Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
द्वितीय खण्ड
सूक्तरत्न-संग्रह
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पहला अध्याय
इन्द्र और अगस्त्यका संवाद
ऋग्वेद, मण्डल 1, सूक्त 17०
इन्द्र
न नूनमस्ति नो श्वः कस्तद् यदद्भुतम् ।
अन्यस्य चित्तमभि सञ्चरेष्यमुताधीतं वि नश्यति ।।1 ।।
वह (न नूनम् अस्ति ) न अब है (नो श्व: ) न कल होगा; (तद् क: वेद यद् अद्भुतम् ) उसे कौन जानता है जो सर्वोच्च और अद्भुत है ? (अन्यस्य चित्तम् ) अन्यकी चेतना (अभि सञ्चरेष्यम् ) इसकी गति और क्रियासे संचारित तो होती है, (उत आधीतम् ) पर जब हम विचार द्वारा इसके समीप पहुँचते हैं, तब (वि नश्यति ) यह लुप्त हो जाता है ।।1 ।।
अगस्त्य
किं न इन्द्र जिधांससि भ्रातरो मरुतस्तव ।
तेभि: कल्पस्व साधुया मा न: समरणे वधी: ।।2|।
(इन्द्र किं न: जिघांससि) हे इन्द्र ! तू क्यों हमारा वध करना चाहता है ? (मरुत: तव भ्रातर: ) ये मरुत् तेरे भाई हैं । (तेभि: साधुया कल्पस्व) उनके साथ मिलकर तू पूर्णताको सिद्ध कर; (समरणे ) हमें जो संघर्ष करना पड़ रहा है उसमें (न: मा वधी: ) तू हमारा वध मत कर ।|2।।
किं नो भ्रातरगस्त्य सखा सन्नति मन्यसे ।
विद्या हि ते यथा मनोऽस्मभ्यमिन्न दित्ससि ।।3|।
अरं कृष्यन्तु वेदिं समग्निमिन्धतां पुर: ।
तत्रामृतस्य चेतनं यज्ञं ते तनवावहै ।।4।।
(किं, भ्रात: अगस्त्य) क्यों, ऐ मेरे भाई अगस्त्य ? (सखा सन् ) तू मेरा मित्र है तो भी (न:. अतिमन्यसे ) अपने विचारको मुझसे परे रखता है ? खैर, (विद्म हि ) मैं खूब अच्छी तरह जानता हूँ (यथा ) कि क्यों तू (ते मन: ) अपने मनको (अस्मभ्यम् इत् न दित्ससि) हमें नहीं देना चाहता ||3||
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वे मरुत (वेदिम् अरं कृण्वन्तु ) वेदि तैयार कर लें, (पुर: अग्निम् समिन्धताम् ) अपने आगे अग्नि प्रज्वलित कर लें । (तत्र ) वही अर्थात् उसी अवस्थामें (अमृतस्यचेतनम्) चेतना अमरत्वकी प्राप्तिके लिये जागृत होगी । आ (ते यज्ञं तनुवावहै) हम दोनों मिलकर तेरे लिये तेरे फल- साधक यज्ञका विस्तार करें ।।4।।
त्वमीशिषे वसुपते वसूनां त्वं मित्राणां मित्रपते धेष्ठ: ।
इन्द्र त्वं मरुद्धि: सं वदस्वाध ॠतुथा हवींषि ।।5।।
(वसूनां वसुपते ) हे वसुओंके, सब जीवन-तत्त्वोंके शासक, वसुपते ! (त्वम् ईशिषे ) तू शक्तिशाली स्वामी है । (मित्राणां मित्रपते ) हे प्रेम-शक्तियोंके शासक प्रेमाधिपते ! (त्वं धेष्ठ: ) तू स्थितिमें प्रतिष्ठित करनेके लिये सबसे अधिक सबल है । (इन्द्र ) हे इन्द्र ! (त्वं मरुद्धि: संवदस्व) तू मरुतोंके साथ सहमत हो जा, (अध ) और तब (ऋतुथा ) सत्यकी सुव्यस्थित पद्धतिके अनुसार (हवींषि प्राशान) हवियोंका स्वाद ले ।।5||
भाष्य
इस सूक्तमें जो आधारभूत विचार है उसका संबंध आध्यात्मिक प्रगतिकी एक अवस्थासे है, और यह अवस्था वह है जब मनुष्यका आत्मा केवल विचार-शक्तिके द्वारा ही शीघ्रताके साथ आगे बढ़कर पार हो जाना चाहता है ताकि समयके पहले ही,--सचेतन क्रियाकी जो क्रमश: एकके बाद दूसरी अवस्थाएँ आती हैं उन सबमें पूर्ण विकास पाये बिना ही,-वह सब वस्तुओंके मूल कारण (स्रोत)तक पहुँच जाय । देव जो मानव-विश्व और विराट्-विश्व दोनोंके शासक हैं उसके इस प्रयत्नका विरोध करते हैं और मनुष्यकी चेतनाके अंदर एक जबर्दस्त संघर्ष चलता है, जिसमें एक तरफ तो अपनी अहंभावप्रेरित अति उत्सुकतासे युक्त व्यक्तिगत आत्मा होता है और दूसरी तरफ विश्व-शक्तियाँ जो विश्वके दिव्य उद्देश्यको पूर्ण करना चाह रही होती हैं ।
