वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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दूसरा अध्याय

 

इन्द्र,  दिव्य प्रकाश का प्रदाता

 

ऋग्वेद मण्डल 1, सूक्त 4

 

सुरूपकृत्नुमूतये सुदुधामिव गोदुहे ।

जुहूमसि द्यविद्यवि ।।1।।

 

(सुरूपकृत्नुम्) जो पूर्ण रूपोंका निर्माता है (गोदुहे सुदुधामिव) और गो-द्धोहकके लिये एक खूब दूध देनेवाली गौके समान है उस [ इन्द्र] 1 को हम (ऊतये) बृद्धिके लिये (द्यविद्यवि जुहूमसि) दिन प्रतिदिन पुकारते हैं ।।1।।

 

उप न: सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब ।

गोदा इद्रेवतो मद: ।।2|

 

(न: सवना उप आगहि ) हमारी सोम-रसकी हवियोंके पास आ । (सोमपा: ) हे सोम-रसोंके पीनेवाले ! (सोमस्य पिब) तू सोम-रसका पान कर; (रेवत: मद: ) तेरे दिव्य आनंदका मद (गोदा: इत् ) सचमुच प्रकाश देनेवाला है ।|2।।

 

अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम् ।

मा नो अति ख्य आ गहि ।।3।।

 

(अथ ) तब अर्थात् तेरे सोम-पानके पश्चात् (ते अन्तमानां सुमतीनाम् ) तेरे चरम सुविचारोंमेंसे कुछको (विद्याम) हम जान पावें । (मा न: अति ख्यः ) उनको हमें अतिक्रमण करके मत दर्शा, (आगहि ) आ ।।3।।

 

परेहि विग्रमस्तृतभिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम् ।

यस्ते सखिभ्य आ वरम् ।।4।।

 

(परेहि) आ जा, (इन्द्रं पृच्छ) उस इन्द्रसे प्रश्न कुर (विपश्चितम् ) जो स्पष्टदर्शी-मनवाला है, (विग्रम् ) बड़ा शक्तिशाली है एवं (अस्तृतम् ) अपराभूत है, और (य: ते सखिभ्य: ) जो तेरे सखाओंके लिये (वरम् आ) उच्चतर सुख लाया है ।।4।। 

____________

1. [ ]  ऐसे वर्गाकार कोष्ठोंमें दिखायेगये शब्द मूल अंग्रेजी अंग्रेजी ग्रन्थमें नहीं हैं और वे

  अनुवादको सुबोध वनानेके लिये जोड़े गये हैं ।                       -अनुवादक

 

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उत व्रवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत ।

दधाना इन्द्र इद् दुवः ।।5।।

 

(उत निद:: ब्रुवन्तु ) और हमारे अवरोधक1 भी हमें कहें कि ''नहीं, (इन्द्रे इत् दुवः दधाना: ) अपनी क्रियाका आधार इन्द्रपर रखते हुए तुम (अन्यत: चित् नि: आरत ) अन्य क्षेत्रोंमें भी निकलकर आगे बढ़ते जाओ'' ।।5।।

 

उत न: सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टय: ।

स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ।।6।।

 

(उत ) और (दस्म ) हे. कार्यसाधक ! (अरि:) योद्धा, (कृष्टय: ) कर्मके कुर्ता2 (न: सुभगान् वोचेयु: ) हमें पूर्ण सौभाग्यशाली कहें; (इन्द्रस्य शर्मणि इत् स्याम ) हम इन्द्रकी शांतिमें ही रहें ।।6।।

 

एमाशुमाशवे भर यज्ञश्रियं नृमादनम् ।

पतयन्मन्दयत्सखम् ।।7।।

 

(आशवे ) तीव्रताके लिये (आशुम्) तीव्रको (ला ), (मन्दयत्सखम् ) अपने सखाको आनंदित करनेवाले [ इन्द्र] को (पतयत्)  मार्गमें आगे ले आता हुआ तू (ईम् नृभांदनं यज्ञश्रियम् आभर) इस यज्ञश्रीको ले आ जो मनुष्यको मदयुक्त कर देनेवाली है ।।7।।

 

अस्त पीत्वा शतक्रतो धनों वृत्राणामभवः ।

प्रावो वाजेषु वाजिनम् ।।8|

 

(अस्य पीत्वा ) इस [सोम-रस] का पान करके (शतक्रतो ) हे सैंकड़ों क्रियाओंवाले ! (वृत्राणां धन: अभव: ) तू आवरणकर्ताओंका वध कर 

_____________

1. या निन्दक, 'निद:' । 'निदूं' धातु, मेरा विचार है, वेद में बंधन, सीमा एवं घेरेके अर्थमें

