Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
दीर्घतमा औचथ्य:
सक्ता १४०
१
वेदिषदे प्रियधामाय सुद्युते धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये ।
वस्त्रेणेव वासया मन्मना शुचिं ज्योतीरथं शुक्रवर्ण तमोहनम् ।।
(योनिम्) गर्भस्थ शिशुको (धासिम् इव) सुरक्षित आसनकी तरह (अग्नये) उस अग्निके प्रति (प्र भर) समर्पित कर दो जो (सुद्युते) अत्यंत भास्वर है, (वेदि-सदे) वेदी पर आसीन होता है और (प्रियधामाय) आनंद ही जिसका धाम है । (तम:-हनम्) अंधकारका वध करनेवाले अग्निको जो (शुचिम्) शुद्ध1 है, (ज्योति-रथम्) जिसका रथ ज्योति ही है, (शुक्रवर्णम्) जिसका रंग शुभ्र-उज्ज्वल है (वत्रेण इव) वस्त्रकी न्याईं (मन्मना) अपने विचारसे (वासय) परिवेष्टित कर दो ।
२
अभि द्विजन्मा त्रिवृदन्नमृज्यते संवत्सरे वावृधे जग्षमी पुनः ।
अन्यस्यासा जिहया जेन्यो वृषा न्यन्येन वनिनो मृष्ट वारण: ।।
____________
1. अथवा श्वेत; शुक्र=धवल उज्जवलता ।
४१६
(द्विजन्मा) द्विजरूपमें उत्पन्न अग्नि (त्रिवृत् अन्नम् अभि) अपने विविध अन्नके चारों ओर (ऋज्यते) तीब्र रूपसे गति करता है । (जग्धम् ईम) वह खाया जाकर (संवत्सरे) एक वर्षमें ही (पुन-ववृधे) फिरसे उत्पन्न हो गया हैं । (अन्यस्य) किसी एककी (जिह्वया आसा) जिह्वा और मुखके द्वारा1 वह (जेन्य:) शक्तिमय प्रभु और (वृषा) उपभोक्ता है । (अन्येन) एक अन्यके साथ वह (वनिन:) अपने आनंदप्रद पदार्थों-को (वारण2) चारों ओरसे घेर लेता है और (नि मृष्ट3) अपने आलिं-गनमें जोरसे कस लेता है ।
३
कृष्णमुतौ वेविजे अस्य सक्षिता उभा तरेते अभि मातरा शिशुम् ।
प्राचाजिह्वं ध्वसयन्तं तृषुच्युतमा साच्चं कुपयं वर्धनं पितु: ।।
वह अग्निदेव (कृष्णमुतौ) अंधकारमय पथपर चलनेवाली, (सक्षितौ) एक हों वासस्थानमें निवास करनेवाली (अस्य उभा मातरा) अपनी [उसकी] दोनों माताओंको (वेविजे) गति करनेकी शक्ति देता है । (शिशुम् अभिं4 तरेते) वे दोनों अपना रास्ता पार करती हुई अपने उस शिशु तक पहुंच जाती हैं, (प्राचाजिह्वम्) जिसकी जिह्वा ऊपरकी ओर उठी हुई है, (ध्वसयन्तम्) जो ध्वंस करनेवाला है, (तृषुच्यूतम्) जो वेगपूर्वक गति करता हुआ पार हो जाता है; (आ साच्यम्) वरणीय है, (कुपयम्) सुर-क्षित रखने योग्य है, (पितु: वर्धनम्) अपने पिताको बढ़ानेवाला है ।5
______________
1. या, (अन्यस्य आसा) एककी उपस्थितिमें (जिह्वया) उसकी जिह्वाके साथ ।
2.'वारण' शब्द वृ धातुसे बना है जिसका अर्थ है 'आच्छादित करना', 'घेरना' ।
3.'मृष' धातु का प्रयोग यौन संपर्कके अर्थमें होता है ।
4.या, अपन शिशका अनसरण करती हुई
5.व्याख्या- द्यौ और पृथिवी, मन ओर शरीर एक ही ढांचेमें, एक ही
भौतिक जगत्में इकट्ठे निवास करते हुए अज्ञानके अंधकारमें विचरण
