Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
मधुच्छन्दा की ऋचाएँ 1
ऋ. 1.1.1-5
अनुवाद और टिप्पणियाँ
अग्निमीळे पुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ।।1।।
ऋचा १ -ईळे, ईड् -स्तुति करना, याज्ञिक अर्थमें । किन्तु ' ईड्' के अंङ्गभूत धातु 'ई' का अर्थ है खोजना, किसी वस्तु की ओर जाना, प्राप्त करना, कामना करना, उपासना करना, प्रार्थना या याचना करना ( द्रष्टव्य--स भातरमन्नमैट्ट) । इनमें से पहले कुछ अर्थ लुप्त हो गए हैं और केवल "कामर्ना करना'', ''प्रार्थना या याचना करना' ', ये अर्थ ही पीछेकी संस्कृतमें बच रहे हैं । पर दूसरे अर्थ भी अवश्य रहे होंगे, क्योंकि इच्छा करने एवं याचना करनेका भाव किसी भी धातुका प्राथमिक अर्थ कभी नहीं होता, बल्कि वह ''जाना, खोजना, पहुँचना'' इन स्थूल अर्थोंसे लाक्षणिक रूपमें निकला अर्थ होता है । अत: हम 'ईडे'का अर्थ या तो ''खोज करता हू' '', '' कामना करता हूँ'', '' उपासना करता हूँ'' ऐसा कर सकते हैं या फिर ''प्रार्थना करता हूँ'' ।
पुरोहितम् । सायण- "पुरोहित'', या फिर ''आहवनीय अग्निके रूपमें यज्ञमें सम्मुख रखा हुआ अग्नि'' । वेदोक्त पुरोहित यज्ञमें एक प्रतिनिधिरूप शक्ति है जो चेतना और कर्मके सम्मुख स्थित रहकर यज्ञका परिचालन करती है । '' सम्मुख रखने" का जो विचार सूक्तोंमें इतने सामान्य रूपसे पाया जाता है उसका सदा यही भाव होता हैं । साधारणतया यह स्थान यज्ञके नेता अग्निका होता हैं ।
देवम् । सायण-दानादिगुणयुक्तम्, दान आदि गुणोंसे युक्त । 'देव' शब्दके साथ सायणका व्यवहार विचित्र हैं । कभी-कभी वे इसका अर्थ केवल ''देवता'' करते हैं, कभी वे इसे धात्वर्थके अनुसार दान, देवन ( प्रकाशित होना) आदि कुछ अर्थ प्रदान करते हैं, किन्हीं और स्थलोंमें वे इसका अर्थ
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1. पुरानी रचनाओंसे ।
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'पुरोहित' करते हैं । वेदमें ऐसा एक भी स्थल नहीं जहाँ इसका साधारण अर्थ ''देवता'' , ''दिव्य सत्ता'' एक स्पष्ट, पर्याप्त और सर्वोत्तम भाव न प्रदान करता हो । निःसन्देह, वैदिक कविंयोंने इसका धात्वनुसारी अर्थ कभी दृष्टिसे ओझल नहीं किया : देव दीप्यमान सत्ताएँ हैं, प्रकाशके अधिपति हैं, जैसे कि दस्यु अन्धकारमय या काली सत्ताएँ हैं, अन्धकार के पुत्र हैं ।
ऋत्विजम् । इसका बाह्म या कर्मकाण्डीय अर्थ है ''वह जो ठीक ऋतुमें यज्ञ करता है ।'' किन्तु, जैसा कि हम देखेंगे, बेदमें 'ऋतु'का अर्थ है सत्यका विधान, उसका व्यवस्थित नियम, काल एवं परिस्थिति । अग्नि वह प्रतिनिधिरूप पुरोहित है जो 'ऋत' के नियम, विधान तथा कालके अनुसार यज्ञ करता है ।