  आयी है, और ये अर्थ इसे 'भाषाविज्ञान द्वारा भी पूर्ण निश्चयात्मकताके साथ प्रदान

  किये जा सकते हैं । 'निदित' अर्थात् बद्ध और 'निदान' अर्थात् बन्धन-रज्जु, इन

  दोनों शब्दोंका भी आधार यही धातु है । पर साथ ही इस धातुका अर्थ निन्दा करना

  मी है । गुह्य कथन की इस अदभुत शैलीके अनुसार विभिन्न सन्दमोंमें कहीं एक अर्थ

  प्रधान होकर रहता है कहीं दूसरा, पर कहीं भी एक अर्थ दूसरे अर्थ का

  पूर्ण बहिष्कार सही करता ।

   2. 'अरिः कृष्टयः'  का अनुवाद ''ओर्य लोग'' या ''राणप्रिय जातियां'' मी हो सकता है ।

     'कृष्टि' और 'चर्षणि', जिसका अर्थ सायणने ''मनुष्य'' किया है, 'कृष्' तथा 'चर्ष्'

     धातुओंसे बने है जिनका मलू अर्थ है 'श्रम, प्रयत्न या श्रमसाध्य कर्म' |  इन शब्दोंका

     अर्थ कहीं-कहीं 'वैदिक कर्म का कर्ता' और कहीं स्वयं 'कर्म' भी हौ जाता' है ।

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डालनेवाला हो गया है, और तूने (वाजिनम्) समृद्ध, मनको (वाजेषु ) उसकी समृद्धियोंमें (प्र आव: ) रक्षित किया है ।।8।।

 

तं त्या वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो ।

धनानामिन्द्रसातये ।।9|

 

(वाजेषु वाजिनं सातये ) अपनी समृद्धियोंमें समृद्ध हुए उस तुझको  (इन्द्र शतक्रतो) हे इन्द्र ! हे सैंकड़ों क्रियाओंवाले ! (धनानां सातये ) अपने प्राप्त ऐश्वर्योंकि सुरक्षित उपभोगके लिये (वाजयामः ) हम और अधिक समृद्ध करते हैं ।।9|

 

यो रायोवनिर्महान्तसुपार: सुन्वत: सखा ।

तस्मा इन्दाय गायत ।।10|

 

(य: महान् राय: अवनि: ) जो अपने विशाल रूपमें एक दिव्य सुखका धाम है, (सुन्वतः सुपारः सखा ) जो सोम-प्रदाताका ऐसा सखा है कि उसे सुरक्षित रूपसे पार कर देता है, (तस्मै इन्द्राय गायत ) उस इन्द्रके प्रति गान करो ।।10।।

 

सायणकी व्याख्या

 

1. (सुरूपकृत्नुम् ) शोभनरूप [वाले कर्मों] के कर्ता, इन्द्रको हम (ऊतये ) अपनी रक्षाके लिये (द्यविद्यवि ) प्रतिदिन (जुहूमसि ) बुलाते हैं, (गोदुहे सुदुधाम् इव) जैसे गोदोहकके लिये सुष्ठुदोग्घ्री गायको [कोई बुलाया करता है]  ।

 

2.(सोमपाः ) हे सोम-पान करनेवाले इन्द्र ! (न: सवता उप आ-गहि) तू हमारे [तीन]  सवनोंमें आ, और (सोमस्य पिब ) सोमको पी;  (रेवतः मद: ) तुझ धनवान्की प्रसन्नता (गोदा: इत् ) सचमुच गौओंको देनेवाली है, अर्थात् जब तू हमसे प्रसन्न हो जाता है तब निश्चय ही हमें बहुत-सी गौएँ देता है ।

 

3. (अथ ) तेरे उस सोम-पानके अनंतर हम, (ते अन्तमानां सुमतीनाम् ) जो तेरे अत्यंत समीप हैं ऐसे सुमतियुक्त पुरुषोंके मध्यमें [स्थित होकर]  (विद्याम ) तुझे जान लें । (न: अति मा खः ) तू हमारा अतिक्रमण करके [अन्योंको अपने स्वरूपका]  कथन मत कर, [किंतु]  (आगहि ) हमारे पास ही आ ।

 

4. होता यजमानसे कहता है कि हे यजमान ! (परेहि ) तू इन्द्रके पास जा और जाकर (इन्द्रमू) उस इन्द्रसे (विपश्चितम् ) मुझ बुद्धिमान् होताके विषयमें (पृच्छ) पूछ [कि मैंने उसकी सम्यक् प्रकारसे स्तुति की है वा नहीं] , उस इन्द्रसे जो  (विग्रम्) मेघावी, अहिंसित

