Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns.
Essays on the Rig Veda and its mystic symbolism, with translations of selected hymns. These writings on and translations of the Rig Veda were published in the monthly review Arya between 1914 and 1920. Most of them appeared there under three headings: The Secret of the Veda, 'Selected Hymns' and 'Hymns of the Atris'. Other translations that did not appear under any of these headings make up the final part of the volume.
सातवाँ सूक्त
ऋ. 5.68
महान् शक्तिके अधिपति
[ मित्र और वरुण सत्यकी महान् क्षात्रशक्तिको धारण किये हुए हैं, अतः वे हमें उस सत्यकी विशालता तक ले जाते हैं । उसी शक्तिसे वे सम्राट् के समान सबपर शासन करते हैं । वे सत्यकी निर्मलताओंसे संपन्न हैं और उनकी शक्तियां सब देवोमें प्रकट होती हैं । इसलिए मित्र और वरुणको इन देवोंमें अपनी शक्ति स्थापित करनी चाहिये ताकि मानव परम आनन्दको और द्यावापृथिवीमें निहित सत्यकी संपदाको अधिकृत कर सके । वे सत्यके द्वारा सत्यको प्राप्त करते हैं; क्योंकि वे सत्यके उस प्रेरणापूर्ण विवेकको रखते हैं जो ज्ञान तक सीधा जाता है । इसलिये अज्ञानके अनिष्टोंमें गिरे बिना वे दिव्य भावसे वर्धित होते हैं । उस शक्तिशाली प्रेरणाके अधिपति होते हुए वे मर्त्यपर ज्योतिर्मय वर्षाके रूपमें द्युलोकोंको उतारते हैं और विशालताको अपने एक गृहके रूपमें अधिकृत कर लेते हैं । ]
१
प्र वो मित्राय गायत वरुणाय विपा गिरा ।
महिक्षत्रावृतं बृहत् ।।
(व:) तुम सब (मित्राय वरुणाय) मित्र और वश्णके प्रति (गिरा) उस वाणीसे (प्र गायत) स्तुतिगीत गाओ जो (विपा) प्रकाश देती है; क्योंकि (महिक्षत्रौ) वे उस महान् शक्तिसे संपन्न है और (ऋतं बृहत्) सत्य और बृहत् उनका ही है ।
२
सम्राजा या घृतयोनी मित्रश्चोभा वरुणश्च ।
देवा देवेषु प्रशस्ता ।।
(उभा) वे, हां वे दोनों, (मित्र: च वरुण: च) मित्र और वरुण (सम्राजा) सर्वशासक हैं, (घृतयोनी) निर्मलताके गृह हैं । वे (देवा) ऐसे देव हैं (या) जो (देवेषु प्रशस्ता) देवोंके अन्दर स्तुतिवचन द्रारा प्रकट किये गए हैं ।
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३
ता नः शक्तं पार्थिवस्य महो रायो दिव्यस्य ।
महि वां क्षत्रं देवेषु ।।
इसलिये (ता) ऐसे तुम दोनों (नः) हमें (दिव्यस्य पार्थिवस्य) द्युलोक और पृथ्वीलोकके (मह: राय:) महान् आनंद1-ऐश्वर्य प्राप्त करानेके लिए (शक्तम्) अपनी शक्ति लगाओ । क्योंकि (देवेषु) देवोंमें (वां क्षत्रं महि) तुम्हारी शक्ति महान् है ।
४
ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते ।
अद्रुहा देवौ वर्धेते ।।
(ऋतेन) सत्यके द्वारा तुम (ऋतं) सत्यके ज्ञानको (सपन्त) प्राप्त करते हो । तुम (इषिरं दक्षम्) प्रेरक-शक्ति2के विवेकको (आशाते) धारण किए हुए हो । (देवौ) हे देवो ! (अद्रुहा वर्धेते) तुम दोनों बढ़ते हो और कभी हिंसित नहीं होते ।
५
वृष्टिद्यावा रीत्याषेषस्पती दानुमत्या: ।
बृहन्तं गर्तमाशाते ।।
(वृष्टि-द्यावा) द्युलोकको वर्षामें परिणत करते हुए, (रीति-आपा) प्रवाहशील गतिके विजेता (दानुमत्या: इषः पतीं) इस शक्तिपूर्ण प्रेरणाके स्वामी तुम (बृहन्तं गर्तम् आशाते) विशाल गृहको अधिकारमें कर लेते हो ।
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1. विशाल सत्यचेतनाका वह आनंद या सुखद संपदा जो न केवल हमारी
चेतनाके उच्चतर मानसिक स्तरोंमें अपितु हमारी भौतिक सत्तामें भी
आविर्भू हैं ।
2. सीधी-सरल प्रेरणा जिसे देव धारण किये हुए हैं । मनुष्य अज्ञानसे सत्य-
की ओर अज्ञान ही के सहारे गति करता हुआ एक वक्रिल और डांवा-
डोल गतिका अनुसरण करता है । उसका विवक असत्यके कारण विक्षुब्ध
हो जाता है और वह अपने विकासमें निरन्तर ठोकरें लाता हुआ पाप
और तापमें जा गिरता है । अपने अन्तरमें देवोंके संवर्धन द्वारा वह
बिना ठोकर खाए, बिना दु:ख-पीड़ाके सत्यसे अधिक विशाल सत्यकी
ओर सीधे और हर्षोल्लासके साथ गति करनेमें समर्थ होता है ।n
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