Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
बाईसवां अध्याय
दस्युओंपर विजय
दस्यू आर्य-देवों तथा आर्य-ऋषियों दोनोंके विरोधमें खड़े होते हैं । 'देव पैदा हुए हैं 'अदिति'से वस्तुओंके उच्चतम (परम ) सत्यमें, दस्यु या दानव पैदा हुए हैं 'दिति'से निम्नतर (अवर ) अंधकारमें, देव हैं प्रकाशके अधिपति तथा दस्यु रात्रिके, और पृथिवी, द्यौ तथा मध्यके लोक (शरीर, मन तथा इनको जोड़नेवाले जीवन-प्राण )-इस त्रिविध लोकके आरपार इन दोनोंका आमना-सामना होता है । सूक्त 10.108 में आता है कि सरमा सर्वोच्च लोकसे, पराकात्, उतरती है; उसे 'रसा'के जलोंको पार करना पड़ता है, उसे 'रात्रि' मिलती है जो अपने अतिलंघन किये जानेके भयसे (अतिष्कदो भियसा) उसे स्थान दे देती है; वह दस्युओंके घर पहुंचती है, (दस्योरोको न.. .सदन । 1.104.5 ), जिस घरको स्वयं दस्युओंने ही इस रूपमें वर्णित किया है कि वह 'रेकु पदम् अरलकम्' (10.108.7 ) है, अर्थात् अनृतका लोक जो वस्तुओंकी सीमासे परे है । है तो उच्च लोक भी वस्तुओंकी सीमासे परे गया हुआ. क्योंकि वह इस सीमासे आगे बढ़ा हुआ या इस सीमाको लांघे हुए है; है यह भी ''रेकु पदम्'' पर 'अलकम्' नहीं किंतु 'सत्यम्' है, सत्यका लोक है न कि अनृतका लोक । अनृतका लोक है अंधकार जो कि ज्ञानरहित है (तमो अवयुनं ततन्वत्) । जब इन्द्रकी विशालता बढ़कर द्यौ, पृथिवी और मध्यलोक (अन्तरिक्ष ) को लांघ जाती है (रिरिचे), तब वह (इन्द्र ) आर्यके लिये, इस (अनृतलोक ) के विपरीत, सत्य और ज्ञानके लोक (वयुनवत्) को रचता है, जो ज्ञान और सत्यका लोक इन तीन लोकोंसे परे है और इसलिये 'रेकु पदम्' है । इस अन्धकारको इस अधोलोकको जो रात्रि और निश्चेतन का लोक है (वस्तुओंकी साकार सत्तामें इस रात्रि और अचेतनाको प्रतीकके तौरपर इस रूपमें वर्णित किया गया है कि यह वह पर्वत है जो पृथिवीके अभ्यन्तरसे उठता है और द्यौ के पृष्ठ तक जाता है ) उस गुप्त गुफासे निरूपित किया गया है जो पहाड़ीके अधोभागमें है और जो अन्घकारकी गुफा है ।
पर गफा पणियोंका केवल घर है, पणियोंका क्रिया-क्षेत्र तो है
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पृथिवी, द्यौ और मध्य-लोक । पणि अचेतनाके पुत्र हैं, पर स्वयं अपनी क्रियामें वे पूरे-पूरे अचेतन नहीं हैं; वे प्रतीयमान ज्ञानके रूपों (माया: ) को धारण करते हैं पर ये रूप वस्तुतः अज्ञानके रूप हैं जिनका सत्य अचेतनके अन्धकारमें छिपा हुआ है और इनका उपरितल या अग्रभाग अनृत है, न कि सत्य । क्योंकि संसार जैसा यह हमें दीखता है उस अन्धकारमेंसे निकला है जो अन्धकारमें छिपा हुआ था ( तम आसीत् तमसा गूढम् ), उस गम्भीर तथा अगाध जल-प्रवाहमेंसे निकला है जिसने सब वस्तुओंको आच्छादित कर रखा था, अचेतन समुद्र ( अप्रकेतं सलिलम् ) में से निकला है (देखो 10.129.3 ) ।1 उस असत्के अन्दर द्रष्टाओं ( कवियों ) ने हृदयमें इच्छा करके और मनमें विचारके द्वारा उसे पाया जिससे सत्य सत्ता रचित होती है2। वस्तुओंके सत्यका यह अनस्तित्व ( असत् ) उनका प्रथम रूप है, जो अचेतन समुद्रसे उद्भूत होता है; और इसका महान् अन्धकार ही वैदिक रात्रि है जो 'जगतो निवेशनी' है, जगत्को तथा जगत्की सारी अव्यक्त संभाव्य वस्तुओंको अपने अन्धकारमय हृदय ( वक्ष:स्थल ) में धारण किये हुए है (रात्रिम् जगतो निवेशनीम् ) । यह रात्रि हमारे इस त्रिगुण लोकपर अपना राज्य फैलाती है और इस रात्रिके अन्दरसे द्यौ में, मानसिक सत्तामें उषा पैदा होती है जो उषा सूर्यको अन्धकारमें से छुड़ाती है जहाँ वह छिपा हुआ तथा ग्रहणको प्राप्त हुआ पड़ा था, और जो 'असत्' में, रात्रिमें, परम दिनके साक्षात् दर्शनको रचती है ( असति प्र केतुम् ) । इसलिये इन तीन लोकोंके अन्दर ही प्रकाशके अधिपतियों ( देवों ) तथा अज्ञानके अधिपतियों ( दस्युओं ) के बीच युद्ध चलता है, अपने सतत उतार-चढ़ावोंमेंसे गुजरता हुआ चलता रहता है ।
'पणि शब्दका अर्थ है व्यवहारी, व्यापारी, जो 'पण' धातुसे ( तथा 'पन3 से, तुलना करो तामिल 'पण'-करना और ग्रीक 'पोनोस ( Ponos ) ' --श्रम करना ) बनता है और पणियोंको हम संभवत: यह समझ सकते
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1. तम आसीत्तमसा गळहमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छश्चेनाभ्यपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ।।
2. सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ।। (ॠ. 10.129.4)
3 सायण 'पन' धातुका अर्थ वेदमें 'स्तुति करना' यह लेता है, पर एक स्थान पर उसने
' व्यवहार' अर्थ भी स्वीकार किया है । मुझे प्रतीत होता है कि अधिकांश सन्दर्भोंमें
इसका अर्थ 'क्रिया' है | क्रियार्थक 'पण'से ही, हम देखते हैं, कमेंन्द्रियोंके प्राचीन
नाम बने हैं. जैसे 'पाणि' अर्थात् हाथ, पैर या खुर, लैटिन पेनिस (Penis), इसके साथ
पायु'की भी तुलना कर सकते हैं ।
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हैं कि ये वे शक्तियाँ हैं जो जीवनकी उन सामान्य अप्रकाशमान इन्द्रिय-क्रियाओंकी अधिष्ठात्रियां हैं जिनका सीधा मूल अन्धकारमय अवचेतन भौतिक सत्तामें होता है, न कि दिव्य मनमें । मनुष्यका सारा संघर्ष इसके लिये है कि वह इस क्रियाको हटाकर इसके स्थानपर मन और प्राणकी प्रकाशयुक्त दिव्य क्रिया ले आये जो ऊपरसे और मानसिक सत्ताके द्वारा आती है । जो कोई इस प्रकारकी अभीप्सा रखता है, इसके लिये यत्न करता है, युद्ध करता है, यात्रा करता है, जीवनकी पहाड़ीपर आरोहण करता है, वह है आर्य ( आर्य, अर्य, अरिके अनेक अर्थ हैं श्रम करने, लड़ने, चढ़ने या उदय होने, यात्रा करने, यज्ञ रचनेवाला ) । आर्यका कर्म है यज्ञ, जो एक साथ एक युद्ध और एक आरोहण तथा एक यात्रा है, एक युद्ध है अन्धकारकी शक्तियोंके विरुद्ध, एक आरोहण है पर्वतकी उन उच्चतम चोटियोंपर जो द्यावापृथिवीसे परे 'स्वः'के अन्दर चली गयी हैं, एक यात्रा है नदियों तथा समुद्रके परले पारकी, वस्तुओंकी सुदूरतम असीमताके अन्दर । आर्यमें इस कर्मके लिये संकल्प होता है, वह इस कर्मका कर्ता ( कारु, किरि इत्यादि ) है, देव जो उसके कर्ममें अपना बल प्रदान करते है 'सुक्रतु' .हैं, यज्ञके लिये अपेक्षित शक्तिमें पूर्ण है; दस्यु या पणि इन दोनोंसे विपरीत है, वह ' अक्रतु' है । आर्य है यज्ञकर्ता 'यजमान, 'यज्यु'; देव जो उसके यज्ञको ग्रहण करते हैं, धारण करते हैं, प्रेरित करते हैं, 'यजत', 'यजत्र' है, यज्ञकी शक्तियाँ हैं; दस्यु इन दोनोंसे विपरीत है, वह 'अयज्यु' है ।
आर्य यज्ञमें दिव्य शब्द, गीः, मन्त्र, ब्रह्म, उक्यको प्राप्त करता है, वह ब्रह्या अर्थात् शब्दका गायक है; देव शब्दमें आनन्द लेते हैं और शब्दको धारित करते हैं ( गिर्वाहसः, गिर्वणसः ) । दस्यु शब्दसे द्वेष करनेवाले और उसके विनाशक हैं ( ब्रह्यद्विष: ), वाणीको दूषित या विकृत करनेवाले हैं (मृघ्रवचस: ) । दस्युओंके पास दिव्य प्राणकी शक्ति नहीं है या मुख नहीं है जिससे वे शब्द बोल सकें, वे अनास: ( 5 .29. 10 ) हैं; और उनके पास शब्दको तथा शब्दके अन्दर जो सत्य रहता है उसे विचारनेकी, मनोमय करनेकी शक्ति नहीं है, वै 'अमन्यमानाः' हैं, पर आर्य शब्दके विचारक हैं, 'मन्यमानाः' हैं, विचारको, विचारशील मनको और द्रष्टा-ज्ञानको धारण करनेवाले, 'धीर, मनीषी, कवि' हैं; साथ ही देव भी विचारके अत्युच्च विचारक हैं (प्रथमो मनोता धीय:, काव्य: ) । आर्य देवत्वोंके इच्छुक ( देवयुः, उशिज: ) हैं, वे यज्ञ द्वारा, शब्द द्वारा, विचार द्वारा, अपनी सत्ताको तथा अपने अन्दरके देवत्वोंको वृद्धिगत करना चाहते हैं । दस्यु हैं देवोंके द्वेषी देवद्विष:, देवत्वके बाघक (देवनिद:), जो किसी प्रकारकी
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भी वृद्धि नहीं चाहते (अवृधः ) । 'देव' आर्यपर ऐश्वर्य बरसाते हैं, आर्य अपना ऐश्वर्य देवोंको देता है, दस्यु अपनी दौलतको आर्यके पास जानेसे रोकता है जबतक कि वह उससे जबर्दस्ती छीन ही नहीं ली जाती, और वह देवोंके लिये अमृतरूप सोम-रसको नहीं निचोड़ता जो देव इस सोमके आनंदको मनुष्यके अन्दर पैदा करना चाहते हैं; यद्यपि वह 'रेवान्' है, यद्यपि उसकी गुफा गौओं, घोड़ों और खजानोंसे भरी पडी है (गोभिरश्वेभिर्वसुभिनर्यृष्टम् ), तो भी वह अराधस् है, क्योंकि उसकी दौलत मनुष्यको या स्वयं उसे किसी प्रकारकी समृद्धि या आनन्द नहीं देती--पणि सत्ताका कृपण है । और आर्य तथा दस्युके बीच संधर्षमें पणि सदा आर्यकी प्रकाशमान गौओंको लूट लेना और नष्ट कर देना, चुरा लेना तथा उन्हें फिरसे गुफाके अंधकारमें छिपा देना चाहता है । ''भक्षकको, पणिको, मार डालो; क्योंकि वह भेड़िया है (विदारक, 'वृक' है ) ।"1
