वेद-रहस्य

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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Secret of the Veda Vol. 10 582 pages 1971 Edition
English
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Sri Aurobindo

Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo वेद-रहस्य 985 pages 1971 Edition
Hindi Translation
Translators:
  Jagannath Vedalankar
  Abhaydev Vedalankar
  Dharmaveer Vedalankar
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पन्द्रहवाँ अध्याय

 

खोया हुआ सूर्य और खोयी हुई गौएं

 

सूर्य और उषाका विजय कर लेना या इनका फिरसे प्रकट होना इस विषयका वर्णन ऋग्वेदके सूक्तोंमें बहुत पाया जाता है । कहीं तो यह इस रूपमें मिलता है कि 'सूर्य'को ढूंढ़कर प्राप्त कर लिया गया और कहीं  'स्व:' अर्थात् सूर्यके लोकको प्राप्त किया गया या इसे विजित किया गया, ऐसा वर्णन है । सायणने यद्यपि 'स्व:'को 'सूर्य'का पर्याय मान लिया है, फिर भी कई स्थलोंसे यह बिलकुल स्पष्ट है कि 'स्व: एक लोकका नाम है, उस उच्च लोकका जो सामान्य पृथ्वी और आकाशसे ऊपर है । कहीं-कहीं अवश्य इस 'स्वः'का प्रयोग 'सौर ज्योति'के लिये हुआ है, जो सूर्यकी और इसके प्रकाशसे निर्मित लोककी--दोनोकी ज्योतिके लिये है । हम देख चुके हैं कि वह जल जो स्वर्गसे नीचे उतरता है और जो इन्द्र और उसके मर्त्य साथियों द्वारा जीता जाकर उपभोग किया जाता है 'स्वर्वती: आप'के  .रूपमें वर्णित किया गया है । सायण इस 'आप:'को भौतिक जल मानकर 'स्यर्वती: 'का कोई दूसरा अर्थ निकालनेके लिये बाध्य था और इसलिये वह लिखता है कि इसका अर्थ है, 'सरणवती:' अर्थात् बहनेवाले । परंतु यह स्पष्ट ही एक खींचातानीका अर्थ है, जो मूल शब्दसे निकलता हुआ प्रतीत नहीं होता और जो शायद किया भी नहीं जा सकता । इन्द्रके वज्रको स्वर्लोकका पत्थर, स्वर्य अश्मा, कहा गया है । इसका अभिप्राय यह हुआ कि इसका प्रकाश वही है जो सौर ज्योतिसे जगमगाते इस लोकसे आता है । इन्द्र स्वयं 'स्वर्पति' अर्थात् इस ज्योतिर्मय लोक 'स्व:'को अधिपति है ।

 

इसके अतिरिक्त, जैसे हम देखते हैं कि गौओंको खोजना और फिरसे प्राप्त कर लेना यह सामान्यतया इन्द्रका कार्य वर्णित किया जाता है और वह बहुधा अगिरस् ऋषियोंकी सहायतासे तथा अग्नि और सोमके मंत्र व यज्ञके द्वारा होता है, वैसे ही सूर्यके खोजने और फिरसे पा लेनेका संबंध भी उहीं साधनों और हेतुओंके साथ है । साथ ही इन दोनों क्रियाओंका एक दूसरेके साथ निरन्तर संबंध है । मुझे लगता है कि स्वयं वेदमें ही इस बातकी पर्याप्त साक्षी है कि ये सब वर्णन असलमें एक ही महान् क्रिया-के अंगभूत हैं । गौएं उषा या सूर्यकी छिपी हुई किरणें हैं और अंधकारसे उनकी

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मुक्ति उस सूर्यके जो कि अंधकारमें छिपा हुआ था उदय हो जानेका कारण होती है या चिह्न है । यही उच्च ज्योतिर्मय लोक 'स्व:'की विजय है, जो हमेशा यज्ञकी, यज्ञिय अवस्थाओं और यज्ञके सहायक देवोंकी सहायतासे होती है । मैं समझता हूं इतने परिणाम निःसंदेह स्वयं वेदकी भाषासे निक-लते हैं । परन्तु साथ ही वेदकी उस भाषासे इस बातका भी संकेत मिलता है कि यह 'सूर्य' दिव्य-ज्योतिको देनेवाली शक्तिका प्रतीक है और 'स्व:' दिव्य सत्यका लोक है और इस दिव्य सत्यकी विजय ही वैदिक ऋषियोंका वास्तविक लक्ष्य और उनके सूक्तोंका मुख्य विषय है । अब मैं यथासंभव शीघ्रताके साथ उस साक्षीकी परीक्षा करूंगा जिससे हम इन परिणामों पर पहुंचते हैं ।

 

