Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
नवां अध्याय
वृहस्पति--आत्मा शक्ति
ऋग्वेद, मण्डल 4, सूक्त 5०
यस्तस्तम्भ सहसा वि ज्मो अन्तान् वृहस्पसिस्त्रिषधस्थो रवेण ।
तं प्रत्नास ऋषयो दीध्याना: पुरो विप्रा वधिरे मन्द्रजिह्व म् ।।1।।
(य: वृहस्पति:) जिस वृहस्पतिने (त्रिषधस्थ:) हमारी परिपूर्णताके त्रिविध लोकमें स्थित होकर (रवेण) आवाज द्वारा (सहसा) अपनी शक्तिये (ज्म: अन्तान्) पृथिवीके अंतोंको (वि तस्तम्भ) थाम दिया है (तम्) उसपर (प्रत्नास: ऋषय:) प्राचीन ऋषियोंने (दीध्यानाः) ध्यान लगाया था और (विप्रा:) प्रकाशपूर्ण होकर उन्होंने (मन्द्रजिह्वम्) आनंदमयी जिह्वावाले उसको (पुर: दधिरे) अपने आगे निहित किया था ।।1।।
धुनेतयः सुप्रकेतं मदन्तो बृहस्पते अभि ये नस्ततस्रे ।
पृषन्तं सृप्रमदब्धमूर्व बृहस्पते रक्षतादस्य योनिम् ।।2|।
(बृहस्पते) हे बृहस्पति ! (धुनेतय:) अपनी गतिके अन्तर्वेगके कंपनोंसे कंपित होते हुए, (सुप्रकेतं मदन्त:) पूर्णताप्राप्त चेतनामें आनंद लेते हुए (ये) जिन्होने अर्थात् उन ऋषियोंने (पृषन्तम्) प्रचुर, (सृप्रम्) तीव्र, (अदब्धम्) अजय्य, (ऊर्व) विशाल (योनिम्) लोकको, जिसमेंसे यह सत्ता पैदा हुई थी, (नः अभि ततस्रे) हमारे लिये बुन दिया है । (बृहस्पते) हे बृहस्पति !, (अस्य रक्षतात्) उसकी तू रक्षा कर ।|2।।
बृहस्पते था परमा परामवदत आ त ऋतस्पृशो नि षेदुः ।
तुभ्यं खाता अवता अद्रिदुग्धा मध्य: श्चोतन्त्यभितो विरप्शम् ।।3।।
(बृहस्पते) हे बृहस्पति ! (या परमा परावत्) जो सर्वोच्च परम सत्ता हैं उसे (अतः) यहाँसे, इस लोकसे (ते ऋतस्पृश:) वे सत्यस्पर्शी ऋषि (आ) प्राप्त करते हैं और (निषेदु:) उसमें निषण्ण हो जाते हैं । (तुभ्यम् अवता: खाता:) तेरे लिये [ शहदके ] कुएँ खुदे हुए हैं (अद्रिदुग्धा:) जो इस पहाडीमेंसे रिस रहे हैं, और (मध्य:) उनके मधुर रस (अभित: विरप्श श्चोतन्ति) निकलकर चारों तरफ उमड़-उमड़कर बह रहे हैं ।।3।।
बृहस्पति: प्रथमं जायमानो महो ज्योतिष: परमे व्योमन् ।
सप्तास्यस्तुविजातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत् तमांसि ।।4।।
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(बृहस्पति:) बृहस्पति, (सप्तास्य:) जो सात मुखोंवाला है, (सप्तरश्मि:) सात किरणोवाला हैं, (तुविजात:) बहुतसे जन्मोंवाला है, (महो ज्योतिष:) विपुल ज्योतिमेंसे, (परमे व्योमन्) सर्वोच्च द्युलोकमें, (प्रथमं जायमान:) सर्वप्रथम प्रादुर्भूत होता हुआ, (रवेण) अपनी आवाजसे (तमांसि) उन अधकारोंको जो हमें घेरे हुए हैं (वि अधमत्) पूर्णतया दूर कर देता है ।।4।।
स सुष्टुभा स ऋक्वाता गणेन वलं रुरोज फलिगं रवेण ।
बृहस्पतिरुस्रिया हव्यसुद: कनिक्रदद् वावशतीरुदाजत् ।।5।।
(स:) उस बृहस्पतिने (सुष्टुभा गणेन) स्तुति करनेवाले स्वरतालके गणसे, (स: ऋक्वाता गणेन) उसने प्रकाशमान गीतोंके गणसे (रवेण) आवाजके साथ (वलं फलिगं रुरोज) 'वल'के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । (बृह-स्पति हव्यसूद: उस्रिया उदाजत्) बृहस्पति उन प्रकाशवती ( गौओं] को, जो हमारी हवियोंको प्रेरणा देती हैं, ऊपर हाँक ले जाता है, (कनिक्रदत्) जब वह उनको ले जा रहा होता है तब वह जोरसे गर्जता है, (वावशती:) [वह गौओंको ऊपर हाँक ले जाता है] जो रंभाकर उसका प्रत्युत्तर देती हैं ।।5।।
एवा पित्रे विश्वदेवाय वृष्णे यज्ञैर्विधेम नमसा हविर्भि: ।
बृहस्पते सुप्रजा वीरवन्तो वयं स्याम पतयो रयीणाम् ।।6।।