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है और (यः ते सखिभ्यः ) जो तेरे सखाओं [ॠत्विजों] (वरम) श्रेष्ठ धन [आप्रयच्छति] 1 सब तरफसे प्रदान करता है ।

 

5. (न: ) हमारे [अर्थात् हमारे ऋत्विज] (ब्रुवन्तु ) कहें [अर्थात् इन्द्रकी स्तुति करें],-(उत ) और साथ ही (निद: ) ओ निन्दा करनेवाले पुरुषो ! तुम [यहाँसे] तथा (अन्यतः चित् ) अन्य स्थानसे भी (नि: आरत ) बाहर निकल जाओ,-[हमारे ऋत्विज]  (इन्द्रे इत् दुव: दधाना: ) इन्द्रकी सदैव परिचर्या करनेवाले हों ।

6. (दस्म ) हे [शत्रुओंके] विनाशक ! (अरि: उत ) हमारे शत्रुतक  (न: सुभगान् वोचेयुः ) हमें शोभन घनोंका मालिक कहें,-(कृष्टय: ) मनुष्य [अर्थात् हमारे मित्र तो ऐसा कहेंगे ही, इसमें कहना ही क्या]; (इन्द्रस्य शर्मणि स्याम इत् ) इन्द्रके [प्रसादसे प्राप्त हुए]  सुखमें हम अवश्य होवें ।

 

7. हे यजमान ! (आशवे ) [समस्त सोमयागमें] व्याप्त इन्द्रके लिये (ईम् आभर ) इस [सोम]को ला, [जो सोम] (आशुम् ) [तीनों सवनोंमें] व्याप्त होनेवाला है, (यज्ञश्रियम् ) यज्ञको संपदा है, (नृमादनम्) मनुष्यों, अर्थात् ऋत्विजों व यजमानोंको हर्षित करनेवाला है, (पतयत् ) यज्ञविधियोंमें आनेवाला है, (मन्दयत्सखम् ) [यजमानको] आनंदित करने-वाले [इन्द्र]का सखा है ।

 

8. (शतक्रतो ) हे अनेक कर्मोंवाले इन्द्र ! (अस्य पीत्वा ) इस सोमका अंश पीकर तू (वृत्राणां धन: अभव: ) वृत्रोंका [अर्थात् वृत्र जिनका मुखिया है ऐसे शत्रुओंका] हन्ता बन गया है, और तूने (वाजेषु ) रणोमें (वाजिनम् ) अपने योद्धा भक्तकी (प्राव: ) पूर्णतया रक्षा की है ।

 

9- (शतॠतो) हे अनेक कर्मोंवाले या अनेक प्रज्ञाओंवाले इन्द्र ! (धनानां सातये ) धनोंके संभजनके लिये (वाजेषु ) युद्धोंमें (वाजिनं तं त्वा) बलवान्2 उस तुझको (वाजयाम: ) हम बहुत सारे अन्नोंसे युक्त  .करते हैं ।

______________

1. इति शेष: |

   2. देखो कि सायण वे मंत्रमें 'वाजेषु बाजिननम्'का अर्थ करता है ''रणोंमें योद्धा'' और

     इससे ठीक अगले ही 'मंत्रमें इसीका अर्थ ''युद्धोंमें बलवान्'' यह कर देता है | और

     'वाजेषु वाजिनं वाजयाम:' इस वाक्यांशमें उसने मूल शब्द 'वाज'के ही भिन्न-भिन्न

     तीन अर्थ कर डाले हैं, ''युद्ध'', ''बल'' और ''अन्न'' | यह सायणकी शैलीकी

     अत्यधिक असंगतियुत्तताका एक उदाहरणरूप नम-ना है ।

 

मैंने यहां दोनों (अपने तथा सायणके) अर्थोंको इकट्ठा दे दिया है ताकि पाठक

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10. (तस्मै इन्द्राय गायत ) उस इन्द्रके स्तुतिगीत गाओ (य: ) जो  ( राय: अवनि: ) धन-दौलतका रक्षक है, ( महान् ) महान् गुणोंवाला है,  ( सुपार: ) [कर्मोको] उत्तमताके साथ पूर्ण करनेवाला है, ( सुन्वत: सखा ) और सोमयाग करनेवाले यजमानका भित्रवत् प्रिय है ।

 

भाष्य

 

