Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
अग्नि-स्तुति
ऋग्वेद, प्रथम मण्डल
३७५
मधुभच्छन्दा वश्वामित्र:1
सूक्त 1
१
अग्निमीळे पुरोहित यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ।।
(अग्निम् ईळे) मैं दिव्यज्वालारूप अग्निदेवकी उपासना करता हूं जो (पुर:-हितम्) पुरोहित है, ( यज्ञस्य देवम् ऋत्विजम्) यज्ञका दिव्य ऋत्विक् है, (होतारम्) ऐसा आवाहक है जो (रत्नधातमम्) आनन्दैश्वर्यको अत्यधिक प्रतिष्ठित करता है ।
२
अग्नि: पूर्वेभिर्ऋषिभिरीडचो नूतनैरुत । स देवां एह वक्षति ।।
(पूर्वेभि ऋषिभि:) प्राचीन ऋषियों द्वारा (ईडय:) उपास्य वह (अग्नि:) अग्निदेव (नूतनै: उत) नवीन ऋषियों द्वारा भी (ईडच:) उपास्य है । (स:) वह (देवान्) देवोंको (इह) यहाँ (आ वक्षति) लाता है ।
३
अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव देवेदिवे । यशसं वीरवतत्तमम् ।।
(अग्निना) अग्निदेवके द्वारा मनुष्य (रयिम् अश्नवत्) उस ऐश्वर्यका उपभोग करता है जो (दिवे-दिवे पोषम् एव) निश्चय ही दिन-प्रतिदिन बढ्ता जाता है, (यशसम्) यशसे उज्जवल है और (वीरवत्तमम्) वीरशक्तिसे अतिशय पूर्ण है ।
४
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि । स इद् देवेषु गच्छति ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (यम् अध्वरं यज्ञं विश्वत:) जिस यात्रा-यज्ञके चारों ओर तू (परिभू: असि) अपनी सर्वतोव्यापी सत्तासे विद्यमान होता है, (स: इत्) वह यज्ञ सचमुच ही (देवेषु गच्छति) देवोंमें पहुंचता है ।
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1. श्रीअरविन्दकी कृति Hymns to the Mystic Fire (गुह्य अग्निके सूक्त)
के प्रथम मण्डलके सूक्तोंका अनुवाद । --अनुवादक
३७७
५
अग्निर्होता कविस्मृ: सत्यश्चित्रश्रर्वस्तम: । देवो देवेभिरा गमत् ।।
(अग्नि:) अग्निदेव (होता) आह्वान करनेवाला है, (कविक्रतु:) कान्त-दर्शी संकल्प है, (सत्य:) सत्यस्वरूप है और (चित्नश्रवस्तम:) समृद्ध रूपसे विविध अन्त:-श्रवणोंसे अतिशय सम्पन्न है । (देव:) वह देव (देवेभि:) देवोंके साथ (आ गमत्) आए ।
६
यदङ्ग: दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत् तत् सत्यमङ्गिरः ।।
(अङग अग्ने) हे अग्निदेव ! (दाशुषे) आत्मदान करनेंवालेके लिए (त्वम्) तू (यद् भद्रम्) जो कल्याणकारी भलाई (करिष्यसि) करेगा, (तत् तव सत्यम् इत् अङिगर:) वह है वह परम सत्य जो निश्चय ही तेरा सत्य है, [ तू उसे अपना परम सत्य ही प्राप्त करा देगा ] हे अंगिरा !
७
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्षिया वयम् । नमो भरन्त एमसि ।।
(अग्ने) हे अग्निदेव ! (वयं) हम (दिवे-दिवे) दिन-प्रतिदिन (दोषा-वस्त:) अंधकार और प्रकाशके समय (धिया) अपने विचारके द्वारा (नम: भरन्त:) नमस्कारको वहन करते हुए (त्वा उप आ इमसि) तेरे निकट आते हैं ।
८
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदियिB । वर्धमान स्वे दमे ।।
(अध्वराणां राजन्तम्) यात्नारूप यज्ञोंके शासक, (ऋतस्य दीदिविं गोपाम्) सत्यके देदीप्यमान संरक्षक, (स्वे दमे वर्धमानंम्) अपने घरमें वर्ध-मान [ त्वा उप आ इमसि ] तुझ अग्निदेवके निकट हम आते हैं ।
९
स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ।।
(स:) ऐसा तू, [ इसलिए तू ] (अग्ने) हे अग्निदेव ! (नः) हमारे लिए (सूनवे पिता इव) पुत्रके लिए पिताकी तरह (सु-उपायन: भव) सुगमतासे प्राप्त होनेवाला बन । (स्वस्तये) हमारी सुखपूर्ण स्थितिके लिए तू (न: सचस्व) हमारे साथ दृढ़तासे जुड़ा रह ।
३८८
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