सबसे पहले, हम देखते हैं कि वैदिक ऋषियोंके विचारमें 'स्व:' और 'सूर्य' भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं, पर साथ ही इन दोनोंमें एक घनिष्ठ संबंध भी है । उदाहरणके लिये भरद्वाजके सूक्त ( 6.72. 1 ) में सोम और इन्द्रको कहा गया है--"तुमने सूर्यको प्राप्त किया, तुमने स्व:को प्राप्त किया, तुमने सब अंधकार और सीमाओंको छिन्न-भिन्न कर दिया ।"1 इसी प्रकार वामदेवके सूक्त' 4.16.4 में इन्द्रको कहा है--"जब प्रकाशके सूक्तों द्वारा  ( अर्कै:) स्व: सुदृश्य रूपमें पा लिया गया और जब उन ( अंगिराओंने ) रात्रि-मेंसे महान् ज्योतिको चमकाया उस समय उस (इन्द्र ) ने अंधकारके सब बंधनोंको ढीला कर दिया जिससे कि मनुष्य अच्छी तरह देख सकें ।"  पहले वर्णनमें हम यह देखते हैं कि 'स्व:' और 'सूर्य' परस्पर भिन्न हैं न कि 'स्व:' सूर्यका ही एक दूसरा नाम है । पर साथ ही 'स्व:'का पाया जाना और 'सूर्य'का पाया जाना दोनों क्रियाओंमें बहुत निकट संबंध है, बल्कि असलमें ये दोनों मिलकर एक ही प्रक्रिया हैं और इनका परिणाम यह है कि सब अंधकार और सीमाएं नष्ट हो जाती हैं । वैसे ही दूसरे स्थलमें 'स्व:'के सुदृश्य रूपमें प्रकट होनेको रात्रिमेंसे महान् ज्योतिके चमक निकलनेके साथ जोड़ा गया है, जिसे हम अन्य स्थलोंके इस वर्णनके साथ मिला सकते हैं कि अंगिरसोंने अंधकारसे ढके हुए सूयको फिरसे प्रकट किया । सूर्यको अंगिरसोंने अपनी सूक्तों या सत्य मंत्रोंकी शक्ति द्वारा प्राप्त किया और 

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1.  युवं सूर्य विविदथुर्युवं स्वर्विश्वा तमांस्यहतं निदश्च । (ऋ. 6.72. 1 ) 

2.   स्वर्यद्वेदि सुदृशीकमकैंर्महि ज्योती रुरुचुर्यद्ध वस्तो:

   अन्धा तमांसि दुधिता विचक्षे नृभ्यश्चकार नृतमो अभिष्टौ ।।

                                              (ऋ. 4.16.4 )

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'स्व:' भी अंगिरसोंके सूक्तोंके द्वारा ( अर्कै: ) प्राप्त और प्रकट ( सुदृश्य ) किया गया । इसलिये यह स्पष्ट है कि 'स्वः'में रहनेवाला पदार्थ एक महान् ज्योति है और वह ज्योति सूर्यकी ज्योति है ।

यदि दूसरे वर्णनोंसे यह स्पष्ट न होता कि 'स्व:'  एक लोकका नाम है तो शायद हम यह भी कल्पना कर सकते थे कि यह 'स्व: शब्द सूर्य, प्रकाश या आकाशका ही वाचक एक दूसरा शब्द होगा । पर बार-बार 'स्वः'के विषयमें कहा गया है कि यह एक लोक है जो कि रोदसी अर्थात् द्यावापृथिवीसे परे है या दूसरे शब्दोंमें इसे विस्तृत लोक 'उरु लोक' या विस्तृत दूसरा लोक 'उरु उ लोक' या केवल वह ( दूसरा ) लोक 'उ लोक' कहा है । इसका वर्णन यों किया गया हैं कि यह महान् ज्योतिका लोक है, जहाँ भयसे नितान्त मुक्ति है और जहाँ गौएँ अर्थात् सूर्यकी किरणें स्वच्छन्द होकर क्रीडा करती हैं ।

 

ग्1 6.47.8 में कहा है--"हे इन्द्र ! जानता हुआ तू हमें उस उरु लोकको, 'स्व' तकको प्राप्त कराता है, जो ज्योतिर्मय है, जहाँ भय नहीं है और जो सुरवी जीवन ( स्वस्ति ) से युक्त है । '' g 3.2.7 में वैश्वानर अग्निको द्यावापृथिवी और महान् 'स्व:'में आपूरित होता हुआ वर्णन किया गया है--''आ रोदसी अपृणदा स्वर्महत्'' । इसी प्रकार वसिष्ठ अपने सूक्तमं विष्णुको कहता है--''ओ विष्णु ! तुमने दृढ़तासे इस द्यावापृथिवीको थाम रखा है और ( सूर्यकी ) किरणों द्वारा पृथिवीको धारण कर रखा है और सूर्य, उषा और अग्निको प्रादुर्भूत करते हुए तुम दोने, यज्ञके लिये  ( अर्थात् यज्ञके परिणामस्वरूप ) इस दूसरे विस्तृत लोक ( उरुम् उ लोकम् ) को रचा है'',2 ग् 7 .99 .3,4 । यहाँ भी हम सूर्य और उषाकी उत्पत्ति या आविर्भावके साथ विस्तृत लोक स्व:का निकट सम्बन्ध देखते हैं ।

 

इस 'स्व:के विषयमें कहा गया है कि यह यज्ञके द्वारा मिलता है, यहीं हमारी जीवनयात्राका अन्त है, यह वह बृहत् निवासस्थान है जहाँ हम पहुँचते हैं वह महान् लोक है जिसे सुकर्मा लोग प्राप्त करते हैं (सुकृतामु लोकम् ) । अग्नि द्यु और पृथिवीके बीचमें दूत होकर विचरता है और तब इस बृहत् निवासस्थान 'स्व:'को अपनी सत्ता द्वारा चारों ओरसे घेर लेता है, ''क्षयं बृहन्तं परि भूषति" 3.3.2 । यह 'स्व:' आनन्दका लोक है और उन सब 

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1.  उरुं नो लोकमनुनेषि विद्वान्त्स्वर्वज्ज्योतिरभयं स्वस्ति ।

2. व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखै:''

  "उरुं यज्ञाय चक्रथुरु लोकं जनयन्ता सूर्यमुषासमग्निम्'' ।। ( ऋ. 7.99 .3,4 )

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ऐश्वर्यों भरपूर है जिनकी वैदिक ऋषियोंको अभीप्सा होती है । ऋ्.1 5.4.11, में कहा है-