विश्वाभित्रका पुत्र ऋषि मधुच्छन्दसू सोम-रसकी हवि लेकर इन्द्रका आवाहन कर रहा है । इन्द्र है प्रकाशमय मनका अधिपति इन्द्रका आवाहन वह इसलिये कर रहा है कि वह प्रकाशमें वृद्धिगत हो सके । इस सूक्तमें, प्रयुक्त सब प्रतीक सामुदायिक यज्ञके प्रतीक हैं । इस सूक्तका प्रतिपाद्य विषय यह है कि इन्द्र आकर सोमका, अमरताके रसका, पान करे और उस सोमपानके द्वारा उसके अंदर बल तथा आनंदकी वृद्धि हो, और उसके परिणामस्वरूप मनुष्यमें प्रकाशका उदय हो जाय जिससे उसके आन्तरिक ज्ञानमें आनेवाली बाधाएँ हट जायँ और वह उन्मुक्त मनके उच्चतम वैभव प्राप्त कर ले ।

 

पर यह सोम क्या वस्तु है, जिसे कहीं-कहीं ग्रीक शब्द अम्ब्रोशिया (Ambrosia) )का वाच्य तत्त्व अमृत भी कहा गया है, मानो यह अपने-आपमें अमरताका सार-पदार्थ हो ? सोम है उस दिव्य आनन्द किंवा आनन्द-तत्त्वका प्रतीक जिसमेंसे, वैदिक विचारके अनुसार, मनुष्यकी सत्ता उद्भूत हुई है,  यह मानसिक जीवन निकला है । एक गुप्त आनंद है जो सत्ताका आधार है, सत्ताको धारण करनेवाला वातावरण या आकाश है, सत्ताका लगभग सार-तत्त्व ही है |  इस आनंदके लिये तैत्तिरीय उपनिषद्में कहा गया है कि यह दिव्य सुखका आकाश है जो यदि न हो तो किसीका भी अस्तित्व न रहे1 । ऐतरेय उपनिषद्में बताया गया है कि सोम, चंद्र-देवताके रूपमें,

______________

दोनों शैलियोंकी तथा दोनोंसे निकलनेवाले परिणामोंकी एक दूसरेके साथ सुमतासे

तुलना कर सके । जहां कहीं सायणको अर्थ के पूरा करनेके लिये या उसे आसानीसे

समझामें आने लायक मनानेके लिये अपनी तरफसे अध्यहार करना पड़ा है उसे मैंने 

[   ]  इस प्रकारके कोष्ठमें प्रदर्शित कर दिया है । मेरी समझमें, एक ऐसा पाठक भी

जो संस्कृतसे अपरिचित है, अकेले इसी नमूनेको देखकर, उन युक्तिओंका समर्थन कर

सकेगा जिनके आधार पर आधुनिक समालोचक मनको यह युक्तितुक्त जंचता है कि वह

यह माननेसे इन्कार कर दे कि वैदिक संहिताकी व्याख्याके लिये सायण एक

विश्वसनीय अंतिम प्रमाण है ।

 

1. देखो तै 2।7--"को ह्येवाऽन्यात् क: प्राष्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् | एष ह्येवानन्दयाति |"