यह स्पष्ट है कि ये वर्णन आसानीके साथ मानवीय शत्रुओंकी ओर भी लगाये जा सकते हैं और यह कहा जा सकता है कि दस्यु या पणि मानवीय शत्रु थे जो आर्यके संप्रदायसे तथा उसके देवोंसे द्वेष किया करते थे, पर हम देखेंगे कि इस प्रकारकी कोई व्याख्या बिल्कुल असंभव है, क्योंकि सूक्त 1.33 में जहाँ ये विभेद अत्यधिक स्पष्टताके साथ चित्रित किये गये हैं और जहाँ इन्द्र तथा उसके मानवीय सखाओंका दस्युओंके साथ युद्ध अत्यन्त यत्नपूर्वक वर्णित किया गया है, यह संभव नहीं है कि ये दस्यु, पणि और वृत्र मानवीय योद्धा, मानवीय जातियाँ या मानवीय लुटेरे हो सकें । हिरण्यस्तूप आंगिरसके इस सूक्तमें पहिली दस ऋचाएँ स्पष्टतया गौओंके लिये होनेवाले युद्धके विषयमें हैं और अतएव पणियोके विषयमें हैं ।
''एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमर्ति वावृधाति ।
अनामृण: कुविदादस्य रायो गवां केतं परमायर्जते न: ।। ( 1.33.1 )
आओ, गौओंकी इच्छा रखते हुए हम इन्द्रके पास चलें; क्योंकि वही हमारे अंदर विचारको प्रवृद्ध करता है; वह अजेय है और उसकी सुख-समृद्धियाँ (राय: ) पूर्ण हैं वह प्रकाशमान गौओंके उत्कष्ट ज्ञानन्दर्शनको हमारे लिये मुक्त कर देता है (उसे अंधकारसे जुदा कर देता है) । गवां केतं परमावर्जते न: (ऋचा 1 ) ।
उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि ।
इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरर्कै र्य: स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ।। ( 1. 33. 2 )
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1. जहो न्यत्रिणं पर्णि वृको हि षः ।। (6. 51. 14 )
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मैं अघर्षणीय ऐश्वर्यप्रदाता (इन्द्र ) की ओर शीघ्रतासे जाता हूँ, जैसे कोई पक्षी अपने प्यारे घोंसलेकी ओर उड़कर जाता है, प्रकाशके परम शब्दोंके साथ इन्द्रके प्रति नत होता हुआ, उस इन्द्रके प्रति जो अपने स्तोताओं द्वारा अपनी यात्रामें अवश्य पुकारा जाता है ( नत होता हुआ उसकी ओर जाता हूँ ) ( ऋचा 2 ) ।
नि सर्वसेन इषुर्धी रसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि ।
चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वाम मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ।। ( 1. 33. 3 )
वह ( इन्द्र ) अपनी सब सेनाओंके साथ आता है और उसने अपने तूणीरोंको दृढ़तासे बाँध रखा है; वह योद्धा है ( आर्य है ) जो, जिसके लिये वह चाहता है, गौएँ ला देता है । ( हमारे शब्द द्वारा ) प्रवृद्ध हुए ओ इन्द्र ! अपने प्रचुर आनंदको हमसे अपने लिये मत रोक रख, हमारे अंदर पणि मत बन । चोक्यूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ( ऋचा 3 ) ।"
यह अंतका वाक्यांश सहसा ध्यान खीचनेवाला है । पर प्रचलित व्याख्यामें इसे यह अर्थ देकर कि ''हमारे लिये तू कृपण मत हो'' इसके वास्तविक बलको खो दिया गया है । इस अर्थसे यह तथ्य ध्यानमें नही आता कि पणि दौलतके अवरोधक हैं, वे दौलतको अपने लिये रख लेते हैं और इस दौलतको न वे देवको देते हैं न ही मनुष्यको । इस वाक्यांशका अभिप्राय स्पष्टत: यही है कि ''आनंदकी अपनी भरपूर दौलत रखता हुआ तू पणि मत बन, अर्थात् ऐसा मत बन जैसा पणि होता है कि वह अपने हाथमें आयी दौलतोंको केवल अपने ही लिये रखता है और मनुष्यके पास जानेसे बचाता है; अभिप्राय हुआ कि आनंदको हमसे दूर छिपाकर अपनी पराचेतन गुहामें मत रख जैसे पणि अपनी अवचेतन गुफामें रखे रखता है ।''
इसके बाद सूक्त पणिका, दस्युका तथा पृथिवी और द्यौको अधिगत करनेके लिये उस पणि या दस्युके साथ इन्द्रके युद्धका वर्णन करता. है ।
''वधीर्हि दस्युं धनिनं धनेन एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र ।
धनोरधि विषुणक् ते व्यायन्नयज्यानः सनका: प्रेतिमीयुः । । ( 1. 33. 4 )
वरंच, अपनी उन शक्तियोंके साथ जो तेरा कार्य सिद्ध करती हैं एकाकी विचरता हुआ तू, हे इन्द्र ! अपने वज्र द्वारा दौलतसे भरे दस्युका वध कर डालता है; वे ( बाणरूप शक्तियाँ ) जो तेरे धनुषपर चढ़ी हुई थीं पृथक्-पृथक् सब दिशाओंमें तेजीसे गयीं और वे जो ऐश्वर्यवाले होते हुए भी यज्ञ नहीं करते थे अपनी मौत मारे गये 1 ( ॠचा 4 )
परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्राऽयज्यानो यज्यभि: स्पर्धमाना ।
प्र यद् दिवो हरिवः स्थातरुग्र निरव्रर्ता अधमो रोदस्यो: । (।1. 33. 5)
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वे जों स्वयं यज्ञ नहीं करते थे और यज्ञकर्ताओंसे स्पर्धा करते थे, उनके सिर उनसे अलग होकर दूर जा पड़े, जब कि, ओ चमकीले घोड़ोंके स्वामिन् ! ओ द्यौमें दृढ़तासे स्थित होनेवाले ! तूने द्यावापृथिवीसे उन्हें बाहर निकाला जो तेरी क्रियाके नियमका पालन नहीं करते (अव्रतान् ) । ( ॠचा 5 )
अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्या: ।
वृषायुधो न वध्रयो निरष्टा: प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन् ।। ( 1.33.6 )
उन्होंने निर्दोष ( इन्द्र ) की सेनासे युद्ध ठाना था; नवग्वाओंने उस ( इन्द्र ) को प्रयाणमें प्रवृत्त किया; उन बधिया बैलोंकी तरह जो साँड़ ( वृषा ) से लड़ते हैं वे बाहर निकाल दिये गये, वे जान गये कि इन्द्र क्या है और ढलानोंसे उसके पाससे नीचे भाग आये । ( ऋचा 6 )
त्यमेतान् रुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे ।
अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वत: स्तुवतुः शंसमावः ।। ( 1. 33.7 )
ओ इन्द्र ! तूने उनसे युद्ध किया जो मध्यलोकके परले किनारेपर ( रजस: पारे, अर्थात् द्यौके सिरेपर ) हँस रहे थे और रो रहे थे, तूने उच्च द्यौसे दस्युको बाहर निकालकर जला डाला, तूने उसके कथनकी पालना की जो तेरी स्तुति करता है और सोम अर्पित करता है । ( ऋचा 7. )
चक्राणास: परीणहं पृथिव्याः हिरण्येन मणिना शुम्भमाना: ।
न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात् सूर्येण ।। ( 1.33.8 )
पृथिवीके चारों ओर चक्र बनाते हुए वे सुनहरी मणि ( 'मणि' यह सूर्यके लिये एक प्रतीक-शब्द है ) के प्रकाशमें चमकने लगे; पर अपनी सारी दौड़-धूप करते हुए भी वे इन्द्रको लाँघकर आगे नहीं जा सके, क्योंकि उस ( इन्द्र ) ने सूर्य द्वारा चारों तरफ गुप्तचर बैठा रखे थे । ( ऋचा 8 )
परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजी र्महिना विश्वत: सीम् ।
अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्व ।। ( 1. 33. 9 )
जब तूने द्यावापृथिवीको चारों तरफ अपनी महत्तासे व्याप्त कर लिया तब जो ( सत्यको ) नहीं विचार सकते उनपर विचार करनेवालों द्वारा आक्रमण करके ( अमन्यमानान् अभि मन्यमानै: ) तूने ओ इन्द्र ! शब्दके वक्ताओं द्वारा ( ब्रह्मभि: ) दस्युको बाहर निकाल दिया । ( ऋचा 9 )
न ये दिव: पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् ।
युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ।। ( 1. 33.10 )
उन्होंने द्यौ और पृथिवीके अंतको नहीं पाया और वे अपनी मायाओसे ऐश्वर्यप्रदाता (इन्द्र) को पराजित नहीं कर सके; वषभ इन्द्रने वज्रको
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अपना सहायक बनाया, प्रकाश द्वारा उसने जगमगाती गौओंको अंधकारमेंसे दुह लिया ।'' (ऋचा 10 )
यह युद्ध पृथिवीपर नहीं, किंतु अन्तरिक्षके परले किनारेपर होता है, दस्यु वज्रकी ज्वालाओं द्वारा द्यौसे बाहर निकाल दिये जाते हैं, वे पृथिवीका चक्कर काटते हैं और द्यौ तथा पृथिवी दोनोंसे बाहर निकाल दिये जाते हैं; क्योंकि वे द्यौमें या पृथिवीमें कहीं भी जगह नहीं पा सकते, क्योंकि द्यावापृथिवी सारा-का-सारा अब इन्द्रकी महत्तासे व्याप्त हो गया है, न ही वे इन्द्रके वज्रोंसे बचकर कहीं छिप सकते हैं; क्योंकि सूर्य अपनी किरणोंसे इन्द्रको गुप्तचर दे देता है और उन गुप्तचरोंको वह इन्द्र चारों तरफ नियुक्त कर देता है, और उन किरणोंकी चमकमें पणि ढूंढ़ लिये जाते हैं । यह आर्य तथा द्राविड़ जातियोंके बीच हुए किसी पार्थिव युद्धका वर्णन नहीं हो सकता; न यह वज्र ही भौतिक वज्र हो सकता हैं, क्योंकि भौतिक वज्रका तो रात्रिकी शक्तियोंके विनाशसे तथा अंघकारमेंसे उषाकी गौओंके दुहे जानेसे कोई संबंध नहीं है । तब यह स्पष्ट है कि ये यज्ञ न करने-वाले, ये शब्दके द्वेषी जो इसके विचारनेतकमे असमर्थ हैं, कोई आर्य संप्रदायके मानवीय शत्रु नहीं है । ये तो वे शक्तियाँ है जो स्वयं मनुष्यके ही अंदर द्यौ तथा पृथिवीको अधिगत करनेका प्रयत्न करती हैं । ये दानव हैं, द्रविड़ नहीं ।