होतारम् । सायण-''क्योंकि वह मन्त्रका उच्चारण करता है'' और इस अर्थ की पुष्टिमें वे यह उद्धरण देते हैं 'अहं होता स्तौमि' (मैं 'होता' स्तुति करता हूँ), परन्तु कभी-कभी वे इसका अर्थ करते हैं 'आह्वता' (आह्वान करनेवाला) और कभी 'होमनिष्पादक:' (यज्ञका निष्पादन करनेवाला) और किन्हीं स्थलोंमें वे हमारे सामने दो विकल्प रख देते हैं । निःसन्देह, 'होता' हविसे संबद्ध पुरोहित है जो हवि देता है; यह शब्द 'हु आहुति देना' धातुसे बना है न कि 'हू (हे्व) बुलाना' इस धातुसे । सूक्त हविका सहचारी तत्त्व होता था, अतः आह्वान या स्तवन भी 'होता'के हिस्से में पड़ सकता था; किन्तु ऋग्वेदकी प्रणालीमें मन्त्रपाठीका वास्तविक नाम है ब्रह्मा । अग्नि होता (होतृ) है और बृहस्पति ब्रह्मा ।
रत्नधातमम् । सायण--यागफलरूपाणां रत्नानामतिशयेन धारयितारं पोषयितारं वा अर्थात् यज्ञके फलरूप रत्नोंके अत्यधिक धारक या पोषक । 'धा' धातुका अर्थ है धारण और पोषण करना (तुलनीय, धात्री अर्थात् दाई) । किन्तु अन्य स्थलोंमें सायण रत्नका अर्थ 'रमणीयं धनम्', 'रमणीय धन' करते हैं । इससे पता चलता है इसका शाब्दिक अर्थ उन्हेंने ''आनन्ददायक'' माना और फिर इसका अर्थ बना डाला 'धन', जैसे वे द्युम्नका शाब्दिक अर्थ करते हैं चमकीला और फिर इसका अनुवाद कर डालते हैं ''धन'' । हमें उनका अनुसरण करनेकी आवश्यकता नहीं । 'रत्नम्' का अर्थ है आनन्द (तुलनीय, रम्-रतिः, रण-रण्व, राध्, रञ्ज् इत्यादि), जिस प्रकार 'द्युम्नम्'का अर्थ है ''प्रकाश'' । धा का अर्थ है धारण करना या फिर स्थापित करना ।
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अनुवाद:
याज्ञिक
मैं यज्ञके पुरोहित अग्निकी1 स्तुति करता हूँ, देव2, ऋत्विक्, अत्यधिक धनको धारण करनेवाले होता की ।
आध्यात्मिक
मैं भगवत्सङ्कल्प-रूप अग्निको प्राप्त करनेकी अभीप्सा करता हूँ, उस पुरोहितको जो हमारे यज्ञके अग्रणीके रूपमें स्थापित है, दिव्य होताको जो सत्य के नियम-क्रमके अनुसार यश करता है और आनन्दका पूर्णतया विधान .करता है ।
अग्नि: पूर्वेभिर्ॠभिषिरीडयो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ।।2।।
ऋचा 2--ऋषिः, यह शब्द 'ऋष,' गति करना धातुसे बना है । इसका शाब्दिक अर्थ है ''खोज या अभीप्सा करनेवाला, प्राप्त करनेवाला'', अतएव ''जाननेवाला'' भी । इह देवान्--मर्त्य जीवन और मर्त्य सत्ताके अन्दर दिव्य शक्तियोंको । वक्षति==वह्+ स+हति । ऐसा प्रतीत होता है कि इस शब्द में 'स' प्रत्ययका अर्थ या तो 'पुनः-पुनः', 'निरन्तर' रहा है, ''वह