''हे जातवेद: अग्नि ! जिस पुरुषको तू, उसके सुकर्मा होनेके कारण, ह सुखमय लोक प्रदान करता है वह पुरुष अश्व, पुत्र, वीर, गौ आदिसे युक्त ऐश्वर्य और स्वस्ति प्राप्त करता है ।''

 

यह आनन्द मिलता है ज्योतिका उदय होनेसे । अंगिरइसे इच्छुक मनुष्यजातिके लिये तब ला पाते हैं जब वे सूर्य, उषा और दिनको प्रकट कर लेते हैं । ''स्व:को जीतनेवाले इंद्रने दिनोंको प्रकट करके इच्छुकोंके द्वारा-- उशिग्भि:2--उन सेनाओंको जीत लिया है जिनपर उसने आक्रमण किया है, उसने मनुष्यके लिये दिनोंके प्रकाशको ( केतुम् अह्नाम् ) उद्धासित किया है और बृहत् सुखके लिये ज्योतिको अधिगत किया है'' --अविन्दज्ज्योतिर्बृहते रणाय, 3-34-4 |3

 

यदि इन और इसी प्रकारके अन्य केवल खण्डश: उद्धृत वैदिक वाक्योंको देखा जाय, तो अबतक हमने जो कुछ कहा है उस सबकी व्याख्या बेशक इस प्रकार भी की जा सकती है कि, रैड इण्डियन लोगोंकी एक धारणाके सदृश, आकाश और पृथ्वीसे परे सूर्यकी किरणोंसे रचा हुआ एक भौतिक लोक है; यह एक विस्तृत लोक है, वहाँ मनुष्य सब भय और बाधाओंसे स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छाओंको तृप्त करते हैं और उन्हें असंख्य घोड़े, गौ, पुत्र, सेवक आदि मिलते हैं । परन्तु जो कुछ हम सिद्ध करना चाहते हैं वह यह नहीं है । बल्कि इसके विपरीत यह विस्तृत लोक, 'बृहद् द्यौ' या 'स्व:', जो हमें द्यु और पृथ्वीसे परे पहुँचकर पाना है, यह अतिस्वर्गिक महान् विस्तार, यह असीम प्रकाश एक अतिमानस उच्चलोक है, मनोतीत दिव्य 'सत्य' और अमर आनन्दका अत्युच्च लोक है और इसमें रहनेवाली ज्योति,  जो इसकी सारवस्तु और इसकी तात्त्विक वास्तविकता है, 'सत्य'की ज्योति है । इस लोकके बारेमें ऐसा अनेक बार कहा गया है कि द्यु और पृथ्वीको पार करके ही इस तक पहुँचा जा सकता है । उदाहरणके लिये,  

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1.   यस्मै त्वं सुकृते जातवेद उ लोकमग्ने कृणवः स्योनम् ।

    अश्विनं स पुत्रिणं वीरवन्तं गोभन्तं रयिं नशते स्वस्ति ।। ( 5.4.11 ) 

2.   'उशिग्मिः'  शब्द 'नृ'को तरह मनुष्यों और देवताओके लिये प्रयुक्त होता है,

    परन्तु 'नृ'के समान ही कभी-कभी विशेषकर 'अंगिराओं'का ही निर्देश करता है । 

3.  '' इन्द्र: स्वर्षा जनयन्नहानि जिगायोशिग्भि: पूतना अभिष्टि: ।

    प्रारोचयन्मनवे केतुमह्नाविन्दज्ज्योति  रणाय ।।  (3. 34.4)

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 'मनुष्योंने वृत्रका हनन करके, आकाश और पृथ्वी दोनोंको पार करके अपने निवासके लिए बृहत् लोकको बनाया' ', ध्नन्तो वृत्रमतरन् रोदसी अप उरु क्षयाय चक्रिरे । (ऋ. 1.36.4 )

 

परन्तु इस समय तो इतने पर ही बल देना पर्याप्त है कि यह एक लोक है जो किसी अन्धकारके कारण हमारी दृष्टिसे ओझल है, इसे हमें पाना है तथा स्पष्ट रूपसे देखना है और यह देखना व पाना इस बातपर आश्रित है कि उषाका जन्म हो, सूर्यका उदय हो और सूर्यकी गौएँ अपनी गुप्त गुहासे निकलकर बाहर आवें । वे आत्माएँ जो यज्ञमें सफल होती हैं 'स्वर्द्द्' हो जाती हैं, 'स्व:'को देख लेती हैं और 'स्वर्विद्' हो जाती हैं अर्थात् 'स्व:'को पा लेती हैं या जान लेती हैं । 'स्यर्विद्'में 'विद्' धातु है जिसके पाना और जानना दोनों ही अर्थ हैं और एक दो स्थलोंमें तो इसके स्थानपर स्पष्ट ज्ञानार्थक 'ज्ञा' धातुका ही प्रयोग हुआ है और वेदमें ही यह भी कहा है कि अन्धकारमेंसे प्रकाशको जाना गया ।

 

अब 'स्व:' या इस बृहत् लोकका स्वरूप क्या है, यह प्रश्न है जो शेष रहता है और इसका निर्णय वेदकी व्याख्याके लिये बहुत ही महत्त्वका है । क्योंकि 'वेद जंगलियोंके गीत 'हैं' और 'वेद प्राचीन सत्य ज्ञानकी पुस्तक है' इन दोनों अति विभिन्न कल्पनाओंमेंसे किसी एकका ठीक होना इस प्रश्नके निर्णयपर इधर या उधर हो सकता है । परन्तु इसे प्रश्नका पूरा-पूरा निर्णय तो इस बृहत् लोकका वर्णन करनेवाले सैकड़ों बल्कि अधिक प्रकरणोंके विवादमें पड़े बिना नहीं हो सकता और यह इन अध्यायोंके क्षेत्रसे बिल्कुल बाहरका विषय हो जाता है । पर फिर भी आंगिरस सूक्तोंपर विचार करते हुए और उसके बाद हम इस प्रश्नको फिर उठायेंगे ।

