वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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दिव्य उषा

 

जैसे सूर्य दिव्य सत्यके स्वर्णिम प्रकाशकी प्रतिमूर्ति और देवता है उसी प्रकार उषा हमारे मानवीय अज्ञानकी रात्रिपर परम प्राकाशके उन्मीलनकी प्रतिमूर्ति और देवता है । द्युलोककी पुत्री उषा और उसकी बहिन रात्रि एक ही शाश्वत अनंतका .सीधा और उलटा पार्श्व हैं । चरम रात्रि, जिसमेंसे लोक उदित होते हैं, निश्चेतनका प्रतीक है । वही है निश्चेतन समुद्र, वही है अंधकारके भीतर छिपा अंधकार जिसमेंसे एकमेव अपने तपस्की महिमासे प्रादुर्भूत होता है । परंतु इस जगत्में, जहाँ वस्तुओंको देखनेकी हमारी दृष्टि तमसाच्छन्न मर्त्य दृष्टि है, अज्ञानकी एक अल्पतर रात्रि शासन करती है जो द्युलोक, पृथ्वीलोक और अंतरिक्षलोकको, हमारा मानसिक और भौतिक चेतना तथा हमारी प्राणिक सत्ताको ढके हुई है । यहाँ ही द्युलोककी पुत्री उषा अपने सत्यकी दीप्तियोंके साथ, अपने वरदानोंके आनंदके साथ उदित होती है । अंधकारको काले चोगेकी तरह उतार फेंकती हुई, प्रकाशका परिधान पहरे हुई युवतीकी न्याई परम आनंदके ज्योतिर्मय प्रभुकी यह वधू अपने वक्षःस्थलकी शोभाओंका अनावरण करती है, अपने चमकीले अंगोंको प्रकाशमें लाती है और सूर्यको लोकोंकी ऊर्ध्वारोही शृंखलापर आरोहण कराती है ।

 

हमारे अंधकारकी यह रात्रि सर्वथा प्रकाशरहित ही नहीं है । यदि और कुछ भी न हो, यदि सब कहीं घना अंधकार ही अंधकार हो तो भी क्रान्तदर्शी-संकल्परूपी अग्नि (कवि-क्रतु: )की दिव्य ज्वाला घने अंधकारको चीरकर प्रज्वलित होती है और उस व्यक्तिको प्रकाश देती है जो उसकी छाया तले दूर बैठा होता है । यद्यपि वह अभीतक यज्ञकी वेदीपर उस .प्रकार प्रदीप्त नहीं होती जैसे कि वह उषाकालमें होगी, तो भी वह पार्थिव

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सत्तापर आवेग और कामनाके इस सारे आच्छादक धुएँके होते हुए भी, देवोमेंसे सबसे निचले और फिर भी सबसे बड़े देवके रूपमें गुप्त ज्योतिके संकल्प और कार्योंको पूरा करती है । और रातको अनंत सम्राट्के अजेय कार्यकलापको प्रकट करते हुए तारे चमक उठते हैं और उनके साथ चंद्रमा भी आता है । इसके अतिरिक्त रात्रि सर्वदा अपनी ज्योतिर्मय बहिनको अपने वक्षःस्थलमें छिपाये रखती है; हमारा यह अज्ञानमय जीवन मनुष्यके अंदर प्रच्छन्न रूपसे कार्य करते हुए देवों द्वारा प्रबोधित होकर दिव्य उषाके जन्मकी तैयारी करता है ताकि वह (उषा) वेगपूर्वक प्रचालित होकर ज्योतिर्मय स्रष्टाकी सर्वोच्च सृष्टिको प्रकट कर सके । क्योंकि दिव्य उषा अदितिकी ही एक शक्ति या मुखाकृति है, वह देवोंकी माता है । वह उन्हें हमारी मानवसत्तामें उनके उन सच्चे रूपोंमें जन्म देती है जो अब और दबकर हमारी क्षुद्रताका रूप नहीं धार लेते और हमारी दृष्टिके प्रति ढके नहीं रहते ।

 