करते हैं । उनकी क्रियाओंसे जो दिव्यशक्ति उत्पन्न होती हैं उसका
अनुसरण करते हुए वे अंधकारसे पार हो जाते हैं । 'कुपय'का अर्थ
संदिग्ध है । 'पिता' है पुद्यौरुष या फिर उच्चतर आध्यात्मिक सत्ताके
भावमें उसका अर्थ है द्यौ ।n
४१७
४
मुमुश्वो मनवे मानवस्यते रघुद्रुव: कृष्णसीतास ऊ जुव: ।
असमना अजिरासो रधुष्यदो वातजूता उप युज्यन्त आशव: ।।
(मानवस्यते मनवे) विचारशील बननेके इच्छुक मानवके लिए उस अग्निदेवकी (कृष्णमीतास: ऊ) अंधकारमय और प्रकाशमय, (रधुद्रुव:) तीव्र गति देनेवाली (जुव:) प्रेरणाएं (मुमुक्ष्व:) मनुष्यकी मुक्तिकी कामना करती हैं । (अजिरास:) क्रियाशील, (रघु-स्यद:) द्रुतगामी, (असमना:) कंपायमान-से (आशव:) वे वेगशाली अश्व (उपयुज्यन्ते) अपने कार्योंकी धुराके साथ जोते जाते हैं और वे (वातजूता:) वस्तुमात्रकी जीवनशक्ति, प्राणशक्तिके द्वारा परिचालित होते हैं ।
५
आदस्य ते ध्वसयन्तो वृथेरते कृष्णमम्वं महि वर्प: करिक्त्र: ।
यत् सीं महीमवनिं प्राभि मर्पृशदभिश्वसन् त्स्तनयन्नेति नानदत् ।।
(आत्) इसके बाद (ते) वे (अस्य) उसके लिए (ध्वसयन्त:) ध्वंस-का कार्य करते हैं, (वृथा ईरते) मंद गतिसे आगेकी ओर बढ़ते हैं1 और (कृष्णम् अभ्वम्) उसकी अंधकारमय स्थूल सत्ताका तथा (महि वर्प:) उसके शक्तिशाली प्रकाशमय रूपका (करिक्रत:) निर्माण करते हैं । (यत्) जब वह (प्र एति) आगे पहुंचकर (महीम् अवनिम्)2 विशाल सत्ताका (सीम् अभि मर्मृशत्) [सब ओरसे] स्पर्श करता है, तो वह (अभिश्वसन्) उसके प्रति उच्छास-पूर्वक उत्कंठित होता है ओर (स्तनयन्) गरजता हुआ (नानदत्) उच्च स्वरसे पुकारता है ।
६
भूषन् न योऽधि बभ्रूषु नम्नते वृषेव पत्नीरम्येति रोरुवत् ।
ओजायमानस्तन्वश्च शुम्भते भीमो न शृङ्गा दविधाव दुर्मृभि: ।।
___________
1. या, वेगपूर्वक गति देते और व्याप लेते हैं
2. 'महीम् अवनिम्' का अर्थ विशाल पृथ्वी भी हो सकता है । किंतु अवनि
शब्दका और 'पृथिवी'का भी वेदमें सदा पृथ्वीके अर्थमें ही प्रयोग नहीं
होता, 'अवनि' शब्दका तो सामान्यतः नहीं ही होता, ये दोनों शब्द
घूम-फिरकर अपने मूल 'सप्त अवनयः' (सात पृथिवियों) पर लौट
आते है ।
४१८
(य:) जो [जब वह ] (बभ्रूषु1 अधि) भूरे रंगकी गौओंमें [ज्ञान-रश्मियोंमें ] (भूषन् न)) मानो अपना रूप धारण करना चाहता है तो वह (नम्नते) नीचेकी ओर झुकता है और (रोरुवत् अभि एति) उनेकी ओर हुंकार भरता हुआ इस प्रकार जाता है (इव) जिस प्रकार (वृषा) पुरुष (पत्नी:) अपनी सहचरियोंकी ओर । (ओजायमान:) अपनी शक्तियों को प्रकट करता हुआ वह (तन्व:) उनके शरीरोंको (शुम्भते) आनंद देता है2 (च) और (दुर्गृभि: भीम: न) पकड़में न आ सकनेवाले भयंकर पशुकी तरह (शृङ्गा) अपने सींगोंको (दविधाव) उछालकर मारता है ।
७