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि वे शक्तियाँ ''पृथिवी तथा द्यौकी सीमा (अंत )''को पानेका यत्न तो करती हैं, पर पानेमें असफल रहती हैं; हम अनुमान कर सकते हैं कि ये शक्तियाँ पृथिवी तथा द्यौसे परे स्थित उस उच्चतर लोकको जो केवल शब्द और यज्ञद्वारा ही जीता जा सकता है, शब्द या यज्ञके बिना ही अधिगत कर लेना चाहती हैं । वे अज्ञानके नियमसे शासित होकर सत्यको अधिगत करना चाहती हैं; पर पृथिवी या द्यौकी सीमाको पानेमें असमर्थ रहती हैं; केवल इन्द्र और देव ही इस प्रकार मन, प्राण और शरीरके विधि-नियमको पार करके आगे जा सकते हैं, जब कि पहले वे इन तीनोंको अपनी महत्तासे परिपूर्ण कर लेते है । सरमा ( 10.108.6 में ) पणियोंकी इसी महत्त्वाकांक्षाकी तरफ संकेत कर रही प्रतीत होती है--''हे पणियो ! तुम्हारे वचन कुछ भी प्राप्त करनेमें असमर्थ रहें, तुम्हारे शरीर पापी और अशुभ हों; अपने चलनेके लिये तुम मार्गको पद-दलित न कर सको; वृहस्पति तुम्हें (दिव्य तथा मानुष ) दोनों लोकोंके सुखको न दे ।"1
1. असेन्या व: पणयो वचांसि अनिषव्यास्तन्व: सन्तु पापी: ।
अधृष्टो व एतवा अस्तु पनथाः, बुहस्पतिर्य उभया न मृळात् ।। ( 10.108.6 )
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पणि सचमुच गर्वके मदमें यह प्रस्ताव रखते है कि 'हम इन्द्रके मित्र हो जायंगे, यदि वह हमारी गुफा में आ जायगा और हमारी गौओंका रखवाला बन जायगा ।'1 इसका सरमा यह उत्तर देती है कि 'इन्द्र तो सबको पराजित करनेवाला है, स्वयं वह पराजित तथा पीड़ित नहीं हो सकता ।2 और फिर पणि सरमासे यह प्रस्ताव करते हैं कि 'हम तुझे बहिन बना लेंगे यदि तू हमारे साथ रहने लगेगी और उस सुदूर लोकको नहीं लौटेगी जहाँसे तू देवोंकी शक्ति द्वारा सब बाधाओंका मुकाबला करके (प्रबाधिता सहसा दैव्येन) आयी है ।'3 सरमा उत्तर देती है, ''न मैं भाईपनेको जानती हूँ, न बहिनपनेको, इन्द्र और घोर अगिरस् जानें; गौओंकी कामना करते हुए उन्होंने मेरा पालन किया है, इसलिये मैं आयी हूँ; चले जाओ यहाँसे, ओ पणियो ! किसी प्रशस्त स्थानको (मंत्र 10 ) । यहाँसे कहीं दूर प्रशस्त स्थानको चले जाओ, ओ पणिओ! गौएँ जिन्हें तुमने बन्द कर रखा है सत्य द्वारा ऊपर चली जायं, वे छिपी हुई गौएं जिन्हें बृहस्पतिने ढूंढ़ा है और सोमने व अभिषवके पत्थरों (ग्रावाण: ) ने तथा प्रकाशयुक्त द्रष्टाओंने (ढूंढ़ा है ) ।', (मंत्र 11 ) 4
सूक्त 6.53 में, जो कि पुष्टिकर्ता पूषाके नामसे सूर्यको संबोधित किया गया एक सूक्त है, हम यह विचार-भी पाते हैं कि पणि स्वेच्छासे अपना खजाना दे दें ।
''वयमु त्वा पथस्पते रथं न वाजसातये । धिये पूषन्नयुज्यहि ।। (ऋ.6.53.1 )
हे मार्गके अधिपति पूषन् ! हम ऐश्वयोंको प्राप्त करनेके लिये, विचार के लिये, रथकी न्याई तुझे नियुक्त करते हैं । (मंत्र 1 )
अदित्सन्तं चिदाधृणे पूषन् दानाय चोदय ।
पणेश्चिद् वि म्रदा मन: ।। (6. 53.3 )
हे प्रकाशमान पूषन् ! उस पणिको भी जो देता नहीं है तू देनेके लिये प्रेरित कर; पणिके भी मनको तू मदु कर दे । (मंत्र 3 )
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1. आ च गच्छान् मित्रमेना दधाम, अथा गवां गोपतिर्नो भवाति । (3 )
2. नाहं तं वेद दभ्यं दभत् स:, यस्येदं दूतीरसरं पराकात् । (4 )
3. एवा च त्वं सरम आ जगन्थ प्रबाधिता सहसा दैव्येन ।
स्वसारं त्वा कृणवै मा पुनर्गा अप ते गवां सुभगे भजाम ।। (10.108.9 )
4. नाहं देव भ्रातूत्वं नो स्वसृत्वमिन्द्रो विदुरङिरसश्च धोरा: ।
गोकामा मे अच्छदयन् यदायमपात हत पणयो वरीय: ।। (10.108.10)
दूरमित पणयो वरीय उद्गावो यन्तु मिनतीर्ॠतेन ।
बुहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळहा: सोमो ग्रावाण ऋषयश्च षिप्रा: ।। (10.108.1 1 )
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वि पथो वाजसातये चिनुहि वि मृधो जहि । साधुन्तामुग्रू नो धियः।। ( 6.53.4 )
उन मार्गोंको तू चुनकर पृथक् करदे जो मार्ग ऐश्वर्योंको प्राप्त करानेके लिये हैं, आक्रान्ताओंका वधकर डाल, हमारे विचार पूर्णताको प्राप्त हो जावें । (मंत्र 4)