 

तो यह सिद्ध हुआ कि 'स्व:'को देखने या प्राप्त करनेके लिये सूर्य और उषाके जन्मको एक आवश्यक शर्त मानना चाहिये और इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वेदोंमें इस सूर्यकी कथाको या आलंकारिक वर्णनको तथा  'सत्य मत्रों'के द्वारा अंधकारमें से ज्योतिको चमकाने, पाने और जन्म देनेके विचारको क्यों इतना महत्त्व दिया गया है ? इस कार्यको करनेवाले इन्द्र और अगिरहै और ऐसे स्थल बहुतसे है जिनमें इसका वर्णन हुआ है । यह कहा गया है कि इन्द्र और अंगिराओंने 'स्व:' या 'सूर्य'को पाया (अविदत् ), इसे चमकाया या प्रकाशित किया (अरोचयत् ), इसे जन्म दिया

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1. हमें यह स्मरण रखन चाहिये कि यज्ञमें देवताओंके प्रकट होनेको वेदमें उनके जन्मके रूपमें वर्णित किया है |

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(अजनयत् ) और इसे जीतकर अधिगत किया (सनत्) । वास्तवमें अधिकतर अकेले इन्द्रका ही वर्णन आता है । इन्द्र वह है जो रात्रिमेंसे प्रकाशका उदय करता है और सूर्यको जन्म देता है--''क्षपां वस्ता जनिता सूर्यस्य", 3.49.4 । उसने सूर्य और उषाको उत्पन्न किया है,1 (2.12.7 ) । या और विस्तृत रूपमें कहें तो उसने सूर्य, द्यौ और उषा तीनोंको इकट्ठा जन्म दिया है,2 (6.30.5 ) । स्वयं चमकता हुआ वह उषाको चमकाता है, स्वयं चमकता हुआ वह सूर्यको प्रकाशमय करता है--''हर्यन्नुषसमर्चय: सूर्य हर्यन्नरोचय:'', 3.44.2 । ये सब उस इन्द्रके महान् कर्म हैं, 'जजान सूर्यम् उषसं सुदंसाः', (3.32.8 ) ।3 वह सुवज्र इन्द्र अपने शुभ्रवर्ण (चमकते हुए ) सखाओंके क्षेत्रफो जीतकर अपने अधिकारमें कर लेता है, सूर्यको अधिकृत करता और जलोंको अधिकृत करता है--'सनत् क्षेत्रं सखिभिः श्वित्न्येभि: सनत् सूर्य सनदप: सुवज्रः', 1.100.18 । वह इन्द्र दिनोंको जन्म देने द्वारा 'स्वः'को भी जीतनेवाला है, जैसा कि हम पहले देख चुके हैं (स्वर्षा: ) । वेदके इन सब पृथक्-पृथक् वाक्योंमें सूर्यके जन्मका अर्थ हम यह भी ले सकते हैं कि यह सूर्यकी प्रारंभिक उत्पत्तिका वर्णन है, जो सूर्य पहले नहीं था उसे देवताओंने रचा; परंतु जब हम इन वाक्योंका दूसरे वाक्योंके साथ समन्वय करके देखेंगे तो हमारा यह भ्रम दूर हो जायगा । सूर्यका यह जन्म उषाके साथ उसका जन्म है, उदय है, रात्रिमेंसे उसका जन्म है । यह जन्म यज्ञके द्वारा होता है--'इन्द्रः सुयज्ञ उषस: स्वर्जनत्'', (2.21.4 ) ''इन्द्रने अच्छी प्रकार यज्ञ करके उषाओं और सूर्यको उत्पन्न किया ।" और मनुष्यकी सहायतासे यह संपन्न होता है-''अस्माकेभिर्नृभि: सूर्य सनत्''--हमारे 'मनुष्यों'के द्वारा उसने सूर्यको जीता (1.100.6 ) । और बहुतसे मंत्रोंमें इसे अंगिरसोंके कार्यका फल वर्णित किया गया है और इसका संबध गौओंके मुक्त होने और पहाडियोंके तोड़े जानेके साथ है ।

 

तथा ऐसे ही अन्य स्थल हमें ऐसी कल्पना नहीं करने दे सकते-जो अन्यथा की जा सकती थी--कि सूर्यका जन्म या प्राप्ति केवल उस आकाश  (इन्द्र )का वर्णन है जो प्रतिदिन उषाकालमें सूर्यको पुनः प्राप्त कर लेता

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1. य: सूर्य: य उषस जजान । (ऋ० 2.12.7 )

2. साकं सूर्य जनयन् द्यामुषासम् ।

3.इन्द्रस्थ कर्म सुकृता पुरूणि व्रतानि देवा न मिनन्ति विश्वे ।

 दाधारर्य: पृथिवीं द्यामुतेमां जजान सूर्यमुषसं सुदंसा: ।। (ऋ 3.32.8 )

4. क्या यह वही क्षेत्र नहीं है जिसमें अत्रिने चमकती इर्द गौओंको देखा था ?