(एव) इस प्रकार (पित्रे विश्वदेवाय वृष्णे) उस पिता, सार्वभौम देव, वृषा [वृषभ]के लिये, (यज्ञै: नमसा हविर्भि:) यज्ञोंसे, नमनसे, हवियोंसे, (विधेम) आओ, हम समर्पण करें । (बृहस्पते) हे वृहस्पति, (वीरवन्त:) वीरतासे अनुप्राणित और (सुप्रजा:) संततियोंसे समृद्ध होते हुए (वयं रयीणां पतय: स्याम) हम आनंदोंके अधिपति हो जावें ।।6।।
स इद् राजा प्रतिजन्यानि विश्वा शुष्मेण तस्थावभि वीर्येण ।
बृहस्पति य: सुभृतं विभर्ति वल्गूयति वन्दते पूर्वभाजम् ।।7।।
(य: बृहस्पतिं सुभृतं बिभर्ति) जो बृहस्पतिको अपने अंदर सुभृत रूपमें धारण कर लेता है और (वल्गूयति) आनंदमें नाचने लगता हैं (पूर्वभाजम् वन्दते) तथा अपने आनंदोपभोगके प्रथम फलोंको उसे अर्पित करता हुआ उसकी वन्दना करता है, (स इद् राजा) वह निश्चय ही राजा है, (विश्वा प्रतिजन्यानि) लोकोंके अंदर जो भी मुकाबिला करनेवाले हैं उन सबको वह (शुष्मेण वीर्येण) अपनी शक्तिसे, अपनी वीरतासे (अभितस्थौ ) परास्त कर देता है ।।7।।
स इत् क्षेति सुधित ओकसि स्वे तस्मा इळा पिन्वते विश्वदानीम् ।
तस्मै विश: स्वयमेवा नमन्ते यस्मिन् बह्मा राजनि पूर्व एति ।।8|।
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हाँ, (यस्मिन् राजनि) जो राजा है और जिसके अंदर (ब्रह्मा) आत्माकी शक्ति (पूर्व: एति) आगे-आगे चलती हैं, (स इत् सुधित:) यह सुस्थित होकर (स्वे ओकसि क्षेति) अपने निजी घरमें निवास करता है, (तस्मै इळा विश्दानीं पिन्वते) उसके लिए इडा हर समय वृद्धिको प्राप्त होती रहती है, (तस्मै विश: स्वयमेव नमन्ते) उसके प्रति सब प्रजाएँ स्वयमेव नत हो जाती हैं ।।8।।
अप्रतीतो जयति सं धानानि प्रतिजन्यान्युत या सजन्या ।
अवस्यवे यो वरिव: कृणोति ब्रह्यणे राजा तमवन्ति देवा: ।।9।।
(अप्रतीत:) वह अनाक्रान्त रहता है, (धनानि संजयति) वह उन सब घनोंको पूर्णतया जीत लेता है जो (प्रतिजन्यानि) उन लोकोंके हैं जो उसके सम्मुख होते हैं (उत या सजन्या) और जो उस लोकके हैं जिसमें वह रहता है । (अवस्यवे ब्रह्मणे) अपनी अभिव्यक्तिको चाहनेवाली आत्मशक्तिके लिये (य: वरिव: कृणोति) जो अपने अंदर सर्वोच्च भद्रको रचता हैं (त देवा: अवन्ति) उसकी देव पालना करते हैं ।।9।।
इन्द्रश्च सोमं पिबतं बृहस्पतेऽस्मिन् यज्ञे मन्दसाना वृषण्वसू ।
आ वां विशन्त्विन्दवः स्याभुवोऽस्मे रयिं सर्ववीरं नि यच्छतम् ।।10।।
(बृहस्पते इन्द्रश्च) हे बृहस्पति ! तू और इन्द्र (सोमं पिबतम्) सोमरस पिओ, (अस्मिन् यज्ञे मन्दसाना) इस यज्ञमें आनंद लेते हुए, (वृषष्यसू) ऐश्वर्यको बरसाते हुए । (इन्दव: वाम् आविशन्तु) इस सोम-रसके आनंदकी शक्तियां तुम्हारे अंदर प्रविष्ट हों, और वे (स्वाभुव:) अपने पूर्ण रूपको प्राप्त हों (अस्मे सर्ववीरं रयिं नियच्छतम्) हमारे अंदर उस आनंदको जो सब प्रकारकी शक्तिसे परिपूर्ण है, नियंत्रित कर दो ।।10।।
बृहस्पत इन्द्र वर्धतं न: सचा सा वां सुमतिर्भूत्वस्मे ।
अविष्टं धियो जिगृतं पुरंधीर्जजस्तमर्यो वनुषामराती ।।11।।
(बृहस्पते इन्द्र) हे बृहस्पति ! हे इन्द्र ! (नः सचा वर्धतं) तुम दोनों एक साथ हमारे अंदर वृद्धिको प्राप्त होओ । (सा वां सुमति:) तुम दोनोंकी वह सुमति-मनकी परिपूर्णता (अस्मे भूतु) हमारे अंदर विरचित हो जाय । (धिय: अविष्टम्) विचारोंकी पालना करो, (पुरन्धी: जिगृतम्) मनकी बहुविध शक्तियोंको प्रकट कर दो; (अराती:) सब दरिद्रताओंको (अर्य: वनुषाम्) जो उन द्वारा लायी जाती हैं जो आर्योको जीतकर अपने वशमें कर लेना चाहते हैं (जजस्तम्) विनष्ट कर दो ।।11।।
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भाष्य
