Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
छठा सूक्त
ॠ. 5. 67
धारक और रक्षक देव-युगल
[ मित्र और वरुण अतिचेतन सत्ताकी उस विशालताको पूर्ण करते हैं जो यज्ञका लक्ष्य है । वे उसकी शक्तिके पूर्ण प्राचुर्यसे संपन्न हैं । जब वे उस ज्योतिर्मय मूलस्रोत और धाम तक पहुंचते हैं तो वे यज्ञिय कार्यके लिए प्रयास करनेवाले मनुष्योंको उसकी शान्ति और आनंद देते हैं । उस लक्ष्यकी ओर जाते हुए वे मर्त्यकी उसके उन अध्यात्म-सत्ताके शत्रुओंसे रक्षा करते हैं जो उसकी अमरताके मार्गमें बाधा डालना चाहते हैं; क्योंकि वे अपनी उच्चतर क्रियाओं और उच्चतर चेतनाके उन स्तरोंके साथ दृढ़तासे संसक्त रहते हैं जिनके साथ उन क्रियाओंका सम्बन्ध है और जिनकी ओर मनुष्य अपने आरोहणमें ऊपर उठता है । विश्वव्यापी और सर्वज्ञ वे उन शत्रुओंका विध्वंस कर देते हैं जो अहंकार और प्रतिबंधक अज्ञानकी शक्तियाँ हैं । अपनी सत्तामें सच्चे वे देव ऐसी शक्तियाँ हैं जो प्रत्येक व्यक्तिगत सत्तामें सत्यको स्पर्श करती और अधिकृत करती हैं । यात्रा और युद्धके नेता वे हमारे संकीर्ण और आर्त मर्त्यभावमेंसे भी उस उच्चतर चेतनाकी विशालताका सर्जन करते हैं । यही है वह सर्वोच्च सत्ता जिसके लिए अत्रि-ऋषियोंका विचार अभीप्सा करता है और जिस तक वह विचार मानव आत्मा द्वारा अधिष्ठित ''शरीरों''में महान् देवों--मित्र, वरुण तथा अर्यमाको प्रतिष्ठित करके पहुंचता है । ]
१
बलित्था देव निष्कृतमादित्या यजतं बृहत् ।
वरुण मित्रार्यमन् वर्षिण्ठं क्षत्रमाशाथे ।।
(देवा) हे देवताओ ! (आदित्या) हे अनन्त माता अदितिके तुम दो पुत्रो ! (बट्) सचाई यह है कि (यजतं बृहत्) वह विशालता जिसके लिये हम यज्ञ करते है (इत्था नितकृतम्) तुम्हारे द्वारा यथावत् पूर्ण की हुई है । (वरुण मित्र अर्यमन्) है वरुण ! हे मित्र ! हे अर्यमन् ! (वर्षिष्ठं क्षत्रम् आशाथे) तुम इसकी अधिक-से-अधिक विपुल शक्तिको धारण करते हो ।
१९९
२
आ यद् योनिं हिरष्ययं वरुण मित्र सदथ: ।
धर्तारा चर्षणीनां यन्तं सुम्नं रिशादसा ।।
(वरुण मित्र) हे वरुण ! हे मित्र ! (चर्षणीनां धर्त्तारा) मनुष्योंको उनके प्रयासमें आश्रय देनेवालो ! (रिशादसा) शत्रुका संहार करनेवालो ! (यत्) जब तुम (हिरण्ययं योनिम्) अपने सुवर्णमय प्रकाशके आदिधाममें (आ सदथ:) प्रवेश करते हो, तब तुम उन्हें (सुम्नं यन्तम्) आनंद प्राप्त कराओ ।
३
विश्वे हि विश्ववेदसो वरुणो मित्रो अर्यमा ।
व्रता पदेव सश्चिरे पान्ति मत्यं रिष: ।।
(वरुण: मित्र: अर्यमा) वरुण, मित्र और अर्यमा (हि) निश्चय ही (विश्वे) विश्वव्यापी और (विश्ववेदस:) सर्वज्ञ हैं । (व्रता सश्चिरे) अपनी क्रियाओंके विधानमें वे दृढ़ रहते हैं, (पदा-इव) उसी तरह जैसे कि वे अपने उन स्तरोंपर भी अडिग रहते हैं जिनपर वे पहुंचते हैं । वे (मर्त्यम्) मर्त्य मनुष्यकी (रिषः पान्ति) उसके शत्रुओंसे रक्षा करते हैं ।
४
ते हि सत्या ऋतस्पृश ऋतावानो जनेजने ।
सुनीथास: सुदानवोंऽहोश्चिदुरुचक्रय: ।।
(ते हि सत्या:) क्योंकि वे अपनी सत्तामें सच्चे हैं इसलिए वे (जने-जने ऋतस्पृश:) प्राणी-प्राणीमें सत्यको स्पर्श करते हैं और (ऋतवान:) सत्यको धारण किए रहते हैं । (सुनीथास:) यात्राके पूर्ण पथप्रदर्शक, (सुदा-नव:) युद्धके लिए पूर्ण-शक्तिसंपन्न वे (अंहो चित्) इस संकुचित सत्तामेंसे भी (उरुचक्रय:) विशालता का सर्जन करते हैं ।
५
को नु वां मित्रास्तुतो वरुणो मा तनूनाम् ।
तत्सु वामेषते मतिरत्रिम्य एषते मति: ।।
(मित्र) हे मित्र ! (वां क: वरुण: वा) तुम दोनोंमेंसे वह कौन है, तू या वरुण, जो (तनूनाम्) हमारे शरीरों1में (अस्तुत: नु) स्तुति द्वारा
___________
1. केवल भौतिक शरीर नहीं; आत्मा यहाँ पांच कोषों या शारीरिक आवरणोंमें
निवास करती है ।
२००
प्रतिष्ठित नहीं हुआ ? (मति:) हमारा बिचार (वाम्) तुम दोनोंसे (तत् सु एषते) पूर्णतया उस परमतत्त्वको चाहता है, (अत्रिभ्य:1 मति: [तत्]एषते) भोक्ताओंके लिए हमारा विचार उसीकी अभिलाषा करता है ।
__________
1. अत्रि-शाब्दिक अर्थ है भोक्ता; इस शब्दका अर्थ यात्री भी हो सकता है ।
२०१
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.