संवर्धनके लिए भगका आह्वान करता है, जो बलहीन है वह भीं उसीको पुकारता हैं, तब वह आनंदकी ओर प्रयाण करता है'' (ऋ. V11. 38.6)1 । ''हम उषाकालमें भगका आवाहन करें जो शक्तिशाली और विजयी है, अदितिका ऐसा पुत्र है जो विशाल आश्रयदाता है, आर्त, योद्धा और राजा जिसका ध्यान करते हैं और वे उस उपभोक्तासे कहते है 'हमें आनंदोपभोग प्रदान करो' '' (ऋ. V11.41.2)2 । दिव्य भोक्ता (भग) ही आनंदोपभोगका स्वामी बने, और उसीके द्वारा हम भी आनंदोपभोगके स्वामी बनें । ''हे भग ! तुझे प्रत्येक मनुष्य पुकारता हैं, अवश्य ही तू हमारी यात्राका नेता बन, हे उपभोक्ता,'' ( V11. 41.5)3। अपनी दिव्य उपलब्धियोंके विकासमें आनंद लेती हुई आत्माका वृद्धिशील एवं विजयशील आनंद जो हमें यात्रामें अग्रसर होने तथा विजय पानेके लिये तब तक बल देता रहता है जबतक हम अपने
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1. भगमुग्रोऽवसे जोहवीति भगमनुग्रो अध याति रत्नम् ।।
ऋ. V11. 38.6
2. प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता ।
आधश्चिद् यं मन्यमानस्तुरश्चिद् राजा चिद् यं भगं भक्षीत्याह ।।
ऋ. V11. 41.2
3.भग एव भगवाँ अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्त: स्याम ।
तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुरएता भवेह ।।
ऋ. V11.41.5
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असीम परमानंदमें पूर्णताके लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाते,--यह है मनुष्यके अन्दर भगके जन्मका चिह्र और यही है उसका दिव्य कार्य-व्यापार ।
निश्चय ही समस्त उपभोग-मर्त्य और दिव्य--भग-सवितासे आता है; ''मनुष्योंके लिए विस्तृत और विशाल शक्तिका सर्जन करता हुआ वह उनके लिए मर्त्य उपभोग लाता है ।'' किन्तु वैदिक आदर्श है संपूर्ण जीवनका समावेश और दिव्य और मानवीय संपूर्ण हर्ष का, पृथिवीके विस्तार और प्राचुर्यका, द्युलोककी विशालता एवं विपुलताका और उस मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक सत्ताकी निधियोंका समावेश जिसे ऊँचा उठाकर और पवित्र करके अनंत और दिव्य सत्यके रूपमें सर्वांगपूर्ण बना दिया गया हो । सबको समाविष्ट करनेवाला यह आनंद ही भगकी देन हैं । मनुष्योंको उस उप-भोक्ताका आह्वान करना चाहिए क्योंकि वह अनेक ऐश्वर्योंसे संपन्न है और सब आनन्दोंकी पूर्णतया व्यवस्था करता है,--उन त्रिगुणित सात आनंदोंकी जिन्हें वह अपनी माता अदितिकी सत्तामें धारण किये है । जब हम अपने अन्दर ''विस्तृत और विशाल शक्ति''का सर्जन कर लेते है और जब भगवान् भग, उषा और अनन्त-अविभक्त अदितिके रूपमें असीम चेतनाकी दीप्तियोंको परिधानकी तरह धारण कर लेता है और बिना विभाजनके सभी वांछनीय वरोंका वितरण करता हैं तभी दिव्य आनंद अपनी पूर्णतामें हमारे पास आता है । तब वह (भग) उस महत्तम आनंदका पूर्ण उपभोग मानव प्राणीको प्रदान करता है । इसलिए वसिष्ठ उसे पुकार-पुकारकर कहता है (ऋ. V11. 41.3)1, ''हे भग ! हे हमारे पथप्रदर्शक, हे सत्यकी संपदासे संपन्न भग, हमें अपनी संपदा प्रदान करते हुए हमारे अन्दर इस विचारको'' इस सत्य विचारको जिसके द्धारा आनंद प्राप्त होता है ''उन्नत और संवर्धित करो, हे भग ! ''
भग स्रष्टा सविता है, जो अव्यक्त भगवान्से दिव्य विश्वके सत्यको ले आता है, इस निम्नतर चेतनाके उस दुःस्वप्नको हमसे दूर कर देता है जिसमें हम सत्य और असत्य, बल और दुर्बलता, हर्ष और शोकके विषम जालमें लड़खड़ा रहते हैं । बन्दी बनानेवाली सीमाओंसे मुक्त एक अनंत सत्ता, दिव्य सत्यको विचारमें ग्रहण करने और संकल्पमे क्रियान्वित करने-वाला अनंत ज्ञान एवं बल, द्वैध, दोष या पापके बिना सबको अधिकृत करने और उनका उपभोग करनेवाला अनंत परमानन्द,--यही है भग-सविताकी
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1. भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः ।
भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नूवन्त: स्याम ।।
ऋ. V11. 41.3
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सृष्टिं, यही है वह महत्तम आनन्द । ''दिव्य स्रष्टाकी इसी सृष्टिके बारेमें अदिति देवी हमें बतलाती है, इसीके बारेमें सर्वशासक वरुण, मित्र और अर्यमा एक मन और एक हृदयके साथ हमें बताते हैं ।'' चारों राजा अपनेमें सबसे छोटे और सबसे महान् आनंदोपभोक्ता भगकी मनुष्यमें आनंदमय पूर्णताके द्वारा अपने आपको अपनी अनंत माताके साथ परिपूरित और चरितार्थ पाते हैं । इस प्रकार चतुविध सविताकी दिव्य सृष्टि वरुणपर आधारित, मित्र द्वारा समन्वित और परिचालित, अर्यमा द्वारा निष्पादित और भगमें उपभुक्त होती है : अनंत मां अदिति अपनी तेजस्वी संतानोंके जन्म और कार्योंके द्वारा अपने आपको मनुष्यमें चरितार्थ करती है ।
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