बृहस्पति, ब्रह्मणस्पति, ब्रह्मा ये तीन नाम उस देवके हैं जिसे संबोधित करके ऋषि वामदेवने यह रहस्यमय स्तुति-गीत गाया है । बादकी पौराणिक देववंशावलीमें बृहस्पति और ब्रह्मा अलग-अलग देवता हो गये हैं । ब्रह्मा है स्रष्टा, जो उन तीन देवोमेंसे एक है जिनसे महान् पौराणिक देवत्रयी बनी है; बृहस्पति वहां कोई बहुत महत्त्वका देवता नहीं ख गया, वह देवोंका आचार्य है और प्रसंगत: बृहस्पति नामक ग्रहका संरक्षक है; ब्रह्मणस्पति जो बृहस्पति और ब्रह्मा दोनोंको जोड़नेवाली बीचकी कड़ी था, विलुप्त ही हो गया है । इन वैदिक देवोंके बाह्यरूपका पुनरुद्धार करनेके लिये हमें उस टूटी हुई शृंखलाको फिरसे जोड़ना होगा और एक दूसरेसे वियुक्त हो गये इन दो नामोंके प्रचलित अशुद्ध अर्थो (मूल्य व महत्त्व) को मूलभूत वैदिक विचारके प्रकाशमें ठीक करना होगा ।
'ब्रह्मन्' वेदमें सामान्यत: 'वैदिक शब्द' या 'मंत्र'का वाची हैं-यहाँ 'वैदिक शब्द' या 'मन्त्र'से हमारा अभिप्राय है उसका गंभीरतम रूप, अर्थात् आत्मा या सत्ताकी गहराइयोंके अंदरसे उठता हुआ अंतःप्रेरणाका शब्द । एक तालबद्ध शब्दने ही लोकोंको सृजा है और सदैव सृजन कर ण है । सारा जगत् एक प्रकाशन या अभिव्यंजन है, एक सृजन है जो शब्द द्वारा किया गया हैं । सचेतन सत्ता जब अपनी वस्तुओंको अपने अंदर अपने-आप ही, त्मना, प्रकाशमान रूपमें व्यक्त कर रही होती है तब वह अतिचेतन (superconscient) होती है; जब बह अपनी वस्तुओंको धुंधले रूपमें अपने अंदर छिपाये रखती है तब वह अवचेतन (subconscient) होती है । जो उच्चतर है, स्वत:प्रकाशमान है, वह अस्पष्टतामें, रात्रिमें, अंधकारसे ढके अंधकारमें, तम:तमसा गढ़म्में उतरता है जहाँ चेतनाके खंडोंमें विभक्त होनेके कारणसे सब कुछ रूपरहित सत्ताके अंदर छिपा पडा है, तुच्छचेनाम्वपिहितम् । शब्दके द्वारा यह उस रात्रिके अंदरसे निकलकर चेतनमें अपनी विशाल एकताको पुन: विरचित करनेके लिये फिर ऊपर उठता है, तन्महिना अजायत एकम् । यह विशाल सत्ता, सबको अपने अंदर रखनेवाली, सबको सृजनेवाली यह चेतना 'ब्रह्मा' हैं । यह आत्मा है जो मनुष्यमें अवचेतनके अंदरसे उद्भूत होती है और ऊर्ध्यमुख होकर अतिचेतनकी ओर जाती है । और सर्जक-शक्तिका शब्द जो आत्मामेंसे निकलकर ऊपरकी तरफ जाता है यह भी 'ब्रह्मन्' है ।
यह देय अपने-आपको आत्माकी सचेतन शक्तिके रूपमें व्यक्त करता है, शव्दके द्वारा, अवचेतनके जलोंमेंसे लोकोंको रचता है--महत्त्वपूर्ण सृष्टि-सूक्त (ऋग्० 10.129) में इन जलोंको स्पष्ट रूपसे 'अवचेतनके जल'
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यह नाम दिया गया है, 'अप्रकेतं सलिलं सर्वम्--अर्थात् अचेतन समुद्र जो सब कुछ था' । इस देवकी यही शक्ति 'ब्रह्मा' है, इस 'ब्रह्मा' नाममें जो बल है वह सचेतन आत्म-शक्तिपर ही अघिक पड़ता है न कि उस शब्दपर जो इस आत्म-शक्तिको प्रकट करता है । चेतन मानव-सत्ताके अंदर भिन्न-भिन्न लोकस्तरोंकी अभिव्यक्ति होती-होती अंतमें जहाँतक पहुँचती है वह है अतिचेतनकी, सत्य और आनंदकी, अभिव्यक्ति ओर यह (अति- चेतनकी) अभिव्यक्ति ही परम शब्दका या वेदका अधिकार है, विशेष कार्य है । इस परम शब्दका अधिपति है वृहस्पति, 'बृहस्पति' नाममें जो बल हैं वह शब्दकी शक्तिपर अधिक पड़ता है न कि उस सामान्य आत्म-शक्तिके विचारपर जो इसके पीछे रहती है । बृहस्पति देवोंको और मुख्यतः इन्द्रको जो 'मन'का अधिपति है, ज्ञानका शब्द, अतिचेतनका तालबद्ध शब्दाभिव्यंजन, प्रदान करता है, जब कि वे (देव) मनुष्यके अंदर महान् सिद्धिके लिये 'आर्य'-शक्तियोंके रूपमें कार्य करते हैं । यह आसानीसे समझमें आ सकता है कि किस प्रकार इन दोनों देवोंका विचार पौराणिक प्रतीकवादमें आकर ब्रह्मा स्रष्टा तथा बृहस्पति सुराचार्य इस विशेष रूपमें आ गया जहाँ इनका अर्थ यद्यपि कुछ विस्तृततर हो गया पर साथ ही कम सूक्ष्म और कम गंभीर भी हो गया । 'ब्रह्मणस्पति' इस नाममें ये दोनों विभिन्न बल एक हो गये हैं और बराबर हो गये हैं । यह उसी एक देवके सामान्य और विशेष रूपोंके बीचमें उन्हें जोड़नेचाला नाम है ।