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है । जब इन्द्रके बारेमें यह कहा जाता है कि वह घने अंधकारमें भी ज्योतिको, पा लेता है ( सो अंधे चित्तमसि ज्योतिर्विदत् ) तो यह स्पष्ट है कि यह उसी ज्योतिकी ओर संकेत है जिस एक ज्योतिको-इन सब अनेकानेक प्राणियोंके लिये एक ही साझी ज्योतिको-अग्नि और सोमने पाया था- ''अविन्दतं ज्योतितिरेकं बहुभ्यः'', 1 .93.4 ), जब उन्होंने पणियोकी गौओंको चुराया था ।1 यह ''ह जागृत ज्योति है जिसे सत्य की वृद्धि करनेवालोंने उत्पन्न किया था, एक देवको देव ( इन्द्र ) के लिये उत्पन्न किया था'',2 ( 8.89.1 ) । यह वह गुप्त ज्योति (गुह्यं ज्योति: ) है जिसे पितरोंने, अंगिरसोंने उस समय पाया था जब उन्होंने अपने सत्य मंत्रोके द्वारा उषाको जन्म दिया था । यह वही ज्योति है जिसका वर्णन मनु वैवस्वत या कश्यप ऋषिके 'विश्वेदेवा:'-देवताक रहस्यमय सूक्तमें है, जिसमें कहा गया है-''उनमेंसे कुछने ऋक्का गायन करते हुए महत् सामको सोच निकाला और उससे उन्होंने सूर्यको चमकाय" ', 8.29.10 ।3 और यह ज्योति मनुष्यकी सृष्टिसे पहले हुई हो ऐसा नहीं है, क्योंकि ऋं. 7.91.1 में कहा है-''हमारे नमस्कारसे वृद्धिको पानेवाले, प्राचीन और निष्पाप देवोंने  (अंधकारकी शक्तियोंसे ) आच्छादित मनुष्यके लिये सूर्यसे उषाको चमकाया ।'' यह उस सूर्यकी प्राप्ति है जो अंधकारके अंदर रह रहा था और यह प्राप्ति अंगिराओंने अपने दस महीनोंके यज्ञके द्वारा की । वेदकी इस कहानी या अलंकार-वर्णनाका प्रारंभ कहींसे भी क्यों न हुआ हो, यह बहुत प्राचीन है और बहुत जगह फैली हुई है और इसमें यह कल्पनाकी गयी है कि सूर्य एक लंबे काल तक लुप्त ( खोया हुआ ) रहा और इस बीचमें मनुष्य अंधकारसे आच्छादित रहा । यह कहानी भारतवर्षके आर्य लोगोंमें ही नहीं, किंतु अमेरिकाके उन 'मय' लोगोंमें भी पायी जाती है जिनकी सभ्यता अपेक्षाकृत जंगली और संभवत: इजिप्शियन संस्कृतिका पुराना रूप थी । वहां भी यही किस्सा है कि सूर्य कई महीनों तक अंधेरेमें छिपा रहा और बुद्धिमान् लोगों ( अंगिरस् ऋषियों ? ) की प्रार्थनाओं और पवित्र गीतोंसे 

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1. अग्नीषोमा चेति तद्वीयं वां यहमुष्णीतमवसं पर्णी गा:

  अवातिरतं बृसयस्य शेषोऽविन्दतं ज्योतिरेकं बहुभ्यः ।। 1 .93.4

2. येन ज्योतिरजनयन्नृतावृधो देवं देवाय जागृवि । ॠ० 8 .89. 1

3. अर्चन्त एके महि साम मन्वत तेन सूर्यमरोचयन् । 8.29.10

4. कुविदङ्ग नमसा ये वृधास: पुरा देवा अनवद्यास आसन् ।

  ते वायवे मनवे वाषितायावासयन्नुषसं सुर्येण ||  7.91.1

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वह फिर प्रकट हुआ । वेदके अनुसार ज्योतिका यह पुनरुदय पहिले-पहल आंगिरस नामक सप्तर्षियोंसे हुआ है, जो मनुष्योंके पूर्व पितर हैं,  और फिर इसे उनसे लेकर निरंतर मनुष्यके अनुभवमें दोहराया गया है ।

 

इस विश्लेषण द्वारा हमें यह मालूम हो जायगा कि वेदमें जो ये दो कहानियाँ आती है--पहिली यह कि सूर्य लुप्त था और यज्ञ तथा मंत्र द्वारा इन्द्र और आंगिरसोंने उसे पुन: प्राप्त किया और दूसरी यह कि गौएं लुप्त थीं और उन्हें भी मंत्र द्वारा इन्द्र और आंगिरसोंने ही पुनः प्राप्त किया--ये दो अलग-अलग गाथाएँ नहीं, किंतु वास्तवमें एक ही गाथा हैं । इस एकात्मता पर हम पहले ही बल दे चुके हैं, जब हमने गौओं और उषाके परस्पर-संबंधके विषयमें विवाद चलाया था । गौएँ उषाकी किरणें हैं, सूर्यकी 'गौएँ' हैं; वे भौतिकशरीरधारी पशु नहीं हैं । लुप्त गौएँ सूर्यकी लुप्त किरणें हैं और उनका फिरसे उदय होना लुप्त सूर्यके पुनरुदयकी पहलेसे सूचना देता है । परंतु अब यह आवश्यक है कि स्वयं वेदकी ही स्पष्ट स्थापनाओंके आधारपर इस एकात्मताको सिद्ध करके उन सब संदेहोंको दूर कर दिया जाय जो यहाँ उठ सकते हैं ।

 