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विराट् पुरुषके इन्द्रियाधिष्ठित मनसे पैदा होता है और जब मनुष्यकी रचना होती है तब वही चंद्रमा फिर मनुष्यके अंदर इन्द्रियाधिष्ठित मन-रूप होकर अभिव्यक्त हो जाता है ।1 क्योंकि आनंद ही इन्द्रिय-संवेदनके अस्तित्वका हेतु है, या हम यों कह सकते हैं कि सत्ताका जो गुप्त आनंद है उसे भौतिक चेतनाकी परिभाषाओंमें रूपांतरित करनेका एक प्रयत्न ही इन्द्रिय-संवेदन है । उस भौतिक चेतनाको प्राय: 'अद्रि' अर्थात् पहाड़ी, पत्थर या घनीभूत पदार्थके प्रतीकसे निरूपित किया गया है । उसके अंदर दिव्य प्रकाश और दिव्य आनंद दोनों ही छिपे और बंद हुए पड़े हैं और इन्हें वहाँसे मुक्त या निष्कासित किया जाना है । आनंद, रसके रूपमें; सार-तत्त्वके रूपमें, इन्द्रियाधिष्ठित विषयों तथा इन्द्रियानुभूतियोंमें, पृथ्वी-प्रकृतिकी उपजरूप पौधों व वनस्पतियोंमें रखा हुआ है, और इन वनस्पतियोंमें से रहस्यपूर्ण सोमलता सब इन्द्रिय-क्रियाओं तथा उनके सुखभोगोंके पीछे रहने-वाले उस तत्त्वका प्रतीक है जो दिव्य रस प्रदान करता है, जिससे दिव्य रस निचोड़ा जाता है । इस दिव्य रसको इसमेंसे क्षरित करना होता है और एक बार क्षरित हो जाय तो फिर इसे विशुद्ध करना और तीव्र बनाना होता है जबतक कि यह प्रकाशयुक्त, किरणोंसे परिपूर्ण, आशुगतिसे परिपूर्ण, बलसे परिपूर्ण, 'गोमत्', 'आशु', 'युवाकु' न हो जाय । सोमका यह दिव्य रस देवोंका मुख्य भोजन बन जाता है, वे देव सोम-हविके लिये बुलाये जानेपर, आकर आनंदका अपना भाग ग्रहण करते हैं और उस दिव्य आनंदके बलमें वे मनुष्यके अंदर प्रवृद्ध होते हैं, मनुष्यको उसकी उच्चतम शक्यताओंतक ऊँचा उठा देते हैं और उसे दिव्य उच्च अनुभूतियोंको पा सकने योग्य बना देते हैं । जो अपने अंदरके आनंदको हवि बनाकर दिव्य शक्तियोंके लिये अर्पित नहीं कर देते, बल्कि अपने-आपको इन्द्रियों तथा निम्न जीवनके लिये सुरक्षित रखना पसंद करते हैं वे देवोंके पूजक नहीं किंतु पणियोंके पूजक है । पणि इन्द्रिय-चेतनाके अधिपति हैं, इस चेतनाकी सीमित क्रियाओंमें व्यवहार करनेवाले हैं, वे रहस्यपूर्ण सोम-रसको नहीं निचोड़ते, विशुद्ध हवि अर्पित नहीं करते, पवित्र गान नहीं गाते । ये पणि ही प्रकाशमयी चेतनाकी दिव्य किरणोंको, सूर्यकी उन जगमगाती गौओंको हमारे पाससे चुरा ले जाते हैं, और उन्हें ले जाकर अवचेतनकी गुफामें, 

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1. देखो ऐत० खण्ड 1-2-''मनसश्चन्द्रमाः'' ।... ''चन्द्रमा मनो भूत्वा ह्रदयं प्राविशत् |"

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भौतिकताकी धनी पहाड़ीमें, बंद कर देते हैं,  और देवशुनी सरमा,  प्रकाशमय अन्तर्ज्ञान, जब उन गौओंके पदचिह्नोंका अनुसरण करते-करते पणियोंकी गफाके पास पहुँचती है तब उसे भी थे कलुषित कर देते हैं ।

 

पर इस सूक्तमें जो विचार दिया गया है वह हमारी आन्तरिक प्रगतिकी एक विशेष अवस्थासे संबंध रखता है । यह अवस्था वह है जब कि पणियोंका अतिक्रमण किया जा चुका है और 'वृत्र' या 'आच्छादक' भी जो हमसे हमारी पूर्ण शक्तियों तथा क्रियाओंको पृथक् किये रखता है और 'वल' भी जो प्रकाशको हमसे रोके रखता है, पराजित हो चुके हैं । परंतु अब भी कुछ ऐसी शक्तियाँ हैं जो हमारी पूर्णताके मार्गमें बाधक बनकर आ खड़ी होती हैं । वे हैं सीमामें बाँधनेवाली शक्तियाँ, अवरोधक या निन्दक,  जो यद्यपि समग्ररूपमें किरणोंको छिपा तो नहीं लेते, न बलोंको रोक ही लेते, हैं, पर तो भी हमारी आत्म-अभिव्यक्तिकी त्रुटियोंपर निरंतर बल देकर वे यह यत्न करते हैं कि इस (आत्म-अभिव्यक्ति ) का क्षेत्र सीमित हो जाय और वे अबतक सिद्ध हुए आन्तरिक विकासको आगे आनेवाले विकासके लिये बाधक बना देते हैं । तो ऋषि भधुच्छन्दस् इन्द्रका आवाहन कर रहा है कि वह आकर इस दोषको दूर कर दे और इसके स्थानपर एक वृद्धिशील प्रकाशको स्थिर कर दे ।

 