बृहस्पति वह है जिसने पृथिवीकी अर्थात् भौतिक चेतनाकी सीभाओं और परिच्छिन्नताओंको दृढ़ताके साथ थाम लिया है । वह सत्ता जिसमें से सब रचनाएँ बनायी गयी हैं एक धुंधली, तरल और अनिश्चयात्मक गति है,--'सलिलम्' अर्थात् 'पानी' है । प्रथम आवश्यकता यह है कि इस तरल, बहते हुए और अस्थिर तत्त्वमेंसे एक कामलायक स्थायी रचना की जाय ताकि चेतनके जीवनके लिये एक आधार तैयार हो सके । यह काम वृहस्पति भौतिक चेतना तथा इसके लोकके निर्माणके रूपमें करता है,-- करता है शक्ति द्वारा, सहसा, अवचेतनके प्रतिरोधपर एक प्रकारका जबर्दस्त दबाव डालकर । इस महान् रचनाको वह निष्पन्न करता है मन, प्राण, शरीरके त्रिगुणित लोकको दृढ़तया स्थापित करके,--ये मन, प्राण, शरीर तीनों विश्वव्यापी कार्य तथा सिद्धिके इस जगत्में सदा इकट्ठे और एक दूसरेमें आवेष्टित (निवर्त्तित) जते हैं या एक दूसरेमेंसे उद्भूत (विवर्तित) होते रहते हैं । इन तीनोंके मिलनेसे 'अग्नि'का त्रिगुणित स्थान (धाम) बनता है और वहाँ बैठकर वह परिपूर्णता या निष्पत्तिके उत्तरोत्तर कार्यको,
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जो यज्ञका लक्ष्य है, सिद्ध करता है । बृहस्पति रचना करता है शब्द द्वारा, अपनी आवाज ( पुकार) द्वारा, 'रवेण' क्योंकि शब्द आत्माकी उस समयकी आवाज ( पुकार) ही है जब कि यह सदा-नवीन बोधों और निर्माणोंके लिये जागृत होता है । 'बृहस्पतिने शक्ति द्वारा पृथिवीके अंतोंको दृढ़ताके साथ थाम दिया, परिपूर्णताके त्रिगुणित धाममें स्थित होकर अपनी आवाजके द्वारा थाम दिया' य: तस्तम्भ सहसा वि ज्मो अन्तान् वृहस्पति: त्रिषस्धथो रवेण ।
कहा गया है कि उस ( बृहस्पति) पर पुरातन या प्राचीन ऋषियोंने ध्यान लगाया; ध्यान से वे मनमें प्रकाशपूर्ण हो गये; प्रकाशपूर्ण होकर उन्होंने उसे आनंदमयी जिह्वावाले देवता, मन्द्रजिह्वम्के रूपमें अपने आगे निहित किया,--आनंदमयी जिह्वाका अर्थ है वह जिह्वा जो सोमके मदजनक रस, 'मद, मधु'का आनंद लेती है, मधुरताकी उस लहर, मधुमान् ऊर्मि:, का आनंद लेती है जो सचेतन सत्ताके अंदर छिपी पड़ी थीं और धीरे-धीरे क्रमश : इसमेंसे निकालकर बाहर लायी गयी है ।1 पर प्रश्न यह है कि यह किनके विषयमें कहा गया है ? क्या ये वे सात दिव्य ऋषि, ॠषयो: दिव्या:, हैं जो चेतनाको उसके सातों स्तरोंमेंसे प्रत्येकमें सिद्ध करके और उन स्तरोंको इकट्ठा समस्वर करके जगत्के विकासका निरीक्षण किया करते हैं, अथवा ये वे मानव पितर, पितरो मनुष्याः, हैं जिन्होंने सबसे पहले उच्च ज्ञानको खोजकर पाया था और मनुष्यके लिये सत्य-चेतनाकी असीमताको विरचित किया था ? दोनोंमेंसे कोई भी क्यों न अभिप्रेत हो, पर संकेत अपेक्षाकृत मानव पितरों, पूर्वजों, द्वारा की गयी सत्यकी विजयकी ओर ही अधिक प्रतीत होता है । 'दीध्याना: ' शब्दके वेदमें दोनों अर्थ होते हैं, एक तो चमकना, प्रकाशमान होना और दूसरा विचारना, ध्यान करना, विचारमें केन्द्रित करना । इस शब्दका प्रयोग भी सतत रूपसे द्वचथकतावाले अद्भुत वैदिक अलंकारके साथ हुआ है । पहलें अर्थ की दृष्टिसे इसका संबंघ 'विप्राः' के साथ जुड़ता हैं, और भाव यह निकलता हैं कि ऋषि बृहस्पतिकी विजयशाली शक्तिके द्वारा विचारमें अधिकाधिक प्रकाशमान (दीध्याना:) होते चलते हैं और अंतमें जाकर वे विप्रा: ( प्रकाशपूर्ण) बन जाते हैं । दूसरे अर्थमें इसका संबंध 'दधिरे'के साथ होगा और भाव यह निकलेगा कि ऋषि उन अंतर्ज्ञानोंपर जो वृहस्पतिकी पवित्र और प्रकाशपूर्ण शब्दरूपी आवाजके द्वारा आत्मामेंसे ऊपरर उठते हैं, ध्यान लगाकर, उन्हें विचारमें