निरन्तर या नित्य नियमसे वहन करता है'', या फिर इसका अर्थ रहा हैं ''अतिशय'', वह पूर्णतया वहन करता है, अथवा इच्छा-कामना, ''वह वहन करनेकी इच्छा करता या इरादा रखता है ।'' इस पिछले अर्थके कारण 'स' प्रत्ययका प्रयोग भविष्यकालके लिए भी होता है । तुलनीय, नी--नेष्यामि, ग्रीक-ल्युओ (luo, I loose, मैं ढीला छोड़ता हूँ), luso-ल्युसो, मैं ढीला छोडूंगा, और अंग्रेजीका प्रयोग 'I will go' भी तुलनीय है, जहाँ इच्छार्थक ''will'' (इच्छा करना, इरादा रखना) शब्द साधारण भविष्यका वाचक हो गया है ।
अनुवाद :
भगवत्सङ्कल्पाग्नि जैसे प्राचीन ऋषियोंके लिए वैसे ही नयोंके लिए भी स्पृहणीय है, क्योंकि वही यहाँ देवोंको लाता है ।
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1. या, अग्निकी जिसे सामने रखा हुआ है ।
2. या, दानशील ।
३३७
अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ।।3।।
ऋचा 3--अश्नवत् । सायण-प्राप्तोति । परन्तु 'अश्' धातुका यह विशेष रूप एक प्रकारका अर्द्ध-आज्ञार्थक भाव प्रदान करता है अथवा कार्यके नियम या घटनाके विधानका भाव द्योतित करता है । अतः इसका भावार्थ है ''वह अवश्य प्राप्त करेगा ।'' 'अश्' धातुके अर्थ हैं-उपलब्ध होना, रखना, प्राप्त करना, उपभोग करना । ग्रीक-एखो (echo) = I have, मैं रखता हूँ ।
यशसम् । सायण--दानादिना यशोयुक्तम्, दान आदिके कारण यशसे युक्त, अतएव ''प्रसिद्ध''; किन्तु ''प्रसिद्ध और मनुष्योंसे अतिशय पूर्ण धन''--कहनेका यह ढंग अनर्गल प्रतीत होता है । 'यश्' धातुका शाब्दिक अर्थ है--गति करना, प्रयास करना, प्राप्त करना । यहाँ यशस् का अर्थ है--सफलता, यश । 'यश्' धातुके एक और अर्थ ''चमकना''से 'यशस्'का अर्थ ''दीप्ति'' भी है । 'यश्' धातु अपने अर्थमें 'या', 'यत्', 'यस्' धातुओंसे संबद्ध हैं । वेदमें हमें 'रयि' (धन या आनन्द) का वर्णन प्रायः ''विस्तारशील, व्यापक, मार्गकी बाधाओंको चूर-चूर कर देनेवाला'' इन शब्दोंमें किया गया मिलता है । अतः 'यशसं रयिम्'का अर्थ ''सफलता प्राप्त करने-वाला आनन्द'' या ''विजय-शील ऐश्वर्य'' ऐसा करना अनुपयुक्त नहीं, न इसमें कोई जोर-जबरदस्ती ही है ।
वीरवत्तमम् । सायण--अतिशयेन पुत्रभृत्यादि-वीरपुरुषोपेतम्, पुत्र, भृत्य आदि वीर पुरुषोंसे अतिशय युक्त । 'वीर' शब्दको 'पुत्र'के अर्थ में लेना, जैसा कि सायण करते हैं, नितान्त अयुक्तियुक्त है । इसका अर्थ है ''मनुष्य, वीर पुरुष, नानाविध बल-सामर्थ्य'' और प्रायः ही यह 'नृ' शब्दके समानार्थकके रूपमें प्रयुक्त हुआ है । 'नृ' शब्दका प्रयोग ऋग्वेदमें भृत्योंके लिए कभी नहीं हुआ ।