परि तृन्धि पणीनामारया हृदया कवे । अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। (6.53.5 )
हे द्रष्ट ! अपने अंकुशसे पणियोंके हृदयोंको विद्ध कर; इस प्रकार उन्हें हमारे वश कर दे । (मंत्र 5 )
वि पूषन्नारया तुद पणेरिच्छ हृदि प्रियम् । अथेमस्मभ्यं रन्धय ।। (6.53.6 )
अपने अंकुशसे, हे पूषन् ! तू उनपर प्रहारकर और पणिके हृदयमें हमारे आनंदकी इच्छाकर, इस प्रकार उसे हमारे वश कर दे । (मंत्र 6)
यां पूषन् ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याधृणे ।
तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ।। (6.53.8 )
जिस ऐसे अंकुशको तू धारण करता है जो शब्दको उठनेके लिये प्रेरित करनेवाला है उससे, हे प्रकाशमान पूषन् ! तू सबके हृदयोंपर अपना लेख लिख दे और उन हृदयोंको छितरा हुआ कर दे, (इस प्रकार उन्हें हमारे वश कर दे ) । (मंत्र 8 )
या ते अष्ट्रा गोओपशाऽऽघृणे पशुसाधनी ।
तस्यास्ते सुम्नमीमहे ।। (6.53.9 )
जो तेरा अंकुश ऐसा है जिसमें तेरी किरण नोकका काम करती है और जो पशुओंको पूर्ण बनानेवाला है (अभिप्राय है, ज्ञान-दर्शनके पशुओंको, पशु-साधनी, तुलना करो चतुर्थ ऋचामें आये ''साधन्तां धियः''से ) उस (अंकुश ) का आनंद हम चाहते. हैं । (मंत्र 9 )
उस नो गोषणि षियमंश्वसा वाजसामुत ।
नृवत् कृणुहि वीतये ।। (6.53.10 )
हमारे लिये उस विचारको रच, जो गौको जीत लेनेवाला है, जो घोड़ेको जीत लेनेवाला है और जो दौलतकी पूर्णताको जीत लेनेवाला है ।'' (मंत्र 10 )
पणियोंके इस प्रतीककी हमने जो व्याख्याकी है यदि वह ठीक है तब इस सूक्तमें वर्णित विचार पर्याप्त रूपसे सभझमें आ सकते हैं और इसके लिये ऐसी आवश्यकता नहीं है, जैसा कि सायण ने किया है, कि पणि शब्दमें जो सामान्य आशय अन्तर्निहित है उसे अलगकर .दिया जाय और पणिका अर्थ केवल 'कृपण, लुब्ध मनुष्य' इतना ही समझा जाय और यह समझा जाय कि इस कृपणके ही संबधमें भूखसे मारा हुआ कवि इस प्रकार दीनतापूर्वक सूर्य-देवतासे प्रार्थना कर रहा है कि तू इसे मदु करदे और देनेवाला बना दे ।
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वैदिक विचार यह था कि अवचेतन अंधकारके अंदर तथा सामान्य अज्ञानके जीवनमें वे सब ऐश्वर्य छिपे पड़े हैं जो दिव्य जीवनसे संबंध रखते हैं और इन गुप्त ऐश्वर्योंका फिरसे प्राप्त किया जाना आवश्यक है और उसका उपाय यह है कि पहले तो अज्ञानकी अनुतापरहित शक्तियोंका विनाश किया जाय और फिर निम्न जीवनको उच्च जीवनके अधीन किया जाय ।
इन्द्रके संबंधमें, जैसा कि हम देख चुके हैं, यह कहा गया है कि वह दस्युका या तो वधकर देता है या उसे जीत लेता है और उसकी दौलत आर्यको दिलवा देता है । इसी प्रकार सरमा भी पणियोंके साथ बंधुत्व कायमकर संधिकर लेनेसे इन्कार कर देती है, बल्कि उन्हें यह सलाह देती है कि तुम अपने-आपको समर्पणकर दो और देवों तथा आर्योंके आगे झुक जाओ, और कैदकी हुई गौओंको ऊपर आरोहण करनेके लिये छोड़ दो और तुम स्वयं इस अंधकारको छोड़कर किसी प्रशस्त स्थानको चले जाओ (आ वरीय: ) । और प्रकाशमान द्रष्टा, सत्यके अधिपति पूषाके अंकुशके अविरत स्पर्शसे ही पणिका हृदय-परिवर्तन होता है--उस अंकुशके जो बन्द हृदयको भग्नकर खोल देता है और इसकी गहराइयोंसे पवित्र शब्दको उठने देता है, उस चमकीली नोकवाले अंकुशके जो जगमगाती गौओंको पूर्ण बनाता है, प्रकाशमान विचारोंको सिद्ध करता है; तब सत्यका देवता इस पणिके अंधकारपूर्ण हृदयमें भी उसीकी इंच्छा करने लगता है जिसकी आर्य इच्छा करता है । इस प्रक्रार प्रकाश तथा सत्यकी इस गहराई तक पहुंचनेवाली क्रिया द्वारा ही सामान्य अज्ञानमय इन्द्रिय-क्रियाकी शक्तियां आर्यके वशमें हो जाती हैं ।
परंतु साधारणत: पणि आर्यके शत्रु, दास हैं । 'दास' अधीनता या सेवाके अर्थमें नहीं बल्कि विनाश या क्षतिके अर्थमें (दासका अर्थ सेवक भी है जब कि वह करणार्थक 'दस्'से बनता है; 'दास' या 'दस्यु'का दूसरा अर्थ है शत्रु, लुटेरा और यह उस 'दस्' धातुसे बनता है जिसका अर्थ है विभक्त करना, चोट मारना, क्षति पहुंचाना; पणि आर्यके दास इस दूसरे अर्थमें ही है ) । पणि लुटेरा है प्रकाशकी गौओंको, वेगके घोड़ोंको और दिव्य ऐश्वर्यके खजानोंको बलपूर्वक छीन ले जाता है, वह भेड़िया है, भक्षक है, 'वृक' है, 'अत्रि' है; वह शब्दको बाधा डालकर रोकनेवाला (निद् ) और शब्दको विकृत करनेवाला है । वह शत्रु है, चोर है, झूठा या बुरा विचार करनेवाला है जो अपनी लूटमारोंसे और बाधाओंसे मार्गको दुर्गम बना देता है; ''शत्रुको, चोरको, कुटिलको जो कि विचारको झूठे रूपमें स्थापित करता है, हमसे बहुत दूर, बिलकुल परे कर दे; हे सत्ताके पति ! हमारे मार्गको