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1. तं प्रत्नास ॠषयो दीध्याना: पुरो विप्रा दधिरे मन्द्वजिह्यम् ।
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दृढ़ताके साथ थामकर (दीध्याना:), मनमें प्रकाशपूर्ण हो गये जो मन पराचेतन के पूर्ण अंतःप्रवाहके लिये खुला हुआ था । इस प्रकार वे आत्माके विचारोंकी उस क्रियाशीलताको जो सदा पीछे रहकर, पर्देसे ढकी रहकर, काम करती है सचेतन सत्ताके सम्मुख ले जानेमें और उसे अपने स्वभावकी मुख्य क्रिया बना लेनेमें समर्थ हो गये । परिणामत: बृहस्पति उनके अंदर सत्ताके आनंदको, आनंदको, अमरताके रसको, परम आनंदको उनके लिये आस्वादन करने योग्य हो गया । नियत भौतिक चेतनाका निर्माण पहली सीढ़ी है, अंतर्ज्ञान-युक्त आत्माको अपनी सचेतन क्रियाओंके नेताके रूपमें मनमें आगे ले आकर दिव्य आनंदके प्रति यह जागरण हो जाना सिद्धि-प्राप्ति है या कमसे कम इस सिद्धिकी शर्त है । (देखो, मंत्र प्रथम)
परिणाम होता है मनुष्यके अंदर सत्य-चेतनाका निर्मित हो जाना । प्राक्तन ऋषियोंने गतिके तीव्रतम कंपनोंको पा लिया है; चेतनाके जलकी सबसे अधिक पूर्ण और वेगवती धारा जो हमारी क्रियाशील सत्ताकी घटक होती है अब अंधकाराच्छन्न नहीं रही है, जैसे कि अवचेतनके अंदर थी, बल्कि पूर्ण चेतनाके उल्लाससे भरपूर हो गयी है,--सृष्टिसूक्त ( 10.129) मे वर्णित समुद्रकी तरह वह ' अप्रकेतम्' नहीं रही, 'किंतु 'सुप्रकेतम्' हो चुकी है । उन (प्राक्तन) ऋषियोंका वर्णन इस प्रकार किया गया है'--धुनेतय: सुप्रकेतं मदन्तः' । मानवीय मन:सत्ताके अंदर अपने भरपूर प्रकाश और आनंदसे युक्त चेतनाकी क्रियाओंके इस वेगको प्राप्त करके उन्होंने मानवजातिके लिये इन वेग-युक्त, प्रकाशमय और उल्लासयुक्त बोधोंके तंतुओंसे सत्य-चेतनाको, ॠतं बृहत्को बुना है, जो इस सचेतन सत्ताका गर्भ या उत्पत्तिस्थान है । क्योंकि पराचेतनमेंसे ही निकलकर सत्ता अवचेतनके अंदर अवतरित होती है और अपने साथ उसे लिये होती है जो यहाँ व्यक्तिगत मानव सत्ता, चेतन आत्मा, के रूपमें उद्भूत हो जाता है । इस सत्य-चेतनाकी प्रकृति अपने आपमें यह होती है कि यह अपने उत्सेचनमें प्रचुर होती है, पूषन्तम्, या (इसका यह अर्थ हो सकता है) अपने समस्वरतायुक्त गुणोंके वैविध्यकी दृष्टिसे बहुरूप होती है; अपनी गतिमें यह तीव्र होती है, सृप्रम्; उस प्रकाशपूर्ण तीव्रताके द्वारा यह उस सबपर विजय पा लेती है जो इसे परास्त करना या तोड़ना चाहता है, यह अदब्धम् होती है; सबसे बढ़कर यह कि यह विशाल, बृहत्, असीम होती है, ऊर्वम् । इन सब रूपोंमें यह उस पहली सीमित गतिसे उल्टी है जो अवचेतनके अंदरसे निकलती है; क्योंकि वह होती है परिमित और धूसर, मंद और निगड़ित, प्रतिद्वन्द्वी शक्तियोंके विरोध द्वारा आसानीसे पराजित और नष्टभ्रष्ट हो जानेवाली, क्षेत्रकी दृष्टिसे
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अविस्तीर्ण तथा सीमित । पर मनुष्यके अंदर व्यक्त हुई यह सत्य-चेतना न-माननेवाली शक्तियोंके, वृत्रोंके, 'वल'के, विद्रोहके कारण फिर उससे अंधकाराच्छन्न हो सकती है । इसलिये ऋषि बृहस्पतिसे प्रार्थना कर रहा है कि तू अपनी आत्म-शक्ति की परिपूर्णताके द्वारा उस संभावित अंधकारा-च्छन्नतासे मेरी रक्षा कर । (देखो, मंत्र दूसरा)