परंतु यह महान् कार्य सत्यके व्यवस्थित क्रमोंके अनुसार उसकी नियत ऋतुओंमें, यज्ञके बारह महीनोंमें, सूर्य-सविताके दिव्य वर्षोमें संपन्न किया जाना है । इसलिये निशा और उषाका सतत लयताल तथा क्रमिक आगमन, ज्योतिके प्रदीपन और उसके निर्वासनके काल, हमारे अंधकारके आवरणोंके उद्घाटन और उसका हमारे ऊपर एक बार फिर आ जमना--यह सब तब तक होता रहता है जब तक दिव्य जन्म साधित नहीं हो जाता और फिर तब तक भी जब तक वह अपनी महत्तामें, अपने ज्ञान, प्रेम और बलमे परिपूर्ण नहीं हो जाता । ये बादमें आनेवाली रात्रियाँ उन चरम-अन्धकारमय अवस्थाओंसे भिन्न हैं जिन्हें यह मानकर भयानक समझा जाता है कि वे शत्रुको अवसर देनेवाली है और हड़प जानेवाले विभाजक असुरोंके अड्डे हैं । ये तो वस्तुत: सुहावनी रात्रियाँ हैं जो दिव्य और धन्य हैं, जो उषाके समान ही हमारे अभिवर्धनके लिये प्रयास करती हैं । इस प्रकार निशा और उषा भिन्न-भिन्न रूपोंवाली होती हुई भी एक-मनवाली हैं और उसी एक ज्योतिर्मय शिशुको बारी-बारीसे दूध पिलाती हैं । तब हमें अन्धकारकी गतियोंके द्वारा भी सुखकर रात्रियोंमें शुभ्रतर देवीकी सत्य-प्रकाशक प्रभाओंका शान होता है । इसलिए कुत्स ऋषि इन दो बहिनोंकी इस रूपमें स्तुति करता है कि ''एक ही प्रेमीवाली और परस्पर-संगत वे अमर बहिने प्रकाशके रंग-रूपका निर्माण करती हुई द्यावापृथिवीमें विचरण करती हैं; इन दोनों बहिनोंका एक ही अनंत पथ है, अपने रूपोंमें भिन्न होती हुई भी समान मनवाली वे देवोंसे शिक्षित होकर उसपर एक-एक

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करके चलती हैं'' (ऋ०1.113.2,3) ।1 क्योंकि इनमेंसे एक है गोयूथोंकी तेजस्वी माता, दूसरी है अंधकारमय गाय, कृष्णवर्ण अनंत सत्ता, जिसके काली होनेपर भी उससे हमारे लिए द्युलोकका प्रकाशमय दूध दोहा जा सकता है ।

 

इस प्रकार त्रिदश या तीस उषाएँ-तीस हमारी मनोमय सत्ताकी संख्या है-निरंतर बारी-बारीसे आकर एक मास बनाती हैं जिससे कि अंतमे मानवजातिके सुदूर अतीत युगमें हमारे पूर्वजोंको हुआ आश्चर्यमय अनुभव किसी दिन हमपर प्रस्फुटित हो उठे । उस अतीत युगमें उषाएँ बीचमें किसी भी रात्रिके बिना एक दूसरीके बाद आती थीं, वे अपने प्रेमीके समान सूर्यके पास आकर उसके चारों ओर चक्कर लगाती थीं और उसके नियत कालपर आगमनोंके अग्रदूतके रूपमे फिर-फिर लौटकर नहीं आती थीं । पूर्वजोंके अनुभवका यह प्रस्फुटन तब साधित होगा जब अतिमानसिक चेतना मानस सत्तामें चरितार्थ होकर प्रकाशित हो उठेगी ओर हम उस वर्ष-व्यापी दिनको अधिकृत कर लेंगे जिसका रसास्वादन देवगण सनातन पर्वतके शिखरपर करते हैं । ''सर्वश्रेष्ठ'' या सर्वोच्च, अत्यंत महिमामय उषाका उदय तब होगा, जब यह ''शत्रुको दूर भगाती हुई सत्यकी संरक्षिका, सत्यमें उत्पन्न, आनंदसे पूर्ण, सर्वोच्च सत्योंका उच्चारण करनेवाली, सब वरोंमें परिपूर्ण होकर देवत्वोंके जन्म और आविर्भावको लायेगी'' (ऋ० 1.113. 122) । इस बीच प्रत्येक उषा आनेवाली उषाओंकी लंबी परंपरामें पहली उषाके रूपमें आती है और उन उषाओंके पथ और लक्ष्यका अनुसरण करती है जो उससे पहले ही आगे जा चुकी हैं । प्रत्येक उषा आती हुई जीवनको ऊपरकी ओर प्रेरित करती है और हमारे अंदर ''किसी एकको जो मर चुका था'' जगा देती है (ऋ. 1.113 .8) 3 । देवोंकी माता, अनंतकी शक्ति,

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1.  रुशद्वत्सा रुशती श्वेत्यागादारैगु कृष्णा सदनान्यस्या: ।