ऐसे क्षणमें ॠषि अगस्त्यकी, अपनी आन्तर अनुभूतिमें, इन्द्रसे भेंट
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1. यह अनुवाद मैं सामान्य पाठकों के लिये दे रहा हूं । अमुक शब्द का अर्थ अमुक
तौर पर मैंने क्यों किया है रसके विस्तार में जाना, इसके लिये भाषाविज्ञान-संबंधी
तथा अन्य प्रकार के प्रमाण देना यहां संभव नहीं होगा और वैसे भी यह थोड़े से
अन्वेषक विद्वान् लोगों के लिये ही रुचिकर होगा, इसलिये यहां इसे मैं छोह दे रहा
हूं या स्थगित कर रहा हूँ ।
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होती है । इन्द्र स्वःका अधिपति है और 'स्व:' है विशुद्ध प्रज्ञाका लोक । दिव्य सत्यमें पहुँचनेके लिये आरोहण करते हुए आत्माको इस लोकके बीचमें से होकर गुजरना होता है ।
सर्वप्रथम इन्द्र कहता है कि हे अगस्त्य ! वस्तुओंका वह मूल स्रोत अविज्ञेय है जिसे पानेके लिये तुम ऐसी अधीरताके साथ यत्न कर रहे हो । वह कालमें नहीं पाया जा सकता (वह कालातीत है ) । वह वर्तमानकी वास्तविक वस्तुओंके अंदर नहीं रहता, न ही वह भविष्यमें फलित होनेवाली संभाव्य वस्तुओंमें है । वह न अब है, न अबके बाद होता है । उसका अस्तित्व देश और कालसे अतीत है, और इसलिये वह स्वयं उससे नहीं जाना जा सकता जो देश और कालमें सीमित है । वह अपने रूपों और अपनी क्रियाओंके द्वारा अपने-आपको उसकी चेतनाके अंदर व्यक्त करता है जो वह स्वयं नहीं है (अन्यस्य ) और उन क्रियाओंका अभिप्राय यह है कि उसकी उन क्रियाओं द्वारा ही उसका साक्षात्कार किया जाना चाहिये । पर यदि कोई सीधा स्वयं इसके पास पहुँचनेका और इसके स्वरूपका अध्ययन करनेका यत्न करता है तो झट यह उस विचारमेंसे जो इसे ग्रहण करना चाहता है निकलकर अन्तर्धान हो जाता है और ऐसा हो जाता है मानो यह है ही नहीं (देखो, मंत्र 1 ) ।
अगस्त्य अबतक नहीं समझ पाता कि भला क्यों अपने लक्ष्यके अनुसरणमें उसका ऐसा जबर्दस्त विरोध किया गया है, वह तो उसीका अनुसरण कर रहा था जो सब मनुष्योंका अंतिम लक्ष्य है और उसके सब विचार तथा उसके सब अनुभव जिसकी माँग कर रहे हैं । 'मरुत्' विचारकी शक्तियाँ है जो अपनी अग्रगतिकी सबल तथा दीखनेमें विनाशक क्रियाके द्वारा उस सबको तोड़ गिराती हैं जो अबतक निर्मित हुआ है तथा नवीन रचनाओंकी उपलब्धिमें सहायक होती हैं । इन्द्र है विशुद्ध प्रज्ञाकी शक्ति, वह मरुतोंका भाई है, अपनी प्रकृतिमें उनका सजातीय है यद्यपि सत्तामें उनसे ज्येष्ठ है । तो इन्द्रको उन मरुतोंकी सहायतासे उस पूर्णताको निष्पन्न करना ही चाहिये जिसके लिये अगस्त्य. इतना प्रयलशील है, उसे शत्रु नहीं बन जाना चाहिये, उसके मित्र (अगस्त्य ) को लक्ष्यकी प्राप्तिके लिये जो यह भीषण संघर्ष करना पड़ रहा है उसमें इन्द्रको उसका वध नहीं करना चाहिये (देखो, मन्त्र 2) ।
इन्द्र उत्तर देता है कि है अगस्त्य ! तुम मेरे मित्र और भाई हो, (आत्मत: अगस्त्य इन्द्रका भाई इस तरह है कि ये दोनों एक परम सत्ताके पुत्र हैं मित्र इस तरह है कि ये दोनों एक प्रयत्नमें सहयोगी होते हैं तथा