स संस्तिरो विष्टिर: सं गृभायति जानन्नेव जानतीर्नित्य आ शये ।
पुनर्वर्धन्ते अपि यन्ति देव्यमन्यद् वर्ष: पित्रो: कृण्यते सचा ।।
(संस्तिर:) सत्तामें संकुचित अथवा (वि-स्तिर:) व्यापक रूपसे विस्तृत होता हुआ (स:) वह (सं गृभायति) उन्हें पूरी तरह अधिकृत कर लेता है । (जानन् एव नित्य:) ज्ञानवान् होता हुआ वह नित्य अग्नि (जानती:) ज्ञानसे संपन्न उनका (आ शये) उपभोग करता है3 । (पुन:) तो फिर वे (वर्धन्ते) संवर्धित होती हैं और (देव्यमू अपि यन्ति) दिव्य अवस्था प्राप्त करती हैं । (सचा) संयुक्त होकर वे (पिरों:) माता-पिता के लिए (अन्यत् वर्प:) दूसरे रूपका (कृण्वते) निर्माण करती हैं ।
८
तमग्रुव: केशिनी: सं हि रेभिर ऊर्ध्वास्तस्थुर्मखुषी: प्रायवे पुनः ।
तासा जरां प्रमुञ्चन्नेति नानददसुं परं जनयञ्जीवमस्तृतम् ।।
(अग्रुव: केशिनी:) अपने लहराते हुए केश-कलापके कारण शुभ्र वे ( तं सं रेभिरे4 हि) उसका पूर्ण आनन्द लेती हैं । (मम्रुषी:5) जो मरने
1. बभ्रूषु-गौओंमें; इन गौओंको आगेकी एक ऋचामें 'अरुण्यः' कहा:
गया है अर्थात् मर्त्य मनमें ज्ञानकी रश्मियां ।
2. अथवा, पदार्थके रूपोंको आनन्दमय बना देता है ।
3. या, उनके साथ स्थित होता है या शयन करता है ।
4. रेभिरे=आनन्द लेती हैं, यह अर्थ यहाँ पूर्णतया सिद्ध हो गया है ।
5. 'मम्रुषीः' का अर्थ अनिश्चित है । इसका अर्थ मृत या म्रियमाण हो
सकता है ।
४१९
ही वाली थीं वे (पुन:) एक बार फिर (आयवे) उसके आगमन-स्वागत-के लिए (ऊर्ध्वा: प्र तस्थु:) ऊंचे उठ खड़ी होती हैं । क्योंकि वह (तासाम्) उनकी (जराम्) जरा, जर्जर अवस्थाको उनसे (प्रमुञ्न्न्) छुड़ाता हुआ, (नानदत्) ऊंचे स्वरसे नाद करता हुआ (एति) उनके पास जाता है, वह (परम् असुम्) परम बल और (अस्तृतम् जीवंम्) अजेय जीक्यका (जनयन्) सर्जन करता है ।
९
अधीवासं परि मातू रिहन्नह तुविग्रेभि: सत्यभिर्याति वि ज्रय: ।
वयो दधत् पद्वते रेरिहत् सदाऽते श्येनी सचते वर्तनीरह ।।
(मातु: परि) प्रकृति-माताके चारों ओर विद्यमान, (अधीवासम्) दूसरेको छिपानेवाले वस्त्रावरणको (रिहन् अह) फाड़कर वह, (सत्वभि:) शुद्ध सत्स्वरूपकी झलकवाले, (तुविग्रेभि:) दिव्य बलको प्रकट करनेवाले जीवोंके साथ (ज्रय:) आनंदकी ओर (वि याति) पूरी तरह अग्रसर होता है । वह (वय: दधत्) विशालताको स्थापित करता है । (पद्वते) इस यात्रीके लिए सब कुछको पार करता हुआ (रेरिहत्1) लक्ष्य तक जाता है । (श्येनी) तीव्र गतिसे दौड़ता हुआ भी वह (वर्तनि:) मार्गोंका (सदा अनु सचते अह) सदा दृढ़तया अवलंबन किये रहता है ।
१०
अस्माकमग्ने मघवत्सु दीदिह्मध श्वसीवान् वृषभों दमूना: ।
अवास्या शिशुमतीरदीदेर्वर्मेव युत्सु परिजर्भुराण: ।।
