Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
ग्यारहवाँ' सूक्त
दिव्य पुरोहित और यज्ञिय ज्वालाका सूक्त
[ ऋषि उस जागरूक और विवेकशील यज्ञिय ज्वालाके जन्मकी स्तुति करता है जो अन्तर्दृष्टि एवं संकल्प-शक्ति है, एक ऐसा क्रान्तद्रष्टा है जिसके प्रयासका आवेग मनके द्युलोकोमें दिव्य ज्ञानमें परिणत हो जाता है । दिव्य विचारके अन्त:स्फुरित शब्दोंसे हमें इस क्रान्तदर्शी संकल्पको बढ़ाना होगा । यह संकल्प एक अमोघ-शक्तिमय तत्व है, शक्तिका पुत्र है और प्रकाशपूर्ण प्रबल शक्तिसे युक्त प्राचिन आत्माओंने इसे पृथ्वीकी उपजोंमें तथा उन सब अनुभूतियोंमें छिपा हुआ पाया है जिनका रसास्वादन मानव आत्मा यहाँ करना चाहता है ।] १
जनस्य गोपा अजनिष्ट जागृविरग्निः सुदक्षः सुविताय नव्यसे ।
धृतप्रतीको बृहता दिविस्पृशा द्युमद्वि भाति भरतेभ्य: शुचि: ।।
(जनस्य गोपा:) प्रजाकी रक्षक, (जागृवि:) जागरूक तथा (सुदक्ष:) पूर्ण-विवेकसंपन्न (अग्नि: अजनिष्ट) ज्यालाका जन्म हुआ है जिससे कि (नव्यसे सुविताय) आनन्दकी ओर नया प्रयाण किया जाए । (घृत-प्रतीक:) उसका अग्रभाग निर्मलताओंसे युक्त है । (द्युमत् वि भाति) उज्ज्वल प्रकाशसे वह दूर-दूरतक इस प्रकार चमक रही है कि उसकी (बृहता दिविस्पृशा) विशालता द्युलोकको स्पर्श करती है । (भरतेभ्य: शचि:) ऐश्वर्यको लानेवालोंके लिए वह पवित्र है ।
२
यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरोहितमग्निं नरस्त्रिषधस्थे समीधिरे ।
इन्द्रेण देवै: सरथं स बर्हिषि सीदन्नि होता यजथाय सुक्रतु: ।।
(नर:) मनुष्योंने (अग्निं) परम ज्वालाको (त्रिषधस्थे) यज्ञसत्रके त्रिविध लोक1में (समीधिरे) सुप्रदीप्त किया है ताकि वह (यज्ञस्य केतुं)
______________
1. मन, प्राण और शरीरका त्रिविध लोक जिसमें हमारे यज्ञकी बैठक
(सवन) होती है या जिसमें आत्मपरिपूर्णताका कार्य आगे बढ़ता है ।
७७
यज्ञमें अन्तर्दृष्टि तथा (प्रथमं पुरोहितं) अग्रभागमें स्थापित पुरोहित बन जाए । (स:) वह अग्निदेव (इन्द्रेण देवै:) भागवत-मन और दिव्य- शक्तियोंके साथ (सरथ) एक हीं रथमें आता है और (बर्हिषि सीदत्) यज्ञके आसनपर बैठता है । (होता) वह हविका वहन करनेवाला पुरोहित है जो (यजथाय सुक्रतु:) यज्ञ-क्रियापुके लिए इच्छाशक्तिमें पूर्ण है ।
३
असंमृष्टो जायसे मात्रो: शुचिर्मन्द्र: कविरुदतिष्ठो विवस्वत: ।
घृतेन त्वावर्धयन्नग्न आहुत धूमस्ते केतुरभवद् दिवि श्रित: ।।
हे अग्निदेव । तू (मात्रो:) मातृयुगलसे (असंमृष्ट शुचि: जायसे) अपराजित एवं पवित्र1 रूपमें उत्पन्न हुआ है; तू (विवस्वत:) प्रकाश- स्वरूप सूर्यसे (मन्द्र: कवि:) आनन्दोल्लासमय द्रष्टाके रूपमें (उदतिष्ठ:) उदित हुआ है । (घृतेन त्वा अवर्धयन्) उन्होंने तुझे निर्मलताकी आहुतिसे बढ़ाया है, और (आहुत अग्ने) आहुतियोंसे वर्धित हे ज्वालारूप देव ! (ते धूम:) तेरा आवेगपूर्ण धुआँ (केतु: अभवत्) अन्तर्दृष्टि बन जाता है जब (दिवि श्रित:) वह द्युलोकमें पहुँचता है और वहाँ निवास करता है ।