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दिव्य प्रेममें, जो देव और मनुष्यको जोड़नेवाला है, ये दोनों एक होते हैं ), और इसी मित्रता तथा बन्धुताके सहारे तुम उत्तरोत्तर आनेवाली पूर्णतामें बढ़ते हुए वर्तमान अवस्थातक पहुँच पाये हो; पर अब तुम मेरे प्रति ऐसा व्यवहार कर रहे हो जैसे कि मैं कोई अवर कोटिकी, घटिया दर्जेकी शक्ति हूँ और देवके राज्यमें अपनेको सिद्ध किये बिना ही तुम परे पहुँच जाना चाहते हो । क्योंकि अगस्त्य अपनी बढ़ी हुई विचार-शक्तियोंको सीधे अपने लक्ष्यकी तरफ ही फेरना चाहता है, इसकी जगह कि वह उन्हें विराट् प्रज्ञामें सौंप देवे जिससे कि वह विराट् प्रज्ञा अपनी सिद्धियोंको अगस्त्य द्वारा सारी मानवतामें सुसमृद्ध कर सके तथा अगस्त्यको सत्यके मार्गपर अग्रसर कर सके । इसलिये इन्द्र कहता है अहंभावसे भरा हुआ प्रयत्न रोक दो, महान् यज्ञको ग्रहण करो, यज्ञके प्रधान अंग तथा यात्राके पथ-प्रदर्शकके तौरपर अपने आगे अग्निको, दिव्य शक्तिकी ज्वालाको, प्रज्वलित कर लो । मैं (इन्द्र ) और तुम (अगस्त्य ), विराट् शक्ति और मानव आत्मा, दोनों मिलकर फलसाधक आन्तरिक क्रियाको समस्वरताके साथ विशुद्ध प्रज्ञाके स्तरपर विस्तृत करेंगे, ताकि यह क्रिया वहाँ अपनेको सुसमृद्ध कर सके और पार होकर लक्ष्यको पहुँच सके । क्योंकि जब निम्न सत्ता अपने-आपको उत्तरोत्तर दिव्य क्रियाओंके अर्पण करती चलती है, ठीक तभी मर्त्यकी सीमित तथा अहंभावसे परिपूर्ण चेतना जागृत होकर असीमता तथा अमरत्वकी उस अवस्थातक पहुँच सकती है जो उसका लक्ष्य है, (देखो, मंत्र 3, 4 ) ।
अगस्त्य इस देवकी इच्छाको स्वीकार कर लेता है और उसे आत्म-समर्पण कर देता है । वह इस बातपर सहमत हो जाता है कि वह इन्द्रकी क्रियाओंमें भी सर्वोच्च शक्तिको देखे और उसे सिद्ध करे । अपने स्वकीय लोकसे इन्द्र जीवनके उन सब तत्त्वों (वसुओं ) पर सर्वोच्च अधिपतिके रूपमें शासन करता है जो मन, प्राण और शरीरके त्रिगुण लोकमें अभिव्यक्त होते हैं, और इसलिये उसमें ऐसी शक्ति है कि वह उस 'दिव्य सत्यकी सिद्धिके लिये, जो विश्वमें अपनेको अभिव्यक्त करता है, इस त्रिगुण लोककी रचनाओंको--प्रकृतिकी क्रियामें-उपयोगमें ला सके । साथ ही इन्द्र सर्वोच्च अधिपति है प्रेम और आनंदका जो प्रेम और आनंद उसी (मन, प्राण और शरीरके ) त्रिगुण लोकमें व्यक्त होते हैं और इसलिये उसमें ऐसी शक्ति है कि वह इसकी रचनाओंको समस्वरताके साथ-प्रकृतिकी स्थितिमें--यथास्थान स्थापित कर सके । अगस्त्यको जो कुछ भी सिद्धि हुई है उस सबको वह, यज्ञको हविकी तरह, इन्द्रके हाथोंमें सौंप देता है ताकि इन्द्र उसे अगस्त्यकी चेतनाके सुप्रतिष्ठित भागोंमें धारण करा सके तथा नवीन रचनाओंको संपन्न
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करनेके लिये उसे गति दे सके । इन्द्रको एक बार फिर अगस्त्यके जीवनकी ऊर्ध्यगामिनी अभीप्सा-शक्तियों (मरुतों ) के साथ मैत्री-संलाप करना है और उस ऋषिके विचारों तथा उस प्रकाशके बीचमें, जो हम तक विशुद्ध प्रज्ञाके द्वारा आता है, एकता स्थापित करानी है । वह शक्ति (इन्द्र-शक्ति ) तब अगस्त्यके अंदर यज्ञको हवियोंका उपभोग करेगी, वस्तुओंके उस उचित नियमक्रमके अनुसार उपभोग करेगी जो उस पार जनेवाले सत्यसे व्यवस्थित तथा शासित होता है, (देखो, मंत्र 5 ) ।
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