वस्तुत: वेद हमें स्पष्ट रूपसे कहता है कि गौएँ ज्योति हैं और वह बाड़ा (व्रज ) जिसमें वे छिपी हुई हैं अंधकार है । ऋ 1.92.4 में जिसे हम पहले भी उद्घृत कर चुके हैं,  यह दिखा ही दिया गया है कि गौ और उनके बाड़ेका वर्णन विशुद्ध रूपसे एक रूपक ही है-''उषाने गौ के बाड़ेकी तरह अंधकारको खोल दिया ।'' गौओंकी पुन:प्राप्तिकी कहानीके साथ ज्योतिके पुनरुदयका संबंध भी सतत पाया जाता है; जैसे कि ऋ० 1.93.4 में कहा है-' तुम दोनोंने पणियोके यहाँसे गौओंको चुराया... तुमने बहुतोंके लिये एक ज्योतिको पाया ।'' अथवा जैसे कि ऋ. 2.24.3,2 में वर्णन है--''देवोंमें सबसे श्रेष्ठ देवका यह कार्य है; उसने दृढ़ स्थानोंको ढीला कर दिया, कठोर स्थानोंको मृदु कर दिया । वह बृहस्पति गौओं (किरणों ) को हाँक लाया; उसने मंत्रोंके द्वारा (ब्रह्मणा) वलका भेदन किया, उसने अंधकारको अदृश्य कर दिया और 'स्व:' को प्रकाशित किया ।''  और ऋ.  5.31.33 में हम देखते हैं क--''उस (इन्द्र )ने दोग्ध्री गौओंको 

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1. ज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृष्वती गावो न बजं व्युषा आवर्तम: ।।

2. तद्देवानां देवतमाय कर्त्वमश्रथ्नन् दृळहातदन्त वीळिता ।

  उद् गा आजदभिनद् ब्रह्मणा वलमगूहत्तमो व्यचक्षयत् स्व: ।। 2.24.3

3. प्राचोदयत् सुदुधा वव्रे अन्तर्वि ज्योतिषा संववृत्वत्तमोऽव: 5.31.3

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आवरण कर लेनेवाले बाड़ेके अंदर प्रेरित किया, उसने ज्योतिके द्वारा अंधकार के आवरणको खोल दिया ।''  पर इतना ही नहीं, बल्कि यदि कोई कहे कि वेदमें एक वाक्यका दूसरे वाक्यके साथ कोई संबंध नहीं है और वेदके ऋषि भाव और युक्तिके बंधनोंसे सर्वथा स्वतंत्र होकर अपनी मानसिक कल्पनासे गौओंसे सूर्य तक और अंधकारसे द्राविड़ लोगोंकी गुफा तक मनमौजी उड़ानें ले रहे हैं,  तो इसके उत्तरमें हम निश्चयपूर्वक एकात्मताको सिद्ध करनेवाले वेदके दूसरे प्रमाण भी दे सकते हैं । ऋ. 1.33.101 मे कहा है-''वृषभ इन्द्रने वज्रको अपना साथी बनाया अथवा उसका प्रयोग किया (युजम् ), उसने ज्योतिके द्वारा अंधकारमेंसे किरणों ( गौओं ) को दुहा ।'' हमें स्मरण रखना चाहिये कि वज्र 'स्वर्य अश्मा' है और इसके अंदर 'स्व:' की ज्योति रहती है । फिर 4 .51 .22 में जहाँ पणियोंका प्रश्न है, कहा गया है--''स्वयं पवित्र रूपमें उदित होती हुई और दूसरोंको भी पवित्र करनेवाली उषाओंने बाड़े ( ब्रज ) के दरवाजोंको खोल दिया और अंधकारको भी खोल दिया''-- (व्रजस्य तमसो द्वारा ) । यदि इन सब स्थलोंके उपस्थित होनेपर भी हम इसपर आग्रह करें कि वेदमें आयी गौओं और पणियोंकी कहानी एक ऐतिहासिक किस्सा है तो इसका कारण यही हो सकता है कि स्वयं वेदकी अन्त:साक्षीके होते हुए भी हम वेदोंसे अपना वैसा ही अर्थ निकालनेपर तुले हुए हैं । नहीं तो हमें अवश्य स्वीकार करना चाहिये कि पणियोंकी यह परम गुप्त निधि-''निधिं पणीनां परमं गुहा हितम्" --पार्थिव पशुओं की संपत्ति नहीं है, किंतु जैसा कि परुच्छेप दैवोदासिनें ऋ. 1.30.3 में स्पष्ट किया है, ''यह द्यु की निधि, पक्षीके बच्चेकी तरह, गुप्त गुहामें छिपी पड़ी है; गौओंके बाड़ेकी तरह, अनंत चट्टानके बीचमें, ढकीं पड़ी है''-- ( अविन्वद् दिवो निहितं गुहा निधिं वेर्न गर्भ परिवीतमश्मन्यनन्ते अन्तरश्मनि । व्रजं वची गवामिव सिषासन् ) ।

 

ऐसे स्थल वेदमें बहुतसे हैं जिनसे दोनों कहानियोंमें परस्पर संबंध या एकात्मता प्रकट होती है । मैं नमूनेके लिये केवल दो-चारका ही उल्लेख करूँगा । जिन सूक्तोंमें इस कहानीके विषयमें कुछ विस्तारसे कहा गया है उनमेंसे एक है ऋ० 1 .62. । उसमें हम यह पाते हैं ''हे शक्तिशाली इन्द्र ! तूने दशग्वाओं ( अंगिरसों ) के साथ मिलकर बड़े शब्दके साथ वलका विदारण किया । अंगिराओंसे स्तुति किये जाते हुए तूने उषा, सूर्य और गौओंके 

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1.  युजं वज्र वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्ज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् । 1.33.10 

2. व्यू ब्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीव्रञ्छुयः छुपायका: । 4.51 .2