    समानबन्धू अमृते अनूची द्यावा वणै चरत आमिनाने ।।

    समानो अध्वा स्वस्रोरनन्तस्तमन्यान्या चरतो देवशिष्टे ।

    न मेथेते न तस्थतु: सुमेके नक्तोषासा समनसा विरूपे ।।

ऋ. 1.113.2,3

2.  यावयदद्वेषा ऋतपा ऋतेजा: सुम्नावरी सूनृता ईरयन्ती ।

    सुमङ्ग:लोर्बिभ्रती देववीतिमिहाद्योष: श्रेष्ठतमा व्युच्छ ।।

ऋ. 1.113.12 

3.  परायतीनामन्वेति पाथ आयतीनां प्रथमा शश्वतीनाम् ।

    व्युच्छन्ती जीवमुदीरयन्त्युषा मृतं कं चन बोधयन्ती ।।

ऋ. 1.113.8

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यज्ञसे जागत होनेवाली विशालदृष्टिरूप उषा आत्माके विचारको अभिव्यक्त कर देती हैं एवं जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है उस सबमें हमें विश्वव्यापी जन्म प्रदान करती है (ऋ. 1.11.113.191) ।

 

भौतिक प्रकृतिकी सुंदरता और महिमासे गहरे प्रभावित वैदिक ऋषि, अन्त:प्रेरित कवि उन रूपकोसे अधिकाधिक लाभ उठाये बिना नहीं रह सके जो उन्हें पार्थिव उषाके उदयके इस भव्य और आकर्षक प्रतीकसे प्राप्त हुए थे, यहाँ तक कि यदि हम असावधानीसे या काव्यमय रूपकके प्रति अत्यधिक आसक्तिके साथ उनका अध्ययन करें तो हम उनका गंभीर भाव खो देंगे या उसका वर्जन ही कर देंगे । परंतु अपनी सुंदर देवीके प्रति गाये हुए किसी सूक्तमें वे हमारे सामने उन उज्ज्वल संकेतों, प्रकाशप्रद विशेषणों, गंभीर रहस्यमय पदावलियोको प्रस्तुत करना नही भूलते जो हमें प्रतीकके दिव्य भावका स्मरण करायेंगे । विशेषकर वे किरणोके अर्थात् तेजस्वी गौओके यूथके उस अलंकारका प्रयोग करते है जिसके चरों ओर उन्होंने अंगिरस् ऋषियोंकी रहस्यमय गाथाको गूंथा है । उन्होंनें उषाका आवाहन किया है कि वह हमपर उस प्रकार चमके जिस प्रकार वह सप्तमुखी (सप्तास्य) अगिरस्पर, नौ रश्मियों और दस रश्मियोवाले ऋषियोंकी एकत्मतापर चमकी थी जिन्होंने आत्माके चरम विचारके द्वारा, प्रकाशप्रद शब्दके द्वारा उन दुर्गबद्ध बाडों, ''अंधकारके बाड़ों''को तोड़कर खोल डाला था जिनमें पणियोंने, रात्रिके कृपण स्वामियों और व्यापारियोंने सूर्यके तेजस्वी गोयूथोंको बंदकर रखा था । उषाकी रश्मिया हैं 'इन तेजस्वी गौओंका विमोचन'; स्वयं उषाएँ मानो उन यूथ-बद्ध प्रभाओकी उन्मुक्त ऊर्ध्वमुख गतियाँ हैं । पवित्र और पावक होती हुई वे बाड़ेके द्वारोंको तोडकर खोल देती हैं, उषा यूथोकी ऐसी माता है जो सत्यकी स्वामिनी है, वह अपने आप एक तेजस्वी गौ है और उसका दूध द्युलोकसे उपजा दिव्य रस है, एक ऐसा प्रकाशमय दुग्ध है जो देवोकी सुरासे मिश्रित है ।

 

यह उषा न केवल हमारी पृथ्वीको अपितु समस्त भुवनोको प्रकाशित करती है । वह हमारी सत्ताके क्रमिक स्तरोंको प्रकट करती है ताकि हम सब 'नानाविध जीवनों' पर दृष्टिपात कर सकें जिन्हें हम धारण करने मे समर्थ हैं । वह सूर्यकी आखसे उन्हें प्रकाशमें लाती है तथा 'संभूतिके लोकोंके' अभिमुख होकर 'अमरताकी दिव्य दृष्टिके रूपमें उन सबके ऊपर

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1.  माता देवानामदितेरनीक यज्ञस्य क्तुतुर्बुली वि भाहि ।