४
अग्निर्नो यज्ञमुप वेतु साधुयाऽग्निं नरो वि भरन्ते गृहेगृहे ।
अग्निर्दूतो अभवद्धव्यवाहनोऽग्निं वृणाना वृणते कविक्रतुम् ।।
(अग्नि:) ज्यालारूप अग्निदेव (न: यज्ञं साधुया उप वेतु) हमारे यज्ञमें कार्यसाधक शक्तिके साथ आवे । (नर: अग्नि गृहे-गृहे वि भरन्ते) मनुष्य उस ज्वालारूप अग्निदेवको अपने निवासस्थानके प्रत्येक कमरेमें ले जाते हैं । (अग्नि: दूत: हव्यवाहन: अभवत्) वह अग्निदेव हमारा दूत तथा हमारी भेंटका वहन करनेवाला बन गया है । (अग्निं वृणाना: कविक्रतुम् वृणते) जब मनुष्य उस ज्यालारूप अग्निको अपने अन्दर स्वीकार करते हैं तब वे इस 'द्रष्टा संकल्प'को ही स्वीकार करते हैं ।
५
तुभ्येदमग्ने मधुमत्तमं वचस्तुभ्यं मनीषा इयमस्तु शं ह्रदे ।
त्वां गिर: सिन्धुमिवावनीर्महीरा पृणन्ति शवसा वर्धयन्ति च ।।
(तुम्य अग्ने) तेरे लिए हैं हे ज्वाला ! (इदं मधुमत्तमं वच:) मधु2से
1. या ''बिना साफ किये हुए शुद्ध-पवित्र ।''
2. मधुमय सोमरस, वस्तुओमें विद्यमान आनन्द-तत्त्वका बहि:-प्रवाह ।
७८
यज्ञिय ज्वालाका सूक्त
लबालब भरी यह दिव्यवाणी । (तुभ्यम् इयं मनीषा) तेरे लिए ही है यह दिव्यविचार और (हृदे शम् अस्तु) यह तेरे ह्रदयमें शान्ति एवं दिव्य आनन्द बन जाय । (गिर:) दिव्यविचारकी ये वाणियाँ (त्वां) तुझे (शवसा) अपने बलसे (आ पृणन्ति वर्धयन्ति च) तुष्ट करती और बढ़ाती हैं, (इव) जैसे (मही: अवनी: सिन्धुम्) वे महान् पोषण करनेवाली धाराएँ1 उस समुद्रको भरती और बढ़ाती हैं ।
६
त्वामग्ने अङ्गिरसो गुहा हितमन्वविन्दन्छिश्रियाणं वनेवने ।
स जायसे मथ्यमानः सहो महत् त्वामाहु: सहसत्युत्रमङ्गिर: ।।
(अग्ने) हे ज्वाला ! (अङ्गिरस:2) शक्तिसम्पन्न आत्माओंने (त्वा) तुझे (गुहा हितं) गुप्त स्थान3में छिपे हुए, (वने-वने शिश्रियाणं) आनन्दके प्रत्येक विषयमें निवास करते हुए (अन्वविन्दन्) ढूँढ़ लिया । (स: मथ्यमान:) हमारे द्वारा दबाव डाला जाता हुआ वह तू (महत् सह:) एक प्रबल शक्तिके रूपमें (जायसे) उत्पन्न हुआ है । इसलिये (अङिगिर:) हे सामर्थ्यशाली देव ! (त्वां सहस: पुत्रम् आहु:) उन्होंने तुझे शक्ति-पुत्र कहा है ।
1. सात नदियाँ या गतिधाराएँ जो अतिचेतन सत्तासे अवतरित होती हैं
और हमारी सत्ताके सचेतन समद्रको भरती हैं । इन्हें माताएँ, पोषण
करनेवाली गौएँ, द्युलोककी शाँक्तशाली सत्ताएँ, ज्ञानकी जलधाराएँ,
सत्यकी सरिताएँ इत्यादि कहा जाता है ।
2. सात प्राचीन ऋषि या पितर, अङ्गिरस् ऋषि, अग्निके पुत्र, और द्रष्टा संकल्पके दैवी या मानवीय प्रतिरूप ।
3. वस्तुओमें स्थित अवचेतन हृदय ।
७९
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.