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आसान यात्रावाला कर दे ।..... .पणिका वध कर दे, क्योंकि वह एक ऐसा भेड़िया है जो खा जानेवाला है''1 (6.51.13-14 ) ।
यह आवश्यक है कि उसका आक्रमणके लिये उठना देवोंके द्वारा रोका जाय । ''इस देव (सोम)ने जन्म पाकर, सहायकके रूपमें इन्द्रको साथ लेकर बलके प्रयोगसे पणिको रोक दिया''2 (6.44.22 ) और स्वःको, सूर्यको तथा सब ऐश्वर्योंको जीत लिया । पणियोंको मार डालना या भगा देना अभीष्ट है जिससे उनके ऐश्वर्य उनसे छीनकर उच्चतर जीवनको समर्पित किये जा सकें । ''तू जिसने पणिको लगातार भिन्न-भिन्न श्रेणियोंमें विभक्त-कर दिया, तेरे ही ये जबर्दस्त दान हैं, हे सरस्वति । सरस्वति ! देवोंके बाधकोंको कुचल डाल''3 (6.6। ) । ''हे अग्नि और सोम ! तब तुम्हारी शक्ति जागृत हुई थी जब कि तुमने पणिके पाससे गौएं लूटी थीं और बहुतोंके लिये एक ज्योतिको पा लिया था ।''4 (1.93.4 )
जब देव यज्ञके लिये उषामें जागृत होते हैं तब कहीं ऐसा न हो कि पणि भी यज्ञकी सफल प्रगतिमें बाधा डालनेके लिये जाग उठे, सो उन्हें अपनी गुफाके अन्धकारमें सोये पड़े रहने दो । ''हे ऐश्वर्योंकी सम्राज्ञी उष: ! उन्हें तू जगा दे जो हमें परिपूर्ण करते हैं (अर्थात् जो देव हैं ), पर पणियोंको न जगाते हुए सोये पड़े रहने दे । ऐ ऐश्वर्योंकी सम्राज्ञी ! ऐश्वर्यके अधिपतियोंके लिये तू ऐश्वर्योंको साथ लेकर उदित हो, हे सत्यमयी उषः ! उसके लिये तू ऐश्वर्योंको साथ लेकर (उदित ) हो जो तेरा स्तोता है । यौवनमें भरी हुई वह (उषा ) हमारे आगे चमक रही है, उसने अरुण गौओंके समूहको रच लिया है, असत्में साक्षात् दर्शन विशाल रूपमें उदित हो गया है,''5
1- अप त्यं वृजिनं रिपुं स्तेनमग्ने दुराध्यम् । दविष्ठमस्य सत्पते कृधी सुगम् ।।
...... जही न्यत्रिणं पणिं वृको हि षः: ।। (6.51.13-14)
2. ''अयं देव: सहसा जायमान इन्देण युजा पणिमस्तभायत् ।'' (6.44.22 )
3. या शश्वन्तमाचखादावसं पर्णि ता ते दात्राणि तविषा सरस्वति ।
सरस्वति देवनिदो निबर्हय ।। (6.61.1, 3 )
4. अग्नीषोमा चेति तद् वीर्य वां यदमुष्णीतमवसं पर्णि गा: ।
(अवातिरत बृसयस्य शेष: ) अविन्दतं ज्योतिरेकं बइम्ब: ।। (1.93.4)
5. प्र बोधयोषः. पुणतो मघोन्यबुध्यमानाः पणयः ससन्तु ।
रेवदुच्छ मदवभ्यो मघोनि रेवत् स्तोत्रे सूनृते जारयन्ती ।।10|।
अवेमश्वैद् युवति: पुरस्ताद् युङ्गक्ते गवामरुणानामनीकम् ।
वि नूनमुच्छादसति प्र केतु (र्गृहं गुहमुप तिष्ठाते अग्नि: ) ।। (ऋ. 1.124)
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( 1.124.10-11 ) । या फिर इसी बातको 4.51 में देख सकते हैं--''देखो, हमारे आगे वह ज्ञानसे परिपूर्ण श्रेष्ठतम प्रकाश अन्धकारमेंसे उदित हो गया है, द्यौकी पुत्रियां विशाल रूपमें चमक रही हैं, इन उषाओंने मनुष्यके लिये मार्ग रच दिया है ( मन्त्र 1 ) । उषाएं हमारे आगे खड़ी हुई हैं जैसे कि यज्ञोंमें स्तम्भ; विशुद्ध रूपमें उदित होती हुई और पवित्र करनेवाली उन ( उषाओं ) ने बाड़ेके, अन्धकारके द्वारोंको खोल दिया है ( मन्त्र 2 ) । आज उदित होती हुई उषाएं सुख-भोक्ताओंको समृद्ध आनन्द देनेके लिये ज्ञानमें जागृत कर रही हैं, अन्धकारके मध्यमें जहां प्रकाश क्रीडा नहीं करता पणि न जागते हुए सोये पड़े रहें ( मन्त्र 3 ) ।''1 इसी निम्न अन्धकारक अन्दर वे पणि उच्च लोकोंसे निकालकर डाल दिये जाने चाहियें और उषाओंको जिन्हें पणियोंने उस रात्रिमें कैद कर रखा है चढ़ाकर सर्वोच्च लोकोंमें पहुंचा देना चाहिये । इसलिये वेदमें कहा है-
''न्यक्रतून् ग्रथिनो मृध्रवाच: पर्णी रश्रद्धाँ अवृधां अयज्ञान् ।
प्रप्र तान् दस्यूँरग्निर्विवाय पुर्वस्चकारापरां अयज्यून् ।। ( 7.6.3 )