    प्रशस्तिकृद् ब्रह्मणे नो व्युच्छा नो जन जनय विश्ववारे ।। ऋ. 1.113.19

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ऊर्ध्वमे स्थित होती है ।' (ऋ. 111.61.31) । वह स्वयं एक ऐसी दिव्य दृष्टि है जो चक्षुके रूपमे विस्तृततया चमक उठती है और वह अपने प्रेमी सूर्यकी तरह केवल अन्तर्दृष्टि ही नहीं अपितु शब्द भी प्रदान करती है; ''वह प्रत्येक विचारकके लिए वाणी खोज लाती है'', वह आत्माके भीतर विद्यमान विचारको अभिव्यक्ति प्रदान करती है । जो केवल अल्प ही देखते है उन्हें वह विशाल दृष्टि प्रदान करती है और उनके लिए सारे लोकोंको प्रकट कर देती है । क्योंकि वह विचारकी देवी है, ''अनेक विचारोसे सम्पन्न युवती और सनातन देवी है जो दिव्य विधानके अनुसार गति करती है'' (ऋ. 111.61.12) । वह प्रत्यक्ष-अनुभवरूपी ज्ञानकी देवी है जिसके पास पूर्ण सत्य है । वह सब ज्योतियोंकी परम ज्योति है और वैविध्ययुक्त तथा सर्वालिगी चेतन दृष्टिके रूपमे उत्पन्न हुई है । वह एक ज्ञानपूर्ण ज्योति है जो अधकारमेसे निकलकर ऊपरको उठती है । ऋषि पुकारकर कहता है, ''हम इस अंधकारको पार कर इसके दूसरे किनारेपर पहुँच गए है'', ''उषा फूट रही है और वह ज्ञानमय जन्मोंका सर्जन कर रही और उन्हें रूप प्रदान कर रही है'' (ऋ. 1.92.63) ।

 

सत्यका विचार निरन्तर इस ज्योतिर्मय उषा देवीके साथ सम्बद्ध है । वह द्युलोककी प्रभाओके द्वारा सत्यसे परिपूरित देवीके रूपमे जागरित होती है । वह सत्यके शब्द उच्चारित करती हुई आती है । उसके उदय अपने पदार्पणमे प्रकाशमय होते है, क्योकि सत्यसे उत्पन्न होनेके कारण वे सत्यमय है । सत्यके धामसे ही वे उषाएँ जागरित होती है । वह पूर्ण सत्योंकी तेजस्वी नेत्री है जो हमें अनुभवमे चित्र-विचित्र विविध प्रकाशोसे युक्त पदार्थोके प्रति जागरित करती है और सब द्वारोंको खोल देती है । प्रचंड अग्निदेव सत्यके आधारमें, जो उषाओका भी आधार है, अपनी प्रेरणा पाकर हमारे, द्युलोक और पृथ्वीके महान् विस्तारमें प्रवेश करता हैं; क्योकि इस उषाके देदीप्यमान होनेका अर्थ है ''मित्र और वरुणका बृहत् ज्ञान और

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1. उषः प्रतीची भुवनानि विश्वोर्ध्वा तिष्ठस्यमृतस्य केतु:

   समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववत्स्व ।। ऋ. 111.61.3

2. उषो वाजेन वाजिनि प्रचेता: स्तोमं जुषस्व गृणतो मधोनि ।

   पुराणी देवि युवति: पुरन्धिरनु व्रतं चरसि विश्ववारे ।।

ऋ. 111.61.1 ''

3. अतारिष्म तमसस्पारमस्योषा उच्छन्ती वयुना कृणोति ।

   श्रिये छन्दों न स्मयते विभाती सुप्रतीका सौमनसायाजीग: ।।

ऋ. 1.92.6

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वह आनन्दमय वस्तुकी भांति प्रकाशको सर्वत्र अनेक रूपोंमें व्यवस्थित कर देता है'' (ऋ. 111.61.72) ।

 

