Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
पाँचवाँ सूक्त
देवोंके आह्वानका सूक्त
[ यह सूक्त दिव्य ज्वालाके आह्वानों द्वारा प्रमुख देवोंको यज्ञमें आमन्त्रण देता है । प्रत्येकका वर्णन या आह्वान उसकी अपनी उस स्थितिमें एवं उस कार्य-व्यापारके लिए किया जाता है जिसमें उसकी आवश्यकता होती है और जिसके द्वारा वह आत्माकी पूर्णता एवं उसके दिव्य विकास और प्राप्तिमें सहायक होता हे । ]
१
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्र जुहोतन ।
अग्नये जातवेदसे ।।
(जातवेदसे अग्नये) समस्त उत्पन्न पदार्थोंके ज्ञाता संकल्पबलके प्रति, (सुसमिद्धाय शोचिषे) सुप्रदीप्त और शुद्ध एवं प्रकाशमान दिव्य ज्वालाके प्रति (तीव्रं घृतं) मनकी तीव्र निर्मलताकी (जुहोतन) आहुति दो ।
२
नराशंस: सुषूदतीमं यज्ञमदाभ्य: ।
कविर्हि मधुहस्त्य: ।।
(नराशंस:). यह वही है जो देवताओंकी शक्तियोंको प्रकट करता है, (अदाभ्य:) वही अदमनीय शक्ति है जो (इमम् यज्ञम्) हमारे इस यज्ञको उसके मार्गपर (सुसूदति) वेग प्रदान करती है । (हि्) निश्चय ही (कवि:) यह एक द्रष्टा है जो (मधुहस्त्य:) मधु-रसको अपने हाथोंमें लेकर आता है ।
३
ईळितो अग्न आ वहेन्द्रं चित्रमिह प्रियम् ।
सुखै रथेभिरूतये ।।
(अग्ने) हे शक्तिस्वरूप देव ! (ईळित:) हमने अपनी स्तुतिसे तुझे खोज लिया है । (इन्द्रम् इह आ वह) तू भागवत मन1 को यहाँ ला जो
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1. इन्द्र ।
५४
देवोके आह्वानका सूक्त 55
(चित्रं) भास्वर और (प्रियं) प्रिय है । उसे (ऊतये) हमारी वृद्धिके लिए (सुखै: रथेभि:) सुखपूर्ण रथों1 के द्वारा (इह आ वह) यहाँ ला ।
४
ऊर्णम्रदा वि प्रथस्वाऽभ्यर्का अनूषत ।
भवा नः शुभ्र सातये ।।
(ऊर्णम्रदा) अपने-आपको कोमल पर घने रूपमें आच्छादित करते हुए (वि प्रथस्व) तू अपनेको व्यापक रूपसे विस्तृत कर । (अर्का:) प्रकाशकी हमारी वाणियाँ (अभि अनूषत) तेरे प्रति उच्चरित होकर हमारे अंतःकरणको हल्का कर देती हैं । (न:) हममें (शुभ्र) धवल और उज्जवल (भव) बन, जिससे (सातये) हम विजय प्राप्त कर सकें2 ।
५
देवीर्द्वारो वि श्रयध्वं सुप्रायणा न ऊतये ।
प्रप्र यज्ञं पृणीतन ।।
(देवी: द्वार:) हे दिव्य द्वारो3 ! (वि श्रयध्वं) झूलते हुए खुल जाओ । (न: ऊतये) हमारे विस्तारके लिए (न: सुप्रायणा:) हमें सरल रास्ता दे दो, (प्र-प्र) आगे ही आगे हमें ले चलो और (यज्ञं पृणीतन) हमारे यज्ञको परिपूरित कर दो ।
६
सुप्रतीके वयोवृधा यह्वी ऋतस्य मातरा ।
दोषामुषासमीमहे ।।
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1. भागवत मनकी बहुविध गतिका उसकी परिपूर्ण अवस्थामें संकेत
करनेके लिए बहुवचनका प्रयोग किया गया हैं ।
2. यह मन्त्र इन्द्रको सम्बोधित किया गया है जो दिव्य मनकी शक्ति है और
जिसके द्वारा अतिमानसिक सत्यका प्रकाश आता है । इस प्रकाश-
दाताके आगे बढ़ते हुए रथोंके द्वारा हम अपने दिव्य ऐश्वर्यको विजित
करते हैं ।
3. मनष्यका यज्ञ है भगवानकी प्राप्तिके लिए उसका प्रयास और अभीप्सा ।
और इसका निरूपण यूं किया गया है कि यह उन बंद पड़े स्वर्गीय प्रदेशोंके
खुलते हुए द्वारोंमेंसे यात्रा करता है जो विस्तारशील आत्मा द्वारा एक
के बाद एक जीते जाते हैं ।
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( दोषाम् उषासम्) अन्धकार और उषा1 की (ईमहे) हम अभीप्सा करते हैं, जो (ऋतस्य यह्वी मातरौ) सत्यकी दो शक्तिशाली माताएँ हैं, जो (सुप्रतीके) स्पष्ट रूपसे हमारे अभिमुख हैं और (वयोवृधा) हमारी विशाल सत्ताको बढ़ानेवाली हैं ।
७
वातस्य पत्मन्नीळिता दैव्या होतारा मनुष: ।