वह तत्त्व जो यहाँ 'इन्द्र' नामसे सूचित किया गया है मनःशक्ति है जो प्राणमय चेतनाकी सीमाओं और धुंधलेपनसे मुक्त है । यह वह प्रकाश-मयी प्रज्ञा है जो विचार या क्रियाके उन सत्य और पूर्ण रूपोंको निर्मित करती है जो प्राणके आवेगोंसे विकृत नहीं होते, इन्द्रियोंके मिथ्याभावोंसे प्रतिहत नहीं होते । इसकेलिये यहाँ एक ऐसी गायकी उपमा दी गयी है जो गोदोग्धाको प्रचुर मात्रामें दूध देनेवाली है, दोग्ध्री है । 'गो' शब्दके संस्कृतमें दोनों अर्थ होते हैं,  गाय और प्रकाशकी किरण । वैदिक प्रतीक-वादियोंने इस द्विविध अर्थका प्रयोग एक दोहरे रूपकको दिखानेके लिये किया है और वह रूपक उनके लिये निरा अलंकार ही नहीं बल्कि उससे अधिक कुछ था, क्योंकि प्रकाश, उनकी दृष्टिमें, विचारका एक उपयुक्त काव्यमय प्रतीक ही नहीं है बल्कि सचमुचमें उसका एक भौतिक रूप भी है । इस प्रकार 'गौएँ' जो दुही जाती हैं सूर्यकी गौएं हैं,  सूर्य है स्वतः- प्रकाशयुक्त और अन्तर्ज्ञानयुक्त मनका अधिपति; या वे गौएँ उषाकी गौएँ हैं, और उषा वह देवी है जो सौर महिमाको अभिव्यक्त किया करती है । ऋषि इन्द्रसे यह कामना कर रहा है कि हे इन्द्र ! तू मेरे पास आ और अपनी पूर्णतर क्रियाशीलता द्वारा अपनी किरणोंको अत्यधिक मात्रामें मेरे

३४० 


ग्रहणशील मनपर डालता हुआ तू मेरे अंदर दिन प्रतिदिन सत्यके इस प्रकाशकी वृद्धि करता जा । (मन्त्र 1 )

 

दिव्य सत्ता और दिव्य क्रियामें रहनेवाला जो आनन्द है उसे आलंकारिक रूपमें सोमरस कहकर वर्णित किया गया है । उसकी हमारे अंदर चेतना-युक्त अभिव्यक्ति होनेसे ही विशुद्ध प्रकाशमय प्रज्ञाकी क्रिया स्थिर और वृद्धिंगत हो जाती है । क्योंकि वह प्रज्ञा इसीपर फूलती-फलती है, उसकी क्रिया अन्तःप्रेरणाका एक मदयुक्त आनंद बन जाती है जिसके द्वारा किरणें प्रचुरताके साथ और उल्लासके साथ प्रवाहित होती हुई अंदर आती हैं ।  ''जब तू आनंदमें होता है तब तेरा मद सचमुच प्रकाशको देनेवाला होता है'', गोदा इद् रेवतो मद: । (मंत्र 2)

 

क्योंकि तभी उन बाधाओंको जिन्हें अवरोधक शक्तियां अब भी आग्रह-पूर्वक बीचमें डाले हुए हैं तोड़-फोड़कर, परे जाकर हम ज्ञानके उन अंतिम तत्त्वोंके कुछ अंशतक पहुँच सकते हैं जो प्रकाशमय प्रज्ञाको प्राप्य हैं । सत्य विचार, सत्य संवेदन--यह है 'सुमति' शब्दका पूर्ण अभिप्राय; क्योंकि वैदिक 'मति'में केवल विचार ही नहीं बल्कि मनोवृत्तिके भावमय अंश भी सम्मिलित हैं । 'सुमति' है विचारोंके अंदर प्रकाशका होना; साथ ही यह आत्मामें होनेवाली प्रकाशयुक्त प्रसन्नता और दयालुता भी है । परंतु इस सदर्भमें अर्थका बल सत्य विचारपर है, न कि मनोभावोंपर । तो भी यह आवश्यक है कि सत्य विचारमें प्रगति उस चेतनाके क्षेत्रमें ही प्रारंभ हो जाय जिस चेतनातक हम पहुँचे हुए हों; यह नहीं होना चाहिये कि जरा देरके लिये होनेवाली दीप्तियां और चकाचौंध करनेवाली क्षणिक अभिव्यक्तियाँ हमारे सामने आवें जो हमें अतिक्रमण किये हुए, हमारी शक्तिसे परेकी होनेके कारण अपनेको सत्य रूपमें व्यक्त करनेमें अशक्त रहें और हमारे ग्रहणशील मनको गड़बड़ीमें डालती रहें । इन्द्रको केवल प्रकाशक ही नहीं होना चाहिये, किंतु सत्य विचार-रूपोका रचयिता, सुरुप कृत्नु भी होना चाहिये । (मंत्र 3 )

 