इसके अतिरिक्त उषा हमें हमारे अभीष्ट ऐश्वर्य प्रदान करती है तथा मनुष्यको दिव्य पथ पर ले जाती है । वह सब वरोंकी सम्राज्ञी है और जो धन-संपदा वह देती है, जिसे गौ और अश्वके गुहय प्रतीकोंसे प्रकट किया गया है, वह उच्चतर स्तरोंका शुभ्र विपुल वैभव है । अग्निदेव उससे उनके आनदपूर्ण सारतत्वकी याचना करता है और उसके प्रकाशमय आगमनके समय उससे वह सारतत्त्व प्राप्त कर लेता है । वह मर्त्यको अन्त:प्रेरित ज्ञान, प्रचुर ऐश्वर्य एवं प्रेरक बल व विशाल ऊर्जा प्रदान करती है । वही अपने प्रकाशसे मत्योंके लिए पथका निर्माण करती है । वह उनके लिए उन अच्छे मार्गोंको बनाती है जो सुखद और सुगम हैं । वह मानवको उसकी यात्रापर अग्रसर करती है । ऋषि कहता है, ''तू यहाँ. बल, ज्ञान और महान् प्रेरणाके लिए विद्यमान है, तू लक्ष्यकी ओर हमारी गति है, तू हमें यात्रापथपर चलाती है ।'', उसका पथ प्रकाशका पथ है और वह सत्यसे जोते गए अश्वोंके द्वारा उसपर गति करती है, वह स्वयं सत्यसे संपन्न है और है सत्यकी शक्तिसे विशाल । वह सत्यके पथका प्रभावशाली रूपमे अनुसरण करती है और एक ज्ञानीकी तरह इसकी दिशाओंका उल्लंघन नहीं करती । सूक्तमें आगे गाया गया है, ''इसलिए हे दिव्य उष ! आनंदके अपने रथमें सत्यके शब्दोंका उच्चारण करती हुई तू अमर रूपमे हमपर प्रकाशित हो जा । अपने विशाल बलसे युक्त सुनियन्त्रित, सुनहरे रंगवाले, अश्व तुझे यहाँ लावें'' (ऋ. 111.61 .22)

 

पथके अन्य नेताओंकी तरह वह भी शत्रुओंका नाश करनेवाली है । जब कि आर्य उषामें जागता है, जीवन और ज्योतिके संबंधमें कृपण पणि अंधकारके अन्तस्तलमें जहाँ उषाकी चित्र-विचित्र ज्ञानकिरणें नहीं है, बिना जागे सोए पड़े रहते हैं । सशस्त्र वीरकी भांति वह हमारे शत्रुओको दूर भगा देती है और आक्रमण करनेवाले युद्धके घोड़ेकी तरह अंधकारको तितर-बितर कर देती है । द्युलोककी पुत्री शत्रुओं और सब अधकारोको परे

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1.  ऋतस्य बध्न उषसामिषण्यन् वृषा मही रोदसी आ विवेश ।

    मही मित्रस्य वरुणस्य माया चन्देव भानुं विदधे पुरुत्रा ।।

ऋ. 111.61. 7

2.  उषो देव्यमर्त्या विभाहि चन्द्ररथा सुनृता ईरयन्ती ।

    आ त्वा वहन्तु सुयमासो अश्वा हिरष्यवर्णा: पृथुपाजसो ये ।।

ऋ. 111.61. 2

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धकेलती हुई ज्योतिके साथ आती है । और यह ज्योति उस स्वर्लोककी- ज्योतिर्मय लोक की ज्योति है जिसका सर्जन सविता सूर्य हमारे लिए करेगा । क्योंकि वह प्रकाशमय मार्गोंकी दिव्य उषा है, सत्यसे विशाल है और हमारे लिए सत्यका भास्वर लोक लाती है, इसलिए ज्ञान-आलोकित मनुष्य अपने विचारोंसे उसकी आराधना करते है । परम आनन्दके अधिपतिकी वधू उषा मानों चोगेको उतारती हुई अपने परिपूर्ण कार्य और परिपूर्ण आनन्दोप-भोगसे 'स्वर'का निर्माण करती है और द्युलोकके अंतिम छोरोंसे संपूर्ण पृथ्वी-पर अपनी महिमासे विशाल रूपमें फैल जाती है । आनन्द-मधुको स्थापित करती हुई वह द्युलोकमे ऊर्ध्वस्थित शक्तिको प्राप्त करती है और उस लोकके तीन ज्योतिर्मय प्रदेश इस महती उषाकी आनदपूर्ण दृष्टिसे भासित हों उठते है

 

इसीलिए ऋषि पुकार-पुकारकर कहता है, ''उठो, जीवन और बल हमारे पास आ गए है, अंधकार दूर हो गया है, ज्योति आ गई हैं, उषाने सूर्यकी यात्राके लिए पथ खाली कर दिया है । आओ हम उधर चलें जहाँ देवगण हमारी सत्ताको इन सीमाओंसे परे आगे ले जाएँगे'' (ऋ. 1.113.161) ।

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