इमं नो यज्ञमा गतम् ।।
और (मनुष: दैव्या होतारा) हे हमारी मानवसत्ताके पुरोहितो ! (ईळिता) हे पूजितयुगल ! (वातस्य 'पत्मन्) जीवन-श्वासके मार्गसे (नः इम यज्ञम् आ गतम्) हमारे इस यज्ञमें पधारो ।
८
इळा सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुव: ।
बर्हि: सीदन्त्वस्रीध: ।।
(इळा) ज्ञानके साक्षात् दर्शनकी देवी, (सरस्वती) प्रवाहशील अन्तःप्रेरणाकी देवी, (मही) विशालताकी देवी, (तिस्र: देवी:) ये तीनों देवियाँ, 2(मयोभुव:) जो आनन्दको जन्म देती हैं और (अस्रिध) किसी प्रकारकी भूल-भ्रान्ति3 नहीं करतीं, (बर्हि: सीदन्तु) यज्ञकी वेदीपर बिछे हुए अपने आसनोंको ग्रहण करें ।
९
शिवस्त्वष्टरिहा गहि विभु: पोष उत त्मना ।
यज्ञेयज्ञे न उदव ।।
(त्वष्ट:) हे पदार्थोंके निर्माता4 ! (शिव:) कल्याणकारी और (विभु:) अपनी सत्तासे सबमें व्याप्त तू (प्रोष:) हम सबका पोषण करता हुआ
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1. रात और दिन । ये हमारे अंदर दिव्य और मानवीय चेतनाके बारी-
बारीसे आनेके प्रतीक हैं । हमारी साधारण चेतनाकी रात्रि उस
सबको धारण करती और तैयार करती है जिसे उषा हमारी सचेतन
सत्ताके अंदर लाती है ।
2. इळा, सरस्वती, मही । इनके नामोंका अनुवाद इनके कार्योका स्पष्ट
विचार देनेके लिए किया गया है ।
3. या, जो अनाघृष्य हैं, अर्थात् हमारे दुख-दर्दके मूल कारण अज्ञान और
अंधकारके द्वारा उनपर आक्रमण नहीं किया जा सकता ।
4.त्वष्टा ।
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(त्मना) अपनी सत्ता'के द्वारा (यज्ञे-यशे) यज्ञके बाद यज्ञमें (न: उत् अव) हमारे आरोहरणको पुष्ट कर (उत) और (इह आ गहि) यहाँ हमारे पास आ ।
१०
यत्र वेत्थ वनस्पते देवानां गुह्या नामानि ।
तत्र हव्यानि गामय ।।
वनस्पते) हे वनस्पते ! हे आनन्द2 के स्वामी ! (यत्र) जहाँ तुम (देवानां गुह्या नामानि) देवोंके गुह्य नामोंको (वेत्थ) जानते हों, (तत्र) वहाँ, उस लक्ष्य3तक (हव्यानि गामय) हमारी भेंटोंको ले जाओ ।
११
स्वाहाग्नये वरुणाय स्वाहेन्द्राय मरुद्म्य: ।
स्वाहा देवेभ्यो हवि: ।।
(अग्नये स्वाहा) संकल्प-शक्तिके प्रति समर्पण हो, (वरुणाय [ स्वाहा ] ) विशालताके अधिपति4 के लिए स्वाहा, (इन्द्राय स्वाहा) भागवत-मनके लिए स्वाहा, (मरुद्म्य:) विचार-शक्ति5 के लिए स्वाहा, (देवेभ्य हवि: स्वाह') देवोंके प्रति हमारी आहुति6का अन्न स्वाहा [ समर्पित ] हों ।
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1. वस्तुओंके निर्माताके रूपमें भगवान् उन सबमें व्याप्त है जिन्हें वह बनाता
है, व्याप्त है अपनी अक्षर स्वयंभू सत्ताके द्वारा और साथ ही वस्तुओंमें
विद्यमान अपने उस क्षर भुतभावके द्वारा जिसकी सहायतासे आत्मा
विकसित व संवर्धित होता तथा नये आकारोंको धारण करता प्रतीत
होता है । इनमेंसे पहले रूपके द्वारा वह अंतर्वासी प्रभु और निर्माता है ।
अपने पिछले रूपसे वह प्रभु अपने ही कार्योंका उपादान है ।
2. सोम ।
3.आनन्द, दिव्य परमानन्दकी अवस्था जिसमें हमारी सत्ताकी संपूर्ण
शक्तियाँ अपने पूर्ण देवत्वमें प्रकट होती हैं, वह आनन्द यहाँ गुह्य और
हमसे छिपा हुआ है ।
4. वरुण ।
5.मरुत्, अर्थात् हमारी सत्ताकी नाड़ीगत या प्राणिक शक्तियाँ जो विचारमें
सचेतन अभिव्यक्तिको प्राप्त करती हैं । वे देव-मन इन्द्रके प्रति
स्तुतियोंके गायक हैं ।
6 अर्थात् हुमारे अन्दरका वह सब कुछ जिसे हम दिव्य जीवनके प्रति समर्पित
करते हैं, दिव्य प्रकृतिके आत्मप्रकाश तथा आत्मबलमें परिणत हो
जाय ।
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