आगे ऋषि सामुदायिक योगके अपने किसी साथीकी ओर अभिमुख होकर, या संभवतः अपने ही मनको संबोधन करता हुआ, उसे (साथीको या अपने मनको ) प्रोत्साहित करता है कि आ, तू इन उलटे सुझावोंकी बाधाको जो तेरे विरोधमें खड़ी की गयी है पार करके आगे बढ़ जा और दिव्य प्रज्ञा (इन्द्र ) से पूछ-पूछकर उस सर्वोच्च सुखतक पहुँच जा जिसे इस प्रज्ञा द्वारा अन्य पहले भी पा चुके हैं । क्योंकि यह वह प्रज्ञा है जो स्पष्टतया विवेक कर सकती है और सब प्रकारकी गड़बड़ी व सब प्रकारके

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धुंधलेपनका, जो अबतक भी विद्यमान है, हल निकाल सकती या उसे हटा सकती है । गतिमें तीव्र, प्रचण्ड, शक्तिशाली होती हुई यह, अपनी शक्तिके कारण, प्राणमय चेतनाके आचेगोंकी तरह अपने मार्गोमें स्खलनको प्राप्त नहीं होती (अस्तृतम् ) अथवा संभवत: इस शब्दका अधिक ठीक आशय यह हो सकता है कि अपनी अपराजेय शक्तिके कारण यह प्रज्ञा आक्र मणोंके वशीभूत नहीं होती; वे आक्रमण आच्छादकों (वृत्रों ) के हों या उन शक्तियोंके जो सीमामें बांधनेवाली हैं । (मंत्र 4)

 

इसके आगे उन फलोंका वर्गन किया गया है जिन्हें पानेकी ऋषि अभीप्सा करता है । इस पूर्णतर प्रकाशके हो जानेसे, जो मानसिक ज्ञानके अंतिम रूपोंके आ जानेपर खुलकर प्रकट हो जाता है, यह होगा कि बाधाकी शक्तियाँ संतुष्ट हो जायाँगी,  स्वयमेव आगेसे हट जायँगी तथा और अधिक उन्नति और नवीन प्रकाशपूर्ण प्रगतियोंको आनेके लिये रास्ता दे देंगी । फलतः वे कहेंगी, ''लो, अब तुम्हें वह अधिकार दिया जाता है जिसे अबतक हम, उचित तौरसे ही, तुम्हें नहीं दे रही थीं । तो अब न केवल उन क्षेत्रोंमें जिन्हें तुम पहले ही जीत चुके हो बल्कि अन्य क्षेत्रोंमें तथा अक्षुण्ण पड़े प्रदेशोंमें भी अपनी विजयशील यात्रा जारी करो । अपनी यह क्रिया पूर्णरूपसे दिव्य प्रज्ञाको समर्पित करो, न कि अपनी निम्न शक्तियोंको । क्योंकि महत्तर समर्पण ही तुम्हें महत्तर अधिकार प्रदान करता है ।''

 

'आरत' शब्द जिसका अर्थ गति करना या यत्न करना है, अपने सजातीय 'अरि, 'अर्य', 'आर्य, 'अरति', 'अरण' शब्दोंकी तरह वेदके केंद्रभूत विचारको अभिव्यक्त करनेवाला है । 'अर्' धातु हमेशा प्रयत्नकी या संघर्षकी गतिको अथवा सर्वातिशायी उच्चताकी या श्रेष्ठताकी अवस्थाको निर्दिष्ट करती है; यह नाव खेना, हल चलाना, युद्ध करना, ऊपर उठाना, ऊपर चढ़ना अर्थोमें प्रयुक्त की जाती है । तो 'आर्य' वह मनुष्य है जो वैदिक क्रिया द्वारा, आन्तर या बाह्य 'कर्म' अथवा 'अपस्' द्वारा, जो देवोंके प्रति यज्ञरूप होता है, अपने-आपको परिपूर्ण करनेकी इच्छा रखता है । पर यह कर्म एक यात्रा, एक प्रयाण, एक युद्ध, एक ऊर्ध्वमुख आरोहणके रूपमें भी चित्रित किया गया है । आर्य मनुष्य ऊँचाइयोंकी तरफ जानेका यत्न करता है, अपने प्रयाणमें, जो एक साथ एक अग्रगति और ऊर्ध्वारोहण दोनों है, संघर्ष करके अपना मार्ग बनाता है । यही उसका आर्यत्व है, 'अर्' धातुसे ही निष्पन्न एक ग्रीक शब्दका प्रयोग करें तो यही उसका 'अरेटे' गुण है । 'आरत'का  अनुवाद अवशिष्ट वाक्यांशके साथ मिलाकर

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यह किया जा सकता है कि, ''निकल चलो और संघर्ष करके अन्य क्षेत्रोंमें भी आगे बढ़ते जाओ ।'' (मंत्र 5 )

 