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द्वारा सोमको प्रकाशित किया ।"1 6.17.32  में कहा है- "हे इन्द्र ! तू स्तोत्रोंको सुन और हमारी वाणियोंके द्वारा बढ़, सूर्यको प्रकट कर, शत्रुओंका हनन कर और गौओंको भेदन करके निकाल ला ।'' ऋ.  7.98.63 में हम देखते है--"ओ इन्द्र ! गौओंकी यह सब संपत्ति जो तेरे चारों तरफ है और जिसे तू सूर्यरूपी आँखसे देखता है, तेरी ही है । तू इन गौओंका अकेला स्वामी है ( गवामसि गोपतिरेक इन्द्र ) ।''  और किस प्रकारकी गौओंका वह इन्द्र स्वामी है, यह हमें सरमा और गौओंके वर्णनवाले सूक्त 3.31 से मालूम होता है- "विजेत्री ( उषाएँ ) उसके साथ संगत हुई और उन्होंने अन्धकारमें से महान् ज्योतिको जाना । उसे जानती हुई उषाएँ उसके पास गयीं; इन्द्र गौओंका एकमात्र स्वामी हो गया-  ( पतिर्गवामभवदेक इन्द्र: ) '' । इसी सूक्तमें आगे बताया गया है कि किस प्रकार मनके द्वारा और सत्य ( ऋत ) के सारे मार्गको खोज लेने द्वारा सप्त ऋषि अगिरस् गौओंको उनके दृढ़ कारागारसे निकालकर बाहर लाये और किस प्रकार सरमा, जानती हुई, पर्वतकी गुफा तक और उन अविनश्वर गौओंके शब्द तक पहुँच पायी ।4  उषाओं और ' स्व:'की बृहत् सौर ज्योतिकी प्राप्तिके साथ इन्द्र और अंगिरसोंका वही संबंध हम 7 .90.4 में पाते हैं-- 'अपने पूर्ण प्रकाशमें, बिना किसी दोष, छिद्र या त्रुटिके, उषाएँ निकल पड़ी; उन ( अंगिराओं ) ने ध्यान करके बृहत् ज्योति ( उरु ज्योति: ) को पाया । कामना करनेवालोंने गौओंके विस्तारको खोल दिया; आकाशसे उनके ऊपर जलोंकी वर्षा हुई' 5

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1. सरष्युभि: फलिगमिन्द्र शक्र वलं रवेण दरयो दशग्वैः  ।।

  गृणानो अङ्गिरोभिर्दस्म विवरुषसा सुर्येण गोभिरन्ध: ।। 1.62.-5

2. अधि ब्रह्म वावृषस्वोत गीर्भि :

  विः सूर्यं कृणुहि पीपिहीषो जहि शत्रुंरभि गा इन्द्र तृन्धि ।। 6.17.3  

3. तवेदं विश्वमभित: पशव्यं यत् पश्यसि चक्षसा सूर्यस्थ ।

  वामसि गोपतिरेक इन्द्र ।।  7.98.6

4. अभि जैत्रीरसचन्त स्पृधानं महि ज्योतिस्तमसो निरजानन् ।

  तं जानती: प्रत्युदायन्नुषास : पतिर्गवामभवदेक इन्द्र: ।।

  विळौ  सतीरभि धोरा अतृन्दन् प्राचाहिन्वन् मनसा सप्त विप्रा :

  विश्वामविन्दन् पथ्यामृतस्य प्रजोनन्नित्ता नमसा विवेश ।।

  विदद् यदी सरमा रुग्णमद्रेर्महि पाथ: पूर्व्य सध्यक् क:

  अग्र नयत् सुपद्यक्षराणामच्छा रवं प्रथमा जानती गात् ।। ( ऋ3.31.4-6)

5. उच्छन्नुषस: सुदिना अरिप्रा उरु ज्योतिर्विविदुर्दीध्योना :

  गव्यं चिदूर्वमुशिजो वि वव्रुस्तेषाम्नु प्रदिवं संस्रुराप: ।। 7. 9०. 4

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इसी प्रकार 2.19.3में भी दिन, सूर्य और गौओंका वर्णन है--'उसने सूर्यको जन्म दिया, गौओंको पाया और रात्रिमेंसे दिनोंके प्रकाशको प्रकट किया ।'1 4.1.13में, यदि इसका दूसरा अर्थ न हो तो, उषाओं और गौओंको एक मानकर कहा गया है--'चट्टान जिनका बाड़ा है, दोग्घ्री  ( दोहन देनेवाली ), अपने ढकनेवाले कारागारमें चमकती हुई, उनकी पुकारका उत्तर देती हुई उषाओंको उन्होंने बाहर निकाला ।'2  परन्तु इस मन्त्रका यह अर्थ भी हो सकता है कि, हमारे पूर्वपितर अंगिराओं द्वारा, जिनका इससे पहले मन्त्रमें वर्णन हुआ है, पुकारी हुई उषाओंने उनके लिये गौओंको बाहर निकाला । फिर 6.17.5में हम देखते हैं कि उस बाड़ेका भेदन सूर्यके चमकनेका साधन हुआ है--'तूने सूर्य और उषाको चमकाया, दृढ़ स्थानोंको तोड़ते हुए; उस बड़ी और दृढ़ चट्टानको अपने स्थानसे हिला दिया, जिसने गौओंको घेर रखा था ।'3 अन्तमें 3.39 में हमें कहानीके रूपम दोनों अलंकारोंकी बिल्कुल एकात्मता मिलती है--'मर्त्योमें कोई भी हमारे इन पितरोंकी निन्दा करनेवाला नहीं है ( अथवा मैं इसे इस प्रकार कहूँ, कोई मानवीय शक्ति इनको बद्ध या अवरुद्ध करनेवाली नहीं ) जो हमारे पितर ( पणियोंकी ) गौओंके लिये लड़े हैं । बड़े-बड़े कामोंको करनेवाले और महिमाशाली इन्द्रने उनके लिये गौओंके दृढ़ बाड़ोको खोल दिया । तब अपने सखाओं नवग्वाओंके साथ एक सखा इन्द्रने अपने घुटनोंके बल गौओंको ढूढ़ते हुए, तब दस दशग्वाओंके साथ इन्द्रने अन्धकारमें रहते हुए असली सूर्यको ( अथवा मेरी व्याख्यामें, 'सत्य'के सूर्यको ) पा लिया । 3.39.4,|'4 यह स्थल पूर्ण रूपसे निर्णायक है । गौएँ पणियोंकी गौएँ हैं, जिनका पीछा करते हुए अगिरस् हाथों और घुटनोंके बल गुफामें घुसते हैं । पता लगानेवाले इन्द्र और अगिरस् हैं, जिन्हें दूसरे मन्त्रोंमें नवग्वा और 

