वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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बीसवाँ सूक्त

 

कर्म और उपलब्धिका सूक्त

 

    [ ऋषि आध्यात्मिक ऐश्वर्यकी ऐसी अवस्थाकी कामना करता है जो भागवत क्रियासे भरपूर हो और जिसमें कोई भी चीज विभाजन और कुटिलताके गर्तमें न गिरने पाए । इस प्रकार अपने कार्योंसे भागवत शक्तिको अपने अन्दर प्रतिदिन संवर्धित करते हुए हम परम आनन्द एवं सत्य, प्रकाशका आनन्दोल्लास एवं शक्तिका हर्षोन्माद प्राप्त कर लेंगे । ]

यमग्ने वाजसातम त्वं चिन्यन्यसे रयिम् ।

तं नो गीर्भि: श्रवाय्यं देवत्रा पनया दुजम् ।।

 

(अग्ने) हे दिव्य संकल्प ! ( वाजसातम) हे हमारी ऐश्वर्य-प्रचुरताके विजेता ! ( यं रयिं) जिस परम आनन्दको ( त्वं चित् मन्यसे) अकेला तू ही अपने मनके अन्दर विचारमें ला सकता है ( तं) उसे (न:) हमारे (गीर्भि:) स्तुति-वचनोंके द्वारा (श्रवाय्मं) अन्त:प्रेरणाओंसे भर दे और (युजम्) हमारा सहायक बनकर उसे ( देवत्रा) देवताओंमें (पनय) क्रिया-शील बना दे ।

ये अग्ने नेरयन्ति ते वृद्धा उग्रस्य शवस: ।

अप द्वेषो अप ह्नरोऽन्यव्रतस्य सश्चिरे ।।

 

(अग्ने) हे संकल्पाग्ने ! (ये) तेरी जो शक्तियां (ते उग्रस्य शवस: वृद्धा:) तेरी ज्वाला और बलकी उग्रतामें तेरे द्वारा संवर्धित होकर भी हमें (त ईरयन्ति) मार्गपर चलनेके लिए प्रेरित नहीं करतीं, वे (द्वेष: अप सश्चिरे) दूर हटकर द्वैधभावमें ग्रस्त हो जाती हैं और  (अन्यव्रतस्य ह्रर:) तेरे नियमसे भिन्न किसी नियमकी कुटिलताके साथ ( अप [ सश्चिरे ] ) चिपट जाती हैं ।

३-४

होतारं त्यावृणीमहेडग्ने दक्षस्य साधनम् ।

यज्ञेषु पूज्यं गिरा प्रयस्वन्तो हवामहे ।।

१०२


कर्म और उपलव्धिका सूक्त

 

इत्था यथा त ऊतये सहसावन् दिवेदिवे ।

राय ऋताय सुक्तो गोभि: ष्याम सधमादो वीरै: स्याम सधमाद: ।।

 

(अग्ने) हे संकल्पशक्ते ! हम (त्वा) तुझे (होतारं) हविरूप भेंटोंके पुरोहित और (दक्षस्य साधनम्) विवेकयुक्त ज्ञानके संसाधकके रूपमें (वृणीमहे) अपने लिए वरण करते हैं । (प्रयस्वन्त:) तेरे लिए अपने सारे आनन्दोंको धारण किये हुए हम (यज्ञेषु) यज्ञोंमें (गिरा) अपने स्तुति-वचनसे तुझ (पूर्व्य) सनातन और परमका (हवामहे) आह्वान करते हैं ।

 

(यथा इत्था हवामहे) ठीक तरहसे और इस प्रकार आह्वान करते हैं कि (सहसावन्) हे शक्तिशाली देव ! (सुक्त्रो) हे पूर्ण कार्यसाधक शक्ति ! हम (दिवे-दिवे) दिन-प्रतिदिन (ते ऊतये) तुझे बढ़ाएँ, ताकि हम (राये) परम आनन्द प्राप्त कर सकें, (ऋताय) सत्य उपलब्ध कर सकें, (गोभि:) ज्ञानकी रश्मियोंके द्वारा (सधमाद: स्याम) पूर्ण आनन्दोल्लास अधिगत कर सकें और (वीरै: सधमाद: स्याम) शक्तिरूप वीरोंके द्वारा पूर्ण आनन्दोन्माद प्राप्त कर सकें ।

१०३


 

 









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