यह सत्य-चेतना उस पराचेतनका मूल आधार है जिसका स्वरूप आनंद है । पराचेतनके परम, परमा परावत्, उपनिषदोंके परम परार्ध किंवा सच्चिदानंदकी सत्तामेंसे ही मानव सत्ता अवतरित हुई है । इसी सर्वोच्च सत्ताकी ओर वे इस भौतिक चेतनासे, अतः, ऊपर उठ जाते हैं, जो पुरातन ऋषियोंकी तरह सत्य-चेतनाका संस्पर्श प्राप्त करते हैं बृहस्पते या परमा परावत् अत आ ते ऋतस्पृशो नि षेदुः । वे इसे अपना धाम और धर, क्षय, ओकस्, बना लेते हैं | क्योंकि भौतिक सत्ताकी पहाड़ीमें आत्माके लिये वे माधुर्यके लबालब भरे कुएँ खुदे हैं जो इस पहाड़ीकी दारुण कठोरता के अंदरसे छिपे पड़े आनंदको निकाल लाते हैं; सत्यका संस्पर्श होने पर शहदकी नदियाँ, अमृत-रसके वेगयुक्त झरने, क्षरित ओर प्रवाहित होने लगते हैं और मानवीय चेतनाके समस्त धरातलपर प्रचुरताकी बाढ़के रूपमें फूट पड़ते हैं, तुभ्यं खाता अवता अद्रिदुग्धा मध्वश्चोतन्ति अभितो विरप्श्म्। (देखो, मंत्र तीसरा) ।
इस प्रकार बृहस्पति सत्य-चेतनाके उस प्रकाशकी बृहत्ताके अंदरसे, उच्च पराचेतनाके उस सर्वोच्च दिव्य धाममें, 'महो ज्योतिष: परमे व्योमन्', देवोंमें सबसे पहले व्यक्त होकर अपने आपको हमारी चेतन सत्ताके पूर्ण सप्तविध रूप (सप्त-आस्य) मे प्रकट करता है, स्थूल भौतिकतासे लेकर विशुद्धतम आध्यात्मिकता तक क्रमबद्ध हुए अपने सातों लोकोंकी अंत-क्रीड़ाके समस्त रूपोंमें अनेक प्रकारसे पैदा (बहुजात) होकर, उनकी उस सप्तविध रश्मिसे, जो हमारे सब उपरिस्तरों तथा समस्त गहनस्तरोंको प्रकाशित करती है, प्रकाशमान होकर प्रकट होता है और अपनी विजयशाली आवाजसे रात्रिकी सब शक्तियोंको, अचेतन के समस्त आक्रमणोंको, सब संभव अंधकारोंको निराकृत तथा छिन्न-भिन्न कर देता है । (देखो, मंत्र चौथा) ।
शब्दकी शक्तियों द्वारा आत्म-शक्तियोंके स्वरतालबद्ध गण द्वारा ही बृहस्पति सबको अभिव्यक्त करता तथा उन सारे अंधकारोंको जो हमें घेरे हुए हैं, दूर करके रात्रिको समाप्त कर देता है । ये (गण) वेदके ''बह्मा' हैं जो शब्दसे, 'ब्रह्य, या 'मन्त्र'से, आविष्ट या पूरित होते हैं, ये वे हैं जो यज्ञमें दिव्य 'ॠक,'को, 'स्तुभ' या स्तोम' को द्यौकी तरफ उठाते हैं । 'ऋक्'
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जिसका संबंध प्रकाश या चमकवाची 'अर्क' शब्दसे है, वह शब्द है जो प्रकाशकारक चेतनामें रहनेवाली सिद्धिदायक शक्ति समझा जाता है; 'स्तुभ्' बह शब्द है जो वह शक्ति समझा जाता हैं जो वस्तुओंके नियमित स्वर-ताल के अंदर स्तुति करती है तथा दृढ़ करती है । जिसे व्यक्त होना है वह चेतनामें साधित, स्तुत और अंततोगत्वा शब्दकी शक्ति द्वारा दृढ़ीकृत होता है । 'ब्रह्मा'गण या ब्राह्मण-शक्तियाँ शब्दके पुरोहित हैं, दिव्य स्वरताल द्वारा रचना करनेवाले हैं । उन्हींकी आवाज द्वारा बृहस्पति 'वल'को टुकड़े- टुकड़े कर देता है ।
जैसे वृत्र वह शत्रु, वह दस्यु है जो चेतन सत्ताके सप्तविध जलोंके प्रवाहको रोक लेता है-अचेतनका मूर्त रूप है, वैसे ही वल वह शत्रु, वह दस्यु है जो अपने बिल, अपनी गुफा (बिलम्, गुहा) मे प्रकाशकी गौओंको रोक लेता हैं; वह अवचेतनका मूर्त रूप है । वल अपने आपमें अंधकारपूर्ण या अचेतन नहीं है, किंतु. अंधकारका कारण है । बल्कि अधिक ठीक तो यह है कि उसके अंदरका पदार्थ प्रकाशवाला है, वलं गोमन्तम् वलं गोवपुषम्, किंतु वह उस प्रकाशको अपने ही अंदर रोक रखता है और उसकी सचेतन अभिव्यक्ति नहीं होने देता । उसे तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर देना आवश्यक होता है, ताकि उसके अंदर छिपी पड़ी ज्योतियाँ मुक्त होकर बाहर आ सकें । उनके छुठकारेको यहाँ इस तौरपर कहा गया है कि बृहस्पति उन ज्योति- ष्मतियोंको, उषाकी गौओंको (उस्त्रिया:) नीचे भौतिकताकी पहाड़ीकी गुफामेंसे छुड़ाकर बाहर निकाल लाता है और उन्हें ऊपर हमारी सत्ताकी ऊँचाइयोंकी तरफ हांक देता है जहाँ पर उनके साथ तथा उनकी सहायतासे हम चढ़ जाते हैं । वह उन्हें पराचेतन ज्ञानकी वाणीसे पुकारता है; वे सचेतन अंतर्ज्ञान (conscious intution) के प्रत्युत्तरके साथ उसका अनुसरण करती हैं । वे अपने गतिक्रममें क्रियाओंको अंतर्वेग प्रदान कर देती हैं जो क्रियाएँ यज्ञकी सामग्रीका रूप धारण करती हैं और देवोंको अर्पितकी जानेवाली हवियाँ बनती हैं और ये भी ऊपर ले जायी जाती रहती हैं जब तक ये उसी दिव्य लक्ष्य तक नहीं पहुँच जातीं । (देखो, मंत्र पांचवां) ।
यह स्वत:प्रकटनशील आत्मा, यह बृहस्पति, पुरुष है, सच वस्तुओंका पिता है; यह विश्वव्यापी देव हैं; यह वृषभ है, उन सब प्रकाशमय शक्तियोंका अधिपति और जनक है जो विकसित (विवर्तित) हैं या अन्तर्निहित (निवर्तित) हैं, जो दिनमें सक्रिय होती हैं या वस्तुओंकी रात्रिमें धुंधले रूपसे कार्य करती हैं, जिनसे यह संभूति या जगत्-सत्ता, 'भुवनम्', बनी है । बृहस्पति नामसे इसी पुरुषके प्रति ऋषि विधिबद्ध यज्ञमें हमसे
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हमारे जीवन (सत्ता) की सभी सामग्रियोंको उस यज्ञिय कर्म द्वारा उत्सर्ग कराना चाह रहा है, जिसमें वे पूजा और समर्पणके साथ भेंटकी गयी, स्वीकारकी जाने योग्य हवियोंके तौर पर उस सर्वात्माके प्रति अर्पित कर दी जाती हैं । यज्ञके द्वारा हम इस देवकी कृपासे जीवनके संग्रामके लिये वीरोचित शक्तिसे भरपूर हो जायंगे, आत्माकी प्रजामें समृद्ध और उन आनंदोंके अधिपति हो जायंगे जो दिव्य प्रकाशमयता तथा सत्य क्रिया द्वारा अधिगत होते हैं । (देखो, मंत्र छठा) ।
क्योंकि आत्माकी शक्ति तथा अतिक्रामक शक्ति उस मनुष्यके अंदर पूर्णताको प्राप्त हो जाती हैं, जो प्रकृतिमें नेत्री-शक्तिके रूपमें आगे लायी जा चुकी इस सचेतन आत्म-शक्ति (बृहस्पति) को अपने अन्दर धारण कर लेता है तथा दृढ़ताके साथ धारण किये रखनेमें समर्थ होता है, जो इस द्वारा आन्तरिक गतियोंकी त्वरित तथा आनंदपूर्ण गति तक पहुँच जाता है, जैसे कि प्राचीन ऋषि पहुँचा करते थे, अपने अंदर प्राणके घोड़ेकी उन जैसीं समस्वरतायुक्त प्लुतगति और वल्गित (दुलक-चाल) को अधिगत कर लेता है, तथा सदैव इस देवको सब परिणतियीं तथा आनदभोगोके प्रथम फल अर्पित करता हुआ, इसकी पूजा करता हैं । उस शक्ति (आत्माकी शक्ति) द्वारा वह उसपर हावी हो जाता है और उस सबपर प्रभुत्व पा लेता है जो जन्मोंमें, लोकोंमें, चेतनाके स्तरोंमें उसके सम्मुख आता हैं-चेतनाके उन स्तरोंमें जो जीवनकी प्रगतिमें उसके अनुभवके आगे खुल पड़ते हैं । वह राजा, सम्राट्, हो जाता है, अपनी जगत्परिस्थितियोंपर शासन करनेवाला हो जाता है । ( देखो, मंत्र सातवाँ) ।
क्योंकि ऐसा ही आत्मा अपने स्वकीय घरमें, सत्य-चेतनामें, असीम अखण्डतामें, एक दृढ़प्रतिष्ठ सत्ताको प्राप्त करता है, और उसके लिये हर समय इडा, सर्वोच्च वाणी, सत्य-चेतनाकी मुख्य शक्ति,-वह इडा जो ज्ञानके अंदर सीधी स्वत:प्रकाशयुक्त दृष्टि (revealing vision) के रूपमें आती है, और उस ज्ञानके अंदर वस्तुसंबन्धी सत्य की क्रिया, परिणाम तथा अनुभूतिकी दृष्टिसे वस्तुसंबंधीं सत्यकी स्वतःस्फुरित अन्तःप्राप्ति बन जाती है,--निरंतर आकार तथा प्राचुर्यमें वृद्धिको प्राप्त होती जती है । उसके प्रति सब प्रजाएँ स्वयमेव नत हो जाती हैं, वे उसके अंदर विद्यमान सत्यके वशवर्ती हो जाती हैं क्योंकि यह सत्य और उन प्रजाओंके अंदर का सत्य एक ही होता है । क्योंकि सचेतन आत्म-शक्ति, जो विराट् रचयित्री तथा साधयित्री है, उसकी सब क्रियाओंमें नेतृत्व करती है; यह (आत्म-शक्ति) उसे सब प्रजाओंके साथ उसके संबंधोंमें सत्यका पथप्रदर्शन प्रदान