रयिम् । यह शब्द दो प्रकारका है । एक 'रयि' शब्द 'रि गति करना' धातुसे बनता है और दूसरा 'रि प्राप्त करना, आनन्द लेना' इस धातुसे । इनमेंसे पिछलेका अर्थ है ''आनन्दोपभोग'' या ''उपभोगकी गई वस्तुएँ'', ''आनन्द, समृद्धि, ऐश्वर्य'' । पहले अर्थमें. 'रयि' शब्द उपनिषद्में मिलता है जहाँ 'रयि' (गति या जड़प्रकृति )को 'प्राण'के विपरीत तत्त्वके रूपमें प्रस्तुत किया गया है ।
३३८
अग्निके द्वारा मनुष्य धन प्राप्त करता है जो प्रतिदिन बढ्ता है, जो प्रसिद्ध और मनुष्योंसे अत्यधिक. पूर्ण होता है ।
भगवत्सङ्कल्पके द्वारा व्यक्ति एक ऐते आनन्दका उपभोग करेगा जो प्रतिदिन बढ्ता जायगा और जो विजयशील तथा वीरशक्तियोसे अतिशय पूर्ण होगा ।
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि ।
स इद् देवेषु गच्छति ।।4।।
ऋचा 4--ध्वरम् । सायण-हिंसारहितम्, क्योंकि वह राक्षसोंके द्वारा नष्ट नहीं किया जाता, निषेधार्थक अ+ध्यर ('ध्वृ' हिंसा करना) । किन्तु 'अध्वर' शब्द अकेला यज्ञके अर्थमें प्रयुक्त किया जाता है और यह बिल्कुल असंभव है कि ''हिंसारहित'' अर्थवाला शब्द अकेला प्रयोग किया हुआ यज्ञ का वाचक बन गया हो । इसे यज्ञके किसी मूलभूत गुणको अवश्य प्रकट करना चाहिए, नहीं तो यह इस प्रकार अकेला ही यज्ञके अर्थमें प्रयुक्त नहीं हो सकता था । यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि जब इस मन्त्रकी भाँति वर्णनीय विषय यह होता है कि यज्ञ अपने पथ पर देवोंकी ओर यात्रा या गति करता है तब 'अध्वर' शब्द यज्ञके लिए बराबर ही प्रयुक्त होता है । अतएव मैं 'अध्वर'को 'अध्' गति करना, इस धातुसे बना हुआ मानता हूँ और इसे मार्गवाचक 'अध्वन्' शब्दसे संबद्ध समझता हूँ । इसका अर्थ है गति या यात्रा करनेवाला यज्ञ, जो आत्मा या उसकी भेंटोंकी देवोंकी ओर तीर्थयात्रा समझा जाता है ।
हे अग्नि, वह अक्षत (अहिंसित) यज्ञ जिसे तुम सब ओरसे घेरे रहते हो-वही देवोंकी ओर जाता है ।
हे भगवत्ससंङकल्पाग्ने ! पथ पर यात्रा करनेवाले जिस भी यज्ञको तुम अपनी सत्तासे सब ओरसे व्यापे रहते हो वही निःसन्देह देवों तक पहुंचता है ।
३३९
अग्नि र्होता कविक्रतु : सत्यश्चित्रश्रवस्तम : ।
देवो देवेभिरागमत् ।।5।।
ऋचा 5-कविक्रतु: । सायणने यहाँ 'कवि' शब्दको 'क्रान्त' के अर्थमें लिया है और ' क्रतु' को ज्ञान या कर्मके अर्थमें । तब इसका अर्थ होता है वह पुरोहित ( 'होता') जिसका कर्म या ज्ञान गति करता है । परन्तु 'कवि' शब्दको उसके स्वाभाविक और अपरिवर्तनीय अर्थसे भिन्न किसी अर्थमें लेने- का तनिक भी कारण नहीं । 