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1.  अजनयत् सूर्य विदद् गा अक्तुनाह्यां वयुनानि साधत् ।। 2.193.3

2.  अस्माकमत्र पितरो मनुष्या अभिप्रसेदुॠॅतमारुषाणा:

   अश्मब्रजा: सुदूधा वव्रे अन्तख्दुस्त्रा आजन्नुषसो हवाना: ।।  4.1.13

3.  येभि: सूर्यमुषसं मन्दसानोऽवासयोम वृळहानि वर्द्रत् ।

   महामद्रिं परि गा इन्द्र सन्तं नुत्था अच्चुतं सदसस्परि स्यात् ।। 6.17.5

4.  नकिरेषां निन्दिता मर्त्येषु ये अस्माकं पितरो गोषु योधा:

   इन्द्र एषां दृंहिता माहिनायावानुद् गोत्राणि ससृजे दंसनावान् ।।

   सखा ह यत्र सखिभिनंवग्वैरभिज्ञ्वा सत्यभिर्गा अनुग्मन् ।

   सत्यं तदिन्द्रो दशभिर्दशग्वै: सूर्य विवेद तमसि क्षियन्तम् ।। 3.39.45

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दशग्वा कहा गया है । और वह वस्तु जो पर्वतकी गुफामें पणियोंके बाड़ेमें घुसनेपर मिलती है, पणियों द्वारा चुराई गयी कोई आर्योकी धनदौलत या भौतिक गौएँ नहीं, बल्कि 'सूर्य है, जो अन्धकारमें छिपा हुआ है' (सूर्य: तमसि क्षियन् ) ।

 

इसलिये इस स्थापनामें अब कोई प्रश्न शेष नहीं रहता कि वेद की गौएँ, पणियोंकी गौएँ, वे गौएँ जो चुरायी गयीं, जिनके लिये लड़ा गया, जिनका पीछा किया गया और जिन्हें फिरसे पा लिया गया, वे गौएँ जिनकी ऋषि कामना करते हैं, जो मन्त्र व यज्ञ के द्वारा और प्रज्वलित अग्नि और देवोंको बढ़ानेवाले छन्दों और देवोंको मस्त करनेवाले सोमके द्वारा जीती गयीं, प्रतीकरूप गौएँ हैं, वे 'प्रकाश' की गौएँ हैं । और वेदके 'गो', 'उस्रा', 'उस्रिया' आदि अन्य शब्दोंके आंतरिक भावके अनुसार वे चमकनेवाली, प्रकाशमान, सूर्यकी गौएँ  (किरणें ) हैं, उषाके चमकीले रूप हैं । अबतकके विवेचनके इस अपरिहार्य परिणामसे हम यह समझ सकते हैं कि वेदकी व्याख्याका रहस्यमय आधार जंगलियोंकी पूजाके स्थूल प्रकृति-वादसे कहीं अधिक ऊपर सुरक्षित है । वेद अपने-आपको प्रतीक-रूप वर्णनकी पवित्र, धार्मिक पुस्तकके रूपमें प्रकट करते हैं, जिसमें सूर्यकी पूजा या उषाकी पूजाका अथवा उस आन्तरिक ज्योति, सत्यके सूर्य (सत्यम् सूर्यम् ) का पावन आलंकारिक वर्णन है जो हमारे अज्ञानरूपी अन्धकारसे ढका हुआ है और जड़प्राकृतिक सत्ताकी अनन्त चट्टानके अन्दर--''अनन्ते अन्तरश्मनि'' ( 1.130.3 ) --उस दिव्य सुपर्ण, दिव्य हंसके शिशुके रूपमें छुपा हुआ है ।

 

यद्यपि इस अध्यायमें मैने अपने-आपको कुछ कठोरताके साथ इस विषयके प्रमाणों तक ही सीमित रखा है कि गौऐं उस सूर्यकी ज्योति हैं जो कि अन्धकारमें छिपा हुआ है; फिर भी 'सत्य' की ज्योति और ज्ञानके सूर्यके साथ उनका संबंध उद्धृत किये गये एक-दो मन्त्रोंमें स्वयं ही स्पष्ट हो गया है । हम देखेंगे कि यदि हम अलग-अलग मन्त्रोंको न लेकर आंगिरस सूक्तोंके सभी स्थलोंकी परीक्षा करें, तो जो संकेत हमने इस अध्यायमें पाया है, वह अधिकाधिक स्पष्ट और निश्चित रूपमें हमारे सामने आयेगा । परन्तु पहले हमें अगिर ऋषियों और गुहाके निवासी उन रहस्यपूर्ण पणियोंपर एक दृष्टि डाल लेनी चाहिये, जो अन्धकारके साथी हैं और जिनसे छीनकर ये अगिरस् ऋषि खोयी हुई चमकीली गौओंको और खोये हुए सूर्यको पुन: प्राप्त करते हैं ।

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