शब्द-प्रतिध्वनियों द्वारा विचार-संबंधोंको सूचित करनेकी सूक्ष्म वैदिक पद्धतिके अनुसार इसी विचारको अगले मंत्रके 'अरि: कृष्टयः' शब्दों द्वारा फिर उठाया गया है । मेरे विचारमें ये 'अरि: कृष्टयः' पृथ्वीपर रहनेवाली कोई आर्य जातियाँ नहीं हैं (यद्यपि यह अर्थ भी संभव है जब कि समूहात्मक या राष्ट्रगत योगका विचार अभिप्रेत हो ), बल्कि ये वे शक्तियाँ हैं जो मनुष्यको उसके ऊर्ध्वारोहणमें सहायता देती हैं, ये उसके आध्यात्मिक सबंधु हैं जो उसके साथ सखा, मित्र, बंधु, सहयोगी (सखाय:, युज:, जामय: ) के रूपमें बँधे हुए हैं क्योंकि जो उसकी अभीप्सा है वही उनकी अभीप्सा है और उसकी पूर्णता द्वारा वे परिपूर्ण होते हैं । जैसे अवरोधक शक्तियाँ संतुष्ट हो गयी हैं और उन्होंने रास्ता दे दिया है वैसे ही उनको भी संतुष्ट होकर अन्ततः अपने उस कार्यकी पूर्ति घोषित करनी चाहिये जो पूर्ति मानवीय आनंदकी पूर्णता द्वारा संसिद्ध हुई है । और ऐसी दशामें आत्मा इन्द्रकी उस शांतिमें विश्राम पायेगी जो दिव्य प्रकाशके साथ आती है--इन्द्रकी शांति अर्थात् उस पूर्णताप्राप्त मनोवृत्तिकी शांति जो संपिरपूर्ण चेतना और दिव्य आनंदकी ऊँचाइयोंपर स्थित है । (मंत्र 6 )

 

इसलिये दिव्य आनंद वेगयुक्त तथा तीव्र किया जानेके लिये आधारमें उँड़ेला गया है और इन्द्रको, उसकी तीव्रताओंमें सहायक होनेके लिये, समर्पित कर दिया गया है । क्योंकि, आन्तरिक संवेदनोंमें अभिव्यक्त यह अगाध आनंद ही वह दिव्य परमानंद प्रदान करता है जिससे मनुष्य या देव सबल होता है । दिव्य प्रज्ञा तब अभीतक अपूर्ण रही अपनी यात्रामें आगे बढ़नेमें समर्थ होगी और देवके मित्रके प्रति अवरोहण करती हुई उसे सोमाहुतिके प्रतिफलके रूपमें आनंदकी नवीन शक्तियाँ प्रदान करेगी । अर्थात् इन्द्र अब और आगे बढ़ सकेगा तथा सोमपानके बदलेमें सखाको ऊपरसे आनेवाला आनंद प्रदान कर सकेगा । (मंत्र 7 )

 

क्योंकि इसी बलको प्राप्त करके मनुष्यस्थ मनने उन सबको नष्ट किया था जो आच्छादक या अवरोधक होकर इसके संकल्प और विचारकी शतगुणित प्रगतियोंमें बाधा डालते थे; इसी बलके द्वारा इसने बादमें उन भरपूर तथा विविध ऐश्वर्योंकी रक्षा की जो पहले हुए युद्धोंमें, 'अत्रियों' और 'दस्युओं'से--अर्थात् उनसे जो अधिगत ऐश्वर्योंको हड़प जाने और लूट लेनेवाले हैं--जीते जा चुके थे । (मंत्र 8 )

 

ऋषि मधुच्छन्दस् अपने कथनको जारी रखता हुआ आगे कहता है

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कि यद्यपि वह प्रज्ञा पहलेसे ही इस प्रकार समृद्ध और विविध निधियोंसे पूर्ण है तो भी हम अवरोधकों और वृत्रोंको हटाकर इसकी समृद्धिकी शक्तिको और अधिक वृद्धिगत करना चाहते हैं ताकि हमें निश्चित तथा भरपूर रूपमें अपने ऐश्वर्योंकी प्राप्तियाँ हो सकें । (मंत्र 9 )

 

क्योंकि यह प्रकाश, अपनी संपूर्ण महत्ताकी अवस्थामें सीमा या बाधाहे सर्वथा स्वतंत्र यह प्रकाश आनंदका धाम है; यह शक्ति वह है जो मनुष्यके आत्माको अपना मित्र बना लेती है और इसे युद्धके बीचमेंसे सुरक्षित रूपसे पार कर देती है, यात्राके अन्ततक, इसकी अभीप्साके अंतिम प्राप्तव्य शिखरपर, पहुँचा देती है । (मंत्र 10 )

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