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करती है और इसलिये वह एक पूर्ण तथा स्वत:स्फ्रूर्त सिद्धहस्तताके साथ उन (प्रजाओं) पर क्रिया करता है । यही मनुष्यकी आदर्श स्थिति है कि आत्म-शक्ति, बुहस्पति, ब्रह्मा, जो आध्यात्मिक ज्योति तथा आध्यात्मिक मंत्री है, उसका नेतृत्व करे और वह अपने आपको इन्द्र, क्रियाका राज-देवता, अनुभव करता हुआ अपने आपपर तथा अपनी सब प्रजापर उनके सम्मिलित सत्यके अधिकारसे शासन करे । ब्रह्मा राजनि पूर्व एति । (देखो, मंत्र आठवां) ।
यह ब्रह्मा, यह रचनाशील आत्मा, अपने आपको मानव स्वभावके राजत्व (राजापन) मे व्यक्त तथा परिवर्द्धित करनेका यत्न करता है और वह मनुष्य जो प्रकाश तथा शक्तिके उस राजत्व (राजापन) को अधिगत कर लेता और अपने अंदर ब्रह्माके लिये उस सर्वोच्च मानवीय भद्रको रच लेता है, अपने आपको सदा उन सब दिव्य विराट् शक्तियों द्वारा समृद्ध, पालित तथा संवर्द्धित पाता है जो परम सिद्धि-प्राप्तिके लिये कार्य करती हैं । वह आत्माके उन सब धनोंको जीत लेता है जो आत्माके राजा हो जानेके लिये आवश्यक हैं, जो उसके निजी चेतना-स्तरसे संबंध रखते हैं और उसके सम्मुख दूसरे चेतना-स्तरोंसे आकर उपस्थित होते हैं । कोई भी उसकी विजयशालिनी प्रगतिपर आघात या आक्रमण नहीं कर सकता । (देखो, मंत्र नवां ) ।
इस प्रकार इन्द्र और बृहस्पति दो दिव्य शक्तियाँ हैं जिनका हमारे अंदर परिपूर्ण हो जाना तथा सत्यको सचेतनतापूर्वक आत्मसात् कर लेना हमारी पूर्णता-प्राप्तिकी शर्तें हैं । वामदेव उन्हें पुकार रहा हैं कि वे इस महान् यज्ञमें आकर आनंदके रसका पान करें, इसके आनंदोंके मदमें आनंद लें, और आत्माके सार पदार्थ तथा ऐश्वर्योंको प्रचुरताके साथ बरसा दें । यह आवश्यक है कि पराचेतन आनंदकी वे वर्षाएँ आत्म-शक्तिके अंदर प्रविष्ट तथा पूर्ण रूपसे समवस्थित हो जायँ । इस प्रकार एक आनंद रचित हो जायगा, एक नियंत्रित समस्वरता प्राप्त हो जायगी ।- वह समस्वरता उस पूर्ण प्रकृति की सभी शक्तियों तथा क्षमताओंसे परिपूरित होगी जो अपनी तथा अपने लोककी स्वामिनी है । (देखो, मंत्र दसवां) ।
इसलिये बृहस्पति और इन्द्र हमारे अंदर वृद्धिको प्राप्त हो जायं और तब सत्य मनोवृत्तिकी वह अवस्था जिसे वे दोनों मिलकर रचते हें, व्यक्त हो जायगी; क्योंकि वह अन्तिम शर्त है । वे दोनों उदित होते हुए विचारों की पालना करें तथा मानसिक सत्ताकी उन, शक्तियोंको अभिव्यक्तिमें ले आवें जो एक समृद्ध व बहुविध विचारके द्वारा सत्य-चेतनाके प्रकाश तथा
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उसके वेगको पा लेनेमें समर्थ हो जाती हैं । मे शक्तियाँ जो आर्य योद्धापर आक्रमण करती हैं यह चाहती हैं कि उसके अंदर मनकी दरिद्रताओंको तथा आदेशात्मक प्रकृतिकी दरिद्रताओंकौ, सभी असुखोंको, रच दें । आत्म--शक्ति तथा मन:शक्ति एक साथ वृद्धिंगत होकर इस प्रकारको समग्र दरिद्रता तथा अपर्याप्तताको विनष्ट कर देती हैं । ये दोनों मिलकर मनुष्यको उसका राज-पद तथा पूर्ण आधिपत्य प्राप्त करा देती हैं । (देखो, मंत्र ग्यारहवां) |
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