जो पणि कुटिलताकी गांठ पैदा करनेवाले हैं, जो कर्मोंको करनेका संकल्प नहीं रखते, जो वाणीको विकृत करनेवाले हैं, जो श्रद्धा नहीं रखते, जो वृद्धिको नहीं प्राप्त होते, जो यज्ञ नहीं करते, उन पणियोंको अग्निने दूर, बहुत दूर खदेड़ दिया; उस पूर्व अर्थात् प्रकृष्ट या उच्च ( अग्नि ) ने जो यज्ञ नहीं करना चाहते उन ( पणियों ) को सबसे नीचे, अपर, कर दिया ।।3 ।।
यो अपाचीने तमसि मदन्ती: प्राचीश्चकार नृतम: शचीभि :... ।
और उनको ( गौओंको; उषाओंको ) जो निम्न अन्धकारमें आनन्द ल रही थीं, अपनी शक्तियोंसे उस नृतम ( अग्नि ) ने सर्वोच्च ( लोक ) की तरफ प्रेरित कर दिया ।।4 ।।
यो देह्यो अनमयद् वधस्नैर्यो अर्यपत्नीरुषसश्चकार ।
उसने अपने आघातोंसे उन दीवारोंको जो सीमित करनेवाली थीं तोड़ गिराया, उसने उषाओंको आर्यकी सहचारिणी, अर्यपत्नी कर दिया ।।5।।''
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1. इदमु त्यत् पुरुतमं पुरस्ताज्ज्योतिस्तमसो वयुनावदस्थात् ।
नूनं दिवो दुहितरो विभातीर्गातु कृंणवन्नुषसो जनाय ।।
अस्थुरु चित्रा उषस : पुरस्तान्मिता इव स्यरवोडध्वरेषु ।
व्यु व्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीव्रच्छुचय: पादका: ।।
उच्छन्तीरद्य चितयन्त भोजान् राधोदेयेयायोषसो मधोनी: ।
अचित्रे अन्त: पणय: ससन्त्वबुध्यमानास्तमसो विमध्ये ।। (4.5 1.1 -3 )
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नदियां और उषाएं जब 'वृत्र' या 'वल'के कब्जेमें होती है तब वे 'दासपत्नी' कही गयी है देवोंकी क्रिया द्वारा वे 'अर्यपत्नी बन जाती हैं आर्यकी सह-चारिणी हो जाती हैं ।
अज्ञानके अधिपतियोंका वधकर देना चाहिये या उन्हें सत्यका और सत्य के अन्वेष्टाओंका दास बना देना चाहिये, परन्तु पणियोंके पास जो दौलत है उसे पा लेना मानवीय परिपूर्णताके लिये अनिवार्य है; इन्द्र मानो ''पणिके दौलतसे अधिकतम भरे मूर्धापर'' खड़ा हो जाता है, ( पणीनां वर्षिष्ठे मूर्ध-न्नस्थात् । ऋ. 6.45.31 ) । वह स्वयमेव प्रकाशकी गौ और ( शक्तिमय ) वेगका घोड़ा बन जाता है1 और सदा प्रवृद्ध होती रहनेवाली सहस्रों गुणा दौलत बरसा देता है2 । पणिवाली उस प्रकाशमान दौलतकी परिपूर्णता और द्यौकी तरफ आरोहण, जैसा कि हमें पहलेसे ही मालूम है, अमरत्वका मार्ग है और अमरत्वका जन्म है । ''अंगिराने ( सत्यकी ) सर्वोच्च अभि-व्यक्ति (वय: ) को धारण किया, उन ( अंगिरसों ) ने जिन्होंने कर्मकी पूर्ण सिद्धि द्वारा अग्निको प्रज्वलित किया था; उन्होंने पणिके सारे सुख-भोगको, इसके घोड़ोंवाले और गौओंवाले पशु-समूहको, अपने हस्तगत कर लिया ( 1 .83 .4 ) । यज्ञों द्वारा सर्वप्रथम अथर्वाने पथका निर्माण किया, उसके बाद सूर्य पैदा हुआ जो 'व्रतपा' और 'वेन' अर्थात् नियमका रक्षक और आनन्दमय है (तत: सूर्यो व्रतपा वेन आजनि ) । उशना काव्यने गौओंको ऊपरकी तरफ हांक दिया । हम चाहते हैं कि इनके साथ यज्ञ द्वारा वह अमरत्व पा सकें जो नियमके अधिपतिके पुत्रके तौरपर उत्पन्न हुआ है ( 1 .83.5 ) ''3, यमस्य जातममृतं यजामहे ।
अंगिरा द्रष्टा-संकल्प ( Seer-Will ) का द्योतक ॠषि है, अथर्वा दिव्य पथपर यात्राका ॠषि है, उशना काव्य उस द्युमुखी इच्छाका ऋषि है जो इच्छा द्रष्टा-ज्ञानमेंसे पैदा होती है । अगिरस् उन ज्योतियोंकी संपदाको और सत्यकी शक्तियोंको जीतते हैं जो निम्न जीवनके तथा निम्न जीवनकी कुटिलताओंके पीछे छिपी पड़ी थीं; अथर्वा उनकी शक्तिमें पथका निर्माण कर
1. गौरसि वीर गव्यते, अश्वो अश्वायते भय ।। (ॠ. 6.45.26 )
2. यस्य वायोरिव द्रवद् भद्रा राति: सहस्त्रिणी ।। (6.45.32 )
3. आदङ्गिराः: प्रथमं दधिरे वय इद्धाग्नय: शम्या ये सुकृत्यया ।
सर्व पणे: समविन्दन्त भोजनमश्वावन्तं गोमन्तमा पशुं नर: ।।4।।
यज्ञैरथर्वा प्रथम: पथस्तते तत: सूर्यो व्रतपा वेन आजनि ।
आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जातममृतं यजामहे ।।5।।
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देता है और तब प्रकाशका अधिपति सूर्य पैदा हो ताजा है जो दिव्य नियम-का तथा यम-शक्तिका संरक्षक है, उशना हमारे विचारकी प्रकाशात्मक गौओंको सत्यके उस पथपर हांकता हुआ ऊपर उस दिव्य आनन्द तक पहुंचा देता है जो सूर्यमें रहता है; इस प्रकार सत्यके नियममेंसे वह अमरत्व पैदा हो जाता है जिसकी आर्य-आत्मा यज्ञ द्वारा अभीप्सा किया करता है ।
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