(उग्ने) हे अग्निदेव ! (अस्माकम् मघवत्सु) हमारी पूर्ण ऐश्वर्यकी अवस्थाओंमें (दीदिहि) भास्वर रूपमें प्रज्वलित हो । (अध) आजसे लेकर तू (वृषभ:) हमारा शक्तिशाली प्रभु बन और, (श्वसी2वान्) अपनी बहनोंके साथ (दमूना:) हमारे अन्दर निवास कर । (शिशुमती:) जो बाल-बुद्धिवाले हैं उन्हें अपनेसे (अव-अस्य) दूर रखकर तू (युत्सु वर्म इव) संग्रामोंमें कवचकी तरह (परि जर्भुराण:) हमें चारों ओरसे घेरे हुए (अदीदे:) जाज्वल्यमान हो ।
_________
1. 'रिहन्', 'रेरिहत्' का अर्थ निश्चित नहीं ।
2. 'श्वसी' ग्रीक भाषाका कसिस् (Kasis) है और पत्नी या बहनके
वाचक 'स्वसृ' शब्दका प्राचीन रूप है । इसलिए इसका प्रयोग वृषा
शब्दके साथ किया गया है जैसे कि पली शब्द भी 'वृषा'के साथ प्रयुक्त
हुआ है ।
४२०
११
इदमग्ने सुधितं दुर्धितादधि प्रियादु चिन्मन्मन: प्रेयो अस्तु ते ।
यत् ते शुक्रं तन्यो रोचते शुचि तेनास्मभ्यं वनसे रत्नमा त्वम् ।।
(अग्ने) हे अग्नि ! (इदम्) यह तत्त्व वह है जो (दुर्धितात् अधि) कु-स्थापित तत्त्वके ऊपर (सुधितम्) सम्यक्तया स्थापित है । (प्रियात् उ मन्मन: चित्) इस आनन्दपूर्ण मानसिक सत्तामेंसे भी (प्रेय:) एक बृहत्तर आनन्द (ते अस्तु) तुझसे उत्पन्न हो । (यत्) जो कुछ भी (ते) तेरे (तन्व:) देहसे (शुक्रं शुचि) शुभ्र-पवित्र रूपमें (रोचते) प्रकाशित होता है (तेन) उससे (त्वम्) तू (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (रत्नम्) आनन्दको (आ वनसे) जीत लेता है ।
१२
रथाय नावमुत नो गृहाय नित्यारित्रां पद्वतीं रास्यग्ने ।
अस्माकं वीराँ उत नो मघोनो जनाँश्च या पारयाच्छर्म या च ।।
(अग्ने) हे अग्नि ! तू (न:) हमारे लिए (रथाय) हमारे रथके रूप-में (उत) और (गृहाय) हमारे घरके रूपमें (नित्य-अरित्रां पद्वतीम्) नित्य- विकासमय गतिके साथ यात्रा करनेवाली (नावम्) नौका (रासि) प्रदान करता है, (या) जो नौका (अस्माकम् वीरान्) हमारी वीरतापूर्ण आत्मा-ओकों (उत) और (नः मघोन:) हमारी ऐश्वर्यपूर्ण आत्माओंको (जनान् च पारयात्) जन्मोंसे पारकर देगी और (या) जो (शर्म च) शांतिसे भी, शांतिके स्तरसे भी [पारयात् ] परे ले जायगी ।
१३
अभी नो अग्न उक्थमिज्जुगुर्या द्यावाक्षामा सिन्धवश्च स्वगूर्ता: ।
गव्यं यव्यं यन्तो दीर्धाहेषं वरमरुण्यो वरन्त ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (नृ: उक्थम्) हमारी वाणी-रूपी धुराके (अभि) चारों ओर (नः) हमारे लिए (द्यावाक्षामा) द्युलोक और पृथिवी-लोक को (च) और (स्वगूर्ता:) स्वतः-प्रकट (सिन्धव:) नदियोंको (जुगुर्या: इत्) प्रकाशमान कर दे । (अरुण्य:) अरुण रंगकी गौएं (गव्यम्) ज्ञान, (यव्यम्) शक्ति और (दीर्घा अहा) सुदीर्घ प्रकाशमय दिनोंको (यन्त:) प्राप्त करें, वे (इषम्) बल और (वरम्) परम कल्याणका (वरन्त) वरण करें ।
४२१
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.