'कवि' का अर्थ है द्रष्टा, जिसे दिव्य या अति-मानसिक ज्ञान हो । ' क्रतु' शब्द 'कृ' धातुसे या, अधिक ठीक रूपमें, एक प्राचीन धातु ' क्र'से बना है जिसके अर्थ हैं विभक्त करना, बनाना, रूप देना, कार्य करना । '' विभक्त करना'' इस अर्थसे 'विवेकशील मन', सायणके अनुसार 'प्रज्ञा' अर्थ निकलता है; तुलनीय ग्रीक क्रिटोस अर्थात् न्यायाधीश इत्यादि, और तमिलके 'करुथि' शब्दका, जिसका अर्थ मन है, आशय भी यही है । किन्तु 'करना' इस अर्थसे 'क्रतु' शब्दका अभिप्राय होता है ( 1) कर्म ( 2) कर्मकी शक्ति, सामर्थ्य, तुलनीय ग्रीक क्रटोस, सामर्थ्य ( 3) मनका संकल्प या उसकी कार्यशक्ति । इस अन्तिम अर्थके लिए ईशोप-निषद्के 'क्रतो कृतं स्मर' इस वाक्यसे तुलना करो जिसमें 'क्रतो कृतम्' इन शब्दोंका सह-विन्यास यह दर्शाता है कि यहाँ मनकी वह शक्ति अभिप्रेत है जो कर्म या कार्यका परिचालन या निर्देशन करती है । अग्नि भागवत द्रष्ट्ट-संकल्प है जो पूर्ण अतिमानसिक ज्ञानके साथ कार्य करता है ।
सत्य: । इसपर सायणकी व्याख्या है ''अपने फलोंमें सच्चा'' । परन्तु ''द्रष्ट्ट-संकल्प'' और ''अन्त:श्रुत ज्ञान ( श्रव :)'' इन शब्दोंका सह-विन्यास, अधिक सही रूपनें, ''अपनी सत्तामें सच्चा'' और अतएव ''ज्ञान ( श्रव:) में एवं संकल्प (क्रतु) में सच्चा'' इस अर्थको ही सूचित करता है । श्रव: है अतिमानसिक ज्ञान जिसे ''ऋतम्'' कहते हैं और जो उपनिषदोंमें 'विज्ञान' के नाम से वर्णित है । 'कविक्रतु:'का अर्थ है उस ज्ञानसे परिपूर्ण संकल्पसे अर्थात् विज्ञानमय संकल्प या दिव्य 'ज्ञान'से सम्पन्न । 'सत्य:'का अर्थ है ''अपने सारतत्त्वमें विज्ञानमय'' ।
चित्रश्रवस्तम: । सायण--'अत्यन्त विविध प्रकारके यशसे युक्त' ,- यह देवताके लिए एक नीरस और निरर्थक विशेषण है । 'श्रव:' शब्द 'श्रुति' - की तरह अन्त: प्रेरित सूक्तको द्योतित करनेके लिए प्रयुक्त होता है; अत: अवश्य ही इसे 'अन्त:प्रेरित ज्ञान' इस अर्थको देनेमें समर्थ होना चाहिए । अतिमानसिक ज्ञान दो प्रकारका होता है, दृष्टि और श्रुति, अर्थात् सत्यका साक्षात्कार और अन्त:श्रवण । किन्तु 'श्रव:' शब्द सामान्यतया अतिमान- सिक क्षमताओंके द्वारा प्राप्त ज्ञानको सूचित करनेके लिए प्रयुक्त होता है ।
३४०
अग्नि जो पुरोहित है, जो तान (या कर्म) को गतिशील करता है, अपने फलमें सच्चा है, अत्यन्त विविध यशसे युक्त हैं, वह देवता देवताओंके साथ आये ।
आष्यात्मिक
भगवत्सङ्कल्पाग्नि जो हमारी हविका वाहक पुरोहित है, अपनी सत्तामें सच्चा और द्रष्टाके संकल्पसे युक्त है, अन्तःप्रेरित ज्ञानकी समृद्धतम विविधता-से संपन्न है,--ऐसा वह देव दिव्य शक्तियोंके साथ हमारे पास आये ।
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